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जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराजविरचितया प्रकाशिकाख्यया व्याख्यया समलङ्घन
हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम्
॥ श्री-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रम् ॥
(दिनीयो भागः)
नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि
पण्डितपुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः
प्रकाशकः
पालनपुरनिवामि-प्रेष्ठित्रीलक्ष्मीचंदभाई जसकरणभाई
___प्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन अ० भा० श्वे० स्था० जनशास्त्रोद्वारसमितिप्रमुखाष्टिश्रीशान्तिलाल मगलदासभाई-महोदयः
मु० अहमदाबाद-१.
प्रथम-आवृत्ति.
प्रति १२००
वीर-संवत्,
२५०३
विक्रम संवत्
२०३४
ईसवीसन्
१९७७
मूल्यम्-रू०३५-००
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મળવાનું ઠેકાણું : શ્રી અ, ભા, શ્વે, સ્થાનકવાસી
જેનશાદ્ધાર સમિતિ, है. छीपापण, અમદાવાદ-૧,
Published by: Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Ghhipa pole, AHMEDABAD-1.
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः। उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालोद्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥१॥
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हरिगीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये। जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा। है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥
भूख्यः ३. ३५-००
પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત ૨૫૦૩ વિક્રમ સંવત ૨૦૭૪ ઇસવીસન ૧૯૭૭
મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ઘીકાંટા રોડ, અમદાવાદ.
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दीप प्रज्ञप्तिसूत्र भा. दसरे की विषयानुक्रमणिका अनुक्रमाक विषय
पृष्ठाङ्क चौ वक्षस्कार क्षुल्लहिमवन्धर्षयरपर्वत का वर्णन रुद्रदिमवान के शिखर के ऊपर वर्तमान पनहद का निरूपण ८-१७ क्षुद्रहिमवान की भूमि में वर्तमान भवनादिका वर्णन
१८-३६ गार सिन्धु महानदी का निरूपण
२६-५३ गद्गादिमहानदी का निर्गमादि का निरूपण
५४-५९ रोहितंसा महानदी के प्रपातादिका निरूपण
६०-६३ शुद्राहिमवत्पर्वत के ऊपर वर्तमानकृष्ट का निरूपण
६३-८१ क्षुद्रहिमान् वर्षधरपर्वन से विभक्त हैमवक्षेत्र का वर्णन
८१-८५ क्षेत्रविभाजक पर्वत का निरूपण
८६-९३ हैमवत चर्प के नामादि का निरूपण
९३-९५ उनर दिशा के सीमापारी वर्षधर पति का निरूपण
९५-१०० महापमहृदपर्वत का निरूपण
१०१-११७ हिमवत्वपंधरपर्वत के ऊपर स्थित कूट का निरूपण ११७-१२० हरिवप क्षेत्र का निरूपण
१२१-१२९ निपधनाम के वर्षधरपर्वत का निरूपण
१३०-१३७ तिगिच्छहृद के दक्षिण में बहनेवाली नदी का वर्णन १३८-१५४ महाविदेह वर्ष का निरूपण
१५४-१६५ १८ गंधमादन वक्षन्कार पर्वत का निरूपण
१६१-१७६ १९:. उत्तर कुर का निरूपण
१७६-१९३ यमका राजधानीयां का वर्णन
१९४-२४६ २१ नीलवन्तादि हद का वर्णन
२४७-२५३ २२ सुदर्शन जम्बू का वर्णन
२५४-२८९
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333 383
४३
४४
४
उत्तर कुरु नामादि का निरूपण
हरिस्सह कूट का निरूपण
विभाग के क्रम से कच्छादिविजय का निरूपण
चित्रकूट वक्षस्कार का निरूपण
दूसरा सुकच्छविजय का निरूपण
दूसरा विदेह विभाग का निरूपण
सौमनस गजदन्त पर्वत का निरूपण चित्रविचित्रादिकूटों का निरूपण कूटशाल्मलीपीठ का निरूपण
चौथा विद्युत्प्रभ नामके वक्षस्कार का निरूपण
महाविदेह वर्ष के दक्षिण पश्चिम में तीसरे विभाग के
अन्तत विजयादि का निरूपण
मेरुपर्वत का वर्णन
नन्दनवन का वर्णन
सीवन का वर्णन
पण्डकचन का वर्णन
पण्डवन में स्थित अभिषेक शिलाका वर्णन
मन्दरपर्वत के कांड (विभाग) संख्या का कथन
समय प्रसिद्ध मंदरपर्व के सोलह नामका कथन
नीलम के वर्षधर पर्वत का निरूपण
रम्यक नामके वर्ष - क्षेत्र का निरूपण
पांचवां वक्षस्कार
जिनजन्माभिषेक का वर्णन
ऊर्ध्वलोक निवासिनी महत्तरिका दिशाकुमारीका अवसर प्राप्त कर्तव्य का निरूपण
२८९-३०० ३००-३०९
३०९ - ३४०
३४०-३४७
३४७-३७८
३७८-३८८
३८८-३९८
३९८-४००
४०१-४०४
४०४-४११
४१३-४२३
४२३-४५०
४५०-४६६
४६६-४७०
४७१-४९३
४७१-४९३
४९३-४९९
४९९-५०६
५०७-५१७
५१७-५४२
५४२-५६८
५६८-५७९
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५७९-६०३
पूर्वदिशा के रुचकपर्वतस्थित देवियों का अवसर प्राप्त कर्तव्य का निरूपण अवसर प्राप्त इन्द्रकृत्य का निरूपण शक्र की आज्ञानुसार पालक देव के द्वारा की गई विकुर्वणादि का निरूपण यानादि का निष्पत्ति के पश्चात् शक्र के कर्तव्य का निरूपण ईशानेन्द्र का अवसर प्राप्तकार्य का निरूपण भवनवासी चमरेन्द्रादि का वर्णन अच्युतेन्द्र द्वारा की गई अभिषेक समग्री संग्रह का वर्णन अच्युतेन्द्रकृत तीर्थकगभिषेक का निरूपण अभिषेक कथनपूर्वक आशीर्वचन का कथन शक्र कृतकृत्य होकर भगवान के जन्मनगरप्रतिप्रयाण का कथन
छहा वक्षस्कार जम्बूद्वीप के चरम प्रदश का निरूपण दश द्वारों से प्रतिपाद्य विषय का कथन
६३२-६४२ ६४२-६६३ ६६४-६७३ ६७३-६८५ ६८५-६९५ ६९५-७२० ७२१-७२६
७२६-८४८
५५ ५६
७४९-७५४ ७५५-७९२
समाप्त.
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પાલણપુર નિવાસી શ્રી લક્ષ્મીચંદભાઈ જસકરણભાઈ જરીનું જીવનચરિત્ર
પાલણપુરમાં જન્મેલા અને આજીવન સુધી પાલણપુરમાં રહેલા સંતસાધુઓ અને મહાસતીજીની સેવાઓમાં સમય આપી રહેલા હતા સ્થાનકવાસી જૈન ધર્મના ચુસ્ત પાલક અને સાધમી ભાઈ-બહેનની સેવા કરતા હતા. તેઓ અમદાવાદના જાણીતા વકીલ અને પૂજ્ય મહાત્મા ગાંધીજીના સાથીદાર કાળીદાસભાઈ જસકરણભાઈ જરીના નાનાભાઈ થતા હતા, પાલણપુરમાં સ્થાનકવાસી સમાજના સ્થંભ હતા.
આ પુસ્તક ઘણી જ ધર્મભાવનાવાળું છે અને તેથી જ અમારા પિતાજી લમીચંદભાઈ જસકરણભાઈ જેરી ત્થા અમારા ભાઈ કીરતીલાલ ઉમીચંદભાઈ જવેરીની યાદી જળવાઈ રહે તેવી ભાવનાથી અમો આ પુસ્તક છપાવવા માટે દાન આપી અમારી જાતને અમે ભાગ્યશાળી સમજીએ છીએ,
હી.
લક્ષ્મીચંદભાઈ જસકરણભાઈ જરીની સુપુત્રી બેન મંજુલાબેન
અને બહેને
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आद्यमुरन्वीश्रीओ
શ્રીમાન રોડ મણીલાલ પોપટલાલ વારા અમદાવાદ, જમ્મુના ૧૦-૬-૧૯07
શ્રી વ્રજલાલ દુર્લભજીભાઈ પારેખ રાજકોટ.
રોશ્રી મણીલાલ જેભાઇ પાલનપુરવાળા
श्रीमान शेट लालाजी कपुरन्द्रजी नाटा, मु. देहली
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કારી હુગેાવિદ જેચદ્રભાઈ રાજકાય.
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શ્રીમાન્ લાલાજી પન્નાલલજી નાટ સપરિવાર–દિલ્લી
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श्रीमान् शेठ धनराजजी पन्नालालजी श्रीमान् शेठ कानुगा धिंगडमलजी-अमदावाद जांगडा, मु. जालना (महाराष्ट्र)
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शेठ श्री मिश्रीलालजो लालचंदजी सा. लुणिया : प्रभुसमा भूमा तथा शेठश्री जेवंतराजजी-अमदावाद
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स्व. श्रीमान् शेठश्री मुकनवंदजीसा०'
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म्व. शेठ श्री नागचंदजी माहेब गेलडा
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मोटी नीमनलालजी मारामनंदजी
अजानवाले सपरिवार
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पच्चे बेठेला-मोटामाट श्रीमान् मूलचंदजी
जवाहीरलालजी बरडिया पाजुमा बैठेला-भाई मिश्रीलालजी बरडिया
उभेला-भाई पूनमचंदजी बरडिया
श्रीमान् शेठश्री खींवराजजी सा. चोरडिया
मु० मद्रास
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(સ્વ) શેઠશ્રી ધારશીભાઈ જીવણલાલ
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વ. શેઠશ્રી જીવરાજભાઈ મૂલચંદભાઈ
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श्री बीतगगाय नमः श्रीजनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल महाराज विरचितया
प्रकाशिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् ॥श्री-जम्बूद्वीपखूनम् ॥
(छिनीयो भागः)
अथ चतुर्थवनस्कार:मृलम्-कहि णं संते ! जंबहीवे दीवे चुल्लाहिमवए णामं वालहरपवर एण्णत्ते ?, गोयमा! हमवयस्स बासस्स दाहिणेणं भरहवासस्से उत्तरेण पुरथिम लवणसमुहस्त पञ्चस्थिमेणं पञ्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जंबुढीवे दीवे चुल्लहिमवंते णामं वासहरपव्वए पपणने, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविस्थिपणे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीग पञ्चस्थिसिल्लं लवणसमुह पुढे एग जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं पणवीसं जोयणाई उठवेगं एगं जोवणसहस्सं वावण्णं च जोयणाई दुवालस व पगणवीसइभाए जोयणस्स विकावंभेणंति । तस्स वाहा पुरस्थिमपञ्चस्थिमेगं पंच जोयणसहस्साई तिपिण य पण्णासे जोयणसए पण्णरस व पगूणवीसइभाए जोयणस्ल अद्धमागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं, पाईणपडिणायया जाब पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुटा, चउम्धीसं जोयणसहस्साई णव य बत्तीसे जोयणसए अद्धभागं च किंचि विसेसूणा आयामेणं पण्णत्ता, तीसे धणुपुट्टे दाहिणेणं पणवीसं जोयणसहस्साई दोषिणय तीसे जोयणसए चत्तारि य एगूणवीसइमाए जोयणस्त परिक्खेवेणं पण्णत्ते रुयगसंठाणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे सण्हे तहेव जाव पडिरूवे उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते दुण्ह वि पमाणं
ज०१
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पतिसूत्रे
वष्णगोत्ति | चुल्लहिमवतस्स वासहरपव्वयस्त उचरिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णन्ते से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जात्र बहवे वाण. मंतरा देवाय देवीओ य आसयति जाव विहरति । सू० १||
छाया - क्ा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे क्षुद्र हिमवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः 2, ita ! Rare वर्पस्य दक्षिणे भरतस्य वर्षस्य उत्तरे पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पाश्चात्ये पाश्चात्यलवण समुद्रस्य पौरस्त्ये अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे क्षुद्र हिमवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, प्राचीन प्रतीचीनाऽऽयतः उदोचीन दक्षिण विस्तीर्णः द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टः पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टः, एकं योजनशतम् ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्चविंशतिः योजनानि उद्वेधेन एकं योजनसहस्रं द्विपञ्चाशत् च योजनानि द्वादश च एकोनविंशतिभागान योजनस्य विष्कभ्मेणेति, तस्य वाहे पौरस्त्य - पाश्चात्येन पञ्च योजन सहस्राणि त्रीणि च पञ्चाशत् योजनशतानि पञ्चदश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य अर्द्धभागं च आयामेन, तस्य जीवा उत्तरे प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयता यावत् पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा चतुर्विंशतिः योजनसहस्राणि नव च द्वात्रिशानि योजनशतानि अर्द्धभागं च किञ्चिद्विशेपोना आयामेन प्रज्ञप्ता, तस्याः धनुष्पृष्ठं दक्षिणे पञ्चविंशतिः योजनसहस्राणि योजनस्य परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् रुचक संस्थान संस्थितः सर्वकनकमयः अच्छः श्लक्ष्णः तथैव यावत् प्रतिरूपः उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवर वेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च चनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि प्रमाणं वर्णक इति । क्षुद्रहिमवतो वर्षधर पर्वतस्योपरि बहुसमरमणीय भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स यथानामकः आलिङ्गपुष्कर इति वा यावद् बहवो व्यन्तरा देवाश्च देव्यश्च आसते यावद् विहरन्ति ॥ सू० १ ॥
'कहिणं भंते! जंबुद्दी दीवे' इत्यादि ।
टीका - हे भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे - जम्बूद्वीपनामके द्वीपे 'चुल्लहिमवर णामं ' क्षुद्र'हिमवान् - क्षुद्र हिमवन्नामकः 'वासहरपव्वए' वर्षधरपर्वतः वर्षे पार्श्वद्वयस्थिते ये द्वे क्षेत्र, तयोः धारकः क्षेत्रद्वयसीमाकारी स चासौं पर्वतः क्व - कस्मिन् प्रदेशे 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, तत्र भगवाचौथा वक्षस्कार प्रारंभ
'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे क्षुल्लहिमवए' इत्यादि ।
टीका - इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे क्षुल्लहिमवते णामं वासहरपच्चए ?" हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके
ચેાથા વક્ષસ્કાર પ્રાર’ભ
'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे क्षुल्लहिमवए' इत्यादि
टीडार्थ - - आा. सूत्र वडे गौतमस्वामी प्रभुने या प्रमाणे प्रश्न यछे -'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे क्षुल्लहिमवंते णामं वासहरपव्वए ? ' हे लत भ्यूद्दीय नाभ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १ क्षुल्ल हिमवद्धवर्पधरपर्वतनिरूपणम् ३ नाह-गोयमा !' हे गौतम ! 'हेमवयम्स बासस्स दाहिणेणं' हैमवतस्य वर्षस्य क्षेत्रस्य दक्षिणे दक्षिणस्यां दिशि 'भरहस्स' भरतस्य तन्नामकस्य 'वासस्स उत्तरेणं' वर्पस्य उत्तरे उत्तरस्यां दिशि 'पुत्थिमलवणसमुहस्स' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पूर्वलवणसमुद्रस्य ‘पच्चस्थिमेणं पच्चत्यिमलवणसमुहास' पाश्चात्ये पश्चिम दिगि, पाश्चात्यलयणसमुद्रस्य-पश्चिमलवणसमुद्रस्य 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्ये-पूर्वस्यां दिशि 'एत्य णं' अत्र इह खलु 'जंबुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंते णाम वासहरपन्चए पण्णते' जम्बूद्वीपे द्वीपे क्षुद्राहिमवान नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, स च कीदृशः? इत्यपेक्षायामाह-'पाईण पडीणायए' प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतः प्राचीनप्रतीचीनयोः पूर्वपश्चिमयोः आयतः दीर्घः पुनः 'उदीणदाहिणविस्थिन्ने' उदीचीन दक्षिणविस्तीर्ण:-उदीचीन-दक्षिणयोः उत्तर दक्षिणयोः विस्तीर्णः विस्तारयुक्त. 'दुहा' द्विधाः द्वाभ्यामनुपदं वक्ष्यमाणाभ्यां कोटिभ्यां 'लवणसमुहं पुढे.' लवणसमुद्रं स्पृष्टः आश्लिष्टः रपृष्ट इत्यत्र कर्तरिक्त प्रत्ययः. एतदेव स्पष्टीकरोति 'पुरथिमिल्लाए' पौरस्त्यया पूर्वरया 'कोडीए' कोटयाअग्रभागेन 'पुनन्धिमिल्ल' पौरस्त्यं पूर्व 'लयणामु पुढे लवण समुद्रं स्पृष्टः 'पच्चस्थिमिल्लाए' पाश्चात्यया पश्चिमया 'कोडीए' कोटया 'पच्चन्थि मिल्लं' पाश्चात्यं-पश्चिमं 'लवणसमुई पुढे' द्वीप में क्षुद्रहिमवान् नामका वर्षधर पर्वत कहां पर कहा गया है ? इसे वर्षधर इसलिये कहा गया है कि यह अपने पास में रहे हपदो क्षेत्रों की सीमा को करता है इसके उत्तर में प्रभु कहते है-(गोयमा ! हेमवयस्म वासस्स दाहिणे णं भरहस्स वासस्स उत्तरेणं पुरथिम लवणलखुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं पत्थणं जंबुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंते णामं वासहरपन्चए पण्णत्ते) हे गौतम ! इस जम्वृद्धीप में स्थित क्षुद्रहिमवान् पर्वत भरत क्षेत्र की उत्तर दिशा में और हैम या क्षेत्र की दक्षिणादिशा में, तथा पूर्वदिग्वर्ती लवण समुद्र की पश्चिमदिशा में एवं पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पूर्व दिशा में कहा गया है। (पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणविधिपणे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरत्थि. मिल्लाए कोडीग पुरथिमिल्लं लवणसमुई पुढे पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चકિપમાં શુદ્ધ હિમવાન નામક વર્ષધર પર્વત કયાં આવેલ છે? એ પર્વતને વર્ષધર એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે કે એ પિતાની પાસેના બે ક્ષેત્રની સીમાનું નિર્ધારણ કરે છે. भेना पाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! हेमवयरस वामस्स दाहिणणं भरहस्स वासस्स उत्तरेणं पुरस्थिमलवणसमुहस्स पच्चस्थिमेगं पच्चत्यिमलवणसमुहस्स पुरस्थिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवते णामं वासहरपचए पण्णत्ते' ७ गौतम ! दीपमा स्थित क्षुद्र હિમાવાન પર્વત ભરતક્ષેત્રની ઉત્તર દિશામાં અને હૈમવત ક્ષેત્રની દક્ષિણ દિશામાં તથા પૂર્વ દિવતી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ પશ્ચિમ દિગ્વતી લવણસમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં मावत छ. 'पाईणपडीणायए उदीण दाहिण विस्थिण्णे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुई पुढे पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुई पुढे
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जीप प्तिसू लवणसमुद्रं स्पृष्टः, 'एगं जोयण सयं उद्धं उच्चत्तेणं' एकं योजनशतम् उर्ध्वम् उच्चत्वेन उच्छ्रयेणं, 'पणवीस' पंचविंशतिः पञ्चविंशतिसंख्यकानि 'जोयणाई' योजनानि 'उच्चेहेणं' उद्वेधेनभूमिप्रवेशेन उच्चत्व चतुर्थभागस्यैव भूमिप्रविष्टत्वात्, 'एवं जोयणसं' एकं योजन सहस्रं च पुनः 'चावण्णं च' द्विपञ्चाशत् द्विपञ्चाशत्संख्यानि 'जोयणाई' योजनानि 'दुवालसय' द्वादश च ' एगूणवीस भाए जोयणस्स विक्खंभेणंति' एकोनविंशति भागान योजनस्य विष्कभेण विस्तारेण इति एतत् उच्चत्वोद्वेधविष्कम्सप्रमाणम् । अत्रोपपत्तिस्तु द्विगुणित जम्बूद्वीपविस्तारस्य नवत्यधिकशतेन भागे हृते भवति (१०५२) अमिनो भरताद् द्विगुणत्यात्, अत्र करणविधिर्भरत चर्षविष्कम्भवद् बोध्या, अथ क्षुद्रहिमवतो चाहे आह- 'तस्स' तस्य पूर्वोक्तस्य क्षुद्र हिमवतः 'वाहाबाहे - चाहू ते इव भुजवत्प्रदेगी, वाहा शब्दोऽत्र औपचारिकः, ते थिमिल्लं लवणसमुहं पुढे) यह पर्वत पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है और उत्तर से दक्षिण तक विस्तीर्ण है यह अपनी दोनों कोटियों से लवणसमुद्र को छू रहा है पूर्व कोटि से पूर्व लवण समुद्र को और पश्चिम कोदि से पश्चिम लवण समुद्र को छू रहा है (ए जोयणसयं बद्धं उच्चतेरी) इसकी ऊंचाई १ मौ योजन की है। (पणवीस जोयणाई उच्णं) २५ योजक का इसका उद्देध है अर्थात् यह जमीन के भीतर २५ योजन तक गया है ( एगं जोयणसहस्सं चावण्णं च जोयणाई दुचालस य एगूणवीसह भाए जोगणस्स विक्संभेणंति) इसका विस्तार १०५२, २ योजन प्रमाण है भरतक्षेत्रका प्रमाण ५२६६ योजन का है इससे दूना इस हिमवान् पर्वत का प्रमाण है ५२६३ को दूना करने पर १०५२ योजन का प्रमाण आजाता है इसे हम यों भी कह सकते हैं कि जम्बूद्वीप के व्यास को दूना करके उसमें १९० का भाग देने पर इतना ही इसका प्रमाण निकल आता है (तस्स बाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं पंच जोयणसहस्साइं तिष्णि
એ પર્યંત પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી લાંબે છે અને ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી વિસ્તી છે. એ પોતાના ખન્ને છેડાએથી લવસમુદ્રને સ્પર્શી રહ્યો છે. પૂર્વ કેટથી પૂ લવણુસમુદ્રને ये स्पर्शी` रह्यो छे. पश्चिम टिथी पश्चिम सवयु मुद्रने मे स्पर्शा रहेस छे, 'एगं जोयणसयं उर्दू उच्चत्तेणं' मेनी या १ सो योजन भेटली छे. 'पणवीसं जोयणाई उच्वेदेणं' ૨૫ ચેાજન આના ઉદ્વેષ છે. એટલે કે એ પર્વત જમીનની અંદર ૨૫ ચેાજન સુધી यहन्येतेा छे. 'एगं जोयणसहस्सं बावण्णं च जोयणाई दुवालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खभेणंति' मानो विस्तार १०२ योन प्रभाष छे. लस्तक्षेत्र प्रभा २६ ve ચેાજન જેટલું છે. એના કરતાં ખમણુ આ હિમવાન્ પ તનુ પ્રમાણુ છે. પ૨૬૯ને મેથી ગુણાકાર કરીએ તે ૧૦પરર ચેાજન પ્રમાણ થાય છે. આ અંગે આપણે આમ પણ કહી શકીએ છીએ કે જ ખ્રુઢીપના વ્યાસને દ્વિગુણિત કરીને તેમાં ૧૯૦ ને ભાગા
२ री मे तो भेट भानुं प्रभाष भावी लय थे, 'तस्स वाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० १ शुल्लहिमवद्वर्पधरपर्वतनिरूपणम्
च प्रत्येकं 'पुरस्थिपञ्चन्थिमेणं' पौरस्त्यपश्चिमे पूर्वपश्चिमयोः 'पंच' पञ्च पञ्चसंख्यानि 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'तिष्णि य' त्रीणि च 'पण्णा से जोयणसए' योजनशतानि पञ्चाशदिति पञ्चाशदधिकानि 'पण्णरस य' पञ्चदश च 'एगूणवीसभाए जोयणस्स' योजनस्य एकोनविंशतिभागान 'अद्धभागं च' अर्द्धभागम् एकस्य योजनैकोनविंशतितमभागस्यार्द्ध च 'आयामेणं' आयामेन - दैध्र्येण प्रज्ञप्ते, स्थापना यथा - ५३५० । अस्य व्याख्यानं चतुर्दशसूत्रगन चैताढ्याधिकारे द्रष्टव्यम् । एतत्सूत्रस्य तत्सूत्रप्रायत्वात् । अथास्य जीवामाह'तस्स जीवा' इत्यादि, 'तस्स' तस्य क्षुद्रहिमवतः 'जीवा' जीवा - धनुर्ज्या सेव जीवा धनुयवत्प्रदेशः 'उत्तरेणं' उत्तरे - उत्तरस्यां दिशि गता 'पाईण पडिणायचा' प्राचीन प्रतीचीनाssयता पूर्वपश्चिपदीर्घा, पुनः सा कीदृशी ? इत्यपेक्षायामाह - 'जाय' यावत् - यावत्पदेन 'पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्दे पुट्ठा' इति ग्राम् ।
१९
एनच्छाया-'पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा' एतद्विवरणं स्पष्टम्, 'पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए' पाश्चात्यया कोटया 'पचत्थिमिलं लवणसमुदं पुट्टा' पाचात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा, 'चउच्चीसं' चतुर्विशतिः - चतुर्विंशति संख्यानि 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि च पुनः 'णव य' नव-नवसंख्यानि 'बत्ती से जीयणसए' योजनशतानि द्वात्रिंशदिति द्वात्रिंशदधिकानि ‘अद्धभागं' अर्द्धभागम् एकस्य योजनैकोनविंशति भागस्यार्द्धं च 'किचिविसेसूणा' किञ्चिय पण्णासे जोगणसप पण्णरसय एगूणची सहभाए जोयणरस अद्वभागं च आगामेणं) इसकी पूर्व पश्चिम की दोनों भुजाएं लम्बाई में ५३५० योजन की हैं, तथा १ योजन के १९ भागो में १५ भाग प्रमाण है इसका व्याख्यान वैनायाधिकार के सूत्र से जान लेना चाहिये (तस्स जीवा उत्तरेणं पापडीणायया जाव पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा चउच्चीसं जोयणसहस्सा णचय बत्तीसे जोगणसए अद्रभागं च किंचिविसेसृणा आयामेणं पण्णत्ता) इस क्षुद्र हिनवत्पर्यन की उत्तर दिशागत जीवा-धनुष की ज्या के जैसा प्रदेश - पूर्व से पश्चिम तक लग्बी है यावत् वह अपनी पूर्वदिग्गत कोटी से पूर्व लवण समुद्र को पश्चिमदिग्गतकोटि से पश्चिमलवणसमुद्र को छू रहा है
ין
पंच जोयणसहरसाई तिणिय पण्णासे जोबणसए पण्णरस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्वभागं च आयामेणं' मे पर्वर्तनी पूर्वपश्चिमनी भन्ने लुतो संमाभां ५३५० ચૈાજન જેટલી છે તેમજ એક ચેાજનના ૧૯ ભાગેામાં ૧૫ ભાગ પ્રમાણ છે, એ मगेनुं व्याभ्यान वैताढ्याधिहारना सूत्रभांधी लगी सेवु ले थे. 'तस्स जीवा उत्तरेणं पोईण पडीणायया जात्र पच्चत्थिमिल्लाए कोडींए पच्चत्थिमिल्लं लाणसमुदं पुट्टा चउवीसं जोयणसहस्साइं णत्रय बत्तीसे जोयणसए अद्धभागं च किंचिविसेसूणा आयामेगं વળત્તા' આ ક્ષુદ્ર હિંમવાન્ પર્વતની ઉત્તર શાગત જીવા–ધનુષની પ્રત્યંચા જેના પ્રદેશ પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી લાંખા છે, યાવત્ તે પેાતાની પૂર્વ દિગ્ગત કાટિથી પૂ લવણ
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे द्विशेपोना किञ्चिदूना, 'आयामेणं-पण्णत्ता' आयामेन प्रज्ञप्ता किश्चिदनत्वं चास्या आनेतुं वर्गमूले कृते शेषोपरितनराश्यपेक्षया बोध्यम् अथास्याः परिक्षेपमाह-'तीसे धणुपुट्टे' इत्यादि, 'तीसे तस्याः क्षुद्रहिमवज्जीवायाः 'धणुपुढे' धनुष्पृष्ठम्-धनुप्पृष्ठभागाकारप्रदेशः 'दाहिणेणं' दक्षिणे दक्षिणस्यां दिशि 'पणवीसं' पञ्चविंशतिः 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'दोण्णिय द्वे च 'तोसे जोयणसए' योजनशते त्रिंशदिति त्रिंशदधिके 'चत्तारी य चतुरश्च 'एगणवीसइभाए' एकोनविंशतिभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य २५२३. 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना वर्तुलत या 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् ।। ____ अर्थतं क्षुद्रहिमवन्तं वक्ष्यमाणविशेपणे वर्णयति 'रुयगसंठाणसंठिए' इत्यादि, 'रुयगसंठागसठिए' रुचकसंस्थानसंस्थितः रुचकमिहसुवर्णाभरणविशेपः तस्य यत्संस्थानम् आकारस्तेन सस्थितः वलयाकार इत्यर्थः, पुनः 'सबकणगामए' सर्वकनकमयः सर्वात्मना कनकमयः स्वर्णमयः 'अच्छे सण्हे' अच्छः श्लक्ष्णः 'तहेव' तथैव पूर्ववदेव 'जाव पडिरूवे' यावत् प्रतिरूप:-प्रतिरूप इति पदपर्यन्तानामत्र संग्रहो वोध्यः, तथा च 'लप्टः घृष्टः नीरजाः निर्मला निष्पङ्कः निष्कङ्कटच्छायः सप्रभः समरीचिकः सोद्योतः प्रासादीयः दर्शनीयः यह जीवा २४९३२ योजन और एक योजन के अर्धभाग से कुछ कम लम्बो है (तीसे धणुप्पटे दाहिणेणं पणवीसं जोयणसहस्साई दोण्णिय तीसे जोयण सए चत्तारिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ते) इस क्षुद्रहिमवत् पर्वत की जीचा का धनुष्ष्ठ दक्षिण पार्श्व में २५२३० योजन का परिधिकी अपेक्षा से कहा गया है (रुअगसंठाणसंठिए सवरुणगामए अच्छे मण्णे, तहेव जाव पडिरूवे) इस क्षुद्र हिमवत पर्वत का संस्थान रुचक सुवर्ग के आभरणविशेष -का जैसा संस्थान होता है वैसा ही है-यह पर्वत स्वभावतः अच्छ-स्वच्छ
और श्लक्ष्ण है यावत् प्रतिरूप है यहां यावत्पद से-"लष्टः, घृष्टः, मृष्टः, नीरजाः, निर्मलः, निष्पङ्कः, निष्कंकरच्छायः, सप्रभा, समरीचिका सोद्योतः, प्रासादीयः, दर्शनीयः, अभिरूप:' इन-पदों का संग्रह हुआ है इन पदों સમુદ્રને સ્પર્શી રહ્યો છે. આ જીવા ૨૪લ્ડર એજન અને એક જન અર્ધ ભાગ ४२ता ४४४ ६५ einी छे. 'तीसे धणुप्पुढे दाहिणेणं पणवीसं जोयणसहस्साई दोण्णिय तीसे जोयणसए चत्तारिय एगूणवीसइभ.ए जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ते' से क्षुद्र भिवत् પર્વતની જીવાને ધનુપૃષ્ઠ દક્ષિણ બાજુએ ૨૫૨૩૦ એજન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે ते पा२धिनी अपेक्षा / ४९८ छ. 'रुअगसंठाण संठिए सव्वकणगामए अन्छे सणे, तहेव जाव पडिरूवे' से क्षुद्र भिवत् पनि संस्थान अन्य सुवर्ण न मास विशेष સંસ્થાન હોય છે, તેવું જ છે. એ પર્વત સ્વભાવતઃ અચ્છ–વચ્છ અને સ્લણ છે, यावत् प्रति३५ छ. मी यावत् पथी 'लष्टः, घृष्टः, मृष्टः नीरजाः, निर्मलः, निष्पंक: निष्कंटकच्छायः, समभः समरीचिका, सोयोतः, प्रसादीय, दर्शनीयः, अभिरूपः' मे पहा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कार: सू० १ भुल्लहिमवर्षधरपर्वतनिरूपणम अभिरूपः इत्येषां सङ्ग्रहः फलितः। एतव्याख्याऽत्रैव रतुर्थसूत्रे जगती वर्णने प्रोक्ता, साऽत्र , लिङ्गव्यत्ययेन याच्या स पुन: 'उभओ' उभयोः द्वयोः 'पासिं' पार्श्वयोः 'दोहिं' द्वाभ्यां 'पउमवरवेइयाहिं' पद्मवरवेदिकाभ्यां च पुनः 'दोहि य वणसंडेहि द्वाभ्यां वनपण्डाभ्यां 'संपरिक्खित्ते' संपरिक्षिप्तः संपरिवेष्टितोऽस्ति, तद्वेष्टनभूतयोः 'दुफ वि पमाणं' द्वयोरपि प्रमाणं 'वण्णगोत्ति' वर्णकश्चतद्वयं चतुर्थपंचम मूत्रव्याख्यातो बोध्यम् इति । अम्य 'नुल्ल हिम वंतस्स वासहरपव्ययस्स' क्षुद्रहिमवनो वर्षधरपर्वतस्य 'उवरि' उपरि-उधै शिखरे 'बहसमरमणिज्जे' बहुसमरमणीयः-अत्यन्तरमणीयः 'भूमिमागे पण्णत्ते' भूमिभागः प्रजातः तद्वर्णनायाह'से जहा नामए' इत्यारभ्य 'जाव विहरंति' इत्यन्तं सबै विवरणं पप्ठसूत्रतो बोध्यम् ।।२० १. की व्याख्या यही ४ थे सत्र में जगती के वर्णन के प्रसङ्ग में कही जा चुकी है अतः लिङ्गव्यत्यय करके उसे यहां व्याख्या के रूप में ग्रहण कर लेना चाहिये (उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्वित्ते दुपह वि पमाणं घण्णगोत्ति) यह क्षुद्रहिमवत् पर्वन दोनों ओर दो पद्मवर वेदिकाओं से और दो वनपण्डों से घिरा हुआ है इन वनपण्डों का वर्णन एवं प्रमाण चतर्थ पंचम सत्र की व्याख्या से जानलेना चाहिये (क्षुल्लहिमवंतस्स वालहर पव्ययस्स उवरि बहुममरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहा णामए आलिगपुक्खरेइ वा जाव बहवे वाणमंतरा देवाय देवीओ य आसयंति जाव चिहति) इस क्षुद्रहिमवत् वर्षधर पर्वत के ऊपर का भूमि भाग बहुसमरमणीय है
और वह ऐमा वहममरमणीय है कि जमा आलिग पुष्कर-मृदङ्ग मा मुख होता है यावत् यहां अनेक वान व्यन्तरदेव और देवियां उठती बैठती रहती है। इस विवरण को जानने के लिये छट्ठा मूत्र का विवरण देखना चाहिये ॥१०॥ સંગૃહીત થયા છે. આ પદની વ્યાખ્યા એજ ૪ થા સૂત્રમાં જગતીના વર્ણન પ્રસંગમાં કહેવામાં આવેલ છે. એથી લિંગ વ્યત્યય કરીને અત્રે વ્યાખ્યા રૂપમાં ગ્રહણ કરી લેવી नये. 'उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेदाहिं दोहिं य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते दुण्ह वि पमाणं वण्णगोत्ति' से क्षु हिमवत् पत मन्ने २६ मे ५१२ वायाथी मन में વનખડાથી આવૃત્ત છે. એ વનખડાનું વર્ણન અને પ્રમાણ ચતુર્થ અને પંચમ સૂત્રની व्यायामांथी nejी वे नये. 'क्षुल्ल हिमवंतस्स वासहरपवयस्स उवरि वहसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामाए. आलिङ्गपुक्खरेइवा जाव वहवे वाणमनरा देवाय देवीओय आसयंति जाव विहरंति' से क्षु लिभपत् ५२ पतन। ५२ने। भूमि माग બહુસમ રમણીય છે અને તે એ બહુસમરમણીય છે કે જેવું આલિંગ પુષ્કર-મૃદંગનું મુખ હોય છે. યાવત્ અહીં અનેક વાનગંતર દેવ અને દેવીઓ ઉઠે છે બેસે છે. એ અંગેનું વિવરણ ષષ્ઠ સૂત્રમાં આપવામાં આવેલ છે. જે સૂ– ૧
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
ar क्षुद्रमिवच्छिर स्थित भूमिभागवर्त्ति पद्मइदं वर्णयितुमाह- 'तस्स ' इत्यादि ।
मूलम् - तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं इक्के महं परमदहे णामं दहे पण्णत्ते, पाईणपडियायए उदीण दाहिणवित्थपणे इकं जोयणसहस्सं आयामेगं, पंच जोयणसयाई विश्वंभे गं, दस जोयणाई उब्वेहेणं अच्छे सहे रययामयकूले जाव पासाईए जाव पडिरूवेत्ति से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खिते वेइया वणसंडवण्णओ भाणियव्वोति । तस्स णं पउमद्दहस्त चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णावासो भाणियव्वोत्ति । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णत्ता, तेणं तोरणा णाणामणित्रया, तस्स णं पउमदहस्त बहुमज्झदेसभाए एत्थ महं एगे पउने पण्णत्ते, जोयणं आयामविवखंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं दस जोयणाई उब्वेहेणं दो कोसे उसिए जलताओ साइरेगाई दस जोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ते । सेणं एगाए जगईए सव्वओ समता संपरिक्खिते जंबुद्दीवजगइप्पमाणाnarasse वि तह चेत्र पमाणेणंति । तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवे वष्णावासे पण्णत्ते, तं जहा - वइरामया मूला, रिट्ठामए कंदे, वेरुलियामए णाले, वेरुलियामा बाहिरपत्ता, जंबूणयामया अभितरपत्ता, तवजिमया केसरा, णाणामणिमया पोक्खरद्विभाया, कणगामईकण्णिगा, साणं अद्धजोयणं आयामविवखंभेणं कोसं बाहल्लेणं, सव्वकणगामई अच्छा। तीसे णं कण्णियाए उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा ॥ सू० २ ॥
छाया - तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेश भागे अत्र खल एको महान् पद्महृदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः, प्राचीनप्रतीचीनायतः उदीचीनदक्षिण विस्तीर्णः एकं योजनसह मायामेन पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण दश योजनानि उद्वेधेन, अच्छः श्लक्ष्णः रजतमयकुलः यावत् प्रासादीयः यावत् प्रतिरूप इति । स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेनं
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सु० २ पाहदनिरूपणम् च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्नः । वेदिका वनपण्डवर्णको भणितव्य इति । तस्य खलु पद्मइदस्य चतुर्दिशि चत्वारि त्रिसोपानम्नतिरूपाणि प्रज्ञप्तानि वर्णावासो भणितव्यः इति । तेषां खलु त्रिसोपानप्रतिरूप काणां पुरतः प्रत्येकं २ तोरणाः प्रज्ञप्ताः । ते खल तोरणाः नानामणिमयाः तस्य सलु पद्महदम्य बहुमध्यदेशभागः अत्र महद् एकं पद्म प्रज्ञप्तम् , योजनमायामविष्कम्भेण, अर्द्धयोजनं बाहल्येन, दग योजनानि उद्वेधेन, द्वौ क्रोगावृच्छ्रितम् . जलान्तान् सातिरेकाणि दश योजनानि सर्वाग्रेग प्रज्ञप्तानि । तन् खलु एकया जयत्या सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं. 'सा च जगतो' जम्बुद्वीपजगतीप्रमाणा, गवासकटकोऽपि तथैव प्रमाणेनेति । तस्य खलु पदमस्य अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वन्नमयानि मूलानि, रिप्टमयः कन्दः, बैटर्यमयं नालं यमयानि वाद्यपत्राणि, जाम्बूनदमयानि भाभ्यन्तरपत्राणि तपकीयमानि हयगणि, नानामणिमयाः पुष्करास्थिभागाः, कनकमधीमणिका । मा बन्दु अर्द्ध योजनम आयामवियम्भेण, क्रोगं बाहल्येन, सर्वकन झमयी अच्छा, तस्याः बल कणिकायाः उपरि नहुगमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स यथानामकः आलिङ्गपुष्कर इति ॥ ० २।।
टोका-'तल्स गां' न्यादि। "तस्स णं बहसमरमणिज्जस्स' तम्य क्षुद्रहिमवतः खलु बहुगमरमणीयस्य 'भूमि भागम्य बहमध्झसभाए' भूमिभागस्थ बहमध्यदेशभागे अत्यन्तमध्यभागे 'एत्य ' अत्र इद खलु 'एके मदं पउमरहे णामं दहे पण्णत्ते' एको महान् बृहन् पद्महदः तन्नामकः हुनः मनप्तः, न च तीनः ? इन्य पेक्षायामाह-'पाईणपडिणायए' प्राचीनत्रनीचीनायत:-पूर्वपत्रिमयोर्दीर्घः 'उदीणदाहिणवित्थिणे' उदीचीन दक्षिणवीस्तीर्णः
पद्म हदका वर्णन 'नस्स णं बहुममरमणिजस्म भूमिभागस्त बहमझदेसभाए पत्थणं इक्केइत्यादि।
टीकार्थ-(तस्मण बहुममरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए) उस क्षुल्ल हिमवंत पर्वन के बहुममरमणीय भूमि भाग के ठीक बीच में (एत्थ णं एगे महं पउमदहे णाम दहें पण्णत्ते) एक विशाल पद्मद्रह नामका द्रह कहा गया है (पाईण पडिणायए उदीण दाहिण विस्थिपणे पगं जोयणलहस्सं आयामेणं, पंच जोयणसयाहं विश्वंभेणं, दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे-सण्हे रययामयकूले जाव
પવહુદનું વર્ણન 'तम्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं इक्के' इत्यादि
ट -तम्सणं बहुसमरमणिज्जम्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए' ते क्षुत हिमवत पतिनामसभरभएणीय भूभिभासनी ही पत्र्ये 'एत्य णं एगे महं पउमदहे णामं दहे पण्णत्ते'
४ विशण पहाड नाम र छे. 'पाईण पईणायए उदीण दाहिणवित्थिण्णे एग जोयण. सहस्सं आयामेणं, पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं, दम जोयणाई, उव्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामय
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_ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे उत्तरदक्षिणयोविस्तारवान् ‘इकं जोयणसहस्सं आयामेणं' एकं योजनसहस्रमायामेन एक सहस्रयोजनपर्यन्तमायत इति भावः, 'पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं' पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण पञ्चशतयोजनपर्यन्तं विस्तारवान् , 'दस जोयणाई उव्वे हेणं' दश योजनानि उद्वेधेनभूगतत्वेन । पुनः स 'अच्छे' अच्छ:-आकाशस्फटिकवदति निर्मला, 'सण्हे' श्लक्ष्णःचिक्कणः 'रययामयक्रे' रजतमयकूल:-रजतमयं कूलं तटं यस्य स तथा-रजतमयतटः, 'जाव' यावत् - यावत्पदेन–'समतीरे वइरामयपासाणे तवणिज्जतले सुत्रण्णमुठभरयणामयवालए वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडे सुहोयारे सहुत्तारे णाणामणि तित्थसुवद्ध चाउकोणे अणुपुरसुनायवप्पगंभीरसीयलजले संछन्नपत्तभिसमुणाले बहुउप्पलकुमुयसुभगसोगंधियपुंडरीय सयवत्तफुल्लकेसरोवचिए छप्पयपरिभुज्जमाणकमले अच्छे विमलसलिलपुण्णे परिहत्थभमंतमच्छकच्छभं अणेग सउणमिहुणपरिअरिए' इति संग्राह्यम् ।। ___एतच्छाया-“समतीरः वज्रमयपापाणः तपनीयतलः सुवर्णशुभ्ररजतमयवालुकः वैडूर्यमणिस्फटिकपटलपच्चोयडः सुखावतारः सुखोत्तारः नानामणितीर्थसुवद्धः चतुष्कोणः आनुः पूर्व्यसुनातवप्रगम्भीरशीतलजलः संउन्नपत्रविसमृणालः' बहूत्पलकुमुदसुभग सौगन्धिकपुण्डपासाईए जाव पडिख्वत्ति) यह द्रह पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है तथा उत्तर से दक्षिण तक विस्तीर्ण है एक हजार योजन की इसकी लंबाई है तथा पांच सौ योजन का यह चौडा हैं इसकी गहराई १० योजन की है यह आकाश और स्फटिकके जैसा अच्छ-निर्मल है, श्लक्ष्ण-चिकना है इसका तट रजतमय है यहां यावत्पद से-'समतीरे, वइरामयपासाणे, तवणिज्जतले, सुवण्ण सुन्भरयणामयवालुए, वेरुलियमणि फालिय पडलपच्चोयडे सुहोयारे सहुत्तारे, गाणामणितित्थसुबद्धे, चाउकोणे, अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजले, संच्छपणपत्तभिसमुणाले बहु उप्पलकुमुयसुभग सोगंधिय पुंडरीय सयवत्तफुल्लकेसरोवचिए, छप्पय परिभुज्जमाणकमले, अच्छविमलसलिलपुण्णे, परिहत्थभमंतमच्छकच्छ, अणेग सउणमिहुणपरिअरिए" इस पाठ का संग्रह हुआ कूले जाव पासाइए जाव पडिरूवत्ति' में 6 (३३) पूथी पश्चिम सुधा सांभु छ ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી વિસ્તીર્ણ છે. એક “સહસ એજન જેટલી એ કહની લંબાઈ છે. એ આકાશ અને સ્ફટિકના જે અચ્છ-નિર્મળ છે, શ્લફણ છે-ચિકકણ છે. આખ તટ २०१dभय छे. मी यावतू पहथी 'समतीरे वइरामयपासाणे, तवणिज्जतले सुवण्ण सुब्भरययामयवालुए, वेरुलियमणिफालिय पडलपच्चोयडे सुहोयारे, हुत्तारे, णाणामणितित्थसुबद्धे चाउकोणे, अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजले, संच्छण्णपत्तभिसमुणाले, बहु उप्पल कुमुय सुभय सोगंधिय पुंडरीय सयवत्त फुल्लकेसरोवचिए, छप्पयपरिभुज्जमाणकमले, अच्छ विमलसलिलपुण्णे परिहत्थभमंत मच्छकच्छमं अणेग सउण मिट्ठणपरिअरिए' मा पा सबलीत थयो छ. या पानी व्यायामा प्रभारी छ-निम्नता
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २ पादनिरूपणम् रीक शतपत्र फुल्लकेसरोपचितः पट्पदपरिभुज्यमानकमलः अच्छविमलसलिलपूर्णः परिहस्तभ्रमन्मत्स्यकच्छपानेकशकुनमिथुनपरिचरितः" इति । एतद्वन्याख्या-"समतीरः समानि निम्नोन्ननत्वरहितानि तीराणि नटानि यस्य स तथा वन्नमयपापाणः-वनमणिमयप्रस्तरः, तपनीयतलः तपनीयम् उत्तमजातीय सुवर्ण तन्मयं नलं यस्य स तथा, सुवर्णशुभ्ररजतमयवालुका-शुभं-शुक्लं यत् सुवर्ण तच्च रजतं चेत्युभयमयी वान्टका यस्य स तथा, वैटूर्यमणिस्फटिकपटल-बैहर्यमणीनां स्फटिकानां च यत् पटलं समूहः तन्मयः पच्चोयड:-तटसमीप वर्म्युनतप्रदेशो यस्य तथा, 'पच्चोयड' इति देशीयः शब्दः पूर्वोक्तार्थकः । मुखावतारः मुखः सुखदः अवतार: जलप्रवेशो यस्य स तया, मुखोत्तार:-सुखद निगमनः, नानामणितीर्थसबद्धःनानामणिबद्धतीर्थः अत्र प्राकृतत्वात्सबादशब्दम्य परप्रयोगः नानामणिभिः चन्द्रकान्तादि नानाविधमणिभिः सुबद्धं मुष्ठतयोपनियद्धं तीर्थ 'घाट' इनि प्रसिद्धं स्थलं यस्य स तथा। चतुष्कोणः चतुरस्रः आनुपूर्व्य मुजातयप्रगम्भीरगीतलजलः आनुपूर्येण क्रमेण मुजातं मुनि८पन्न वनां पाली यस्य स तथा गम्भीरं गीतलं च जलं यस्य स तथा, उभयोः कर्मधारयः संघनपत्रविसमृणालः संछन्नानि व्याप्तानि पत्रविसमृणालानि यत्र स तथा बहुत्पलकुमुदभुहै इस पाठ की व्याख्या इस प्रकार से है-निम्नता और उन्नत्य से रहित होने के कारण इसके नीर-नद-समान है वन्नमणिमय इसके पापाण है उत्तमजातीय सुवर्णमय इसका तल भाग है। शुभ्र-सुवर्णमय और रजतमय इसकी वालुका है इसके तटके समीपका जो उन्नतप्रदेश है वह वैडूर्यमणियों के और स्फटिकों के समूह-से निष्पन्न हुआ जैसा है 'पच्चोयड' यह देशीय शब्द है इसमें प्रवेश करना मुम्बद है और इससे बाहर निकलना भी सुखद है इसके जो घाट हैं वे अधिक मणियों के द्वारा बनाये हुए हैं। प्राकृत होने से यहां सुचन्द्र शब्द का पर प्रयोग हुआ है यह चौकोण है इसकी पाली क्रमशः वह क्रमशः निष्पन्न है-दमका जल गंभीर और शीतल है इसमें जो पत्र, बिस
और मृणाल है वे सब छन्न है अर्थात् यह पत्र, विस और मृणालों से व्याप्त है यह विकसित और केशरोपचित अनेक चन्द्रविकाशीकुवलयों से, कुमुदों से-कैरवों से, मुभगों से-सुन्दरकमलों से, सौगंधिकों से અને ઉન્નત્વથી રહિત લેવા બદલ એના કિનારાઓનટે-સમાન છે. વા મણિમય એના પાષાણે છે. ઉત્તમ જાતીય સુવર્ણ નિર્મિત એને તલ ભાગ છે. શુભ્ર સુવર્ણમય અને રજતમય એની વાલુકા છે. એના તટની પાસે જે ઉન્નત પ્રદેશ છે તે વૈર્યમણિઓના मन टिकाना समूहाथी नि०पन सय सवा छे. 'पच्चोयड' या शीय श६ छ. सभा પ્રવિષ્ટ થવું સુખદ છે. અને એમાંથી બહાર નીકળવું પણ સુખદ છે એના જે ઘાટે છે ते मधि४ मणिमा नारा लिमित छे. प्रास्तापायी मही 'सुबद्ध' शहन प्रयोग थाय છે. એ ચોખૂણું છે. એની પાલી ક્રમશઃ નિષ્પન્ન થયેલી છે. એમાંનું પાણી ગંભીર અને શીતળ છે. એમાં જે પત્ર વિસ મૃણાલ છે તે સર્વ છન્ન છે. એટલે કે એ હુદ પત્ર, વિસ • અને મૃણાલેથી વ્યાપ્ત છે. એ વિકસિત અને કેશરપચિત અનેક ચંદ્ર વિકાશી કુવલયેથી,
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
भगसौगन्धिक पुण्डरीकशतपत्र फुल्लकेसरोपचितः फुल्लानि विकसितानि केसरोपचितानि - केसरयुक्तानि बहूनि उत्पलकुमुदसुभग सौगन्धिक पुण्डरीकशतपत्राणि तत्रोत्पलानि कुवलयानि चन्द्रविकाशीनि कमलानि कुमुदानि - कैरवणि, सुभगानि सुन्दराणि कमलानि सौगन्धिकानि कल्हाराणि सुगन्धीनि कमलानि, पुण्डरीकाणि शुक्लकमलानि, शतपत्राणि - शतसंख्यपत्रयुक्तानि कमलानि चैतानि यत्र स तथा, अत्र विशेषणवाचकयोः फुल्ल केसरोपचितपदयोः पर प्रयोगः प्राकृतत्वाद्बोध्यः, पट्पदपरिगुज्यमान कमलः - भ्रमरलिह्यमान कमल, अच्छनिमलस'लिलपूर्णः -अच्छविमलानि अति निर्मलानि यानि सलिलानि जलानि तैः पूर्णः भृतः परिहस्त भ्रमन-मत्स्यकच्छपानेक शकुनमिथुनपरिचरितः परिहस्तं निपुणं यथा स्यात्तथा भ्रमन्तः इतस्ततः पर्यटन्तः मत्स्याः कच्छपाश्च तथा अनेकेषां शकुनानां पक्षिणां यानि मिथुनानि स्त्री पुंसयुगलानि च तैः परिचरितः सेवितः" इति । 'पासाईए जान पडिरूवेत्ति' प्रासादीयो यावत् प्रतिरूपः प्रासादीयो दर्शनीयोऽभिरूपः प्रतिरूपः इत्येषां व्याख्या पूर्वगता । ' से णं एगाए पउमवरवेश्याएं' स पद्मइदः खलु एकया पद्मवरपेदिकया 'एगेण य वणसंडेणं' एकेन च चनपण्डेन 'सच्चओ' सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समता' समन्तात् सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ते' संपरिक्षिप्तः - परिवेष्टितः, अत्र 'वेइयावणसंडवण्णओ भाणियव्वोत्ति' वेदिका वनपण्डवर्णको भणितव्यः, तत्र वेदिका वर्णनं चतुर्थस्त्रतः वनपण्डवर्णनं च पञ्चमसूत्रतो वोध्यम् ।
- सुगंधितकमलों से, पुण्डरीकों से-शुभ्र कमलों से, शत पत्रों से शतसंख्यक पत्रवाले कमलों से युक्त है यहां - प्राकृत होने से विशेषण वाचक फुल्ल और केशरोपचितपदों का पर प्रयोग हुआ है इसके जो कमल हैं वे सब भ्रमरों द्वारा परिभुज्य हैं अतिस्वच्छ जल से यह परिपूर्ण है अच्छी तरह से यह इतस्ततः परिभ्रमण करते हुए भ्रमरों, से, कच्छपों से तथा अनेक पक्षियों के जोड़ों से सेवित हे 'प्रासादीय यावत् प्रतिरूप' आदि शब्दों की व्याख्या पूर्व में की 'जा चुकी है यहां यावत् शब्द से 'दर्शनीयः अभिरूप:' इन पदों का ग्रहण किया गया है यह पद्महूद सब तरफ से एक पद्मवrवेदिका से और एकवनषण्ड से परिक्षिप्त है - परिवेष्टित है वेदिका वर्णन चतुर्थ सूत्र से वनखण्ड वर्णन अभुहोथी, रवोथी - सुभगोथी - सुंदर भणोथी, सौग धिमेथी- सुगंधित भणोथी, पुंडरी अथी શુભ્ર કમળાથી, શતપત્રોથી-શત સખ્યક પત્રવાળા કમળાથી યુક્ત છે, અહીં પ્રાકૃત હાવા महा विशेषणु वा 'फुल्ल' भने 'केशरोपचित' पहनो प्रयोग थयेले। छे, खेनी अंडर જે કમળા છે તે બધાં ભ્રમરા દ્વારા પરિભુન્ય છે, અતિ સ્વચ્છ જળથી એ હૃદ પરિપૂર્ણ છે. એ સારી રીતે ઈતસ્તત· પરિભ્રમણ કરતા ભ્રમરાથી, કચ્છપેાથી તેમજ અનેક પક્ષીमोना भेडागोथी सेवित छे. 'प्रासादीय यावत् प्रतिरूप' वगेरे शहानी व्याच्या पडेलां ४२वामां भावी छे. अहीं यावत् पहथी 'दर्शनीयः अभिरूपः' ये हो ग्रहयु थया छे.. પદ્મા મેર એક પદ્મવર વેદિકાથી અને એક વનખ'ડથી પરિક્ષિત છે-પરિવેન્દ્રિત છે.
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २ पद्मदनिरूपणम्
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'तस्स णं पउम चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपरिस्वगा' तस्य खलु पद्मदस्य चतुर्दशि चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि त्रयाणां सोपानानाम् आगेहावरोह साधनानां समाहारः त्रिसोपानं सोपानपङ्क्तित्रयं तद्वत्वे त्रिसोपानानि एकैकस्यां दिशि तिस्रस्तिस्रः सोपान पयः तान्येव प्रतिरूपकाणि मुन्दराकारसम्पन्नानि अत्र विशेषणपरप्रयोगः प्राकृतत्वात् तानि त्रिमोपानप्रतिरूपकाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि तेषां 'दण्णावासो' वर्णावासः वर्णन पद्धतिः 'भाणियन्योति' भणितव्यः - वक्तव्य इति, स यथा- 'बदामया निम्मा रिामया पट्टाणा, वेरुलियामया संभा, मुवण्णरुपमया फलगा, वदरामया संधी, लोहितवखमईओ सूईओ, नाणामणिमया अवलंबणा, अवलंबणवाहाओ" एतच्छाया - "वज्रमयाः नेमाः रिष्टमयानि प्रतिष्ठानानि वैडूर्यमयाः रतम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि वज्रमयाः सन्धयः, लोहिताक्षमय्यः सूचयः, नानामणिमयानि अवलम्वनानि अवलम्वनवाहाः" इति ।
एतदाख्या - तेपां त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां नेमा: हारभूमिभागादूर्ध्वं निष्क्रामन्तः प्रदेशाः चन्नमयाः वज्ररत्नमयाः प्रतिष्ठानानि - मूलपादाः रिष्टमयानि रिप्टरत्नमयानि, स्तपञ्चम सूत्र से जान लेना चाहिये (तस्मणं पदहस्त चउद्दिसिं चत्तारि तिसो. वाणपडिवा पण्णत्ता) उस पद्मद की चारों दिशाओं में सुन्दर २ त्रिसोपान - सोपानत्रय है अर्थात् एक दिशा में तीन २ सुन्दर २ सीडियां हैं (वण्णावासोभाणिपव्वोत्ति-तेनिणं तिसोवाणपडिख्वगाणं पुरओ पत्ते २ तोरणा पण्णत्ता, तेणं तोरणा णाणामणिसा, तत्तणं पडसहर बहुमज्ज्ञदेसभाए एत्थ महं एगे पण्णत्ते) इन त्रिसोपान प्रतिरूपकों का वर्णावास वर्णनपद्धति - यहां कह लेना चाहिये जो कि इस प्रकार से हैं 'वइरामया निम्मा, रिट्ठामचा पड़हाणा, वेळलियामया खंभा, सुवण्णरुपमया फलगा, वइरासया संधी, लोहितक्खमईओ सईओ, नाणामणिमया अवलंत्रणा अवलंबणवाहाओ' इन पदों को व्याख्या इस प्रकार से है-इन त्रिसोपान प्रतिरूपकों के जो नेम-द्वारा भूमिभाग
हि वर्णन तुर्थ सूत्रभांथी लगी सेवु' लेखे, 'तस्स णं परमद्दहस्स चउदिसिं चत्तारि तिसोवाणपढिवा पण्णत्ता' ते झाड़हनी थे।मेर सुंदर-सुंदर विसोपानत्रयी है. भेटी हरेट दिशाभां प्राशुत्रा सुंदर सोपान पंक्तियो छे. 'वण्णावासो भाणियन्वोत्ति - तेसिणं तिसोत्राणपडिवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णत्ता, तेणं तोरणा णाणामणिमया, तस्स णं पउमद्दहस्स बहुमज्यसभाए एत्थ महं एगे पउमे पण्णचे' से त्रिसोपान प्रतियोनी वर्षान पद्धति मगे अत्रे स्पष्टता आवश्यक छे. ते मा प्रभा छे - 'वइरोमया निम्मा, रिट्ठामया पट्टाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलगा, वइरामया संधी, लोहितम्व मईओ, सूईओ, नाणा मणिमया अवलंत्रणा अवलंव्यण वाहाओ' मे पहानी व्याभ्या या प्रमाणे छे. એ ત્રિસેાપાન પ્રતિરૂપકાના જે નેમા-દ્વારભૂમિ ભાગથી ઉપરની તરફ ત્થિત પ્રદેશ છે તે १४भय छे, शेभनु' प्रतिष्ठान-भूायाह- रिष्ट रत्नभय छे. स्तल वैडूर्य रत्नभय छे.
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे म्भाः-वैड्यमया:-चैडूर्यरत्नमयाः, फलकानि 'पाट' इति भाषा प्रसिद्धानि मुवर्णरूप्यमयानि, सन्धयः फलकाणां सन्धानानि वज्रमयाः वज्ररत्नमयाः, सूचयः-फलकद्वय सम्बन्धकारकाः पादुकास्थानीयाः लोहिताक्षमय्यः लोहितरत्नमय्यः अवलम्वनानि नानामणिमयानि अनेकविधमणिमयानि, एवम् अवलम्बनवाहाः अवलम्वनभित्तयोऽपि 'तेसिणं' तेपां खलु 'तिसो. वाणपडिरूवगाणं' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां 'पुरओ' पुरत:-अग्रे 'पत्तेयं२' प्रत्येकम् २ एककस्य त्रिसोपानप्रतिरूपकस्याग्रे 'तोरणा पण्णत्ता' तोरणाः प्रज्ञप्ता:, 'तेणं तोरणा ते खलु तोरणाः कीदृशाः ? इत्याह-'णाणामणिमया' नानामणिमयाः अनेकविधमणिमयाः, इत्यादि तोरणवर्णनमत्रैव सप्तमसूत्रे जम्बूद्वीपस्य विजयद्वारवर्णनव्याख्यायां द्रष्टव्यम् । ___ 'तस्स णं पउमदहस्स बहुमज्झदेसभाए' तस्य खलु पद्महूदस्य बहुमध्यदेशभागे अत्यन्तमध्यभागे 'एत्थ' अत्र अस्मिन् प्रदेशे 'महं' महत्-बृहत् 'एगे पउमे' एक पदम-कमलं पण्गत्ते' प्रज्ञप्तम् , तस्य यन्महत्त्वमुक्तं तत् स्पष्टी करोति 'जोयणं' योजनं-योजमपरिमितम् 'आयामविखंभेणं' आयामविष्कम्भेण दर्ग्यविस्ताराभ्याम् 'अद्ध जोयणं' अर्द्धयोजन योजन से ऊपर की ओर उठे हुए प्रदेश हैं वे वज्रमय है, इन के प्रतिष्ठान-मूल पादरिष्ट रत्नमय है स्तम्भ वैडूर्यरत्नमय हैं फलक-पटिये-इनके सुवर्णमय और रूप्यमय हैं अर्थात् गंगाजमूनी हैं संधी इनकी वज्रमय है सूचियां इनकी लोहिताक्षरत्नमय है इनके अवलम्बन और अवलम्बनवाहा-अवलम्बनभित्तियां अनेक प्रकार के मणियों की बनी हुई हैं। (तेसि णं तिसोवाण प०) प्रत्येक सोपानत्रयके (पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णत्ता) आगे तोरण कहे गये है'
(तेणं तोरणा जाणामणिमया तस्सणं पउमद्दहस्त बहुमज्झदेसभाए एत्थ महं एगे पउमे पण्णते) ये तोरण अनेकमणियां के बने हुए हैं इस पद्म द्रह के ठीक बीच में एक विशाल पम कहा गया है (जोयणं आयामविक्खभेणं अद्ध जोयणं बाहल्लेणं, दस जोयणाई उव्वेहेंणं दोकोसे ऊसिए जलंએના સુવર્ણમય અને રૂખ્યમય છે–અર્થાત્ ગંગાજમની છે. એની સંધી વજમય છે. સૂચિઓ લેહિતાક્ષ રત્નમય છે. એના અવલંબન અને એની અવલંબન વાહાએ અવલંબન लितिया मन: प्रा२ना माणुमाथा लिमित छ. 'तेसिणं तिसोवाणप० ४२४ सोपानत्रयी 'पुरओ पत्तेय २ तोरणा पण्णत्ता' मा ते.रो। 2. ( तोरणानुन माही सक्षम सत्रमा मुदीपना विस्याना वनमा ४२वाभा माल छे.) 'तेणं तोरणा णाणा मणिमया तस्स णं पउमद्दहस्त बहुमज्झदेसभाए एत्थ महं एो पउमे पण्णत्ते' से तारण भने भा माथी निमित छे से पानी 18 वये ४ विशण ५. 'जोयणं आयामविक्खंभेण, अद्धजोयण बाहल्लेणं, दस जोयणाई उव्वेहेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ साइरेगाई दस जोयणाई
'इन तोरणों का वर्णन यहीं पर सप्तम सूत्र में जंबूद्वीप के विजय द्वार के वर्णन में किया गया है।
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २ पाहदनिरूपणम् । स्याद 'बाहल्लेणं' पाहल्येन पिण्डेन 'दस जोयणाई उन्वेहेणं' दश योजनानि उद्वेधेन जलावगाहेन जलान्तर्गतत्वेनेत्यर्थः 'दो कोसे उसिए' द्वौ कोशौ उचिठूतम् उच्चत्वम् कुत उच्छितम् ? इत्याह-'जलंताओ' जलान्तात्-जलोपरिभागात् , एवं 'साइरेगाई' सातिरेकाणि साधिकानि 'दस जोयणाई' दश योजनानि 'सन्चग्गेणं' सर्वाग्रेण सर्वप्रमाणेन ‘पण्णत्ते प्रज्ञप्तानि जलावगाहोपरितनभाग सत्कक्रोशद्वयरूपकमलमानमीलने एतावता एव सम्भवात् । 'से गं. तत् पद्म खलु 'एगाए जईए' एकया जगत्या प्रकारकल्पया 'सबओ' सर्वतः सर्वदिक्ष 'समंता' समन्तात् सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ते' संपरिक्षिप्तं परिवेष्टितम् सा च पद्मपरिवेप्टन भूता जगती किम्प्रमाणा? इत्याह-'जंबुट्टीवजगइप्पमाणा' जम्बूद्वीपजगती प्रमाणा जम्बद्धीपस्य या वैप्टनभृता जगती तत्प्रमाणा तत्परिमिना बोध्या, तथाहि-ऊर्ध्वमुच्चत्वेनाप्ट योजनानि मूले विष्कम्भेण द्वादश योजनानि, मध्ये विष्कम्भेणाष्टयोजनानि, उपरि विष्कम्भेण ताओ, साइरेगाई दम जोयणाई मनग्गेणं पण्णत्त) इस पद्म की लम्बाई
और चोडाई एक योजन की मोटाइ इसकी आधे योजन की एवं उद्वेध इसका दश योजन का कहा गया है यह जलान्त से दो कोश ऊपर उठा हुआ है इस तरह इसका कुल विस्तार १० योजन से कुछ अधिक कहा गया है (सेणं एगाए जगतीए सव्वओ समंता संपरिकिग्वत्ते जवुद्दीव जगइप्पमाणा गवस्त्रकडए चि तह-चेव पमाणेति नस्स णं पउमस्स अयमेयास्वे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहावहरामया मृला, रिट्टामए कंदे, वेमलियामग णाले, वेरुलियामया बाहिर पत्ता, जम्णयामया अम्भितरपत्ता, तवणिज्जमया केसरा, णाणामणिमया पोक्खरहिभाया, कणगामई कण्णिगा) वह कमल प्राकार रूप एक जगती से सब ओर से घिरा हुआ है यह पदमपरिवेष्टन रूप जगती जम्बू द्वीप जगती के बराबर है-जैसे इसकी ऊंचाई आठयोजन की है मृल में इसका विष्कम्भ १२ योजनका है मध्य में इसका विष्कम्भ आठ योजन का है तथा ऊपर में इसका विष्कम्भ सव्वगणं पण्णत्त' से पानी मा मने पापा ४ योन सी सन 18 या
જન જેટલી અને એનો ઉદેધ દશ એજન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે. એ જ લાનથી બે ગાઉ ઉપર ઉઠેલું છે. આ પ્રમાણે આને કુળ વિસ્તાર ૧૦ એજન કરતાં કંઈક અધિક
वामां आवे छे. 'से गं एगाए जगतीए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते जंबुद्दीव जगइप. माणा गवक्खकडए वि तह चेव पमाणेति तस्स णं पउमस्स अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते तं जहा वइरामया मुला, रिद्वामए कंदे, वेरुलियामए णाले वेरुलिया मया, बाहिरपत्ता जम्बूणया मया आम्भितरपत्ता तवणिज्जमया केसरा णाणामणिमया पोक्खरद्विभाया, कणगामई कण्णिगा' ते ४भ प्रा४२ ३५ २४ ताथा यामे२ मावृत्त छ. ये पद्मपरिवष्टन રૂપ જગતી જંબુદ્વિીપ જગતીની બરાબર છે. જેમકે એની ઊંચાઈ આઠ યોજન જેટલી છે. મળમાં એને વિધ્વંભ બાર એજન જેટલું છે. મધ્યમાં તેને વિખંભ
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जम्बूद्वीपप्रमप्तिसूत्रे चत्वारि योजनानि अतो मूले विस्तीर्णा मध्ये संक्षिप्ता, उपरि तनुकेति गोपुच्छ संस्थान संस्थितेति । एतच्च प्रमाणं जलादुपरिष्टाबोध्यम् , दशयोजनापजलावगाहनप्रमाणस्यात्रा विवक्षितत्वात् , 'गवक्खकडए वि' गवाक्षकटको अपि जालसमूहोऽपि 'तहचेव पमाणति' तथैव प्रमाणेन उच्चत्वेनाईयोजनम् विष्कम्भेण पञ्चधनु शतानीत्यर्थः ।
अथ पद्मवर्णकमाह-'तस्स णं पउमस्स अयमेयास्वे' तस्य खलु पद्मस्य अयमेतद्रपः वक्ष्यमाणरूपः 'वण्णावासे' वर्णावासः वर्णनपद्धतिः "पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, 'तं जहा वन्जमया' तद्यथा-चत्रमयानि वज्ररत्नमयानि 'मूला' मलानि कन्दादधस्तिर्यनिःमृतजटाजूटायययरूपाणि 'रिद्वामए' रिष्टमयः-रिष्टरत्नमयः 'कंदे' कन्दः मूलनालमध्यवर्ती ग्रन्थिः, 'वेरुलि. यामए' वैयमय-चैयरत्नमयं ‘णाले' नालं-कन्दोपरि मध्यवर्त्यवयवः, 'वेरुलियामया' वड्यमयानि 'वाहिरपत्ता' वाद्यपत्राणि अत्राऽयं विशेषोऽन्यत्र वाद्यानि चत्वारि पत्राणि वर्यमयानि अवशिष्टानि तु रक्तसुवर्णमयानीति 'जंबणयामया' जाम्बूनदमयानि ईपद्रक्तचारयोजन का है इसका कारण यह मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में पतली हो गई है अतएव इसका आकार गोपुच्छ के जैसा हो गया है यह जो जगती का प्रमाण कहा है वह जल से ऊपर उठी हुई जगती का प्रमाण कहा है क्योंकि यह जल के भीतर १० योजन तक गह है सो वह प्रमाण यहां विवक्षित नहीं हुआ है इस जगती मे जो गवाक्षकटक-जालक समूह है वह भी ऊंचाई में आधे योजन का है और विष्कम्भ में ५०० धनुषका है, इस पद्म का वर्णावास-वर्णन पद्धति-इस प्रकार से है-जैसे-इसके मूल-कन्द से नीचे, तिरछे निकले हुए जटा जूटरूप अवयवविशेष-रिष्ट रत्नमय हैं कन्द-मृल-नाल को मध्यवर्ती गांठ-हसका वैड्यरत्नमय है नाल-कन्द के ऊपर मध्यवर्ती अव. यव-वैडूर्यरत्नमय है वाह्य पत्र भी इसके वैडूर्यरत्नमय ही हैं यहां इतनी विशे. આઠ યજન જેટ છે. તેમજ ઉપરમાં અને વિષ્ઠભ ચાર ચેજન જેટલે છે. એથી મૂળમાં એ વિસ્તૃત મધ્યમાં સંક્ષિપ્ત અને ઉપર પાતળી થઈ ગઈ છે. આને આકાર પુછુ જે થઈ ગયે છે. આને અત્રે જગતનું પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે. તે પાણીથી ઉપરની તરફ ઉસ્થિત જગતીનું પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે. કેમકે એ પાણીની અંદર ૧૦ એજન જેટલી પહોંચેલી છે, તેથી તે પ્રમાણ અને વિવક્ષિત નથી. એ જગતીમાં જે ગવાક્ષ કટક જલક સમૂહ છે–તે પણ ઊંચાઈમાં અડધા જન એટલે છે. અને વિષ્ઠભમાં ૫૦૦ ધનુષ જેટલો છે. એ પદ્યની વર્ણન પદ્ધતિ આ પ્રમાણે છે એના મળે કન્ટથી નીચે ત્રાંસા બહિઃ નિસત જટાજૂટ રૂપ અવયવ વિશેષ-રિષ્ટ રનમય છે. એનું કન્દ-મૂળ નાવની મધ્યવતી ગાંઠ છૂટ્યરત્નમય છે. નાલ-કન્દની ઉપર આવેલ મધ્યવર્તી અવયવ-વૈર્યરતનમય છે. એના બાહ્યપત્રે પણ વૈર્યરત્નમય છે. અહીં આટલી વાત વિશેષ સમજવી કે બહારના પત્રમાંથી ચાર પત્રે વિર્યનમય છે અને શેષ પત્રે
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २ पमहदनिरूपणम् सुवर्णमयानि 'अभिनरपत्ता' अभ्यन्तरपत्राणि क्वचित्तु पीतस्वर्णमयान्युक्तानि तथा 'तवणिः ज्जमया' तपनीयमयानि रक्तवणस्वर्णमयानि 'कैसग कैसराणि 'णाणामणिमया' नानामणिमयाः अनेकविधमणिमयाः 'पोखरट्टिमाना' पुष्करास्थिभागाः कमलबीजविभागाः, 'कणगामई कनकमयी-म्वर्णमयी 'कणि गा' कर्णिका-बीजकोशः, अथ कर्णिकामानाद्याइ-'सा गं' सा खल कर्णिका अजोयगं' अई योजनम् योजनस्यार्द्धम् 'आयामविक्खंभेणं दैयविस्ताराभ्याम् 'कोसं' क्रोश-क्रोशपर्यन्तम् 'बाहल्लेणं' बाहल्येन पिण्डेन, 'सबकणरा:मई' सर्वकनकमयी सर्वात्मना ऊनकमयी स्वर्णमयी, 'अच्छा' अच्छा आकाशस्फटिकवनिर्मला अत्र 'सण्डा' इत्यादि पदानामपि संन्नदो बोध्यः, तथाहि - 'लप्टा घृष्टा नीरजाः निर्मला निप्पका निकटच्छाया सप्रभा समरीचिमा सोद्घोता प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिस्पेति फलितम् । एक व्याख्या चतुर्थ जगतजगतीवर्णने विलोभनीया। 'तीसेणं' तस्याः खलु 'कण्गियाए' कर्णिकायाः 'उप्पि' उररि-ऊर्थे 'यहुयमरमणिज्जे' बहुसमरमणीयः अत्यन्तसमतलरमणीयः, 'भूमिभागे पण्णत्ते भूमिभागः प्राप्तः, स कीदृशः ? इत्यपेक्षायापता है कि बाहिर के पत्रों में से चार पत्र बर्यरत्नमय हैं और बाकी के पत्र रक्त सुवर्णमय है तथा-भीतर के जो पत्र हैं वे जाम्वृन्दमय-ईपद्रक्त सुवर्णमय हैं कहीं ऐसा भी कहा गया है कि वे पीनस्वर्णमय हैं इसके केशर रक्त सुवर्ण मय हैं इसके कमलबीजविभाग अनेक विधमणिमय हैं कर्णिका ईसकी स्वर्णमयी है (सा णं अद्धं जोयणं आयानविक्कंभेणं कोसं वाहल्लेणं सव्वकणगामई अच्छा) यह आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा अर्धयोजन की है एवं वाहल्य-मोटाईकी अपेक्षा एक कोश की है यह सर्वात्मना स्वर्णमयी है तथा आकाश और स्फटिकमणि के जैसी निर्मल है। यहां 'सहा' इत्यादि पदों का भी संग्रह हुआ है-जसे 'लष्टा, घृष्टा, मृष्टा, नीरजा, निर्मला, निष्पंका, निष्कंकटच्छाया, स प्रभा, समरीचिका, सोयोता, प्रासादीया, दर्शनीया, अभिरूपा, प्रतिरूप' इन રક્ત સુવર્ણમય છે. તેમજ અંદર જે પત્ર છે. તે જનદમય-ઈવરક્ત સુવર્ણમય છે. કેટલાક સ્થાને આવું પણ કથન છે કે એ પીત સ્વર્ણમય છે. એનાં કેશરે રક્ત સુવર્ણ મય છે. એને કમળ ખીજ વિભાગ અનેકવિધ મણિમયેથી નિર્મિત છે. આની કણિકા सुवर्ण भय छे. 'सा णं अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं कोमं वाहल्लेणं सबकणगामई અ” એ આયામ અને વિધ્વંભની અપેક્ષાએ અડધા જન જેટલી છે. અને બહત્ય જાડાઈની અપેક્ષા એક ગાવ જેટલી છે. એ સર્વાત્મના સુવર્ણમયી છે તેમજ આકાશ અને मन टिभी ये निम छे. ही 'सण्हा' वगैरे पहाना ५ सय थयेस छ. सम-'लप्टा, धृष्टा, मृप्टा, नीरजा, निर्मला, निष्पंका, निष्कंकटच्छाया, सप्रभा, समरीचिका, सोद्योता, प्रासादीया. दर्शनीया, अभिरूपा, प्रतिरूपा' ने पहनी व्याच्या याथा सूत्रगत
तीन नमानस ने . 'तीछेणं कणियाए उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे माह-'से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा.' स यथा नामक आलिङ्गपुष्कर इति वा इत्यादि भूमिभागवर्णनं व्याख्यासहितं पप्ठ सूत्रतो बोध्यम् ॥सू० २॥
मूलम-तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूनिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णते, कोसं आषामेणं, अछकोसं विक्खंभेणं, देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं, अणेगखंभलयसपिणविढे पासाईए दरिसणिज्जे । तस्स णं भवणस्त तिदिलि तओ दारा पणता । तेणं दारा पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अडाइजाई धणुलयाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं । सेआ घरकणगथूनिआ जाच वणमालाओ णेयव्वाओ । तस्स णं अवणस्त अंतो वहुसारमाणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगयुक्खरेइ बा० । तरल णं वहुसज्झदेसभाए एत्थ णं महई एगा सणिपेढिया पण्णता। साणं मणिपेढिशा पंच धणुसयाई आयामविश्वंभेणं अड्डाइजाइं धणुसरा वाहल्लेणं, सव्वमणिमई अच्छा० । तीसेणं मणिपेदियाए उप्पिं एत्थ णं महं एगे लयणिज्जे पण्णत्ते । सयणिज्ज वण्णओ भाणियो । से णं पउमे अण्णेणं अट्ठसएणं पउमाणं तदधुञ्चत्तप्पमाणमित्ताणं सबओ समेतो संपरिक्खित्ते । ते णं पडमा अजोयणं आयामविश्वंक्षेप, कोसं वाहल्लेणं, दसजोयणाई उठवेहेणं, कोसं ऊसिया, जलताओ साइदेगाइं दस जोयणाई उच्चत्तेणं । तेसि णं पउनाणं अयमेयारूवे वण्णावाले पण्णत्ते, तं पदों की व्याख्या-चतुर्थ सूत्र गत जगती के वर्णन में देखलेना चाहिये, (तीसेणं कणियाए उप्पि बहुलमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) इस कर्णिका के ऊपर का भूमि भाग ऐसा बहुसमरमणीय कहा गया है (से जाहा णालए आलिंग पुक्खर इति वा) जैसा की बहुसमरमणीय आलिङ्ग पुष्कर-वृदंग का मुखहोता है इत्यादि रूप से इस भूमि भाग का वर्णन व्यख्यासहित छठ वें सूत्रसे जान लेना चाहिये ॥२॥ पण्णत्ते' को शुनी ५२ने भूमिमा मेवा भरमणीय वामां आवे छे 'से जहा णामए आलिंगपुक्कर इति वा का मसभरमणीय माlan पुष्४२-भू-भुमना હોય છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં એ ભૂમ્રિભાગનું વર્ણન વ્યાખ્યા સહિત ષષ્ઠ સૂત્રમથી જાણી
न . ॥ १. २ ॥
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प्रकागिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम् जहा-इरामया मूला जाब कामनालई कठिणया । सा गं कपिणया कोस आयामेणं अशकोसं वाहल्लेणं, समकाणमामई अच्छ इति। तीसे णं कष्णियाए उपि बहुसलरमणिज्जे जाव सणीहिं उनसोभिए । तस्स णं पउमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थियेणं एत्थ णं सिरीए देवीए चउन्हं सानाणियसाहरूलीणं चत्तारि एउमलाहस्सीओ पण्णत्ताओ। तस्स णं पउमस्त पुरथिनेणं एत्प णं सिरी देवीए बउण्हं महत्तरियाणं बतारि पाउसा पणता । लरल पं पउनस्ल दाहिणपुरस्थिमेणं सिरीए देवीए अभितरियाए परिसाए अहाहं देवसाहरूसीणं अट्ट पउमसाहस्सीओ पाणत्ताओ। दाहिणणं मन्झिसपरिसाए दसण्हं देवसाहस्सीणं दस पउनसाहस्लीओ पण्णत्ताओ। दाहिणपच्चरिथमेणं बाहिरियाए परिसाए वारसण्हं देवताहस्लीणं वारस पउमसाहस्सीओ पण्णताओ। पच्चस्थिमेणं सलाहं अणियाहिबईणं सत्त पउमा पण्णताओ । पच्चरिथमेशं सत्ताह अणियाहिबईणं सत्त पउमा पण्णता। तस्स णं पउमस्त चउदिलि समओ ससंता इत्थ ण सिरीए देवीए सोलसण्हं आयरकखदेवसाहस्तीणं सोलस उससाहरूलीओ पण्णत्ताओ। से गं तीहिं पापरिक्वेहि ताओ लसंता संपरिखित्ते, तं जहा-अभितरएणं, सज्झिमएणं, बाहिरपणं । अमितरए पउमपरिक्खेवे बत्तीसं पउससवसाहरलीओ पत्तायो । मज्झिमए पउमपरिक्खेवे चत्तालीसं पउमसयसाहस्सीओ पाणसाओ । वाहिरए पउसपरिक्खेवे अडयालीसं पउससयसाहसीओ एण्णताओ । एवामेव सपुआवरेणं तिहिं पउमपरिक्खेवेहिं एगा पडसकोडी वीसं च पउमसयसाहस्सीओ भवंतीति अक्खायं । से केपटेणं संते ! एवं वुच्चइ-पउस दहे दहे ?, गोयमा! पउमदहेणं तत्थ २ देसे तहिं . वहये उप्पलाइं जाव सयसहस्सपत्ताई पउमद्दहप्पलाई एउमहहरपणाभाई सिरी य इत्थ देवी महिड्डिया जाव पलिओक्सट्रिइया परिवसइ, से एएगटेणं जाव अदुत्तरं च णं गोयमा! पउमदहस्त लासए णामधेज्जे पण्णते, ण कयाइ णासि न० ॥सू०३॥
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- जम्बूद्वीपप्रजातिसूत्रे __ छाया-तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र खलु महदेकं भवनं प्रज्ञप्तम् , क्रोशमायामेन अर्द्धक्रोश विष्कम्भेण देशोनकं क्रोशमूर्ध्वमुच्चत्वेन अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टं प्रासादीय दर्शनीयम् । तस्य खलु भवनस्य त्रिदिशि त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञशानि, तानि खलु द्वाराणि पञ्चधनुःशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, सार्द्धततीयानि धनुःशतानि विष्कम्भेण, ताव देव च प्रवेशेनाश्वेतानि वरकनकस्तूपिकानि यावत् वनमालाः ज्ञातव्याः। तस्य खलु भवनस्य अन्तः बहुसमरणीओ भूमिभागः प्रज्ञप्तः स यथा नामकः आलिङ्गपुष्कर इति वा । तस्य खलु बहुमध्यदेशभागे, अन खलु महती एका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता । सा खलु मणिपीठिका पञ्चधनुः शतानि आयामविष्कम्भेण, सार्द्धतृतीयानि धनु शतानि वाहल्येन, सर्वमणिमयी अच्छा० । तस्याः खलु मणिपीठिकायाः उपरि अत्र खलु महदेकं शयनीयं प्रज्ञसम् । शयनीयवर्णको भणितव्यः । तत् खलु पद्मस् अन्येन अष्टशतेन पदमानां तदोच्चत्वंप्रमाणमात्राणां सर्वतः समन्तात् संपरिसिप्तम् । तानि खलु अर्द्धयोजनमायामविष्कम्भेण, क्रोशं वाइल्येन, दश योजनानि उद्वेधेन क्रोशमुच्छ्रितानि जलान्तात् सातिरेकाणि दश योजनानि सर्वाग्रेण तेषां खलु पद्मानामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-चत्रमयानि मूलानि यावत् कनकमयी कर्णिका । सा खलु कणिका क्रोशमायामेन, अर्द्धक्रोशं वाहल्येन, सर्वकनकमयी अच्छा इति । तस्याः खलु कणिकाया उपरि बहुसमरमणीयो यावत् मणिभिरुपशोभितः। तस्य खलु पद्मस्य अवरोत्तरे उत्तरे उत्तरपौरस्त्ये अत्र खलु श्रिया देव्याः चतसृणां सामानिकसाहस्रीणां चतस्रः पद्मसाहस्यः प्रज्ञप्ताः। तस्य खलु पदमस्य पौरस्त्ये अत्र खल श्रिया देव्याः चतसृणां महत्तरिकाणां चत्वारि पदमानि प्रज्ञप्तानि, तस्य खलु पद्मस्य दक्षिणपौरस्त्ये श्रिया देव्याः आभ्यन्तरिकायाः परिपद: अष्टानां देवसाहसीणाम् अष्ट पद्मसाहस्य: प्रज्ञप्ताः । दक्षिणे मध्यमपरिषदौ दशानां देवसाहस्रीणां दश पद्मसाहस्त्र्यः प्रज्ञप्ताः । दक्षिणपश्चिमे वाह्यायाः परिपदो द्वादशानां देवसाहस्रीणां द्वादश पद्मसाइस्त्यः प्रज्ञप्ताः, पश्चिमे सप्ता. नामनीकाधिपतीनां सप्त पद्मानि, प्रज्ञतानि। तस्य खलु पद्मस्य चतुर्दिशि सर्वतः समन्तात् अत्रखलु श्रिया देव्याःषोडशानामात्मरक्षकदेवसाहस्रीणां पोडश पद्मसाहरूयः प्रज्ञप्ताः तत् खलु त्रिभिः पद्मपरिक्षेपैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तम् , तद्यथा-आभ्यन्तरकेण१, मध्यमेन२, वाह्यकेन ३ आभ्यन्तरके पद्मपरिक्षेपे द्वात्रिंशत् पद्मशतसाहस्थ्यः प्रज्ञप्ताः, मध्यमके पद्मपरिक्षेपे चत्वारिंशत् पद्मशतसाहस्व्यः प्रज्ञप्ताः, वाह्यके पद्मपरिक्षेपे अष्टचत्वारिंशत् पद्म शसाहस्यः प्रज्ञप्ताः । एवमेव सपूर्वापरेण त्रिभिः पद्मपरिक्षेपैः एका पद्मकोटीविंशतिश्च पद्मशतसाहस्त्र्यो भवन्तीति आख्यातम् । ___ अथ के नार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते पद्महूदो पद्मदः, गौतम । पद्म इदः खलु तत्र२ देशे तत्र२ वहूनि उत्पलानि यावत् शतसहस्रपत्राणि पद्मदवर्णाभानि श्रीश्चात्र देवी महद्धिका यावत् पल्योपमस्थितिका परिवसति तद् एतेनार्थेन यावत अदुत्तरम् (अथ) च खलु गौतम ! पदूमहदस्य शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् । न कदाचित् नासीद् म० ॥ सू०३॥
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थबक्षस्कारः स० ३ तस्थितभवनादिवर्णन
टीका-'तस्स णं' इत्यादि । 'तस्स णं बहुसमरमणिजभूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए' वस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे 'एत्य पं' अत्र-अस्मिन् प्रदेशे खलु 'महं एगे भवणे पण्णत्त' महदेकं भवनं प्रजप्तम् , अस्य भवनस्य मानाद्याह-'कोसं आयामेणं' क्रोशमायामेन 'अद्धकोसं विक्खंभेणं' अर्द्धकोश विष्कम्भेण, 'देसूणग' देशोनकं किश्चिन्युनं 'कोसं' क्रोशम् 'अद्धं उच्चत्तेणं' उर्ध्वमुच्चत्वेन 'अणेगखंभसयसण्णिविट्टे' अनेक स्तम्भशतसंनिविष्टम्-अनेकानि बहुनि स्तम्भशतानि संनिविष्टानि-संलग्नानि यत्र तत्तथा अनेकशत स्तम्भयुक्तमित्यर्थः 'पासाईए दरिसणिज्जे.' प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपं व्याख्या प्राग्वत् । 'तस्स णं भवणस्स तिदिसि तस्य खलु भवनस्य त्रिदिशि तिमपु दिक्षु तो दारा पण्णत्ता' त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि तत् द्वारत्रयमानाधाह-'तेणं दारा पंच धणु सयाई तानि खल द्वाराणि पन्नधनुः शतानि 'उद्धं उच्चत्तणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'अट्टाइजाई धणुसयाई विक्खंभेणं' अर्धतीयानि धनुशतानि विष्कम्भेण 'तावइयं चेत्र पवेसेण तावदेव तत्प्रमाणमेव प्रवेशेन प्रवेशमार्गावच्छेदेन प्रज्ञप्तानि । तानि 'सेवा' श्वेतानि श्वेतवर्णानि बाहल्येनारत्नमयत्वात् 'वरकणगभिया' वरकनसस्तृपिकानि उत्तम स्वर्णमयलघुशिखरयुक्तानि 'जाव वण
'तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागरस बहुसज्झदेसभाए'-इत्यादि ।
टीकार्य-(नस्सणं यहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स पहुमज्झदेसभाए) इस यहसमरमणीय भूमिभाग के बीच में (एत्वणं एगे महं भवणे पण्णत्ते) एक विशाल भवन कहा गया है (कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खेभेणं, देसः णगं कोसं उद्धं उच्यत्तण) यह भवन आयाम (लंबाई की अपेक्षा) एक कोशका विष्कम्भ (चोडाई) की अपेक्षा आधे कोगका और-ऊंचाई की अपेक्षा कुछ कम एक कोशका है (अणेगग्वंभसय सन्निविटे, पासाईए दरिसणिज्जे) यह भवन सैकडों खंभों के ऊपर खडा हुआ है तथा यह प्रासादीय एवं दर्शनीय है (तस्सणं भवणस्स निदिसि नओदारा पण्णता) इस भवन की नीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं । (तेणं दारा पञ्चधणुसयाई उद्धं, उच्चत्तेणं अद्वाइज्जाई धणुस. 'तरस णं बहुसमरमणिज्जरस भूमिभागस्स बहुमज्मदेसमाए'-इत्यादि
-'तरस णं वहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए' से मसभरमणीय भूमिलासनी मेम १२ये एत्यणं एगे मह भवणे पण्णत्ते' से सुविण भवन मावेत. 'कोसं आयामेण अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं भवन मायाम ની અપેક્ષાએ એક ગાઉ જેટલું, વિધ્વંભ (ચેડાઈ)ની અપેક્ષાએ અડધા ગાઉ જેટલું અને
यानी अपेक्षाये ४४४ ४ ४ २ छ. 'अणेग खंभसय सन्निविद्रं, पोसाईए રતિળિ એ ભવન સેંકડે સ્તંભ ઉપર ઊભુ છે. તેમજ એ પ્રસાદીય અને દેશનીય छ. 'तम्स णं भवणस्स तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता' से मननी हशामा । >मावला. 'वेणं दारा पच्चधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धाइज्जाई धणुसयाई विक्खंभेणं
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- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मालाओ णेयब्बाओ' यावत् वनमाला ज्ञातव्याः । अत्र यावत्पदेन इतो अग्रे 'ईहामिगे' इत्यारभ्य वनमालावर्णनपर्यन्तः सकलोऽपि पाठः तदर्थश्चात्रैव पूर्वमष्टमसूत्रस्य जम्बूद्वीप विजयद्वारवर्णनव्याख्यायां तथा राजप्रश्नीयसूत्रे सूर्याभदेव विमानद्वारवर्णने चतुप्पश्चाशत्तमसूत्रादारभ्य एकोनपष्टितमसूत्रगतवनमालावर्णनपर्यन्तं च विलोकनीयः ।।
'तस्स णं भवणस्स अंतो वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' तस्य खलु भवनस्य अन्तः मध्ये बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः स कोदृश इत्याह-'से जमाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा०' स यथानामक आलिङ्गपुष्कर इति वा इत्यादि भूमिभागवर्णनं सविवरणं पप्ठसूत्राद्वोध्यम् । 'तस्स णं' तस्य खल्लु भूमिभागस्य 'बहुमज्झदेसभाए' वहुमध्यदेशभागे 'एत्य णं' याई विखंभेणं, तावतिअंचेव पवेलेणं. सेथा वरकणगथूनिया जाव वणमालाओ जेयवाओ) ये द्वार पांच सौ धनुष के ऊंचे हैं अढाई सौ धनुष के चौडे हैं तथा इनमें प्रवेश करने का मार्ग भी इतका ही चौडा है ये द्वार प्रायः अङ्करत्नों के बने हुए हैं तथा इनके ऊपर जो स्तूपिकाए है-लघुशिखर हैं-वे उत्तम स्वर्ण की बनी हुई हैं इनके चारों ओर धनमालाए हैं यहां-यावत्पद से 'ईहामिग' आदि रूप जो वनमालावर्णन करते तकका पाट है वह गृहीत हुआ है वह पाठ और उसकी व्याख्या इसी जम्बूद्वीप के विजय द्वार के वर्णन में कही गई है-देखना चाहिये तथा राज प्रश्नीय सूर्यास देवके विमान के वर्णन के प्रसङ्ग में कथित ४५ वें सूत्र से लेकर ५९ वें सूत्र तक में देखना चाहिये (तस्लणं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) उस भवन के भीतर का जो भूमिआग है वह बहुलमरमणीय कहा गया है (से जहाणालए आलिंग पुक्खरेइवा) उस भूमि भाग का वर्णन इत्यादि रूप से छठे सूत्र से जान लेना चाहिये (तस्स तावतिअं चेव पवेसेणं, सेया वरकणगथूभिया जाव वणमालाओ णेयवाओ' ये दार ५०० धनुष જેટલા ઊચા છે અને ૨૫૦ ધનુષ જેટલા પહોળા છે. તેમજ એમની અંદર પ્રવિષ્ટ થવાને માર્ગ પણ આટલે જ પહોળે છે. એ દ્વારે પ્રાયઃ અંકરનેથી નિર્મિત છે. એમની ઉપર જે સ્કૂપિકાઓ છે–લઘુ-શિખરે છે તે ઉત્તમ સ્વર્ણ નિર્મિત છે. એમની थामेर वनमागाय छे. मी यावत्' ५४थी 'ईहामिग' वगैरे ३५२ वनभाणाना वर्णन સુધીને પાઠ છે, તે અહીં ગૃહીત થયે છે. આ પાઠ, અને પાઠની વ્યાખ્યા આ “જમ્મુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ માં પહેલા અષ્ટમ સૂત્રની વ્યાખ્યામાં, વિજય દ્વારના વર્ણન વખતે કરવામાં આવેલ છે. જિજ્ઞસુએ ત્યાંથી જાણવા યત્ન કરે. તેમજ “રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર માં સૂર્યાભદેવના વિમાન વર્ણન પ્રસંગમાં કથિત ૪૫ માં સૂત્રથી માંડીને ૫માં સૂત્ર સુધી એ पानी व्याच्या मागे नये. 'तस्स णं भवणस्स अंतो वहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते' ते अवननी भरने। रे भूमिमा छ, ते ममम २भीय ४उपाय छे. 'से जहाँ णामए आलिंगपुक्खरेइ वा ते भूमिमा वर्णन या ३५मा ७४1 सूरमाथा
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम्
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अत्र-अस्मिन् प्रदेशे खलु 'महई' महती विशाला 'एगा' एका 'मणिपेडिया' मणिपीठिका - मणिमयीपीठिका 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता । तस्या मानाद्याह - 'सा णं मणिपेढिया पंचधणुसयाई आयामविवखंभेणं' सा च मणिपीठिका पञ्चतुःशतानि आयाम विष्कम्भेण दैर्ध्य विस्ताराभ्याम् 'अडाइज्जाई धणुसयाई बाहल्लेणं' अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि चाहल्येन पिण्टेन, 'सन्त्रमणिमयी' सर्वमणिमयी- सर्वात्मना मणिमची 'अच्छा' अच्छा० अत्र श्लक्ष्णादिपदानां ग्रहणम् तत्संग्रहः तदर्यथाचैव चतुर्यसूत्रे जगतीवर्णने विलोकनीयः ।
'तीसे णं मणिपेढियाए उपि तस्याः खलु मणिपीठिकायाः उपरि 'एत्थ णं' अत्र खलु 'मदं एगे' महदेकं 'सयणिज्जे' शयनीयं शय्या 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, अत्र 'सयणिज्जवण्णओ' शयनीयवर्णकः शयनीयवर्णनकरः पदसमूहः 'भाणियन्बो' भणितव्यः वक्तव्यः इति, तच्छयनीयवर्णको यथा-'तस्य णं देवसय णिज्जस्स अयमेयारूचे वण्णावासे पण्णने, तं जहा - णाणा
णं मदेसभा एत्थ णं महई एगा मणिपेडिया पण्णत्ता) उस भवन के भीतर के बहुमरमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल मणिमयीपीठिका कही गई है (माणं मणिपेडिया पंचणुसवाई आयामविवन्भेणं, अद्वाइज्जाई धणुमया बाहल्लेणं सच्चमणिमई अच्छा ) यह मणिपीठिका आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा पांचमी धनुष की है एवं मोटाई की अपेक्षा २५० धनुष की है यह सर्वात्मना मणिमग्री है और आकाश एवं स्फटिक के जैसी निमल है'
(तीसे णं मणिपेढियाए उपि एत्थ णं एगे महं सयणिज्जे पण्णत्ते) उस मणिपीटिका के ऊपर एक विशाल अयनीय कहा है (सयणिज्जवण्णओ भाणिअन्दो) यहां शतनीय का वर्णन करनेवाला पाठ कह देना चाहिये जो इस प्रकार से है- (तस्स णं देवसमणिजस्स अग्रमेयाख्वे बण्णावासे पण्णत्ते-तं जहा
सम से', 'तम्स णं बहुराज्यसभाए एवं णं महई एगा मणिपेढिया पत्ता ' તે ભવનની અ ંદર સમરમણીય ભૂમિભાગની એકદમ વચ્ચે એક સુવિશ'ળ મણિમયી थीडिओ हेवाथ छे. 'सा में मणिपीठिया पंचबणुसयाई आयामविक्संभेणं, अढाइज्जाइ, धणुसयाई चाहल्लेणं सत्र्यमणिमई अच्छा' या भया आायाम भने पिच्छलनी अपेक्षा यांयसेो ધનુષ જેટલી છે. તેમજ જાડાઈની અપેક્ષા ૨૫૦ ધનુષ જેટલી છે. એ સર્વાત્મના મણિમયી છે. અને આદ્યાશ તેમજ સ્ફટિક જેવી. નિર્મળ છે. અહીં’‘શ્લક્ષ્ણાદિ' પદેનુ ગ્રહણુ કરવું જોઇએ, એ પદ્માની વ્યાખ્યા ચતુર્થાં સૂત્રમાં જગતીના વર્ણનમાં ઝરવામાં આવેલ છે, 'तीसे णं मणिपेढिया उपि एत्थ णं एगे मह सयण्णिज्जे पण्णत्ते' ते भशियी ठिनी उपर ४ सुविशाण शयनीय है. 'सयणिज्ज वण्णओ भाणिअव्वो' हीं शयनीय सगंधी पाउनु पान अपेक्षित छे. ते या प्रभा छे- तस्स णं देवसयणिज्जस्स अयमेयारूवे वण्णः वासे
'यहां श्लक्ष्णादि पदों का ग्रहण कर लेना उनकी व्याख्या चतुर्थ सूत्र में जगती के वर्णन में देख लेनी चाहिये ।
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- जम्बूद्वीपमाप्तिसूत्र मणिमया पडिपाया सोवण्णिया पाया, णाणामणिमयाई पायसीसगाई जंवूणयमयाइं गत्ताई घइरामया संधी णाणामणिमए विच्चे रययामई तूली लोहियक्खमया विव्वोयणा तवणिज्जमईओ गंडोवहाणियाओ से णं सयणिज्जे सालिंगणवट्टिए उमओ विवोयणे उभयो उण्णए मज्ञण य गंभीरे गंगा पुलिनवालुया उद्दालसालिसए ओयविय खोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे आइणगरूयवूर णवणीयतूलतुल्लफासे मुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुडे मुरम्मे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे इति । -- एतच्छाया-"तस्य खलु देवशयनीयस्य अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नानामणिमयाः प्रतिपादाः सौवर्णिकाः पादाः नानामणिमयानि पादशीर्पकाणि जाम्बूनदमयानि गात्राणि वज्रमयाः सन्धयः नानामणिमयं व्यूतं रजतमयी तूली लोहिताक्षमयानि-उपधान. कानि तपनीयमय्यो गण्डोपधानिकाः तत् खल्ल शयनीयं सालिङ्गनवर्तिकं उभयतो विव्योयणं उभयत उन्नतं मध्ये नतगम्भीरं गङ्गापुलिनवालुकावदालसहकं ओयविय (विशिष्ट) क्षौमदु. कूल पट्टप्रतिच्छादनम् आजिनकरुतवूर नवनीत तूल तुल्यस्पर्श मुविरचितरजस्त्राणं रक्तांशुक संवृतं सुरम्यं प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपम्" इति ।
, एतव्याख्या-तस्य अनन्तरोक्तस्य खलु देवशयनीयस्य शय्याया पर्यन्तस्य अयमेतद्रूपःवक्ष्यमाणस्वरूपः वर्णावासः वर्णनपद्धतिः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नानामणिमया अनेकविधमणिमयाः प्रतिपादा:-मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादाः, सौवर्णिका:-स्वर्णमयाः पादाः णाणामणिमया पडिपाया सोवणिया पाया, णाणामणिमयाई पायसीसंगाई, जंबुणयमयाइं गत्ताई वइरामया संधी णाणामणिमए विच्चे रययामई तूली, लोहियक्खमया वियोयणा, तवणिज्जमईओ गंडोवहाणियाओ, से णं सयणिज्जे सालिंगणवहिए उमओ विव्योयणे उभओ उण्णए, मज्झे णयगंभीरे, गंगापुलिणवालुया उद्दालसालिसए ओयवियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे आईणगरुपवूरणवणीयतूलतुल्लफासे सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुडे सुरम्भे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूचे पडिरूवे) इन पदों की व्याख्या इस प्रकार से है-उस देवशयनीय का यह इस प्रकार से वर्णावास-वर्णन-पद्धति-है-अनेक मणियों से थने हुए इसके प्रतिपाद थे मूलपाये जिनके भीतर रखे जाते हैं ऐसे कटोरा पण्णत्ते-तं जहा णाणामणिमया पडिपाया सोवणिया पाया, णाणामणिमयाई पायसीसगाई, जंवुणयमयाइं गत्ताई वइरामया संधी णाणामणिमए विच्चे रययामई तूली लोहियक्खमया विव्वोयणा तवणिज्जमईओं गंडोवहाणियाओ, से णं सयणिज्जे सालिंगणवट्टिए उभओ बिंबोयणे उभओ उरणए, मझे णय गंभीरे, गंगापुलिणवालुया उद्दालसालिसए ओयविय खोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे आईणगरूयवूरणवणीयतूलतुल्लकासे सुविरझ्य रयत्ताणे रत्तंसुयसंवुडे सुरम्मे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे' मा यहानी याच्या या પ્રમાણે છે-તે દેવશયનીયને વર્ણવાસ-વર્ણન પદ્ધતિ–આ પ્રમાણે છે–એના પ્રતિપાદે અનેક
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कार: सू० ३ तन्त्रस्थितभवनादिवर्णनम्
मूलपादाः, नानामणिमयानि अनेकविधमणिमयानि पादशीर्षकाणि पादानामुपरितनावयवविशेषाः जाम्बूनदमयानि-स्वर्ण विशेषमयानि मात्राणि 'ईप' इनि भाषाप्रसिद्धानि वज्रमयाः चचरन्नमयाः सन्धयः सन्धानानि नानामणिमयं विच्चं त्र्युतं विशिष्टं वानम् रजतमयी रूप्यमयी तुटी, दोहिताक्षमयानि लोहिताधनमयानि उपधानकानि उच्छीर्षकाणि, तपनीयमग्यः - स्वर्णविशेषमय्यः पण्डोपधानिः गण्डस्योपधानिकाः गल्लमसूरकाणीत्यर्थः ।
२५.
तत् ख शयनीयं मालिङ्गनवर्तिकम् - आदिन शरीरग्रमाणोपधानेन सह यत्ततथा, तस्य शयनीयस्य उभयन उभयपार्श्वे 'विनय' निदेशी गन्द उपधानार्थकः तेन गिरोन्त पादान्तावमिव्याप्य स्थिने उपधाने उपधानयमिति । पुनःतन्छयनीयम् उभयतः उन्नतम् उच्च मध्ये नवगम्भीरं ननम् अवनतं नम्रत्वात् गम्भीरं च महत्वात्, गङ्गापुलिनबालकायदाच गङ्गातटवाया अदास गदादिन्यासेऽयो गमनं तत्मदृशं यत्तत्तथा के आकार जैसे जो छोटे २ गोल पाये होते हैं वे यहां प्रतिपाद शब्द से लिये गये हैं इनसे नृपादों की रक्षा होती रहती है मृलपाद इसके सुवर्ण के घने हुए थे इसके सिरहाने के भाग और पैरों को पार कर रखने के भाग अर्थात् इसके लीग और पारी अनेक नणियों से बने हुए हैं इसके गात्र- शीर्ष जाम्वृनद स्वर्णविशेष के घने हुए हैं इसकी संधिगतं वज्ररत्न की बनी हुई हैं इस पर जो चान बुना गया है वह नाना मणियों से बना हुआ है इस पर जो तृली-गद्दा चिछा हुआ है वह रजत है इस पर जो उपधानक - तकिया रखे हैं वे लोहिताक्षरत्न से बनाये हुए हैं तथा गाल के नीचे जो छोटा तकिया रखा जाता है वह स्वर्णविशेष से बनाया गया है यह जयनीय पुरुष प्रमाण उपधान से युक्त है तथा शिरहाने की ओर एवं पैरों की ओर इसके ऊपर दो नकिये और रखे हुए हैं बडी होने से यह शय्या मध्य भाग में बीच में निम्न एवं गंभीर हैं अति મણિએ.થી નિર્મિ'ત હતા. મુખ્ય પાયા જેની અંદર મૂકવામાં આવે છે એવા વાડકાના આકાર જેવા જે નાના નાના ગોળ પાયાએ હોય છે. તે પ્રતિપાદ કહેવાય છે. એનાથી મૂળ પાદેની રક્ષા થતી રહે છે. એના મૂળપાઠે સુવર્ણ નિમિત હૈાય છે, એના મસ્તકની માર્જીના ભગા અને પગ તરફના ભાગે એટલે કે એની સિરા અને પારી અનેક મણુિએથી નિમિ`ત છે. એના ગાત્રા-ઈણ જમ્મૂના-સ્વર્ણ વિશેષના ખનેલા છે. એની સધિએ વજ્ર રત્નની ખનેલી છે. એની ઉપર જે વાળ’કરવામાં આવેલ છે તે અનેક પ્રકારના મણુિઓથી બનાવવામાં આવેલ છે. એની ઉપર જે તુલી-ગાદલા પાથરેલા છે તે રજતમય છે. એની ઉપર જે ઉપધાનક (એશ ) મૂકવામાં આવ્યાં છે, તે લેાહિતાક્ષ રત્નથી મનેલાં છે. તેમજ ગાલની નીચે જે નાતુ વૈશીકુ' વૃકામાં આવેલ છે તે સ્વણુ વિશેષથી નિર્મિત છે. એ શયનીય પુરુષ પ્રમાણ ઉપધાનથી યુક્ત છે. તેમજ મસ્તક તરફ અને પગ તરફ એ એશીકા વધારાના મૂકેલાં છે, વિશાળ હાવાથી એ શય્યા મધ્ય ભાગમાં નિમ્ન
ज० ४
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जम्बूद्वीपप्रममित्र 'ओयविय' शि देशी शब्दो विशिष्टार्थकः तेन विशिष्टं-परिकर्मितं शुमं शुमा अतसी तनिर्मितं यद् दुकूलं वसं तदेव पट्टः एकः शाटकः स प्रतिच्छादनम् आच्छादनं यस्य तत्तथा आजिनकरूतचूरनवनीततूलतुल्यस्पर्शम् आजिनकं मुकोमलं चर्मवस्त्रं स्तं परिकर्मितकापासः चूरः कोमलवनस्पतिविशेषः, तूलम् अर्कादितलं, तत्तुल्यः स्पर्शी यस्य त तथा मुविरचितं सुष्टुतया स्थापितं रखाणं रजोपनयनवस्त्रम् आच्छादनविशेपो यत्र तनथा, रक्तांशुकसंवृत्तं रक्तांशुकेन 'मच्छरदानी' ति भापा प्रसिद्धेन मगकगृहाभिधानेन वसविशेपेण संवृतम् आवृ. तम्-(आच्छादितम् ) अतएव सुरम्यं मुष्ट-रमणीयं 'प्रासादीय' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् । मृदु होने से यह शय्या गंगा के रेतीले मैदान जैमी नरम है तथा पर रखते ही यह नीचे धस जाती है 'ओयविय' यह देगीय शब्द है और इस का अर्थ विशिष्ट संस्कार से कसीदा आदि से सहित ऐसा है इस प्रकार कसीदा जिस पर काढा गया है ऐसे रेशमी वस्त्र से तथा कपास के या अलसी के बने हुए ' वस्त्र से यह आच्छादित है चर्ममय वस्त्र विशेषरूप आजिनक के समान, मन रुई के समान कोमल वनस्पतिविशेषरूप घर के समान, नवनीत-मक्खन-के समान, तथा अर्क तृल के समान इसका कोमल स्पर्श हैं आजिनक स्वभावतः कोमल होता है नवतीत-मक्खन भी इसी प्रकार कोमल होता है तथा-अर्क तूल भी ऐसा ही कोमल होता है इसी कारण उस शय्या के स्पर्श को प्रकट करने के लिये वह यहां इन सब के स्पर्श से उपमित किया गया है अपरिभोगावस्था में-उपयोग नहीं करने की अवस्था में-इसके ऊपर धूलि निवारणार्थ आच्छादन विशेष पडा रहता है तथा सञ्छरदानीरूप रक्तांशुक से यह युक्त रहता है अतएव यह सुरम्य है और प्रासादीय आदि पूर्वोक्त ४ विशेषणोंवाली અને ગંભીર છે. અતિ મૃદુ હોવા બદલ એ શા ગંગાના વાલુકામય તટની જેમ નર્મ छ, सुभा छे. तथा व्ये ५ भूनानी साथै १ नाय घसी नय. 'ओयविय' से દેશીય શબ્દ છે. આનો અર્થ વિશિષ્ટ સંસ્કારથી-કસબ વગેરેથી યુક્ત એ થાય છે. આ પ્રમાણે જેની ઉપર કસબનું કામ કરવામાં આવેલ છે એવા રેશમી વસ્ત્રથી તેમજ કપાસ અથવા અળસીથી નિર્મિત વસ્ત્રથી એ આચ્છાદિત છે. ચર્મમય વસ્ત્ર વિશેષ રૂપ આજિનકની જેમ, રૂત, કપાસની જેમ કમળ વનસપતિ વિશેષ રૂપ “બૂરીની જેમ, નવનીત-માખણની જેમ તેમજ અર્કતૃલની જેમ આને સ્પર્શ કમળ છે. આજનક સ્વભાવતા કોમળ હાય છે. નવનીત-માખણું પણ આ પ્રમાણે જ કોમળ હોય છે. તેમજ અર્કતલ પણ કમળ હોય છે. એથી જ આ શયાના સ્પશન પ્રકટ કરવા માટે એ સર્વ કેમળ પદાર્થો અત્રે ઉપમાનના ૩૫રાં મૂકવામાં આવ્યા છે અપરિભેગાવસ્થામાં–અનગિની સ્થિતિમાં–એની ઉપર ધૂળ પડે નહિ એ માટે એક આચ્છાદન વિશેષ પડિ રહે છે. તેમજ મચ્છરદાની રૂપ રકતો શૃંથી એ યુક્ત રહે છે. એથી એ સુરમ્ય છે-અને પ્રાસાદી વગેરે પૂર્વોક્ત ૪ વિશેષણે
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प्रकाशका टीका-चतुर्थवक्षत्कारः सू० ३ तस्थितभवनादिवर्णनम्
अथ पद्मस्य प्रथमपरिक्षेपमाह-'से ' इत्यादि । 'से गं' तत् पूर्वोक्तं खलु 'पउमे' पद्मम् 'अण्णेण' अन्येन अपरेण 'तदधुच्चत्तपमाणमित्ताणं' तदर्भोच्चवप्रमाणमात्राणां तस्य-मूलपद्मप्रमाणस्य अर्द्धम् अर्द्ररूपा उच्चत्वे उच्छवे प्रमाणे च-आयामविस्तार वाहल्यरूपे मात्रा प्रमाणं येषां तानि तथा नेपाम् । 'अहसए णं पउमाणं' पदमानामष्टशतेन 'सच ओ' सर्वज्ञः सर्वदिक्षु समंता' समन्तात् सर्वविदिक्षु च 'संपरिक्खित्ते' संपरिक्षिप्त परिवेष्टितं तदर्थत्यं च पद्मानामायामशिकम्भगहल्यनलोपरिभागोच्चत्वविपयकमेव विज्ञेयम् तदेव म्पष्टयति सूत्रकारः 'नेणं इत्यादि, 'नेणं 'उमा' तानि चलु पद्मानि 'अद्धजोयणं आयाम विक्खभणं अद्रयोजनमायामविष्यम्गण, एकं 'कोसं वाहरूलेणं' मोशं वाहल्येन पिण्डरूपेण 'दम जोयणाई उच्च हेणं' दश योजनानि उद्धे न जलावगादेन जलायगाठत्वेन मूलपद्मसाहश्यात् 'कोसं उसिया' प्रोगगेकरितानि 'जलताओ' जलान्तात-जलोपरिभागात् , 'साइरेगाई सातिरेकाणि-क्रोमैकल्पातिरेकनहितानि 'दस जोगणाई दश योजनानि सपाद दश योजनानीत्यर्थः 'सन्बन्गेण सर्वागिण सर्वप्रमाणेन । एतन्प्रमाणं भूमिभागादारभ्य विज्ञेयम् ।
नेपां वर्णकमाह-'नेसि णं पउमाणं' इत्यादि । तेति णं पउमाणं अयमेयास्वे' तेषां खलु पदमानामयमेतपः-वक्ष्यमाण स्वरगः 'वाणावासे' वर्णावासः-वर्णनपद्धतिः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' त यथा, तथाहि- मया मला' इत्यादि, 'नाव' अत्र यावच्छब्देन मूलपहै (से एउम भणणं अहाना पउमाणं नदधुच्चत्तप्पमाणमित्ताणं सचओ समंना संपरिनिवते) यह पूर्वोक्त कमल दूसरे और १०८ कमलों से कि जिनका प्रमाण इस प्रधानकमल ने आधा धा चारों ओर से घिरा हआ है (तेणं पउमा अद्धजोयणं आयामविश्वभेणं. कोसं नाहल्लेणं, दमजोयणाई उन्वेहेणं, कोसं जसिया जलंताओ मारेगाई दस जोयणाई उच्चत्तणं, तेसि णं पउमाणं अयमेयास्वे वण्णावासे पण्णते) ये सार प्रत्येका कमल आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा दो कोग के है मोटाइ की अपेक्षा से ये एक कोश के हैं उद्वेध-गहराइ की अपेक्षा से ये १० योजन के है और ऊंचाई की अपेक्षा से ये एक कोश के हैं और जल से ये कुछ अधिक १० योजन ऊंचे उठे हुए हैं इन कमलों के सम्बन्ध पाणी छे 'से णं पउमे अण्ण असणं पऊमाण तदुच्च तपमाणमित्ताण सचओ समंता સંવિત્તેિ એ પૂર્વે કનળ બીજા અન્ય ૧૦૮ કમળથી કે જેમનું પ્રમાણ એ પ્રધાન ४म ४२di मधुनु योमरथी मावृत्त हतु. 'तेणं पउमा अद्ध जोयण आयाम विक्खं. भेण, कोसं वाहल्लेणं, दसजोग्णाई, उबेहेणं कोसं ऊसिया, जलंताओ साइरेगाई, दस जोयणाई उच्चत्तेण तेसि ण पउमाण, अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' अमाथी हरे हरे ४मण આયામ અને વિધ્વંભની અપેક્ષાએ બે ગાઉ જેટલાં છે. જાડાઈની અપેક્ષાઓ એ એક એક ગાવ જેટલાં છે. ઉધ-ગંભીરતા–ની દષ્ટિએ એ ૧૦ એજન જેટલાં છે–અને ઉંચાઈની અપેક્ષાએ એ કમળ એક ગાઉ જેટલાં છે અને પાણીથી એ કમળ કંઈક म४ि १० यार- ५२ edei . सभा समधी वन मा प्रभारी छ 'तं जहा'
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जम्बूद्वीपप्रमसिम दमवर्णनपाठः संग्राह्यः । अर्थोऽपि तत्रैव विलोकनीयः । 'कगगामई' कनकमयी मुवर्णमयी कणिया' कर्णिका । तस्या मानाद्याह-'सा णं कपिणया' इत्यादि । 'माणं कणिया कोसं आयामेणं' सा खलु कणिका क्रोशं क्रोगपरिमिता आयामेन 'अन्द्र मोसं' अक्रोशम्क्रोशा परिमिता 'वाहल्लेणं' बाहल्येन-स्थौल्येन । कीदनी सा ? इत्याह-मव्यकणगामपी' सर्वकनकमयी-सर्वात्मना कनकमयी 'अच्छा०' अच्छा० इति अच्छा नक्षणा इत्यादि पाठोऽ. र्थश्च पूर्ववदेव । तस्या उपरि भूमिभागाद्यान्-'तीसे णं ऋणियाए उप्पि नभ्याः खन्नु कणिकाया उपरि इत्यादि 'जाब मणी हिं उनसोमिए' इत्यन्तं भूमिमागवर्णनं पाष्टमूत्रा वाध्यम् । ____ अथ द्विनीयपद्मपरिक्षेपमाह-'तस्स णं न्यादि । 'तस्स णं पउमस्स भारत्तरेणं तस्य मूलपद्मस्य खलु अपरोत्तरेवायव्यकोणे 'उत्तरेणं' उनरे-उत्तरस्यां दिशि 'उत्तर पुरधिमणं' उत्तरपौरस्त्ये ईशानकोणे सर्वसङ्कलनया तिम्पु दिशु 'एल्थणं सिरीए देवीए चउणे. सामाणि. यसाहस्सीणं चत्तारि' अत्र खलु श्रिया देव्याः चतरूणां सामानिकसाहस्रीणां चतन्त्रः 'पउमसाहस्सीओ' पद्मसाहस्यः चत्वारि पद्ममहस्राणि 'पण्णत्ताओ' प्रजाताः । 'तस्स णं पउमस्स' में इनका वर्णन ऐसा किया गया है-( जहा) जैसे-(बहरापया मृला, जाव कणगामई कणिया) मृल इनके सब के बज्रमय है, यावत् कर्णिका इनकी सय की सुवर्णमयी है (साणं कपिणया कोसं आयामेणं अद्धकोसं राहल्लेणं सबकणगामई अच्छा (तीसे णं कणियाए उप्पि बहुसमरमणिज्जे जाव मणीहिं उवसोभिए) वह कर्णिका आयाम की अपेक्षा एक कोग की है मोटाई की अपेक्षा आधे कोश की है यह सर्वात्मना कनकमयी है, और आकाश एवं स्फटिकमणिके जैसा निर्मल है इस कर्णिका के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावतू यह मणियों से सुशोभित है इत्यादि रूप से यहां भृनिभाग का वर्णन छटे सूत्र से जान लेना चाहिये (तस्स णं पउमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेण एत्थणं सिरीए देवीए चउपहं सामाणियसाहस्तीणं चत्तारि पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ) उस मूलपन की अपर उत्तर दिशा रूप चायव्य दिशा में उत्तर दिशा में एवं रेम-'वइगमया मूला, जाव कणगामई कणिया' में मां भगाना भूण १००मय छे. यावत् को भगानी ४४ ४४ सुवर्ष भयी छे. 'सा णं कण्णिया कोसं आयामेणं अद्ध कोसं बाहल्लेण सव्व कणगामई अच्छा तीसेणं कणियाए उपि बहुममरमणिज्जे जाव मणीहिं उवसोभिए' ते मायामनी मपेक्षाय से 16 टक्षी छ. धनी अपेक्षाये એક ગાઉ જેટલી છે. એ સર્વાત્મના કનકમયી છે અને આકાશ તેમજ સ્ફટિક મણિ જેવી નિર્મળ છે. યાવત્ એ મણિઓથી સુશોભિત છે. ઈત્યાદિ રૂપથી અહીં ભૂમિભાગનું વર્ણન ७४ सूत्रमाथा area
से य. 'तस्स णं पउमरस अवरुत्तरेण उत्तरपुरथिमेण एस्थ ण सिरीए देवीए चउण्ह समाणियसाहस्सीण चत्तारि पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' ते भूग (भु५५) पानी ઉપર ઉત્તર દિશારૂપ વાયવ્ય દિશામાં, ઉત્તર દિશામાં અને ઉત્તર પૂર્વ દિશા રૂપ ઈશાન
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थयक्षस्कारः सू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम् तस्य पद्मस्य खन्नु 'पुरस्थिमणं' पारस्त्ये पूर्वस्यां दिशि 'एत्थणं सिरी ए देवीए' अत्र खलु श्रिया देव्याः 'चउण्डं महत्तरियाणं चतसणां महत्तरिकाणाम्-अतिशयेन महत्यो महत्तरास्ता एव महत्तरिकास्तासाम्-'चत्तारि पउमा पण्णत्ता' चत्वारि पगानि प्राप्तानि, अत्र पूर्ववणितविजय देव सिंहापनपरिवागनुसारेण पार्षदादिपदमसूत्राणि भणितव्यानि नद्विवरणं सुगमम् यारन् पश्चिमायां सप्तानिकाधिपतीनां सप्त पद्मानि । तथापि न्यस्यन्ते 'तस्य गं' इत्यादि, 'तस्स णं तस्य मुख्यस्य बलु 'पउमस्स' पद्मस्य 'दाहिण पुरथिमेणं दक्षिणपौरस्त्ये अग्नि कोणभागे 'सिगए देवीए श्रियाः देव्याः 'अभिनरियाए' आभ्यन्त रिकायाः अन्तर्वतिन्याः 'परिसाए परिपदः सभायाः सम्बन्धिनीनां 'अट्टण्टं देवसास्सीणं' अप्टानां देवसाहस्रोणाम् - अप्टसहचाणि पद्मानि 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः । 'दाहिणेणं दक्षिणे-दक्षिणदिग्भागे 'मज्झिमपरिसाए' मा यमपरिपदः सम्बन्धिनीनां 'दस देवसाहरसोणं' दशानां देवसाहन्त्रीणां दस पउमसाहस्सीओ' दश पदमसाहम्न्यः-पदमसहचाणि 'पण्णत्ताओं' प्रजाप्ताः, 'दाहिणपच्चस्थिमेणं' दक्षिणपश्चिमे-नैन्यकोणे 'बाहिरियाप वाचायाः बहि भवायाः 'परिसाए परिपदः उत्तर पूर्वदिशा रूप ईशान विदिशा में श्री देवी के चार हजार सामानिक देवों के चार हजारपदम है (तस्स णं पउमस्स पुरथिमेणं पत्थ णं सिरीए देवीए चउण्हं महत्तरिआणं चत्तारि पउमा पण्णत्ता) उस मृलपद्म की पूर्वदिशा में श्रीदेवी की चार महतरिकाओं के चार पहम हैं यहां पर पहिले वर्णित हुए विजय देव के सिंहासन के परिवार के अनुसार पार्पदादि के पद्मसूत्रों का वर्णन है जो इस प्रकार से है-(नस्ल णं पउमस्म दाहिणपुरस्थिमेणं सिरी देवीए अभिः तरिआए परिमाए अट्टराई देवमाहस्सीगं अट्ठ पउमसाहलीओ पण्णत्ताओ) उस पद्म के दक्षिण पौरस्त्यदिशा रूप आग्नेयकोण में श्री देवी के आभ्यन्तर परिपदा के आठ हजार देवों के आठ हजार पद्म है । (दाहिणेगं मज्झिमपरिसाए दसण्हं देवमाहस्सी दस पाउम साहस्सीओ पण्णत्ताओ) दक्षिण दिग्भाग में मध्यमपरिपदा के दश हजार देवों के दश हजार पद्म है। (दाहिणपच्चत्थिविहिशामा श्रीमाना यार सय साभानि टेवाना यार CM को . 'तस्स गं पउमस्स पुरस्थिमेणं एयण सिरीए देवीए चउण्ड महत्तरिआण चत्तारि पउमा पण्णत्ता' ते भूज (મુખ્ય) પદ્યની પૂર્વ દિશામાં શ્રી દેવીની ચાર મહરિકાઓના ચાર પો છે. અહીં પહેરવા વર્ણન કરાયેલ વિજયદેવના સિંહાસનના પરિવાર મુજબ પાર્ષદાદિના પસૂત્રનું વર્ણન છે, જે मा प्रभारी छ. 'तस्स णं पउमम्स दाहिणपुरस्थिमेण सिरीए देवीए आभितरिआए परिसाए अटण्हं देवसाहम्सीणं अट्ट पउमसाहम्सीओ पण्णत्ताओ' ते यमनी शिष्य पौ२२.५ ६Au રૂપ આય કેણમાં શ્રી દેવીના આત્યંતર પરિષદના આઠ હજાર દેવેના આઠ હજાર पनो छ 'दाहिगेण मज्झिमपरिसाए दसह देवसाहस्सीण दस पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' A EPTHE भयम परिपताना शसस हेवाना ६५ २ ५ो छ. 'दाहिण
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जम्बूद्वीपप्रज्ञनिसूत्रे सम्बन्धिatai ' वारस देवसाहस्तीर्ण' द्वादशानां देवसाहस्रीणां ' वारस पउमसाहस्सीओ' द्वादश पद्मसाहस्त्र्यः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमे पश्चिमायां दिशि 'सत्त अणियाहिवईर्ण' सप्तानाम् अनीकाधिपतीनां 'सत्त पडमा पण्णत्ता' सप्त पद्मानि प्रज्ञप्तानि ।
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अथ तृतीयपदमपरिक्षेपमाह - 'तस्स णं पउमस्स' इत्यादि, 'तस्स णं परमस्स चउद्दिसि' तस्य मुख्यस्य खलु पद्द्मस्य चतुर्दिशि चतसृणां दिशां समाहारश्चतुर्दिक् तस्मिंस्तथा-दिक्चतुष्टये 'सव्वओ समंता' सर्वतः समन्तात् 'इत्थ णं' अत्र खलु 'सिरीए' श्रिया: लक्ष्म्याः 'देवी ए' देव्याः 'सोलसण्हं आयरक्ख देवसाहस्सीणं' पोडशानाम् आत्मरक्षकदेव साहस्रीणाम् आत्मनि रक्षन्तीत्यात्मरक्षाः आत्मरक्षकास्ते च ते देवास्तेषां साहस्रीणां सहस्राणां 'सोलस पउमसाहस्तीओ' पोडश पद्मसाहस्त्र्यः कमलसहस्राणि 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, तथा हि- पूर्व पश्चिमदक्षिणोत्तर दिक्षु चत्वारि२ पद्मसहस्राणीत्येषां सङ्कलनया पोडश पद्मसहस्राणि सम्पद्यन्त इति बोध्यम् ।
अथोक्त व्यतिरिक्ता अन्येऽपि त्रयः परिक्षेपाः सन्तीत्याह - तत् खलु त्रिभिरित्यादि, 'से णं' तत् पद्मं खलु 'तीहिं' त्रिभिः उक्त व्यतिरिक्तैः 'पउमपरिक्खेवेहि' पद्मपरिक्षेपैः मेणं बाहिरिया परिसाए बारसहं देवसाहस्तीर्ण वारस पडमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ) दक्षिणपश्चिम दिग्भाग में नैर्ऋत्यकोण में बाह्य परिपदा के १२ हजार देवों के १२ हजार पद्म है । (पच्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणीयाहिवईणं सत्त पउमा पण्णत्ता) पश्चिमदिशा में सात अनिकाधिपतियों के सात पद्म है ।
तृतीय पद्म परिक्षेप कथन
(तस्स णं पउमस्त चउद्दिसि सव्वओ समंता इत्थ णं सिरीए देवीए सोलसहं आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ) उस मूल पद्म की चारों दिशाओं में श्री देवी के सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के १६ हजार पद्म हैं । ये आत्मरक्षक देव प्रत्येक दिशा में ४-४ हजार की संख्या में रहते हैं (से णं तीहिं पउम परिक्खेवेहिं सव्चओ समता संपरिक्खित्ते) यह मूल पच्चत्थिमेण बाहिरियाए परिसाए बारसह देवसाहस्सीणं वारस पउम साहस्सी ओ पण्णत्ताओ' દક્ષિણુ પશ્ચિમ દિગ્બાગમાં નૈઋત્ય કેણુમાં ખાદ્ય પરિષદાના ૧૨ હજાર દેવાના ૧૨ હજાર यो 'पच्चत्थिमेण सत्तण्ह अणीयाद्दिवईण सत्त परमा पण्णत्ता' पश्चिम दिशामा सात અનીકાધિપતિએના સાત પદ્મો છે.
તૃતીય પદ્મ પરિક્ષેપ કથન
'तरसणं' परमस्स चउद्दिसिं सव्वओ समता इत्थण सिराए देवी सोलसह आयरक्खदेवसाहस्सी सोलस परमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' ते भूज (मुख) पद्मनी थे।मेर શ્રીદેવીના સેાળ હજાર આત્મરક્ષક દેવેશના ૧૬ હજાર પદ્મો છે. એ આત્મરક્ષક દેવા દરેક हिशामां ४-४ डलर भेटवी संध्यामां रहे छे. 'सेणं' तीहि पउमपरिक्खेवेहिं सव्वओ समंता
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सु० ३ तत्र स्थित भवनादिवर्णनम्
पद्मरूपपरिवेष्टनैः 'सम्वओ' सर्वतः सर्वदिक्षु 'समता' समतात् सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खि'ते' संपरिक्षिप्तं परिवेष्टितम् 'तं जहा' तद्यथा - 'अभितरणं मज्झिमएणं वाहिरएणं' आभ्यन्तरकेण १ मध्यम केन २ वाद्यकेन३ । 'अभितरए पउमपरिक्खेवे बत्तीसं पउमरायसाहसीओ पण्णत्ताओ' ताभ्यन्तरकं पद्मपरिक्षेपे द्वात्रिंशत् पद्मशतसाहस्त्र्यः कमललक्षाणि प्रज्ञप्ताः, 'मज्झिमए' मध्यमके मध्य मे 'पउमपरिक्खेवे ? पापरिक्षेपे 'चत्तालीसं परमस्य साहसीओ पण्णत्ताओ' चत्वारिंशत् पद्मशतसाहस्त्रयः प्रजप्ताः' 'चाहिए' वालके वाद्ये 'पउमपरिक्खेवे' पद्मपरिक्षेपे 'अडयालीसं' चाष्टचत्वारिंशत् 'पउममयसाहस्सीओ' पद्मशतसाहस्त्र्यः - कमललक्षाणि' पण्णत्ताओ' प्रप्ताः इदं च पदमपरिक्षेपत्रयमाभियोगिकदेव सम्बन्धिवोध्यम् । अत्र भिन्न पद्मपरिक्षेपत्रयख्यापनं तेषां भिन्न भिन्न कार्यकारित्वात् ।
अथ परिक्षेपत्रिकस्य पद्ममर्वाग्रमाह - 'एवमेव ' इत्यादि । 'एवामेव ' एवमेव उक्तरीत्या 'सपूव्वारेणं' सपूर्वापरंण-पूर्वेण सहितः, अवरः सपूर्वापरस्तेन पौर्वापर्यमाश्रित्य स्थितैरित्यर्थः, ‘तिर्हि’ त्रिभिः ‘पउमपरिवखवेहिं' पद्मपरिक्षेपैः कृत्या 'एगा पउमकोडी' एका पद्मकोटी पद्म इन कथित पद्म परिक्षेपों से चारों ओर से घिरा हुआ है । (तं जहा) जो इस प्रकार से हैं - ( अभितर केणं, मज्जमणं पाहणं) एक आभ्यन्तरिक पद्म परिक्षेष, दूसरा मध्यमक पद्म परिक्षेप और तीसरा वाघ पद्मपरिक्षेप इनमें जो (अभितर पउमपरिक्खेवे बत्तीमं पउम समसाहस्सीओ पण्णत्ताओ) आभ्यन्तरिक पद्मपरिक्षेष हैं उस में ३२ लाख पद्म है ( मज्झिमए पउम परिक्खेवे चत्तालोमं परममयसादस्सीओ पण्णत्ताओ) मध्यमक जो पद्मपरिक्षेप है उस में ४० लाख पद्म है (बाहिरए पमपरिक्खेवे अडयालीसं परमसयसाहसीओ पण्णत्ताओ) तथा जो बाह्य पद्मपरिक्षेप है उस में ४८ लाख पद्म है । यह पद्म परिक्षेप आभियोगिक देव संबन्धी है यहां जो इसे भिन्नरूप से कहा गया है वह उन्हें भिन्न भिन्न कार्यकारी होने से कहा गया है । ( एवामेव संपरिक्तियते' को भूग पद्म मे थित या परिक्षेयो सिवाय मीन्न पत्र पद्म परिक्षेपोथी थामेर घेरायेस छे. 'तं जहा' ने आ प्रभाये छे. 'अभितरकेणं, मज्झिमरण बाहिरएण" પ્રથમ આભ્યંતરિક પદ્મ પરિક્ષેપ બીજું નાધ્યમિક પદ્મ પરિક્ષેપ અને તૃતીય ખાદ્ય પદ્મ પરિક્ષેપ ये सर्वमां ने 'अभितरए परमपरिक्खेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' भाल्यांत२ि४ पद्म परिक्षेष छे तेभां उ२ साथ यो छे, 'मज्झिमए परमपरिक्खेवे चत्तालीसं पउमसय साहसीओ पण्णत्ताओ' मध्य ने पद्म परिक्षेय तेभां व्यासीस साथ पझो छे. 'बाहिरए पउमपरिक्खेिवे अडयालीसं पउम सयसाहस्सीओ प०' तेभन ने माहा यद्म परिक्षेप छे. तेभां ૪૮ લાખ પડ્યો છે. એ પદ્મ પરિક્ષેપ ત્રય આભિચાગિક દેવ સમધી છે. અહી જે આને ભિન્ન રૂપમા ક્ડવામાં આવેલ છે તેનુ કારણ આ પ્રમાણે છે કે તેઓ ભિન્ન—ભિન્ન हार्यद्वारी होवाथी तेभ एडेस छे, 'एवामेव सपुव्वावरेण तिहिं पउमपरिक्खेवेहिं एगा परम
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raatra
'चीसं च ' विंशतिश्च 'पउमसयसाहसीओ' पद्मशतसाहस्त्रयः - विंशतिलक्षाधिकैककोटिसंख्यकानि पद्मानि 'भवतीति' भवन्ति इति 'अक्खायं' आख्यातं - तीर्थकरगणधरैः कथितम् । अत्रेदं बोध्यम्-
आम्यन्तरपद्म परिक्षेपपद्मसंख्या द्वात्रिंशल्लक्षाणि मध्यमपद्मपरिक्षेपपद्मसंख्या चत्वारिंशल्लक्षाणि, बाह्यपद्मपरिक्षेपपद्मसंख्या च अष्टचत्वारिंशल्लक्षाणि इति सर्वसंकल नया त्रिविधपद्मपरिक्षेपपद्मसंख्या विंशतिलक्षाधिका एका कोटि : (१,२०,००८०० ) भवति । सपरिवारायाः श्री देव्याः निवासपद्मसंख्या चैवम् एकं पद्मं (१) श्री देव्याः स पुचावरेणं तिहिं परमपरिक्खेवेहिं एगा पउमकोडी वीसं च पउमसयसाहसीओ भवतीति अक्खायं ) इस प्रकार इन पद्मपरिक्षेपत्रयों की संख्या का प्रमाण इस प्रकार से है- श्री देवी का निवास भूत पद्म एक है तथा श्री देवी के निवास भूत पद्म की चारों दिशाओं में जो पद्म हैं वे १०८ हैं चार हजार सामानिक देवों के निवासभूत पद्म ४ हजार है चार महत्तरिकाओं के निवास भूत पद्म ४ हैं आभ्यन्तर परिषदावर्ती ८ हजार देवों के निवासभूत पद्म ८ हजार हैं मध्य परिपदावर्ती १० हजार देवों के निवासभृत पद्म १० हजार है मध्यपरिषदावर्ती १२ हजार देवों के निवासभूत पद्म १२ हजार है सात अनीकाधिपतियों के निवासभूत पद्म ७ हैं । १६ हजार आत्मरक्षक देवों के निवासभूत पद्म १६ हजार हैं इस तरह सपरिवार श्रीदेवी के निवासभूत सर्व पद्मों की संख्याका जोड ५०१२० होता है । आभ्यन्तरमध्यम, एवं बाह्य पद्म परिक्षेपपद्म संख्या १ करोड २० लाख में इस संख्या को जोड देने पर एक करोड २० लाख ५० हजार एकसौ बीस (१२०५०१२०) समस्तपद्म होते हैं । अव गौतमस्वामी
कोडी वीसं च परमसयसाहस्सीओ भवतीति अक्खायं' मे प्रभा से पद्मपरिक्षेय त्रयोनी સખ્યાનું પ્રમાણ એક કરોડ ૨૦ લાખ હૈાય છે. સપરિવાર શ્રીદેવીના નિવાસભૂત પદ્મોની સંખ્યાનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે છે. શ્રી દેવીના નિવાસસ્થાન રૂપ પદ્મ એક છે. તેમજ શ્રી દેવીના નિવાસભૂત પદ્મની ચેામેર ચારે દિશાઓમાં જે પદ્મો છે તે ૧૦૮ છે. ચાર સહસ્ર સામાનિક ધ્રુવેના નિવાસસ્થન રૂપ પદ્મો ચાર સહસ્ર છે ચાર મહત્તરિકાઓના નિવાસ ભુત પદ્મો જ છે. આભ્યંતર પરિષદાવતી' ૮ હજાર દેવાના નિવાસ ભૂત પદ્મો ૮ સહસ્ર છે. મધ્ય પરિષદાવર્તી ૧૦ સહસ્ર દેવેાના નિવાસભૂત પદ્મો ૧૦ સહસ્ર છે. મધ્યમપરિષદાવતી ૧૨ સહસ્ર દેવેના નિવાસસ્થાન રૂપ પદ્મો ૧૨ હજાર છે. સાત અનીકાધિપતિઓના નિવાસ સ્થાન ભૂત પદ્મો છ છે, ૧૬ હજાર આત્મરક્ષક દેવેના નિવાસ ભૂત પદ્મો ૧૬ હજાર છે. આ પ્રમાણે સપરિવાર શ્રી દેવીના નિવાસભૂત સવ પદ્મોની સખ્યાના સરવાળા ૫૦૧૨૦ થાય છે. આભ્યંતર મધ્યમ તેમજ ખાદ્યપદ્ય પરિક્ષેપ પદ્મ સન્મ્યા એક કરોડ ૨૦ લાખમાં એ સખ્યાને જોડીએ તે એક કરાડ વીસ લાખ ૫૦ હજાર એકસોવીસ,
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ तबस्थितभवनादिवर्णनम् श्री देवी निवासभूतएमचतुर्दियति पद्मानि अष्टोत्तरशतम् (१०८), चतुस्सहस्रसामानिक: देवानां पद्मानि चत्वारि गहन्त्राणि (४०००), चतमणां महत्तरिकाणां चत्वारि (४०), आभ्यन्तरपरिपवर्तिनाम् अप्टसहल देवानाम् अष्टमहस्राणि ८०००), मध्यमपरिपवर्तिनां दशसहस्रदेवानां दशसहस्राणि (१००००), बाद्यपरिपदवर्तिनां द्वादशसहसदेवानां द्वादशस.
