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श्रावकाचार-संग्रह उपासक यतिनाथ, कर्म वसि व्रतथी चल्यो ए। स हि न निज राखे धर्म अस्थिति करण मल ठवि ए ॥३९ यती व्रती साधर्मी, वात्सल्ल भक्ति ते न वि करे ए। न वि करे प्रीति उपगार, अवात्सल्ल दूषण वरि ए॥४० जिन प्रासादमा प्रतिमा, प्रतिष्ठा अतिशय लोपीय ए। शासन महिमा करे हानि, अप्रभावना दोष रोपी ए ॥४१ ए इणी परे आठे दोष, मल उ लखी जो परिहरि ए। तो होय उत्तम अंग, निःशंकादि अष्ट गुण धरि ए॥४२ अंग-विहूणो दर्शन, निज काज असमर्थ कही ए। अक्षर-हीन जिम मंत्र, विष वेदना टाले नहीं ए॥४३ राज-अंगे जिस भूप, सबल पणे वैरी ने जीति ए। तिम अंग-संगे सबल, दर्शन कुकर्म क्षेपीइ ए ॥४४ जिम तिम करी भव्य जत्न, दोष पंचवीस दूरे करो ए। अंग गुण अष्ट समृद्ध, निर्मल समकित अनुसरो ए ॥४५ शंकाकारी सात भय, दुखदाई शल्य अणि ए। कपट माया मिथ्यात, निदान शल्य त्यजी जन ए॥४६ एह लोक भय परलोक, अत्राण अगुप्ति कही ए।
आकस्मिक भय रोग, मरण.भय सातमो सही ए॥४७ संवेग निर्वेद निन्दा, गर्हा, उपशम भक्ति ए । वात्सल्य अनुकम्पा, अष्ट गुणे रुचि उत्पत्ति ए ॥४८ धर्म अधर्म तणा फल, प्रीति रुचि संवेग गुण ए। संसार-भोग एह अंग, वैराग्य निर्वेद पुण ए ॥४९
प्रमाद पणे करी काज, निन्दा करे ते आपणी ए।
देव गुरु शास्त्र भक्ति करि, उच्छाह भावना जोड़ी ए ॥५० साधर्मी वाच्छल्ल, स्नेह धरे गो-वच्छ परि ए । दया करे परिणाम, अष्ट गुणें दृष्टि वरी ए ॥५१
अष्ट अंग संवेग, सम्यग्दृष्टी जीव लक्षण ए। समकित तणां एह मूल, जिम तिम करो एह रक्षण ए ॥५२ समकित सर्व प्रधान, जिम तारा मांहें चन्द्रमा ए। पसुअ माहे जिम सिंघ, देव माहे जिम इन्द्र तो ए ॥५३ तरु माहे जिम कल्प वृक्ष, रत्न माहे जिम चिन्तामणी ए। रस माहे जिम अमृत, धर्म माहे समकित रल ए ॥५४
वस्तु छन्द धरो दर्शन घरो दर्शन, मवि जिन भावे करी। मद शंका दोष वेगलो, मूढ अनायतननि जु कसमला, अष्ट अंगे करी दृढ पणे, संवेग गुणें करी ऊजला । अनुदिन जि जन अनुसरे, अंगे धरि अति उल्हास, जिन सेवक पदमो कहे, ते लहे अविचल वास ॥५५
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