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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
१३१ कपड़ो मीठो अरुधान, लावे बेचें ले आन । तिनको हासिल नहिं देई, नप आज्ञा एम हनेई ॥१
जो कहं नरपति सुन पावै, तिहि बांध बेग मंगवावे।
घर लूट लेई सब ताको, फल इह आज्ञा हणिबाको ॥२ गज हाथ पंसेरी बाट, जाणो इह मान निराट । चौपाई पाई देवाणी, सोई माणी परमाणी ॥३
इनको लखिये उन मान, तुलिहै मपि है बहु वान ।
ओछो दे अधिको लेई, अपनो शुभ ताको देई ॥४ उपजावै बहुते पाप, दुरगति में लहै संताप । केसर कस्तूरी कपूर, नानाविधि अवर जकूर ॥५
घृत हींग लूण बहुंगाज, तंदुल गुड़ खांड समाज ।
इन मांहों भेल कराही, हियरे अति लोभ धराहीं ॥६ कपड़ो बहु मोलो लावै, कोऊ कहे आण गहावै । ताके बदले धरि वैसो, अगिला रंग होवे जेसो ॥७
व्रत दान अदत्ता कीजै, पण अतिचार ए लीजे। तातें सुनिये भवि प्राणी, दुरगति दुखदायक जाणी ।।८ तजिए इनको अब वेग, भवि जीवनि को इह नेग। त्यागे सुघरे इहलोक, परभव सुख पावै थोक ॥९
अथ ब्रह्मचर्य अणुवत कथन । चौपाई नारि पराई को सर्वथा, त्याग करै मन वच क्रम यथा। निज बयतें लघु देखे ताहि, पुत्री सम सो गिनिए जाहि ॥१० आप बराबर जोबन धरै, निज भगिनी सम लख परिहरे । आप थकी वय अधिकी होय, ताहि मात सम जाण हि जोय ॥११ इम परतिय को गनिहे भव्य, सो सुख सुर-नर के लहि सर्व । निज बनिता माहिं संतोष, करिये इस विध सुणि शुभ कोष ॥१२ आप व्रती तियको व्रत जब, दोऊ दिन सील गहे बध तबे। आठे चौदस परवी पांच, शील व्रत पाले मन साँच ॥१३ भादों मास अठाई पर्व, महा पूज्य दिन लखिये सर्व । ब्रह्मचर्य पाले इन माहि, सुर सुख लहियत संशय नाहिं ।।१४
अथ शीलको नव वाड़ि प्रारम्भः । चौपाई पुनि व्रत घर इतनी विधि धरे, ताहि शीलवत त्रिविध सु परे । जेहि वनिता को जूथ महन्त, तहां वास नहिं करिये संत ॥१५ रुचि धर प्रेम न निरखे त्रिया, ताको सफल जनम अरु जिया। पड़दा के अन्दर तिय ताहि, मधुर वचन भाषे नहिं जाहि ॥१६ पूरब भोग केलि की जीत, तिनहिं न याद करे शुभ मीत । लेइ नहीं हार गरिष्ठ, तुरत शील को करे जु भ्रष्ट ॥१७ कर शुचितन शृंगार बनाय, किये शीलको दोष लगाय। जिह पलंग में सोवै नार, सो सेज्या तज बुध व्रतधार ॥१८ मनमथ कथा होय जिहि थान, तहं क्षण रहै नहीं मतिमान । निज मुखते कबहूँ नहिं कहै, ब्रह्मचर्य व्रत को जो गहै ॥१९
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