साणि (१२०००), सप्तानाम् अनीकाधिपतीनां सप्त (७) पोडशसहस्त्रात्मरक्षकदेवानां च पोडशसहस्राणि (१६०१०), उनि सपरिवार श्री देवी निवासभूतानां सर्वपमानां संकलनया पञ्चाशन सहस्राणि एक शनं विशनिश्च (५०१२०) सर्वाणि निवासपमानि भवन्ति । आभ्य. न्तरमध्यमवायपदमपरिक्षेपप: पसन्यायां चिंगतिलक्षाधिक कोटयात्मिायां (१,२०,००० ०००) सपरिवागयाः श्रीदेव्या निवामपदमागच्याया विंगन्युत्तोकगताधिकपञ्चाशत्सहस्रात्मिकायाः (५०१२०) संमेलनेन सर्वाणि पदमानि एका कोटि विंशशिर्लक्षाणि पश्चाशत्सहस्वाणि एकं शतं विंशतिश्च (१,२०,५०.१२०) भवन्तीनि । ___ अथ पदमहदनामनिरुक्तं परम्नाह-'मे केणटेणं भंने !' इत्यादि, 'से केणटेणं मंते ।। अथ हे भदन्त ! केन अर्थन कारणेन 'वं बुच्चद' एवगुच्यने 'पउमदहे दहे ?' पद्मइदः पदमहद इति भगामाह-गोयमा !! गौतम ! 'पउमदहेणं' पदमहदे खलु 'तत्य-तन्य' नत्र तत्र 'दमे नदिन नमिम्नम्मिन् देशे 'बहवे उप्पलाई' बहूनि उत्पलानि कमन्यानि 'जाव' यावन् ‘सयसहस्सपत्ताई' शतसहस्रपाणि-लक्षपत्राणि यावत् प्रभु से ऐमा पूछते हैं-(से केणढे णं भंत ! एवं बुच्चइ-पउमद्दहे २) हे भदन्त ! आप इसे पद्महुद इस नाम से क्यों-किस कारण से-कहते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोचमा ! पउमदहेणं तत्थ २ देसे तहि २ बहवे उप्पलाई जाव सयसहस्सपलाई पउमहहप्पभाई उमवण्णाभाई सिरीअ इत्थ देवी महि दिया जाच पलिओवगठिईया परिवसई, से एएणद्वेणं जाव अदुत्तरंच गं गोयमा! पउमहहरन लासप णामधेज्जे पणत ॥ कयाइ णासि न.) हे गौतम ! पद्महृद में जगह २ अनेक कमल हैं यावत् शतसहन्नपत्तोंवाले पद्म हैं यहां यावत्पद से कुमुद, सुभग, मांगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र और सहस्रपत्र' (૧૨૦૫૦૧૨૦) સમરત થાય છે. હવે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને આ પ્રમાણે પૂછે છે કે 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पउमदंहे २' सन्त ! तमे माने ५ मा नामथी । ४२४थी ४७ छ। १ कोनापामा प्रभु ४ छ-'गोयमा! पउमद्दहेणं तत्थ २ देसे तहिं बहवे उप्पलाई जाव सय सहम्सपत्ताई पउमहहापभाई पउमदहवण्णाभाई सिरीअ इत्थ देवी महिद्धिया जाव पलिओमट्टिईया परिवसइ, से पएणटेणं जाव अदुत्तरं च गं गोयमा । पउमदहस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते ण कयाइ णासि न' गौतम ! पाएमां 8-आणे सने ४भणे। छ થાવત્ શત સહસ્ર પાંદડાવાળા પો છે. અહીંયા યાવત પદથી કુમુદ, સુગ, સૌગંધિક, પંડરીક, મહાપુંડરીક, શતપત્ર અને સહસત્ર એ સર્વ કમળનું બહણ થયું છે. એ સર્વે
भक ५
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- जम्बूदीपप्रमनिसूत्र उत्पलानि सन्ति ! यावत्पदेन-कुगुदसुभगसौगन्धिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्रा. णीति संग्राह्यम् । तानि उत्पलानि कीदृशानि ? इत्यपेक्षायामाह - 'पउमहापमाई पद्मादप्रभाणि पदमइदाऽऽकाराणि आयत चतुरस्राकाराणीत्यर्थः । एतेन तत्र पद्महदे वानस्प तानि पद्महदाऽऽकाराणि पद्मानि बहूनि सन्ति, तानि चाशाश्वतानि पूर्वोक प्रमाणानि पार्थिवानि तु शाश्वता नीति सूचितम् , तथा 'पउमद्दह वण्णाभाई' पद्महद वर्णाभानि पदमइद वर्णस्येवाऽऽमा प्रतिमासो येपां तानि तथा-पदमहद वर्णप्रतिभासानि ततश्च पद्मानां विशेषणद्वयेन तानि पद्मानि तदाकारत्वाचवर्णत्वाच्च पद्महदानोति प्रसिद्धानि, ततस्तत्पमहूदाख्यपद्मयोगादयं जलाशयोऽपि पद्महदः, उभयेषामपि नाम्नामनादि काल. प्रवृत्तत्वेन नेतरेतराश्रयदोपः।
अथ पार्थिवपद्मतोऽप्यस्य नाम प्रवृत्ति र्जाताऽस्तीति ज्ञापयितुं प्रकारान्तरेण नामकारणमाइ 'सिरीय इत्थदेवी' श्रीश्चात्र देवीत्यादि अत्र अस्मिन् पद्महदे श्रीः लक्ष्मी देवी इन सब कमलों का ग्रहण हुआ है ये सब उत्पल पद्मद के जैसे आयत चतुरन आकारवाले हैं-इससे उस पद्म हद में वनस्पतिकाधिक कमल भी जो कि पद्मद के आकारवाले हैं बहुत परन्तु ये अशाश्वत हैं तथा पूर्वोक्त प्रमाण वाले जो कमल-पदम-हैं वे शाश्वत है और ये पृथिवीकारिक हैं ऐसा सूचित किया गया है ये पद्म पद्मद के वर्ण के जैसे प्रतिभासित होते हैं इस तरह पद्मद के आकार वाले और पद्मद के वर्ण के जैसे प्रतिभासशले पदमों को पद्महुद कह दिया गया है-अतः इनके सद्भाव से इस जलाशय को भी पदम ह्रद ऐसा कहा गया है. इन दोनों के पद्म ऐसे जो नाम हैं वे अनादि काल से चले आ रहे हैं-इस कारण इतरेतराश्रय दोष भी इन दोनों में नही है, पार्थिव पदम से भी इस जलाशय की पद्म हद इस नामकी प्रवृत्ति हुई है इस बात - ઉત્પલે પબ્રહ્દ જેવા આયન ચતુરસ આકારવાળા છે. એથી તે પહદમાં વનસ્પતિકાયિક કમળે પણ-કે જે પદ્યહુદના આકારવાળા છે અનેક છે. પરંતુ એ સર્વ પ અશાશ્વત છે. તેમજ પર્વોક્ત પ્રમાણુવાળા જે કમળો––છે તેઓ શાશ્વત છે અને પૃથ્વીકાયિક છે. આ પ્રમાણે સૂચિત કરવામાં આવેલ છે. એ પ પદ્મદના વર્ણ જેવા પ્રતિભાસિત હોય છે. આ પ્રમાણે પદ્યહુદના આકારવાળા અને પદ્યહુદના વર્ણ જેવા પ્રતિભાસવાળા પદ્ધોને પડ્યહુદ કહેવામાં આવેલ છે. એટલા માટે એમના સદ્દભાવથી એ જલશયને પણ પદ્ધહુદ કહેવામાં આવેલ છે. એ બન્નેનું “પ એવું જે નામ રાખવામાં આવેલ છે તે અનાદિ કાળથી ચાલતું આવી રહ્યું છે. એથી ઈતરેતરાશ્રય દેશ પણ એઓ બનેમાં નથી. પાર્થિવ પવને લીધે પણ આ જલાશયની પવહૂદ એ નામની પ્રવૃત્તિ થઈ છે એ વાતને સમજાવવા માટે સત્રકાર પ્રકારાન્તરથી નામકરણનું કથન કરે છે તેઓ શ્રી કહે છે કે એ પહદમાં શ્રી દેવી રહે છે અને તે કમળમાં નિવા ય કરે છે. એથી શ્રી નિવાસ ચોગ્ય
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवभस्कारः मू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम् पद्मनिवासिनी परिवसति, ततश्च श्रीनिवासयोग्यपदमाश्रयत्वात् पद्मोपलक्षितो हूद इति पद्मद आख्यायते, मध्यमपदलोपिकर्मधारय तत्पुरुषसमासात् । सा च श्रीः कीदृशी? इत्याह-'महिडिया' महादिका 'नाव' यावत् 'पलिभोवमहिश्या' पल्योपमस्थितिवा मह द्धिका इत्याग्भ्य पल्यापमस्थितिकति पर्यन्तानि विशेपणवाचकपदानि यावत्पदेन सङ्ग्रहाह्याणि, तथाहि-महद्रिका, महाद्युतिका, नहावला, महायशाः, महासौख्या, महानुभावा, पल्योपम स्थितिका, एतद्वन्याख्याऽष्टमसूत्रम्य विजयद्वारदेववर्णनाधिकारतो बोध्या, केवलं स्त्रीत्व पुंस्त्वकृनो भेदस्तुत्र पुरुन्देनात्र नु योन्मेन निर्देश इनि सर्वमन्यत्समानम् । __ अथ तत्र पदमहदे शाश्वतन्वं गवस्थापयितुमार-से एएणद्वेणं' इत्यादि-'से एएणटेणं' सः पद्मन्दः एनेन अनन्तरोकनेन अर्थन कारणेन 'जान' यावत्-यावत्पदेन "एवमुच्यतेपद्महदः पदमदः" इति संग्रायम् , 'भदत्त च णं' अपरम् अथ च खलु 'गोयमा !' हे गौतम ! 'पउमदृहस्न सासए पदमादस्य माश्वतं गवन् सर्वदा भवः शाश्वतं 'णामधेज्जे' को समझाने के लिये अब रस्त्रकार प्रकारान्नर से नामकरणका कथन करते हैं-वे कहते हैं कि हम पन कद में श्रीदेवी रहती है और वह कमल में निवास फरती है इनलिये श्रीनिवासयोग्य पदम का आश्रय होने से इस जलाशय का नाम पद्मद ऐसा कहा गया है शाकपार्थिव की तरह यहां मध्यम पदलोपी तत्पुरुप समान हुआ है वह श्रीदेवी महर्दिक है यावत इसकी आयु एक पल्यो. पमकी है यहां यावत्पद २' महाद्युतिका, महायला, महायशाः, महासौख्या, महानुभाया इन पदों का संग्रह हुआ है इन पदों की व्याख्या अष्टम सूत्रस्थ जो विजय द्वार के देव का वर्णनाधिकार है उसले जानलेगी चाहिये वहां जो ये पद प्रयुक्त हुए है उन्हें लिङ्ग व्यत्यय ले यहां श्रीदेवी के कारण निर्दिष्ट करलेना चालिये इस प्रकार से पदमहद नाम होने का कारण का उल्लेखकरके अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि इस प्रकार जो इस हद का नाम है वह પાનું શિયભૂત હોવાથી એ જલાશયનું નામ પાછુદ છે. શકિપાર્થિવની જેમ અહીં માધ્યમપદ લેપી તપુરુષ સમાસ થયેલ છે. એ શ્રી દેવી મહદ્ધિક છે યાવત્ એની ઉમર यह पत्यापम की छ. ग. यावत् पाथी-'महाद्युतिकाः, महाबलाः, महायशाः, महासौख्याः, महानुभावा' से यह अहाणु पया छे. पहनी व्याच्या अष्टम सूत्रस्थ २ વિજય દ્વારના દેને વર્ણન ધિકાર છે ત્યાંથી જાણી લેવું જોઈએ, ત્યાં જે એ પદે પ્રયુક્ત થયા છે તેમને લિંગ વ્યત્યયથી અહીં શ્રી દેવીના કારણે નિર્દિષ્ટ કરી લેવા જોઈએ. આ પ્રમાણે પહદના નામ સંબંધી કારણે સ્પષ્ટ કરીને સૂત્રકાર હવે એ પ્રકટ કરે છે કે આનુ જે આ પ્રમાણે નામ છે તે અનાદિ નિધન છે. કેમકે એવું જ નામ એનું ભૂતકાળમાં પણ હતું એવું જ નામ એનું વર્તમાન કાળમાં છે અને એવું જ એનું નામ ભવિયત કાળમાં પણ રહેશે જ અને ભૂતકાળ એ ન તે કે જેમાં એ નામ આસ્તિત્વ
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- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नामधेयं नाम 'पण्णत्ते' प्रजप्तम् शाश्वतत्वाद् स पद्महदः 'ण कयाइ णासि न.' न कदाचित नाऽऽसीद , न कदाचिद् न भवति, न कदाचिद् न भविष्यति, अभूच्च भवति च भविष्यति च एतद्विवरणं चतुर्थ सूत्रस्थ पद्वरवेदिका शाश्वतत्वाधिकाराद्वोध्यम् ॥ सू० ३॥ .. अथ गङ्गासिन्धु महान्दी स्वरूपमाह-'तस्स ण' इत्यादि । . मूलम्-तस्ल णं पउमदहस्स पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं गंगा महाणई पवूढा समाणी पुरस्थाभिमुही पंच जोयणलयाई पव्वएणं गतागंगावणकूडे आवत्ता समाणी पंच तेवीसे जोयणसए तिति य एगूणवीसइभाए जोयणस्त दाहिणाभिमुही पवएशं गंता सहया महया घडमुहपवत्तएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं लाइरेग जोयणसइएणं पकाएणं पक्डइ । गंगा महाणई जओ पवडइ, इत्थ णं महं एगा जिभिया पण्णता । सा णं जिभिया अद्धजोयणं आयामेणं छ सकोसाइं जोयणाई विक्खभेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं मगरमुह विउटुसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा सण्हा० । गंगा महाणई जत्थ पवडइ, एस्थ णं महं एगे गंगप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सर्टि जोयणाई आयामविक्खंभेणं णउयं जोयणसयं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं, दस जोयणाई उठवेहेणं अच्छे सण्हे रथयामयकूले लमतीरे वइसमयपासाणे ३इरतले सुवपणअनादि निधन है क्योंकि ऐसा ही नाम इसका भूत काल में था, ऐसा ही नाम इसका वर्तमान काल में हैं और ऐसा ही इसका नाम भविष्यकालमेही रहेगा इसका भूत काल ऐसा नहीं हुआ है कि जिसमें यह नाम नहीं था वर्तमान काल भी इसका ऐसा नहीं है कि जिलमें यह नाम नहीं चल रहा है और भविष्यत् काल भी इसका ऐसा नहीं होगा कि जिसमें इसका यह नाम नहीं होगा अतः इलका ऐसा नाम था, अब भी यह है और भविष्यत् में भी यही रहेगा इस प्रकार से त्रिकाल में भी इसका अस्तित्वख्यापन करने से यह नाम इसका अनिमित्तक है ऐसा प्रकट किया गया है ॥सू०३॥ .: ન હતું. આને વર્તમાનકાળ પણ એવો નથી કે જેમા એ નામનું અસ્તિત્વ ન હોય, અને આને ભવિષ્યત કાળ પણ થશે નહિ કે જેમાં આનુ એ નામે અસ્તિત્વ ન ધરાવતું હોય. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે આનું આ પ્રમાણેનું નામ હતું આ પ્રમાણે નામ અત્યારે પણ છે અને ભવિષ્યત્ કાળમાં પણ એવું જ નામ રહેશે. આ પ્રમાણે ત્રિકાલમાં એનું અસ્તિત્વખ્યાપન કરવાથી એ નામ એનું અનિમિત્તક છે આમ પ્રકટ કરSH मावस छ, ॥ ३ ॥
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गगासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् ___ ३७ सुब्भरययामयवालुयाए वेरुलियमणिफालियपडलपञ्चोयडे सुहोयारे सुहोत्तारे णाणामणितित्थसुबद्धे वट्टे अणुपुव्वसुजाय वप्पगंभीरे सीयलजले संछण्णपत्तभिसमुणाले वहुउप्पलकुमुयणलिणसुभगसोगंधिय पोंडरीय महापोंडरीय सयपत्त सहस्तपत्तसयसहस्सपत्तपफुल्लकेसरोवचिए छप्पयमहुयरपरिभुजमाणकाले अच्छविमलपत्थसलिले पुणे पडिहत्थ भमंतमच्छकच्छभ अणेगसउणगणमिहुणवियरिय सद्दुन्नइयमहुरसरणाइए पासाइए ४ । से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेग य वणसंडेगं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते वेइयावणसंडगाणं पउमाणं वण्णओ माणियव्यो । तस्स णं गंगप्पघायकुंडस्स तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तं जहा-पुरस्थिमेणं१ दाहिणेणं२ पञ्चत्थिमेणं३, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पपणत्ते, तं जहा-वइरामया णम्मा, रिट्टामया पइटाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलया, लोहियक्षमईओ सूईओ वइरामया संधी, णाणा मणिसया आलंवणा आलंवणवाहाओत्ति । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं तोरणा पण्णता । ते णं तोरणा जाणामणिमया पाणामणिमएसु खंभेसु उणिविसंनिविटा विविहमुत्तरोवइया विविहतारास्वोवचिया ईहामिय उसहतुरगगरमगरविहगालगकिपणरसस्सरसरमाकुंजरवणलय पउमलयभत्तिचित्ता खेसुग्गयवइरवेइया परिगयाभिरामा विजाहरजमलजुरगजंतजुत्ताविव अच्चीसहस्तमालणिया रूदणसहस्तकलिया भिसमाणा भिब्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा घंटा. वलिचलिय सहरमणहरसरा पासाईया ४। तेलि णं तोरणाणं उरि वहवे अटू मंगलगा पण्णत्ता, तं जहा-सोथिए१, सिरिवच्छे२, जाव 'पडिरूवा तेसि णं तोरणाणं वहवे किणचामरज्झया जाव सुकिल्लचामरज्झया अच्छा सण्हा० रुप्पपट्टा वइरामयदंडा जलयामलगंधिया सुरम्मा पासाईया । तेसि णं तोरणाणं उपि वह छत्ताइच्छत्ता पड़ा.
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गाइपडागा घंटाजुयला चामरजुयला उप्पलहत्थगा जान सयसहस्सपत्त हत्थगा सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ४। तस्त णं गंगाप्पवाय. कुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे गंगादीवे णामं दीवे पण्णत्ते, अटू जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं पण्णवीसं जोयणाई परिचखेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सच्चवइरामए अच्छे सण्हे० । से णं एमाए पउमवरवेझ्याए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिरिक्खित्ते, दण्णओ भाणियव्यो। गंगादीवस्स णं दीवस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते। तस्सणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं गंगाए देवीए एगे भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं अद्धकोसं विकखंभेणं देसूणगं च कोलं उड़े उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसपिणविटे जाव बहुमम्झदेसभाए मणिपेढियाए सयणिज्जे। से केणटेणं जाव सासए णामधेज्जे पणत्ते ॥सू० ४॥
छाया-तस्य खलु पद्मदस्य पौरस्त्येन तोरणेन गङ्गा महानदी प्रव्यूढा सती पूर्वाभिमुखी पञ्चयोजनशतानि पर्वतेन गत्वा गङ्गावनकूटे आवृत्ता सती पञ्चत्रयोविंशतिं योजनशतानि त्रींश्च एकोनशितिभागान् योजनस्य दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तकेन मुक्तावलीहारसंस्थितेन सातिरेकयोजनशतकन प्रपातेन प्रपतति गङ्गामहानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महती एका जिहूविका प्रज्ञप्ता। सा खलु निधिका अर्द्धयोजनमायामेन पट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण अर्द्धकोशं वाहल्येन मारनुखविकृतसंस्थानसंस्थिता सर्ववमयी अच्छा श्लक्ष्णा० । गङ्गा महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं गङ्गाप्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , पष्टिं योगनानि आयामविष्कम्भेण, नत्रतं .योजनशत किञ्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण, दश योजनानि उद्वेधेन अच्छ श्लक्ष्णम् रजतमयवालुकाकम् वैडूर्यमणिस्फटिकपटलप्रत्यवतट सुखावतारं मुखोतारं नानामणितीर्थसुवद्धं वृत्तम् आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजलं संछन्न पत्र विसमृणालं वहृत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीक शतपत्र सहस्र पत्र शतसहस्रपत्र प्रफुल्ल केसरोपचितं परपद मधुकरपरिभुज्यमानकमलम् अच्छविमलपथ्यसलिलं पूर्ण परिहस्तभ्रमन्मत्स्यकच्छपानेकशकुनगणमिथुनपविचरितशब्दोन्नतिकमधुरस्वरनादित प्रासादीयम् ४ । तत् खल एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षित र , वेदिकावनपण्डयोः पद्मानां च वर्णको भणितव्यः । तस्य खलु गङ्गाप्रपातकृण्डस्य त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पोरस्त्ये दक्षिणे पाश्चात्ये तेषां खलु
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् ३९. बिसोपानप्रतिरूपकाणाम् अयमेतद्पो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वज्रमयाः नेमाः, रिष्टमः यानि प्रतिष्ठानानि, वैडूर्यमयाः स्तम्भाः, मुवर्णरुप्यमयानि फलकानि, लोहिताक्षमध्यः सूचयः, वज्रमयाः सन्धयः, नानामणिमयानि आलम्बनानि आलम्बनबाहा इति । तेषां खलु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकर तोरणाः प्रज्ञप्ताः । ते खलु तोरणा नानामणिमयाः नानामणिमयेषु स्तम्भेषु उपनिविष्टसंनिविष्टाः विविधमुनान्तरोपचिताः विविधतारारूपोपचिताः हामृगपभतुरगनरमकरविहगव्यालककिन्नरहरूशरभचमरयुद्धबनलतापालता भक्तिचित्राः स्तम्भोगतवनवेदिका परिगताभिरामाः विद्याधरयमलयुगलयन्प्रयुक्ता इव अर्चिः सहनमालनिकाः रूपकसहबकलिताः भासमानाः याभास्यमानाः चक्षुलोकनश्लेपा: मुखस्पर्शाः सश्रीकरूपाः घण्टावलिचलितमधुरमनोहरस्वगः प्रासादीयाः ४ । तेषां खल तोरणानामुपरि बहन्यष्टाष्टमङ्गलकानि प्रजातानि, तद्यथा-स्वस्तिकं१ श्रीवत्सः२ यावन्प्रतिरूपाणि । तेषां खलु तोरणानामुपरि बहवः कृष्णचामरध्वजाः यावत् शुक्लचामरध्वजाः अच्छाः लक्ष्णाः स्प्यपहाः बचायदण्डाः जलनामलगन्धिकाः मुरम्याः प्रासादीयाः घण्टायुगलानि चामरयुगलानि उत्परस्तका:-पमस्तकाः यावत् शतसहस्रपत्रहस्तकाः सर्वानमयाः अच्छा. यावत् प्रतिरूपाः । तस्य खलु गनाप्रपानकुण्डस्य वामध्यदेशभागे अन सलु महानेको गहाद्वीपो नाम द्वीपः प्रनमः, भष्टयोजनानि आयामविष्कम्भेण सातिरेकाणि पञ्चविंशति योजनानि परिक्षेपेण, द्वौ क्रोशावुन्छ्निो गलन्तान् , सर्वयनमयः अन्छ। लक्ष्णः । स सुलु एकया पनवर वेदिकया एकेन वनमण्टन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षित वर्णको भणितव्यः । गहा द्वीपस्य खलु द्वीपस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः । तस्य खलु बहुमध्यदेशभागे अत्र बल एक महद गङ्गाया देव्या एकं भवनं प्रज्ञप्तम् , क्रोशमायामेन अर्द्धकोशं विष्कम्भेण देशोनकं च क्रोशमृर्ध्वमुच्चत्वेन अनेक स्तम्मशतमन्निविष्टं यावद् बहुमध्यदेशमागे मणिपीठिकायां शयनीयम् । अथ केनार्थेन यावत् शाश्वतं नामधेय प्रज्ञप्तम् ।।सू. ४॥
टीका-'तस्स णं' इत्यादि । 'तस्स णं' तस्य अनन्तरोक्तस्य खलु 'पउमद्दहस्स' पद्महृदस्य 'पुरथिमिल्लेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिग्भवेन 'तोरणेणं' तोरणेन 'गंगा' गङ्गा-गङ्गानाम्नी 'महानई' महानदी-स्वपरिवारभूतचतुर्दशसहस्र नदी सम्पन्नत्वेन स्वतन्त्रतया समुद्रगामित्वेन
गंगा सिन्धु महानदियों के स्वरूप का कथन 'तस्स णं पउमदहस्स पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं'
टीकार्थ-(तस्स णं पउमदहस्स पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं) उस पद्महूद के पूर्व दिगवर्ती तोरण से (गंगा महाणई पवृढा समाणी पुरत्याभिमुही पंचजोयणसयाई
ગંગા–સિધુ મહાનદીઓના સ્વરૂપનું કથન'तम्स ण पउमदहस्स पुरास्थिम्मिल्लेग तोरणेणं इत्यादि'
टीज-तस्स णं पउमदहस्स पुरथिम्मिल्लेणं तोरणेणं' ते पाहना पूर्व पता ताणुयी 'गंगा महाणई पढा समाणी पुरस्थाभिमुद्दी पञ्चजोयणसयाई पत्रपणं गता गंगा.
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे च प्रकृष्टा नदी, एवमग्रे सिन्ध्वादिष्वपि प्रकृष्टत्वं बोध्यम् , 'पवढा' प्रव्यूढा निःसृता 'समाणी' सती 'पुरत्थाभिमुही' पौरस्त्याभिमुखी पूर्वाभिमुखी 'पंच जोयणसयाई पञ्चयोजनशतानि 'पदएणं' पर्वतेन-पर्वतमार्गेण यद्वा पर्वते पर्वतोपरि 'ण' खलु गंता' गत्वा 'गंगावट्टणकूडे' गङ्गावर्तकूटे-गङ्गावर्तनामके कूटे गिरिशिखरे अत्र सामीप्ये सप्तमी तेन तत्समीपे गङ्गावर्त्तकूटस्याधस्ताद् 'आवत्ता' आवृत्ता-परावृत्ता 'समाणी' सती प्रत्यावृत्त्येत्यर्थः 'पंच तेवीसे जोयणसए' पञ्चत्रयोविंशानि योजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकपञ्चशतयोजनानि, 'तिणि य एगणवी मइभाए जोयणस्स' त्रीश्च एकोनविंशतिभागान योजनस्य 'दाहिणाभिमुही' दक्षिणाभिमुखी 'पत्रएणं गंता' पर्वतेन गत्वा 'महया घडमुहवत्तएणं' महाघटसुखप्रवृत्तिकेन महाघटः बृहद्घटस्तस्य यन्मुखं तस्मात् प्रवृत्ति निगमो यस्य स जलसमूहः स इव महाघटमुखप्रवृत्तिकस्तेन तथा-महाघटमुखाग्निस्सरज्जलसमूहवच्छन्दायमानवेगवता प्रपातेनेत्यनिमेण सम्बन्धः, 'मुत्तावलिहारसंठिएणं' मुक्तावलिहारसंस्थितेन मुक्तावलीनां मुक्तासरीणां यो पव्वएणं गंता गंगावत्तणकूडे आवत्ता समाणी) गंगा नामकी महानदी अपनी परिवार भूत १४ हजार नदियों रूपी सम्पत्ति से युक्त होने के कारण तथा स्वतन्त्र रूप से समुद्रगामिनी होने के कारण प्रकृष्टनदी-निकली हैं सिन्धु आदि. नादियों में भी इसी प्रकार से प्रकृष्टता जाननी चाहिये यह गंगा महानदी पूर्वाभिमुखी होकर पांचसौ योजन तक उसी पर्वन के ऊपर बहती हुई गङ्गावर्त नामके कूट तक न पहुंच कर प्रत्युत उसके पास से लौटकर (पंच तेवीसे जोयणसए तिणि एगूणवीसहभाए जोयणस्त दाहिणाभिमुही पव्वए णं गंता) ५२३०० योजन तक दक्षिणदिशा की तरफ उसी पर्वत से मुडजाती है (महया घडमुहपवत्तएणं मुत्तावलिहारसंठिए णं साइरेगं जोयणसइएणं पवाएण पवडइ) और बडे जोर शोरके साथ घटके मुख से निकले हुए शब्दायमान जल प्रवाह के तुल्य तथा मुक्तावलिनिर्मित हार के जैसे संस्थान वाले ऐसे एक सो वत्तणकूडे आवत्ता समाणी' ॥ महा नही पाताना १ परिवार भूत १४ ०२ નદીઓ રૂપી સંપત્તિથી યુક્ત હવા બદલ તેમજ સ્વતંત્ર રૂપથી સમુદ્રગામિની હવા બદલ પ્રકૃષ્ટ નદી છે. સિબ્ધ આદિ નદીઓમાં પણ આ પ્રમાણે જ પ્રકૃષ્ટતા જાણવી જોઈએ. એ ગંગા મહાનદી પૂર્વાભિમુખ થઈને પાંચસે જન સુધી તેજ પર્વત ઉપર પ્રવાહિત થતી
मावत' नाम ४. सुधा नलि पाडांयीन परतुनी पासेथी पाठीशन 'पंच तेवीसे जोयणसए तिण्णिएगूणवीसइभाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गता' ५२33 यापन सुधी हाक्षय हिशात२५ ते पर्वत पाथी पाछी रे छ.'महया धडमुहपवत्तएण मुत्तावलिहारसंठिए णं साहाइरेग जायणसइपण पवारण पवडइ' भने भूमरी प्रय गथी भने अन्य २५२ साथै घाना મુખમાંથી નિવૃત શબ્દમાન જલ પ્રવાહ તુલ્ય તેમજ મુક્તાવલિ નિમિત હાર જેવા સંશુન
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गहासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् हारस्तत्संस्थितेन तदा कारेण-प्रपाने धावल्येन बुबुदानां तदाकारतया च तत्सादृश्यं बोध्यम् 'साइरेग जोपणसइएण' सातिरेक योजनशतिकेन सातिरेका किश्चिदधिका योजनातिका योजनशत्येर यो ननतिका शनयोजनानि मानत्वेन यस्य तथाभूतेन, यद्वा सातिरेका योजनशती प्रमाणमस्य नयाभूनेन 'पारणं प्रपानेन नियरेण तद्वारा 'पबडइ' प्रपतति प्रपातकुण्ड प्राप्नोनि, 'गगा माणई जओ' गङ्गामहानदी यतः यस्मात् स्थानात् 'पवडई' प्रपतति, 'इत्य गं' अत्र गङ्गाप्रपातस्थाने सलु 'मह' महती वृहनी 'एगा निम्भिया' एका निधिका जिदाकाराप्रणाली 'पण्णता' प्रजप्ता। 'मा णं जिभिया' सा च जिपिका 'अद्ध जोयणं आयामेणं अर्धयोजनमायामेन, 'छ सकोसाई जोयणाई' सक्रोगानि क्रोशसहितानि पट्योजनानि 'विक्वंभण' विष्कम्भेण विस्तारेण, 'अद्भकोसं वाहरलेणं' अर्द्धकोशं बाहल्येन पिण्डेन 'मगरमुडविउट्टरांठाण संठिया' मकरमुत्र वियतनम्थानसंस्थिता - विवृतमकरमुखाकारा अत्र विघृतस्य आपसात् पाप्रयोगः, 'सब्यबरामद' सर्वचत्रमयी पर्वात्मना वनरत्नमयी 'अच्छा सण्डा अच्छा लक्ष्गा टत्यादि प्रात्वत् 'गंगा महागई जत्थ परडई' यत्र गगामहानदी प्रपतति पन्ध पं' अत्र गद्गाप्रपातस्थाने सलु मह एगे' एक मान् बृहन् 'गंगप्पवाययोजन से भी कुछ अधिक प्रमाणोपेत प्रवाह से प्रपात कुण्ड में गिरती है (गंगामहाणई जमओ पवाद इत्यगं पगा महं जिभिवा पण्णत्ता) गंगामहानदी जिस स्थान से प्रपात कुण्ड में गिरती है वहां पर एक विशाल-जिदिका जैसी आकृतिवाली प्रणाली है (ला णं जिभिया अन्द्र जोयणं आयामेणं छ सकोसाई जोयणाई विश्वंभेणं अकोसं वाटल्लेणं मगर मुह विट संठाणसंठिया सब्धयइरामई अच्छा मण्हा) यह जिदा के जैसी प्रणालो आयाम की अपेक्षा आधे योजन की है और विष्कम्भविस्तार की अपेक्षा यह १ कोग सहित ६ योजन की है । तथा इसका बाहल्य-मोटाई-आधे कोका है इसका आकार मगर के खुले हुए मुख के जैसा है यह सर्वात्मना रत्नमयी है अच्छा-आकाश और स्फटिक के जैसी विलकुल निर्मल है और चिकनी है आप होने के कारण यहां विवृत शब्द का વાળા એકમે એના કરતા પગુ કંઈક અધિક પ્રમાણપત પ્રવાહથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે 'गंगा महाणई जो पक्डइ, इत्थणं गा महं जिभिया पण्णत्ता' ॥ महानही ले स्थान ઉપરથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. ત્યાં એક વિશાળ જિલ્લા જેવી આકૃતિ ધરાવતી પ્રણાલી छ. 'सा थे जिभिया अद्ध जोयणं आयामेणं छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं अद्धकोसं पाहल्लेणं मगरमुहबिटु संठाण संठिया सब वहरामई अच्छा सण्हा' in a પ્રણાલી આયામની અપેક્ષાએ અર્ધા જન જેટલી છે અને વિષ્કભની (વિસ્તાર)ની અપેક્ષાએ એક ગઉ સહિત ૬ જન જેટલી છે. તેમજ એની મોટાઈ (બાહલ્ય) અર્ધ ગાઉ જેટલી છે. એ સર્વાત્મના રત્નમયી છે. અચ્છા-આકાશ અને ટિક જેવી એ તદ્દન નિર્મળ અને નિષ્પ છે. આઈ હેવા બદલ અહીં વિવૃત્ત શબ્દને પર પ્રયોગ થયેલ છે.
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- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कुंडे' गङ्गाप्रपातकुण्डं 'णाम' नाम गङ्गाप्रपातकुण्डनायकं 'कुंडे' कुण्डं-यथार्थनामकं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् तस्य मानाद्याह-'सहिं जोयणाई इत्यादि, 'सहि जोयणाई पष्टिं योजनानि आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण दैर्ध्य विस्ताराभ्याम् ‘णउयं नातं-नवत्यधिक 'जोयणसयं' योजनशतं "किंचिविलेसाहियं फिश्चिहिशेपाधिकं 'परिक्खेवणं' परिक्षेपेण परिधिना 'दसजोयणाई उव्वेहे ।' दशयोजनानि उद्वेधेन भूगतत्वेन 'अच्छे अच्छं स्फटिकवदुज्ज्वलम् 'सहे' लक्ष्णं-चिकणम् पुनः कीदृशामिन्याहि 'रययामगकूले' इत्यादि, 'रययामयक्ले' रजतमयक्लं-रजतमयतटम् , 'रामतीरे' समतीरं समानतटकम् , 'वइरामयपासाणे' वज्रमयपोषाणं वज्ररत्नमयपापाणयुक्तम् , 'वहरतले' वज्रतलं वज्ररत्नमयतलयुक्तम् 'सुत्रण सुठभरययामयवालुयाए' मुवर्णशुभ्ररजतमयवालुका शुभ्रं-शुक्लं यत् सुवर्ण रजतंचेत्युभयमयीवालुका यत्र तत्तथा भूतम् 'वेरुलियमणिकालियाडलपच्चोयडे' वैडूर्यमणिस्फटिकपटलप्रत्यव. तटं वैडूर्याख्यमणीनां स्फटिकानां च य पटलः समूह तन्मयानि प्रत्यवतटानि वटसमीपवतिन उन्नतप्रदेशो यस्य तत्तथा 'सुहोयारे' सुखावतारं सुख करजलप्रवेशयुक्तं 'सुहोचारे' सुखोत्तारं सुखकरजलनिर्गमनयुक्तम् 'नानामणितित्थसुबद्धे' नानामणिनीर्थमुपद्धं-अनेकविधमपर प्रयोग हुआ है (गंगा महानई जत्थ पबडई, एत्थ णं एगे महं गंगप्पवायकुंडे णामं कुडे पण्णत्ते) गंगा महानदी जहां पर गिरती है वहां पर एकविशाल गंगा प्रपात कुण्ड नामका कुण्ड है (सहिजोषणाई आयामविक्खंभेणं नउअं जोयण सयं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं दस जोयणाई उन्हेणं अच्छे सण्हें) आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा यह ६० योजन का है कुछ विशेषाधिक १९० योजन का इसका परिक्षेप है १० योजन की इसकी गहराई है यह आकाश
और स्फटिकमणि के जैसा निर्मल है तथा चिकना है (रययामयकूले) इसका . तट रजतमय है। (समतीरे) और वह सम है नीचा ऊंचा नहीं है (वइरामयपासाणे) वज्रमय इसके पापाण-पत्थर हैं (वरतले, सुवाण सुम्भरययामयवालयाए, वेरुलियमणि फालिय पडलपच्चोयडे, सुहोआरे, सुहोत्तारे, णाणामणि'गंगा महानई जत्थ परडइ, एत्थणं एगे महं गंगाप्पबायकडे णाम कडे पण्णत्ते' गा भडानही गयां ५ छ त्यो मे विश प्रपात नामः ॐछे. 'रादि जोयणाई आयाम विक्खंभेणं नउअंजोयणसय किंचिविसोसाहिय परिक्खेवेणं दस जोयणाई व्वेहेणं अच्छे सण्हे' આયામ અને વિઠંભની અપેક્ષાએ એ ૬૦ એજન જેટલું પ્રમાણ ધરાવે છે. કઈક વિરષાધિક ૧૯૦ જન પ્રમાણ આનો પરિક્ષેપ છે. ૧૦ એજન જેટલી આની ઉંડાઈ છે. એ આકાશ અને સ્ફટિક મણિવત્ નિર્મળ છે. તેમજ સ્નિગ્ધ છે “ચમચ સે એને કિનારા भरतमय छे. 'समतीरे' मन त सम छ नया या नथी. 'वरामयपासाणे' भय मेना पाषाणे-५च्य।-छे. 'वहरतले सुवण्णसुब्भरययामयवालुयाए, वेरुलियमणिफालिय पडल्लपच्चोयडे, सुहोआरे; सुहोत्तारे, णाणामणितित्थसुबद्ध घट्टे अणुपुव्दसुजाय पप गंभीरसीअलजले संडण्णपत्तभिसरणाले मना deal अभय छे. सभा र पादु
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सु० ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् णिभिः सुबद्धं तीर्थन् अयनन्योत्तरणगा? बस्न नजथा अन प्राकृनत्वा तीर्थशब्दस्य पूर्वप्रयोगः मुबद्धशब्दस्य च परप्रयोगः, 'य?' वृतं कर्नुलम्, 'आणुपुनाजायवप्पगंभीरसीयलजले' आनुपूर्व मुजातवागमतीरशीतल्गलम् आनुगूग क्रयेण लुजातं सुनिप्पन्नं वगं पाली यस्य, तच्च गम्भीरम् अगाध शीत जलं यत्र तत्तथा, उभयो कर्म शरयः। 'संछापत्तभिसमुणाले' संउन्नपत्रविसमृणालं-संछन्नानि मामानि पत्रविसम्णालानि पमानां पत्रकन्दनालानि यत्र तना, 'बहुउपलकुगुणाटण गायोग अयपीडीयमहापोंडरीय सयपत्त सहस्सपत्त सयसहस्सरचयफल्टकलोचिए' कस्पटापनलिनागतोगभि,पुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहनपत्रशतसहस्त्रयामनंदनगेपनाभितं वत्र वहनि प्रचुराणि प्रफुल्लानि विकासितानि गनि उत्रनानि चन्द्रविकानानि कमलानि, पद्मानि सूर्यविकाशीनि कमलानि, कुमुदानि-करवाणि, तान्यपि चन्द्रविनीन थेतरतादि वर्णानि भवन्ति तथा नलिनानि नित्य मुबढे वह आनुष-बाजारबप्पा मीनीमलजले संगपत्तभिसमुणाले) इसका तल भाग वमय है इसमें जो बालना सह वह सुरर्ण की और शुभ्र रजत की मिलावटवालो है दम तटके आजन्नवर्ती जो उन्नत प्रदेश है वे वैडूर्य और स्फटिक से पटल से निर्मित है इसमें प्रवेश करने का और बाहर निकलने का जो मार्ग है वह मुखकर है घाट इन अनेक गणियों द्वारा सुबद्ध हैं यह वर्तुल गोल है इसमें जो जल भरा हुआ है वह प्रमशः आगे २ अगाध होता गया है और शीतल होता गया है यह कामलों के कन्दो एवं पत्तों नालो से व्याप्त हो रहा है। (बहुउपलकुमुवणलिण सुभगोगंधिय पोंडरीय महापोंडरीय लय. पत्त महसमतलयमहसनपरोचिए) यह प्रफुल्लिन उत्पलों की, कुमु दो की, नलिनों की, मुलगों भी, लौगन्धिकों की, पुण्डरीकों की, महापुण्डरीकों की, शनपत्रचाले कमलों बी, हजार पनवाले कामलों की, एवं लाखपत्तों वाले कालों की, किसल्क से उपशोशित है चन्द्रविकाशी कमलों का नाम उत्पल है સમૂહ છે તે સુવર્ણની અને ગુજ રજતની વાલુકાઓથી યુક્ત છે, અને તટના આસનવતી જે ઉન્નત પ્રદેશ છે તે વર્ષ અને સ્ફટિકના પટલથી નિર્મિત છે. એમાં પ્રવેશ કરવા માટે અને બહાર નીકળવા માટે જે માર્ગ છે તે સુખકર છે. એના ઘાટે અનેક મણિઓ દ્વારા સુબદ્ધ છે, એ વલ–લાકારમાં છે. એમાં જે પાણી છે તે અનુક્રમે આગળ-આગળ અગાધ થતું ગયું છે અને શીતળ થતું ગયું છે એ કમળાના કંદ तमा ५।६. गले नासाथी पास ५६ २wो छ 'बहुउप्पल कुमुदणलिण सुभगसोगंधिय पॉडरीय महापोंडरीच सयपत्त सहस्सपत्त सयसहस्सपत्तपफुलकेसगेवचिए' को प्रतिसत evarनी, नी, नवनानी, मुलगानी, सोहिनी, धुनी , महापुरानी, શતપત્રવાળા કમળની, કિંજથી ઉપરોભિત છે ચન્દ્રવિકાશી કમળનું નામ ઉત્પલ છે
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सुभगानि कमलविशेषाः सौगन्धि कानि कडाराणि श्वेतवर्णानि सुगन्धीनि कमलानि, पुण्डरीकाणि-श्वेतकमलानि, तान्येव महान्ति-महापुण्डरीकाणि, शतपत्राणि-पत्रशतविशिष्टानि कमलानि, सहस्रपत्राणि-पत्रसहस्रयुक्तानि कमलानि, शतसहस्रपत्राणि-लक्षपत्रयुक्तानि कमलानि तेपां केसरैः किंजल्कैः उपशोभितम् । यद्वा-बनि-प्रचुराणि प्रफुल्लानि विकस्वराणि केसरोपशोभितानि च उत्पलादीनि यत्र तत्तथा । अत्र प्रथमविग्रहे प्रफुल्लशब्दस्य, द्वितीय. विग्रहे प्रफुल्लकेसरोपशोभितपदस्य च परप्रयोग आपत्वात् 'छप्पयमहुयरपरिशुञ्जमाणकमले' षट्पदमधुकर परिभुज्यमानकमलं पट्पदा ये मधुकराः भ्रमराः तैः परिभुज्यमानानि कमलानि उपलक्षणतया कुमुदादीनि च यत्र तत्तथा 'अच्छविमलपत्थसलिले, अच्छविमळपथ्यसलिलम तत्र-अच्छविमलम् अत्यन्तविमलं पथ्यं हितं सलिलं जलं यत्र तत्तथा 'पुण्णे' पूर्ण जलै {तम् 'पडिहत्थ भर्मतमच्छकच्छम अणेग सउणगणमिहुणवियरिय सदुम्नइयमहुरसरणाइए' प्रतिहस्त भ्रमन्मत्स्यकच्छपानेक शकुनगणमिथुन प्रविवरितशब्दोन्नतिमधुरस्वरनादितम् तत्र प्रति. हस्ता: अतिप्रभूताः अत्यधिकाः भ्रमन्तः इतस्ततश्चलन्तश्च ये मत्स्याः कच्छपाश्च, तथा अनेक शकुनगणमिथुनानि अनेकजातीय पक्षिगणानां स्त्री पुंसयुगलानि तैः प्रविचरिताः कृता ये सूर्य विकाशी कमलों का नाम पद्म है कैरवों का नाम कुसुद है ये भी चन्द्रविकाशी ही होते हैं-पर इनमें श्वत, रक्त आदि वर्ग की अपेक्षा भेद होता है नलिन और सुभग ये भी कमलविशेष हैं श्वेतवर्णवाले सुगंधित कमलों का नाम सौगंधिक कमल कहा गया है केवलवर्ण में जो श्वेत होते हैं वे पुण्डरीक हैं इनकी अपेक्षा जो बड़े होते हैं वे महा पुण्डरीक है (छप्पयमहुयरपरिभुजमाण कमले) इसके कमलों पर भ्रमर वैठकर उनकी किंजल्क का पान किया करते हैं (अच्छविमलपसत्थसलिले) इसका जल आकाश और स्फटिक के जैसा अत्यन्त निर्मल है तथा पथ्य हितकारक है (पुण्णे, पडिहत्थभभंतमच्छकच्छभ अणेग सउणगणमिहुणपविअरिय सदुन्नइयमहरसरणाइए पासाईए) यह सदा जल से परिपूर्ण रहता है इसमें इधर उधर अनेक मच्छ कच्छप फिरते સૂર્ય વિકશી કમળનું નામ પડ્યું છે. કેરનું નામ કમદ છે. એ પણ ચન્દ્ર વિકાશી જ હોય છે, પરંતુ એમાં શ્વેત રક્ત આદિ વર્ણની અપેક્ષાએ ભેદ હોય છે. નલિન અને સુભગ એ પણ કમળ વિશેષ છે. વેત વર્ણવાળા સુગંધિત કમળને સૌગંધિક કમળ કહે વામાં આવે છે. કેવળ વર્ણમાં જે શ્વેત હોય છે તે પુંડરીક છે. એમના કરતાં જે મોટા हाय छे भारी छ. 'छप्पयमहयरपरिभज्जमाणकमले सेना भी 6५२ अम। मेसीन तमना &VEk पान ४२ता २९ छे. 'अच्छ-विमलपसस्थसलिले' मेनु 7 मा२ मत दिनी रेभ सत्यत नि छ. तभा पथ्य४।२४ छे. 'पुण्णे, पडिहत्थ भमंत मच्छ कच्छभ अणेग सउणगणमिण पविअरिय सदुन्नइय महुरसरणाइए પાણિ એ સર્વદા જળથી પરિપૂર્ણ રહે છે, એમાં આમ-તેમ અનેક મચ્છ કપ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गगासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् ४५ शब्दास्तेपामुम्नतिर्यत्र तादृशो मधुरस्वरो माधुर्यगुणविशिष्टस्वरयुक्तो यो नादः स्तं, स जातोऽस्मिन्निति तथा, तथा 'पासाइए४' प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपं च एतद्वधाख्या प्राग्वत् । ___ से ' तत् गगाप्रपातकुण्डम् खलु 'एनाए पउमयरवेड्याए' एकया पद्मवरवेदिकया 'एगेण य वणसंटेणं' एकेन च वनपण्डेन 'सवयो समंना संपरिविन्दते' सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्त परिवेष्टितम् , अत्र 'वेइया वणसंडगाणां पउमाणं वण्णओ' वेदिका वनपण्टयोः पमानां च वर्णको वर्णनमय जगतीसूत्रव्याख्यातो 'भाणियवा' भणितव्यः, 'तम्स णं गंगप्पवायकुंडस्स' तस्य खलु गद्गाप्रपातकुण्डस्य 'निदिसि तमो' त्रिदिशि त्रीणि 'तिमोराणपडिस्वगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि सोपानत्रयपक्तिरूपाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यया 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वे पूर्वस्यां दिशि 'दाहिणेणं' दक्षि गे दक्षिणस्यां दिशि 'पच्चत्यिमेणं' पश्चिमे पश्चिमायां दिशि। 'तेसि णं' तेषां खलु 'तिसोवाणपडिस्वगाणं' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणाम् 'अयमेयास्वे' अयमेतद्रूपः अनुपदं वक्ष्यमाणस्वरूपो 'वण्णारहते हैं अनेक जातिके पक्षियों का जोहा यहां पर बैठकर नाना प्रकार के मधुर स्वरों से शब्द करता रहता है यह कुण्ड प्रासादीय है, दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है इन पदों की व्याख्या पूर्व में की जा चुकी है (सेणं एगाए पउमवरवेच्याए एगेणय वणसंडेणं सन्नओसमंता संपरिक्सित्ते) यह कुण्ड एक पदमबरवेदिका से और एक वनपण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है यहां (वेइया वणसंडगाणं परमाणं वण्णओ भाणियन्यो) वेदिका का वनपंडका और पद्मों का वर्णक जगती स्त्र की व्याख्या से कद्दलेना चाहिये-(तस्सगं गंगप्प वायकुंडस्स तिदिमितओ तिसोवाणपडिस्वगा प.) उस गंगा प्रपात कुण्ड की तीन दिशाओं में तीन त्रिलोपान प्रतिपक हैं (तं जहा) जो इस प्रकार से हैं(पुरथिमे गं, दाहिणेणं पच्चत्थिमेणं) एक त्रिसोपानप्रतिरूपक पूर्व दिशा में है एक त्रिसोपान प्रनिरूपक दक्षिण दिशा में है और एक त्रिसोपान प्रतिरूपक पश्चिम ફરતા રહે છે. અનેક જાતિઓના પક્ષીઓના જોડા અહીં બેસીને અનેક પ્રકારના મધુર સ્વથી શ કરતાં રહે છે, એ કુંડ પ્રસાદી છે, દર્શનીય છે, અભિરૂપ છે અને પ્રતિ३५ छ. से पानी व्याच्या परसा ४२पामा मादी छ. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणय वणसंडेण सचओ समंना संपरिक्खित्ते मे २ थी मने न्य। पन. मथी व्यामेराकृत छे. मही 'वेइयावणसंडगाणं पउमाण वण्णओ भाणियवो वहाना, વનખંડના અને પોના વર્ણન વિષે “જગતી સૂત્રની વ્યાખ્યામાંથી જાણું લેવું જોઈએ. 'तस्स गंगप्पवायकु डस्स तिदिसि तओ तिसोराणपडिरूवगा प० ते 10 प्रपात उनी ऋण हिशामामात्र निसापान प्रति ३५॥ छ 'तं जहा ते मा प्रभारी छ. 'पुरस्थिमेणं दाहिणेणं पच्च. ળિ' એક ત્રિપાન પ્રતિરૂપક પૂર્વ દિશામાં છે એક ત્રિપાન પ્રતિરૂપક દક્ષિણ દિશામાં છે,
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जम्बूहीतिसूत्रे
वासे' वर्णादासः वर्णनमकारः 'पण्णते' प्रज्ञप्तः, 'तं जहा ' तद्यथा 'वइरामयाणेमा' इत्यादि । तत्र 'वइरामया' वज्रमयाः वज्ररत्नमयाः नेमाः भूमिभागादुध्वं निष्क्रामन्तः प्रदेशाः 'रिकामया ' रिष्टमयानि - रिष्टरत्नमयानि 'पइद्वाणा' प्रतिष्ठानानि त्रिसोपानमूलप्रदेशाः ‘वेरुलियामया' वैडूर्यमयाः वैर्यमणिमया: 'संभा' स्तम्भाः, 'सुवण्णरुपमया' सुवर्णरूप्यमयानि 'फलया' फलकानि त्रिसोपानभूतानि 'लोहियक्खमईओ' लोहिताक्षमय्यः - लोहिताक्षरत्नमय्यः 'सूईओ' सूचयः फलकइयसंयोजककीलकानि 'वइरामया' वज्रमयाः वज्ररत्नसारिताः 'संधी' सन्धयः फलकद्वयान्तरालभागाः 'णागामणिमया' नानामणिमयानि अनेकवित्रमणिमयानि 'आलंवणा' आलम्वनानि आरोहतामवरोहतां च स्खलननिवारणार्थमा श्रयभूताः केचिदवयवाः, च पुनः 'आलंबणवाहा ओत्ति' अवलम्वनवादा: उभयपार्श्वयोरवलवनाश्रयी भूता भित्तयः, इति ।
दिशा में है (तेसिणं तिसोवाणपडिख्वगाणं अयमेयाख्वे वण्णावासे पण्णत्ते) इन त्रिसोपान प्रतिरूपकों का वर्णन इस प्रकार से कहा गया है - (तं जहा) जैसे - ( वइरा मया नेमा, रिया पहाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवप्णरुपनया फलया लोहियईओ सूइओ, बहरामया संधी, णाणामणिमया आलंबणा, आलंवण बाहाओ) इनके भूभाग से ऊपर की ओर निकले हुए प्रदेशरूप नेम वज्ररत्न के बने हुए हैं प्रतिष्ठान - त्रिसोपान के मूलप्रदेश रिछ रत्न के बने हुए हैं स्तम्भ इलके वैडूर्य रत्न के बने हुए हैं फलक पटिये- इनके सुवर्ण रुप्य के बने हुए हैं फलक दय की संयोजक कीलक के स्थानापन्नरूप सूचियां लोहिताक्ष रत्न की बनी हुई हैं फलकों की जो संघिया है वे वज्र की बनी हुई हैं तथा इनके ऊपर चढने वालों को या उतरने वालों को सहारे रूप जो आलम्बन हैं वे अनेकमणियों के बने हुए हैं । इसी तरह इन आलम्बनों के जो आलम्बनवाह हैं भित्तियां हैं वे भी अनेक मणियों के बने हुए हैं । (तेसिणं तिलोवाणपडिએક ત્રિસેાપન પ્રતિરૂપક પશ્ચિમ દિશામાં 'तेसि णं तिसोगणपडिवगाणं अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' त्रिसोपान प्रतियोनु वार्जुन या प्रमाणे उडेवामां आवे छे. तं जहाँ' ? 'वइरामगा नेमा, रिट्ठामया पट्टाणा वेरुलियामया खंभा, सुवण्णरुपमया फलया, लोहियाखमईओ सूइओ, वइरामया संघी, णाणामणिमया आलंवणा आलंवणवाहाओ' એના ભાગથી ઉપર નીકળેલા પ્રદેશ રૂપ તેમ વજ્રરત્ન નિર્મિત છે. પ્રતિષ્ઠાન—ત્રિસેાપાનના મૂલ પ્રદેશ રિષ્ટ રત્ન—નિર્મિત છે. એના સ્ત ંભા વૈ^ય રત્નથી નિર્મિત છે. ફૂલકા—પાટિયા એના સુવર્ણ અને રુપાના બનેલા છે. ફૂલકયના સયેાજક કીલકના સ્થાનાપન્ન રૂપ સૂચીએ લેહિતાક્ષ રત્નની બનેલી છે. ફૂલકાની એ સધિએ છે, તે વજ્ર નિર્મિત છે. તેમજ એમની ઉપર ચઢનારાઓને અથવા ઉતરનારાઓને અવલ'ખનરુપ જે આલમને તે અનેક મણિએના અનેલા છે. આ પ્રમાણે એ આલખનાના જે આલખનવાઢાએ—ભિત છે તે પણુ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमाहानदीस्वरूपनिरूपणम् ४७
'ते सिणं तिसोवाणपडिख्वगाणं' तेषां खलु निसोपानप्रतिरूपकाणां 'पुरओ पत्तेयं२' पुरतः प्रत्येकं पुरतः 'तोरणा पण्णत्ता' तोरणाः प्रज्ञप्ताः "ते णं तोरणा' ते खल तोरणाः 'णाणामणिमया' नानामणिमयाः अनेकविधमणिमयाः ‘णाणामणिमएस खंभेस' नानामणिमयेपु स्तम्भेषु 'उपणिरिसंनिविद्या' उपनिविष्टसन्निविष्टाः उपनिविष्टाः समीपस्थिताः सम्निविष्टाः निश्चलतया संलग्नाच 'विविमुत्तरोवडया' विविधमुक्तान्तरोपचिताः विविध मुक्ताभिः अनेकप्रकारमुक्ताफलेः अन्तरा मध्ये मध्ये उपचिताः वृद्धिमुपगता तथा 'विविहताराख्योयचिया' विविधतारारूपोपचिताः विविधानि यानि तारास्पाणि ताराऽऽकारास्तैरुपशोभिताः, ईहामियउसह तुरगणरमगर विहगवालग किन्नररुरसरभचमरकुंजरवणलय पउमलय मत्तिचित्ता' ई मृगपभतुग्गनरमकरविहगव्यालकाकिन्नररुरुशरभचमरकुञ्जरवनलता पदमलता भक्तिचित्राः तत्र-ईहामृगाः-वृकाः, वृपभाः-बलीय. तुग्गाः, अधाः, नरा:मनुष्याः, मकराः-ग्राहाः, विहगा:-पक्षिणः, व्यालका:-सपाः, किन्नरा:-व्यन्तरदेवाः, रुवा-मृगाः, गरभाः अष्टापदाः, चमराः-चमरगावः, कुजरा:-हस्तिनः, चनलताः पद्म ख्वगाणं पुरओ पत्तय २ तोरणा पण्णत्ता) इन बिमोपान प्रनिरूपकों में से प्रत्येक त्रिसोपानप्रतिपक के आगे आगे तोरण कहे गये हैं। (तेणं नोरणा णाणामणिमया, णाणामणिनएमु खंभेसु उपनिविट्ट संनिविवादिविहमुत्तरोवआ, विविहतारास्वोवचिया, इहामिअ उसहतुरगणरमगरविहगयालगकिण्णरका सरभचमरकुजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता) ये तोरण अनेकविधमणियों से बने ह नधा अनेक मणिमय खंभों से उपर ये संनिविष्ट है विसोपानप्रति. रूपकों से ये दर नहीं हैं किन्तु उनके समीप में ही हैं अनेक प्रकार के मुकाओं से ये वीच २ में ग्वचित हैं इनके अनेक प्रकार के ताराओं के आकार बने हुए हैं। ये ईहागों-वृकों की वृपभों की तुरगों की, मनुष्यों की, मकरों की, पक्षियों को, व्यालक सों की, किन्नरों की, मरू मृगविशेषों की, शरभ-अष्टापदकी, भलिमाथी निर्मित छ त सिणं तिसोवाणपडिस्वगाणं पुरजो पत्तेयं २ तोरणा पण्णत्ता' में बिसा. पान प्रति३५ माथी प्रत्ये: त्रिसपान प्रति३५४नी माग-- तार छे. तेणं तोरणा णाणामणिमया, णाणा मणिमएसु खंभेसु उपनिविद्व संनिविदा विविहमुत्तंतरोवइआ विविहतारास्वो वचिया, इहामिअ उसह तुरगणरमगरविहग वालग किण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलय भत्तिचित्ता' को तो मन विधामाथी निर्मित छे. तभी मने मणिमय स्तमानी ઉપર એ તોરણે સંનિવિષ્ટ છે. ત્રિપાન પ્રતિરૂપકેથી એ તારણે વધારે દૂર નથી. પણ તેમની પાસે જ છે. અનેક પ્રકારના મુક્તાઓથી એ તારણે મધ્ય–મધ્યમાં જડિત છે. એમાં અનેક પ્રકારના તારાઓને આકારે બનેલા છે. એ ઈહામૃગો-વૃકેની, વૃષભની, तुशानी, मनुष्यानी, म४।नी, पक्षीमानी, व्यास-सनी, निरोनी ३३-भरा विशपोनी, १२०-मष्टापट्टानी, यभर-यमरी योनी, शनी, पनसताव्यानी भर पा सता.
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्रे लताः कमललताः कमलनालरूपाः एतासां या भक्तयः रचनाविशेपाः नाभिश्चित्राः अदभुताः तथा 'खंसुरगयवइरवेइया परिगयाभिरामा' स्तम्भोद्गतवज्रवेदिका परिगताभिरामाः तत्र स्तम्भोद्गता-स्तम्भोपरितनी या वनवेदिका वज्ररत्नमयो वेदिका, तया परिगताः युक्ताः सन्तः अभिरामाः रमणीयाः, तथा 'विजाहरजमलजुयलजनजुत्ताविव' विद्याधरयमल युगलयन्त्रयुक्ता इव विद्याधराणां यद् यमलयुगल युग्मजातद्वयं समानाऽऽकारं तदेव यन्त्रं सञ्चारिपुरुपपुत्तलिकाद्वयलक्षणं तेन युक्ताः सहिता इत्र 'अच्चीसहस्समालणिया' अचिः सहस्रमाल. निकाः अर्चिपां किरणानां सहस्रं तेन मालन्ते शोभन्ते इति अर्चिसहस्रमालनाः, त एव अचिंसहस्रमालनिकाः, 'रूवगसहस्सकलिया' रूपकसहस्रकलिता:-चित्रसहस्रयुक्ताः 'भिसमाणा' भासमानाः शोभमानाः, भिभिसमाणा' वाभास्यमानाः अतिशयेन शोभमानाः 'चक्खुल्लोयणलेसा' चक्षुलोकनश्लेपाः तत्र-चक्षुपः-नेत्रस्य लोकनं दर्शन चक्षुलॊकनं तस्मिन्नद्भुतदर्शनीयत्वात् श्लिष्यन्तीव लग्ना भवन्तीव ये ते तथा, नेत्रकर्तृकदर्शने ते तोरणा नेत्रयोलग्ना भवन्त इव सन्तीति भावः, 'मुहफासा' सुखस्पर्शाः सुखकरस्पर्शशालिनः, यद्वा शुभस्पर्शाः शुभः स्पर्शों येषां ते तथा कोमलस्पर्शसम्पन्नाः, 'सस्सिरीयरूवा' सश्रीकरूपाः-श्रिया सहिचमर चमरी गायों की, कुञ्जरों को वनलताओं की एवं पद्मलताओं की रचना विशेष से अद्भुत-आश्चर्योत्पादक हैं तथा-(खंभुग्गयवहरवेइया परिगयाभिरामा) इनके प्रत्येक खंभों में वज्रमयवेदिकाएं उत्कीर्ण की गई है अतः उनके द्वारा ये वडे सुहावने प्रतीत होते हैं (विजाहर जमलजुयलजंतजुत्ताविव अच्चिसहस्समालणीया रूवगहस्सलिया, भिसमाणा, भिन्भिसमाणा, चक्खुल्लोयणलेसा) विद्याधरों के चित्रित यमल-समश्रेणिक-युगल से वे ऐसे ज्ञात होते हैं कि मानों ये सञ्चरिष्णु पुरुष के प्रतिभाइय से ही यक्त हैं हजारों किरणों द्वारा ये प्रकाशित होते रहते हैं हजारों रूपकों से-चित्रों से ये शोभित हैं । स्वयं भी ये चमकीले हैं और विशिष्ट-अतिशयित शोभा से ये और भी अधिक चमकीले बन गये हैं । देखने परतो ये ऐसे मालूम पडते है कि मानों आखों में ही समाये मानी श्यना विशेषथी महमुत माश्यत्पिा६४ छ तर 'खंभुग्गयवइरवेइया परिगयाभिरामा' એમના દરેકે દરેક સ્તંભમાં જ મય વેદિકાઓ ઉત્કીર્ણ કરવામાં આવેલી છે. એથી એમના વડે से मयत रमणीय सागे छे. 'विज्जाहर जमलजुयलजंतजुत्ताविव अच्चिसहस्स मालणीया स्व. गतहस्मकलिया, भिसमाणा, भिभिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा' विधायन चित्रित यमलाસમશ્રેણિક યુગલોથી તે એવી રીતે લાગતા હતા કે જાણે એઓ સંચરિણુ પુરુષની પ્રતિમયથી જ યુક્ત ન હાય હજાર કિરણે વડે એઓ પ્રકાશિત થતા રહે છે. પિતે હજારે રૂપકેથીચિત્રોથી એ ઉપશોભિત રહે છે. પણ એ પ્રકાશમાન છે અને વિશિષ્ટ–અતિશયિત શાભાથી એ ઘણું વધારે પ્રકાશમાન બની ગયા છે, જેના પરથી તે એ એવા લાગે છે કે જાણે આ બે भांर सामानिष्ट यता नडाय. 'सुहफासा, सरिसरीयरुवा, घंटावलिचलिया हुरमण
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमशानदीस्वरूपनिरूपणम् ४९ तानि सश्रीकाणि तानि रूपाणि येषां ने तथा-शोभायुक्ताऽऽकारसम्पन्नाः 'बंटावलिचलियमहुरमणहरसरा' घण्टावलिचलितमधुरमनोहरस्वराः-घण्टानामावलिः समूहो घण्टाऽऽवलिस्तस्या यट्टायुस्पर्शेन चलितं चलन कम्पनं नेन मधुरः कर्णमधुरः, अत एव मनोहरः स्वरः नादो येपां ते नथा-परन-पनवगाद् घण्टा समूह कम्पनेन श्रवणरमणीय मनः प्रसादकनादसम्पन्नाः, 'पासाईया४' प्राबादीयाः दर्शनीय: अभिरूपाः प्रतिस्पाः, एपां व्याख्या प्राग्वत् । 'तेसि ण तोरणाणं उगी बहवे अद्ध मंगलगा पग्णना' नेपां गल तोरणानामपरि बहानि अष्टाष्ट मगलानि नामानि. 'तं नहा' तथा 'गोन्धिए निरिवन्छे जाव' स्वस्तिक श्रीवत्सः यावत्यावत्पदेन-"नन्दिकावतः, बद्धमानकं. भद्रासनं, सलगा, मत्स्यः, दर्पणः" इति संग्राद्यम् , इत्यष्टमगलक नामानि । नानि च प्रामादीयानि दर्शनीयानि अभिरूपाणि 'पडिख्वा' प्रतिरूपाणि । 'नवि गं गोरणागं' तेषां नोरणानामुपरि 'रहवे' बवः 'किण्हचामरज्मया' कृष्णचामरध्वजाः हाणणयकवामगलानध्वजाः. यावत-यावत्पदेन-नीलचामरध्वजाः, लोहितचामरथ्य नाः, द्वारिद्रचामरध्वनाः एषां पनानां सङ्ग्रहो योध्या, तथा 'मुकिल्लचामरज्झया' शुक्राचापरध्वजाः, 'अच्छा' अच्छाःआकाश स्फटिकवदतिस्वच्छाः पुनः 'सण्हा.' जा रहे हैं (सुटकारना, सम्मिरीयरच्या, घटावलि चलियमहरमणहरसरा) इनका स्पर्श मुग्वकतारक है च सधीक रूपवाले हैं इन पर जो घंटावलिनिक्षिप्त है वह जय पवन के स्पर्श से मिलती है तब उससे जो मधुर मनोहर स्वर निकलता है उससे ये गेले ज्ञान होते हैं कि मानों ऐसे स्कर से ये ही वोल रहे हैं। (तेसिं तोरणाणं उपरि बहवे अमंगलगाप.) इन नोरणों के आगे अनेक आठ आठ मंगलक द्रव्य है ( जहा) जैसे-वोत्थिय, निरिवच्छे जाव पडिस्वा) स्वस्तिक, श्रीवत्म, नन्दिकावर्त, बद्रमाणक भद्रासन कलश, मत्स्य, और दर्पण ये सब मंगलक द्रव्य प्रासादीय हैं दर्शनीय है अभिरूप है और प्रतिरूप है। (तेसि णं तोरणाणं उपरि वह किण्ड चामरज्या जाव मुकिल्ल चामरज्झया अच्छा सण्हा तेमिणं तोरणाणं छत्ताइच्छत्ता पडागाउपडागा, घंटा जुयला, चामर દુર એમનો સ્પર્શ મુખકારક છે એ સટીક રૂપવાળા છે. એમની ઉપર જે ઘટાવલિ નિશ્ચિત છે તે જ્યારે પવનના સ્પર્શથી હાલે છે ત્યારે તેમાંથી જે મધુર-મનહર રણકાર નીકળે છે. તેનાથી એ એવા લાગે છે કે જાણે એ એવા સ્વરથીજ બેલતા ન હોય. 'तेसिं तोरणाणं उबरि बहवे अद्ध मंगलगा पो तापनी माग ध म मा: भाग द्रव्ये। छे. तं जहा' रेभ है 'सोस्थिय' सिरिवच्छे जाव पडिरूवा' स्वस्ति, श्री વત્સ, નંન્દિકાવત, વદ્ધમાન, ભદ્રાસન, કલશ, મત્સ્ય અને દર્પણ એ સર્વ મંગલક द्रव्या प्रासाहीय छ, शनीय छ, अलि३५ छ भने प्रति३५ छे 'तेसिणं तोरणाणं उवरि वह किण्ह चामरज्मया जाव सुक्किल्लचामरज्झया अच्छा सण्हा तेसिणं तोरगाणं छत्ताइच्छत्ता पडागाइपडागा, घंटाजुयला, चामरजुरला, उप्पलहत्थगा जाव सयसहस्सपत्तहत्यगा.
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
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श्लक्ष्णाः चिक्कण पुद्गल स्कन्धनिष्पन्नाः, 'रुप्पपट्टा' रूप्यपट्टा रजतमयपट्टशालिनः 'वइरामयदंडा' वज्रमयदण्डाः वज्ररत्नमयदण्डयुक्ताः 'जलयामनगधिया' जलजामलगन्धिकाः कमलमुगन्धसदृशसुगन्धसम्पन्नाः, 'सुरम्मा' सुरम्याः अतिमनोहारिणः 'पासाईया ४' प्रासादीयाः दर्शनीयाः, अभिरूपा: प्रतिरूपाः । ' तेसिं णं तोरणाणं उपि' तेषां खलु तोरणानामुपरि 'वह' वहूनि 'छत्ताइछत्ता' उत्रातिच्छत्राणि छत्रात् लोकप्रसिद्धादेकस्माच्छादतिशायीनि उपर्यधोभागेनानेकानि छत्राणि च्छन्नातिच्छत्राणि, 'पडागाइडागा' पताकाऽतिपताकाः - पताको परिपताकाः, 'घंटाजुयला' घण्टायुगलानि अनेक घण्टायुगलानि 'चामरजुयला' चामरयुगलानि अनेकचामरयुगलानि, 'उप्पलहत्थगा' उत्पलहस्तका:- कमलसमूहाः पद्महस्तका - पद्मसमूहाः 'जाव' यावत् यावत्पदेन " कुमुदनलिन सुभगसौगन्धिक पुण्डरीकमहापुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्रहरतकानां सङ्ग्रहो वोध्यः, तत्र कुमु
जुयला, उप्पलहत्थगा जाव सयसहस्सपत्तहत्थगा सञ्चारयणामया अच्छा जावपडिरुवा) उन तोरणों के अनेक कृष्णवर्ण की ध्वजाएं जो कि चामरों से अलङ्कृत हैं, फहरा रही हैं यावत् नीलवर्णयुक्त चामरों से अलङ्कृत ध्वजाएं फहरा रही हैं, लोहितवर्ण युक्त चाजरों से अलङ्कृत ध्वजाएं फहरा रही है, हारिद्रवर्ण युक्त चमरों से अलहकृत ध्वजाएं फहरा रही हैं, और शुल्कवर्णयुक्त चामरों से अलङ्कृत ध्वजाएं फहरा रही हैं, ये सब ध्वजाएं अच्छ है- आकाश और स्फटिक के जैसी - अति स्वच्छ हैं चिक्कणपुलों के स्कन्ध से निर्मित हैं, रजतस्यपट्ट से शोभिन हैं वज्रमयदण्डों वाली हैं कमल के जैसी गन्धवाली हैं अति मनोहर हैं प्रासादीय हैं दर्शनीय हैं अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं इन तोरणों के ऊपर तरके ऊपर अनेक छत्र हैं अनेक पताकातिपताकाएं हैं और अनेक घंटा युगल हैं अनेक चामर युगल हैं उत्पल हस्तक - कमल समूह है, पद्गहस्तक - पद्मसमूह है, यहां यावत्पद से - 'कुमुदन लिन सुभग सौगंधिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्र सव्त्ररयणामया अच्छा जाव पडिवा' ते तोर पर भने: कृष्णार्जुनी वलओ જેએ ચામરાથી અલ કૃત છે-ફરકી રહી છે. ચાવત્ નીલવર્ણ યુક્ત ચામરાથી અલ કૃત ધ્વજાઓ ફરકી રહી છે, લેાહિતાક્ષ વયુક્ત ચામરાથી અલંકૃત ધ્વજા ફરકી રહી છે. હારિદ્રવ ચામરાથી અલંકૃત ધ્વજા ફરકી રહી છે અને શુકલવ યુક્ત ચામરાથી અલકૃત ધ્વજાએથી ફરકી રહી છે એ સર્વ વજાએ અચ્છ છે આકાશ અને સ્ફટિકની જેમ અતિ સ્વચ્છ છે. ચિકણ પુદ્ગલેના સ્કંધથી નિર્મિત છે, રજતમય પોથી શાભિત છે. વજ્રમય ઈડાવની છે. કમળા જેવી ગંધવાળી છે, અતિ મનેાહર છે. પ્રાસાદીય છે દનીય છે. અભિરૂપ છે અને પ્રતિરૂપ છે. એ તારણાની ઉપરના સ્તર ઉપર અનેક છત્રા છે. અનેક પતાકતિપતા છે, અને અનેક ઘંટા યુગલે છે. અનેક ચામર યુગલે -छे, उत्यक्ष हस्तः प्रमण समूह। छे, पद्महस्त४ पद्मसमूह है. यहीं यावत्पथी 'कुमुद नहिन सुभग सौगंधिक पुंडरीक महापुंडरीकशतपत्रम पत्र हस्तक' मे चाहना
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प्रमाशिका टीका-चतुर्थबक्षस्कारः सू० ४ गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् दानि कैरवाणि, नलिनानि कालविशेषाः, मुभगानि कामलविशेपाः, सौगन्धिकानि मुगन्धीन्येव सौगन्धिकानि कमलानि अब विनयादित्यान् स्वार्थे उन् । यद्वा-सुगन्धः शोभनो गन्धः, स प्रयोजनमेषामिनि सौगन्धिानि, अत्र "प्रयोजनम्॥ ५ ॥१।१०९। (पा० सू०) इति ठक् तानि कमल विशेषाः, पुण्डरीकाणि श्वेतकमलानि, तान्येव महत्त्वविशिष्टानि महापुण्डरीकाणि-विशालश्वेतकयलानि, पाणि--गतपयुक्तकमलानि, एवं सहस्रपत्राणि सहस्रपत्रयुक्तकमलानि च तेषां हस्त का सम्हाः ता 'सयपहस्तपत्त हत्यमा' शतसहस्रपत्रहस्तका:लक्षपत्रकमलसगृहाः, ने च 'सगररणामया' सर्वरत्नमयाः सर्वात्मना रत्नमयाः, 'अच्छा जाव पडिल्मा अच्छाः यावत् प्रतिरपाः मान्छादि प्रतिरूपान्तपदसग्रहो योध्यः तथाहि'अच्छाः लक्ष्णाः वृष्टाः मृष्टाः नीरजतः निष्पक्षाः निष्काइटच्छानाः समभाः समरीचिकाः सोदद्योताः प्रासादीचाः दर्शनीयाः अभिमपाः प्रतिरूपाः' इत्येषां पदानां संकलनं पर्यवसितं व्याख्या चतुर्थमूत्रतो वोध्या।
'तस्स णं गंगप्पवायकुंड बहुमजदेममाए) नरय खलु गनाप्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेगभागे 'पत्य णं' अ अत्रान्तरे सन्ट 'महं पगे महानेको 'गना दीवे णामं दीवे' गङ्गाद्वीपो नाम द्वीपः 'पण्णने प्रनमः, तस्य मानाचार-अजोयणा' इत्यादि स गङ्गाद्वीपः 'अटजोयणाई आयामविपरभण' आयोजनानि आयामविकाभण देय विस्ताराभ्याम् , 'साइरेगाई। सातिरकाणि किञ्चिदधिकानि पण पीसं जोयणाई पञ्चविंशति योजनानि 'परिवखवेणं' परिक्षेपेण परिधिना, दो कोसे' ही क्रोगी 'जलंताओ' जलन्तान् जलपर्यन्तात् 'उसिए' उच्छ्रितः सहस्रपत्र हस्तक' इन पाठ का संग्रह हुआ है इनका वाच्यार्य पीछे लिखा जा चुका है ये सब भी सर्वात्मना रत्नमय है अच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं (तस्सणं गंगप्प वायकुंडस्स वहमन्झदेसभाप एत्य णं एगे महं गंगादीवे णानं दीवे पण्णत्त) उस गंगाप्रपात झुण्ड के ठीक नीचे में एक बहुत विशाल गंगा दीप नामक द्वीप कहा गया है (अट्ट जोयणाई आयामविश्वंभेगं साइरेगाई पणवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं दो कोस असिए जलंतामो लचपदरानए अच्छे सण्हे) आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा ग्रह दीप आठ योजन का कहा गया है इसका परिक्षेप कुछ अधिक २५ योजन का है जल के अपर यह दो कोश ऊंचा उठा થયે છે. એ સર્વને વાચાઈ એજ ગ્રંથમાં પહેલા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. એ સવે पा सर्वात्मना २त्नभय छ, अ२७ छे, यावत् प्रति३५ छे. 'तस्सणं गंगप्पवायकुंडस्स बहुमज्मदेसभाप एगे महं गंगादीवे णाम दीवे पण्णत्त' 1 प्रपात नी ही मध्यमाम सुविधा दीप नाम दीवाम मा छे. 'अढ जोयणाई आयामविक्खंभण साइरेगाई पणवीसं जोयणाई परिक्खेवेण दो कोसे ऊसिओ जलंताओ सत्यवइरामए अच्छे सण्हे' मायाम मने विमनी अपेक्षा से दी५ मा यान प्रमाण ४ामां આવેલ છે. એ દીપને પરિક્ષેપ-કંઈક વધારે ૨૫ પેજન જેટલો છે. પાણીની ઉપર એ
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्रे उच्चः 'सन्नवदामए' सर्ववचरत्नमयः सर्वात्मना रत्नमयः 'अच्छे सण्हे.' अच्छ। लक्ष्ण इत्यादि प्राग्वत् , 'से णं' स गङ्गाद्वीपो नामद्वीपः खलु 'एगाए पउमररयेइयाए' एकया पद्मवरवेदिकया 'एगेण य वणसंडेणं' एकेन वनपण्डेन च 'सव्यो ' सर्वतः सर्वदिक्षु, 'समंता' समन्तात् सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खिते' संपरिक्षिप्तः परिवेष्टितोऽस्ति । एतयोः पदमवरवेदिका वनपण्डयोः 'वण्णओ' वर्णकः वर्णनकारकः पदसमूहो 'भाणियो' भणितव्या वक्तव्या, स च क्रमेण चतुर्थपञ्चमाभ्यां सूत्राभ्यां बोध्यः । 'गंगादीवस्स णं दीवस्स उप्पि बहुसमरम णिज्जे भूमिमागे पण्णत्ते' गङ्गाद्वीपस्य खलु द्वीपस्य उपरि बहुसगरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'तस्स णं' तस्य भूमि मागस्य खलु 'बहुमज्झदेसभाए' हमध्यदेशभागे अत्यन्तमध्य देशभागे 'एत्थ णं' अत्र अत्रान्तरे खलु गंगाए देवीए एगे' गङ्गाया देव्या एक 'मह' महर बृहद् ‘भवणे पण्णत्ते' भवनं प्रज्ञप्तम् । तस्य मानाद्याह--'कोसं' इत्यादि कोसं' क्रोश-क्रोश प्रमाणम् 'आयामेणं' आयामेन दैव्येण 'अद्धकोस' अर्द्धकोश-क्रोशार्द्धम् 'विक्खंभेग' विष्क म्भेण विस्तारेण, 'देसूणग' देशोनं किञ्चिन्यूनं 'कोसं' क्रोशम् ‘उ ऊर्ध्वम् ‘उच्चत्तेणं हुआ है सर्वात्मना यह वज्ररत्न का बना हुआ है यह अच्छ और श्लक्ष्ण । (सेणं एगाए पउमवरवेढ्याए एगेण य वण संडेणं सचओ समंता संपरिक्खित्ते यह गंगा द्वीप नामका द्वीप एक पद्मवरवेदिका से और एक वनखण्ड से चारो ओर से घिरा हुआ है (वण्णओ भाणियन्वो) यहां पद्मवरवेदिका और वनषण्ड का वर्णन चतुर्थ पंचम सूत्रों से जान लेना चाहिये (गंगा दीवस्स गं दीवस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) गंगा द्वीप नामके द्वीप के ऊपर का भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है (तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं गंगाए देवीए एगे भवणे पण्णत्ते कोसं आयामेणं अद्धकोसं विभेगं देसूणगं च कोसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसण्णिविटे जाव बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियाए सयणिज्जे) उस वहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक बहुत विशाल गंगा देवी का भवन कहा गया है यह आयाम की अपेक्षा एक બે ગાઉ સુધી ઉપર ઉઠેલે છે. એ સર્વાત્મના વજીરત્ન નિર્મિત છે. એ અચ્છ અને २६ छे. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सचओ समता संपरिक्खिते' એ ગંગાદ્વીપ નામક દ્વીપ એક પદ્મવર વેદિકાથી અને એક વનખંડથી મેર આવૃત્ત छ. 'वण्णो भाणियव्यो' से पहभ१२ वेहि मन वन विनु वर्णन यतु यम सूत्रोमांथी anel . 'गंगादीवस्स ण दीवस्व उप्पि बहुसमरमणिब्जे भूमिभागे पण्णत्ते'
गादी५ नाम ४दीपनी ५२ने। भूमिमा मासभरणीय ४पामा मावे छे. 'तस्सण 'बहुसमझदेसभाए एत्यण मह गंगाए देवीए एगे भवणे पण्णत्ते कोसं आयामेण अद्धकोस विक्खंभेगं देसूणगं च कोसं उच्चतेण अणेग खंभसयसण्णिविट्ठ नाव बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियाए सयणिज्ज' ते समरणीय भूमिमान ही मध्यमाभा मे मतीय વિશાળ ગંગાદેવીનું ભવન કહેવામાં આવેલ છે. એ લવન આયામની અપેક્ષાએ એક ગાઉ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गहासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् ५३ उच्चत्वेन तद्भवनं वर्णयितुमाह-'अणेगे' त्यादि-आयामादि विभागादियां शयनीयं वर्णकपर्यन्तं सूत्रं सव्याख्यमनन्तरसूत्रोक्त श्रीदेवी भवनानुसारेण वोध्यम् । ___अथ गङ्गाद्वीपस्यान्वर्थनामहेतं पृच्छति-से केणटेणं' इत्यादि । 'से केणद्वेणं जाव' अथ केन अर्थेन कारणेन यावत् यावत्पदेन-"भंते ! एवं बुच्चइ गंगादीवे गंगादीवे ? गोयमा ! गंगाय इत्य देशी मदिड्रिया महज्जुइया महब्बला महाजसा महासोक्ता महाणुभागा पलिओवमहिइया परिवसई से एएणटेणं एवं बुचड़ गंगादीव" इति मंग्राघम् ।।
एतच्छाया-"भदन्त ! एवमुच्यते गङ्गाद्वीपो गङ्गाद्वीपः । गौतम गङ्गा चात्र देवी महदिका महाद्युतिका महाबलमहायशाः महासौख्या महानुभागा पल्योधमस्थितिमा परिवसति तद् तेनार्थेन एवमुच्यते गगाद्वीपो गङ्गाद्वीपः । 'अदत्तरं च गं' इत्यादि, 'सासए नामधेज्जे पण्णत्ते' इत्यन्तं सर्व पद्मद्दवद् विजेयम् । व्याख्या स्पाटा ।। सू० ४ ॥ कोश का है विष्कंभ की अपेक्षा आधे कोग का है तथा ऊंचाई की अपेक्षा यह कुछ कम आधे कोश का है अनेक शत स्तंभों ऊपर यह खडा हुआ है यावत् इसके ठीक बीच में एक मणिपीठिका है और उस मणिपीठिका के ऊपर एक शयनीय है इत्यादि रूप से सब वर्णन यहां पर श्रादेवो के भवन का जेसा वणक किया गया है वैसा ही जानना चाहिये (स केगटेणं जाव सासए णामधज्जे पण्णत्ते) हे भदन्त ! इस दीप का नाम गंगा द्वीप ऐसा किस कारण से हुआ है इसके उत्तर में प्रयु कहते हैं-(गोयमा ! गंगा य इत्य देवा माहड्डिया मह
सुइया महायला महाजसा महासोक्खा महाणु भावा पलिओवमहिइया परिवसह, से पापणद्वेणं एवं चुच्चइ गंगादीवे गंगादा) यह इस प्रकार का उत्तररूप सूत्रपाट यहां यावत्पदसं गृहीत हुआ है तथा यह पाट (अदुत्तरं च णं सासए णामधेज्जे पपणत्ते) इस मत्रपाठ तक गृहीत हुआ है इस पाठ गत पदों को व्याख्या पद्महद प्रकरण में कथित पदों की व्याख्या के अनुसार ही है। स०४॥ જેટલું છે અને વિખંભનાં અપક્ષાએ અર્ધા ગાઉ જેટલું છે. તેમજ ઊચાઈની અપેક્ષાએ ભવન કંઈક અ૫ અર્ધા ગાઉ જેટલું છે. અનેક શન તંભની ઉપર એ ભવન સ્થિત છે. યાવત એની દીક મધ્ય ભાગમાં એક મણિપઠિકા છે, અને તે મણિપીઠિકાની ઉપર એક શયનીય છે વગેરે બધું વર્ણન શ્રી દેવીના ભવન વિષે જે પ્રમાણે વર્ણન જ સમજs:. ४२वामां . ते प्रभारी से कगण जात्र सासए णामधेज्जे पण्णत्ते' महतो દ્વીપનું નામ ગંગાદ્વીપ શા કારણે કારણથી પ્રસિદ્ધ થયું. એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે. 'गोयमा ! गंगा य इत्थ देवा महिइढिया महज्जुइया महाला महाजसा महासोक्खा महाणुभावा पलिओवमद्विइया परिवसइ, से एएणडेणं एवं वुच्चइ गंगादीवे गंगादीवे मा પ્રમાણેને ઉત્તર રૂપ સૂત્ર પાઠ અહીં યાવતુ પદથી ગ્રહીત થયેલ છે. તેમજ એ પાડ 'अदुत्तरं च णं सासए णामधेज्जे पण्णत्ते' में सूत्र सुधा साडी थयेटी छ. से पाह. ગત પદની વ્યાખ્યા પહદ પ્રકરણમાં કથિતપદની વ્યાખ્યા મુજબ છે. એ સૂ છે ૪
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___ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अस्या सम्प्रति येन तोरणेन निर्गमो, यस्य च क्षेत्रस्य स्पर्शना यावांश्च नदीपरिवारो, यत्र च संक्रमस्तथा पाह-'तस्स णं' इत्यादि । ___मूलम्-तस्ल गं गंगप्पवायकुंडस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गंगामहागई पवूढा समाणी उत्तरद्धभरहवासं एजमाणी २ सत्तहिं सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ अहे खंडप्पवायगुहाए वेयद्धपव्वयं दालइत्ता दादिणभरहवासं एजमाणी २ दाहिणभरहवासस्स बहुमज्झदेसभागं गंता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी चोदसहिं सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दालइता पुरस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ। गंगा गं भहाणई पवहे छ सकोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं, अद्धकोसं उव्वेहेणं, तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहे वासर्टि जोयणाई अद्धजोयणं च विक्खंभेणं सकोसं जोयण उव्वेहेणं पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहि दोहि वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता, वेइयावणसंडवण्णओ भाणियव्यो । एवं सिंधुए वि णेयत्वं जाव तस्स गं पउमदहस्स पच्चस्थिमिल्लेणं तोरणेणं सिंधु आवत्तणकूडे दाहिणाभिमुही सिंधुप्पवायकुडं, सिंधुद्दीने अटो सो चेव जान अहे तिमिसगुहाए वेयद्धपध्वयं दालइत्ता पञ्चस्थिमाभिमुही आवत्ता समाणा चोदससलिला अहे जगई पञ्चस्थिमेणं लवणसमुदं जाव समप्पेइ, सेसं तं चेव त्ति ॥सू०५॥
छाया-तस्य खलु गङ्गाप्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेण गङ्गा महानदीप्रव्यूढा सती उतरार्द्धमरतवर्षम् , एजमाना२ सप्तभिः सलिलासहौः आपूर्यमाणा२ अधःखण्डप्रपातगुहाया वैताढयपर्वतं दारयित्वा दक्षिणार्द्धभरततर्पमेजमाना२ दक्षिणार्द्धभरतवर्पस्य वहुमध्यदेशभागं गत्वा पूर्वाभिमुखी आवृत्ता सती चतुर्दशभिः सलिलासहजैः समग्रा अधो जगतीं दारयित्वा पौरस्त्ये लवणसमुद्रं समर्पयति । गङ्गा खलु महानदी प्रवहे पट्सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण अर्द्धक्रोशमुद्वेवेन, तदनन्तरं च खलु मात्रया २ परिवर्धमाना २ मुखे द्विपष्टि योजनानि अर्द्धयोजनं च विष्कम्भेण सक्रोशं योजनमुद्वेधेन उभयोः पार्श्वयीः द्वाभ्यां पद्मपरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता, वेदिका वनपण्डवर्णको भणितव्यः एवं सिन्ध्या अपि नेतव्यं यावत् तस्य खलु पद्महदस्य पश्चिमेन तोरणेन सिन्ध्यावर्तकूटे दक्षिगाभिमुखी सिन्धुप्रपातकुण्डं सिन्धुद्वीपः, अर्थः स एव यावद् . अयस्तमिस्रगुहाया वैताढन्य
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ५ गद्गामहानधाः निर्गम-स्पर्शनादिनिरूपणम् ५५ पर्वतं दारयित्वा पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती चतुर्दशसलिला अधो जगतीं पश्चिमे लवणसमुद्रं यावत् समर्पयति शेषं तदेवेति ॥ सू० ५॥ ____टीका-'तम्स णं' इत्यादि । 'तस्स णं गंगापनायकुंडस्स दाहिणिल्लेणं तस्य खलु गङ्गाप्रपातकुण्डस्य दक्षिण दिग्भवेन 'तोरणेणं' तोरणेन 'गंगामहाणई गङ्गामहानदी 'पढा' प्रव्यूढा निःसता 'समाणी' सती 'उत्तरद्धभरहवासं' उत्तगभरतवर्षम् 'एज्जाणी२' एज. माना२ गच्छन्ती२ 'सत्तहि सप्तभिः 'सलिलासहम्सेहि' सलिलासह नदीसहस्रः 'आपू. रेमाणी२' आपूर्यमाणा२ भ्रियमाणार 'अहे खंडप्पवाय गुहाए' अधःखण्डप्रपातगुहायाः 'वेयड्रपञ्चयं वैनाढयपर्वतं 'दालइत्ता' दारयित्वा भित्रा 'दाहिणद्धभरहवासं' दक्षिणार्द्धभरतवर्षम् ‘एजमाणीर' एजमानार गच्छन्ती२ 'दाहिणभरहवासस्स' दक्षिणार्द्धभरतवर्पस्य 'यहुमञ्झदेमभाग' बहुमध्यदेशभागम्- अन्यन्नमध्यदेशभागं 'गंता' गत्वा 'पुरत्याभिमुही' पौरस्त्याभिमुखी पूर्वाभिमुखी 'आवत्ता' आवृत्ता परावृत्ता 'समाणी' सती 'चोदसहि' चतुर्दशभिः 'मलिलामहस्मेदि' सलिलासाः चतुर्दशसहस्रपरिमिताभिनंदीभिः 'समग्गा' समग्रा
तस्म णं गंगप्पवायकुंडस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं' टीकार्थ-इस मंत्र ढारा सूत्रकारने गंगानदी किन नोरण से निकली है, किस क्षेत्र की इसने स्पर्शना की है, कितना इसका नदी परिवार है, और यह कहां जाकर मिली है यह सब प्रकट किया है-(तस्स गं गंगप्पवायकुंडस्स दाहिजिल्लेणं तोरणेणं पढा) उम गंगाप्रपातकुंडके दक्षिणदिग्भागवर्ती तोरण से गंगा नाम की महानदी निकली है (उत्तरद्धभरतवासं एज्जमाणी २ सत्तहिं सलिलासहस्सेसिं आउरेमाणी २ अहे खंडप्पवायगुहाए वेयद्वपव्ययं दालइत्ता दाहिणभरहवासं एडजमाणी २ दाहिणभरवासस्स बहुमज्ञदेसभागं गंता पुरत्थाभिमुही आवत्तासमाणी चोदसहिं सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरधिमणं लवणसमुहं समप्पेह) यह गंगा महानदी उत्तरार्द्ध
'तम्म ण गंगापवायकुंडस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेण' इत्यादि
ટીકા–આ સૂત્રવડે સૂત્રકારે ગંગાનદી ક્યા તેરણમાંથી નીકળી છે? કયા ક્ષેત્રને એણે સ્પર્શ કર્યો છે? એ નદીને નદી પરિવાર કેટલે છે? અને એ કયાં જઈને મળી छ? 2 मधु वामां मावेस छे. ___तम्स णं गंगापवायकुंडस्स दाहिणिल्लेंगे तोरणेणं पढा' ते ॥ प्रपात नक्ष EिAudi तेथी नामे महानही नीजी छे. 'उत्तरद्धभरहवासं एज्जमाणी २ सत्तहिं सलिलासहस्सेहिं आउरेमाणी २. अहे खंडप्पवायगुहाए वेयद्धपव्वयं दालपत्ता दाहिणद्धभरहवासं एज्जमाणी २ दाहिणद्वभरहवासस्स बहुमज्झदेसभाग गंता पुरत्थाभिमुही आवत्ता समाणी चोदसहि सलिलासहरसेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेन' को मा महानही उत्तरारत त२६ प्रवाहित थती तमा सात २
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जम्बूडीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
सम्पूर्णा 'अ' अधोभागे 'जगई' जगतीं 'दालहत्ता' दारयित्वा - भिच्या 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वे पूर्वस्यां दिशि 'लवणसमु' लवणसमुद्रं 'समप्पे ' समुपसर्पति समुद्रे मिलतीत्यर्थः ।
अथास्या एव गङ्गामहानद्याः प्रवह- सुखयो विष्कम्भोद्वेधौ दर्शयितुमाह- 'गंगा णं' इत्यादि । 'गंगा णं' गङ्गा - गङ्गानाम्नी खलु - 'महाणई' महानदी याऽस्ति सा 'पवदे' प्रवहे, यस्मात् स्थानात् नदी प्रवोढुं प्रवर्तते स प्रवहः पद्महूदात्तोरणा निर्गमस्तस्मिन् तत् स्थानावच्छेदेन 'छ सकोसाई जोयणाई' सक्रोशानि एक क्रोशसहितानि सपादानीत्यर्थः पयोजनानि 'विक्खभेणं' विष्कम्भेण - विस्तारेण, 'अद्धकोर्स' अर्द्धक्रोशं क्रोशस्यार्द्धम् 'उब्वेद्देणं' उद्वेधेन गाम्भीर्येण 'तयणंतरं च णं' तदनन्तरं पद्महूदतोरण विस्तारादनन्तरम् एतेन यावत्क्षेत्रं स विस्तारो भनुवृत्तस्तावत्क्षेत्रादनन्तरं - गङ्गाप्रपातकुण्ड निर्गमादनन्तरमित्यर्थः सा गङ्गा- 'मायाए ' मात्रया २ - क्रमेण २ प्रतियोजनं प्रतिपाश्र्श्व धनुःपञ्चकवृद्धया उभयपार्श्वयोः संमील्य धनुर्देश कवृद्ध्येत्यर्थः ‘परिवद्धमाणी २' परिवर्द्धमाना २ वृद्धिं गच्छन्ती प्रवहमानात्समुद्रप्रवेशमानस्य भरतकी ओर जाती हुई तथा सात हजार नदियों से अपने आपको भरती २ खंडप्रपात गुहा के नीचे से होकर दक्षिणाई भरत की तरफ गई है वहां जो वीच वैतात पडा है उसके बीच में होकर ये बहती है इस तरह दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र के ठीक बीच में बहती हुई यह गंगानदी पूर्वाभिमुख होती हुई तथा १४ हजार नदियों के परिवार से परिपूर्ण होती हुई पूर्व दिग समुद्र में जाकर मिलगई है पूर्वदिर समुद्र में पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्र में मिलने के लिये जाते समग्र इसने वहां की जो जम्बूडीप की जगती है उसको विदारित करदिया है (गंगा णं महानदी पवहे छसकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं, अद्धकोर्स उच्वेणं तयणंतरं चणं मायाए २ परिवदमाणी २ मुहे वासट्ठि जोयणाई अद्धजोयणं च विक्रमेणं स कोसं जोयणं उन्हेणं उभओपासिं दोहिं पउमवरवे आहिं दोहि वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता वेइया वणसंडवण्णओ भाणियन्वो) यह गंगा नाम की
નદીએના પાણીથી પ્રપૂરિત થતી ખડ પ્રપાત જીહાના નીચેના ભાગમાંથી પસાર થઈને દણિક્ષાદ્ધ ભરત તરફ પ્રવાહિત થઈ છે. ત્યાં જે મધ્યભાગમાં વૈતાઢય પર્યંત ઊભા છે, તેની મધ્યમાંથી પ્રવાહિત થઈને ॥ પ્રમાણે દક્ષિણા ભરત ક્ષેત્રના ઠીક મધ્યમા પ્રવાહિત થતી એ ગંગાનદી પૂર્વાભિમુખ થઈ ને તેમજ ૧૪ હજાર નદીઓના પરિવારથી પરિપૂર્ણ થતી પૂ`દિસમુદ્રમાં જઈને મળી ગઈ છે. પૂર્વ દિગ્સમુદ્રમાં પૂર્વ દિગ્વતિ લવણુસમુદ્રમાં મળવા જતી વજતે મા નદીએ ત્યાંની જે જમૂદ્રીપની જગતી છે તેને વિદી કરી सीधी छे. 'गंगा णं महाणदी पवहे छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं, अद्धकोसं उव्वेहेण तयणंतरं च णं मायाए २ परिषद्धमाणी २ मुद्दे वासट्ठि जोयणाई अद्धजोयणं च विक्खंभेणं सकोर्स जोयणं उदेद्देण उभओपासिं दोहिं पउमवरवेइअ हिं दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता बेइयावणसंडवण्णओ भाणियच्चों' से गंगा नाम भहानही ? स्थाम उपरथी नीजीने वडेवा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ५ गमामहानयाः निर्गम-स्पर्शनादिनिरूपणम् ५७ दशगुणन्वान् 'मुडे' मुखे सगुद्रप्रवेशे 'यासटि जोयणाई' द्वापष्टिं योजनानि 'अद्ध जोयणं च' अद्ध योजनम् योजनस्याई च 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण विस्तारेण 'सकोसं सक्रोश सपाद 'नोयणं उवदेणं' योजनम् उद्धेन गाम्भीर्येण, सार्द्धद्वापष्ट्रियोजनपरिमिनसमुद्रप्रवेशव्यासस्य पञ्चाशत्तमभागे एनावन एप समुपलभ्यमानन्यान 'उभो उभयोः द्वयोः 'पासिं' पार्श्वयोः तटयोः 'दोहिं पउममग्वेश्याहिं' द्वाभ्यां पदगवर येदिकाभ्यां 'दोहिं वनरांडे हिं' द्वाभ्यां वनपण्डाभ्यां 'संपरिक्वित्ता संपगिक्षिप्त पग्नेिष्टिनाऽग्ति, अत्र 'वेडया वणगंडवणी' वेदिकायनाम्खण्डवर्णकः पद्मनग्वेदिका बसण्टवर्णन करपदममहो 'माणिययो' मणितव्यः वक्तव्यः, स च क्रमेण चपनमाभ्यां नगाभ्यां बोध्यः ।।
अथ गद्गागा आयाम'दीनि मिथुनयां प्रदर्गयितुमाल-गवं सिंधृण बि' इत्यादि-एवं' एवं गद्गामानघाटर 'सिंधए नि सिन्ध्याः मिन्ध नारा महान्या अपि म्यसप 'णेयच्छ' नेतव्यं ज्ञानवियतां प्रापणीयं ज्ञातव्यामि यथः, 'जाव' यागत् एन-एदं 'तोरणेन' इन्यनन्तरं महानदी जिस स्थान से निकल का बरती प्रारम्भहोती है वह प्रबह-पद्मद के तोरण से हमने निर्गमन वा स्थान- झोन अधिक योजन का विष्कम्भ की अपेक्षाले । अनि छ योजनमा उलका विस्तार है और इसका उद्वेधगहगई आध कोगका है उसके बाद-गंगाप्रपात कुण्ड से निकलने के बाद वह महानदी गंगा काम २ से प्रतिपार्य में ५-५-धनुप की वृद्धि करती हुई-अर्थात् दोनों पार्य में १० धनुष की वृद्धि करनी हुई जहां वह समुद्र में प्रवेश करती है वह स्थान विष्कम्भ की अपेक्षा ६॥ोजन प्रमाण हो जाती है और १॥ योजन का वहाँ का उध हो जाता है यह गंगा अपने दोनों तटों पर दो पद्मवरवेदि काओं से और दो बनपण्टों से परिक्षिप्त है यहां वेदिका और बनपण्डों का वर्णन चतुर्थ एवं पंचम दत्रों से-जान लेना चाहिये (एवं मिप वि णेयव्व) गंगामहानदी के आयाम आदिकों की तरह सिन्धु महानदी के आयामादि को भी जानना चाहिये (जाव नस्म णं पउयहहरस पच्चस्थिमिल्लेणं तोरणेणं, सिंधु લાગે છે તે પ્રવહ-પદયાના તેરણધી એનું નિધન સ્થાન–એક ગાઉ અધિક દ એજન પ્રમાણે વિઠંભની અપેક્ષાએ છે અર્થાત્ . 3 જન એટલે આ વિસ્તાર છે, અને આની ઊંડાઈ-(૬) અર્ધા ગાઉ જેટલી છે. ત્યાર બાદ ગંગા પ્રપાત કુંડમાંથી નીકળીને પછી તે મહા નદી ગંગા અનુક્રમે પ્રતિપાર્શ્વમાં ૫-૫ ધનુષ જેટલી વૃદ્ધિ કરતી એટલે કે અને પાર્વેમાં ૧૦ ધનુષ જેટલી વૃદ્ધિ કરતી જ્યાં તે સમુદ્રમાં પ્રવેશે છે, તે સ્થાન વિષ્કભની અપેક્ષાએ દરા જન પ્રમાણુ થઈ જાય છે અને લોજન એટલે તે સ્થાનને ઉધ થઈ જાય છે. એ ગંગા પિતાના બન્ને કિનારાઓ ઉપર બે પદમપર વેદિકાઓથી અને બે વનખંડથી પરિક્ષિત છે. વેદિકા અને વનખંડનું વર્ણન ચતુર્થ તેમજ પંચમ सूत्रामयी on A नग'एवं सिंधूप वि णेयव्यं' in मसानहीन मायाम पोरनी
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे -
बोध्यम्, 'तस्स णं पउमद्दहस्स पच्चत्थिमिल्लेणं तोरणेणं' तस्य खलु पद्महृदस्य पाञ्चात्येन तोरणेन यावत् यावत्पदेन 'सिन्धूमहानदी प्रव्यूढा सती पश्चिमाभिमुखी पञ्चयोजनशतानि पर्वतेन गत्वा' इत्यदि सग्रहो वोध्यः, 'सिंधु आवचणकूडे' सिन्ध्यावर्तकूटे आवृत्ता सती पञ्चयोजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि त्रीकोनविंशतिभागान ' दाहिणाभिमुही' दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महता सुखप्रवृत्तकेन मुक्तावलिहार संस्थितेन सातिरेकयोजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, अत्र खलु महती एका जिह्विका प्रज्ञप्ता, सा खलु जिविका अर्द्धयोजनमायामेन षट्सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण अर्द्धयोजनं वाहल्येन, मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता सर्ववज्रमयी अच्छा श्लक्ष्णा, सिन्धु महानदी अत्र खलु महदेकं 'सिंधुप्पवायकुंडे' सिन्धुप्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम्, एतत्कुण्डम स्मिन्नेव सूत्रे प्रागुक्त गङ्गाप्रपातकुण्डनदेव वर्णनीयम् । तस्य खलु सिन्धुप्रपातकुण्डस्य चतुमध्यदेश भागः, अत्र खलु महानेकः 'सिंधु दीवा' सिन्धुआवत्तणकूडे, दाहिणाभिसुही सिंधुपायकुडं सिधुडीवो अट्ठो सोचेच जाव अहे तिमिरसगुहाए वेअद्धपचयं दालइन्ता पच्चत्थिताभिमुही आवता समाणा चोस सलिला अहे जगई पच्चत्थियेणं लचणसमुहं जाव समप्पेड़) यावत् यह सिन्धु महानदी उस पद्मद्रह के पश्चिमदिग्वर्ती तोरण ले यावत् पद के कथनानुसार निकली है और पश्चिमदिशा की ओर वही है वहाँ से जहां से कि यह निकली है पांच सौ योजन तक उस पर्वत पर बहकर फिर यह सिन्ध्यावर्त कूट में, लौट कर ५२३, योजन तक उसी पर्वत पर दक्षिण दिशा की ओर जाकर बडे जोर २ से घट के सुख से निकले हुए जल प्रवाह की तरह अपने जल प्रवाह से गिरती है यह सिन्धु जहानदी जिस स्थान में सिन्ध्वावर्तकूट में गिरती है वहां एक बहुत बडी 'जिहिका है ।
(१) इन सबका वर्णन पीछे गंगानदी के प्रकरण में किया जा चुका है । सिन्धु महानदी जहां गिरती है वहां एक उसी नामका प्रपात कुण्ड है इसका प्रेम सिन्धु भडानहीना न्यायासाहि । विषे पलाएगी सेवु' लेहये. 'जाव तस्स णं पउमहहम्स पच्चत्थिमिल्लेणं तोरणेण सिंधु आवत्तजकडे, दाहिणाभिमुही सिंघुप्पवायकुंड सिंधु दीवो अट्ठो सो चेव जाव अहे तिमिसगुहाए वेअधपन्त्रयं दालइत्ता पच्चत्थिमाभिमुही आवत्ता समाणा चोइससलिला अहे जग पच्चत्थिमेणं लवणसमुद्दे जाव समप्पेह' यावतू मे सिंधु મહા, નહીં તે પદ્મદના પશ્ચિમ દિગ્વતી તાણેથી યાવત્ પના કથન મુજબ નીકળે છે. અને પશ્ચિમ દિશા તરફ પ્રવાહિત થાય છે. જ્યાંથી એ નદી નીકળે છે ત્યાંથી પાંચસા ચૈાજન સુધી તે પર્યંત ઉપર પ્રવાહિત થઈને એ સિન્ધ્યાવત ફૂટમાં પાછી ફરીને પર ૐ ચેાજન સુધી પર્યંત ઉપર જ દક્ષિણ દિશા તરફ જઈને પ્રચર્ડ વેગથી ઘડાના મુખ માંથી નિકળતા જલ પ્રવાહ જેમ પેતાના જલપ્રવાહ સાથે પડે છે. એ સિધુ મહાનદી જે સ્થાનમાંથી સિન્થ્રાવ ફૂટમાં પડે છે તે એક સુવિશાળ જિહ્નિકા (એસ'નું વર્ણન પહેલા ગગા મહાનદીના પ્રકરણમા કરવામાં આવેલું છે; સિંધુ મહાનદી જ્યાં પડે છે ત્યાં
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्काः सू० ५ महामहानयाः निर्गम - स्पर्शनादिनिरूपणम् ५९
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द्वीपो नाम द्वीपः प्रवतः अयं द्वीपो गङ्गाोपवद्वर्णनीयः, 'अहो सोचेव' अर्थः स एव - सिन्धुमहानदी सूत्रस्यार्थः स एव गत महानदीसत्रार्थ एवं बोध्यः न त्वन्यः 'जाव' यावत - यावत्पदेन - 'स्प खलु सिन्धुकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन सिन्धुमहानदी प्रयूढा सती उत्तरार्द्धभरतवर्षम् इती २ विलासः आपूर्यमाणा २" इति संग्रायम्, 'अहे' अधःअधोभागे 'तिमिमगुहाए' तमित्रगुहायाः तमिस्रनामक गुहायाः सकाशात् 'वेयद्धपन्चय' चैता
पर्वतं 'दाता' दारविना भिचा 'पन्चत्थिमाभिमुठी' पात्रात्याभिमुखी पश्चिमाभिमुखी 'आयत्ता' आवृत्ता - परावृना 'समाणा' सती 'चोटमसलिया' चतुर्दशसलिलेति चतुर्दशभिः सन्मित्रः सया सम्पूर्णा 'अहे जगई' अयो जगतीं दारयित्वा ' पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन - पश्चिमायां दिवि स्थितं 'लवण समुद्रं 'जाव' यावत 'समप्पेड' समर्पयति 'सेस' शेपम् - उक्तातिरिक्तं प्रवद भुजगानादिकं 'तं चेन' तदेव गज्ञा महानदी प्रसोक्तमेव बोध्यम् ॥ ०५ ॥ मृत्य तस्स स्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं शेहियंसा महाणई बूढा समाणी दोणि छान्तरे जोयणसए छ एगूणवीसइभाए जोयभी वर्णन गंगाप्रपान कुण्ड के जैसा ही है उसके बीच में सिन्धु महानदी सूत्र का वर्णन गंगाजी के वर्णन जैसा ही है तथा सिन्धु महानदी सूत्र का अर्थ गंगामहानदी सूत्र के अर्थ जैण ही है। यहां याचत्पद से 'तस्य लु सिन्धु प्रपात कुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन सिन्धुमहानदी प्रव्यूहा सती उत्तरार्द्धम् भरतवर्षम् इती र मलिला महः आपूर्यमाणा २२ इस पाठ का संग्रह हुआ है यह सिन्धु महानदी के नीचे से होकर तथा वैतादय पर्वत को विदारित कर पविमदिशाकी और लौटती हुई २४ हजार नदियों रूप परिवार से युक्त हुई है इस प्रकार यह सिन्धु नदी पश्चिमदिशा के लवण समुद्र में जाकर मिल गई है इस कथन के अतिरिक्त और सब कथन गंगानदी के प्रकरण के जैसा ही है ऐसा जानना चाहिये ॥२०५॥
(तणं मद्दह उत्तरिल्लेणं तोरणेणं)
એક તેજ નામધારી પ્રપાત કુંડ છે. એ પ્રાત કુંડનું વર્ણન પણ ગંગા પ્રપાતવત્ સમજવું. તેના મધ્ય ભાગમાં સિધુ ઢીપ છે એ દ્વીપનું વર્ણન ગંગા દ્વીપના વર્ણનની જેમ જ છે. તેમજ સિન્ધુ મહાનદી સૂચના અ ગગા મહાનદી સૂત્રના અર્થ જેવા જ થાય मडीं' यावत् यथी 'तम्य खलु सिन्धु पातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन सिन्धु महानदी प्रव्यूढा सती उत्तरार्द्धम् भरतवर्ष इयती २ सलिलासहस्रे आपूर्यमाणा ' से पानी संग्रह थयो छे. એ સિંધુ મહાનદી ખંડ પ્રપાત ગુઢ્ઢાના નિષ્મ ભાગમાથી પ્રવાહિત થઇ તેમજ વૈતાઢય પ તને વિદીશુ કરતી પશ્ચિમ દિશા તરફ પાછી ફરતી ૧૪ હજાર ની રૂપ પેાતાના પરિવારથી યુક્ત થઇ છે. આ પ્રમાણે એ સિધુનદી પશ્ચિમ દિશાના લવણુ સમુદ્રમાં જઈને મળે છે, એ કથન સિવાય શેષ મધુ કથન ગંગા નદીના પ્રાણ્યુ જેવુ' જ છે. ા સ્ પ ॥
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे णस्स उत्तराभिमुही पपएणं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोयणसइएणं पवाएणं पक्डइ । रोहियंसा णाम महाणई जओ पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता, साणं जिब्भिया जोयणं आयामेणं अद्धतेरसजोयणाई विक्खंभेणं, कोसं बाह. ल्लेणं नगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा रोहियंसा महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे रोहियंसा पशयकुंडे णामकुंडे पण्णत्ते, सवीसं जोयणसयं आयामबिक्खंभेणं, तिषिण असीए जोयण'सए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, दसजोयणाई उव्वेहेणं अच्छे कुंडवण्णओ जाव तोरणा, तस्स णं रोहियंसा पवायकुंडस्ल बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहियंसा णामं दीवे पण्णत्ते, सोलस जोयणाई • आयामविक्खंभेणं, साइरेगाइं पगासं जोयणाई परिक्खेवेणं, दो कोसे
ऊसिए जलंताओ, सव्वरयणामए अच्छे सण्हे० सेसं तं चेव जाव भवणं अट्टो य भाणियव्वोत्ति । तस्स णं रोहियंसाप्पवायकुंडस्ल उत्तरिल्लेणं तोरणेगं रोहियंसा महाणई पवूढा समाणी हेमवयं वासं एजमाणी २ चउद्दसहिं सलिलासहस्तेहिं आपूरेमाणी २ सदावइ बट्टवेयड्डपब्वयं अद्धजोयणेणं असंपत्ता समाणी पञ्चत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पञ्चस्थिमेणं लवणतसुदं समपेइ, रोहियंसा णं पवहे अद्धतेरसजोयणाई विक्खंभेणं कोसं उठवेहेणं, तयणंतरं च णं मायाए२ परिवद्धमाणी २ मुहमूले पणवीसं जोयणसयं विक्खंभेणं अढाइज्जाई जोयणाई उव्वेहेणं उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वण. संडेहिं संपरिक्खत्ता ॥सू० ६॥
छाया-तस्य खलु पद्महूदस्य औत्तराहेण तोरणेन रोहितांसा महानदी प्रव्यूढा सती इस छठे सूत्र का अर्थ इसकी छाया से ही जाना जा सकता है ऐसा है ।सू.६।।
ટીકાર્ય–આ છ સૂર્યને અર્થ એ સૂવની છાયા દ્વારા જ જાણી શકાય છે. સૂ૦ ૬.
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ६ रोहितांसामहानदीप्रपातादि निरूपणम् ६१ द्वे पट्सप्तने योजनशते पट्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघाखप्रवृत्तिकेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेकयोजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति । रोहितांसो, नाम महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महती एका जिविका प्रज्ञप्ता । सा खलु जिद्धिका योजनमायामेन अर्द्ध त्रयोदशयोजनानि विष्कम्भण क्रोश वालपेन मकरसुखविवृत. संवारसंस्थिता सर्ववन्नमयी अच्छाः रोहितांसा महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं
हितांस प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , तद् विशं योजनशतमायामविरम्भेण, त्रीणि / अशीतानि जनशतानि किनिहिशेपोनानि परिक्षेपेण, दश योजनानि उद्वेवेन अच्छम्०, कुण्डवर्णको भावत् तोरणाः । तस्य खलु रोहितांसा प्रपातकुण्ठस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु एको रोहितांसा नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, पोडशयोजनानि आयामविष्कम्भेण सातिरेकाणि पञ्चाशतं योजनानि परिक्षेपेण, द्वौ फ्रोशावुच्छ्निो जलान्तात् , सर्वरत्नमयः अन्छः लक्षण: शेप तदेव यावद भवनम् अर्थश्व भणितव्य हति, तस्य खलु रोहितांशाप्रपातकुण्डस्य भीत्तराहेण तोरणेन रोहितांसा महानदी प्रव्यूढा सती हैमवतं वर्पमियती २ चतुर्दशभिः सलिलास. हमेः आपूर्यमाणा २ शब्दापानिवृत्तताढयपर्वतमयोजनेनासम्प्राप्ता सती पश्चिमाभिमु. ख्यावृत्ता सती हैमवत व द्विधा विमनमाना २ अष्टाशिसा सदिलासरसः समग्रा अधो जगती दारयित्वा पश्चिमे लय गमगुद्रं समर्पयति । रोहितांसः खलु प्रबहे अर्द्धत्रयोदशयोगन.नि विष्कम्भेण क्रोगमुढेधेन, तदनन्तरं च खलु मानया २ परिवर्तमाना १ मुखमूले पञ्चविंश योजन विष्कम्भेण अर्थतनीयानि योजनानि उद्वेघेन उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पदमवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता ॥ सू०६॥
टीका-'तम्स' इत्यादि । 'तस्स णं पउमदहस्स' तस्य खलु पद्मदस्य 'उत्तरिल्लेणं तोरणेणं औत्तराहेण-उत्तरदिनभवेन तोरणेन-बहिरिण 'रोहियंसा महाणई पहा समाणी' रोहितांसा-तन्नाम्नी महानदी प्रव्यूढानिःसता सनी 'दोणि छायत्तरे जोयणसए छच्च एन. णवीसइभाए जोयणम्स' पट् सप्तते-पट् सप्तत्यधिके द्वे योजनशते पदचैकोनविंशतिभागान योजनस्य एतावनी भुवम् 'उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता' उत्तराभिमुखी हेमवत क्षेशाभिमखी सा नदी पर्वतेन गत्या 'महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोयणसइ. एणं पवाएणं पवडइ' महाघटमुखभ्यः प्रवृत्तिः निस्सरणं यस्य-प्रपातस्य तेन-महाघटमख प्रवृत्तिकैन तथा-मुक्तावलिहारसंस्थितेन, तथा-सातिरेकं-किञ्चिदधिकं योजनशतं यत्र तेन सातिरेकयोजनशातिकेन-किञ्चिदधिकशतयोजनविशिष्टेन उक्तत्रयाविशेषणविशिष्टप्रपातेन प्रपतति । 'रोहियसा णाम महाणई जभी पवडई' रोहितांसा नाम्नी महानदी यत:-यस्मात स्थानात् प्रपतति, 'एत्य णं महं एगा जिभिया पण्णत्ता' अत्र खलु प्रपतनस्थाने महती अतिदीर्धा एका जिदिका-तदाकारं विशेपवस्तु, प्रज्ञप्ता-कथिता, 'सा पंजिभिया जोयणं आयामेणं अद्ध तेरस जोयणाई विक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं' सा खलु जिहिका योजनमेकम् आयामेन-दैयेण, अर्द्धत्रयोदश योजनानि विष्कम्भेण-विस्तारेण, क्रोश बाह
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्रे ल्येन-स्थौल्येन गङ्गा-जिद्विशातः अस्या द्विगुणत्वात् , 'मगरमुह विउद्वसंठाणसंठिया सव्यवइरामई' मारमुखविवृतसंस्थान-संस्थिता-मकर मुखमिव विवृतं-विदीर्णं यत्स्थानम्-आकारविशेपस्तेन-संस्थिता, सर्ववज्रमयी 'अच्छा रोहियंसा महाणई जहिं पक्डइ' अच्छा-स्वच्छा रोहितांसा महानदी यत्र प्रपतति, अथ कुण्डस्वरूपमाह-'एत्थणं महं एगे-रोहियंसा पवायकुंडे णाम कुंडे पण्णत्ते' अत्र खल स्थाने महदेकं रोहितांसा प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , 'सबीसं जोयणसयं आयामविक्खंभेण' तत् कुण्डं विंशम्-विंशत्यधिकं योजनशतम् आयाम विष्कम्भाभ्यां दैर्ध्यविस्ताराभ्याम् गङ्गाप्रपातकुण्डतोऽस्य द्विगुणत्वात् 'तिण्णि असीए जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं' त्रीणि योजनशतानि अशीतानि अशीत्यधिकानि किञ्चिद्विशेपोनानि परिक्षेपेण-परिधिना-परिवेष्टनेन 'दसजोयणाई उव्वे हेणं' दशयोजनानि उद्वेधेन-गंभीरेण 'अच्छकुंड-घण्णश्री जाव तोरणा' अच्छम् । कुण्डवर्णक:-कुण्डस्य वर्णनं यावत्तोरणानि तोरणपर्यन्तं वक्तव्यम् । अथात्र द्वीपमाह-'तस्स णं रोडियंसा पवायकुंडस्स बहुमज्झ. देसभाए एत्थ णं महं एगे रोहियंसा णाम दीवे पण्णत्ते' तस्य खलु रोहितांसा प्रपातकुण्डस्य वहुमध्यदेशभागे, अत्र खलु-स्थाने महान् एको रोहितांसो नाम द्वीप प्रज्ञत:-कथितः, 'सोलसजोयणाई आयामविक्खंभेणं' स च द्वीपः पोडशयोजनानि आयामविष्कम्भाभ्यांदैयविस्ताराभ्याम् , 'साइरेगाई पण्णासं जोयणाई परिक्खेवेणं' सातिरेकाणि पश्चाशत योजनानि परिक्षेपेण-परिधिना, दो कोसे ऊसिए जलंताओ' द्वौ क्रोशौ उच्छ्रितो जलान्तात्-जलपर्यन्तात् क्रोशद्वयमूर्ध्व गतः स द्वीपः 'सव्वरयणामए अच्छे सण्हे० सेसं तं चेव जाव भवणं अट्टो य भाणियचो त्ति' सर्वरत्नमयः अच्छः श्लक्ष्णः- शेषं तदेव यावद् भवनम् अर्थश्च भणितव्य इति, सम्प्रति अस्या नद्याः येन तोरणेन निर्गमो यस्य च क्षेत्रस्य स्पर्शना यावांच नदी परिवारो यत्र च संक्रमस्तथाऽऽह-'तस्सणं' इत्यादि । 'तस्स णं रोहियंसाप्पवायकुडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं तस्य खलु रोहितांशाप्रपातकुण्डस्य औत्तराहेणउत्तरदिग्भवेन तोरणेन-वहिारेण, 'रोहियंसा महाणईपवढा समाणी' रोहितांसा महानदी प्रव्यूढा-निर्गता सती 'हेमवयं वासं एज्जमाणी २' हैमवतं वर्षम् इर्यती२ गच्छन्ती २ 'चउदसहिं सलिलासहस्सेहि आपूरेमाणी २' चतुर्दशभिः सलिलासहौः-नदीसहस्रैरापूर्यमाणार सदावइवट्टवेयडूपव्ययं अद्ध जोयणेणं असंपत्ता समाणी' शब्दापाति नामानं वृत्तवैताढयपर्वतम् अर्द्ध योजनेनासम्प्राप्ता सती 'पच्चस्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी २' पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता-परावृत्ता सती हैमवतं वर्ष द्विधा विभनमाना २ 'अठ्ठावीसाए सलिलासहस्से हिं समग्गा' अष्टाविंशत्या सलिकासहौः नदीसहनै समग्रापरिपूर्णा सती 'अहे जगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लपणसमुई समप्पेइ' जगतीम् अधो दारयिस्वा भिन्वा पश्चिमे लवणसमुद्रं समर्पयति-प्रविशतीत्यर्थः, अस्या एव मूलविस्ताराधाह-'रोहि
यंमा णं परहे अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं कोसं उव्वेहेणं' रोहितांसा नाम्नी नदी खलु .., अवहे-प्रवदति यस्मादिति प्राहस्तस्मिन्-मूले अर्द्ध त्रयोदश योजनानि-सार्दद्वादशयोजनानि
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः स० ६ रोहितां सामहानदीप्रपातादिकनिरूपणम विष्कम्भेण - विस्तारेण प्राच्य क्षेत्रनदीतो द्विगुणविस्तारकत्वात्, क्रोशमुद्वेन - उच्चत्वेन प्रव हव्यास पञ्चाशत्तमभागरूपत्वात्, 'तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २' तदनन्तरश्च खलु मात्रया २ क्रमेण २ प्रतियोजनं समुदितयोरुभयोः पार्श्वयो धनुर्विंशत्या वृद्धया प्रतिपार्श्व धनुर्दशवृद्धयेत्यर्थः परिवर्द्धमाना २ 'मुहले पणवीसं जोयणसयं विक्लंभेण' मुखमूले समुद्रप्रवेशे पञ्चशतं पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतं विष्कम्भेण प्रवहव्यासाद्दशगुणत्वात्, 'अड्डाइज्जाई जोयणाई उच्वेहेणं' अर्जुनीयानि योजनानि - सार्द्धद्र योजने उद्वेवेन मुखव्यासपञ्चाशत्तमभागरूपत्वात्, 'उभओ पासिं दोहिं परमवर वेइयाहि दोहि य वण संडेर्हि संपरिक्खित्ता' उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवेदिकाभ्यां द्वाभ्याञ्च चनपण्डाभ्यां संपरिक्षिता-वेष्टिता || सू. ६ ॥ अथ मत्पयेतपरिवर्तकृटस्वरूपं दर्शयितुमाह 'चुल्लहिमवंते णं भंते !' इत्यादि । मूलम् - चुल्लहिमवंते णं भंते! वासहरपत्रए कड़ कूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! इक्कारस कूडा पण्णत्ता, तं जहा सिद्धाययणकूडे १ चुल्लहिमचंतकूडे२ भरहनुडे३ इलदेवीकडे? गंगादेवीकूडे५ तिरीकूडे६ रोहियंसे कूडे७ सिंधुदेवीकृडेट सुरदेवीकृडे ९ हेमवयकूडे १० वेसमणकूडे ११ ।
कहिणं भंते । चुल्लहिमवंते वासहरपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कडे पण्णत्त ? गोयमा ! पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पञ्चस्थिमेणं चुल्लहिमतस्स पुरत्थमेणं एत्थ णं सिद्धाययणकडे णामं कूडे पण्णत्ते, पंत्र जोयणसयाई उद्धं उच्चतेणं मूले पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं मज्झे तिष्णि य पण्णत्तरे जोयणसए विक्खंभेणं उपि अद्वाइज्जे जोयणसए विकखंभेणं, मूले एगं जोयणसहसं पंच च एगासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिवखेवेणं, मज्झे एगं जोयणसहस्सं छलसीयं जोयणसयं किंचि विसेसूणे परिक्खेवेनं, उपि सत्त इक्काणउप जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, सूले विच्छिपणे मझे संखित्ते, उपि तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे से णं एगाए पउसवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते, सिद्धाययणस्स कूडस्स णं उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव तस्स णं बहुसमरमणिजस्त भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं पगे सिद्धा
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जम्बूद्वीपप्रश्नप्तिसूत्रे ययणे पण्णत्ते,पण्णासं जोयणाई आयामेणं, पणवीसंजोयणाई विक्खंभेणं, छत्तीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमा वण्ण मो भाणियम्वो।
कहि णं भंते! चुल्ल हिमवते वासहरपलए चुल्लहिमवयकूडे णाम कूडे पण्णत्ते ? गोयमा! भरहकूडस्स पुरस्थिमेणं सिद्धाययणकूडस्स पञ्चस्थिमे", एत्थ णं चुल्लहिमवए वासहरपबए चुल्ल हिमवएकूडे णामं कूडे पणत्ते, एवं जो चेव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तविक्खंभपरिक्खेवो जाव बहुसमरमणिज्जस्त भूमिभागस्स वहुमज्झदेसभाए एत्थणं महं एगे पासायव.सए पण्णत्ते वासदि जोयणाई अद्धजोयणं च उच्चत्तेणं इकतीसं जोयणाई कोसं च त्रिकखंभेणं अभुग्गरमूसियपहलिय विव विविहमणिरयण भचिचित्ते वाउदधुयविजयवेजयंती पडागाच्छत्ताइ च्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमभिलंघलाणसिहरे जालंतररथणपंजसम्मीलियव्व मणिरयणथूभियाए वियसियसयवत्तपुंडरीयतिलयरयणद्धचंदचित्ते जाणामणिमयदामालंकिए अंतो बहिं च लण्हे वइस्तवणिज्जरुइलवालुगापत्थडे सुहफासे सस्सिरीयस्वे पासाइए जाव पडिरूवे, तस्ल णं पासायवडेंसगस्ल अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव सीहालणं सपरिवारं, से केणट्रेणं भंते । एवं वुच्चइ चुल्लहिमवंत कूडे २ ? गोयमा! चुल्लहिमवए णामं देवे महिड्डिए जाव परिवसइ, कहि णं भंते चुल्लहिमवयगिरिकुमा रस्त देवस्त चुल्लहिमवया णामं रायहाणी पण्णत्ता', गोयमा ! चुल्लहिमायकूडस्स दक्षिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अगणं जंबुद्दीवं दीवं दक्खिणेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता इत्थ णं चुल्ल हिमवयस्त गिरिकुमारस्त देवस्त चुल्लहिमवया णामं रायहाणी पण्णत्ता, वारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, एवं विजय रायहाणीसरिसा भाणियव्वा, एवं जाव अवसेसाण वि कूडाणं वत्तव्वया णेयम्बा आयामविक्खंभपरिक्खेवपासाय देवयाओ सीहासणपरिवारो अटो य देवाण य देवीणं य रायहाणीओ णेयव्वाओ, चउसु देवा चुल्लहिमवंते१ भरहर
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवस्कारः ० ७ क्षुद्र हिमवत्पर्यतोपरितनकूटस्वरूपम्
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बेसनकुडेसुर सेसेसु देवयाओ से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ चुल्ल हिसक्यासह पव्त्रए १ २, गोयमा ! महाहिमवयवासहरपव्वयं पनिहाय आयामुञ्चत्वेहविक्खंभपरिकखेवं पहुच ईसि खुडतराए चेव हस्तनराए चेः णीयतराए चैत्र, चुहिय इत्थ देवे महिड्डिए जात्र पलिओग्मविए परिवसह ने गोयसा ! एवं बुच्चइ
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हम वासव २ अनरं
गोसा ! चुल्लहिमवयस्स
सासए णामभेज्जे पण्णने, जंण कवाड़ पासी । सू० ७॥
छाया - क्षुद्रमिति सल भदन्त ! वर्षपने निकटानि प्रप्तानि ? गौतम ! एकादशकूटानि मानि नद्या- सिद्धानम् २ भरतकूटम् ३ इलादेवी - ? कूट ४५७ सिन्धुदेवीकूटम् सुरादेवीकूटम् ९ १० ११ ।
वन्दन् | क्षुद्रविवरर्वन सिद्धायतनकटं नामकूटं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! पौरस्त्यवणमुपविमेन परस्पेन अब सिद्धायतनकूटं नाम कूटं ग्रज्ञप्तम्, पञ्च योजनगतानि चत्वेन सूपञ्च योजनगतानि विष्पम्भेण मध्ये त्रीणि च पञ्च सप्तनानि योजननानि विम् उपरि अर्थतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण, मूळे एकं योजनमहस्रं पञ्च च एकाशीतानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेपाधिकानि परिक्षेपेण मध्ये एक योजनसह एच पडगीने योजननं किनिद्विगेपोन परिक्षेवेण उपरि सप्तएकनवतानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण, सले विस्तीर्ण, मध्ये संक्षिप्तम्, उपरि तनुकम्, गोपुच्छ संस्थानस्थितं सर्वात्नमयम् अच्छम्, तत् खलु एकाया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तम्, सिद्धायतनस्य कूटस्य खलु उपरि बहुसमरमणीयो भृमिभागः प्रज्ञप्तः यावत् तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागः अत्र खन्द मन्देकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तं पञ्चाशतं योजनानि विष्कम्भेण पदत्रिशतं योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन यावत् जिनप्रतिमा वर्णको भणितव्यः ।
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क्व वन्दु भदन्त । क्षुद्रहिमवति वर्षपरपर्वते क्षुद्रहिमत्र कूटं नामकूटं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! भरतकूटस्य पौरस्त्येन सिद्धायतनकूटस्य पश्चिमेन, अत्र खलु क्षुद्र हिमवति वर्षघरपर्वते क्षुद्रहिमवत्कूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम्, एवं य एव सिद्धायतनकूटस्य उच्चन्वविष्कम्भ परिक्षेपो यावत् बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य चतुमध्यदेशभागः, अत्र खलु महान् एकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, द्वापष्टि योजनानि अर्द्ध योजनं च उच्चत्वेन, एकत्रिंशतं योजनानि क्रोश च विष्कम्भेण अभ्युतोच्छ्रित प्रसित इव विविधमणिरत्नभक्तिचित्र : वातोद्भुत विजयवैजयन्तीपताकाच्छ्त्रातिच्छत्रकलितः तुङ्गः गगनतलमभिलङ्घयच्छिखरः जालान्तररत्नपञ्जरोन्मीलित
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जम्बूहीपप्रज्ञप्तिसूत्र इत्र मणिरत्नस्तूपिकाकः विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्र: नानामणिमयदामा. लङ्कृतः अन्तर्वहिश्च श्लक्ष्णवज्रतपनीयरुचिरवालुका प्रस्तुतः मुखस्पर्शः सश्रीकरूपः प्रासादीया यावत् प्रतिरूपः, तस्य खलु प्रासादावतंसकस्य अन्तः बहुममरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः यावत् सिंहासनं सपरिवारम् , अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यने-क्षुद्रहिमवत्कृटं २ ? गौतम ! क्षुद्रहिमवान् नामदेव महद्धिक यावत परिवसति, क्य खलु भदन्त ! क्षुद्रहिमवगि रिकुमारस्य देवस्य क्षुद्रहिमवती नाम राजधानी प्रजप्ता ?, गौतम ! क्षुद्रहिमवत्कूटस्य दक्षिणेन तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिबज्य अन्य जम्बूद्वीप द्वीपं दक्षिणेन द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य अत्र खलु क्षुद्रहिमवतो गिरिकुमारस्य देवस्य क्षुद्रहिमवती नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, द्वादशयोजनसहस्राणि यामविष्कम्मेण एवं विजयराजधानी सदृशी भणितव्या, एवमवशेपाणामपि कूटानां वक्तव्यवा नेतव्या, आयामविष्कम्भ-परिक्षेप प्रासाद. देवताः सिंहासनपरिवारः अर्थश्च देवानां च राजधान्यो नेतव्याः, चतुर्पु देवाः क्षुद्रहिमवद् ? भरत २ हैमवत ३ वैश्रवणकूटेपु४ शेपेषु देवताः, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवगुच्यते क्षुद्रहिम वान् वर्षधरपर्वतः १२, गौतम ! महाहिमवद्वर्पधरपर्वतं प्रणिधाय आयामोच्चत्वोद्वेधविष्कम्भपरिक्षेपं प्रतीत्य ईपत्क्षुद्रतरक एव हस्वतरक एव नीचतरक एव क्षुद्रहिमांश्चात्र देवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिका परिवसति, स एतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यने क्षुद्रहिमवान् वर्षधरपर्वतः २ अदुत्तरम् अथ च खल्ल गौतम ! क्षुद्रहिमवतः शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् यद् न कदा. चिद् नाऽऽसीत् ॥ सू० ७॥
टीका-'चुल्लहिमवंते णं' इत्यादि । 'चुलहिमवंते णं भंते ! वासहरपबए कइ कूडा पण्णत्ता' क्षुद्रहिययति खलु भदन्त । वर्षधरपर्वते कतिकूटानि प्रज्ञप्तानि इति गौतमस्य प्रश्नः, • 'चुल्लहिमवंते णं भंते ! वासहरपवए कइ कूडा पण्णत्ता' ||
टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार हिमवंत पर्वत पर कितने कूट हैं ? इस बात को प्रकट कर रहे हैं-(चुल्लहिमवते णं भंते ! वासहरपव्वए कइ कूडा प.) इसमें गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! क्षुद्रहिमवत् वर्षधर पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुने कहा है-(गोयमा! इकारस कूडा प.) हे गौतम ! ११ फूट कहे गये हैं (तं जहा सिद्धाययणकूडे १, क्षुल्लहिमवतकूड
'चुल्लहिमवंते णं भंते ! वासहरपव्यए कइकूडा पण्णत्ता-इत्यादि
ટીકાઈ- એ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકાર હિમવંત પર્વત ઉપર કડલા કૂટે આવેલા છે, એ वात २५८ ४रे छे-'चुल्लहिमवंतेणं भंते ! वासहरपचए कह कूडा प. सभागातभ સ્વામીએ પ્રભુને એવી રીતે પ્રશ્ન કર્યો છે-કે હે ભદંત ક્ષદ્ર હિમવત વર્ષધર પર્વત ઉપર ४ा ठूटो उपामा मासा छ ? उत्तरमा प्रा डे ठे-'गोयमा ! इक्कारसकूडा प.' के गौतम । ११ । ४ामा मावस छे. 'तं जहा सिद्धाययणकृडे १, क्षुल्लहिमवत
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प्रकाशिका टीका-चतुर्यवक्षस्कारः सू०७ शुद्राहिमवत्पर्वतोपरिननकूटस्वरूपम् ६७ भगवानाह-गोयमा !' हे गौतम ! 'इकारसबूडा पण्णत्ता' एकादशकूटानि प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा-'सिद्धाययणकृढे १' सिद्धायतनकुटम् १ 'चुल्लहिमवंतकूढे २' क्षुद्रहिमवत्कूटम्--इदं च क्षुद्रहिमवगिरिकुमारदेवस्यास्मिन्नेव सूत्रेऽग्ने वक्ष्यमाणस्य कूटस् २, 'भरहकूडे ३' भरतकूटम्-भरताख्य देवस्य ऋटम् ३, 'इलादेवीको ४' इलादेवीपट्पञ्चाशदिक्कुमारी देवी वर्ग: मध्यवर्तिनी विशिष्वादेवी तस्याः कूटम् ४, 'गंगादेवीकूटे ५' गङ्गादेवीकूटं-गङ्गादेव्याः अनन्तरसूमोक्तायाः कटम् ५, 'मिरिकुडे ६ श्रीकृटम्-श्रीदेव्याः कूटम् ६, 'रोहियंसाढे ७' रोहिनांसाकुटम्-रोहितांसादेव्याः कूटम् ७ सिंधुदेवीबडे ८' सिन्धुदेवीकूटम्-सिन्धुदेव्याः २, भरहकूडे ३, लादेवीकडे ४. गंगादेवीकृडे ५, सिरिकूडे ६, रोहिअंसकडे, ७, सिन्धुदेवीकूडे ८, सुरदेवीकुटे , हेमवयकूडे १०, वेसमणकूडे ११, उनके नाम इस प्रकार से है-१ लिहायकमन्ट, क्षुद्रहिमवंतकूट २, भरतकूट ३. इलादेवीकट ४, गंगादेवीकर ५, श्रीकूट ६, रोहितांशाकूट ७, सिन्धु देवी कृट ८ मर देवी कट , हमवतन १०, और वैश्रवणकूट ११, आगे जिसके सम्बन्ध में इसी रहन में-कहा जाने वाला है-ऐसे क्षुद्रहिमवद्भिरि कुमारदेव का जो कुट है वह क्षुद्राहिमवागिरि कुट है भरत नाम के देव का जो कूट है यह भरतकूट है छप्पन दिकुमारिकाओं के मध्य में इलादेवी एक विशिष्ट देवी है इस देवी का जो कूट है बह इलादेवी कट है अनन्तर मृत्रोक्त गंगादेवी का जो कट है वह गंगादेवी बूट है श्रीदेवी का जो कूट है वह श्रीदेवी कट है रोहितांगादेवी का जो कूट है वह रोहितांशा कूट है मिन्धुदेवी का जो कृट है वह सिन्धु देवो कृट है सुरादेवी का जो कट है वह सुरादेवो कूट है इलादेवी की तरह सुरादेवी भी-एक विशिष्टदेवी है हैम. वतवर्ष के अधिपति देवका जो कूट है वह हैमवतकूट है चैश्रवण-कुवेर-का जो कूडे २, भरहकडे ३, इलादेवी कुट ४, गंगादेवी कूडे ५, सिरी कूडे ६, रोहिअंस फूडे ७, सिन्धु देवी कडे ४, मुरदेवी फूड १, हेमवय फूई १०, वेसमण कडे ११ तमना नामा આ પ્રમાણે છે-૧ સિદ્ધયતન કૂટ, ૨ શ્રુહિમવત્ કૂટ, ૩ ભરત ફટ, ૪ લાદેવી ફૂટ ૫ ગંગા-દેવીટ, ૬ શ્રી કૃટ, ૭ હિતાંશા કૂટ, ૮ સિન્ધદેવી કૂટ, ૯ સૂરદની ફૂટ-૧૦ હેમવંત કુટ, અને ૧૧ વૈશ્રમણ કૃટ આગળ જેના વિશે આ સૂત્રમાં જ કહેવામાં આવશે એવા શુદ્ધ હિમવ ગિરિમાર દેવને જે ફૂટ છે તે મુહિમવગિરિ ફૂટ છે. ભરત નામક દેવનો જે છૂટ છે તે ભરતકૂટ છે. ૫૬ દિકુમારિકાઓના મધ્યમાં ઈલાદેવી એક વિશિષ્ટ દેવી છે. એ દેવીને જે ફૂટ છે તે ઇલાદેવી ફૂટ છે. અનંતર સૂક્ત ગંગા દેવીને જે ફૂટ છે તે ગંગા દેવી ફૂટ છે. શ્રી દેવીને જે ફૂટ છે તે શ્રી દેવી ફૂટ છે. હિતાંશ દેવીને જે ફૂટ છે તે હિતાશા ફૂટ છે. સિધુ દેવીને જે કુટ છે તે સિન્ધદેવી ફૂટ છે. સુરાદેવીને જે ફૂટ છે તે સુરા દેવી ફૂટ છે. ઈલા દેવીની જેમ
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्रे कूटम् ८, 'सुरदेवीकूडे ९' मुरादेवीकूटम्-मुरादेव्यपि इलादेवीवत् तस्याः कूटम् ९ 'हेमवयकूडे १० हैमवतकूटम्-हैमवतवर्षाधिपतिदेवकूटम् १०, 'वेसमणकूडे ११' वैश्रवणकूट-वैश्रवणः कुवेरो लोकपालविशेषः तस्य कूटर ११,
अथ तेपामेव कूटानां स्थानादि स्वरूपं प्रश्नोत्तराभ्यां प्रदर्शयितुमाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि, 'कहि णं भंते ! चुल्ल हिमवते वासहरपच्यए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ?' हे भदन्त ! कुत्र खल क्षुद्रहिमवती वर्षधरपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ? इति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'पुरस्थिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं चुल्लहिमवंतकूडस्स पुरत्थियेणं एत्थ णं सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन क्षुद्रहिमवत्कूटस्य पौररत्येन अत्र खल सिद्धायतनकूटं नामकूटं प्रज्ञप्तम् , तत्र-सिद्धा यतनकूटस्य प्रथमतया मानाद्याह-'पंचजोयणसयाई' इत्यादि पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चतेणं' नवरम्-पश्च योजनशतानि पञ्चशतयोजनानि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन, मूले (मूलदेशावच्छेदेन) सिद्धायतनकूटं यावदस्ति तावदाह-मूले पञ्चत्यादि-'मूले पंच जोयणसयाई विक्खकूट है वह वैश्रवणकूट है (कहि णं भंते ! चुल्लाहमवते वासहरपब्वए सिद्धाययकूडे णामं कूडे प.) भदन्त ! क्षुद्रहिमवत् वर्षधर पर्वत पर सिद्धायतन नामका कूट कहाँ पर कहा गया है १ इसके उत्तर में प्रभु कहते है (गोयना ! पुरथिमलवणवमुदस्स पच्चत्थिश्रेणं चुल्लहिमवंत कूडस्स पुरथिमेणं एत्थ णं सिद्धाय यणकूडे णामंकूडे पण्णत्ते) हे गौतम ! पूर्वदिग्वती लवण समुद्र की पश्चिमदिशा में एवं क्षुद्रहिमवतू कूट की पूर्वदिशा में सिद्धायतन कूट नामका कूट कहा गया है (पंच जोयणसयाई उर्दू उच्चत्तेणं मूले पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं मज्झे तिषिणय पण्णत्तरे जोयणलए विखंभेणं उपि अद्धाहज्जे जोयणसए विक्खंभेणं, मूले एग जोयणसहस्सं पंचय एगासीए जोयणसए किंचिविसे साहिए परिक्खेवेणं मज्झे एगं जोयणसहस्सं एगंच छलसीयं जोयणसयं किंचिंविसेसूर्ण સુરદેવી પણ એક વિશિષ્ટ દેવી છે. હૈમવત વર્ષના અધિપતિ દેવને જે ફૂટ છે તે હૈમतट छ. वैश्रवण-उमेरना टूट छ त वैश्रवा दूट छ. 'कहि णं भंते ! चुल्लहिमवंते वासहरपब्बए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते में महत! क्षुद्रभिवत् वर्ष ५२ प ९५२ सिद्धायतन नाभे रेट छ ते ४यां माता मेन म प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! पुरत्थिमलवणसमुदस्स पच्चत्यिमेणं चुल्ल हिमवंतकूडस्स पुरथिमेणं एत्थ णं सिद्धाययण कूड़े णामं कूडे पण्णते' गौतम ! पू' हिवती समुद्रनी पश्चिम दिशामा तेमाल क्षुद्र लिभपतनी पूर्वहशमां सिद्धायतनट नाम इट मावसाछे-'पंचजोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं मूले पंचजोयणसयाई विक्रयंभेण मझे, तिण्णिय पण्णत्तरे जोयणसए विक्खभेण, उप्पि अद्धाइज्जे जोयणसए विक्खंभेणं, मूले एगं जोयणसहस्सं पंचय एगासीए जोयणसए
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्रहिमवत्पर्वतोपरितनकटस्वरूपम् भेणं' मृले-मृलदेशावच्छेदेन पञ्च-पञ्चसंख्यानि योजनशतानि योजनानां शतानि विष्कम्भेण विस्तारेण प्रजप्तमिति पूर्वेणान्वयः, 'माझे तिण्णि य पण्णत्तरे जोयणसर विखंभेणं' एवमग्रेऽपि मध्ये मध्यदेशावच्छेदेन त्रीणि-त्रिसंख्यानि च पञ्चसप्ततानि पञ्चसप्तत्यधिकानि योजनशतानि विष्कम्भेण, 'उप्पिश्रद्धाइज्जे जोयणसए विक्खंभेणं' उपरि-उपरितनदेशावच्छेदेन अर्थतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण, इत्येवं मूल म' यान्तेषु तस्य विस्तारप्रमाणमुक्त्वा परिक्षेपप्रमाणमाह-'मूले एकम्' इत्यादि, 'मूले एगं जोयण सहस्सं पंच एगासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं' मूले एक योजनसहमं पञ्च एकाशीतानि-एकाशीत्यधिकानि योजनशतानि किश्चिद्विगेपाधिकानि किश्चिद धितानि च परिक्षेपेण, 'मझे एगं जोयणसइन एगं च छलसीयं जोयणसय किंचिबिसेसूणे परिक्खेवणं' मध्ये एक योजनसहस्रम् एकं च पडशीत्यधिक योजनगतं किञ्चिहिशेपोनं किश्चिन्यून परिक्षेपेण, 'उप्पि सत्त इक्काणउए जोयणमए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं' उपरि सप्त-सप्तसंख्यानि एकनवपरिक्खेवेणं उप्पि सत्सइकाणउए जोयणसए किंचिबिसेमणे परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णे, मज्झे संग्वित्ते उप्पि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे) यह सिद्धायनन पृट ५०० योजन ऊंचा है मृल में ५०० योजन का मध्य में ३७० योजन का इसका विस्तार है, पर में २५० योजन का विस्तार है, इस प्रकार से इसका मूल, मध्य और अन्त का प्रयाण कहा गया है अब इसके परिक्षेप का प्रमाण इस प्रकार से है-मृल में इसका परिक्षेप १५८१ योजन से कुछ अधिक है मध्य में इसका परिक्षेप ११८६ योजन से कुछ कम है ऊपर में इसका परिक्षेप ७९१ योजन से कुछ कम है ११८६ योजन से कुछ कम है ऐसा जो कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि ११ सो योजन तो पूरे समझना चाहिये तथा-८६ योजनों में से ८५ योजन पूरे समझना चाहिये वाकी जो एक किं चिविसंसाहिए परिक्वत्रणमझे एगं जोयणसहस्म एग च छलसीयं जोयणसय किंचि विसेसूणे परिकवण उपि सत्त एक्काणउए जोयणसए किंचि विनेमूणे परिक्खेत्रेण मूले विच्छिण्णे मझ मंग्वित्त अपि तणुए गोपुच्छ संठाणसंठिए सबरयणमए अच्छे' मे સિદ્ધાયતન ફૂટ ૫૦૦ એજન જેટલે ઊંચે છે. મૂલમાં પ૦૦ જન જેટલે અને મધ્યમાં ૩૭૫ જન એટલે એને વિસ્તાર છે. ઉપરમાં ૨૫૦ જન એટલે વિસ્તાર છે. આ પ્રમાણે આ ફૂટનું મૂલ, મધ્ય અને અંત સંબંધી પ્રમાણુ કહેવામાં આવેલ છે. હવે આના પરિક્ષેમનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે છે. મૂળમાં આને અરિક્ષેપ ૧૫૮૧ જન કરતાં કંઈક વધારે છે. મધ્યમાં આનો પરિક્ષેપ ૧૧૮૬ જન કરતાં કંઈક કમ છે. ઉપરમાં આને પરિક્ષેપ ૭૯૧ જન કરતાં કંઈક અલ્પ છે. ૧૧૮૬ જન કરતાં કંઈક અલ્પ છે. આમ જે કહેવામાં આવેલ છે તેનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે. કે ૧૧ સે જન તે પૂરા સમજવા જેઈએ.
