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काचार-संग्रह
सागर श्रेष्ठी कुल उपनी ए, नरेसुआ, पुत्री नामे श्री नाम |
रूप कला लावण्य घणु ए, नरेसुआ, यौवन देखो गुण ग्राम ||६७ श्रीधर श्रेष्ठी ते वरी ए, नरेसुआ, सुख पामी संसार ।
तप कर स्त्रीलिंग छेदीयो ए, नरेसुआ, स्वर्गे लीयो अवतार ॥६८
दोहा
निश्चल नियम जे आचरें, निशा आहार - परित्याग । संसार सुख ते अनुभवि, पामें शिवपुर भाग ॥१ सूर्य साखे भोजन करो, दिन प्रति एक वे पार । अरता-फिरता खाइए नहीं, उत्तम नहीं आचार ॥२ समकित - सहित सदा धरो, उत्तम मूलगुण अष्ट । विसन भय शल्य गारव त्यजी, दर्शनप्रतिमा अभोष्ट ||३ दर्शनप्रतिमा इणि परे, वर्णवी गुण बहुधार । व्रतप्रतिमां बीजी सुणो, संक्षेप कहुं सुविचार ||४
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अथ ढाल गुणराजनी
सांभलो ए व्रत शुभ वार, पंच अणु व्रत पालीए, गुणव्रत त्रण प्रकार । चार शिक्षा व्रत संग्भलो ए, सांभलो एन्त शुभ वार ॥१ अहिंसा ए पहिलो अणुव्रत, सत्य व्रत बीजो सही ए । अचौर्यं ब्रह्मचर्य, संग-संख्या पांचमो कही ए ॥ २ थावर ए पंच प्रकार यत्न सहित विराधक ए ।
गृहस्थ ए श्रावक सार, अणु व्रत आराधक ए ॥ ३ सघात ए बहु घात जेह प्रमाद विषय सहु परिहरो ए । बेन्द्री तेइन्द्री चौइन्द्री जीव, पंचेन्द्री रक्षा करो ए ॥४ कृमिकीट ए अलसी ए जुल, संख सीपी नां बेइन्द्री ए । कड़ी कुन्थु ए जुआ की देह, माकण आदि ईन्द्री ए ॥५ देश मशक ए माखी पतंग भमर आदि चौइन्द्री ए । नरक पशु ए माणस देव पंच इन्द्री ए त्रस जीव ए ॥६ इणि परे ए उ लखी त्रस, मन वच काय रक्षा करो ए । कृत कारित ए अनि अनुमोद, नव भेदे यत्न धरो ए ॥७ खंडण ए पीसणी चुल्लि, जलकुम्भी प्रमार्जणी ए । गृही कर्म ए पंच ए सूना, छहुं इ द्रव्य उपार्जनी ए ॥८ पीसण ए करीय पवित्र, सुल्या अन्न सोधन करो ए । जन सहित ए कीजे चूर्ण, वासी जंत्र न फेरीइ ए ॥९ जोइ पुजीइ ए कजिए जन्न, उखले खण्डण कीजिइ ए । सुल्या डुल्या ए हुए जे अन्न, तस घाय नवि दीजिए ||१० saण छांणा जेह जीव सोधि तावड़े धरीइ ए । जीव-जयणा ए कीजे, पाक संधुक्षण जतनें करीइ ए ॥११ व्यापार ए कीजे तेह, जेह थी हिंसा न उपजे ए । rat ए सत्य - साहित, विन्हे आरंभ न नोपजे ए ॥१२
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