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________________ किशनसिंह-कृत क्रियाकोष १५५ पूर्वाह्निक मध्याह्न पुनि, अपराह्निक तिहुं काल । बिनु आगम पढ़िये नहीं, कालाध्ययन विसाल ||७९ सरस गरिष्ठ अहार को, तज करि आगम पाठ । गुण उपथान समृद्ध इह, महा पुण्य को पाठ ॥८० प्रथम पूज्य श्रुत भक्ति युत, पढ़ि है आगम सार । सुखकर जानो नाम तसु, प्रगट विनय आचार ॥८१ गुरु पाठक श्रुत भक्ति युत, पठत बिना संदेह । गुर्वोद्यत पह्नव प्रगट सत्यनाम सुसंदेह ।।८२ पूजा आसन मान बहु, चित धरि भक्ति प्रसिद्ध । श्रुत अभ्यास सुकीजिये, सो बहु मान समृद्ध ।।८३ इति अष्ट प्रकार ज्ञान को आराधन संपूर्ण । अथ पंच महाव्रत तीन गुप्त पाँच सुमिति ये तेरह विध चारित्र का वर्णन | अडिल्ल वरत अहिंसा अनुत अचौर्यं तीसरो, ब्रह्मचर्य व्रत पंचम आकिंचन खरी। वच तन तिहं गुपति पंच समिति जुसहो, ए साधन आराधन तेरा विधि कही।।८४ अनसन आमोदर्य वस्त संख्या गनी. रम परित्यागी रं विविक्त शय्यासन भनी। काय क्लेश मिलि छह तर बाहिज के भये, षट् प्रकार अभ्यन्तर आगम वरणये ॥८५ प्रायश्चित्त अरु विनय वैयावृत जानिये, स्वाध्याय रु व्युत्सर्ग ध्यान परमाणिये। मिलि बाहिज अभ्यन्तर बारा विधि लिखी, तप आराधन एह जिनागम में अखी ॥८६ दोहा दरसन ज्ञान चारित्र तप, आराधन व्यवहार । अंति समय भावे व्रतो, सुर-सुख शिव-दातार ।।८७ इति तप १२ चारित्र १३ संपूर्ण ॥ व्यवहार आराधना संपूर्ण ॥ निश्चय आराधना लिख्यते । दोहा अब निश्चय आराधना, वरणौ चार प्रकार । आराधक शिव पद लहै, यामें फेर न सार ॥८८ __ सर्वया ॥ ३१ आतम के ज्ञान करि अष्ट महागुण धर, दरशन ज्ञान सुख बोरज अनन्त है। निश्चय नयेन आठ करमनि सो विमुक्त ऐसो आत्मा को जानि कहिये महंत है। ताहि सुधी चेन उपरि श्रद्धा रुचि परतीत चित अचल करत जे वे सन्त हैं। निश्चय आराधना कही है दरशन याहि भावै अन्त ममय मुकेवल लहंत है ।।८९ निज भेद ज्ञान कारि शुद्धातम तत्त्वनिकों चेतन अचेतन स्वकीय परमाणी है। सप्त तत्त्व नव पदारथ षट् द्रव्य पंचासति काय उत्तर प्रकृति मूल जानी है। इनको विचार बारबार चित अवधार ज्ञानवान मुध चेतना को उरि आनि है। संन्यास समये अन्तकाल-ऐसे भाई ऐतो निश्चय आरावना सुबोध यों बखान है ॥२० पुनः प्रथमहि अठाईस मूलगुण धार पंच प्रकार निरग्रन्थ गुण हिय धारिये । सताईस पंच इन्द्रिन के विषयोंको त्याग बाहिज अभ्यन्तर परिग्रहको टारिये ॥ संकल्प विकल्प मनते सकल तजि आत्मीक ध्यानते शुद्धात्मा यों धारिये। पर करमादि सेती जुदो यासो कर्म जुदो निश्चय चारित्र यों आराधना विचारिये ९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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