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بینا
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र नानि-एकनवन्यधिकानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेपोनानि किञ्चिदनानि परिक्षेपेण, अयंभावः-एक सहनं पूर्ण गतं च पूर्ण पञ्चाशीति योजनानि च पूर्णानि शेपं च क्रोशत्रयं धनुपामटानानि त्रयोविंशत्यधिकानि इति किञ्चित्पडशीतितमं विवक्षितमिति, तथा उपरि सप्त योजनशनानि एक नवत्यधिकानि किञ्चिन्यूनानि परिक्षेपेण अयं भावः-सप्त शतानि नयति र्योजनानि पूर्णानि, शेप क्रोगद्वपं धनुपां सप्तशतानि पञ्चविंशत्यधिकानीति किश्चिद्वि
पोनम् एकनवतितम योजनं विवक्षितम् , परिक्षेपेणेति सर्वत्र बोध्यम्, 'मूळे विच्छिण्णे मनीखने-उप्पि तणुए गोपुच्छ संठाणसंठिए' मूले विस्तीर्ण विस्तारयुक्तम् , मध्ये संक्षिप्त मृदय-कविस्तारापेक्षया अल्पविस्तारयुक्तम् उपरि शिखरे तनुकम् हस्वम् मूलमध्यापेक्षया ल्पदरविस्तरवृक्तम् , तथा गोपुच्छसंस्थानसंस्थितम् ऊर्चीकृत गोपुच्छाकार संस्थितम्' 'मम्वरयणामए अच्छे सर्वरत्नमयम् अच्छं प्राग्वद् । योजन वचा है उसमें से ३ कोश ८२३ धनुप ही लेना चाहिये इस तरह यहां १९८६ योजन पूरे क कह कर इस प्रकार से कुछ कम कहे गये हैं ऐसा जानना चाहिय तथा ७९१ योजन को जो कुछ कम कहा गया है उसका भाव ऐसा है कि ७१० योजन तो पूरे लेलेना चाहिये चाकी १ योजन में से २ कोश और ७२५ धनुप लेना चाहिये इस तरह करके ७९.१ योजन ऊछ कम कहें गये हैं ऐसा जानना चाहिये हम तरह यह सिद्धायतन कूट सृल में विस्तीर्ण मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में ननुक पतला हो गया है इसलिये इसका आकार उर्वीकृत गोयुट के आकार जमा बन जाता है यह सिद्धायतन कूट सर्वात्मना रत्न. मय है और अच्छ आकास एवं स्फटिकमणि के जमा निर्मल है (से णं एगाए पउमवरवेदयाप एगेण यवणणं सचओ समंता संपरिविग्वित्त सिद्धाययणनिकटस्म गं उपि वहममरमणिज्जे भूमिभागे पपणत्ते) यह सिद्धायतनकूट
મજ ૮ થી ૮ ને પૂરા સમજવા જોઈએ. શેપ જે એક જન વધે છે, તેમાંથી ૩ મઉ ૨૩ ધનુષ જ લેવા જોઈએ. આ પ્રમાણે અહીં ૧૧૮૬ જાને પર :- પ્રમાણે કંઈ મ કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ ૭૯૧ જનમાંથી કઈક
૫ - ૨ વવ છે, તેને ભાવ આ પ્રમાદ છે કે ૭૯૯ ને તે પૂરા લેવા છે. આ એક એજનમાંથી ૨ ગાઉ અને ૨૫ ધનુષ લેવા જોઈએ. આ પ્રમાણે
नाम ३. माम न. आम मा . જનન ર મા તિ, ધમાં શિપ અને ઉપરમાં તનુદ એટલે કે પાતળે થઈ
ra, मी ना आना माहारा तय દિનન ના નમય છે, અને અચ્છ-આકશ અને ટિક મદિવનિર્મળ in cm या पतंग मंदा सबओ ममता परिक्षित निदाग wrirgon यम्म मा भूमिमागे पन Catuna पम५२
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवनस्कारः सू० ७ शुद्राहिमवत्पर्वतोपरिननकटस्वरूपम् __ अथात्र पदयरवेदिका वनखण्डाघाह-'से गं' इत्यादि, 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सबओ समंता संपरिक्खित्ते' तत् खलु सिद्धायतनटक्टम् खलु एकया पदमवरवेदिकया एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्त-वेष्टितम् , अत्र यदस्ति तत्सूचयितमपक्रमते-'सिद्धाययणस्स कूडसे' त्यादि, 'सिद्धाययणस्स डस्स णं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पप्णत्ते, जाव तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भृमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए पत्य णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते, पण्णासं जोयणाई आयामेणं, पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं, छत्तीसं जोयणाइ उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमा वण्णो भाणियबो' सिद्धायतनम्य टम्य खल उपरि वहसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, यावत् तस्य खलु बहुसमरमणीयम्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागः. अत्र खलु महदेकं सिद्धायतनं प्रजप्तम् , पञ्चाशतं योजनानि विष्कम्भेण, पत्रिंशतं योजनानि अर्ध्वमुच्चत्वेन यावन् जिनप्रतिमा वर्णको भणि
-- . ------- एक पद्मवग्वेदिका से एवं एक वनपण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है इस सिद्वायतन टूट का ऊपर का भाग बहुममरमणीय कहा गया है (जाव तस्सणं पहुसमरमणिजस्म भूमिभागस्स बहुमज्म देसभाए-एत्थणं एगे महं सिद्धाययणे पण्णत्ते) यावतु इम सिद्धायतन के बहसमरमणीय भूमिभाग के ठीक बीच एक महान सिद्धायतन कहा गया है (पण्णास जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विक्वंभण छत्तीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाय जिणपडिमा वण्णओ भाणिययो) यह सिद्वायतन आयाम की अपेक्षा ५० योजना का, विष्कम्भ की अपेक्षा २५ योजन का और ऊंचाई की अपेक्षा ३६ योजन का कहा गया है 'जाव ण बहुसमरमणिज्जस्स' में पटित इस यावत् शब्द से-वैतादयगिरिगत सिद्धायतनकट के वर्णन जसा इसका भी वर्णन है ऐसा प्रकट किया गया है तथा 'उच्चत्तेणं जाव' यहां जो यावत् शब्द प्रयुक्त हुआ है વેદિકાથી તેમજ એક વનખંડથી ચોમેર આવૃત છે એ સિદ્ધાયતન ફૂટના ઉપને ભાગ
सभ२भाय डामा माद थे. 'जाव तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहु. मझदेसभाए एयण एगे महं सिद्धाययणे पण्णत्ते' यावत् से सिद्धायतनना मर्डसम २भएकीय भूमिलाना ही४ मध्यमा ४ वि सिध्यायतन छे. 'पण्णासं जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विखंभेणं छत्तीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमा वण्णओ भाणियचो' से सिद्वायतन मायामनी अपेक्षाये ५० योरन वि०४ मनी અપેક્ષાએ ૨૫ પેજન જેટલે, અને ઊંચાઈની અપેક્ષાએ ૩૬ જન કહેવામાં આવેલ छे. 'जाव णं वहुसमरमणिज्जस्स' मा पठित . यावत् ७४थी वैताय निशित सिद्धाયતન કટના વર્ણન જેવું એનું પણ વર્ણન છે. આમ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. તેમજ जाव णं बहुसमरमणिज्जरस' भां पति से यावत् ७६या वैतादयगिरिशत सिद्वायतन
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- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तव्यः । नवरं प्रथम यावत्पदेन-वैतादयगिरिगतसिद्धायतनकूटस्येवास्यापि वर्णको बोध्या, उच्चत्वेन यावत्-इत्यत्रत्येन द्वितीयेन यावत्पदेन-तद्गतसिद्धायतनादि वर्णको बोध्यः । ___ अथास्मिन्नेव वर्षधरपर्वते क्षुद्रहिमवगिरिकूटवक्तव्यतामाह-'कहि णं' इत्याडि, 'कहिणं भंते ! चुल्लहिमवते वासहरपत्रए चुल्ल हिमवंतकूडे णाम कूडे पण्णत्ते' हे भदन्त ! क्षुद्रहिम चतिवर्षधरपर्वते क्षुद्रहिमवत्कूटं नाम कूट क्व खल्ल प्रज्ञप्तम् ? तस्योत्तरमाह-'गोयमे त्यादि 'गोयमा !' हे गौतम ! 'भरतकूडस्प्स पुरस्थिमेणं सिद्धाययणकूडस्स पंच्चस्थिमेणं, एत्य गं चुल्लहिमवंते वासहरपब्बए चुल्ल हिमवंत कूडे णामं कूडे पण्णसे' भरतकूटस्य पौरस्त्येन सिद्धा. यतनकूटस्य पश्चिमेन, अत्र खलु क्षुद्रहिमवति वर्षधरपर्वने क्षुद्रहिमवत्कूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् , 'एवं जो चेवे त्यादि, एवं जो चेव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तविक्खंभपरिक्खेवो' एवम् उक्त प्रकारेण य एव सिद्धायत नकूटस्य उच्चत्वविष्कम्भपरिक्षेपः-उच्चत्व-विष्कम्भ युक्त परिक्षेप इत्यर्थः, अत्र मध्यमपदलोपी समासो बोध्या, स एवास्यापि बोध्यः, इदं च वचनमुपलक्षणम्, तेन पदूमवरवेदिका वनपण्डादिवर्णन बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णनं च बोध्यम् कि उससे वहां के लिद्धायतन आदिका वर्णक पाठ यहां कहलेना चाहिए ऐसा कहा गया है । (कहिणं भंते ! क्षुल्लहिमवते वासहरपब्धए क्षुल्लहिमवंतकूडे णामंकूडे पण्णत्ते) इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि क्षुद्रहिमवत्पर्वतपर क्षुद्रहिमवत् कूट नामका कूट कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ! भरहस्स पुरथिमेणं सिद्धाययणस्सकडस्स पच्चत्थिमेगं एत्थगं क्षुल्लहिमवंते वासहरपन्धए क्षुल्लाहिमवंतकूडे णामं कूडे पण्णत्ते) हे गौतम ! भरत कुट के पूर्व में एवं सिद्धायतनकूट के पश्चिम में क्षुद्रहिमवंत पर्चत् पर क्षुद्रहिमवत् कुट नामका कर कहा गया है, (एवं जो चेव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तविक्खंभ परिक्खेवो जाव बहुसमरमणिजस्स दूटना वन मेनु ५ वर्णन छे. याम ४८ ४२वामा मावस छ. तेभान 'उच्चतेण जाव' मी २ यावत् A प्रयुक्त थयेट छ, तनाथी त्यांना सिद्धायतन करने। १४ पा8 मही सभोवन. 'कहि णं भंते ! क्षुल्लहिमवंते वासहरपव्वए क्षुल्लहिमवंतकूडे णामं कृडे पण्णत' मे सूत्र गौतम प्रभुने मा प्रभारी प्रश्न या છે કે હે પ્રભુ! હિમવત્ પર્વત ઉપર ક્ષુદ્ર હિમવત કૂટ નામક ફૂટ કયા સ્થળે આવેલ छ १ सेना rawti प्रभु ४९ छ. 'गोरमा ! भरहकूडस्स पुरथिमेणं सिद्धाययणस्स कूडरस पच्चत्यिमेणं पत्थणं क्षुल्लहिमवते वासहरपव्वए क्षुल्लहिमवंतकूडे णामं कूडे पण्णन्ते' हे गोतम! ભરત ફૂટના પૂર્વમાં અને સિદ્ધાયતન ફૂટના પશ્ચિમમાં ક્ષુદ્ર હિમવત પર્વત ઉપર મુક (भवत् छूट नाम दूट मावेस छ ‘एवं जो चेव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तविक्खंभपरिवखेवो जाव बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्थणं महं एगे पोसायं वड़े।
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू०७ क्षुद्रहिमवन्पर्वतोपरितनकूटस्वरूपम् ७३ पर्यन्तं बोध्यम् इत्याह-'नाव' इत्यादि, यायन्-यावत्पदेन-"तस्य खलु क्षुद्रहिमवत्क्टस्य खलु उपरि बहुसमरमणीरो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, नस्य खलु" इति संग्राह्यम् 'तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागरस बहुगझ देनभाए पत्थ णं महं एगे पाराायबढेसए पण्णत्ते वासहि जोयणाई अद्ध जोयणं च उच्चनेणं तीसं जोयणा कोसं च विक्खंभेणं' तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागक्ष्य बहुमध्यदेशभागः अन्न खलु महानेकः प्रासादावतंसकः प्रासादेषु गृहविशेषेषु अश्नमक डब निरोभूषण विशेष इय उत्तमप्रासाद इत्यर्थः. प्रज्ञप्तः, तस्य मानाचाह स खलु प्रासादावतंगमः द्वापष्टिं योजनानि अयोजन व उच्चत्वेन, एकत्रिंशतं योजनानि कोशं च विष्कम्भेण. अस्याऽऽयामस्तु समचतुरयत्वाम्न सूत्रकृता विचिन्तितः, तत्र भूमिभागस्स पहनदेखभाए पत्थणं सदं एगे पासायवसप पण्णत्ते) इस तरह मिद्रायतन ट की जितनी ऊंचाई दीई है जितना विकम्भ कहा गया है और जितना परिपकला नवा उनीही उंचाई उतना ही विष्कम्भ
और उतनाको परिवेर इसकटका भी जानना चाहिये यह वचन उपलक्षणरूप है इससे पावर वेदिका और बनवा आदि का वर्णन और पहुसगरमणीय भूमि भाग का वर्णन भी करलेना चाहिये हम तरह यह वर्णन वहां तक करना चाहिये कि जहां तक इन्न क्षुद्र हिमवान पर्वन के बहुसमरमणीय भूमि भाग का जो बीच का भाग है ऐसा पाठ कहा गया है इस बीच के भाग में विशाल प्रानादावतंसक कहा गया है (बासटिं जोयणाई अद्ध जोयणं च उच्चत्ते णं इकानीमं जोयणाई कोलं च विनवणं अन्झुग्गय भृत्तियपहसिए विव विविहमणिरयणत्तिचित्त) यद प्रासादावतंसक ऊंचाई में ६२॥ योजन है विष्कम्भ ३१ योजन और पका कोग का है इसका आयाम सत्रकारने यहां इसके समचतुरस्र होने से प्रकट नहीं किया है कारण कि वैतादयगिरिगत प्रासाद के अधि. सए पण्णन या प्रमाणे सिवायतन नीरक्षी या मादी छ,२ प्रभाभा વિષ્ક કહેવામાં આવેલ છે અને જે પ્રમાણમાં પરિક્ષેપ કહેવામાં આવેલ છે, તેટલી જ ઊંચાઈ, તેટલે જ વિખંભ અને પરિક્ષેપ એ કટને પણ જાણ. એ વચન ઉપલક્ષણ રૂપ છે એનાથી પાવર વેરિકા અને વનખંડ વગેરેનું વર્ણન અને બહુસમરમણીય ભૂમિભાગનું વર્ણન પણ સમજી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે એ વર્ણન ત્યાં સુધી લેવું જોઈએ કે જ્યાં સુધી એ શુદ્ર હિમવાનું પર્વતને જે બહુસમરમણીય ભૂમિભાગની વચ્ચેનો ભાગ છે, અને પાઠ અને સમજે એ મધ્યભાગમાં વિશાળ પ્રાસાદાવતંસક કહેવામાં આવેલ છે 'वासहि जोयणाई अद्ध जोयणं च उच्चत्तणं इक्कतीसजोयणाई कोसं च विक्खंभेणं अब्भुग्गय भूमिय पहसिए विव विवहमणिरयणभत्तिचित्ते में प्रासाहातसयामा १२॥ यौन છે. આને વિખંભ ૩૧ જન અને એક ગાઉ જેટલો છે. એ સમચતુસ છે એથી સૂત્ર
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे कारणं वैतादयगिरिगतप्रासादाधिकारे निरूपितमिति जिज्ञामुभिस्ततो ज्ञेयम् , स प्रासादावतंसकः कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह-'यभुग्गयधूसिय पहसिय विव विविहमणिरयणभत्तिचित्ते' अभ्युद्गतोच्छ्रित प्रहसित:-अभ्युद्गतः आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गतः उच्छ्रितः-उच्च:गगनचुम्बी अतिधवल प्रभासाहेन प्रहसिन इव, यहा-"अमुन्गय भूसिय पहसिय विव" इत्यस्य "अभ्युद्गतोत्सत प्रभासित इव" इति च्छाया, तत्पक्षे तु अभ्युद्गता-अभि-आभिमुख्येन गता-सर्वतो विनिर्गता उस्मृता-उत्-प्रावल्येन मृता सर्वदिक्षु प्रसूता यहा आकाशे 'प्रबलतया सर्वस्तिर्यक् प्रपृता च या प्रभा द्युतिः, त्या सित इव बद्ध इव तिष्ठनीति प्रतीयते, अन्यथा कथङ्कारं सोऽत्युच्चै निराधारः स्थातुं शक्नुयादिति भावः प्रमा रज्जु बद्धम्त स्थातुं शक्नोतीति पर्यवसितम् , मृले प्राकृतत्वान्मकारागमः, तथा विविधमणिरत्नभक्तिचित्र:विविधानि नानाप्रकाराणि यानि मणिरत्नानि मणयो रत्नानि च तेषां भक्तिभिः विच्छित्तिभिः चित्रः अद्भुतः नानाव? वा, 'वाउद्घय विजयवेजयंति पडागच्छत्ताइच्छत्तकलिए' तथा वातोदधुत विजयवैजयन्ती पताकाच्छनातिच्छेनकलितः-बातोदधुता:-वायुकम्पिता: याः विजयवैजयन्त्या-विजयसूचिकाः वैजयन्त्यः-पताकाः, पताकाः सामान्यपताकाश्च तथा छत्रातिछत्राणि उपर्युपरिस्थितानि च्छत्राणि च तैः कलित:-युक्तः, तथा 'तुंगे' तुङ्गः-उच्चा, कार में यह कहा जाचुका है अतः वहां से इसे जानलेना चाहिये यह प्रासादावतंसकअभ्युद्गतोच्छ्रित है और हसता जैसा प्रतीत होता है अर्थात् गगन 'तल चुम्बित है और अपनी प्रभा से चमकता अथवा यह ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यह समस्त दिशाओं में फैली हुई अपनी प्रभा से जकडा सा है नही तो फिर इतना ऊंचा होने पर वह कैसे निराधार रह सकता मूल में प्राकृत होने से मकार का आगम हुआ है तथा यह प्रासादावतंसक अनेक प्रकार के मणियों एवं रत्नों द्वारा की गई रचना से अद्भुत या लानावों से युक्त सा प्रतीत होता है (चाउदधुय विजय वेजयंतीपडागच्छत्ता इच्छत्त कलिए तुगे गगणतलमणुलि. કારે આ પ્રાસાદા તંસકના આયામ વિષે સ્પષ્ટતા કરી નથી. કેમકે તાઢય ગિરિગત પ્રાસાદના અધિકારમાં એ કહેવામાં આવેલ છે. એથી ત્યાંથી જ આ વિષે જાણી લેવું જોઈએ. એ પ્રાસાદાવતંસક અભ્યગતેચ્છિત છે અને હાસ્ય કરતા હોય તેમ લાગે છે. . અર્થાત એ પ્રાસાદાવતંસક ગગન તલચુંબિત છે અને પિતાની પ્રભાથી ચમકી રહ્યા છે અથવા એ પ્રાસાદાવનંસક એ પ્રતિભાસિત થઈ રહ્યો છે કે જાણે એ સમસ્ત દિશાઓમાં પ્રસરેલી પિતાની પ્રભાથી આબદ્ધ થયેલ ન હોય. નહીતર એ આટલે બધા ઊંચા હોવા છતાંએ તે નિરાધાર કેવી રીતે રહી શકત? મૂળમાં પ્રાકૃત હવા બદલ મકારાગમ થયેલ છે. તેમજ એ પ્રાસાદાવતંસક અનેકવિધ મણિઓ તેમજ રત્ન દ્વારા વિરચિત स्यनाथी सहभुत मया नानाविध पथा युक्त डाय मेम सागे छे. 'वाउद्घय विजयवेजयंती पडागच्छत्ताहच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जालंतररयण पंज
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्रहिमवत्पर्वतोपरितनकूटस्वरूपम् ७५ 'गगनतलमभिलंघमाणसिहरे अत एव गगनतलम्-आकाशतलम् अभिलघ्यच्छिखर:-अति क्राम्यग्रभागः, 'जालंतररयणपंजसम्मीलियब्ध' जालान्तररत्नपञ्जरोन्मीलित इच-जालानि जालकानि प्रासादभित्तिस्थितानि, नेपामन्तरेषु मध्ये शोधार्थ जटितानि रत्नानि यस्मिन् स तथोक्तः रत्नजटितगवाक्षमध्यभागयुक्त इत्यर्थः, नया पञ्जरोन्मीलितश्च पञ्जरात् वंशादि निर्मिताच्छादनविशेपात उन्मीलि-तत्कालनिमारितः इन यथा गोभमानः, अयं भाव:यथा वंशादि निर्मिनात् पञ्जराद् निःसारित रत्नादिकम विनष्टकान्तिवादत्यन्तं शोभते, एवं सोऽपि प्रामादावतंसकः गोभन दति, यद्वा-जालान्तरगतैर-न परैः रत्नसमुदायैः उन्मीलित इव उन्मिपित नेत्र इवेन्यर्थः, तया-'मणिरयण भियाए'.मणिरत्न स्तृपिकाकः-मणिरत्नानां सृपिकाः लघुशिखराणि यस्य स तथोक्का-मणिरत्नमयलघुगिखरयुक्त इत्यर्थः, तथा-'वियसिय सयवत्तपुंडरीयतिलयरयणचंद चिने' विकसिनशनपत्रपुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्र चित्र हंत सिहरे जालंतररयणपंजसम्मीलिपञ्चमणिरयणथूभिआए, वियसिय सय वत्तपुंडरीयनिलयरयणचंदचित्त, णाणामणिमयदामालंकिए अंतो वहिं च सह वहरनवणिज्जमहल बालुगापत्थडे) इसके ऊपर वायु से विजय वैजयन्तियां फहरा रही है पताकाओं से और नानिकत्रों से यह कलित है बहुत ऊंचा है इसकी शिखरे आकागनल को भी स्पर्णकर रही हैं इसके मध्यभाग में जोगवाक्ष हैं वे रत्न जटिन है तथा यह प्रासादावतंसक ऐसा सुन्दर नया बनासा प्रतीत होता है कि मानो यह अभी ही बंशादिनिर्मित छादनविशेप से बाहर निकाला गया है वंहादिनिर्मित छादनविशेष से जो रत्नादिक वस्तु बाहर निकाली जाती है वह बिलकुल साफ सुथरी एवं अविनष्ट कान्निवाली प्रतीत होती है अतः इमकी मुनाना देखकर यह ऐली कल्पना की गई है इसकी जो स्तृपिकाएंलघुशिग्वरे है वे मणियों पर रत्नों से बनी हुई है तथा विकसित शतपत्रों के पुण्डरीबों के गवं भित्यादिकों में लिग्वित रत्नमयतिलकों के तथा हार आदि में मम्मीलिय मणिरमणधूमिआर, वियसिय सयवत्त पुंडरीय तिज्य रयणद्ध चंदचिते, णाणामणिमयदामालंकिए अंतो यहिं च सह वइर तयणिज्जरइलबालुगापत्थडे' मे પ્રાસાદાવાતંસક ઉપર વાયુથી આલિત થતી વિજય વિજયન્તીઓ ફરકી રહે છે. પતાકાઓથી અને છત્રાતિથી એ કલિત છે. એ અતીન ઊંચે છે. એના શિખરે આકાશને સ્પશી રહ્યા છે. એના માયભાગમાં જે ગવાક્ષે છે તે રન જટિત છે તેમજ એ પ્રાસાદવતંસક એ સુંદર નવીન બનેલા જેવો લાગે છે કે જાણે એ અત્યારે જ વંશાદિ નિર્મિત છેદન વિશેષથી બહાર કાઢવામાં આવેલ ન હોય. વંશાદિ નિર્મિત છાદન વિશેષથી જે રત્નાદિક વસ્તુઓ ( હાર કાઢવામાં આવે છે તે તદ્દન સ્વચ્છ અને અવિનષ્ટ કાંતિવાળી પ્રતીત થાય છે. એથી એની સુંદરતા જોઇને એવી કલ્પનાઓ કરવામાં આવેલ છે. એની જે રૂપિકાઓ (લઘુશિખરે) છે તે મણિઓ અને રથી નિર્મિત છે. તેમજ વિકસિત
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र विकसितानि-फुल्लानि यानि शतपत्राणि शतपत्रविशिष्टानि कमलानि पुण्डरीकाणि श्वेतकमलानि च तथा तिलकरत्नानि भित्त्यादिपु रत्नमयतिलकानि अर्धचन्द्राः-अर्धचन्द्राकृतयश्च द्वारादौ लिखिता तैश्चित्र:- अद्भुतः नानावणों वा, तथा 'णाणामणिमयदामालंकिय अंतो वहिं च' नानामणिमयदामालङ्कृतः-अनेक प्रकार क मणिमय मालाशोभितः, अन्तः-अभ्यन्तरे बहिः प्रासादावहिर्मागे च 'सण्हाइरतवणिज्जरुइलबालुगा पत्थडे' श्लक्ष्ण-बज्रतपनीय रुचिर वालुका प्रस्तुतः-लक्ष्णा:-चिकणाः वज्रतपनीयानां वज्ररत्न स्वर्णमय्यः अत एव रुचिराः शोभनाश्च याः वालुकाः सिकताः तामिः प्रस्तृतः आच्छादितः, यद्वा श्लक्ष्ण इति पृथक् लुप्तविभक्तिकं पदं श्लक्ष्णः चिक्कणः प्रासादावतंसकः तथा वज्रतपनीयानां या रुचिरा वालुकाः कणिकास्तासां प्रस्तट:-प्रतरो यस्य (प्राङ्गणेपु) स तथा 'सुहफासे' सुखस्पर्श मुखजनक स्पर्शयुक्तः 'सस्सिरीयरूवे' सश्रीकरूप:-शोभासम्पन्नाकारः, 'पासाईए' प्रासादीयः, 'जाव पडिरूवे' यावत्-यावत्पदेन दर्शनीयः अभिरूपः तथा प्रतिरूपः' एपां व्याख्या प्राग्वत् । · 'तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव सीहासणं सपरिवारं' तस्य खल्ल प्रासादावतंसकस्य अन्तः मध्ये बहुसमरमणीयः अत्यन्तसमतलः अत एव रमणीयः सुन्दरः भूमिभागः प्रज्ञप्तः, यावत् सिंहासनं सपरिवारम्-अत्र सपरिवार सिंहाउत्कीर्ण हुए अर्द्ध चन्द्राकार के जैसे चित्रों से यह वडा ही अनोखा दिखाई देता है इस पर अनेक मणियों से बनी हुई मालाएं पड़ी हुई है उनसे यह बहुत ही सुहावना प्रतीत होता है चिकनी वज्र एवं तपनीय सुवर्ण की रुचिर वालुकाओं से यह भीतर में और बाहर में आच्छादित है (सुहाफासे, सस्सिरीअरुवे, पासा. ईए, जाव पडिस्वे) यह सुखकारी स्पर्शवाला है शोभा संपन्न आकार वाला है और प्रासादीय है यावत् प्रतिरूपक है यहां यावत्पद से 'दर्शनीयः अभि. रूपः' इन पदों का ग्रहण हुआ है (लस्लणं पालायवडे सगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागेप.) उस प्रासादावतंसकका भीतरी भाग वहसमरमणीय कहा गया है (जाव सीहासणं सपरिवार) वहां पर सपरिवार सिंहासन का वर्णन શતપત્રમા–પુંડરીકેના તથા ભિત્યાદિમાં લિખિત રત્નમય તિલકોના અને કાર વગેરેમાં ઉત્કીર્ણ થયેલા અર્ધ ચંદ્રાકાર જેવા ચિત્રથી એ ખૂબજ અદ્ભુત લાગે છે. એની ઉપર અનેક મણિઓથી નિર્મિત માળાઓ લટકી રહી છે. તેમનાથી એ અતી સુંદર પ્રતીત થાય છે. વાની સુચિકણ વાલુકાઓથી અને તપનીય સુવર્ણની રુચિર વાલુકાઓથી એ मह२ मने महा२ माहित छ. 'सुहफासे, सरिस्सरीअरूवे, पासाईए, जाव पडिरूवे' એ સુખ કારી સ્પર્શવાળે છે. શોભા સમ્પન્ન આકારવાળે છે અને પ્રાસાદીય છે. યાવત प्रति ३५४ छ. मही यावत् पहथी 'दर्शनीय अभिरूप' से पहोर्नु प्रहय छ. 'तस्स णं पासायचंडसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्वे' में प्रासासिने नीती भाग मसभरमाय ४पामा माद छ, 'जाव सिहासणं सपरिवार' त्या सपरिवार
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्र हिमवत्पर्वतपरितनकूटस्वरूपम्
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सून वर्णेनं बोध्यम्, तच्च राजप्रश्नीय सूत्रस्यैकविंशतितम द्वाविंशतितमसूत्रतः संग्राह्यम्, तदव तत एव बोध्यः ।
अथास्यान्वर्थे नाम व्याख्यातुमिच्छुराह - ' से केणद्वेणं मंते ! एवं बुच्चइ चुल्ल हिमवंत - कूडे२' अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते क्षुद्रहिमवत्कुटम् २ १ अस्योत्तरमाह - 'गोयमा !' हे गौतम | 'चुल्लहिमवते - णामं देवे महिद्धीए जाव परिवस' क्षुद्र हिमवान् नामेत्यादि - हे गौतम ! अस्मिन् क्षुद्रहिमवत्कूटे क्षुद्रहिमवान् नाम देवः परिवसतीत्युत्तरेण सम्बन्धः स कीशः इत्याह-महर्द्धिकः यावत् - यावत्पदेन - 'महाद्युतिकः महाबलः महायशः महासौख्यः महानुभावः पल्योपमस्थितिकः' इत्येषां सङ्ग्रहो बोध्यः, एषां व्याख्याऽष्टमसूत्रस्थ विजयदेवाधिकाराद् बोध्या, परिवसति निवसति । तेन हेतुना एवमुच्यते क्षुद्र हिमवत्कूटं कूटम् इति ।
अथास्य राजधानी वक्तव्यतामाह - गौतमः पृच्छति 'कहि णं भंते !' इत्यादि, 'कहि णं भंते ! चुल्ल हिमवंत गिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवंता णामं रायहाणी पण्णत्ता ? कुत्र खल करलेना चाहिये यह वर्णन राज प्रश्नीय सूत्रके २१ वें और २२ वे सूत्र से जानलेना चाहिये तथा वहीं से उन सूत्रों के पदों की व्याख्या भी समझ लेनी चाहिये (से केrट्ठे णं भंते ! एवं वुच्चइ चुल्लहिमवंत कूडे २) हे भदन्त ! आपने ऐसा 'चुल्लहिमवन्त' 'चुल्लहिमवंनकूड नाम किस कारण से कहा है ९ (गोमा ! क्षुल्लहिमवंते णामं देवे महिद्धिए जाव परिवसइ) हे गौतम ! इस कूट पर क्षुद्र हिमवन्त नामका देवकुमार रहता है यह महर्द्धिक आदि विशेषणों वाला है । यहां यावत्पद से 'महाधुतिकः, महाबलः महायशाः महासौख्यः, महानुभावः, पल्घोषमस्थितिक:' इन पदों का संग्रह हुआ है इन पदों की व्या ख्या अष्टम सूत्रस्थ विजयदेवाधिकार से ज्ञात कर लेनी चाहिये इस कारण उसे मैने क्षुल्लहिमवन्त कूट इन नाम से कहा है ।
( कहिणं भंते! पंच चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवंता णामं સિંહાસનનુ' વર્ણન કરી લેવુ જોઇએ. એ વર્ણન ‘રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર'ના ૨૧માં અને ૨૨ માં સૂત્રમાંથી જાણી લેવું જોઈએ. તેમજ ત્યાંથી જ એ સૂત્રના પદેની વ્યાખ્યા પણ सभल सेवी लेखे, 'से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ क्षुल्लहिमवन्त कूडे २' हे लढत ! व्यापश्रीो ‘चुल्लहिमवन्त' क्षुङसहिभवत डूड नाम था अरथी महेतु छे ? ' गोयमा ! क्षुल्लहिमवंते णामं देवे महिइढीए जाव परिवसई' हे गौतम! से छूट उपर क्षुद्र हिभન્વત નામક દેવકુમાર રહે છે. એ મહદ્ધિક વગેરે વિશેષણેા વાળા છે. અહીં યાવત્ पथी 'महाद्युतिक, महाबलः, महायशा', महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः' પટ્ટો ગ્રહણ થયા છે, એ પદ્મની વ્યાખ્યા અષ્ટમ સૂત્રસ્થ વિજયદેવાધિકારમાંથી જાણી લેવી જોઈએ આ કારણથી મે ક્ષુલ્લહિમવન્ત પથી સખેાધિત કરેલ છે. 'मवंता णामं रायहाणी पण्णत्ते'
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'कहि णं भंते ! चुल्लहिमवंत कु
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र भदन्त ! क्षुद्रहिमवगिरिकुमारस्य देवस्य क्षुद्रहिमवता नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ?' भगवानस्योत्तरमाह-गोयमा !' इत्यादि, हे गौतम ! 'चुल्लहिमवंतकूडस्स दक्खिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अण्णं जंबुद्दीवं दीवं दक्खिणेणं वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं चुल्लहिमवंतस्स गिरिकुमारस्त देवस्स चुल्ल हिमवंता णाम रायहाणी पण्णत्ता' क्षुद्रहिमवत्कूटस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि तिर्यगसंख्येयान् तिर्यक्प्रदेशे असंख्यातान् द्वीपसमुद्रान व्यतिव्रज्य-व्यतिक्रम्य उल्लङ्घय अन्य जम्बूद्वीपं द्वीपं दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य प्रविश्य अत्र अत्रान्तरे खलु क्षुद्रहिमवतः एतनामकस्य गिरिकुमारस्य पर्वतपुत्रस्य देवस्य क्षुद्रहिमवती नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, 'वारसजोयण सहस्साई, आयामविक्खंभेणं' सा च द्वादश योजन सहस्राणि आयामविष्कम्भेण दैयविस्ताराम्याम् प्रज्ञप्तेति पूर्वेण सम्बन्धः, 'एवं विजयरायहाणी सरिसा भाणियबा' एवम् अनेन प्रकारेण इयं राजधानी वर्णनं चाष्टमसूत्राद्वोध्यम् । ‘एवं अवसेसाण विकूडाणं वत्तव्बया णेयव्या' एवं रायहाणी प.) हे भदन्त ! क्षुद्रहिमवन्तगिरिकुमार देव की क्षुद्रहिमवती नामकी राजधानी कहां पर है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! चुल्लहिमवंत कूडस्स दहिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीइवहत्ता अण्णंजबूद्दीवंदीवं दक्खिणेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थणं चुल्लहिमवंतस्स गिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवंता णामं रायहाणी प.) हे गौतम ! क्षुद्रहिमवन्तकूट की दक्षिण दिशा में तिर्यगलोक संबंधी असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार कर अन्य जंबूद्वीप नामके द्वीप में दक्षिण दिशा की ओर १२ हजार योजन आगे जाकर के आगत इसी स्थान में चुल्ल हिमवंत गिरिकुमारदेवकी क्षुद्रहिमवतीनामकी राजधानी है । (बारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभणं, एवं विजय रायहाणी सरिसा भाणियव्वा) यह आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा १२ हजार योजन की है। बाकी का और सब कथन इसके सम्बन्ध मे अष्टमसूत्र में वर्णित विजयराज ભદૂત! ક્ષુદ્રહિમવન્ત ગિરિકુમાર દેવની હિંમવતી નામક રાજધાની કયા સ્થળે આવેલી છે? सेना नाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! चुल्लहिमवंतकूडस्स दविखणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीइवइत्ता अण्णं जंणूदीवं दीवं दक्खिणेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थणं' चुल्लहिमवंतस्स गिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवंता णामं रायहाणी पण्णत्ता' 3 गौतम ! શુદ્રહિમવન્ત ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં તિય લેક સંબંધી અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રોને પાર કરીને અન્ય જંબુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં દક્ષિણ દિશા તરફ ૧૨ જન આગળ જઈને જે સ્થાન આવે તે જ સ્થાનમાં ક્ષુલ્લકહિમવંત ગિરિકુમાર દેવની મુદ્ર હિમવતી નામક शानी छ. 'वारस जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं एवं विजय रायहाणी सरिसा भाणियव्वा' से मायाम मने वि०मनी अपेक्षा १२ १२ यरत रही छे. शेष सब ज्यान माना समयमा माटम सूत्रमा पति विय यानी ॥ छ., 'एवं अव
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्रहिमवत्पर्वतोपरितनकूटस्वरूपम् .७९ क्षुद्रहिमवत्कूटवर शेषाणाम् तदतिरिक्तानां भरतकूटादीनां फूटानां वक्तव्यता वर्णनपद्धतिः नेतव्या ज्ञानविषयतां प्रापणीया ज्ञेयेत्यर्थः, आयामविक्खंभपरिक्खेव पासायदेवयाओ सीहासणपरिवारो अट्ठो य देवाण य देवीण य रायहाणीओ णेयवाओं' तथा आयाम विष्कम्भ परिक्षेपप्रासाददेवताः सिंहासनपरिवारः अर्थश्च देवानों देवीनां च राजधान्यो नेतव्या इति पूर्वेण सम्बन्धः, 'चउसु देवा चुल्ल हिमवंत भरहर२ हेमवय३ वेसमणकूडेसु४ सेसेसु देवयाओ' तत्र चतुर्यु कूटेषु देवाः परिवसन्ति, केषु चतुर्यु ? इत्याह-क्षुद्रहिमवान् १ भरत २ हैमवत ३ वैश्रवणकूटेषु ४ शेषेषु उतातिरिक्तेषु देवताः देव्यः परिवसन्ति, अथास्य क्षुद्रहिमवत्त्वे हेतुमाह-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ चुल्लहिमवते वासहरपव्वए' अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-बुद्रहिमवान् वर्षधरपर्वतः २? भगवानस्योत्तरमाह-गोयमा हे धानी के जैसा ही ज्ञात कर लेना चाहिये (एवं अवसेसाण वि कूडाणं वत्तव्वयामेयव्वा) इसी प्रकार से हिमवत्कूट के वर्णन की पद्धति के अनुसार ही भरतकूट आदि कटों की वक्तव्यता समझलेनी चाहिये इस तरह आयाम विष्कम्भ परिक्षेप, प्रासाद, देवता, सिंहासन परिवार अर्थ एवं देव देवियों की राजधानियाँ यह सब विषय हिमवत्कूट की वर्णन पद्धति के जैसा ही है ऐसा जानलेना चाहिये यही बात (आयामविक्खम्भ परिक्खेव पासाय देवयाओ सीहासणपरिवारो अट्ठोय देवाणय देवीण य रायहाणीओ णेयवाओ) इस सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है (चउसु देवा क्षुल्लाहिमवंत २ भरह ३ हैमवत् ४ वेसमणकूडेसु सेसेसु देवयाओ) क्षुद्रहिमवन्त कूट पर, भरतकूट पर हेमवत कूट पर, और वैश्रवण कूट पर, इन भरतकूटो पर देव रहते हैं तथा वांकी के कूटों पर देवियां रहती हैं। (से केणठे णं भंते ! एवं वुच्चइ क्षुल्लहिमवंते वासहरपव्वए) हे भदन्त ! आपने इसका नाम क्षुद्रहिमवन्तवर्षधर पर्वत ऐसा किस कारण से सेसाण वि कूडाणं वत्तव्वया णेयव्वा' मा प्रभारी हिमपात टना वर्ष ननी पद्धति भुम જ ભરત કૂટ વગેરે કૂટની વક્તવ્યતા સમજી લેવી જોઈએ આ પ્રમાણે આયામ, વિધ્વંભ પરિક્ષેપ, પ્રાસાદ, દેવતા, સિંહાસન પરિવાર, અર્થ તેમજ દેવ-દેવીઓની રાજધાનીઓ से मधुर छ. ये समझ नये. मे पात 'आयाम विक्खंभपरिक्खेव पासाय देवयाओ सीहासणपरिवारो अट्ठोय देवाणय देवीणय रायहाणीओ णेयवाओ' से सूत्रा: વડે પ્રકટ કરવામાં આવેલી છે.
'चउसु देवा चुल्लहिमवंत २ भरह ३ हेमवय ४ वेसमण कूडेसु सेसेसु देवयाओ' ક્ષુદ્રહિમવન્ત હેમવંત કૂટ ઉપર ભરત ફૂટ ભરત ફૂટ ઉપર હેમવંત ફૂટ હેમવંતક ફૂટ ઉપર વિશ્રવણ કૂટ એ ચાર કટ ઉપર દે રહે છે. તેમજ શેષ ફૂટ ઉપર દેવીએ २९ छे. 'से केणटूठेणं भंते ! एवं वुच्चइ क्षुल्लहिमवंते वासहरपव्वए' -महत આપશ્રીએ એનું નામ શુદ્ર હિમવન્ત વર્ષધર પર્વત એવું શા કારણુથી કહ્યું છે?
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जम्बूद्धोपप्राप्तिसूत्र गौतम ! 'महाहिमवंत वासहरपव्वयं पणिहाय आयामुच्चत्तुन्वेहविक्खंभपरिक्खेवं पहुच्च' महाहिमवद्वर्षधरपर्वतं प्रणिधाय आश्रित्य आयामोच्चत्वोद्वेधविष्कम्भ परिक्षेत्र प्रतीत्य अपे. क्ष्य 'ईसि खुड्डतराए चेव हस्पतराए चेव णीयतराए चेव चुल्लहिमवंते य इत्थ देवे महिदीए जाव पलिओचमटिइए परिवसई' ईपक्षुद्रतरक एव किञ्चिल्लघुतर एव यथासंभवं योजनापेक्षया विधेयत्वेनाऽऽयामाधपेक्षया, इस्वतरक एव-अति ह्रस्व एव उद्वेषापेक्षया नीचतरक एव अति-नीच एव उच्चत्वापेक्षया, तथा क्षुद्रहिमांश्च देवः अत्र अस्मिन् क्षुद्रहिमवति वर्षधरपर्वते परिवसति इति परेणान्वयः, स कीदृशः ? इत्याह-'महद्धिको यावद् पल्योपमस्थितिका, यावत्पदेन-"महाधुतिका, महाबलः, महायशाः, महासौख्या, महानु. भावः, इत्येषां पदानां संग्रहो वोध्या, एपां व्याख्याऽष्टमसूत्राद् वोध्या परिवसति निव. कहा है ? (गोयमा ! महाहिमवंतवासहरपव्ययं पणिहाय आयामुच्चत्तुव्वेह विक्खंभपरिक्खेवं पडुच्च ईसि खुडुतराए चेव हस्सतराए चेव णीअतराए चेव चुल्लहिमवंते इत्थ देवे महिडिए जाव पलिभोवमट्टिइए परिवप्लइ से एएणटूठे गं गोयमा ! एवं बुच्चइ चुल्लहिमवते वासहरपन्चए) हे गौतम ! महाहिमवन्तवर्ष घर पर्वत की अपेक्षा लेकर के-उसके आयाम, उच्चत्व उद्वेध विष्कम्भ, परिक्षेपको आश्रिन करके-क्षुद्रहिमवत् पर्वत का आयाम आदिका विस्तार थोडा है लघुनर है महाहिमवान के उद्वेध इस्वतरक अति इस्व है। महाहिमवान के उच्चत्व की अपेक्षा उसका उच्चत्व अतिनीचा है । तथा क्षुद्रहिमवान् नामका देव इस क्षुद्रहिमवान् वर्षधर पर्वत पर रहता है यह क्षुद्रहिमवान् नामका देव महद्धिक है और यावत् एक पल्योपमकी स्थितिवाला है यहां यावत्पद से 'महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभाव' इन पदोंका ग्रहण हआ है इन पदों की व्याख्या अष्टम सूत्र से ज्ञातव्य है इस कारण हे गोतम! 'गोयमा ! महाहिमवंतवासहरपञ्चयं पणिहाय आयामुच्चत्तवेह विक्खंभपरिक्खे पडुच्च ईसिं खुडुतराए चेव हस्सतराए चेवणीअतराए चेव चुल्ल हमवंत इत्थ देवे महिढिए जाव पलिओबमदिइए पडिवसइ से एएढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ चुल्ल हिमवते वासहर पव्वर' 8 गौतम। महभिवन्त वषधर यातनी अपेक्षा न मायाम, ઉચ્ચત્વ, ઉધ વિધ્વંભ, પરિક્ષેપને આશ્રિત કરીને શુદ્ધ હિમવત પર્વતને આયામ વગેરે વિસ્તાર અ૫ છે. લઘુતર છે. મહાહિમવાનના ઉકેલની અપેક્ષાએ આને ઉદ્દેધ હવતરક અતિ હસ્વ છે. મહાહિમવનના ઉચત્વની અપેક્ષાએ એ પર્વતની ઊંચાઈ ઓછી છે. બહુ જ કમ છે. તથા મુદ્ર હિમવાન નામક દેવ એ ક્ષુદ્ર હિમાવાન વર્ષધર પર્વત ઉપર રહે છે. એ મુહિમાવાન નામક દેવ મહદ્ધિક છે અને ચાવત્ એક પલ્યોપમ જેટલી स्थिति धरावे छे. मी यावत् ५४था 'महाद्युतिकः, महावलः, महायशाः, महासौख्याः, महानुभाव से पही अस थया छ. मे पहानी व्याभ्या मटम सत्रमाथी area aai
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्र हिमवत्पर्वतोपरितनकूट स्वरूपम्
વધુ
सति 'से एएणद्वेगं गोयमा ! एवं बुच्चइ - चुल्लहिमवंते वासहरपच्चए २' सः क्षुद्रहिमवान् एतेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन गौतम ! एव - मुच्यते - क्षुद्र हिमवान् वर्षधरपर्वतः इति । अथास्य शाश्वतत्त्वे हेतुमाह - ' अदुत्तरं च णं गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स साराए णामघेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ णासी' अथ च खलु गौतम ! क्षुद्रहिमवतः शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तं यत् यस्मात्कारणात स न काचिद् नासीत् अपि तु आसीदेवेत्यादि चतुर्थसूत्रोक्त पद्मवरवेदिकावद् वोध्यम् । सू० ७ ॥
अथाऽनेन क्षुद्रमित्रता वर्षधरपर्वतेन विभक्तस्य हैमवतक्षेत्रस्य वक्तव्यमाह - 'कहि णं भंते' इत्यादि ।
मूलम् - कहि णं भंते ! जंबुद्दीछे दीवे हेमवए णानं वासे पण्णत्ते ? गोयमा ! महाहिमवं तस्स वासहरपव्यस्त दक्खिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं पुरत्थिमलत्रणसमुहस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुद्दस्त पुरस्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेमवर णामं वासे पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीर्णदाहिणविच्छिष्णे पलियंकसंठाण - संठिए दुहा लवणसमुद्दे पुढे, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरस्थिमिल्लं लवणसमुद्दे पुढे, पञ्चत्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चत्थिमिल्लं लवणसमुद्दे पुढे, दोणि जोयणसहस्साइं एगं च पंचुत्तरं जोयणसयं पंच य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विकखंभेणं, तस्स बाहा पुरत्थिमपचत्थिमेणं छज्जोयणइस वर्ष घरपर्वत का नाम क्षुद्रहिमवान् वर्षघर - पर्वत - ऐसा मैंने और अन्य तीर्थकरों ने कहा है (अनुत्तरं व णं गोयमा ! क्षुल्लहिमवतस्स सासए णामघेज्जे प.) अथवा क्षुद्रहिमवान् पर्वत का 'क्षुद्रहिमवान्' ऐसा जो नाम कहा गया है उसका कारण कुछभी नहीं है क्यों कि वह तो शाश्वत है (जंण कयाइ णासि ) ऐसा इसका यह नाम पहिले कभी नहीं था ऐसा नहीं है, भूतकाल में भी इसका यही नाम था इत्यादि सब कथन चतुर्थ सत्रोक्त पद्मवरवेदिका की तरह से ही जानना चाहिये || सू०७॥
જોઈએ આ કારણથી હું ગૌતમ ! એ વધર પર્યંતનું નામ ક્ષુદ્ર હિમવાન વષધર એવુ भें' भने अन्य तीर्थ है। ये छे. 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स सासए णामवेज्जे प.' अथवा क्षुद्र हिभवन् पर्वतनु' 'क्षुद्रद्धिभवान्' येवु नाम ने अहेवामां आवेलु छे तेनु ४४०४ भरण नथी. हे ते तो शाश्वत छे. 'जं ण कयाइ' मेवु' भानु मा નામ પહેલાં ન હતુ. એવુ નથી, ભૂતકાળમાં પણ એનું એજ નામ હતું વગેરે બધું કંથન ચતુર્થ સૂત્રેાક્ત પદ્મવવેનિકાની જેમ જ જાણી લેવુ' જોઈ એ. સૂ ા છ u
भ० ११
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८'
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सहस्साइं सत्त य पणवपणे जोयणसए तिषिण य एगूणवीसइभाए जोयणस्त आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहओ लवणसमुदं पुटा, पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्टा पञ्चस्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा सत्ततीसं जोयणसहस्साई छञ्च चउवत्तरे जोयणसए सोलस य एगूणवीलइभाए जोयणस्स किंचि विसेसूणे आयामेणं, तस्ल धणुं दाहिणेणं अटूतीसं जोयणसहस्साई सत्तं य चत्ताले जोयणसए दस य एगूणवीसहभाए जोयणस्त परिक्खेवेणं, हेमवयस्स णं भंते ! वासस्ल केरिलए आयारमावपडोयारे पण्णत्ते? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिमागे पण्णत्ते, एवं तइय समाणुभावो णेरछोति ॥सू०८॥ ___ छाया-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण पौरस्त्यलत्रणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवतं नाम वर्षे प्रज्ञप्तम् , प्राचीनप्रतीचीनायतम् उदीचीनदक्षिणविस्तीर्ण पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितं द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टम् , पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रम् स्पृष्टम् , पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टम द्वे योजनसहस्त्रे, एकं च पञ्चोत्तरं योजनशत पञ्च च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेण, तस्य बाहा पौरस्त्यपश्चिमन पट् योजनसहस्राणि सप्त च पञ्चपञ्चाशं योजनशतं त्रीश्च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेन, तस्य जीवा उत्तरेण प्राचीनप्रतीचीनायता द्विधातो लवणसमुद्रं स्पृष्टा, परिस्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा पाश्चात्यया यावत् स्पृष्टा सप्तत्रिंशतं योजनसहस्राणि पटू च चतुः सप्तानि योजनशतानि षोडशं च एकोनविंशति भागान् योजनस्य किञ्चि द्विशेपोनान् आयामेन, तस्य धनुः दक्षिणेन अष्टत्रिशतं योजनसहस्राणि सप्त च चत्वारिशानि योजनशतानि दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, हैमवतस्य खलु भदन्त । वर्षस्य कीदृशक आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः १, गौतम! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्ता, एवं तृतीयसमानुभावो नेतव्य इति ॥ सू० ८॥ ____टीका-'कहि णं भंते !' इत्यादि । 'कहि णं भंते ! जंबूद्वीव दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते, कुत्र-कस्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! जम्बूद्दीपे द्वीपे हैमवतं नाम व प्रज्ञप्तमिति
'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हेपथए णामं वाले पण्णत्ते' ॥सू०८॥ टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-(कहिण भत । 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते, इत्यादि । टी -मा सूत्र परे गौतमस्वाभीमप्रसुन सेवा प्रश्न या छ-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ८ हैमवतक्षेत्रस्वरूपनिरूपणम् गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा ! हे गौतम ! 'महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसहस्स पचत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णाम वाले पण्णत्ते' महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य उत्तरस्यां दिशि, पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमायाम् , पश्चिमलवणसमुद्रस्य पूर्वस्याम् , अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवतं नाम वर्प प्रज्ञप्तम्-कथितम् , 'पाईणपडीणायए' इदश्च प्राचीन-प्रतीचीनायतम्दीर्घम् , 'उदीण दाहिण विच्छिण्णे' उदीचीन दक्षिणविस्तीर्णम् , 'पलियंकसंठाणसंठिए' पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितम्-पर्यङ्काकारसंस्थितम् आयतचतुरस्त्रत्वात् , 'दुहा' इत्यादि, 'दुहालवणसमुद्दे पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे' द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टम् , पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते) हे भदन्त ! क्षुद्रहिमवान् वर्षधर पर्वत से विभक्त हैमवत क्षेत्र इस जम्बूद्वीपनासके द्वीप में कहां पर कहा गया है-१ इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्षिणेणं चुल्लहिमवंतस्ल वासहरपब्धयस्त उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चस्थिमलवणलमुहस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेमवएणामं वासे पण्णत्ते) हे गौतम ! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत की दक्षिणदिशा में क्षुद्रहिमवान् पर्वत की उत्तरदिशा में, पूर्वदिग्वर्ती लवणलछुद्र की पश्चिमदिशा में एवं पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पूर्वदिशा में जम्बूद्वीप नामके द्वीप में हैमवतक्षेत्र कहा गया है (पाईणपडीणायए) यह हैमवत क्षेत्र पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है (उदीणदाहिण विच्छिण्णे) तथा उत्तर से दक्षिण तक चौडा है (पलिअंकसंठाणसंठिए दहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिपिल्लं लवणसमुदं पुष्टा) दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते' ! क्षुद्र भिवान् १५२ यथा विमत भ. વાત ક્ષેત્ર આ જંબુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં ક્યા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાબમાં પ્રભુ ४९ छ. 'गोयमा! महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्वत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं एल्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते' ३ गौतम ! महा भिवान् वर्षधर પર્વની દક્ષિણ દિશામાં શુદ્ધ હિમવાનું પર્વતની ઉત્તર દિશામાં પૂર્વ દિગ્વતી લવણ સમુद्वनी पू शाम मुद्धाय नाम दीपम भक्त क्षेत्र मावस 2. 'पाईण पडीणायए' मे भक्त क्षेत्र पूर्वथा पश्चिम सुधी सामु छ. 'उदीणदाहिणविच्छिण्णे' तेभर उत्तरथा Elay सुधी पाणु छे. 'पलिअंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुह
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કંટ
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
लवणसमुद्रं स्पृष्टम्, पाश्चात्यया कोटया पात्रात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टम् 'दोणि जोयणसहसाई एगं च पंचुत्तरं जोयणसयं पंत्र य एगृणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं' द्वे योजनसहस्रे, एकं च पञ्चोत्तरं योजनशतं पञ्चचैकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेण, क्षुद्रहिमवत्पर्वतविष्कम्भादस्य विष्कम्सो द्विगुणः, अथास्य वादाचाह - 'तस्म वाहे 'त्यादि - 'तस्स वाहा पुरस्थमपच्चत्थिमेणं छज्जोयणसहस्साई सत्च य पणवण्णे जोयणसए तिष्णि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं' तस्य हैमवतवर्षस्य वाहा पौरस्त्यपश्चिमेन पड् योजनसह स्राणि सप्त च पञ्च पञ्चाशं योजनशतं त्रींच एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेन - दैर्येण, अवास्य जीवानाह - 'तस्स जीवे' त्यादि, 'तस्त जीवा उत्तरेणं पाईण पडीणायया दुओ लवण पुट्ठा' तस्य जीवा उत्तरेण प्राचीनप्रतीचीनायता द्विपातो लवणसमुद्रं स्पृष्टा: 'पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरत्थिमिल्लं लवण समुहं पुट्ठा पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुट्टा' इसका आकार जैसा पर्यङ्क का आकार होता है वैसा है क्यों कि यह आयत चतुरस्र है क्षुद्र हिमवत् पर्वत के विष्कम्भ से इसका विष्कम्भ विगुण कहा गया है यह दोनों और से लवण समुद्र को छू रहा है पूर्व की कोटि से पूर्व लवण समुद्र को और पश्चिम कोही से पश्चिम दिग्वर्ती लवणसमुद्र को छू रहा है ( दोणि जोयणसहस्साई एगंच पंत्सरं जोयणसचं पंचय एकूणवीसइभागे जोयणस्स विणं) इसका विस्तार २९०५ योजन का है (तस्ल वाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं हज्जोयणसहस्साई सस य पणचपणे जोयणसए तिष्णि य एगूणवीसहभागे जोयणस्स आयामेगं) इसको वाहा पूर्वपश्चिम में लम्बाई की अपेक्षा ६७५५ योजन की है (तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहओ लवणसमुदं पुट्टा, पुरत्यभिन्लाम कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्दे पुट्ठा पच्च थिमिल्लाए जाव पुछा ) इसकी जीवा उत्तर दिशा में पूर्व से पश्चिम तक आयन लम्बी है यह दोनों तरफ से लवणसमुद्र को छूती है पूर्व की પુરા' આ મવત દ્યૂતને કાર પર્ટી કનેા જેવા આકાર હાય છે તેવા છે. કેમકે એ આયત ગનુસ છે. ક્ષુદ્ર હિમવત્ પર્વતના વિષ્પભથી આને વિષ્ણુ ભદ્વિગુણુ કહેવામાં આવેલ છે. એ ન્ને તરફથી લવણસમુદ્રને સ્પર્શી રહ્યો છે. પૂર્વ કાટિથી પૂર્વીલવ समुद्रने भने पत्रिमरिधी पत्रिभहिवर्ती समुद्रने स्पशी रह्यो छे. 'दोणि जोयण सम्माच पंचुत्तर जोयणसमें पंचय एगुणवीसइभाग जोयणस्स विक्खंभेणं' गाना विस्तार २१०५ योजन भेटसी छे. 'तम्म वाहा पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं छज्जोयणसहनाई मन य ग जीवनमा तिष्णिय गुणावीभाग जोयम्स आयामेणं' नी पादा-पूर्व पश्चिम क्षणानी अपेक्षा नभेटली. 'तम्स जीवा दरे पाईपणाच्या दुओ लवणसमुहं पुट्टा पुरथिमिल्टाए रोडीर पुरथिमिल्लं लवणसामाजापुड़ा कोनी वा उत्तर दिशामा पूर्वथा पश्चिम भुधी મત લાગી છે. એ બન્ને તરફથી લખ્યુ સમુદ્રને પગી રહી છે. પૂર્વની ટીથી પૂ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ८ हैमवतक्षेत्रस्वरूपनिरूपणम् पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा पाश्चात्यया यावत् स्पृष्टा, 'सत्ततीसं जोयण सहस्साई छ च्च चउवत्तरे जोयणसंए सोलस य एगृणवीसइभाए जोयणस्स किंचि विसे. सूणे आयामेणं' सप्तत्रिंशतं योजनसहस्राणि पट् च चतुः सप्ततानि योजनशतानि पोडश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य किञ्चिद्विशेपोनान आयामेन, 'तस्स धणुं दाहिणेणं अद्वतीसं जोयणसहस्साई सत्त य चत्ताले जोयणसए दस य एणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं तस्य हैमवतवर्षस्य धनु:-धनुष्पृष्टम् , दक्षिणेन-दक्षिणदिग्भागे अष्टत्रिंशतं योजनसहस्राणि सप्त च चत्वारिंशानि चत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण परिधिना, 'हेमवयस्स णं' इत्यादि, हेमवयस्त णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपड़ोयारे पण्णत्ते' स्पष्टम् नवरम् आकारभावप्रत्यवतारः तत्राकार:-स्वरूपम् भावः तदन्तर्गतः पदार्थः तद्युक्तः प्रत्यवतारः प्रकटी भावस्तथा, स कीदृशका-कीदृशः प्रज्ञप्तः?, 'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' हे गौतम ! वहसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'एवं तइयसमाणुभावो णेयव्यो त्ति' एवम् उक्तप्रकारेण तृतीयसमानुभाव:तृतीयसमा-मुपमदुष्पमाऽरकस्तस्याऽनुभावः-स्वभाव' स्वरूपमिति यावत् नेतव्या-ज्ञानविषयतां प्रापणीयो ज्ञातव्य इत्यर्थः ॥ सू०८॥ कोटी से पूर्वदिग्वर्ती लगसमुद्र को छूती है और पश्चिमदिग्वर्ती कोटि से पश्चिमदिग्वती लवणसमुद्र को छूती है (सत्ततीसं जोयणसहस्लाई छच्च चउ. वत्तरे जोयणलए लोलस य एगणवीसहभाए जोयणस्स किंचिविसेसूणे आयामेणं) यह आयाम की अपेक्षा कुछकम ३७६७४१६ योजन की है (तस्स घणु दाहिणेणं अतीसं जोयणसहस्साई सत्तय चत्ताले जोयणसए दस य एगूणवीसह भाए जोयणस्स परिक्खेवेणं) इसका धनुः पृष्ठ परिक्षेप की अपेक्षा ३८७४०१० योजन :का है (हेमवयस्लणं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते) अव गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! हैमवत् क्षेत्रका आकार भाव प्रत्यवतार स्वरूप कैसा कहा गया है १ उत्तर में प्रभु कहते हैं(गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते एवं तइअसमाणुभावो णेयव्वोत्ति) દિગવતી લવણ સમુદ્રને સ્પશી રહી છે અને પશ્ચિમ દિગ્વતી કેટીથી પશ્ચિમ દિગ્વતી समुद्र २५२ रही है. 'सत्त तीसं जोयणसहस्साई छच्च चउवत्तरे जोयणसए सोलस एग्णयवीसइभाए जोयणस्स किचि विसेसूणे आयामेणं' मायामनी अपेक्षा ४४४ ३७६७४ १९ योरन रेटी छ. 'तस्स धगु दाहिणेणं अद्वतीसं जोयणसहस्साई सत्त य चत्ताले जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' मानु धनु:पृष्ठ परिहेपनी अपेक्षामे ३८७४०१४ यान से छे. 'हेणवयस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभाव पडोयारे पण्णत्ते' वे गौतमै प्रभुने मा प्रमाणे
महन्त ! भक्त ક્ષેત્રને આકારભાવ-પ્રત્યવતારસ્વરૂપ કેવાં છે? ઉત્તરમાં
'गोयमा ! बहुसरम
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अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथात्र क्षेत्रविभाजकपर्वतस्वरूपं प्रदर्शयितुमाह-'कहि णं भंते' इत्यादि ।
मूलम्-कहि णं भंते ! हेमवए वासे सदावई णामं वटवेयद्धपव्वए पण्णते ?, गोयमा ! रोहियाए महाणईए पचत्थिमेणं रोहियंसाए महाणईए पुरथिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं सदावई णामं वहवेयद्धपठवए पण्णत्ते, एग जोयणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं अद्धाइजाई जोयणसयाई उव्वेहेणं सव्वत्थ समे पल्लंगसंठाणसंठिए एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसहस्साई एगं च बावर्दै जोयणसयं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, सव्वरयणामए अच्छे, से णं एगाए पउलवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संप. रिक्खित्ते, वेड्यावणसंडवण्णओ भाणियव्वो, सदावइस्ल णं वट्टवेयद्धपव्वयस्स उवरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते, तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्त भूमिभागस्त बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते, बावर्स्टि जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेणं इकतीस जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं जाव सीहासणं सपरिवारं, से केण. ट्रेणं भंते ! एवं उच्चइ सदावई. वहवेयद्धपवए १२ गोयमा! सदावइ ववेयद्धपध्वए णं खुदा खुदियासु वावीसु जाव विलपंतियासु बहवे उप्पलाई पउमाई सद्दावइपभाई सदावइवण्णाभाई सदावई य इत्थदेवे महिडिए जाव महाणुभावे पलिओवमदिइए परिक्सइत्ति, से णं तत्थ चउण्हें सामाणिय साहस्लीणं जाव रायहाणी मंदरस्स पव्वयस्त दाहिणेणं अण्णंमि जंबुद्दीवे दीये ॥सू० ९॥
छाया-क्व खलु भदन्त ! हैमवते वर्षे शब्दापाती नाम वृत्तवैताढयपर्वतः प्रज्ञप्तः, गौतम ! रोहिताया महानद्याः पश्चिमेन रोहितांशाया महानद्याः पौरस्त्येन हैमवतपर्पस्य बहुहे गौतम ! यहां का भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है यहां पर सदा तृतीय काल सुपमदुषमारक की रचना रहती है ।सू०८॥ णिज्जे भूमिभागे पण्णत्त एवं तइअ समाणुभावो यत्रोत्ति गौतम ! महीना भूमिला। બહુ સમરમણીય કહેવામાં આવેલ છે. અહીં સર્વદા તૃતીયકાળ સુષમ દુષમારની રચના रखे थे. ॥ २ ॥ ८ ॥
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ९ क्षेत्रविभाजकपर्वतस्वरूपनिरूपणम् मध्यदेशभागः, अत्र खलु शब्दापाती नाम वृत्त वैताढल्यपर्वतः प्रज्ञप्तः, एक योजनसहस्रम् अर्ध्वमुच्चत्वेन अर्धतृतीयानि योजनशतानि उद्वेधेन सर्वत्र समः पल्यङ्क संस्थानसंस्थितः, एक योजनसहस्त्रम् आयामविष्कम्भेण त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वापष्टं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, सर्व रत्नमथ्यः अच्छ:, स खल एकया पद्मवरवेदि. कया एकेन च वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, वेदिका वनषण्डवर्णको भणितव्यः, शब्दापातिनः खलु वृत्त-वैताढयपर्वतस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, द्वापष्टिं योजनानि अद्धयोजनं च ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिंशतं योजनानि क्रोश च आयामविष्कम्भेण यावत् सिंहासनं सपरिवारस् , अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते शब्दापाती वृत्तवैताढयपर्वतः ? २, गौतम ! शब्दापातिवृत्तवैताठ्यपर्वते खलु क्षुद्राऽक्षुद्रिकासु वापीसु यावत् बिलपक्तिकासु वहनि उत्पलानि पद्मानि शब्दापाति प्रभाणि शब्दापाति वर्णानि शब्दापाति वर्णाभानि, शब्दापाती चात्र देवो महद्धिको यावत् महानुभावः पल्योपमस्थितिक परिवसतीति, स खलु तत्र चतसृणां सामानिकसाहस्रीणां यावद् राजधानी मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे ।। सू०९॥
टीका-'कहि णं भंते' इत्यादि । 'कहि णं भंते ! हेमवए वासे सदावई णामं वट्टवेयद्ध पत्रए पण्णत्ते' हे भदन्त ! हैमवते तन्नामके वर्षे शब्दापाती नाम वृत्तवैताढयपर्वतः क्व कस्मिन्प्रदशे प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! 'रोहियाए' रोहितायाः रोहितानाम्न्या: 'महाणईए' महानद्याः 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिग्भागे 'रोहियंसाए' रोहितांशायाः रोहितांशा नाम्न्या 'महाणईए पुरस्थिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसभाए' महानद्याः पौर
'कहिणं भंते ! हेमवएवाले सद्दावणामं वटवेअद्धपचए' ॥सू. ९।
टीकार्थ-गौतमस्वामी ने प्रभु से इस सूत्र द्वारा एसा पूछा है-(कहि णं भंते ! हेमवए वासे सद्दावई णामं वटवेयद्धपव्वए पण्णत्ते) हे भदन्त ! हैमवतक्षेत्र में जो शब्दापाती नामका वृत्तवैताढय पर्वत कहा गया है वह कहाँ पर है १ इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ! रोहियाए महार्णइए पच्चत्थियेणं रोहिअंसाए महाणईए पुरथिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसमाए एत्थ णं सदावई णामं
'कहि णं भंते हेमवएवासे सद्दावइणामं वट्टवेअद्धपाए । इत्यादि,
ट-गौतमस्वामी प्रभुने २मा सूत्रपडे मेवा प्रश्न ये छ -'कहि णं भंते ! हेमवएवासे सदावई णामं वट्टवेयद्धपव्वए पण्णत्ते' महन्त । भवत् क्षेत्रमा २ शहापाती' नाम: વૃત્તવૈતાઢય પર્વત કહેવામાં આવેલ છે, તે ક્યા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાબમાં પ્રભુ ४ छ-'गोयमा ! रोहियाए महाणइए पच्चत्थिमेणं रोहिअंसाए महाणईए पुरथिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं सहावई णामं वट्टवेयद्धपव्वए पण्णत्ते' है गौतम! હિતા મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં અને રેહિતાંશા મહાનદીની પૂર્વ દિશામાં આ
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- जम्बूद्वीपप्रशक्षित, स्त्येन पूर्वदिग्भागे हैमवतवर्षस्य बहुमध्यदेशभागः अस्ति 'एत्थ णं' अत्र अस्मिन बहुमध्यदेशभागे 'सहावई णाम' शब्दापाती नाम 'वट्टवेयद्धपचए पण्णत्ते' वृत्त चैताढयपर्वतः प्रशसः, अस्य वृत्तत्व विशेषणेन भरतादिक्षेत्रवति वैताढयपर्वतवत्पूर्वापरायतत्वं व्यावत्यते अन्यथा तद्वत्पूर्वपश्चिमायतत्वमस्यापि प्रतीयेतेति वृत्तवैताढ्य इत्युपादीयते वृत्तः चर्तुलाकारः सचासौं वैतादयपर्वत इत्यर्थः, अत एवैतत्कृतः क्षेत्रविभागः पूर्वतः पश्चिमतश्च सम्भवति, यथा पूर्व हैमवतमपग्हैमवतं चेतिः ननु पञ्चकलाधिकैकविंशतिशतयोजनप्रमाणविस्तारवतो हैमवतस्य मध्यवर्ती योजनसहस्रपान एप पर्वतः कथं क्षेत्रस्य द्विधा विभाजको भवति ? अत्रोच्यतेप्रस्तुतक्षेत्र विस्तारो हि पूर्वपश्चिमपाश्चयोः रोहितारोहितांशाभ्यां महानदीभ्यां रुद्धो मध्यतस्त्वनेनेति नदीरुद्रक्षेत्र विहायातिरिक्तक्षेत्रगसौ द्विधा करोतीत्यन्वर्थाऽत्र वैताढय शब्दप्रकृ. त्तिरिति, एवं शेषेष्वपि वृत्तवैत्ताढयेषु स्वस्वक्षेत्र नदीनामभिलापेन भाव्यम् , अथास्य माना. थाह-'एग जोयणसहस्सं' मित्यादि सुगमम् नवरम् सर्वत्र अधोमध्योर्ध्वदेशेषु समासहस्रसहस विस्तारकत्वात्समानः, अत एव पल्या संस्थानसंस्थितः पल्यङ्कः लाटदेशप्रसिद्धो वंशदलेन विरचितो धान्याधारकोष्ठकः तस्य यत संस्थानम् अवयव संनिवेशस्तेन संस्थितः, तथा-पल्यङ्काकारसंस्थित इत्यर्थः, द्वाषष्ठ द्वाषष्टयधिक योजनशतं किश्चिद्विशेषाधिकं किञ्चिद्विशेषेण गणनाकरणवशादागतेन सूत्रानुक्तेन राशिना अधिकम् अतिरिक्त परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तम् , सर्वरत्नमया-सर्वात्मना रत्नमयः, अच्छा, उपलक्षणतया श्लक्ष्ण इत्यादीनां सङ्ग्रहो वोध्या, वटवेयद्धपधए पण्णत्ते) हे गौतम ! रोहिता महानदी की पश्चिमदिशा में और रोहितांशा महानदी की पूर्व दिशा में यह शब्दापाती नामका वृत वैताढयपर्वत कहा गया है और यह हैमवत क्षेत्र के ठीक मध्यभाग में है (एगं जोयणसहस्सं उद्धं उच्चत्तण अद्धाइज्जाइं जोयणसयाई उव्वेहेणं सव्वत्थ समे, पल्लंगसंसंठाणसंठिए एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसहस्साई एगच बावटुं जोयणलयं किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णते) इसकी ऊंचाई एक हजार योजन की है अढाई सौ योजन का इसका-उद्वेध है यह सर्वत्र समान है पलंग का जैसा आयत चतुरस्र आकार होता है वैसा ही इसका आकार है इसका आयाम और विष्कम्भ १ हजार योजन का है तथा इसका परिक्षेप कुछ अधिक ३१५२ योजन का है (सव्वरयणामए अच्छे) यह सवात्मना શબ્દાપાતી' નામક વૃત્ત વૈતાઢય પર્વત આવેલ છે, એ પર્વત હૈમવત ક્ષેત્રના ઠીક મધ્ય भागमा छे. 'एग जोयणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं अद्धाइज्जाई जोयणसयाइं उव्वेहेणं सव्वत्थ समे, पलंगसंठाणसंठिए एग जोयण सहस्स किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' એની ઊંચાઈ એક હજાર એજન જેટલી છે. ૨૫૦ એજન જેટલે આને ઉદ્દેધ છે. એ સવત્ર સમાન છે. પલંગને જેમ આયત ચતરસ આકાર હોય છે, તે જ આકાર આ પર્વતને પણ છે. અને આયામ અને વિભ ૧ હજાર યોજન જેટલું છે. તેમજ माना परिक्षे५ ४08 धारे ३१.५२ यापन २ छ. 'सव्वरयणामए अच्छे' न्य सवा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ९ क्षेत्रविभाजकपर्वतस्वरूपनिरूपणम् सः शब्दापाती वृत्तवैताढयपर्वतः खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वदिक्षु. समन्तात् सर्वविदिक्षु संपरिक्षिप्तः परिवेष्टितः, अत्र वेदिकावनपण्डवर्णकः पद्मवरवेदिका वनषण्डयोर्वर्ण का वर्णनपरः, पदसमूहः भणितव्यः वक्तच्या, स च चतुर्थ पञ्चमसूत्रतो बोध्यः। - 'शब्दापातिनः खलु' इत्यादि-मुगमम् , अथास्य अन्वर्थनामार्थ निरूपयन्नाह-'अथ केनार्थेन भदन्त' इत्यादि-पूर्वोक्त ऋपभकूटप्रकरणवद् व्याख्येयम्, केवलमृषभकूटेति नामकृतोऽत्रभेदोऽवसेयः यतस्तत्र ऋपभकूटप्रमैरित्यादि शब्दैः कथितः, अत्र तु शब्दापाति रत्नमय है और आकाश तथा स्फटिक मणिके जैसा निर्मल है । (से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवओ समंता संपरिचिखत्ते) यह एक पद्मवरवेदिका और एक वनषण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है (वेश्या वणसंडवण्णओ भाणियब्वो) यहां पर वेदिका एवं बनषण्ड का वर्णन करलेना चाहिये।
(सद्दावइस्ल णं बट्टवेयद्धपचयस्स उवरिं बहुलमरमणिज्जे भूमिभागेपण्णत्ते) शब्दापाती वृतवैताढयपर्वत के ऊपर का भूमिभाग बहुलमरमणीय कहा गया हैं (तस्सणं बहुसभरमणिजस्ल भूमिभागस्ल बहुमज्झदेसमाए एत्थणं महं एगे पासायवडेंलए एण्णत्ते) उस बहुसमरमणीय भूमिभाग में ठीक बीच में एक विशाल प्रासादावतंसक है। (बावहिं जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेणं इक्कतीसं जोषणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं जाव सीहासणं सपरिवारं) यह ६२॥ योजनका ऊंचा है तथा ३१ योजनका इसका आयाम और विष्कम्भ है यावत् इसमें सपरिवार सिंहासन है (से केणटेणं अंते ! एवं बुच्चइ सद्दावई वटवेयद्धपव्वए) हे भदन्त ! आपने 'शब्दापाती वृतवैताढय पर्वत' इसे ऐसे मना २त्नमय छे. मन माश-तमन २५४ भक्ति निर्भ छ. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणस डेणं सचओ समंता संपरिक्खित्ते' २मे४ पइभवaleel मन वनमा यामे२ मावृत्त छे. 'वेइया वणसंडवण्णओ भाणियव्वो' मी all અને વનખંડનું વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ.
'सदावइस्स णं वट्टवेयद्धपव्वयस्स उवरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' शहापाती वृतवैताय पतन ५२नो भूमिमा महुसभरभराय ४डेवामां मावा छे. 'तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते' તે બસમરમણીય ભૂમિભાગના ઠીક મધ્યભાગમાં એક વિશાળ પ્રાસાદાવતંસક છે. 'बावटि जोयणाई अद्धजोयण च उद्धं उच्चत्तेणं इक्कतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं जाव सीहासणं सपरिवारं' को १२॥ योरन रेटटी या छ. ३१॥
જન જેટલે આને આયામ અને વિષ્ઠભ છે. યાત્ એમાં સપરિવાર સિંહાસન છે. 'से केणठेणं भंते । एवं वुच्चइ सदावई वट्टवेयद्धपव्यए' 3 महन्त' मा५श्री 'शहायाती વૃત્તવૈતાઢય પર્વત એવું નામ શા કારણુથી કહ્યું છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે.
मा १६
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अम्बूहीपप्रज्ञप्तिसूत्र प्रमरित्यादि शब्दैरिति, अत्र यावत्पदेन दीपिकामु, गुञ्जालिकासु सम्पङ्क्तिकासु, इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो वोध्या, एपी व्याख्या राजप्रशीयसूत्रस्य चनुपष्टितमसूत्रस्यास्मत्कृतमुवोधिनी टीकातो वोध्या, शब्दापाती चात्रदेवः पदिवसतीत्युत्तरेणान्वयः, स च कीदृशः? इत्यपेक्षायामाह-माद्धिकः यावत् यावत्पदेन-'महाधुतिकः, महाबला, महायशाः, महासौ. ख्याः" इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो योध्या, तथा-"महानुभावः पल्योपमस्थितिका” एप व्याख्याऽष्टमसूत्राद् बोध्या, अथ शब्दापातिदेवमेव विशिष्टि "स खलु" इत्यादि-स: शब्दापातीदेवः खलु तत्र-शब्दापातिवृत्तवैताढत्यपर्वते चतसृणां सामानिकसाहस्रीणां चतुः सहस्रसामानिकानां यावत् यावत्पदेन-"चतरणामग्रमहिषीणां सपरिवागणां तिहणां परिषदां सप्तानामनीकानां सप्तानामनीमाधिपतीनां पोडशानामात्मरक्षकदेवलान्त्रीणां शब्दापातिनश्च नामसे क्यों कहा है ? इसके उत्तर मह कहते है-(गोयना ! सहायइवट वे अद्ध पच्चएणं खुदा सदुदिमासु बागेस जाब पिलपतिआतु यहवे उप्पलाई पउमाई सहावाप्पाइं लावावण्णाई सदाबत्ति बण्णाभाई सदावहा एत्थ देवे महिद्धीए जाव लहाणुमाये पलिओचाठिइए परिक्सइत्ति) हे गौतम! शब्दापाती वृतवैताढय पर्वत पर छोटी बडी वापिकाओं ले यावद चिलपंक्तियों में अनेक उत्पल पद्मकी जिनकी प्रभा शब्दापाती के जैसी है वर्ण जिनका शब्दापाकी के जैसा हैं जो शब्दापाती के वर्ण के जैसी आभा वाले है, तथा यहां शब्दापाती नामका महर्डिक यावत् जहानुभावशाली देव कि जिलकी एक पल्योपम की स्थिति है रहता है इस कारण इस पर्वतका नाम 'शब्दापाती' ऐसा कहा गया है। ___ 'सेणं तत्थ चउपहं लनाणियलाहस्तीगं जाच रायहाणी मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं अण्णंलि जंबुद्दीवे दीवे.' यह देव वहां पर अपने चार हजार सामानिकदेवों का यापत् चार सपरिचार अग्रहिपियोंकर, तीन परिपदाओंका, सात अनीकोंका, सात अनिकाधिपतियोंका १६ हजार आत्मरक्षक देवोंका एवं 'गोयमा! सहावई वट्टवेअद्धपव्वएणं खुद्दाखुद्दिआसु वावीसु. जाव विलपंतिआसु वहवे उप्पलाइं पउमाई सदावइप्पभाई- सहावइवण्णाई सहावति वण्णाभाई सदावईअ इत्थ देवे महिद्धीए जाव महाणुभावे पलिओवमठिइए परिवसइत्ति' हे गौतम | Avanita વૃત્ત વૈતાઢય પર્વત ઉપર નાની–મોટી વાકાઓથી ચાવત વિલપંક્તિઓમાં અનેક ઉત્પલ–પત્ની કે જેમની પ્રભા શબ્દાપાતી જેવી છે, જેમને વર્ણ શબ્દાપાતી જ છે. જે શબ્દાપાતીના વર્ણ જેવી પ્રભાવાળા છે તેમજ અહીં શબ્દાપાતી નામક મહદ્ધિ યાવત મહાનુભાવશાલી દેવ કે જેની એક પોપમ જેટલી સ્થિતિ છે રહે છે એથી આ પર્વતનું नाम 'शहापाती' मा प्रभाव वामां मारत छ. 'से गं तत्थ चउण्हं सामाणिय साहस्सीणं जाव रायहाणी मंदरस्स पत्रयस्स दाहिण अण्णंमि जंबुढीवे दीवे' य हव त्या પિતાના ચાર હજાર સામાનિક દે વાવત્ ચાર સપરિવાર અગ્નમહિષીઓ, ત્રણ પરિ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ९ क्षेत्रविभाजकपर्वतस्वरूपनिरूपणम् वृत्तवैताढयपर्वतस्य च शब्दापातिन्याश्च राजधान्या अन्येषां च बहूनां शब्दापातिनी राजधानी वास्तत्यानां देवानां देवीनां च आधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तृत्वं महत्तरकत्वम् आज्ञेश्वर सेनापत्यं कारयन् पालयन् महताऽहतनाटयगीतवादित्र तन्त्रीतलताल त्रुटितवनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् भोगयोगान् भुञ्जानो विहरति, क्व खल्लु सदन्त ! शब्दापातिवृत्तवैताढयगिरिकुमारस्य देवस्य शब्दापातिनी नाम" इत्येप सङ्ग्रहः राजधानी प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! देवियोंका आधिपत्य पौरपत्य स्वामित्व, भर्तृत्व, बहत्तरकत्व, तथा आज्ञेश्वर सेनापत्य करता हुजा उसकी-पालना करता हुआ अनेक प्रकारके नाटय गीत आदिके प्रसङ्गों पर बजाये गये भिन्न २ प्रकारके वादिनोंकी तुलध्वनि के साथ दिव्य लोगों को भोगता रहता है और आनन्द के साथ अपने समयको व्यतीत करता रहता है । यावत् मन्दर पर्वतकी दक्षिणदिशाने अन्य जम्बुद्वीप में इस शब्दापाती वृत्त वैतात्य कुमार की शब्दापातिनी नालकी राजधानी है। यहां जो 'शब्दापाती वृत्तवैतात्य' ऐसा कहा गया है तो यह पर्वत् सरतादि क्षेत्रवर्ती वैतादय पर्वत को जैला पूर्व ले पश्चिम तक आयत नहीं है किन्तु गोलाकार है इसी वातको प्रकट करने के लिये 'वृत्त' ऐसा विशेषणपरक पद प्रयुक्त किया है इसी कारण से पूर्व हैमवत और उत्तर हैमवत् ऐले दो विभाग इस क्षेत्र के हो गये हैं। यहां शंका ऐसी होलकती है कि हैमवतू क्षेत्रका विस्तार २१०५५ योजन का कहा गया है और यह शब्दापाती वृत्तवैतात्य पर्वत उसके मध्य में रहा हुआ है तथा इसका विस्तार एक हजार योजल का है तो फिर यह हैमवत क्षेत्रना द्विधा विभाजक कैसे होता है ? उत्तर प्रस्तुत क्षेत्रका विस्तार पूर्व और પદાઓ ઉપર, સાત અનીકે ઉપર સાત અકાધિપતિઓ ઉપર, ૧૬ હજાર આત્મરક્ષક દેવ અને દેવીઓ ઉપર આધિપત્ય, પરિપત્ય, સ્વામિત્વ, ભતૃત્વ, મહત્તરકત્વ તેમજ આશ્વર સેનાપત્ય ધરાવતે તેની પાલન કરાવત, અનેક પ્રકારના નાટ્યગીત વગેરે પ્રસંગે ઉપર વગાડવામાં આવેલા ભિન્ન-ભિન્ન પ્રકારના વાદિના તુમુલ સ્વરના શ્રવણ સાથે દિવ્ય ભેગે ભેગવતે રહે છે. અને આ પ્રમાણે આનંદ પૂર્વક પિતાને સમય પસાર કરે છે. ચાવત્ મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં અન્ય જંબુદ્વીપમાં એ શબ્દાપાતિ વૃત્તવૈતાઢય કુમારની શબ્દાપાતિની નામક રાજધાની છે. અહીં જે “શબ્દાપાતી વૃત્તવૈતાઢય એવું કહેવામાં આવ્યું છે તે આ પર્વત ભરતાદિ ક્ષેત્રવતી વૈતાઢય પર્વતની જેમ પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી આયત નથી પણ ગોળાકાર રૂપમાં છે. એજ વાતને પ્રકટ કરવા માટે “વૃત્ત એવું વિશેષણ પરક પદ પ્રયુક્ત કરવામાં આવેલ છે. એથી જ પૂર્વ હૈમવતુ અને અપર હૈમવત્ એવા બે વિભાગો આ ક્ષેત્રના થઈ ગયા છે. અહીં આ જાતની શંકા ઉત્પન્ન થાય છે કે હૈમવત ક્ષેત્રને વિસ્તાર ૨૧૦૫– એજન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે અને આ શબ્દાપાતી વૃત્તિ વૈતાઢય પર્વત
मावत छ. तर माना
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___ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पश्चिमकी ओर का तो रोहिता और गेहिनांशाहन दो नदियों के द्वारा रुद्ध हुआ है और वीचका जो विस्तार है वह इस पर्वत के द्वारा रुद्ध हुआ है इसलिये नदी रुद्ध क्षेत्र को छोडकर अतिरिक्त क्षेत्र को वह निधा विभक्त करता है ऐसा जानना चाहिये इसी तरहले जितने भी वृत्तवैताढय पर्वत है उन सबके सम्बन्ध मे भी जानलेना चाहिये लाट देश में प्रसिद्ध धान्यरखनेका जो कोष्ठकनुमाकोठी के जैसा-पात्र होता है उसका नाम पल्यंक है अच्छपदके द्वारा उपलक्षण रूप होने के कारण लक्षण आदि पदोका ग्रहण हुआ है पद्मवर वेदिका और वनपण्डका वर्णन चतुर्थ पंचम सूत्रों से जानलेना चाहिये इस पर्वत के नामका कथन जैसा ऋषभकूट के प्रकरणमें 'ऋपभक्ट नाम होने में कहा गया है वैसा ही वह कथन 'ऋषभ कूट' इस शब्दापाती वृत्तवैताढय ऐसा जोडकर करलेना चाहिये वहां के कमलों की प्रभा ऋपभकूट के जैसी है तब कि यहां के कमलादिकों की प्रभा शब्दापाती वृत्तचेताव्य के जैसी है 'जाव विलपंतिसु' में जो यह यावत् शन्द आयाहै उसीसे 'दीर्घिकासु' गुञ्जालिकासु सरम्पङ्क्तिकासु' "सर: सरःपङ्क्तिकासु' इन पदों का ग्रहण हुआ है इन पदों की व्याख्या राजप्रश्नीय सूत्रके ६४ वे सूत्र की व्याख्या में दी गई है अतः वही से इसे जानलेना चाहिये (महिद्धिए जाव महाणुभावे' में जो यावत्पद आया है उससे વિસ્તાર એક હજાર યોજન જેટલું છે તે પછી આ હૈમવત ક્ષેત્રનું દ્વિધા વિભાજન • કેવી રીતે સંભવી શકે તેમ છે?
ઉત્તર–પ્રસ્તુત ક્ષેત્રને વિસ્તાર પૂર્વ અને પશ્ચિમની તરફને તે હિના હિતાંશા એ બે નદીઓ વડે દ્ધ થયેલ છે. અને મધ્યને જે વિસ્તાર છે તે આ પર્વત વડે રુદ્ધ થઈ ગયે છે એથી નદી રુદ્ધ ક્ષેત્રને છોડીને અતિરિત ક્ષેત્રને એ દ્વિધા વિભક્ત કરે છે. એવું જાણવું જોઈએ. આ પ્રમાણે જેટલા વૈતાઢય પર્વતે છે, તે સર્વના સંબંધમાં પણ જાણી લેવું જોઈએ. લાટ દેશમાં પ્રસિદ્ધ ધાન્ય ભરવા માટે જે કેષ્ઠકનુમા-કોઠી જેવું પાત્ર હોય છે. તેનું નામ પલંક છે. અછ પદ વડે ઉપલક્ષણ રૂપ હોવા બદલ ગ્લર્ણ વગેરે પદ ગ્રહણ થયા છે. પદ્વવર વેદિકા અને વનખંડનું વર્ણન ચતુર્થ-૫ ચમ સૂત્રમાંથી જાણી લેવું જોઈએ. એ પર્વતના નામનું કથન જેવું ષભ કૂટ નામ કરણ સંબંધમાં કહેવામાં આવ્યું છે તેવું જ કથન “રષભકૂટ એ શબ્દને સ્થાને “શબ્દાપાતી વૈતાઢય એવું જેડીને સમજી લેવું જોઈએ. ત્યાંના કમળોની પ્રભા અષભકૂટ જેવી છે. न्यारे साडी ना ४भगानी प्रभा शहापाती वृत्तवैतादय रेवी छे. 'जाव विलपतियासु' भारे यावत् ०७४ मावस . तनाथी 'दीपिकामु, गुरजालिकासु, सरपंतिकासु सर सरपंक्तिकासु' थे ५at अडए थया छ. ये पहानी व्याच्या २०१५२नीय सूत्रना ६४ 'भा सूनी व्यायामा ४२वामां आवेदी छ. माटे त्यांथी ४ angी नको. 'महि
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० १० हैमवतवर्षस्य नामार्थनिरूपणम्
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मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन तिर्यगसंख्येयान द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्य अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणेन द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य, अत्र खलु शब्दापातिवृत्तवैतादयगिरिकुमारस्य शब्दापातिनी नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, तस्या आयामादि मानादिकं विजयाराजधानीवत् अष्टमसूत्र तो बोध्यम् || सू० ९ ॥
अथ हैमवतवर्षस्य नामार्थं पृच्छति - 'से केणद्वेणं' इत्यादि ।
मूलम् - सेकेणट्टेणं अंते ! एवं बुच्चइ हेमवए वासे २१, गोयमा ! चुल्लहिमवंत महाहिमवंतेहिं वासहरपव्त्रएहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हेमं दलइ, णिच्चं हेमं दलइत्ता णिच्चं हेमं पगासइ हेमवर य इत्थ देवे महिद्धिए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणटुणं गोयमा ! एवं बुच्चइ हेमवए वासे हेमवए वासे ॥ सू० १०॥
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'महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्य:' इन पदोंका ग्रहण हुआ है इन पदों की व्याख्या अष्टम सूत्र में की गई है 'जाव रायहाणी' में जो यावत्पद् आया है उससे चतसृणां अग्रमहिषीणां तिसृणां परिषदां, सप्तानामनीका नाम् सप्तानामनीकाधिपतीनाम्, षोडशानाम् आत्मरक्षक देवसाहस्त्रीणां ' 'इत्यादि पाठसे लेकर शब्दापातिनी नाम 'यहां तकका पाठ गृहीत हुआ है। शब्दापातिनीनाम की राजधानी मन्दर पर्वतकी दक्षिण दिशामें तिर्यग्लोकवर्ती असंख्यात द्वीप समुद्रोंको पारकरके अन्य जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें दक्षिण दिशाकी और १२ हजार योजन आगे जाने पर आती है इस राजधानी के आयाम आदिका मानादिक 'विजयराजधानी के जैसा ही है यह बात अष्टम सूत्र से जाननी चाहिये ॥ ९ ॥
द्धिए जाव महाणुभावे' भां ? यावत् यह आवे छे. तेनाथी 'महाद्युतिकः, महाबलः महायशाः, महासौख्यः मा यही ग्रहण थया छे. या यहोनी व्याच्या माभां सूत्रमां रेश छे 'जाव रायहाणी' भां ? यावत् यह मावेस छे तेनाथी 'चतसृणां अग्रमहिषीणां, तिसृणां परिपदां, स·तानामनीकानाम् सप्तनामनीकाविपकीनाम् पोडशानाम् आरक्षक देवसाह - स्त्रीणां' इत्याहि पाठथी भांडीने 'शब्दापातिनी नाम' ही सुधीने या संगृहीत थयो छे. શબ્દાપાતિની નામક રાજધાની મન્દર પતની દક્ષિણ દિશામાં તિય ગ્લાઢવતી અસખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રોને પાર કરીને અન્ય જમ્મુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં દક્ષિણ દિશા તરફ ૧૨ હજાર ચૈાજન આગળ ગયા પછી આવે છે. એ રાજધાનીના આયામ વગેરે માનાદિક વિજય रामधानी' छे से वात अष्टम सूत्रभांधी लड़ी सेवी लेहये ॥ सू.८ ॥
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्र ___छाया-केनार्येन भदन्त ! एवमुच्यते-हेमरतं वर्ष वर्गम् ?, गौतम ! क्षुद्रहिमवन्महाहिमवयां वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधातः समवगाढम् नित्यं हेम ददाति नित्यं हेम दत्त्वा नित्यं हेम प्रकाशयति, हैमवतोऽत्र देवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तत् केनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते हैमवतं वर्ष हैमवतं वर्षम् ।। सू० १०॥
टीका-'से केणटेणं भंते' इत्यादि-अथ तदनन्तरम् केन अर्थेन कारणेन एवमुच्यते हैमवत वर्ष वर्षमिति १, भगवानाह-हे गौतम ! क्षुद्रहिमवन्महाहिमवद्भया वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधान द्वयो दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः समवगाद संश्लिष्टम् ततो हिमवतादिदं हैमवतं क्षुद्रहिमव
महाहिमवतोरन्तरालस्थितं क्षेत्रम् ततश्च द्वाभ्यां ताभ्यां यथाक्रमं द्वयो दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः कृतसीमाकमिति तदुभयसम्बन्धि तहर्ष निष्पद्यते, यद्वा-हैमवतं वर्ष नित्यं सततम् कालत्रयेऽपि हेम सुवर्णं ददाति निवासिभ्य आसनाथ समर्पयति तत्र युग्मि मनुष्याणामुपवेशनाद्युप. _ 'से केणटेणं अंते ! एवं वुच्चइ हेमवए वाले २'-इत्यादि
टीकार्थ-'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ हेमवए वासे २' हे भदन्त ! आपने यह हैमवतू क्षेत्र है ऐसा नाम इसका किसकारण से कहा है उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! चुल्लहिमवंत महाहिमवंतेहिं वासहरपन्चएहि दुहओ समवगूढे णिच्चं हेमं दलइ णिच्चं हेमं दलहत्ता णिच्चं हेमं पगासइ' हे गौतम ! यह क्षेत्र क्षुद्राहिमवत्पर्वत और महाहिमवत् पर्वत उन दोनों वर्षधर पर्वतों के चीचमें है इसलिये महाहिमवत्पर्वत की दक्षिणदिशामें और क्षुद्रहिमवत्पर्वत की उत्तर दिशा में होने के कारण उनका सम्बन्धी है ऐसे विचार से हैमवत इस प्रकार के सार्थक नामवाला कहा है तथा वहां के जो युगल मनुष्य हैं वे बैठने आदि के निमित्त हेममय शिलापट्टकों का उपयोग करते हैं इस कारण यह क्षेत्र ही उन्हें इन्हें देता है इस अभिप्राय से 'पिच्चं हेमं दलइ' ऐसा यहां उप
'से येणटेणं भते ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे-२ इत्यादि
Ar:-'से केणठेणं भंते ! एवं चुच्चइ हेमवए वासे-२ मत ! मा५श्री241 भत क्षेत्र छ. मे नाम शा २एथी है-'गोरमा ! चुल्ल हिमवंतमहाहिमवंतेहिं वासहरपन्चएहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हेम दलइ णिच्च हेमं दलइत्ता णिच्चं हेमं पगासइ, હે ગૌતમ! આ ક્ષેત્ર સુદ્રહિમવત પર્વત અને મહાહિમવત પર્વત એ બન્ને વર્ષધર પર્વતના મધ્યભાગમાં છે. એથી મહાહિમવત્ પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં અને શુદ્રહિમવત. પર્વતની ઉત્તર દિશામાં હોવા બદલ આ ક્ષેત્ર તેમના વડે સીમા નિર્ધારિત હેવાથી તેની સાથે સંબંધ ધરાવે છે. એવા વિચારથી હૈમવત આ પ્રકારના સાર્થક નામવાળે કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ ત્યાંના જે યુગલ મનુષ્ય છે તેઓ બેસવા વગેરે માટે હેમમય શિલા પટ્ટને ઉપયોગ કરે છે, એથી આ ક્ષેત્ર જ તેમને એ આપે છે એ અભિપ્રાયથી 'णिच्चं वेमं दलइ' गेमही यारथी वाभा मावस छ तभर युनत मनुष्याने
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १० हैमवतवर्पस्य नामार्थनिरूपणम् भोगे हेममयी शिला उपस्थापयतीति उपचारेण ददातीत्युक्तम् , तथा-नित्यं हेम दवा नित्यं कालत्रयेऽपि हेम प्रकाशयति प्रकटयति ततो हेमनित्य योगिप्रशस्तं वाऽस्त्यस्येति हेमवत हेमवदेव हैमवतम् प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽण् प्रत्ययोऽत्र बोध्यः, अत्र-अस्मिन् हैमवते वर्षे हैमवतो नाम देवःपरिवसति, स कीदृशः ? इत्यादि, महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिका, अत्र यावत्पदेन संग्राह्यानां पदानां सङ्ग्रहोऽर्थश्चाष्टमसूत्राद् वोध्यः, तेन हैमवतदेव युक्तत्वाद् वर्षमिदं हैमवतमिति व्यवहियते, यद्वा-स्वामित्वेन हैमवतोऽस्यास्तीति हैमवतमिति अर्श आदित्वादअत्ययान्तं बोध्यम् इति तत् हैमवतं तेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन हे गौतम ! एवमुच्यते हैंमवतं वर्ष हैमवतं वर्षमिति ॥ सू० १०॥
, अथास्यैवोत्तरतः सीमाकारिणं वर्षधरभूधरं प्रदर्शयितुमाह-'कहिणं भंते' इत्यादि । ___ मूलम्-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णा वासहर पव्वए पण्णते ?, गोयमा ! हरिवालस्स दाहिणेणं हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं पुरथिम लवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णामं वासहरपब्बए पण्णते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे पलियंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए जाव पुढे पञ्चथिमिल्लाए चार से कहदिया है तथा युगल मनुष्यों को सुवर्ण देकर के वह उसी सुवर्ण का प्रकाश करता है सुवर्ण शिला पटकादि रूपने प्रदर्शन करता है-अर्थात् प्रशस्त सुवर्ण-इसके पास है-ऐसा ही मानो अपना प्रशस्त वैभव यह इस रूप से प्रकट करता है परिस्थितियों से भी इसका नाम हैमवत् ऐसा कहा गया है तथा 'हेमवए अ इत्थ देवे महिद्धीए पलिओवमहिइए परिवसइ से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ हेमवए वासे-हेमवएवाले' हैमवत् नाम का देव इसमें रहता है यह हैमवत् देव महद्धिक देव है और पल्योपम को इसकी स्थिति है इस कारण से भी हे गौतम ! इसका नाम हैमवत् ऐसा कह दिया गया है ॥१०॥ સુવર્ણ આપીને તે તેજ સુવર્ણને પ્રકાશ કરે છે, સુવર્ણ શિલાપટ્ટકાદિ રૂપમાં પ્રદર્શન કરે છે અર્થાત્ પ્રશસ્ત સુવર્ણ એની પાસે છે, એ અભિપ્રાયથી જાણે કે એ પિતાને પ્રશસ્ત વૈભવ એ રૂપમાં પ્રકટ ન કરતો હોય. આમ પરિસ્થિતિઓને અનુલક્ષીને પણ मेनु नाम डेभवत' मे वामां आवे छे. तेभर 'हेमवए अ इत्थ देवे महिद्धीए पलिओवमट्टिइए पखिसइ से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ हेमवए वासे हेमवए वासे' હૈમવત નામક દેવ એમાં રહે છે–એ હૈમવત દેવ મહદ્ધિક દેવ છે અને પાપમ
જેટલી એની સ્થિતિ છે. આ કારણથી પણ હે ગૌતમ! એનું નામ “હૈમવત” એવું , કહેવામાં આવેલ છેસૂત્ર ૧૦ |
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जम्बूद्वीपग्रनप्तिसूत्रे कोडीए पञ्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे दो जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णासं जोयणाई उव्वेहेणं चत्तारि जोयणसहस्साइं दोषिण य दसुत्तरे जोयणसए दस य एगणवीसइभाए जोयणस्स विखंभेणं, तस्स वाहा पुरथिमपञ्चत्थिमेणं णव जोयणसहस्साई दोषिण य छावत्तरे जोयणसए णव य एगूणवीसईभाए जोयणस्त अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुटा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुटा पञ्चस्थिमिल्लाए जाव पुट्टा तेवण्णं जोयणसहस्साई णव य एगतीसे जोरणसए छच एगूणवीसइमाए जोयणस्त किंचि विसेसाहिए आयामेणं, तस्त धणुं दाहिणेणं सत्तावण्णं जोयणसहस्लाई दोषिण य तेणउए जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्ल परिक्खेवेणं, रुयगसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे उभओ पासिं दोहिं पउसवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते । महाहिमवंत. स्स णं वासहरएव्वयस्त उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव णाणाविह पंचवण्णेहिं मणीहि य तणेहि य उक्सोहिए जाव आसयंति सयंति य ।सू० ११॥ ___ छाया-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाहिमवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः १, गौतम ! हरिवर्षस्य दक्षिणेन हैमवतस्य वर्पस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन, पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन, अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाहिमवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, प्राचीन प्रतीचीनाऽऽयतः उदीचीन दक्षिणविस्तीर्णः पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः द्विधालवणसमुद्रं स्पृष्टः पौरस्त्यया कोटया यावत् स्पृष्टः पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्र स्पृष्टः द्वे योजनशते ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्चाशतं योजनानि उद्वेधेन, चत्वारि योजनसहस्राणि द्वे च दशोत्तरे योजनशते दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेण, तस्य वाहा पौरस्त्यपश्चिमेन नव योजनसहस्राणि द्वे च द्वा सप्तते योजनशते नव च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य अर्द्धभागं च आयामेन, तस्य जीवा उत्तरेण प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयता द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा पाश्चात्यया यावत् स्पृष्टा त्रिपञ्चाशतं योजनसहस्राणि नव च एकत्रिंशानि योजनशतानि पट् च एकोनविंशतिभागान योजनस्य किञ्चिद्विशेषाधिकान आयामेन, तस्य धनु दक्षिणेन सप्तपञ्चाशते योजनसहस्राणि
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ११ सीमाकारोवर्षधरभूधरनिरूपणम् ९७ द्वे च त्रिनवते योजनशते दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, रुचकसंस्थान संस्थितः सर्वरत्नमयः अच्छ: उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाम्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्तः, महाहिमवतः खलु वर्पधरपर्वतस्य उपरि बहुसमरमणीयो मूमिभागः प्रज्ञप्तः, यावत् नानाविधपञ्चवणः मणिभिश्च तृणैश्च उपशोभितः यावद् आसते शेरते च ॥११॥
टीका-'कहि णं भंते' इत्यादि ! 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते' कुत्र खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाहिमवान् नाम वर्पधरपर्वतः प्रज्ञप्तः? 'गोयमा !' हे गौतम ! 'हरिवासस्स दाहिणेणं हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं पुरथिमलवण समुहस्स पच्चत्थिमेणं पच्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणे, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णामं वासहरपव्यए पण्णत्ते' हरिचर्पस्य दक्षिणेन हैमवतस्य वर्षय उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन, पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्वेन, अत्र खलु जम्बुद्वीपे द्वीपे महाहिमवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः । 'पाईणपडीणायए उदीण दाहिणविच्छिण्णे पलियंकसंठाण
'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाहिलवंतं णाम-इत्यादि
टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाहिलवंते णामं वालहरपचए' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में महाहिमवन् नामका वर्षधर पर्वत कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयमा ! हरिवासस्स दाहिणेणं हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं पुरथिम लवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं पच्चत्थिम लवणसमुद्दरस पुरथिनेणं जम्बुद्दीवे दीवे महाहिमवंतं णामं वासहरपचए पण्णत्ते' हे गौतम ! हरिवर्ष की दक्षिण दिशा में और हैमवत् क्षेत्र की उत्तर दिशा में तथा पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्रकी पश्चिम दिशा में ओर पश्चिम दिग्वर्ती लवणसमुद्रकी पूर्व दिशा में इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीप के भीतर महाहिमवन्त नामका महान सुंदर वर्षधर पर्वत कहा गया है 'पाईण पडी
'कहि णं भंते ! जंबुहीवे दीवे महाहित णाम-इत्यादि
Aथ-सा सूत्रप गौतमे प्रभुन सवी शत प्रश्न ४ छ । 'कहि णं भंते ! जंबुदीवे दीवे महाहिमवते णाम वासाहरपव्वए' 3 महन्त ! ये स्मूदीप नाम दीपमा મહાહમવત નામક વર્ષધર પર્વત કયા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે 'गोयमा ! हरिवासस्स दाहिणेणं हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थणं जम्बुद्दीवे दीवे महाहिमवंतं णाम वासहरपव्वए पण्णत्ते' हे गौतम ! हरिष ना दक्षिण दिशामा भने डेभवत् क्षेत्रमा उत्तर शमi તેમજ પૂર્વ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં અને પશ્ચિમ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં એ જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપમાં મહાહિવત્ત નામક વર્ષધર પર્વત આવેલ छ. 'पाईणपडीणायए' को ५वत पूथी पश्चिम सुधा सांमा छ. 'उदीण दाहिणवित्थिन्ने
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Gavra
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संठिए दुहा लवणसमुद्दे पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए जात्र पुढे पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पंच्चत्थिमिल्लं लवणसमुहं पुढे' प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतः, उदीचीन दक्षिणविस्तीर्णः पल्यङ्क संस्थानसंस्थितो द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः, पौरस्त्यया कोटचा यावत् स्पृष्टः पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टः, 'दो जोयण समाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णासं जोयणाई उव्वेहेणं चत्तारि जोयणसहस्साई दोणि य दमुत्तरे जोयणसए दस य एगुणवीसभाए जोयणस्स विक्खंभेणं' नवरं द्वे योजनशते ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पूर्वोक्त क्षुद्र हिमवद्वर्पधराद् द्विगुणोचचत्वात् पश्चाशद् योजनानि उद्वेवेन भुगतत्वेन, मेरुवर्जसमय क्षेत्रगिरिणां स्वोच्चत्वचतुशेनोद्वेधत्वात्, चत्वारि योजनसहस्राणि द्वे च दशोत्तरे दशाविके योजनशते दश च योजनैकोनविंशतिभागान विष्कम्भेण- विस्तारेण, हैमवतक्षेत्राद द्विगुणस्यात्, अथास्य वाडादि'सूत्रमाह- 'तस्स वाहे ' त्यादि, 'तस्स वाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं पत्र जोयणसहस्लाई दोष्णि गायए' यह पर्वत पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है 'उदीण दाहिणवित्थिन्ने' उत्तर से दक्षिण तक विस्तृत है । (पलियंकसंठाण संठिए) पल्यङ्क का जैसा आकार होता है ठीक इस का भी वैसा ही आकार है 'दुहा लवणसमुदं पुट्टे पुरथिमिल्लाए कोडीए जाव पुट्ठे पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लचणसमुदं पुढे दो जोयणसयाई उहूं उच्चत्तेणं पण्णासं जोयणाई उच्णं चत्तारि जोयणसहस्साई दोण्णिय दसुत्तरे ; जोयणसए दस य एगूणवीस भाए जोयणस्स विक्खंभेणं' यह अपनी पूर्व और पश्चिम दिग्वर्ती दोनों कोटियों से क्रमशः पूर्व दिग्वर्ती लवण समुद्र को और पश्चिम दिग्वर्ती लवण को स्पर्श कर रहा है इस की ऊंचाई दो सौ योजन की है तथा इसका उद्वेध गहराई ५० योजनकी है क्योंकि समय क्षेत्र गत पर्वतों फा उद्वेध मेरु को छोडकर अपनी ऊंचाई के चतुर्थांश 'चौथा भाग' प्रमाण होता है इसका विष्कम्भ ४२१० योजन का है । कयोंकि हैमवत क्षेत्रकी अपेक्षा यह दूना है 'तस्स वाहा पुरस्थितपच्चत्थिमेणं णव जोयणसहस्साइं दोण्णि य तेभन उत्तरथी दृक्षिण सुधी विस्तृत छे. 'पलिअंकसंठाणसंठिए' पर्यो वा भार होय छे, ही माना आहार पशु तेवा ४ छे, 'दुहा लवणसमुदं पुट्ठे पुरत्थिमिल्लाए कोडीए जाव पुट्ठे पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चित्थिमिल्लं लवणसमुद्दं पुट्ठे दो जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णासं जोयणाई उव्वेहेणं चत्तारि जोयणसहस्साईं दोणिय दसुत्तरे जोयणसए दसय एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं' से पोतानी पूर्व भने पश्चिम हिग्वर्ती जन्ने भेटीयोथी उभशः पूर्व દ્વિગ્નતી લવણુ સમુદ્રને સ્પશી રહ્યો છે. એની ઊંચાઇ ખસેા ચેાજન જેટલી છે. તેમજ એની ઊ’ડાઇ (ઉર્દૂધ) ૫૦ ચેાજન જેટલી છે. કેમકે સમય ક્ષેત્રગત પવતાની ઊંડાઈ મેરુને છેડીને પેતાની ઊંંચાઈના ચતુર્થાંશ ( ચતુર્થાં ભગ ) પ્રમાણુ હૈાય છે. આના વિષ્ણુના ૪૧૧૦ રૃટ્ટ એજન જેલે છે. કેમકે હૈમવત ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ દ્વિગુણિત છે,
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ११ सीमाकारीवर्षधरभूधरनिरूपणम् य छावत्तरे जोयणसए णव य एणवीसइभाए जोयणस्स अद्ध भागं च आयामेणं तस्य बाही पौरस्त्यपश्चिमेन-पूर्वपश्चिमदिशि नवयोजनसहस्राणि, नवरं द्वे च द्वासप्तते द्विसप्तत्यधिक योजनशते नव चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य, अर्द्धभागं चायामेन, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरस्थिमिल्लं लवणसमुई पुटा पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुट्टा तेवण्णं जोयणसहस्साई नव य एगतीसे जोयणसए छच्च एगणवीसइभाए जोयणस्स किंचि विसेसाहिए आयामेणं तस्य जीवा उत्तरस्यां दिशि प्राचीन प्रतीचीनायता-पूर्वपश्चिमयो दीर्घा द्विधालवणसमुद्रं स्पृष्टा, पौरस्त्यया कोटया-पूर्वदिग्भवेन. कोणेन पौरत्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा, पाश्चात्यया कोटया पश्चिमं लवणसमुद्रं स्पृष्टा त्रिपञ्चाशतं योजनसहस्राणि नवचैकत्रिंशानि एकत्रिंशत्यधिकानि योजनशतानि, षट्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य किश्चिद् विशेषाधिकान् आयामेन, 'तस्स धणु दाहिणेणं सत्तावणं जोयणसह स्साई दोण्णि य तेणउए जोयणसए दस य एगणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं तस्य धनु दक्षिणेन सप्तपञ्चाशतं योजनसहस्राणि द्वे च त्रिनवते त्रिनवत्यधिके योजनशते दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, 'रुयगसंठाणसंठिए सबरयणामए अच्छे उभी छावत्तरे जोषणसए णव य एगूणवीसहभाए जोयणस्स अद्ध भागं च आयामेणं' इल की वाहा आयाल की अपेक्षा पूर्व पश्चिम में ९२७२ : योजन की एवं आधे योजन की है (तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुई पुट्ठा पुरथिलिल्लाए, कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा पच्चत्थिमिलाए जाव पुट्ठा तेवणं जोयणलहस्साई नव य एगतीसे जोअणलए छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्त किंचि विसेसाहिए) पूर्व दिशा में वह जीवा पूर्व दिग्वर्ती लवण समुद्र से स्पृष्ट है और पश्चिम दिग्वी वह जीवा पश्चिम दिग्वर्ती लवण समुद्र से स्पृष्ट है यह जीवा आयान की अपेक्षा कुछ अधिक ५३९३१ योजन की है 'तस्स धणुं दाहिणेणं सत्तावर्ण जोयणसहस्साई दोषिण य तेणडए जोयण लए दसय एगूणवीसह भाए जोयणस्स परिक्खेवेणं रुथगसंठाणसंठिए 'तस्स वाहा पुरथिमपच्चस्थिमेणं णव जोयणसहस्साइं दोणिय छावत्तरे जोयणसए णव य एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं' सनी पाहा मायामनी अपेक्षा र पाश्चममा ८२७२ र योन तेम अर्धा या क्षी छ. 'तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण पडीणाययो दुहा लत्रणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए, कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुदी पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा तेवणं जोयणसहस्साई नव य एगतीसे जोयणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचि विसेसाहिए आयामेणं' सनी या उत्तरमा पूथी पश्चिम सुधा લાંબી છે. પૂર્વ દિશામાં તે જીવા પૂર્વ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રને સ્પશી રહી છે. તથા પશ્ચિમ દિગ્વતી તે છવા પશ્ચિમ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રને સ્પર્શી રહી છે. એ જવા मायामनी अपेक्षाये ४४४ पधारे ५३६३१ योन सी छे. 'तस्स धणु दाहिणणं
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जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते' रुचकसंस्थानसंस्थितः सर्व रत्नमयोऽच्छा, उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्त:-'महाहिमवंतस्स णं वासहरपव्ययस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' महाहिम वतः खलु वर्षधरपर्वतस्योपरि वहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, भूमिभागवर्णनं पष्ठसूत्रतो बोध्यम् , 'जाव णाणाविह पंचवण्णेहिं मणीहि य तणेहि य उक्सोभिए जाव आसयंति संयंति य' यावत् नानाविधपश्चवर्णैः मणिभिश्च तृणैथोपशोभितो यावदासते शेरते च, तथा यावद् आसत इत्यत्रत्य यावत्पदेन साह्याणां पदानां स सग्रहोऽर्थः पष्ठसूत्रादेव ज्ञेयः ॥सु. ११॥ सव्वरयणामए अच्छे उभओ पासि दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिय वणसंडेहि संपरिक्खित्त' इसका धनुः पृष्ठ दक्षिण दिशा में परिक्षेप की अपेक्षा ५७२९३ १० योजन प्रमाण है रुचक का जैसा संस्थान आकार होता है वैसा ही इसका आकार है यह सर्वात्मना रत्नमय है आकाश और स्फटिक के जैसा यह निर्मल है इसको दोनों ओर दो दो पावरवेदिकाएं है और दो दो वनषण्ड है 'महाहिमवंतस्स णं वासहरपन्चयस्स उपि बहुलमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' महाहिमवान वर्षधर पर्वत के ऊपर का जो भूमिभाग है वह बहुसमरमणीय है 'जाव णाणाविह पंचवण्णेहि मणीहि य तणेहिं य उवलोभिए जा आसयंति सयंति य' यावत् यह अनेक प्रकार के पंचवर्णवाले मणियों से और तृणों से उपशोभित है यावतू यहाँ अनेक देव और देवियां उठती धैठती रहती है और शयन करती रहती हैं । यहां पद्मवर वेदिका और वनपंड का वर्णन पंचम सूत्र से जान लेना चाहिये भूमिभाग का वर्णन छठे सूत्र से और यावत्पद संगृहीत पदों का ग्रहण छठे सूत्र से जाननाचाहिये ।। सू० ११ ।। सत्तावणं जोयणसहस्साई दोणिय तेणउए जोयणसए दसय एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं रुयगसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे उभओ पासिं दोहि परमवरवेइयाहिं य दोहिय वणसंडेहि संपरिक्खित्ते' मेनु धनुः पृष्ठ इक्षिय हशमा परिक्षपनी अपेक्षामे ૫૭૨૯૩ ચેાજન પ્રમાણ છે. રુચકને જેનું સંસ્થાન–આકાર હોય છે તેજ આકાર એને છે. એ સર્વાત્મના રત્નમય છે. આકાશ અને સ્ફટિકવત્ એ નિર્મળ છે. એની બને त२५ पावर हा मा छ भने मध्ये वनमछ. 'महाहिमवतस्स ण वासहरपव्वयस्स उप्पि वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' मडाभिमान् वर्ष ५२ पतन 6५२न २ भूमिमा छ ते मसभरभणीय छे. 'जाव णाणाविहपंचवण्णेहिं मणिहिं च तणेहिं य उवसोभिए जाव आसयंति सयंति य' यावत् मे मनः ॥२॥ पांय पणा मामाथी भने તૃથી ઉપરોભિત છે. યાવત્ અહીં અનેક દેવ અને દેવીઓ ઉઠતી બેસતી રહે છે અને શયન કરતી રહે છે. પદ્મવર વેદિકા અને વાગડનું વર્ણન પંચમ સૂત્રમાંથી જણી લેવું જોઈએ. ભૂમિભાગનું વર્ણન છ સૂત્ર દ્વારા અને યાવત પદ સંગૃહીત દેશનું ગ્રહણ છઠા સૂત્રમાંથી જાણી લેવું જોઈએ, ૧૧ |
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्मदस्वरूपनिरूपणम् अथात्र हुदस्वरूपं दर्शयितुमाह-'महाहिमवंतस्स' इत्यादि ।
मूलम्-महाहिमवंतस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महापउ. मदहे णामं दहे पण्णत्ते, दो जोयणसहस्साई आयामेणं एगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं दस जोयणाइं उब्वेहेणं अच्छे रयणामयकूले एवं आयामविक्खंभविहूणा जा चेव पउमदहस्स बत्तव्बया सा चेव णेयव्वा, पउमप्पसाणं दो जोयणाई अटो जाव महापउमदहवण्णाभाई हिरी य इत्थ देवी जाव पलिओवमद्विइया परिवसइ, से एएणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ, अदुत्तरं च णं गोयमा! महापउमदहस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्ते जण कयाइ णासी ३, तस्ल णं महापउमदहस्स दक्खिजिल्लणं तोरणेणं रोहिया महाणई पवूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंच य एगूणवीलइभाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पवएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दो जोयणसइएणं पवाएणं पक्डइ, रोहियाणं महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता, साणं जिब्भिया जोरणं आयामेणं अद्धतेरसजोय. णाई विखंभेणं कोसं बाहल्लेणं मगरमुहविउटुसंठाणसंठिया सव्ववइ. रामई अच्छा, रोहिया णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे रोहियप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सबीसं जोयणसयं आयामविक्खंभेणं पण्णत्तं तिषिण असीए जोयणसए किंचि विसेसूणं परिवरखेवेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे सो चेव वण्णओ, वइरतले वट्टे समतीरे जाव तोरणा, तस्स णं रोहियप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहियदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं पण्णासं जोयणाई परिणखेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सबवइरामए अच्छे, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, रोहियदीवस्स णं दीवस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पपणत्ते, तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमि
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____ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं सेसं तं चेव पमाणं च अटो य भाणियव्यो। तस्त णं रोहि. यप्पवायकुंडल दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिया महाणई पवूढा समाणी हेमवयं वासं एज्जेमाणी एज्जेमाणी सदावई वट्टवेयद्धपवयं अद्धजोयणेणं असंपत्ता पुरत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी विभयमाणी अट्रावीसाए सलिलासहस्तेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरथिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, रोहिया णं जहा रोहिअंसा तहा पवाहे य मुहे य भाणियव्या इति जाव संपरिक्खित्ता। तस्स णं महापउमदहस्स उत्चरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता महाणई पढा समाणी पंचुतरे जोयणसए पंच एगूणवीसइभाए जोयणस्ल उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दुजोयणलएणं पवाएणं पक्डइ, हरिकंता महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिलिया पण्णता, दो जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विखंभेणं अद्धं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुहविउटसंठाणसंठिया सम्बरयणामई अच्छा, हरिकता णं महाणई जहिं पक्डइ एस्थ णं महं एगे हरिकंतप्पवायकुंडे णाम कुंडे पणत्ते, दोष्णि य बत्ताले जोयणसए आयामविकखंभेणं सत्त य उणटे जोयणसए परिक्खेवेणं अच्छे एवं कुंड वत्तवया नव्या णेयवा जाव तोरणा, तस्स णं हरिकतप्पदायकुंडस्स वहुमज्झदेसमाए एत्थ णं महं एगे हरिकंतदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, बत्तीसं जोषणाई आयामविखंभेणं एगुत्तरं जोयणसयं परिक्खेवेणं दो कोसे ऊलिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेगं जाव संपरिक्खित्ते, वणओ भाणियव्वोत्ति, पमाणं च सणिज्जं च अटो य भाणियो, तस्ल णं हरिकंतप्पवायकुंडस्त उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा समाणी हरिवस्सं वासं एज्जेमाणी एज्जेमाणी वियडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पञ्चत्थाभिमुही आवत्ता
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्मह्रदस्वरूपनिरूपणम् . १०३ समाणी हरिवासं दुहा विभयमाणी विभयमाणी छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दलइत्ता पञ्चस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, हरिकंताणं महाणई पवहे पणवीसं जोयणाइं विक्खंभेणं अद्धजोयणं उव्वेहेणं तयणंतरं च णं मायाए मायाए परिवद्धमाणी २ मुहमूले अद्धा इजाइं जोयणसयाइं विक्खंभेणं पंच जोयणाई उव्वेहेणं, उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता ॥सू० १२॥
छाया-महाहिमवतः खलु बहुमध्यदेशभागः अत्र खलु एको महापद्महूदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः, द्वे योजनसहस्रे आयामेन, एकं योजनसहस्रं विष्कम्भेण, दस योजनानि उद्वेधेन अच्छः रजतमयकूलः, एवमायामविष्कम्भविधूना (विहीना) यैव पाहूदस्य वक्तव्यता सैव नेतव्या, पदमप्रमाणं द्वे योजने, अर्थों यावत् महापद्महूदवर्णाभानि, हीश्चात्र देवी यावत् पल्योपमस्थितिका परिवसति, स एतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते, अथ च खलु गौतम ! महापदमझदस्य शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् यन्न कदाचिन्नासीत् ३, तस्य खलु महापद्महूदस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन रोहिता महानदी प्रव्यूढा सती षोडश पञ्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्च च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महता घटमुखप्रवृत्तकेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेक द्वि योजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, रोहिता खलु महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महती एका जिहिका प्रज्ञप्ता, सा खलु जिहिका योजनमायामेन अर्द्धत्रयोदशयोजनानि विष्कम्भेण क्रोशं बाहल्येन मकरमुख विवृतसंस्थानसंस्थिता सर्वरत्नमयी अच्छा, रोहिता खलु महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं रोहिताप्रपातकुण्डं नामकुण्ड प्रज्ञप्तम् , सविंशति योजनशतम् आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः त्रीणि अशीतानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण दश योजनानि उद्वेधेन अच्छं श्लक्ष्णं स एव वर्णकः, वज्रतलं वृत्तं समतीरं यावत् तोरणाः, तस्य खलु रोहिता प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु महान् एको रोहिता द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, षोडश योजनानि आयामविष्कम्भेण सातिरेकाणि पञ्चाशतं योजनानि परिक्षेपेण द्वौ क्रोशौ उच्छ्रितो जलान्तात् सर्ववज्रमयः अच्छः, स खलु एकया पनवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, रोहिता द्वीपस्य खलु द्वीपस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमि भागः प्रज्ञप्तः, तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिमागस्य वहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु महदेकं भवनं प्रज्ञप्तम् , क्रोशमायामेन शेषं तदेव प्रमाणं च अर्थश्च भणितव्यः । तस्य खलु रोहिताप्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन रोहिता महानदी प्रव्यूढा सती हैमवतं वर्षम् एजमाना २ शब्दापातिनं वृत्तवैताढयपर्वतम् अर्द्धयोजनेन असम्प्राप्ता पौरस्त्याभिमुखी आवृत्ता सती हैमवतं वर्षे द्विधा विभजमाना२ अष्टाविंशत्या सलिलासहः समग्रा अधो जगतीं दलयित्वा पौरस्त्येन लवणसमुद्रं समुपैति, रोहिता खल्लु
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र यथा रोहितांशा तथा प्रवाहे च मुखे च माणितव्येति यावत् संपरिक्षिप्ता । तस्य खल महापद्महूदस्य औत्तराहेण तोरणेन परिकान्ता महानदी प्रव्यूढा सती पोडश पश्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्च च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुख प्रवृत्तकेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेक द्वियोजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, हरिकान्ता महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महती एका जिभिका प्रज्ञप्ता, द्वे योजने आयामेन पञ्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण अर्दै योजनं बाहल्येन मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता सर्वरत्नमयी अच्छा, हरिकान्ता खलु महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं हरिकान्ता प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम्, हे च चत्वारिंशे योजनशते आयामविष्कम्भेण सप्त एकोनपष्टानि योजनशतानि परिक्षेपेण अच्छम् एवं कुण्डवक्तव्यता सर्वा नेतव्या यावत् तोरणा, तस्य खलु हरिकान्ता प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः अत्र खलु महानेको हरिकान्ता द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञातः द्वात्रिंशतं योजनानि आयामविष्कम्भेण एकोत्तरं योजनशतं परिक्षेपेण द्वौ क्रोशावुच्छ्रितो जलान्तात् , सर्वरत्नमयः अच्छ:, स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन यावत् संपरिक्षिप्तः, वर्णको भणितव्य इति, प्रमाणं च शयनीयं च अर्थश्च भणितव्या, तस्य खलु हरिकान्ताप्रपातकुण्डस्य औत्तराहेण तोरणेन यावत् प्रव्यूढा सती हरि वर्षे वर्षम् एजमानार विकटापातिन वृत्तवैताढचं योजनेन असम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती हरिवर्ष द्विधा विभजमाना२ पट् पञ्चाशता सलिलासहसः समग्रा अधो जगती दलयित्वा पश्चिमेन लवणसमुद्रं समुपैति, हरिकान्ता खलु महानदी प्रबहे पश्चविंगति योजनानि विष्कम्भेण अद्धंयोजनमुद्वेधेन तदनन्तरं च खलु मात्रया२ परिवर्द्धमाना२ मुखम्रले अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण पञ्च योजनानि उद्वेधेन, उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पदमवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च बनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता ॥ सू० १२ ॥
टीका-'महाहिमवंतस्स णं' इत्यादि, 'महाहिमवंतस्स णं वहुमज्ञदेसभाए एत्य णं एगे महापउमदहे णाम दहे पण्णत्ते' महाहिमवतः खलु वहमध्यदेशभागः, अत्र खलु एको महापद्महदो नामा ह्रदः प्रज्ञसः, 'दो जोयणसहस्साई आयामेणं एग जोयणसहस्सं विक्खंभेणं
अथ सूत्रकार हूद द्रह का स्वरूप दिखलाते हैं 'महाहिमवंतस्स णं बहुमज्ज्ञदेसभाए एत्थ गं' इत्यादि
टीकार्थ-'महाहिमवंतस्स बहुमज्झदेसभाए' महाहिमन पर्वत के ठीक वीच में 'एगे' एक 'महापउमद्दहे पण्णत्ते' महा पद्मद्रह कहा गया है 'दो जोयण
હવે સૂત્રકાર સુદ-દ્રહનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ કરે છે 'महाहिमवंतस्स णं बहुमज्झदेसभाए इत्यादि ___ 'महाहिमवंतस्सणं बहुमजा देसभाए' भडभिवन्त पवना 18 मध्य भागमा 'एगे' मे 'महापउमद्दद्दे पण्णत्ते' महा ५ मा छ. 'दो जोयणसहस्साई आयामेणं पर्ग
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्महदस्वरूपनिरूपणम् दस जोयणाई उव्वे हेणं अच्छे रययामयकूले एवं आयामविक्खंभविहूणा जा चेव पउमदहस्स वक्तव्यया सा चेव णेयन्ना' द्वे योजनसहने आयामेन, एकं योजनसहस्रं विष्कम्भेन, दश योजनानि उद्वेधेन अच्छः रजतमयक्लः, एक्मायामविष्कम्भविधूता-विहीना यैव पद्महूदस्य वक्तव्यता सैव नेतव्या। 'पउमप्पमाणं दो जोयणाई, अट्ठो जाव महापउमद्दहवण्णाभाई हिरी य इत्थ देवी जाव पलिभोवमहिइया परिवसई' पद्मप्रमाणं द्वे योजने, अर्थों यावद महापद्महद वर्गामानि हीश्चात्र देवी यावत् पल्योपमस्थितिका परिवसति से एएणटेणं गोयमा एवं बुच्चई' स एतेनार्थेन गौतम ! एवशुन्यते, 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! महापउमदहस्स राासए सहस्साई आयामेणं एगंजोयणसहस्सं विखंभेणं दस जोयणाई उन्हेणं अच्छे र पयालय कूटे एवं आयाम दिवस विहणा जा चेव पउमद्दहरस क्त्तव्वया सा चेव णेयव्वा' इसका आयाम दो हजार योजन का है और एक हजार योजन का इसका विष्कंभ है उद्वेध 'गहराई' इसका दस योजन का है यह आकाश
और स्फटिक के जैसा निर्मल है रजतमय इसका कूल है इस तरह आयाम और विष्कंभ को छोडकर बाकी की सब वक्तव्यता यहां पद्मद्रह की वक्तव्यता जैसी ही है ऐसा जानना चाहिये 'पउमप्पमाण दो जोयणाई अहो जाव महापउमदह वण्णाभाई हिरी य इत्थ देवी जाव पलिओवमहिइया परिवसइ, से एएणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चई' इसके बीचमे जो कमल है वह दो योजन का है महापद्महूद्र के वर्ण जैसे अनेक पद्म आदि यहाँ पर है इस कारण हे गौतम ! मैने इसका नाम महापद्म हृद्र ऐसा कहा है इस सम्बन्ध में जो प्रश्न गौतमने किया है वह सब पीछे के प्रकरण में लिखा जा चुका है, अतः वहां से जानलेनाचाहिये -यह बान यहां आगत यावत् शब्द बतलाता है वहां पर ही नामकी देवी रहती
जोयणसहस्सं विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे रययामयफूले एव आयामविक्खंभ . विणा जा चेव पउमद्दहस्स वत्तव्वया सा चेव णेयवा' मान। मायाम में उन्नर योरन
એટલે છે, અને એક હજાર ચેાજન એટલે એને વિશ્કેલ છે. ઊંડાઈ (ઉધ) એની દશ જન જેટલી છે. એ આકાશ અને સ્ફટિકવત્ નિર્મળ છે. એને કૂલ રજતમય છે.. આ પ્રમાણે આયામ અને વિખંભને છોડીને શેષ બધી વક્તવ્યતા અહીં પદ્મદ્રહની વક્તव्यता व १ छ, मे समा नये. 'पउमप्पमाणं दो जोयणाई अट्ठो जाव महापउमदहवण्णाभाई हिरीय इत्थ देवी जाव पलिओवमद्विइया परिवसइ, से एएणट्रेणं गोयमा! શ્વ ગુજ્જ એની મધ્ય ભાગમાં જે કમળ છે તે બે જન જેટલું છે. મહાપમહદના વર્ણ જેવા અનેક પદુમો વગેરે અહીં છે. એથી હે ગૌતમ ! મેં એનું નામ મહાપદમ હદ એવું કહ્યું છે. આ સંબંધમાં જે પ્રશ્ન ૧ * છે તે વિષે ગત પ્રકરણમાં ચર્ચા કરવામાં આવેલી છે. એથી જિજ્ઞાસુઓ : એજ વાત અહીં પ્રયુક્ત થયેલ यावत् श६ ४८ ४२ छे. मीही
છે, યાવતુ એની એક પલ્યોપમ
ज०१४
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे णामधिज्जे पन्नत्ते ज ण कयाइ णासो' अथ च खलु गौतम ! महापद्मदस्य शाश्वतं नामधेय प्रज्ञप्तम् , यन्न कदाचिन्नासीत्३, इदं च प्रायः पमहदसूत्रानुसारेण व्याख्यातव्यम् , अथास्य दक्षिणद्वारान्निःसृतां महानदीं निर्दिशन्नाह-'तस्स णं महापउमदहस्स' तस्य खलु महापद्मदस्य-तस्य पूर्वोक्तस्य खल महापद्मदस्य 'दविखणिल्लेणं तोरणेणं' दाक्षिणात्येन दक्षिणदिग्भवेन तोरणेन 'रोहिया महाणई पबूढा समाणी' रोहिता रोहितानाम्नी महानदी प्रव्यूढा निःसृता सती 'सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंच य एगृणवीसइभाए जोयणस्स' पोडश पश्चोत्तराणि पश्चाधिकानि योजनशतानि पञ्च च एकोनविंशतिभागान जनस्य 'दाहिणाभिमुही पन्चए णं गंता' दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन सह गत्वा 'महया घडमुहपवित्ति एणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दो जोयणसइएणं पवारणं पवडई' महाघटमुखप्रवृत्तकेन महाघटः बृहद्धटस्तस्य यन्मुखं तस्मात् प्रवृत्तिः-निर्गमो यस्य स जलबमूहः स इव महाघटहै यावत् इसकी एक पल्योपमकी स्थिति है 'अदुत्तरं च णं गोयमा! महा पउमदहस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्त ज ण कयाइ णासी३' अथवा-हे गौतम ! महा पद्मद्र ऐसा जो इस इद्र का नाम है वह शाश्वत ही है क्योंकि ऐसा यह नाम इसका पूर्व काल में नहीं था, अब भी ऐसा इसका नाम नहीं हैं भविष्य काल में भी ऐसा इसका नाम नहीं रहेगा-सो ऐसी बात नहीं है पूर्व में भी यही नाम था, वर्तमान में भी यही नाम है और भविष्य काल में भी यही नाम रहेगा अतः इस प्रकार के नाम होने में कोई निमित्त भी नहीं है (तस्सणं महापउमद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पबूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंच य एगृणवीसइ भाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पम्वएणं गंता महया घटमुह पवित्तिएण मुत्तावलि हारसंठिएणं साइरेग दो जोयणसइएणं पवाएणं पवडइ) इस महापशहद की दक्षिणदिग्वर्ती तोरण से रोहितानामकी महानदी निकली है और महाहिह्मवंत पर्वत के उपर वह १६०५, योजन तक दक्षिणामिमुखी होकर वहती रेसी स्थिति छ. 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! महापउमदहस्स सासए णामधिज्जे प. जंण कयाइ णासी' मथवा गौतम! महापमा सव२ माइन नाम छत शाश्वत छ, કેમકે એવું એ નામ એનું પૂર્વકાળમાં નહોતું હમણું પણ એનું નામ નથી. ભવિષ્ય ત્કાળમાં પણ એવું એનું નામ રહેશે નહિ, એવી વાત નથી પણ પૂર્વમાં પણ એજ નામ હતું. વર્તમાનમાં પણ એજ નામ છે અને ભવિષ્યત્કાળમાં પણ એજ નામ રહેશે. એથી मा प्रा२ना नाम भाट ७ निमित्त ५५ नथी. 'तस्सणं महापउमदहस्स दक्विणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पबूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंचय एगूणवीसए भाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दो जोयणसइएणं पवडई' से भडापानी क्षिय पता तथा हिता नाम भला નદી નીકળી છે અને મહાહિમવંત પર્વતની ઉપર તે ૧૬૫ - જન સુધી દક્ષિણ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापनहंदस्वरूपनिरूपणम् ___ १०७ मुखप्रवृत्तिकस्तेन तथा महाघटमुखाग्निःसरजलसमूहवच्छब्दायमानवेगवता प्रपातेनेत्यग्रिमेण सम्बन्धः, मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेक द्वि योजनशतिकेन साधिक योजनशतद्वयप्रमाणेन प्रपातेन निर्झरेण प्रपतति, अथास्याः प्रपततस्थानं प्रदर्शयितुमाह-'रोहिया णं' इत्यादि, 'रोहियाणं महाणई जओ पवडइ एत्य णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता' रोहिता खलु महानदी यतः यस्मात् स्थानात् प्रपतति, अत्र तत्प्रपतनस्थाने खलु एका महती बृहती जिहिका तदाकारवस्तुविशेषः प्रणालिका प्रज्ञप्ता, अथ तस्या जिहिकाया मानाधाह-'सा णं जिभिया' इत्यादि, सा खलु जिबिका-सा अनन्तरोक्ता खल जिविका 'जोयणं आयामेणं अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं' योजनमायामेन अर्द्धत्रयोदश योजनानि-द्वादश योजनानि पूर्णानि त्रयोदशस्य योजनस्यार्द्धम् विष्कम्भेण विस्तारेण, 'कोसं वाहल्लेणं मगरमुहविउठसंठाणसंठिया सव्यवइरामई अच्छा' क्रोशम् एकं क्रोशम् बाहल्येन पिण्डेन, मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता विवृत (व्यात्त) मकरमुखवस्थिता, मूले विवृतस्य पूर्वप्रयोगाईत्वेऽपि परप्रयोगः प्राकृतखात् , सर्ववज्ररत्नमयी-सर्वात्मना वज्ररत्नमयी अच्छेति उपलक्षणतया श्लक्ष्णेत्यादि बोधकम् तत्सङ्ग्रहः सार्थश्चतुर्यसूत्राद् वोध्यः। अथासौं रोहिता महानदी यत्र प्रपतति हुई अपने घरमुख प्रवृत्तिक एवं मुक्तावलिहार तुल्य ऐसे प्रवाह से पर्वत के नीचे रहे हुए रोहित नामके प्रपात कुण्ड में गिरती है पर्वत के ऊपर से नीचे तक गिरनेवाली वह प्रवाह प्रमाण में कुछ अधिक दो सौ योजन का है (रोहिआणमहाणदी जओ पवडइ एत्थणं महं एगा जिन्भिया पण्णत्ता) रोहिता नदी जिस स्थान से उस प्रपात कुण्ड में गिरती है वह एक विशाल जिबिका है (सा गं जिन्भिया जोयणं आयामेणं अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं कोसं चाहल्लेणं मगरमुखविउट्ठसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा) यह जिहिका आयाम में -लम्बाई में-एक योजनकी है तथा एक कोशकी इसकी मोटाई है आकार इसका खले हए मगर के मुह जैसा है यह सर्वात्मना वज्र रत्नमयी है तथा आकाश एवं स्फटिक के जैसी यह निर्मल है (रोहिआणं महामई जहिं पवडइ एत्थ णं ભિસખી થઈનેવહે છે. એ પિતાના ઘટમુખ પ્રવૃત્તિક તેમજ મુક્તાવલિહાર તુલ્ય પ્રવાહથી પર્વતની નીચે આવેલા રહિત નામક પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. પર્વત ઉપરથી નીચે સુધી पडनार ते अवार्ड प्रभामा ४४ वधारे मसे। थापन सा छे. 'रोहिआ णं महावी जओ पवडइ एत्थणं महं एगा निम्भिया पण्णत्ता' लिता नही रे स्थान परथी प्रपात
मां पर छे. ते स्थान से विश ll ३५भां छे. 'सा णं जिन्भिया जोयणं आया. और अनतेरसजोयणाई विक्खंभेणं कोसं बाहल्लेणं मगरमुखविउदृसंठाणसंठिया सव्ववइકામ કwા” એ જિલિંકા આયામ-લંબાઈ-માં-એક એજન જેટલી છે તેમજ એક ગાઉ જેટલી એની મોટાઈ છે એને આકાર ખુલ્લા મગરના મુખ જેવું છે. એ સર્વાત્મના पत्नभया छ तेभर मा. म. टि४ २ निम छे. 'रोहिआणं महाणई जहिं
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अम्लीपप्राप्तिसूत्र तण्कुण्डमाह-रोहिया णं महाणई जहिं पक्डइ एत्थ णं मई पगे रोहियप्पवायकुंडे णाम कुंडे पणत्ते' रोहिता खलु महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं रोहिता-प्रपातकुण्डं नाम कुण्ड प्रज्ञप्तम् , तस्य मानाचाह-'सवीसं' इत्यादि, 'सवीसं-जोयणसयं आयामविक्खंभेणं पण्णत्तं, तिण्णि असीए जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, दस जोयणाई उव्वेहेणं, अच्छे सण्हे सो चेव वण्णओं' सविंशति-विंशतिसहितं योजनशतम् आयामविष्कम्भेण-दैविस्ताराभ्यां प्रज्ञप्तम् , त्रीणि अशीतानि अशीत्यधिकानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेपोनानि किश्चिदधिकन्यूनानि परिक्षेपेण परिधिना दश योजनानि उद्वेधेन भूगतत्वेन अच्छः श्लक्ष्णः स एच वर्णकः पूर्वोक्त एव वर्णनपरपदसमूहो वोध्यः स च २१ पृष्ठोक्त गद्गाप्रपातकुण्डाधिकाराद वोध्यः, तदेवाह-'वइरतले बट्टे समतीरे जाव तोरणा' वज्रतलं-वज्ररत्नमयतलयुक्तम् वृत्तं वर्तुलम् समतीरं समानतटकम् यावत् यावत्पदेन-'रजतमयकूलं वज्रमयपापाणं सुवर्ण शुभ्र रजतमयवालुकाकर वैडूर्यमणि स्फटिक पटलाच्छादितं मुखावतारं सुखोत्तारं नानामणितीर्थ महं एगे रोहियप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते) यह रोहिता नामकी महानदी जहां पर गिरती है वहां पर एक विशाल प्रपातकुण्ड है इसका नाम रोहितप्रपातकुण्ड है (सवीसं जोयणसयं आयामविक्खंभेणं पण्णत्तं तिष्णि असीए जोयणलए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे सौ चेव वण्णओ) यह रोहितप्रपात कुण्ड आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा १२० योजन का है इसका परिक्षेप कुछ कम ३८० योजन का है इसकी गहराई १० योजन की है अच्छ श्लक्ष्ण आदि पदों की व्याख्या गंगाप्रपातकुण्डके वर्णन से जान लेना चाहिये (वहरतले, वटूटे, समतीरे, जाव तोरणा, तस्लणं रोहिअप्प. वायकुण्डस्ल बहुमज्झदेसभाए एत्थणं महं एगे रोहियदीवे णामं दीवे पण्णत्ते) इसका तल भाग वज्ररत्न का बना हुआ है यह गोल है, तीर भाग सम हैनीचा ऊंचा नहीं है यहां यावत् पद से 'रजतमयकूलं, वज्रमयपाषाणं, सुवर्ण पवडइ एत्यण महं एगे रोहियप्पवायकुंडे णाम कुठे पण्णत्ते सशहिता नाम: महानही
જ્યાં પડે છે ત્યાં એક વિશાળ પ્રપાત કુંડ છે. એનું નામ હિત પ્રપાત કુંડ છે. 'सवीस जोयणस आयामत्रिखंभेणं पण्णत्तं तिण्णि असीए जोयणसए किंचिविसेसूणे परिवखेवेणं इस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे सो चेत्र वण्णओ' मा शहित प्रपात આયામ અને વિધ્વંભની અપેક્ષાએ ૧૨૦ એજન જેટલું છે. આને પરિક્ષેપ કંઈક કેમ ૩૮૦ એજન જેટલું છે. એની ઊંડાઈ ૧૦ એજન જેટલી છે. અચ્છ, લક્ષણ વગેરે पहानी व्याच्या विमा अपात हुन नमाथी गणी नम. 'चइरतले, घट्टे, समतीरे जाव तोरणा तस्सणं रोहिअप्पवायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एग रोहियदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' सन ARIL ORन मिमित छ. ये गाण छ. मना तीर मागसम है, यानी या नथी. मही यावत् ५४थी 'रजतमयकूलं वञमयपापाण
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सं० १२ महापद्महदस्वरूपनिरूपणम् १०२ सुबद्धम् आनुपूर्वीसुजातवप्रगम्भीरं शीतलजलं संच्छन्नपत्रविसमृणालं वहूत्पलकुमुदनलिनसुभग सौगन्धिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्रप्रफुल्लकेसरोपचितं पदपदपरिभुज्यमानकमलम् अच्छविमलपथ्यसलिलं पूर्ण परिहस्तभ्रमन्मत्स्य कच्छपानेकशकुनगणमिथुनविचरितशब्दोन्नतिकमधुरस्वरनादितं प्रासादीयं ४, इत्यादि. २१ पृष्ठोक्तानुसारेण बोध्यम् , व्याख्या च तत्सूत्रतो बोध्या, एवं तोरणपर्यन्तं वर्णनीयम् , इत्याह-तोरणाः इति, अधुनाऽस्य द्वीपवत्ताव्यतामाह-'तस्स णं रोहियप्पवायकुंडस्स' तस्य खल रोहिता प्रपातकुण्डस्य 'बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोदियदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' बहुमध्यदेशभागः, अत्र खल महान् एको रोहिता द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः । तस्यायामाचाह-सोलस जोयणाई-आयामविक्खंभेणं' पोडश योजनानि आयामविष्कम्भेण, नवरं गङ्गाद्वीपतो द्विगु. णायामविष्कम्भत्वात् षोडशयोजनप्रमाणोऽयं रोहितो द्वीप इत्यर्थः, 'साइरेगाइं पण्णासं जोयशुभ्ररजतमय बालुकाकस् वैडूर्यमणिस्फटिकपटलाच्छादितं, सुखावतारं सुखोत्तारं, नानामणितीर्थसुबद्धम् आनुपूर्व्यसुजातवगंभीरशीतलजलं, संच्छन्नपत्रविसमृणालं, बहूत्पल कुसुदनलिनसुभगसौगंधिकपुण्डरीकमहापुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्रप्रफुल्लकेसरोपचितं, षटू पदपरिभुज्यमानकमलम्, अच्छविमल. पथ्यसलिलं, पूर्ण, परिहस्त भ्रमन्मत्स्यकच्छपानेकशकुनगणमिथुनविचरित शब्दोन्नतिकमधुरस्वरनादितं, प्रासादीयं ४' इत्यादिरूप से यह पाठ गृहीत हआ है। इन पदों को व्याख्या चतुर्थे सूत्र की व्याख्या करते समय की जाचुकी है। इस तरह का यह सब वर्णन तोरणों के वर्णन तक यहां पर करलेना चाहिये .(तस्स णं रोहिअप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसमाए एत्थ णं महं एगे रोहियदीवे णामं दीये पण्णत्ते) उस रोहितप्रपातकुण्ड के ठीक मध्यभाग में एक विशाल रोहितद्वीपनामका द्वीप कहा गया है (सोलसजोयणाई आयामविक्खंभेणं साइ. रेगाई पण्णासं जोयणाई परिक्खेवेणं दो कोसे असिए जलंताओ सव्ववरामए सुवर्ण शुभ्ररजतमयवालुकाकम्' वैडूर्यमणिस्फटिकपटलाच्छाडितं, सुखावतार सुखोत्तार', नानमणितीर्थसुबद्धं आनुपूर्वसुजातवगंभीरशीतल जलं, संच्छन्न पत्र विसमृणालं, बहूत्पलकुमुद नलिन सुभग सौगंधिक पुण्डरीक, महापुण्डरीक शतपत्र, सहस्रपन्न प्रफुल्लकेसरोपचित षट्पदपरिभुज्यमानकमलम्, अच्छविमलपथ्यसलिलं, पूर्ण, परिहस्तभ्रमन्मत्स्यकच्छपानेक शकुनगणमिथुनविचरितशब्दोन्नतिकमधुरस्वरनादितं प्रासादीयं ४' १२ ३५ मे पा सलीत થયો છે. એ પદની વ્યાખ્યા ચતુર્થ સૂત્રમાં કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે म! मधु वर्णन तारना वर्णन सुभी गरी ४श से नये. 'तस्स ण रोहिअप्पवायकुंडस्स बहुमझदेसभाए एत्थर्ण मह एगे राहिरदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' ते शखित प्रपात
उना 18 मध्यभागमा ४ सुविशारीडितद्वा५ नाम दी५ मा छे. 'सोलस जोयणाई आयामविक्ख भेणं साइरेगाई पण्णासं जोयणाई परिक्खेवेणं दो कोसे असिए जलंक
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जम्बूद्वीपममप्तिसूत्र णाई परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सब्यवइरामए अच्छे' सातिरेकाणि पश्चाशतं योजनानि परिक्षेपेण, द्वौ क्रोशौ उच्छितो जलान्तात् सर्ववन्नमयोऽच्छा, 'से णं एगाए पउ. मवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सचओ समंता संपरिक्खित्ते' स खलु एकया पद्मयरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, 'रोहियदीवस्स णं दीवस्स उप्पि वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते' रोहिता द्वीपस्य खलु द्वीपस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रजप्तः, 'तस्स णं बहुसमरमणिज्जम्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते' तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य वहुमध्यदेशभागे यत्र खलु महदेकं भवनं प्रज्ञप्तम् , 'कोसं आयामेणं सेसं तं चेव पमाणं च अट्टो य भाणियो ' शेपं तदेव पूर्वोक्तमेव प्रमाणं तच्च अर्धक्रोशम् विष्कम्भेण, देशोनक्रोशमुच्चत्वेनेति च शब्दात् रोहिता देवी शयनादि वर्णकोऽपि भणितव्यः, च पुनः अर्थः-रोहिता द्वोपनामकारणम् , अच्छे) यह द्वीप आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा से १६ योजन का है कुछ अधिक ५० योजन का इसका परिक्षेप है यह जल से दो कोस ऊपर उठा हुआ है यह सर्वात्मना वनमय है आकाश और स्फटिक के जैसा यह निर्मल है (से णं एगाए पउमवरवेड्याए एगेण य वणसंडेणं सचओ समंता संपरिक्खित्ते) यह एक पद्मवरवेदिका से और एक वनषण्ड से चारों ओर से अच्छी तरह घिरा हुआ है (रोहियदोवस्स णं दीवस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) इस रोहित द्वीप के ऊपर का जो भूमिभाग है वह बहुसमरमणीय कहा गया है (तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं महं एगे भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं सेसं तं चेव पमाणंच अहोय भाणियन्वो) उस बहसमरमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल भवन कहा गया है यह आयाम की अपेक्षा एक कोश का है विष्कम्भ की अपेक्षा आधे कोशका है कुछ कम एककोश की इसकी ऊंचाई है इत्यादि रूप से यहां और भी सब ताओ सव्ववइरामए अच्छे से दी५ मायाम सन १४ सनी अपेक्षाये १६ यौन सा छे. કંઈક અધિક ૫૦ જન એટલે આનો પરિક્ષેપ છે. એ પાણીથી બે ગાઉ ઉપર ઉઠેલો 'छ. सर्वात्मना पत्रमय छे. माश भने ५४ वा निम छ. 'से गं एगाए पउवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खिते' मे मे पत२ alथी भने म पनम'3थी याम२ सारी रीत परिकृत छ. 'रोहियदीवस्स णं दीवस्स उप्पिं बहु समरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' मा शाहत दीपनी ५२ने २ भूमिला छे तमसमरमणीय ४पामा मावत छ. 'तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्थणं मह एगे भवणे पण्णत्तं, कोसं आयामेणं सेस त चेव पमाणं च अटो य भाणिकच्यो' તે બહુ સમરમણીય ભૂમિભાગના ઠીક મધ્યભાગમાં એક વિશાળ ભવન આવેલ છે. એ આયામની અપેક્ષાએ એક ગાઉ જેટલું છે. એ આયામની અપેક્ષાએ એ ભવન અર્ધા ગાઉ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्महदस्वरूपनिरूपणम् भणितव्यः वक्तव्यः । अथास्या रोहिताया लवणसमुद्रगमनप्रकारमाह-'तस्स गं' इत्यादि, 'तस्स णं रोहियप्पवायकुंडस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं' तस्य खलु रोहिता प्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन-बहिरेण 'रोहिया महाणई पढा समाणी' रोहिता महानदी प्रव्यूढा-निःसृता सती 'हेमवयं वासं एज्जेमाणी२' हैमवतं वर्षे प्रति एजमाना२-आगच्छ. न्ती२ 'सहावइवट्टवेयद्धपव्वयं' शब्दापातिनं शब्दापातिनामानं वृत्तवैताढयपर्वतम् 'अद्ध जोयणेणं' अर्धयोजनेन-क्रोशद्वयेन 'असंपत्ता' असम्प्राप्ता असंस्पृष्टा दूरस्थितेत्यर्थः, 'पुर: स्थाभिमुही' पूर्वाभिमुखी 'आवत्ता समाणी हेमक्यं वासं दुहा विभयमाणी विभयमाणी' आवृत्ता-परावृत्ता सती हैमवतं तन्नामकं वर्ष द्विधा विभजमाना२ द्विभागं कुर्वाणार 'अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा' अष्टाविंशत्या-अष्टाविंशति संख्यकैः सलिलासहस्रः-महानदी सहस्रैः समग्रा सम्पूर्णा भरतनद्यपेक्षया द्विगुणनदीपरिवृतत्वात् , 'अहे जगई' अध:अधोभागे जगतीं जम्बूद्वीपभूमि 'दालइत्ता पुरस्थिमेणं' दारयित्वा भित्वा पौरस्त्येन पूर्वभागेन 'लवणसमुदं समप्पेइ' लवणसमुद्रं समुपैति प्रविशति, 'रोहियाण' इयं रोहिता खलु वर्णन जैसा तीसरे सूत्र में किया गया है वैसा ही यहां पर करलेना चाहिये (तस्स णं रोहियप्पवायकुण्डस्स दाक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिया महाणई पवूढा समाणी हेमवयवासं एज्जेमाणी २ सद्दावई बटवेअद्धपवयं अद्धजोयणेणं असंपत्ता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वालं दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दालहत्ता पुरथिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ) उस रोहित प्रापातकुण्डकी दक्षिण दिशा के तोरण से रोहिता नामकी महानदी निकली है वह हैमवत क्षेत्रकी ओर आती २ शब्दापाती वृत्तवैताव्य पर्वत से दो कोश दूर रहकर फिर वहां से वह पूर्वदिशा की ओर लौटती है
और हैमवत क्षेत्र को दो विभागों में विभक्त करती हुई २८ हजार परिवार भ्रत नदियों से युक्त होकर जम्बूद्वीप की जगती को भेदती हुई पूर्व लवण समुद्र में मिलती है (रोहिआणं जहा रोहिअंसा) रोहितांशा महानदी के वर्णन के જેટલું છે કંઈક કમ એક ગાઉ જેટલી એની ઊંચાઈ છે વગેરે રૂપમાં અહી શેષ , पणन बी सूत्र भुराम सभा
मे. 'तरस णं रोहियप्पवायकुण्डस्स दखिजिल्लेणं तोरणेणं रोहिया महाणई पवूढा समाणी हेमवयवासं एज्जेमाणीर सद्दावई वट्टवेअद्ध'पव्वयं अद्धजोयणेणं असंपत्ता पुरत्थोभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरथिमेणं लवणसमुदं समपेइ' रित प्रपात उनी क्ष हिशान तारणाथी हित नाम महा नही नाणे છે. તે નદી હૈમવત ક્ષેત્ર તરફ પ્રવાહિત થતી શદાપાતી વૃત્ત વિતાઢય પર્વતથી બે ગાઉ દૂર રહીને પછી ત્યાંથી તે પૂર્વ દિશા તરફ પાછી ફરે છે. અને તે હૈમવત ક્ષેત્રને બે વિભાગમાં વિભક્ત કરતી ૨૮ હજાર પરિવાર ભૂત નદીઓથી યુક્ત થઈને જંબૂद्वीपनी ती हित ४२ती पूर्व सण समुद्रमा भणे छे. 'रोहिआणं जहा रोहिअंसा'
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे महानदी 'जहा रोहियंसा' यथा-येन प्रकारेण आणमादिना रोहितांशा गहानदी वर्णिता 'तहा पवाहे य मुहे य भाणियव्या' तथा तेन प्रकारेण प्रवाहे निर्गये च पुनः मुखे समुद्रप्रवेशे च भणितव्या वर्णनीया, इति एतद्वर्णनं किम्पयन्तम् ? इत्याह-'जाव संपरिलिखता' यावत् संपरिक्षिप्तेति-तथाहि-रोहिता खलु प्रवहे अर्द्ध त्रयोदश योजनानि विष्कम्भेण, क्रोशमुद्वेधेन तदनन्तरं च खलु मात्रया२ परिवर्धमाना२ मूखमूले पञ्चविंश योजनशतं, विष्कम्गेण अर्धतृतीयानि योजनानि उद्वेधेन उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्तेति वर्णनं रोहितांशा महानद्यधिकाराबोध्यम् ,
अथ हरिकान्ता नदीवक्तव्यतामाह-'तस्स णं महापउमदहस्स' इत्यादि तस्य खलु महापद्महृदस्य 'उत्तरेणं तोरणेणं' औत्तरेण तोरणेन बहिरेण 'हरिकंता महाई पवुढा समाणी जैसा ही इस नदी के आयाम आदि का वर्णन है इसलिये-(पदाहेअखेअभा. णियवा) प्रवाह-निर्गम-में और मुख समुद्र प्रवेश में-जैसा कथन-'जाव संपरिक्खित्ता' इस पाठ तक रोहितांशा के प्रकरण में किया गया है वह सब कथन यहां पर भी जानलेना चाहिये-जैसे-'रोहिता प्रवह में-द्रह निर्गम में-विष्कम्भ की अपेक्षा १२॥ योजन हैं और उद्वेध की अपेक्षा १ कोशकी है इसके याद थोडी २ बढती हुइ वह मुखमूलमे १२५ योजन के विष्कम्भवाली हो गइ है और २.। योजन प्रमाण :उद्वेधवाली हो गई है । तथा यह दोनों पार्श्व भाग में दो पदमवरवेदिकाओं से एवं दो वनषण्डों से घिरी हुई है ऐसा यह वर्णन रोहितांश महानदी के अधिकार से जानलेना चाहिये।
हरिकान्तानदीवक्तव्यता (तस्स णं महापउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता महाणई पबूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंचय एगूणवीसइभाए जोयणस्स उत्तराभिહિતાંશા મહાનદીના વર્ણન જેવું જ એ મહા નદીના આયામ વગેરેનું વર્ણન છે. मेथी 'पवाहेअमुखे अ भाणियव्वा' प्रवाह-निगममा मन भुम समुद्र प्रवेशमा रे ४थन-जाव संपरिक्खित्ता' मा 48 सुधी शहितांशन ४२मा वामां मावस छ, ते બધું કથન અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ. જેમકે રેહિતા પ્રવાહમાં-દ્રહ નિર્ગમમાંવિષ્ક્રભની અપેક્ષાએ તે ૧૨ એજન છે અને ઉધની અપેક્ષાએ ૧ ગાઉ પ્રમાણ છે. ત્યાર બાદ સ્વલ્પ પ્રમાણમાં અભિવદ્ધિત થતી તે સુખ મૂળમાં ૧૨૫ પેજન જેટલા વિધ્વંભવાળી થઈ ગઈ છે. અને રા જન પ્રમાણ ઉધવાળી થઈ ગઈ છે. તેમજ એ અને પાશ્વ ભાગમાં બે પદ્મવર વેદિકાઓથી તેમજ બે વનખડોથી આવૃત છે. એવું આ વર્ણન હિતાંશ મહાનદીના અધિકારમાંથી જાણી લેવું જોઈએ.
હરિકાન્તા નદી વક્તવ્યતા 'तम्सणं महापउमद्दहरस उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता महाणई पवूढा समाणी सोलस
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्मह्रदस्वरूपनिरूपणम्
११३ सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंच य एग्णवीसहभाए जोयणस्स उत्तराभिमुही पधएणं गंता महया घडगुहब्बत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दुजोयणसइएणं पवारणं पवडइ' हरिकान्ता महानदी प्रव्यूढा सती पोडशपश्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्च च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य उत्तराभिमुखीपर्वतेन गत्वा महापटमुखप्रवृत्तकेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेक द्वि योजनशतिकेन प्रपातेन-प्रवाहेण प्रपतति, 'हरिकता महाणई-जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिन्मिया पन्नत्ता, दो जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं अद्धं जोयणं वाहल्लेणं मगरमुडविउट्ठसठाणसंठिया सचरयणामई अच्छा' हरिकान्ता महानदी यतः प्रपतति, अत्र खल्लु महती एका जिदिका-तदाकार वरतुविशेषः प्रज्ञप्ता, द्वे योजने आयामेन पञ्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण, अर्द्ध योजनं वाहल्येन, मकरमुख विवृतसंस्थानसंस्थिता सर्वरत्नमयी मुही पव्वएणं गंता महया घटमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दु जोयणसइएणं पवारण पवडइ) उस महापद्भद्रह के उत्तरदिग्वर्ती तोरण द्वारसे हरिकान्ता नामकी महानदी निकली है यह नदी १६०५, योजन पर्वत के ऊपर से उत्तर की ओर जाकर वडे जोर शोरके साथ अपने घट के सुख से विनिर्गत जल प्रवाह के तुल्य प्रवाह से कि जिसका आकार मुक्तावलि के हारके जैसा है
और जो कुछ अधिक दो सौ योजन प्रमाणपरिमित है हरिकान्तपातकुण्ड में गिरती हैं (हरिकता महाणई जमओ पवडई-एत्थ णं एगा महं जिमिआ पणत्ता) यह हरिकान्ता महानदी जहां से हरिकान्तप्रपातकुण्डमें गिरती है वहां एक बहुत बडी ज़िहिका-नाली है-(दोजोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विखं. भेणं अद्धं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुहविउडसंठाणसंठिया, सन्दरयणामई अच्छा) यह जिहिका आयामकी अपेक्षा दो योजन की है और विष्कम्भ की अपेक्षा २५ योजन की है इसका बाहल्य २ कोशका है। खुले हुए मगर मुखका पंचुत्तरे जोयणसए पंचय एगूणवीसइभाए जोयणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घट मुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दु जोअणसइएण पवाएणं पवडई ते महा પદ્મદ્રહ ઉત્તરદિગ્વતી તારણ ક રથી હરિકાન્ત નામક મહાનદી નીકળે છે. આ નદી ૧૯૦૫
આ જમ પર્વત ઉપરથી ઉત્તરની તરફ જઈને ખૂબ જ વેગ સાથે પિતાના ઘટમુખથી વિનિર્ગત જલ પ્રવાહ તુલ્ય જ પ્રવાહથી-કે જેને આકાર મુક્તાવલિના હાર જેવો હોય છે અને જે કંઈક અધિક બસે જન પ્રમાણ પરિમિત છે.-હરિકાન્ત પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. 'हरिकता महाणई जओ पवडइ एत्थणं एगा महं जिभिआ पण्णत्ता' मा रिता महा નદી જ્યાંથી હરિકાન્તા પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. ત્યાંથી એક વિશાળ જિહિક-નાલિક છે. 'दो जोयणाई आयामेणं पणधीसं जोयणाई विक्खंभेणं अद्धं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुहवि. उटुसंठाणसंठिया, सव्वरयणामई अच्छा' मे rlast मायामनी अपेक्षाये में योगन જેટલી છે અને વિષ્ઠભની અપેક્ષાએ ૨૫ જન જેટલી છે. એને બાહલ્ય બે ગાઉ
ज०१५
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
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अच्छा, 'हरिकंता णं महाणई जहिं पवड' हरिकान्ता खलु महानदी यत्र प्रपतति, 'एत्थ णं महं एगे हरिकंतप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते' अत्र खलु महदेकं हरिकान्ता प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञतम्, 'दोणि य चत्ताले जोयणसए आयामविक्खंभेणं सत्त य उणट्ठे जोयणसए परिवखेवेण' चत्वारिंशे चत्वारिंशदधिके द्वे च योजनशते आयामविष्कम्भेण- दैर्घ्यविस्ताराभ्याम्, एकोनपष्टानि - एकोनषष्ट्यधिकानि सप्तयोजनशतानि परिक्षेपेण, 'अच्छे एवं कुंडवत्तच्वया सव्वा नेयव्वा जाव तोरणा ' अच्छम् एवं कुण्डव कव्यता सर्वा नेतव्या यावत् तोरणाः, 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुडस्स बहुमज्झ देसभाए एत्थ णं महं एगे रिकंतदीवे णामं दीवे पन्नत्ते' तस्य खलु हरिकान्ता प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र खल महान एको हरिकान्ता द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः 'वत्तीसं जोयणाई आयामचिक्खंभेण एगुत्तरं जोयणसयं जैसा आकार होता है वैसा ही इसका आकार है । यह सा रत्नमयी है तथा आकाश और स्फटिक के जैसी निर्मल है । (हरिकंताणं महाणई जहिं पवडड् एत्थ महंगे हरिकं पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते) हरिकान्त नामकी यह महानदी जहां पर गिरती है वहां पर एक विशाल हरिकान्त प्रपातकुण्डनामका कुण्ड है ( दोण्णिय चत्ताले जोयणसए आयामविक्खं मेणं सत्तअउणट्टे जोयणसए परिक्खेवेणं अच्छे एवं कुंडवत्तवया सव्वा णेया जाव तोरणा) यह कुण्ड आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा दो सो चालीस योजन का है तथा इसका परिक्षेप ७५९ योजनका है । यह कुण्ड आकाश और स्फटिक के जैसा बिलकुल निर्मल है । यहां पर कुण्ड के सम्बन्ध की पूरीवक्तव्यता तोरण के कथन तक की कहलेनी चाहिये (तस्सणं हरिकंतप्पवायकुंडस्स बहुमज्प्रदेसभाए एत्थ णं महंगे हरिकंतदीवे णामं दीवे प.) उस हरिकान्त प्रपात कुण्ड के ठीक बीच में एक विशाल हरिकान्त द्वीप नामक द्वीप कहा गया है । (बत्तीसं जोयणाई જેટલા છે. ખુલ્લા મુખવાળા મગરના જેવા આકાર આને છે. એ સર્વાત્મના રત્નમયી छे भन्न आश भने टिठवत् मेनी निर्भांति छे. 'हरिकंताणं महाणई जहिं पवडइ एत्थणं महं एगे हरिकंतप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते' (रिक्षन्त नाम से भहानही त्यां पडे छे त्यां श्रेष्ठ विशाण हरिान्त प्रपात कुंड नाभः झुंड छे 'दोण्णिय चत्ताले जोयणसए आयमविक्खंभेणं सत्तअउट्टे जोयणसए परिक्खेवेणं अच्छे एवं कुंडबत्तव्वया सव्वा णेया जा तोरणा' थे 3 आयाम भने विष्ठलनी अपेक्षा असो यासीस योजन नेटसेो તેમજ આના પરિક્ષેપ ૭પટ્ટુ ચેાજન જેટલે છે. એ કુંડ આકાશ અને સ્ફટિકન્નત્ એકદમ નિર્માંળ છે અહીં કુંડ સંબધી પૂરી વક્તવ્યતા તારણાના કથન સુધીની અધ્યકૃત કરી લેવી જોઈએ. 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुं डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं महंगे हरिकंतदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' ते हरित प्रभात मुंडना ही मध्य लगभां श्रेष्ठ दिशा हरिभन्त द्वीप नाभः द्वीप आवे छे. 'बत्तीसं जोयणाई आयामविक्खंभेणं एगुत्तरं जोयणस
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्महदस्वरूपनिरूपणम् परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे' द्वात्रिशतं योजनानि आयामविष्कम्भेण, एकोत्तरं योजनशतं परिक्षेपेण, द्वौ क्रोशौ उच्छ्रितो जलान्तात्, सर्वरत्नमयोऽच्छा, 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खित्ते वण्णओ भाणियव्यो त्ति' स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन यावत् सम्परिक्षिप्तः वर्णको भणितव्य इति, 'पमाणं च सयणिज्जं च अट्ठोय भाणियब्यो' प्रमाणश्च शयनीयश्च अर्थश्च भणितव्यः। 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा समाणी हरिवस्सं वासं एजमाणी २ वियडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चस्थाभिमुही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहाविभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्से हिं समग्गा अहे जगई दलइत्ता पच्चआयामविखंभेणं एगुत्तरं जोयणसयं परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिये जलंताओ सम्बरयणामए, अच्छे) यह द्रोप आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा ३२ योजन का है १०१ योजन का इसका परिक्षेप है तथा यह जल के ऊपर से दो कोशतक ऊंचा उठा है सर्वात्मना यह रत्नमय है और आकाश एवं स्फटिक के जैसा निर्मल है (सेणं एगाए पउमवरवेड्याए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खित्ते) यह एक पद्मवर वेदिकासे और एक वनषण्डसे चारों ओर से घिरा हुआ है (वण्णओ भाणिअव्वोत्ति) यहां पर पद्मवर वेदिका और वनषण्डका वर्णन करलेना चाहिये (पमाणं च सयणिज्जं च अट्ठोय भाणियव्यो) तथा हरिकान्त द्वीपका प्रमाण, शयनीय एवं इस प्रकार के इसके नाम होने के कारण रूप अर्थ का भी वर्णन करलेना चाहिये (तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा समाणी हरिवस्सं वासं एज्जमाणी २ विअडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चत्थाभिमुही आवत्तासमाणी हरिवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दलइता पच्चत्थिमेणं लवण. समुई समप्पेइ) उस हरिकान्त प्रपातकुण्ड के उत्तरदिग्वर्ती तोरण द्वार से यावत् परिक्खेवेणं दो कोसे असिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे से बीय मायाम मावि ભની અપેક્ષાએ ૩૨ જન જેટલું છે. ૧૦૧ જન જેટલો આને પરિક્ષેપ છે તેમજ એ પાણીની ઉપરથી બસે ગાઉ ઊંચે છે. એ સર્વાત્મના રત્નમય છે અને આકાશ તેમજ ११ वी येनी निमन्ति छ. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खिते' को मे ५१२ हाथी मन मे वनथी यामेर माटत छ. 'वण्णओ भाणिअव्वोत्ति' मी पनव२ ३६ मने वनमनु वन समय से नये. 'पमाणं च सयणिज च अट्ठोय भाणियचो तेमा Reld द्वीपनु प्रम शयनीय तभर मा प्रमाणे । मेनु नाम ४२४ विष ५ गडी स्पष्टता ४३ वा नये. 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा समाणी हरिवस्सं वास एज्जमाणी २ विअडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चत्वाभिमूही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहा विभय
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जम्बूद्वीपप्रतिसूत्र थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ' तस्य खलु हरिकान्ता प्रपातकुण्डस्य औनराहेण तोरणेन यावत् प्रव्यूढा सति हरिवर्पम् वर्षम् एजमाना २ विकटापातिनं वृत्तवैतादयं योजनेन असंप्राप्ता पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती हरिवर्ष द्विधा विभजमाना २ पट् पञ्चाशता सलिलासहसः समग्रा अधो जगतीं दलयित्वा पश्चिमेन लवणसमुद्रं समुपैति, अधुना हरिकान्ता महानद्याः प्रवहादिमानं प्रदर्शयितुमाह-हरिकंता णं महाणई' इत्यादि हरिकान्ता खलु महानदी 'पबहे पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं' प्रबहे हृदनिर्गमे पञ्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण, 'बद्ध जोयणं उन्हेणं' अर्द्धयोजनमुद्वेधेन भूगतत्वेन, 'तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहमूले भद्धाइज्नई जोयणसयाई विक्खंभेणं पंचजोयणाई उव्वेहेणं, उभओ पासिं दोहि पउमवरवेइयाहिं दोहिं य वणसंडेहि संपरिक्सित्ता' तदनन्तरं च मात्रया २ क्रमेण २ प्रति योजनं समुदितयोरुभयोः पार्श्वयोः चत्वारिंशद्धनुर्वृद्धया प्रतिपाय धनुर्विंशति वृद्धयेत्यर्थः, निकलती हुई यह महानदी हरिवर्प क्षेत्र में बहती वहती, विकटापाती वृत्तवैताढययर्यत को १ योजन दूर पर छोडकर वहां से पश्चिम की ओर मुडती, हरिवर्ष क्षेत्र को दो विभागों में विभक्त करके ५६ हजार नदियों के परिवार के साथ, जम्बूद्वीप की जगती को नीचे से ध्वस्त करके पश्चिमदिग्वीलवणसमुद्र में जा मिली है। (हरिकता णं महाणई पवहे पणवीसं जोयणाई विक्खंभेगं, आद्धजोधणं उन्हेणं तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्वमाणी २ मुहमूले अद्धाइजाई जोग्रणसयाई विक्कंभेण पंच जोयणाई उज्वेहेणं उभओ पासिं दोहिं पउम वरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खिता) हरिकान्ता महानदी प्रवह में-द्रह निर्गम में-विष्कम्भ की अपेक्षा २५ योजन की उडेध (गहराई) की अपेक्षा अधे योजन की-दो कोश की है इसके बाद वह क्रमशः प्रति पार्श्व में२०-२० धनुष की वृद्धि से बढती २ समुद्र प्रवेशस्थान में २५० सौ योजन प्रमाण विष्कम्भमणी २ छप्पण्णाए सलिल सहस्सेहिं समगा अहे जगई दलइत्तो पच्चत्थिमेणं लवणसमुहं समप्पेई' ते Rsird प्र५त जुना उत्तर हिवती तर दारथी यावत् inती मे મહાનદી હરિવર્ષ ક્ષેત્રમાં પ્રવાહિત થતી વિકટાપાતી વૃત્ત વૈતાઢય પર્વતને એક એજન દૂર છેડીને ત્યાંથી પશ્ચિમ તરફ વળીને હરિવર્ષ ક્ષેત્રને બે વિભાગમાં વિભક્ત કરીને પ૬ હજાર નદીઓના પરિવાર સાથે જંબુદ્વીપની જગતીને દીવાલને નીચેથી વસ્ત કરીને पश्चिम हियता समुद्रमा प्रविष्ट थाय छे. 'हरिकंताणं महाणई पवहे पणवीस जोयणाई विक्ख भेगं अद्धजोयणं उब्वेहेणं तयणतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहमूले अद्धाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं पंचजोयणाई उन्वेहेण उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइ थाहिं दोहिय वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता' रिशता भला नही हनिर्गममा वि०४मना અપેક્ષાએ ૨૫ જન જેટલી ઊંડાઈ ઉધની અપેક્ષાએ અધ જન જેટલી એટલે કે બે હાઉ છે. ત્યાર બાદ તે ક્રમશઃ પ્રતિપાશ્વમાં ૨૦, ૨૦, ધનુષ જેટલી અભિવૃધિત થતી
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कार: सू० १३ हैमवत्यर्पधर पर्वतवर्तिकूटनिरूपणम्
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परिवर्द्धमाना २ मुखमूले समुद्रप्रवेशे अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण विस्तारेण पञ्श्चयोजनानि उद्वेधेन भूगतत्वेन, उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवर वेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च 'वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता - परिवेष्टिता | | ०१२ ॥
अथ हिमवद्वर्षघर पर्वतवर्ति कूटवक्तव्यमाह - 'महाहिमवंते णं' इत्यादि ।
मूलपू - महाहिमवंते णं भंते! वासहरपव्वए कइकूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ट कूडा पण्णत्ता, तं जहा- सिद्धाययणकूडे ? महाहिमवंतकूडे २ हेमकूडे ३ रोहियकूडे ४ हिरिकूडे ५ हरिकंतकूडे ६ हरिवासकूडे ७ वेरुलियकूडे ८, एवं चुल्लहिमवंत कूडाणं जा चैव वत्तवया सा चेव णेयव्वा । से केगट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ महाहिमवंते वासहरपव्वए २१, गोयमा ! महाहिमवतेनं वासहरपव्दए चुल्लहिमवंतं वासहरपव्त्रयं पणिहाय आयामुच्च
वेहविक्खंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेत्र दीहतराए चेव, महाहिमवंते य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ ॥ सू० १३ ॥
छाया - महाहिमवति खलु भदन्त ! वर्षधरपर्वते कतिकूटानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! अष्टकूटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - सिद्धायतनकूटं १ महाहिमवत्कूटं २ हैमवत्कटं ३ रोहिताकूटं ४ ह्रीकूटं ५ हरिकान्ताकूटं ६ हरिवर्षकूटं ७ वैडूर्यकूटम् ८, एवं क्षुद्रहितवत्कूटानां यैव वक्तव्यता सैव तव्या, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - महाहिमवान् वर्पधरपर्वतः २ १ गौतम ! महाहिमवान् खलु वर्षधरपर्वतः क्षुद्र हिमवन्तवर्षधरपर्वतं प्रणिधाय आयामोच्चत्वोद्वेधविष्कम्भपरिक्षेपेण महत्तरक एवं दीर्घतरक एव महाहिमवांश्चात्र देवो महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति ||०१३ ||
टीका - 'महाहिमवंते णं' इत्यादि 'महाहिमवंते णं भंते ! वासहरपच्चए कइ कूडा पन्नत्ता ? गोयमा ! अटुकडा पन्नत्ता, तं जहा - सिद्धाययणकूडे १ महाहिमवंतकूडे २ हेमवय कूडे ३ रोहिकडे ४ हिरिकूडे ५ हरिकंतकूडे ६ हरिवासकूडे ७ वेरुलियकूडे ८' अष्टकूटानि सिद्धायतनकूटम् - सिद्धानामायतनं गृहं तद्रूपं कूटम् १, महाहिमवत्कूटं - महाहिमवान् नाम
वाली और ५ योजन प्रमाण उद्वेधवाली हो जाती है। इसके दोनों पार्श्व भागों में दो पद्मवर वेदिकाएं और दो वनपण्ड हैं। उनसे यह संक्षिप्त है | सू० १२॥
સમુદ્ર પ્રવેશ સ્થાનમાં ૨૫૦ અહીંસા ચાજન પ્રમાણ વિષ્મભવાળી અને ૫ ચેાજન પ્રમાણુ ઉદ્દેધવાળી થઈ ય છે, એના ખન્ને પશ્વ ભાગામાં છે પાવર વેદિકાએ અને એ વનખડા છે. તેમનાથી એ સપરિક્ષિત છે. ! સૂ ૧૨ ॥
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अम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्र अधिष्ठातृविशेषस्तस्य कूटम् निवासभूतं गिरिशृङ्गम् २, हैमवतकूटं-हैमवतोऽपि अधिष्ठातातस्य कूटम् ३, रोहिताकूट-रोहितामहानदी देवीकूटम् ४, हीकूट-ही:-देवी विशेषः, तस्या कूटम्५, हरिकान्ताकूटं-हरिकान्तानदी-देवी-टग्६. हरिवपकूटं-हरिवः-हरिवर्षपतिस्तस्य कूटम्स, वैडूर्यकूट-चैडूर्य तदाख्यरत्नविशेपस्तस्य कूट-चैयरत्नमयकूटम्, यद्वा-वैडूर्यः अधिष्ठातृविशेपस्तस्य क्टम्८, इत्यष्टकूटानामर्थः। 'एवं चुललहिमवंतकूडाणं जाचेव वत्तव्यया
'महाहिमवंते णं भंते । वासहरपन्चए कह कूडा पण्णत्ता'
टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है-(महाहिमवंते णं भंते ! वासहरपव्यए कई कूडा पण्णत्ता) हे भदन्त ! महाहिमवान् पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं-उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! अकूडा पण्णत्ता) हे गौतम ! महाहिमवान् पर्वत पर आठ कूट कहें गये हैं। (तं जहा) उनके नाम इस प्रकार से हैं (सिद्धाययणकूडे), महाहिमवनडे, हेमवयकूडे, रोहियकूडे, हिरिकूडे हरिकंतऋडे, हरिवासकूडे, वेमलियकूडे) सिद्धायतनकूट, महाहिमवत्कूट, हैमवत्कूट, रोहितकूट, हीकूट, हरिकान्तकूट, हरिवपक्रूट, एवं वैडूर्यकूट।
सिद्धों का आयतन-गृह रूप जो कूट है वह सिद्धायतन कूट है महा. हिमवान् नाम के अधिष्ठायक देव का जो कूट है वह महाहिमवत्कूट है । रोहि तामहानदी देवी का जो कूट है वह रोहितकूट है। ही देवी विशेष का जो कूट है यह हीकूट है। हरिकान्त नदी देवी का जो कूट है वह हरिकान्तकूट है । हरिवर्षपतिके कूट का नाम हरिवर्षकूर है । वैडूर्यरत्नमय अथवा वैडूर्यनामक अधिष्ठायक देवविशेष का जो कूट है वह वैडूर्यकूट है।
'महाहिमवंते णं भंते ! वासहरपव्यए कइ कूडा-पण्णत्ता, इत्यादि'
Ast:-मा सूत्र 43 गौतम प्रभुने सेवा प्रश्न 02-'महाहिमवंते णं भंते ! वास. हरपव्वए कह कूडा पण्णत्ता' 8 मत! महाभिवान् पति 8५२ साटो माया छ. उत्तरमा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! अट्ट कूडा पण्णत्ता' गौतम! महाहिमवान् पर्वत ७५२ मा एट छ. 'तं जहा' तेमना नामी मा प्रभारी छ–'सिद्धाययणकूडे, महाहिमपंत फूडे, हेमवय कूडे, रोहिय कूडे, हिरिकुडे, हरिकंतकूडे, हरिवासकृडे, वेरुलियकूडे' સિદ્ધાયતન ફૂટ, મહાહિમવત્ કૂટ, હૈમવક્રૂટ, રોહિત ફૂટ, હી કુટ, હરિકાન્ત કૂટ, હરિ १ ट तेभर वेडू कूट. (१)
(૧) સિદ્ધોનું આયતન-ગૃહ રૂપ જે કૂટ છે, તે સિદ્ધાયતન ફૂટ છે. મહાહિમવાનું નામક અધિષ્ઠાયક દેવ સંબંધી જે કૂટ છે તે મહાહિમવત્ કૃટ છે. રેહિતા મહાનદીને જે કૂટ છે તે રહિત ફૂટ છે. હી દેવી વિશેષને જે ફૂટ છે–તે હી કૃટ છે હરિકાન્તા નહી દેવીને જે કૂટ છે તે હરિકાન્ત ફૂટ છે. હરિર્ણપતિના કુટનું નામ હરિવર્ષ કૂટ છે વૈડૂર્ય નમય અથવા વૈર્યનામક અધિષ્ઠાયક દેવ વિશેષને જે કૂટ છે તે વૈડૂર્ય કૂટ છે.
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १३ हैमवत्वपंधरपर्वतवतिकूटनिरूपणम् ११९ सा चेव णेयव्वा' एवं प्रदर्शितरीत्या क्षुद्रहिमवत्कूटानां यैव वक्तव्यता तदधिकारेऽस्ति सैव वक्तव्यता एपामपि महाहिमवत्कूटानां नेतव्या वक्तव्या ज्ञेयेत्यर्थः, तथाहि कूटानामुच्चत्वादि सिद्धायतनप्रासादानां मानादि तदधिष्ठातृदेवानां च महर्दिकत्वादि यत्र राजधान्यो येन रूपेगैतत्सर्वमुपवर्णिनं तत्सर्वमत्रापि वर्णनीयं पर्यवसितम् केवलं नामभेदस्तद्देवानां तद्राजधानीनां चात्र बोध्यः । अधुना महाहिमवतो नामार्थ प्रदर्शयितुमाह- 'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ महाहिमवं ने वासहरपबए ?' अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेमहाहिमवान् वर्षधरपर्वतः २१, 'गोयमा ! महाहिमवंते ण वासहरपधए चुल्लहिमवंतं वासहरपत्रयं पणिहाय आयामुञ्चत्तुव्वेहविक्खंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेव' नवरम्-हे गौतम ! महाहिमवान् खलु वर्षधरपर्वतः क्षुद्रहिमवन्तं वर्षधर
इस क्षुद्रहिमवत् पर्वत संबंधी कूटों के विषय में जो वक्तव्यता पीछे कही जा चुकी है वही वक्तव्यता इन कूटों के भी संबंध में समझनी चाहिए यही बात (एवं क्षुल्लहिमवंतकूडाणं जा चेव वत्तव्वया सच्चेव णेयव्वा) इस सूत्रपाठ द्वारा सूत्रकार ने कही है। इस तरह के कथन से कटों की उच्चता आदि का सिद्धायतन प्रासादों के प्रमाण आदिका देवों में महर्दिकत्व आदिका तथा जहां पर जिन देवों की राजधानियों जिस रूप से यहो गइ है वह सब कथन यहां पर भी कर लेना चाहिए केवल देवों के नामों में और उनकी राजधानियों के नास में भेद है (से के गट्टेणं मंते ! एवं उच्च महाहिमवंते वामहरपव्वए २९) हे भदन्त ! आपने इस वर्षधर पर्वत का नाम "महाहिमवान् ऐसा किस कारण से कहा है। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है (गोयमा! महाहिमवंते गं वासहरपब्वए चुल्लहिमवं वासहरपब्वयं पणिहाय आयामुच्चत्व विखंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेव, महाहिमवंते य इत्थदेवे महिद्धिएजाव पलिओचमहिइए परिवसइ) हे गौतम! इस वर्षधर पर्वत का जो महाहि
એ શુદ્ર હિમવત્ પર્વત સંબંધી કૂટના વિષે જે વક્તવ્યતા પહેલા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે, તેજ વક્તવ્યતા એ કટોના સંબંધમાં પણ જાણી લેવી જોઈએ. એજ વાત “gi चुल्लहिमवतकूडाणं जा चेव वत्तवया सच्चेव णेयव्वा' से सूत्रा8 43 सूवारे ही છે. આ પ્રકારના કથનથી કૃટેની ઉચ્ચતા વગેરે સંબંધી, સિદ્ધાયતન પ્રાસાદના પ્રમાણ વગેરે વિષે, દેવામાં મહદ્ધિકત્વ વગેરેના સંબંધમાં તેમજ જ્યાં જે દેવેની રાજધાનીઓ જે રૂપમાં કહેવામાં આવેલ છે તે સંબંધમાં બધું કથન અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ. ફકત हेवाना नाममा मन भनी यानीनानाभाभी तशत छे'से केणट्रेणं भंते ! एवं बुच्चह महाहिमवते वासहरपव्वए २१७ महन्त ! मा५ श्री मे धर तिनु नाम 'महाहिमवान्' मे ॥ Rथी ४ह्यु छ ? मेनामा प्रभु छ-'गोयमा ! महाहिमवतेण वासहरपत्रए चुल्लहिमवतं वासहरपव्वयं पणिहाय आयामुच्चत्त विक्खंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेय, महााहमवते य इत्थ देवे महिद्धिए जाव पलिओवमदिइए
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जम्बूद्धोपप्राप्तिसूत्रे पर्वतं प्रणिधाय प्रतीत्य अपेक्ष्येत्यर्थः आयामोचवोद्वेषविकरमपरिक्षपेण अनायामादीनां समाहारद्वन्द्वस्तेनैकवद्भावः तत्र क्षुद्रहिमवदुच्चत्यापेक्षया ग्रस्तुतो गिरिः यहत्तरक पव अतिमहानेव आयामापेक्षया दीर्घतरक एव अतिदीय एव, एवमुढे धाद्यपेक्षयाऽपि क्षुद्रहिमवतोऽयं गिरि महोद्वेधयुक्तः महाविष्कम्भयुक्तः महापरिक्षेपयुक्तो भावनीयः । इत्येवं महाहिमवतो नाम्नो हेतुमुक्त्वा हेत्वन्तरमाह-'महाहिमवंतेय इत्थ देवे महिदीए जाब पलिश्रोत्रमटिइए परिवसई' महाहिमांश्चात्र देवः परिदसतीलग्रिमेणान्ययः स कीदृशः ? इल्लाह-महद्धिको यावत पल्योपमस्थितिकः-महद्धिक इत्यारभ्य पल्योपमस्थितिक इत्यन्तपदेसग्रहः सार्थोंऽष्टमसूत्रस्थ विजयदेवाधिकाराद् बोध्यः ॥स० १३॥
_अथ हरिवनामकवर्पवक्तव्यपाह-'कहिणं भंते' इत्यादि ।
मूलम्-कहि णं भंते ! जंबुद्दीदे दीवे हरिवासे णामं वाटे पण्णते? गोयमा ! णिसहस्स वासहरपवयस्स दक्खिणेणं महाहिमवंतवासहरमवान ऐसा नाम कहा गया है उसका कारण " क्षुद्रहिमवान् वर्षधर पर्वनकी अपेक्षा इसका आयाम इसका उच्चत्व, इसका विष्कम्भ और इसका परिक्षेप यह सब अत्यधिक है, दीर्घतर है, 'अर्थात् क्षुद्रहिमवान् पर्वतकी उच्चता की अपेक्षा यह गिरि महत्तरक है अतिमहान है और आयामकी अपेक्षा दीर्घतरक है इसी तरह उद्वेध आदि की अपेक्षा यह गिरि क्षुद्रहिमवान् के उद्वेधादिकी अपेक्षा महाउद्वेधवाला है महाविष्कंभवाला है और महापरिक्षेपवाला है । अथवा हे गौतम ! इस वर्षधर का जो ऐसा नाम हुआ है उसना कारण यह भी है कि इसमे महाहिमवान् नामका एक देव रहता है यह देव महर्द्धिक आदि विशेषणों वाला है यावत् इसकी एक पल्योपम की आयु है। यहां यावत्पद से संग्राह्य पाठ को अष्टमसूत्रस्थ विजय देवाधिकार से जान लेना चाहिए ॥१३॥ परिवसई' है गौतम! ये वध२ पतनु महाहिमवान् मे नाम पामा मावत છે તેનું કારણ શુદ્રહિમાવાન વર્ષધર પર્વતની અપેક્ષાએ એને આયામ એની ઊંચાઈ એને વિષ્ઠભ અને એને પરિક્ષેપ એ બધું મહાન છે, અધિક છે, દીર્ઘતર છે. એટલે કે ક્ષુદ્રહિમાવાન પવતની ઉચ્ચતાની અપેક્ષાએ એ ગિરિ મહત્તરક છે. અતિ મહાન છે અને આયામની અપેક્ષાએ દીર્ઘતરક છે. આ પ્રમાણે ઉધની અપેક્ષાએ એ ગિરિ શુદ્રહિમવાનના ઉદેધાદિની અપેક્ષાએ મહા ઉધવાળો છે મહાવિષ્ઠભવાળો છે અને મહા પરિક્ષેપવાળે છે. અથવા હે ગૌતમ! એ વર્ષધરનું જે એવું નામ પ્રસિદ્ધ થયું છે તેનું કારણ આ પણ છે કે એમાં મહહિમાવાન નામે એક દેવ રહે છે. આ દેવ મહદ્ધિક વગેરે વિશેષણે વાળે છે ચાવત એનું એક પાપમ જેટલું આયુ છે. અહીં ચાવત પદથી સંગ્રાફા પાઠને અષ્ટમ સૂરસ્થ વિજય દેવાધિકારથી જાણી લેવો જોઈએ. સૂ. ૧૩ /
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' प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम्
१२१ पठवयस्ल उत्तरेणं पुरस्थिलवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चस्थिमलवण- , समुदस्ल पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णास वासे पण्णत्ते, एवं जाव पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चस्थिमिल्लं लवणसमुहं पुटे, अट्ट जोयणसहस्लाइं चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइ भागं जोषणस्स विक्खंभेणं, तस्स बाहा पुरथिमपञ्चत्यिमेणं तेरस जोषणसहस्साइं तिणि य एगसट्टे जोयणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणंति, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीगयया दुहा लवणसमुदं पुटा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव लवणसमुदं पुट्टा तेवतरि जोयणसहस्साइं णव य एयुत्तरे जोयलए सत्तरस य एगणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्सधणुं दाहिणेणं चउरासीइं जोयणसहस्साई सोलस जोयणाई चत्तारि एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं! हरिवासस्स णं भंते! वासस्सकेरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते१, गोयमा! बहुलमरमणिभूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीहि तणेहि य उवसोभिए एवं मणीणं तणाण य वण्णो गंधो फासो सदो भाणियव्वो, हरिवासे णं तत्थर देसे तहिर वहवे खुड्डाखुड्डियाओ एवं जो सुसमाए अणुभाओ सो चेव अपरिखेसो वत्तवोत्ति ! कहि णं भंते | हरिवासे वासे वियडावई णामं वटवेयद्धपव्वए पण्णते? गोयमा! हरीए महाणईए पञ्चत्थिमेणं हरिकंताए महाणईए पुरथिमेणं हरिदासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वियडावई णाम वट्टवेयद्धपवए पण्णत्ते, एवं जो चेव सदावइस्स विक्खंभुच्चत्तुव्वेह परिक्खेवसंठाणवण्णावासो य सो चेव वियडावइस्स वि भाणियठवो, णवरं अरुणो देवो पउमाइं जाव वियडावइवण्णाभाई अरुणे य इत्थ देवे महिद्वीए एवं जाव दाहिणणं रायहाणी णेयव्वा, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ. हरिवासे हरिवासे ?, गोयमा! हरिवासे णं मणुआ अरुणा अरुणो भासा सेया पं. संखदलसण्णिकासा हरिवासे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसत्रे पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुम्बइ सू०१४॥ ___ छाया-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिव नाम वर्ष प्रजातम् ?, गौतम ! निपधस्य वर्पधरपर्वतस्य दक्षिणेन महाहिमवद्वर्पधरपर्वतस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसघुद्रग्य पौरस्त्पेन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिवर्प नाम व प्रज्ञप्तम् एवं यावद पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लणसमुद्रं स्पष्टम् अप्ट योजनसहस्राणि चसारि च एकविंशानि योजनशतानि एकं च एकोनविंगतिभागं योजनस्य विष्कम्भेण, तस्य वादा पौरस्त्यपश्चिमेन त्रयोदशयोजनसहस्त्राणि त्रीणि च एकपष्टानि योजनशतानि पटेच एकोनविंशतिभागान् योजनरय अर्द्धमागं च आयामे नेति, तस्य जीया उत्तरेण प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयता द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं यावत् लवणसमुद्रं त्रिसप्ततानि योजनसहसाणि नव च एकोत्तराणि योजनशतानि सप्तदश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य अद्धभागं च आयामेन, तस्य धनुः दक्षिणेन चतुरगीतानि योजनसहस्राणि पोडश योजनानि चतुर एकोनविंशतिभागान योजनस्य परिक्षेपेण । हग्विर्पस्य खलु भदन्त ! वर्षस्य को दृशका आकारभावग्रन्यन्तारः प्रज्ञप्तः १, गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमि भागः प्रज्ञप्तः यावद् मणिभिस्तृणैचोपशोभितः, एवं मणीनां तृणानां च वर्णो गन्धः स्पर्शः शब्दो भणितव्यः, इरिव खलु तत्र २ देशे तत्र २ वहवः शुद्राक्षुद्रिका एवं च य एव सुषमाया अनुमावः स एव अपरिशेपो वक्तव्य इति । क्य खलु भदन्त ! हरिवर्षे वर्षे विक्रटापाती नाम वृत्तवैताढयपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! हरिता महानद्याः पश्चिमेन हरिकान्ताया महानद्याः पौरस्त्येन हरिवर्पस्य वर्षस्य बहुमध्यदेश मागः, अत्र खलु विकटापाती नाम वृत्तयैवाढयपर्वतः प्रज्ञप्तः, एवं य एव शब्दापातिनो विष्फम्भोच्चत्वोद्वेधपरिक्षेपसंस्थानवर्णावासश्च स एव विकटापातिनोऽपि भणितव्यः, नवरम् अरुणो देवः पदमानि यावत विकटापाति वर्णाभानि अरुणोऽत्र देवो महर्दिक एवं यावत् दक्षिणेन राजधानी नेतव्या, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते हरिवर्प वर्षम् ?, गौतम ! हरिव खलु वर्षे मनुना अरुणा अरुणावभासाः श्वेताश्च शादलसन्निकाशाः, हरिचर्पश्चात्र देवो महर्दिको यावत् पल्योपमस्थितिका परिवसति ॥सू० १४.
टीका-'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे इरिवासे णाम वासे पनत्ते' क्व खल्ल भदन्त । जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिव नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ?, 'गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्ययस्स दक्षिण
हरिवर्षनामक क्षेत्रकी वक्तव्यता 'कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीदे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते' टीकार्थ-गौतमस्वामीने प्रभु से इस सूत्र द्वारा ऐसा पूछा है-(कहिण भत.
હરિવર્ષ નામક ક્ષેત્રની વક્તવ્યતા 'कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे हरिवासे णाम वासे पण्णत्ते' इत्यादि
-गौतमे असुन या सूत्र मेवा प्रश्न या छ 'कहि ण भंते जम्बुदीव
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम् महाहिमवंतवासहरपब्वयस्स उत्तरेणं पुरत्थिमलवणसमुहस्य पच्चत्थियेणं पच्चत्थिमलवणस' मुद्दस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे' हरिवासे णाम वासे पण्णत्ते' गौतम ! निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन महाहिमवद्वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिवर्ष नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ‘एवं जाव पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे' एवं यावत् पाश्चात्यया कोटया पाथात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टम् 'अजोयणसहस्साई चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोयणस्स विक्खंभेणं' हरिवर्पवर्षस्य मानमाह-अष्टौ योजनसहस्राणि चत्वारिंचएकविंशानि एकविंशत्यधिकानि एकं च एकोनविंशतिभागान्-एकोनविंशतितमभागान् अत्र प्राकृतत्वात्तमब्लोपः, योजनस्य विष्कम्भेण विस्तारेण, महाहिमवतो द्विगुणविष्कम्भकत्वादिति । अथास्य वाहा जीवा धनुष्पृष्ठान्याह-'तस्स वाहा' इत्यादि-'तस्स बाहा पुरथिम जम्बूद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते) हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप मे हरिवर्ष नामका क्षेत्र कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्ल दक्खिणेणं महाहिमवंतवासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते) हे गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत की दक्षिणदिशामें एवं महाहिमवान् पर्वत की उत्तर दिशा में तथा पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिमदिशा में एवं पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पूर्व दिशा में जम्बूद्वीप नामके द्वीप के भीतर हरिवर्ष नामका क्षेत्र कहा गया है (एवं जाव पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, अट्ठ जोयण सहस्साई चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगंच एगूणवीसइ भागं जोयपस्स विक्खंभेणं) इस तरह यावत् यह क्षेत्र पश्चिमदिग्वर्ती कोटी के द्वारा पश्चिमदिगवर्ती लवण समुद्र को छूता है इसका विष्कम्भ ८४२१,२ योजन का दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते' . महन्त ! मे दीप नाम दीपभा विष नाम४ २ या स्थणे मारा छ ? मेना नाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्ययस्स दक्खिणेणं महाहिमवंतवासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते' हे गौतम ! निषष धर पतनी क्षिर शाम तम मामिवान् पतनी ઉત્તર દિશામાં તેમજ પૂર્વદિશ્વર્તી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તથા પશ્ચિમદિગ્વતી લવણુ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં જબૂદ્વીપ નામક દ્વીપની અંદર હરિવર્ષ નામક ક્ષેત્ર આવેલ છે. 'एवं जाव पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, अट्ठजोयण सहस्साइं चत्ता. रय एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोयणस्स विक्खंभेणं' या प्रमाणे यावत् ॥ ક્ષેત્ર પશ્ચિમ દિવર્તી કેટીથી પશ્ચિમદિશા સંબંધી લવણસમુદ્રને સ્પર્શે છે. આને વિષ્કભ
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जम्बूद्वीपतिसूत्र
पच्चत्थिमेणं तेरस जोयणसहस्साई तिष्णि य एगसट्टे जोयणसए' तस्य हरिवर्षवर्षस्य बाहा पौरस्त्यपश्चिमेन पूर्वपश्चिमयोः त्रयोदश योजनसहस्राणि त्रीणि च एकपष्टानि एकपष्टयधिकानि योजनशतानि 'छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स' पट् च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य 'अद्धभागं च आयामेणंति' अर्द्धभाग च आयामेन - दैर्येण इति । ' तरस जीवा उत्तरेण पाईण पडीणायया दुहा लचणसमुदं पुट्ठा पुरत्थिमिल्लाए कोडीए' तस्य जीवा उत्तरेण उत्तरदिग्भागे प्राचीनप्रतीचीनायता पूर्वपश्चिमदिशोदर्घा, द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा पौरस्त्ययापूर्वदिग्भवया कोटया - कोणेन 'पुरत्थिमिल्लं जाव' पौरस्त्यं यावत् लवणसमुद्रं स्पृष्टा, याव त्पदेन पाश्चात्यया कोटचा पश्चिममिति सग्राद्यम् लवणसमुद्रं स्पृष्टा, 'तेवत्तरि - जोयणसहस्साई णव य एगुत्तरे जोयणसए' त्रिसप्ततानि त्रिसप्तत्यधिकानि योजन सहस्राणि नव च कोत्तराणि एकाधिकानि योजनशतानि 'सत्तरस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स मद्धभागं च आयामेणं' सप्तदश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य अर्द्धभागं च आयामेन, 'तस्स घं है ( हा पुरपिच्चत्थिमेणं तेरसजोयणसहस्साई तिण्णि य एगसट्टे जोयणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्वभागं च आयामेणं ति) इसकी हा पूर्व पश्चिम में आयामकी अपेक्षा १३३६१ योजन की है और एक योजन के १९ भागों में ६ भाग प्रमाण और अर्धभाग प्रमाण है । (तस्स जीवा उत्तरेणं 'पाडीणपडीणायया हा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडोए पुरथिमिल्लं जाव लवणसमुहं पुट्ठा तेवत्तरिं जोयणसहस्साई णव य एगुत्तरे जोयणसए सत्तरलय एगूणवीसह भाए जोयणस्स अद्वभागं च आयामेणं) उसकी जीवा उत्तर दिशामें पूर्व से पश्चिमतक लम्बी है यह पूर्व दिशा संबंधी कोटी से पूर्व - दिक्संबंधी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है और पश्चिमदिशा संबंधी कोटि से पश्चिमदिग्वर्ती लवण समुद्र को स्पर्श करती है यह जीवा आयाम की अपेक्षा ७३९०१ योजन और अर्द्ध भाग प्रमाण है (तस्स धणुं दाहिणेणं चउरासीडं
८४२११६ योनन भेटलो छे. 'तस्स वाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेगं तेरस जोयणसहस्साइं तिणिय एगसट्टे जोयणसए उच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं ति' नी वाहा પૂર્વ પશ્ચિમમાં આયામની અપેક્ષાએ ૧૩૩૬૧ ચેાજન જેટલી છે. અને એક ચેાજનના १८ लागोभां ६ लाग प्रमाणु अने अर्ध लाग प्रभाशु छे. 'तस्स जीवा उत्तरेणं पाडीण पडीया हा लत्रणसमुहं पुट्ठा पुरत्थिमिल्लाए कोडीए पुरत्थिमिल्लं जाव लवणसमुदं पुट्ठा तेवन्तरिं जोयणस इस्साई णवय एगुत्तरे जोयणसए सत्तरसय एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेण येनी वा उत्तरद्विशामां पूर्वथी पश्चिम सुधी सांगी छे. से પૂર્વ દિશા સંબંધી કાટીથી પૂર્વાદિક્ સંબધી લવણુ સમુદ્રને સ્પર્શે છે અને પશ્ચિમદિશા સ'ખંધી કોટિથી પશ્ચિમ દિવતી' લવણુ સમુદ્રના સ્પર્શ કરે છે. એ જીવા આયામની अपेक्षा मे ७३८०१ योजन भने मर्द्ध लाग प्रभाणु छे. 'तस्स धणु' दाहिणेणं चउरासीई
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम् दाहिणेणं चउरासीई जोयणसहरसाई सोलस जोयणाई चत्तारि एगृणवीसइ भाए जोयणस्स परिक्खेवेणं तस्य धनुः दक्षिणेन चतुरशीतानि चतुरशीत्यधिकानि योजनसहस्राणि पोडशयोजनानि चतुर एकोनविंशति भागान् योजनस्य परिक्षेपेण। अथ हरिवर्पस्य स्वरूपं पिपृच्छि. पुराह-'हरिवासस्स णं भंते' इत्यादि, हे भदन्त ! हरिवर्पस्य खलु वर्षस्य 'केरिसए आगारभावपडोयारे' कीदृशक:-कीदृशः आकारभावप्रत्यवतारः तत्राऽऽकारः-स्वरूपं, भावा:-पृथिवीवपंधरप्रभृतयस्तदन्तर्गताः पदार्थाः तयुक्तः प्रत्यवतार:-प्रकटीभावः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्ने भगवानुत्तरमाह-'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे' हे गौतम ! बहुसमरमणीयः बहुसमः अत्यन्तसमो अत एव रमणीयः-सुन्दरः 'भूमिभागे पण्णत्ते' भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स च कीदृशः इत्याह-'जाव मणीहि तणेहिं य उवसोभिए' यावत् मणिभिः अत्र यावत्पदेन नानाविध पञ्चवर्णैरिति संग्राह्यम्-एतादृशैः मणिभिः वैडूर्यस्फटिकादिभिरूपशोभित इत्यग्रिमेण सम्बन्धः, जोयणसहस्साई सोलस जोयणाई चत्तारि एगूणवीसहभाए जोयणस्स परिक्खेवणं) इसका धनुःपृष्ठ परिक्षेप की अपेक्षा दक्षिण दिशा में ८४०१६, योजन का है (हरिवासस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयार भावपडोयारे पण्णत्ते) अव गौतमस्वामी ने प्रभु ले ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! हरिवर्ष क्षेत्रका आकार भाव प्रत्यवतार-स्वरूप-कैसा कहा गया है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! बहसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव मणीहिं तणेहिय उवसोभिए एवं मणीणं तगाण य वण्णो गंधो फासो सदो भाणियब्वो) हे गौतम! हरिवर्ष क्षेत्रका भूमिभाग बहसमरमणीय कहा गया है यावत् वह मणियों से और तणों से उपशोभित है इसी प्रकार से मणियों के एवं तृणों के वर्ण, गंध, स्पर्श और शब्द का यहां पर वर्णन करलेना चाहिये यहां पर 'जाव मणीहिं' के साथ आगत यावत्पद से 'नानाविध पंचवर्णैः' इस विशेषणरूप पद का ग्रहण हुआ है वर्ण गंधादि कों का वर्णनं राजप्रश्नीय सूत्र के १५ वें सूत्र से लेकर १९ वें सूत्र तक जोयणसहस्साई सोलस जोयणाइं चत्तारि' एगूणवीखइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' येना धनु०४ परिक्षपनी अपेक्षा क्षिशिमा ८४०१६ १ योगनरेटो छ. 'हरिवासरस णं भंते ! वासरस केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते' हवे गौतम प्रभुन मा જાતને પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદંત! હરિવર્ષ ક્ષેત્રને આકાર ભાવ પ્રત્યવતાર-એ લે કે સ્વરૂપ
४ामा मावश छ. मेन ४ाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते, जाव मणीहिं तणेहिय उबसोभित एवं मणीण तणाणय वण्णो गंधो फासो सहो भाणियव्वो' हे गौतम ! रिष क्षेत्र मला पसभरभणीय वामां न्यावर छ. થાવત્ તે મણિઓથી અને તૃણોથી ઉપશે.ભિત છે. આ પ્રમાણે જ મણિઓના તેમજ तृणाना पशु, ध, २५श भने शहनु ली पन ४२ वे नये. मी 'जाव मणिहि' नी साथे गावस यावत् ५४थी नानाविधपंचवण: ये विशेष ३५ पहनु यह थयु
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जम्बूदीपप्रमप्तिसूत्रे पुनः तृणैचोपशोभितः, 'एवं मणीणं तणाण य चण्णो गंधो फासो सदो भाणियो' एवम् अनेन प्रकारेण मणीनां तृणानां च वर्ण:-कृष्णादिः गन्धः स्पर्शः शब्दश्च भणितव्यः वक्तव्यः एतद्वर्णनं राजश्नीयसूत्रस्य पञ्चदशसूत्रादारभ्यैकोनविंशतितममूत्रपयन्तसूत्रेषु स्थितमिति जिज्ञासुभिस्ततो ग्राह्यम् । अथात्र विद्यमानजलाशयस्वरूपं प्रदर्शयितुमाह-'हरिवासे णं' इत्यादि, इरिवर्षे खलु 'तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे खुड्डा खुहियाओ' नत्र तत्र परिवरपवर्ति तस्मिंस्तस्मिन् देशे तत्र तत्र तदवान्तर प्रदेशे वहचः अनेका क्षुद्राक्षुद्रिकाः वापिकाः पुष्करिण्यः दीपिकाः गुञ्जालिकाः सरः पक्तिकाः सर: सरपक्तिकाः विलपङ्क्तिकाः, आसां वर्णनं विशेषजिज्ञामुभिः राजप्रश्नीयसूत्रस्य चतुप्पष्टितमसूत्रस्य मत्कृता सुबोधिनी टीका विलोकनीया । अत्र काल निर्णयार्थमाह-एवं जो मुसमाए' इत्यादि, एवम् उक्तप्रकारेण वर्ण्यमाने तस्मिन् क्षेत्रे यः सुपमायाः सुपमाख्यावसर्पिणी द्वितीयारकस्य 'अणुभावो सो चेव अपरिसेसो वत्तव्योति' अनुभावः प्रभावः, स एच अपरिशेपः निःशेपः वक्तव्यः इति, अथास्य क्षेत्रस्य विभाजकपर्वतमाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि, 'कहि णं भंते ! हरिवासे वासे वियकी व्याख्या में किया गया है अतः वहां से इस कथन को समझलेना चाहिये (हरिवासे णं तत्थ २ देसे, तहिं २ बहवे खुड्डा खुइडियाओ, एवं जो सुसमाए अणुभावो सो चेव अपरिसेसो वत्तघोत्ति) हरिवप क्षेत्र में जगह जगह अनेक छोटी बडी वापिकाएं हैं पुष्करिणियां हैं दीर्घिकाएं हैं, गुजालिकाएं हैं, सर है सरपक्तियां है इत्यादिरूप से जैसा इनका वर्णन राजप्रश्नीयमन्त्र के ६४ वे सूत्र में किया गया है वैसा ही वर्णन यहां पर भी जानलेना चाहिये इस क्षेत्र में अवसर्पिणि का जो दितीय आरक लुपमानामका है उसका ही प्रभाव रहता है अतः उसका ही यहाँ पर सम्पूर्ण रूप से वर्णन करलेना चाहिये (कहिणं भंते ! हरिवासे वियडावईणाम घट्टवेयपधए पण्णत्ते) हे भदन्त ! हरिवर्षक्षेत्र में विकटापति नामका वृत्तवैताढय पर्वत कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में છે. વર્ણ–ગંધાદિનું વર્ણન “રાજકશ્રીય સૂત્ર' ના ૧૫માં સૂવથી ૧૯માં સૂત્ર સુધીની વ્યાખ્યામાં કરવામાં આવેલ છે. એથી આ કથન વિશે ત્યાંથી જ જાણું લેવું જોઈ એ. 'हरिवासेणं तत्थ २ देसे, तहिं २ वहवे खुडाखुड्डियाओ, एवं जो सुसमाए अणुभावो सो चेव अपरिसेसो वत्तव्योत्ति' हरिष क्षेत्रमा स्थान-स्थान ५२ घी नानी-मोटी. पिया છે, પુષ્કરિણીઓ છે, દીઘિકાઓ છે, શું જાલિકાઓ છે, સરે છે અને સરપંક્તિઓ છે ઈત્યાદિ રૂપમાં એમનું જે પ્રમાણે વર્ણન “રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના ૬૪માં કરવામાં આવેલ છે તેવું જ વર્ણન અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ. એ ક્ષેત્રમાં જે અવસર્પિણી નામક દ્વિતીય અરક સુષમા નામક છે, તેને જ પ્રભાવ રહે છે. એથી અને તેનું જ સંપૂર્ણ રૂપમા पन सभड न . 'कहि णं भंते ! हरिवासे वासे वियडावई णाम वट्टदेयड्ढપડ્યા Tv હે ભદત! હરિવર્ષ ક્ષેત્રમાં વિકટાપતિ નામક એક વૃતાઢય પર્વત કયાં
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम् डावई णामं वट्टवेयद्धपव्वए पण्णत्ते' क्व खलु भदन्त ! हरिव वर्षे विकटापाती नाम वृत्तवैताढयपर्वतः प्रज्ञप्तः, 'गोयमा ! हरीए महाणईए पच्चस्थिमेणं हरिकंताए महाणईए पुरत्यिमेणं हरिवासस्स २ बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वियडावई णामं वट्टवेयद्धपव्वए पण्णत्ते' उत्तरसूत्रे-हे गौतम ! हरितः हरिन्सलिलाया महानद्याः पश्चिमेन पश्चिमायां दिशि हरिकान्ताया महानद्याः पौरस्त्येन हरिवर्षस्य वर्षस्य वहुप्रध्यदेशभागोऽस्ति, अत्र अत्रान्तरे खलु विकटापाती विकटापातिनामा वृत्तवैनाढ्यपर्वतः प्रज्ञप्तः, अन निगमयल्लाघवार्थमतिदेशसूत्रमाह 'एवं जो चेव सदावइस्स विक्खंयुच्चत्तुव्वेहपरिक्खेवसंठाणवण्णवासो य सो चेव वियडावइस्स वि भाणियब्वो' एवम् उक्तप्रकारेण विकटापाति-वृत्तवैत्ताढयपर्वतवर्णने क्रियमाणे य एव शब्दापातिनः-शब्दापातिकृत्तवैताढचपर्वतस्य विष्कम्भोच्चत्वोद्वेधपरिक्षेपसंस्थानवर्णावासः विष्कल्भादीनां वर्णनपद्धतिः, चकारात तत्रत्य प्रासादतत्स्वामि राजधान्यादि सङ्ग्रहो बोध्या, स एव विकटापातिनोऽपि भणितव्यः । 'णवरं अरुणो देवो पउमाई जाव बियडावइ वण्णाभाई अरुणे य इत्थ देवे महिद्धीए एवं जाव दाहिणणं रायहाणी णेयव्वा' नवरं केवलं विकप्रभु कहते हैं (गोयमा ! हरीए महाणईए पच्चत्थिमेण हरिकताए महाणईए पुरस्थिमेणं हरिवासस्स २ बहुमज्झदेसभाए एत्थणं वियडावई णामं वट्टवेयडू पन्चए पण्णत्ते) हे गौतम ! हरितनामकी महानदी की पश्चिमदिशामें और हरिकान्तमहानदी की पूर्वदिशा में इस हरिवर्ष क्षेत्र का बहुमध्यभाग है सो वहीं पर विस्टापाती वृतवैताहय पर्वत कहा गया है (एवं जो चेव सद्दावइस्स विक्खंभुच्चतुव्नेहपरिक्खेव संठाणवण्णावासो सो चेव वियडावइस्स वि भाणियन्वो) इस विकटापाती वृतवैताढयपर्वत का विष्कम्भ ऊंचाई उद्वेध परिक्षेप और संस्थान आदिका वर्णन तथा वहां के प्रासाद उसके स्वामि की राजधानी आदि का कथन शब्दापानी वृत्तवैताढ्य पर्वत के ही विष्कम्भ आदि के वर्णन जैसा है 'णवरं अरुणो देवो पउमाइं जाव दाहिणणं रायहाणी णेयव्वा) परन्तु इस विकटापाती वृत्तवैताढय पर्वत के ऊपर अरुण नामका देव रहता है यही इसके वर्णन भास छ ? सना वासभा प्रभु ४ छ. 'गोयमा! हरीए महाणईए पच्चत्थिमेण हरिकंताए महाणईए पुरस्थिमेणं हरिवासस्स २ बहुमज्झदेसभाए एत्थणं वियडावई णाभं वहवे. यड्ढपव्वए पण्णत्ते' गौतम! उरत नाम महानहीनी पश्चिम दिशामा मन र. કાન્ત મહાનદીની પૂર્વ દિશામાં એ હરિવર્ષ ક્ષેત્રના બહુ મધ્ય ભાગમાં છે. તે ત્યાં જ विseriती वृत्तवैतादय पर्वत मावत छ. एवं जो चेव सदाबइस्स विक्खंभुच्चत्तुव्वेह परिक्खेवसंठाण घण्णावासो सो चेव वियडावइस्स वि भाणियव्वों मे विटापाता वृत्त વૈતાઢય પર્વતના વિષ્કલ ઉચ્ચતા, ઉધ, પરિક્ષેપ અને સંસ્થાન વગેરેનું વર્ણન તેમજ ત્યાના પ્રાસાદે તેના સવામીની રાજધાની વગેરેનું કથન શબ્દાપાતી વૃત્તવૈતાઢય પર્વતના १ वि० महिना वर्णन छे. 'णवरं अरुणो देवो पउमाइं जाव दाहिणेणं रायहाणी
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे टापातिवृत्तवैताढन्यपर्वतोपरि अरुणः अरुणनामशः देवः प्रतिवसति इति विशेषः तत्र खल्लु क्षुद्र क्षुद्रा वापीए पुष्करिणीपु दीपिकालु गुञ्जालिकाछु सर पक्तिकालु सरः सर:-पङ्क्तिकासु विलपङ्क्तिपु बहूनि उत्पलानि कमलानि यावत् यावत्पदेन-“झुमुदनुभग सौगन्धिकपुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्राणि फुल्लानि केसरोपचितानि विकटापातिमानी" इत्येपो सङ्ग्रहोवोध्या, एपां व्याख्या १० पृष्टे गता, विकटापातिवर्णाभानि विकटापातिनो यो वर्णस्तस्य आमा क्रान्तिरिवाऽऽभा येषां तानि तथा पूर्व देवभेदप्रदर्शनायारुणस्य देवस्योपादानम् अधुना तस्य वर्णनाय तदधिष्ठातृदेव उच्यते-अरुणश्चात्र देवः अत्र अस्मिन् विकटापातिवृत्तवैताठ्यपर्वते अरुणः-तन्नामा देवः तदधिष्ठातृदेवः परिवसतीत्यग्रिमेण सम्बन्धः, स कीदृशः इत्याह महद्धिकः, एतदुपलक्षणम् तेन 'महाद्युतिका, महावलः, महायशाः महासौख्यः, महानुभावः पल्योपमस्थितिकः" इत्येप सङ्ग्रहः, एपां व्याख्याऽएमसूत्राद्वोध्या, एवम् अनेन प्रकारेण यावद्दक्षिणेन राजधानी मेरो दक्षिणस्यां दिशि राजधानी पर्यन्तवर्णनपद्धतिः में और उसके वर्णन में अन्तर है 'वहां पर छोटी बडी वापिकाएं, पुष्करिणियां दीपिका, गुंजालिका, आदि जलाशय हैं उनमें अनेक उत्पल, कमल, कुमुद, सुभग, सोगंधिक पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्त्रपत्र आदि सदा प्रफुल्लित रहते हैं और इन सबकी प्रभा विकटापाती के वर्ण जैसी ही है यही सब कथन यहां यावत्पद से गृहीत हुआ है यहां जो 'ण वरं अरुणोदेवो' ऐसा पहिले कहकर के भी जो पुनः 'अरुणे य इत्थदेवे' ऐसा पाठ कहा है वह इसके वर्णन के निमित्त कहा है पहिले का पाठ शब्दापाती वृत्तवैताढय के और विकटापाती वृत्तवैताढय के वर्णन में अन्तर प्रदर्शित करने के लिए कहा गया है-यह अरुण नामक देव महर्दिकदेव हैं उपलक्षणसे यह महाधुनिक, महाललिष्ठ, महायशस्वी, महासुखसंपन्न और एक पल्योपम की स्थितिवाला हैं इसकी राजधानी मेरुकी दक्षिण णेयव्वा' ५२'तु मे विटापाती वृत्तवैतादय पतनी 6५२ २.२ नामे हे न छे. એજ એના વર્ણનમાં તેનાં કરતાં વૈશિર્યો છે, ત્યાં નાની-મોટી વાપિકાઓ, પુષ્કરિણીઓ દીધિકાઓ, શું જાલિકાઓ વગેરેના રૂપમાં જલાશ છે. તે સર્વમાં અનેક ઉત્પલે, કમળો, કુમુદ, સુભગો, સોગંધિ, પુંડરીકે, શતપત્ર, સહસ્ત્રપ વગેરે સર્વદા પ્રફુલ્લિત રહે છે અને એ સર્વની પ્રભા વિકટાપાતીના વણ જેવી જ છે. એ બધું કથન ચાવત ५४थी गृहीत येत छ. महीरे ‘णवरं अरुणो देवो' से परखा ४न ४ी परे पुन: 'अरुणे य इत्थ देवे०' मेवे 48 वामां आवे छे, सना शुनना भित्ते ४વામાં આવેલ છે. પહેલા પાઠ શબ્દાપાતી વૃત્તતાયના અને વિકટાપાતી વૃતાઢ્યના વર્ણનમાં અન્તર પ્રદર્શિત કરવા માટે કહેવામાં આવેલ છે. એ અરુણ નામક દેવ મહાદ્ધિક દેવ છે. ઉપલક્ષણથી એ મહાતિક, મહાબલિષ્ઠ, મહાર સ્વી, મહામુખસંપન્ન અને એક પલ્યોપમ જેટલી સ્થિતિવાળો છે, એની રાજધાની મેરુની દક્ષિણ દિશામાં છે.
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्पक्षेत्रनिरूपणम् । नेतव्या ज्ञानविषयता प्रापणीया ज्ञेयेन्यर्थः. अथ हरिवर्पनामार्थ पिपृच्छिघुराह-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि । ‘से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ हरिवासे २ ?' अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-हरिवर्प हरिवर्षम् , भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'हरिवासे णं वासे मणुया अरुणा अरुणोभासा सेया णं संखदलसण्णिकासा हरिवासे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमट्टिईए परिवसइ, से .तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चई" उत्तरसूत्रे हरिव खलु वर्षे मनुजा:-मनुष्याः अरुणाः-रक्तवर्णाः, अरुणं च किमपि चीनपिष्टादिकं वस्तु समीपवर्तिनि पदार्थेऽनास्वरतयाऽरुणप्रकाशं न तथेत्याह-अरुणावभासाः रक्तावभासनकारिणः केचिच्च श्वेताः शुक्लवर्णाः खलु ते कीदृश श्वेतवर्णाः ? इत्याह-शङ्खदल-सन्निकाशाः शङ्कखण्डसदृशा इति तद्योगात्क्षेत्रमिदं हरिवर्षाच्यते, अत्र हरिशब्दं सूर्यचन्द्रोभयपरः तथा यत् सूर्यवदरुणाः चन्द्रवच्छ्वेतास्तत्र मनुष्याः सन्तीति पर्यवसितम् , एवं तद्वत् अरुणावभासाः श्वेतावभासाः, हरय इव हरयो मनुष्याः , हरिशब्दस्य हरिसदृशे लक्षणयाऽभेदः, ततश्च हरिसदृश मनुष्ययुक्तस्वाक्षेत्रं हरय इति व्यवहियते, हरयश्च तद्वपं चेति हरिवषम् यदा च तादृशमनुष्ययोगाद् हरिशब्दः क्षेत्रार्थे वर्तते तदा क्षेत्राणां बहुत्व स्वभावाद् बहुवचनान्तः प्रयुज्यते 'यथा हरयो विदे. हाश्च पश्चालादि तुल्या इति, यद्वा हरिवर्प नामाऽत्र देव आधिपत्यं परिपालयति तेन तधोगादपि हरिवर्ष नाम वर्षमुच्यते ॥०१४॥ दिशामें है (से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चह हरिवासे हरिवासे) हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि यह क्षेत्र हरिवर्ष है ? अर्थात् इस क्षेत्र का ऐसा नाम होने का क्या कारण है ? उत्तर में प्रभु कहते है-(गोयमा! हरिवासे णं वाले मणुया अरुणा, अरुणो मासा, सेया णं संखदलसण्णिकासा हरिवासेय इत्थ देवे महिदिए जाव पलिओवमठिइए परिवसइ) हे गौतम ! हरिवर्षक्षेत्र में कितनेक मनुष्य अरुणवर्ण वाले हैं और अरुण जैसा ही उनका प्रतिभास होता है, तथा-कितनेक मनुष्य शके खण्ड के जैसे श्वेतवर्ण वाले हैं इस कारण इनके योग से इस क्षेत्र का नाम 'हरिवर्ष' ऐसा कहा गया है, यहां हरिशब्द सूर्य एवं चंद्र इन दोनों को सूचित करने वाला है, अत: कितनेक 'से केणद्वेण भंते ! एवं बुच्चइ हरिबासे हरिवासे' 3 मत ! मा५ यो प्रमाणे ॥ यथा કહે છે કે આ ક્ષેત્ર હરિવર્ષ છે? એટલે કે આ ક્ષેત્રનું નામ હરિવર્ષ શા કારણથી રાખपाम मावस छ? नाममा प्रा छ-'गोयमा! हरिवासेणं वासे मणुया, अरुणा अरुण्णोभ.सा, सेयाण संखदलसण्णिकासा हरिवासेय इत्थ देवे महि द्धिए जाव पलिओवमठिइए परिवसई गौतम। विष क्षेत्रमा टा भासे २५२१ वर्ष या छ भने અરુણ જેવું જ તેમનું પ્રતિભાસન હોય છે, તેમજ કેટલાક માણસે શંખના ખંડ જેવા श्वेत पाया छ मेथी मेमना योगयी २॥ क्षेत्रनु नाम 'हरिवर्प' मा वामां मावत छ, मही 'हरि' ४ सूर्य मन यो भन्ने सूयित ४२ छ. मेथी सा
ल. १७
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
अथानन्तरोक्तं क्षेत्रं निपधनामक वर्षधरपर्वता दक्षिणस्यां दिश्युक्तं तत्र निषधः क्यास्तीति पृच्छति - 'कहि णं भंते ! 'जंबुद्दीवे' इत्यादि ।
मूलम् - कहि oणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते ?, गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स दक्खिणेणं हरिवासस्स उत्त. रेणं पुरस्थमलत्रणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरस्थि मेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे सिहे णामं वासहरपव्यय पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीर्णदाहिणविच्छिपणे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिलाए जाव पुढे पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुढे, चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउगसयाई उव्वेहेणं सोलस जोयणसहस्लाई अटु य वायाले जोयणसए दोणिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं, तस्स वाहा पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं बीसं जोयणसहस्साई एगं च पण्णटुं जोपणसर्व दुणिय एगूणवीसईभाए जोयणस्स अद्वभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं जात्र चउणवई जोयणसहस्साइं एवं व छप्पण्णं जोयणसयं दुष्णिय एगूणवीसड़भाए जोयणस्स आयामेणं ति, तस्स धणुं दाहि णें एगं जोयणसय सहस्से चउवीसं च जोयणसहस्साइं तिण्णिय छायाले जोयणसए णत्रय एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं, रुयगसंठाणसंठिए सव्वतवणिजमए अच्छे, उभओ पासिं दोहिं परमवरवेइयाहिं दोहिं य वणसंडेहिं जाव संपरिक्खित्ते, णिसहस्स णं वासहरपव्यग्रस्त उपि बहुसमरसणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जात्र आसर्यति संयंति, तस्स णं बहुसमरमणिजइस भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे तिर्गिछि दहे णामं दहे पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिण विच्छिणे चत्तारि जोयणसहस्साइं आयामेणं दो जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं दस जोयणाई उब्वेणं अच्छे सम्हे रययामयकूले, तस्स णं तिगिच्छिदहसूर्य के जैसे अरुण और कितनेक चन्द्र के जैसे श्वेत यहां मनुष्य है ऐसा भाव इस कथन का पुष्ट होता हैं । (से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ) अर्थ स्पष्ट है ॥ १४ ॥ મનુષ્યો અહીં સૂર્યાં જેવા અરુણ અને કેટલાક ચન્દ્ર જેવા શ્વેત મનુષ્ચા અહી' વસે છે આ જાતના ભાવ આથનથી પુષ્ટ થાય छे. 'से तेणटुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ '
समर्थ स्पष्ट है ॥ सु. १४ ॥
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १५ निषधवर्षधरपर्वतनिरूपणम् स्स चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूनगा पण्णत्ता, एवं जाव आयामविक्खंभविहणा जा चेव महापउमदहस्त दत्तव्वया सा चेव तिगिछि दहस्स वि वत्तव्वया तं चेव पउमदहप्पमाणं अटो जाव तिगिछि वण्णाई घिई य इत्थदेवी सहिड्डिया जाव पलिओवमट्टिईया परिवसइ, से तेणट्रेणं गोयमा! एवं वुच्चइ तिगिछिदहे तिगिछिदहे ॥सू०१५॥
छाया-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे निपधो नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, गौतम ! महाविदेहस्य वर्पस्य दक्षिणेन हरिवर्पस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे निपधो नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः पौरस्त्यया यावत् स्पृष्टः पाश्चात्यया यावत् स्पृष्टः चत्वारि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चत्वारि गव्यूतशतानि उद्वधेन पोडश योजनसहस्राणि अष्ट च द्वाचत्वारिंशानि योजनशतानि द्वौच एकोनविंशतिभागौ योजनस्य विष्कम्भेण, तस्य वाहा पौरस्त्यपश्चिमेन विंशति योजनसहस्राणि एकं च पञ्चपष्टं योजनशतं द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य अद्धभागं च आयामेन, नस्य जीवा उत्तरेण यावत् चतुर्नवति योजनसहस्राणि एकं च पटू पञ्चाशं योजनशतं द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य आयामेनेति, तस्य धनुः दक्षिणेन एक योजनशतसहस्रं चतुर्विंशति च योजनसहस्राणि त्रीणि च पट्चत्वारिंशानि योजनशतानि नव च एकोनविंशति भागान् योजनस्य परिक्षेपेणेति रुचकसंस्थानसंस्थितः सर्वतपनीयमयः अच्छ: उभयोः पाचयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां यावत् संपरिक्षिप्तः, निषधस्य खलु वर्पधरपर्वतस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, यावद् आसते शेरते तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागः पत्र खलु महानेका तिगिछि (पुष्परजो) दो नाम हृदः प्रज्ञसः, प्राचीनप्रतीचीनायतः उदीचीन दक्षिण विस्तीर्णः चत्वारि योजनसहस्राणि आयामेन द्वे योजनसहस्रे विष्कम्भेण दश योजनानि उद्वेधेन अच्छः श्लक्ष्णः रजतमयकलः तस्य खलु तिगिछि (पुष्प रजो) इदस्य चतुर्दिशि चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकानि प्रज्ञसानि, एवं यावत् आयामविष्कम्भविधूता (विहीना) या एव महा.. पद्मदस्य वक्तव्यता सा एव तिगिछि (पुष्परजो) इदस्यापि वक्तव्या तदेव पद्महद प्रमाणम् । अर्थों यावत् तिगिछि (पुष्परजो) वर्णानि, धृतिश्चात्र देवि महर्द्धिका यावत् पल्योपमस्थि। तिका परिवसति, अथ तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-तिगिछि (पुष्परजो) हृदः २ ॥सू० १५॥ । टीका-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे २' इत्यादि, 'कहिणं भंते । जंबुद्दीवे २ णिसहे णाम । वासहरपव्वए पण्णत्ते कुत्र खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे निपधो नाम वर्पधरपर्वतः प्रज्ञप्तः ?
भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'महाविदेहस्स वासस्स दक्खिणेण हरिवासस्स उत्तरेणं
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पुरत्थिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुढीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपबए पण्णत्ते' महाविदेहस्य वर्षस्य दक्षिणेन हरिवर्पस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन, अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे निपधो नाम वर्पधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, 'पाईणपडीणायए उदीण दाहिण विच्छिण्णे दुहा लवणसमुदं पुढे' प्राचीनप्रतीचीनायतः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः, पुरथिमिल्लाए जाव पुढे पच्चस्थिमिल्लाए जाव पुढे' नवरं पौरस्त्यया यावत् यावत्वदेन 'कोटया पौरस्त्यलवणसमुद्रम्' इति सग्राह्यम् स्पृष्टः स्पृष्टवान् पाश्चात्यया यावत् यावत्पदेन
'कहिणं भंते ! जंधुद्दीवे २ णिसहे णामं वासहरपवए' इत्यादि
टीकार्थ-गौतमने प्रभु से पूछा है-(कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपन्चए पण्णत्ते) हे भदन्त ! इस जम्बुद्वीप नामके ढीप में निषध नाम का वर्षधर पर्वत कहाँ पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स दक्खिणेणं हरिवासस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थि. मेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे णिसहे णाम वासहरपञ्चए पण्णत्ते) हे गौतम! महाविदेह की दक्षिण दिशा में और हरिवर्ष क्षेत्र की उत्तर दिशा में पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिमदिशा में एवं पश्चिम दिग्वर्ती लवण समुद्र की पूर्व दिशा में जम्बूद्वीप के भीतर निषध नामका वर्षधर पर्वत कहा गया है। (पाईणपडीणायए) यह पर्वत पूर्व से पश्चिम तक लंबा है (उदीणदाहिणविच्छिण्णे) तथा उत्तर से दक्षिण तक विस्तृत है (दुहालवणसमुदं पुढे) यह अपनी दोनों कोटियों से लवणसमुद्र को छू रहा हैं-(पुरस्थि मिल्लाए जाव पुढे पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुठे) पूर्वदिग्वर्ती कोटि से पूर्वदिग्वती लवणसमुद्र को और पश्चिमदिरवर्ती कोटि से पश्चिदिग्वर्ती लवणसमुद्र को छूता 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे २ णिसहे णाम वासहरपव्यए' इत्यादि
-गौतमे प्रसुने प्रश्न ध्या-'कहिणं भते ! जंबुद्दीवे दीवे णिसहे णाम वासहरपव्यए पण्णत्ते' ' ! म पुदीपभा निधनाम४ १५२ पत ४या स्थणे मारत छे १ वाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा! महाविदेहस्स वासस्स दक्खिणेण हरिवासास उत्तरेणं पुरथिम लवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ ण जवुहीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते' है गौतम ! महाविनी दक्षिामा અને હરિવર્ષ ક્ષેત્રની ઉત્તર દિશામાં પૂર્વદિશ્વતી લવણું સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ પશ્ચિમ દિવતી લવ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં જંબુદ્વીપની અંદર નિથ नाम पंधर त गावी . 'पाईणपडीणायए' से पत पूर्वथी पश्चिम सुधा समा छ. 'उदीण दाहिणवित्थिण्णे' तेभर उत्तरथी दक्षिण सुधी विस्तृत छ. 'दुहा लवणसमुहं पुढे कसे पातानी मन्नोटिसाथी सवय समुद्रने २५॥ २९८ छ. 'पुरथिमिल्लाए । जाव पुढे पच्चस्थिमिल्लाए जाव पुढे पूर्व हित रथी पूति सक्युसमुद्र मन
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षरकारः सू० १५ निपधवर्षधरपर्वतनिझपणम् -'कोट्या पश्चिमलवणसमुद्रम्' इति सङ्ग्राह्यम् स्पृष्टः, तस्य मानमाह-'चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उव्वे हेणं सोलस जोयणसहरसाई चत्वारि योजनशतानि उर्ध्वमुच्चत्वेन, चत्वारि गव्यूतशतानि उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन, पोडशयोजनसहस्राणि 'अट्टयबाबाले जोयणसए' अष्ट च द्वाचत्वारिंशानि द्विचत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि 'दोणि य एगूणवीसइमाए' द्वौ च एकोनविंशति भागौ 'जोयणस्स विक्खंभेणं' योजनस्य विष्कम्भेण, महाहिमवतो द्विगुणविष्कम्भमानत्वात, तस्य बाहामानमाह-'तस्स वाहा' इत्यादि 'तस्स बाहा पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं वीसं जोयणसहस्साई' तस्य निपधस्य वर्षधरपर्वतस्य पाहा पौर-, स्त्यपश्चिमेन पूर्वपश्चिमयोः विंशतियोजनसहस्राणि 'एगं च पण्णवं जोयणरायं' एकं च पञ्चपष्टं पञ्चषष्टयधिक योजनशतं 'दुण्णि य एणूण वीसइभाए जोरणस्स अद्धभागं च आयामेणं' द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य अर्द्धभागं च आयामेन । तस्य जीशस्वरूपपानमाह-'तस्स जीवा उत्तरेणं जाव चउणवई जोयणसहरसाई एगं च छप्पणं जोयणसयं तस्य जीवा उत्तरेण उत्तरदिग्भागे यावत् यावत्पदेन-'प्राचीनप्रतीची नायता द्विधातो लवणसमुद्रस्पृष्टा पौरस्त्यया । कोट्या पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यलवणसमुझं स्पृष्टा' इति सङ्ग्राह्यम्, चतुर्नवति योजनसहस्त्राणि एकं च पट् पच्चाशं पट् पञ्चाशदधिकं योजनशतं 'दुग्णिय एगूगत्रीसइमाए जोगणस्स आयायेणंति द्वौ च एकोनविंशति भागौ योजनस्य आयामेन है (चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेणं लोलस जोयणसहस्साई अष्ट्रय बायाले जोयणसए दोणिय एशूणवीसहभाए जोयणस्स विक्खंभेणं) इसकी ऊंचाइ ४०० योजन की है इसका उद्देध ४०० कोश का है तथा विष्कम्भ इसका १६८४२२२ योजन का है (तस्त वाहा पुरथिमपच्चत्थिमेणं बीस जोयणसहस्साई एगं च पण्णटं जोयणसयं दुण्णिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेगं) तथा इसकी वाहा-पार्श्वभुजा-पूर्वपश्चिम में आयाम की अपेक्षा २०१६५२२ योजन एवं अर्धभाग प्रमाण है। (तस्स जीवा उत्तरेगं जा चउणवई जोयणसहस्साई एगंच छप्पण्णं जोयणसयं दुणि य एगूणवीसहभाए जोषणस्स आयामेणंति) तथा इसकी उत्तर जीवा का आयाम पश्चिम
तिथी पश्चिम हिवती समुद्रने २५ २६ छे. 'चत्तारि जोयण. सयाई उद्धं उच्चत्तण चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेणं सोलस जोयणसहस्साई अढ य बायाले जोयणसए दोणिय एगूणवीसइमाए जोयणस्स विक्खभणं' भनी या ४०० यौन सी छे. मेना द्वेध ४८० २। छ, तभ वि०४ १९८४२ २. यौन शो छ. 'तस्सवाहा पुरथिमपच्चस्थिमेणं वीसं जोयण सहस्साई एगं च पण्णटुं जोयणसयं दुण्णिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्वभागं च आयामेणं' मा मेनी पाई-
पास-पूर्व पश्चिममा मायामयी अपेक्षाये २०१७५ है। योग तेभर म मा प्राय छे. 'तस्स जीवा उत्तरेणं जाव चउणवई जोयणसहस्साई एगं च छप्पण्णं जोयणसयं दुण्णिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स ભચાળતિ તેમજ એની ઉત્તર જીવાનું આયામની અપેક્ષાએ એ પ્રમાણ ૯૪૧૫૬ ૨ જન
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जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्र ध्येण इति, तस्य धनुप्पृष्ठमाह-'तस्स धणुं' इत्यादि, तस्य धनुः 'दाहिणेणं एगं जोय. णसयसहस्सं चचवीसं च जोयणसहस्साई तिण्णिय छायाले जोयणसए णवय एगृणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणंति' दक्षिणेन एक योजनशतसहस्रं चतुर्विशतिं च योजनसहस्राणि त्रीणि च पट् चखारिंशानि योजनशतानि नव च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेणेति, एवं वाह्यादि त्रयमुक्त्वा निप, विशिनष्टि-'रुयगसंठाणसंठिए' रुचकसंस्थानसंस्थित:-रुचकं भूपणविशेपः तस्य संस्थानेनाऽऽकारेण संस्थितः वर्तुलाकार इत्यर्थः, 'सव्वतवणिज्जमए अच्छे' सर्वतपनीयमयः-सर्वात्मना विशिष्ट स्वर्णमयः, अच्छः इत्युपलक्षणं श्लक्ष्णादीनां तत्सङ्ग्रहः सार्थः प्राग्वत्, तजिज्ञासोत्कण्ठितचित्तैश्चतुर्थसूत्र टीका विलोकनीया । 'उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिय व्रणसंडेहिं जाव संपरिक्खित्ते' उभयोः द्वयोर्दक्षिणोत्तरयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां यावत यावत्पदेन-'सर्वतः समन्तात्' इति सङ्ग्राह्यम् संपरिक्षिप्तः परिवेष्टितः' अथ निपवर्षधरपर्वतोपरिवर्ति भूमिभागे देवानामासनशयनादिकमाह-'णिसहस्स णं' इत्यादि, निपधस्य खल की अपेक्षा प्रमाण ९४१५६ योजन का है। (तस्स धणु दाहिणेणं एगं जोयणसयसहस्सं चउवीसं जोयणसहस्साई तिणिय छायाले जोयणसए णवयएगूणवीसहभाए जोयणस्स परिक्खेवेणंति) इसके धनु:पृष्ठ का प्रमाण परिक्षेप की अपेक्षा दक्षिणदिशा में १२४३६४ :योजन का है अर्थात् एक योजन के १९ भागों में से ९ भाग अधिक है। (स्यगसंठाणसंठिए सचतवणिजमए अच्छे उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहि दोहि य वणसंडेहिं जाच संपरिक्वित्ते) इसका संस्थान रुचक के संस्थान जैसा है यह सर्वात्मना तससुवर्णमय है आकाश
और स्फटिक के समान यह बिलकूल निर्मल है इसके दोनों दक्षिण उत्तर के पावभागों में दो पद्मवर वेदिकाएं और दो वनषण्ड है-उनसे यह चारों ओर से अच्छी तरह से घिरा हुआ है यहां यावत्पद से "सर्वतः समन्तात् " इन पदों का ग्रहण हुआ है । (णिसहस्स णं वासहरपव्ययस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे २८ छे. 'तस्स धणु दाहिणेणं एग जोयणसयसहस्सं चउत्रीसं जोयणसहस्साई तिण्णिय छायाले जोयणसए णवय एगृणवीसभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं ति' सेना धनुनु प्रभार पा२.
ની અપેક્ષાએ દક્ષિણ દિશામાં ૧૨૪૩૬૪ જન જેટલું છે એટલે કે એક જનના १८ मामाथी ८ मा अधि४ छ. 'रुयगसंठाणसंठिए सव्वतवणिजमए अच्छे उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेडआहिं दोहि य वणसंडेहिं जाव संपरिक्खित्ते' मेनु संस्थान રૂચકના સંસ્થાન જેવું છે એ સર્વાત્મના તતસુવર્ણમય છે. આકાશ અને સ્ફટિકની જેમ એ તદન નિર્મળ છે. એના અને દક્ષિણ ઉત્તરના પાશ્વ ભાગમાં બે પાવર વેદિકાઓ છે અને બે વનખ છે. તેનાથી એ ચેમેરથી સંપૂર્ણ રૂપમાં પરિવૃત છે. અહીં -' यापत् ५४था 'सर्वतः समन्तात्' से यह ४२राया छ. 'णिसहस्स णं वासहरपव्वयस्स
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू० १५ निषधवर्षधर पर्वत निरूपणम्
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'वासहरपव्ययस्स उपि बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते जाव आसमंत संयंति' वर्षघरपर्वतस्य उपरि वहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, यावद् आसते शेरते, अत्र यावत् यावत्पदेन - भूमिभागवर्णन परमालिङ्ग पुष्करादिपदनिकुरम्वं सङ्ग्राह्यम् तत्सर्वं जिज्ञासुभिः राजप्रश्नीय - सूत्रस्य पञ्चदशसूत्रं विलोकनीयम् व्याख्या चास्य तत्सूत्रस्य मत्कृतसुबोधिनी टीकrतो बोध्या, अथ पुष्परजोहूद वक्तव्यमाह - ' तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसमाए' तस्य खल बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य वहुमध्यदेशभागः अत्यन्त - मध्यदेश भागोऽस्ति 'एत्थ णं महं एगे तिगिंछिद्दहे ण'मं दहे पण्णत्ते' अत्र अत्रान्तरे महाने कः पुष्परजो हूदो नाम हूदः प्रज्ञप्तः, सूले तिििछ ह्रद इति कथितम् तत्र पुष्प रजशब्दस्य स्थाने तिछियादेशो बोध्यः, यद्वा देशीयोऽयं शब्दः, तत्पक्षे अपि स एवार्थः, तस्य मानाद्याह- ' पाईणपडीणायए उदीण दाहिणविच्छिण्णे चचारि जोयणसहस्साई आयामेणं' प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतः उदोचीन दक्षिणविस्तीर्णः चखारि योजनसहस्रा ण आयामेन 'दो भूमिभागे पण्णत्ते, जाव आसयंति, सयंति) निषेध वर्षधर पर्वत का ऊपरी भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है यावत् उसपर आकर देव और देवियां rant बैठती रहती है और आराम करती रहती है यहां यावत्पद ग्राह्य पाठको देखने को इच्छा वालों को राजप्रश्नीय सूत्र के १५ वेंसूत्र की टीका अवलोकन करनी चाहिए (तस्स णं बहुसमरमणिज्जस भूमिभागस्स नहूमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे तिछिद्द हे णामं दहे पण्णसे) इस वर्षधर पर्वतके बहुसमरमणीय भूमिभागके ठीक बीच में एक विशाल तिमिच्छिद्रह - पुष्परज- नामका द्रह कहा गया है (पापडीणा उदीर्णदाहिणविच्छिष्णे चत्तारि जोयणसहस्साइं आयामेणं दो जोयणसहस्सा विक्खंभेणं दस जोयणाई उच्चेहेणं अच्छे सण्णे रययामयकूले) यह द्रह पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है और उत्तर दक्षिण दिशा में विस्तृत हैं उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव आसयंति, सयंति' निषेध वर्षधर पर्वत । ઉપરિ ભૂમિભાગ બહુસમરમણીય છે. યાવત્ તેની ઉપર દેવ આ દેવીએ આવીને ઉઠતી मेसती रहे छे, अने आराम हरे छे. अहीं 'यावत्' यह न्यावेस छे. मे पहथी ने पाह ગ્રાહ્ય થયા છે તે ‘રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર” ના ૧૫ સૂત્રની વ્યાખ્યામાં નિરૂપિત થયેલ છે, તા જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જાણવા યત્ન કરે.
'तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स वहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे तिगिंछ दहे णामं दहे पण्णत्ते' ये वर्षधर पर्वतना बहुसभरभाषीय लूभिभागना ही मध्यमां श्रेष्ठ विशाण तिथिच्छिद्रह - पुष्यरत्र - नाभ द्रड मावेस छे. 'पाईणपडीणायए उदीण दाहिणविच्छिण्णे चत्तारि जोयणसहस्साई आयामेणं दस जोयणाई उब्वेहेणं दो जोयणसहस्साईं विक्खभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामय कूले' मे द्रड पूर्वथा पश्चिम सुधी લાંખા છે અને ઉત્તર દક્ષિણ દિશામાં વિસ્તૃત છે. એના આયામ ચાર હજાર ચેાજન જેટલે
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
जोयणसहस्साई निक्भेणं दसजोयणाई उब्वेहेणं अच्छे सण्ठे रययामयकूछे' द्वे योजनसहस्त्रे विष्कम्भेण दशयोजनानि उद्वेधेन अच्छः लक्ष्णः रजतमयकूलः, अथास्य सोपानादि वर्णनायाह- 'तल्स णं' इत्यादि 'तस्स णं तिर्गिच्छिदहस्स चउद्दिसिं चत्तारि 'तिसोवाणपडिवगां पण्णत्ता' तस्य पुष्परजोहृदश्य चतुर्दिश दिक्चतुष्टये चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि सुन्दराणि त्रिसोपानानि प्रज्ञशानि 'एवं जाव' एवम् अनेन प्रकारेण इदे वर्ण्यमाने यावत् परिपूर्णा 'आयामधिक्खंभःबहूणा' आयायविष्कम्भविधृता (विहीना ) 'जा चैव महापउमदरस वत्तव्यया सा चैव तिर्मिच्छदारस वि' यैव महापत्रस्य वक्तव्यता सैव पुष्परजो हृदस्यापि 'वत्तव्यया' वक्तव्यता, एतदेव स्पष्टीकर्तुमाह- 'तं चैव पउमदहप्पमाणं तदेव पद्द्महद प्रमाण मित्यादि - तदेव महापद्महृद्गतमेव प्रमाणं धृतिदेवी कमलानां प्रमाणम्, विंशत्युतरकशताविक पञ्चाशत्सहस्राधिकविंशतिललोत्तरैक कोटिरूपम् १२०५०१२०, अन्यथाऽत्र इसका आयाम चार हजार योजन का है और विक्रम्भ दो हजार योजन की है उद्वेध इसका दस योजन का है यह आकाश और स्फटिक के जैसा निर्मल हैं चिकना है इसका कूल रजतमय है मूल में " तिमिच्छि " ऐसा निपाल होता है अथवा 'तिमिठि' यह देशी शब्द है (तस्स णं तिगिछिद्दहस्स चउदिति चतारि तिसोवाणपडिख्या पण्णत्ता) उस तिगिंधि ब्रहकी चारों दिशाओं में त्रिसोपान प्रतिरूपक कहे गये हैं (एवं जाव आयामविक्खंभ विहगा जा चैव महापउम हहस्स वक्तव्या सा चेव तिर्गिच्छिद्दहस्त वि वत्तव्या, तं चैव पउमद्दहपमाणं अट्ठो जाव तिगिंधि वण्णाइ) इस सूत्र पाठ में यावत् शब्द सम्पूर्णता का वाचक हैं अतः आयाम और विष्कम्भ को छोड़कर जो महापद्महूद की वक्तव्यता कही गई है वही तिमिदि की भी वक्तव्यता जाननी चाहिये इस तरह जैसा प्रमाण महापद्महद्गत कमलका कहा गया है - अर्थात् महापद्महूदगत हमलों का प्रमाण संख्या १ करोड २० लाख ५० हजार एक सौ २० कहा गया है सो यही प्रमाण છે અને વિષ્ણુભ એ હુંજાર ચાજન જેટલે છે. એના ઉદ્વેષ દશ ચેાજન જેટલે છે. એ આકાશ અને સ્ફટિક જેવા નિર્માળ છે અને એ ચીકણા છે. એના તટા રજતમય છે. भूसभां 'तिगिछिहद' येवो या छे. तो पुष्परन्ना स्थानमा 'तिगिच्छि' थेवेो नियात थाय छे. अथवा 'तिगिछि' मे देशी शुद्ध छे. 'तस्स णं तिगिछिद्दहस्स चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडिनगा पन्नत्ता' ते तिणिछिद्रहनी थामेर त्रिसोपान अति इस छे ' एवं जाव आयाम त्रिक्वंभविणा जा चैव महो पउम्दहस्स वत्तव्वया सा चेव तिमिच्छि हम्स वि वक्तव्या, तं चैव परमद्दहपमाणं अट्ठो जात्र तिगिंलि वण्णाइ' को सूत्रपाठभां ચાવત્ શબ્દ સતા વાચક છે. એથી આયામ અને વિષ્ણુભને ખાદ્ય કરીને જે મહા પદ્મદની વક્તતા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે, તેજ તિગિ હિાની પણ વક્તવ્યતા છે. આ પ્રમાણે જે રીતે મહાપદ્મહ્દગત ફમળાનું' પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે, એટલે કે મહા
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० १५ निषधवर्षधरपर्वत निरूपणम् कमलानामायामविष्कम्भरूपप्रमाणस्य महापद्मइदगतपद्मेभ्यो द्विगुणत्वेन विरोधापतेः, हृदस्य प्रमाणमुद्वेधरूपं बोध्यम् आयामविष्कम्भयोः पृथगुक्तवादिति, 'अट्ठो जाव तिगिंछिवण्णा' अर्थः नामार्थस्तस्य वक्तव्यः, रा चैवम् अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते इत्यादि प्राग्वत् यावत् यावत्पदेन तत्र बहूनि उत्पलकुमुद सुभगसौगन्धिक पुण्डरीक शतपत्र सहस्र " पत्राणि फुलानि केस रोपचितानि ' इति सङ्ग्राह्यम् । पुष्परजोवर्णानि तेन पुष्परजः प्रधानस्वादयं पुष्परजोहदइत्येवमुच्यते, 'धिई य इत्थ देवी पलिभोवमहिईया परिवस' धृतिश्रात्र देवी अधिष्ठातृदेव परिवसति सा कीदृशी ? इत्याह- महर्द्धिका यावत् पल्योपमस्थितिका 'महर्द्धिका' इत्यारभ्य पल्योपमस्थितिकेति पर्यन्तानां शब्दानामत्र सङ्ग्रहो बोध्यः, सच सार्थोऽष्टमसूत्राद्बोध्यः शेषं प्राग्वत्, 'से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ तिर्गिछिद्द २' अथ तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते पुष्परजोहूदः २ इति ॥ ०१५ ||
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धृति देवी के कमलों का यहां पर भी जानना चाहिये यहां इस प्रमाण शब्द से इनका आयाम विष्कम्भ रूप प्रमाण नहीं समझना चाहिये क्योंकि वह तो महापद्महूदगत कमलों के प्रमाण से द्विगुणा कहा गया है तथा इद का जो यहां प्रमाण कहा गया है वह उद्वेध का प्रमाण कहा गया है ऐसा जानना चाहिये आयाम और विष्कम्भ का जो प्रमाण कहा गया है वह तो पृथक रूप से सूत्रकारने स्वयं ही ऊपर में कह दिया है अर्थ शब्द से " हे भदन्त ! इस जलाशयको आपने किस कारण से तिमिच्छिद्रह ऐसा कहा है यहां गौतम का प्रश्न लिया गया है । इसपर ऐसा प्रभुकी ओर से उत्तर दिया गया है कि हे गौतम! यहां पर तिमिछिद्रह के वर्ण जैसे उत्पल आदि होते हैं तथा (घिई अ इत्थदेवी महिड्डिया जान पलिओचमहिईआ परिवसह, से तेणद्वेगं गोयमा ! एवं बुच्चइ तिगिंछिद्दह्ने २) यहां पर महर्द्धिक यावत् एक पल्योपमकी स्थिति वाली धृती
પદ્મહૃદંગત કમળાની પ્રમાણુ સંખ્યા ૧ કરાડ, ૨૦ લાખ, ૫૦ હજાર ૧ સા ૨૦ જેટલી કહેવામાં આવેલી છે તે ધૃતિ દેરીના કમળાનુ પ્રમાણુ અત્રે આટલું જાણી લેવું જોઈએ, અહીં એ પ્રમાણુ શબ્દથી એમનુ આયામ વિષ્ણુભ રૂપ પ્રમાણુ સમજવુ નહિ જોઈએ. કેમકે તે તે મહા પદ્મહેઇંગત કમળાના પ્રમાણથી ખમણુ કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ હદનુ જે અત્રે પ્રમાણુ સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે તે તેના ઉદ્વેષનુ પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે એવું જાણવુ જોઇએ. આયામ અને ષ્કિંલનુ જે પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે તે તે પૃથક્ રૂપમાં સૂત્રકારે પોતે જ ઉપર સ્પષ્ટ કરી દીધુ છે. અ શબ્દથી હુ ભત! એ જલાશયને આપશ્રીએ શા કારણથી તિગિòિ દ્રઢુ એ નામથી સંખેાધિત કરેલ છે ? ' એવા અત્રે. ગૌતમના પ્રશ્ન ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. પ્રભુ તરફથી એ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે કે હૈ ગૌતમ ! અહીં તિગિષ્ટિ દ્રહના વણુ જેવા ઉપલા વગેરે હાય छे. ते 'धिईअ इत्थ देवी महिड्डिया जाव पलिभोवमहिईआ परिवसइ. से तेणणं
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__ जम्बूढीपप्रनप्तिसूत्र आथास्माद् या नदी दक्षिणेन प्रवहति तामाह-'तस्स णं तिमिछिद्दहस्स' इत्यादि, .
मूलम्-तस्लणं तिगिछिद्दहस्स दकिम्वणिल्लेणं तोरणे गं हरिमहाणई पवूढा समाणी सत्त जोयणसहस्साई चत्तारिय एकवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पत्रएणं गंता महयाघडसुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउ जोयणसइएणं पवाएणं पवडइ, एवं जा चेत्र हरिकंताए वत्तव्वया सा चेव हरीए वि णेयवा, जिभियाए कुंडल दीवस्स भवणस्स तं चेव पमाणं अट्रो वि भाणियव्वो जांव अहे जगई दलइत्ता छप्पण्णाए सलिलासहस्से हिं समग्गा पुरस्थिमं लवणसमुदं समप्पेइ, तं चेव पबहे य सुहमूले य पमाणं उव्वेहो य जो हरिकताए जाव वणसंड्रसंपरिक्खित्ता, तस्स णं तिगिछिद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओथा महाणई पवूढा समाणी सत्त जोयणसहस्लाइं चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोयणस्त उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउजोयणलइएणं पवाएणं पवडइ, सीओयाणं महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिभिया पण्णत्ता, चत्वारि जोयणाई आयामेणं पण्णास जोयणाई विक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुहविउ संठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा, सीओया णं महागई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे नामकी देवी रहती है इस कारण हे गौतम इसका नाम तिगिछिद्रह ऐसा कहा है " अहो जाय" यहां जो यावत्पद आया है उससे " तत्र बहनि उत्पलकुमुद सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र सहन्त्रपत्राणि फुल्लानि केसरोपचितानि" यह पाठ गृहीत हुआ है महर्द्विका के साथ आगत यावत् पद ग्राह्य पदों का संग्रह अष्टम सत्र से जान लेना चाहिये ॥१५॥ गोयमा ! एवं बुच्चई तिगिछिदहे २२ मही भरवि यावत् पट्यापम रटना स्थिति વાળી ઘતિ નામક દેવી રહે છે. એ કારણથી હે ગૌતમ! એનું નામ તિગિછિ કહે એવું राणवाभा मा०यु छे. 'अद्रो जाव' मी २ यावत ५४ गावस छ, तनाथी 'तत्र बनि उत्पल-कुमुद, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्राणि, फुल्लानि केसरोपचितानि सा8 सहीत छ. महनी साथमावत 'यावत' ५४ श्राहा पाउ અષ્ટમસવમાં કરવામાં આવેલ છે. જિજ્ઞાસુ લેકે ત્યાથી જાણવા યત્ન કરે છેસ. ૧૧ |
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सं. १६ तिगिच्छदातू दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १३९ सीओयप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, चत्तारि असीए जोयणसए आया. मविक्खंभेणं पण्णरसअटारे जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं अच्छे, एवं कुंडवत्तव्यया णेयव्वा जाव तोरणा । तस्स णं सीओयप्प. वायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे सीओयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, चउसट्टि जोयणाई आयामविक्खंभेणं दोषिण वि उत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं दो कोसे असिए जलंताओ सम्ववइरामए अच्छ, सेसं तमेव वेइया वणसंडभूमिभाग भवणसयणिज्ज अटो भाणियव्यो, तस्स णं सीओयप्पवायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओया महाणई पबूढा समाणी देवकुरुं एज्जेमाणा एज्जेमाणा चितविचित्तकूडे पव्वए निसढदेवकुरु सूरसुलसविज्जुप्पभदहे य दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी२ भदसालवणं एज्जेमाणी२ मंदरं पठत्रयं दोहिं जोयणेहिं असंपत्ता पञ्चस्थिमाभिमुही आवत्ता समाणी अहे विज्जुप्पभंवक्खारपव्वयं दारइत्ता मंदरस्स पव्वयस्त पञ्चत्थिमेणं अवरविदेह वासं दुहा विभयमाणी२ एगमेगाओ चकवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाएर सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ पंचहिं सलिलासयसहस्सेहिं दुतीसाए य सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जयंतस्स दारस्त जगई दालइत्ता पञ्चस्थिमेणं लवणसमुदं समुप्पेइ, सीओया णं महाणई पवहे पण्णासं जोय. णाई विक्खंभेणं जोयणं उव्वेहेणं, तयणंतरं चणं मायाए परिवद्धमाणीर मुहमूले पंच जोयणसयाइं विक्खंभेणं दस जोयणाई उठवेहेणं उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता। णिसढेणं भंते ! वासहरपवए णं कइकूडा पण्णत्ता ?, गोयमा! णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे १ णिसढकूडे २ हरिवासकूडे ३ पुलविदेहकूडे४ हरिकूडे ५ धिईकूडे ६ सीओयाकूडे ७ अवरविदेहकूडे ८ रुयगकूडे ९, जो चेव चुल्लहिमवंतकूडाणं उच्चत्तविक्खंभपरिक्खेवो पुववणिओ रायहाणी य सच्चेव इहं पि णेयव्वा, से केणटुणं भंते । एवं
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र वुच्चइ णिसहे वासहरपबए२१, गोयमा णिसहे णं वासहरकव्वए कूड़ा णिसह संठाणसंठिया उसमसंठाणसंठिया, णिसहे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमटिइए परिवसइ, से तेणटुणं गोयमा ! एवं बुच्च णिसहे वासहरपव्वए २ ॥सू०१६॥ ___ छाया-तस्य खलु तिगिच्छिदस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन हरिन्महानदी प्रव्यूढासती साप्त योजनसहस्राणि चत्वारि च एकविंशानि योजनशतानि एकं च एकोनविंशतिभागं योजनस्य दक्षिणाभिमुखीपर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तिकेन यावत् सातिरेक चतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, एवं यैव हरिकान्ताया वक्तव्यता सैव हरितः अपि नेतन्या, जिहिकायाः कुण्डस्य द्वीपस्य भवनस्य तदेव प्रमाणम् अर्थोऽपि भणितव्यः यावद् अधो जगतीं दारयिखा पट् पञ्चाशता सलिलासहस्रः समग्रा पौरस्त्यं लवणसमुद्रं समाप्नोति, तदेव प्रबहे च मुखमूले च प्रमाणम् उद्वेधश्च यो हरिकान्तायाः यावद् वनषण्ड संपरिक्षिप्ता, तस्य खलु तिगिच्छिदस्य औतराहेण तोरणेन शीता महानदी प्रव्यूढा सती सप्तयोजनसहस्राणि चत्वारि च एकविंशानि योजनशतानि एकं च एकोनविंशति भागं योजनस्य उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तिकेन यावत् सातिरेक चतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, शीतोदा खल महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महत्येका जिबिका प्रज्ञता, चत्वारि योजनानि आयामेन पञ्चाशतं योजनानि विष्कम्भेण योजनं वाहल्येन मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता सर्ववज्रमयी अच्छा, शीतोदा खलु महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेक शीतोदा प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् चत्वारि अशीतानि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण पञ्चदश अष्टादशानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेपोनानि परिक्षेपेण अच्छम् एवं कुण्डवक्तव्यता नेतव्या यावत् तोरणाः । तस्य खलु शीतोदा प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः, अन खलु महानेकः शीतोदा द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, चतुष्पष्टिं योजनानि आयामविष्कम्भेण द्वे द्वयुत्तरे योजनशते परिक्षेपेण द्वौं क्रोशावुच्छ्रितो जलान्तात सर्ववज्रमयः अच्छः, शेपं तदेव वेदिका वनपण्ड भूमिभाग भवनशयनीयार्थों भणितव्या, तस्य खलु शीतोदा प्रपातकुण्डस्य औत्तराहेण तोरणेन शीतोदा महानदी प्रव्यहा सती देवकुरु मेजमाना २ चित्रविचित्रकटौ पर्वतौ निपधदेवकुरुतरमुलसविधुत्प्रमहदांश्च द्विधा विभजमाना २ चतुरशीत्या सलिलासहस्रेः आपूर्यमाणा २ भद्रशालवन मेजमाना २ मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां योजनाभ्यामसम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी आवृत्ती सती अधीविद्युत् प्रभं वक्षस्कारपर्वत दारयित्वा मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमेन अपरविदेहं वर्षे द्विधा विभज: माना २ पञ्चभिः सलिलाशतसहस्रैः द्वात्रिंशता च सलिलासहस्रः समग्रा अधो जयन्तस्य द्वारस्य जगती दारयित्वा पश्चिमेन लवणसमुद्रं समाप्नोति, शीतोदा खलु महानदी प्रवहे पञ्चाशतं योजनानि विष्कम्भेण योजनमुद्वेधेन, तदनन्तरं च खलु मात्रया मात्रया परिवद्धमाना र मुखमूले पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण दश योजनानि उद्वेधेन उभयोः पाश्वेयो द्वाभ्या
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. १६ तिगिच्छदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १४१ पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता, निपधे खलु भदन्त ! वर्षधरपर्वते खलु कतिकूटानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! नवकूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा सिद्धायतनटं १ निप. धक्टं २ हरिवर्ष कूटं ३ पूर्वविदेहकूटं ४ हरिकूटं ५ धृतिकूटं ६ शीतोदाकूट ७ अपरविदेह कूटम् ८ रुचककूटम् ९ य एव क्षुद्रहिमवत्कूटानामुच्चत्वविष्कम्भपरिक्षेपः पूर्ववर्णितः राजधानी च सा एव इहापि नेतव्या, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते निपधो वर्पधरपर्वतः२१, गौतम ! निपधे खलु वर्पधरपर्वते वहूनि कूटानि निपघसंस्थानसंस्थितानि ऋषभसंस्थानसंस्थितानि, निपश्चात्रदेवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते निपधो वर्षधरपर्वतः २ ॥ सू० १६॥ ___टीका-'तस्स णं तिगिछिद्दहस्स' इत्यादि, 'तस्स णं तिगिछिदहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं हरिमहाणई पबूढा समाणी सत्त जोयणसहस्साई चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोयणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घटमुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउजोयणसइएणं पवाएणं पवडइ तस्य अनन्तरोक्तस्य खलु तिमिञ्छिदस्य दाक्षिणात्येन दक्षिणदिग्भवेन तोरणेन बहिरेण हरिन्महानदी हरिनामनी महानदी प्रव्यूढा निर्गता सती सप्तयोजनसहस्राणि चत्वारि च एकविंशानि-एकविंशत्यधिकानि योजयशतानि योजनस्यैकमेकोनविंशतिभागं च दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तिकेन यावत्सातिरेक चतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, इति प्राग्वत् , तत्र यावलंपदेन मुक्तावलिहारसंस्थितेनेति ग्राह्यम् , पर्वतगन्तव्यप्रदेशोपपत्तिस्तु-पोडश सहस्राष्टशत द्वाचत्वारिंशद्योजन ___ 'तल णं तिगिछिदहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं'-इत्यादि
टीकार्थ-(तस्सणं तिगिंछिद्दहस्स) उस तिगिंछिद्रहके (दक्खिणिल्लेणं) दक्षिणदिग्वर्ती (तोरणेणं) तोरण द्वार से (हरिमहाणई पबूढा समाणी) हरितू नाम की महानदी निकली है और निकलकर वह (सत्तजोयणसहस्साई चत्तारिय एकवीसे जोयणसए एगंच एगणवीसहभाग जोयणस्स दाहिणामुही पन्चएणं गंता मया घडमुहपवित्तिए णं जाव साइरेग चउ जोयण सइएणं पवाहेणं पचडइ) ७४२१. योजन तक उसी पर्वत पर दक्षिण दिशाकी ओर वही है और घट के मुख से बडेवेग के साथ निकले हुए मुक्तावलिहार के जैसे निर्मल अपने प्रवाह
'तस्स णं तिगि छिद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं' इत्यादि
ट-'तस्स णं तिगि छिदहस्स' ते तिमिछिद्रना 'दक्खिणिल्लेणं' दक्षिण हिवती' 'तोरणेणं' तोरण द्वारथी 'हरिमहाणई पबूढा समाणी' रित नामनी महानही नाणे छ भने नाणीने ते 'सत्त जोयणसहस्साई चत्तारिय एकवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभाग जोयणस्स दाहिणामुही पव्वएण गंता महया घडमुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउ जोयण सइएणं पवाहेणं पवडई' ७४२११८ यान सुधा ते पत ७५२ क्षिY GAL त२५ प्रवाहित થઈ છે, અને ઘટના મુખમાંથી અતીવ વેગ સાથે નીકળતા મુફતાવલિહારના જેવા નિર્મળ
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे बुच्चइ णिसहे वासहरपब्बए२?, गोयमा ! णिसहे णं वासहरकव्वए कूड़ा णिसह संठाणसंठिया उसमसंठाणसंठिया, णिसहे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमदिइए परिवसइ, से तेणटुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णिसहे वासहरपव्वए २ ॥सू०१६॥ __छाया-तस्य खलु तिगिच्छिदस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन हरिन्महानदी प्रव्यूढासती सप्त योजनसहस्राणि चत्वारि च एकविंशानि योजनशतानि एकं च एकोनविंशतिभागं योजनस्य दक्षिणाभिमुखीपर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तिकेन यावत् सातिरेक चतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, एवं यैव हरिकान्ताया वक्तव्यता सैव हरितः अपि नेतन्या, जिहिकायाः कुण्डस्य द्वीपस्य भवनस्य तदेव प्रमाणम् अर्थोऽपि भणितव्यः यावद् अधो जगतीं दारयिखा पट् पञ्चाशता सलिलासहजैः समग्रा पौरस्त्यं लवणसमुद्रं समाप्नोति, तदेव प्रबहे च मुखमूले च प्रमाणम् उद्वेधश्च यो हरिकान्तायाः यावद् वनषण्ड संपरिक्षिप्ता, तस्य खलु तिगिच्छिदस्य
औत्तराहेण तोरणेन शीता महानदी प्रव्यूढा सती सप्तयोजनसहस्राणि चत्वारि च एकविंशानि योजनशतानि एकं च एकोनविंशति भागं योजनस्य उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तिकेन यावत् सातिरेक चतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, शीतोदा खलु महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महत्येका जिविका प्रज्ञता, चत्वारि योजनानि आयामेन पञ्चाशतं योजनानि विष्कम्भेण योजनं वाहल्येन मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता सर्ववज्रमयी अच्छा, शीतोदा खल महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेक शीतोदा प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् चत्वारि अशीतानि योजनशतानि आयामविष्फम्भेण पञ्चदश अष्टादशानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण अच्छम् एवं कुण्डवक्तव्यता नेतव्या यावत् तोरणाः । तस्य खलु शीतोदा प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः, अन खलु महानेकः शीतोदा द्वीपो नाम द्वीप प्रज्ञप्तः, चतुष्पष्टि योजनानि आयामविष्कम्भेण द्वे द्वयुत्तरे योजनशते परिक्षेपेण द्वौं क्रोशावुच्छितो जलान्तात सर्ववज्रमयः अच्छः, शेपं तदेव वेदिका वनपण्ड भूमिभाग भवनशयनीयार्थों भणितव्यः, तस्य खलु शीतोदा प्रपातकुण्डस्य औत्तराहेण तोरणेन शीतोदा महानदी प्रव्यूढा सती देवकुरु मेजमाना २ चित्रविचित्रकूटौ पर्वती निपधदेवकुरुसूरसुलसविधुत्प्रमहदांश्च द्विधा विभजमाना २ चतुरशीत्या सलिलासहस्रः आपूर्यमाणा २ भद्रशालवन मेजमाना २ मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां योजनाभ्यामसम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी आवृत्ती सती अधीविद्युत् प्रमं वक्षस्कारपर्यंत दारयित्वा मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमेन अपरविदेहं वर्ष द्विधा विभजमाना २ पञ्चभिः सलिलाशतसहस्रः द्वात्रिंशता च सलिलासहस्रः समग्रा अधो जयन्तस्य द्वारस्य जगतीं दारयित्वा पश्चिमेन लवणसमुद्रं समाप्नोति, शीतोदा खलु महानदी प्रवहे पश्चाशतं योजनानि विष्कम्भेण योजनमुद्वेधेन, तदनन्तरं च खलु मात्रया मात्रया परिवर्द्धमाना २ मुखमुले पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण दश योजनानि उद्वेधेन उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्या
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. १६ तिगिच्छदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १४१ पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता, निपधे खलु भदन्त ! वर्षधरपर्वते खलु कतिकूटानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! नवकूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा सिद्धायतनकटं १ निप. धक्टं २ हरिवर्पटं ३ पूर्वविदेहकूटं ४ हरिकूटं ५ धृतिकूटं ६ शीतोदाकूटं ७ अपरविदेह कूटम् ८ रुचककूटम् ९ य एव क्षुद्रहिमवत्कूटानामुच्चत्वविष्कम्भपरिक्षेपः पूर्वर्णितः राज. धानी च सा एव इहापि नेतव्या, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते निपधो वर्पधरपर्वतः२ ?, गौतम ! निपधे खलु वर्पधरपर्वते वहनि कूटानि निषधसंस्थानसंस्थितानि ऋपभसंस्थानसंस्थितानि, निपश्चात्रदेवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते निपधो वर्षधरपर्वतः २ ॥ सू० १६ ॥
' टीका-'तस्स णं तिगिंछिद्दहस्स' इत्यादि, 'तस्स णं तिगिछिदृहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं हरिमहाणई पवूढा समाणी सत्त जोयणसहस्साई चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोयणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घटमुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउजोयणसइएणं पवाएणं पवडइ' तस्य अनन्तरोक्तस्य खलु तिगिन्छिदस्य दाक्षिणात्येन दक्षिणदिग्भवेन तोरणेन वहिारेण हरिन्महानदी हरिनामनी महानदी प्रव्यूढा निर्गता सती सप्तयोजनसहस्राणि चत्वारि च एकविंशानि-एकविंशत्यधिकानि योजयशतानि योजनस्यैकमेकोनविंशतिभागं च दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तिकेन यावत्सातिरेक चतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, इति प्राग्वत् , तत्र यावल्पदेन मुक्तावलिहारसंस्थितेनेति ग्राह्यम् , पर्वतगन्तव्यप्रदेशोपपत्तिस्तु-पोडश सहस्राष्टशत द्वाचत्वारिंशद्योजन - 'तस्मण तिमिछिद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं'-इत्यादि
टीकार्थ-(तस्सणं तिगिछिद्दहस्स) उस तिगिछिद्रहके (दक्खिणिल्लेण) दक्षिणदिग्वर्ती (तोरणेणं) तोरण द्वार से (हरिमहाणई पबूढा समाणी) हरितू नाम की महानदी निकली है और निकलकर वह (सत्तजोयणसहस्साई चत्तारिय एकवीसे जोयणसए एगंच एणवीसहभाग जोयणस्स दाहिणामुही पन्धएणं गंता महया घडमुहपवित्तिए णं जाव साइरेग चउ जोयण सइएणं पाहेणं पचडइ) ७४२१२२ योजन तक उसी पर्वत पर दक्षिणदिशाकी ओर वही है और घट के मुख से बडेवेग के साथ निकले हुए भुक्तावलिहार के जैसे निर्मल अपने प्रवाह
'तस्स णं तिगि छिदहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं' इत्यादि
टी-'तस्स णं तिगि छिद्दहस्स' ते तिमिछिद्रना 'दक्खिणिल्लेणं' दक्षिण हिवती' 'तोरणेण तोरण द्वारथी 'हरिमहाणई पवूढा समाणी' उरत नामनी महानही नी छ भने नीxणी ते 'सत्त जोयणसहस्साई चत्तारिय एकवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभाग जोयणस्स दाहिणामुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउ जोयण सइएणं पवाहेणं पवडई' ७४२१३ या सुधी ते पर्वत ५२ क्षिy हिश त२६ प्रवाहित થઈ છે, અને ઘટના મુખમાંથી અતીવ વેગ સાથે નીકળતા મુફતાવલિહારના જેવા નિર્મળ
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे प्रमाणाग्निपधविस्ताराद् द्विसहस्रयोजनप्रमाणे प्रदविस्तारेऽपहते शेषेऽद्धीकृते भवतीति । निगमयन्नतिदेशसूत्रमाह--‘एवं' इत्यादि, ‘एवं जा चेव हरिकताए वत्तवया सा चेव हरीए वि णेयव्या' एवम् अनन्तरोक्त प्रकारेण यैव वक्तव्यता हरिकान्ताया महानद्याः प्रागुक्ता सैव वक्तव्यता हरितोऽपि प्रकृताया हरिनाम्न्या महानद्या अपि नेतव्या ज्ञानविपयतां प्रापणीया ज्ञेये. त्यर्थः, 'जिन्मियाए कुंडस्स दीवस्स भवणस्स तं चेव पमाणं अट्ठोऽवि भाणिययो' अस्यामहानधाः जिदिकायाः प्रणाल्याः कुण्डस्य द्वीपस्य हरिद्वीपस्य भवनस्य च प्रमाणं तदेव हरिकान्ता प्रकरणोक्तमेव बोध्यम्, अर्थोऽपि हरिद्वीप नाम्नो हेतुरपि भणितव्या हरिकान्तानुसारेण वक्तव्यः अपि शब्दाच्छयनीयं ग्राम्यम् तथाहि-हरिन्महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महत्येका जिद्विका प्रज्ञप्ता, सा च द्वे योनने आयामेन, पश्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण अर्द्ध योजनं बाहल्येन, मकरमुख विवृतसंस्थानसंस्थिता सर्वरत्नमयो अच्छा, हरित् खलु से कि जिसका प्रमाण कुछ अधिक चार हजार योजन का है तिगिछिप्रपात कुण्ड में गिरती है (एवं जा चेव हरिकंताए वत्तव्यया सा चेव हरीए वि णेयवा) इस तरह जो हरिकान्ता महानदी का वक्तव्यता है वही वक्तव्यता इस हरित नामकी महानदी को भी जाननी चहिये यह महानदी पर्वत के ऊपर ७४२११ योजन तक वही जो कही गई है सो यह प्रमाण इम प्रकार से निकाला गया है कि-निपध वर्षधर पर्वत का व्यास १६८४२ योजन का कहा जा चुका है उसमें से २००० योजन का इद का प्रमाण घटा देने पर १४८४२ योजन वचते हैं सो इन्हें आधा करने पर पूर्वोक्त प्रमाण निकल आता है इस हरित नाम की महा. नदी की जिविका का, कुण्ड का, हरिद्वीप का, और भवन का प्रमाण हरिकान्ता के प्रकरण में जैसा इनका प्रमाण कहा गया है वैसा ही है तथा हरिद्वीप ऐसे नाम होने का कारण भी हरिकान्ता के प्रकरण के अनुसार जान लेना चाहिये इस पूर्वोक्त कथन के सम्बन्ध में स्पष्टी करण ऐसा है-यह हरित महाએવા પિતાના પ્રવાહથી કે જેનું પ્રમાણ કંઈક વધારે ચાર હજાર જન જેટલું છે-તિગિછિ अपातमा ५ छे. 'एवं जा चेव हरिकताए वत्तव्यया सा चेव हरीए विणेयव्वा' भाप्रमाणे रे હરિકાન્તા મહાનદીની વક્તવ્યતા છે તે જ વક્તવ્યતા એહરિત નામક મહાનદીની પણ જાણવી જિઈએ. એ મહાનદી પર્વતની ઉપર ૭૪ર૧દ જન સુધી પ્રવાહિત થતી કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણ આ રીતે કાઢવામાં આવેલ છે, કે નિષધ વર્ષધર પર્વતને પાસ ૧૬૮૪૨ એ જન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે. તેમાંથી ૨૦૦૦ એજન હદનું પ્રમાણ બાદ કરીએ તે ૧૪૮૪ર ચેાજન શેષ રહે છે. તે આ સંખ્યાને અધ કરવામાં આવે તે પૂર્વોક્ત પ્રમાણ નીકળી આવે છે. એ હરિત નામક મહાનદીની જિહિકાનું, કુંડનુ, હરિદ્વીપનું અને ભવનનું પ્રમાણે હરિકાન્તાના પ્રકરણમાં જે રીતે એ સર્વનું પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે, તેવું જ
છે. તેમજ હરિદ્વીપ એવું નામ છે તેનું કારણ પણ હરિકાન્તાના પ્રકરણ મુજબ જ -- , જાણી લેવું જોઈએ. એ પૂર્વોક્ત કથનના સંબંધમાં આ પ્રમાણે સ્પષ્ટતા કરી શકાય કે-એ
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. १६ तिगिच्छदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १४३ महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं हरित्प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , तच्च द्वे च चत्वारिंशे योजनशते आयामविष्कम्भेण सप्त एकोनपष्टानि योजनशतानि परिक्षेपेण अच्छम् एवं कुण्डस्य वक्तव्यता सर्वा नेतव्या यावत् खलु हरित्प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु महानेको हरिद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः द्वात्रिंशतं योजनानि आयामविष्कम्भेण एकोत्तरं योजनशतं परिक्षेपेण द्वौ क्रोशावच्छितो जलान्तात सरत्नमयः अच्छ , स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः अत्र पद्मवरवेदिका वननदी जिस स्थान से कुण्ड में गिरती है वहां एक महत्ती जिविका प्रणाली है इसका आयाम दो योजन का हैं विस्तार २५ योजन का है बाहल्य इसका आधे योजन का है तथा मगर के खुले हुए मुख का जैसा आकार होता है वैसा ही इसका आकार हैं यह सर्वात्मना रत्नमयी है तथा अच्छ आकाश और स्फटिक के जैसी सर्वथा निर्मल है । हरित् महानदी जहां पर पर्वत के ऊपर से गिरती है वहां पर एक हरित्प्रपात कुण्ड हैं इस कुण्ड का आयाम और विष्कम्भ २४० योजन का है तथा ७५० योजन का इसका परिक्षेप है यह अच्छ आकाश एवं स्फटिक के जैता निर्मल है और सर्वात्मना रत्नमय है ! इस तरह की जो कुण्ड की व्यक्तव्यता कही जा चुकी है वह सब तोरण तक उसी प्रकार से यहां पर भी कह लेनी चाहिये इस हरिप्रपात कुण्ड के बिलकुल मध्य भाग में एक हरिद्वीप नाम का द्वीप है। इसका आयाम और विष्कम्भ ३२ योजन का है और १०१ योजन का इसका परिक्षेप है यह पानी के ऊपर से दो कोश ऊंचे उठा है यह द्वीप भी सर्वात्मना रत्नमय है और अच्छ हैं । यह द्वीप चारों ओर से एक पद्मवर वेदिका से और एकवनषण्ड से घिरा हुआ है। यहां पर पद्मवरवेહરિત મહાનદી જે સ્થાન પરથી કુંડમાં પડે છે, ત્યાં એક વિશાળ જિહિક પ્રણાલી છે. એને આયામ બે જન જેટલું છે. અને વિસ્તાર ૨૫ પેજન જેટલું છે. એનું બાહુલ્ય અર્ધા જન જેટલું છે. તેમજ મગરના ખુલા મુખને જે આકાર હોય છે તે જ આનો આકાર છે. એ સર્વાત્મના રત્નમયી છે. તેમજ અચક, આકાશ અને સ્ફટિક જેવી સર્વથા નિર્મળ છે. હરિત મહાનદી જ્યાં પર્વત ઉપરથી નીચે પડે છે ત્યાં એક હરિભ્રપાત કુંડ આવેલ છે. એ કુંડને આયામ અને વિખંભ ૨૪૦ એજન જેટલો છે તેમજ ૭૫૯ એજન એટલે એને પરિક્ષેપ છે. એ અછ આકાશ અને ફટિકવત્ નિર્મળ છે અને સર્વાત્મના રત્નમય છે. આ પ્રમાણે જે કુંડની વક્તવ્યતા કહેવામાં આવેલી છે તે બધી તરણ સુધીની તે પ્રમાણે જ અહીં જાણું લેવું જોઈએ. એ હરિપાત કુંડના એકદમ મધ્ય ભાગમાં એક હરિદ્વીપ નામક દ્વિીપ છે. એ દ્વિીપને આયામ અને વિખંભ ૩૨ જન જેટલું છે અને ૧૦૧ એજન એટલે એને પરિક્ષેપ છે, એ પાણીની ઉપરથી બે ગાઉ ઊ એ ઉઠે છે. એ દ્વીપ પણ સર્વાત્મના ૨ય છે અને અચ્છે છે. એ દ્વિપ ચેમેરથી એક પાવરવેદિકાથી અને એક
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे पाटयो वर्णको गणिनव्यः य च पञ्चमपप्टसूत्रनो बोध्या, तस्य खलु हरित्प्रपातकुण्डस्य औतगहण नोरन यावत् महा सति हरिव वर्पमेजमाना २ विकटापातिन वृत्तवैतान्यं योजनेन अगम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी भाचा सति हरिवर्ग द्विधा विभजमाना २, इति, एतदेव सूचयिनुमाद-'जाब अहे जगई दालदत्ता' इत्यादि, यावत् अधो जगतीं दारयित्वा अधा-अयो. भागे जगतीं पृथ्वी दायित्वा भित्ला 'छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहि समग्गा पुरस्थिमं लवणसमुदं समापेः पट् पनागना सलिलासहनैः महानदीसहस्रः समग्रा परिपूर्णा पौरस्त्यं पूर्वदिग्भवं लवणमपदं समाप्नोति, 'तं चेव पवहे य मुहमूळे य पमाणं उव्वेहो य जो गरिकंताग जाव वागंडगंपरिवियत्ता' तदेव हरिकान्ता प्रकरणोक्तमेव प्रबहे च मुखमूले च प्रमाणमुद्रपथ यो हरिकान्तायाः यावत् वनपण्डसंपरिक्षिप्ता तथाहि-हरिता खलु महानदी प्रबहे पश्चविगति योजनानि विष्करण अर्द्धयोजनपद्धेवेन तदनन्तरं च खल्लु मात्रया २ परिवर्द्ध माणा २ मुस्मृले अद्धतीयानि योजना नि विष्कम्भेण पञ्च योजनानि उद्वेषेन, उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता, इति, 'तस्स दिका और वनपण्ड का वर्णन कर लेना चाहिये यह वर्णन पंचम और छठे सूत्र से जान लेना चाहिये । उस हरितप्रपात कुण्ड के उत्तर दिग्व तोरण हार से यायत निकलती हुई गह हरित महानदी हरिवर्प क्षेत्रकी ओर आती २ विकटा पाती वृत्तवनाढ्य पर्वत की एक योजन दूरी पर छोड़ देती है और फिर वहां से पश्चिमकी ओर मुड़कर हरिचर्य क्षेत्र के मध्यभाग में बहती है इमसे इस क्षेत्र के दो हिस्से हो जाते हैं-फिर वहां से जम्बूदीप की जगती विदीर्णकर ५६ हजार नदियों के परिवार से युक्त हुइ यहमहानदी पूर्वदिग्व लवण समुद्र में
आकर मिन्य जानी है यह हरित महानदी प्रवाह में विष्कम्भकी अपेक्षा २५ योजन प्रमाण है और उध हमका आधे योजन का है इसके बाद बढ़ते बढते मग्रम में यह २५० योजन की विष्कम्भकी अपेक्षा हो गई है और उध मिका योजन का हो गया है दोनों पार्श्वभागों में यह दो पद्मवर वेदिकाओं વનથી આવૃત છે. અહીં અવાવરેરિકા અને વનપંડનું વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ એ ઘન પગમા અને છ માંથી જાણી લેવું જોઈએ. એ હરિભ્રપાત કુંડના ઉત્તર દિગ્વતી ને કાશી થાન નાનાં એ હરિત મહાનદી હરિવર્ષ શ્રેત્રની તરફ પ્રવાહિત થતી નાની ન થતીવ પર્વતને એક જન સુધી દર છોડી દે છે, અને પછી ત્યાંથી તે પર ન : ગન કવિ વન મધ ભાગમાં પ્રવાહિત થાય છે. એથી આ ક્ષેત્રના , ગ થ છે. ૫. ત્યાંથી જંકૃતીપમાં પ્રવાહિન થતી અને ૫૬ હાર નદીઓના -:
भानही ५ हया समगमा मापान भणे. 3 કરિ મહાન પ્રાપમાં વિભની અપેક્ષાએ ૨૫ પેજન પ્રમાણ છે અને આને
, મધ મ ન જેટ. છે ઘાવ બાદ વૃદ્ધિ પામીને ગુખ ગલમાં એ ૨૫૦ એજન જે બિંબની મને દાની અપશ એપ જન જેટલી વિરતૃન થઈ ગઈ
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. १६ तिगिच्छहदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १४५ तिगिंछिद्दहस्य उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओोया महाणई पवूढा समाणी' तस्य पूर्वोक्तस्य खल तिगिच्छिहृदस्य औतराहेण उत्तरदिग्भवेन, तोरणेन वहिर्द्वारेण शीतोदा महानदी प्रव्यूढा • निःसृता सती 'सत्त जोयणसहस्साई चत्तारिय एगवी से जोयणसए एगं च एगूणवीसइ भाग जोयणस्स' सप्त योजनसहस्राणि चत्वारि च एकविंशानि एकविंशत्यधिकानि योजन - शतानि एकं च एकोनविंशतिभागं योजनस्य 'उत्तराभिमुही पव्वणं गंता महया घडमुहपवि- चिणं जाव साइरेग चउनोयणसइएणं पचाएणं पवडइ' उत्तराभिमुखी उत्तरदिगभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटसुखप्रवृत्तिकेन बृहद्घटमुखा च्छन्दायमानजलौचवत्प्रवृत्तिशालिना "अस्य प्रपातेनेत्यग्रिमेण सम्बन्धः पुनः कीदृशेन ? इत्याह- यावत् यावत्पदेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन - एतद्वयाख्या - हरिकान्ता प्रकरणवत् सातिरेकयोजनश तिकेन साधिकयोजनशतप्रमा'से और दो वनषंडों से परिक्षिप्त है (तस्सणं तिगिंछिद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओओ महाणई पबूढा समाणी सत्त जोयणसहस्साइं चत्तारिय एगवीसे जोयणसए एगंच एगूणवीसईभागं जोयणस्स उत्तराभिमुही पव्वणं गंता महा घटसुह पवित्तिएण जाव साइरेग चउ जोयणसइएणं पचाएणं पवडइ) उस 'तिर्गिछिद के उत्तर दिग्वर्ती तोरण से सीतोदा नामकी महानदी निकली है • यह महानदी पर्वत के उपर ७४२११ योजन तक उत्तर दिशा की ओर बहकर फिर यह घट के मुख से निकले हुए जलप्रवाह के तुल्य वेगशाली अपने विशाल 'प्रवाह से प्रपातकुण्ड में गिरती है । इसका प्रवाह प्रमाण कुछ अधिक सौ योजन का कहा गया है यह सीतोदा महानदी जहाँ से प्रपात कुण्ड में गिरती है वहां पर एक विशाल जिविका है इसका प्रमाण आयाम की अपेक्षा ४ योजन का हैं और विष्कम्भ ५० योजन का है तथा १ योजन का इसका बाहुल्य हैं इसका आकार मगर के खुले हुए मुख जैसा है तथा यह सर्वात्मा वज्रमयी
છે. ખન્ને પાર્શ્વ ભાગેામાં એ બે પદ્મવરવેદિકાઓથી અને એ વનષડાથી પરિક્ષિત છે. 'तस्स णं तिगि' छिद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओआमहाणई पवूढा समाणी सत्त जोयण : सहस्साई चत्तारिय एगविसे नोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोयणस्स उत्तराभिमुही पव्वणं गंता महया घटमुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउ जोयणसइएणं पवाएणं पवडई' તે તિગિછિ હદના ઉત્તર દિગ્વી તારાથી સીતાદા નામે મહાનદી નીકળે છે. એ મહા નદી પર્વતની ઉપર ૭૪૨૧૯ ચેાજન સુધી ઉત્તર દિશા તરફ પ્રવાહિત થઈને પછી એ ઘટના મુખમાંથી નીકળતા જલપ્રવાહની જેમ વેગશાલી પેાતાના વિશાલ પ્રવાહથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. એનુ પ્રવાઢું પ્રમાણ કંઈક વધારે ૧૦૦ ગૈાજન જેટલુ કહેવામાં આવેલ છે. એ સીતાદા મહાનદી જ્યાંથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે ત્યાં એક વિશાળ જિહ્નિકા છે. એનું આયામની અપેક્ષાએ પ્રમાણ ૪ ચેાજન જેટલું અને વિષ્ણુલની અપેક્ષાએ ૫૦ ચેાજન જેટલુ છે. તેમજ એક ચેાજન જેટલા પ્રમાણુનું આનુ માહુલ્ય છે. એના આકાર મગરના मुसा भुणना वा तेभर मे सर्वात्मना वक्रभयी छे, भने सर्वथा निर्माण छे, 'सीओ
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे णेन प्रपातेन प्रपतति । 'सीओयाणं महाणई जओ पवडई एत्थ णं महं एगा जिन्भिया पण्णत्ता' शीतोदा खल्लु महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महत्येका जिहविका-प्रणाली प्रज्ञप्ता, तस्या मानाचाह-'चत्तारि' इत्यादि। 'चत्तारि जोयणाई आयामेणं पण्णास जोयणाई विक्खंभेणं जोयणं वाहल्लेणं मगरनुहविउद्दसंठाणसंठिया सव्वयइरामई अच्छा' चत्वारि योजनानि आयामेन पञ्चाशतं योजनानि विष्कम्भेण योजनं वाहल्येन मकरमुखविवृत्तसंस्थानसंस्थिता सर्ववजमयी अच्छा प्राग्वत् , अथ कुण्डस्वरूपमाह-'सीओया णं' इत्यादि, 'सीभोया णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे सीओयप्पवायकुडे णाम कुंडे पण्णत्ते, चत्तारि असीए जोयणसए आयामविक्खंभेणं पण्णरस अट्ठारे जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं अच्छे एवं कुंडवत्तव्वया णेयवा जाव तोरणा' शीतोदा खलु महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं शीतोदा प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , चत्वारि अशीतानि-अशी त्यधिकानि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, पञ्चदश अष्टादशानि अष्टादशाधिकानि योजनशतानि किनिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण, अच्छम् एवं कुण्डवक्तव्या नेतव्या यावत् तोरणाः । अत्र कुण्डस्य योजनप्रमाणं हरित्कुण्डतो द्विगुणं वोव्यम् । अथ शीतोदा द्वीपस्वरूपमाह-'तस्स णं सीओयप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महं एगे सीओयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' तस्य खलु शीतादाप्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र अत्रान्तरे खलु महानेकः शीतोदा द्वीपो नाम द्वीप प्रज्ञप्तः, तस्य मानाद्याह-'चउसहि जोयणाई' चतुष्पष्टिं योजनानि 'आयामविक्खंभेणं है और विलकुल निर्मल है (सीओआणं महाणई जहिं पवडई एस्थ णं महं एगे सीओयप्पवायकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते) सीतोदा महानदी जहां पर गिरती है
वहां पर एक सोतोदाप्रपातकुण्ड कहा गया है (चत्तारि असीए जोयणसए . आयामविखंभेणं पण्णरस अट्ठारे जोयणसए किंचि विसेसणे परिक्खेवेणं
अच्छे, एवं कुण्डवत्तव्वया णेयव्वा) ४८० योजन का इसका आयाम और विष्कम्भ है तथा कुछ कम १५१८ योजन का इसका परिक्षेप है यह बिलकुल स्वच्छ है इस प्रकार से यहां कुण्डके सम्बन्धकी वक्तव्यता कह लेनी चाहिये (तस्सणं सीओअप्पवायकुण्डस्त बहमज्झदेसभाए एस्थ णं मह एगे सीओं अदीवे णामं दीये पण्णत्त) इस सीतोदी प्रपातकुण्ड के ठीक बीच भाग में एक आणं महाणाई जहिं पक्डइ एत्य णं महं एगे सीओयप्पवाय कुंडे णाम कुडे पण्णत्ते' संत भी नही नयां ५ छ त्यां 28 सीता प्रपात नाम मावस छ, 'चत्तारि असीए जोयणसए आयामविक्खंभेणं पण्णरस अट्ठारे जोयणसए कि चिविसेसूणे परिक्खेवेणं अच्छ कुण्डवत्तब्धया णेयव्या' ४८० योजन प्रभार सनी मायाम मे faga छ तभा 303 કમ ૧૫૧૮ જન એટલે એને પરિક્ષેપ છે. એ સર્વથા સ્વચ્છ છે. આ પ્રમાણે અહીં दु समधी तव्यता सम सेवी ने. 'तस्स णं सीओअप्पवायकुंडस्स बहुमज्झ देसभाए एस्थ णं महं एगे सीओअदीवे णामं दी। पण्णत्ते' से सीता प्रात ना 815 मय
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कार: सूं. १६ तिगिच्छहदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १०७ दोणि वि उत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलताओ सव्चवइरामए अच्छे सेसं तमेव' आयामविष्कम्भेण द्वे द्वयुत्तरे योजनशते परिक्षेपेण द्वौ क्रोशौ उच्छ्रितो जलान्तात् सर्ववज्रमयोऽच्छः, नवरम् शेषम् उक्तातिरिक्तं तदेव गङ्गाद्वीपप्रकरणोक्तमेव दच्च शिष्यस्मरणायै शेषं नामतो निर्दिशति - 'वेइया वणसंड' इत्यादि, 'वेइया वणसंडभूमिभागभवणसयणिज्ज अट्ठो भाणियच्वो' तत्र वेदिका पद्मवरवेदिका वनपण्डः भूमिभागः सवनं शयनीयं च मूले प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपः तथा अर्थः नामहेतुः भणितव्यः - वक्तव्यः स च गङ्गाद्वीपवत् । अथास्याः समुद्रप्रवेशप्रकारमाह - ' तस्स णं सीओयप्पवायकुडस्स' इत्यादि, 'तस्स णं सीओयप्पवायकुडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं' तस्य खलु शीतोदाप्रपातकुण्डस्य औतराहेण उत्तरदिग्भवेन तोरणेन वहिद्वारेण 'सीओोया महाणई पवूढा समाणी' शीतोदामहानदी प्रव्यूढानिःसृता सती 'देवकुरु' एज्जेमाणा' देवकुरून् मूले प्राकृतत्वादेकवचनस्, एजमाना २ गच्छन्ती २ 'चित्तविचित्तकूडे पन्वए निसढ देवकुरुसूर-सुलस - विज्जुप्पभद हे अ दुहा विभयमाणी सीतोद द्वीप नाम का द्वीप है (चउसहि जोयणाई आयामविवखंभेणं दोणि वि उत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलं ताओ सव्ववइरामए अच्छे ) इसका आयाम और विष्कम्भ ६४ योजन का है तथा २०२ योजन का इसका परिक्षेप है यह जल के ऊपर से दो कोश ऊंचा उठा हुआ है यह द्वीप सर्वात्मना tetमय है और बिलकुल साफ-स्वच्छ है । (सेयं तमेव वेइया वणसंडे-भूमिभाग भवण सयणिज्जइडो भाणियध्वो) गङ्गाद्वीपप्रकरण में जैसा पद्मबरवेदिका, वनखंड, भूमिभाग, भवण शयनीय और उसके इसप्रकार के नाम होने का हेतु कहा गया है वैसाही वह सब प्रकरणानुसार यहां पर भी कह लेना चाहिये (तस्सणं सीओअपप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओआ महणई पवूढा समाणी देवकुंरुं एज्जमाणा २ चित्तविचित्त कूडे पच्चए निसढदेवकुरु सूरसुलस विज्जुष्पभदहे य दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलासहस्से हिं (भागभां श्रेष्ठ सीतोह द्वीप नाभः द्वीप छे.' चउसट्टि जोयणाई आयाम विक्खंभेणं दोणि वि उत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्ववइरामए अच्छे' मेने। आायाभ અને વિષ્ણુલ ૬૪ ચેાજન જેટલેા છે તેમજ ૨૦૨ ચેાજન જેટલેા એના પરિક્ષેપ છે. એ પાણી ઉપર બે ગાઉ સુધી ઉપર ઉઠેલ છે. એ દ્વીપ સર્વાત્મના રત્નમય છે અને सर्वथा निर्भक्ष छे. 'सेयं तमेव वेइयावणसंडे भूमिभाग भवणसयणिज्जइट्ठो भाणियव्वो' ગંગા દ્વીપ પ્રકરણમાં જેવી પાવરવેદિકા, વનખંડ, ભૂમિભાગ, ભવન, શયનીય અને ત્યાં તેમના નામ વિષે જે કારણેા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલાં છે તેવુ જ સર્વાં કથન અહીં' પણુ प्रहरणानुसार लगी सेवु' लेर्धये. 'तस्स णं सीओअप्पवायकुडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओआ महाई पढा समाणी देवकुरु एज्जमाणा २ चित्त विचित्त कूडे पव्त्रए निसट देवकुरु सूर सुलभ विज्जुपभदद्दे य दुहां विभयमाणी २ चउरासीए सलिला सहस्सेहि आपु
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जम्बूदीपप्रमस्तिसूत्र २' चित्रविचित्रकूटौ पूर्वापरतटवर्तिनी पर्वतौ निपध १ देवकुरु २ र ३ मुलस ४ विद्युन्यभ५ हूदान च द्विधा विभजमाना तन्मध्ये वहन्ती २ विभागक्रमश्रायम्-चित्रविचित्रकूटपर्वतयो मध्ये वहनेन चित्रकूट पर्वतं पूर्वतः कृत्या विचित्रकूटं च पश्चिमतः क्रत्वा देवकुरुषु वहन्तीतिभावः, हृदांश्च पश्चापि समश्रेणि वर्तिन एकैकशो द्विधा विभजमाना वहन्ती अत्रान्तरे देव. कुरु वर्तिभिः 'चउरासीए सलिलासहस्सेहिं आरेमाणी २' चतुरशीत्या सलिला सहमे महानदीसहस्रैः आपूर्यमाणा २ भ्रियमाणा २ 'भदसालवणं एज्जेमाणी २' भद्रसालवनं मेरुप्रथमवनम् एजमाना २ गच्छन्ती २। 'मंदरं पव्ययं दोहिं जोयणेहि असंपत्ता पच्चस्थिमाभिमुही आवत्ता समाणी' मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां योजनाभ्याम् असम्प्राप्ता असंस्पृशन्ती शीतोदा मेवोंरष्टौ क्रोशा अन्तरालमित्यर्थः, ततः पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता परावृत्ता सती 'अहे विज्जुप्पमं आपूरेमाणी २ भदसालवणं एज्जेमाणी २) उस सीतोदा प्रपातकुण्ड के उत्सर दिग्ची तोरण द्वार से सीतोदा महानदी निकली है और निकलकर वह देवकुरुक्षेत्र में जाती २ पूर्व और अपर तटवर्ती चित्रविचित्र कूटों को-पर्वतों का निषध देवकुरु सूर सलस एवं विद्युत्प्रभ इन समश्रेणिवर्ती पांच इदों को विभक्त करती है उनके बीचमें होकर बहती है विभागक्रम इस प्रकार से है चित्रविचित्र पर्वतों के बीचमें वहनेसे चित्रकूटपर्वतको पूर्वमें करके और विचित्रकूट पर्वतको पश्चिममें करके यह नदी देवकुममें वहती है समश्रेणिवर्ती पांचो हृदों को एक एक करके प्रत्येक हृदको विभक्त करती है और उनमें यहती है इसी के दरम्यान वह देवकुरुवता ८४ हजार नदियों से युक्त हो जाती है भर जाती है एवं मेरु का जो प्रथमवन भद्रसाल वन है वहां जाती है जाते २ यह (मंदरपब्जयं दोहिं जोयणेहिं असंपत्ता) मेरु कोतो २ योजन दूर परही छोडती जाती है इस तरह शीतोदा और मेरुका अन्तराल आठकोशका हो जाता है रेमाणी २ भदसालवणं एज्जेमाणी २ सात प्रपात दुना उत्तरहिवता' तारण દ્વારથી સીતેરા મહા નદી નીકળે છે, અને નીકળીને તે દેવ કુરુક્ષેત્રમાં પ્રવાહિત થતી થતી પૂર્વ અને અપર તટવતી ચિત્ર-વિચિત્ર કને–પર્વતને-નિષધ, દેવકુરૂ સૂર સુલસ તેમજ વિદ્યુ—ભ એ સમશ્રેણિવતી પાંચ દેને વિભક્ત કરતી તેમની મધ્યમાં થઈને પ્રવાહિત થાય છે. તે સંબંધમાં વિભાગક્રમ આ પ્રમાણે છે-ચિત્ર-વિચિત્ર પર્વતની વચ્ચે પ્રવાહિત થાય છે તેથી ચિત્રકૂટ પર્વતને પૂર્વમાં રાખીને અને વિચિત્ર કૂટ પર્વતને પશ્ચિમમાં રાખીને આ નદી દેવકુમાં પ્રવાહિત થાય છે. સમશ્રેણિવતી પાંચે પાંચ હકને એક એક કરીને દરેક હદને આ વિભક્ત કરે છે અને તેમની અંદરથી પ્રવાહિત થાય છે. એ સમયમાં જ એ દેવકુવતી ૮૪ હજાર નદીઓથી યુક્ત થઈ જાય છે અને પ્રકૃતિ થઈ જાય છે. અને પછી મેરુનું જે પ્રથમ વન ભદ્રશાલ વન છે ત્યાં જાય છે. જતાં જતા यो 'मंदरपव्वयं दोहि जोयणेहि असंपत्ता' मेन तो २ यौन २ भूधी है छे. मा प्रभारी शाताह मन भेउ परयन मन्त मानी जय छे. 'पच्चत्थिमाभिमुही' पछा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सृ. १६ निगिच्छदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १४९ वक्खारपव्वयं दारइत्ता मंदरस्स पन्चयस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहं वास' अधः अधोभागे विद्युत्प्रभ तन्नामकं वक्षस्कारपर्वतं नैऋतकोणवर्तिकुरुगोपकपर्वतं दारयित्वा भिन्वा मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमेन अपरविदेहवर्ष-पश्चिमविदेहवर्ष 'दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चक्कवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए २ सलिलासहस्सेहि द्विधा विभजमाना २ एकैकस्मात् चक्रवर्तिविजयात् अष्टाविंशत्या २ सलिलासहस्रैः महानदीसहस्रैः आपूरेमाणी २ आपूर्यमाणार संनि. यमाणा २ तथाहि-अस्याः शीतोदा नद्या दक्षिणतटवर्तिषु अष्टासु विजयेषु गङ्गा सिन्ध्र इमे द्वे द्वे महानद्यौ चतुर्दश २ सहस्रनदीपरिवारयुते उत्तरतटवर्तिषु अष्टासु विजयेषु रक्तारक्तवत्यौ द्वे द्वे महानद्यौ चतुर्दश २ सहस्रनदीपरिवारयुते स्तः इति प्रतिविजयमष्टाविंशति नदीसहस्राणि । अथास्याः सकलनदीपरिवारं विशेषेण द्वारपरिगणयन्नाह-पंचहि सलिलासयसहस्सेहि' पञ्चभिः सलिलाशतसहस्त्रैः महानदीलक्षेण 'दुतीसाए य सलिलासहस्सेहिं समग्गा' (पच्चत्थिमाभिमुही) फिर यह पश्चिमकी ओर मुड़कर (अहे विज्जुप्पमं वक्खार पव्वयं दारइत्ता मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहं वासं दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चक्कवद्विविजयाओ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २पंचहिं सलिलासयसहस्सेहिं दुतीसाए य सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जयंतस्स दारस्स जगई दाल इत्ता पंचत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ) अधोभागवर्ती विद्युत्मभ नाम के वक्षस्कार पर्वतको नैऋत दिग्वतां कुरु गोपक पर्वत को-विभक्त करती हुई मन्दर पर्वतकी पश्चिम दिशा में वर्तमान अपर विदेहक्षेत्र में पश्चिमविदेह क्षेत्रमें वहती है वहां पर इसमें एक एक चक्रवर्ती विजय से आ आकर २८-२८ हजार नदियां और दूसरी मिलजाती है चक्रवर्ति विजय १६ हैं इन सोलह चक्रवर्तिविजयों की. २८-२८ हजार नदियों के हिसाब से ४४८००० नदियोंकी संख्या हो जाती है तथा इस संख्या में देवकुरुगत ८४००० नदियोंकी संख्या जोड़ देने पर यह सब नदियों की-परिवार नदियोंकी-संख्या से पश्चिम त२५ ४४न 'अहे विज्जुप्पभं वक्खारपव्वयं दारइत्ता मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहं वास दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चक्कवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए सलिलासह. स्सेहिं आपूरेमाणी २ पंचहिँ सलिलासयसहस्सेहिं दुतीसाए य सलिलासहस्से हिं समगा अहे जयं तस्स दारम्स जगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लत्रणसमुदं समापेइ' मघा भागवता विधुत्प्रमानामा વક્ષસ્કાર પર્વત નેત્રાત્ય દિતી, કુરુપક પર્વતને વિભક્ત કરતી મંદર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં વિદ્યમાન અપર વિદેહ ક્ષેત્રમાં અને પશ્ચિમ વિદેહ ક્ષેત્રમાં વહે છે. ત્યાં એમાં એક એક ચક્રવતી વિજયથી આવી આવીને ૨૮–૨૮ હજાર બીજી નદીઓ મળે છે. ચક્રવતિ વિજયે ૧૬ છે. એ ૧૬ ચક્રવતિ' વિજયેની ૨૮–૨૮ સહસ્ર નદીઓના હિસાબથી ૪૪૮૦૦૦ જેટલી નદીઓની સંખ્યા થઈ જાય છે. તેમજ એ સંખ્યામાં દેવમુરુગત ૮૪૦૦૦ નદીઓની સંખ્યા જેડીએ તે એ સર્વ નદીઓને પરિવાર–સર્વ નદીઓની સંખ્યા-પ૩૨૦૦૦ થઈ જાય છે,
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जम्बूलीपप्रनप्तिसूत्र द्वात्रिंशता च सलिलासहस्रैः समग्रा परिपूर्णा तथाहि-तटद्वयवर्तिपु पोडशम विजयेषु अष्टा विंशति२ नंदीसहस्त्राणीत्यष्टाविंशतिसहस्राणि पोडशभिर्गुण्यन्ते, तथागुणने चतुर्लक्षाणि अष्टा. चत्वारिंशत्सहस्राणि जातानि, अत्र राशौ कुरुग ८४ सहस्रनदीप्रक्षेपे यथोक्तं मानं जातमिति, 'अहे जयंतस्स दारस्स जगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समुप्पेइ' अधः अधोभागे जयन्तस्य द्वारस्य पश्चिमदिग्वति जम्बूद्वीप द्वारस्य जगतीं पृथ्वी दारयित्वा मिच्या पश्चिमेन पश्चिमभागेन लवणसमुद्रं समाप्नोति । अथास्याः शीतोदाया मानाचाह-'सीओया णं महाणई' शीतोदा खल महानदो 'पवहे पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं जोयणं उव्वे हेणं' प्रवहे हुदानि. ५३२००० आ जाती है इसी बात को सूत्रकारने (एगमेगाओ चक्कवटिविजयाओ" आदि सूत्रपाठद्वारा समझाया है ये चक्रवर्तिविजय शीतोदा महानदी के दक्षिण तटपर आठ हैं और उत्तरदिग्वी तट पर आठ हैं दक्षिण दिग्वर्ती तट पर जो आठ चक्रवर्ती विजय हैं उनमें गङ्गा और सिन्धु ये दो नदियां अपनी अपनी २१४ हजार नदियों के परिवार वाली हैं और उत्तर दिग्वती तट पर जो चक्रवर्ती विजय है उनमे रक्ता और रक्तवती ये दो महानदियां हैं इनकी भी परिवारभूत नदियां १४ - १४ हजार हैं। इस तरह हर एक विजय में २८ - २८ हजार नदियों का समूह है अतः १६ विजयों में वह परिवार कितना होगा ? तो इसे निकालने के लिए गणित पद्धति के अनुसार २८ हजार के साथ १६ का गुणा करने पर यह परिवार पूर्वोक्त रूपसे आ जाता है और फिर उसमें देवकुरुगत नदियों की संख्या जोड देने पर यह परिवार ५ लाख ३२ हजार हो जाता है। फिर यह नदी वहां से मुडकर जम्बूद्वीप के पश्चिमदिग्वी जयन्त द्वार की जगती को फोडकर पश्चिमभाग से लवणसमुद्रमेर पातने सूत्रधारे 'एगमेगाओ चकवट्टिविजयाओ मेरे सूत्र १७२५७८ ४६छे. से ચક્રવર્તી વિજયે શીદા મહાનદીના દક્ષિણ તટ ઉપર આઠ છે અને ઉત્તર દિzતી તટ ઉપર આઠ છે, દક્ષિણ દિવર્તિતટ પર જે આઠ ચકવતી વિજયે છે, તેમાં ગંગા અને સિંધુ એ બે નદીઓ પિતાપિતાની ૧૪ હજાર નદીઓના પરિવારથી યુક્ત છે અને ઉત્તરદિવતી તટ તરફ જે આઠ ચક્રવતી વિજયે છે, તેમાં રક્તા અને રક્તવતી એ બે મહાનદીઓ છે. એ નદીઓની પરિવાર ભૂત અન્ય નદીઓ પણ ૧૪-૧૪ હજાર છે.
આ પ્રમાણે દરેકે દરેક વિજયમાં ૨૮–૨૮ હજાર નદીઓને સમૂહ છે. હવે ૨૬ વિજમાં આ પરિવાર કેટલે હશે? એ જાણવા માટે ગણિત પદ્ધતિ મુજબ ૨૮ હજારની સ થે ૧૨ને ગુણાકાર કરીએ તે આ પરિવાર પૂર્વોક્ત રૂપમાં આવી જાય છે. અને પછી તેમાં દેવકુરાત નદીઓની સંખ્યા જોડીએ તે એ પરિવાર ૫ લાખ, ૩૨ હજાર થઈ જાય છે. પછી આ નદી ત્યાંથી વળીને જંબુદ્વીપના પશ્ચિમ દિગ્વતી જયન્ત દ્વારની જગ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १६ तिगिच्छदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १५१ गमे पश्चाशतं योजनानि विष्कम्भेणं विस्तारेण हरिनदी प्रवहादस्याः प्रवहस्य द्विगुणत्वात् , योजनमुद्वेधेन उण्डत्वेन, 'तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २' तदनन्तरं च मात्रया २ क्रमेण २ प्रतियोजनं समुदितयो द्वयोः पार्श्वयो रशीति धनुर्बुद्धचा प्रतिपार्वं चत्वारिंशदनुवृद्धयेत्यर्थः परिवर्द्धमाना २ 'मुहमूले पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उज्वेहेणं उभओ पासिं दोडिं' मुखमूले सागरप्रवेशे पश्च योजनशतानि विष्कम्भेण प्रवहविष्कम्भापेक्षया मूखमूलविष्कम्भस्य द्विगुणत्वात् , दश योजनानि उद्वेधेन भूप्रवेशेन आधप्रवहोद्वेधापेक्षयाऽस्य दशगुणत्वात् उभयोः पार्श्वयोः भागयोः द्वाभ्यां 'पउमवरवेइयाहिं दोहि य • वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता' पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिता । अथ निषधवर्षधरपर्वते कूटवक्तव्यमाह-'णिसढे णं भंते' निपचे खलु भदन्त ! 'वासहरपव्वए णं में प्रवेश करती है (सीओयाणं महाणदी पवहे पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं जोयणं उव्वेहेणं, तयणंतरंच णं मायाए परिवद्धमाणीर मुहसूले पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेड्याहिं दोहिय वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता) यह सीतोदा महानदी हद से निर्गम के स्थान में हरित नदी के प्रवह को अपेक्षा उसके द्विगुणित होने से ५० योजन के विस्तार वाली है, उद्वेध इसका एक योजन का है इसके बाद वह क्रमशः बढती हुई प्रतियोजनपर दोनों पार्श्वभागमें ८० धनुषकी वृद्धिवालो होती २ अर्थात् एक पाचने ४० धनुष की वृद्धि से वर्धित होती २ मुखमूलमें-सागर में प्रवेश करने
के स्थानमें-यह पांचसौ योजन लकके मुखमूल विष्कम्भवाली हो जाती है • क्यों कि प्रवह विष्कम्भ की अपेक्षा मुखमूल का विष्कम्भ दुगुणा हो जाता है - यह दोनों पार्श्वभाग में दो पन्नवर वेदिकाओं से और दो वनषंडो से परिक्षिप्त है • (णिसहे गंभते ! वासहरपव्वए णं कइ कूडा पण्णत्ता) हे भदन्त ! निषध नाम
तीन टान पश्चिम मा तथा समुद्रमा प्रवेश ४३ छ. 'सीओया णं महाणदी पवहे पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं जोयणं उव्वेहेणं, तयणंतरं च णं मायाए परिवद्धमाणी २ मुहमूले पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं दसजोयणाई उव्वेहेणं उभोपासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहि संपरिक्खित्ता' मा सीता डानही थी निभन स्थानमा हरित નદીના પ્રવાહની અપેક્ષાએ તે દ્વિગુણિત છે તેથી પચાસ એજન જેટલા વિસ્તારવાળી છે. એક જન એટલે એને ઉશ્કેલ છે. ત્યાર બાદ એ ક્રમશ અભિવર્ધિત થતી પ્રતિજન બન્ને પાર્વીભાગમાં ૮૦ ધનુષ જેટલં વૃદ્ધિ પામતી એટલે કે એક પાર્શ્વમાં ૪૦ ધનુષ જેટલી વર્ધિત થતી મુખમૂલમાં–સાગરમાં પ્રવિષ્ટ થાય તે સ્થાનમાં એ પંચસો જન સુધીના મુખમૂલ વિધ્વંભવાળી થઈ જાય છે કેમકે પ્રવહ વિખંભની અપેક્ષા સુખમૂળને વિષ્ઠભ દ્વિગુણિત થઈ જાય છે. એ બન્ને પાર્શ્વભાગ બે પવરવેદિકાઓથી અને બે पनपाथी सपरिक्षित छ, ‘णिसहेणं भंते ! वासहरपव्वएणं कइ कूडा पण्णत्ता' मत !
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Mraturefire नि ? भगवा२ हरा
कइकूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! वकडा पण्णत्ता' वर्ष कति कटान नाह - हे गौतम! नव कूटानि प्रज्ञतानि, 'तं जहा- सिद्ध, कूडे ३ पुष्पविदेहकुठे ४ हरिकुडे ५ कि ६ सीजीयाकुठे ७ अविवेकडे ८कूडे ९ जो चेन चुल्लसितकुडाणं उच्चत्तममेव पुराणी य सच्चेव इपि यच्चा' नवरम् सिद्धायतनकूट १ टिस-निरपर्वतावासकूटम् २, हरिवर्षम् - दरिवर्पक्षेत्राधिपम् ३ पूर्वविदेह - पर्वविदेहाधिक्टस् ४, हरिकूटं - हरि सलिलानदी देवीकूटम् ५, वृतिक-तिः तिमिन्दिविष्ठावदेवी तस्याः कूटम् ६, शीतोदाकटं- शीतोदानदी देवीकृटम् ७ अपरविदेहऊटम् - अपदिदेशम् ८, रुचक्कूट - रुचकः चक्रवालपर्वतविशेषस्तत्पतिकूटम् ९, अत्र वक्तव्येऽविदेशमाह- 'जो के वर्षधर पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं? उत्तर में प्रभु कहते है- (गोत्रमा 1 णव कूडा पण्णत्ता) हे गौतम! नौ कूट कहे गये है- (तं जहा उनके नाम इस प्रकार 'से है (सिद्धाययणकृडे, णिसढकृडे, हरिवासकुडे, पुत्र्वविदेहकडे, हरिकृडे, घिईकुडे, सीओआकडे, अवरविदेकडे अगकूडे ) सिद्धायतनकूट निपचकुट, हरि. वर्षकूट, पूर्वविदेहकूट, हरिकूट, धृतिकूड, सीतोदाकूट, अपर विदेहकूट, और कचककूट इनमें । जो सिद्धों का गृह रूपकट है यह सिद्वान है निपत्र वर्षघर पर्वत के अधिपतिका जो कट है यह निपत्र कूट है । हरिवर्षक्षेत्र के अधिपति का जो कर है वह हरिवर्तकूट है । पूर्व विदेह के अधिपति का जो कूट है वह पूर्व विदेह है हरिसलिला नदी की देवी का जो कूट है वह हरिकूट है निगिंछिहूद की अधिष्ठात्री देवी का जो कूट है वह धृतिकर हे शीतोदा नदी की देवी का जो कूट है वह शीतोदाकूट है । अपरविदेहाधिपति का जो कूट है, वह अपर विदेहट है । चक्रवालपर्वत विशेषके अधिपति का जो कूट है यह रुचक कूट है ।
निषेध नाभः वर्षधर पर्वत पर टाटो छे ? श्वासां अलु आहे हे - 'गोवमा ! णव कूडा पण्णत्ता' हे गौतम ! नव छूटो अवाय छे. 'तं जहा' ते टोना नाभा मा प्रभा छे 'सिद्धाययणकूडे, णिसहकूडे, हरिवा सकूडे, पुत्रविदेहकूडे, हरिकुडे, धिईकुडे, सीआ आ कूडे, अवरविदेहकूडे, रूअगकूडे ' सिद्धायतन छूट, निषेध ड्रेट, हरिवर्ष छूट, पूर्व વિદેહ કૂટ, હરિ કૂટ' ધૃતિ ફૂટ, સીતેાદા ફૂટ, અપર વિદેહ ફૂટ અને રુચક ફૂટ એમાં જે સિદ્ધોના ગૃહ રૂપ ફૂટ છે, તે સિદ્ધાયતન ફૂટ છે. નિષધ વધર પર્યંતના અધિપતિના જે ફૂટ છે તે હરિત્ર ફૂટ છે. પૂર્વાવિદેહના અધિપતિના જે ફૂટ છે તે પૂવિદેઢ ફૂટ છે. હરિ—સલિલા નદીની દેવીના જે ફૂટ છે તે રિક્રૂટ છે. તિગિછ હદની અધિષ્ઠાત્રી દેવીના જે ફૂટ છે તે પ્રતિ ફૂટ છે શીનેાદા નદીની દેવીને જે ફૂટ છે તે સીતેાદા કૂટ છે અપર વિદેહાધિપતિને જે ફૂટ છે તે અપવિદેહ ફૂટ છે. ચક્રવાલ પર્વત વિશેષના અધિપતિના જે ईंट छे ते रुथ छूट छे. 'जो चेत्र क्षुल्लहिमवंतकूडाणं उच्चत्त विक्खभपरिक्खेवो पुत्र
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १६ तिगिच्छदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १५३ चेव चुल्लहिमवंतकूडाणं उच्चत्त विक्खंभपरिक्खेवा' 'य एवे' त्यादि-य एवं क्षुद्रहिमवत्कूटानाम् उच्चत्व विष्कम्भपरिक्षेपः-उच्चत्वविष्कम्भाभ्यां सहितः परिक्षेपस्तथा पूर्ववर्णितःपूर्व वर्णितः-उक्तः स एवैषामपि बोध्या, तथा 'रायहाणी अ सच्चेव णेयच्या' राजधानी सा एव पूर्वोक्तैव इहापि अस्मिन् निषधकूटप्रकरणेऽपि नेतव्या ग्राह्या, यथा-क्षुद्रहिमवत्पर्वतकूटस्य दक्षिणेन तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिञ्जम्बूद्वीपे क्षुद्रहिमवती नाम्नी राजधानी तथेहापि निपधनाम राजधानी बोध्येति, अथास्य नामार्थ प्रश्नोत्तराभ्यां निर्दिशति ‘से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ णिसहे वासहरपवए२ ?' अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते निपधो वर्षधरपर्वतः २ उत्तरसूत्रे भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'णिसहे गं वासहरपव्वए बहवे कूडा णिसहसंठाणसंठिया उसमसंठाणसंठिया' निपधे खलु वर्षधरपर्वते बहूनि कूटानि तानि कीदृशानि? इत्याह-निषधसंस्थानसंस्थितानि तत्र नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठे वा न्यस्तं भारमिति निपधः-वृषभः पृषोदरत्वादयं साधुः, तत्संस्थानसंस्थितानि तवाकाराणि एतदेव शब्दान्तरेणाह-वृषभसंस्थितानि, 'णिसहे य इत्थ देवे महिद्धिए जाव (जो चेव क्षुलहिमवंतकूहाणं उच्चत्त विक्खंभ परिक्खेवो) पुत्ववण्णिी रायहाणी य सच्चेव इहंवि णेयव्वा) पहिले जो क्षुद्रहिमवत् पर्वत के नौ कूटों की उच्चता विष्कम्भ और परिक्षेपका प्रमाण कहा गया है वही प्रमाण उच्चता का, विष्कम्भ का और परिक्षेप का इन कूटों का है तथा यही पर भी पूर्वोक्त ही राजधानी है अर्थात् जैसी क्षुद्रहिमवत् पर्वत से तिर्यगू असंख्यात द्वीप समुद्रों को पारकरके अन्य जम्बूद्वीपमें क्षुद्रहिमवती नामकी राजधानी है। उसी प्रकार से यहां पर भी निषध नाम की राजधानी है। (सेकेण णं भंते ! एवं वुच्चइ णिसहे वासहरपव्वए) हे भदन्त ! आपने इस वर्षधर पर्वत का नाम "निषध" ऐसा किस कारण से कहा है? इसके उत्तरमें प्रभु कहते हैं-(गोयमा णिसहेणं वासहरपन्वए वह कूडाणिसह संठाणसंठिया उसभसंठाण संठिया णिसहे इत्थदेवे महिद्धिए जाव पालिओववण्णिओ रायहाणीय सच्चेव इई वि णेयव्वा' पडदा २ क्षुद्रहिमवत् ५तना न टोनी ઉચ્ચતા, વિધ્વંભ અને પરિક્ષેપનું પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે તે જ પ્રમાણે આ ફૂટની ઉગ્રતા, વિખંભ અને પરિક્ષેપનું સમજવું. તેમજ અહીં પણ પૂર્વોક્ત રાજધાની છે એટલે કે જે પ્રમાણે સુદ્રહિમવત પર્વતમાંથી તિર્યંગ અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રોને પાર કરીને અન્ય જબદ્વીપમાં કુદ હિમવત નામક રાજધાની છે. તે પ્રમાણેજ અહીં પણ નિષધ નામની રાજધાની છે. ___'से केणद्वेणं भंते । एवं वुच्चइ णिसहे वासहरपव्वए' महन्त ! मा५श्री वर्षधर પર્વતનું “નિષધ એવું નામ શા કારણથી કહ્યું છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે'गोयमा | णिसहेणं वासहरपव्वए बहवे कूडा णिसहसंठाणसंठिया उसभसंठाणसठिया, णिसंहेय इत्य देवे महिद्धिए जाव पतिओवमदिइए परिवसइ से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णिसहेलिवासहरपव्वए २' गौतम ! से निषध वषधर पतनी ५२ मने दो
ज० २०
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे पलिओवमटिइए परियसद, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णिसहे वासहरपव्वए२' अत्र निपधः तदाख्यो देवः परिवसतीत्यग्रिमेण सम्बन्धः, स कीदृशइत्याह-महर्षिको यावत् पल्योपमस्थितिकः प्राग्वत् , स तेन कारणेन निपधाकारक्टयोगाग्निपधदेवयोगाद्वा गौतम ! एवमुच्यने-निपयो वर्षधरपर्वतः वर्षधरपर्वतः इति ॥सू० १६॥
अथ निपधसूत्रोक्तस्य महाविदेहवर्पस्य स्वरूपमाह-'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे' इत्यादि। __मूलम्-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पाणते ? गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपवयस्स दक्खिणेणं णिसहस्स वासहरपठश्यस्त उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पचस्थिमेणं पचस्थिम लवणसमुदस्स पुरस्थिमेगं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पणत्ते, पाईणपडीणायए उदीगदाहिणविच्छिण्णे पलियंकसंठाण. संठिए दुहा लवणसमुदं पुटे पुरथिम जाव पुटे पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चस्थिमिल्लं जाव पुढे तेत्तीसं जोयणसहस्साइं छच्च चुलसीए जोयणसए चत्तारि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणंति, तस्स वाहा पुरस्थिमपञ्चत्थिमेणं तेत्तीस जोयणसहस्साई सत्तय सत्तसट्टे जोयणसए: सत्त य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणंति, तस्स जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुटा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव पुट्ठा एवं पञ्चथिमिल्लाए जाव पुट्टा, एगं जोयण सयसहस्सं आयामेणंति, तस्स धणुं उभओ पासिं उत्तरदाहिणेणं एगं जोयणसयसहस्सं अट्ठावण्णं जोयणसहस्साई एगं च तेरसुत्तरं जोयण: सयं सोलस य एगूणवीसइ भागे जोयणस्स किंचि विसेसाहिए परिमहिय परिवसइ से तेणटेणं गोयमा । एवं वुच्चा णिसहे वासहरपचए २) हे गौतम ! इस निषध वर्षधर पर्वत के ऊपर अनेक कृट निषध के संस्थान जैसे वृपम के आकार जैसे हैं तथा इस वर्पधर पर्वत पर निपध नामका महद्धिक यावत् एक पल्योपमकी आयु वाला देव रहता है इस कारण मैने इस वर्षधर का नाम निपध ऐसा कहा है ॥१६॥ નિપથના સંસ્થાન જેવા-વૃષભ આકારના જેવા છે તેમજ એ વર્ષધર પર્વત ઉપર નિષેધ નામક મહદ્ધિક યાવત્ એક પલ્યોપમ જેટલા આયુષ્યવાળે દેવ રહે છે. એ કારણે મેં એ વર્ષધર પર્વતનું નામ “નિષધ કહ્યુ છે કે સૂ, ૧દ છે
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १७ महाविदेहवर्षस्वरूपनिरूपणम् १५५ क्खेवेणंति, महाविदेहेणं वासे चउविहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहापुव्वविदेहे? अवरविदेहे२ देवकुरा३ उत्तरकूरा४, महाविदेहस्स णं भंते। वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते, गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहि चेव । महाविदेहे णं भंते ! वासे मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे. 'पण्णत्ते, तेसि णं मणुयाणं छविहे संघयणे छविहे संठाणे पंचधणु
सयाई उद्धं उच्चत्तेणं जहाणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडीआउयं पालेति पालेत्ता अप्पेगइया णिरयगामी जाव अप्पेगइया सिझंति जाव अंतं करेंति। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे १२, गोयमा! महाविदेहेणं वासे भरहेरवयहेमवयहेरण्णवय हरिवासरम्मगवासेहितो आयामविक्खंभसंठाणपरिणाहेणं वित्थिण्णतराए चेव विपुलतराए चेव महंततराए चेव सुप्पमाणतराए चेव महाविदेहा य इत्थ मासा परिवसंति, महाविदेहे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमदिइए परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे २, अदुत्तरं चणं गोयमा! महाविदेहस्त वासस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ णासि ३ ॥सू०१७॥ - छाया-क्व खल भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहो नाम वर्षे प्रज्ञप्तम् , गौतम ! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन निपधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पाश्चात्यलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहो नाम वर्ष प्रज्ञप्तम, प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतम् उदीचीन दक्षिणविस्तीर्ण पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितं द्विधा लवणसमुद्र स्पृष्टं पौरस्त्य यावत् स्पृष्टं पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं यावत् स्पृष्टं त्रयस्त्रिंशतं योजनसहस्राणि पद् च चतुरशीतानि योजनशतानि चतुरश्च एकोनविंशतिभागान योजनस्य विष्कम्भेणेति, तस्य वाहा पौरस्त्यपश्चिमेन त्रयस्त्रिंशतं योजनसहस्राणि सप्त च सप्तपष्ठानि योजनशतानि सप्त च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेनेति, वस्य जीवा बहुमध्यदेशभागे प्राचीन प्रतीचीनायता द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा, पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं यावत् स्पृष्टा एवं पाश्चात्यया यावत् स्पृष्टा, एकं योजन रातसहस्रम् आयामेनेति, तस्य धनुरुभयोः पार्श्वयोः उत्तरदक्षिगेन एकं योजनशतसहस्रम् अष्ट पश्चाशतं योजनसहस्राणि एकं च त्रयोदशोत्तरं
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जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
योजनशतं पोडश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य किश्चिद्विशेषाधिकार परिक्षेपेणेति, महाविदेहं खलु वर्षे चतुर्विधं चतुष्प्रत्यवतारं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - पूर्वविदेहः १ अपरविदेहः २ देवकुरवः ३ उत्तरकुरवः, ४ महाविदेहस्य खलु भदन्त ! वर्षस्य कीदृशक आकारभावप्रत्य चतारः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः यावत् कुत्रिमैश्चैव अकृत्रिमै - चैव । महाविदेहे खलु भदन्त ! वर्षे मनुजानां कीदृशक आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः ?, तेषां खलु मनुजानां पच्विधं संहननं पड़विधं संस्थानं पञ्चधनुः शतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वन जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण पूर्वकोट्यायुः पालयन्ति पालयित्वा अप्येकके निरयगामिनः यावत् अप्येकके सिध्यन्ति यावदन्तं कुर्वन्ति । अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - महा विदेहो वर्ष २१ गौतम ! महाविदेहः खलु वर्षं भरतैरवत - डैमवत हैरण्यवतहरिवर्षरम्यकवर्षेभ्यः आयाम चिष्कसंस्थानपरिणाहेन विस्तीर्णतरक एव विपुलतरक एव महंततरक एक सुप्रमाणतरक एव महाविदेहाश्चात्र मनुष्याः परिवसन्ति, महाविदेहश्चात्र देवो महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते महाविदेहो वर्षम् ३ यदुत्तरं च खलु 'गौतम ! महाविदेहस्य वर्षस्य शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् यन्न कदाचिन्नासीत् ३ ॥० १७||
टीका- 'कहि णं भंते ! जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते ?, गोयमा ! णीवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं' क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहो नाम वर्ष चतुर्थं क्षेत्रं प्रज्ञप्तम् १, इति प्रश्ने भगवानाह - 'गोयमा ! णीळवंतस्स वासहरपव्ययस्स दक्खिणेणं' गौतम ! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य चतुर्थस्य क्षेत्र विभागकारिणो दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि 'णिसहस्स वासहरपव्त्रयस्स उत्तरेणं' निपधस्य वर्षधरमहाविदेह स्वरूपकथन
-
'कहिणं भते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते" - इत्यादि टीकार्थ- गौतमने प्रभु से इस सूत्र द्वारा ऐसा पूछा है (कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे
दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते) हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में महाविदेह नामका द्वीप - चतुर्थद्वीप कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - (गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेण णिसहरस वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरत्थिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दમહાવિદેહ સ્વરૂપ કથન
'कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते' इत्यादि
टीडार्थ - गौतमे पलुने या सूत्र वडे प्रश्न ये छे है 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते' हे लत! माभूदीप नामक द्वीपभां भाविहे नाभः द्वीप-चतुर्थ द्वीप या स्थणे मावेस छे ? मेना नवाश्रभां प्रभुश्री ! छे 'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्त्रयस्स दोखणेणं णिसहस्स वासहरपव्त्रयस्स उत्तरेणं पुरस्थिमलवणसमुइस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलत्रणसमुहस्स पुरत्थिमेगं एत्थ णं जंबुद्दीवे २ महाविदेहे णामं
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १७ महाविदेहवर्षस्वरूपनिरूपणम् पर्वतस्य उत्तरेण उत्तरस्यां दिशि 'पुरस्थिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवण• समुदस्स पुरस्थि मेणं' पौरस्त्यलवणसमुदस्य पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि पाश्चात्यलवणसमुद्रस्य “पौरस्त्येन पूर्वस्यां दिशि ‘एत्थ णं जंबुद्दीवे २ महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते' अत्र खलु
जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहो नाम वर्ष प्रज्ञतम् , 'पाईण पडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे' तिच्च प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतं-पूर्वपश्चिमयोरायतं दीर्घम् उदीण दक्षिणविस्तीर्णम् उत्तर दक्षि. . णयोर्दिशोविस्तीर्णम् 'पलियंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरस्थिम जाव पुढे' पल्यङ्क संस्थानसंस्थितम् आयतचारसत्वात् द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः तदाह-पौरस्त्यया यावत् यावत्पदेन कोट्या पौरस्त्यलवणसमुद्रम् इति सङ्ग्राह्यम् , स्पृष्टः 'पच्चत्थि मिल्लाए कोडीए पिच्चथिमिल्लं जाव पुढे पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं यावत् यावत्पदेन 'लवणसमुद्रम्' इति सङ्ग्राह्यम् स्पृष्टः, व्याख्या प्राग्वत् , अस्य मानमाह-'तेत्तीसं जोयणसहस्साई छच्च चुलसीए जोयणसए चत्तारि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स' त्रयस्त्रिंशतं योजनसहस्राणि पदं च स्स पुरथिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे २ महाविदेहे णामं वासे पण्णत्त) हे गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वतकी जो कि क्षेत्र विभागकारी चतुर्थ पर्वत है दक्षिण दिशा में तथा निषध वर्षधर पर्वतकी उत्तर दिशामें, एवं पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्रकी पश्चिमदिशामें और पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्रकी पूर्व दिशामें इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में महाविदेहनामका क्षेत्र कहा गया है । (पाईणपडीणायए) यह क्षेत्र पूर्वसे पश्चिमतक लम्बा है (उदीण दाहिणविच्छिणे) और उत्तर से दक्षिण 'तक विस्तृत है (पलिअंकसंठाणसंठिए) जैसा पल्यंकका संस्थान होता है वैसा
ही इसका संस्थान है । (दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिम जाव पुढे पच्चथिमिल्लाए 'कोडीए पच्चथिमिल्लं जाव पुढे) यह अपनी पूर्वपश्चिमकी कोटिसे क्रमशः पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्रको और पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्रको छुरहा है (तेत्तीसं जोयणसहस्साई छच्च चुलसीए जोयणसए चत्तारिय एगूण चीसइभाए जोयवासे पण्णत्ते गौतम ! नातवान् य२ पतन-२ क्षेत्र-विनाशयत पर्वत છે-દક્ષિણ દિશામાં તથા નિષધ વર્ષધર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં તેમજ પૂર્વ દિગ્યતા ‘લવણુ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં અને પશ્ચિમ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં એ.
पूरी५ नाम दीपमा मडाविहे 'नाम क्षेत्र भावत छ. 'पाईणपडीणायए' या क्षेत्र पूर्वथा पश्चिम सुधा aim छ. 'उदीणदाहिणविच्छिण्णे' भने उत्तरथी दक्षिामा विस्तार युश्त छ. 'पलियंकसंठाणसंठिए' २ पक्ष्यानुसस्थान डाय छे ते मेनु संस्थान छ. 'दुहा लवणसमुदं पुठे पुरथिम जाव पुढे पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं जाव पुढे એ પિતાની પૂર્વ પશ્ચિમની કેટિથી-કમશઃ પૂર્વ દિગ્ગત લવણ સમુદ્રને અને પશ્ચિમ દિગ્વતી eqY समुद्र २५ शो छ. 'तेत्तीसं जोयणसहस्साई छच्च चुलसीए जोयणसए चत्तारिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खभेणं' मा क्षेत्र विस्तार 33९८४४
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जम्बूद्वीपप्राप्तिस्त्र चतुरशीतानि चतुरशी. यधिकानि योजनशतानि चतुरश्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य 'किरवं भेणंति' विष्कम्भेण विस्तारेण प्रज्ञप्तमिति पूर्वण सम्बन्धः, निपधविस्ताराद् द्विगुणविस्तारस्वात् , अथास्य पाहा जोवा धनुप्पृष्ठसूत्रमाह-'तस्स चाहा' इत्यादि, 'तस्स बाहा पुरथिम पच्चस्थिमेणं तेत्तीसं जोयणसहस्साई सत्त य सत्तसट्टे जोयणराए' तस्य महाविदेहस्य वर्षस्य पौरस्त्यपश्चिमेन त्रयस्त्रिंशतं योजनसहस्त्राणि सप्त च सप्तपष्टयधिकानि योजनशतानि 'सत्त य एगृणवीसइभाए जोयणस आयामेणंति' सप्त च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेन दैयेण इति, 'तस्स जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा' तस्य महाविदेहस्य वर्षस्य जीवा बहुमध्यदेशभागे अत्यन्तमध्यदेशभागे प्राचीन प्रतीचीनाऽऽयता पूर्वपश्चिमदीर्घा द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा 'पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरस्थिमिल्लं जाव पुट्ठा एवं पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुढा' पौरस्त्यया पूर्वदिग्भवया कोटया पौरस्त्यं यावत् यावत्यणस्स विक्व भेणं) इस क्षेत्रका विस्तार ३३६८४२. योजन का है इसप्रकार वर्ष, से दूना कुल पर्वत और कुल पर्वत से दूना आगेका वर्प, इसतरह दूनी २ विस्ता रकी वृद्धि विदेह क्षेत्र पर्यन्त होती गई है इसके पश्चात क्रमशः क्षेत्र से पर्वत और पर्वतसे क्षेत्रका विस्तार आधा २ होता गया है कहा भी है-घरिसा दुगुणो अद्दी अद्दी दो दुगुणि दो परोवरिसो जाच विदेहं दोहिं दुतत्तो अद्भवहाणिीए"१
(तस्स बाहा पुरथिम पच्चत्थिमेणं तेत्तीसं जोयणसहस्साई सत्तय सत्तसट्टे - जोयणसए सत्त य एगूणवीसहभाए जोयणस्स आयामेणंति) इस क्षेत्रकी याहा
पूर्वसे पश्चिम तक ३३७६७० योजन प्रमाण है (तस्स जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईणपडीणा यवा दुहा लवणसमुदं पुधा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव पुट्ठा एवं पच्चस्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा, एगंजोयण सयसहस्सं आयामेणंति) જિન જેટલું છે. આ પ્રાણે વર્ષ કરતાં બે ગણે કુલ પર્વત અને કુલ પર્વત કરતાં બે ગણે એના પછીના વર્ષ આ પ્રમાણે વિદેહ ક્ષેત્ર પર્યનત બેગણું વૃદ્ધિ થતી ગઈ છે. ત્યાર બાદ ક્રમશ ક્ષેત્રથી પર્વત અને પર્વતથી ક્ષેત્રને વિસ્તાર અર્થે થતે ગયે છે. કહ્યું પણ છે
'वरिसा दुगुणो, अद्दी अद्दीदो दुगुणि दो परोरिसो जाव विदेहं दोहिं दुतत्तो अद्धहाणीए'२
'तस्स बाहा पुरथिमपच्चस्थिमेणं तेत्तीमं जोयणसहस्साई सत्त य सत्तसढे जोयणसए सत्त य एगूणवीसइमाए जोयणस्त आयामेणंति' मा क्षेत्रनी वा पूर्वथा पश्चिम सुधी 3३७६७१४ यानी छ. 'तस्स जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईणयडीणायया दुहा लवणसमुह पुट्ठा पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव पुदा एवं पच्चस्थिमिल्लाए जाव पुवा, एग जोयणसयसहस्सं आयामेणंति' मध्य म मेनी समेट है मध्यरत
(१) "तिलोयपण्णत्ती" पृ० १५५-गाथा नं० १०६ (२) 'तिलोयपण्णत्तो' पृ. १५५, माथा न. १०६
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू० १७ महाविदेहवर्धस्वरूपनिरूपणम्
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देन 'लवण समुद्रम्' इति सङ्ग्राह्यम् स्पृष्टा एवम् अनेन प्रकारेण पाश्चात्यया यावत् यावत्पदेन - " कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रमिति संग्राह्यम् स्पृष्टा 'एग जोयण सय सदस्सं आया मेणंति' एकं योजनशतसहस्रमायामेन दैर्येणेति, 'तस्स धंणु' तस्य महाविदेहस्य वर्षस्य खलु धनुः 'उभओ पासिं उत्तरदाहिणेणं' उभयोः द्वयोः पार्श्वयोः उत्तरदक्षिणेन भागेन ' एवं जोयणसयसहस्सं अट्ठावण्णं' एकं योजनशतसहस्रम् अष्टपञ्चाशतं च 'जोयणसहस्साई एगं च तेरमुत्तरं ' योजनसहस्राणि एकं च त्रयोदशोत्तरं त्रयोदशाधिकं 'जोयणसयं' योजनशतं 'सोलस य एगूणवीस भागे जोयणस्स किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणंति' षोडश च एकोनविंशतिभागान योजनस्य किञ्चिद्विशेषाधिकान् परिक्षेपेणेति अत्राधिकपदेन सार्द्धाः षोडशकला ग्राह्याः ।
अथ महाविदेवस्य भेदान्निरूपयितुमाह- 'महाविदेहेणं वासे चउव्विहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा - पुण्त्रविदेहे १ अवरविदेहे २ देवकुरा ३ उत्तरकुरा ४' महाविदेहः खलु वर्षे चतुर्विधं चतुष्प्रकारकं पूर्वविदेहादेर्महाविदेहत्वेन व्यवह्रियमाणत्वात् अत एव चतुष्प्रत्यवतारं जीवा इसकी मध्यभाग में अर्थात् मध्यगत जीवा - पूर्व पश्चिम की ओर दीर्घ है यह अपनी पूर्वकोटि से पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्रको और पश्चिम कोटिसे पश्चिम दिग्वर्ती लवणसमुद्र को छूती है इसकी दीर्घता का प्रमाण १ लाख योजन का है । (तस्स घणु उभओ पासिं उत्तर दाहिणेणं एवं जोयणसय सहस्सं अट्ठावणं जोयणसहस्सा एर्गं च तेरसुत्तरं जोयणसयं सोलस य एगूणबी सहभाए जोयणस्स किंचिविसे साहिए परिक्खेवेणंति) इस महाविदेह क्षेत्रका धनुपृष्ठ परिक्षेपकी अपेक्षा दोनों पार्श्वभागों में उत्तर दक्षिण में एक लाख अठावन हजार एक सौ तेरह योजन और एक योजन के १९ भागों में से कुछ अधिक १६ भाग प्रमाण है १५८११३ अर्थात् १६ ॥ कला प्रमाण है (महाविदेहेणं वासे चउविहे चउडोयारे पण्णत्ते) यह महाविदेह क्षेत्र चतुष्प्रत्यवतार वाला चार भेदों वाला कहा गया है (तं जहा) जैसे - ( पुत्र्वविदेहे १ 'अवरविदेहे २, देवकुरा ३, જીવા પૂર્વ પશ્ચિમ તરફ દીઘ છે. એ પેતાની પૂર્ણાંકાર્ટિથી દિગ્વી લવણ સમુદ્રને અને પશ્ચિમ કોટિથી પશ્ચિમ દ્વિગ્નતી લવણુ સમુદ્રને સ્પશી રહી છે. એની દીતાનુ प्रभाणु १ श्रेष्ठ साथ योजन भेटसु छे. 'तस्स धणु उभओ प सिं उत्तरदाहिणेणं एवं जोयणसयसहस्सं अट्ठावण्णं जोयणसहस्साइं एगं च तेरसुत्तरं जोयणसयं सोलसय एगूणवी सहभाए जोयणस्स किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणंति' मा भड्डाविहेड क्षेत्रनु धनुःपृष्ठ परिक्षेपनी અપેક્ષાએ અને પા ભાગેામાં ઉત્તર-દક્ષિણમાં એક લાખ અઠાવન હજાર એક સે તેર ચેાજન અને એક ચેાજનના ૧૯ ભાગે માંથી કંઇક વધારે ૧૬ ભાગ પ્રમાણુ છે ૧૫૮૧૧૩૧૪ भेटले } १९॥ ४दा प्रभाणु छे 'महाविदेहेणं वासे चउव्विहे चउपडोयारे पण्णत्ते' मा भा વિદેહ ક્ષેત્ર ચતુષ્પત્યવતાર યુક્ત ચાર ભેદ યુક્ત કહેવામાં 'पुत्रविदेहे १ अवरविदेहे २, देवकुरा ३, उत्तरकुरा ४'
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આવેલ છે. તું લઠ્ઠા' જેમકે
पूर्वविद्वे,
पश्चिम विद्वे,
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे चतुर्यु पूर्वविदेहापरविदेहदेवकुरूत्तरकुलक्षणेषु क्षेत्रविशेषेषु प्रत्यवतारः समवतारो विचार्यत्वेन यस्य तत् तथाभूतं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-पूर्व विदेह इत्यादि-तत्र पूर्वविदेहः पूर्वश्चासौ विदेहथेति यो मेरोजम्बूद्वीपगतः ?, अपरविदेहः-अपरश्वासी विदेहः पश्चिमविदेहः-पश्चिमदिग्गतोऽयं विदेहः २, देवकुरवः-अयं देवकुरुविदेहः दक्षिणतः ३, उत्तरकुरवः, उत्तरकुरुविदेह उत्तरतः४, कुरु शब्दस्य बहुत्वे दृष्टत्वेन मूळे बहुवचनान्तत्वेन निर्देशः, अथास्य महाविदेहस्य स्वरूप वर्णयितुमाह-'महाविदेहस्स णं' इत्यादि, 'महाविदेहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आगार. भावपडोयारे पण्णत्ते ?, गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव कित्तिमे हिचेव अकित्तिमेहिंचेव' हे भदन्त ! महाविदेहस्य वर्षस्य खल कीदृशकः आकारभावप्रत्यवतारः तत्राऽऽकारः स्वरूपं, भावाः तदन्तर्गताः पदार्थाः तदुभयसहितः प्रत्यवतारः प्रकटीभावः, प्रज्ञप्तः ? इति गौतमप्रश्ने भगवानुत्तरमाह-गौतम ! तस्य बहुसमरमणीयः अत्यन्तसमोऽत एव रमणीयः-मनोहरः भूमिभागः प्रज्ञप्तः स च कीदृशः ? इत्याह-यावत् यावत्पदेन 'आलिउत्तरकुरा ४) पूर्वविदेह पश्चिम विदेह, देवकुम और उत्तरकुरु मेरुकी पूर्वदिशा में जो विदेह है वह पूर्वविदेह है मेरुकी पश्चिम दिशा का जो विदेह है वह अपर विदेह है मेरुकी दक्षिणदिशाका जो विदेह है यह देवकुरु है और मेरुकी उत्तर दिशा का जो विदेह है वह उत्तरकुरु है । कुरु शब्दका प्रयोग बहुवचनमें देखा जाता है इसलिये यहां पर मूल में उसे बहुवचनान्त रूपसे निर्दिष्ट किया गया है (महाविदेहस्ल णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते) अब गौतमने इसी प्रसङ्ग में प्रभुसे ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्रका आकार भाव प्रत्यवतार-स्वरूप कैसा कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव) हे गौतम ! वहां का भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है यावत् દેવકર અને ઉત્તર કુર. મેરુની પૂર્વ દિશા ને જે વિદેહ છે તે પૂર્વ વિદેહ છે અને મેરૂની પશ્ચિમ દિશાને જે વિદેહ છે તે અપર વિદેહ છે. મેરુની દક્ષિણ દિશાને જે વિદેહ છે તે દેવ કુરુ છે અને મેરુની ઉત્તર દિશાને જે વિદેહ છે તેઉત્તર કરે છે. કુરુ શબ્દને પગ બહુવચનમાં જોવા મળે છે એથી અહીં મૂલમાં તેને महुक्मनांत ३५थी Ale ४६वामी मावत छ. 'महाविदेहरस णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते' वे गौतभाभीये . प्रम प्रभुने मतना प्रश्न કર્યો છે કે હે ભદંત! મહાવિદેહ ક્ષેત્રને આકાર, ભાવ, પ્રત્યવતાર એટલે કે સ્વરૂપ
वु ४ामा मावेला छ ? सेना वामम प्रभुश्री ४ छ-'गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते' जाव, कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहि चेव' है गौतम ! त्यांनी भूमिमा मg સમરમણીય કહેવામાં આવેલ છે. યાવત કૃત્રિમ તેમજ અકૃત્રિમ નાનાવિધ પંચવર્ણોવાળા મણિએથી અને તૃણેથી ઉપરોભિત છે. અહીં યાવત પરથી “આલિંગ પુષ્કરસિત્યાદિ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः स. १७ महाविदेहवर्षस्वरूपनिरूपणम् हुपुष्करमिति" वेत्यादि भूमिभागवर्णनपरपदजातं पष्ठसूत्रोक्तरीत्या सङ्ग्राह्यम् , स च पुनः कृतिमैश्वाकृतिमैश्च नानाविधपश्चवणैर्मणिभिः , तृणैश्योपशोभितः' इत्यादि वर्णनपरपदजातं राजप्रश्नीयसूत्रस्य पञ्चदशसूत्रादारभ्यैकोनविंशतितमसूत्रपर्यन्तं दृष्ट्वा संग्राहाम, अधुना महाविदेहवर्पोत्पन्नानां मनुष्याणां स्वरूपं निरूपयितुमाह-'महाविदेहे णं भंते ! वासे मणुयाणां केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते' हे भदन्त ! महाविदेहे वर्षे खलु मनुष्याणां कीदृशक: आकारभावप्रत्यवतारः आकारः स्वरूपं, भावाः तवृत्ति संहननसंस्थानादयः पदार्थाः, तद्भयसहितः प्रत्यवतारः प्रादुर्भावः प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्ने भगवानाह-'तेसि णं मणुयाणं छविहे संहयणे छविहे संठाणे पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं' तेषा महाविदेहोत्पन्नानां खलु मनु प्याणां संहननम् अस्थिसंचयः पविधं पप्रकारं वऋषभनाराच १ ऋषभनाराच २ वह कृत्रिम एवं अकृत्रिम नानाविध पंचवर्णों वाले मणिों से और तृणों से उपशोभित हैं यहां यावत पद से आलिङ्ग पुष्कर मित्यादिरूप से जैसा छठे सूत्र में वर्णन कहा गया है वैसा ही वह वर्णन यहां पर भी कह लेना चाहिये तथा वह कृत्रिम एवं अकृत्रिम मणियों एवं तृणों से उपशोभित है इत्यादिरूप से इसका वर्णन यदि देखना हो तो राजप्रश्नीय सूत्रके १५वे सूत्रसे लेकर १९वें सूत्रतक के कथन को देख लेना चाहिये (महाविदेहे णं भंते वासे !मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते) अब गौतम प्रभुसे ऐसा पूछ रहे हैं-हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यों का आकार भावप्रत्यवतार-स्वरूप कैसा कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-(तेसि णं मणुआणं छविहे संघयणे छविहे संठाणे पञ्चघणुसयाई उद्धं उच्चत्तण जहण्णेणं अंतो मुहत्तं उक्कोसेणं पुन्चकोडी आउयं पालेंति) हे गौतम ! वहां के मनुष्योंका संहननछहों प्रकार का होता कहा गया है वनऋषभ नाराच संहनन भी होता कहा गया है, ऋषभनाराच संहनन भी होता कहा गया है, नाराच संहनन भी होता कहा गया है, अर्द्धनाराच संहनन भी होता है, कीलक संहनन भी होता कहा गया है, और सेवाः संहनन રૂપથી જેમ રઠા સૂત્રમાં વર્ણન કરવામાં આવેલું છે તેવું જ વર્ણન અત્રે પણ સમજી લેવું જોઈએ. તેમજ તે કૃત્રિમ અને અકૃત્રિમ મણિઓ તેમજ તૃણોથી ઉપરોભિત છે ઈત્યાદિ રૂપમાં એનું વર્ણન જે જોવાનું હોય તે રાજપ્રશ્રીય સૂત્રના ૧૫ માં સૂત્રથી માંડીને १६मा सुधीना ४थनन नोनये. 'महाविदेहेणं भंते ! वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते' व गौतमस्वामी प्रसुन सवारीत प्रश्न ४२ छह महत ! મહા વિદેહ ક્ષેત્રમાં માણસેના આકાર, ભાવ પ્રત્યવતાર એટલે કે સ્વરૂપ કેવું છે? એના rai प्रभुई-तेसिणं मणुआणं छविहे संघयणे छबिहे संठाणे पञ्च धणुसयाई उद्ध उच्चत्तणं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुत्वकोडी आउयं पालेति' गौतम त्यांना મનુષ્યનું સંહનન ૬ પ્રકારનું કહેવામાં આવેલ છે. વાષભ નારા સંહનો હોય છે એવું કહેવામાં આવે છે. રાષભ નારાચ સહન હોય છે તેવું કહેવાય છે, નારાચ
ज २१
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
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नाराचा ३ र्द्धनाराच ४ कीलिका ५ सेवार्त ६ भेदात्, तथा चोक्तम्" वज्जरि भनारायं, पढमं वीयं च रिसभनारायं । नाराय अद्धनाराय कीलिया वह य छेव ॥ १॥
छाया - वज्रऋपभूनाराचं, प्रथमं द्वितीयं च ऋषभनाराचम् । नाराचार्द्धनाराच कीलिकास्तथा च सेवार्तम् ॥१॥ इति |
संस्थानम् आकारविशेषः पडूविधं परिमंडल १ वृत्त २ स ३ चतुरंसा ४ ऽऽयता ५ ऽनित्थंस्थ भेदात् पद्मकारकम् प्रज्ञप्तमिति पूर्वेण सम्बन्धः, पञ्चधनुः शतानि पञ्चशत धन पि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन उच्छ्रयेण, 'जहणेणं अंतो मुहुत्तं' जघन्येन अपकृष्टत्वेन अन्तर्मुहर्तम् आयुरित्यग्रिमेण सम्बन्धः, 'उक्कोसेणं पुन्त्रकोडी आउयं पालेंति पालेत्ता' उत्कर्षेण उत्कृष्टस्वेन पूर्वकोयायुः पूर्वाणां चतुरशीतिलक्षणां चतुरशीतिलक्षैर्गुणितानां वर्षाणां कोटी कोटीसंख्याः तत्परिमितम् आयुः पालयन्ति विदेहवर्षोत्पन्ना मनुष्याः, पालयित्वा 'अप्पेगइया' भी होता कहा गया है कहा भी है
वजरिसभनारायं पढमं वीयं च रिसभनारायं । नाराय अर्द्धनाराय कीलिया तहय छेव ॥१॥
संस्थान नाम आकार का है यह संस्थान भी वहां छहों प्रकार का होता कहा. गया है वे छह प्रकार इस प्रकार से हैं- परिमंडल संस्थान, वृत्तसंस्थान, ससंस्थान, चतुरंस संस्थान, आयत संस्थान और इत्थंस्थ संस्थान इन महाविदेह क्षेत्रों के मनुष्यों का शरीर ऊंचाई मे ५०० सौ धनुष का होता कहा गया है इनकी आयु जघन्यसे एक अन्तर्मुहूर्तकी होती कही गई है । और उत्कृष्ट से १ पूर्व कोटिकी होती कही गई है । ८४ लाख वर्षों का १ पूर्वाङ्ग होता है ८४ लाख पूर्वाङ्गों का एक पूर्व होता है ऐसे एक पूर्वकोटि की वहां उत्कृष्ट आयु होती कही गई है । (पलिता अप्पेगइया निरयगामी जाव अप्पेगइया सिज्यंति जाव अंत करेंति) इतनी आयु पालन करके कितनेक वहां के जीवतो नरकगामी સહનન હાય છે એવું કહેવાય છે. અનારાચ સહનન હેાય છે એવુ પણ કહેવાય છે. ીલક સંહનન પણ હાય છે. એવુ કહેવાય છે. અને સેવા સહનન પણ હોય છે એવું કહેવાય છે. પણ કહ્યું પણ છે—
वज्जरिसभनारायं पढमं घीयं च रिसभनारायं । नाराय अद्धनाराय कीलिया तहय छेव ||१||
સંસ્થાન આકારનું નામ છે. એ સંસ્થાન પણ ત્યાં ૬ પ્રકારનુ હાય છે. તે પ્રકારો આ પ્રમાણે છે-પરિમંડલ સસ્થાન, વૃત્ત સંસ્થાન, ત્ર ́સ સંસ્થાન, ચતુર ́સ સસ્થાન, આયત સંસ્થાન, અને ઇત્યસ્થ સસ્થાન. આ મહાવિદેલું ક્ષેત્રાના મનુષ્ચાના શરીર ઊંચાઈમાં ૫૦૦ ધનુષ જેટલા કહેવામાં આવેલ છે. એમનુ આય઼ જઘન્યથી એક અન્તર્મુહૂત જેટલું હાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧ પૂર્વ કટિ જેટલુ હાય જે, ૮૪ લાખ વર્ષોંના એક પૂર્વાંગ હાય છે. ૮૪ લાખ પૂર્વા ગાના એક પૂ` હોય છે. એવા ૧ પૂવ કાટિ જેટલું ત્યાં ઉત્કૃષ્ટ न्यायु अहेवामां आवे छे. 'पलिता अप्पेगइया णिरयगामी जाव अप्पेगइया सिज्यंति
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १७ महाविदेहवर्षस्वरूपनिरूपणम् अप्येके केचित् 'णिरयगामी जाव अप्पेगइया सिझति जाव अंतं करेंति' निरयगामिनः नरकंगतिगामिनः, यावत् यावत्पदेन-अप्येकके तिर्यग गामिनः अप्येकके मनुजगामिनः अप्येकके देवगामिनः इति संग्राह्यम् अप्येकके सिध्यन्ति यावत यावत्पदेन "बुध्यन्ते मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति सर्वदुःखानम्" इति संग्राह्यम् अन्तं नाशं कुर्वन्ति विशेषजिज्ञासुभिरेषां पदानामर्थ एकादशसूत्रटीकातो 'बोध्यः। अथास्य नामाथे प्रश्नोत्तराभ्यां निरूपयितुमाह-'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-महाविदेहो वर्षम् २ ? अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते महाविदेहो वर्षम् २१ उत्तरसूत्रे तु 'गोयमा !' हे गौतम ! 'महाविदेहे णं वासे भरहेरवयहेमक्य हेरण्णवयह रिवासरम्मगवासेहितो' महाविदेहः खलु वर्ष भरतैरवतहैमवत हरण्यवतहरिवपरम्यकवर्षेभ्यः भरतादि रम्यकान्तवर्षापेक्षया 'आयामविक्खंभसंठाणपरिणाहेणं विच्छिण्णतराए चेव महंततराए चेव सुप्पमाणतराए चेव' आयामविष्कम्भसंस्थानपरिणाहेनहोते हैं कितनेक जीव देवगतिगामी होते हैं कितनेक जीव मनुष्यगतिगामी होते है कितनेक जीव तिर्यश्च गतिगामी होते हैं तथा कितनेक जीव मनुष्य-सिद्धगतिगामी भी होते हैं यावत् वे बुद्ध हो जाते हैं मुक्त होते हैं परिनिर्वात हो जाते हैं एवं समस्त दुःखों का वे अंत कर देते हैं । इन पदों की टीका ११ वे सूत्र की टीका से देख लेना चाहिये (से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे २) हे भदन्त ! आपने इस क्षेत्र का नाम महाविदेह ऐसा किस कारण से कहा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! महाविदेहे गं वासे भरहेरवय हेमवय हरिवास रम्मग वासेहितो आयामविक्खंभे संठाणपरिणाहेणं विच्छिण्णतराए चेव विउलतराए चेव महंतराए चेव सुप्पमाणतराए चेव महाविदेहाय इत्थमणूसा परिवसंति) हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र भरत क्षेत्र ऐरवत क्षेत्र, हैमवत क्षेत्र, हैरण्यवत क्षेत्र, और रम्यक क्षेत्र की अपेक्षा आयाम विष्कम्भ, संस्थान एवं परिक्षेप को लेकर विस्तीर्णतर है, विपुलतर है महत्तर है तथा सुप्रमाणतरक जाव अंतं करेति मारमायु पसार ४शन त्यांना ८is a त न२४ गाभा हाय છે, કેટલાક જ દેવગતિ ગામી હોય છે, કેટલાંક છ મનુષ્ય ગતિ ગામી હોય છે. કેટલાંક જે મનુષ્ય-સિદ્ધ ગતિ ગામી પણ હોય છે. યાવત્ તેઓ બુદ્ધ થઈ જાય છે, મુક્ત થઈ જાય છે. પરિનિર્વાત થઈ જાય છે. તેમજ તેઓ સમસ્ત દુબેને અંત કરે छ. मे पहानी-व्याच्या ११ मां सूत्रनी मनवा नय. 'से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे २३ मत मा५ श्री मा क्षेत्र नाम महवि ॥ रथी ४ह्यु छ ? सेना नाममा प्रमु ४ छ-'गोयमा ! महाविदेहे णं वासे भरहेरवयहेमवय हरिवास रम्मगवासेहितो आयामविक्खंभे संठाणपरिणाहे णं विच्छिण्णतराए चेव विउलतराए चेव महंततराए चेत्र सुप्पमाणतराए चेव महाविदेहाय इत्थ मणूसा परिवसंति' હે ગૌતમ ! મહાવિદેહ ક્ષેત્ર, ભરત ક્ષેત્ર, અરવત ક્ષેત્ર, હૈમવતક્ષેત્ર અને રમ્યક ક્ષેત્રની અપેક્ષા આયામ વિધ્વંભ, સંસ્થાની પરિક્ષેપકેને લઈને જોઈએ તે વિસ્તીર્ણતર છે, વિપુલ
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्र तत्रायामो दैय॑म् विष्कम्भो विस्तारः संस्थानम् आकारविशेपः परिणादः परिधिश्चेत्येषां समाहारस्तथाभूतेन; यथा सम्भवमस्ति विस्तीर्णतरक एव तत्र-विष्कम्भेणाति विस्तारयुक्त एव साधिक चतुरशीति पट् शताधिक त्रयस्त्रिंशद्योजनसहस्रप्रमाणत्वात् , विस्तारकः अतिविपुलः संस्थानेन-पल्यकरूपेण महत्तरक एव अतिमहानेव आयामेन, सुप्रमाणतरक एच बृह
प्रमाणक एव परिणाहनेन्येव योजना बोध्या, अत एव 'महाविदेहा य इत्थ मणूसा परिवसंति' महाविदेहाः महान् गरीधार देहः शरीरम् आभोग इति यावत येषां ते तथा, यद्वा महान् गरीयान देहः शरीरं फलेवरं येषां ते महाविदेहाश्चात्र-महाविदेहवर्षे मनुष्याः परिवसन्ति, 'महाविदेहे य इत्यदेवे महिदीए जाव पलिओवमटिइए परिवसई' महाविदेहश्चात्र देवः परि वसतीत्युत्तरेण सम्बन्धः स च कीदृशः ? इत्याह-महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः, इह है अर्थात् एक लक्ष प्रमाण जीवा चाला होने से यह आयाम की अपेक्षा महत्तर कही है, कुछ अधिक ८४ हजार ६ सौ ३३ योजन प्रमाण युक्त होने से यह विस्तीर्ण तरक ही है, पल्पक रूप संस्थान से युक्त होने के कारण यह विपुल तरक ही है, तथा परिणाह-परिधि से यह सुप्रमाणतरक ही है। अतएव यहां के मनुप्यमहाविदेह महान अतिशय विशिष्ट-भारी है-देह-शरीर-जिन्हों का ऐसे होते हैं विजयों में सर्वदा ५०० धनुषकी ऊंचाई वाला शरीर होता है तथा देवकुरु और उत्तरु कुरु में तीन कोश जितना ऊंचा शरीर होता हैं इसी महाविदेहता को लेकर अकर्मभूमिरूप भी देवकुरु और उत्तर कुरु इन क्षेत्रों को महाविदेह के भेद रूप से परिगणित किया गया है इस महाविदेहता से युक्त यहां रहते हैं और इन्हीं मनुष्यों के सम्बन्ध से इस क्षेत्र को महाविदेह कह दिया गया है तथा (महाविदेहे य इत्थदेवे महिदीए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसह, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे२) महाविदेह नाम का તર છે, મહત્તર છે તથા સુપ્રમાણુ તરક છે એટલે કે એક લક્ષ પ્રમાણ છવાવાળું હેવાથી આયામની અપેક્ષાએ મહત્તર છે. કંઈક અધિક ૮૪ સહસ્ત્ર ૬ સે ૩૩ એજન પ્રમાણ યુક્ત હેવાથી એ વિસ્તીર્ણ તરક જ છે. પથંક રૂપ સંસ્થાનથી યુક્ત હવા બદલ એ વિપુલ તરક જ છે. તેમજ પરિણહ-પરિદ્ધિથી એ સુપ્રમાણ તરક જ છે. એથી અહીંના મનુષ્ય મહા વિદેહ, મહાન અતિશય-વિશિષ્ટ ભારી છે જેમનાં શરીરે એવા ભારી હોય છે, વિજયોમાં સર્વદા ૫૦૦ ધનુષની ઊંચાઈવાળું શરીર હોય છે, તેમજ દેવકુરુ અને ઉત્તર કુરુમાં ત્રણ ગાઉ જેટલું ઉંચું શરીર હોય છે. આ મહાવિદેહતાને લઇને અકર્મ ભૂમિ રૂપ પણ દેવકુરુ અને ઉત્તરકુરુ એ ક્ષેત્રને મહાવિદેહના ભેદ રૂપથી પરિગણિત કરવામાં આવેલ છે. આ મહાવિદેહતાથી યુક્ત અહીં રહે છે અને એ મનુષ્યના સંબંધથી આ ક્ષેત્રને महाविड ४ामा मावेस छ. भर 'महाविदेहे अ इत्थदेवे महिद्धिए जाव पलिओवमदिइए परिवसइ, से तेगडेणं गोयमा'! एवं कुच्चए' महाविदेहे वासे २५ भावि नाम४ ३१
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १७ महाविदेहवर्षस्वरूपनिरूपणम् । यावत्पद संग्राह्यपदानां सङ्ग्रहार्थों विजयदेवाधिकारादष्टमसूत्रोक्तादवसेयो ‘से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे२' हे गौतम ! तेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन महाविदेहाधिष्टितत्वेन एवम् इत्थम् उच्यते महाविदेहो वर्षम् २, 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! महा. विदेहस्स वासस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते' अदुत्तरम् अथ च खलु हे गौतम ! महाविदेहस्य चर्पस्य शाश्वतं सर्वाधिकं नामधेयं नाम प्रज्ञतम् 'जण कयाई णासि ३' यत् यस्मात्कार। णात् न कदाचित् कस्मिंश्चित् समये नाऽऽसीत् ? अपि त्वासीदेवेत्यादि प्राग्वत् ॥१० १७॥
अधुनोत्तरकुरून् विवक्षुस्तदुपयोगित्वेन प्रथमं गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतं प्रश्नोत्तराभ्यामाह'कहि णं भंते ! महाविदेहे' इत्यादि । . मूलम्-कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्त दाहिणेगं मंददेव यहां पर रहता है-यह देव महर्दिक है यावत् एक पल्पोपम की आयुवाला है यहां यावत्पद से संग्रह पद और उनका अर्थ विजयदेवाधिकार में उक्त अष्टम सूत्र की टीका से जान लेना चाहिये अतः इन सब कारणों को लेकर इस क्षेत्र का नाम 'महाविदेह' कहा गया है (अदुत्तरं च णं गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स सालए णामधेज्जे पण्णत्ते, जंण कयाइ णासि ३) अथवा 'महाविदेह' ऐसा इस क्षेत्र का नाम अनादिकालिक है किसी निमित्त को लेकर नहीं है क्योंकि भूतकाल में इसका ऐसा ही नाम था, अब भी इसका यही नाम है
और भविष्य में भी ऐसा ही इसका नाम रहेगा ऐसा कोईसा भी समय नहीं हुआ है कि जिस में ऐसा इसका नाम न रहा हो, वर्तमान भी ऐसा नहीं है कि इसका ऐसा नाम न चल रहा हो और भविष्यतू भी ऐसा नहीं होगा कि जिस में इसका नाम नहीं रहेगा ॥सू० १७॥
અહી રહે છે. આ દેવ મહદ્ધિક યાવત્ એક પલ્યોપમ જેટલું આયુષ્ય ધરાવે છે. અહીં થાવત પદથી સંગ્રહ પદ અને તેમને અર્થ વિજ્યાધિકારમાં ઉક્ત અષ્ટમ સૂત્રની ટીકામાંથી -જણું લેવું જોઈએ. એથી ઉપર્યુક્ત સર્વ કારણેને લઈને આ ક્ષેત્રનું નામ “મહાવિદેહ એવું रामपामा माव्यु छ. 'अर्दुत्तरं च णं गोयमा! महाविदेहस्स वासस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जंण कयाइ णासि ३' अथवा 'भडविड' मे मा क्षेत्र नाम मनEिle 2. is 'નિમિત્તના આધારે એ નામ નથી. કેમકે ભૂતકાળમાં એનું એવું જ નામ હતું, અત્યારે પણ એનું એવું જ નામ છે અને ભવિષ્યમાં પણ એનું એજ નામ રહેશે. એને કે કાળ એ નહોતું કે જેમાં એનું નામ આ પ્રમાણે ચાલતું ન હોય વર્તમાનમાં પણ એવું નથી કે તેનું એ નામ ચાલતું ન હોય અને ભવિષ્યમાં પણ એ કાળ આવવાને નથી કે તેમાં એનું એવું નામ રહેશે નહિ. એટલે કે ત્રણે કાળમાં એનું એજ નામ २९पार्नु छे. ॥ स. १७ ॥
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દર્દ
जम्बूसू
रस्स पव्वयस्स उत्तरपञ्च्चत्थिमेणं गंधिलावइस्स विजयस्स पुरत्थिमेणं उत्तरकुरा पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खार पत्र पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिपणे तीसं जोयणसहस्साई दुणि य णउत्तरे जोयणसए छच्च य एगूणवीसइभाष जोयणस्स आयामेणं णीलवंतवासहरपव्वयं तेणं चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं तयणंतरं चणं मायाएर उस्सेहुव्वेह परिवद्धीए परिवद्धमाणे २ विक्खंभपरिहाणीए परिहाय माणेर मंदरपव्वयं तेणं पंच जोयणसयाइं उर्दू उच्चत्ते पंच गाउयसयाई उव्वेहेणं अंगुलस्स असंखिज्जइभागं विक्खंभेणं पण्णत्ते गयंतसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे, उमओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, गंधमायणस्स णं वक्खारपव्वयस्स उपिं वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जात्र आसयति । गंधयमायणे णं वक्खारपन्नए कइ कूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्त कूडा तं जहा- सिद्धाययणकूडे १ गंधमायणकूडे २ गंधिला घई कूडे ३ उत्तरकुरुकूडे ४ फलिहकूडे ५ लोहियकूडे६ आणंदकडे७ ।
कहि णं भंते । गंधमायणे वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ?, गोयमा ! मंदरस्त पव्त्रयस्स उत्तरपञ्च्चत्थिमेणं गंधमायणकूडस्स दाहिणपुरत्थिमेणं, एत्थ णं गंधमायणे वक्खारपव्वए सिद्धाय यणकूडे णामं कूडे पत्ते, जं चेव चुल्लहिमवंते सिद्धाययणकूडस्स पमाणं तं चेत्र एएसिं सव्वेसिं भाणियव्वं, एवं चैव विदिसाहिं तिण्णिकूडा भाणियव्वा, चउत्थे तइयस्स उत्तरपञ्च्चत्थिमेणं पंचमस्स दाहिणे, सेसा उत्तरदाहिणेणं, फलिहलोहियक्खेसु भोगंकरा भोगवईओ देवयाओ सेसेसु सरिसनामया देवा, छसुवि पासायवडेंसगा रायहाणीओ विदिसासु, से केणदृणं भते ! एवं बुच्चर, गंधमायणे वक्खारपव्वए २१, गोयमा । गंधमायणस्स णं वक्खारपव्वयस्स गंधे से जहा णामए कोटुपुडाण वा ज्ञाव पीसीजमाणाण वा उक्किरिजमाणाण वा विकिरिज्जमाणाण वा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १८ गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतनिरूपणम् १६७ परिभुजमाणाण वा जाव ओराला मणुण्णा जाव गंधा अभिणिस्तवंति, भवे एयारूवे? णो इणटे समटे, गंधमायणस्स णं इत्तो इतराए चेव जाव गंधे पण्णत्ते, से एएणट्रेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ गंधमायणे वक्खारपव्वए२, गंधमायणे य इत्थ देवे महिड्डिए परिवसइ, अदुत्तरं च णं सासए णामधिज्जे इति ।सू०१८॥ ___ छाया-क्न खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे गन्दमादनो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, गौतम ! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपश्चिमेन गन्धिलावत्या विजयस्य पौरस्त्येन उत्तरकुरूणां पश्चिमेन अत्र खलु महाविदेहे वर्षे गन्दमादनो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः त्रिंशतं योजनसहस्राणि द्वे च नवोत्तरे योजनशते षट् च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेन नीलवद्वर्पधरपर्वतान्तेन चत्वारि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चत्वारि गव्यूतशतानि उद्वेधेन पश्चयोजनशतानि विष्कम्भेण तदनन्तरं च खलु मात्रया २ उत्सेधोद्वेधपरिवृद्धया परिवर्द्धमानः २ विष्कम्भपरिहान्या परिहीयमानः २ मन्दरपर्वतान्तेन पञ्चयोजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्चगव्यूतशतानि उद्वेधेन अगुलस्य असंख्येयभागं विष्कम्भेण प्रज्ञप्तः गजदन्तसंस्थानसंस्थितः सर्वरत्नमयः अच्छ:, उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, गन्धमादनस्य खलु वक्षष्कार पर्वतस्य उपरि बहुसमरणणीयो भूमिभागः यावद् आसते।
गन्धमादने खलु वक्षस्कारपर्वते कतिकूटानि प्रज्ञतानि, गौतम ! सप्लकूटानि, तद्यथासिद्धायतनकूटम् १, गन्धमादनकूटम् २, गन्धिलावतीकूटम् ३, उत्तरकुरूकूटम् ४, स्फटिककूटम् ५, लोहिताक्षकूटम् ६, आनन्दकूटम् ७। क्य खलु भदन्त ! गन्धमादने वक्षस्कारपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपश्चिमेन गन्धमादनकूटस्य दक्षिणपौरस्त्येन, अत्र खलु गंधमादनवक्षस्कारपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूट प्रज्ञप्तम् , यदेव क्षुद्रहिमवति सिद्धायतनकूटस्य प्रमाणं तदेव एतेषां सर्वेषां भणितव्यम् , एकमेव विदिशासु त्रीणि कूटानि भणितव्यानि, चतुर्थ तृतीयस्य उत्तरपश्चिमेन पश्चमस्य दक्षिणेन, शेषाणि तु उत्तर दक्षिणेन, स्फटिकलोहिताक्षयो भौगङ्करा भोगवत्यो देवते, शेषेषु सदृशना. मका देवाः, पट्टस्वपि प्रासादावतंसका राजधान्यो विदिशासु, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-गन्धमादनो वक्षस्कारपर्वतः २, गौतम ! गन्धमादनस्य खलु वक्षस्कारपर्वतस्य गन्धः स यथा नामकः कोष्ठपुटानां वा यावत् पिष्यमाणानां वा उत्कीर्यमाणानां वा विकीर्यमाणानां वा परिभुज्यमाणानां वा यावद' उदारा मनोज्ञा यावद् गन्धा अभिनिःस्रवन्ति, भवेद एतदूपा ? नो अयमर्थः समर्थः, गन्धमादनस्य खल्लु इतइष्टतरक एव यावद् गन्धः प्रज्ञप्तः, स एतनाथेन गौतम ! एवमुच्यते गन्धमादनो वक्षस्कारपर्वतः २, गन्धमादनश्चात्र देवो महर्द्धिकः परिवसति, अदुत्तरं च खल शाश्वतं नामधेयमिति । सू० १८॥
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
टीका- 'कहिणं ! महाविदेहे' इत्यादि । 'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे गंधमायेणे णामं वखारपन्च पण्णत्ते' का खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे गन्धमादनो नाम वक्षस्कार पर्वतः वक्षसि मध्ये स्वगोपनीयं क्षेत्रं द्वौ मिलित्वा कुर्वन्तीति वक्षस्काराः तज्जातीयोऽयमिति
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कारः स चारों पर्वतश्चेति तथाभूतः प्रज्ञप्तः ?, 'गोयमा ! णी वतस्स वासहरपव्ययंस्म दाहिणेणं मंदरस्स व्ययस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं' गौतम ! नीलवतः तन्नामकस्य वर्षे रपर्वतस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि मन्दरस्य मेरोः पर्वतस्य उत्तरपश्चिमेन उत्तरस्याः पश्चिमायाथ अन्तरालवर्तिनि दिए विभागे वायव्यकोण इत्यर्थः अत्र सप्तम्यन्तादेनप्प्रत्ययः, 'गंधिलाव इस विजयस्स पुरच्छिमेणं उत्तरकुराए पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे गंवमायणे णामं चक्खारपण्यए पत्ते' गन्धिलावत्याः शीतोदामहानद्युत्तरवर्तिनोऽष्टमस्य पौरस्त्येन पूर्वेण पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः, उत्तरकुरूणां सर्वोत्कृष्ट भोगभूमिक्षेत्रस्य पश्चिमेन पश्चिमायां दिशि अत्र - अत्रान्तरे महाविदे वर्षे गन्धमादनो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, तस्य मानाचाह - 'उत्तर
'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपच्चर' इत्यादि । टीकार्थ - अब गौतमस्वामी । इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछते हैं - ( कहि णं अंते! महाचिदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपत्र पण्णत्ते) हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में गन्धमादन नामका वक्षस्कार पर्वत कहाँ पर कहा गया है ! इसके उत्तर में प्रभु कहते है - ( गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं मंदरस्स पचग्रस्त उत्तरपच्चत्थिमेणं गंधिलावइस्स विजयस्स पुरच्छिमेणं उत्तरकुराए पच्चत्थिमेणं एत्थणं महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपवर पण्णत्ते) हे गौतम | नीलवान् वर्षधर पर्वतकी दक्षिण दिशा में, मन्दर पर्वत के वायव्यकोणी में शीतोदामहानदी की उत्तर दिशा में रहे हुए अष्टम विजय रूप गन्धिलावती विजय की पूर्व दिशा में तथा उत्तर कुरु रूप सर्वोत्कृष्ट भूमि क्षेत्र की पश्चिम दिशा में महाविदेह क्षेत्र में गन्धमादन नामका वक्षस्कार पर्वत कहा गया है जो
'कहिणं ते! महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपव्वए' इत्यादि,
टी४र्थ - हुवे गोतमस्वामी या सूत्रवडे प्रलुनी साभे या प्रश्न भूरे छे - 'कहिणं मंते ! महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपव्चए पण्णत्ते' हे लहांत ! भड विहे क्षेत्रमां गधः' भाहन नाम पक्षस्ठार पर्वत या स्थणे यावे हे ? ना भवाणमां, प्रलु ४हे थे- 'गोयमा ! णीलवंतम्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं मंदरस्स पव्त्रयस्स उत्तर-पच्चत्थिमेणं - गंधिलावइरस विजयम्स पुरत्थमेणं उत्तरकुराए पच्चत्थिमेणं एत्थणं महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खार पुत्र पण्णत्ते' हे गौतम! नीसवान् वर्षधर पर्वर्तनी इक्षिण दिशामा, भन्दर पर्वतना, વાયવ્ય કોણમાં, શીતેાદા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં આવેલ અષ્ટમ વિજય રૂપ ગધિલાન, વતી વિજયની પૂર્વ દિશામાં તેમજ ઉત્તર કુ રૂપ સર્વોત્કૃષ્ટ ભૂમિક્ષેત્રની પશ્ચિમ દિશામાં મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ગન્ધમાદન નામક વક્ષસ્કાર પંત આવેલ છે કે જે એ પતા મળીને,
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प्रकाशिका' टीका-चतुर्थवक्षस्कार: सू. १८ गन्धमाद्नवक्षस्कारपर्वतनिरूपणम्
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दाहिणांयए पाईणपडीणविच्छिन्ने' तीसं जोयणसहस्सांई दृष्णि य णउत्तरे जोयणसए' उत्तरं दक्षिणायतः - उत्तरदक्षिणयोर्दिशोरायतः दीर्घः, प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः पूर्वपश्चिमदिशों विस्तीर्णः, त्रिशतं त्रिंशत्संख्यानि योजनसहस्राणि द्वे च नवोत्तरे नवाधिके योजनशते 'छच्च' ये गूणवीसभाए जोयणस्स आयांमेणं' पट् च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेन मंत्र यद्यपि वर्षधरपर्वतसंबद्धमूलानां वक्षस्कार पर्वतानां साधिकैकादशाष्टशत द्विचत्वारिंशद्यो जनप्रमाण कुरुक्षेत्रान्तर्गतानामेतावानायामों न संपद्यने तथाऽप्येषां वक्रत्वेन परिणततया बहुतर क्षेत्र प्रविष्टत्वादेतावानायामः संभवतीति, 'णीलवंतवा सदरपव्त्रयं तेणं चचारि जोयणसयाईं उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उब्वेहेणं. पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं तयणंतरं च णं मायाए र उस्सेहुव्वेह परिवदीए परिवर्द्धमाणे २' नीलबदूवर्षेघरपर्वतान्तेन नीलववर्ष - पर्वतसमीपे चत्वारि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चत्वारि गव्युतशतानि उद्वेधेन भूमिः प्रविष्टत्वेन, पञ्च योजनशतानिं विष्कम्भेण - विस्तारेण तदनन्तरं च मात्रया २ क्रमेण दो. पर्वत मिलकर अपने वक्षस - मध्य में क्षेत्र को छुपालेते हैं उनका नाम वक्ष स्कार पर्वत है ( उत्तरदाहिणायए पाईण पडीण विच्छिष्णे तीसं जोयणसहस्साई दुण्णि य णउत्तरे जोयणसएः छच्च य एंगूणवीसइभाए जोयणस्स आया मेणं, पीलवंत वा सहरपव्वयं तेणंः चत्तारि जोयणसयाई उर्दू उच्चत्तणं चत्तारि गाउयसयाई उच्वेहेणं पंच जोयणसयाई' विक्खंभेणं) यह गन्धमादन नामका वंक्ष स्कार पर्वत उत्तर से दक्षिण दिशातक लम्बा है एवं पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण हैं "इसका आयाम ३०२०९६ योजनका है यद्यपि वर्षधर पर्वत संबद्ध मूलवाले वक्षस्कार पर्वतों का जोकि कुछ अधिक ११८४२ योजन प्रमाण वाले कुरुक्षेत्र में है इतना आयाम नहीं बनता है तथापि ये वक्षस्कार वक्र है इसलिये बहुत विष्ट होने से इनका इतना आयाम बनंजाना संभवित है यह वक्षस्कारनीलवान् वर्षधर पर्वत के पास ४०० सोनी ऊंचाई वाला है उद्वेध इसका घोताना पक्षस-मध्यभां क्षेत्रने छुपावी से छे, तेनु नाम वक्षस्४२ पर्वत छे. 'उत्तर दाहि णा पाईप डीणविच्छिण्णे तीसं जोयण सहस्साइं दुण्णि य णउत्तरे ' जोयणसए' छच्च य गूणसभा' जोयणस्स आयामेणं, पीलवंतवासहरूपव्वयं तेणं चत्तारि ' जोयण साईं उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउपसयाई उब्वेहेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं' से गंध માદન નામક વક્ષસ્કાર પત ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી લાંખા છે તેમજ પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી વિસ્તી છે. એના આયામ ૩૦૨૯૦ ચેાજન જેટલે છે; જો કેઃ વર્ષ ધરપત સંખ′′ 'મૂલવાળા વક્ષસ્કાર પતાના કે જે ક ંઈક વધારે ૧૧૮૪૨ ચેાજન પ્રમાણવાળા કુરુક્ષેત્રમાં છે—આટલા આયામ થતા નથી છતાં એ વક્ષસ્કાર વક્ર છે. એથી ઘણા ક્ષેત્રમાં' પ્રવિષ્ટ હોવાથી એના આયામ થઇ જાય છે, એવી સભાવના કરી શકાય. એ વક્ષસ્કાર' નીલવાન વધર પર્વતની‘ પાસે ૪૮૦ ચેાજન જેટલી ઊંચાઈવાળા છે. આના' દ્વેષ ૪૦૦ ગાઉ
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जम्बूदीप सिख उत्सेधोद्वेधपरिवृद्धया-उत्सेधोद्वेषयोः उच्चत्वोण्डत्वयोः परिवृद्धया परिवर्धनेन परिवर्धमानः २. वृद्धिं गच्छन् २ 'विक्खंभपरिहाणीए परिहायमाणे २ मंदरपन्चयं तेणं पंत्र जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तें' विष्कम्भपरिहान्या विस्तारहासेन परिहीयमानः २ हसन, २ मन्दरपर्वतान्तेन मेरुपर्वतसमीपे पश्च योजनशतानि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन 'पंच गाउयसगाई उच्येद्देणं - अंगुलरस असंखिज्जइभागं विक्खंभेणं पण्णत्ते' पञ्च गव्यूतग्रतानि उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन अङ्गुलस्य असंख्येयभागम्-असंख्यभागं विष्कम्भेण विस्तारेण प्रजसः, 'गयदंत संठाणसंटिए सच्चरयणामए अच्छे, उमओ पासिं दोहिं पउमचरवेइयाहि' स च गजदन्तसंस्थानसंस्थितः गजदन्तस्य हस्तिदन्तस्य यद् आदौ नीचे रन्ते चोच्चः संस्थानम् आकारविशेषः तेन तादृशेन संस्थानेन संस्थितः पुनः स सर्वरत्नमयः - सर्वात्मना रत्नमयः अच्छः आकाशस्फटिकवनिर्मल:. पुनः स उभयो:- द्वयोः पार्श्वयो भागयोः द्वाभ्यां पद्मवेदिकाभ्यां 'दोहि य वणसंडेहि ' द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां॑ ‘सन्चओ समता संपरिक्खित्ते' सर्वतः सर्वदिक्षु समन्ततः सर्वविदिक्षु च परिक्षिप्तः परिवेष्टितः, 'गंधमायणस्स णं वक्खारपन्त्रयस्म उपि बहुसमरमणिज्जे ४०० कोश का है तथा विष्कम्भ में यह पांच सौ योजनका है इसके बाद यह क्रमशः ऊंचाई में और उद्वेध मे तो बढ़ता जाता है और विष्कम्भ में घटता जाता है इस तरह मन्दर पर्वन के पास पांच सौ योजन की ऊंचाई हो जाती है और पांच सौ कोशका इसका उद्देध हो जाता है तथा (अंगुलस्स अमंत्रिजड़भागं विक्खंभेणं पण्णत्ते) अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण इसका विष्कम्भ रह जाता है - ( गयदंतसंठाणसंठिए सव्वरयणासए अच्छे ) यह पर्वत गजदन्त का जैसा संस्थान होता है वैसे ही संस्थान वाला है तथा यह सर्वात्मना रत्नमय है और आकाश एवं स्फटिक के जैसा निर्मल है यह (उभयो पासिं दोहिं पउमचरवेइयाहिं दोहि अ वणसंडेहिं सव्वओ समता संपरिक्खिते) दोनों पार्श्वभागों में दो पद्मवरवेदिकाओं से और दो वनपंडों से अच्छी तरह सय ओर से घिरा हुआ है ( गंधमायणस्स णं वक्खारपत्र्वयस्स उपि बहुसमरम
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જેટલે છે તેમજ વિષ્મભમાં એ ૫૦૦ ચૈાજન જેટલે છે, ત્યાર બાદ એ અનુક્રમે ઊંચાઇમાં અને ઉદ્દેધમાં વધતા જાય છે અને વિષ્ફળમાં એછા થતા જાય છે. આ પ્રમાણે મદર પતની પાસે પાંચસેા ચેાજન જેટલી એની ઊ‘ચાઈ થઈ ન્તય છે. અને ૫૦૦ સેા ગાઉ 'नेटसेो येना द्वेष थह भय छे. तेभन 'अंगुलम्स असं खिज्जइभागं विक्खंभेणं पण्णत्ते' गंगुसना असण्यातमां भाग प्रभाणु खेना विप्ल रही लय थे. 'गयदंत संाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे' मे पर्वत तनुं भेवु संस्थान होय छे तेवा संस्थानवाणी છે. તેમજ સર્વાત્મક રત્નમય છે અને આકાશ તેમજ સ્ફટિકની જેમ નિર્માળ છે. એ 'उभयो पासिं' दोहिं पउमवरवेइयाहि दोहि अ वणसंडेहि सव्वओ समता संपरिक्खित्ते' અને પાશ્વ ભાગેામાં બે પાવર વેદિકાઓથી અને બે વનખડાથી સારી રીતે ચામેરથી
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थ वक्षस्कारः सू. १८ गन्धमादन वक्षस्कारपर्वत निरूपणम्
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-भूमिभागे जाव आसयंति' गन्धमादानस्य खलु वक्षस्कारपर्वतस्य उपरि शिखरे बहुसमरम.णीयः अत्यन्तसमतया सुन्दरो भूमिभागः, यावत् - यावत्पदेन "प्रज्ञप्तः, स यथानामकः आलि: 'ङ्गपुष्करमिति वा यावद् नानाविधपञ्चवर्णै र्मणिभिस्तृणैरुपशोभितः, अत्र मणितॄणवर्णनं वक्त"व्यम् एवं वर्ण- गन्ध-रस - स्पर्श-शब्द पुष्करिणी गृहमण्डप पृथिवीशिलापट्टका बोध्याः, तंत्र खल बहवो व्यन्तरा देवाच देव्यश्च" इति वोध्यम् आसते उपविशन्ति, एतत्सर्व पष्ठसूत्रोक्त भूमिभाग वर्णकमनुसृत्य बोध्यम् अतो विशेपजिज्ञासुभिः पष्ठसूत्रटीका विलोकनीया ।
अधुना अत्र कूटवक्तव्यमाह - 'गंधमायणेणं वक्खारपव्वए कइकूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्तकूडा, तं जहा- सिद्धाययणकूडे १ गंधमायणकूडे २ गंधिलावईकूडे ३, उत्तरकुरुकूडे ४ णिज्जे भूमिभागे जाव आसयंति) इस गन्धमादन बक्षस्कार पर्वत के ऊपर की भूमि का भाग-भूमिरूप भाग बहुसमरमणीय कहा गया है । यावत् यहां पर अनेक देव और देवियां उठती बैठती रहती है एवं आराम विश्राम शयन करती " रहती है यहां आगत यावत् शब्द से 'पण्णत्ते' स यथा नामकः आलिङ्गपुष्करमितवा, यावत् नानाविध पंचवर्णैर्मणिभिस्तृणैरुपशोभितः अत्र मणि तृण वर्णनं वक्तव्यम् एवं वर्ण गंधरस स्पर्श-शब्द पुष्करिणी गृह मण्डप पृथिवी शिलापट्टकाः बोव्याः तत्र खलु बहवो व्यन्तरा देवाश्च देव्यश्व' ऐसा पाठ
हुआ यह छठे सूत्र में भूमिभाग के वर्णन के प्रसङ्ग में कहा गया अतः वहीं से इसे देखलेना चाहिये ।
(गंधमायणेणं वक्खारपन्चए कइ कूडा पण्णत्ता) हे भदन्त ! इस गन्ध: मादन वक्षस्कार पर्वत के ऊपर कितने कूद कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते 'हैं - (गोयमा ! सत्तकूडा-तं जहा सिद्धायणणकूडे, गंधिलावईकूडे, उत्तरकुरुकडे,
• परिवृत छे. 'गंधमायणस्स णं ववखारपव्वयस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाब आसકૃતિ' આ ગંધમાદન વક્ષસ્કાર પ`તના ઉપરના ભૂમિભાગ ભૂમિરૂપ ભાગ બહું સમરમણીય કહેવામાં આવેલ છે. ચાવત્ અહીં અનેક દેવા અને દેવીઓ ઉતી-બેસતી રહે છે તેમજ आराम-विश्राम-शयन कुश्ती रहे छे. अहीं मावेस 'यावत्' शब्दथी 'पण्णत्ते स यथा नामकः आलिङ्गपुष्करमितिवा, यावत् नानाविधपंचवर्णैः मणिभिस्तृणैरुपशोभितः अत्र मणितृणवर्णनं वक्तत्र्यम् एवं वर्णगंधरसस्पर्श - शब्द पुष्करिणी गृहमण्डप पृथिवी शिलापट्टकाः बोध्याः तत्र खलु बहवो व्यन्तरा देवाश्च देव्यश्व' वो पाठ संगृहीत थयेस छे. या पाह ૬ ઠા સૂત્રમાં ભૂમિભાગના વન-પ્રસંગમાં આવેલ છે. એથી ત્યાંથી જ જાણી લેવા જોઇએ.
'गंधमय वक्खारपच्चए कइ कूडा पण्णत्ता' हे लहंत ! मे गंधभाहन वक्षस्ठार पर्वतनी उपर ईंटला हूँटी डेवामां आवेला छे ? सेना भवामभां अलुश्री हे छे - 'गोयमा ! · सत्त कूडा, त जहा- सिद्धाययणकूडे, गंधमायणकूडे गंधि लावईकूडे, उत्तरकुरुकूडे, लोहि
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जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे
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फलिहकूडे ५ - लोहियक्रूकडे ६ आणंदकूडे ७" 'गन्धमादन' इत्यादि प्रश्नमुत्रमुत्तानार्थम्., उत्तर हे गौतम! सप्तकृटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - सिद्धायतनकूटम् १, गन्धमादनकूटम् २ ग्रन्थिलावती कुटम् ३, उत्तरकुरुकूटम् ४ : स्फटिककूटम् ५, लोहिताक्षकूटम् ६ आनन्दकूटं - ७, तत्र स्फटिककूटं स्फटिकमणिमयत्यात्, लोहिताक्षकूटम् - लोहितरत्नवर्णत्वात्, आनन्दकूटम् आनन्द नामकस्य देवस् क्रूटम् ।
ननु यथा वैतान्यादि गत सिद्धायतनादिकूटानां व्यवस्था पूर्वापरतया कृता तथाऽत्रापि ? किं वा ततः कचिद्विशेषः ? इत्याह - "कहि णं भंते ! गंधमायणे वक्खारपन्चए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ?, गोयना ! मंद रस्स पव्ययस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं गंधमायण कूडस्स दाहिणपुरस्थिमेणं, एत्थ णं गंधमायणे वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूठे पण्णत्ते" कंव खलु भदन्त । इत्यादि - हे भदन्त ! गन्धमादने वक्षस्कारपर्वते सिद्धायतनकूटं का कुत्र प्रज्ञप्तम् ?, गौतम 1 मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपश्चिंमेन उत्तरपश्चिम दिशोरन्तराले वायव्यलोहिकडे, आणंदकडे ) हे गौतम ! इस पर सातकूट कहे गये हैं- उनके नाम इस प्रकार से है - सिद्धायतनकूट, गन्धमादनकूट, गंधिलावतीकूट, उत्तरकुरु कूट, स्फटिककूट, लोहिताक्षकूट और आनन्दकूट। इनमें स्फटिककूट स्फटिकरत्न मय है लोहिताक्षरत्न के जैसे वर्णवाला है और आनन्दकूट आनन्द नामक देवका कृट है । अब यहां पर गौतमस्वामी के इस प्रश्नका कि जिस प्रकार से Marica आदिगत सिद्धायतनादि कूटों की व्यवस्था पूर्व अपर आदि रूप से की गई है उसी तरह की व्यवस्था क्या यहां पर भी की गई है ? या उसकी अपेक्षा यहाँ की व्यवस्था में कुछ अन्तर है ? उत्तर देते प्रभु कहते हैं (गोयमा मंदरस्सपञ्चयस्स उत्तरपच्चत्थिमेर्ण गंधमायणकूडस्स दाहिणपुरत्थिमेणं गंधमायणे 'वक्खारपन्च सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते-तं चैव क्षुल्लहिमवंते सिद्धाययणस्स कूडस्स पमाणं तं चैव -एएसिं सच्चेसिं भाणियचं) हे गौतम ! मंदर यक्स्रकूडे, आणंदकडे' हे गौतम! मे पर्वत पर सात छूटी मावेला छे, तेभना नाभ या प्रभाशे -छे-सिद्धायतन छूट, गंधभावन छूट, गघिसावती छूट, उत्तर छूट, स्कूटि४ 'लूट, अधभाहन ईंट, सोहिताक्ष छूट, अमे आनंद टूट, भांट छूट ईटि४ रत्नभय छे, सोहिताक्षना रत्न नेवा या वाणा छे भने मह छूट यानं नाम देवना छूट छे. હવે અહી. ગૌતમ પ્રભુને પ્રશ્ન કરે છે કે જેમ વૈતાઢય આદિગત સિદ્ધાયતનાં િફૂટની વ્યવસ્થા પૂર્વ અપર વગેરે રૂપમાં કરવામા આવેલી છે, તે પ્રમાણે જ શુ અહીં પણુ વ્યવસ્થા કરવામાં આવેલી છે ? કે તેની અપેક્ષાએ અહીંની વ્યવસ્થામાં કંઈ તફાવત છે? येनान्वाणभां अलुछे- 'गोयमा ! मंदरस्स पव्त्रयस्व उत्तरपच्चत्थिमेगं गंधमायण- कूडस्स दाहिणपुरत्थिमेणं एत्थणं गंधमायणे वक्खारपव्वए सिद्धाययणक्रुडे - णाम कूडे पण्णत्ते- चित्र शुल्लहिमवते सिद्धाययणस्स कूडस्स प्रमाणं तचैव एएसि सव्वेसि आाणियन्त्र? हे
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १८ गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतनिरूपणम् १७३ कोणे गन्धमादनकूटस्य दक्षिणपौरस्त्येन दक्षिणपूर्वदिशोरन्तराले आग्नेयकोणे अत्र अत्रान्तरे सिद्धायतनटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् , 'जं चेव चुल्लहिमवंते सिद्धाययणकूडस्स पमाणं' यदेव प्रमाणं क्षुद्रहिमवती सिद्धायतनकूटस्य पूर्वमुक्तम् 'तं चेव एएसि सव्वेसिं भाणिग्छ' तदेव -प्रमाणम् एतेषां सिद्धायतनकूटादीनां सर्वेषां सप्तानां कूटानां भणितव्यम् , वक्तव्यम् , 'एवं
चेव विदिसाहिं तिणि कूडा' एवमेव सिद्धायतनकूटानुसारेण विदिक्षु (दिशास) तिसृषु विदिक्षु वायव्यकोणेषु त्रीणि सिद्धायतनादीनि कूटानि 'भाणियधा' भणितव्यानि वक्तव्यानि ननु एकैव चायव्यःविदिक्कथं बहुत्वेन निर्दिष्टा? इति चेदुच्यते--अत्र तिस्रो वायव्यो विदिशो मिलिता विवक्षिता इति बहुत्वेन तन्निर्देशः, स च 'एवं चत्तारि वि दारा-भाणियव्वा' इति सूत्रविवरणोक्तयुक्त्या प्रमातव्यः, उक्त कूटत्रयावस्थानमेवम्-मेरुतो वायव्ये सिद्धायतनकूटम् तस्मादू वायव्ये गन्धमादनकूटम् , तस्माच्च वायव्ये गन्धिलावतीकूटम् ३, एवं तिस्रो वाय-पर्वत के वायव्य कोण में गंधमादन कूड के आग्नेय कोण में सिद्धायतन नामका 'कूट कहा गया है जो प्रमाण क्षुद्रहिमवान् पर्वत पर सिद्धायतनकूट का कहा गया है वही प्रमाण इन सिद्धायतन आदि सब सातों कूटों का कहलेना चाहिये। (एवं चेव विदिताहि तिण्णि कूडा भाणियन्वा) इसी तरह सिद्धायतनकूटके कथनानुसारही तीन विदिशाओं में वाययकोनो में-तीन सिद्धायतन आदि कट -कहलेना चाहिये शंका-वायव्यविदिशा तो एक ही होती हैं.फिर यहां तीन वायव्यकोन' ऐसा पाठ कैसा कहा ?.उ. यहां जो ऐसा कहा गया है वह तीन वायव्यदिशाओं को समुदित करके कहा गया है 'एवं चत्तारि वि दारा भाणियचा' इन तीन वायव्यदिशाओं को इस सूत्र के विवरण में उक्त युक्ति से समुदितकिया गया है तात्पर्य ऐसा है कि.मेरु से उत्तर पश्चिमदिशाओं के अन्तराल में वायव्यकोने में सिद्धायतनकूट है इस सिद्धायतनकूट से वायव्यकोने में गन्धमादनकूट है इससे वायव्यकोने में गन्धिलायती कूट है इस प्रकार से ये ગૌતમ! મંદરપર્વતના વાયવ્ય કેણુમાં ગંધમાદન કૂડના આગ્નેય કોણમા સિદ્વાયતન નામક ફૂટ ઉપર કહેવામાં આવેલ છે. જે પ્રમાણ ક્ષુદ્રહિમવાનું પર્વત ઉપર સિદ્ધાયતનકૂટ માટે કહેવામાં આવેલ છે, સિદ્ધાયતન વગેરે બધા સાતે માટે પણ આ મુજબ જ પ્રમાણ समा 'एव चेव विदिसाहितिणि कूडा भाणियव्यो' मा प्रमाणे सिद्धायतन टना ४थन મુજબ જ ત્રણ વિદિશાઓમાં વાયવ્ય કોણમાં ત્રણ સિદ્ધાયતન વગેરે કૂટ કહેવા જોઈએ.
શંકા-વાયવ્ય વિદિશા તે એક જ હોય છે પછી અહીં ત્રણ વાયવ્ય કોણ એ પાઠ શા માટે કહેવામાં આવેલ છે ઉત્તર–અહીં જે એવું કહેવામાં આવેલું છે તે ત્રણ वायव्य हिशासनिमनुसक्षीने वाम पाव छ. 'एवं चत्तारि वि दारा भाणियव्वा' से नए। વાયવ્ય દિશાઓને એ સૂત્રના વિવરણમાં ઉક્ત ઍક્તિ વડે સમુદિત કરવામાં આવેલ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે મેરુથી ઉત્તર-પશ્ચિમ દિશાઓના અન્તરાલમાં–વાયવ્ય
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
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व्यविदिशः सम्पद्यते कूटत्रयस्थानान्युक्त्वा चतुर्थकूटस्थानमाह - 'चउत्थे तत्तियस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं पंचमस्त दाहिणेणं सेसा उ उत्तरे दाहिणेणं' चतुर्थमित्यादि चतुर्थ चतुर्थकूटम्, उत्तरकुरुकूटं तृतीयस्य गन्धिलावतीकूटस्य उत्तरपश्चिमेन - उत्तरपश्चिमायां विदिशि वायव्यकोणे पञ्चमस्य स्फटिककूटस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि प्रज्ञप्तम् पञ्चमादि कूटस्थामाह-शेपाणि चतुष्टयातिरिक्तानि स्फटिकादीनि त्रीणि कृटानि तु उत्तरदक्षिणेन उत्तरदक्षिणस्याम् उत्तरदक्षिणश्रेणि व्यवस्थया स्थितानि प्रज्ञप्तानि अत्रेदं तात्पर्यम् पञ्चमं चतुर्थस्गोत्तरतः पण्ठस्य दक्षिणतः, पष्ठं पञ्चमस्योत्तरतः सप्तमस्य दक्षिणतः, सप्तमं पष्ठस्योत्तरत वायव्य विदिशा रूप कोने समुदितकियेगये है इसीसे 'विदिसाहिं तिणि' ऐसे बहुवचनका प्रयोग किया गया है । अव चतुर्थकूट का स्थान कहने के लिये सूत्र - कार (उत्थे ततिअस्स उत्तरपच्चत्थिमेगं पञ्चमस्स दाहिणेणं, सेसा उ उत्तर दाहिणेणं फलियलोहिअक्खेसु भोगंकर भोगवइओ देवयाओ सेसेसु सरिस - नामया देवा) इस सूत्र द्वारा समझाते हैं कि उत्तर कूट नामक जो चतुर्थकूट है वह तृतीयकूट जो गन्धिलावती कूट है उसकी वायव्य विदिशा में है और पांच वां जो स्फटिककूट है उसकी दक्षिणदिशा में है इन कूटों के अतिरिक्त जो स्फटिककूट लोहिताक्षकूद, आनन्दकूट ये तीन कूट हैं वे उत्तर दक्षिणश्रेणि में व्यवस्थित हैं यहां ऐसा तात्पर्य है पांचवां जो कूट स्फटिककूट है वह चतुर्थ कूटकी उत्तरदिशा में है और छठे कूट की दक्षिण दिशामें है छठा जो कूट है वह पंचमकूट की उत्तर दिशा में और सातवें कूट की दक्षिणदिशा में हैं सातवाँ जो कूट है वह छठे कूट की उत्तर दिशा में કાણમાં સિદ્ધયતન ફૂટ છે. એ સિદ્ધાયતનકૂટથી વાયવ્યકોણમાં ગધમાદનકૂટ છે. એનાથી વાયવ્ય કાણુમાં ગધિલાવતી ફૂટ છે. આ પ્રમાણે એ વાયવ્ય વિદિશા રૂપા बड़े समुहित ४२वामां आवे छे. मेथी 'विदिसाहिं तिण्णि' सेवा महुवननी પ્રયાગ કરવામાં આવેલ છે. હવે ચતુર્થાં ફૂટનું સ્થાન કહેવા માટે સૂત્રકાર - 'चउत्थे ततिअस्स उत्तरपच्चत्थिमेण पञ्चमस्स दाहिणेणं, सेसाउ, उत्तरदाहिणेणं फलिय लोहि अक्खेसु भोगंकर भोगवइओ देवयाओ सेसेसु सरिसनामया देवा' मा सूत्र 3 સમજાવે છે કે ઉત્તર ફૂટ નામના જે ચતુથ ફૂટ છે તે તૃતીય ફૂટ જે ગંધિલાવતી ફૂટ છે, તેની વાયવ્ય દિશ માં છે અને પાંચમા જે સ્ફટિક ફૂટ છે તેની દક્ષિણ દિશામાં છે. એ કૂટા સિવાય જે સ્ફટિક ફૂટ, લેાહિતાક્ષ ફૂટ અને આનંદ ફૂટ એ ત્રણ ફૂટ છે તે ઉત્તર દક્ષિણુ શ્રેણિમાં વ્યવસ્થિત છે. અહીં એવા અ કરવામાં આવે છે કે-પાંચમે જે સ્ફટિક ફૂટ છે તે ચતુર્થાંશૂટની ઉત્તર દિશામાં છે અને હું ઠા ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં છે. છઠા ફૂટ છે તે પંચમફૂટની ઉત્તર દિશામાં અને સાતમા ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં છે જે સાતમા કૂટ છે તે હું ઠા ફૂટની ઉત્તર દિશામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે પરસ્પરમાં ઉત્તર–દક્ષિણ ભાવ કહેવામાં આવેલ છે. સ્ફટિક ફૂટ અને લેાહિતાક્ષ ફૂટ એ એ ફૂટની
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १८ गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतनिरूपणम् १७५ इति परस्परमुत्तरदक्षिणभाव इति, अत्र पञ्चशतयोजनविस्ताराण्यपि कूटानि क्रमहीयमानेपि गन्धमादनपर्वते यन्मान्ति तत् सहस्राङ्ककूटान्यनुसृत्य बोध्यम् । अथैषां सप्तानां कूटानामधिप्टातृस्वरूपं निरूपयितुमाह-'फलिह लोहियक्खेसु भोगंकर भोगवईओ देवयाओ सेसेसु सरिसणामया देवा' स्फटिक लोहिताक्षयोरित्यादि-तत्र स्फटिक लोहिताक्षयोः पञ्चम पष्ठयोः कूटयोः क्रमेण भोगङ्करा भोगवत्यौ देवते द्वे दिक्कुमायौँ तदधिष्ठान्यौ वसतः, शेषेषु तदतिरिक्तेषु पञ्चसु कूटेषु सादृशनामकाः तत्तत्कूटसदृशनामकाः देवाः तदधिष्ठातारो देवाः परिवसन्ति, 'छसु वि पासायवडेंसगा रायहाणीओ विदिसामु' षट्स्वपि षट् स्वेवकूटेषु मासादावतंसकाः तत्तत्कटाधिष्टातृदेववासयोग्य उत्तमप्रासादाः प्रज्ञप्ताः, तथाऽमीषां देवानां राजधान्या अधिपतिवसतयोऽसङ्ख्याततमे जम्बूद्वीपे विदिक्षु वायव्यकोणेषु प्रज्ञप्ताः।
अधुनाऽस्य नामार्थं प्रश्नोत्तराभ्यां निरूपयितुमाह-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ' 'अथ केनार्थेन भदन्त !' इत्योदि-हे भदन्त ! केन अर्थेन कारणेन एवम् इत्यम् उच्यते कथ्यते 'गंधमायणे वक्खारपव्वए २ ?' गन्धमादनो वक्षस्कारपर्वतः २ ? इति, भगवानुसरमाहगोयमा !' गौतम ! 'गंधमायणस्स णं वक्खारपब्धयस्स गंधे से जहाणामए' गन्धमादनस्य है। इस तरह परस्पर में उत्तर दक्षिण भाव कहा गया है । स्फटिककूट और लोहिताक्षकूट इन दो कूटों के ऊपर भोगंकरा और भोगवती ये दो दिक्कुमारिकाएं रहती है । याकी के और समस्त कूटों पर कूटों के अनुरूप नामवाले देव रहते हैं । (छसु वि पासायवडेंसगा रायहाणीओ विदिसासु) छह कूटों के ऊपर ही प्रासादावतंसक है-उस उस कूट के अधिष्ठायकदेवों के निवासकरने योग्य उत्तमप्रासाद हैं तथा इन इन देवों की राजधानियां असंख्यातवेभाग प्रमाण जम्बूद्वीप में वायव्यकोणों में है (से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ गंधमायणे वक्खारपव्वए २) हे भदन्त ! आपने इस पर्वत का नान 'गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत ऐसा किसकारण से कहा है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ! गंधमायणस्स ण वक्खारपव्वयस्स गंधे से जहाणामए कोहपुडाणवा जाव पीसिज्जमाणाण ઉપર ભેગંકરા અને ભગવતી એ બે દિકુમારિકાઓ રહે છે. શેષ સર્વ કૂટો ઉપર ફૂટ भुमनामा । २8 छ 'छ7 वि पासायवडेप्सगा रायहाणीओ विदिसासु' १ टे.नी ઉપર જ પ્રાસાદાવતુંસક છે. તત્ તત્ કૂટના અધિષ્ઠાયક દેવાના નિવાસ માટે ગ્ય ઉત્તમ પ્રાસાદે છે, તેમજ તત્ તત્ દેવની રાજધાનીઓ અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ જંબુદ્વીપમાં वायव्य अभी छे. 'से देणद्रेण भंते ! एवं वुच्चइ गंधमायणे वक्खारपव्वए २३ मत! . આપશ્રી એ આ પર્વતનું નામ “ગન્ધમાદન વક્ષસ્કાર પર્વત એવું શા કારણથી કહ્યું છે? मेनामा प्रभु ४ छ 'गोयमा! गंधमायणस्स णं वक्खारपव्ययस्स गंधे से जहा णामए कोट्ठपुडाण वा जाव पीसिज्जमाणाण वा उक्किरिज्जमाणाण वा विकिरिज्जमाणाण वा परिभुज्ज. माणाण वा जाव ओराला मणुण्णा जाव गंधा अभिणिस्सर्वति भवेयारूवे ? णो इणद्वे समढे
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- जम्वृद्धीपंप्राप्तिसूत्र खलु वक्षस्कारपर्वतस्य गन्धोऽभिस्रवति तत्र दृष्टान्तमुपन्यस्यति स यथानामकेत्यादि स गन्धः यथा येन प्रकारेण नामक नामैव नामक प्रसिद्धः, अत्र प्रसिद्धार्थकनामशब्दात् स्वार्थेऽकवू प्रत्ययो वोध्या, नामेत्यस्याव्ययत्वात् स च टेः प्राक् नद्धिनाया प्रत्ययस्य मध्यपवितला. तन्मध्यपतितन्यायेन नामशब्देन नामक शब्दस्यापि ग्रहणादव्ययत्वात्सुपो लुक। मूले तु प्राकृत तत्वात्पुंस्त्वेन निर्देशः, 'कोहपुडाण वा जाव' कोष्ठपुटानां वा यावत् यावत्पदेन-'तगरपुटानां वा एलापुटानां वा चोयपुटाना वा चम्पापुटानां वा दमनकपुटीनां वा कुङ्कुमपुटानां वा चन्दनपुटानां वा उशीरपुटानां वा मरुकपुटानां चा जातीपूटानां वा यथिकाष्टानां वा मल्लिकापुटानां वा स्नानमल्लिकापुटानां वा केतकीपुटानां वा पाटलीपुटानां या नवमल्लिकीपुटानां वा अगुरुपुटानां वा लवङ्गपुटानां वा कर्पूरपुटानां वा वासपुटानां वा अनुवाले वा उद्भिद्यमा नानां वा कुटचमानानां वा भज्यमानानां वा' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो वोध्या । 'पीसज्ज. माणाण वा उक्किरिज्जमांणाण वा विकिरिजमाणाण वा परिभुज्जमाणाण वा जाव' पिप्यमानानां वा उत्कीर्यमाणानां वा विकीर्यमाणानां वा परिभुज्यमानानां वा यावत् यावत्पदेन-'माण्डाद् भाण्डान्तरं संहियमाणानां वा एपा पदानां संग्रहो वोध्यः, 'ओराला मणुण्णा जाच गंधा अभिणिस्सवंति' उदाराः मनोज्ञाः यावत् यावत्पदेन-"मनोहराः, घ्राणमनो निवृतिकरा: वा' उकिरिज्जमाणाण वा, विकिरिज्जमाणाण चा, परिभुज्जमाणाण वा जाव ओराला मणुष्णा जाव गंधा अभिणिस्सवंति भवेयाख्वे ? णो इणढे समढे) हे गौतम | इस गंधमादननामक वक्षस्कार पर्वतका गन्ध जैसा पिसते हुए, बटते हुए कूटते हुए विग्दरे हुए आदिरूप में परिणत हुए कोप्टपुटों का यावत् तगरपुटादिकसुगन्धित द्रव्य का, गंध होता है उसी प्रकार का है वह जैसा उदार मनोज्ञ आदि विशेषणों वाला होता है उसी प्रकारका इस वक्षस्कार से सदागंध निकलतारहता है। 'णामए में नाम शब्द से अकच् प्रत्यय किया गया है-तब 'नामक' ऐसा बनायागया है यहां यावत् शब्द से 'तगरपुटाना वा एलापुटानां वा, चोयपुटानां वा, चम्पापुटानां वा, दमनकपुटानां वा, जातीपुटानां वा, थिकापुटानां वा' इत्यादिपदों का संग्रह हुआ है तथा "भाण्डात् भाण्डान्तरं संहिंयमाणानाम्' इन पदों का संग्रह द्वितीय यावत्पदसे हुआ है હે ગીતમ! આ ગન્ધમાદન નામક વક્ષસકાર પર્વતને ગન્ધ દળતાં, કૂટતા, વિકીર્ણ થયેલાં વગેરે રૂપમાં પરિણત થયેલા કેષ્ઠિ પુને યાવત્ તગર પુટાદિક સુગ ધિત દ્રવ્યોને ગબ્ધ હેચ છે, તેવા પ્રકાર છે. તેને જે ઉદાર મનેણ વગેરે વિશેષણपाणी हाय छ तर सा पक्षहारमाथी सा नजना २ छ 'णामए' भां नाम हने 'अकचू' प्रत्यय वामां मावस छ. रथी 'नामक' मे त ५४
न्यु छ. मी यात्राथ. 'तगरपुटाना वा एलापुटानां वा; चोयपुटानां वा, चम्पा. पुटानां वा दमनकपुटानां वा, जातीपुटानां वा; यूथिकापुटानां वा' वगेरे ५४ ग्रहण थयला छ, तमा 'भाण्डात् भाण्डान्तरं संह्रियमाणानाम्य पहाना सद्वितीय याक्त पदया था
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १८ गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतनिरूपणम् १७७ सर्वतः समन्तात्" इत्येषां सङ्ग्रहः, एषां व्याख्या राजप्रश्नीयसूत्रस्याष्टादशसूत्रस्य मत्कृत. सुबोधिनीटीकातो बोध्या, गन्धाः अभिस्रवन्ति अभिनिःसरन्ति एवमुक्ते सति शिष्यो भगवन्तं पृच्छति-भवे एयारूवे ?' भवेदेतद्रूपः एतादृशो गन्धो गन्धमादनस्य भवेत् ?, भगवानाह-'गो इणढे समहे' नो अयमर्थः समर्थः अयं कोष्ठपुटादीनां गन्धरूपोऽौँ नो समर्थः न युक्तः, यधेचं तर्हि तदुपादानं किमर्थम् ? औपम्यं तत् गन्धमादनस्य 'गंधमायणस्स णं इत्तो इतराए चेव जाव गंधे पण्णत्ते' गन्धमादनपर्वतस्य खलु गन्धः इतः कोष्ठपुटादि गन्धतः इष्टतरकः अतिशयेनेष्टतर एव तथाभूतः अभीप्सिततर एव, तत्र कश्चिदकान्तोऽपि गन्धः कस्यचिदिष्टतरो भवतीत्याह-यावत् यावत्पदेन-"कान्ततरक एव मनोज्ञतरक एव मनोऽमतरक एव" इत्येषां सङ्ग्रहः, एपां विवरणं राजप्रश्नीयम् त्रस्य पञ्चदशसूत्रस्य मत्कृत सुबोधिनी टीकातो वोध्यम् , एतादृशो गन्धः प्रज्ञप्तः कथितः, 'से एएणटेणं गोयमा ! एवं तृतीय यावत्पद से 'मनोहरा प्राणमनोनिवृत्तिकराः सर्वतः समन्तात्' इन पदों का संग्रह हुआ है इन सब पदों को यदि व्याख्यासहित देखना हो तो राजप्रश्नीय सूत्रके अठारहवें सूत्रकी व्याख्याको देखना चाहिये। जब पाने 'गन्धमादन' नाम होने के सम्बन्ध में ऐसा कहा तो गौतम ने पुनः प्रभु से ऐसा पूछा-तो क्या हे भदन्त ! ऐसाही गन्ध उससे निकलता है ? तब इसके उत्तर में प्रभुने उनसे कहा-हे गौतम ! ऐसा यह अर्थ समर्थ नहीं है क्यों कि (गंधमायणस्स णं इत्तो इतराए चेव जाव गंधे पण्णत्ते) गंधमादन वक्षस्कार पर्वत से जो गंध निकलती है वह तो इन कोष्ट पुटादिकों की गंध से भी बहुत अधिक इष्ट होती है यहां तो केवल गन्धमादनवक्षस्कार पर्वत की गंवको उपमित करने के लिए ही कोष्ट पुटादि सुगन्धित पदार्थों की गन्ध को दृष्टान्त कोटि में रखा गया है। यहां यावत्पद से 'अभीप्सिततर एवं कान्ततरएव' आदिपदों का ग्रहण छ. तृतीय यथावत्पथी 'मनोहरा घ्राणमनोनिवृत्तिकराः सर्वतः समन्तात्' मे. पहानी संग्रह થયે છે. એ સર્વ પદેને સવ્યાખ્યા જેવા હોય તે “રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર ના ૧૮મા સત્રની વ્યાખ્યાને લેવી જોઈએ. જ્યારે પ્રભુએ “ગંધમાદન નામ વિશે આ જાતની સ્પષ્ટતા કરી ત્યારે ગૌતમે પ્રભુને પુનઃ પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદન્ત! શું એ જ ગન્ધ તે ગન્ધમાદનમાંથી નીકળે છે? ત્યારે એના જવાબમાં પ્રભુએ તેને કહ્યું કે હે ગૌતમ! એ मथ समर्थ नथी. है 'गंधमायणस्स णं इत्तो इदुतराए-चेव जाव गंधे पण्णत्ते' ગંધમાદન વક્ષસ્કાર પર્વતમાંથી જે ગંધ નીકળે છે તે તો એ કેષ્ટ પુટાદિકેની ગધ કરતાં પણ અધિક ઈટ હેય છે. અહીં તે ફક્ત ગંધમાદન વક્ષસ્કાર પર્વતની ગંધને ઉપમિત કરવા માટે જ કષ્ટપુટાદિ સુગંધિત પદાર્થોની ગબ્ધને दृष्टान्त जटिभ भूस्वाभा मावस छे. मही' यावत् ५४थी 'अभिप्सिततर एव कान्ततर एव' वगेरे ५हो ग्रहण थय। छे. चना विशेष भूत पहानी व्याच्या
ज० २३
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
कुराए णं भंते! कुराए केरिसए आयारभाव पडोयारे पण्णत्ते ?, गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं पुव्ववष्णिया जच्चेव सुसम - सुसमावतव्वया सच्चेव णेयव्वा जाव पउमगंधा १ मियगंधार अममा३ सहा४ तेतली५ सर्णिचारी६ ॥ सू० १९ ॥
छाया -क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे उत्तरकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन गन्धमादनस्य वक्षस्कार पर्वतस्य पौरस्त्येन माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन अत्र खल उत्तरकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञप्ताः, प्राचीनप्रतीचीनायताः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णाः अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताः एकादशयोजन - सहस्राणि अष्ट च द्वाचत्वारिंशानि योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य विष्कम्भेणेति, तासां जीवा उत्तरेण प्राचीनप्रचीतीनायता द्विधा वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा, तद्यथापौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा, एवं पाश्चात्यया यावत् पाश्चात्यं वृक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा, त्रिपञ्चाशतं योजनसहस्राणि आयामेनेति, तासां खलु धनुः दक्षिणेन पष्टि योजनसहस्राणि चत्वारि च अष्टादशानि योजनशतानि द्वादश च एकोनविंशतिभागान योजनस्य परिक्षेपेण, उत्तरकुरूणां खल भदन्त ! कुरूणां कीदृशकः आकार भाव प्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः, गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, एवं पूर्ववर्णिता चैव सुपमपमा चक्तव्यता सैंच नेतव्या यावत् पद्मगन्धाः १ मृगगन्धाः २ अममाः ३ सहाः ४ तेतलिनः ५ शनैश्चारिणः ६ ।। सू० १९ ॥
टीका- 'कहि णं भंते 1 महाविदेहे' इत्यादि, 'उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता' इत्यन्तम् छाया गम्यस्, 'पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया इकारस उत्तरकुरुनिरूपण
'कहिणं भंते! महाविदेहे वासे'
टीकार्थ- गौतमस्वामीने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है - (कहि णं अंते ! महाविदेहे वासे उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता) हे भदन्त ! महाविदेहक्षेत्र में उत्तरकुरु नामका क्षेत्र कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है (गोयमा ! नंदरस्त पचयस्स उत्तरेणं णीलवंतास वासहरपव्वयस्सदक्खिणं गंधमायणस्स वक्खारपन्चयस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं उत्तरकुरा णामं
ઉત્તરકુરુ-નિરૂપણુ 'कहिणं भंते! महाविदेहे वासे इत्यादि
रीडार्थ- गौतमे या सूत्र वडे असुने येवो अश्न ये है- 'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता' महाविदेह क्षेत्रमां उत्तर नाभ क्षेत्र या स्थजे यावेस छे ? मेना वाणसा अलु हे छे- 'गोयमा ! मंदरस्स पव्त्रयस्स उत्तरेणं णीलरंतरस वासहर पव्वयस्स दक्खिणेणं वक्खारपव्त्रयस्स पच्चत्थिमेणं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता' हे गौतम!
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १९ उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् जोयणसहस्साई एतान्यपि छाया गम्यानि, 'अट्ठ य वायाले जोयणसए दोण्णि य एगणवीसहभाए जोयणस्स विखंभेगति' नवरम् अष्ट च द्वाचत्वारिंशानि-द्वाचत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि, द्वौ चैकोनविंशतिभागौ योजनस्य विष्कम्भेणेति, अथासामुत्तरकुरूणां जीवा माह-'तीसे जीवा उत्तरेणं पाइणपडीणायया दुहा वक्खारपब्वयं पुष्टा' 'तासां जीवेत्यादिमूले प्राकृतत्वादेकवचनम् 'तासिं' इति वक्तव्ये 'तीसे' इत्युक्तम्, तासाम् उत्तरकुरूणां जीवा प्रत्यश्वा सैव जीया उत्तरेण उत्तरस्यां दिशि प्राचीनप्रतीचीनायता पूर्वपश्चिमदीर्घा, द्विधा वक्षस्कारपर्वत स्पृष्टा स्पृष्टवती, 'तं जहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए-पुरस्थिमिल्लं वक्खारपत्रयं पुटा' तद्यथा-पौरस्त्यया पूर्वया कोटया अग्रभागेन पौरस्त्यं प्राच्यं वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा स्पृष्टावती, 'एवं पञ्चथिमिल्लाए जाव पच्चथिमिल्लं वक्खारपवयं पुट्टा' एवम् अनेन प्रकारेण पाश्चात्यया पश्चिमया यावत् यावत्पदेन 'कोट्या' इति ग्राह्यम् पाश्चात्यं कुरापण्णत्ता) हे गौतम ! मन्दर पर्वत की उत्तरदिशामें, नीलवन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशा में, गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत की पूर्वदिशा में एवं माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत की पश्चिमदिशा में उत्तरकुरु नामका क्षेत्र अकर्मभूमिका स्थान कहा गया है यह (पाईणपडीणाथया, उदीणदाहिणवित्थिण्णा, अद्धचंदसंठाणसंठिया, इकारसजोषणसहस्साई अट्टयबायाले जोयणलए दोणिय एगूणवीसहभाए जोधणस्स विक्खंभेणंति) यह पूर्व से पश्चिमतक लम्बा है और उत्तर दक्षिण तक विस्तीर्ण है इसका विष्कम्भ ११८४२२ योजन प्रमाण है (तीले जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा वक्खारपव्ययं पुट्ठा) उस उत्तरकुरु क्षेत्र की जीवा-प्रत्यञ्चा उत्तर दिशा में पूर्व पश्चिम में दीर्घ है-लम्बी है-यह पूर्व दिग्वर्ती कोटि से पूर्वदिग्ची वक्षस्कार पर्वतको छूती है और पश्चिमदिग्वती कोटि से पश्चिमदिग्वती वक्षस्कारपर्वत को छूती है यही बात (तं जहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्ठा एवं पच्चस्थिमिल्लाए जाब મંદર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં નીલવંત વર્ષધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં, ગન્ધમાદન વક્ષસ્કાર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં ત્તર કુરુ નામક ક્ષેત્ર-અકર્મભૂમિકાનું સ્થાન આવેલ छ. 'पाईणपडीणायया उदीणदाहिणवित्थिण्णा, अद्ध-चंदसंठाणसंठिया इक्कारसजोयणसहस्साई अद्रयबोगले जोयणसए दोणिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणंति' से क्या પશ્ચિમ સુધી લાંબો છે અને ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી વિસ્તીર્ણ છે. એને આકાર અદ્ધ चार वा छे. सन वि०४ ११८४२ यारन प्रभार छ. 'तीसे जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा वक्खारपव्ययं पुढा' मा उत्तर ३२ बनी ।-प्रत्यया-उत्तर દિશામાં પગે પશ્ચિમમાં દીર્ઘ છે. લાંબી છે. એ પૂર્વ દિવતી કેટથી પૂર્વ દિગ્વતી વક્ષરકાર પર્વતને સ્પર્શે છે અને પશ્ચિમ દિગ્વતી કેટથી પશ્ચિમ દિશ્વત વક્ષસ્કારને २५शी रहेर छ । पात 'तं जहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं आव वक्खारपवयं पुट्ठा एवं पच्चस्थिमिल्लाए जाव पच्चस्थिमिल्लं बक्खारपव्वयं पुढा' के सूत्र
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
पश्चिमं वक्षस्कारपर्यंत स्पृष्टा, तस्या जीवाया मानमाह - ' तेवणं जोयणसदस्साई आयामेja' त्रिपञ्चाशतं योजनसहस्राणि त्रिपञ्चाशत्सहस्रसंख्ययोजनानि आयामेन दैध्यैण, तासां धनुष्पृष्ठमानमाह-ती से णं धणुं दाहिणेणं सट्ठि जोयणसहस्साई चत्तारिय अहार से जोयणसए' तासामू, उत्तरकुरूणां खलु धनुः दक्षिणेन दक्षिणभागे मेर्वासन्ने पष्टि योजनसहस्राणि - पष्टिसहस्रसंख्ययोजनानि चत्वारि च अष्टादशानि अष्टादशाधिकानि योजनशतानि 'दुवालसब एगूणवीसभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' द्वादश च एकोनविंशतिभागान योजनभ्य परिक्षेपेण-परिधिना, तथाहि एकैकस्य वक्षस्कार पर्वतस्याऽऽपाम त्रिंशत् यो जनसहस्राणि द्वे चनवाधिके योजनशते पट् च कलाः तत उभयो मनिसङ्कलनया यथोक्तं मानं भवतीति बोध्यम्। अथोत्तरकुरूणां स्वरूपं निरूपयितुमाद - 'उत्तरकुराए णं भंते ! कुराए केरिसए आयारभाव पडोयारे पण्णत्ते ?' 'उत्तरकुरूणां खलु' इत्यादि । हे भदन्त । उत्तरकुरूणां खड कुरूणां कीदृशः कीदृशः आकारभावप्रत्यचतारः - तत्राकारः स्वरूपं भावाः तदन्तर्गताः पदार्थाः तत्सहितः प्रत्यववारः आविर्भावः प्रज्ञप्तः १, भगवानाह - 'गोयमा ! बहुसमरमणिज्ने भूमिमागे पण्णत्ते' गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमियागः प्रज्ञप्तः, भूमिभागवर्णनं पच्चत्थिमिल्लं arखारपन्चयं पुट्ठा ) इस सूत्रद्वारा प्रकट की गई है । (तेवण्णं जोयणलहरुलाई आयामेणंति) यह प्रत्यञ्चा आयाम में ५३००० योजन की है (तीसेणं धणुं दाहिणेणं सहिं जोयणसहस्सा, चत्तारिय अहारसे जोयण सए दुवास य एगूणवीसहभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं) इस प्रत्यचा का धनुपृष्ठ आयामकी अपेक्षा दक्षिणदिशा में मेरु के पास में ६०४१८१ योजन का है यह प्रमाण इस रूपसे निकलता है कि एक एक वक्षस्कार पर्वतका आयाम ३०२०९६ योजनका है अतः दोनों वक्षस्कारोंका आयाम जोडने पर ६०४१८१२ आ जाता है (उत्तरकुराए णं भंते ! कुराए केरिसए आयार भावपडोयारे पण्णत्ते) अब गौतमने उत्तरकुरुका स्वरूप जानने के लिये प्रभुसे ऐसा पूछा है - कि - हे भदन्त ! उत्तरकुरुका आकार भाव प्रत्यवतार स्वरूप कैसा कहा गया है ? उत्तर में प्रभुने कहा है- ( गोयमा ! बहुलमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते एवं पु
वामां आवे छे. 'तीसेणं धणु द'हिणेणं सट्ठि जोयणसहस्साहं, चत्तारिय अट्ठारसे जोयणसए दुबालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' या अत्यंातु धनुः पृष्ठ આયામની અપેક્ષાએ દક્ષિણ દિશામાં મેરુનીપાસે ૬૦૪૧૮ ૧ ૢ ચેાજન જેટલું ́ છે. આ પ્રમાણુ એ રીતે જાણવા મળે છે કે એક-એક વક્ષસ્કાર પ`તના આયામ ૩૦૨૦૯૯ ચેાજન જેટલે ડાય છે. એથી બન્ને વક્ષસ્કારના આયામ જોડીને ૬૦૪૧૮૧ આવી જાય છે. 'उत्तरकुराएणं भंते ! कुराए केरिसए आयारभाव पडोयारे पण्णत्ते' हवे गौतमस्वामी ઉત્તર કુરુનું સ્વરૂપ જાણવા માટે પ્રભુને એવી રીતે પ્રશ્ન કર્યાં કે હૈ લઈ ત ! ઉત્તરકુરુના અાકાર—ભાવ, પ્રત્યવતાર અને સ્વરૂપ કેવાં કહેવામાં આવેલ છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે 'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं पुव्ववणिया जच्चेव सुसम सुसमा व
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १९ उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् चतुर्थसूत्राद पोध्यम् ‘एवं पुत्ववणिया जच्चेव सुसमसुममा वत्तव्यया सच्चेव णेयच्या' एवम् उक्तरीत्या पूर्वणिता पूर्वम् २२ सूत्रे भरतवर्षप्रकरणे वर्णिता उक्ता यैव सुपमसुषमा वक्तव्यतासुपममुपमा अवसर्पिणीकालस्य प्रथमारकः, तस्याः वक्तव्यता वर्णनएद्धतिः सैव नेतव्या ग्राह्या सा च किमवधिरित्याह-'जात्र पउमगंधा १, मियगंधा २, अममा ३ सहा ४ तेतली ५ सणिचारी ६' यावत् पद्मगन्धाः इत्यादि-पद्मगन्धाः-पद्मवद्गंधयुक्ताः १, मृगगन्धाः -मृगस्य कस्तूरी प्रधान मृगस्येव गन्धो येषां ते तथा २, अममा:-निर्ममाः ममता रहिताः ३, सहा सहन्ते-शक्नुवन्ति कार्य इति सहाः-शक्ताः कार्य समर्थाः ४, तेतलिन:-विशिष्टपुण्यशालिनः ५, शनैश्चारिणः-मन्दगमनशीलाः एवं विधा मनुष्या यावत तावत् उत्तरकुरुवर्णनं बोध्यम्, इत्युत्तरकुरु वक्तव्यता निरूपिता ॥सू०१९॥
अथोत्तरकुरुवर्तिमौ यमकपर्वतौ प्ररूपयितुमाहमूलम्-कहि णं भंते ! उत्तरकुराए जमगा णामं दुबे पव्वया पण्णत्ता ?, गोयमा ! णीलवंतस्त वासहरएनयरल दक्खिणिलाओ चरिमंताओ अटुजोयणसए चोत्तीसे चत्तारि य सत्तभाए जोयणस्ल अबाहाए सीधाए महाणईए उमओ कूले एत्थ णं जलगा णासं दुवे पव्वया पण्णत्ता जोयणसहस्सं उट्टे उच्चत्तेणं अड्वाइजाइं जोयणसयाइं उव्वेहेणं मूले एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं उपरि च पंच जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं मूले तिषिण जोयणसहस्साई एगं च बावटुं जोयणसयं किंचि वणिया जच्चेव सुसमलुसमावत्तव्वया सच्चेच णेयव्वा जाव पउलगंधा १ मिअगंधार अममा३ सहा४ तेतली५ सणिचारी६) हे गौतम ! वहांका भूमिभाग बहुसमरमणीय है इस तरह पूर्ववर्णित सुषमसुषमा नामक आरे की जो वक्तव्य ता है वही वक्तव्यता यहां कह लेनी चाहिये-यावत् वहां के मनुष्य पद्म जैसी गंधवाले हैं कस्तूरीवाले मृग जैसी गन्धवाले हैं ममता रहित है कार्य करनेमें सक्षम है तेतली विशिष्ट पुण्यशाली हैं और मन्द मन्द गति से चलनेवाले हैं। इसप्रकार से यह उत्तरकुरुका वर्णन हैं। ॥१९॥ त्तव्वया सच्चेव णेयव्वा जाव पउमगंधा १, मिअगंधा २, अममा ३, सहा ४, तेतली ५. सगिंचारी ६' गौतम! त्यांना मुभिलार मसभरमणीय छे. २॥ प्रभारी पूर्व વર્ણિત સુષમ સુષમા નામક આરાની જે વક્તવ્યતા છે તેજ વક્તવ્યતા અત્રે જાણવી જોઈ એ. ચાવતું ત્યાંના મનુષ્ય પા જેવી ગંધવાળા છે. કસ્તૂરી વાળા મૃગની જેવા ગંધ વાળા છે, મમતા રહિત છે, કાર્ય કરવામાં સક્ષમ છે. તેતલી વિશિષ્ટ પુણ્યશાલી છે. અને ધીમી ધીમી ચાલથી ચાલનારા છે. આ પ્રમાણે આ ઉત્તરકુરુનું વર્ણન છે. સુ. ૧૯
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे विसेसाहियं परिक्वेवेणं माझे दो जोरणसहस्लाइं तिधिग धावत्तरे जोयणलए किंचि विसेसाहिए परिक्खवेणं उरि एग जोयणलहन्तं पचय एकालीए जोयणलए किंचिवितेताहिए परिक्खेवे सूले विरियाणा मज्झे संखित्ता उपि तणुया जसगमंटाणलंठिया सव्वागणालया अच्छा सहा पत्तेयं पउनवरवेइयापरिचिखत्ता पत्ते२ वणसंडपरिविकता, ताओ णं पावरवेइयाओ दो गाउयाइं उन्हं उच्चन्हेणं पंचधशुलयाई विकाईनेणं, वेइयात्रणसंडवाणी भाणियव्वो, तेति णं जमगपञ्बयाणं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पणते, जाब तस्ल णं बहुसमरमणिजन्स सूमिभागस्स वहुमज्झदेसमाए एत्थ पं दुबे पासायरडेंसगा पण्णता, ते गं पासायवडिसगा वार्टि जोयणाई अधजोयणं च उद्धं उच्चत्ते इकत्तीसं जोयणाई कोलं च आयामविकखंभेणं पासायवाणओ भागियचो, सीहासणसपरिवारा जाब एस्थ णं जमगाणं देवाणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहरुलीणं सोलस भदालणसाहस्सीओ पण्णताओ से केणट्रेणं भंते! एवं बुचइ जागा एव्वयार?, गोयमा जमगपव्वएसु णं तत्थर देसे तहिं २ वहवे खुड्डाखुड्डियासु वावीसु जाव बिलपंतियासु वहवे उप्पलाई जाव जमगवण्णाभाई जमगा य इत्थ दुवे देवा महिड्डिया, ते णं तत्थ चउण्हं लामाणियसाहस्सीणं जाव भुंजमाणा विहरंति, से तेणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जमगपव्वया २, अदुत्तरं च णं सालए णामधिज्जे जाव जमगपव्वया २ । सू० २८॥ . छाया-क्य खल्लु भदन्त ! उत्तरकुरुपु यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ, गौतम ! नीलवतो वधरपर्वतस्य दाक्षिणात्याच्चरमान्तात् अष्टयोजनशतानि चतुस्त्रिंशानि चतुरश्च सप्त भागान् योजनस्य अबाधया सीताया महानद्याः उभयोः कूलयोः अत्र खलु यमको नाम द्वौ पर्वतों प्रज्ञप्ती, योजन सहस्रमूर्ध्वमुच्चत्वेन अर्द्धततीयानि योजनशतानि उद्वेधेन मूले एकं योजनसहस्रमायामविष्कम्भेण मध्ये अर्द्धाष्टमानि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण उपरि पञ्च योजनशतानि आयामविष्कम्भेण मुले त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वापष्टं योजनशतं किञ्चि. द्विशेषाधिकं परिक्षेपेण मध्ये द्वे योजनसहने त्रीणि च द्वासप्ततानि योजनानानि किञ्चिद्वि. , शेपाधिकानि परिक्षेपेण उपरि एक योजनसहसं पञ्च एकाशीतानि योजनशतानि किश्चि
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २० उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् द्विशेषाधिकानि परिक्षेपेणमूळे विस्तीर्णौ मध्ये संक्षिप्तौ उपरि तनुकौ यमकसंस्थानसंस्थिती सर्वकनकमयौं अच्छौ श्लक्ष्णौ प्रत्येकं २ पद्मवरवेदिका परिक्षिप्तौ प्रत्येकं २ वनपण्डपरि क्षिप्तौ, ताः खलु पद्मवरवेदिका द्वे गव्यूते ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्च धनु शतानि विष्कम्भेण, वेदिका वनपण्डवर्णको भणितव्यः, तयोः खलु यमक पर्वतयोरुपरि बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागः अत्र खल द्वौ प्रासादावतंसकौ प्रज्ञप्तौ, तौ खलु प्रासादवतंसको द्वापष्टिं योजनानि अर्द्धयोजनं च ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिशतं योजनानि क्रोशं च आयामविष्कम्भेण प्रासादवर्णको भणितव्यः, सिंहासनानि सपरिवाराणि यावद् अत्र खलु यमकयोः देवयोः पोडशानामात्मरक्षकदेवसाहस्त्रीणां षोडश भद्रासनसाहस्त्र्यः प्रज्ञप्ता, __ अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-यमको पर्वतौ२१, गौतम ! यसकपक्तयोः खलु तत्र२ देशे तत्र२ क्षुद्राक्षुद्रिकासु वापिसु यावद विलपङ्कक्तिकामु वहनि उत्पलानि यात् यमकवर्णाभानि यमको चात्र द्वौ देवौ महद्धिकौ, तौ च तत्र चतसृणां सामानिकसाहस्त्रीणां यावद् भुनानौ विहरता, तौ तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-यमकपर्वतौर, अदुत्तरं च खलु शाश्वतं नामधेयं यावद् :यमकपर्वतौर ॥सू० २०॥
टीका-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए' इत्यादि-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए जसगा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता' क्व खलु भदन्त ! उत्तरकुरुषु यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञसौ ? भगवानाह-'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणिल्लाओ चरिमंताओ' हे गौतम । नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्याच्चरमान्तात्-इह ल्यब्लोपे कर्मणि पञ्चमी तेन दाक्षिणात्यं दक्षिणदिग्भवं चरमान्तं-सर्वान्तिमं प्रदेशम् आरभ्य-दाक्षिणात्याच्चरमान्तादारभ्याग्दिक्षिणाभिमुखमित्यर्थः, 'अट्ट जोयणसए' अष्ट-अष्टसंख्यानि योजनशतानि 'चोत्तीसे' चतुस्त्रिंशानि-चतुस्त्रिंशदधिकानि 'चत्तारि य सत्तभाए' चतुरश्च सप्तभागान 'जोयणस्स अवाहाए'
'कहिणं भंते ! उत्तरकुराए' इत्यादि
टीकार्थ-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए जमगा नाम दुवे पव्यया पण्णत्ता' हे भगवन उत्तरकुरु में यमक नामके दो पर्वत कहाँ पर कहे गए हैं। इस प्रश्न के उत्तर में महावीर प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्ययस्स दक्खिणिल्लाओ चरिमंताओ' हे गौतम ! णीलवन्त वर्षधर पर्वतके दक्षिण दिशा के चरमान्त से लेकर 'अट्ठजोयणसए चोत्तीसे' आठसो चोतीस योजन
'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए' त्या __en-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए जमगा नाम दुवे पव्वया पण्णत्ता' 3 भगवन् उत्तररामा ચમક નામ વાળા બે પર્વતે કયાં આવેલા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને ४३ छ -'गोयमा ! णीलवतस्स वासहरपव्वस्स दक्खिणिल्लाओ चरिमंताओ' है गौतम! नीत qषधर पतनी दक्षिण हिशानयभान्तथी 'अट्ट जोयणसए चोत्तीसे'
ज० २४
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र योजनस्य अवाधया-अपान्तराले कृत्वेति शेपः 'सीयाए' सीताया:-सनाम्न्याः 'महाणईए' महानद्याः 'उभओ' उभयोः एकः पूर्वस्मिन् अपरश्च पश्चिमे इति द्वयोः 'कूले' कूलयो:तटयोः 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे 'जमगा णाम दुवे पव्वया पण्णत्ता' यमको नाम द्वौ पर्वतो प्रज्ञप्तौ, अयैतयोर्मानाद्याह-'जोयणसहस्सं' योजनसहस्रं-सहस्रसंख्ययोजनानि 'उड्डूं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन-उन्नतत्वेन, 'अडाइज्जाई जोयणसयाई अर्धतृतीयानि योजनशतानिसार्द्धशतद्वयसंख्ययोजनानि 'उव्वेहेण उद्वेधेन मुले-मूलावच्छेदेन 'एगं जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्त्रम् 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्ध्य विस्ताराभ्याम् वृत्ताकारत्वात् 'मज्झे' मध्ये-मध्यदेशावच्छेदेन भूतलता पञ्चशतयोजनातिक्रमे 'अट्टमाणि जोयणसयाई' अष्टिमानि योजनशतानि-सार्द्धसप्तसंख्ययोजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण 'उरि च' उपरि-सहस्रयोजनातिक्रमे 'पंच जोयणसयाई पञ्च योजनशतानि-पश्चशतयोजनानि 'आयामविखंभेणं' आयामविष्कम्भेण, 'मूले तिष्णि जोयणसहस्साई' म्ले-त्रीणि 'चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स' एक योजन के, चोथे भागके सप्तमांश 'अबाहाए' अवाधासे-अपान्तरालमें 'सीयाए महाणईए' सीता नामकी महा. नदी के 'उमओ कूले' पूर्वपश्चिम तट पर अर्थात् एक पूर्वतट पर एवं एक पश्चिम तट पर "एत्थणं जमगा जामं दुवे पव्वया पण्णत्ता' इस प्रकार से यमक नामके दो पर्वत कहे हैं। ____अब इन दो पर्वत के आयाम विस्तारादि सूत्रकार कहते हैं-'जोयणसहस्सं' इत्यादि 'जोयणसहस्सं उद्धं उच्चत्तण' एक सहस्त्र योजन उपर के भागमें ऊंचे एवं 'अड्डाइजाई जोयणसयाई ढाइसो योजन 'उब्वेहेणं' उद्वेध वाले अर्थात् पृथ्वीके अंदर रहे हुए 'मूले एगं जोयणसहस्सं' मूलभागमें एक हजार योजन 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भवाले 'मज्ञ अद्धमाणि जोयणसयाई मध्यमें साडे सातसो योजन 'आयामविक्खंभेणं' आयाम विष्क
मा: स यात्रीस योरन 'चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स' मे याबनना यार ससमांश 'अवाहाए' माया-मन्त विना 'सीयाए महाणईए' सीता नामनी महानदीना 'उभओ
જે પૂર્વ પશ્ચિમ કિનારા પર અર્થાત્ એક પૂર્વના કિનારા પર અને એક પશ્ચિમ કિનારા ५२ 'एत्थ णं जमगा णाम दुवे पव्वया पण्णत्ता' यश यभ४ नामनामे पता डा छे.
व सूत्रा२ मा मे पतनमायाम विस्त भान मताव है. 'जोयणसहस्सं' त्याह-'जोयणसहस्सं उड्ढे उच्चत्तण' ४ १२ थान ५२नी त२५ या छे. तभर 'अढाइल्जाई जोयणसयाई' मढी योन 'उव्वेहेणं' देधा मे है
भाननी म२ २३ छ. 'मूले एग जोयणसहस्सं' भूत मागमा ४ ७४२ यानना भध्यमा 'आयामविक्खमेणं' मा 85 वा 'मझे अद्भुमाणि जोयणसयाई' भध्यमा सा सातसा या 'आयामविक्खंभे समापामा 'उवरिं च मे ॥२ 2011
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: प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २० उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् योजनसहस्राणि-सहस्रत्रयसंख्ययोजनानि 'एगं च वावटं' एकं च द्वापष्टं-द्वापष्टयधिक 'जोयणसय किंचि विसेसाहियं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकं-कियत्कलमित्यर्थः, 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना वर्तुलत्वेनेत्यर्थः, 'मज्झे दो जोयणसहस्साई' मध्ये-द्वे योजनसहस्र-सहस्रद्वयसंख्ययोजनानि 'तिण्णि बावत्तरे' त्रीणि च द्वासप्ततानि-द्वासप्तत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'किंचि विसेसाहिए' किश्चिद्विशेषाधिकानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना, 'उवरि' उपरि-शिखरे 'एगं' एकं 'जोयणसहस्सं पंच य एकासीए' योजनसहस्रं पञ्च च एकाशीतानि-एकाशीत्यधिकानि 'जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' योजनशतानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, अत एव 'मूले वित्थिण्णा' मूले विस्तीणौं, 'मज्झे' मध्ये-मूलापेक्षया 'संखित्ता' संक्षिप्तौ-अल्पपरिक्षेपको, 'उप्पि' उपरिशिखरे मूलमध्यापेक्षया 'तणुया' तनुकौ-स्वल्पतरायामविष्कम्भौ, तथा 'जमगसंठाणसंठिया' म्भ वाले एवं 'उवरि च' ऊपर एक सहस्र योजन पर 'पंचजोयणसयाई पांचसो योजन 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भ से युक्त 'मूले तिनि जोयण सहस्साई' मूलभागमें तीन हजार योजन 'एगं च बावट्ट जोयणसयं एकसो बासठ योजनसे 'किंचिविसेसाहियं कुछ अधिक अर्थात् मूलभागमें ३१६२ योजनसे कुछ अधिक परिक्खेवेणं' परिधिवाले (गोलाइमें) 'मज्झे दो जोयणसहस्साई' मध्यम भागमें दो हजार योजन 'तिन्निबावत्तरे जोयणसए' तीनसो बहत्तरयोजन से 'किचिविसेसाहिए' कुछ अधिक 'परिक्खेवेणं' परिक्षेप से युक्त 'उवरि शिस्त्रर के भाग में' 'एगं जोयणसहस्सं पंचय-एकासीए जोयणसए, एक हजार पाँचसौ एकासी योजनसे 'किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं' कुछ अधिक परिक्षेप वाले ये यमक पर्वत हैं ये 'मूले वित्थिन्ना' मूल भाग में विस्तार वाले 'मज्ञ संखित्ता' मध्य भागमें कुछ संकुचित एवं 'उवरि तणुया' शिखर के भागमें तनु अल्पतर आयाम विष्कम्भवाले है तथा 'जगमसंठाणसंठिया' यमक संस्था७५२ना मागमा 'पंचजोयणसयाई' पांयसेयोन 'आयामविक्खंभेणं' मा पहावामा 'मूले तिन्नि जोयणसहस्साई' भूक्षमा १२ योन 'एग च बावट्ठ जोयणसयं' मे४ सो मास: योगगनथा 'किंचि विसेसाहिय' ४६ धारे अर्थात भूजलाशमा उ१६२ योगनथी पधारे परिक्खेवणं' परिधिमा अर्थात् २मा 'मज्झे दो जोयणसहस्साई' मध्यमामा मे १२ यौन 'तिन्ति बावत्तरे जोयणसए' से मांतर योनिया किंचि विसेसाहिए' ४४४ पधारे 'परिक्खेवेणं' पाघिवामा ‘उवरि' शिमरनी 6५२न भागमा 'एग जोयणसहस्सं पंचय एकासीए जोयणसए' २४ ॥२ पांयसो हासी योनथा "किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' ४४४ qधारे परिवार मा यम छ. म त 'मुले विस्थिण्णा' भूगमा विस्तारवाणा 'मझे संखित्ता' मध्य भागमा ४४ सय युक्त तथा 'उवरि तणुया' ५२ना लामा तनु नाम पत२ मायाम वि०४ मा छे. तथा
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૨૮ટે
__ जम्बूद्वीपप्रबप्तिसूत्र यमकसंस्थानसंस्थितौ-यमकौ-युग्मजातौ भ्रातरौ तयोर्यत् संस्थानम्-आकारविशेषस्तेन संस्थितौ-परस्परं सदृशसंस्थानौ, यद्वा-यमका:-पक्षिविशेपास्तत्संस्थिती, संस्थानं चानयो मुलादारभ्य शिखरं यावत् ऊर्वीकृत गोपुच्छवत्क्रमिक हासवत्प्रमाणत्वेन बोध्यम् , तथा 'सन्चकणगामया' सर्वकनकमयो-सर्वात्मना स्वर्णमयौ 'अच्छा सण्हा' अच्छी श्लक्ष्णौ 'पत्तेयंर प्रत्येकम् २-एकैक एकैकः इति द्वौ पृथक स्थिती 'पउमवरवेइयापरिक्खित्ता' पद्मवरवेदिका परिक्षिप्तौ--पदमवरवेदिका परिवेष्टितौ 'पत्तेयं२' प्रत्येकंर 'वणसंडपरिक्खित्ता' वनपण्डपरि. क्षिप्तौ-वनपण्डपरिवेष्टितौ, अत्रैवानन्तरोक्तयोः पद्मवरवेदिका-वनपण्डयोः प्रमाणाधाह'ताओ णं' इत्यादि-'ताओ णं' ताः प्रागुक्ताः खलु 'पउमवरवेइयाओ' पद्मवरवेदिकाः 'दो गाउयाई द्वे गव्य ते-चतुराक्रोशान 'उद्धं उच्चत्तेणं' उर्ध्वमुच्चत्वेन 'पंच धणुसयाई' पञ्चधनुशतानि-पञ्चशतधपि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण विस्तारेण, 'वेइयावणसंडवण्णओ' वेदिका नसे संस्थित अर्थात् परस्परमें समान संस्थान वाले ये यमक पर्वत है अथवा यमकनामके पक्षिविशेष के आकार के जैसा आकार वाले ये यमक पर्वत है । अर्थात् इसका संस्थान मूलसे शिखर पर्यन्त ऊंचे उठाए गए गाय के पुच्छ के आकार जैसे आकार वाले अर्थात् क्रमिक तनु होते जानेवाले प्रमाण वाला ये पर्वत है। ये यमक पर्वत 'सन्च कणगामया' सर्वात्मना सुवर्णमय है 'अच्छा सण्हा' अच्छ एवं श्लक्ष्ण है । 'पत्तय २' प्रत्येक पृथक् पृथक रहे हुए हैं अर्थात् दोनों अलग अलग स्थित है। 'पउमवरवेझ्या परिक्खित्ता' पद्मवर वेदिका से परिवेष्टित है 'पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्ता' वनषण्ड से प्रत्येक परिवेष्टित है। ___ अब पन्नवरवेदिका एवं वनषण्ड का प्रमाण कहते हैं-(ताओ णं) इत्यादि (ताओ णं) पहले कही हुई 'पउमघरवेझ्याओ' पद्मवरवेदिका (दो गाउयाई) दो गव्यूत अर्थात् चार कोस की 'उद्धं उच्चत्तेज' उपर की और ऊंची है 'पंच धणु'जमगसंठाणसंठिया' यम सस्थानी संस्थित अर्थात् मन्योन्य समान संस्थानवाणा આ યમક પર્વત છે. અથવા યમક નામધારી પક્ષિ વિશેષના આકાર જેવા આકારવાળા આ યમક પર્વત છે. અર્થાત્ તેમનું સંસ્થાના મૂળથી શિખર સુધી ઉંચુ કરવામાં આવેલ ગાયના પૂંછડાના આકાર જેવા આકારવાળા એટલે કે ક્રમકમથી પાતળા પડતા જતા પ્રમાણ वाणा मा यम४ पति छ. मा यम ५'त 'सव्व कणगामया' सर्वात्मना सानाना छे. 'अच्छा सण्हा' म२७ भने समय छे. "पत्तेयं पतेथे प्रत्ये४ मा म २सा छ. 'पउमवरवेइया परिक्खित्ता' ५५पर arel पीटाये। 2. 'पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिविखत्ता' ६२४ पनी वाटायेा छ.
6 ५२ । मन मनु' प्रभा मतावामा भाचे छ.-'ताओण' त्याla
'ताओणं' पडला ४ामा मात 'पउमवरवेइयाओ' ५१२वा 'दो गाउयाई' में आव्यूत अर्थात् यार IG "उद्धं उच्चत्तणं' ५२नी त२६ श्री छे. 'पंच, धणुसयाइ'
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २० उत्तरकुरुंस्वरूपनिरूपणम्
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वनपण्डवर्ण क्रः-वेदिका-वनषण्डयोर्वर्णनपरः पदसमूहो 'भाणियव्वो' भणितव्यः - वक्तव्यः, स च चतुर्थपञ्चसूत्राभ्यां वोध्यः, । अधुना यमकयोरुपरियदस्ति तद्वार्णयितुमाह - 'तेसिणं' इत्यादि–‘तेसि णं जमगपव्वयाणं' तयोः यमकपर्वतयोः खलु 'उपि' उपरि शिखरे 'बहुसम - रमणिज्जे' वहुसमरमणीयः - अत्यन्तसमोऽत एव रमणीयः - मनोहरो 'भूमिभागे पण्णत्ते' भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'जाव' यावद - यावत्पदेन - 'आलिङ्गपुष्करमितिवेत्यादि तद्वर्णनपरः पदसमूहो राजश्रीयसूत्रस्य पञ्चदशसूत्रादारम्यैकोनविंशतितमसूत्रपर्यन्ता निबन्धादवगन्तव्यः, स च किम्पर्यन्त इत्याह- 'तस्स णं' इत्यादि - ' तस्स णं वहुसमरमणीज्जस्स भूमिभागस्स बहुमध्यदेशभागः- अत्यन्तमध्यदेशभागः अस्तीति शेषः, 'एत्थ णं दुवे पासायवडेंसगा' अत्र - सयाई' पांचसो धनुष जितना 'विक्खंभेणं' उसका विष्कंभ याने विस्तार है 'वेड्यावणसंडवण्णओ' वेदिका एवं वनषण्ड के वर्णन वाले विशेषण यहां 'भाणिroat' कहलेना यह वर्णन इस ४ थे वक्षस्कार के चतुर्थ एवं पांचवे सूत्र में कहे गए है अतः वहां से समज लेवें ।
अब चमक पर्वत के उपरितन भागका वर्णन करते हैं- 'तेसि णं' इत्यादि 'तेसिणं जमगपव्वयाणं उपिं' वे यमक पर्वत के उपर के शिखर में 'बहुसमरमणिज्जे' अत्यन्त समतल होने से अत्यन्त रमणीय' भूमिभागे पण्णत्ते' भूमिभाग कहा है ' जाव' यावत् पदसे गृहीत 'आलिङ्गपुष्करमितिवा' इत्यादि वर्णन पर पदसमूह राजप्रश्नीय सूत्र के पंद्रहवें सूत्रसे लेकर उन्नीसवे सूत्र तक कहे गये वर्णन वहां से जान लेवें । वह वर्णन कहां तक का यहां ग्रहण होता है ? इस शंका के निवृत्ति के लिए सूत्रकार कहते हैं 'तस्स णं इत्यादि
'तस्स णं बहुसमरमणीयस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए' वह बहुसम - रमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य भागमें 'एत्थ णं दुवे पासायवडे सगा' दो प्रसाद पांयसेो धनुष नेटसेो 'विक्खभेणं' तेना विस्तार छे. 'वेश्यावणसंड वण्णओ, वे अने वनष उना वर्णुनवाणा विशेषणु मडिया 'भाणियब्वो' अडी सेवा लेध थे. ते वार्जुनमा ४था વક્ષસ્કારના ચોથા પાંચમાં સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલ છે. તેથી તે વન ત્યાંથી જોઇ લેવું. हवे यभ पर्वतना उपरना लागनु वर्णन अरवामां आवे छे. 'वेसि णं' त्यिाहि 'तेसि ंणं जमगपव्वयाणं उप्पि' ते यभ वर्तनी उपरना शिमरभां 'बहुसम - रमणिज्जे' अत्य ंत सभतण होवाथी रमणीय 'भूमिभागे पण्णत्ते' भूभिलाग महेस छे. 'जाव' यावत् पहथी श्र३षु १रवामां आवे 'आलि गपुक्खरमितिवा' इत्यादि वर्णुनना यहसभ રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના પંદરમા સૂત્રથી લઈ ને એગણીસમા સૂત્ર સુધી કહેવામાં આવેલ સમગ્ર વર્ષોંન અહી સમજી લે. તે વર્ણન અહીંયા ક્યાં સુધીનું ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે? તે शंभना शभन भाटे सूत्रभर रहे छे. 'तस्सणं' इत्यादि 'तरसणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमि भागस्स बहुमज्झदेसभाए' ते महु सरमा मेवा लूभी लागनी मरोर मध्य भागभां 'एत्थ णं दुवे पासावर्डेसगा' मे प्रसाह अर्थात् उत्तम भंडेत 'पण्णत्ता' वामां आवे छे.
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जेम्बूद्वीपप्रतिसूत्र अत्रान्तरे खलु द्वौ प्रासादावतंसको-प्रासादोत्तमौ 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ती, तयोर्मानमाह-'तेणं' इत्यादि, 'तेणं पासायचडिंसगा' तौ खलु प्रासादावतंसकौ 'वावडिं जोयणाई अद्धजोयणं च' द्वापष्टि योजनानि अयोजनम्-योजनस्यार्द्धम् च 'उद्धं उच्चतेणं इकतीसं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिंशत्संख्यानि 'जोयणाई' योजनानि 'कोसं च' क्रोशम्-एकं क्रोशं च 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य विस्ताराभ्याम् प्रज्ञाताविति पूर्वेण सम्बन्धः, 'पासायवण्णओ' प्रासादवर्णकः-प्रासादवर्णक:-वर्णनपरः पदसमूहो 'भाणियन्यो' भणितव्यः-वक्तव्यः, स च राजप्रश्नीयसूत्रस्याप्टपप्टितमसूत्रस्य मत्कृतसुबोधिनी टीकातो वोध्यः, 'सीहासणा सपरिवारा' सिंहासनानि सपरिवाराणि-इतरसिंहासनसहितानि मुख्यसिंहासनानि वर्णनीयानि तद्वर्णनमष्टममत्रस्य टीकातो वोध्यम् तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह 'जाव' यावत् 'एत्य णं' इत्यादि-'एत्थ ण' अत्र-प्रासादस्थसिंहासनोपरि खलु 'जमगाण' यमकयो:-यमकनाम्नोः अर्थातू उत्तम महल 'पण्णत्ता' कहे हैं। प्रासाद का नाम कहते हैं-'तेणं' इत्यादि __'तेणं पासायवडे सगा' वे प्रासादावंतसक 'यावढि जोयणाई अद्धजोयणं च' अर्द्ध योजन युक्त वासठ योजन 'उद्धं उच्चत्तणं' उपरकी और ऊंचाई वाले हैं 'एकत्तीसं जोयणाई' इकतीस योजन 'कोसं च' और एक कोस उनका 'आयाम विक्खंभेणं' आयाम विष्कम्भ वाले अर्थात् इन प्रासादों का विस्तार 'पण्णत्ता' कहा है 'पासायवण्णओ' प्रासाद का वर्णन 'भाणियचो' यहां पर कहलेने चाहिए। वह वर्णन राजप्रश्नीय सूत्रके ६८ अडसठवें सूत्र में मेरे द्वारा की गई सुबोधिनी नाम की टीका से जान लेवें।
'सीहासणा सपरिवारा' यहां परिवार सहित सिंहासनों का वर्णन करलेवें वह वर्णन आठवें सूत्रकी टीकासे ज्ञात करलें। यह वर्णन कहां तक ग्रहण करना इसके लिए कहते हैं 'जाव' यावतू 'एत्थ णं' प्रासादमें रहे हुवे सिंहासनके ऊपरमें 'जमगाणं' यमक नामके 'देवाण' देवके अर्थात् यमक पर्वत के अधिपति
३ भडेसनु भा५ ४ाम मा छे. 'तेणं' या
'तेणं पासायवडेंसगा' ते उत्तम भाडस वावद्रिं नोअणाइं अद्धजोयणं च' सIS मास योन 'उद्धं उच्चत्तेणं' ५२नी त२५ या छे. 'इक्कतीसं जोयणाई' मेनीस योजन 'कोसंच' मन मे IGL 'आयामविक्खंभेणं' मायाम विलवाणा अर्थात् मेट से आसान विस्तार 'पण्णत्तो' वामां माल छ 'पासायवण्णओ' प्रासाहार्नुस पूर्ण वन 'भाणियव्वो' मही नसतेदन राप्रश्नीय सूत्रना ६८ मसभा सूत्रता મેં કરેલ સુધિની ટીકામાંથી સમજી લેવું.
'सीहासणा सरिपवारा' महीया परिवार सहित सिहासनानुन ४ नये. તે વર્ણન આઠમા સૂત્રની ટીકામાંથી સમજી લેવું. એ વર્ણન અહિયાં ક્યાં સુધીનું લેવું તેને भाट 'नाव' यावत् 'पत्थणं' प्रासाहीन. म२ २सा सिंहासनानी ५२ 'जमगाणं देवाणं'
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २० उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् 'देवाण' देवयोः यमकाख्यपर्वताधिपत्योः सुरयोः 'सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं' षोडशानाम् आत्मरक्षकदेवप्साहस्रीणां-षोडशसहस्रसंख्यकात्मरक्षकदेवानाम् 'सोलसभहासणसाहस्सीओ' पोडश भद्रासनसाहस्थ्या-पोडशसहभद्रासनानि, 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, अथानयोनामाय प्रश्नोत्तराभ्यां वर्णयितुमाह-'से केणतुणं भंते !' इत्यादि-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चई' अथ-तदनन्तरं हे भदन्त ! केन अर्थेन कारणेन एवमुच्यते यत् 'जमगा पव्यया' यमकौ पर्वतौर ? भगवानुत्तरयति-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जमगपत्रए णं तत्थ२' यमक पर्वतयोः खलु तत्र तत्र-तस्मिंस्तस्मिन् 'देसे तर्हिर' देशे तत्र २ तस्य देशस्यावान्तरे तस्मि स्तस्मिन् प्रदेशे 'खुडूडाखुड्डियासु वावीसु जाव' क्षुद्राक्षुद्रिकासु वापीसु यावत्-यावत्पदेनपुष्करिणीषु, दीपिकासु, गुञ्जालिकासु, सर:पक्तिकासु, सरःसर पङ्क्तिकासु' इत्येषां पदानां संग्रहो बोध्या, तथा 'बिलपंतियासु' बिलपतिकासु, एषांपदानां व्याख्या राजप्रश्नीयसुत्रान्तर्गतचतुप्पष्टितमसूत्रस्य मत्कृतसुबोधिनी टीकातो वोध्या, 'बहवे' बहूनि-पुष्कलानि देवके 'सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं' सोलह हजार आत्मरक्षक देवोंके 'सोलस भद्दासणसाहस्सीओं' सोल हजार भद्रासन 'पण्णत्ताओ' कहे गए हैं ___ अब उनके नामकी अन्वर्थता प्रश्नोत्तर द्वारा दिखलाते हैं-'से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ' हे भगवन् किस कारणसे ऐसा कहा जाता है कि 'यमगपन्वया ! ये यमक नामके पर्वत है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा ! हे गौतम ! 'जमगपव्वएसु णं तत्थ २' यमक पर्वत के उस उस 'देसे तहिं २' देश एवं प्रदेशमें 'खुड्डाखुड्डियासु वावीसु जाव' क्षुद्राक्षुद्र वाव में यावतू पुष्करिणीमें, दीर्घिकामें गुञ्जालिका, सरपंक्तियों में, सरः सरपंक्तियों में 'बिलपंतियासु' बिलपंक्तिमें (इन पदों की व्याख्या राजप्रश्नीय सूत्रान्तर्गत ६४ चोसठवें सूत्र की मेरे द्वारा की गई सुबोधिनी नाम की टीका से जानलेवें) 'बहवे अनेक-पुष्कल 'उप्पलाई जाव' उत्पल यावत् कुमुद, नलिन, सुभगसौगन्धिक पुंडरीक,-महा. यम नामना हेवना अर्थात यम: पतना स्वामी हेवना 'सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीण' सौ &01२ मात्मरक्ष४ हेवाना 'सोलस भद्दासणसाहसीओ' सो CM२ भद्रासना 'पण्णत्ताआ' ४डेपामां आवे छे.
से प्रश्नोत्तर द्वारा तना नामनी सार्थता मतावे छे. 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चई' है मगन् । २४थी म ४ामा मात्र छे. -'यमगपव्वया' मा यम नामना
त छ१ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ.-'गोयमा गौतम ! 'जमगपचएस णं तत्थ तत्थ' यम नाम पतन त 'देसे तहिं तहि' हेश मने प्रशभा 'खुड्डाखुड़ीयासु बावीसु जाव' नानी नानी पावमा यावत् १०४२यामा, अमामां, सुति
मामा, स२५तयोभी, सर: सर ५तियोमा. 'विलपंतियासु' मिसतियोमा म તમામ પદેને અર્થે રાજકશ્રીય સૂત્રના ૬૪ ચોસઠમાં સૂત્રની મેં કરેલ સુધિની टीमामा मायामां मावस छ । लासुमे त्यांची सभ 'बहुवे' भने, 'उप्पलाई
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
'उप्पलाइ' जाव' उत्पलानि यावत् - यावत्पदेन 'कुपुद - नलिन- सुभग-सौगन्धिक- पुण्डरीकमहापुण्डरीक - शतपत्रसहस्रपत्र - शतसहस्रपत्राणि फुल्लानि केसरोपचितानि पद्मानि यमकप्रभाणि वर्णानि एषां पदानां संग्रहो वोध्यः, एषां व्याख्या ग्राग्वत् । तथा 'जमगवण्णाभा" यमकवर्णाभानि - यमकपर्वतवर्ण सदृशवर्णानि यद्वा- 'जमवा य इत्थ दुबे देवा महिडिया' यमक - यमकनामानौ चात्र द्वौ देवो महर्द्धिकौ परिवसतः तेन यमको पर्वतौ २ एवमुच्यते, ' तेणं तत्थ' यमकाभिवदेवौ खलु तत्र - यमकपर्वतयोरुपरि 'चउण्डं सामाणियसाहस्सीणं' चतसृणां सामानिकसाहस्रीणां चक्रुः सहस्रसामानिकानां देवानाम् 'जाव' यावत्यावत्पदेन - ' चतसृणामग्र महिषीणां सपरिवाराणां तिसृणां परिषदां सप्तानामनीकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां पोडशानामात्मरक्ष देवसाहस्रीणां यमकयोः पर्वतयोर्यमकाया राजधान्या अन्येषां च वहूनां यमका राजधानीवास्तव्यानां देवानां च देवीनां चाधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तृत्वं महत्तरकत्वमाज्ञेश्वरसेनापत्यं कारयन्तौ पालयन्तौ महता अहतनाट्यगीतवादित्रतन्त्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान भोगभोगान' इत्येषां पदानां संग्रहो पुंडरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, शतसहस्रपत्र विकलित केसरयुक्त पद्म यमक के प्रभावाले 'जमगवण्णाभाई' यमक के वर्णवाले अर्थात् यमकपर्वत के वर्णसरीखे वर्णवाले होते हैं अतः अथवा 'जमगा इत्थ दुवे देवा महिड्डिया' थमक नामधारी यहां पर महर्द्धिक दो देव निवास करते हैं, इस कारणसे यमक पर्वत ऐसा यह कहा गया हैं ।
'तेणं तत्थ' यमक नामधारी देव उस यमक पर्वत के ऊपर 'चउन्हं सामाणियसाहस्सीणं' चार हजार सामानिक देवोंका 'जाव' यावत् परिवार सहित चार हजार अग्रमहिषियों का तीन परिषदाओं का, सात सेनाका सात सेनाधिपतियों का, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, यमक पर्वत का यमका नामकी राजधानी का एवं अन्य बहुतसे राजधानी में निवास कमनेवाले देव देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भतृत्व महत्तरकत्व, आज्ञेश्वर सेनापत्य करवाता उनका पालन करता हुआ जोर जोर से ताडित नाट्य, गीत, वादिन्त्र जाव' उत्पक्ष यावत् सुभुह, नसिन, सुलग, सौगन्धिक, पुंडरीठ, भडापुंडरी४, शतपत्र સહસ્ર પત્ર શતસહસ્ર (લાખ) પત્ર ખીલેલ સરવાળા પદ્મો યમકની પ્રભાવાળા યમક વવાળા અર્થાત્ યમક પર્વતના વણુ જેવા વણવાળા હૈાય છે. તેથી અથવા 'जमगा इत्य दुवे देवा महिब्रूढिया' यभ नाम महद्धि मे देवा महिया निवास કરે છે. એ કારણથી આ પર્યંતનું' નામ યમક પર્વત એ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે તેનું तत्थ' मे यभ नाभवाणा छेत्र मे यस पर्वतनी उपर 'चउन्हं सामाणिय साइस्सीणं' यार હજાર સામાનિક દેવાનું' નવ' યાવત્ પરિવાર સહિત ચાર હજાર અથમહિષિયાનુ, ત્રણ પરિષદાએનું. સાત સેનાએનું, સાત સેનાધિપતિયેનુ, સાળ હજાર આત્મરક્ષક દેવેન ચમક પર્યંતનુ, ચમકા નામની રાજધાનીનું તથા તે શિવાય અન્ય ઘણા એવા યમક
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २० उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम्
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बोध्यः, एषां व्याख्याऽष्टमम्रत्राद्बोध्या, 'भुंजमाणा' भुञ्जानौं' - अनुभवन्तौ 'विहरंति' विहरतः तिष्ठतः, 'से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चर' तौ यमकपर्वतौ तेन - अनन्तरोक्तेन अर्थेन - कारणेन हे गौतम । एवमुच्यते- 'जमगपव्वया २' यमकपर्वतीर, 'अदुत्तरं ' चणं' अदुत्तरम् - अथ च खलु ‘सासए णामधिज्जे ' शाश्वतं नामधेयं 'जाव' यावत् - यावत्पदेन'प्रज्ञप्तम्, यत् न कदाचिद्नाऽऽस्ताम् न कदाचिन्न भवतो न कदाचिन्न भविष्यतः अभूतां च भवतश्च भविष्यतश्च ध्रुवौ नियतौ शाश्वतौ अक्षतावव्ययौ अवस्थितौ नित्यौ तौ तेनर्थेन गौतम । एवमुच्यते-' इत्येषां पदानां संग्रहो बोध्यः, व्याख्या चैपां चतुर्थ सूत्रानुसारेणबोध्या, 'जमगपव्वया २' यमकपर्वतौर इति ॥ २०॥
यह
तंत्र तल ताल त्रुटित घनटरंग के पटुपुरुषों द्वारा प्रवादित शब्दों के श्रवण पूर्वक दिव्य भोगोपभोगको 'भुंजमाणा' भोगता हुवा 'विहरंति' निवास करते हैं 'से ते गोयमा ! एवं बुच्चइ' इस कारणसे हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि 'जमगपब्वाई' इसका नाम यमक पर्वत है । 'अदुत्तरं च णं' और नाम 'सासए णामधिज्जे' शाश्वत है 'जाव' ये कदाचित् इस नामवाले नहीं था ऐसा नहीं है । वर्तमान में भी इस नामवाले नहीं है ऐसा नहीं है । भविष्यकाल में भी इस नामवाले नहीं होगा ऐसा नहीं है अर्थात् पहले भी इस नामवाले थे वर्तमान में भी इसी नाम वाले हैं एवं भविष्य में भी यही नाम होगा कारण कि ये ध्रुव, नियत एवं शाश्वत है । अक्षत, अव्यय, एवं एवस्थित है नित्य है इस कारण से है गौतम ! इसका नाम ऐसा कहा गया है। 'जमगपच्या ' यावत्पदा पदोंका अर्थ चोथे सूत्रमें कहे अनुसार समज लेवें ॥ सु. २० ॥ રાજધાનીમાં વસનારા દેવ અને દેવાનુ આધિપત્ય, પૌરપત્ય, સ્વામિત્વ, ભતૃત્વ મહત્તર કત્લ, આજ્ઞેશ્વર સેનાપત્યત્વ કરતા થકી તેઓનુ પાલન કરતા થકેા જોર જોરથી તાડન उरायेस नाट्य, गीत, वाहित्र, तंत्री, तस, तास, त्रुटित, धनभृंगना यतुर पुरषो बजाउस शहाना श्रवणु पूर्व४ हिव्य लोगो लोगोने 'भुजमाणा' लोगवता था 'हिरिं निवास ४रे छे. 'से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वच्चइ' मे रथी हे गौतम! शेभ आहेवाभां मावेस छे. 'जमगपव्त्रया' या पर्वतनुं नाम यभ पर्वत छे. 'अदुत्तरं च णं' भने मा नाम 'सासए णामधिज्जे' शाश्वत म्हस छे. 'जाव' यावत् तेथे। ये नाम वाजा न हता તેમ નથી. અર્થાત્ પહેલાં પણ આજ નામવાળા હતા. વર્તામાનમાં પણ આ નામવાળા નથી તેમ નથી અને ભવિષ્યમાં પણ આ નામવાળા થશે નહીં' તેમ નથી. અર્થાત્ પહેલા પણ આ નામ વાળા હતા, વમાનમાં પણ એજ નામવાળા છે, તથા ભવિષ્યમાં પણ એજ નામવાળા થશે. કારણ કે એએ ધ્રુવ, નિયત અને શાશ્વત છે. અક્ષત અવ્યય અને અવ स्थित छे, नित्य छे, मे भरणाथी हे गौतम! से नाम भी प्रमाणे डेस छे. 'जमग पत्रया' मा पर्वतनुं नाम यभ४ पर्वत छे. यावतू यहथी अहुए। ४रायेस होना अर्थ थोथा सूत्रभां ४ह्या प्रभा सभल सेवा. ॥ सु. २० ॥
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--- -- - - जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे अथानयो राजधान्यौ प्रश्नोत्तराभ्यां वर्णयितुमाह -
मूलम्-कहि णं भंते ! जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं अणमि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साई ओगाहिता एत्थ णं जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ बारस जोयणसहस्साइं आयाविक्खंभेणं सत्त तीसं जोयणसहस्साइं णव य अडयाले जोययसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, पत्तेयं२ पायारपरिक्खित्ता, ते णं पागारा सत्ततीसं जोयणाइं अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेणं, मूले-अद्धतेरसजोयणाई विक्खंभेणं, मज्झे छसफोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं, उवरि-तिणि स अद्धकोस इं जोयणाइं विक्खंभेणं, मूले-वित्थिण्णा, मज्झे संखित्ता, उपि तणुआ, बाहि-त्रट्टा, अंतो-चउरंसा, सव्वरयणामया अच्छा,
तेणं पागारा णाणाविहपंचवण्णमणीहि कविसीसएहिं उवसोहिया, तं जहा-किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहि, ते णं कविसीसगा अद्धकोसं आयामेणं देसूणं अद्धकोसं उद्धं उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई बाहल्लेणं सव्वमणिमया अच्छा जमिगाणं रायहाणीणं एगमेगाए बाहाए पणवीसं पणवीस दारसयं पण्णत्तं, ते णं दारा बावदि जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेगं इकतीसं जोयणाई कोसं च विखंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं, सेया वरकणगथूभियागा एवं रायप्पसेणइज्जविमाण वत्तव्वयाए दार वण्णओ जाव अट्ठमंगलगा इंति, . . . ..
जमिगाणं रायहाणीणं चउदिसि पंच पंच जोयणसए अबाहाए चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा-असोगवणे.१ सत्तिवण्णवणे २ चंपगवणे ३ चूयवणे ४, ते णं वणसंडा साइरेगाई बारस जोयणसहस्साइं आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पत्तेयं पागारपरिक्खित्ता किण्हा वणसंडवण्णओ भूमीओ पासायवडेंसगा य भाणियब्वा, जमिगाणं रोयहाणीणं अंतो वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, वण्णगोत्ति, तेसिं णं बहु
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् __ १९५ रमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णंदुवे उवयारियालयणा पण्णत्ता, बारस जोयणसयाइं आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोयणसहस्साई सत्त य पंचाणउए जोयणसए परिक्खेवेणं अद्धकोसं च बाहल्लेणं सव्व जंबूणयामया अच्छा, पत्तेयंर पउमवरवेइया परिक्खिता, पत्तेयं वणसंडवण्णओ भाणियव्वो, तिसोवाणपडिरूवगा तोरणचउदिसिं भूमिभागा य भाणियवत्ति, तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते बावहिं जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेगं इकतीसं जोय. णाई कोसं च आयामविक्खंभेणं वण्णओ उल्लोया भूमिभागा सीहासणा सपरिवारा, एवं पासायपंतीओ (एत्थ पढमापंती ते णं पासायडिंसगा) एकतीसं जोयणाई कोसं च उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाइं अद्ध सोलस जोय. णाई आयामविक्खंभेणं बिइयपासायपंती ते णं पासायवडेंसगा साइरेगाई अद्ध सोलस जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाई अटुमाइं जोयणाई आयामविक्खंभेणं तइयं पासायपंती ते णं पासायवडेंसगा साइरेगाई अद्धट्टमाइं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाई अधुटुजोयणाई आयामविक्खंभेगं वण्णओ सीहासणा सपरिवारा तेसि णं मूलपासायवडिंसयाणं उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थ णं जमगाणं देवाणं सहाओ सुहम्माओ पण्णत्ताओ, अद्धतेरसज़ोयणाई आयामेणं छस्सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं णव जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसपिणविटाओ, सभावण्णओ, तासि णं सभाणं सुहुम्माणं तदिसिं तओ दारा पण्णत्ता, ते णं दारा दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जोयणं विक्खंभेणं त्तावइयं चेव पवेसेणं, सेया वण्णओ जाव वणमाला,
तेसि पं दाराणं पुरओ पत्तेयं २ तओ मुहमंडवा पण्णत्ता, ते णं मुहमंडवा अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं छस्सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं साइरेगाई दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव दारा भूमिभागायंति पेच्छाघरमंडवाणं तं चेव पमाणं भूमिभागो मणिपेढियाओत्ति, ताओणं
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र मगिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्व. मणिमईया सीहासणा भाणियव्वा ।
तेसिणं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सवमणिमईओ, तासि णं उप्पिं पत्तेयं २ तओ थूभा, ते णं थूभा जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं सेया संखतल जाव अटुट्ठमंगलगा।
तेसिणं थूभाणं चउदिसिं चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्ध जोयणं बाहल्लेणं, जिणपडिमाओ वत्तव्वाओ, चेइयरुक्खाणं मणिपेढियाओदोजोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं चेइयरुक्खवण्णओत्ति ।
तेसि णं चेइयरुक्खाणं पुरओ ताओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं तासि णं उप्पि पत्तेयं २ महिंदज्झया पण्णत्ता, ते णं अद्धटुमाई जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धकोसं उठवेहेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं वइरामयवट्टवण्णओ वेइया वणसंडतिसोवाणतोरणा य भाणियव्वा ।
तासिणं सभाणं सुहम्माणं छच्च मणोगलिया साहस्सीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पुरस्थिमेणं दो साहस्तीओ पण्णत्ताओ पञ्चत्थिमेणं दो साहस्सीओ दक्खिणेणं एगा साहस्सी उत्तरेणं एगा जाव दामा चिटुंतित्ति, एवं गोमाणसियाओ. णवरं धूवघडियाओत्ति,
तासि णं सुहम्माणं सभाणं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, मणिपेढिया दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं तासि णं मणिपेढियाणं उपि माणवए चेइयखंभे महिंदज्झयप्पमाणे उपरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेट्रा छक्कोसे वजित्ता जिणसकहाओ पण्णत्ताओत्ति, माणवगस्त पुवेणं सीहासणा सपरिवारा पञ्चत्थिमेणं सय
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् १९७ णिज्जवण्णओ, सयणिज्जाणं उत्तरपुर थिमे दिसीभाए खुड्डगमहिंदज्झया मणिपेढिया विहणा महिंदज्झयप्पमाणा, तेसिं अवरेणं चोप्फाला पहरणकोसा, तत्थ णं बहवे फलिहरयणपामुक्खा जाव चिटुंति, सुहम्माणं उप्पिं अट्टमंगलगा, तासि णं उत्तःपुरस्थिमेणं सिद्धाययणा एस चेव जिणघराण वि गमोत्ति, णवरं इमं णाणत्तं एएसिं णं बहुमज्जदेसमाए पत्तेयं २ मणिपेढियाओ दो जोयणाई आयामविखंभेणं जोयणं बाहल्लेणं, तासि उप्पि पत्तेयं देवच्छंदगा पण्णता, दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं सव्वरयणामया जिणपडिमा वण्णओ जाव धूवकडुच्छा , एवं अवसेसाण वि सभाणं जाव उववायसभाए सयणिज्जं हरओ य, अभिसेगसभाए बहुआभिसेक्के भंडे, अलंकारियसभाए बहुअलंकारियभंडे चिट्टइ, ववसायसभासु पुत्थयरयणा, गंदा पुक्खरिणीओ, बलिपेढा दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं वाहल्लेणं जाव त्ति ।
उववाओ संकप्पो अभिसेय विहसणा य ववसाओ। अञ्चणियसुधम्मगमो जहा य परिवरणा इद्धी ॥१॥ जावइयंमि पमाणमि हुंति जसगाओ णीलवंताओ। तावइयमंतरं खलु जमगदहाणं दहाणं च ॥२॥ ॥सू० २१॥ छाया-क्व खल भदन्त यमकयोदेवयोर्यमिके राजधान्यौ प्रज्ञप्ते ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह अत्र खलु यमकयोर्दैवयोर्यमिके राजधान्यौ प्रज्ञप्ते, द्वादश योजनसहस्राणि आयामविष्कम्मेण सप्तत्रिंशतं योजनसहस्त्राणि नव च अष्टचत्वारिंशानि योजनशतानि किंचिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, प्रत्येकं २ प्राकारपरिक्षिप्ते, तौ खलु प्राकारौं सप्तत्रिंशतं योजनानि अर्द्धयोजन च, अर्ध्वमुच्चत्वेन, मूले-अर्द्धत्रयोदशानि योजनानि विष्कम्भेण, मध्ये-पटू सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण, उपरि त्रीणि सार्द्धकोशानि योजनानि विष्कम्भेण, मूले-विस्तीर्णाः, मध्ये-संक्षिप्ताः, उपरि-तनुकाः, बहिर्वृत्तौ, अन्तश्चतुरस्रो, सर्वरत्नमयौ, अच्छौ, तौ खलु प्राकारौ नानाविध पञ्चवर्णमणिभिः कपिशीर्षकैरुपशोभितौ, तद्यथा कृष्णैर्यावत् शुक्लैः तानि खलु कपिशीर्षकाणि अर्द्धक्रोशमायामेन देशोनमर्द्धक्रोशमूर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्चधनु शतानि वाइ
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ल्येन, सर्वमणिमयानि अच्छानि, यमिफयो राजधान्योः एकेकस्यां वाहायां पञ्चविंशं पञ्चविशं द्वारशतं प्रज्ञप्तम् , तानि खल द्वाराणि द्वापष्टिं योजनानि अद्धयोजनं च उर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिशतं योजनानि क्रोशं च विष्कम्भेण तावदेव प्रवेशेन, श्वेतानि वरकनकस्तूपिकाकानि, एवं राजप्रश्नीयविमानवक्तव्यतायां द्वारवर्णको यावत् अष्टाष्टमद्गलकानि इति, ___ यमिकयो राजधान्योश्चतुर्दिशि पञ्चपञ्चयोजनानि अवाधायां चत्वारि वनखण्डानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-अशोकवनम् १ सप्तपर्णवनम् २ चम्पकवनम३ चूतवनम्४, तानि खलु वनखण्डानि सातिरेकाणि द्वादश योजनसहस्राणि आयामेन पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेण प्रत्येक प्राकारपरिक्षितानि कृष्णानि वनपण्डवर्णकः भूमयः प्रासादावतंसकाश्च भणितव्याः, ___ यमिकयो राजधान्योरन्तर्वहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, वर्णक इति, तेषां खलु वहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु द्वे उपकारिकालयने प्रज्ञप्ते, द्वादश योजनशतानि आयामविष्कम्भेण त्रीणि योजनसहस्त्राणि सप्त च पश्चनवतानि योजनशतानि परिक्षेपेण, अर्द्धकोशं च वाहल्येन सर्वजाम्बूनदमयाः अच्छाः, प्रत्येकं२ पद्मवरवेदिका परिक्षिताः, प्रत्येक २ वनपण्डवर्णको भणितव्यः, त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि तोरणचतुर्दिशि भूमिभागाश्च भणितव्या इति,
तस्य खलु बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु एकः प्रासादाक्तंसकः प्रज्ञप्तः, द्वापष्टि योजनानि अर्द्धयोजनं च ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं च आयामविष्कम्भेण वर्णका उल्लोको भूमिभागौ सिंहासने सपरिवारे, एवं प्रासादपङ्क्तयः (अत्र खल प्रथमा पङ्क्तिः ते खलु प्रासादावतंसकाः) एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं च ऊर्ध्वमुच्चत्वेन सातिरेकाणि अर्द्धपोडश योजनानि आयामविष्कम्भेण द्वितीया प्रासादपक्तिः -ते खलु प्रासादावतंसकाः सातिरेकाणि अर्द्धपोडशयोजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन सातिरेकाणि अर्धाष्टमानि योजनानि आयामविष्कम्भेण, तृतीया प्रासादपङ्क्तिः -ते. खलु प्रासादावतंसकाः सातिरेकाणि अर्दाष्टमानि योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन सातिरेकाणि अध्युष्टयोजनानि आयामविष्कम्भेण, वर्णकः सिंहासनानि सपरिवाराणि, तयोः खलु मूलप्रासादावतंसकयोः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागः, अत्र खलु यमकयोदेवयोः सभे सुधर्म प्रज्ञप्ते, अर्द्ध त्रयोदश योजनानि आयामेन पट्सक्रोशानि विष्कम्भेण नव योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अनेकस्तम्भशतशतसन्निविष्टे, समावर्णकः, तयोः खलु सभयोः सुधर्मयोः त्रिदिशि त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि तानि खलु द्वाराणि द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, योजनं विष्कम्भेण, तावदेव प्रवेशेन, श्वेतानि वर्णकः यावद् वनमाला,
तेषां खलु द्वाराणां पुरतः प्रत्येकं२ त्रयो मुखमण्डपाः प्रज्ञप्ताः, ते खलु मुखमण्डपाः, अर्द्धत्रयोदशयोजनानि आयामेन पट्सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण सातिरेके द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन यावद् द्वाराणि भूमिभागाश्चेति, प्रेक्षागृहमण्डपानां तदेव प्रमाणं भूमिभागो मणिपीठिका इति, ताः खलु मणिपीठिकाः योजनमायामविष्कम्भेण अर्द्धयोजनं बाहल्येन, सर्वमणिमय्यः, सिंहासनानि भणितव्यानि,
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम्
- तेषां खलु प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताः खलु मणिपीठिकाः द्वे योजने आयामविष्कम्भेण, योजनं बाहल्येन, सर्वमणिमय्यः, तासां खल उपरि प्रत्येक प्रत्येकं त्रयस्तूपाः, ते खल्ल स्तूपा द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, द्वे योजने आयामविष्कम्भेण, . श्वेताः शङ्कतल यावत् अष्टाष्टमङ्गलकानि,
तेषां खल स्तूपानां चतुर्दिशि चतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताः खलु मणिपीठिकाः . योजनमायामविष्कम्भेण, अर्द्धयोजनं बाहल्येन, जिनप्रविमाः वक्तव्याः, चैत्यवृक्षाणां मणिपीठिकाः द्वे योजने आयामविष्कम्भेण, योजनं वाहल्येन चैत्यवृक्षवर्णक इति । -- तेषां खलु चैत्यवृक्षाणां पुरतस्ताः मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताः खलु मणिपीठिकाः योजनमायामविष्कम्भेण अर्द्धयोजनं वाहल्येन, तासामुपरि प्रत्येकं २ महेन्द्रध्वजाः प्रज्ञप्ताः, ते खलु- अष्टिमानि योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, अर्द्धक्रोशमुद्वेधेन, अर्द्धकोशं बाहल्येन, वज्रमयवृत्तवर्णकः वेदिकावनपण्डत्रिसोपानतोरणाश्च भणितव्याः, ।' तयोः खलु सभयोः सुधर्मयोः पटू च मनोगुलिकासाहस्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पौरस्त्येन द्वे साहस्यौ प्रज्ञप्ते, पाश्चात्येन द्वे साहस्यौ दक्षिणेन एका साहस्री उत्तरेण एका यावत् दामानि तिष्ठन्तीति, एवं गोमानसिकाः, नवरं धूपघठिका इति, • तयोः खलु सुधर्मयोः सभयोः अन्तः बहुसमरमणियो. भूमिभागः प्रज्ञप्तः, मणिपीठिका द्वे योजने आयामविष्कम्भेण, योजनं वाहल्येन, तयोः खलु मणिपीठिकयोपरि माणवके चैत्यस्तम्भे महेन्द्रध्वजप्रमाणे उपरि पक्रोशान् अवगाह्य अधः षट्क्रोशान वर्जयित्वा जिनसक्थीनि प्रज्ञप्तानि इति, माणवकस्य पूर्वेण सिंहासने सपरिवारे, पश्चिमेन शयनीयवर्णकः, शयनीययोरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे क्षुद्रकमहेन्द्रध्वनौ मणिपीठिकाविहीनौ महेन्द्रध्वजप्रमाणौ, तयोरपरेण चोप्पालौ प्रहरणकोशौं, तत्र खलु बहूनि परिघरत्नप्रमुखाणि यावत् तिष्ठन्ति, सुधर्मयोरुपरि अप्टाष्टमङ्गलकानि, तयोः खलु उत्तरपौरस्त्येन सिद्धायतने, एष एव जिनगृहाणामपि गम इति, नवरमिदं नानात्वम्-एतेषां खलु वहु.मध्यदेशभागः प्रत्येकं २ मणिपीठिका द्वे योजने आयामविष्कम्भेण योजनं बाहल्येन, तासामुपरि प्रत्येकर देवच्छन्दके प्रज्ञप्ते द्वे योजने आयामविष्कम्भेण, सातिरेके द्वे योजने, ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, सर्वरत्नमये, जिनप्रतिमा वर्णको यावत् धूपकटुच्छुका, एवमवशेषाणामपि समानां यावद् उपपातसभायां शयनीयं इद. कश्च, अभिषेकसभायां- बहुराभिषेक्यं भाण्डम्, अलङ्कारिकसभायां बहु अलङ्कारिकमाण्डं तिष्ठति, व्यवसायसभयोः पुस्तकरत्ने नन्दापुष्करिण्यौ, बलिपीठे द्वे योजने आयामविष्कम्भेण- योजनं वाहल्येन यावदिति- - - 'उपपातः सङ्कल्पः अभिषेकविभूषणा च व्यवसायः।
अचेनिका सुंधर्मागमो यथा च परिवारणा ऋद्धिः ॥१॥ यावति प्रमाणे भवतो यमको नीलवतः। तावदन्तरं खलु यमकहूदाणां हूदाणां च ॥२॥९० २१॥ . .
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जम्बुद्वीपप्राप्तिसूत्र टीका-'कहि णं भंते ! यमगाणां देवाणं' इत्यादि 'कहि णं भंते ! यमगाणं देवाणं जमिगाओ गयहाणिओ पण्णत्तायो' वर खल भदन्त ! यमकयो:-यमक नामकयोः देवयोः यमिके नाम राजधान्यौ प्रज्ञप्ने !, भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'अंधीवे दीवे मंदरस्स' जग्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य-मन्दरनायकस्य 'पव्ययस्स उत्तरेणं' पर्वनम्स उत्तरेणउत्तरस्यां दिशि 'अण्णमि' अन्यस्मिन्-अपरहिमन 'जंवृद्दीवे दीये चारस जोयणसहस्साई। जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादश योजनसहस्राणि-द्वाद गसहस्रयोजनानि 'ओगाहित्ता' अवगाद्य-प्रविश्य 'एत्य णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु 'जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणिो पण्णताओ' यमकयोदेवयोथमिके राजधान्यौ प्रज्ञप्ते, तयोगियाह-'वारस जोयण सहस्साई' द्वादश योजनसहस्राणि-द्वादशसहस्त्रयोजनानि 'आयामविवखंभेणं 'सत्ततीसं जोयणसहस्साइ' सप्तत्रिंशतं
अब यमका राजधानी का प्रश्नोतर बारा वर्णन करते हैं-'कहिणं भंते ! जमगाणं देवाणं' इत्यादि
टीकार्थ-'कहिणं भंते ! जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणिओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! यमक नामधारी देवकी यमिका नामकी राजधानी कहां पर कही गइ है ? गौतमस्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जंबहीवे दीवे' जंबुदीप नाम के डीपमें 'मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं' 'मंदर पर्वत की उत्तर दिशामें 'अण्णमि' दूसरे 'जंबूढीवे दीवे वारस जोयण सहस्साई' जंढीप नामके द्वीपमें चारह हजार योजन'ओगाहिता' अवगाहना करने पर-जानेपर 'एस्थ णं' यहां पर 'जमगाणं देवार्ण जमिगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ' यमक देवकी यामिका नाम वाली दो राजधानी कही गई है।
अब उनका प्रमाण-विस्तार कहते हैं'चारस जोयणसहस्साई' बारह हजार योजन 'आयाम विक्खंभेणं' इनका
हवे यम यानी प्रश्नोत्तर वा। १एन ४२वाभा मावे छे. 'कहिणं भंते ! जमगाणं देवाणं' त्यादि
टी-'कहिणं भंते ! जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ' 3 सगवन યમક નામના દેવની યમિકા નામની રાજધાની કયાં આવેલ છે? ગૌતમસ્વામીના આ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ . 'गोयमा ! गौतम ! 'जंबुद्दीवे दीवे.' ही नामना द्वीपमा 'मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं' मह२ पतनी तर हशमा 'अण्णंमि' मा 'जंवूदीवे दीवे वारस जोयण महस्साई' दीप नामन द्वीपमा पार M२ यान 'ओगाहित्तो' माना ४२पाथी अर्थात् पाथी 'एस्थणं' त्या भागण 'जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ' यम हेवनी यमि नामनी मे. धानाय ४ामा मावेल छे.
હવે તેનું પ્રમાણ વિસ્તાર કહે છે. 'वारस जोयणसहस्साई' मा२ १२ योन-आयामविक्खंभेणं तेना भायाम वि०४
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम्
योजनसहस्राणि 'णव य' नव संख्यानि च ' अडयाले' अष्टचत्वारिंशानि - अष्टचत्वारिंशदधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'किंचिविसेसाहिए' किञ्चिद्विशेपाधिकानि - किञ्चिदधि'कानि 'परिक्खेवेगं' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्ते इति पूर्वेण सम्बन्धः, एवमग्रेऽपि, 'पत्तेयं २' प्रत्येक द्वे अपि 'पायारपरिक्खित्ता' प्राकारपरिक्षिप्ते चरणपरिवेष्टिते, तौ प्राकारौ कीदृशौ ? इत्यपेक्षायामाह - ' ते णं' इत्यादि - ' ते णं' तौ-यमकाराजधानी द्वयपरिवेष्टनभूती खल 'पागारा' प्राकारी - परणौ 'सत्ततीसं' सप्तत्रिंशतं - सप्तत्रिंशत्संख्यकानि 'जोयणाई' योजनानि 'अद्धजोवणं च' अर्द्धयोजनं योजनस्यार्द्ध - द्वौ क्रोशौ च 'उद्धं उच्चतेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'मूले' मूले- सूलदेशावच्छेदेन 'अद्धतेरस' अर्द्धत्रयोदशानि - सार्द्धद्वादश 'जोयणाई विक्खंभेणं' योज नानि विष्कम्भेण - विस्तारेण, 'मज्झे' मध्ये - मध्यदेशावच्छेदेन 'छ सकोसाई' पट्-पट्'संख्यानि सक्रोशानि - क्रोशेन सहितानि 'जोयणाई विक्खंभेणं' योजनानि विष्कम्भेणविस्तारेण, 'उवरिं' उपरि उपरितनभागावच्छेदेन 'तिणि' त्रीणि- त्रिसंख्यानि 'अद्धको - आयाम विष्कंभ है । 'सत्ततीसं जोयणसहस्साइ, सेतीस हजार 'णवयअडयाले' नवसहित अडतालीस 'जोयणसए किंचिविसेसाहिए' अर्थात् ३७९४८ सेतीस हजार नव सो अडतालीस योजनसे कुछ अधिक 'परिवखेखेणं' इसका परिक्षेप - घेराव है 'पत्तेयं प्रत्येक - दोनों 'पायार परिक्खित्ता' प्राकार से वेष्टित है ।
अब वह प्राकारका वर्णन करते हैं 'तेणं' इत्यादि 'तेणं' यमिका नामको दोनों राजधानी के वेष्टनभूत 'पागारा' प्राकार - महल 'सत्ततीसं जोयणाई' सेतीस योजन 'अजोयणं च' एवं अर्धयोजन - दो कोश 'उद्धं उच्च शेणं' ऊपर की ओर ऊंचा है 'मूले अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं' मूलभाग में १२|| साडे बारह योजनका इनका विष्कंभ है । अर्थात् इतना इसका मूलभागमें विस्तार है 'मज्झे छ सकोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं' मध्यभागमें इसका विष्कंभ छह योजन एवं एक कोस का है । 'उपरिं तिण्णि सअद्धकोसाई जोयणाइं विखंभेणं' स'मा होजा छे. 'सत्ततीसं जोयणसहस्साई' साउत्रीस हुन्नर 'णवय अडयाले' नवसे ग्भडतालीस 'जोयणसए किंचि विसेसाहिए' येोन्नथी ४६ वधारे अर्थात् ३७८४८ साउनीस उन्नर नवसेो भडतालीस योनथी ४४४ वधारे 'परिक्खेवेणं' तेना परिक्षेय घेरावे छे. 'पत्तेयं पत्तेयं' ६२४ अर्थात् मन्ने राज्धानी 'पायारपरिक्खित्ता' आहार-भडेलथी वीटायेस छे.
હવે તે પ્રાકાર મહેલાનુ' વર્ણન કરવામાં આવે છે.
'तेणं' यभिष्ठा नाभनी मे राज्धानीने वीटायेस 'पागारा' भडेसे 'सत्ततीसं जोयणाई' साउन्रीस योजन 'अद्ध जोयण च' ने अर्ध योजन मे गाउ 'उद्धं उच्चत्तेण' ७५२नी तर 'या छे. 'मूळे अद्ध तेरस जोयणाई विक्खंभेणं' भूत लागभां साडा भार योजननी तेने। विष्टल छे. अर्थात् भेटलो मेना भूण लागनेो विस्तार छे. 'मज्झे छसक्कोसाई जोयणाई विक्खंभेणं' मध्य भागभां तेनेो विष्ल छ यो भने गाउने छे. 'उवरिं तिणि सअद्धको
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जम्बूडीपप्रतिसत्रे
साई' सार्द्धक्रोशानि - क्रोशार्द्धसहितानि 'जोयणाई विवखंभेणं' योजनानि विष्कम्भेण, तौ पुनरत एव 'मूले वित्थिष्णा' मूले विस्तीर्णौ - मध्योपरितनभागापेक्षया विस्तारखन्तौ, 'मज्झे' मध्ये - मूलापेक्षया 'संखित्ता' संक्षिप्तौ - अल्पविस्तारवन्तो, 'उपि तणुया' उपरि तनुकौ - मूलमध्यभागापेक्षया स्वल्पतर विस्तारयुक्तौ, 'वाहि वट्टा' बहि:- वृत्तौ वर्तुलाकारी, अंतो' अन्तः–मध्ये- 'चउरंसा' चतुरस्रा - चतुष्कोणाकारौ, 'सव्वरयणामया' सर्वरत्नमयौसर्वात्मना रत्नमयौ', 'अच्छा' अच्छी प्राग्चत्, तयोः कपिशीर्षकवर्णकमाह- 'तेणं' इत्यादि, 'ते णं' तौ - अनन्तरोक्तौ खलु 'पागारा' ग्राकारौ णाणाविह पंचवण्णमणीहिं' नानाविधपञ्चवर्णमणिभिः - नानाविधाः - पद्मरागमरकतस्फटिकाजनदादि भेदाः पञ्चवर्णाः- कृष्णादिवर्णविशिष्टाः मणयो येषु तानि नानाविधपञ्चवर्णमणीनि तैः 'कविसीसएहिं' कपिशीर्षकःकपिशीर्षाकारैः प्राकारायैः, 'उवसोहिया' उपशोभितौ अलङ्कृत, एतदेव विवृणोति 'तं ऊपर के भाग में इसका विष्कंभ तीन योजन एवं डेढ कोसका है। इस प्रकारका विष्कंभ होने से वे यमक पर्वत ' मृले वित्थिण्णा' मूल की ओर विस्तृत अर्थात् मध्यभाग एवं ऊपरके भागसे विस्तार वाला है 'मज्झे संखित्ता' मध्यभाग मूल भागसे संकुचित है अर्थात् अल्पविस्तार वाला है 'उप्पि तणुया' ऊपरको भाग मूलभाग एवं मध्यभागसे स्वल्प विस्तार वाला है । ये प्रासाद 'वाहिं वहो' बाहर की बाजु वर्तुल आकार वाले हैं 'अंतो चउरंसा' मध्यभागमें चौरस आकार वाले हैं 'सव्वरयणामया' सर्वप्रकारसे रत्नमय है 'अच्छा' स्वच्छ स्फटिक सदृश है इत्यादि विशेषण पहले के समान समज लेवें ।
अब इनके कपिशीर्ष - अग्रभागका वर्णन करते हैं- 'तेणं' इत्यादि
'ते' आगे कहे गए 'पागारा' प्राकार 'णाणाविह पंचवष्णमणिहिं' अनेक प्रकारके पद्मरागादि पांच प्रकार के मणियों से 'कपिसीसएहिं कपिशीर्ष के साईं जोयणाई विक्खंभेणं' उपरना भागभां तेनेो विष्णुंभ भायु योन्जन भने होट गार्डनो छे. श्मा अठारना विष्ठल होवाथी ते यभ पर्वत 'मूले वित्थिण्णा' भूत लागभा विस्तार वाणी अर्थात् मध्यलाग भने उपरना आगयी विस्तारवाणी छे. 'मज्झे संखित्ता' भुध्य भाग भूजलागथी सांडे हे. मेटो मस्य विस्तार वाणी छे, 'उप्पि तणुया' उभरने। लगने। भूझलाग अने मध्य लाग ४२ थोडा विस्तारवाणी हे या आक्षर 'वाहि वट्टे' महारथी वर्तुसार छे. 'अंतो चउरंसा' मध्य भागभां येोरस मा४रवाजा छे. 'सव्त्ररयणा मया' सर्व प्रष्ठारथी रत्नभय छे. 'अच्छे' २२४ टिना नेवा छे. त्याहि विशेषशेो પહેલાં કહ્યા પ્રમાણેના સમજી લેવાં
હવે તેના કપિશી અગ્રભાગનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. તેન’ ઇત્યાદિ
'तेणं' 'थडेला महेवार्ड गयेसा 'पागारा' आठारे। 'णाणाविह पंचवण्णमणिहिं' मने४ प्रमा रना पद्मरागाह यांथ अठारना 'महि' भज़ियोथी 'कविसीस एहिं' ४पिशीर्षना भारवाणी
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधात्योवर्णनम्
२०३ जहा-किण्हे हिं-जाव सुकिल्छेहि' तद्यथा-कृष्ण विच्छुक्लैः-कृष्णादिवर्णवर्णनप्रकारः षष्ठसूत्रानुसारेण वोध्यः। अथैतेषां कपिशीर्षकाणां मानाधाह-'ते णं कविसीसगा' तानि खलु कपिशीर्षकाणि 'अद्धकोसं आयामेणं' अर्द्धक्रोशम् आयामेन-दैर्येण, 'देसूर्ण' देशोनं-- किश्चिद्देशेन इसितम् 'अद्धकोसं उद्धंउच्चत्तेणं' अर्द्धक्रोशम् ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन-उन्नतत्वेन प्रज्ञतानि एवमग्रेऽपि, 'पंच धणुसयाई' पञ्च धनुः शतानि-पञ्च शतधनूंपि 'बाहल्लेणं' वाहल्येन पिण्डेन 'सव्वमणिमया' सर्वमणिमयानि सर्वात्मना मणिमयानि-पद्मरागादि मणि निर्मितानि, 'अच्छा' अच्छानि-आकाशस्फटिकवन्निर्मलानि, अथ यमिकाराजधान्याः कियन्ति द्वाराणि सन्तीत्याह-'जमिगाणं' इत्यादि-'जमिगाणं' यमिकयो-यमिका नाम्न्योः 'रायहाणीणं एगमेगाए' राजधान्योः एकैकस्यां-प्रत्येकं 'वाहाए' वाहायां-पाव 'पणवीसं पणबीस' पञ्चविंशं २ पञ्चविंशत्यधिकं, 'दारसयं' द्वारशतं-द्वाराणां शत-शतसंख्यानि द्वाराणि आकार वाले प्राकार के अग्रभागसे 'उवलोहिया' शोभित किस प्रकारकी शोभा से युक्त थे? सो कहते हैं-'तं जहा किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहिं' कृष्णवर्णवाले यावत् शुक्लवर्णवाले कृष्णादिवर्ण का वर्णन प्रकार छठे सूत्र से समझ लेवें।
अब कपिशीर्ष का मानादिका वर्णन करते हैं
'तेणं कपिसीसगा' वह कपिशीर्षक-प्रासादाग्र भाग 'अद्धकोसं आयामेणं' अर्धा कोसका आयाम वाला देसूणं अद्धकोसं उद्धं उच्चत्तेणं' कुछ कम आधा कोस ऊपर की ओर से ऊंचा कहा है 'पंचधणुसयाई बाहल्लेणं' पांचसो धनुष योहल्य मोटाइवाला कहा है 'सव्वमणिमया' सर्वप्रकार मणिमय कहा है 'अच्छा' आकाश एवं स्फटिक सदृश निर्मल कहा है।
अब यमिका राजधानी के द्वार संख्या कहते हैं'जमिगाणं रायहाणीण' यमिका नामकी राजधानीके 'एगमेगाए वाहाए' प्रत्येक पाश्चमें 'पणवीसं पणवीसं' पचीस पचीस अधिक 'दारसयं' सोद्वार प्रा२ना मलायी ‘उवसोहिया' शमायभान् छ. वी शमायी सुशालत त ? मे
हेवामा सावे छ. 'तं जहा किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहिं ४१ वर्ष मायावत् स वाणा, કણાદિ વર્ણનું વર્ણન છઠ્ઠા સૂત્રથી સમજી લેવું.
वे पिशाषना भानानि वर्णन ४२वामा मात्र छ.-'तेणं कविसीसगा' तपि. शीष पासाहायमास 'अद्धकोसं आयामेणं' अर्धा न मायामामा छ. 'देसूणं अद्धकोसं उद्धं उच्चत्तेणं' मर्धा 18 ५२नी मानु या छ. 'पंचधणुसयाई बाहल्लेणं' पांयसे। धनुष જેટલી બાહલ્ય–જાડાઈ વાળા કહેલ છે. “અછા' આકાશ અને સ્ફટિક જેવા નિર્મળ કહેલ છે.
હવે યમિકા રાજધાનીના દ્વારની સંખ્યા કહે છે
'जमिगाणं रोयहाणीणं' यभिड धानीना 'एगामेगाए बाहाए' ४२४ ५४माम 'पण वीसं पणवीसं' पयास पसीस मधि४ 'दारसयं सेवा सो वा । छे. अर्थात ४३४ બાજુ સવાસે સવાસે દરવાજાઓ quત્ત' કહેવામાં આવેલ છે.
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- जम्बूहीपप्राप्तिसूत्रे पञ्चविंशत्यधिकानि, 'पण्णत्त' प्रज्ञप्तम्, इति द्वारशतमित्यनेन सम्बध्यते, प्रज्ञप्तानीति द्वाराणीत्यनेन उपरिष्टादानीय सम्बन्धनीयम्, तेषां द्वाराणां मानाधाह-'तेणं' तानि-अनन्तरोतानि खल 'दारा' द्वाराणि 'वावर्टि' द्वापष्टि-द्वापष्टि संख्यानि 'जोयणाई अद्धयोजणं च'. योजनानि अर्द्धयोजन-योजनस्या-द्वौ क्रोशौ च 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'इकतीसं जोयणाई' एकत्रिंशतं योजनानि 'कोसं च क्रोशम्-एक क्रोशंच 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेणविस्तारेण प्रज्ञप्तानि, एवमग्रेऽपि तावइयं चेव' तावदेव-क्रोशाधिकैक-त्रिंशद्योजनप्रमाणमेव 'पवेसेणं' प्रवेशेन-भूमिगतत्वेन 'सेया' श्वेतानि-शुक्लवर्णानि, 'वरकणगथूभियागा' वरकनकस्तूपिकाकानि-उत्तमसुवर्णमयलघुशिखरविशिष्टानि, 'एवं' एवम्-एतत्प्रकारकः, 'रायप्प. सेणइज्जविमाणवत्तव्ययाए' राजप्रश्नीयसूत्रस्थ-विमानवक्तव्यतायां-राजप्रश्नीयसूत्रे यद्विमानंसूर्याभनामकं तस्य वक्तव्यतायां-वर्णने यो 'दारवण्णओ' द्वारवर्णकः-द्वारवर्णनपरः पदसमूहः स इहापि ग्राह्यः, स च क्रिम्पयन्तः ? इत्याह-'जाच अह मंगलगाईति' यावदष्टाष्टमङ्गलकानि-अष्टाष्टमङ्गलकानीति पदपर्यन्तो द्वारवर्णको ग्राह्यः, स च वर्णको विजयद्वारवर्णनकहे हैं अर्थात् प्रत्येक बाजु एकसो पचीस एकसो पचीस द्वार 'पण्णत्तं' कहा है _____ अब डारों के मानादिका वर्णन करते हैं-'ते' पहले कहे गए 'दारा' द्वार 'चावहि जोयणाई अद्धजोयणं च' अर्द्ध योजन सहित बासठ योजन अर्थात् साडे बालट योजन 'उद्धं उच्चत्तणं' उपरकी तरफ ऊंचाइवाले 'इकतीस जोयणाई कोसंच विक्खंभेणं' इकतीस योजन और एक कोस के विकभवाले कहे हैं 'तावइयं चेच' इतनाही इकतीस योजन और एक कोस 'पवेसेणं' भूमिगत कहे हैं 'लेया' श्वेत 'वरकणगथूमियागा' श्रेष्ठ सुवर्णमय छोटे छोटे शिखरों से युक्त 'एवं' इस प्रकार से 'रायप्पसेणइज्जविमाण वत्तव्ययाए' राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्या: भनामका विमान के वर्णन में 'दारवण्णओ' द्वारों के वर्णन परक पद कहे हैं. वे यहां भी समज लेवें । वह वर्णन कहां तक कहना इसके लिए कहते हैं 'जाव अट्ठमंगलगा इति' आठ आठ मंगलवाले यह पदपर्यन्त द्वारका वर्णन यहां पर
- હવે કાના માનાદિનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. તે પહેલાં કહેવામાં આવેલ 'दारा' बारे। 'चावद्धि जोयणाई अद्धजोयणं च मर्धा यापन सहित मास: यारानात सा पास यास 'उद्धं उच्चत्तेण ५२ २६ या वाणा 'इक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं' मेत्रीस यन मन मे 18 साल
से छे. 'तावइय चेव' मेट सेट मेत्रीस यातन मन से डोस 'पवेसेणं' भूमिनी २ ४९ छे. 'सेया' स 'वरकणगभियागा' त्तम सुवाणु भय नाना नाना (शमशथा युत ‘एवं' से शतना 'रायप्पसेणहज्जत्रिमाणवत्तव्ययाए' राप्रश्नीय सूत्रमा सुयाल नामना विमानना १ नमो 'दार वण्णओं द्वाशना वर्णन ४२ना। ५३ २ ४ा छ, त બધા અહીંયાં પણ સમજી લેવાં. તે વર્ણન કયાં સુધીનું અહિયાં કહેવું તે માટે કહે છે. 'जाव अटुट्ठ मंगलाई' मा मा भगवाणास पहना ४थन पर्यन्त द्वारा वर्णन
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम्
==जम्बूद्वीप प्रसङ्गेऽष्टमसूत्रटीकायां प्रागुक्तस्तत एव ग्राह्यः, ग्रन्थविस्तारभयादत्र नोपन्यस्यते या
अथ यमिझाराधान्यो वहिर्भागे परितो वनपण्डवक्तव्यमाह-'जमियाणं रायहाणार इत्यादि-'जमियाणं रायहाणीणं चउद्दिसिं' यमिकयो राजधान्यो श्चतुर्दिशि-पूर्वादि दिक्चतुष्टये, 'पंच पंच जोयणसए अवाहाए चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता' पञ्च पश्च योजनशतानि अवाधायाम्-व्यवधानेन्यस्य चत्वारि वनपण्डानि प्रज्ञप्तानि, एतदेव दर्शयति-'तं जहा-असोगवणे' तद्यथा-अशोकवनम्-एतत्पूर्वस्याम् १ 'सत्तिवण्णवणे' सप्तपर्णवनम्-एतदक्षिणस्याम् २, 'चंपगवणे' चम्पकवनम्-एतत्पश्चिमायाम् ३, 'चूयवणे' चूतवनम्-आम्रवनम्, एतदुत्तरस्याम् ४, अथैतेषां मानमाह-'ते णं वणसंडा' इत्यादि-'ते णं वणसंडा' तानि-अनन्तरोतानि वनपण्डानि-चनसमूहा, 'साइरेगाई' सातिरेकाणि-किञ्चिदधिकानि 'वारसजोयणसहस्साई' द्वादशयोजनसहस्राणि-द्वादशसहस्रसंख्यानि योजनानि 'आयामेणं' आयामेन. ग्रहणकर समझ लेवें । यह वर्णन विजयद्वारके वर्णन प्रसंगमें आठवें सूत्रकी टीकामें पहले कहे हैं अतः वहां से समझ लेवें। ग्रन्थविस्तार भयसे वे यहां
दुवारा नहीं कहते हैं। ___यमिका राजधानी के बाहर के भागमें चारों तरफ वनषण्ड का वर्णन करते हैं-'जमियाणं रायहाणीणं' इत्यादि ___ 'जमियाणं रायहाणीणं चउद्दिसिं' यमिका राजधानीके चारों ओर 'पंच पंच जोयणसए अवाहाए चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता' पांचसो पांचसो योजनके व्यवधानमें चार वनषण्ड कहे गये हैं। 'तं जहा' वे वनषण्ड इस प्रकारके थे । 'असोगवणे' अशोकवन, इसके पूर्व में १ 'सत्तवण्ण दणे' सप्तपर्ण वन यह दक्षिणमें२ 'चंपगवणे' चम्पकवन, यह पश्चिममें ३ 'चूयवणे' आम्रवन, यह उत्तर दिशा में
__ अब वनषण्डका मान कहते हैं-'तेणं वणसंडा' वह वनषण्ड 'साइरेगाई' कुछ अधिक 'पारस जोयणसहस्साई आयामेण बारह हजार योजन कि लम्बाई અહીંયા ગ્રહણ કરીને સમજી લેવું. તે વર્ણન વિજયદ્વારના વર્ણનના પ્રસંગમાં આઠમાં સૂત્રની ટીકામાં કહેલ છે. તેથી તે ત્યાંની સમજી લેવું
યમિકા રોજધાનીના બહારના ભાગમાં ચારે તરફ આવેલ વનખંડનું વર્ણન કરવામાં भाव छ. 'जमिगाणं रायहाणीणं' त्या
'जनिगाणं रायहाणीणं चउद्दिसिं' यमि २४धानीनी यारे हिशामा 'पंच पंचजोयणसए अवाहाए चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता' ५यसे। पांयसे। यारानना व्यवधान वा यार वनष ४ा छ. 'तं जहा' ते नष' मा प्रभारी छे १ 'असोगवणे' मापन तना पूर्व भी 'सत्तवण्णवणे' साप वन मा क्षिा शामा छे २ 'चंपगवणे' ५४वन, श्य पश्चिममा छे. 3 'चूयवणे' माम्रवन उत्तर शाम छे.
हवे वनपर्नु भान-प्रभाए। वामां आवे छे 'तेणं वणसंडा' से पनप 'साइरे. गाई' ४७६ पधारे 'बारस जोयण सहस्साई आयामेणं' मा२ १२ याननी मावा
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र 'पंच' पश्च-पञ्चसंख्यानि 'जोयणसयाई' योजनशतानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण, . 'पत्तेयं २' प्रत्येकं २ चत्वारोऽपि वनपण्डाः 'पागारपरिचिखत्ता' प्राकारपरिक्षिताः-चरणपरिवेष्टिनाः, किण्हा' कृष्णा:-कृष्णवर्णाः, एतत्पदोपलक्षतो जम्बूद्वीपपद्मवर वेदिका प्रकरणगतःसम्पूर्णो 'वणसंडवण्णो' वनपण्डवर्णकः तथा 'भूमीओ पासायवडेंसगाय भाणियव्या' भूमयः प्रासादावतंसकाश्च भणितव्या:-वक्तव्याः, तत्र वनपण्डभूमिभागयोवर्णकः पञ्चमपष्ठसूत्राभ्यां ग्राह्यः, प्रासादावतंसकवर्णकश्च राजप्रश्नीयसूत्रस्याष्टपष्टितमसूत्रस्य मत्कृत सुबोधिनी टीकातोऽत्रत्याप्टमसूत्र टीकातश्च वोध्यः, तथैव बहुसमरमणीयो भूमिभागः उल्लोकः सपरिवाराणि सिंहासनानि च वक्तव्यानि, तत्र खलु चत्वारो देवा महर्दिना यावत् पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा-अशोकः१ सप्तपर्णःश्चम्पक:३ चूतः४, तत्राशोकनामा. देवोऽशोकवनप्रासादे परिवसति, एवं शेषेषु त्रिष्वपि वनसदृशनामानस्त्रयो देवाः परिवसन्ति । वाले हैं । 'पंच जोयणलयाई विक्खंभेणं पांचसो योजनका इसका विष्कंभ चोडाई-है । 'पत्तेयं प्रत्येक वनषण्ड 'पागार परिक्खित्ता' प्राकारसे परिवेष्टित हैं। 'किण्हा' कृष्णाः कृष्णवर्ण से युक्त थे कृष्णादि पदोपलक्षित पदसमृह जंबूदीप पनवर वेदिका प्रकरणमें कहे अनुसार 'वनसंडवण्णओ' सपूर्ण वनपण्डका वर्णन कह लेना चाहिए । तथा-'भूमिओ पासायवडेंसगा य भाणियन्वा' भूमि एवं प्रासादावतंसक कहना चाहिए' उसमें वनषण्ड और भूमिभागका वर्णन पांचवे एवं छठे सूत्रसे कहना चाहिए । तथा प्रासादावतंसकका वर्णन राजप्रश्नीय सूत्रके ६ वें सूत्रकी मेरे द्वारा की गई सुबोधिनी टीका से जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके आठवें सूत्रकी टीकासे समझ लेवें। वह इस प्रकार है-उसका भूमिभाग बहुसम एवं रमणीय है, उल्लोक-अगासी वाले हैं उसमें सपरिवार सिंहासन कहे गए हैं। उसमें चार देव जो कि महर्द्धिक यावत् पल्योपमकी स्थितिवाले है चार देवके नाम इस प्रकार हैं-अशोक१, सप्तपर्ण२, चम्पक३, एवं चूत४, उसमें अशोक ४सा . 'पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पांयसो योजना तभना विल-पडाणा ४स छ, 'पत्तेयं पत्तेय' ४२४ पनप 'पागारपरिक्खित्ता' पायी जाये छ. 'किण्हा' કૃષ્ણ-કુણુ વર્ણવાળા છે. કરુણાદિ પદથી બેધકરાતા પદસમૂહ જંબુદ્વીપની પદ્મવરદિકાના ५४२शुभां । प्रभारी 'वनसंडवण्णओ' संपूर्ण वन वन ४डी न तभा 'भूमिओ पासायवडेसगाय भाणियव्वा' भूभिमत प्रास हातस san mp . તેમાં વનણંડ અને ભૂમિભાગનું વર્ણન પાંચમાં અને છ સૂત્રમાંથી કહી લેવું જોઈ એ તથા પ્રાસાદાવર્તાસકનું વર્ણન રાજપ્રશ્રીય સૂત્રના ૬૮ મા સૂત્રની મારા દ્વારા કરવામાં આવેલ સુધિની ટીકામાંથી સમજી લેવું. તે વર્ણન આ પ્રમાણે છે–તેને ભૂમિભાગ બસમ અને રમણીય છે. ઉલ્લેક-અગાસીવાળા છે. તેમાં સપરિવાર સિંહાસન કહેવામાં અ વેલા છે. ચાર દેવ કે જેઓ મહદ્ધિક યાવત પોપમની સ્થિતિવાળા છે. તેમાં ચાર
નામ આ પ્રમાણે કહેલા છે. અશોક ૧ સપ્તપર્ણ ૨ ચમ્પક ૩ અને ચૂત ૪
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यम का राजधान्योर्वर्णनम्
२०७ ___ अथ यमिकयोरन्तर्भागवर्णकमाह-'जमियाणं' इत्यदि, 'जमिगाणं रायहाणीण यमिकयो राजधान्योः प्रत्येकम् 'अंतो' अन्त:-मध्यभागे 'बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पणने बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य 'वण्णगोत्ति' वर्णकः प्राग्वद्बोध्यः यथा प्रार आलिङ्गपुष्करमिति वा यावत् पञ्चवर्णैर्मणिभिरूपशोभितः वनपण्ड विहीनो यावद् बहवो देवाश्च देव्यश्चाऽऽसते यावद् विहरन्तीति पर्यन्तोऽभिहितः सोऽत्रापि ग्राह्यः, विशेपजिज्ञासुभिः पञ्चमषष्ठसूत्रे विलोकनीये । 'तेसि णं वहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं वहुमज्झदेसमाए' तेषां च बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागः, 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु 'दुवे उवयारियालयणा' वे उपकारिकालयने-उपकरोति-उपष्टभ्नाति प्रासादावतंसकानीत्युपकारिका-राजधानीपतिसत्कग्रासादावतंसकादीनां पीठिका, अन्यत्रत्वियमुपकार्योपकारिकेति प्रसिद्धा, उक्तं च-'गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारिका' इति सा लयनमिव-गृहमिवेत्युनामधारी देव अशोक वन के प्रासाद में निवास करते है, इसी प्रकार बाकी के तीनों देव वन सरीखे नाम वाले तत् तत् प्रासादों में निवास करते हैं। ___ अब यमिका राजधानीके अन्दरके भागका वर्णन करते हैं-'जमिगाणं' इ०
'जमिगाणं रायहाणीणं' प्रत्येक यमिका राजधानीके 'अंतो' मध्यभागमें 'बहसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' अत्यन्त सम एवं रमणीय भूमिभाग कहा गया है। उसका वर्णन 'वण्णगोत्ति' जैसे पहले आलिंग पुष्करके समान यावत् पांच वर्ण वाले मणियोंसे शोभायमान थे एवं अनेक देव एवं देवियां शयन करते है यावत् विचरते है यह कथन पर्यन्त प्रथम कहे अनुसार समझ लेवें विशेष जिज्ञासु पांचवें एवं छठा सूत्र में देख लेवें। __'तेसिणं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए' यह बहुसमरमणीय भूमिभागके ठीक मध्यभागमें 'एत्थणं' यहां पर 'दुवे उपयारियालयणा' दो उपकारिकालयन अर्थात् प्रासादावतंसक पीठिका जो उपकारिकाके नामसे प्रसिद्ध તે અશક નામવાળા દેવ અશેકવનના પ્રાસાદમાં નિવાસ કરે છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણે દેવે વનના નામ સરખા નામવાળા એ-એ પ્રાસાદમાં નિવાસ કરે છે.
6 यभि। सयानीना मरना भागनु पर्युन ४२वामां आवे छे. 'जमिगाणं.
'जमिगाणं रायहाणीण' ४२४ यभि पानीना 'अंतो' मध्य भागमा 'बहसमरमणिज्जे भमिभागे पण्णत्ते सत्यत सम भने २भणीय सेवा भूमिमा ४९ छे. 'वण्ण જોત્તિ” વર્ણન જેમ પહેલાં આલિંગ પુષ્કરની સરખા યાવત્ પાંચ વર્ણવાળા મણિયોથી શોભાયમાન હતા. તેમજ અનેક દે અને દેવિયો શયન કરે છે. યાવત્ વિચરે છે. આ કથન પર્યન્ત પહેલાં કથનાનુસાર સમજી લેવું. ____ 'तेसिंणं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए' ते मई सभरमणीय भूमि भागना पराम२ मध्य भागमा 'एत्थणं' मडियां 'दुवे उवयारियाल पणा' में 64કારિકાલયન અર્થાત પ્રાસાદાવતંસક પીઠિકા કે જે ઉપકારિકાના નામથી પ્રસિદ્ધ છે. કહ્યું
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पकारिकालयनं, तच्च द्वयोराजधान्योरेकैकमिति द्वे ते इति द्वित्वेन निर्देश इति उपकारिकालाने 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ते, तयोर्मानाद्याह-'बारस' इत्यादि-'वारस नोयणसयाई आयामविक्संभेणं' 'द्वादशयोजनशतानि आयामविष्कम्भेण-दैयविस्ताराभ्याम् , मूळे समाहारद्वन्छः, 'तिण्णि जोयणसहस्साई त्रीणि-त्रिसंख्यानि योजनसहस्राणि 'सत्त य' सप्त-सप्तसंख्यकानि 'पंचाणउए' पञ्चनवतानि-पञ्चनवत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्ते इति पूर्वेण सम्बन्धः, एवमग्रेऽपि 'अद्धकोसं च' अक्रोश-क्रोशस्याई 'वाहल्लेणं' वाहल्येन-पिण्डेन, 'सव्वजवृणयामया' सर्वसम्बनदमये-रात्मिना जाम्बूनदमयेजम्वूनदभवोत्तमजातिसुवर्णमये तथा 'अच्छा' अच्छे-आकाशरफटिकवनिमले, 'पत्तेयं२' प्रत्येक वे अपि 'पउमवरवेइयापरिक्खित्ता' पदमवरवेदिका परिक्षिप्ते-पदमवरवेदिकाभ्यां परिक्षिप्ते-परिवेप्टिते, 'पायर' प्रत्येकर-द्वयोः 'वणसंडवण्णओ' वनपण्डवर्णकः वनपण्डयोः है। कहा भी है-'गृहस्थानं स्मृतं राज्ञा मुपकार्योपकारिका' राजाओंका गृहस्थान उपकारिका एवं अपकारिका से युक्त कहा है । वह गृह के जैसे उपकारिकालयन दोनों राजधानी में एक एकके क्रमसे दो 'पण्णत्ते' कहे हैं ।
अव उपकारिकालयनका मानादि कहते हैं-'चारस' इत्यादि ___ 'चारस जोयणसयाई आयामविकावभेणं' बारह योजन के लम्बे चौडे है 'तिणि जोयण सहस्साई' तीन हजार योजन 'सत्तय पंचाणउए जोयणसए' सातसो पंचाणु योजन 'परिक्खेवेणं' इसना परिक्षेप हैं 'अद्धकोसं च' आधाकोस की 'बाहल्लेणं' मोटाई है 'सव्वजंबूणयामया' सर्वात्मना जंबूनदमय उत्तम सुवर्ण भय है.। 'अच्छा' आकाश एवं स्फटिक सदृशनिर्मल है । 'पत्तेयं २' प्रत्येक अर्थात् दोनों उपकारिकालयन 'पउमवरवेझ्या परिक्खित्ता' पद्मवर वेदिका से परिवेष्टित है 'पत्तेयं २' दोनों 'वणसण्डवण्णओ वनषण्ड वर्णन परक पदसमूह प छ.-'गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकरिको शयाना स्थान 6५२४ मन म५४१રિકાથી યુક્ત કહેલ છે. એ ઉપકારિકલયન બેઉ રાજધાનીયોમાં ગૃહના રૂપમાં એક એકના भथी मे. 'पण्णत्ता' ४ा छे.
हवे. 6५४२४सयनना भाना प्रभार मत छ. 'वारस' त्या
'बारस जोयणसयाई आयामविक्खंभेण मारसा योगन २८मा eil पा छे. 'तिन्नि जोयणसहस्साई' न १२ या 'सत्तय पंचाणउए जोयणसए' सात पंचा योन परिक्खेवेणं' तेना परिक्ष५ ४९स छ. 'अद्धकोस च' मा टही 'बाहल्लेणं' तनी ants छे. 'सव्ब जंवूणया मया' सशत भून नामना उत्तम सुवर्ष भय छे. 'अच्छा' मा४।२२ मन टि सरमा निर्भर छ. 'पत्तय २' १२४ टी 28 6५. . २४ सयन. 'पउमवरवेइया परिक्खित्ता' पद्मप२ वी पीटायस . 'पत्तेयं मना 'वणसंड वण्णओ' पनपना वन समाधी ५हो 'भाणिअव्वो' ही वा न. २१
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम्
ર૦
वर्णकः- वर्णनपर पदसमूहो 'भाणियन्बो' भणितव्यः - वक्तव्यः, स च पञ्चमस्त्रोक्त जम्बूद्वीपजगतीचनपण्ड विवरण तो बोध्यः, उपकारिकालयनमध्ये चतुर्दिशि 'तिसोवाणपडिख्वगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि सुन्दरारोहावरोहत्रिमार्ग 'तोरण चउद्दिसिं' तोरणचतुर्दिशीत्यत्र तोरणेति - लुप्तविभक्तिकं पदम् तेन तोरणानीति पृथक् बोध्यम्, ततश्चतुर्दिशि पूर्वादि दिक् चतुष्टये तोरणानि - वहिर्द्वाराणि चत्वारि, तथा 'भूमिभागा य' भूमिभागा उपकारिकालयनमध्ये 'भाणियव्यत्ति' भणितव्याः, इति, तत्सूत्राणि जीवाभिगमोपाङ्गगतानि क्रमेणैवम् -' से
संडे देणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं उपयारियालयणसमए परिक्खेवेणं, तेसि णं उवयारियालयाणं चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिहवा पण्णत्ता, वण्णओ, तेसि णं तिसोवाणप डिरूचगाणं पुरओ पत्तेयंर तोरणा पण्णत्ता, वण्णओ, ते सिणं उपयारियालयाणं उपि बहु: समरमणिज्जे भूमिभागे पण्णचे जाव मणीहिं वसोभिए इति एतच्छाया व्याख्या च सुगमा ।
'भाणिroat' कहना चाहिए । वह पद समूह पांचवें सूत्र में जंबूदीप जगती एवं वनषंडके वर्णन प्रसंगसे ज्ञात करलेवें । उपकारिकालयन के मध्य में चारों तरफ 'तिसोवाणपडिया' सुंदर आरोह अवरोह युक्त त्रिमार्ग कहे हैं 'तोरण चउहिसिं' चारों द्वारके चारों दिशामें तोरण चार कहे हैं 'भूमिभागाय' उपरिकालयन के बीच में भूमिभाग 'भाणियव्वति' कहना चाहिए तत्संबंधि सूत्रपाठ जीवाभिगम उपांग में कहे हैं वह क्रम से इस प्रकार है 'से णं मणसंडे देसुणाई दो जोयणाई चक्कवाल विक्रमेणं उवरियालपण समए परिक्वेवेणं' लेखिणं उवरियालयणाणं उद्दिसि चन्तारि तिसोवाणपडिबा पण्णत्ता, वण्णओ तेलिणं तिसोवाणपडिवना पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णत्ता । वष्णओ 'तेर्सिणं उपयारियालयगाणं उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पणते जाब मणीहि जबसोभिए इति'
अब यमक देवके सूल प्रासादका वर्णन करते हैं- 'तस्स णं' उपर में वर्णित
વ્રુÇન સ'ખ'ધી પદો પાંચમાં સૂત્રમાં જમૂદ્રીપની જગતી અને વનખંડના વ`નના પ્રસ’ગથી सभल देवां उपस्सियननी पथमां यारे मनुये 'तिसोवाणपरुिवगा' उतरवा थरदाने मनुहू मेवा सुंदर भार्ग असा हे 'तोरण चउद्दिसिं' यारे हरवालनी यारे द्विशाभां तार उडेला छे. 'भूमिभागाय' तेभन लूभिलाग 'भाणियव्वो' उद्धिये थे वर्षान संधी सूत्रपाठ वाभिराम नामना उपागम उस छे. ते उभथी या प्रमाणे छे -' से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खभेण उवरियालयणसमए परिक्खेवेणं तेर्सिणं उवरियालयणाणं चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता दण्णओ तेसि णं तिसोवाणपरिवगाणं पुरओ पत्ते २ तोरणा पण्णत्ता वण्णओ तेसिणं उदरियालयणाणं उप्पिं वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणिहि उवसोभिए इति' हुवे यभ देवना भूल आसानु वर्षान ४२वामां आवे छे.'तस्स णं' उ५२ वर्णुन श्वामां आवे उपहाराअयनना 'बहुमज्झदेसभाए' म.
ज० २७
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसने ___ अथ यमकदेवयोमूलप्रासादस्वरूपमाह-'तस्स णं' इत्यादि-'तस्स णं तस्य-अनन्तरोक्तस्य उपकारिकालयनस्य खलु 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागः, 'एत्थ थे' अत्र-अत्रान्सरे खलु 'एगे पासायब.सए पण्णत्ते' एकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, अस्य मानमाह-वावडिं द्वापष्टि-द्वापष्टि संख्यानि 'जोयणाई अद्धजोयणं च' योजनानि अर्द्धयोजनं च-योजनस्याचे व 'उद्धं उच्चत्तण' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'इकतीसं एकत्रिंशतम्-एकत्रिंशसंख्यानि 'जोयणाई योजनानि 'कोसं च' क्रोशं च 'आयामविश्खंभेणं' आयामविस्भेण-देय विस्ताराभ्याम् प्रज्ञप्ता, तस्य 'वण्णओ' वर्णकोऽप्टमसूत्रगतविजयप्रासादानुसारेण बोध्या, 'उल्लोग' उल्लोकोउपरितनभागो, 'भूमिभागा' भूमिभागौ-अधोभागौ, 'सीहासणी सपरिवारा' सिंहासने सपरिपारे-सामानिकादि मुरपरिवाराणां भद्रासनरूपपरिवारसहिते, एपामुल्लोकादीनां द्वित्वेन प्रासादस्य चैकत्वेन विवक्षा सूत्रकारप्रवृत्तिवैचिव्यात, अथ मलप्रासादावतंसकस्य परिवारप्रासादपक्तित्रयं प्ररूपयति-"एवं पासायपंतीजो' इत्यादि-एवं' एवं-मूलप्रासादावतंसकवत् 'पासायपंतीओ' प्रासादपङ्क्तयः-परिवारप्रासादश्रेणयो ज्ञातव्याः, ताश्च जीवाभिगमाद् उपकारिकालयन का 'बहुमज्झदेसभाए' यामध्यदेशभाग है एत्थर्ण' वहां पर 'एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते' एक प्रासादावतंसक महल विशेप कहा है । उस प्रासादावतंसक का मानादि का वर्णन करते हैं 'बाहिँ जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तणं' साडि बासठ योजनकी उसकी उपरकी तरफकी ऊंचाइ कही है। 'इकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविखंभेणं' एकतीस योजन और एक कोस का उसकी लम्बाइ चोडाई कही है, उसका 'वण्णओ' वर्णन आठवें सूत्र में विजय प्रासाद के वर्णन समान समझ लेने 'उल्लोया' ऊपर का 'भृमिभागा' नीचे का भूमिभाग 'सीहासणा सपरिवारा' सपरिवार सिंहासन अर्थात् सामानिकादि देव परिवार के भद्रासन सहित कहना चाहिए। ___ अव मूलप्रासादावतंसक की परिवारभूत तीन प्रासाद पंक्तिका वर्णन करते १२ मध्य भागमा 'ए-थणं' त्या मागण 'एगे पासायव.सए पण्णत्ते : प्रासाहवत's અર્થાત મહેલ કહેવામાં આવેલ છે.
હવે એ મહેલના માપનું વર્ણન કરે છે. ___वावर्द्धि जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेण' साडी मास योजननी सनी या छ. 'इक्तीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभणं त्रीस यौन मन ४ गा रखा तनमा पापा उस छे. तेनु 'वण्णओ' पन 28मां सूत्रमा विन्य दाना वन प्रभारी समय से'. 'उल्लोया' मा 'भूमिभागा' नायर भूमिलाय 'सीहा सणा सपरिवारा' परिवार सहित सिहासना अर्थात् सामानि वगैरे हेवोना परिवाना ભદ્રાસને સહિત વર્ણન કરવું જોઈએ.
હવે મૂળ પ્રાસાદાવર્તસકના પરિવાર રૂપ ત્રણ પ્રાસાદ પંક્તિનું વર્ણન કરવામાં આવે છે
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योवर्णनम् बोध्याः, ताश्च मूलप्रासादतश्चतसृषु दिक्षु पद्मानामिव परिवेष्टनरूपा बोध्याः, न पुनः सूचिश्रेणिरूपाः, तत्र प्रथम-प्रासादपक्ति पाठ एवम्-'सेणं पासायवडेंसए अण्णेहिं चउहिं तदद्धच्चत्तपमाणमित्तेहिं पासायवडेंसएहिं सवओ समंता संपरिक्खित्ते' एतच्छाया-स खलु मासादावतंसमोऽन्यैश्चतुर्भिस्तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः प्रासादावतंसकैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्त एतव्या या-स:- मूलप्रासादावतंसकः खलु अन्यैः-स्वातिरिक्तैः चतुर्भिः तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः-अत्रोच्चत्वशब्द उत्सेधपरः, प्रमाणशब्दश्च विष्कम्भायामपरः, तेन तस्मात्मूलप्रासादात् मूलप्रासादमपेक्ष्येत्यर्थः, अर्द्धस्-उच्चत्वम्-उत्सेधः, प्रमाणमात्रं-प्रमाणमानं तदेव प्रमाणमात्रम् विष्कम्भायारूपप्रमाणमेन च येषां तादृशैः प्रासादावतसकैः सर्वतः-सर्वदिक्षु समन्तात्-सर्वविदिक्षु संपरिक्षिप्तः-परिवेष्टितः, एषां संपरिक्षेपप्रासादानामुच्चत्वादिकं तु सूत्रकारः साक्षादेवाह-'एकतीसं' इत्यादि-ते खलु प्रासादावतंसकाः 'एकतीसं' एकत्रिंशतम्-एकत्रिंशत्संख्यानि 'जोयणाई' योजनानि 'कोसं च' क्रोश एक क्रोशं च 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'साइरेगाई' सातिरेकाणि-अर्द्धक्रोशाधिकानि 'अद्धसोलस जोयणाई' अर्द्धषोडशयोजनानि-साईपञ्चदशयोजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैय-विस्तारभ्याम् १, अथ 'विइयपासायपंती' द्वितीयप्रासादहैं- एवं' मूलपासादावतंसक के समान 'पालाय पंतीओ' परिवारभूत प्रासाद पंक्तियों का वर्णन समजलेवें । उसका वर्णन जीवाभिगम सूत्र से जानलेवें। वे पंक्तियां मूलप्रासादले चारों दिशामें पद्मों के समान परिवेष्टन रूप समजलेवें सूचि के श्रेणि समान न समजें __ वहां प्रथम प्रासादपंक्ति का वर्णनरूप पाठ इस प्रकारहै-'से णं पासायवडेंसए. चउहिं तदुच्चत्तपमाणमिन्तेहिं पासायव.सएहि सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते' वह सूल प्रासादावतंसक दूसरे उसले अर्धा ऊंच्चत्वममाण वाले चार प्रासादावतंसकों से सर्व दिशाने अर्थात् चारों ओर परिवेष्टित ऐसे कहे गए हैं।
वे परिवेष्टित प्रासादों के उच्चत्वादि स्वयं कहते हैं- प्रासादावतंसक 'एक तीसं' इकतीस 'जोयणाई कोसं च उद्धं उच्चत्तण' योजन एवं एक कोस उपर
'एवं भूख प्रासादासनी. समान 'पासाय पंतीओ' परिवार भूत प्रासा पति ચેનું વર્ણન સમજી લેવું. તે પ્રાસાદ પંક્તિ મૂલ પ્રાસાદની ચારે દિશામાં કમળની જેમ વીંટળાયેલ સમજી લેવી એની પંક્તિ પ્રમાણે ન સમજે.
त्या पाडसी प्रासातिन वर्णन ३५ ५४ मा प्रभारी छे. 'से णं पासायव.सए अण्णेहिं चउहि त च्चत्तपमाणमित्तेहिं पासायवडे सएहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते તે મળ પ્રાસાદાવતંસક બીજા તેનાથી અધેિ ઉંચાઈ વાળા ચાર પ્રાસાદાવત સકેથી ચારેય દિશામાં અર્થાત્ ચારે તરફ વીંટળાયેલ કહ્યા છે. તે વીંટળાયેલ પ્રાસાની ઉંચાઈ વિગેરે समाधी ४थन स्वय सत्र ४३ छे. ते प्रासाहात 'एकतीसं' मेनीस 'जोयणाई
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जम्यदीपप्रज्ञप्तिस्त्र पङ्क्तिः , तत्सूचकपाठश्चैवम्-'तेणं पासायचंतगा अण्णेहिं चरहिं तादधुच्चत्तप्पमागमित्तेहिं पासायवडेंसएहि सन्चओ यांना संररिक्यिता' पतन्छाया--पाठमात्रगम्या, व्याख्यातु-ते-प्रथमपरतिगताश्चत्वारः खलु प्रानादावासका प्रत्ये कर अन्यः-स्वभिन्नैः चतुर्भिः तदोच्चत्तप्रमाणगान-मूलप्रासादात्मेधनिष्कर भायात्रपम्पन्नैः-मृलप्रासादापेक्षया चतुर्भागप्रमाणैः प्रासादैः संपरिक्षिप्ताः, इनि, अत एव चतुर्दिश चत्वारश्रवार इति संकलनया सर्वे पोडश प्रासादाः, एपाणुञ्चन्नादिकं नु महान गाक्षादेवाद-'तेणं पासाय. वडेंसगा' ते खलु प्रासादावतंलका:-'सारेगाई' सातिरे काणि-अर्द्धकोगाधियानि : 'पद्धसोलसजोयणाई' आर्द्धपोडशयोजनानि-सा पश्चयोजनानि 'उदं उत्पनेणं' अर्ध्वमुच्चत्वेन, 'साइरेगाई' सातिरेकाणि-क्रोशचतुर्थीचाधिकानि 'अट्टपाइ' अष्टमानि-सार्द्धसप्त 'जोयणाई' योजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयाम विष्कम्भेण इति २, ३थ 'तइयपासायपंती' तृतीयप्रासादपङ्क्तिः -तत्सूचकपाठ एवम्-'ते णं पाप्सायबडे रागा अण्णेहिं चाहि की और ऊंचा कहा है। 'साइरेगा अछ अधिक अद्धमोला जोषणाई'
आयामविश्वंभेणं' साडे पंद्रह योजन उसकी लंबाई चोडाई कही है। • अब दूसरी प्रासादपंक्ति सूचक पाठ इन प्रकार है-'तेणं पामायवडेंसया अण्णेहिं चउहिं तदधुच्चत्त पमाणमितहि पासायव.सपहिं सबओ समंता संपरिक्खित्ता' प्रथम पंक्ति में कहे गए चारों प्रासादावंतसक, दूसरे उससे आधि ऊंचाइवाले मूलप्रासाद से आधे उत्सेध आयामविष्भ वाले मल प्रासाद की अपेक्षा चतुर्भाग प्रमाणवाले चार प्रासादों से परिवेष्टिन कहे हैं, इस प्रकार चारों दिशाओंमें चार-चार काहने सं १६ सोलह प्रासाद हो जाते हैं। उनकी ऊंचाइ आदि मान सूत्रकार स्पयं कहते हैं-'तेणं पासायवडेंसना' वे प्रासादा. घतंसक 'सातिरेगाई' अर्ध फोस अधिक 'अद्धसोलार जोयणा' साडे पन्द्रह योजन 'उर्दू उच्चतेग' ऊंचा कहा है 'साइरेलाई पाव कोस अधिक 'अट्ठमाई जोयणाई आयामवि मेणं' लाडेसाहबोजनका इनका आयामविष्भकहा है। कोसं च उद्धं उच्चत्तेणं न मने रेट या 'साइरेगाई ४४ पधारे 'अद्धसोलसजोयणाई आयामविखंभेण सा ५४२ योनी तनी CS पापा छ.
वे भी प्रासाहत सधी ५४ ४३ छ-'ते णं पासायवडे सगा अण्णेहिं चउहिं तद्धच्चत्तपमाणमित्तेहि पासायवंडंसरहिं सबओ समंता संपरिक्खित्ता' पडेसी પ્રાસાદ પંક્તિમાં કહેલ ચારે પ્રાસાદાવતં સક બીજા તેનાથી અદ્ધિ ઉંચાઈવાળા મૂલ પ્રાસાદંથી અર્ધા આયામ વિખંભ અને ઉસેધવાળા મૂલ પ્રાસાદના કરતાં ચતુર્ભાગ પ્રામાણુવાળા થાર પ્રાસાદેથી વીંટાયેલ છે. આ રીતે ચારે દિશાઓમાં ચાર ચાર કહેવાથી ૧૬ સાળ भासाही 25 लय छे. तनी या पोरे प्रभार सूत्रहार स्वय मताव छ.-'तेणं पासाय. पडेंसगा' से प्रासादात 'सातिरेगाई' मधे 3 मधिर 'अद्धसोलस जोयणोई' 31२. यौन 'उद्धं उच्चत्तण' या ४ा छ, 'साइरेगाई' ५8 मधि४ 'अटुमाई
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यम का राजधान्योर्वर्णनम् तदधुच्चत्तप्पमाणमित्तहिं पासायवडेंसएहिं सन्नो समंवा संपरिक्खित्ता' एतच्छाया प्राग्वत् व्याख्यातु-ते-द्वितीयपरिधिगताः षोडशप्रासादावतंसकाः खलु प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिस्तदोच्चत्व प्रमाणमात्रै-मूलप्रासादापेक्षयाऽष्टांशप्रमाणश्चत्वविष्कम्भायामैः सर्वतः सनन्तात् सम्परि. क्षिप्ताः, अत एव तृतीयपइक्तिगताः प्रासादाचप्पष्टिः, एपामुच्चत्वादिकं सूत्रकृत् स्वयमाह'ते णं पासायक्डेंसगा' ते- चतुष्पष्टिरपि प्रासादावतंसकाः खलु 'साइरेगाई' सातिरेकाणि -अर्द्धकोशाधिकानि 'अद्धहमाई' अष्टिमानि-सा सप्त 'जोयणाई योजनानि 'उद्धं उच्च. त्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'साइरेगाइ सातिरेकाणि-साईक्रोशाष्टमांशाधिकानि 'अधुट्ठजोयणाई' अध्युष्टयोजनानि-अध्युष्टानि-सार्द्धतृतीयानि योजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेन-दैर्ध्य-विस्ताराभ्याम् एषां सर्वेषां 'वण्णओ' वर्णकः-वर्णनपरः पदसमूहः 'सीहासणा सपरिवारा' सिंहासनानि च सपरिवाराणि-सासानिकादि सुरपरिवाराणां भद्रा___ अब 'तक्ष्य पासायपंती' तीसरी प्रासापंक्ति का वर्णन करते हैं-तेणं पासायवडेंसगा अण्णेहिं चाहिं तदधुच्चत्तपमाणमित्तेहिं सघओ समंता संपरिक्खिंत्ता' दूसरी परिधिगत सोलह प्रासादावतंसक प्रत्येक दूसरे उसले आधे ऊंचे ऐसे चार प्रासादासक की जो मूल प्रासाद की अपेक्षा अष्टमांश प्रमाण एवं आयामविष्कंभ से चारों तरफ संपरिक्षिप्त कहे हैं। अत:तीसरी पंक्तिगतचोसठ प्रासाद होते हैं। उसका उच्चत्वादि सूत्रकार स्वयं कहते हैं-'तेणं पासायबरें. सगा' वे ६४ चोसठ प्रासादावतंसक 'लाइरेगाई आधा कोस अधिक 'अद्धमा जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' साडे सात योजन ऊंचे कहे हैं। 'साइरेगाई' कुछ अधिक 'अजोयणाई आयाम विश्खंभेणं' साडे सात योजन के आयाम विष्कंभवाले कहे हैं । इन सबका 'वण्णओं' वर्णन परक पद समूह 'लीहालणा सपरिवारा परिवार सहित सिंहासन अर्थात् सामालिकादि देव के परिवार के भद्रासन रूप जोयणाई आयामविक्खंभेणं' सासात योन सी तनी मा पास छे.
३ 'तइय पासायपंती' त्री प्रासातिनु पान ४ामा याचे छ.-'तेणं • पासायवडें सगा अण्णेहिं चउहि तधुच्चत्तपमाणगित्तेहिं सव्य ओ समंता संपरिक्खिता'
બીજી પરિધિગત સેળ પ્રાસાદાવંતસકે દરેક બીજા તેનાથી અધિ ઉંચાઈવાળા એવા ચાર પ્રાસાદાવ્રતસકે કે જે મૂલ પ્રાસાદના કરતાં આઠમાં ભાગ જેટલા પ્રમાણુના આયામ અને વિષ્કલવાળાથી ચારે બાજુ વીંટાયેલ કહ્યા છે. આ રીતે ત્રીજી પંક્તિના ચોસઠ प्रासाही थाय छे. तनी या विगेरे प्रमाण सूत्रा२ ३न्य मताव छ.-'ते ण पासायव सगा' से १४ प्रासावत' 'साइरेगाई' अर्धा 16 -मधि४ 'अद्धटुमाइं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणे' सार सात येन २८मा या उस छ. 'साइरेगाई ४४४ पधारे 'अद्धष्ट जोयणाई आयामविक्खभण' सार सात या २८॥ मायाम 4000 डस छ. मे मयाना 'वण्णओ' वर्णन. ४४ ५। 'सं हासणा सपरिवारा' परिवार साथै सिंहासन
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूर्य सनरूपपरिवारसहितानि प्राग्वत् संग्राह्याणि । अत्र पक्तिप्रासादेषु सिंहासनं प्रत्येकमेकैकम्, मूलप्रासादे तु मूलसिहासनं सिंहासनपरिवारसहितमित्यादि, क्षेत्रसमासवृत्तौ तथा प्रथम - तृतीयपक्तचोप्रासादे परिवारत्वेन भद्रासनानि द्वितीयपङ्क्तौ च परिवारतया पद्मासनानि, इति जीवाभिगमोपाङ्गे' इत्यादि विसंवादसमाधानं बहुश्रुतगम्यम्, यद्यपि जीवामिगमे विजयदेवप्रकरणे तथा श्री भगवत्यङ्गवृत्तौ चमरप्रकरणे चनस्रः प्रासादपक्तय उक्ताः, arrshit यमकाधिकारे तिस्र एवोक्ता इति बोध्यम्, तिमृणामपि पक्तीनां प्रासादसङ्कलनैवम् - मूलप्रासादेन सार्द्धं सर्वेषां प्रासादानां पञ्चाशीतिः संख्या ८५, अथात्र सभापञ्चकं निरूपयिपुरादौ सुधर्मास भास्वरूपमाह - 'तेसि णं मूलपासायच डिसयाणं उत्तरपुरत्थिमे' तयोः खल मूळप्रासादावतंसकयो: उत्तरपूर्वस्याम्-ईशान कोणे 'दिसीभाए' दिग्भागे दिशोर्द्वयोर्भागे - अंशे 'एत्थ णं' अत्र - अत्रान्तरे खलु 'जमगाणं देवाणं' यमकयोर्देवयोः योग्ये 'सुहपरिवार सहित पहले वर्णित प्रकार से वर्णन करलेवें । यहाँ पंक्ति प्रासादों में प्रत्येक को एक एक सिंहासन कहे है । मूल प्रासाद में तो मूल सिंहासन सिंहासन के परिवार सहित क्षेत्र समास वृत्ति में कहे हैं । तथा प्रथम एवं तीसरी पंक्ति में मूल प्रासाद में परिवार रूप भद्रासन एवं दूसरी पंक्ति में परिवार भूत पद्मासन जीवाभिगम उपाङ्ग में कहा है । इस विसंवाद का समाधान बहुश्रुत गम्य है । यद्यपि जीवाभिगम में विजय देव के प्रकरण में तथा श्री भगवती सूत्र मैं चमर के प्रसंग में चार प्रासाद पंक्ति कही है तथापि यहाँ यह गमकाधिकार में तीन ही प्रासादपंक्ति कही है। तीनों पंक्ति प्रासादों का संकलन करने पर कुल संख्या ८५ पचाशी आती हैं।
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अत्र सभा पंचक का निरूपण करते हुए सूत्रकार प्रथम सुधर्मासभा का वर्णन करते हैं- 'तेसिं णं मूल पासायवर्डिगाणं उत्तर पुरत्थिमे' उन मूल प्रासाद के અર્થાત્ સામાનિકાકિ દેવના પરિવારના ભદ્રાસના રૂપ પરિવાર સહિત પડેલાં વર્ષોંન કરેલ પ્રકારથી વર્ણન કરી લેવું. અઢુિં પક્તિ પ્રાસાદેમાં દરેકને એક એક સિહાસન કહેલ છે. મૂળ પ્રાસાદમાં તે મૂળ સિંહસન સિંહાસનના પરિવાર ક્ષેત્ર સમાસ વૃત્તિમાં કહેલ છે. તથા પહેલી અને ત્રીજી પક્તિમાં મૂલ પ્રાસાદમાં પરિવાર રૂપ ભદ્રાસન તથા ખીજી પક્તિમાં પરિવાર ભૂત પદ્માસન જીવાભિન્નમ ઉપાંગમાં કહેલ છે. આ ફેરફારનુ સમાધાન મહુશ્રુત જ સમજી શકે તેમ છે. ને કે જીવાભિગમમાં વિજય દેવના પ્રકરણમાં તથા શ્રી ભગવતી સૂત્રમાં ચમરના પ્રસંગમાં ચાર પ્રાસન્દ પુક્તિ કહી છે. તા પણ અહિંયા ચમકાધિકારમાં ત્રણ જ પ્રાસાદપ ક્તિ કહેલ છે. ત્રણે પ્રાસાદપ ક્તિના પ્રાસાદો મેળવવાથી ૮૫ પંચાસી થાય છે.
હવે સભા પ’ચક્રનુ નિરૂપણ કરતા સૂત્રકાર પહેલા સુધમાં સભાનુ વર્ણન કરે છે. 'तेसि णं मूलपासायवहिंसयाणं उत्तरपुरत्थिमे' मे भूस आसाहाव तसानी ईशान 'दिसीभाएँ'
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधात्योर्वर्णनम् म्माओ' सुधर्मे-मुष्टु शोभनो धर्म:-सापराधनिरपराधनिग्रहानुग्रहलक्षणो राजधर्मों यत्र ते तथा, एतन्नाम्न्यौ 'सहाओ' सभे प्रत्येकमेकैकैति द्वे ‘पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ते, तयोर्मानाद्याह-'अद्धतेरस' इत्यादि 'अद्धतेरसजोयणाई' अर्द्धत्रयोदशयोजनानि 'आयामेणं छस्स कोसाई' आयामेन षट् सक्रोशानि 'जोयणाई' योजनानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण विस्तारेण 'णव जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' नव योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, अनयोर्वर्णकसूत्रमतिदिशति-ग्रन्थलाघवार्यम् 'अणेगखंभसयसण्णिविट्ठाओ' अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टे इत्यादिपदघटितं तद्वर्णनपरं सूत्रं बोध्यम् एतावताऽपरितुष्यन्नाह-'सभावण्णओ' इति स च जीवाभिगमोक्तो ग्राह्यः, स चैवम्'अणेगखंभसयसण्णिविट्ठाओ अब्भुग्गयमुकयवहरवेइया तोरणवररइयसालभंजिया सुसिलिट्ठविसिहसंठियपसत्थवेरुलियविमलखंभाओ णाणामणिकणगरयणखइयउज्जलबहुसमसुविभत्तइशान (कोण) 'दिसीमाए' दिशाकी ओर 'एत्थर्ण' यहा पर “जमगाणं देवाणं' यमक देव के 'सुहम्माओ' सुधर्मा नाम की 'सहाओ' दो सभा प्रत्येक की एक एक के क्रमसे 'पण्णत्ताओ' कही गई है । ____ अब सूत्रकार उसका मानादि प्रमाण कहते हैं-'अद्धतेरस जोषणाई आयामेणं' इसका आयाम-लंबाई साडे बारह योजन की है। 'छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं' इसकी चोडाई एक कोल अधिक छ योजन की है-'णव जोयणाई उद्धं उच्चत्तण' नव योजन की इनकी ऊंचाई कही है 'अणेग खंभसयसण्णिविद्वाओ' अनेक स्तंभ शत सन्निविष्ट इत्यादि पद घटित उसका वर्णन समझलेवें ! वह 'सभा वण्णओ सुधर्मा सभा का वर्णन जीवाभिगम सूत्र में कहे अनुसार ग्रहण कह लेना वहां पर सभा का वर्णन इस प्रकार है 'अणेग खंभसयसन्निविट्ठाओ अभुग्गय सुकय वइरवेइयातोरणवररइयसालभंजिया सुसलिट्ठ विसिट संठिय पसत्थ वेरुलियविमलखंभाओ णाणामणिकणगरयण खइय उज्जल बहुसमसुविभत्तभूमिभायाओ ईहामिग उसभ तुरगणरमगर विहग हिशनी त२३ 'एत्थण' मी मागण 'जमगाणं देवाण' यम हेवनी 'सुहम्माओ' सुधर्मा नामनी 'सहाओ' में सलामी २४नी मे येनमथी 'पण्णत्ताओं ४९ छे. . सूत्रा२ तेनु माना प्रभार मताव छ-'अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं' तना मायाम-मासा मा२ योजना छ. 'छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं' तेनी पड़ीजा मे 13 मधि छ योनी छे. 'णव जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' नव योजना ते 60 छे. 'अणेगखभसयसण्णिविद्वाओ' मने से स्तमाथी वीराय त्या ५४ युक्त तनु वन सभ७ . 'सभा वण्णओ' सुधासमानुन निगम સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું જોઈએ. જીવાભિગમસૂત્રમાં સભાનું વર્ણન આ પ્રમાણે છે'अणेगखभसयसन्निविट्ठाओ अभुग्गय सुकय वइरवेइया तोरणवररइयसालभंजिया सुसिलिट्टविसिद्ध संठियपसत्थ वेरुलियविमलखंभाओ णाणामणिकणगरयणखइयउज्जलवहुसमसुविभत्त-भूमिभागाओ
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जम्बूतिसूत्रे
भूमिभागाओ हामिगाउसभतुरगणरमगर विहगवालग किंनररुरुसर भचमरकुंजरवणलय पउमलयभत्तिचित्ताभ संभुग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामाओ विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ताओविव अच्चीसहर समालणीयाओ स्वगसहस्सकलियाओ भिसमाणीओ भिम्भिसमाणीओ चलो साओ सुहासाओ सस्सिरीयस्वाओ कंचणमणिरयणथुभियागाओ णाणाविहपंचव्रणघटापडागपरिमडियग्गसिहराओ धवलाओ मरीइकवयं विणिम्मुयंतीओ लाउलोइयमहियाओ गोसीससरससुर भिरत्तचंद णदद्दर दिष्ण पंचगुलितलामो उवचियचंदण कलसाओ चंदणघड सुकतोरणपडिदुबारदेसभागाओ आसत्तोसत्तविवग्वारियमल्लदामकलावाभो पंचवण्णसर ससुर हि एक प्फ. पं जोचयारकलियाओ कालागुरुपवर कुंदु रुकतुरुक धूवडतमघमतगंधुद्धयाभिरामा सुगधवरगंधियाओ गंधवट्टिभूयाओ अच्छरगणसंघविधिण्णाओ दिव्वतुडियस सपणादियाओ सव्वरयणामईओ अच्छाओ जाव पडिवाओ' इति एतच्छायाचाला किनर रूरू सरभ चभर कुजर दणलय पड़मलय भत्तिचित्ताओ संभुग्गय वइरवेड्या परिगयाभिरामाओ विज्जाहर जमल जुयलजंतजुत्ताओविव अच्ची सहसमालणीच्यओ वामहस्मकलियाओ भिमाणीओ भिन्भिसमा पीओ लोणलेसाओ सुहफासाओ सस्सिरीयरूवाओ कंचण मणिरणथूमियागाओ णाणाविह पंचरण घंटापडायमंडियण सिहराओ घवलाओ मरोड़ कai विणिम्मुयंताओ लाडल्लोइय महियाओ गोसीस सरस सुरभिरत चंदणदर दिण्णपंचंगुलितलाओ उवचियचंदणकलसाओ चंदणघडसुकयतोरण पडिदुवार देत भागाओ आसतोसत्त विजल यह वग्धारिय मल्लदाम कलात्राओ पंच व सरस सुरहि मुक्क पुष्फपुंजोवयारकलियाओ कालागुरुपवरकुंदुरुक्क तुरुस थूष डज्ांत मघमघंत गंधुद्धयाभिरामाओ सुगंधवर गंधियाओ गंधहि भूमाओ अच्छरगण संघ विकिण्णाओ दिव्व तुडिय सहसंपणादियाओं ईहामिग उसभतुरगणरमगर विहगवा लग किंनररुरुसरभ चमरकुंजर्वणलय पउम लयभत्तिचित्ताओ खंभुग्गयत्र इरवेइयापरिग्गयाभिरामाओ विज्जाहर जमलजुयलजंतजुत्ताओ विव अच्चीसहरसमालीयाओ, रूवगसहासक लियाओ मिसमाणीओ भिब्भिसमाणीओ चक्खुल्लोयणलेसाओ सुहफासाओ सस्सिरीयरूवाओ कंचमणिरयणभूमिभागाओ णाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिह - राओ धवलाओ मरोइकवय विणिम्मुरंताओ लाउल्लोइयमहियाओ गोसीस सरस सुरभि - रक्तचंदणदर दिण्ण पंचगुलितलाओ उपचियचंदणकलसाओ चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवः रदेसभागाओ आमत्तोसत्तं विउलवट्टव ग्वारियमल्लदामकलावाओ पंचवण्णसरससु रहिमुक्कपुप्फजोयाक लियाओ कालागुरुपवरकुंदुरुक्कनुरुक्कंधूव डज्झतमघमघ' तगंधुद्ध्रुयाभिरामाओ सुगंधवरगंधियाओ गंधवट्टिभूयाओ अच्छरगणसंघ विकिण्णाओ दिव्व तुडिय सहसंपणादियाओ सव्वरयणामईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ' मनेड से उड। स्तलोथी युक्त नभां રહેલ સુ દર વજ્રવેદિકાના સુદર તારણાની ઉપર શાલભંજીકા–પુત્તળીયાની રચના
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सृ. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् अनेकस्तम्भशतशनिविष्टे अभ्युद्गतसुकृतवज्रवेदिकातोरणवररचितशालभञ्जिकाश्लिष्टविशिष्टमंस्थितप्रशस्तवैडूर्यविमलस्तम्भे नानामणिकनकरत्नखचितोज्ज्वलवहुमममुविभक्तभूमिभागे ईहामृगवृषभतुरगनरमकरविहगव्यालककिन्नररुरुशरभचमरकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्रे स्तम्भोद्गतवज्रवेदिकापरिगताभिरामे विद्याधरयमलयुगलयन्त्रयुक्ते इव अचिः सहस्रमालनीये रूपकसहस्रकलिते भासमाने बाभास्यमाने चक्षुलौंकनश्लेषे सुखस्पर्शे सश्रीकरूपे काञ्चनमणिरत्नस्तूपिकाके नानाविधपश्चवर्णवण्टापताकापरिमण्डिताग्रशिखरे धवले मरीचिकवचं विनिर्मुश्चन्त्यौ लायितोल्लयितमहिते गोशीर्पसरससुरभिरक्तचन्दनदईरदत्तपश्चा
गुलितले उपचितचन्दनकलशे च-दनघटमुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागे आसक्तोत्सतविपुलवृत्तावलम्बितमाल्यदामकलापे पश्चवर्णसरससुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलिते कालागुरुप्रवरकुन्दुसच रयणा मईओ अन्छाओ जाव पडिरूवाओ' अनेक सेंकडों स्तंभो से युक्त समीपस्थ सुकृत वज्रवेदिका के श्रेष्ठ तोरण के ऊपर शालभञ्जिका -पुत्तलिका की रचना वाली अच्छे प्रकारसे संस्थित प्रशस्त वैडूर्यमणि का स्तंभ जिस में हैं ऐसी अनेक प्रकार के मणि, सुवर्ण एवं रत्नों से जिसका भूमिभाग खचित अत एव प्रकाशयुक्त भूमिभाग वाली, ईहामृग वृषभ, तुरग, नर, मगर, विहग, व्यालक, किन्नर, रुरु, शरभ, चमरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता, के चित्र से युक्त, स्तम्भ के भीतर वनवेदिका होनेसे अत्यंत मनोरम, विद्याधरों के यमल युगलों के यन्त्र युक्त न हो ऐसी सेंकडो किरणों से व्याप्त, हजारों रूपों से युक्त, प्रकाशमान, अत्यंत प्रकाशमान नेत्र से अवलोकनीय सुखद स्पर्शवाले सश्रीक रूपवाली कांचन, मणि एवं रत्नों की स्तुपिका वाली अनेक प्रकार के पंचवर्णवाले घण्टा एवं पताका-ध्वज से जिसका अग्रशिखर परिमंडित है ऐसी श्वेत किरण रूपी कवच को छोडनेवाली लीपी पोनी अतः महित-शोभिल गोरोचन रससे युक्त ऐसे चंदन के घट से प्रति द्वार में तोरण बनाये हैं जिस में ऐसी वारं वार सिक्त करने से बडि एवं गोलाकार लंबी मालाओं के समूहवाली पांच વાળી સારી રીતે રહેલ શ્રેષ્ઠ વૈડૂર્યમણિના સ્તંભ જેમાં છે, એવા અનેક પ્રકારના મણિ. સુવર્ણ તેમજ રત્નથી જેને ભૂમિભાગ જડેલે છે અને એટલે જ પ્રકારવાળે છે તથા એકદમ સરખા અને સુવિભક્ત ભૂમિવાળી, ઈહમૃગ, વૃષભ, તુરગ, નર, મગર, સિંહ, ચાલક, કિનર, ૩૩, શરભ ચમરી–ગાય, હાથી, વનલતા, પલતાના ચિત્રોથી યુક્ત સ્તંભમાં વા વેદિકા હોવાથી, અત્યંત મરમ, દ્યિાધરના યુગલો યંત્રયુક્ત જ ન હોય ? એવા સેંકડે કિરણથી વ્યાપ્ત, હજારો રૂપોથી યુક્ત, પ્રકાશમાન, અત્યત પ્રકાશમાન આંખોથી જેવા લાયક, સુખદ પવાળી, સશ્રીકરૂપવાળી, કાંચન, મણિ તથા રત્નની સ્તુલ્પિકાવાળા અનેક પ્રકારના પાંચ વર્ણવાળા ઘંટા તેમજ પતાકા-ધજાઓથી જેને અગ્રભાગ ભાય માન છે, એવી, ધોળા કિરણરૂપી કવચને છોડવાવાળી, લીપેલ તથા ધૂળેલ, અને તેથી જ મહિ–ભિત ગેરેચન રસથી યુક્ત એવા ચંદનના ઘડાઓથી દરેક દ્વારમાં તેરણ
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जम्बूद्वीपप्रबप्तिसूत्रे रुष्कतुरुष्कधूपदह्यमानमघमघायमानगन्धोद्भूताभिरामे सुगन्धवरगन्धिते गन्धवर्तिभूते अप्सरोगणगङ्घविकीर्णे दिव्यत्रुटितशब्दसंप्रनदिते सर्वरत्नमय्यौ अच्छे यावत् प्रतिरूपे' इति, एतव्याख्या चतुर्दशपञ्चदशसूत्रोक्तसिद्धायतनवर्णकानुसारेण वोध्या, तत्र नपुंसकत्वेनैकत्वेन च पदनिर्देशः, अत्र स्त्रीत्वेन द्वित्वेन च पदनिर्देश इति तत एतावान् भेदोऽन्यत्सर्व समानम् । नवरम् -अप्सरोगणसङ्घविकीर्णे-अप्सरोगण-अप्सरः परिवारास्तेषां सङ्घन समुदायेन विकीर्णे वि-सम्यक्-शोभनतया कोणें व्याप्ते तथा दिव्यत्रुटितशब्दसंप्रनदिते-दिव्यानां-दिवि भवानाम् त्रुटितानां-वाघानां ये शब्दास्तैः सम्-सम्यक् प्र-प्रकर्पण नदिते-शब्दिते सर्वरत्न. मय्यावित्यादि प्राग्वत् ।। . अथ तयोः समयोः कति द्वाराणि सन्तीत्याह-'तासि णं सभाणं' इत्यादि-'तासि णं सभाणं मुहम्माणं' तयोः-सुधर्मयोः खलु सभयोः 'तिदिसि' त्रिदिशि-तिम्पु दिक्षु 'तओ वर्ण वाले सरस सुगन्धित पुष्पों के पुञ्ज से लक्षित, जलते कालागर श्रेष्ठ कुंदुरुक्क, तुरुष्क, के धूप से मघमघायमान गंधसे अभिराम-श्रेष्ठ सुगंधसे सुगन्धित गंध की गुटिका समान अप्सराओं के संघ द्वारा विकीर्ण दिव्य त्रुटित शब्द से शब्दायमान सर्व प्रकारसे रत्नमयी अच्छ यावत् प्रतिरूप, आदि व्याख्या चौदहवें एवं पंद्रहवें सूत्र में वर्णित सिद्धायतन वर्णन के अनुसार समज लेवें । वहाँ पर नपुंसकत्वसे और एकवचन से वर्णन किया है। यहां पर स्त्री लिंग एवं दि. वचन से कहना चाहिए, इतना ही वहां का वर्णक के साथ भेर है, अन्य सय समान है विशेष यह है-'अप्सरोंगणसङ्घविकीर्णे' अप्सराओं के संघ समुदायसे व्याप्त, दिव्य त्रुटित शन्दसे शब्दायमान, सर्व रत्नमय इत्यादि प्राग्वत् वर्णित कर लेवें। ____ अब वे सुधर्म सभा के कितने बार थे वह सूत्रकार कहते हैं-'तासिं णं सभा णं सुहम्माणं' वे सुधर्मसभा के 'तिदिसिं' तीनों दिशाओं में 'तओदारापण्णत्ता' બનાવેલ છે. એવી તથા વારંવાર છંટકાવ કરવાથી મોટી અને ગલાકાર લાંબી માળાઓના સમૂહથી, પાંચ વર્ણવાળા સરસ સુગંધિત પુષ્પોના પુંજ–સમૂહથી જોવાતી કલાગુર, ઉત્તમ મુંદર, તુરૂષ્કના ધૂપથી મઘમઘાયમાન ગંધથી અભિરામ, શ્રેષ્ઠ સુગંધથી સુગંધિત ગંધની ગળી સરખા, અસરાઓના સમુહ દ્વારા વેરાયેલ દિવ્ય ત્રુટિતના શબ્દથી શબ્દાયમન સર્વ રીતે રત્નમય અછ યાત્મતિરૂ વિગેરે વ્યાખ્યા ચૌદમા અને પંદરમાં સૂત્રમાં વર્ણવેલ સિદ્ધાયતનના વર્ણન પ્રમાણે સમજી લેવી. ત્યાં નપુંસકથી અને એક વચનથી વર્ણન કરેલ છે, અને અહિંયાં સ્ત્રીલિંગ અને દ્વિવચનથી કહેવાનું છે. એટલે જ એ पनिथी या वनमा ३२३४२ ४२वाना छे. विशेषता मा प्रभारी छे.-'अप्सरोगणसंघविकीर्ण असमाना समुहारथी व्याप्त, हिव्य, ऋटितना शहाथी शहायभान भूवनમય ઈત્યાદિ પહેલાની જેમ વર્ણન કરી લેવું.
वे सुधम ससाना या वा छमे सूत्रधार ४ छ-'तासिंणं सभाणं सुहम्मा __ण मे सुधर्म समानी 'तिदिसि' ऋणे हिशामामा 'तओ दारा पण्णत्ता' त्रय ४२वानमा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् दारा पण्णत्ता' त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तेषां मानाद्याह-'ते णं दारा' तानि खलु द्वाराणि 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'जोयणं विक्खंभेणं' योजनं विष्कम्भेण-विस्तारेण, 'तावइयं चेव' तावदेव-योजनप्रमाणमेव 'पवेसेणं' प्रवेशेन-सभान्तः प्रवेशस्थलावच्छेदेन प्रज्ञप्तानीति पूर्वेण सम्बन्धः, त्रीण्यपि 'सेया वण्णओ' वर्णेन श्वेतानि-शुक्ल. वर्णानि, इत्युपलक्षणं सम्पूर्णद्वारवर्णकस्य एतदेवाह-वर्णकः-सम्पूर्णों वर्णनपरः पदसमूहोऽत्र बोध्यः, स च किम्पर्यन्तः ? इत्याह-'जाव वणमाला' यावद् वनमाला-वनमालापदपर्यन्तः, अयं वर्णकोऽष्टमसूत्राद्विजयद्वारवर्णकानुसारेण सङ्ग्राह्यः, ___ अथ मुखमण्डपादि षट्कं निरूपयितुमाह-'तेसि गं' इत्यादि-'तेसि णं' तेषाम्-अनन्तरोक्तानां खलु त्रयाणां 'दाराणां पुरओ' द्वाराणां पुरत:-अग्रे 'पत्तेयं२' प्रत्येकम् २-एकैकस्य 'तओ मुहमंडवा' त्रयो मुखमण्डपा:-सुधर्मासभाद्वाराप्रवर्तिनो मण्डपा:-देवजनाश्रयाः 'पण्णत्ता' तीन द्वार कहे हैं 'ते णं दारा' वे द्वार 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' दो योजन के ऊंचे 'जोयणं विक्खंभेणं' एक योजना इनका विस्तार है, 'तावइयं चेव पवेसेणं' इतना ही इनका प्रवेश कहा है । तीनों द्वार 'सेया वण्णओ' श्वेतवर्ण वाले कहे हैं। यहां पर श्वेत पद उपलक्षण है अतः संपूर्ण द्वार का वर्णन करने वाले पद समूह यहां कहलेवें। वह वर्णन कहां तक कहना चाहिए ? इस शंका की निवृत्ति के लिए कहते है 'जाव वणमाला' वनमाला पद पर्यन्त वर्णन यहां ग्रहण करलेवें। वह वर्णन आढवें सूत्र में विजय द्वार वर्णन में कहा है अतः तदनुसार यहां पर वर्णित करलेवें।
अब सूत्रकार मुखमण्डपादि का निरूपण करते है 'तेसिं णं दाराणं' आगे कहे गए तीनों द्वारों के 'पुरओ' आगे 'पत्तेयं पत्तेयं प्रत्येक के 'तओ मुहसंडवा' तीन मुख मण्डप-सुधर्म सभाके द्वारके आगे रहे हुवे मण्डप 'पण्णत्ता' कहे हैं४सा छे. 'तेणं दारा ते बारे। 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तंण में योगनरेट छ 'जोयणं विक्खंभेणे' 8 यापन सतना विस्तार छ. 'तावइयं चेव पवेसेणं' मेटal
मेन प्रदेश ४डस छ. . त्रय बारे। 'सेया वण्णओ' घाणा २जना डावानु Bह्यु छ, અહિંયાં શ્વેત પદ ઉપલક્ષણ છે. તેથી સંપૂર્ણ કારનું વર્ણન કરનારા પદસમૂહ અહીં કહી લેવા જોઈએ એ વર્ણન કયાં સુધી કહેવાનું છે? એ આ શંકાના સમાધાન भाट सूत्रहार ४ छ. 'जाव वणमाला' वनभाता ५४ सुधीन थे वन मही' असायरी લેવું. એ વર્ણન આઠમાં સૂત્રમાં વિજય દ્વારના વર્ણન પ્રસંગમાં કહેવામાં આવેલ છે, તેથી તેના વર્ણન પ્રમાણે અહીં વર્ણન કરી લેવું.
हवे. सूत्र४२ भूमपानि नि३५ ४२di ४ छ-'तेसिंणं दाराणं' मा डसा न दारोनी 'पुरओ' मा ‘पत्तेयं पत्तेयं' हरेन। 'तओ मुहमंडवा' ३ भुम भ७५ मेट है सुधभ समान वानी 2014 रोडमा भ७५ 'पण्णत्ता' ४ छ.
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
प्रज्ञप्ताः, तेपां मानाचाह - ' ते णं मुहमंडवा' ते खलु मुखमण्डवाः, 'अद्धतेरसजोयणाई' अर्द्धत्रयोदशयोजनानि - सार्द्धद्वादशयोजनानि ' आयामेणं' - आयामेन - दैर्येण, 'छस्स को साई' पदं सक्रोशानि - एकक्रोश स हितानि 'जोयणाई विक्खंभेणं' योजनानि विष्कम्भेण - विस्तारेण, 'साइरेगाई' सातिरेके - किञ्चिदधिके 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' हे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेनउन्नतत्वेन प्रज्ञप्ता इति पूर्वेण सम्बन्धः, एतेषां मुखमण्डपानामपि 'अनेकस्तम् मशतस निविष्टा' इत्यादिवर्णनं सुधर्मासभानुसारेण बोध्यम् तच्च किम्पर्यन्तम् ? इत्याह- 'जाव दारा' इत्यादि, 'जाव दारा' यावद् द्वाराणि - मुखमण्डपानां द्वाराणि 'भूमिभागायंति' भूमिभागांचा भिव्याप्य वर्णनं बोध्यम् । यद्यप्यत्र सभावर्णनं द्वारपर्यन्तमेव तथैव मुखमण्डपत्रेऽपि द्वारपर्यन्तमेववर्णनमायाति तथाऽपि भूमिभागपर्यन्तवर्णनमत्रोक्तं, जीवाभिगमादिषु मुखमण्डप वर्णक प्रसङ्गे 'भूमिभागवर्णकदर्शनात्,
अब उनके मानादि कहते हैं-'तेणं मुहमंडबा' वे मुखमंडप 'अद्ध तेरस जोप'णाई आयामेणं' साडे बारह योजन लम्बे है 'छरस कोसाई' एक कोप सहित छह 'जोयणाई विखण' योजन विष्कंभ वाले है अर्थात् इतना चौडा है । 'साइरे गाईं दो जोयणाई उद्धं उच्चतेणं' कुछ अधिक दो योजन के ऊंचे कहे है । इन मुखमण्डपों के भी 'अनेक सेकडों स्तम्भोंसे युक्त' इत्यादि वर्णन सुधर्मा सभा के वर्णनानुसार समज लेवें । वह वर्णन कहां तक का यहां ग्रहण करना चाहिए ? इसके समाधानार्थ कहते हैं - 'जाव दारा' यावत् द्वारवर्णन ' एवं भूमिभागायंति' एवं भूमिभाग के वर्णन पर्यन्त गृहीत कर लेना । यद्यपि यहाँ सभाका वर्णन द्वारपर्यन्त ही आता है अतः मुखमण्डप सूत्र में भी द्वार पर्यन्त ही वर्णन आसकता 'है तथापि यहां भूमिभाग पर्यन्त कहा है वह जीवाभिगमादि में मुखमण्डप - वर्णन प्रसङ्ग में भूमिभाग का वर्णन देखने में आता है अतः ऐसा कहा है
हवे तेना भानादिनु उथन ४रे छे- 'तेणं मुहमंडवा' ते भुणभयो 'अद्धतेरस जोनणाई आयामेणं' साडा मार योजन नेटसां सांगा छे. 'टस्सकोसाइ' ४ हैस साथै छ 'जोयणाई विक्खण' येोगनना विट्ठल युक्त छे. अर्थात् भेटली तेनी यहोजाए छे 'साइरेगाईं दो नोयणाई उद्ध उच्चत्तेणं' ४४ वधारे मे योजननी तेनी (याध ही छे. એ સુખમંડપેામાં પણ અનેક સે'કડા સ્તંભાથી યુક્ત છે. ઇત્યાદિ વષઁન સુધસભાના વર્ષોંન પ્રમાણે સમજી લેવું. એ વન ક્યાં સુધીનુ અહિયાં ગ્રહણ કરવુ જોઈ એ તેના सभाधान भाटे हे छे–'जाव दारा' यावत् द्वार वर्षान ' एवं भूमिभागायंति' भूभिलागना વર્ણન પન્ત એ વર્ણન ગ્રહણુ કરી લેવું.
જોકે અહી” સભાનું વર્ણન દ્વાર પન્ત જ આવે છે. તેથી મુખમ ́ડપ સૂત્રમાં પણ હાર પન્તનું જ વષઁન આવી શકે છતાં અહિં જે ભૂમિભાગ પન્ત લેવાનુ કહેલ છે તે જીવાભિગમ વગેરેમાં મુખમડપ વર્ણનના પ્રસંગમાં ભૂમિભાગનું વન
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योवर्णनम्
अथ लाघवार्थ प्रेक्षामण्डपवर्णकमाह-'पेच्छाघरमंडवाण' इत्यादि-'पेच्छाधरमंडवाणं' प्रेक्षागृह-नाटयशाला तस्य मण्डपानां तं चेव' तदेव मुखमण्डपोक्तमेव 'पमाणं' प्रमाणम्आयामविष्कम्भोच्चत्वलक्षणं मानम् बोध्यम् तथा 'भूमिभागो' भूमिभागः-द्वारादारभ्य भूमिभागपर्यन्तं सर्व वस्तु वर्णनीयम् , एषु च 'मणिपेढियाश्रोत्ति' मणिपीठिका:-मणिमयासनविशेषा अपि वर्णनीया इति, एतावदर्थसूचकं सूत्रं चैवम्___ 'तेसि णं मुहमंडवाणं पुरो पत्तेयं२ पेच्छाघरमंडवा पण्णता ते णं पेच्छाधरमंडवा अद्धतेरसजोयणाई' आयामेणं जाव दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव मणिफासो, तेसिणं बहुमज्झदेसमाए पत्तेयं२ वइरामया अक्खाडया पण्णत्ता, तेसि णं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं२ मणिपेढियाभो पण्णत्ताओ'त्ति, एतच्छायाऽौँ सुगमौ, नवरम्-अक्षपाटका:-अक्षपाटा एवाक्षपाटकाः, ते च चतुष्कोणारस्राकारा मणिपीठिकाधारविशेषा भवन्तीति परिचयः,
अब संक्षेप करने के लिए प्रेक्षामंडप का वर्णन कहते हैं-'पेच्छाघरमंडवाणं' प्रेक्षागृह-नाटयशाला के मंडपों का 'तं चेव पमाणं' मुखमंडप के जितना ही प्रमाण है अर्थातू आयाम विष्फंभ उच्चत्वादि प्रमाण मुख भंडप के जितना ही है। 'भूमिभागो' द्वार से लेकर भूमिभाग पर्यन्त सब वर्णन करना चाहिए और उस में 'मणिपेढियाओत्ति' मणिमय आसन विशेष का भी वर्णन करलेवें। वह बताने वाला सूत्रपाठ इस प्रकार है-'तेसिणं मुहमंडवाणे पुरओ पत्तेयं २ पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता, तेणं पेच्छाघरमंडवा अद्ध तेरस जोयणाई आयामेणं जाव दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव मणि फासो, तेसि णं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वदरामया अक्खाडया पण्णत्ता तेसिणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं २ मणिपेढियाओ पण्णत्तेत्ति' अर्थ सुगम है। अक्षपाटक-चतुष्कोण अस्त्राकार मणिपीठिका आधार विशेष को कहते हैं કરેલ જેવામાં આવે છે. તેથી એ પ્રમાણે ગ્રહણ કરવાનું કહેલ છે.
हवे स२५ ४२१। भाटे प्रेक्षाम'५र्नु वर्णन ४२ छ-'पेच्छाघरमंडवाण प्रेक्षागृह-नाट शान मानु' 'तं चेव पमाणं' भुम भ'५ २८९ प्रभार स छ. अर्थात् मायाम qिuet SA प्रभार भुम भ७५ना प्रमाण २९ । छे. भामि भागो' सारथी वन भूमिमा पयत सघा. पणुन ४ सयु, अने तमा 'मणिपेढिया શોત્તિ મણિમય આસન વિશેષ નું વર્ણન પણ કરી લેવું. તે વર્ણન દર્શક સૂત્રપાઠ मा प्रमाणे छ 'तेसिंणं मुहमंडवाणं पुरओ पत्तय पत्तेय पेच्छाघरमंडवा पण्णता तेणं पेच्छाघरमंडवा अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं जाव दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव मणि फोसो, तेसिं थे वहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामया अक्खाडया पण्णत्ता, तेसिं गं वह मज्झदेसभाए पत्तय पत्तेय मणिपेढियाओ पण्णत्तेत्ति' मा सूत्रपाठन। म स२१ . अक्षर પાટ–ચાર ખુણવાળા અસ્ત્રાકાર મણિપઠિકાના આધાર વિશેષને કહે છે.
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे तासां मणिपीठिकानां मानाधाह-'ताओ णं' इत्यादि-ताभो णं' ता:-अनन्तरोक्ताः खलु 'मणिपेढियाओ' मणिपीठिकाः 'जोयणं' योजनम्-एकं योजनम् 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्ध्यविस्ताराभ्याम्, 'अद्धजोयणं' अर्द्धयोजनं 'बाहल्लेणं' बाहल्येन-पिण्डेन, ताः पुन: 'सब्वमणिमईया' सर्वमणिमय-सत्मिना-स्फटिकमरकतादि-मणिमय्यः, 'सोहारुणा भाणियव्या सिंहासनानि भणितव्याः, प्रज्ञप्ता इति पूर्वेण सम्बन्धः,
"तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ' तेषां खल प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतो 'मणिपेढियाओ पण्णत्ताभो' मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः 'ताओ णं मणिपेढियाओ दो जोयणाई ताः खलु मणिपीठिकाः द्वे योजने 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण 'जोयणं वाहल्लेणं' योजनं वाहल्येन 'सव्यमणिमईओ' सर्वमणिय्यः, अथ तन्मणिपीठिकोपरितनान् स्तूपान् वर्णयितुमाह'तासि णं' इत्यादि-'तासि णं' तासां खलु मणिपीठिकानाम् 'उप्पिं पत्तेयंर' उपरि प्रत्ये. कम्र-एकैकस्या मणिपीठिकायाः 'तओ' त्रय:-त्रिसंख्यकाः 'थूमा' स्तूपाः स्मृतिस्तम्भाः
अब मणिपीठिका के मानादि को कहते हैं-'ताओणं मणिपेढियाओ' आगे कही गई मणिपीठिका 'जोयणं आयामविक्खंभेणं' एक योजनलंबि चौडी है अद्ध जोयणं वाहल्लेण' आधा योजन मोटी है 'सव्वमणिमइया' सर्वात्मना स्फटिक, मरकत आदि मणिमय है 'सीहासणा भाणियव्वा' यहां सिंहासन कहेगए हैं।
तेसिंणं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ' उन नाट्यशालाओं के आगे 'मणिपेढि- . याओ पण्णत्ताओ' मणिपीठिका कही गई है। 'ताओणं मणिपेढियाओ' दो जोयणाई वे मणिपीठिकाएं दो योजन का 'आयाम विक्खंभेणं आया विष्कंभ वाली कही हैं 'जोयणं वाहुल्लेण' एक योजन इतनी मोटाई है । 'सव्व मणिमईओ' सर्वात्मना मणिमय है ___ अब उन मणिपीठिका के ऊपर के स्तंभ का वर्णन करते हैं-'तासिं गं' उन मणिपीठिका के 'उप्पि' ऊपर 'पत्तेय पत्तय' प्रत्येक के 'तओ थूभा पण्णत्ता' तीन
व भाशुपाना भानानि ४थन रेछ-'ताओणं मणिपेढियाओ' भाण घll 'जोयणं आयीमविक्खंभेणं' 2 योन सी eiwी पहाजी छ. 'अद्ध जोयण वाहल्लेण' मर्धा यानन विस्तार पाणी छे. 'सव्वमणिमइया' सशते २४, भर४ विगैरे भाभय छे. 'सीहासणा भाणियव्या' महिया सिंहासनानु ४थन ४N . _ 'तेसिंणं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ' ये नाटयशापानी मा 'मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ' मलियाlset ४३१ छ 'ताओणं मणिपेढियाओ दो जोयणाई' से महिला में योन रेसी 'आयामविक्खंभ' मायाम विen पाणी छ. 'जोयणं वाहल्लेण' से। योजन की विस्तृत छ. 'सव्व मणिमइओ' सशत मणिमय छ..
वे. ये भरिया ५२ना स्तमनु पनि ४२पामा भावे छे.-'तेसिणं' मे भए प नी 'उप्पि' ५२ 'पत्तेय पत्तेय' प्रत्ये४ना 'तओ थूभा पण्णत्ता' ! स्तना
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम्
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प्रज्ञप्ताः, जीवाभिगमादौ तु चैत्यस्तूपा इति पाठ: 'तेणं थूभा ते स्तूपाः खलु द्वे 'जोणणाई' योजने 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'दो जोयणाई आयामविवखंभेणं' द्वे योजने आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य-विस्ताराभ्याम्, तत्र द्वे योजने देशोने ग्राह्ये अन्यथा मणिपीठिकातदुपरितनस्तूपयोः समानमानता स्यात्, जीवाभिगमादौ तु सातिरेके द्वे योजने उच्चत्वेन ते वर्णिताः, ते च स्तूपाः 'सेया' श्वेता : - श्वेतवर्णाः, श्वेतत्वमेवोपमया दृढी करोति - 'संखतल जाव' शङ्खतलयावदिति यावत्पदेनात्र - शङ्ख-दल शब्दघटितं पदं वोध्यम् तथा च 'शङ्खतलविमलनिर्मलदधिघनगोक्षीरफेनरजत निकर प्रकाशः' इति ग्राह्यम्, तत्र शङ्खतलं - तदेव विमलं स्वच्छवर्ण, प्राकृतत्वादिह विशेषणपर प्रयोगः, विमलशङ्खतलमिति पर्यवसितम् - निर्मलदधिधनः- स्वच्छगाढदधि गोक्षीरफेनः - गोदुग्ध फेनः रजतं - रूप्यम् एतेषां यो निकर:समूहस्तस्य प्रकाश इव प्रकाशो येषां ते तथा-निर्मलशङ्खतलादि समूहसदृशश्वेतवर्णाः ते पुनः सर्वरत्नमयाः अच्छा यावत् प्रतिरूपाः' इति प्राग्वत् किम्पर्यन्तं ग्राह्यमित्याह - 'अट्टमंगलगा' तीन स्तंभ कहे गए हैं । अर्थात् स्मृति स्तंभ कहे हैं । जीवाभिगम में चैत्य स्तूप ऐसा पाठ है 'तेणं धूभा' वे स्तंभ 'दो जोयणाई उद्धं उच्चतेणं' दो योजन ऊपर ऊंचे थे । 'दो जोयणाई आयामचिक्खंभेणं' दो योजन का इनका विस्तार हैं । वहां दो योजन देशून ग्राह्य है अन्यथा मणिपीठिका एवं उसके ऊपर के स्तूप का समान मान हो जायगा. जीवाभिगमादि में तो सातिरेक कुछ अधिक दो योजन कहकर वर्णित किया हैं । वे स्तूप 'सेया' श्वेत कहे हैं वे किस प्रकार की श्वेतता वाले हैं उसके लिए कहते हैं - 'संखतल जाव' संखके तल के समान यावत् निर्मल दही के समान घन गाय के दूधके फेन के समान चांदी के ढेर के समान श्वेत है । वे सर्वात्मना रत्नमय है । अच्छ यावत् प्रतिरूप इत्यादि पहले कहे अनुसार समजलेवें वह वर्णन कहां तक गृहण करे ? इसके लिए कहते हैं - 'अट्ठट्ठ કહેલા છે, એટલે કે ત્રણ સ્મૃતિ સ્ત ંભા કહ્યા છે. જીવાભિગમમાં ચૈત્યસ્તૂપ એ પ્રમાણેના पाठ छे. 'तेर्ण थूभा' से स्त'ले 'दो जोयणाई' आयामविखंभेण' मे योजन भेटलो तेना मायाभविष्ल छे. 'दो जोयणाई' उद्ध' उच्चत्तण' मे योजन भेटला अथा छे. अहींयां
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આ એ ચેાજન કંઈક ન્યૂન ગ્રRsણ કરવાના છે, નહીંતર મણિપીઠિકા અને તેની ઉપરના સ્તૂપનું સરખું માપ થઈ જશે. જીવાભિમ વગેરેમાંના સાતિરેક—કંઇક વધારે એ ચેાજન मे प्रभाणे महीने वर्शन ४२व भां आवे छे. मे स्तूप 'सेया' सह उडेवामां माया छे. तेवा प्रभारनी सहा वाजा छे. ते मताववा भाटे सूत्र आहे छे - 'संखतल जाव' શંખના તળિયા સરખા અહિંયા યાવત્ પદથી નિળ દહીંની સમાન ગાયના દૂધના ફીની સમાન ચાંદીના ઢગલાની સમાન એ સફેદ છે. એ સ્તૂપ સર્વાત્મના રત્નમય છે. અચ્છ યાવત્ પ્રતિરૂપ ઈત્યાદિ વિશેષણા પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવાં. એ વન मडियां सुधी श्रद्धा ४२वानु छे ? यो भाटे सूत्रधार आहे . 'अट्ठट्ठ मंगलगा' माई
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जम्बूद्वीपप्रातिसूत्रे'
अष्टाष्टमङ्गकानीति - अष्टाट्टमङ्गलकानीत्येतत्पदपर्यन्तम् ।
अथ तत्स्नृपचतुर्दिशि यदस्ति तदाह - 'तेमि णं श्रुभाणं चउद्दिमिं तेषां खलु स्तूपानां चतुर्दिशि - चतमृषु दिक्षु 'चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओं' चतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, तासां मानमाह - ' ताओणं मणिपेठियाओ जीयणं आयामविवखंभेणं' ताः खलु मणिपीटिकाः योजनम् आयामविष्कम्भेण दैर्घ्यविस्ताराभ्याम्, 'अद्धजोयणं वाहणं' श्रर्द्धयोजनं बाहल्येन - पिण्डेन, अत्र मणिपीटिकासु 'जिगर डिमाओ' जिनप्रतिमा:- जिनप्रतिकृतयो ''वनवाओ' वक्तव्याः, तत्सूत्रमेवम्- 'तासि णं मणिपेठियाणं उपि पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि जिन डिमाओ जिणुस्सेप्पमागमित्ताओ पलियंकस णिसण्णाओ श्रमाभिमुीओ चिति, तं जहा-उसभा १ वद्धमाणार चंदाणणा३ वारिणा' एतच्छायार्थी सुगमौ । एतद्वर्णनादिकं वैताढपर्वतीय सिद्धायतनाधिकारे पूर्वमभिहितम् ।
इति स्तूपवर्णनम् ॥
मंगलगा' आठ आठ मंगल द्रव्य यह पद पर्यन्त समझ लेवें ।
अब वह स्तूप के चारों तरफ चार मणिपीठिकादि कहते हैं- 'तेसिणं धूभा चउद्दिसिं' वह स्तूप के चारों ओर 'चत्तारि मणिपेठियाओ पण्णत्ताओ' चार मणिपीठिकाएं कही गई है । 'ताओणं मणिपीढियाओ' वे मणिपीठिकाएं 'जोयणं आयाम विक्खंभेणं' एक एक योजन की लंबी चौडी हैं । 'अद्ध जोयण बाहल्लेणं' आधे योजन की मोटी हैं इन मणिपीठिका में 'जिण पडिमाओ वत्तच्चाओ' जिन प्रतिभा कहनी चाहिए । उसका सूत्रपाठ इस प्रकार का है- 'तासिणं मणिपेढिया णं उपि पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि जिणपडिमाओ जिणुस्सेहपमाणमित्ताओ पलियंक सण्णिसण्णाओ थूभाभिमुहीओ चिति तं जहा उसभा १ वद्धमाणा २, चंदाणणा ३ वारिसेणा ४ इसका अर्थ सुगम है । यह वर्णनादि वैताढ्य पर्वत में सिद्धायतन के वर्णन में पहले कहा हैं तदनुसार यहां पर वर्णित करलेवें । स्तूप वर्णन समाप्त
આઠે મંગલ દ્રવ્ય કહેલ છે. એ પાઠ પન્ત એ કથન ગ્રજી કરી લેવું.
हुवे थे स्तूपनी यारे मान्नु यार भलिपी हिश्रहिनु उथन रवामां आवे छे. - 'सि णं श्रभाणं चउद्दिसिं' ये स्तुपनी थारे मान्नु 'चत्तारि मणिपीढियाओ पण्णत्ताओ' यार भलि. थोडे थे. 'तओणं मणिपेढियाओ' मे भयो 'जोयणं आयाम विक्खंभेणं'
श्रेड योजन नेटशी सांणी थाने पहाणी छे. 'अद्वनोयणं वाहल्लेणं' अर्धा योजन भेटसी विस्तृत छे, मे भणिपीठमा 'जिणपडिमाओ पण्णत्ताओ' 4 प्रतिभागी आहेस है. तेन। सूत्रपाठ या प्रमाणे छे. 'तार्सिणं मणिपेढियाणं डोप पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि जिणपडिमाओ जिणुस्सेहपमाणमित्ताओ पलियंकसण्णिसण्णाओं शृभाभि मुहीओ चिट्ठति, तं जहा - उराभा १
माणा २ चंदाणणा ३ वाग्सेिणा ४' मा पाहतो अर्थ सरस छे मेथी आस नथी. भा વર્ણન પહેલાં સિદ્ધાયતનના વર્ણનમાં કહેલ તે પ્રમાણે અહિંયા પણ વર્ષોંન કરી લેવુ,
સ્તૂપવન સમાપ્ત
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२२५ अथ चैत्यवृक्षान् वर्णयितुमुपक्रमते-'चेइयरुक्खाणं मणिपेढियाओ दो जोयणाई आया. मविक्खंभेणं जोयणं वाहल्लेणं' चैत्यवृक्षाणां मणिपीठिकाः द्वे योजने आयाम-विष्कम्भेण योजनं बाहल्येन-पिण्डेन अत्र सम्पूर्णः 'चेइयरुक्खवण्णओत्ति' चैत्यवृक्षवर्णको बत्त.व्यः स च जीवाभिगमप्रोक्तोऽत्र न्यस्यते-'तेसि णं चेइयरुक्खाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-बहरमूलस्ययसुपइटियविडिमा रिट्ठामयकंदवेरुलियरुइलखंधा सुजायवरजायरूवपढमविसालसाला णाणामणिरयणविपिहसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिज्जपत्तवेंटा जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लववरंकुरघरा विचितमणिरयणमुरभिकुसुमफलभरणमियसाला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीया राउज्जोया अमयरससमरसफला अहियमणनयणणिवुइकरा पासाईया जाव पडिरूवा४' इति, एतच्छाया-नेपां खलु चैत्यवृक्षाणामयमेतद्रपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वज्रमूलरजतमुम्नतिष्ठितरिडिमाः रिप्टमयकन्दवैडूर्यरुचिरस्कन्धाः सुजातवरजातरूपप्रथमविशालशालाः नानामणिरत्नविविधशाखाप्रशाखावैडूर्यपत्रतपनीयपत्रवृन्ताः जाम्बूनदरक्त___ अब सूत्रकार चैत्यवृक्षका वर्णन करते हैं-'चइयरुक्खाणं मणिपेढियाओ दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेण' चैत्यवृक्ष की मणिपीठिका का आयाम विष्कम्भ-लंबाइ चोडाइ दो योजन की है एवं एक योजन की मोटाई है। 'चेइयरुक्खवण्णओ' यहां पर सम्पूर्ण जीवाभिगम में कहे अनुसार कहना चाहिए, जो इस प्रकार है-'तेसिंणं चेयरुक्खाणं अवमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्त तं जहा वहरमूलरथय सुपष्ट्रिय रिडिमा रिट्ठामयकंदवेरुलियरुइलखंधा सुजायवरजायख्व पढमविसालसाला जाणामणिरयणविधिहसाहप्पसाह देकलिय पत्ततवणिज्जपत्तवेंटा, जंबूगयरत्तमउथसुकुमालपवालपल्लववरंकुरधरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुगफलभरणामयसाला सच्छाया, सप्पभा, सस्सिरीया सउज्जोया, अमयरससमरसफला अहियमणणयणनिव्वुइकरा पासाईया, दरिसणिना जाव पडिरूवा ४ इति ।
वे सूत्रधार चैत्यवृक्षनु वर्णन ४२ छ. 'चेइयरूक्खाणं मणिपेढियाओ दो जोयणाई आयामविक्खंगेणं जोयणं चाहल्लेणं' चैत्यवृक्षनी मालपानि मायाम Anas पाणा में यानी छ. तथा योजनाना (धेरा) विस्तारवाजी छ. 'चेइयरुक्खवण्णओ' અહીંયાં સંપૂર્ણ ચિત્યવૃક્ષનું વર્ણન કરી લેવું જોઈએ. એ વર્ણન છવાભિગમસૂત્રમાં કહ્યા प्रभारी डी. से. २प्रभारी छ -तेसिंणं चेइयरुस्वाणं अयमेयास्त्रे वण्णावासे पण्णत्ते' त जहा-वइरमूलरयय सुपइद्वियविडिमा रिट्टामयकंदवेरुलियरुइलखंधा सुजाय-घरजाय रूव पढमविसालसाली णाणामणिरयण विविह साहप्पसाह वेरुलिय पत्ततवणिज्जपत्तवेटा, जंवूणयरत्त मउयसुकुमालपवालवरंकुरधरा, विचित्तमणिरयणसुरमिकुसुमफलभरणमियसाला, सच्छाया, सापभा, सस्सिरिया, सउज्जोया, अमयरससमरसफला, अहिय मणणयण णिचुइकरा पासाइया दरिसणिज्जा जाव पडिरूना, ४ इति
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे मृदुकसुकुमारप्रवालपल्लववराङ्कुरधराः विचित्रमणिरत्नसुरभिकुसुमफलभरणमितशालाः सच्छायाः, सन्प्रभाः, सश्रीकाः सोयोताः अमृतरसप्तमरसफला: अधिकमनोनयननिवृतिकरा: प्रासादीयाः यावत् प्रतिरूपाः' इति, एतद्व्याख्या-'तेसि णं' इत्यादि-तेगां खलु चैत्यवृक्षाणां-स्तूपवृक्षाणाम् अयमेतद्रूपः-अनुपदं वक्ष्यमाणस्वरूपः वर्णावासः वर्णनक्रमः, प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वज्रमयरजतसुप्रतिष्ठितविडिमा:-वत्राणि एव वज्ररत्नमयानि मूलानि येषां ते वन्त्रमूलाः ते च ते रजतसुप्रतिष्ठितविडिमाः-रजतमेव रजतमयी सुप्रतिष्ठिता-मुष्टु प्रतिष्ठिता अवस्थिता विडिमा अत्यन्तमध्यदेशभागे ऊर्ध्वनिम्तशाखा येषां ते तथाभूताश्चेति तथा, रिष्टमयकन्दवैड्यरुचिरस्कन्धा:-रिष्टमया-रिटरत्नमय! कन्दो येषां ते रिप्टमयकन्दाः, ते च ते वैडूर्यरुचिरस्कन्धा:-वैड्यमेव-वैड्यमयः रुचिरः शोभना स्कन्धो येषां ते तथाभूनाश्चेति तथा, सुजातवरजातरूपप्रथम विशालशाखा:-सुजातं मूलद्रव्यशुद्धं वरं-मधानं च यजातरूपं रजतं तदेव तन्मयी प्रथमा मूलभूना, विशाला:-विस्तारयुक्ताः शाला:-शाखा येषां ते तथा, नानामणिरत्नविविधशाखावैडूर्यपत्रतपनीयवृन्ताः-नानामणिरत्नान्येव - नानामणिरत्नमय्यः विविधा:-अनेकप्रकाराः शाखा:-मूरशाखा निसतशाखाः प्रशाखा:-शाखानिःसृतशाखा: येषां ते तथाभूताश्च ते वैडूर्यपत्राः वैयाण्येव-चैडूर्यमयानि पत्राणि येषां ते तथाभूताश्च ते तपनीयवृन्ताः तपनीयानि-सुवर्णानि तान्येव-तन्मयानि वृन्तानि-प्रसववन्धनानि येषां ते तथाभूताश्चेति तथा, जाम्बूनदरक्तमृदुकसुकुमारप्रवालपल्लववरारधराः-जाम्बूनदानि तन्नामकस्वर्णविशेषाः, तान्येव-तन्मया रक्ताः-रक्तवर्णाः मृदुकसुकुमारा:-मृदुकाः मृदव एव मृदुकास्ते-सुकुमारास्तथा अत्यन्तकोमलाः प्रवालाः-ईपदुन्मीलितपत्रभावरूपाः पल्लवा:-संजात
उन स्तूप वृक्षों के वर्णन प्रकार इस प्रकार है-वज्रमय रजत लुप्रतिष्ठित इस की विडिमा-शाखाएं हैं । अर्थात् वज्ररत्नमय मूल प्रदेश रजत से सूप्रतिष्ठित शाखाएं हैं एवं वे शाग्वाएं बहुत ऊंची उठि हुई है। रिष्ट रत्नमय उनका कंद है, वैडूर्यरत्नमयमचिर स्कंध है। सुंदर जानरूप-चांदी भय विरतारयुक्त प्रथम शाखा. वाले, अनेक प्रकार के रत्नमय विविध शाखाबाले, वैडूर्य रत्नसरीसे पत्तेवाले, सुवर्णमय वृन्तवाले जंणूनद नाम के सुवर्णमय रक्तवर्णवाले कोमल अतएव सुकु. मार-अत्यन्त कोमल प्रवाल से युक्त, कुछ जुके हुवे पल्लव से युक्त, सुंदर अंकुर
- એ સ્તૂપ વૃક્ષને વર્ણન પ્રકાર આ પ્રમાણે છે–વજીમય રજત સુપ્રતિષ્ઠિત તેની વિડિમા–શીખાઓ છે. અર્થાત્ વજરત્નમય મૂલપ્રદેશ રજતથી સુપ્રતિષ્ઠિત એવી શાખાઓ છે, તેમજ એ શાખાઓ ઘણી જ ઉંચી ગયેલ છે. વિષ્ઠરત્નમય તેનું થડ છે. વિર્ય ન મય રૂચિર સ્કંધ છે. સુંદર જાત રૂપ કહેતાં ચદિમય અને વિસ્તારવાળી પ્રથમ શાખા વાળા, અનેક પ્રકારના રત્નમય વિવિધશાખાવાળા, વેડૂર્યરત્નના પાંદડાવાળા, સુવર્ણમય વૃત દીટાવાળા, જંબૂનદ નામના સુવર્ણમય લાલવર્ણવાળા કેમળ એથીજ સુકુમાર અત્યંત કેમળ પ્રવાલથી યુક્ત, કંઈક નમેલ પાંદડાવાળા, જેના સુંદર અંકુરે છે એવા પ્રાથમિક
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पूर्ण प्रथमपत्रभावलक्षणाः ये वराङ्कुराः - प्राथमिको भेदप्राप्ता अभिनवोदितः तेषां धरा:धारका ये ते तथा, विचित्रमणिरत्नसुरभिकुसुमफलभरनमितशाखाः - विचित्राणि यानि मणिरत्नानि चैतदुभयानि तान्येव तन्मयानि सुरभिकुमुमफलानि सुरभीणि-सुगन्धीनि यानि कुसुमानि पुष्पाणि तानि फलानि चैतदुभयानि तेषां भरेण समूहेन नमिताः - नम्रीकृताः शाखा येषां ते तथा, सच्छाया - सती - शोभना - निविडेति भावः छाया येषां ते तथा, सत्प्रभाः - सती - समीचीना प्रभा - का -कान्तिर्येषां ते तथा, 'सप्पभा' इत्यस्य 'सप्रभाः" इति - पक्षे तु प्रभाया सहिता इति विवरणम्, अत एव सश्रीका:- श्रिया - शोभया सहिताः, सोद्योता : - सप्रकाशाः मणिरत्नगण किरणस्फुरणसत्त्वात्, अमृतरससमरस फला: - अमृतरससमरसानि - अमृतस्य यो रसः -द्राः तेन समः - समानः रसो येषां तानि तथाभूतानि फलानि येषां ते तथा, अधिकमनोनयन निर्वृतिकराः - अधिकं प्रचूरं यथास्यात्तथा मनोनयन निर्वृतिं मनोनयनयोः - चित्तनेत्रयोः निर्वृतिम् - आनन्दं कुर्वन्ति - सम्पादयन्तीत्येवं शीलाः, प्रासादीयाः यावत् - पावत्पदेन 'दर्शनीयाः, अभिरूपा' इत्येतत्पदद्वयं सङ्ग्राह्यम् तथा प्रतिरूपाः, एषां व्याख्या प्राग्वबोध्या ।
'तेणं चेrrorar अन्नेहिं वहूहिं तिलयलवयच्छत्तोवगसिरीससत्तिवण्णदहिवण्णलोद्धधवचंद नीत्रकुडव कयं चपणस तालतमालपियालपियंगुपारावयरायरुवखनंदिरुक्खेहिं सन्वओ समता संपरिक्खित्ता' इति एतच्छाया - ' ते खलु अन्यैर्बहुभिः तिलकलबगच्छत्रोपगशिरीप जिन के हैं प्राथमिक ऊभेद को प्राप्त, नवोदित पत्ते से युक्त विचित्र मणि रत्नमय सुरभि कुसुम एवं फल के भार से नमित जुकी हुइ है शाखाएं जिनकी ऐसे अत्यंत गाढ छाया से युक्त, सुंदर कान्तिवाले एवं सुंदर कांति से युक्त शोभा से युक्त, मणि एवं रत्न समूह के किरण के स्फुरण से प्रकाशवाले, अमृत के रस सरीखे रसवाले फलोंसे युक्त, मन एवं नेत्र के अतीव आनंदप्रद प्रासादीय, यावत् दर्शनीय, एवं अभिरूप, प्रतिरूप कहे हैं प्रासादीय इत्यादि पदों का अर्थ पहले कहे गए हैं । अतः वह जिज्ञासु वहां से समजलेवें, 'तेणं चेहयरुक्खा अण्णेहिं बहुहिं तिलंय लवयच्छत्तोग सिरीससत्तिवण्ण दहिरपण लोद्ध धव चंदण नीच कुड्य hi पणस ताल तमाल पियालपियंगु पाराबय रायरुक्खणंदीरुवखेहिं सव्वओ ઉભેદને પ્રાસ નવા આવેલ પાંદડાવાળા, વિચિત્રમણિ રત્નમય સુગંધિત પુષ્પ અને ફળાના ભારથી નમેલી છે શાખાઓ જેમની એવા, અત્યંત ઘાઢ છાયાવાળા, સુંદર કાંતિવાળા તેમજ સુંદર કાંતિથી યુક્ત, શાભાયમાન મણિ અને રત્નાના સમૂહના કિરણાના ફરકવાથી પ્રકાશવાળા, અમૃતના રસ જેવા રસવાળા ફળેથી યુક્ત. મન અને નેત્રાને અત્યંત આનંદ આપવાવાળા, પ્રાસાદીય વિગેરે પટ્ટાના અપહેલાં કહેવામાં આવેલ છે. તેથી જીજ્ઞાસુઓએ ते अथ त्यांथी सम सेवा. 'तेर्ण चेहयरुक्खा अण्णेहिं बहुहिं तिलय लवयच्छत्तोबग स्त्रिरीसस तिवण्णदहिवण्णलोद्धधवचंदणनीव कुडयक थंब पण सतालतमाल पियालपियंगुपारावयरायरुक्खणंदीरुक्खेहिं सव्वओ समता संपरिक्खित्ता इति' से चैत्यवृक्षा जीन्न मने तिस
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जम्बूढ़ीपप्रक्षप्तिसूत्रे सप्तपर्णदधिपर्णलोध्रधवचन्दननीपटजकदम्बपनसतालतमालप्रियालप्रियापाररावतराजवृक्षनन्दिवृक्षैः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ताः, व्याख्या च च्छायागम्या, तिलकादि वृक्षपरिचयो लोककोशगम्यः, ___ 'ते णं सिलया जाव नंदिरुक्खा मूलचंतो कंदवंनो जाय सुरम्मा' छाया-ते खलु तिलका यावद् नन्दिवृक्षाः मूलवन्तः कन्दवन्तो यावत् सुरम्याः, इति, व्याख्या-ते खलु-उपर्युक्ताः तिलका यावनन्दिवृक्षा:-तिलकादि नन्दिपर्यन्तवृक्षाः परिक्षेप गताः कीदृशाः ? इत्याहमुलवन्तः कन्दवन्तो यावत्सुरम्याः, इह यावत्पदेन-स्वान्धवन्तः, त्वग्वन्तः, शालावन्तः, प्रवालयन्तः, पत्रवन्तः, पुष्पवन्तः, पीजयन्तः, आनुपूर्वीसुनातरुचिरवृत्तभावपरिणताः एकस्कन्धिनः, अनेकशाखाप्रशाखाविटपाः, अनेक नरव्यामाप्रसारितागायधनविपुलवृत्तस्कन्धाः, अच्छिद्रपत्राः अविरलपत्राः, अवातीनपत्राः अनीतिपत्राः, निर्धतजरठपाण्डुपत्राः, नवहरितसमंता संपरिक्खित्ता इति' वे चैत्यक्ष अन्य अनेक तिलक, लयक, छत्रोपग, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव चन्दन, नींव, कुटज, कदम्प, पनस, ताल तमाल, प्रियाल, प्रियंगु, पारावत, राजवृक्ष नन्दीवृक्ष, इत्यादि वृक्षों से चारों ओर से व्याप्त हैं इनवृक्षों का परिचय लोकव्यवहार एवं कोप से समझ लेवें।
तेणं तिलया जाव नंदीरुक्ता मूलवंतो कंदवंता जाव सुरम्मा' ऊपर में कहे गए तिलक, यावतू नंदिवृक्ष पर्यन्त के वृक्ष मृल से युक्त, कंद से युक्त यावत् सुरम्य हैं यहां यावत्पद से स्कंध से युक्त, त्वचासे युक्त, शाखासे युक्त, प्रवाल से युक्त, पत्र से युक्त, पुष्पसे युक्त, फलसे युक्त, बीज से युक्त, अनुक्रमसे सुंदर प्रकार के रुचिर वृत्तभाव से परिणत ऐसे एकस्कन्ध वाले अनेक शाग्वा प्रशाखा एवं पत्तेवाले, अनेक मनुष्य ने फेलाई हुई व्याम से ग्रहण करते योग्य ऐसा धन विस्तृत गोलाकार से युक्त स्कंधवाले, छिद्रविना के पत्तेवाले अविग्ल-सान्द्र पत्तेवाले निर्धू मजाल से पीत पत्तेवाले नये अतएछ हरित वर्णवाले प्रकाशमान स, छत्री, शिरीष, ससप, पिपशु, घ, ५५, ईन, जीप, टा, टेन, પણુસ, તમાલખિયાલ, પ્રિયંગુ, પારાદત, રાજવૃક્ષ, ન દીવૃક્ષ, વિગેરે વૃક્ષેથી ચારે તરફથી વ્યાપ્ત થયેલ છે. આ વૃક્ષેને પારચય લેક વ્યવહાર તેમજ કેપ ગ્રંથથી સમજી લેવા.
'तेणं तिलया जाव गंदीरुक्खा मूलवतो, कंदवतो, जाव सुरम्मा' 6५२ ४वाम गावस તિલક થાવત્ નંદીવૃક્ષ સુધીના વૃક્ષે ભૂલથીયુક્ત, કંદથી યુક્ત યાવત સુરગ્ય છે, અહીયાં થાવત્પદથી ધથીયુકત, છાલથીયુક્ત, ડાળેથી યુક્ત, પ્રવાલથી યુક્ત, પત્રથીયુક્ત, પુષ્પોથી યુક્ત ફળેથી યુક્ત બીજેથી યુક્ત, અનુક્રમથી સુંદર પ્રકારના રૂચિર વૃન્તભાવથી પરિણુત એવા એક સ્કંધવાળા, અનેક શાખા પ્રશાખા, તેમજ પત્રવાળા અનેક મનુષ્યએ ફેલાવેલ વામથી ગ્રહણ કરવા ચોગ્ય એવું ઘન વિસ્તારવાળું. ગોલાકાર સ્કંધવાળું છિદ્ર વિનાના પત્તાવાળું અવિરલ–સા પત્તાવાળું. નિમ જરઠથી પીળા પત્તાવાળા નવા હેવાથી
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् भासमानपत्रभारान्धकारगम्भीरदर्शनीयाः, उपविनिर्गत नवतरुणपत्रपल्लवकोमलोज्ज्वलचलकिसलयसुकुमारप्रवालशोभितवराङ्कुराग्रशिखराः, नित्यं कुसुमिताः, नित्यं सुकुलिताः, नित्यं लवकिताः नित्यं स्तवकिताः, नित्यं गुल्मिताः, नित्यं गुच्छिता, नित्यं यमलिताः, नित्यं युगलिताः, नित्यं विनमिताः नित्यं प्रणमिताः, नित्यं सुविभक्तप्रतिमञ्जर्यवतंसकधराः, नित्यं कुसुमितमुकुलितलकितस्तबकितगुल्मितगुच्छितयमलितयुगलितविनमितपण मितसुविभक्तप्रतिमञ्जयवतंसकधराः, शुकवहिण-मदन-शलाका-कोकिल-कोरक-भृङ्गारक-कोण्डटक-जीवञ्जीवक-नन्दीमुख-कपिल--पिङ्गलाक्षक-कारण्डव-चक्रवाक-कलहंस--सारसानेक शकुनगणमिथुनविरचित शब्दोनतमधुरस्वरनादिताः' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः सुरम्या: एषां मूलवदादि सुरम्याणां पदानां व्याख्या पश्चमसूत्रतो बोध्या,
तेणं तिलया जाव नंदिरुक्खा अनाहिं वह हिं पउमलयाहिं जाच सामलयाहिं सवभो समंता संपरिक्खिता' छाया-ते खलु तिलका यावनन्दिवृक्षाः अन्याभिहुभिः पगलताभिः पत्रों के भार के अन्धकार से गम्भीर दर्शनोय, ऊपर ऊठे हुवे नये एवं तरुण कोमल पत्ते से प्रकाशित चलायमान किसलय एवं सुकुमार प्रवाल से शोभित सुन्दर अंकुराय शिखरवाले, नित्य कुसुमित, नित्य मुकुलित, नित्य लवकित नित्य स्तबकित, नित्य गुल्मित, नित्य गुच्छित, नित्य यमलित, नित्य युगलित, नित्य विनमित, नित्य प्रणमित, नित्य अच्छे प्रकार से विभक्त प्रति संजरी रूप अवतंसक-वस्त्र को धारण करनेवाले, शुक, बहि, मदनशलाका कोकिल-कोरक भृङ्गारक कोंडलक, जीवं जीवक-नंदीमुख-कपिल-पिंगलाक्षक कारंडव चक्रवाक, कलहंस सारसादि अनेक पक्षिगण के मिथुन के द्वारा किए गए उच्च एवं मधुर स्वर से नादित, इन सब पद यावत् पद से ग्रहीत करलेना । सुरम्य आदि पदों की व्याख्या पांचवें सत्र से समझलेवें ।
'तेणं तिलया जाव नंदिरुक्खा अन्नाहिं बहुहिं पउमलयाहिं जाव लाभल्याहिं લીલારંગ વાળા પ્રકાશમાન પત્રના ભારના અંધકારથી ગંભીર, દર્શનીય ઉપર ઉઠેલા નવા અને તરૂણ કમળ પથી પ્રકાશિત ચલાયમાન કિસલય અને સુકુમાર પ્રવાલેથી શોભાયમાન સુંદર અંકુરા શિખરવાળા નિત્ય કુસુમિત્ત, નિત્ય મુકુલિત, નિત્ય લક્તિ, નિત્ય સ્તબક્તિ, નિત્ય ગુહિમત, નિત્યગુછિત, નિત્યયમલિત, નિત્ય યુગલિત, નિત્ય વિનમિત, નિત્ય પ્રસુમિત, નિત્ય સુંદર રીતે વિભક્ત, પ્રતિમંજરી રૂપ અવતંસક-વસ્ત્રને ધારણ કરવાવાળા શુક, બહિ, ચંદનશલાકા, કારક, ભૃગરિક, કંડલક, જીવંજીવક, નંદીમુખ-કપિલ, પિંગલાક્ષક કારડવ ચક્રવાલ, કલહંસ સારસાદિ અનેક પક્ષિગણેના મિથુને દ્વારા કરવામાં આવેલા ઉંચા મીઠા સ્વરેના નાદવાળા, આ બધા પદે યાવત પદથી સમજી લેવા. સુરમ્ય વિગેરે પદની વ્યાખ્યા પાંચમાં સૂત્રથી સમજી લેવી. 'तेणं तिलया जाव नंदिरुक्खा अन्नाहिं बहुहिं
नाव सामलयाहिं सव्वओ
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
यावच्छचामलताभिः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः, व्याख्या स्पष्टा नवरं पद्मलताभिर्यान च्छयामलताभिरित्यत्र यावत्पदेन - ' अशोक लताभिः चम्पकलताभिः, चूतलताभिः वनताभिः, वासन्तीलताभिः' इति सङ्ग्राह्यम् ।
"
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'ताओ णं पउमलयाओ जाव सामलयाओ निच्चं कुसुमियाओ जाव पडिवाओ' छाया-ताः खलु पद्मलता : नित्यंकुसुमिता यावत् प्रतिरूपाः, व्याख्या स्पष्टा - प्रथमयाव - त्पदेन - नागलताः, अशोकलताः, चम्पकलताः वनलताः, वासन्तीलताः, अतिमुक्तकलताः, तिनिशलताः, चूतलाः' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहः, द्वितीययावत्पदेन नित्यं मुकुलिता इत्यादि पदाना मंत्रैव सूत्रे संगृहीतानां ग्रहणं कार्यम्, एपां व्याख्या पश्चमसूत्र तो वोध्या, किन्तु प्राकसंगृहीतेषु सम्पादिमतभ्रमरादिपदानां सग्रहो नास्ति तेषां सङ्ग्रहो व्याख्या चैते पञ्चमस्सूत्रादेव ग्राहो ।
सचओ समता संपरिक्खित्ता' ये तिलक यावत् नंदीवृक्ष अन्य बहुसंख्यक पद्मलता यावत् श्यामलताओं से चारों ओर सर्वात्मना व्याप्त रहते कहे हैं। यहां यावत्पद से अशोकलता, चम्पकलता, आम्रलता वनलता, वासन्तीलता का संग्रह समझ लेवें । 'ताओ णं पउमलयाओ जाव सामलगाओ निच्चं कुसुमियाओ जाव पडिरूवाओ' वह पद्मलता यावत् श्यामलता नित्य कुसुमित यावत् प्रतिरूप आदि विशेषण विशिष्ट कही गई है। यहां प्रथम के यावत्पद से नागलता, अशोकलता, चम्पक लता बनता, वासन्तीलता, अतिमुक्तकलता, तिनीशलता, आम्रलता, कुन्दलता इन लताओं का ग्रहण समझलेवें । एवं दूसरे यावत्पद से नित्यं मुकुलिता इत्यादि पद जो इसी सूत्र में पहले कहे गये हैं वे यहां पर भी ग्रहीत करलेवें । इन पदों का अर्थ पांचवें सूत्रसे समझलेवें । परंतु पहले संग्रहीत संम्पातिम, दृप्त, भ्रमर आदि पद का यहां ग्रहण नहीं है ।
'तेसिणं चेहयरुक्खाणं उपि अट्ठट्ठ मंगलया बहवे झया छत्ताइछत्ता' वे चैत्यसमता संपरिक्खत्ता' मे तिसय यावत् नहिवृक्ष जील धली पद्मक्षता भने श्याभसताओथी ચારે તરફ સર્વાત્મના વ્યાપ્ત રહે છે. અહિંયા યાવત્પદથી અશેહલતા, ચમ્પકલતા, ભામ્ર લતા, વનલતા, વાસન્તીલનાનેા સંગ્રહ થયેલ સમજી લેવું.
'ताणे णं पत्रमलयाओ जाव सामलयाओ निच्चं कुठुमियाओ, जाव पडिवाओ' मे પદ્મલતા યાવત્ શ્યામલતા નિત્ય કુસુમિત યાવત્પ્રતિરૂપ વિગેરે વિશેષણાથી વિશેષિત કહેવામાં આવેલ છે, અહિંયાં પહેલાના ચાવત્પદથી નાગલતા, અશાકલતા, ચમ્પટલતા, વાસन्तीसना, गतिभुतसता, तिनीशसता, याअसता, पुन्हसता, या बताओ ग्रह ४रार्ध छे. तेभन जील यावत्पढ्थी 'नित्यं मुकुलिता' विगेरे यही है ? मान सूत्रभां पडेला उडेवा ગયેલ છે, તે અહીંયાં ગ્રહણ કરી લેવાં. આ પદ્માના અથ પાંચમાં સૂત્રથી સમજી લેવા. પરંતુ પહેલાં સંગ્રહ કરાયેલ સંપાતિમ–ન્ટસ ભ્રમર વિગેરે પદો અહીંયાં ગ્રહણુ કરવાના નથી. 'तेसि ंणं चेइयरुक्खाणं उप्पिं अट्ठट्टु मंगलया बहवे झया छत्ताइछत्ता' मे यैत्यवृक्षनी
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२३१ 'तेसि णं चेइय रुवखाणं उप्पि अहटमंगलया वहवे झया छत्ताइच्छत्ता' छाया-तेषां खलु चैत्यवृक्षाणामुपरि अष्टाष्टमङ्गलकानि बवो ध्वजाः छत्रातिच्छत्राणि' इति, व्याख्या छायागम्या, चैत्यवृक्षवर्णनं चैत्यस्तूपवद् बोध्यम् ।
इति चैत्यवृक्षवर्णनम् । अथ महेन्द्रध्वजावसरः-'तेसि णं चेइयरुवखाणं' इत्यादि-तेसि गं' तेषां खलु पूर्वोक्तानां 'चेइयरुक्खाणं पुरओ' चैत्यवृक्षाणां पुरत:-अग्रे 'ताओं' ता:-पूर्वोक्ताः 'मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ' मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ता:, तासां म नमाह-'ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आया. मविक्खंभेणं' ताः खलु मणिपीठिकाः योजनमायामविष्कम्भेण दैय-विस्ताराभ्याम् 'अद्धजोयणं' अर्द्ध योजनम्-योजनस्याई 'वाहल्लेणं' बाहल्येन-पिण्डेन, 'तासि णं उप्पि' तासां मणिपीठिकानामुपरि पत्तेयं२' प्रत्येकम् २ एकस्यामेकस.म् 'महिंद सगा पण्णत्ता' महेन्द्र. ध्वजाः प्रज्ञताः, तेपं मानमाह-'ते णं' इत्यादिना-'ते ते अनन्तरोक्ताः खलु महेन्द्र ध्वजाः 'अट्ठमाइ' अष्टिमानि-सार्द्धसप्त 'जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन-उन्नतत्वेन 'अद्धकोसं' अर्द्धकोशम्-क्रोशस्यार्द्धम् 'उन्वेहेणं' उद्वेधेन-उण्डत्वेन 'अद्धवृक्ष के उपर में आठ, आठ, मंगलक अनेक ध्वजाएं, एवं छत्रातिछत्र कहे हैं।
॥चैत्यवृक्ष का वर्णन समास ।। ____ अब महेन्द्र ध्वज का वर्णन किया जाता है-'तेसिंणं चेइयरुस्खाणं पुरओ' पूर्वोक्त चैत्यवृक्ष के आगे 'ताओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ' वे पूर्वोक्त मणिपीठिकाएं कही है । 'ताभोणं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं' वे पूर्वोक्त मणिपीठिकाएं एक योजन का आयाम विष्कंभ-लंबाइ चोडाइ वाली एवं 'अद्ध जोयणं बाहल्लेणं' आधे योजन की बाहल्यवाली कही है 'तासिंणं उम्पि' वे मणि पीठिका के ऊपर पत्तेयं२,' प्रत्येक के ऊपर 'महिंदज्झया पन्नत्ता' महेन्द्रध्वजाएं कही
गई हैं । तेणं' वे महेन्द्रध्वजाएं अट्ठमाई' साडे सात 'जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' योजन की ऊंची कही है। 'अद्धकोसं उन्हेणं' आधे कोस की उंडाई वाली है । यहां आधा कोस का माप एक सहस्र धनुष जितना लेवें। उसी प्रकार ઉપર આઠ આઠ મંગલક અનેક ધજાઓ તેમજ છત્રાતિછત્રે હેવાનું કહેલ છે.
ચૈત્યવૃક્ષનું વર્ણન સમાપ્ત वे भडन्द्र पन्नु न ४२वामां आवे छ -सिणं चेइयरुक्खाणं पुरओ' मे येत्यवृक्षाला मग 'ताओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओं को पुर्वात भलिपी। उस छे. 'ताओणं मणिपेढियाओ जोयण आयामविक्रवभेणं' से पूर्वात भएपी मानो माम भने विस मे योजना र छे. तमा 'अद्ध जोयण बाहल्लेणं' अर्धा योगन रेट विस्तारवाजी ४९स छ. 'तेसिणं उप्पि' से मणिपनी ५२ पत्तेय रेनी S५२ 'महिंदज्झया पण्णत्ता' भडन्द्र तम्य। उस छ. 'तेणं' से भडन्द्र पन्तमा 'अद्धमाई' साडी सात 'जोयणाई उद्ध उच्चत्तेणं' मर्धा वास 22ी थी. छ. मडीया मर्धा
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जम्बूहीपप्राप्तिसू मोम क्रोमानं च धनुः सहमे वोध्यम्, तदेव च 'याहल्लेणं' वाहरूपेन पिण्डेन, ए मंन्त्र बनानां मानमुक्ता विशेषणमाह-'बइगमयबवण्णओ' बन्नमयवृत्तेति--एतच्छन्दयटि का यो गम् नयाहि 'वडगमयबलमंठियमुसिलिट्ठपरिघट्टममुपहिया अणेगव पंचाग कुटनीनसम्मपरिमंडियाभिरामा वाउद्घयविजयवेजयंती पडागा छत्ताइच्छत्तकलिर गंगा गगणनामभिलंघमाणमिहरा पासाईया जाव पडिख्वा' इति छाया-वन्नमयवृत्तलः
म्यारिष्ट परिपृष्ट मृष्ट सुप्रतिष्ठिताः अनेक वर पञ्चवर्णकुडभीसहस्रपरिमणि नानिगमाः बानोद विजय जयन्ती पताकाच्छनातिच्छत्रकलिताः तुङ्गाः गगनतलमागि का नियमः प्रामादीयाः यावत् प्रतिरूपाः' इति, व्याख्या-बन्नेत्यादि-बज्राण्येव-बर मगधनेन नष्ट गम्थिना:-वृन-चतुलं-मनोहरं संस्थित-संस्थान येपां ते तथा ते मनिया:-बाधारे नाजरीत्या संबद्धाः-संलग्नाः तेच परिघृष्टाः-सम्यक सरशाणया घर्षण प्रामा चे प्रनगन टव-परिघृष्टकल्पाः तेच मृष्टाः कोमलशाणया मार्जन प्राप्ता इय-मा सहमाः ने न मुगनिप्टिता:- मृस्थिरा:-निश्चलाश्चेति तथा, अनेकेत्यादि-अनेकानि या गणि-प्रधानानि पञ्चवर्णानि-कृष्ण-नील-लोहित-हारिद्र-शुक्लवर्णानि कुडभीसहसा
गीनां लापता सहस्राणि तैः परिमण्डिताः-सुशोभिताः अमएवाभिरामा:-मनीबाहरण उनन्त बाहल्य का मान हैं अर्थात् उद्धेध के जितना ही इनका याहल्य है। 'काय न वणओ' वज्रमय वृत्त इत्यादि शब्दचाला उनका वर्णक सत्र का लेवे बन उम प्रकार है-'बहरामय वट्टलह मंठिय सुसिलिट्ठ परिघट मह सुप. उहिया अगंगावरपंचबाणभीमहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउद्घय विजय बननी पटागालचालत्त झलिया, तुंगा, गगणतलमभिलंधमाणसिारा, पासा. मा आव. पदिग' इति चञमय वृत्त-वर्तुलाकार एवं गनोर मरथान वाले म्वाधार संलग्न एवं ग्बग्माण में घिमागया प्रातर-पश्यर के जसे कोमल शा.
गरिकमा एवं गरिधर और निश्चल अनेक जो श्रेष्ठ पांचवर्ण-कृष्णा, नील. लादिग्दि . शन, गले पांचवर्ण के छोटि छोटिपताका से सुशोभित : .....: ५९२ नुन पानु. प्रभा 'वान्ले सेना 6. in . inा र तनु पारस्य 'यहम्गय ययण्णओं' पामय
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् हराः, वातोद्धृतेत्यादि-बातेन-वायुना उद्धृताः-उत्कम्पिता या विजयवैजयन्तीपताका:विजयवैजयन्त्यः-विजयसचिका वैजयन्त्यः पताकाः, पुनरन्याः सामान्याः पताकाच, तथाछत्रातिच्छत्राणि छन्त्रात् सामान्यच्छत्रात् अतिशायीनि च्छत्राणि च एतैः कलिता:-युक्ताः, तुङ्गा:-उन्नताः, अत एव गगनतलम्-आकाशतलम् अभिलजन्यच्छिखरा:-अभिलइयतअतिक्राम्यत् शिखरम्-अग्रभागो येषां ते तथा, प्रासादीयाः यावत्-यावत्पदेन-दर्शनीया, अभिरूपाः, इति पदद्वयं ग्राह्यम् तथा प्रतिरूपाः, एषां व्याख्या प्राग्वत्. एवं महेन्द्रध्वजानां वर्णकः तथा 'वइयावणसंडतिसोवाणतोरणा य भाणियवा' वेदिका-वनषण्ड-त्रिसोपानतोरणाश्च भणितव्याः-वक्तव्याः. तत्र वेदिफा-वनषण्डयोवर्णनं पञ्चम-पष्ठ सूत्राभ्यां बोध्यम् त्रिसोपानवर्णनं राजप्रश्नीयसूत्रस्य द्वादशसूत्राब्दोध्यम् । तोरणवर्णनं चाष्टमसूत्रस्थ विजय. द्वाराधिकाराब्दोध्यम् तत्सूचकसूत्रमेवम्-'तेसि णं महिंद झयाणं पुरओ तिदिसिं तभो' गंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छस्सकोसाइंजोयणाईविक्खंअतएव अभिराम सुंदर वायु से कम्पायमान विजय सूचक पताका, सामान्य छत्र एवं विशेष प्रकार के छत्रसे युक्त उच्च होनेसे आकाश को उल्लंघन करे ऐसा अग्रभागवाले प्रासादीय, यावत् पद से दर्शनीय अभिरूप ये पद गृहीत हुए हैं इन शब्दों का अर्थ प्राक्कथनानुसार समझलें। इसी प्रकार महेन्द्रध्वज का वर्णन करलेवे । तथा 'वेइया वणसंड तिसोवाण तोरणाय भाणियव्वा' वेदिका, वनपंड, एवं त्रिसोपान पंक्ति यहां पर कहलेना उन में वेदिका एवं वनषण्ड का वर्णन पांचवें एवं छठे सूत्रसे समझलेवें
और त्रिसोपान का वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के बारहवें सूत्र से समझलेवे तथा तोरण का वर्णन आठवे सूत्र में विजयद्वार के वर्णनावसरसे समझलेवें । वह वर्णक सूत्र इस प्रकार है-'तेसिंणं महिंदझयाणं पुरओ तिदिसिं तो गंदा पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छ सक्कोसाई जोय. આનંદ આપનાર તેમજ પવનથી કંપાયમાન વિજય સૂચક પતાકા સામાન્ય છત્ર તથા વિશેષ પ્રકારના છત્રથી યુક્ત ઉંચી હોવાથી આકાશનું ઉલ્લંઘન કરે એવા અગ્રભાગવાળી પ્રાસાય, યાવત્પદથી દર્શનીય, અભિરૂપ એ બને પદ ગ્રહણ કરાયા છે. તથા પ્રતિરૂપ આ શબ્દને અર્થ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું. તેમજ એજ રીતે મહેન્દ્ર ધજાઓનું ५ वन ४ . तथा 'वेइया वणसंडतिसोवाण तोरणाय भाणियव्या' ३६४, पन', તેમજ ત્રિપાન પંક્તિનું કથન અહીંયા કરી લેવું. તેમાં વેદિક અને વનખંડનું વર્ણન પાંચમા તથા છઠ્ઠા સૂત્રમાં કરવામાં આવેલ છે જેથી ત્યાંથી સમજી લેવું. તથા ત્રિપાન પંક્તિનું વર્ણન રાજપક્ષીય સૂત્રના બારમા સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું તથા તેનું વર્ણન આઠમાં સૂત્રમાં વિજયદ્વારના વર્ણન પ્રસંગમાંથી સમજી લેવું. તે વક સૂત્રપાઠ આ પ્રમાણે छ-'तेसि णं महिंदझयाण पुरओ तिदिसिंतओ गंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ अद्धतेरसजोयणाई आयामेण छसक्कोसाइं नोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छाओ सहाओ पुक्खरिणी -
ज० ३०
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जम्बूदीपप्रामिसूत्र भेणं दस जोयणाइ उव्वे हेणं अच्छाश्रो सण्हाओ पुखरिणीवणो पत्तेयं २ पउमवरईया परिक्खित्ताओ पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्ताओ वण्ण भो, तथा 'ताणि णं णंदापुक्खरिणीणं पत्तय २ तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं निसोवाणपडिल्यगाणंवण्णमओ तोरण वण्णभो य माणियचो जाय छत्ताइन्छत्ताई' इति, एतच्छायाथों मुगमौ । __ अर्थ सुधर्मा सभयोर्यदरित तदाह-'तासि गं' इत्यादि-तासि णं' तयोः-पूर्वोक्तयोः खलु 'सभाणं सुहम्माणं' सुधर्मयोः सभयोः 'छच्च' पट् पद संख्यकाः 'मणोगुलिया साहस्सीओ' मनोगुलिका साहस्यः-पट सहस्रीमनोगुलिका इत्यर्थः, ताः 'पण्णत्ताओ' प्रजप्ता:णाई विक्खंभेणं दस जोयणाइं उन्हेणं अच्छाओ महाओ पुनरिणी वण्णओ पत्तयं पत्तेयं वणसंड परिकिग्वनामोनामिणं णंदापुनरिणीणं पत्तेयं पत्तेय तिदि सिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता तेसिंणं तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्णओ तोरणवण्णओय भाणियचो जाव छत्ताहच्छत्ताई इति । उम महेन्द्रध्वज के तीन दिशा में तीन नंदापुष्करिणी कही है। वह साडे बारह योजन का आयामवाली एवं एक कोस और छ योजन के विष्कंभ वाली तथा दस योजन की गहराइ वाली कही है। वे अच्छ माने स्वच्छ एवं निर्मल कही है। वे पुष्करिणीका प्रत्येक पद्मवरवेदिका से व्याप्त है। प्रत्येक वनषंड से व्याप्त हैं इत्यादि वर्णन कर लेना उन गंदा पुष्करिणी के आगे प्रत्येक के तीन दिशा में तीन तीन त्रिसो पानप्रतिरूपक कहे हैं उन त्रिसोपान प्रतिरूपक का वर्णन एवं तोरण का वर्णन यहां पर 'जाव छत्ताइछत्ताई' यह पद पर्यन्न कर लेना चाहिए। ___ अब सुधर्मसभा के भीतरी भाग का वर्णन करते हैं-'तेसिणं' उन पूक्ति 'सभाणं सुहम्माण' सुधर्मसभा में 'छच्च मणोलिका साहस्सीओ' छह हजार वण्णओ पतेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताशे तासिणं गंदा पुक्खरिणी गं पत्तेयं पत्तेयं तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसिं गं निसोवाणपडिस्वगाणं वणओ तोरणवण्णओ य भाणियव्वो जाव छत्ताइछत्ताइ इति' से भडन्द्र पनी हिश नहा'४६५ ४९स છે, તે પુષ્કરિણી સાડા બાર યોજન જેટલા આયામવાળી અને એક કેસ અને છ એજન જેટલા વિધ્વંભવાળી તથા દસ એજન જેટલી ઉંડી કહી છે. તે અચ્છ અર્થાત સ્વચ્છ અને નિર્મલ કહેલ છે. એ દરેક પુષ્કરિણીઓ પાવરવેદિકાઓથી વ્યાપ્ત છે. દરેક પુષ્કરિણ વનષડથી વ્યાપ્ત છે. વિગેરે વર્ણન કરી લેવું એ નંદાપુષ્કરિણીની આગળ દરેકની ત્રણ દિશામાં ત્રણ ત્રણ ત્રિપાન પ્રતિપક કહેલ છે એ ત્રિપાન પ્રતિકરૂપકનું વર્ણન તથા तारनु पर्ष माया 'जाव छत्ताइ छत्ताई' से ५६ पयत ४ .
स्व. सुधभसमानी महामासन वन ४२ छ.-तेसिंणं' से पूवात 'सभाण सुहम्माणं' सुधर्म सभामा 'छच्च मणोगुलिया साहस्सीओ' ७ १२ भनालिसा मात
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योवर्णनम् तत्र मनोगुलिकाः-पीठिकाः, 'तं जहा-पुरस्थिमेणे' तद्यथा-पौरस्त्येन-पूर्वस्यां दिशि दो साहस्सीओ' द्वे साहस्त्र्यौ-सहस्र 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ते 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि 'दो साहस्सीओ' द्वे साहस्त्र्यो, 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि 'एगा साहस्सी' एका साहस्री 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि ‘एगा' एका साहस्री, अत्र सर्वत्र स्त्रीलिङ्गपूर्वादि शब्देभ्यः सप्तम्येकवचनान्तेभ्य एनष्प्रत्ययः, 'सर्वनाम्नोवृत्तिमात्रे पुंवद्भाव' इति पुंबद्भावेनापो निवृत्तिः, 'जाव दामा चिटुंतीत्ति' यावद् दामानि तिष्ठन्तीत्यत्र यावस्पदेन 'तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता, तेसिणं सुवण्णरुप्पमएमु फलगेसु वहवे वइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं वइरामएमु नांगदंतेसु बहवे किसुत्त्वग्वारियमल्लदामकलावा जाव सुकिल्लसुत्तवग्धारियमल्लदामकलावा, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा चिट्ठतित्ति, एषां पदानां छायाऽर्थों सुगमौ । सर्वचैतदष्टमसूत्रोक्तविजयद्वारानुसारेण बोध्यम् , 'एवं' एवम्-मनोगुलिकावत् 'गोमाणसियाओ' गोमानसिका:गोमानस्य एव गोमानसिकाः-शय्यारूपाः स्थानविशेषा वक्तव्याः, 'णवरं' नवरं-केवलं 'धूवघडियाओ त्ति' धूपघटिका:-दामस्थाने धूपघटिकावर्णनीयाः, इति मनोगुलिकापेक्षया गोमानसिकावण ने विशेषः, तदतिरिक्तं द्वयोः सर्व समानमेव वर्णनम् । . मनोगुलिका अर्थात् पीठिका कही है-'तं जहा' वह इस प्रकार है 'पुरथिमेणं दो साहस्सीओ' पूर्व दिशा में दो हजार 'पण्णत्ताओ' कही है 'पच्चस्थिमेणं दो साहस्सीओ' पश्चिम में दो हजार (जाव दामा चिटुंतीत्ति) यावत् दामा-पुष्पमालाएं रक्खि हैं यहां पर यावत् शब्द से (तासुणं मनागुलियासुबहवे सुवण्ण रूप्पमया फलगा पण्णत्ता) इत्यादि पाठ जो टीका में लिखा गया है वह समझलेवें सरल होनेसे अर्थ नहीं दिया है सो मूलसे ज्ञात करलें । यह संपूर्ण वर्णन आठवें सूत्र में विजय द्वार के वर्णनानुसार समझलेवें (एवं) पीठिका के जैसा (गोमाणसिया
ओ) गोमानसिका-शय्यारूप स्थान विशेष समझलेवें। (णवरं) केवल (धूवधडियाओत्ति) दाम के स्थान पर धूपदानी कहनी चाहिए, इतना-मनोगुलिकासे गोमानसिका के वर्णन में अन्तर है अन्य सब वर्णन दोनों का समान ही है । पीlin४८ छ. 'तं जहा' ते या प्रमाणे छ. 'पुरथिमेणं दो साहसीओ' पू मां मे ॥२ 'दक्खिणेणं एगा साहस्सी' दक्षिण दिशामा ४ ॥२ 'उत्तरेण एगा' उत्तर हिशाम मे १२ 'जाव दामा चिटुंतित्ति' यावत् पुष्पमालामा समेत छ. माहियां याशिथी 'तासुणं मणोगुलियासु वहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता' विगैरे ५४२ टीम લખવામાં આવેલ છે. તે સર્વ પાઠ અહીયાં સમજી લે. સરલ હેવાથી તેને અર્થ આપેલ નથી. આ સંપૂર્ણ વન આઠમાં સૂત્રમાં વિજય દ્વારના વર્ણન અનુસાર સમજી લેવું. तथा पी४िी म 'गोमाणसियाओ गोमानसि। श५। ३५ स्थान विशेष समय : 'णवरं' पण 'धूवघडियाओत्ति'हामना स्थान पर धूपहानी वीनों मेट । मतर મને ગુલિકાના વર્ણનથી ગમાનસિકાના વર્ણનમાં છે. બીજું બધુ વર્ણન બનેનું સરખું જ છે.
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे ___ अथ सुधर्मयोरेव भूमिभागवर्णकमाह-'तासि णं' इत्यादि-'तासि णं मुहम्माणं अंती' तयोः खलु सुधर्मयोः समयोः अन्त:-मध्ये, 'बहुसमरमणिज्जे' वहुसमरमणीयः-अत्यन्तसमा-अत्यन्तसमतल अतएव रमणीयः-सुन्दरः 'भूमिभागे पण्णते' भूमिभागः प्रज्ञप्तः, भूमिमागवर्णनमाटरसूत्रोक्तविजयद्वारवबोध्यम् , अत्र मणीनां वर्णादयो वर्णनीयाः, उल्लोकाः पालतादयोऽपि च चित्ररूपा ऊहनीयाः, अत्र विशेषतो वक्तव्यं व्यनक्ति-'मणिपेडिया' इत्यादि-अनयोः सुधर्मयोः समयोर्मध्यभागे 'मणिपेढिया' मणिपीठिका-मणिमयीपीठिकाआसनविशेषः, प्रत्येकं वक्तव्या, अम्या मानमाह-दो जोयणाई' द्वे योजने 'आयामविक्खं. भेणं' आयामविष्कम्भेण-दैय-विस्ताराभ्याम् , 'जोयगं' योजनम् -एक योजनं 'वाहल्लेणं' बाहल्येन-पिण्ढेन, प्रज्ञप्तेति सम्बन्धः, 'तासि णं मणिपेढियाणं उम्पि' तयोः खलु मणिपीठिकयोः ऊपरि-ऊर्ये प्रत्येकं 'माणवए' माणवके-माणवकनामके 'चेइयखंभे चैत्यस्तम्भे 'महिंदज्झयप्पमाणे' महेन्द्रध्वजप्रमाणे-महेन्द्रध्वजसमाने प्रमाणतोऽर्धाष्टमयोजनप्रमाणे
अब सुधर्मसभाके भूमिभागका वर्णन करते हैं-(तासिंणं सुहम्माणं सभाणं अंतो) वे सुधर्मसभा के मध्य में (बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) अत्यन्त समतल युक्त होने से रमणीय भूमिभाग कहा है। यहां भूमिभागका वर्णन आठवें सन में विजयद्वार के जैसा समझलेवें। यहां मणियों के वर्णादि का वर्णन भी करलेवें एवं उल्लोक पद्मलतादि का वर्णन भी चित्ररूपसे कहलेना । यहां पर विशेषवक्तव्य इस प्रकार है-ये सुधर्मसभा के मध्यभागमें 'मणिपेढिया' मणि मय आसनविशेष प्रत्येक में कहने चाहिए (दो जोयणाई आयामविग्वंभेणं) दो योजन की लंबाई चोडाई है। (जोयण बाहल्लेणं) एक योजन की मोटी है। (तासिणं मणिपेढियाणं उप्पि) उन मणिपीढिका के ऊपर (माणवए चेइयखंभे) माणवकनामक चैत्यस्तम्भ (महिंदज्झयप्पमाणे) महेन्द्रध्वज के समान प्रमाण वाला अर्थात् साडे सात योजन प्रमाण इत्यादि महेन्द्रध्वज के वर्णन सरीखा
वे सुधर्मः समाना भूभिलागनु पनि ४२वामा मात्र छ.-'तेसिणं सुहम्माणं सभाणं अंतो', ये सुधर्मसमानी मध्यभा 'बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्त' अत्यन्त समता युत હેવાથી રમણીય ભૂમિભાગ કહેલ છે. અહીંયાં ભૂમિ ભાગનું વર્ણન આઠમાં સૂત્રમાં વિજયદ્વારના વર્ણન પ્રમાણે સમજી લેવું અહિંયાં મણિના વર્ણાદિનું વર્ણન પણ કરી લેવું તથા ઉલ્લેક પઘલતા વિગેરેનું વર્ણન પણ કહી લેવું અહીંયાં વિશેષ વક્તવ્ય આ प्रभाये . ये सुधर्मसमान मध्य भागमा 'मणिपेढिया' भलिमय भासन विशेष ४२४भा
वा मे 'दो जोयणाई आयामविक्खंभेण" में योजना 5 पडेगा 381 छ. 'जोयणं वाहल्लेण' ४ योनिरसी मोटी छ. 'तासिणं मणिपेढियाणं उप्पि' से भीlaltी 6५२ 'मणवए चेयखंभे भाव नामना येत्य स्तम 'माहिंदज्मચપના મહેન્દ્ર બ્રિજના સરખા પ્રમ'ણવાળ અર્થાત્ સાડા સાત જન જેટલા પ્રમાણે
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम्
२३७ वर्णकतो महेन्द्रध्वजवत् 'उवरि उपरि 'छक्कोसे ओगाहित्ता' पटक्रोशान् अवगाह्य-प्रविश्य उपरितनान् पट् क्रोशान वजित्वा विहाय 'हेट्टा' अध:-अधस्तादपि 'छक्कोसे वज्जित्ता' पट् क्रोशान वजित्वा मध्येऽर्धपश्चमेषु योजनेषु इति गम्यम् , 'जिणसकहाओ' मिनसक्थीनिजिनकीकसानि 'पण्णताओत्ति' प्रज्ञप्तानि इति, इह जिनसक्थिग्रहणे व्यन्तरजातीयानां देवानां नाधिकारो स्ति, किन्तु सौधर्मेशानचमरबलीन्द्राणामेव तदग्रहणेऽधिकारोऽस्तीति जिनसक्थीनि-जिनदंष्ट्रारूप सम्धीनि तत्र निक्षिप्तानि प्रज्ञतानीति बोध्यम् , अवशिष्टो वर्णकश्च जीवाभिगससूत्रोक्तो बोध्यः स चैवम्_ 'तस्स एं। माणवगचेइयल्स खंभस्स उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेवा वि छकोसे वजित्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एत्थ णं वहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णता तेसुणं बहवे वइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं बहवे रययामया सिकगा पण्णत्ता, तेलु णं बहवे वइरामया गोळयट्टस मुग्गया पण्णत्ता, तेसु णं वहवे जिणसकाहाओ सण्णि. क्खित्ताओ चिटंति, जाओ णं जमगाणं देवाणं अन्ने सिं च वहणं याणमंतराणं देवाण य (उवार छक्कोसे ओगाहित्ता) ऊपर के भाग में छ कोस जाने पर अर्थात् ऊपरका छ कोस के छोडकर एवं (हेहा छ कोसे वजित्ता) नीचेसेभी छह कोस वर्जित कर मध्य के साडे चार योजन में (जिण सकहाओ) जिन के सक्थी-हड्डी (पण्णत्ताओ) कहें हैं यहां पर जिन सक्यी कहनेसे व्यन्तर जाती के देव का अधिकार नही है, किन्तु-सौधर्म, ईशान, चमर एवं बलीन्द्रका ही अधिकार आजाता है अतः 'जिन सक्थी' कहने से जिनकी दाढ रूपी हड्डी वहां रखी हुई है ऐसा समझ लेवें । शेष वर्णन जीवाभिगम में कहे अनुसार समझ लेवें । वहां वह वर्णन इस प्रकार हैं-'तस्स णं माणवगचेइयस्स खंभस्म उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता' हेट्टावि छ कोसे वज्जित्ता, मज्झे अद्ध पंचमेलु जोयणेसु एत्थ गं बहवे सुवष्णरुप्पमया फलगा पणत्ता, तेसुगबहवे वइरामया शागदंतगा पण्णत्ता, तेसुणं बहवे वइरामया गोलयवसमुग्गया पण्णत्ता, तेसुणं बहवे जिण सकहाओ सण्णिक्खित्ताओ चिट्ठति, पाणे विशेष महन्द्रपान न प्रभारी समायु 'उवर छक्कोसे ओगाहित्ता' पानी त२६ छ ।स पाथी अर्थात ५२ना ७ सिने छीन एवं हेढा छक्कोसे वज्जित्ता' नायना छ आस छोडीन या सा भार यानभा 'जिणसकहाओ' साथ (8138) 'पण्णत्ताओ' डा छ | यो सहि उपाथी व्य-1२ तिना हेवन ग४ि२ नथी પરંતુ ઈશાન સૌધર્મ ચમર અને બલીનેજ અધિકાર આવી જાય છે. તેથી જીનસકિથ કહેવાથી જીનની દાઢ રૂપ હાડકું ત્યાં રાખેલ છે તેમ સમજી લેવું. ત્યાં એ વર્ણન આ प्रमाणे छ.-'तस्सणं माणवगचेइयरस खंभस्स उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेदा वि, छक्कोसेवज्जित्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एस्थणं बहवे सुवण्णरुपरमया प.लगा पण्णत्ता तेसु णं बहवे वइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं बहवे रययामया सिक्कगा पण्णत्ता तेसु ण बहवे जिणसकहाओ सण्णिक्खित्ताओ चिटुंति जाओ णं जमगाणं देवाणं अन्नेसिंच बहूणं बाणमतराणं देवाण य
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे देवीण य अञ्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूणिज्जामो सकारणिज्जाओ सम्माणगिज्जाभो कल्लाणं मंगलं देवयं चेडयं पज्जुवासणिज्जाओ' इति, एतच्छाया-तस्य खलु माणवकचैत्यस्य स्तम्भस्य उपरि पट् क्रोशानवगाह्य अधोऽपि पदक्रोशान् वर्जयित्वा मध्ये अईपञ्चमेषु योजनेषु अत्र खलु वहूनि सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि प्रज्ञशानि, तेषु खलु बहवो वनमया नागदन्तकाः प्रज्ञप्ताः, तेपु खलु वहनि रजतमयानि शिक्यकानि प्रज्ञप्तानि, तेपु खलु बहवो पत्रमया गोलकवृत्तसमुद्गकाः प्रज्ञप्ताः, तेषु खलु वहनि जिनसक्थीनि सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, यानि खलु यमकयोदेवयोः अन्येषां च कहनां वानमन्तराणां (व्य. न्तराणां) देवानां च देवीनां च अर्चनीयानि वन्दनीयानि पूजनीयानि सत्करणीयानि सम्माननीयानि कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पयुपासनीयानि इति,
एस.व्याख्या छायागम्या, नवरम्-गोलकवृत्तसामुद्गका:-गोलक:-वर्तुलोपलस्तद्वद्वृत्त :-"तुलाः सद्का:-समुद्गाः सुगन्धिद्रव्यविशेपसम्पुटकाः, त एव समुद्गमाः, अर्चनीयानि-चन्दनादिना, वन्दनीयानि-स्तुत्यादिना, पूजनीयानि-पुष्पादिना, सत्करणीयानिवस्त्रादिन , सम्माननीयानि बहुमानकरणात् , कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति पर्युपासनीयानि-सेवनीयानीति, एनदाशातनामयेनैव तत्र देवा युवतिभिर्देवीभिः सम्भोगादिकं नाचजाओणं जमगाणं देवाणं अन्नेसिं च बहूर्ण बाणमंतराणं देवाण य देवीणव अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूणिज्जाओ सकारणिज्जाओ सम्माणणिजाओ' इति. __ वह माणवक चैत्य स्तंभ के ऊपर के छ कोस तथा नीचे के छ कोस को वजित कर मध्य के साडे चार योजन पर अनेक सुवर्णरूप्य मय फलक कहे हैं उसमें अनेक वज्रमय खीले कहें हैं उसमें अनेक रजतमय शिके कहे हैं। उसमें अनेक गोल वर्जल सगुद्गक-सुगन्धि द्रव्य विशेष के सम्पुट कहे हैं । उसमें अनेक जिनसक्थि-जिनकी हड्डियां रखी हुई है जो यमक देव के एवं अन्य अनेक वानव्यन्तर जाति के देव एवं देवियों के अर्चनीय, वंदनीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय, कल्याणस्वरूप, मङ्गलस्वरूप, देवतस्वरूप उपासनीय कही है। इनकी आशातना के भयसे ही वहां देव देवि के साथ सम्भोगादि का आचरण नहीं करते। मित्ररूप देवादि हास्य क्रीडादि भी नहीं करते। देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ, पूयणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ सक्कारणिज्जाको इति' मे માવક ચેત્યસ્તંભની ઉ રના છ કેસ તથા નીચેના છ કેસને છોડીને વચલા સાડા ચાર
જન પર અનેક સુવર્ણ રૂપ્યમય ફલકે–પટિયા કહ્યા છે. તેમાં અનેક વજમય ખીલાઓ કહેલ છે, તેમાં અનેક રજતમય શીકાઓ કહેલ છે. તેમાં અનેક ગોળ વર્તુલ સમુદ્ગકસુગન્ધિ દ્રવ્ય વિશેષના સંપુટે કહેલ છે, તેમાં અનેક જીનસકિથ-જનના હાડકાઓ રાખેલ છે. જે યમક દેવના તેમજ બીજા અનેક વાનવ્યન્તર જાતના દેવ તથા દેવિના અર્ચનીય વંદનીય, પૂજનીય, મંગલસ્વરૂપ, દેવતસ્વરૂપ ઉપાસનીય કહેલ છે. તેમની આશાતના થવાના ભયથી જ ત્યાં દેવે દેવિયેની સાથે સંભેગાદિનું આચરણ કરતા નથી મિત્રરૂપ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् रन्ति, नापि मित्रभूतैर्देवादिहस्यिक्रीडादि । 'माणवगस्स' इत्यादि-'माणवगस्स' माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य 'पुव्वेणं' पूर्वेण-पूर्वस्यां दिशि सुधर्मयोः 'सीहासणा सपरिवारा' सिंहासने सपरिवारे-भद्रासनपरिवारसहिते स्तः, 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि 'सयणिज्जवण्गो' शयनीयवर्णका-शयनीयेस्त: तयोर्वर्णको वक्तव्यः, स च श्रीदेवीवर्णनाधिकारतो ग्राह्यः, तयोः 'सयणिज्जाणं उत्तरपुरस्थिमे' शयनीययोः उत्तरपौरस्त्ये-ईशानकोणे 'दिसीभाए' दिग्भागे 'खुड्डगमहिंदज्झया' क्षुद्रकमहेन्द्रध्वजौ स्तः, तौ च मानतो महेन्द्रध्वजप्रमाणौ, सार्द्धसप्तयोजनप्रमाणावूर्वमुच्चत्वेन .र्द्धकोशमुद्वेधेन वाहल्यत इत्यर्थः ।
नु यदीनौ मानतो महेन्द्रध्वजप्रमाणावुक्तौ तदा तत्तुल्यतायाः सूपपादत्वात् क्षुद्रत्व. विशेषेणं तत्र न किञ्चिदुपकारकम्-इति चेत् सत्यम्, अब मणिपीठिकाविहीनत्वेन क्षुद्रत्वं
'माणवगस पुव्वेणं' माणवक चैत्यस्तम्भ की पूर्व दिशा सुधर्म सभा में 'सीहासणा सपरिवारा' परिवार सहित भद्रासनादि परिवार युक्त सिहासन कहे हैं। 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिमदिशा में 'सयणिज्ज वण्णओ' शयनीय-शय्या स्थान हैं उसका वर्णन यहां करलेना चाहिए। वह वर्णन देवी के वर्णनाधिकार से समझ लेवें । 'सपणिज्जाणं उत्तरपुरथिमे दिसीभाए' शयनीय के ईशान कोण में 'खुदगमहिं दज्झया' दो क्षुद्रक-छोटा महेन्द्रध्वज कहा है। उन दोनों का मान महेन्द्रध्वज के समान हैं अर्थात् साडे सात योजन प्रमाण ऊंचे, आधा कोस का उद्वेध बाहल्यवाले है
शंका-यदि ये दोनों महेन्द्रध्वज के समान है तो महेन्द्रध्वज के तुल्य कहना चाहिए अतः यहां 'क्षुद्र यह विशेषण की क्या आवश्यकता है ? ___ उत्तर-यहां पर मणिपीठिका रहित होनेसे क्षुद्रत्व है प्रमाणसे क्षुद्र नहीं है। इससे ऐसा समझें की दो योजन की पीठिका के ऊपर रहनेसे पूर्वका महेन्द्रध्वज हेपा हास्य ३५ ४ी विगैरे ५ ४२ता नथी, 'माणवगरस पुट्वेणं' मा यै यस्तानी
हिशामे सुधम समामा 'मीहासणा सपरिवारा' परिवार सहित मद्रासना परिवार साथ सिहासनासा छ. 'पच्चत्यिमेणं पश्चिम दिशामा 'सयणिज्जवण्णओ' शव्याथान छ. मडीयां तेनु न श देने से पनीना वर्णन पि४२थी : 'सयणिनाणं उत्तरपुरस्थिमे दिसीमाए' शयनीयन शान म 'खुड्डगम हिंदज्झया' में क्षुद्रનાના મહેન્દ્રધ્વજ કહેલ છે. એ બન્નેનું માપ મહેન્દ્રવિજની સરખું છે. અર્થાત્ સાડા સાત જન પ્રમાણ ઉંચા અર્ધા કેસ જેટલા ઉધ–બાહલ્યવાળા છે.
શંકા–જે એ બેઉ મહેન્દ્રવજ સરખા છે તે તેને મહેન્દ્રધ્વજ સરખા કહેવા જોઈએ. તેથી અહિયાં શુદ્ર એ વિશેષણની શી આવશ્યક્તા છે?
ઉત્તર- અહીંયાં મણિપીઠિકા રહિત હોવાથી શુદ્ધત્વ છે. પ્રમ ણથી શુદ્ધત્વ નથી, તેથી એવું સમજવું કે બે એજનની પીઠિકાની ઉપર રહેવાથી પહેલાને મહેન્દ્રધ્વજ મહાન
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जम्बूदीपप्रतिसूत्रे
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न तु प्रमाणविहीनत्वेन ततथेदं पर्यवसितम् द्वि योजनत्रमाणमणिपीठिकोपरिस्थितत्वेन पूर्वे महान्तो महेन्द्रध्वजास्तदपेक्षया महेन्द्रध्वजाविमौ क्षुद्राविति एतदाह 'मणिपेढिया विहणा महिंदञ्झ पप्पमाणा' मणिपीठिका विहीनौ महेन्द्रध्वजप्रमाणौ इति, 'तेसिं' तयोः क्षुद्रमहेन्द्र ध्वजयोः एकैक राजधानीवर्तिन्यो, 'अवरेणं' अपरेण - अपरस्यां पश्चिमायां दिशि 'चोप्फाला' चोप्पालौ - तन्नामको 'पहरणकोसा' प्रहरणकोशौ - प्रहरणानि -- आयुधानि तेषां कोशौभाण्डागारे, प्रज्ञप्तौ, 'तत्थ णं' तत्र - तयोः प्रहरणकोशयोः खलु 'वहवे' बहूनि 'फलिहरयणपामुक्खा' परिवरत्नप्रमुखाणि - परिघरत्नादीनि 'जाव' यावत् - यावत्पदेन - प्रहरणरत्नानि सनिक्षिप्तानि इति ग्राह्यम् तानि 'चिति' तिष्ठन्ति - सन्ति । 'सुहम्माणं उप्पि' इत्यादि - तयोर्द्वयोः 'सुहम्माणं' सुधर्मः सभयोः 'उप' उपरि- ऊर्ध्वभागे 'अट्टमंगलगा' अष्ट (ष्टमङ्गलकानि - स्वस्तिक १ श्रीवत्स २ नन्दिकावर्त ३ वर्द्धमानक४ भद्रासन५ कलग६ मत्स्य७ दर्पण८ 'भेदादष्टमङ्गलानि प्रज्ञप्तानि इत्यारभ्य बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरत्नमयाः इत्यादि तद्वर्णनमिह बोध्यम् । तच्च राजप्रश्नीयसूत्रस्य चतुर्दशसूत्रात् संग्राह्यम् । सुधर्मसभातः परं महान है, उस अपेक्षा से ये दोनों क्षुद्र कहना चाहिए। वही सूत्रकार कहते हैं 'मणिपेढया विणा महिंदज्झयप्यमाणा' मणिपीठिका रहित एवं महेंन्द्र बज के प्रमाण से युक्त है 'तेसिं' उन राजधानी के क्षुद्रमहेन्द्र वज 'अवरेणं' पश्चि मदिशा में 'चोष्फाला' चोप्फाल नामके 'पहरण कोसा' आयुध के कोष -भंडार कहा है । 'तत्थ णं' उस प्रहरण कोष में 'चहवे' फलिहरयणपामुकवा' परिध आदि 'जाव' यावत् प्रहरण रत्न आदि 'चिति' रक्खे हुए हैं !
'सुह्माणं उप्पि' उन सुधर्मसभा के ऊपर 'अड्ड मंगलगा' आठ आठ मंगल द्रव्य जो इस प्रकार है - स्वस्तिक १, श्रीवत्स २, नंदिकावर्त ३, वर्धमानक ४, भद्रासन ५, कला ६, मत्स्य ७, दर्पण ८, रक्खे हैं तथाच अनेक सहस्र पत्र हाथ मैं धारण किए, सर्व रत्नमय इत्यादि उसका सब वर्णन यहां पर समझलेवें । वह वर्णन राजप्रनीय सूत्र के १४ चौदहवें सूत्र से ज्ञात कर लेवें ।
छे. गे गपेक्षाये या मन्नेने क्षुद्र हेवा हाये ये सूत्रा२ ४ छे - 'मणिरेढिया विणा महिंदझयापमाणा' भडियी विनाना भने महेन्द्रध्वनना प्रभाणुथी युक्त छे. 'तेसिं'' मे श्रे४ मे राज्धानीना क्षुद्र महेन्द्रध्व 'अवरेणं' पश्चिम दिशाभां 'चो फाला' थोडास नाभना 'पहरणकोसा' आयुध अप-लडअर डेस छे, 'तत्थणं' ये अभी 'बहवे फलिहरयणपामोक्खा' परिध रत्न विगेरे 'जाव' यावत् अहरण विगेरे 'चिट्ठति' रामेस छे. ‘सुहम्माणं उनि” ये सुधर्भसलानी उपर 'अट्ठट्ठ मंगलगा' या था भगत द्रव्य छे જે આ પ્રમાણે છે.—સ્વસ્તિક ૧ શ્રીવત્સ ૨ નાદિકાવત ૩ વર્ધમાનક ૪ ભદ્રાસન ૫ કાશ ૬ મત્સ્ય છ દર્પણુ ૮ રાખેલ છે. તથા અનેક સહસ્ર પુત્ર હાથમાં ધારણ કરેલ, સ' રત્નમય વિગેરે તેનું તમામ વર્ષોંન રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના ૧૪માં સુત્રમાંથી સમજી લેવુ,
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम्
२५१ किमस्तीत्याह- तासि णं' इत्यादि-'तासि णं' तयोः सुधर्मयोः खलु 'उत्तरपुरस्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन-उत्तरपूर्वस्याम्-ईशानकोणे विदिशि 'सिद्धाययणा' सिद्धायतने-द्वे प्रज्ञप्ते, प्रतिसभमेकैकसभावात् , अत्र लाघवार्थसतिदेशमाह-'एस चेव' इत्यादि-'एस चेव' एष एव-गुधर्मासभोक्त एव 'गमोत्ति' गमः-पाठ: 'जिणधराण वि' जिनगृहाणामपि-वोध्या, स च गम एवम्-'ते णं सिद्धाययणा अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं छस्सकोसाई विक्खंभेणं णव जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसणिविटा' इत्यादि, एतच्छाया-ते खलु सिद्धायतने अर्द्धत्रयोदशयोजनानि आयामेन पटू सक्रोशानि विष्कम्भेण नव योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टे' एतद्व्याख्या स्पष्टा, यथा सुधर्मसभया पूर्वदक्षिणोत्तरदिग्वती नि त्रीणि द्वाराणि सन्ति, तेपां च पुरतो मुखमण्डपाः, तेषां च पुरतः प्रेक्षामण्डपा:, तेषां च पुरतः स्तूपाः, तेषां च पुरतश्चैत्यवृक्षाः, तेषां च पुरतो महेन्द्रध्वजाः, तेषां च पुरतो
सुधर्मसभा में और क्या है सो कहते हैं 'तेसि णं' उन सुधर्म सभा के 'उत्तरपुरथिमेणं' ईशान कोण में 'सिद्धाययणणा' दो सिद्धायतन कहे हैं। प्रत्येक सभा में एक एक होने से दो कहे हैं 'एसचेव गमोत्ति' यही सुधर्मसभोक्त सब पाठ 'जिनघराण वि' जिनग्रह का भी कहना चाहिए । वह पाठ इस प्रकार है-'तेणं सिद्धाययणा अद्धतेरस जोयणाई' आयामेणं छस्स कोसाइं विक्खंभेणं णव जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसन्निविट्ठा' वे सिद्धायतन साडे बार हजार योजन के आयामवाले हैं। एक कोस के सहित छ योजन के विष्कंभवाले हैं। नव योजन के ऊंचे हैं । अनेक सेंकडों स्तम्भी से युक्त कहे हैं।
जिस प्रकार सुधर्मसभा के पूर्व, दक्षिण एवं उत्तर दिशा में तीन दरवाजे उनके आगे मुखमंडप, उनके आगे प्रेक्षामंडप उनके आगे स्तूप, उनके आगे चैत्यवृक्ष, उनके आगे महेन्द्र ध्वज, उनके आगे नंदा पुष्करिणी कही है तदनन्तर सभामें-छहजार मनोगुलिका छह हजार गोमानसी कही है उसी प्रकार यहां
सुधर्म समामा भानु शुछ १ को पात ४ छ. 'तेसिणं' से सुधम ससाना उत्तर पुरत्यिमेण' शान शुभां सिद्धाययणा' में सिद्धायतन सा छे. 'एस चेव गमोत्ति' मे सुधम सलाम सघणे ५४ जिनघराण वि' न खन। ५] ४ी वन ते ५४ मा प्रमाणे सर छे. 'तेण सिद्धाययणा अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छत्सकोसाई विक्खंभेणं णवजोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसन्निविट्ठा' ' सिद्धायतन साडा मार
જનના આયામવાળું છે. એક કેસ અને છ જનના વિર્કવાળું છે, નવ જન ઉંચુ છે. અનેક સેંકડે સ્તંભેથી યુક્ત છે. જે રીતે ધર્મસભાના પૂર્વ, દક્ષિણ, અને ઉત્તર દિશામાં ત્રણ દરવાજાઓ છે. તેની આગળ મુખ મંડપ તેની આગળ પ્રક્ષા મંડપ તેની આગળ તૂપ તેની આગળ ચૈત્ય વૃક્ષ તેની આગળ મહેન્દ્રવજ તેની આગળ નંદા પુષ્કરિણું કહેલ છે. તે પછી સભામાં છ હજાર મને શુલિકા છ હજાર ગમાનસી કહેલ છે,
ज० ३१
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जम्बूद्धीपतिसूत्रे
नृन्दापुष्करिण्य उक्ताः, तदनन्तरं समायां पद्मनोगुलिकासहस्राणि पट् च गोमानसोसहस्राणि staforava forयेऽपि सर्व वक्तव्यमिति भावः । अत्र च सुधर्मासभातो यो विशे पस्तमाह- 'णवरं' इत्यादि - 'णवरं' नवरं केवलम् 'इम' इदम् एतत् 'णाणत्तं' नानात्वम् - अनेकलम् - भेद इति भावः सुधर्मासभा पेक्षयेतिशेषः 'एसिणं' एतेषां - जिनगृहाणांसह 'बहुमज्झदेलभाए' बहुमध्यदेश भागे - अत्यन्तमध्यदेश मागे 'पत्तेयं२' प्रत्येक २ एक स्मिन् जिन गृहे 'मणिपेढयाओ' मणिपीठिका:- मणिमयासनविशेषाः प्रज्ञप्ताः, ताथ मणिपीठिका: प्रमाणतः 'दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं' द्वे योजने आयाम-विष्कम्भेण- दैर्घ्यविस्ताराभ्याम्, 'जोयण बाहल्लेणं' योजनं बाहल्येन - पिण्डेन, 'तासि' तासां मणिपीठिकानाम् 'उपि' उपरि- ऊर्ध्वभागे 'पत्तेयं २' प्रत्येकंर 'देवच्छंद्गा' देवच्छन्द के - जिनदेवास ने 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ते, तन्मानमाह - 'दो जोयणाड़' आयामविवखभेणं' द्वे योजने आयामविष्कम्भेण 'साइरेगाइ' सातिरेके - किञ्चिदधिके 'दो जोयणाई' द्वे योजने 'उद्धं उच्चतेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, ते च देवच्छन्दके 'सव्वरयणामया' सर्वरत्नमये - सर्वात्मना रत्नमये, 'जिणपडिमा ' जिनप्रतिमा जिनगृह में भी यह सब वर्णित कर लेवें ।
यहां पर सुधर्मसभा से जो विशेष वक्तव्यता है वह कहा जाता है-'णवरं इमं णाणत्तं' केवल यही यहाँ पर सुधर्मसभा से भिन्नता है 'एएसिणं' इन जिन गृहों के 'बहुमज्झदेसभा ए' ठीक मध्यभाग मैं 'पत्तेयं पत्तेय' एक एक गृह में 'मणिपेढियाओ' मणिमय आसन विशेष कहे हैं । उन मणिपीठिका का प्रमाण इस प्रकार कहा है- 'दो जोयणाई आयाम विक्भेणं' उनका विस्तार 'दो योजन hi कहा है अर्थात उनकी लंबाई चौडाइ दो योजन की कही है। 'जोयणं वाहलेणं' उनका बाहल्य एक योजन का कहा है । 'तासिं' उन मणिपीठिका के 'उप' ऊपर के भाग में 'पत्तेयं पत्तेय' प्रत्येक में 'देवच्छंद्गा' जिनदेव का आसन 'पण्णत्ता' कहा है 'दो जोयणाई आयाम विकखंभेणं' वे आसन की लंबाई चोडाइ दो योजन की कही है । 'साइरेगाई' कुछ अधिक 'दो जोयणाई उद्धं उच्चએજ પ્રમાણે અહીં જીનગૃહમાં પણ એ તમામનુ વર્ણન કરી લેવું.
मडीयां सुधर्भसलाना वर्षाथी ने विशेष वक्तव्य छे, ते अहेवामां आवे छे.- 'णवरं इमं णाणत्तं' मडियां ठेवण सुधर्भसलाथी भेटसी ४ भिन्नता छे. 'एएसिणं' से थहानी 'बहुमज्यसभाए' भरोभर भूध्य भागभां 'पत्ते पत्तेय' ४ ४ गृडभां 'मणि વૈઢિયાળો' મણિમય આસન વિશેષ કહેલા છે. એ મણિપીઠિકાનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે હેલ छे. 'दो जोयणाई' आयाम विक्खभेण तेनेा विस्तार मे योजन। महेस छे. अर्थात् तेनी सभाई यहाजार्ध मे योजननी आहेस छे. 'जोयणं बाहल्लेण तेनु मास्य मे येोन्नतु अडेस छे. 'तासि' को भडिपीठाना 'उप्प' उपरदा लागभां पत्तेय पत्यं' ४२४भां 'देव च्छंद्गा' न हेवना मासन 'पण्णत्ता' म्हेल छे. 'दो जोयणाई आयाम विक्ख भेणं' मासननी संध्या पहाणार्ध मे योजननी आहेस छे. 'साइरेगाइ' ४६४ १धारे 'दो जोयणाई'
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधात्योर्वर्णनम् . वक्तव्या तस्याश्च 'वष्णो ' वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहश्च वक्तव्यः, किम्पर्यन्तः ? इत्याह-जाव धूवकडच्छुगा' यावद् धूपकटुच्छुका-अष्टसहस्रसौवर्णकलशादितत्प्रमाणधूपकटुच्छुकापर्यन्तोवर्णेको राजप्रश्नीयसूत्रस्य सप्ताशीतितमसूत्रादवसेयः।
। अथ सुधर्मासभोक्तमेव सभाचतुष्टयेऽतिदिशनाह-'एवं अवसेसाण वि सभाणं' इत्यादि "एवं' एवम्-सुधर्मासभावत् 'अवसेसाणवि' अवशेषाणां-सुधर्मासभाऽतिरिक्तानाम् उपपातादि सभानाम् वर्णनं प्राकथितानुसारेणवोध्यम् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव उववायसभाएं यावत् उपपातसभायाम्-उत्पित्सु देवोत्पत्युपलक्षितसभायां 'सयणिज्ज' शयनीयं गृहकं चाभिव्याप्य वर्णनीयम् तथा 'हरोय' ह्रदश्च नन्दापुष्करिणी प्रमाणो वक्तव्यः, सचोत्पन्नदेवस्य शुचित्व-जलक्रीडाधर्थः, 'अभिसेयसभाए' ततोऽभिषेकसभायाम्-अभिनवोत्पन्नदेवाभिषेक त्तेणं' दो योजन के ऊंचे हैं। वे आसन 'सव्वरयणामया' सर्वात्मना रत्नमय कहे है 'जिणपडिमा' यहां जिन प्रतिमा कही है 'वण्णओ' इसका वर्णन कहलेना वह कहांतक कहे इसके लिए कहते है 'जाव धूवकडच्छुया' यावत् धूप कडुच्छक पर्यन्त कहे अर्थातू आठ हजार सुवर्ण कलशादि उनके प्रमाण जितनी धूपदानी कही है यह कथन पर्यन्त वर्णन समझलेवें । यह वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के ८७ सतासीवें सूत्र में कहे अनुसार समझलेवें।
अब सुधर्मसभा में जो चार सभा कही है उसका वर्णन किया जाता हैएवं' सुधर्मसभा के कथनानुसार 'अवसेसाणं वि' सुधर्मसभासे अतिरिक्त उपपातादि सभाका वर्णन भी समझलेवें वह वर्णन 'जाव उववायसभाए' यावत् उपपात सभा देवोत्पत्युपलक्षित सभामें 'सयणिज्ज' शयनीय गृह पर्यन्त यह वर्णन कह लेना तथा 'हरओय' नन्दा पुष्करिणी प्रमाण हृद्का वर्णन कहे वह वहां उत्पन्न देव के जल क्रीडार्थ है 'अभिसेगसभाए' तदनन्तर अभिषेक सभा में उद्ध उच्चत्तेणं' मे. योगनरेट या छ. मे मास 'सव्वरयणामया' सामना न भय ४९सा छे. 'जिणपडिमा' महीन प्रतिमा ४डस . 'वण्णओ' तेनु न श
ते पणुन ४यां सुधार्नु ४२ ते भाटे सूत्रा२ ४ छ. 'जाव धूवकडुच्छया' यावत् ધૂપ કચ્છક પર્યન્ત તે વર્ણન કહેવું. અર્થાત્ આઠ હજાર સુવર્ણ કળશાદિ તેના પ્રમાણ જેટલી ધૂપદાની કહેલ છે. આ કથન પર્યન્ત વર્ણન સમજી લેવું. આ વર્ણન રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના ૮૭ સત્યાશીમાં સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું.
હવે સુધર્મસભામાં જે ચાર સભા કહેલ છે. તેનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. ‘एवं' सुधम समान ४थन प्रमाणे 'अवसेसाण वि' सुधर्मसमाथी अन्य पाता समानु न प सभल . थे. वन 'जाव उववायसभाएं यावत् ५पासमा वोत्पत्युपतक्षित समाभा 'सयणिज्ज' शयनीय पंयन्त मा वर्णन ४ी तथा 'हरओय' न Y०४.२९ प्रभार हुनु पर्युन ४ ते ६ त्यो पन्त थये वानी
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जम्बूदीपप्राप्तिसत्र ૨૨ नन्दापुष्करिण्य उक्ताः, तदनन्तरं सभायां पइमनोगुलिकासहस्राणि पट् च गोमानसीसहस्राणि प्रोक्तानि तथैव जिनगृहविषयेऽपि सर्वं वक्तव्यमिति भावः । अत्र च सुधर्मासभातो यो विशे. पस्तमाह-'णवरं' इत्यादि-'णवरं नवरं केवलम् 'इम' इदम्-एतत् 'णाणतं' नानात्वम्-अनेकल्लम-भेद इति भावः, मुधर्मासभापेक्षयेतिशेप: 'एएसिणं' एतेपां-जिनगृहाणां खलु 'वह मज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागे 'पत्तेयंर' प्रत्येकर एकस्मिन् जिन. गृहे 'मणिपेढियाओ' मणिपीठिकाः-मणिमयासनविशेपाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिकाः प्रमाणतः दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं द्वे योजने आयाम-विष्कम्भेण-देय विस्ताराभ्याम्, 'जोयणं पाहल्लेणं' योजनं वाहल्येन-पिण्डेन, 'तासि' तासां-मणिपीठिकानाम् 'उप्पि उपरि-ऊर्ध्वमागे 'पत्तेयं२' प्रत्येकं२ 'देवच्छंदगा' देवच्छन्दके-जिनदेवासने 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ते, तन्मानमाह-'दो जोयणाई आयामविक्खभेणं' द्वे योनने आयामविष्कम्भेण 'साइरेगाई" सातिरेके-किश्चिदधिके 'दो जोयणाई' द्वे योजने 'उद्धं उच्चत्तेणे' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, ते च देवच्छन्दके 'सव्वरयणामया' सर्वरत्नमये-सर्वात्मना रत्नमये, 'जिणपडिमा' जिनप्रतिमा जिनगृह में भी यह सब वर्णित करलेवें ।
यहां पर सुधर्मसभा से जो विशेष वक्तव्यता है वह कहा जाता है-'णवरं इमं णाणत्तं' केवल यही यहां पर सुधर्मसभा से भिन्नता है 'एएसिणं' इन जिन गृहों के 'बहुमज्झदेसभाए' ठीक मध्यभाग मैं 'पत्तेयं पत्तेयं' एक एक गृह में 'मणिपेढियाओ' मणिमय आसन विशेष कहे हैं । उन मणिपीटिका का प्रमाण इस प्रकार कहा है-'दो जोयणाई आयाम विग्नभेणं' उनका विस्तार 'दो योजन का कहा है अर्थात उनकी लंबाई चोडाइ दो योजन की कही है। 'जोयणं वाहलेणं' उनका बाहल्य एक योजन का कहा है। 'तासिं' उन मणिपीठिका के 'उप्पि' ऊपर के भागमें 'पत्तेयं पत्तये' प्रत्येक में 'देवच्छंदगा' जिनदेव का आसन 'पण्णत्ता' कहा है 'दो जोयणाई. आयाम विक्खंभेणं' वे आसन की लंबाई चोडाइ दो योजन की कही है। 'साइरेगाई' कुछ अधिक 'दो जोयणाई उद्धं उच्च. એજ પ્રમાણે અહીં જનગૃહમાં પણ એ તમામનું વર્ણન કરી લેવું. ___ मीयां सुधर्म समान थी विशेष १४०य छ, वामां आवे छे.- ‘णवरं इमं णाणत्त' माडियां 4m सुधम समाथी टक्षी ar भिन्नता छ. 'एएसिण' से न अडानी 'बहुमज्झदेसभाए' पर भय लामा पत्तय पत्तेयं ४ ४ मा 'मणि વરિયામણિમય આસન વિશેષ કહેલા છે. એ મણિપીઠિકાનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે કહેલ छ. 'दो जोयणाई आयामविक्ख'भेण' त विस्तार मे. या ४ छ. अर्थात् तेनी ENS पापा में योगनती स . 'जोयणं वाहल्लेण' तेनु माडक्ष्य मे४ थाननु ४द छे. 'तासि' से भविष81 'उप्प' ५२ लासमा पत्तेय पत्त्य' हरे४मा 'देव च्छंदगा' नवना भासन 'पण्णत्ता' ४ छ. 'दो जोयणाई आयामविक्ख भेणं' में मासननी मा पहाणा में योगाननी डस छ. 'साइरेगाई' & qधारे 'दो जोयणाई
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधात्योर्वर्णनम् वक्तव्या तस्याश्च 'वाणी' वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहश्च वक्तव्यः, किम्पर्यन्तः ? इत्याह-जाव धृवकडच्छुगा' यावद् धूपकटुच्छुका-अष्टसहस्रसौवर्णकलशादितत्प्रमाणधूपकडच्छुकापर्यन्तोवर्णको राजप्रश्नीयसूत्रस्य सप्ताशीतितमसूत्रादवसेयः । ____ अथ सुधर्मासभोक्तमेव सभाचतुष्टयेऽतिदिशन्नाह-'एवं अवसेसाण वि सभाणं' इत्यादि 'एवं' एवम्-सुधर्मासभावत् 'अवसेसाणवि' अवशेषाणां-मुधर्मासभाऽतिरिक्तानाम् उपपातादि सभानाम् वर्णनं प्राकथितानुसारेणबोध्यम् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव उववायसभाए' यावत् उपपातसभायाम्-उत्पित्सु देवोत्पत्युपलक्षितसभायां 'सयणिज्ज' शयनीयं गृहकं चामिव्याप्य वर्णनीयम् तथा 'हरभोय' ह्रदश्च नन्दापुष्करिणी प्रमाणो वक्तव्यः, सचोत्पन्नदेवस्य शुचित्व-जलक्रीडाधर्थः, 'अभिसेयसभाए' ततोऽभिषेकसभायाम्-अभिनवोत्पन्नदेवाभिषेक त्तेणं' दो योजन के ऊंचे हैं। वे आसन 'सव्वरयणामया' सर्वात्मना रत्नमय कहे है 'जिणपडिमा' यहां जिन प्रतिमा कही है 'वण्णओ' इसका वर्णन कहलेना वह कहांतक कहे इसके लिए कहते है 'जाव धूवकडुच्छुया' यावत् धूप कडुच्छक पर्यन्त कहे अर्थातू आठ हजार सुवर्ण कलशादि उनके प्रमाण जितनी धूपदानी कही है यह कथन पर्यन्त वर्णन समझलेवें । यह वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के ८७ सतासीवें सूत्र में कहे अनुसार समझलेवें। __अब सुधर्मसभा में जो चार सभा कही है उसका वर्णन किया जाता है'एवं' सुधर्मसभा के कथनानुसार 'अवसेसाणं वि' सुधर्मसभासे अतिरिक्त उपपातादि सभाका वर्णन भी समझलेवें वह वर्णन 'जाव उपवायसभाए' यावत् उपपात सभा देवोत्पत्युपलक्षित सभामें 'सयणिज्ज' शयनीय गृह पर्यन्त यह वर्णन कह लेना तथा 'हरओय' नन्दा पुष्करिणी प्रमाण हृदका वर्णन कहे वह वहां उत्पन्न देव के जल क्रीडार्थ है 'अभिसेगसभाए' तदनन्तर अभिषेक सभा में उद्ध' उच्चत्तेणं' . यात २a या छ. मे मास 'सव्वरयणामया' सामना करना भय सा छे. 'जिणपडिमा' महीन प्रतिमा ४ा छे. 'वण्णओं तेनु न श से वर्णन ४यां सुधानु ४२ ते भाटे सूत्रा२ ४ छ. 'जाव धूवकडुच्छया' यापत् ધૂપ કડુચ્છક પર્યન્ત તે વર્ણન કહેવું. અર્થાત આઠ હજાર સુવર્ણ કલશાદિ તેના પ્રમાણ જેટલી ધૂપદાની કહેલ છે. આ કથન પર્યન્ત વર્ણન સમજી લેવું. આ વર્ણન રાજપક્ષીય સૂત્રના ૮૭ સત્યાશીમાં સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું.
હવે સુધર્મસભામાં જે ચાર સભા કહેલ છે. તેનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. ‘एवं' सुधम समान ४थन प्रभारी 'अवसेसाण वि' सुधर्म समाथी अन्य ७५पाता समानु न ५ सम यु. के. वन 'जाव उववायसभाए' यावत् पासमा वोत्पत्युपक्षित समामा 'सयणिज्ज' शयनीय पय-त qणुन ४डी वु तथा 'हरओय' नहysel प्रमाणु पर्युन ४ ते ६ त्यi sपन्न थये देवाना
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्रे महोत्सवस्थानभूतायां 'बहु अभिसेक्के' बहु आभिषेक्यम्-अभिपेरुयोग्यं 'भंडे' भाण्ड-पात्रं वक्तव्यम्, 'अलंकारियसभाए' अलङ्कारिक समायाम्-अभिपित्तदेवानां भूपणधारणस्थानरूपायां 'बहु अलंकारिय भंडे' बहु अलङ्कारिकमाण्डम्-अलङ्कारयोग्यं भाण्डं 'चिटई' तिष्ठन्ति, ववसायसभासु' व्यवसायसभयो:-अलङ्कृतानां देवानां शुभाध्यवसायानुचिन्तनस्थानरूपयोः पुत्थयरयणा' पुस्तकरत्ने- उत्तमपुस्तके ततो 'गंदा पुक्खरिणीओ' नन्दा पुष्करिण्यो 'बलि पेढा' वलिपीठे 'दो जोयणाई आयाम विक्खंभेणं' द्वे योजने आयाम-विष्वाम्भेण-दैर्यविस्ताराभ्याम्, अर्चनिकोत्तरकालं नवोत्पन्नदेवयोर्वलिविसर्जनपीठे अपि तथैव, 'जोयणं वाहल्लेणं' योजनं वाइल्येन-पिण्डेन 'जावत्ति' यावत्-यावत्मदेन-'सर्वरत्नमये अच्छे प्रासादीये दर्शनीये अभिरूपे, तत्र नन्दाभिधाने पुष्करिण्यौ च पलिक्षेपोत्तरकालं सुधर्मा सभायां जिगमिपतोरभिनवोत्पन्नयोर्दैवयोईस्तपादप्रक्षालनार्थे वोध्ये, अथ यथा सुधर्मसभातअभिनवोत्पन्न देवाभिषेक स्थानरूप 'यह अभिसेक्के अनेक अभिषेक योग्य भंडे' पात्र कहे हैं 'अलंकारियसभाए' अभिपेक देव के भूषण धारण स्थान रूप 'बहु अलंकारिय भंडे' अनेक अलङ्कार योग्य पात्र "चिट्ठई' रखे हैं 'चवसायसभासु' अलंकार धारण किये हुवे देवों के शुभ अध्यवसाय का चिन्तन करने का स्थान रूप स्थल 'पुत्थयरयणा' उत्तम पुस्तकरत्न 'नंदा पुक्खरिणीओ' दो नन्दापुष्करिणी वाचडी 'घलिपेढा' दो घलिपीठ 'दो जोयणाई आयाम विक्खंभेणं' वह वलिपीठ दो योजन के लंचाई चोडाई वाले हैं अर्चनिका काल के अनन्तर नया उत्पन्न हुवे देवके चलिरखनेका पीठ भी तथा 'जोयणं वाहल्लेणं' वह एक योजन का मोटाई वाला है 'जावत्ति' यहां यावत्पदसे सर्व रत्नमय अच्छा, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप वहां नन्दा पुष्करिणी नामकी दो वावडी बलिरखने के अनन्तर सुधर्मा
331 माटे छे. 'अभिसेगसभाए त पछी अभिप समामा नवा पान ये वालिये स्थान ३५ 'बहुअभिसेक्के मन मलिपे योग्य भंडे' पात्रो ४ा छ, 'अलंकारिय सभाए' मम शयेस हेवना सामूष धारण ४२पाना स्थान ३५ 'वहु अलंकारियमंडे' भने म २ येय पात्र 'चिटुइ' राणेसा छे. 'ववसायसभासु' मा २ धारा ४२स हेवाना शुभ मध्यसायनु चिन्तन ४२वाना स्थान ३५ 'पुत्थयरयणा' उत्तम पुस्त४२ल्ल 'नंदा पुक्खरिणीओं मे नही ४२ पाप 'वलिपेढा' मे मसिपीs 'दो जोयणाई आयाम विक्खंभेणं' से मदीपी में योगन सी eiमी पडागी छ. अनि sta पछी नवा B4-न थये ना मलि रामपानी पी8 ५ तथा 'जोयण वाहल्लेणं' से मे४ यापन रेटा विस्तारवाणु छ. 'जावत्ति' माडी यावत्पथी सर्वरत्नभय. १२७, प्रासाहीय, शશનીય, અભિરૂપ એ વિશેષણે ગ્રહણ થયેલ છે. ત્યાં નંદા પુષ્કરિણી નામની બે વા બલિ રાખ્યા પછી સુધસભામાં જવાની ઈચ્છાવાળા અને નવા ઉત્પન્ન થયેલ દેવને હાથ પગ દેવા માટે છે તેમ સમજવું.
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमला राजधान्योर्वर्णनम्
२४५ ईशानकोणे सिद्धायतनं तथा तस्येशानकोणे उपपातसभा एवं पूर्वस्मात् २ परं परमीशानकोणे वक्तव्यं यावद्वलिपीठादुत्तरपूर्वस्यां नन्दापुष्करिणीति, क्वनिद् द्विन्वेन क्यचिच्चैकत्वेन पदनिर्देशः सूत्रकारप्रवृत्तिवैचिच्याद् बोध्यः ।
इति यमिका राजधान्योर्वनम् ॥ अथ यषिका राजधान्यधिपयोर्यमकदेवयो रुत्पत्यादि स्वरूपं संक्षिपन् सङ्ग्रहगाथामाह'उववाओ संकप्पो' इत्यादि-'उववाओ' उपपात:-यमिकाभिधयोर्देश्योरुत्पतिः सा वाच्या, ततः 'सकप्पो'- सङ्कल्प:-उत्पन्नयो देवयोः शुभव्यवसायचिन्तनलक्षणः सङ्कल्पः ततः 'अभिसेय विहूसणा' अभिषेक-विभूपणा अभिषेक:-इन्द्रकृताभिपेकः तत्सहिता विभूपणासभा में जानेकी इच्छावाले एवं नये उत्पन्न देवके हस्तपाद-हाथ पाउं धोने के लिये है ऐसा समझे
जैसा सुधर्म सभा के ईशान कोण में सिद्धायतन कहा है उसी प्रकार सिद्धायतनके ईशान कोण में उपपात सभा है एवं पूर्व से अन्य अन्य ईशान कोण में कहना चाहिए थावत् बलिपीठ के ईशान में नन्दापुष्करिणी कही है। ____ 'कहिं पर द्विवचन एवं कहिं पर एक वचन से जो निर्देश किया है सो सूत्र कार की शैलि की विचित्रता से समझे ।
'यमिकाराजधानी का वर्णन समाप्त' । अय यमिका राजधानी के अधिपति यमकदेव के उत्पत्ति आदि स्वरूप को संक्षिस कर संग्रह गाथा कहते हैं-'उवचाओ संकप्पो' इत्यादि-'उववाओ' उपपात यमिक नासधारीदेव की उत्पत्ति कहनी तदनन्तर 'संकप्पो' उत्पन्न हुवे देव के शुभव्यवसाय चिन्तनरूप संकल्प उसके पीछे 'अभिलेय विहसणा' इन्द्रने किया हुवा अभिषेक सहित अलङ्कार सभा में अलङ्कारों से शरीर को अलंकृत करना
જેવું સુધર્મસભાની ઈશાન દિશામાં સિદ્ધાયતન કહેલ છે. એજ રીતે સિદ્વાયતનની ઈશાન દિશામાં ઉપપાત સભા આવેલ છે, પહેલાંથી અન્ય-અન્ય ઈશાન દિશામાં કહેવા જોઈએ યાવત્ બલિપીઠની ઈશાનમાં નંદા પુષ્કરિણી કહેલ છે.
કયાંક દ્વિવચન અને કયાંક એકવચનથી જે કથન કરેલ છે તે સ્ત્રકારની શૈલીની વિચિત્રતાથી છે તેમ સમજવું.
છે યામિકા રાજધાનીનું વર્ણન સમાપ્ત છે હવે યામિકા રાજધાનીના અધિપતિ યમક દેવની ઉત્પત્તિ આદિના કથનને ટુંકવીને સંગ્રહ ગાથા કહે છે.
'उववाओ संकप्पो' त्या 'उववाओ' Sd-यभि नामवाणा हेवनी पत्तिया ते पछी 'संकप्पो' उत्पन्न थये हेयना शुमायसायना स्यन्तन ३५ स४८५, ते पछी 'अभिसेयविहूसणा' न्द्रे ४२६ मलि सहित . म.२ समामा माथी शरीरने
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अलङ्कारसभायामलङ्कारैः शरीरालङ्करणम् च-पुनः 'ववसायो' व्यवसाया-पुस्तकरत्नोद्घा. टनलक्षणो व्यवसायः। ततो 'अञ्चणिय सुधम्मगमो' अर्चनिका सुधर्मगम:-अर्चनिका-सिद्धायतनाधर्चा तत्सहितः सुधर्मगम:-सुधर्मायां सभायां, गमः-गमनम् 'जहा य' यथा च 'परिवरणा' परिवारणा-परिवेष्टना तत्चदिशि परिवारस्थापना सैव 'इद्धी' ऋद्धिः-सम्पत् यथा यमकयो देवयोः सिंहासनयोः परितो वामभागे चतु:-सहस्रसामानिकभद्रासनस्थापना तथा वक्तव्यं जीवाभिगमादितः,अथ यमको हृदाश्च यावताऽन्तरेण परस्परं स्थितास्तनिर्णेतुमाह'जावइयमि' इत्यादि-'जावइयंमि पमाणंमि' यावति-यत्प्रमाणके प्रमाणे-माने 'णीलवं. ताओ' नीलवतः-तनामकात् पर्वतात् 'हंति जमगाओ' यमको पर्वतौ भवतः 'तावइयमंतरं' तावत्कं-तावत्-तत्प्रमाणकम् 'खल्लु' खलु-निश्चयेन 'जमगदहाणं-दहाणं च यमकहदयो इदानां चान्तरं बोध्यम् तच्चान्तरं योजनसप्तमागचतुर्भागाभ्यधिक चतुस्त्रिंशदधिकाष्टशतयोजनरूपं ज्ञेयम् उपपत्तिस्तु प्राग्वत् ।।सू०२१॥
और 'ववसायो' पुस्तकरत्न के खोलने रूप व्यवसाय तत्पश्चात् 'अच्चणिय सुहम्मगमो' सिद्धायतन आदि की अर्चा सहित सुधर्म सभा में जाना 'जहाय' जैसे 'परिवरणा' उस दिशामें परिवार की स्थापना वही 'इद्धी' सम्पत्ति जैसा कीयमिक देवके सिंहासन की चारों ओर चार चार हजार सामानिक देव के भद्रासन की स्थापना जीवाभिगम आदि में कहे अनुसार कहे।
अब यमिका राजधानी एवं हृद जितने अंतर से परस्पर में स्थित है उसका निर्णयार्थ कहते हैं-'जावइयंमि पमाणमि' जितने प्रमाण के मान 'णीलवंताओ' नोलवंत पर्वन के 'हंति जमगाओ' यमक पर्वत कहे है, 'तावइयमंतरं' उतना प्रमाण निश्चय से 'जमगदहाणं च' यमक हृदका एवं अन्य हृदका अन्तर समझ लेना वह अंतर ८३४ योजन सातिया चार भाग प्रमाण - समझना उपपत्तिका कथन पहले कहे अनुसार कहना ॥स०२१॥ शा. मन 'ववसायो' पुस्त: २(नना मोस। ३५ व्यवसाय, ते पछी 'अच्चणिय सुहम्मगमो सिद्धायतन विश्नी मर्या सहित सुधभसलामान 'जहाय रेभ 'परिवरणा' તે તે દિશામાં પરિવારની સ્થાપના “દી સમ્પત્તિ જેમકે યમિક દેવના સિંહાસનની ચારે તરફ ચાર ચાર હજાર સામાનિક દેવના ભદ્રાસનની સ્થાપના જીવાભિગમ વિગેરેમાં કહ્યા પ્રમાણે કહેવા. - હવે યમિકા રાજધાની અને હૃદનું અંતર કેટલું છે તેના નિર્ણય માટે સૂવકાર કહે छे-'जावईमि पमाणमि' २८८ा प्रभानु भा५ 'णीलवंताओ नlat' ५५ तनु छ 'जमगाओ तावइयमंतरं' यम४ पतनु पY तट मत२ छे. 'जमगदहाणं दहाणं च' यम४ હદનું અને બીજા દેનું અંતર સમાન છે. એટલે કે તે અંતર ૮૩૪જન સાતિયા ચાર ભાગ જેટલા પ્રમાણુનું સમજવું ઉપપત્તિનું કથન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે કહેવું સૂ. ૨૧
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २२ नीलवन्तादिहदवर्णनम्
___ अथ येषां हूदानामन्तरमानं प्रागुक्तं तान् स्वरूपतो निर्दिशति ।।
मूलम्-कहि णं भंते ! उत्तरकूराए णीलवंतहहे णामं दहे पण्णत्ते? गोयमा ! जमगाणं दक्खिणिल्लाओ चरिमंताओ अट्रसए चोत्तीसे चत्तारि य सत्तभाए जोयणस्स अबाहाए सीयाए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं णीलवंतबहे णामं दहे पण्णले दाहिणउत्तरायए पाईणपडीविस्थिपणे जहेव पउमदहे तहेव वण्णओ यवो णाणत्तं दोहिं पउपवरवेइयाहिं दोहि य वगसंडेहिं संपरिक्खित्ते, भीलवंते णाम णागकुमारे देवे सेसं तं चेव णेयव्वं, णीलवंतद्दहस्स पुव्वावरे पासे दस २ जोयणाइं अबाहाए एत्थ णं वीसं कंचणगफव्वया पण्णत्ता, एगं जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं ।
मूलंमि जोयणसयं पण्णत्तरि जोयणाई मज्झमि । उवरितले कंचणगा पण्णासं जोयणा हुति ॥१॥ मूलंमि निणि सोले सत्तत्तीसाइं दुण्णि मज्झंमि । अट्रावणं च सयं उवरितले परिरओ होइ ॥२॥ पढमित्थ नीलवंतो१ बितीओ उत्तरकुरु२ मुणेयम्वो।
चंदद्दहोत्थ तइओ३ एरावय४ मालवंतो य ५ ॥३॥ एवं वणओ अट्ठो पमाणं पलिओवमट्टिइया देवा ॥ सू०२२ ॥
छाया-क्व खलु भदन्त ! उत्तर कुरुपु नीलवद्, इदो नाम हा प्रज्ञप्तः, गौतम ! यमकयोर्दाक्षिणात्याच्चरमान्तात् अष्टशतं चतुर्विंश चतुरश्च सप्तभागान योजनस्य अवाधया सीतागा महानद्या बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु नीलवद्धदो नाम हुदः प्रज्ञप्तः, दक्षिणोत्तरायतः प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः यथैव पद्मदः तथैव वर्णको नेतव्यः, नानात्वं द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्तः, नीलवान् नाम नागकुमारो देवः शेपं तदेव नेतव्यम्, नीलवद्धदस्य पूर्वापरे पार्श्वे दश २ योजनानि अबाधयाऽत्र खलु विंशतिः काञ्चनकपर्वताः प्रज्ञप्ताः, एकं योजनशतमूर्ध्वमुच्चत्वेन
मूळे योजनशतं पश्चसप्ततिर्योजनानि मध्ये । उपरितले कञ्चनकाः पञ्चाशयोजनानि भवन्ति ॥१॥ मूले त्रीणि पोडशे सप्तत्रिंशे द्वे मध्ये ।
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जम्बूद्वीपमप्तिसूत्रे अष्ट पश्चाशंच शतमुपरितले परिरयो भवति ॥२॥ प्रथमो नीलवान् १ द्वितीय उत्तरकुरुतिव्यः२ ।
चन्द्र दोऽत्र तृतीयः ३ ऐरावतश्च४ माल्यवांश्च ५ ॥३॥ एवं वर्णकः अर्थः प्रमाणं पल्योपमस्थितिका देवाः ॥ ०२२॥
टीका-'कहि णं भंते !' इत्यादि, 'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए णीलवंतहहे णामं दहे पण्णत्ते' हे भदन्त ! क्य-कुत्र उत्तरकुरुपुर नीलवद्धदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह'गोयमा ! जमगाणं दक्खिणिल्लाभा' गौतम ! यमकयोः दाक्षिणात्यात्-दक्षिणदिग्भवात् 'चरिमंताओ' चरमान्तात्-सर्वान्तात् 'अप्सए' अष्टशतम्-अष्ठानां शनानां समाहारोऽष्टशतम् 'चोत्तीसे' चतुविशं-चतुस्त्रिंशदधिकं 'चचारिय सत्तभाए जोयणस्स अवाहाए' चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्य अवाधया कृत्वेति गम्यम् अपान्तराले गुक्त्वेति भावः, 'सीयाए' सीतायाः-तन्नाम्न्याः 'महाणईए बहुमज्झदेसभाए' महानधाः बहुमध्यदेशभाग:-अस्ति, 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खल्लु ‘णीलचंतहहे णामं दहे पण्णत्ते' नीलबढ्दो नाम हुदः प्रज्ञतः, स च हृद: 'दाहिण उत्तरायए' दक्षिणोत्तरायत:-दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः आयतः-दीर्घः, 'पाईणपडीणवित्थिण्णे' प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः पूर्वपश्चिमयोदिशो विस्ती
कहिणं भंते ! इत्यादि, टीमार्थ-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए णीलवंतहहे णानं दहे पण्णत्ते' हे हे भगवन् उत्तरकुरु में नीलवंत नामका ह्रद कहां पर कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा जमगाणं दखिणिहाओ' हे गौतम ! यमक के दक्षिण दिशाके 'चरिमंताओ' चरमान्त से 'अट्टसए आठसो 'चोत्तीसे चोत्तीस 'चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स अथाहाए' योजनका भाग अपान्त. रालको छोडकर 'सीयाए' सीता नामकी 'महाणईए बहुमज्झदेसभाए' महानदी का ठीक मध्यभाग है 'एत्थ णं' यहां पर 'णीलवंनदहे णामं दहे पण्णत्ते' नीलवंत हद नामका हृद कहा है। वह हद 'दाहिणउत्तरायप' दक्षिण उत्तर दिशा में लंबा है 'पाईणपडीणवित्थिपणे' पूर्व पश्चिम दिशा की ओर विस्तार युक्त है । उस
'कहिणं भंते ! त्या Ple:-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए णीलवंतहहे णामं दहे पण्णत्ते' सन् तर ७३भी नीयत ४यां ४ छ १ मा प्रशन उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ-'गोयमा! जम गाणं दक्खिणिल्लाओ' गौतम ! यमनी इक्षि शान! 'चरमंताओ' अभा-तथी 'अद्रसए'
से 'चोत्तीसे' यात्रीस 'चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स अवाहाए' यारानना ४ मा मयान्तराखने छोडने 'सीयाए' सीता नामनी 'महाणईए बहुमज्झदेसभाए' महानदीना मशेयर मध्यमा छे. 'एत्थण' त्यो ‘णीलवंतहहे णाम दहे पण्णत्ते' नीत नामर्नु ।
स , ते 'दाहिणउत्तरायए' क्षए उत्तर दिशामi eiy छ. 'पाईण पईण वित्थिण्णे'
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कार: सू० २२ नीलवन्तादिह्रदर्णनम्
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र्णः - विस्तारयुक्तः, तस्य च ' जहेव पउमद्दहे ' यथैव पद्मइदः 'तदेव वण्णओ णेयव्त्रो' तथैव वर्णको नेतव्यः - ग्राद्यः, 'णाणत्तं' नानात्वं - विशेषश्चायम् ' दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते' द्वाभ्यां पद्मवर वेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्त:परिवेष्ठितः, -अयं गावः- पद्महूदस्तु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सम्परि क्षिप्तः, अयं नीलवान् हृदस्तु द्वाभ्यां२ ताभ्यां सम्परिक्षिप्तः सीतामहानथा द्विभागीकृतत्वेन उभयपार्श्ववर्ति वेदिकाद्वययुक्तत्वात्, अत्र 'णीलवंते णामं णागकुमारे देवे' देवश्व नीलवान् नागकुमारः इति विशेषः 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव पद्महदोक्तमेव 'णेयब्वं' नेतव्यम् - ग्राह्यम्, पद्मादिकं शेषं पद्मइदवबोध्यम्, तन्मानसंख्या परिक्षेपादिकं च तथैव ।
अथ काञ्चनगिरिव्यवस्थामाह - ' नीलवंतद्दहस्स' इत्यादि - 'णीलवंतदहस्स पुन्नावरे ' हृदका वर्णन 'जहेब पउमद्दहे ' इस कथनानुसार पद्महृद के वर्णन के समान 'तहेव वण्णओ roar' उसका वर्णन समझलेवे' 'णाणत्तं' उसवर्णन एवं इस वर्णन में जो विशेषता है वह इस प्रकार है 'दोहिं परमवरवेइयाहिं दोहिय वणसंडेहिं संपरिक्खिते' यह हृद दो पद्मवर वेदिका और दो वनषंडसे परिवेष्टित है । कहने का भाव यह है कि पद्महृद एक पद्मवरवेदिका और एक वनषण्ड से परिवेष्टितहै तब की यह नीलवंत हृद दो पद्मवर वेदिका एवं दो वनषंडसे परिवेष्टित है । सीता महानदी का दो भाग करने से दोनों पार्श्ववर्ति दो वेदिका युक्त होने से दो दो कहा है।
यहां पर 'नीलवंते नागकुमारेदेवे' नीलवान् नामका नागकुमारदेव है यह विशेष है 'सेसं तं चेव' अन्य सब कथन पद्महृद के समान ही 'य' कहना चाहिए, पद्मादिक शेष सब कथन पद्महृद के समान ही समझलेवें, उसका मान परिक्षेप आदि भी उसी प्रकार है ।
पूर्व पश्चिम दिशा तर विस्तारवाणु छे. ते हृहनु वार्जुन 'जहेव पउमद्दद्दे' से उथन प्रभाणे पझाडृहना वर्णुन सरयु छे. 'तहेव वण्णओ णेयव्वो' तेतु वर्षान समल सेवु. 'णाणत्तं' से वार्णुन अने या वर्षानमां ने विशेषता छे ते या प्रभानी छे. 'दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिय वणसंडेहिं संपरिक्खित्तो' मे हृढ मे पद्मवर वेहि मने मे वनषं उधी વીટળાયેલ છે. કહેવાના ભાવ એ છે કે-પદ્મદ એક પદ્મવર વેદિકા અને એક વનષડથી વીંટળાયેલ છે. અને નીલકત હુઇ એ પદ્મવર વેદિકા અને એ વનષ ́ડથી વીટળાયેલ છે, સીતા મહા નદીના એ ભાગ કરવાથી અને માજુથી એ વેદિકા યુક્ત હાવાથી બબ્બે કહેલ છે. मह्रींयां ‘नीलवंते नाम नागकुमारे देवे' नीतवान् नामना नागकुमार देव छे, भेट विशेष छे. 'सेसं त चेव' जीन्तु तमाम प्रथन पद्मासना स्थन सरयु ४ 'णेयव्त्रं' 'डी લેવું પદ્માદિક ખાકીનું તમામ કથન પદ્મદના સરખું જ સમજી લેવુ, તેનું માપ પરિક્ષેપ વિગેરે પણ એજ પ્રમાણે છે.
ज० ३२
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, जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे नीलवद्धदस्य पूर्वापरे-पूर्वस्मिन्नपरस्मिंश्च 'पासे दस२ जोयणाई अवाहाए' पार्श्व दश २ योजनानि अवाधया कृत्वेति गम्यम्-अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खल्ल दक्षिणोत्तरश्रेण्या परस्परं मूले संवद्धाः, अन्यथा शतयोजनविस्ताराणा मेपां सहस्रयोजनमाने हृदायामेऽवकाशासम्भव इति 'वीसं' विंशतिः-विंशति संख्यकाः२ 'कंचणगपचया' काञ्चनपर्वताः-सुवर्णपर्वताः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः, 'गं जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं' एक योजनशतम् ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, एपां काञ्चनपर्वतानां विष्कम्भ-परिक्षेपी गाथाद्वयेनाह-'मूलंमि जोयणसयं' इत्यदि-'मूलंमि' मूले- मूलावच्छेदेन 'जोयणसयं' योजनशतम् 'पण्णत्तरि जोयणाई मझमि' मध्ये पञ्चसप्ततिः योजनानि, 'उवरितले' उपरितले-शिखरतले 'कंचणगा' काश्चनका:-काश्चनपर्वताः 'पण्णासं जोयणा हुति' पञ्चाशतं योजनानि भवन्ति ।१।
'मूलंमि तिण्णि' मूछे त्रीणि योजनशतानि 'सोले' पोडशानि-पोडशाधिकानि, 'सत्त __ अब काञ्चनगिरिकी व्यवस्था कहते हैं-'नीलचंतस्स दहस्स पुञ्चावरे' नीलवंत हृद् के पूर्व एवं पश्चिम 'पासे दस जोयणाई अबाहाए' पार्श्व में दस दस योजन की अवाधासे अर्थात् अपान्तराल में छोड करके 'एत्थ णं' यहां दक्षिणोहत्तर श्रेणीसे परस्पर मूल में संबद्ध अन्यथा सो योजन विस्तार वाले, इनको हजार योजन मान में हृद् का आयाम-लंबाई का अवकाशका असम्भव होता 'चीसं' वीस 'कंचणगपच्चया' कांचन पर्वत-अर्थात् सुवर्ण पर्वत 'पण्णत्ता' कहा है वे पर्वत 'एग जोयणसयं उर्दू उच्चत्तेणं' एकसो योजन का ऊंचा है। ___ अब वे कांचन पर्वत का विष्कम्भपरिक्षेप दो गाथा से कहते हैं-'मूलंमि जोयणसयं' मूल भाग में सो योजन 'पण्णत्तरि जोयणाई मज्झंमि' सतावन योजन मध्य भाग में 'उवरितले शिखर के भाग में कांचन पर्वत 'पण्णास जोयणा हुति' पचास योजन होता है ॥१॥
वयन नना समयमा ४थन ४२वामा माछ-'नीलवंतस्स दहस्स पुवा वरे' नीलत ना " गाने पश्चिम 'पासे दस दस जोयणाई अबाहाए' मानु मे इस દસ એજનની અબાધાથી અર્થાત્ અપાન્તરાલમાં છેડીને “થી ત્યાં આગળ દક્ષિણેત્તર શ્રેણીથી પરસ્પર સંબદ્ધ અન્યથા સે જન વિસ્તારવાળા આને હજાર એજનના માપમાં हुन। मायाम-2003ना साशन गसम्मथात, 'वीसं' वीस 'कंचणग पव्वया' यन पक्त गर्थात् सुवर्ण पत 'पण्णत्ता' उस छ, त 'एग जोयणसयं उद्धं उच्च तण' से से। याना या उस छे.
वेत अयन पतन ४ि मन परिक्ष५ मे. गाथा बा२। ४ छ। 'मुलंमि जोयणसयं' भूख मागमा सो योन 'पण्णत्तरि जोयणाई मज्जमि' सत्तावन 2011 भन्य मागमा ‘उवरितले शिमरना भागमा अयन पर्वत 'पण्णासं जोयणा हुति' पयास यासानना થાય છે. તે ૧ છે
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. २२ नीलवन्तादिह दर्णनम्
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तीसाई दुणि मज्झमि' मध्ये सप्तत्रिंशे - सप्तत्रिंशदधिके द्वे योजनशते 'उवरितले' उपरितले 'अट्ठावणं च ' अष्टपञ्चाशम् अष्ट पञ्चाशदधिकं 'सयं' शतं ' परिरओ' परिरयः - परिधिः ॥ २ ॥ इह च मूले परिधौ मध्यपरिधौ च किञ्चिद्विशेपाधिकमनुक्तमपि बोध्यम्, अथ क्रमेण पश्चानामपि इदानां नामानि निर्दिशति - 'पढमित्थ' इत्यादि - ' पढमित्थ' प्रथमः- आदिम : 'णीलतो' - वितीओ उत्तरकुरुर मुणेयब्वो' नीलवान १ द्वितीय उत्तरकुरुः २ ज्ञातव्यः - वोध्यः, 'चंदहोत्थ तइओ३' चन्द्रहृदः अत्र - पञ्चसु तृतीयः ३ ' एरावए' ऐरावतः चतुर्थः ४ 'माल - वंतो य' माल्यवान् च पञ्चमः ५ बोध्यः | ३ |
अथानन्तरोक्तानां काञ्चनपर्वतानामेषां हृदादीनां च स्वरूपनिरूपणार्थ- लाघवार्थमेकमेव सूत्रमाह- 'एवं वण्णओ' इत्यादि - ' एवं ' एवं-नीलबद्धदानुसारेण उत्तरकुरु इदादीनामपि 'वण्णओ अहो' वर्णकोऽर्थश्च वोध्यः, तथा तेषां 'पमाणं' प्रमाणं - मानं तत्र पल्योपमस्थितिका
'मूलमितिपिण' मूल में तीनसो योजन 'सोले' सोलह अर्थात् मूल में तीन सो सोलह योजन 'सत्ततीलाई दुण्णि मज्झमि' दोसो से तीस योजन मध्य में 'उवरितले' ऊपर के भाग में 'अट्ठावण्णं च' अठावनं 'सयं' सो अर्थात् अट्ठानसो का 'परिरओ' परिधि - घेराव है ॥२॥
यहां मूलकी परिधि एवं मध्य की परिधि में कुछ विशेषाधिक भी कहा है । अब क्रम से पांचों हृदों के नाम कहते हैं- 'पढमित्थणीलवंतो' प्रथम नील वंत पर्वत है, 'बितीयो उत्तरकुरु मुणेयच्चों' दूसरा उत्तरकुरु कहा है, 'चंदहोत्थ तइओ' चंद्र हृद तीसरा कहा है 'एरावए चउत्थ' ऐरावत चोथा है 'माल तो य' माल्यवान् पांचवां कहा है ||३||
अब पूर्वोक्त कांचन पर्वत एवं उनके हृदादि के स्वरूप निरूपणके लिए लाघव करने के हेतु से एक ही सूत्र कहते हैं - ' एवं ' नीलवंत हृद के कथनानुसार उत्तर कुरु हृदादि के भी 'वण्णओ अट्ठो' वर्णन करलेना, तथा उनका
'मूलंमि तिणि' भूणभां भासो थोक्न 'सोले' सोण अर्थात् भूणभां त्राशु सो सोज योजन 'सत्तनीसाइ' दुव्हि मज्झमि' असो साउन्रीस येोन्न भध्यमां 'उवरितले' उपरना लागभां 'अट्ठात्रणं च' अट्टावन 'सयं' से अर्थात् अट्टावन सोना 'परिरओ' परिधि घेरावे छे. ॥ २ ॥ અહીંયાં મૂલની પરિધિ અને મધ્યની પરિધિમાં કંઈક વિશેષાધિક પણ કહેલ છે. हवे उभथी यांचे हृहोना नाभ आहे छे. - ' पढमित्थ णीलवंते' पडेलु' नीसवत हृढ छे. 'बितीयो उत्तरकुरु मुणेयश्वो' जीले उत्तर ३ ४ छे. 'चंदहोत्थ तईयो' चंद्र हृह त्रीले * छे. 'raar उत्थे' रावत येथे छे. 'मालवतोय' भाट्यवान् हृढ पांयभु छे. ॥3॥ હવે પૂર્વોક્ત કાંચન પર્યંત અને તેના હૃદાદિના સ્વરૂપનું કથન કરવા માટે સ ંક્ષેપ કરવાના હેતુથી એક જ સૂત્ર કૅડે છે—ä' નીલવંત હૃદના કથન પ્રમાણે ઉત્તર કુરૂ આદિ (हृद्दाहीनु' 'वण्णओ अट्ठो' वर्णन ४री सेवु तथा तेनु' 'पमाणं' भानाहि प्रभाणु यागु सेन
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
देवाथ वोध्याः पद्मवरवेदिकावनपण्ड त्रिसोपानप्रतिरूप कतोरणमूलपदमाष्टोत्तरशतपद्मपरिवारपद्मशेपपद्मपरिक्षेपत्रयवर्णनमपि बोध्यम् । तथैवार्थः- उत्तरकुर्यादि हदनामान्वर्थ:- उत्तरकुरुहूद प्रभोत्तरकुरुड्रदाकारोत्पलादियोगाद् उत्तरकुरु देवस्वामिकत्वाच्च उत्तरकुरुहृदः २ इति । चन्द्रदमनाणि - चन्द्रहृदाकाराणि चन्द्रहृदवर्णानि चन्द्रथात्र देवः स्वामीति तद्योगात्तदधिष्ठितत्वाच्च चन्द्रहृदः ३, ऐरावतं तन्नामकमुत्तरपार्श्ववर्तिभरत क्षेत्रप्रतिरूपकक्षेत्रम् तत्प्रभाणि - तदाकाराणि - आरोपितव्यधनुराकाराणि उत्पलादीनि ऐरावतश्चात्र देवः स्वामीत्यैरायतः, माल्यवद्वक्षस्कारप्रभोत्पलादि योगान्माल्यवदेवस्वामिकत्वाच्च माल्यचदुहूद इति, प्रमाणं 'माण' मानादि प्रमाण भी उसी प्रकार समझ लेवे" वहां के देव की स्थिति एक पल्योपम की कही है । पद्मवर वेदिका, वनपंड, त्रिसोपान प्रतिरूपक, तोरण मूल, एक सो आठ पद्म, पद्मका परिवार, पद्मशेष, तीन पद्म परिक्षेप का वर्णन भी यहाँ कर लेवें । उत्तर कुरु आदि हृदों का 'अन्वर्थ नाम जैसे उत्तर कुरु हृद में उत्पन्न उत्तर कुरु हृद के आकार वाले पद्म के योग से एवं उत्तर कुरु देव स्वामी होने से उत्तर कुरु हृद ऐसा नाम कहा है ।
चन्द्र हृद के प्रभा - के जैसा प्रभा होने से, चन्द्र हृद के आकार वाले होने से, चन्द्र हृद के जैसे वर्ण होने से एवं चन्द्र यहां के देव होने से चन्द्र यहां के अधिष्ठाता होने से चंद्र हृद ऐसा नाम कहा है || ३ ||
ऐरवत नाम वाला उत्तरपार्श्व में भरतक्षेत्र के समानक्षेत्र है । उसकी प्रभावाले, उसके जैसे आकार वाले अर्थात् सजकिए धनुष के जैसे आकार वाले उत्पलादि होने से ऐरावत देव वहां का स्वामी होने से उसका नाम ऐरवत ऐसा कहा है ।
माल्यवान् वक्षस्कार की प्रभा होने से एवं उत्पलादि माल्यवान् के जैसे होने से तथा माल्यवान देव वहां का स्वामी होने से माल्यवान् हृद ऐसा कहा પ્રમાણે સમજી લેવુ. ત્ય'ના દેવની સ્થિતિ એક ચામની કહેલ છે. પાવર વેર્દિકા વનપ’ડ, ત્રિસેાપાન પ્રતિરૂપક, તારણ મૂળ એકસે આઠ પદ્મ, પદ્મોનાપરિવાર, પદ્મશેષ અને ત્રણ પદ્મ પરિક્ષેપતુ' વષઁન પણ હીયાં કરી લેવુ. ઉત્તરકુરુ વિગેરે હેતુ અન્વય નામ જેમ ઉત્તર કુરૂ હદમાં ઉત્પન્ન થયેલ ઉત્તરકુરૂ હદના આકારવાળા પદ્મના ચાગથી તેમજ ઉત્તર કુરૂ હૃદાકાર ઉત્પલ વિગેરેના ચેાગથી ઉત્તરકુરૂ હૃદ એવુ નામ હેલ છે.
ચંદ્ર હની પ્રભાના જેવી પ્રભા હાવાથી ચંદ્ર હૃદના જેવા આકાર હૈાવાથી, ચંદ્ર હૃદના જેવા વર્ણ હાવાથી તેમજ ચંદ્ર તેને દૈવ હૈાવાથી, ચદ્ર તેનેા અધિષ્ઠાતા હેાવાથી ચંદ્રદ એવુ' નામ કહેલ છે. ૩
અરવત નામનુ ઉત્તર પાર્શ્વમાં ભરતક્ષેત્રના સરખુ* ક્ષેત્ર છે. તેની પ્રભાવાળું, તેના આકારવાળુ' અર્થાત્ સજ્જ કરેલ ધનુષના જેવા આકારવાળા ઉત્પલાદિ હાવાથી ભૈરવત ધ્રુવ ત્યાંના અધિષ્ઠાતા દેવ હાવાથી તેમનુ નામ ઐરવત એ પ્રમાણે કહેલ છે.
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथ यन्नाम्नायं जम्बूद्वीपः ख्यातस्तां सुदर्शनानाम्नी जम्बू विवक्षुस्तदधिष्ठानमाह
मूलम् कहि पं. भंते ! उत्तरकुराए २ जंबूपेढे गास पेढे घण्णने ?, गोयमा! णीलवंतस्त वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं मंदरस्स उत्तरेणं माल वंतस्स वक्खारपव्वयस्ल पञ्चस्थिमेणं सीयाए महाणईए पुरथिमिल्ले कूले एत्थ णं उत्तरकुराए जंवूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते, पंच जोयणसयाहं आयामविक्खंभेणं पण्णरस एकासीयाइं जोयणसयाइं किंचिविसेसाहियाई परिक्खेवेणं, बहुमज्झदेसभाए वारस जायणाई वाहल्लेणं, तयणंतरं च णं मायाए २ पएसपरिहाणीए २ सव्वेसु णं चरिमपेरंतेसु दो दो गाउयाई वाहल्लेणं सव्वजंबणयामए अच्छे, से णं एगाए परमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, दुण्हपि वष्णओ,
तस्स णं जंबूपेढस्स चउदिसि एए चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा एष्णता, वणओ आव तारणाई, तस्स णं जंवूपेहस्स बहुमझदेसभाए एस्थणं मणिपेढिया पण्णता, अटजायणाई आयामविखंभेणं, चत्तारि जोवणाई बाहल्लेणं, तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थ णं जवसदसणा पण्णत्ता, अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धजोयणं उव्वेहेणं, तीसेणं खंधो दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धजोयणं वाहल्लेणं, तीसे णं साला छ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं बहुमज्झदेसभाए अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई अटु जायणाई सम्बग्गेणं, तीसे णं अयमेयारूवे वष्णावासे पण्णत्ते-वइरासया मूला रययसुपइट्टियविडिमा. जाव अहियमणणिव्वुइकरी पासाईया दरिसणिज्जा.
जंबूए णं सुदंसणाए चउदिसिं चत्वारि साला पण्णता, तेसि णं सालाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं सिद्धाथयणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं अद्धकोणं विक्खंभेणं देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसण्णिनिटे जाव दारा पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव वणमालाओ मणिपेढिया पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं अद्धाइज्जाइं धणुसयाइं वाहल्लेणं, तीसे
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजम्वूवर्णनम्
णं मणिपेढियाए उप्पिं देवच्छंदए पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, जिणपडिमावण्णओ यच्वात्ति | तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले साले एत्थ णं भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं, एवमेव णवरमित्थ सयणिज्जं से सेसु पासायवडेंसया सीहासणा य सपरिवारा इति । जंबू णं बारसहिं पउमवरवेइयाहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता, वेइयाणं दणओ, जंबू णं अष्णेगं असणं जंबू णं तद्वत्ताणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ता, तासि णं वण्णओ, ताओ णं जंबू छहिं परमवरवेइयाहिं संपरिक्खित्ता, जंबूए णं सुदंसणाए उत्तरपुरत्थिमेणं उत्तरेणं उत्तर पञ्चस्थिमेणं एत्थ णं अणाढियस्स देवस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि जंबूसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तीसे णं पुरत्थिमेणं चउन्हं अग्गमहिसीणं चत्तारि जंबूओ पण्णत्ताओ - दक्खिणपुरत्थिमे दक्खिणेण तह अवरदक्खिणं च । अटूट्स बारसेव य भवंति जंबूसहस्साई ||१|| अणियाहिवाण पञ्च्चत्थिमेण सत्तेव होंति जंबूओ । सोलस साहसीओ चउद्दिसिं आयरक्खाणं ॥ २॥ जंबूएणं तिहिं सइए हिं वणसंडेहिं सव्वओ समता संपरिक्खित्ता, जंबूए णं पुरास्थिमेणं पण्णासं जोयणाई पढमं वणसंड ओगाहित्ता एत्थ ण भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं सो चे वण्णओ सयणिज्जं च । एवं सेसासु विदिसासु भवणा, जंबू णं उत्तरपुरस्थिमेणं पढमं वणसंडे पण्णासं जोयगाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि क्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पउमा १ पउमप्पभा २ कुमुदा ३ कुमुदप्पभा ४ ताओ णं कोसं आयामेणं अद्धकोसं विवखंभेण पंचधणुसयाई उव्वेहेणं वण्णओ, तासि णं मज्झे पासायवडेंसगा कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खभेणं देणं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं वण्णओ सीहासणा सपरिवारा, एवं सेसासु विदिसासु,
गाहा - पउमा पउमप्पभा चेत्र, कुमुदा कुमुदप्पहा ! उप्पलगुम्सा णलिणा, उप्पला उप्पलुजला ॥१॥
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्रे भिंगा भिंगप्पभा चेत्र, अंजणा कजलप्पभा ।
'सिरिता सिरिमहिमा, सिरिचंदा चेव सिरिनिलया ॥२॥ जंबूए ण पुरथिमिल्लस्स भवणस्त उत्तरेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगरस दक्खिणेणं एत्थ णं कूडे पण्णत्ते, अटु जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं, दो जोयणाई उव्वेहेनं सूले अट्ठजोयगाइ आयामविकाईभेणं बहुमज्झदेसभाए छ जोयणाई आयामविकखंभेणं उरि चत्तारिजोयगाइं आयामविक्खंभेणं पणवीसारस वारने मूले य मज्झि उवरिं च । सविसेसाई परिरओ कूडस्स इमस्स बोद्धनो ॥२॥
मूले वित्थिाणे सम्झे संखित्ते उवरि लणुए सव्वकणगामए अच्छे वेड्या-वणलंडवण्णओ, एवं से सावि कूडा इति ।
जवून सुदंसणाए दुवालस णामधेज्जा पएणत्ता, तं जहासुदंसणा १ अमोहा २ य, सुप्पबुद्धा ३ जसोहरा ४ ।
विदेह जंवू ५ सोमणमा ६ णियया ७ णिच्चमंडिया ८ ॥१॥ सुभदा ९ य विसाला १० य, सुजाया ११ सुषणा १२ विया। सुदंसणाए जंवूए णामधेज्जा दुवालस ॥२॥
जंबूए णं अमंगलगा पणत्ता, से केणटे भंते ! एवं वुच्चइ जंवू सुदंसणा २१, गोयमा ! जंवूए णं सुदंसणाए अणादिए णाम जंबूढीवाहिदई परिवसइ महिद्धीए. से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं, जंबूद्दीवस्स णं दीवस्स जंबूए सुदंसणाए अगाढियाए रायहाणीए अण्णेसिं च ब्रहण देवाण य देवीण य जाब विहरइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ, अदुत्तरं च णं गोयमा! जंबूसुदंसणा जाव भुवि च ३ धुवा णियया सासया अक्खया जाव
अवटिया । कहिणं भंते ! अणाढियस्स देवस्स अणाढिया णामं राय' हाणी पण्णता ?, गोयमा जंबूद्दीवे मंदरस्स पव्वयस्त उत्तरेणं जंचेव
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् पुववणियं जमिगापमाणं तं चेव णेयव्वं, जाव उववाओ अभिसेओ य निरवसेसोत्ति ॥सू०२३॥ ___ छाया-क्व खलु उत्तरकुरुषु २ जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! नीलवतो वर्ष धरपर्वतस्य दक्षिणेन मन्दरस्य उत्तरेण माल्यवतो वक्षरक रपर्वतस्य 'पश्चिमेन सीताया महानद्याः पौरस्त्ये कूले अत्र खलु उत्तरकुरुषु कुरुषु जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तम्, पञ्च योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, पञ्चदश एकाशीतानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, वहुमध्यदेशभागे द्वादश योजनानि वाहल्येन तदनन्तरं च खलु मात्रया २ प्रदेशपरिहान्या २ सर्वेभ्यः खलु चरमपर्यन्तेषु द्वे द्वे गव्य ते बाहल्येन सर्वजम्बूनदमयम् अच्छम् । तद् एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तान् संपरिक्षिप्तम्, द्वयोरपि वर्णको
तस्य खलु जम्बपीठस्य चतुर्दिशि एतानि चतारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, वर्णकः यावत् तोरणानि, तस्य खलु जम्बूपीठस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, अष्टयोजनानि आयामविष्कम्भेण चत्वारि योजनानि बाहल्पेन, तस्याः खलु मणिपीठिकाया उपरि अत्र खलु जम्बूमुदर्शना प्रज्ञप्ता, अष्टयोजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अर्द्धयोजनमुद्वेधेन, तस्याः खलु स्कन्धः द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अर्द्धयोजनं बाहल्येन, तस्याः, खल शाला षडूयोजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन बहुमध्यदेशभागे अष्ट योजनानि आयामविष्कम्भेण, सातिरेकाणि अष्टयोजनानि सर्वाग्रेण, तस्याः खलु अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्त:-वज्रमयमूला रजतमुप्रतिष्ठजविडिमा यावत् अधिकमनोनिवृतिकरी प्रासादीया दर्शनीया । जम्बाई खलु सुदर्शनायाः चतुर्दिशि चतस्रः शालाः प्रज्ञप्ताः, तासां खलु शालानां बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु सिद्धायतनं प्रज्ञप्तम्, क्रोशमायामेन अर्द्धकोशं विष्कम्भेण देशोनक क्रोशमयमुच्चस्वेन अनेकस्तम्मशतसग्निविटे यावद् द्वाराणि पंञ्चशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन यावद् वनमाला: मणिपीठिका पश्च धनुःशतानि आयामविष्कम्भेण अर्द्धतृतीयानि धनुः शतानि बाहल्येनः तस्याः खलु मणिपाठिकाया उपरि देवच्छन्दकं पञ्च धनशतानि आयामविष्कम्भेण सातिरेकाणि पश्च धनुःशतानि अवमुच्चत्वेन, जिनप्रतिमावर्णको नेतव्य इति ।
तत्र खलु या सा पौरस्त्या शाला अत्र खलु भवन प्रज्ञप्तम्, क्रोशमायामेन एवमेव नवरमत्र शयनीयं शेपासु प्रासादवतंसकाः सिंहासनानि च सपरिवाराणीति । जम्बः खल द्वादशभिः पद्मवरवेदिकाभिः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ता, वेदिकानां वर्णकः, जम्बः खल अन्येन अप्टशतेन जम्बूनां तदर्बोच्चत्वानां सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ता, तस्याः खल वर्णक ताः खलु जम्ब्वः पभिः पद्मवरवेदिकाभिः संपरिक्षिप्ताः, जम्ब्वाः खलु सुदर्शनायाः उत्तरपौरस्त्येन उत्तरेण उत्तरपश्चियेन अत्र खलु अनाहतस्य देवस्य चत्तमृणां सामानिकसाहस्रीणां चतस्रो जम्बूसाहस्यः प्रज्ञप्ताः तस्याः खलु पौररत्येन चतसृणामग्रमहिषीणां चतस्रो जम्बो प्रज्ञप्ताः-दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणेन तथा अपरदक्षिणेन च । अष्ट दश द्वादशैव च भवन्ति जम्बूसहस्राणि ।। अनीकाधिपानां पश्चिमेन सप्तैव भवन्ति जम्वः । षोडशसाहस्व्यश्चत दिशि
ज०३३
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
आत्मरक्षाणाम् |२| जम्ब्वः खलु त्रिभिः शतिकैः चनपण्डैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः, जम्मा: खलु पौरस्त्येन पञ्चाशतं योजनानि प्रथमं वनपण्डम् अवगाह्य अत्र खलु भवनं प्रज्ञसब्, क्रोशमायामेन स एव वर्णकः शयनीयं च, एवं शेपास्त्रपि दिक्षु भवनानि, जम्ब्वाः खलु उत्तरपौरस्त्येन प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं योजनानि अवगाह्य अत्र खलु चतस्रः पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - पद्मा १ पद्मप्रभा २ कुमुदा ३ कुमुदप्रभा ४ ताः खलु व्रोग़माय: मेन अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेण पश्चधनुःशतानि उद्वेधेन, वर्णकः, तासां खलु मध्ये प्रासादावतंसकाः क्रोशमायामेन, अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेण, देशोनं क्रोशमूर्ध्वमुच्चत्वेन, वर्णकः सिंहासनानि संपरिवाराणि, एवं शेषासु विदिक्षु, गाथा - पद्मा पद्मप्रभा चैव, कुमुदा कुमुदप्रभा । उत्पलगुल्मान लिना उत्पलोज्ज्वला |१| भृङ्गा भृङ्गप्रभा चैव, अञ्जना कज्जलप्रभा । श्रीकान्ता श्रीमहिता श्रीचन्द्रा चैत्र श्रीनिलया |२|
जम्बाः खलु पौरस्त्यस्य भवनस्य उत्तरेण उत्तरपौरस्त्यस्य प्रासादावतंसकस्य दक्षिणेन अत्र खलु कूटं प्रज्ञप्तम्, अष्ट योजनानि ऊर्ध्वं मुच्चत्वेन द्वे योजने उद्वेधेन मूठे अष्ट योजनानि आयामविष्कम्भेण वहुमध्यदेशभागः पड्योजनानि आयामविष्कम्भेण उपरि चखारि योजनानि आयामविष्कम्भेण - पञ्चविंशतिमष्टादश द्वादशैव मूले च मध्ये उपरि च । सवि शेषाणि परिश्यः कूटस्यास्य बोद्धव्यः | १| मृठे विस्तीर्ण मध्ये संक्षिप्तमुपरि तनुकम् सर्वकनकमयम् अच्छम् वेदिकावनपण्डवर्णकः, एवं शेपाण्यपि कूटानि इति ।
जम्ब्वाः खलु सुदुर्गनायाः द्वादश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - सुदर्शना १ अमोघा २ च सुप्रबुद्धा ३ यशोधरा ४ | विदेह जम्बुः ५ सौमनस्या ६ नियता ७ नित्यमण्डिता ८ |१| सुभद्रा च ९ विशाला च १० . सुजाता ११ सुमना १२ अपि च । सुदर्शनायाः Gaer: नामधेयानि द्वादश ॥२॥
जव्वाः खलु अष्टाष्टमङ्गलकानि०, केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते जम्बूः सुदर्शना २ १ गौतम ! जम्ब्वां खलु सुदर्शनायामनादृतो नाम जम्बूद्वीपाधिपतिः परिवसति महर्द्धिकः, स खलु तत्र चतसृणां सामानिकसाहस्रीणां यावद् आत्मरक्षदेवसाहस्रीणां, जम्बूद्वीपस्य खल द्वीपस्य जम्ब्वाः सुदर्शनायाः अनाहतायाः राजधान्या अन्येषां च बहूनां देवानां च देवीनां च यावद् विहरति सा तेनार्थेन गौतम । एवमुच्यते अदुत्तरं च गौतम ! जम्बूसुदर्शना यावद् अभूत् च ३ ध्रुवा नियता शाश्वती अक्षया यावद् अवस्थिता । का खलु भदन्त ! अनातस्य देवस्य अनादृता नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण यदेव पूर्ववर्णितं यमिका प्रमाणं तदेव नेतव्यम्, उपपातोऽभिषेकश्च निरवशेष इति । सू० २३||
अब जिन के नामवाला यह जम्बूद्वीप कहा है वह खुदर्शनानामवाली जम्बू का कथन करने की विवक्षा से उसका अधिष्ठान कहते हैं
હવે જેના નામથી આ જ મૂઠ્ઠીપ કહેલ છે તે સુન્નુના નામવાળા જાબુનું કથન કરવાની વિવક્ષાથી તેનું અધિષ્ઠાન કહે છે,
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम्
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टीका - 'कहि णं भंते !' इत्यादि - 'कहि णं भंते ! उत्तरकुरा ए २ जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' क खलु भदन्त ! उत्तरकुरुषु जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह - 'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं' हे गौतम! नीलवंतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेनदक्षिणस्यां दिशि 'मंदरस्स' मन्दरस्य - तन्नामक पर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि'माळवं तस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं' माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन - पश्चिमायां दिशि 'सीयाए' सीताया: - एतन्नाम्न्याः 'महाणईए पुरथिमिल्ले' महानद्याः पौरस्त्ये पूर्व दिग्भवे 'कूले' कुले - तटे - सीताद्विभागी कृतोत्तरकुरुपूर्वार्द्ध तत्रापि मध्यभागे 'एस्थ णं उत्तरकुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' अत्र खल उत्तरकुरूणां जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तम्, अस्य मानाद्याह- 'पंच जोयणसया' पञ्च योजनशतानि तत् पीठं पञ्चशतयोजनानि ' आयाम विक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण - दैर्घ्यविस्ताराभ्यां प्रज्ञप्तम् एवमग्रेऽपि कहिणं भंते ! इत्यादि ।
टीकार्थ- 'कहि णं भंते! उत्तरकुराए कुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' हे भगवन् उत्तरकुरु में जंबूपीठ नामका पीठ कहां पर कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में महावीर प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्ययस्स दक्खिणं' हे गौतम! नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिणदिशा में 'मंदरस्स मंदर पर्वत के 'उत्तरेणं' उत्तर दिशाकी ओर 'मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं' माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम दिशा में 'सीयाए महाणइए पुरथिमिल्ले कूले' सीता महा नदी की पूर्व दिशा के किनार में अर्थात् दो भाग कि गइ सीता महानदी के उत्तर कुरु रूप पूर्वार्द्ध में उसके भी मध्य भाग में 'एत्थ णं उत्तरकुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' यहां पर उत्तर कुरु का जंबू पीठ नामका पीठ कहा है ।
अब इसका मानादि प्रमाण कहते हैं-पंच जोयणसयाई' वह पीठ पांचसौ 'कहि णं भंते' त्याहि
टी४र्थ' - 'कहिणं भंते! उत्तरकुराए कुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' हे भगवन् उत्तर કુરૂમાં જ ખૂ પીઠ નામનુ પીઠ કયાં કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં મહાવીર પ્રભુશ્રી કહે छे. - ' गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्त्रयस्स दक्खिणेणं' हे गौतम | नीसव ंत वर्षधर पर्व - तनी दृक्षिण दिशाभां 'मंदरस्स' भर पर्वतनी 'उत्तरेणं' उत्तर द्विशानी तर 'मालवंतस्स वक्खारपव्त्रयस्स पच्चत्थिमेणं' भाट्यवान् वक्षस् र पूर्वर्तनी पश्चिम दिशाभी 'सीयाए महाणईए पुरथिमिल्ले कूले' सीता भडानहीना पूर्व डिनारे अर्थात् मे लागभां विभक्त थयेझ सीता भड्डा नहीना उत्तर ३ ३५ पूर्वाद्धभां तेना यशु मध्य लागभां 'पत्थर्ण उत्तरकुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' त्यां उत्तर३नु यूपीठ नामनु ची उडेल छे. जोयणसयाई' ते पीठ यांन्यसो योजन
हवे ते भानाहि मा ४ छे.- 'पंच
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पगरसएक्कासीयाई' पश्चदश एकाशीतानि-एकाशीत्यधिकानि 'जोयणसयाई किंचिविसेसाहियाई' योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि-किश्चिदधिकानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना, तत-पुनः 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागावच्छेदेन पारसजोयणाई वाहल्लेणं' द्वादशयोजनानि वाहत्येन-पिण्डेन, 'तयणंतर' च णं' तदनन्तरं च-ततः परं च खल्ल 'मायाए २' मात्रया २-क्रमेण २ 'पएसपरिहाणीए २' प्रदेशपरिहान्या किश्चित्प्रदेशस्य हासेन परिहीयमानं-इस्त्रीभवत् 'सम्वेसु णं चरिमपेरंतेसु' सर्वेभ्यः खलु चरमपर्यन्तेपु-अन्तिमपर्यन्तेषु पीठेषु मध्यतोऽर्द्धतृतीययोजनशतोल्लङ्घने 'दो दो गाउयाई द्वे द्वे गव्यूते-क्रोशयुग्मे चतुःक्रोशान्, 'वाहल्लेणं' वाहल्येन-पिण्डेन, 'सव्यजंबूणयामए' तत् जाम्बूनदमयं-जाम्बूनदाख्योत्तमरवर्णमयम् 'अच्छे अच्छम्-आकाश- स्फटिकवदतिनिर्मलम्-एतदुपलक्षणंश्लक्ष्णादीनामपि, तव्याख्या प्राग्वत् । 'से थे' तत्
अनन्तरोक्तं जम्बूपीठ- खलु 'एगाए पउमवरवेइयाए एगेण वणसंडेणं सव्वश्रो समंता' योजन के 'आयामविखंभेणं विस्तार वाला है अर्थात् इतना इसका विष्कंभ है। तथा 'पण्णरस एक्कासीयाई' पंद्रहसो इकासी 'जोयणाई किंचि विसेसाहि.याई योजन से कुछ विशेपाधिक 'परिक्खेवेणं' उसका परिक्षेप अर्थातू परिधि
कही है.। वह पीठ 'बहुमज्झदेसभाए' ठीक मध्य भाग में 'यारस जोयणाई । बाहल्लेणं' घारह योजन स्थूल-मोटा है। 'तयणतरंच णं' तत्पश्चात् 'मायाए मायाए' क्रम फ्रम से 'पएसपरिहाणीए' कुछ प्रदेश का हास होने से लघु होता. हुआ 'सन्चेसु णं चरिमपेरंतेसु' सब से अन्तिम भाग में अर्थात् मध्य भागसे ढाइसो योजन जाने पर 'दो दो गाउयाई दो दो गव्यूत अर्थात् चार कोस 'वाह ललेणं. मोटाई से कहा है । 'सव्व जबूणयामए' सर्वात्मना जम्बूनद नामके स्वर्ण मय है, 'अच्छे' आकाश एवं स्फटिक के समान अत्यन्त निर्मल है यहां 'अच्छ' 'पदः उपलक्षण है अतः श्लक्ष्णादि सब कथन पूर्व के जैसे समझलेवें। 'आयाम विक्खंभेणं' विस्तारवाणु छ. अर्थात हात nि (anan) छ, तथा 'पन्नरस. एक्कासीयाई ५१२ से। ८१ शशी 'जोयणाई किंचि विसेसाहियाई' यानी
विशेषाथि 'परिक्खेवणं' परिक्ष५ मर्थात् परिधि ४ छ. ते पी. 'बहुमज्झदेसभाए' मरा२ मध्य HARI 'वारसजोयणाई वाहल्लेणं' पार योरन रेटयुबई छ. 'तयणंतरं चणं ते पछी 'मायाए मायाए' भश 'पएसपरिहाणीए' ४७ प्रशना डास थवाथी नाना यतi ini 'सव्वेसु णं चरिमपेरंतेसु' माथी छसा मागमा अर्थात् मध्यमामा मत सयल पाथा 'दो दो गाउयाई' मध्ये १०यूत अर्थात् यार 16 'वाहल्लेणं' रेसी माँटा युद्धत ४ छ. 'सव्व जंवूणयामए' सारथी मनः नाभना सुवर्ण भय छ
છે આકાશ અને સ્ફટિકના સમાન અત્યંત નિર્મળ છે. અહીંયાં “અચ્છ પદ ઉપ . सक्षe . तेथील तमाम विशेषण, पडसानीभ सभ७ वा. 'से णं' पू.
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजन्वूवर्णनम् एकया पद्मवरवेदकिया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात्-सर्वदिग्विदिक्षु 'संपरिक्खिते' सम्परिक्षिप्तम् , 'दुहंपि' द्वयोरपि-पभवरवेदिका-वनपण्डयोरुभयोरपि 'वण्णभो' वर्णकावर्णनपरपदसमूहः अत्र योध्यः, स च पचम-पष्ठ सूत्राभ्यां ज्ञेयः, तच्च जम्बूपी ठं जघन्यतोऽपिवरमान्ते विक्रोश्युच्चकथं सुखारोहावरोहम् ? इत्याशङ्कयाह-'तस्स णं' इत्यादि'तस्स गं' तस्य-पूर्वोक्तस्य खलु 'जंबूपेढस्स चउद्दिसीं' जम्बूपीठस्य चतुर्दिशि-चतुरपु दिक्षु-'एए चत्तारि' एतानि-इमानि चत्वारि 'तिसोवाणपडिरूवगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-मुन्दरत्रिसोपानानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, तेषां 'वण्णओ' कर्णकोऽत्र वोध्यः, सच किम्पर्यन्तः इत्याह-'जाय तोरण इं' यावत् तोरणानि-तोरणवर्णनपर्यन्तः, त्रिसोपानप्रतिरूपकवर्ण को द्वादशात्रतो राजप्रश्नीयस्य तोरणवर्णकश्च त्रयोदशसूत्रतो बोध्या, __'सेणं' वह जम्बूपीठ 'एगाए पउमवरवेझ्याए एगेण वणसंडेणं सचओ समंता' एक पभवरवेदिका एवं एक वनपंड से चारों ओर से 'संपरिक्खित्ते' व्याप्त रहता है ? 'दुण्हपि वण्णओ' पद्मवरवेदिका एवं वनपंड का वर्णन सर्व प्रकार से यहां पर समझलेवें वह वर्णन पांचवें एवं छठे सूत्र से ज्ञातकर लेवें।
वह जम्बूपीठ कम से कम चरमान्तमें दो कोस की ऊंचाइ वाला होने से सूख पूर्वक आना जाना कैसे बन सकता है ? इस शंका की निवृत्ति के लिए कहते हैं 'तस्स णं जंबूपेढस्स चउद्दिसी' वह पूर्वोक्त जंबूपीठ के चारों दिशा में 'एए चत्तारि तिलोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता' यह चार सुंदर पगथिएं कहे हैं। उसका 'वष्णओ' समग्र वर्णन यहां पर समझलेवें वह वर्णन कहाँ तक का गृहण करने योग्य है ? इसके लिए कहते है 'जाव तोरणाई' यावत् तोरण वर्णन पर्यन्त उसका वर्णन यहां पर कहलेवें। त्रिसोपान प्रतिरूपकका वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के बारहवें सत्र से एवं तोरण का वर्णन तेरहवें सूत्र से समझ पी. 'एगाए पउमवरवेइयाए एगेण वणसंडेणं सवओं समंता' मे: ५५१२ वह मर यः पन५थी न्यारे त२३थी 'संगरिक्खित्ते' व्यास २ छे. 'दुण्हं पिवण्णओ' ५५१२ વેદિકા અને વનખંડનું વર્ણન પાંચમાં અને છઠા સૂત્રથી સમજી લેવું.
એ જંબૂ પીઠ ઓછામાં ઓછું અરમાન્તથી બે ગાઉ જેટલી ઉંચાઈવાળું હોવાથી સૂખ પૂર્વક આવવા જવાનું (જવર અવર) કેવી રીતે થઈ શકે છે? આ પ્રકારની શંકાના सभाधान भाटे ४ छ-'तस्सणं जंबूपेढस्स चउदिसी' से पूरित पी8नी न्यारे शामा एए चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता' यार सु४२ पाथियाय। ४९ छ. तनु 'वण्णओ' सपू वन महीयां श . ते वर्णन या सुधानुयड ४२वानु छ ? त भाटे ४ छ-'जाव तोरणाई' यावत् तारना न ५ - तेनु न मी यही લેવું. રિસોપાનપ્રતિરૂપકનું વર્ણન રાજપક્ષીય સૂત્રના બારમા સૂત્રમાંથી અને તોરણનું ભર્ણન તેરમાં સૂત્રમાંથી સમજી લેવું. વિસ્તાર ભયથી અહીંયાં તેને ઉલેખ કરેલ નથી.
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ___ अथ जग्वूपीठस्य मणिपीठिका वर्णयितुमाह-'तस्स णं जंबूपेढस्स बहुमज्झदेसभाए' तस्य खलु जम्बूपीठस्य बहुमध्यदेशभागः-अत्यन्तमध्यदेशभागः अस्तीतिशेपः, 'एत्य णं' अत्र-अत्रा तो खलु मणिपेढिण' मणिपीठिका-मणिमयासनविशेषः, 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, साच 'भट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं' अष्ट योजनानि आयाम-विष्कम्भेण-दैर्घ्य-विस्ताराभ्याम् , 'चत्तारि जोयणाई वाहल्लेणं' चत्वारि योजनानि वाहल्येन-पिण्डेन, 'तीसे गं' तस्याः-अनन्तरोतायाः खलु मणिपेढियाए उम्पि' मणिपीठिकायाः उपरि-उर्वभागे 'एत्थणं जंबू सुदंसणा' अत्र खलु जम्बू:-सुदर्शनानाम्नी 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, तस्या मानमाह-'अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चरेणं' अष्ट योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'अद्धजोयणं उव्वे हेणं' अर्द्ध योजनम् उद्वेधेनभूप्रवेशेन, अथास्याः स्कन्धमानमाह-'तीसे थे' तस्याः-मणिपीठिकायाः खलु 'खंधो' स्कन्धः- कन्दादुपरितनशाखानिर्गमनस्थानपर्यन्तोऽवयवः 'दो जोयणाई उद्धं उच्च तेणं' लेवें विस्तार भय से यहां उल्लेख नहीं किया है।
अब जंबूपीठ की मणिपीठिका का वर्णन करते हैं-'तस्स णं जंव पेढस्स वह मज्झदेसभाए' उस जंबूपीठका ठीक मध्य भाग में 'एत्थ णं मणिपेढिया पण्णत्ता' मणिपीठिका कही है। 'अद्ध जोयणाई आयामविक्खभेणे' वह जंबूपीठ की मणिपीठि का आठ योजन की लंबाई चोडाई वाली है। 'चत्तारि जोयणाई बाहल्लेण' चार योजन की माटाई वाली है । 'तीसे णं मणिपेढियाए' वह पूर्वोक्त उस मणिपीठिका के 'उप्पि' ऊपर के भाग में 'एत्थ णं जंबूसुदंसणा पगत्ता' जंबुसुदर्शना नाम की मणिपीठिका कही है । 'अट्ट जोयणाई उडूं उच्चत्तेणंवह पीठिका आठ योजन की ऊंची है, 'अद्ध जोयणाई उव्वेहेणं' आधा योजनका उसका उद्वेध हैं अर्थात् इतना भाग भूमि के भीतर प्रविष्ट है।
अब इसका स्कंधका मान कहते हैं-'तीसे गं' उस मणिपीठिका का 'खंधो' स्कन्ध-कन्द से उपर की शाखा का उद्गमस्थान पर्यन्त का भाग 'दो जोयणाई
दीपनी मणिपा४िानुन ४२वामां मावे छ.-'तस्स णं जंबूपेढस्स बहुमझदेसभाए' समूपीना परामर क्या मागमा 'एत्थणं मणिपेढिया पण्णत्ता' मणिपी. हेस . 'अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं' ते भूषीनी भणियाsellen पडणा म ४ योनि रेखा छे. 'चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं' नी antयार योनी छे. 'तीसेणं मणिपेढियाए' ते पूत मणिपी.नी 'उप्पि' 8५२ मामा 'एत्थणं जंबूसुदंसणा पण्णत्ता' पू सुदृशना नामनी मणिपी88183 छ. 'अमोयणाई उड्ढे उच्चत्ते fallst मा यौन सी या छ. 'अद्धजोयणाई उन्वेहेणं' अर्धा यौन सी તેના ઉદે છે. અર્થાત એટલો ભાગ ભૂમિની અંદર રહેલ છે.
तेना २४ भागनु भा५ मतावे. छ.-'तीसेणं ये भलिपीन 'खंघे २४.५ या ५२नी मानुगमस्थान सुधीन मा 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तण' में यान
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः स. २३ सुदर्शनाजग्वूवर्णनम् द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन-उच्छ्रयेण, 'अद्धजोयणं बाहल्लेणं' अर्द्धयोजनं वाहल्येन-पिण्डेन प्रज्ञप्त इति सम्बन्धः, 'तीसे णं तस्याः-पूर्वोक्तायाः मणिपीठिकायाः खलु 'साला' शालाविडिमापरपर्याया दिक् प्रसूता शाखा 'छजोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' षडू योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, तथा 'वहुमज्झ देसभाए' बहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागे "अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं' अष्ट योजनानि आयाम-विष्कम्भेण-दैर्घ्य-विस्ताराभ्याम्, जम्बूः प्रज्ञप्तेति बोध्यम्, तानि चास्याः स्कन्दोपरितनभागाच्चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येक मेकैका शाखा निर्गता, ताश्च शाखाः क्रोशोनानि चत्वारि योजनानि तेन पूर्वापरशाखा दैर्घ्य-स्कन्धबाहल्यसम्बन्ध्यर्द्धयोजनमेलनेनानन्तरोक्तसंख्या पूर्तिर्जायते बहुमध्यदेशभागश्चात्र व्यावहारिको ग्राह्यः, वृक्षादीनां शाखोद्भवस्थाने मध्यदेशस्य लोकव्यवह्रियमाणत्वात्, यथापुरुष कटिभागीमध्यदेशो व्यपदिश्यते, अन्यथा विडिमायाः द्वियोजनातिक्रमणे निश्चितस्य मध्यदेशभाषस्य उद्धं उच्चत्तणं' दो योजन के ऊंचाइ एवं 'अद्ध जोयणाई बाहल्लेणं' आधा योजन का मोटा कहा है 'तीसे णं साला' वह पूर्वोक्त मणिपीठिका की शाखाएं 'छ जोयणाई उद्धं उच्चत्तर्ण' छ योजन की ऊंची 'अट्ट जोयणाई आयाविखंभेण' आठ योजन की लंबाई चोडाइ वाली कही है। वे शाखा के 'बहुमज्झदेसभाए' ठीक मध्य भाग में 'अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं' आठ योजन पर्यन्त की लम्बी चोडी कही है । वे शाखाएं इसके स्कन्द के ऊपर के भाग से चारों दिशा में प्रत्येक दिशा में एक एक के क्रम से चार नीकलती है। वे शाखाएं एक कोस कम चार योजन की कही है । अतः पूर्व पश्चिम की शाखा की लंबाई-स्कन्धकी मोटाई सम्बन्धी आधा योजन मिलाने से पूर्व कथित संख्या की पूर्ति हो जाती है। बहुमध्य देश भाग यहां पर व्यावहारिक लेना चाहिए कारण की वृक्षादि की शाखा के उद्गमन स्थान को लोक में मध्य देश भाग से व्यवहार करते हैं। रेसी यावा मन 'अद्धजोयगाई वाहल्लेण' मा यो at ml Yो छ. 'तीसेणं साला' ते पूर्व मणिपानी शालामा 'छ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' छ योन २८क्षी यी छे. 'अटु जोयणाई आयोमविक्खंभेणं' मा योरन रेसी पहा डेस छ. ये शामायाना 'बहुमज्झदेसभाए' परेरा॥२ मध्यभागमा 'अदु जोयणाई आयामવિરમે આઠ જન જેટલી તેની લંબાઈ અને પહોળાઈ કહેલ છે. તે શાખાઓ તેના સ્કંદથડના ઉપરના ભાગથી ચારે દિશાઓમાં-દરેક દિશામાં એક એકના ક્રમથી ચાર નીકળે છે. તે શાખાઓ એક ગાઉ ઓછા એવા ચાર જન જેટલી કહેલ છે. તેથી તેની પૂર્વ પશ્ચિમ દિશાની શાખાની લંબાઈ–થડની જાડાઈમાં અર્ધા જન જેટલી વધારવાથી પૂર્વકથિત સંધ્યાની પૂર્તિ થઈ જાય છે. અહીંયાં બહુમ દેશભાગ વ્યવહારિક લે જોઈએ કારણ કે વૃક્ષાદિની શાખાઓના ઉદ્દગમનસ્થાનને મધ્યભાગ તરીકે વ્યવહાર કરે છે. જેમ પુરૂષના કમ્મર ભાગને મધ્યભાગ તરીકે કહે છે. આ રીતે ન કહે તે શાખાના બે
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जम्बूडीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
ग्रहणे पूर्वापरशाखाद्वयविस्तारस्य विषमश्रेणिकत्वाद् ग्रहणं प्रसक्तं स्यात्, यद्वा-बहुमध्यदेशभागः कासामित्यपेक्षायां शाखानामिति गम्यते, यतश्चतुर्दिक् शाखामध्यभागस्तस्मिन्नित्यर्थः, अष्टयोजनानयनं तु प्राग्वदेव । उच्चताया तु 'सच्चग्गेणं' सर्वाग्रेण सर्वसङ्ख्यया कन्द-स्कन्धचिडिमापरिमाणमेलने 'साइरेगाई' सातिरेकाणि - किश्चिदविकानि 'अह जोयणा' अण्ड योजनानि जम्बूसुदर्शना प्रज्ञप्तेति सम्बन्धः । अथास्या वर्णकमाह - 'तीसे णं अयमेयारूवे - वण्णावासे पण्णत्ते' तस्याः - जम्बूसुदर्शनायाः खलु अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, 'बहरामया मूला' वज्रमयानि - वज्ररत्नमयानि मूलानि यस्या सा तथा दीर्घश्च प्राकृतत्वात्, 'स्वयसुपट्टियविडिया' रजतसुप्रतिष्ठित विडिमा - रजतमेव- उन्मयी सा चासौ सुप्रतिष्ठितविडिमासुप्रतिष्ठिता-गुण्डु स्थिता विडिमा - बहुमध्यदेशभागे उपरिनिस्सृता शाखा यस्या सा तथा, 'जाव' यावत् - यावत्पदेन चैत्यवृक्षवर्णकः सर्वोऽपि ग्राह्योऽत्र । किम्पर्यन्तो वर्णक इत्याहजैसा पुरुष के कटिभाग को मध्य भाग से कहते हैं, इस प्रकार न कहे तो शास्त्रा के दो योजन पर्यन्त फैलने पर निश्चित मध्यभाग का गृहण करने पर पूर्व पश्चिम की दो शाखा के विस्तार की विषम श्रेणी हो जाती अतः यह व्यावहारिक मध्यभाग ग्रहण करना ठीक है । अथवा किसका चहुमध्यदेशभाग इस अपेक्षा में शाखा का ऐसा जान पडता है अतः चारों दिशा की शाखा का मध्य भाग ऐसा कहा जायतो पहले के कथनानुसार आठ योजन आजाता है । उच्चत्व के बारे में 'सव्वग्गेणं' सर्वात्मना स्कन्द-स्कन्ध एवं शाखा का मान का मिलान करने से 'साइरेगाई' कुछ अधिक ' जोयणाई' आठ योजन की जम्बू सुदर्शना कही है ।
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अब जंबू सुदर्शनाका वर्णन करते हैं- 'तीसे णं अयमेयाख्ये वण्णावासे पण्णत्ते' उस जंबू सुदर्शना का वर्णन प्रकार इस प्रकार कहा है- 'चहरामया मूला' चन्नरत्नमय उसका मूल भाग है 'रयय सुपइडियदि डिमा' रजतमय सुप्रतिष्ठित विडिया - शाखाएं हैं अर्थात् बहुमध्य देशभाग में ऊपर की ओर
ચેાજન પર્યંન્ત ફેલાવાથી નિશ્ચિત મધ્યભાગનું ગ્રહણ કરવાથી પૂર્વ પશ્ચિમની એ શાખાના વિસ્તારની વિષમ શ્રેણી થઇ જાત એથી આ વ્યવહુ રિક મધ્યભાગ ગ્રહણુ કરવા એજ ઉચિત છે. અથવા કેના મર્હુમધ્ય દેશભાગ એ અપેક્ષામાં શાખાના મધ્ય ભાગ એમ હેવામાં આવે તે પહેલાના કથન પ્રમાણે આઠ ચેાજન આવીન્દ્ર ય છે. ઉંચાઇના કથનમાં 'सत्रोण' सर्वात्मना २४४-२४६ शाणानु भाय भेजववाथी 'साइरेगाइ' ३४४ वधारे 'अट्ठ जोयणाई' या योजन नेटसी णू सुदर्शना महेस .
हवे सुदर्शननु वार्जुन श्वामां आवे छे- 'तीसेणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' सुदर्शननो वर्णन प्रहार मा रीते डेस छे. - ' वइरामया मूला' १०० २त्न भय तेना भूज लाग छे. 'रययसुपइट्टिय विडिमा' २४तभय सुप्रतिष्ठित विडिभा-शाणाओ छे. अर्थात् महुभभ्य हेशलागभां उपरनी तरह नीम्जेस शायायो छे. 'जाव' यावत्
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् 'अहियमणणिव्वुइकरी' अधिकमनोनिवृतिकरी-अत्यन्तचित्ताऽऽनन्दकारिणी 'पासाईया दरिसणिज्जा' प्रासादीयदर्शनीयेत्यादिप्राग्वत् । ___ अथास्याः शाखाः परिगणयन्नाह-"जंबूएण सुदंसणाए चउदिसिं' जम्ब्वाः खलु सुदर्शनायाः चतुर्दिशि-दिश्चतृष्टये 'चत्तारि साला पण्णत्ता' शालाः-शाखाः ताः प्रतिदिक् एकै केति चतस्रः प्रज्ञप्ताः, 'तेसि णं' तासां-अनन्तरोक्तानां खलु 'सालाणं' शालानां-शाखानां यो 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागोऽस्ति, 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु उपरितनविडिमाशाखायामित्यर्थः, एकं 'सिद्धाययणे पण्णत्ते' सिद्धायतनं प्रज्ञतम्, इदं च सिद्धायतनं वैतादयगिरिसिद्ध कूटगतसिद्धायतनवद बोध्यम् अस्य मानाद्याह-'कोसं आयाणं' कोशमायामेन-दैर्येण 'अद्धकोसं विक्खंभेणं' अर्द्धकोशं विष्कम्भेण विस्तारेण, 'देसूणगं देशोनं-किश्चि. नीकली हुई शाखाएं है । 'जाच' यावत् चैत्यवृक्ष के वर्णन के समान समग्र वर्णन यहां पर कहलेवें। यह वर्णन कहां तक का ग्रहण करना चाहिए। इसके लिए कहते हैं-अहियमणणिचु इकरी' अत्यन्त चित्तको आनंद कराने वाली 'पासा- . इया दरिसणिज्जा' प्रासादीय दर्शनीय इत्यादि पहले कथनानुसार समझलेवें। __अब शाखा की गिनती करते हुए कहते हैं-'जंबूएणं सुंदसणाए चउद्दिसिं जंबूसुदर्शना की चारों दिशामें 'चत्तारि साला पण्णत्ता' चार शाखाएं कही है 'तेसिं णं सालाणं' वे पूर्वोक्तशोखाओं का जो 'बहुमज्झदेसभाए' ठीक मध्य भाग है 'एत्थ णं यहां पर अर्थात् ऊपर शाखा में "एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते' एक सिद्धायतन कहा है । यह सिद्धायतन वैताढयगिरि के सिद्ध कूट में कहा गया सिद्धायतन के जैसा जाने।
'अब उसका मानादि प्रमाण कहते है 'कोसं आयामेणं' एक कोस उसका आयाम नाम लंबाई चोडाई कही है । 'अद्धकोसं विक्खंभेणं' आधा कोसका ચિત્ય વૃક્ષના વર્ણન પ્રમાણે બધું જ વર્ણન અહીંયાં કરી લેવું. એ વર્ણન ક્યાં સુધીના माहियां पानु छ. ते भाटे सूत्र४.२ ४९ छे. 'अहियमणणिव्वुडकरी' चित्तने. सत्यत भान ४ ४२११नार 'पासाइया दरिसणिज्जा' प्रासादीय शिनीय प्रत्याहि पाडेसा हा प्रमाणे અહીંયાં કથન સમજી લેવું.
वे पानी गात्री ४२di ४९ छ -'जंबूएणं सुदंसणाए ‘चउदिसिं' यू सुशिनाना यारे हिशामा 'चत्तारि साला पण्णत्ता' या२ शामाया उस छे. अर्थात ४२४.शामा में सेना भया यार शा थाय छ. 'तेसिंणं सालाणं' ये शामायाना रे बहस देसभाए' भरोस२ पयो म छ. 'एत्थणं' त्यो मा अर्थात मानी 6.५२ 'एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते में सिद्धायतन उस छ. मे सिद्वायतन वैताय नि सिद्ध टमा કહેલ સિદ્ધાયતનના જેવું સમજવું.
व त भान प्रभyj ४थन ४३ छ.-'कोसं आयामेणं' मे8 2 ना
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अम्यूहीपप्रवनिमः धेशन्यून 'कोसं उद्धं उच्चत्तेणं' क्रोशम्-उर्ध्वमुच्चत्वेन, तथा-'अणेगखभसयमणिविहे! अनेकस्तम्भशतसग्निविष्टम्-इत्यारभ्य 'जाव दारा' यावद् द्वाराणि-द्वारपर्यन्तवस्तु वर्णकोऽत्रबोध्या, अनेकस्तम्भादिपदव्याख्या पञ्चदशसूत्राब्दोध्या, द्वारपर्णनमष्टमसूत्रोक्त विजयद्वाराधिकाराब्दोध्यम्, तानि द्वाराणि च 'पंचवणुसयाई' पञ्चधनुःशतानि-पञ्चगनीधषि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन इत्यारभ्य 'जाव वणमालाभा' यावत् वनमालाः-वनमाला पर्यन्तवर्णन. मिह बोध्यम्-अत्र 'मणिपेढिया' मणिपीठिकाऽपि वर्णनीया सा च 'पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं' पञ्चधनु:-शतानि आयामविष्कम्मेण-देय-विस्ताराभ्याम् 'अदाइज्जाई घणुसंयाई वाल्टेणं' अर्धवतीयानि धनुः शतानि बाहल्येन पिण्डेन, 'तीसे णं तस्याः अनन्तरोक्तायाः खलु 'मणिपेढियाए उपि' मणिपीठिकायाः उपरि-ऊर्श्वभागे 'देवच्छेदए' टेवउसका विस्तार है 'देसणं कोसं उद्धं उच्चत्तण' कुछ कम एक कोस का ऊंचा है। तथा 'अणेगखंभलय सगिविहो अनेक सेंकडों स्तम्भों से मन्निविष्ट यहां से आरंभ करके 'जावदारा' यावत द्वार पर्यन्त का वर्णन यहाँ पर समझलेवें' अनेकस्तम्भादि पदों का अर्थ पंद्रहवें मूत्र से समझलेवें । दारों का वर्णन आठवें सूत्र में कहे गए विजयद्वाराधिकार से जानलेवें । वे द्वार 'पंच धणुसयाई' पांचसों धनुप के ऊंचे कहे हैं यहां से आरंभ करके 'जाव वर्णमालाओ' यावत् बनमाला-चनमालाके वर्णन पर्यन्त का वर्णन यहां पर ग्रहण कर लेवें । यहाँ पर 'मणिपेढिया' मणिपीठिका का वर्णन भी वर्णित करलेवें। यह मणिपीठिका का 'पंचधणुसयाई आयामविस्खंभेणं' पांचमो धनुप का आयाविष्कंभ कहा है। 'अद्धाइलाई धणुसयाई चाहल्लेणं' दाहसोचनुप की मोटाई कही है, 'तीसेणं मणिपेढियाए उम्पि' उसमणिपीठिका के ऊपर 'देवच्छंदप' देवों के बैठने का मायाम-मर्थात् पहा . 'अद्धको विकाभग' म गाउ २a तना KdR 2. 'देसूर्ण कोसं उद्धं उच्चत्तण' ४ मे रे शी तेनी या छे. तथा 'अणेगखंभसयसन्निविद्वा' अने से साथी सन्निविष्ट असाथी सालान 'जाव दारी' यावत् ६२ सुधानुन माया सभ७ . सन २ ५होना अर्थ પંદરમાં સૂત્રથી સમજી લે હારનું વર્ણન આઠમા સૂરમાં કહેલ વિજય દ્વારના અધિકાર भांथा सम द्वारा 'पंच धगुमयाई पाय धनु५ २८मा या ४३ छे. मा ४थनथी २२ ४रीने 'जात्र वणनालाओ' यारत नमस-नभाणाना वन ५/- वन महीयां संभ से. महाया मणिपेडिया' भानु पन पy दे. शेते मणिपानि पंचधणुसयाई आयामविक्ख भेणं' पांयसो धनुष २८ मायाम वि०४४दी छ. अद्धाइज्जाइं धगुसयाई बाहल्लेण' मढी से धनुष २रता तनी 1315 ४२द छ 'तीसेणं मणिपेढियाए उपि' म मणिपीनी 6५२ 'देवच्छंदए' देवाने सवाना मासन ४८ छे. ते मासन 'पंच धणुसयाई उद्धं उच्चत्तणं'
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सृ. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् छन्दकं-देवोपवेशनार्थमासनम् प्रज्ञसम्, तच्च 'पंचधणुसयाई' पञ्च धनुःशतानि-पञ्चशतधपि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेणं 'साइरेगाई' सातिरेकाणि-साधिकानि पंच धणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं' पञ्चधनु:-शतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन । अत्र 'जिणपडिमा वण्णओ' जिन प्रतिमावर्णको बोध्या, स च प्राग्वत् ‘णेयव्योत्ति' नेतव्यः-ग्राह्यः, इति । 'तत्य णं तत्र-चतम शालासु खलु 'जे से पुरथिमिल्ले' या सा पौरस्त्या-पूर्व दिग्गता 'साले' शालाऽस्ति एत्थ पां' अत्र-अत्रान्तरे खल्लु एकं 'भत्रणे' भवनं-गृह 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् तच्च मानतः 'कोसं आयामेणं' क्रोशमायामेन प्रज्ञप्तम्, 'एवमेव' एवमेव-भवनवदेव ‘णवरमित्थ' नवरं-केवलम् अत्र-भवने 'सयणिज्ज' शयनीयं शय्या, वर्णनीयम् 'सेसेसु' शेपासु-पूर्व दिगवस्थितशालातिरिक्ताम दाक्षिणात्यादि शालासु मूले पुंस्त्वं प्राकृतत्वाब्दोध्यम् प्रत्येकमेकैकसद्भावेन त्रयः 'पासायवडेंसया' प्रासादातंसका:-प्रासादवराः 'सीहासणा सपरिवारा' सिंहासनानि-सपरिवाराणि आसन कहा है वह आसन 'पंच धणुलयाई :उद्धं उच्चत्तणं' पांचसो धनुष का ऊंचा है । यहां पर 'जिणपडिमावण्णओ' जिनप्रतिमा व्यन्तरादिक का वर्णन कर लेवें। वह वर्णन पहले कहे अनुसार 'णेयव्वोत्ति' समझलेवें। . ___'तत्थ णं'चार शाखा में 'जे से पुरथिमिल्ले साले' जो पूर्व दिशा की ओर गई हुई शाखा है 'एत्थ गं' वहां पर एक 'भवणे' भवन 'पण्णत्तं' कहा है। उसका मान 'कोसं आयामेणं' एक कोस का उसका आयाम कहा है 'एव मेव' भवन- . के जैसा ही उसका वर्णन समझलेवें ।'णवरं मित्थ' विशेष केवल इस भवन में 'सयणिज्ज' शय्या का वर्णन करलेवें' 'सेसेसु' पूर्वदिशा में गई हुई शाखा से अतिरिक्त दक्षिण दिशादि अन्य दिशा की ओर गई हुई शाखाओं में मूल में जो पुल्लिग से निर्देश किया है वह प्राकृत होने से हुवा है ऐसा समझले । प्रत्येक दिशामें एक एक के क्रम से तीनों दिशा की तीन शाखा होती है 'पासायः वडे सया' प्रासादावतंसक अर्थात् उत्तम महल 'सीहासणा सपरिवारा' भद्रासनादि पायसे। धनुष २८९यु छ. महीयां 'जिणपडिमा वण्णओ' अन्त प्रतिन भानु वयुन ४ . मे पशु न पडता ४ा प्रमाणे 'णेयव्वोत्ति' सभ से 'तत्थणं' थे यार शामायामा 'जे से पुरथिमिल्ले साले' ने पू त२३ गये शामा छे. 'एत्थणं त्यांस 'भवणे' सवन 'पण्णत्तं' ४ छ. तनु भान-कोसं आयामेण में DIR तन मायाम ४डस छ ‘एवमेव' मनन ४थन प्रमाणे तनु वन सभा ‘णवरमित्थ' विशेष 4 मा सपनमा 'सयणिज्ज' शव्यानु पाणुन ४Nag, 'सेसेसु' शमां गये सिवायनी दक्षिण वगेरे हिशमां गयेस शापामा મૂલમાં જે પુલિંગથી નિર્દેશ કરેલ છે તે પ્રાકૃત હેવાથી થયેલ છે. તેમ સમજવું. દરેક BALHi - मेना भथी त्रणे शनी ३ शामाया थाय छे. 'पासासवडेंसया' HIATRA' अर्थात उत्तम भय 'सीहासणा सपरिवारा' मद्रासन परिवार सहित .
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र मद्रासनपरिवारसहितानि वक्तव्यानि, इति, तेषां प्रासादावतंसकानां प्रमाणं भवनस्येव बोध्यम् तत्र शयनीयानि खेदापनोदार्थानि, प्रासादावतंसकेषु सर्वेषु त्यास्थानपरिषद् इति बोध्यम् ।
ननु भवनानि विपमाऽऽयामविष्कम्माणि भवन्ति पद्मदादि-मूलपद्मभवनानां तथा दृष्टत्वात् प्रासादस्तु समानायामविष्कम्माः दीर्घवैताढयकूटगतानां वृत्तवैताढयगतानां विजयादि राजधानीगतानां तदतिरिक्तानामपि विमानादिगतानां प्रासादानां समचतुष्कोणत्वेन समानावामविष्कम्भत्वस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात् कथमत्र प्रासादानां भवनवत् प्रमाणं घटते ?
उच्यते-'ते पासाया कोसमूसिया अद्धकोसवित्थिण्णा' इत्यस्य गाथार्द्धस्य वृत्तौ 'ते प्रासादा क्रोशमेकं देशोनम्' इति शेषः, उच्छ्रिता:-उन्नताः, अर्द्धक्रोशम्-कोशस्यार्द्धम् विस्तीर्णाः विस्तारयुक्ताः, परिपूर्णमेकं क्रोशं दीर्घा इति केचिदाहुः, तथा-जम्बूद्वीपसमासप्रकरणे 'प्राच्ये गाले भवनम् इतरेपु प्रासादाः मध्ये सिद्धायतनं सर्वाणि विजयार्द्धमानानीति श्रीमदुपरिवार सहित सिंहासन कहलेवें । उन प्रासादावतलकका प्रमाण भवन के जैसा समझलेवें । वहां खेददूर करने योग्य शयनीय, सर्व प्रासादावतंसको में आस्थान परिषद कही है ऐसा समझलेवें।
शका-भवन विषम आयामविष्कम्भ वाले होते हैं, पद्महृदादि मूल पद्म भवनों में उस प्रकार देखेजाने से । प्रासाद तो समान आयाम विष्कंभ वाले होता है । दीर्घ वैतादय कूटगत, वृत्तवैताढ्य कूट गत, विजयादि राजधानीगत उनसे अतिरिक्त विमानादि गत प्रासादों के समचतुष्कोण होने से समान आयाम विष्कंभवाला होना सिद्धान्त सिद्ध है, तो यहां पर प्रासादों के भवन के जैसा भमाण किस प्रकार घटित होता है ?
- उत्तर-'ते पासाया कोसमूसिया अद्धकोसवित्थिण्णा' इस गाथा की वृत्ति में 'ते प्रासादा क्रोशमेकं देशोनं' यह शेष है अर्थात वे प्रासाद कुछ कम एक कोश ऊंचे हैं, एवं आधा कोसका उसका विस्तार है। परिपूर्ण एक कोस लंबे हैं ऐसा સિંહાસને કહી લેવા. એ પ્રાસાદાવર્તસકનું પ્રમાણ ભવનના પ્રમાણે જેટલું સમજી લેવું. ત્યાં ખેદ દૂર કરવા ગ્ય શયનીય તથા સર્વ પ્રાસાદાવતંસકેમાં આસ્થાન પરિષદ્ કહેલ छ. तेभ समन
* શંકા-ભવને વિષમ આયામ વિધ્વંભવાળા હોય છે. પહદાદિ મૂળ પદ્ધ ભવનમાં એ રીતે જોઈ શકાય છે. અને પ્રાસાદ સમાન આયામ વિષ્કલવાળા હોય છે. દીર્ઘ વિતાઢય કુટ ગત તેનાથી અતિરિક્ત વિમાનાદિગત પ્રાસાદે સમચતુષ્કણ હોવાથી સમાન આયામ વિધ્વંભનું દેવું સિદ્ધાંત સિદ્ધ છે તે અહીંયાં પ્રાસાનું ભવનના સરખું પ્રમાણ કેવી રીતે ઘટી શકે છે? • उत्तर-'ते पासाया कोसभूमिया अद्धकोसवित्थिण्णा' 241 यानी वृत्तिमा 'ते प्रासादा क्रोशमेकं देशोनं, मा २५ छ. अर्थात ते प्रासाही ४ माछा मे 16 २८८i -या
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् मास्वातिवाचकः, तथा-पासाया सेसदिसासालासु वेयद्धगिरिगयव्य तओ' इत्यत्या गाथाया अवचूर्णी-शेपासु तिसृषु शाखासु प्रत्येक मेकैव भावेन तत्र त्रयः प्रासादा:-आस्थानोचितानि मन्दिराणि देशोनं क्रोशमुच्चाः क्रोशार्द्ध विस्तीर्णाः पूर्ण क्रोशं दीर्घाः' इति गुणरत्नसूरयः प्राहुः। तदाशयेन प्रस्तुतोपाङ्गस्योत्तरत्र जम्बूपरिक्षेपकवनवापीपरिगतप्रासादप्रमाणसूत्रानु. सारेण च जस्यूप्रकरणासादा विषमाऽऽयामविष्कम्भाः सन्तीति निश्चिमः । यत्तु जीवाभिगमसूत्रवृत्तौ-'क्रोशमेकमूर्ध्वमुच्चस्त्वेन अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेण' इत्युक्तं तच्चिन्त्यम् । ___ अधास्याः पद्मवरवेदिकादि स्वरूपमाह-'जंबू णं' इत्यादि-'जंवू णं' जन्बूः खलु किसी का मत है । तथा जंबुद्धीप के समास प्रकरण में पूर्व की शाला में भवन एवं अन्य शाला में प्रासाद तथा मध्य में सिद्धायतन ये सबका मान जो विजयद्वार के वर्णन में कहा है उससे आधा है, ऐसा उमास्वाति वाचक का कथन है। तथा 'पासाया सेसदिसासालास्तु वेयद्धगिरि गयव्वतओ' इस गाथा की अवचूर्णि में शेष तीन शाखाओं में प्रत्येक में एक एक के क्रम से तीन प्रासादठहरनेयोग्य स्थान वह कुछ कम एक कोस ऊंचे हैं आधाकोसका उसका विस्तार है, एक कोस पूरे लंबे हैं इस प्रकार गुणरत्न सूरिका कथन है । इस आशय से प्रस्तुत उपांग में कहा हैं यहाँ जम्बूपरिक्षेपक वन, वन, में कहे गए. प्रासाद का प्रमाण सूत्रानुसार जम्बू प्रकरण प्रासाद से विषम आयाम विष्कंभवाले हैं ऐसा निश्चित है । जीवाभिगम सूत्र की वृत्ति में एक कोस ऊंचा एवं आधा कोसका विष्कंभ वाला कहा है वह विचारणीय है।
___ अब इसकी पद्मवरवेदिकादिके स्वरूपका कथन करते हैं-जंपूर्ण जंबूद्वीप 'धारसहि बारह 'पउनयरवेदयाहिं' प्राकार विशेषरूप पद्मवरवेदिकाले 'सव्वओ: છે. તેમજ અર્ધા કેસને તેને વિસ્તાર છે. પરિપૂર્ણ એક ગાઉ જેટલા લાબા છે. એમ કોઈકને મત છે. તથા જંબુદ્વીપના સમાસ પ્રકરણમાં પૂર્વની શાલામાં ભવન તથા અન્ય શાલામાં પ્રાસાદ તથા મધ્યમાં સિદ્ધાયત એ તમામનું માપ જે વિજય દ્વારના વર્ણનમાં ४ छ, तनाथी मधु छ, म भापति वायनुयन छ. तथा 'पासाया सेसदिसा सालासु वेयद्धगिरि गयव्वतओ' यानी मवयू मां शेष नाप शामायामा २४भा समाना ફમથી ત્રણ પ્રાસાદે-રહેવા ગ્ય સ્થાન છે. તે કંઈક કમ એક ગાઉ જેટલા ઉંચાં છે. અર્ધા ગાઉ જેટલે તેને વિસ્તાર છે. પૂરા એક ગા:જેટલા લાંબા છે. આ પ્રમાણે ગુણરત્નસરીને કથન છે. આ આશયથી પ્રસ્તુત ઉપાંગમાં કહ્યું છે. અહીંયાં જંબૂ પરિક્ષેપક વન, વાવમાં કહેલા પ્રાસાદનું પ્રમાણ સૂત્રાનુસાર જંબૂ પ્રકરણના પ્રાસાદેથિ વિષમ આયામ વિઠ્ઠભવાળું છે, એ નિશ્ચિત છે. જીવાભિગમ સૂત્રની વૃત્તિમાં એક ગાઉ ઉચા અને અર્ધા ગાઉન વિષ્ક. सवा ४ छे. ते वियाय छे. ।
व तेनी ५५१२ allना १३५नु ४थन ४२वामा मा छ -'जंबूर्ण' दीय 'बारसहि' मार 'पउमवरवेइयाहि' प्रा. विशेष३५ ५५१२ हाथी 'सव्वओ समंता'
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'वारसहि' द्वादशभिः-द्वादशसंख्यकाभिः 'पउमवरवेइयाहिं पद्मवरवेदिकाभि:-प्राकारविशेषरूपाभिः 'साओ' सर्वतः सर्वदिक्षु 'समंता' समन्ताद-सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ता' सम्परिक्षिप्ता-परिवेष्टिता अस्तीति शेपः, तासां-'पउमवरवेइयाणं वष्णओ' पद्मवरवेदिकानां वर्णकः प्राग्वद वक्तव्यः, स च चतुर्थसूत्राद् ग्राह्यः । इमाश्च पद्मवरवेदिकाः मूलजम्, परिवेष्टय स्थिता वोध्याः, यातु पीठपरिवेष्टिका पदमवरवेदिका सा पूर्वमेव प्रतिपादिता।
अथास्याः जम्न्याः प्रथमपरिक्षेपमाह-'जंवू णं अण्णेणं' इत्यादि-'जंवू णं अण्णेणं' अम्वृः खलु धन्येन-स्वातिरिक्तेन 'अट्ठसएणं' अप्टशतेन-अष्टोत्तरशतेन 'जवणं' जम्बुनांजम्वृवृक्षाणां 'तदधुच्चत्ताणं सचओ समंता संपरिक्खित्ता' तदर्बोच्चत्वानां सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ता, तत्र 'तदर्बोच्चत्वानामित्युपलक्षणं, तेन तदर्थोद्वेषायाम वप्पाम्भाणामित्यपि जम्नां विशेषणसमर्पक बोध्यम् । तस्याः-मूल जम्याः अर्धम्-अर्धप्रमाणाः उद्वेधायामविष्कम्भा यासां जम्बूनां तास्तदोवधायामविष्कम्मास्तासां तथा, तथाहि--'ता अप्टाधिकशतमख्या जम्चः प्रत्येकं चत्वारि योजनानि उच्चस्त्वेन क्रोशमेकमवगाहेन एक समंता' सर्वतः चारों ओर से 'संपरिक्खित्ता' परिवेष्टित है । वे 'पउभवरवेझ्या णं वण्णओ' पद्मवरवेदिकाकावर्णन पहले के समान कहलेवें । वह वर्णन चौथे सूत्रानुसार ग्रहण करले। इन पद्मवरवेदिका मूल जंबू को वेष्टित होकर स्थित है ऐसा समझें । जो पीठकोपरिवेष्टित पद्मवरवेदिका कही है वह पहले ही प्रतिपादित की है। ___ अब इस जंबूका प्रथमपरिक्षेप का कथन किया जाता है-'जंबू णं अण्णेण' जंबू दूसरे 'अट्ठसएण' एकसो आठ 'जंबूर्ण' जंबूवृक्षों से कि जो 'तदधुच्च त्तार्ण सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता' मूल जंबू से आधि ऊंचाइ वाले चारों ओर से परिवेष्टित करके स्थित हैं ? यहां पर तद्वोच्चत्व यह उपलक्षण है, इससे उससे आधा उमेध आयाम विष्कंभका भी ग्रहण हो जाता है, मृल जंवू से आधा प्रमाणका उध-आयाम विष्कंभवाले वे एकसो आठ जंबू प्रत्येक चार सर्वतः यारे मान्नुथी 'संपरिक्खित्ता' वाटायल छ. a 'पउमवरवेइयाणं वण्णओ' पावर વેદિકાનું વર્ણન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે ગ્રહણ કરી લેવું. આ પવરવેદિકા મૂળ જંબૂને વિટળાઈને રહેલ છે. તેમ સમજવું. પીઠને વીંટળાઈને રહેલ જે પદ્મવરવેદિકા કહી છે, તે પહેલા જ વર્ણવેલ છે. •
३ मा भूना पडिदा परिक्षपर्नु ४थन ४२वामां आवे छे-'जंवूणं अण्णेणं' यू rotion 'अट्ठसएणं' को। भा8 'जंबूर्ण यू वृक्षाथी २ 'तदधुच्चत्ताणं सव्वओ समंता
પરિકિવત્તા મૂળ જંબુથી અદ્ધિ ઉંચાઈવાળા ચારે બાજુથી વીંટળાઈને રહેલ છે. અહિંયા 'तदद्धोच्चत्व' मे Sसक्षम छे तेथी तनाथी मर्धा देध-आयाम वि०मन ५ अहए થઈ જાય છે. મૂળમાં જ બૂથી અર્ધા પ્રમાણને ઉધ આયામ વિષ્કલવાળા તે એક સે આઠ જંબૂ દરેક ચાર એજન જેટલા ઉંચા છે. તથા એક ગાઉ એટલે તેને અવગાહ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनालम्वूवर्णनम्
२७१ योजनमुच्चः स्कन्धः त्रीणि योजनानि विडिमा सर्वांग्रेणोच्चैस्त्वेन सातिरेकाणि चत्वारि योजनानि, तत्रैका शाखा अर्द्धक्रोशहीने द्वे योजने दीर्घा, क्रोशपृथुत्वः स्कन्धः इति सर्वसंख्यया आयामविष्कम्भतश्चत्वारि योजनानि संपद्यन्ते, आसु जम्बुषु चानादृतदेवस्याभरणादिकं तिष्ठति, आसां वर्णक सूचनार्थमाह-'तासि णं वण्णओ' इति, 'तासि णं' तासां पूर्वोक्तानां
जम्बूनां खलु 'वण्णभो' वर्णका-वर्णनपरपदसमूहोऽत्र वक्तव्यः, स च मूलजम्बूवदेव बोध्यः । ____ अथाऽऽसां यावत्यः पद्मवरवेदिकास्ता आह-ताओ णं' इत्यादि-'ताओ णं' ता:अनन्तरोक्ताः खलु 'जंबू छहि' जम्न्यः पभिः-पटसंख्याभिः 'पउमवरवेइयाहिं संपरिक्सित्ता' पद्मवर रिकाभिः सम्परिक्षिप्ता:-परिवेप्टिताः, प्रतिजम्बूतरु पट् पट् पद्मपरवेदिकास्तद्वेष्टनभूताः सन्तीत्यर्थः, एतासु जम्बूषु अत्रसूत्रे जीवाभिगमे बृहक्षेत्रविचारादौ सूत्रकृतो वृत्तिकृतश्च योजन के ऊंचे हैं । तथा एक कोस का उसका अवगाह-ऊंडाई कही गई हैं। एक योजन के ऊंचाइचाले स्कंध तथा तीन योजन ऊंचाई वाली शाखाएं हैं सर्वात्मना ऊंचाइ कुछ अधिक चार योजन की हैं । उसमें एक शाखा देढ योजन की लंबी है । एक कोस की मोटाई स्कंध की है इस प्रकार सर्व प्रकार से आयामविष्कंभ चार योजन मिल जाता है, इस जंबू में अनादृतदेव के आभरणादि रहते हैं। इसका वर्णक सूचनार्थ कहते हैं-'तासिं गं वण्णओ' पूर्वोक्त जंबू के वर्णन पद परक पद समूह यहां पर कहलेवें । वह वर्णन पद परक पद मूल जंबू के वर्णन के जैसा समझलेवें। . ___ अब इसकी जितनी पद्मवरवेदिका कही है उसको कहते हैं-'ताओ गं' पूर्वोक्त 'जंबू छहिं' जंबूवृक्ष छह 'पउमवरवेइयाहिं संपरिक्खित्ता' पद्मवरवेदिका से घिरेहए हैं । अर्थात् वे प्रत्येक जंबू वृक्ष छह, छह पद्मवरवेदिका से घिराया हुआ है । इन जंबू में इस सूत्रमें एवं जीवाभिगम की बृहत्क्षेत्र विचारादिमे ઉંડાઈ કહેલ છે. એક જન જેટલી ઉંચાઈવાળા સ્કંધ અને ત્રણે જન ઉંચાઇવાળી શાખા-ડળે છે. સર્વાત્મના ઉંચાઈ કંઈક વધારે ચાર જનની છે. તેમાં એક શાખા દેઢ રોજન જેટલી લાંબી છે. સ્કંધની જાડઈ એક કેસ જેટલી છે. આ રીતે સર્વ પ્રકારથી આયામ વિખંભથી ચાર જન મળી જાય છે. આ જંબુમાં અનાદત દેવના આભરણાદિ रहे छ तेनु वर्णन सूयनाथ ४९ छ -'तासिंग वण्णओ' पूर्वरित वन ५४५२४ ५४ સમૂહ અહીંયાં કહી લેવાં આ વર્ણન પરક પદ મૂલ જંબુના વર્ણનની જેમ સમજી લેવા.
व तेनी रेसी पारी ४ छ तेनु ४थन ४२ छ.-'ताओण' पूर्वरित 'जंबू छहि' भूवृक्ष छ 'पउमवरवेइयाहिं संपरिक्खित्ता' ५१२ घरायस छे. અર્થાત્ એ દરેક જંબૂવૃક્ષ છ, છ પવરવેદિકાથી ઘેરાયેલ છે. આ જંબૂમાં આ સૂત્રમાં અને જીવાભિગમની બ્રહક્ષેત્ર વિચારાદિમાં સૂત્રકાર તથા વૃત્તિકારે જનભવન અને ભવન
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ર૭૨
जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र जिनभवन भवनप्रासादानां चर्चा न चक्रुः, अन्येऽपि विद्वांसो मूलजम्बूवृक्षगततत्प्रथमवनखण्डगतकूटाष्टकजिनभवनैः सह संकलव्य सप्तदशाधिकशतं जिनभवनानां स्वीकाणा इहाप्येकैकं सिद्धायतनं प्रागुक्तप्रमाणं स्त्रीचक्रुः, ततोऽत्र तत्त्वं केवलिनो विदुरिति ।
अधुनाऽस्याशेपपरिक्षेपान वक्तुं सूत्रचतुष्टयमाह- 'जंबूए णं सुदंसणाए उत्तरपुरस्थिमेण जम्ब्याः सुदर्शनायाः खलु उत्तरपौरस्त्येन-ईशानकोणे 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि 'उत्तरपच्चत्थिमेणं' उत्तरपश्चिमेन-उत्तरपश्चिमायां-वायव्यविदिशि 'एन्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे दिनये खलु 'अणाढियस्रा' अनाहतस्य अनादृतनामकस्य 'देवस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं' देवस्य चतस्राणां सामानिकसाहस्रीणां-चतुःसहस्रसंख्यसामानिकानां 'चत्तारि जत्रुसाहस्सीओ' चतस्रो जम्बूसाहस्त्र्यः-चतुःसहस्रसंख्याजम्व्यः 'पण्णत्ताभो' प्रज्ञप्ता:-कथिताः, 'तीसे णं' सूत्रकार एवं वृत्ति कारने जिन भवन एवं भवन प्रासादों की चर्चा नहीं की है अन्य विद्वान भी मूल जंबूवृक्षमें कही हुई उस प्रथम वनखण्डमें कही हुई जिन भवन के साथ आठ कूट का संकलन करके एकसो सत्रह जिन भवनों का स्वीकार करके यहां पर प्रथम कहे प्रमाण वाला एक एक सिद्धायतन का स्वीकार करते हैं तो इसमें क्या हेतु है सो केवलि भगवान ही जाने । ___ अब इसके शेष परिक्षेप को कहने के हेतु से चार सूत्र कहते हैं-'जबूएणं सुदंसणाए' इत्यादि जंबूएणं सुदसणाए उत्तरपुरस्थिमेणं' जब सुदर्शना के ईशानकोणमें 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में 'उत्तरपच्चथिमेणं उत्तर पश्चिम अर्थातू वायव्यकोण में 'एत्थ गं' ये तीनों दिशा में 'अणाढियस्त देवस्स' अनाहत नामक देवका 'चउण्हं सामाणिय साहस्सीण' चार हजार सामानिक देवों के 'चत्तारि जंबू साहस्सीओ' पण्णत्ताओ' चार हजार जवृक्ष काहे हैं। 'तीसेणं' उस जंचू सुदर्शना के 'पुरत्यिमेणं' पूर्वदिशामें 'चउण्हं अग्गनहिलोण' चार अग्रપ્રાસાદની ચર્ચા કરેલ નથી અન્ય વિદ્વાને પણ ભૂલ જંબૂવૃક્ષમાં કહેલ એ પ્રથમ વનખંડમાં કહેલ જીનભવનેની સાથે આઠ ફૂટનું મિલાન કરી એક સે સત્તર જીનભવનેને સ્વીકાર કરીને અહીંયાં પહેલા કહેલ પ્રમાણવાળા એક એક સિદ્ધાયતનને સ્વીકાર કરે છે. તે તેમ કરવામાં તેમને શું હેતુ છે? તે કેવલી ભગવાન જ જાણી શકે
वेतना शेष परिक्षनेपानी तथा यार सूत्र ४ छ –'जंवूएणं सुइसणाए' त्याशिनानी शान हिशामा 'उत्तरेणं' उत्तर हिशामा 'उत्तरपच्चत्थिमेणं' उत्तर पश्चिम अर्थात् पायव्य (wi 'अणाढियस्स देवस्स' मनाहत नामाना हेवना 'चउण्हं सामाणियसाहम्सीण' या२ २ सामानि हेवाना 'चत्तारि जंवूमाहम्सीओ पण्णत्ताओ' यार
M२ । ४ छे. 'तीसेणं' को भूभुश नानी 'पुरस्थिमेणं' पूर्व शमां 'चउण्हं अगमहिसीणं' या२ अमहियाना 'चत्तारि जंबूओ पण्णत्ता' या यू वृक्षा ४३सा छे.
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम्
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तस्याः - जम्बूसुदर्शनायाः खलु 'पुरस्थिमेणं पौरस्त्येन पूर्वस्यां दिशि 'चउन्हें' अग्गमहिसीणं' चतसृणाम् अग्रमहिषीणां प्रधानमहिषीणाम् - सर्वश्रेष्ठराज्ञीनाम् ' चत्तारि जंबूओ पण्णत्ताओ' चतस्रो नम्बः प्रज्ञप्ताः-कथिताः । अथ गाथाद्वयेन पार्षद देवजम्बूराह - 'दक्खिणेत्यादि - 'दक्खिणपुरस्थि मे' दक्षिणपौरस्त्ये - अग्निकोणे, 'दक्खिणेण' दक्षिणेन - दक्षिणस्यां दिशि 'तह अवरदक्खिणणं च ' तथा अपरदक्षिणेन अपरदक्षिणस्यां नैर्ऋत्यविदिशि च एतद्दित्रये यथाक्रमम् । ‘अट्ठदसबारसेव य' अष्टदशद्वादश- तत्राग्निकोणे अष्ट, दक्षिणस्यां दिशि दश, नैऋत्यकोणे द्वादश च 'भवंति जंबू सहरसाई' जम्बूसहस्राणि - जम्बुनां सहस्राणि भवन्ति एव शब्दोऽवधारणार्थः, तेन न न्यूनानि नाधिकानि इति व्यवच्छेदार्थः | १ | 'अणियाहिवाण' अनीकाधिपानाम् - सेनाधिपतीनां देवानां सप्तानां 'पच्चत्थिमेण' पश्चिमेन पश्चिमायां दिशि 'सत्तेव होंति जंबूओ' सप्तैव सप्तसंख्या एव न न्यूनाधिका जम्वो भवन्ति । इति द्वितीयः परिक्षेपः ।
अथ तृतीयपरिक्षेपमाह - 'सोलसे' इत्यादि - 'आयरक्खाणं' आत्मरक्षाणाम् - आत्मरक्षाकारिणाम् अनादृत देवस्य सामानिक 'चतुर्गुणानां सोलस साहस्सीओ' षोडशसहस्राणां देवानां महिषियों के 'चत्तारि जंबूओ पण्णत्ताओ' चार जंबू वृक्ष कहे हैं ।
अब दो गाथा से पार्षद देव के जंबू कहते हैं - 'दक्खिण पुरस्थि में' अग्निकोण में 'दक्खिण' दक्षिण दिशामें 'तहअवर दक्खिणेणं च ' नैऋत दिशामें ये तीनों दिशा में क्रम से 'अट्ठट्स बारसेव' आठ, दस, बारह उनमें अग्निकोणमें आठ, दक्षिण दिशामें दस नैऋत्य कोण में बारह 'भवंति जंबू सहस्साई' इतना हजार
वृक्ष होते हैं । अर्थात् अग्निकोणमें आठ हजार, दक्षिण दिशामें दस हजार नैऋत्य कोण में बारह हजार जंबूवृक्ष होते हैं - इससे न्यूनाधिक नहीं होते हैं |१| 'अणिया हिवाण' सात सेनापतिदेवों के 'प्रच्चत्थिमेण' पश्चिम दिशा में 'सत्तेव होति जंबूओ' सात जंबूवृक्ष होते हैं । यह दूसरा परिक्षेप कहा२
अब तीसरा परिक्षेप कहते हैं-'आयरक्खाणं' अत्मरक्षक देवों के सामानिकों से चोगुने होने से 'सोलहसाहस्सीओ' सोलह हजार 'चउद्दिसि' पूर्वादि चारों
हवे में गाथाथी भाषछ हेवना मंजू आहे छे.- 'दविखणपुरत्थिमे' भाग्नेय अशुभां 'दक्खिणेण' दृक्षिष्षु द्विशाभां 'तह अवरदक्खिणेणं च' नऋत्य हिशामां भी त्राणे हिशाभां उभशः 'अट्ठ दस बारसेव' माई, इस मार, तेभांमग्नि अणुभां माहे, दृक्षिण दिशाभां इस नैऋत्यअशुभां णार 'भवंति जंबूसहस्साईं' भाटला डेलर भूवृक्ष होय छे. अर्थात् अनि शुभां આઠ હજાર, દક્ષિણ દિશામાં દસ હજાર, નૈઋત્ય કોણુમાં ખાર હજાર જમ્મુ વૃક્ષેા હોય છે. तेनाथी श्रोछणवत्ता होता नथी. ॥१॥ 'अणियाहिवाण' सात सेनापति हेवाना 'पच्चत्थिमेण ' पश्चिम द्विशाभां 'सत्तेव होंति जंबूओ' सात वृक्षो होय छे. या जीले परिक्षेय उद्यो. ॥२॥ हवेत्रीले परिक्षेय हेवामां आवे छे. - ' आयरक्खाणं' आत्मरक्षा हेवाना साभानिमाथी यार गया होवाथी 'सोलहसाहस्सीओ' सोज हन्नर 'चउद्दिसि' पूर्वाहि यारे दिशामां
ज० ३५
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 'चउदिसिं' चतुर्दिशि-पूर्वादि दिकचतुष्टये पोडश साहस्त्र्यः जम्बूनामितिशेषः भवन्तीति क्रियाध्याहारोऽत्र वोध्या, तत्र एकैकस्यां दिशि चतस्रश्चतस्रः साहस्त्र्य इति दिक्चतुष्टये पोडश साहस्त्र्यो भावनीयाः। यद्यप्यनयो द्वितीय तृतीयपरिक्षेपयोः प्रमाणचर्चा पूर्वाचार्यनं कृता, तर्हि मानज्ञानं कथमनयोः स्यादिति जागति जिज्ञासा, तथापि पद्मदपद्मपरिक्षेपानुसारेण पूर्वपूर्वपरिक्षेपजम्ब्वपेक्षयोत्तरोत्तरपरिक्षेपजम्ब्बोऽर्द्धप्रमाणा बोध्याः, अत्रापि प्रत्येक परिक्षेपे एकैकस्यां श्रेण्या विधीयमानां क्षेत्रसङ्कीर्णत्वेनानवकाशदोपस्तथैव प्रादुर्भवति तेन परिक्षेपजातयस्तितस्तथैव वक्तव्याः । अधुनाऽस्या एवं त्रिचनपण्डीपरिक्षेपान् वक्त्तुमाह'जंबूएणं' इत्यादि-जंवूए णं तिहि' जम्बाः खलु त्रिभिः-त्रिसंख्यकैः ‘सइएहि' शतिकैः-योजनशतप्रमाणैः, 'वणसंडेहिं सबओ समंता संपरिक्खित्ता' वनपण्डैः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिताः-परिवेष्टताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अभ्यन्तरेण मध्यमेन बाह्येन चेति । अथात्र यथा यदस्ति तथा तदाह-'जंवृए णं' 'इत्यादि-जंचूए णं' जम्ब्वाः सपरिवारायाः दिशा में सोलह हजार जंबूवृक्ष होते हैं। एक एक दिशामें चार हजार के क्रम से चारों दिशामें मिलके सोलह हजार समझ लेवें। यद्यपि इन, दुसरे तीसरे परिक्षेप के प्रमाण की चर्चा पूर्वीचार्यने की नहीं है तब उसका मानादिज्ञान कैसे जाना जा सके ? इस प्रकार की जिज्ञासा जाग्रत होती है, तो भी पद्महद के पदमपरिक्षेप के कथनानुसार पूर्व पूर्व पनिक्षेप जंबू की अपेक्षा से उत्तर उत्तर के परिक्षेप जंबू खे अर्द्ध प्रमाण वाला समझे। यहां पर भी प्रत्येक परिक्षेपमें एक श्रेणी में होने वाली क्षेत्र संकीर्णता से अनवकाश दोष उसी प्रकार आ जाता है अतः तीन परिक्षेप जाती कहनी चाहिए। ____अब तीन वनषण्ड के परिक्षेप का कथन करते हैं-'जंबूएणं तिहिं सइएहि' जंबू तीनसो योजन प्रमाण वाले 'वणसंडेहिं सवओ समता संपरिक्खित्ता' वनषण्डों से चारों दिशामें व्याप्त होकर स्थित है। वे तीन वनषण्ड इस प्रकार हैआभ्यन्तर, मध्यम एवं याह्य । સેળ હજાર જંબૂ હેય છે. એક એક દિશામાં ચાર હજારના ક્રમથી ચારે દિશાના મળીને સોળ હજાર થાય છે તેમ સમજવું. ચાપિ આ બીજા અને ત્રીજા પરિક્ષેપના પ્રમાણની ચર્ચા પૂર્વાચાર્યોએ કરેલ નથી. તે તેના માનાદિનું જ્ઞાન કેવી રીતે જાણી શકાય? આ રીતની જીજ્ઞાસા ઉત્પન્ન થાય છે, તે પણ પદ્મહેંદના પદ્મ પરિક્ષેપના કથનાનુસાર પૂર્વ પૂર્વ પરિક્ષેપ જંબૂથી અર્ધા પ્રમાણવાળા સમજે, અહીંયાં પણ દરેક પરિક્ષેપમાં એક શ્રેણમાં થવાવાળી ક્ષેત્ર સંદીનાથી અનવકાશ દેષ એજ રીતે આવી જાય છે. તેથી ત્રણ પરિક્ષેપ જાતી કહેવી જોઈએ.
वे प्राय पनपना परिक्षेनु ४यन ४२ छ-'जंवूएणं तिहिं सइएहिं भू अस। ये.सन प्रभावामा 'वनसंडेहि सन्चओ समंता संपरिक्खित्ता' पनप डाथी सारे हिशामा व्याप्त થઈને રહેલ છે, એ ત્રણે વનખંડ આ પ્રમાણે છે.-આત્યંતર, મદામ અને બાહ્ય.
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम्
२७५ खलु 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वेण पूर्वदिशि 'पण्णासं जोयणाई पढम' पञ्चाशतं योजनानि प्रथमम्-आदिमं 'वणसंडं ओगाहित्ता' वनपण्डम्' अबगाह्य-प्रविश्य 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु 'भवणे' भवनं-गृहं 'पण्णत्ते प्रज्ञप्तम्, तस्य मानमाह-'कोसं आयामेणं' क्रोशमायामेनदैर्येण, प्रज्ञप्तम् एतावताऽपरितुष्यन्नाह-'सो चेव' स एवेति-स:-पूर्वोक्तो मूल-जम्बू पूर्वशाखागत भवनसम्बन्ध्येव 'वण्णओ' वर्णकः-वर्णनपरपदसम्रहोऽत्र वोध्या, 'सयणिज्ज च' शयनीयं शय्या, अनादृतदेवयोग्यम् यत् तदपि बोध्यम् ‘एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'सेसासु वि' शेषासु-अवशिष्टासु दक्षिणादिषु तिसृषु 'दिसासु' दिक्षु प्रत्येकं पञ्चशतं योजनान्यवगाह्य प्रथमवनषण्डे 'भवणा' भवनानि वक्तव्यानि, अथात्र प्रथमवने पुष्करिणी चतुष्टयं वर्णयति'जंबूए णं' इत्यादि-जंबूए णं उत्तरपुरस्थिमेणं' जम्ब्बाः खल्ल उत्तरपौरस्त्येन-ईशानकोणे दिग्भागे 'पढमं वणसंडं पण्णासं-जोयणाई ओगाहित्ता' प्रथमं वनषण्डं पञ्चाशतं योजनानि अवगाह्य-प्रविश्य 'एत्थ गं' अत्र-अत्रान्तरे खलु 'चत्तारि' चतस्र:-चतुःसंख्याः ____ अब जंबू वृक्षके भीतरी भाग का वर्णन करते हैं-'जंबूएणं' सपरिवार जंबू के 'पुरथिमेणं' पूर्वदिशा की तरफ 'पण्णासं जोयणाई पढमं पचास योजन पर पहला 'वणलंड ओगाहित्ता' वनषंड में प्रवेश करके 'एस्थ णं भवणे पण्णत्त' यहां पर भवन कहा है, वह भवन 'कोसं आयामेणं' एक कोस लंबा है, 'सोचेव वण्णओ' मूल जंबू के वर्णन में पूर्वशाखा में कहा हुआ भवन संबंधी समस्त वर्णन यहां पर समझ लेवें, 'सयणिज्जं च' अनाहत देव के योग्य शय्या भी कह लेवें । 'एवं' इसी प्रकार 'सेसासु' बाकी की दक्षिणादि तीनों 'दिसासु' दिशाओं में प्रत्येक में पांचसो २ योजन प्रविष्ट होने पर प्रथम यवनपंड में "भवणा' भवन कह लेवें।
अब प्रथमभवन में चार पुष्करिणियों का वर्णन करते हैं-'जंबूएणं उत्तर पुरथिमेणं' जंबू की ईशान दिशा में 'पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई' ओगा
भूक्षन। म ४२॥ मागनु न ४२ छ-'जंवूएणं' सपरिवार मनापा. थिमेण' पूर्व दिशानी त२६ 'पण्णासं जोयणाई पढम' पयास यान ५२ पडसा वनसंड
ओगाहित्ता' वनमा प्रवेश ४श 'एत्थ णं भवणे पण्णत्ते' त्यो सपना मासा .से सपना कोसं आयामेणं' मे 16 aiमा छे. 'सो चेव वण्णओ'
भू मना वर्णनमा व शामामा स सवन समाधी सघ वाणुन मीयां समलले. 'सय णिज्जं च मनात हवन योग्य शय्या ५Y हो वा 'एवं' मेरीत 'सेसास' मानी दक्षिा हो 'दिसासु' हिशामामा ४२४मां पांयसे. यापन प्रदेश ४२पाथी पडेटा वन५मा 'भवणा' सपना सम सेवा
वे पडसा वनमा यार यानु वर्णन ४२ छ.-'जंवूषणं उत्तरपुरस्थिमेण भूनी
'पढमं वणसंडं पण्णासं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता' पौडेसा वन,
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 'पुक्खरिणीओ' पुष्करिण्यः-वर्तुलवापीनाम जलाशयविशेपाः 'पण्णताओ' प्रज्ञप्ताः, ता नामतो निर्दिशति-तं जहा' तद्यथा-'पउमा' पद्मा १ 'पउमप्पभा' पद्मप्रभा २ 'कुमुदा' कुमुदा३ 'कुमदप्पभा' कुमुदप्रभा ४, एताः पूर्वादि दिक्क्रमेण स्वविदिग्गतप्रासादं परिवेष्टय व्यवस्थिताः, अनयैव रीत्याऽग्निकोणादि विदित्रये प्रत्येकं चतस्रश्चतस्रः पुष्करिण्यो वक्तव्याः, तासां मानमाह-'ताओ णं' ताः खलु पुष्करिण्यः 'कोसं आयामेणं' क्रोशम् आयामेन-दर्पण, 'अद्धकोसं' अर्द्धक्रोशम्-क्रोशस्यादै 'विक्खंभेण विष्कम्भेण-विस्तारेण 'पंच धणुसयाई' पञ्च धनुःशतानि-पञ्चशतीधनू पि 'उव्वेहेणं' उद्वेधेन-भूप्रवेशेन प्रज्ञप्ताः । तासां 'वष्णओ' वर्णका वर्णनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः स च प्रकरणान्तराद् ग्राह्या, 'तासि गं' तासां चतसृणां वापीनां खलु 'मज्झे मध्ये-मध्यभागे 'पासायवडेंसगा' प्रासादावतंसकाः-प्रासादेपु उत्तमाः प्रासादाः प्रज्ञप्ताः, अत्र बहुवचनमुक्तवक्ष्यमाणवापीनां प्रासादापेक्षया बोध्यम् तेन प्रतिहित्ता' प्रथम वनषण्ड के पचास. योजन प्रवेश करने पर 'एत्थ णं' यहां पर 'चत्तारि' चार 'पुक्खरिणीओ' वावडियां 'पण्णताओ' कही गई है-उनके नामादि कहते हैं-'तं जहा-'पउमा' पद्मा१ 'पउमप्पभा' पद्मप्रभा२, 'कुमुदा'३ 'कुमुद प्पमा' सुनुनला४ ये पूर्वादि दिशा के क्रमसे अपने से विदिशामें आये हुए प्रासादको चारों ओर से घिरकर स्थित रहते हैं । इसी प्रकार से अग्निकोणादि तीन विदिशाले प्रत्येक को चार चार पुष्करणियां कहनी चाहिए । उनका मान कहते हैं-'ताभोणं' वे पुष्करणियां 'कोसं आयामेणं' एक कोस की लंबाई वाली कही है 'अद्वकोलं विश्वंभेणं' आधा कोसका उसका विष्कंभ-विस्तार कहा है। 'पंचधणुल्याई जव्येहेणं' पाँचसो धनुष का उनका उमेध-गहराई हैं । 'वण्णओ' इनका लमत्र वर्णन अन्य प्रकरण में कहे अनुसार समझ लेवें । 'तासिणं' वे चारों वावडिके 'भज्झे मध्य भागमे 'पासायपडेंसगा' प्रासादावतंसक-श्रेष्ठ महल कहे है । यहां बहुवचन वक्ष्यमाणवापी के प्रासादों की अपेक्षा से जानना बमा पन्यास या प्रवेश ४२पाथी 'एत्थण' महायां 'चत्तारि' यार 'पुक्खरिणीओ' पाया 'पण्णत्ताओ' अवाम मावस छे. तेन नामादि मा प्रमाणे छ त जहाँ' भो 'पउमा' ५ १ 'पउमप्पभा' पक्षमा २ 'कुमुदा' भु। 3 'कुमुदप्पभा' मुहमा ४ से પૂર્વાદિ દિશાના ક્રમથી પિતાનાથી વિદિશામાં આવેલ પ્રાસાદેને ચારે તરફથી ઘેરીને રહે છે. એ જ પ્રમાણે અગ્નિ કેણાદિ ત્રણ વિદિશામાં પ્રત્યેકને ચાર ચાર પુષ્કરિણિયે કહેવી नसे. तेनु भा५ मतावे छे.-'ताओण' में पुरियो 'कोसं आयामेणं' मे 18 रेली सी ४ छे 'अद्धकोसं विक्खंभेणं' अर्धा 18 २८ ता४ि विस्तार ४स छे. 'पंच धणुसयाई उव्वेहेणं' पांयसो धनुष २८ देध-615 ही छ. 'वण्णओ' तेनु संपूर्ण वर्णन अन्य ४२मा पसा हा प्रमाणे समवेयु: 'तासिणं' मे न्यारे पावनी 'मझे' मध्य भागमा 'पासायवडेसगा' प्रासादात उत्तम भडेटा,
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजम्वूवर्णनम् वापि एकैकप्रासादसद्भावेन चत्वारः प्रासादाः सम्पद्यन्ते इति बोध्यम् । एवं निर्देशोलाघवार्थः । ते च प्रासादाः 'कोसं' क्रोशम्-एकं क्रोशम् 'आयामेणं' आयामेन-दैयेण प्रज्ञप्ताः, एवमग्रेऽपि, 'अद्धकोसं' अर्द्धक्रोशम्-क्रोशस्याई 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारण 'देसूर्ण' देशोनं-किञ्चिद्देशविहीन 'कोसं उद्धं उच्चत्तणं' क्रोशम् ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, तेषां प्रासादानां 'वण्णो' वर्णकोऽत्र वक्तव्यः तत्र सीहासणा सपरिवारा' सिंहासनानि सपरिवाराणि भद्रासनरूपपरिवारसहितानि वक्तव्यानि जीवाभिगमेत्वपरिवाराण्येव सिंहासनानि वर्णनीय. तयोक्तानि, 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'सेसासु विदिसामु' शेषामु' शेषासु ईशान विदिगूभिभासु आग्नेयादि विदिक्षु पुष्करिण्यः (वाप्य:) प्रासादावतंसकाश्च वाच्याः, एतासामीशानादिविदिक्पूर्वादिदिग्गतवापीनां क्रमेण नामनिर्देष्टुं पधद्वयमाह-गाथे पधे-'पउमा' पभा १ 'पउमप्पभाचेव' पद्मप्रभा २ चैव 'कुमुदा' कुमुदा ३ 'कुमुदप्पहा' कुमुदप्रभा ४ । चाहिए। इससे प्रत्येक वापीमें एक एक प्रासाद होने से चार प्रासाद होते हैं ऐसा समझ लेवें । यह निर्देश लाघवार्थ किया है । वे प्रासाद 'कोसं' एक कोस' 'आयामेणं' लंबे 'अद्धकोसं' आधा कोसका उनका 'विक्खंभेणं' विष्कंभ कहा है। 'देसूर्ण कोसं उद्धं उच्चत्तण' कुछ कम एक कोस ऊंचा है। उन प्रासादों का 'वण्णओ' वर्णन परक पदसमूह यहां कह लेवें । वह इस प्रकार से है- वहां 'सीहासणा सपरिवारा' भद्रालनरूप परिवारसहित सिंहासन कहे हैं । जीवा भिगममें विना परिवार सिंहासन का वर्णन कहा है। ‘एवं' इस प्रकार से 'सेसासु विदिसासु' शेष ईशान विदिशा से भिन्न आग्नेयादि विदिशा में पुष्करिणियां वावडियां एवं प्रासादावतंसक कह लेवें । ये ईशानादिविदिक एवं पूर्वादिदिशामें कही हुई वापी के क्रम से नाम निर्देश के लिए दो पद्य कहते हैं'पउमा' पद्मा१ 'पउमप्पभाचेव' पद्मप्रभा२, 'कुमुदा ३, 'कुमुदप्पहा' कुमुद કહ્યા છે, અહીંયાં બહુવચન વાક્યમાણ વના પ્રાસાદની અપેક્ષાથી છે તેમ સમજવું. એથી દરેક વાવમાં એક એક પ્રાસાદ હોવાથી ચાર પ્રાસાદા હોય છે, તેમ સમજવું. मा नि साथ डस छ. मे प्रासाही 'कोसं' २४ 16 २८ 'आयामेण' मा छ. 'अद्धकोस' अर्धा २८मा तना 'विक्ख भेणं' वि०४ ४ छ. 'देसूर्ण कोसं उद्ध उच्चत्तेण' iss माछ। २४ ॥ २८॥ या छ. मे प्रासाहानु-'वण्णओ' वर्णन ४२० ना। पहो मही ही सेवा त म प्रभारी छ-'सीहासणा सपरिवारा' त्या सद्रासन ३५ परिवार सहित सिंहासननु न ४री यु. ‘एवं' मे०४, प्रमाणे 'सेसाप्सु विदिसास' બાકિની ઈશાન વિદિશાથી બીજી આગ્નેયાદિ વિદિશામાં પુષ્કરિણી-વા અને પ્રાસાદાવતંસક કહી લેવા. એ ઈસાનાદિ વિદિશા અને પૂર્વાદિ દિશામાં કહેલ વાવેના ક્રમથી નામ मतावा भाटे मे पयो ४३ छ. भ.-'पउमा' पभा १ 'पउमप्पभा चेव' ५ प्रमा 'कुमुदा' भु। 3, 'कुमुदप्पहा' मुहमा ४' 'उप्पलगुम्मा' Gre शुभ ५, णलिणा'
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'उप्पलगुम्मा' उत्पलगुल्मा ५ णिलिणा' नलिना ६ 'उप्पला' उत्पला ७ 'उप्पलुज्जला' उपत्पलोज्ज्वला८ ॥१॥ 'भिंगा' भृङ्गाए 'भिंगप्पभा चेव' भृङ्गप्रभा चैव१० 'अंजणा' अञ्जना ११'कज्जलप्पमा' कज्जलप्रभा१२। 'सिरिता' श्रीकान्ता१३ 'सिरिमहिता' श्रीमहिता १४ 'सिरिचंदा' श्रीचन्द्रा १५ 'चेव सिरिनिलया चैत्र श्रीनिलया १६२। इमे गाथे स्पष्टार्थे ।
पद्मादीनां प्रागुक्तत्वेन पुनरिहोक्तिः पुनरुक्तिोपं सम्भावयति परन्तु स पुनरुक्तिः पद्मवद्धत्वेन तेषां संग्रहणान्निराकरणीया । एताश्च सर्वा अपि पुष्करिण्यः त्रिसोपानचतुर्दारालङ्कृताः पद्मवरवेदिका-वनपण्डमण्डिताश्च बोध्याः । तत्राग्नेयकोणे उत्पलगुल्मा, पूर्वस्यां नलिना, दक्षिणस्यामुत्पलोज्ज्वला, पश्चिमायामुत्पला, उत्तरस्यां तथा, नैर्ऋत्यकोणे भृङ्गा भृङ्गप्रभा अञ्जना कज्जलप्रभा तथा वायव्यकोणे श्रीकान्ता श्रीमहिता श्रीचन्द्रा श्रीनिलया चेति दिग्विपर्यासेन बोध्यम् । प्रभा ४ 'उप्पलगुम्मा' उत्पलगुल्म ५, 'पलिणा' नलिना ६, 'उप्पला' उत्पल ७, 'उप्पलुज्जला' उत्पलोज्ज्वला८, ॥१॥'भिंगा' शृंग९ 'भिंगप्पभाचेव' भृगप्रभा१० 'अंजणा' अंजना ११ 'कजलप्पमा' कज्जलप्रभा १२ 'सिरिकता' श्रीकान्ता १३ 'सिरिमहिता' श्री महिता१४ 'सिरिचंदा' श्रीचन्द्रा १५ 'चेव सिरिनिलया' श्री निलया१६ ॥२॥ पद्मादि का कथन पहले किया गया है अतः यहां पर दुवारा कथन पुनरुक्ति दोष की सम्भावना करते हैं परन्तु वह पुनरुक्ति पद्मवद्धत्व से निरस्त हो जाती है। ये सभी पुष्करिणियाँ तीन सोपानपंक्ति एवं चार द्वारों से सुशोभित एवं पद्मवरवेदिका एवं वनषण्ड, से मंडित हैं। उसमें अग्निकोणमें उत्पल गुल्म, पूर्वमें नलिन, दक्षिण में उत्पलोज्ज्वला, पश्चिम में उत्पला , उत्तर दिशा एवं नैऋत्य कोण में भृगा एवं भृगप्रभा अंजना कजल प्रभा, वायव्य कोण में श्रीकान्ता, श्री महिता, श्रीचन्द्रा श्रीनिलया ये दिशाके विपर्यास से जान लेवें। नसिना ६, 'उप्पला' उत्पदा ७, 'उप्पलुज्जला' Byatre1 ८, ॥ १ ॥ 'भिंगा' भृग, 'भिंगप्पभा चेव' भुगमा १०, 'अंजणा' मा ११, 'कज्जलप्पभा' revel १२, 'सिरिकंता' श्री ४ा १3, 'सिरिमहिता' श्री भाडा १४, 'सिरिचंदा' श्री यी १५, चेव सिरिनिलया' श्री निसय १.. ॥ २ ॥
પદ્માદિનું કથન પહેલા કરવામાં આવી ગયેલ છે. તેથી અહીયાં ફરીથી કથન પુન રૂક્તિ દેશની સંભાવના કરે છે. પરંતુ એ પુનરૂક્તિ પબદ્ધત્વથી દૂર થઈ જાય છે એ તમામ વા ત્રણ પાનપંક્તિ અને ચાર દરવાજાઓથી સુશોભિત અને પદ્મવર વેદિકા અને વનપંડથી યુક્ત છે. તેમાં અગ્નિકોણમાં ઉત્પલ ગુમ, પૂર્વમાં નલિન, દક્ષિણમાં ઉત્પલેવલા, પશ્ચિમમાં ઉત્પલા, ઉત્તર દિશા તથા નિત્રત્ય કેણમાં ભંગ અને ભૃગપ્રભ', અંજના, કાજલપ્રભા, વાયવ્ય કેણમાં, શ્રી કાન્તા, શ્રી મહિના શ્રી ચંદ્રા, શ્રી નિલયા એ બધા દિશાના ફેરફારથી સમજી લેવા.
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम्
२७९ अथास्य वनस्य मध्यवर्तीनि कूटानि स्मरूपतो दर्शयति-'जंबूर णं' इत्यादि-'जंबए ण' जम्ब्वा:-जम्बूसुदर्शनायाः अस्मिन्नेव प्रथमे वनपण्डे 'पुरथिमिल्लस्स' पौरस्त्यस्य-पूर्वेदिग्भवस्य 'भवणस्स' भवनस्य-गृहस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि 'उत्तरपुरथिमिल्ल. स्स' उत्तरपौरस्त्यस्य-ईशानकोणगतस्य 'पासायवडेंसगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणस्यो दिशि 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु 'कूडे' कूट-शिखरं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तच्च मानतः 'अट्ठजोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' अष्ट योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'दो जोयणाई उब्वेहेणं' T योजने उद्वेधेन-भूप्रवेशेन, वृत्तत्वेन य एवाऽऽयामः स एव विष्कम्भ इति, तच्च पुनः 'मूले' मूले मूलावच्छेदेन 'अट्ठ नोयणाई आयामविक्रखंभेणं' अष्टयोजनानि आयाम-विष्वम्भेन-दैर्घ्य-विस्ताराभ्याम् 'बहुमज्झदेसभाए' 'बहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागावच्छेदेन भूमितश्चतुर्यु योजनेषु गतेषु 'छ जोयणाई' पडूयोजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयाभविष्कम्भेण-दैर्ध्य-विस्ताराश्याम्, 'उवरि' उपरि-शिखरभागे 'चत्तारि जोयणाई आयामविक्खभेण' चत्वारि योजनानि आयामविष्कम्भेण-आयाम-विष्कम्भाभ्यास, ___ अब वन के मध्य कूट का स्वरूप कहते हैं-'जंबूएण' जम्बू सुदर्शना के इसी प्रथम वनषण्ड में 'पुरथिमिल्लस्स भषणस्स'पूर्वदिशा में रहे हए गृह का 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में 'उत्तर पुरथिमिल्लस्स' ईशान दिशा में रहे हुए 'पासायवडेंसगरस' उत्तम प्रासाद-महल के 'दक्खिणेणं' दक्षिण दिशामें 'एत्थणं' यहां पर 'कूडे' शिखर 'एण्णत्ते कहा है उसका मान इस प्रकार से है'अट्ठजोयणाई उद्धं उच्चत्तणं आठ योजन का ऊंचा है 'दो जोयणाई उव्वेहेणं' दो योजन का उद्देध-भूमि के अंदर कहा है । वृत्त-चर्तुल होने से जितना उसका आयाम-लंबाई कहा है उतना ही उसका विष्कंभ चोडाई कहा है। वह आयाम विष्कंध 'मूले' मूल भागमें 'अट्ठजोयणाई आयामधिक्खंभेणं आठ योजन का आयामविष्कंभ है 'बहुमज्झदेसभाए' ठीक मध्य भागमें भूमि से चार योजन गत होने पर 'छ' जोयणाई आयामविक्खंमेण' छ योजन आयाम विष्कभ
बननी मध्यमा मावद टन पान ४२ छ.-'जंबूएणं' महश नानासा वनमा 'पुरथिमिल्लस्स भवणस्स' पूर्व दिशामा मावत सपनांनी 'उत्तरेण उत्तर शिामा 'उत्तरपुरथिमिल्लस्स' शान शाम मावेसा पासायवडेसगस्स' उत्तम प्रासाई-भाडामा 'दक्खिणेणं' क्षिा शामा 'एत्थणं' २मा स्थणे 'कूडा' शिमरे। 'पण्णत्ता सात भा५ मा प्रभारी छ.-'अट्र जोयणोई उद्धं उच्चत्तेणं' मा योगनरेट र जोयणाई उव्वेहेणं मे योन 1 Gध-भाननी २ प्रवेशसा छे. वृत्त-वत હાવાથી એટલે તેનો આયામ છે. એટલે જ તેને વિખંભ–પહોળાઈ કહેલ છે. તે આયામ वि०४ 'मूले' भूत भागमा 'अट्ठ जोयणाइ अयामविख भेण' मा योगगन सो आयाम वि० छ. 'बहमझदेसभाए' मारामार मध्य भागमा भीनथी यार योरया १२ 'छ जोयणाई आयामविक्खंभेण' छ यान नेता मायाम Q& छे. 'उवरिं शिमरना
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथैपां परिधि वक्तुं पद्ममाह-एपां प्रासादावतंसकानां 'मूले मूले-मूलावच्छेन 'पणवीसं' पञ्चविंशति योजनानि सविशेपाणि किञ्चिदधिवानि परिग्यः-परिधिः वर्तुलत्यम्, चपुनः 'मज्झि' मव्ये मध्यदेशावच्छेदेन 'डारस' अष्टादश योजनानि 'सविसेसाई' सविशेपाणि 'परिरओ' परिरयः-परिधिः, च-पुनः 'उचरि' उपरि-शिखरभागे 'वारसेव' द्वादशयोजनानि सविशेषाणि परिरयो 'कूडस्स इमस्स बोद्धव्यो' अस्य-कूटस्य बोद्धव्यः इति रीत्या यथासंख्यं योजनीयम् । एवं सति तत्कूटं 'मूले वित्थिणे' मुले-विस्तीर्णय-विस्तारयुक्तम 'मज्झे संखित्ते' मध्ये संक्षिप्तम् इस्वतां गतम्, 'उवरि' उपरि-शिखरमागे 'तणुए' तनुकम्प्रतनु-मूलाध्यापेक्षया, तथा-तत्कूटं 'सव्य कणगामए' सर्वरत्नमयम्-सात्मना-वैड्यादिरत्नमयम्, 'अच्छे' अच्छम्-आकाशस्फटिकवनिर्मलम्, उपलक्षणमेतत् श्लक्ष्णादीनाम् तेन श्लक्ष्णम् इत्याद्यपि वक्तव्यम् तेपां व्याख्या प्राग्वत्, 'वेड्या-वणसंडवण्णओ' वेदिका वनहोता है "उवरि शिखर के भाग में 'चत्तारि जोयणाई आयामधिक्खंभेणं' चार योजन का आयामविष्कंभ कहा है। __ अब उसकी परिधी का मान कहते हैं-इन प्रासादावतंसक के 'मूले' मूल भाग में 'पणवीसं' पचीस योजन से कुछ अधिक परिधि-वर्तुलत्व कहा है। 'मज्झि' मध्य भाग में 'हारस' अठारह योजन से 'सविसेसाई कुछ अधिक 'परिरओ' परिधि 'कूडस्स इनस्स बोद्रव्यो' इस कूट का प्रमाण जान लेना चाहिए । इस प्रकार से वह कूट 'मूले वित्थिपणे' मूल भागमे विस्तृत 'मज्झे संखित्ते' मध्यमें संकुचित 'उवरि' शिखर के भाग में 'तणुए' मूल भाग एवं मध्य भाग की अपेक्षा से पतला कहा है । तथा वह कूट 'सव्वकणगामए' सर्वास्मना रत्नमय 'अच्छे आकाश एवं स्फटिक के जैसा निर्मल यह अच्छ पद लक्षण इत्यादि का उपलक्षण है अतः श्लक्ष्णादि समग्र विशेषणविशिष्ट कहलेना। इन पदों की व्याख्या पूर्ववत् समझलेवें 'वेड्या वणसंडवण्णओ' यहां पर वेदिका एवं वनपंड का वर्णन संपूर्ण कह लेवें।। मागमा 'चत्तारि जोयणाई आयामविक्ख भेणं' यार यौन सा मायाम qिoxnxa .
હવે તેની પરિધીનું માપ બતાવે છે. આ પ્રાસાદાવર્તસકેના “નૂ ભૂલભાગમાં 'पणवीसं' ५-यास योगनयी ४६ धारे परिधि-पतुसता ४ छ 'मज्झि' मध्यमामा 'द्वारस' मदार यानी 'सविसेसाई' ४४ पधारे 'परिरओ' पश्चिी ४९ छे. उवरि
५२ना लाजमा 'बारसेव' मा२ या नथी ४४ पधारे 'परिरओ' परिधि 'कूडस्स इमस्स बोद्धब्बो' मा टनु प्रभार सभास. सी मेट 'मले वित्थिण्णे' भूसमागमा विस्ता२पाणी 'मझे संक्खित्ते' मध्यमा सथित 'उवरि' शिमना मागमा 'तणुए' भूण बारा भने मध्यसागनी अपेक्षाथी पात छ. तथा ये टूट 'सव्वकणगामए' समिना नभय, “અરજી આકાશ અને સ્ફટિકની જેવા નિર્મળ આ અચ્છ પદ ગ્લફણાદિનું ઉપલક્ષણ છે. તેથી ક્ષણ વિગેરે તમામ વિશેષણેથી વિશેષિત કહિલે, આ પદની વ્યાખ્યા પહેલાની જેમ
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पण्डवर्णकोऽत्र - बोध्यः, अथ शेषकूटवक्तव्यतामतिदिशति - ' एवं सेसावि कूडा इति' एवं शेषाण्यपि कूटानि - एवम् - प्रथमकूटवत् शेषाणि - प्रथमकूटातिरिक्तानि द्वितीयादीन्यपि सप्तकूटानि atorfo इति । तानि शेषकूटानि वर्णप्रमाणपरिध्याद्यपेक्षयोक्तरीत्या बोध्यानि तेषां स्थानविभागस्त्वेवम्-तथाहि - पूर्वदिग्भाविनो भवनस्य दक्षिणतः आग्नेयविदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्योत्तरतो द्वितीयं कूटस् तथा - दक्षिणदिग्भाविनो भवनस्य पूर्वस्यां वह्निकोणभाविनः प्रासादावतंसकस्य पश्चिमायां दिशि तृतीयं कूटं, तथा - नैर्ऋत्यकोणभाविनः प्रासादावतंस - कस्य पूर्वस्यां दिशि चतुर्थं कूटस् तथा पश्चिमदिग्भाविनो भवनस्य दक्षिणस्यां दिशि नैर्ऋत्यकोण भाविनः प्रासादावतंसकस्योत्तरस्यां दिशि पञ्चमं कूटम् तथा - पश्चिमदिग्भाविनो भवनस्योत्तरस्यां वायव्यकोणभाविनः प्रासादावतंसकस्य दक्षिणस्यां षष्ठं कूटम् तथोत्तरदिग्भाविनो भवनस्य पश्चिमायां दिशि वायव्यकोणभाविनः प्रासादावतंसकस्य पूर्वस्यां दिशि सप्तमं कूटं, तथोत्तरदिग्भाविनो भवनस्य पूर्वस्यां दिशि ईशानकोणभाविनः प्रासादावतंसकस्य
अब शेष कूटों का वक्तव्य कहते हैं- ' एवं सेसावि कूडा' इसी प्रकार बाकी के सात कूट के विषय में भी समझलेवें । वे सबकूट वर्णा, प्रमाण, परिधि आदि की अपेक्षा से पूर्वोक्त प्रकार से समझलेवें उनके स्थानादि भाग इस प्रकार से हैं- पूर्व दिशा के भवन कि दक्षिणदिशा में आग्नेय विदिशा के भवन की उत्तर दिशा में दूसरा कूट कहा है । तथा दक्षिण दिशा के भवन के पूर्व में अग्नि कोण भावि भवन की पश्चिम दिशा में तीसरा कूट आता है । तथा नैऋत्यकोण भावि भवन की पूर्व दिशा में चौथा कूट कहा है । तथा पश्चिम दिग्भावि भवन की दक्षिण दिशा में, नैऋत्यविदिग्भावि भवन की उत्तर दिशा में पांचवां कूट कहा है । तथा पश्चिमदिशा के भवन से उत्तर दिशा में, वायव्यकोण भावि भवन के दक्षिण दिशा में छट्ठाकूट कहा है । तथा उत्तर दिशा के भवन की पूर्व दिशा में ईशान सभल सेवी. 'वेइया वणसंडवण्णओ' मडीयां वेहि भने वनषउनु वर्षानस पूर्णा री सेवु. हवे माडीना छूटानु उथन उरे छे. - ' एवं सेस्रावि कूडा' मेन प्रमाणे माडीना सात ક્રૂના સંબધમાં પણ સમજી લેવું. તે મધા ફ્રૂટો વધુ, પ્રમાણ, પરિધિ વિગેરેની અપેક્ષાથી પૂર્વોક્ત પ્રકારથી સમજી લેવા, તેમના સ્થાનાદિ વિભાગ આ પ્રમાણે છે.
પૂર્વ દિશાના ભવનની દક્ષિણ દિશામાં, આગ્નેય વિદિશાના ભવનની ઉત્તર દિશામાં બીજો ફૂટ કહેલ છે. તથા દક્ષિણ દિશાના ભવનની પૂર્વમાં, અગ્નિ કાણુમાં આવેલ ભવનની પશ્ચિમ દિશામાં ત્રીજો ફૂટ આવેલ છે. તથા નેઋત્ય કાણુમાં આવેલ ભવનની પૂ`દિશામાં ચાથા ફૂટ કહેલ છે. તથા પશ્ચિમ દિશામાં આવેલ ભવનની દક્ષિણ દિશામાં નૈઋત્યવિકિ શામાં આવેલ ભવનની ઉત્તર દિશામાં પાંચમા છૂટ આવેલ છે તથા પશ્ચિમ દિશાના ભવનથી ઉત્તર દિશામાં વાયન્ય કાણુમાં આવેલ ભવનની દક્ષિણ દિશામાં છટ્ઠા ફૂટ કહેલ છે. તથા ઉત્તર દિશામાં આવેલ ભવનથી પશ્ચિમ દિશામાં વાયવ્ય કાણુમાં આવેલ ભવનની
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
पश्चिमदिश्यष्टमं कूटमित्यष्टौ कूटानि सन्ति तत्तत्स्थानस्थितानि । अत्रैषां स्थापना यथा यन्त्रे
तथा द्रष्टव्या ।
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ई० प्रा००
उत्तर
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प्रा००
2
कूटाष्टकस्थापना - यन्त्रम्
पूर्व
भ०
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O
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४
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०
०कु० भ० कृ००
दक्षिण
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अथ जवाः सुदर्शनाया द्वादशनामान्याह - 'जंबूए णं' इत्यादि - 'जंबूए णं' जम्ब्वाः खल्ल 'सुदंसणाए - दुवाळसणामधेज्जा' सुदर्शनायाः द्वादशनामधेयानि नामानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'सुदंसणा सुदर्शना १, 'अमोहा य' अमोघा २ च 'सुप्पबुद्धा' सुप्रबुद्धा ३ 'जसोहरा' यशोधरा ४ | 'विदेहजंबू' विदेहजम्बू: ५ 'सोमणसा' सौमनस्या ६ कोण भावि भवन की पश्चिमदिशा में आठवां कूटकहा है ? इस प्रकार से आठ कूट कहे हैं। वे सभी तत् तत् स्थान में स्थित है। इनकी स्थापना संस्कृत टीका में यंत्र रूप में दिखलाइ है सो वहां देखकर समझलेवें ।
अब जम्बू सुदर्शना के बारह नाम कहते हैं - 'जंबूएणं सुदंसणाए ' जंबू सुदर्शना के 'दुवालस नामधेज्जा पण्णत्ता' बारह नाम कहे हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं- 'सुदंसणा ' सुदर्शना १, 'अमोहाय' अमोवार, 'सुप्पबुद्धा' सुप्रबुद्धा३, 'जसोहरा' यशोधरा ४, 'विदेह जंबू' विदेह जंबु५, 'सोमणसा सौमनस्या छ, 'णियया' नियता७, 'णिच्चमंडिया' नित्यमंडिता८, ॥१॥ 'सुभद्दाय' પૂર્વ દિશામાં સાતમા કૂટ આવેલ છે તથા ઉત્તર દિશામાં આવેલ ભવનની પૂર્વ દિશામાં ઈશાન કેણુમાં આવેલ ભવનની પશ્ચિમ દિશામાં આઠમા ફૂટ કહેલ છે. આ રીતે આઠે છૂટા કહેલા છે તે બધા તે તે સ્થાન પર આવેલ છે.
તેની સ્થાપના સંસ્કૃત ટીકમાં યંત્ર રૂપે ખતાવેલ છે. તે ત્યાંથી જોઇને સમજી લેવી. हुवे भंयू सुदृर्शनाना मार नामी हेवामां आवे छे – 'जंबूरणं सुदंसणाएं' ४ सुदर्श नाना "दुवालस नामघेज्जा पण्णत्ता' भार नाभा असा छे. 'तं जहाँ' ? छे 'सुंदरणा' सुदर्शना १ 'अमोहाय ' अभेधा २ 'सुप्पबुद्धा' सुप्रमुद्ध 3 जसोहरा' यशोधरा ४ 'विदेहजंबू' विहेड यू 'सोमणमा' सौमनस्या १ 'णियया' नियता ७ ' णिच्च मंडिया'
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सु. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् 'णियया' नियता ७ 'णिच्चमंडिया' नित्यमण्डिता ८।१। 'सुभदा च' सुभद्रा ९ च 'क्सिाला य' विशाला १० च 'सुजाया' सुजाता ११ 'सुमणा' सुमनाः १२ अपि च । 'सुदंसणाए जंबूए णामधेज्जा दुवालस' सुदर्शनाया जम्ब्बा नामधेयानि द्वादश ।२। तत्र-सुदर्शना-सु-मुष्ठु-शोभनं दर्शनं-नेत्रमनआह्लादकं वीक्षणं यस्याः सा तथा १, अमोघा-मोघाविफला न मोघा अमोघा-नबत्र विरोधार्थक इति विफला विरोधिनी सफलेत्यर्थः इयममोघा हि स्व स्वामिभावेन प्रतिपन्ना सती जम्बूद्वीपाधिपत्यं जनयति, तद् विना तद्देश स्वामित्वस्यैवायोगात २, सुप्रबुद्धा-सु-अतिशयेन प्रबुद्धा-उत्फुल्ला-उत्फुल्ल फुल्ल-योगादियमप्युत्फुल्ला ३, यशोधरा-धरतीति धरा पचादित्वादच् यशसः-सर्वजगद्व्यापिनो यशसो धरा यशोधरा, अनया जम्वा हि जम्बूद्वीपस्त्रिभुवने ख्यातप्रभाव इत्यन्वर्थ नामधेयमस्याः ४ । विदेहजम्बू:-विदेहेषु-स्वनामख्यातक्षेत्र विशेषेषु जम्बू विदेह जम्बू:-विदेहान्तवत्युत्तरकुरुकृतनिवासत्वात् ५। सौमनस्या-सौमनस्यं सुमनसो भावः, तदस्त्यस्याः जन्यत्वेति सुभद्रा ९, 'विसालाय' विशाला १०, 'सुजाया' सुजाता ११, 'सुमणा' सुमना १२, दूसरा प्रकार इस प्रकार कहा है 'सदसणाए जंबूए नामधेजा दुवालस' सुदर्शना जंबू के बारह नाम कहे हैं । सुदर्शना अर्थात् नेत्र एवं मनको प्रीतिकारक होता है दर्शन जिसका वह सुदर्शना कहलाता है १, 'अमोघा' निष्फल न होने वाला अर्थात् सफला, यह अमोघा ही स्वस्वामिभाव से प्राप्त होती हुई जंबूद्वीप का आधिपत्य को करता है, कारण उसके विना उस देशके स्वामि. त्वका ही अभाव रहता है२, सुप्रवुद्धा अतिशय प्रवुद्ध खिले हुए३, यशोधरा सर्व जगद्व्यापीयश को धारण करने वाला इससे जंबू से जंबूद्वीप तीनों भवनों में विख्यात प्रभाव वाला है इससे यह नाम यथा योग्य है ४, विदेह जंबू-विदेशे में-स्वनामसे, प्रसिद्ध क्षेत्रों में जो जंवू है वह विदेह जंबू कहलाता है, विदेहान्त वैति उत्तरकुरु में निवास करने से भी विदेह जंवूकहते हैं ५, सौमनस्या' सुमनित्यमता ८॥ १ ॥ सुभदाय' सुभद्रा ८ 'विसालाय' विशाखा १० 'सुजाया' सुजता ११, 'सुमणा' सुमना १२,
___भान २ मा प्रमाणे ४२स छ-'सुदंसणाए जंबूए नामज्जा दुवालस' सुशिना જબૂના બાર નામો કહેલા છે. સુદશના અર્થાત્ આંખ અને મનને પ્રતિકારક હોય છે. शन नुते सुशना ४उपाय 2. १, 'अमोघा' (न न थापा अर्थात् ससा, આ અમેઘા જ સ્વસ્વામિભાવથી પ્રાપ્ત થનારા જંબુદ્વીપનું અધિપતિ પણું કરે છે. કારણ है तना विना से ट्रेशन स्वामियाना ममा २९ छे. २, ‘सुप्रबुद्धा अत्यंत प्रभूद्ध ખીલેલા ૩, યશેરા સર્વ જગત વ્યાપી યશને ધારણ કરવાવાળા આનાથી જંબુથી જ બને દ્વિપ ત્રણે ભવનમાં વિખ્યાત પ્રભાવવાળે છે. તેથી આ નામ ચગ્ય જ છે. ૪, વિદે જંબૂ-વિદેહમાં સ્વનામથી પ્રસિદ્ધ ક્ષેત્રમાં જે જંબુ છે તે વિદેહ જંબૂ કહેવાય છે. વિહાર નર્વતિ ઉત્તરકુરૂમાં નિવાસ કરવાથી પણ વિદે જંબૂ કહેવાય છે. ૫, સૌમનસ્ય સુમનસને
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जम्बूढीपप्रज्ञप्तिसूत्र सौमनस्या-सौमनस्योत्पादिका द्रष्ट्र जनमनःप्रसादिनी ६ । नियता-सदाऽवस्थिता शाश्वतत्वात् ७, नित्यमण्डिता-नित्यं सततं मण्डिता-भूपिता तथा-सदा भूपणसमलकृतत्वात् ८११। सुभद्रा-सु-सुष्टु अव्याहत भद्रं-कल्याणं यस्याः सा सुभद्रा-सुन्दरकल्याणवती निरुपद्रवा महर्द्धिकदेवाधिष्ठितत्वात् ९ । च शब्दः समुच्चयार्थकः । विशाला-विस्तारयुक्ता १० आयाम-विष्कभ्माभ्यामुच्चत्वेन चाष्टयोजनप्रमाणत्वात्, चः प्राग्वत्, सुजाता-सु-शोभनंजातं-जननं यस्या सा तथा, स्वच्छमणिकनकरत्नमूलद्रव्यजनितत्वेन जन्मदोपरहितेति भावः ११ । सुमनाः-सु-शोभनं मनो यतः सा तथा १२, अपिचेति समुच्चयार्थे अव्यये । अत्र जीवाभिगमादिपु नामव्यत्यासेन पाठस्य दृष्टत्वेऽपि न कश्चिद्विरोधः, क्रमत्यागेऽपि द्वादशसंख्यापूर्ति सम्भवात् । जम्ब्या -जम्बूसुदर्शनायां खलु अष्टाष्ट मङ्गलकानि-स्वस्तिक १ श्रीवत्स २ नन्दिकावत ३ वर्धमानक ४ भद्रासन ५ कलश ६ मत्स्य ७ दर्पण इत्यष्टौ मङ्गलानि एव मङ्गलकानि-कल्याणकराणि-अत्र मङ्गलजनकेषु मङ्गलत्वमौपचारिकम् उपलक्षणमिदं तन ध्वजच्छत्रादीन्यपि वर्णनीयानीह वोध्यानि, नस को उत्पन्न करने वाला अर्थात् देखने वाले के मनको आनंद देने वाला ६, नियता-सदा अवस्थितरहने से अर्थात् शाश्वत होने से ७, नित्यमंडिता-सतत भूषण से अलंकृत रहने से ८ ॥१॥ सुभद्रा-सुंदर कल्याण करनेवाली-निरूपद्रव होने से महर्द्धिकदेव के अधिष्ठानभूत होने से ९ । विशाला-विस्तारयुक्त होने से १०, अर्थात् आयाम, विष्कंभ एवं उच्चत्व से आठ योजन प्रमाण होने से । सुजाता-स्वच्छमणि कनकरत्न मूल द्रव्य को उत्पन्न करने वाला होने से अर्थात् जन्म दोषरहित होने से ११, सुमना-शोभन मन होने से १२, यहां जीवाभिगमादि में नामका व्यत्यास-फिरफार शला पाठ होने पर भी कोई विरोध नहीं है। क्रम का फिरफार होने पर भी चारह की संख्या पूर्ण होती है।
जंधू खुदर्शना में आठ आठ मंगलक कहे हैं-जो इस प्रकार से हैं-स्वस्तिक, श्रीवत्सर, नंदिकावर्त ३, वर्धमानक ४, भद्रासन ६, कलश ६, मत्स्य ७, दर्पण ઉત્પન્ન કરવાવાળા અર્થાત્ જેનારાના મનને આનંદ આપનાર ૬, નિયતા, સદા અવસ્થિત રહેવાથી અર્થાત્ શાશ્વત હોવાથી ૭, નિત્યમંડિતા–સતત આભૂષણથી અલંકૃત રહેવાથી ૮, ૧ છે સુભદ્રા-સુંદર યાણ કરવાવાળી નિરુપદ્રવ હોવાથી મહદ્ધિક દેવના અધિષ્ઠાન ભૂત ૯ વિશાલા–વિસ્તાર યુક્ત હેવાથી આયામ વિષ્ક અને ઉચ્ચત્વથી આઠ યોજના પ્રમાણ હેવાથી. ૧૦, સુજાન-સ્વચછ મણિકનક રત્ન મૂલ દ્રવ્યને ઉત્પન્ન કરનારા હેવાથી અર્થાત્ જન્મ દેષ રહિત હોવાથી ૧૧, સુમના-શોભનમન હોવાથી ૧૨, અહીં જીવાભિ માદિમાં નામના ફેરફાર વાળે પાઠ હોવા છતાં પણ બારની સંખ્યા પૂરી થાય છે.
જંબૂસુદનમાં આઠ આઠ મંગલક કહેલા છે. જે આ પ્રમાણે છે –સ્વસ્તિક ૧, 'श्रीवास. २, नीd 3, १ भान ४; सद्रासन, ५, ४१०६, भस्य ७, ८,
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजन्यर्णनमें
अधुना सुदर्शनाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं प्रष्ठुकाम इदमाह-'जंबूए ' इत्यादि-'जंबूए णं' अट्ट मंगलगा पण्णत्ता' जम्ब्बाः खलु अष्टाष्ट मंगलकानि 'से' अथ-सुदर्शनास्वरूपवर्णनानन्तरम् 'भंते !' हे भदन्त ! इयं जिज्ञासोदेति यत् 'केणटेणं' केन अर्थेन-कारणेन 'एवं' एवम्इत्थम् 'वुच्चई' उच्यते-कथ्यते–'जंबू सुदंसणा २?' जम्बूः सुदर्शना २ इति ?, भगवांस्तदुत्तरमाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जंबूए णं सुदंसणाए अणाढिए' जम्ब्वां खलु सुदर्शनायाम् अनाहतः-नादृताः-न सम्मानिताः स्वातिरिक्ता जम्बूद्वीपनिवासिनो देवा येन सोऽनाहत:उपेक्षितान्यमहर्द्धिकः अनाहतेत्यन्वर्थनामको ‘णाम' नाम-प्रसिद्धो 'जंबूदीवाहिवई' जम्बू. द्वीपाधिपतिः 'परिवसइ' परिवसति, स कीदृशः ? इति जिज्ञासायामाह-'महिद्धीए' महद्धिकः-महती भवनपरिवारादि समृद्धिर्यस्य स तथा, इदमुपलक्षणं तेन "महाद्युतिकः, ८। ये आठ मंगलक ही कल्याण करने वाले कहे हैं । यहां मंगल जनकों में मंगलत्व यह औपचारिक है यह उपलक्षण है अतः यहां ध्वज छत्रादिका भी वर्णन करलेना चाहिए।
अब सुदर्शना शब्द की प्रवृत्ति के निमित्त को लेकर पूछने की इच्छा से इस प्रकार कहते हैं-'जंबू सुदर्शना में आठ आठ मंगल द्रव्य कहे हैं 'से' सुदर्शना के स्वरूप वर्णन के पीछे 'भंते !' हे भगवन् इस प्रकार की जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि-केणटेणं एवं वुच्चई' किस कारण से इस प्रकार कहा जाता है कि 'जंबू सुदंसणा जंबू सुदंसणा' यह जंबूसुदर्शना इस प्रकार से कहा जाता है? इस प्रश्न के उत्तर निमित्त महावीर प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! . 'जंबूएणं सुदंसणाए' जंबूसुदर्शना में 'अणाढिए णाम' अनाहत नामधारी देव 'जंबू दीवाहिवई' 'जंबुद्धीप का अधिपति 'परिवसई' निवास करता है। वह कैसा है इस प्रकार की जिज्ञासा निवृत्यर्थ कहते हैं-'महिड्डीए' भवनपरिवारा આ આઠ મંગલક જ કલ્યાણ કરનારા કહ્યા છે. અહીં મંગલ જનકમાં મંગલત્વ એ ઔપચારિક છે. એ ઉપલક્ષણ છે. તેથી અહી ધવજ અને છત્રાદિનું વર્ણન પણ કરી લેવું.
હવે સુદર્શન શબ્દની પ્રવૃત્તિના નિમિત્તને લઈને પૂછવાની ઈચ્છાથી આ પ્રમાણે ४डस छ.-'जंवूएणं अटु मरलगा पण्णत्ता' भूसुशानामा मा6 2416 भर द्रव्य 'से' सुशनाना १३५ १ ननी पछी 'भंते !' 3 भगवन् मावी शतना शास. Gua थाय छ -'केणद्वेणं एवं वुच्चई' । रणथी या शते ४पामां आवे छे ४-जंवसांसणी -जंवूसुदसणा' मा सुशना मे प्रमाण ४ाय छ ? २मा प्रश्न उत्तरमा श्रीमहावीर प्रमुछे-'गोयमा! गौतम । जंबूएणं सुंदसणाए' भू सुशानाभा 'अणाढिए णामं मनात नामधारी हेव, 'जंबू दीवाहिवई' दी५ नाभना द्वीपन मधिपति 'परिवसई निवास है, ते व वा १ शतनी ज्ञानी निवृत्ति भाटे ४३ छ–'महिड्डीए' सपन परिवारा સમૃદ્ધિથી યુક્ત હોવાથી મહદ્ધિક છે. મહદ્ધિક પદ ઉપલક્ષણ છે, તેથી મહાદ્યુતિવાળા,
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
महाबलः, महायशाः, महासौख्या, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः" इत्येषां ग्रहणम्, व्याख्याचाष्टमसूत्राद्बोध्या । 'से णं तत्थ' स खलु अनादृताभिधो देवः, तत्र जम्बू मुदर्शनायाम् विहरति, किं कुर्वन् ? इत्यपेक्षायामाह - 'उन्हें' चतसृणाम् इत्यादि 'चउण्हीं सामाणिय साहस्सीणं' चतसृणां सामानिक साहस्रीणां चतुः सहस्र संख्यक सामानिक देवानाम् 'जाव' यावत् - यावत्पदेन ' चतसृणामग्रमहिपीणाम्, सपरिवाराणां तिणां परिपदां सप्तानामनीकानाम सप्तानामनीकाधिपतीनाम्, पोडशानाम्' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो वोध्यः, एषां व्याख्याsष्टमसूत्राद्बोध्या । 'आयरक्ख देवसाहस्सीणं' आत्मरक्षदेवसाहस्रीणाम् - पोडशसंख्यानामात्मरक्षसहस्राणाम् तथा 'जंबूद्दीवस्सणं दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्य तथा - 1: 'जंबूर मृदंसजाए' जम्ब्वाः सुदर्शनायाः तथा 'अणाढियाए' अनादृतायाः - अनादृताभिधानाया: 'रायहाणीए अण्णसिं च ' राजधान्याः अन्येषाम् - चतुसहस्रसामानिकदेवाच्यतिरिक्तानां च 'बहूणं 'देवाण य देवीण य' बहूनां देवानां च देवीनां च 'जाव' यावत् - यावत्पदेन - आधिपत्यं दिसमृद्धि से युक्त होने से महर्द्धिक है - महर्द्धिक पद उपलक्षण हैं अतः महाद्युति वाला महाबल शाली, महान् यशबाला, महा सुखवाला, महानु भाव एक पल्योपम की स्थितिवाला है इन पदों का अर्थ आठवें सूत्र में कहे अनुसार समझलेवें' 'से णं तत्थ' वह अनादृतदेव जंबू सुदर्शना में निवास करते हैं-वहां निवास करता हुआ वह क्या करते हैं इस जिज्ञासा शमनार्थ कहते हैं- 'चउ सामाणिय साहस्सीणं' चार हजार सामानिक देवों का 'जाव' यावत्पद से परिवार सहित चार हजार अग्रमहिषीयों का तीन परिषदाओं का सात सेनाओं का, सात सेनाधिपतियोंका यहां पोडश पद का संग्रह समझलेवें अतः 'आयरक्खदेवसाहस्सीणं' सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा 'जंबूद्दीवस्स णं दीवस्स' जंबूद्वीप नामक द्वीपका तथा जंबूए सुदंसणाए' जंबू सुदर्शनाका तथा 'अणाढियाए' आनादृता नामकी 'रायहाणीए' राजधानी का इससे भिन्न 'बहू णं देवाण य देवीण य' अनेक देव देवियों का 'जाव' यावत् अधिपतित्व, पुरમહાખલશાલી, મહાન યશવાળા, મહાસુખવાળા, મહાનુભાવ, એક પત્યેાપમની સ્થિતિવાળા छे, या भाभ हो। अर्थ सभां सूत्रभां ह्या प्रभासमल सेवा. 'से णं तत्थ' અનાહત દેવ જખૂસુદનામાં નિવાસ કરે છે. ત્યાં નિવાસ કરતાં કરતા તે શું કરે છે? ये ुज्ञासाना शमन भाटे सूत्रद्वार हे छे- 'चउन्हं सामाणियसाहस्सीणं' यार भर सामानिः देवानु' 'जाव' यावत् पहथी सपरिवार यार उन्नर अग्रभडिषियोनु, भायु परिषहाઆનુ, સાત સેનાએનું સાત સેનાધિપતિચાતુ, અહિયાં ધેાશ પદના સંગ્રહ સમજી येथे।. तेथी 'आयरक्खदेवसाहस्सीणं' सोण हुनर आत्मरक्षा हेवानु', तथा 'जंबूदीवरस णं 'दीवस्स' 'शूद्रीय नाभना द्वीप', तथा 'जंबूए सुदंसणा ए' ४णू सुदर्शनानु, तथा 'अणाढियाए' अनाहत नाभनी 'रायहाणीए' राज्धानीनु ते शिवाय 'बहूणं देवाण य देवीण य'
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्वूवर्णनम्
पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तृ त्वं महत्तरकत्वम् आज्ञेश्वरसेनापत्यं कारयन् पालयन् महताऽहतनाट्य गीतवादित्रतन्त्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुप्रवादित रवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानः ' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो वोध्यः, एषां विवरणमष्टमसूत्राद् बोध्यम्, 'विहरइ' विहरति - विद्यते । 'से तेणद्वेणं गोयमा !' सा - जम्बू : सुदर्शना तेन - अनन्तरोक्तेन अर्थेन - कारणेन हे गौतम ! ‘एवं' एवम्-इत्थम् ‘बुच्चइ' उच्यते - कथ्यते - जम्बूसुदर्शना २ जम्बूवासौ सुदर्शना -सुसुष्ठु - शोभनमतिशयिनं वा दर्शनम् तन्निवासिदेवस्थानादृत देवस्यैव महर्द्धिकत्वस्य ज्ञानं यस्यां सा, यद्वा-सु - शोभनमतिशयितं वा दर्शनं विचारणमनन्तरोक्तस्वरूपं चिन्तनमनादृत देवस्य यतः सा सुदर्शना, इति, अथ जम्बूसुदर्शनायाः शाश्वतत्वसंशयमपनुदन्नाह - अदुत्तरं चेत्यादि, 'अदुत्तरं च णं' अदुत्तरम् देशीयोऽयं शब्दोऽयथार्थे तेन अथ अनन्तरम् इत्यर्थः च खलु
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पतित्व स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञेश्वर सेनापतित्व करता हुवा, पालता हुवा जोर जोर से वादित नाय्य, गीत, वादित्र तंत्री, तल, ताल, त्रुटित घन मृदंग को चतुर पुरुषों द्वारा प्रवादित शब्द के साथ दिव्य भोगोपभोग को भोगता हुआ 'बिहरई' निवाल करता हैं यहां यावत् पद से जिन शब्दों का ग्रहण हुआ है इनका विशेष स्पष्टार्थ आठवें सूत्र में कहे हैं अतः जिज्ञासु वहां से समझलेवें । 'से तेणट्टेणं गोयमा !' है गौतम ! पूर्वोक्त कारणों को लेकर ' एवं ' इस प्रकार से 'बुच्चइ' कहा जाता है जंबू सुदर्शना जंबू सुदर्शना अथवा सुंदर है दर्शन जिसका ऐसा उसमें निवास करनेवाले अनाहत देव का महर्द्धि कत्वादि ज्ञान जिसमें हो अथवा सुशोभातिशायि है दर्शन जिसका वह सुदर्शना कहलाती है ।
अब जंबुसुदर्शना के शाश्वतत्व संबंधी संशय को दूर करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'अदुत्तरंच णं' अथ अनन्तर 'गोथमा ! हे गौतम! 'जंबूसुदंसणा '
४ द्वेव देवियो' 'जाव' यावत् अधिपतित्व, चुरपतित्व, स्वामित्व, भतृत्व, भहत्तर४९१, आज्ञेश्वर सेनापतित्व, ४२ता था लेरनेरथी वागता तंत्री, तस, तास, त्रुटित, ઘન મૃદ ́ગને ચતુર પુરૂષા દ્વારા વગાડાતા શબ્દોની સાથે દિવ્ય એવા ભાગેપસગાને ભાગવતા થકા ‘ત્રિ” વિચરે છે. અહીયાં યાવપદ્મથી જે શબ્દ ગ્રહણ કરાયા છે, તેને વિશેષ સ્પષ્ટ અ આઠમાં સૂત્રમાં કહેલ છે. તેથી જીજ્ઞાસુએ ત્યાંથી સમજી લેવા.
'से तेणट्टेणं गोयमा' हे गौतम! पूर्वोक्त आरशाने सहने 'एवं बुच्चइ' थे अभा કહેવામાં આવે છે. જ ખૂસુદના જંબૂસુદનાં. અત્યંત સુંદર છે ઇ'ન જેવું એવા તેમાં નિવાસ કરવાવાળા અનાધૃત દેવનું મહકિત્વાદિ જ્ઞાન જેમાં હાય, અથવા શાણાતિશાયિ છે દર્શન જેનું તે સુદ'ના કહેવાય છે.
હવે જમ્મૂ સુદ'નાના શાશ્વતત્વ સંબંધી સંશયને દૂર કરતા થકા સૂત્રકાર કહે છે ‘अदुत्तरं च णं' अथ मनं ंतर 'गोयमा !' हे गौतम ! 'जंबूसुदंसणा' ४'सुदर्शना 'जाव' यावत्
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे 'गोयमा !' गौतम ! 'जंबुसुदंसणा' जम्बुमुदर्शना-'जाव' यावत्-यावत्पदेन-इति शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् यत् 'भुवि च ३' न कदाचित्नाऽऽतीत न कदाचिन्नास्ति, न कदाचिन्न भविष्यति 'धुवा णियया सासया अक्खया जाव' ध्रुवा नियता शाश्वती अक्षया यावत्-यावत्पदेन-अव्यया इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो वोध्यः, 'अवट्ठिया' अवस्थिता, इत्येषां व्याख्याऽष्टमसूत्राद्वोध्या । अथ प्रसङ्गादनादृतदेवस्य राजधानी विवक्षुराह-'कहि णं' इत्यादि-'कहि णं भंते !' कुत्र खलु भदन्त ! 'अणाढियस्स' अनादृतस्य-अनादृतनामकस्य 'देवस्स' देवस्य 'अणाढिया' अनादृता 'णाम' नाम प्रसिद्धा 'रायहाणी' राजधानी-राजनिवासस्थानविशेपः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता?, इति प्रश्ने भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जम्बूहीवे' जम्बूद्वीपेजम्बूद्वीपवर्तिनः 'मंदरस्स' मन्दरस्य-मन्दराभिवस्य, 'पव्ययस्स' पर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-- उत्तरस्यां दिशि अत्र सप्तम्यन्तादेन प्रत्ययः, 'जं चेत्र' यदेव 'पुव्यवणियं' पूर्ववणितं पूर्व प्राक् वर्णितम्-उक्तम्, 'जमिगा पमाणं' यमिका प्रमाणं-यमिकायाः-तन्नाम्न्या राजधान्याः जंतुसुदर्शना 'जाव' यावत् शाश्वत नाम कहा है । 'भुविच ३' कोई समय वह नाम नहीं था ऐसा नहीं है । वर्तमान में नहीं है ऐसा नहीं है । भविष्य में वह नाम नहीं होगा ऐसा भी नहीं है । 'धुवा णियया सासया अक्खया जाव' ध्रुव, नियत शाश्वत, अक्षय यावत्पद से अव्यय पद का ग्रहण समझ लेवें 'अवडिया' अवस्थित है इन शब्दों की व्याख्या आठवें सूत्र से समझ लेवें।। ____ अब प्रसंगोपात अनाहत देव की राजधानी का वर्णन करने की इच्छा से कहते हैं-'कहिणं भंते ! अणाढियस्स देवस्स' हे भगवन् अनाहत देवकी 'अणढिया णाम रायहाणी' अनादृता नामकी राजधानी 'पण्णत्ता' कही गई है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! है गौतम ! 'जंबूद्दीवे' जंबूद्वीप में 'मंदरस्स पव्वयस्स' मंदर नामके पर्वत से 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा मे 'जमिगा पमाण' यमिका नाम की राजधानी के समान प्रमाण वाली अर्थात् आयाम विष्कंभ, शाश्वत नाम ४ा छ. 'भुर्विच ३' ३४ ५ समये में नाम न तु म नयी वतभानमा नथी भ प नथी. अने. मविष्यमा के नाम नही शे सेम पर नथी. 'धुवो, णियया, सासया, अक्खया, जाव' वानियत, शाश्वत, यावत्पथी मव्यय, पहनुग्रहण समल वे. 'अवटिया' मवस्थित छे २मा शहानी व्याभ्या मामा सूत्रथी सभ9 वा.
वे असायात मनात वनी सधानानु पाणुन ४२वानी छाथी ४ छे-'कहि णं भंते ! अणाढियस्स देवस्स' में भगवन् मनात हेपनी 'अणाढिया णामं रायहाणी, मनानाभनी २४धानी ४यां 'पण्णत्ता' ४हेस छ?
या प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ३ छ-'गोयमा ! गौतम ! 'जंबुद्दी' दीपमा 'मंदरस्स पबयस्स' मह२ नामाना तनी 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामा 'जमिगापमाण, भि નામની રાજધાની સરખા પ્રમાણુવાળી અર્થાત્ આયામ,વિષ્કભ, પરિધિના સરખા પ્રમાણ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् प्रमाणम्-आयामविष्कम्भपरिधिरूपमानं 'तं चेव' तदेव अत्रापि 'णेय,' नेतव्यं-बुद्धिपथ प्रापणीय-बोध्यमिति यावत्, तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाच' इत्यादि-यावत्-यावत्पदेन'अण्णमि-जंबुद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं अणाढियस्स देवस्स अणाढिया णाम रायहाणी पण्णत्ता. वारसजोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, सत्ततीसं जोयणसहस्साइणव य' इत्यारभ्य 'उववाओ अभिसेओ य' इति पर्यन्तः 'निरवसेसो' निरवशेषः सर्वः पाठोऽत्र बोध्या, स च सव्याख्यो यमिका राजधानी वर्णनाधिकाराद् ग्राह्यः ॥२३॥
अथोत्तरकुरुनामार्थ पिपृच्छिषुराह मूलम्-से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-उत्तरकुरार ?, गोयमा! उत्तरकुराए उत्तरकुरू णानं देवे परिक्सइ महिद्धीए जाव पलिओवमटिइए, से तेणटणं गोयमा ! एवं वुचइ-उत्तरकुरार, अदुत्तरं च गंति जाव सासए । कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे मालवंते णामं वखारपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! संदरस्स पव्वयस्त उत्तरपुरस्थिमेणं नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं उत्तरकुराए पुरथिमेणं वच्छल्स चक्रवट्टिविजयस्स पचत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे मालवंते मासं वक्खारपव्वए पष्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिण्णे जं चेव गंधमायपरिधि के प्रमाण वाली 'तंचेवणेयव्वं' यमिका राजधानी का सव वर्णन यहां भी कह लेना वह कहां तक कहे ? इस जिज्ञासा के लिए कहते हैं-'जाब' यावत् यहां यावत्पदसे 'अण्णमि जंबूद्दीवे दीवे वारस जोयण सहस्साई ओगहित्ता एत्थ ण अणाढियस्स देवस्स अणाढिया णामं रायहाणी पण्णत्ता बारस जोयणसहस्साई आयामविक्खभेणं सत्तत्तीसं जायणसहस्साई णवय' यहां से लेकर 'उववाओ अभिसेओ' इस कथन पर्यन्त 'निरवसेसो समग्र पाठ यहां कह लेवें। वह पाठ व्याख्यासहित यमिका राजधानी के वर्णन से यहां पर ग्रहण कर कह लेवें।सू०२३॥
पाणी 'त चेव णेयव्वं' यभि:। यानीनु सघणु वर्णन मी या पy डी . ૬ વર્ણન જ્યાં સુધીનું ગ્રહણ કરવું તે જીજ્ઞાસાની નિવૃત્તિ માટે કહે છે-“ના” યાવત અહીંયા यापहथी 'अण्णमि जंबूद्दीवे दीवे बोरस जोयण सहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं अणाढियस्स देवस्स अणाढिया णाम रायहाणी पण्णत्ता बारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सत्ततीसं जोयणसहस्साइं णवय' २॥ सूत्रपाठी न 'उववाओ अभिसेओ' मा ४थन पन्त 'निरवसेसो' स पा मडीया ४ी . ते 48 तनी व्याभ्य। साथै यमिक्षा २०१ધાનીના વર્ણનથી અહીંયાં ગ્રહણ કરી લે છે સૂ. ૨૩
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसत्र णस्स पमाणं विक्खंभो य णवर मिमं णाणत्तं सबवेरुलियामए अवसिटुं तं चेव जाव गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे० (गाहा) सिद्धे य मालवंते, उत्तरकुरु कच्छसागरे रयए ।
सीयाए पुण्णभद्दे हरिस्सहे चेव बोद्धव्वे ।।
कहि णं भंते ! मालवंते वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? गोयमा! मंदरस्स पव्वयस्ल उत्तरपुरस्थिमेणं मालवंतस्स कूडस्स दाहिणपञ्चस्थिमेणं एत्थ णं सिद्धाययणे कूडे पण्णत्ते पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अवसिटुं तं चेव रायहाणी, एवं मालवंतस्स कूडस्त उत्तरकुरुकूडस्स, एए चत्तारि कूडा दिसाहिं पमाणेहिं णेयव्वा, कूडसरिसणामया देवा, कहि णं भंते ! मालवंते सागरकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? गोयमा ! वच्छकूडस्स उत्तरपुरस्थिमेणं रययकूडस्स दक्खिणेणं एत्थ णं सागरकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अवसिटुं तं चेव सुभोगा देवी रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं रययकूडे भोगमालिणी देवी रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं, अवसिटा कूडा उत्तरदाहिणेणं णेयव्वा एक्केणं पमाणेणं ॥सू० २४॥
छाया-अथ केनार्थेन भदन्त ! एचमुच्यते-उत्तरकुरवः ?, २ गौतम ! उत्तरकुरुषु उत्तर कुर्नामदेवः परिवसति महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यतेउत्तर कुरवः २, अदुत्तरं च खलु इति यावत् शाश्वतम् । क्व खल भदन्त ! महाविदेहे वर्षे माल्यवान् नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्येन नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन उत्तरकुरुभ्यः पौरस्त्येन वच्छस्य चक्रवतिविजयस्य पश्चिमेन अत्र खलु महाविदेहे वर्षे माल्यवान् नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीन प्रतीचीनविस्तीर्ण: यदेव गन्धमादनस्य प्रमाणं विष्कम्भश्च नवरम् इदं नानात्वं सर्ववैडूर्यमयः अवशिष्टं तदेव यावद् गौतम ! नवकूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धायतनकूटं• 'सिद्धं च १ माल्यवत् २ उत्तरकुरु ३ कच्छ ४ सागरे ५ रजतम् ६ सीतायाः ७ पूर्णभद्रं ८ हरिःस्सहं ९ चैव वौद्धव्यम् ॥१॥ क्व खलु भदन्त ! माल्यवतिवक्षस्कारपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्येन माल्यवतः कूटस्य दक्षिणपश्चिमेन अत्र खल सिद्धायतनं कूटं प्रज्ञप्तम् पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अवशिष्टं तदेव यावत् राज
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सृ. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम्
२९६ धानी, एवं माल्ययतः कूटस्य उत्तरकुरुकूटस्य कच्छ कूटस्य, एतानि चत्वारि कूटानि दिग्भिः प्रमाणैः नेतव्यानि । क्व खलु भदन्त ! माल्यवति सागरकूटं नाग कूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! कच्छकूटस्य उत्तरपौरस्त्येन रजतकूटस्य दक्षिणेन अत्र खलु सागरकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अवशिष्टं तदेव सुभोगादेवी राजधानी उत्तरपौरस्त्येन रजत कूटं भोगमालिनी देवी राजधानी उत्तरपौरस्त्येन अवशिष्टानि कूटानि उत्तरदक्षिणेन नेतव्यानि एकेन प्रमाणेन सू०२४॥ ____टीका-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि-प्रश्न सूत्रं स्पष्टम् उत्तरसूत्रे-गोयमा !" हे गौतम ! 'उत्तरकुराए' उत्तरकुरुषु भूले प्राकृतत्वादेकचनम् 'उत्तरकुरु णाम' 'उत्तरकुरुर्नाम 'देवे' देवः 'परिवसई' परिवसति, स च कीदृशः ? इत्याह-'महद्धीए जाव पलिओवमहिइए' महर्टिको यावत् पल्योपमस्थितिक:-महर्द्धिक इत्यारभ्य पल्योपमस्थितिक इति-पर्यन्तपदानां तद्विशेषणतया संग्रहो यावत्पदेन बोध्या-तथाहि-महर्द्धिकः, महाधुतिकः, महावलः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः, इति फलितम् एषां व्याख्याऽष्टमसूत्रादवगन्तव्या, 'से तेणद्वेण गोयमा!' तत् तेनार्थेन गौतम ! ते-अनन्तरोक्ताः उत्तरकुरवः तेन-प्रागु
॥से केणडेणं भंते ! इत्यादि। टीका-'से केणटेणं भते! एवं वुच्चई' हे भगवन् किस हेतु से ऐसा कहा गया है 'उत्तर कुरा उत्तरकुरा' अर्थात् उत्तरकुरा इस प्रकार से किस कारण से कहा जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयमा! हे गौतम ! 'उत्तर कुराए' उत्तर कुरु मे 'उत्तरकुरूणाम' उत्तर कुरु नाम वाला 'देवे परिवसई' देव निवास करता है। वह देव 'महड्डीए जाव पलिओवमट्टिईए' महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाला है । यहाँ पर महद्धिक पद से लेकर पल्योपम स्थिति वाला इतने तक के पद का संग्रह यावत्पद से हुआ है, जो इस प्रकार है-महर्दिक महापुतिक, महाबल, महायश, महासौख्य, महानुभाव, पल्योपम की स्थिति वाला इन पदों की व्याख्या आठवें सूत्र से समझ लेवें 'से तेणट्टेणं गोयमा ! इस
से केणट्रेणं मंते !' त्या ट -से केणदणं भंते ! एवं वुच्चई' 3 लगवन् शा २९था मे मामा मावे छे. 'उत्तरकुरा उत्तरकुरा' अर्थात् अत्त२१२। मे प्रमाणे ॥ २४थी ४पामा मा छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु श्री ४१ छ-'गोयमा !' गौतम ! 'उत्तरकुराए' त्तभ३भा 'उत्तर कुरुणामा' उत्त२७३ - नामधारी 'देवे परिवसई' हे निवास ४२ छे. ते हे 'महड्ढीए जाव पलिओवमदिईए' महा यावत् मे पक्ष्योपमनी स्थितिवाणी छे. महीया भद्धि पस्थी લઈને ૫૫મની સ્થિતિવાળે એટલા સુધીના પદોને સંગ્રહ યાવત્ પદથી થયેલ છે. જે આ પ્રમાણે છે-મહદ્ધિક, મહાતિક, મહાબલ, મહાયશ, મહાસીખ્ય, મહાનુભાવ, પપમની स्थितिवाणी, मा मधा पहानी व्यायामामा सनथी सम से 'से वेणद्वेणं गोयमा !'
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દ
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूर्य
क्तेन अर्थेन कारणेन हे गौतम! ' एवं बुच्चइ' एवमुच्यते - उत्तर कुरवः २ इति 'अदुत्तरं ' अथ 'च णंति' च खलु इति 'जाव सासए' यावच्छाश्वतम् 'अदुत्तरं च णं' इत्यारभ्य 'सास ए णामधिज्जे पण्णत्ते' शाश्वतम् नामधेयं प्रज्ञप्तम् इति पर्यन्तं वर्णनीयम्, तथाहि - 'अदुत्तरं चणं उत्तरकुराए त्ति सासयं णामधिज्जं पण्णत्तं' अथ च खलु उत्तरकुरव इति शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् ।
अथ यस्मात्पश्चिमायामुत्तरकुरव उक्तास्तं माल्यवन्तं नाम द्वितीयं गजदन्ताकारं पर्वतं निरूपयति- 'कहि णं' इत्यादि -- प्रश्न सूत्रं स्पष्टार्थम् उत्तरसूत्रे 'गोयमा !' हे गौतम ! 'मंदरस्स' मन्दरस्य - मन्दरनामकस्य 'पव्त्रयस्स' पर्वतस्य 'उत्तरपुरस्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन - उत्तरपूर्वेण ईशानकोणे 'णीलवंतस्स' नीलवतः नीलवनाम्नः 'वासहरपव्वयस्स' वर्पधरपर्वतस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन - दक्षिणस्यां दिशि 'उत्तरकुराए' उत्तरकुरुभ्यः 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वस्यां दिशि
कारण हे गौतम ! वह पूर्वोक्त उत्तर कुरु को 'एवं बुच्चइ' उत्तर कुरु इस प्रकार से कहते हैं-'अदुत्तरं च णंति' इससे अलावा वह 'जाव सासए' यावत् शाश्वत है 'अदुत्तरंच णं' यहां से लेकर 'सासए नामधिज्जे पण्णत्ते' शाश्वत नाम कहा है यहां तक समग्र वर्णन कह लेवें । वह वर्णन इस प्रकार से है- 'अदुत्तरं च र्ण उत्तर कुराएति सासयं नाम घिज्जं पण्णत्तं' उत्तर कुरु इस प्रकार का नाम शाश्वत कहा है।
अब जिसकी पश्चिम दिशा में उत्तर कुरु कहा है वह माल्यवन्त नाम का गजदन्ताकार दूसरा पर्वत का वर्णन करते हैं-'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे' हे भगवन् महाविदेह वर्ष में कहां पर 'मालवंते णामं वक्खारपञ्चए पण्णत्ते' माल्यवंत नाम का वक्षस्कार पर्वत कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! मन्दरस्त पव्वस्स' भन्दर नाम के पर्वत के 'उत्तर पुरस्थिमेणं' ईशान कोण में 'णीलवतस्स' नीलवंत नाम का 'वासहरपञ्चयस्स' वर्षधर पर्वत की 'दाहिनेणं' दक्षिण दिशा में 'उत्तर राए' उत्तर कुरु से 'पुरत्थिमेण' पूर्व दिशा में 'कच्छस्स'
मे रथी हे गौतम! मे पूर्वोक्त उत्तर३ने 'एवं वुच्चई' उत्त२३३ मे प्रभा आहे. 'अदुत्तरं च पंति' तेनाथी मीलु ते 'जाव सासए' यावत् शाश्वत छे. 'अदुत्तरं चणं' मे पहथी सधने 'सासए नामधिन्जे पण्णत्ते' शाश्वत नाम अडेटा है. मेटला सुधीनु सभथ वर्षान पुरी होवु ते वर्णन मा असा छे, 'अदुत्तरं च णं उत्तरकुराएति सासयं नामधिनं पण्णत्तं उत्तर ३ मे अास्तु नाभ शाश्वतधु छे.
હવે જેની પશ્ચિમ દિશામાં ઉત્તર કુરૂ કહેલ છે તે માલ્યવન્ત નામના ગજદન્તાકાર नील पर्वतनु वर्षान रे - कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे' हे भगवन् भहाविदेह वर्ष भां क्ष्यां भागण 'मालवंते णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते' भाझ्यवंत नामनो वक्षस्कार पर्वत आहेस हे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री ४ छे - 'गोयमा !' हे गौतम! 'मंदरस्स पव्वयस्स' भंडर नाभना पर्वतनी 'उत्तरपुरत्थिमेणं' शान अणुभां 'णीलवंतस्स' नीसवान् नामना 'वासहर पव्वयस्स' वर्ष'धर पर्व'तनी 'दाहिणेणं' हक्षिण दिशाभां 'उत्तरकुराए' उत्तर ३थी 'पुरत्थमेन'
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् 'कच्छस्स' कच्छस्य-कच्छ-नामकस्य 'चकवट्टिविजयस्स' चक्रवर्तिविजयस्य 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'महाविदेहे' महाविदेहे-महाविदेह नामके 'वासे' वर्षे-क्षेत्रे 'मलवंते' माल्यवान् ‘णाम' नाम वक्खारपव्वए' वक्षस्कारपर्वतः सीमाकारिपर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः, अस्य मानाधाह-'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायतः-उत्तरदक्षिणयोर्दिशोरायत:-दीर्घः, 'पाईणपडीणवित्थिण्णे' प्राचीन-प्रतीचीनविस्तीर्ण:-पूर्वपश्चिमयोर्दिशोविस्तीर्णः-विस्तारयुक्तः, किंबहुना 'जं चेव' यदेव 'गंधमायणस्स' गन्धमादनस्य-पूर्वोक्तवक्षस्कारपर्वतस्य 'पमाणं' प्रमाणं 'विक्खंभो' विष्कम्भा-विस्तारः 'य' च, उक्तस्तदेव प्रमाणं स एव च विष्कम्भो बोध्यः, 'णवरं' नवरम्-केवलम्-'इम' इदम् ‘णाणत्त' नानात्व-भेदः-विशेषोऽयम् 'सव्ववेरुलियामए' सर्ववैडूर्यमयः-सर्वात्मना-वैडूर्यरत्नमयः 'अवसिटुं' अवशिष्टं-शेपं 'तं चेव' तदेव-पूर्वोक्तमेव, तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्यपेक्षायामाह'जाव गोयमा ! नव कूडा पण्णत्ता' यावद् गौतम नवकूटानि प्रज्ञप्तानि, स्पष्टम् 'तं जहा' तद् कच्छ नाम के 'चकवहिविजयस्स' चक्रवतिविजय के 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमदिशा में 'एत्थ' यहाँ पर 'ण' निश्चय से 'महाविदेहे' महाविदेह नाम का 'वास क्षेत्र मालवंते णाम' माल्यवान नाम का 'वक्खारपव्वए' सीमाकारी पर्वत 'पण्णत्ते' कहा हैं।
अब इसका मानादि प्रमाण कहते हैं-'उत्तरदाहिणायए' वह पर्वत उत्तर दक्षिण में लंबा है, 'पाईणपडीणवित्थिण्णे' पूर्व पश्चिम दिशा की ओर विस्तार वाला है, अधिक क्या कहे, जं चेव गंधमायणस्स' जो गंधमादन वक्षस्कार पर्वत का 'पमाण' प्रमाण 'विक्खंभो' विष्कंभ या जो कहा है वही प्रमाण और वही विष्कंभ इसका भी समझ लेना।'णवरं' केवल 'इमं यही 'णाणत्तं विशेष कान कि 'सव्ववेरुलियामए' यह पर्वत सर्वात्मना वैडूय रत्नमय कहा है 'अवसिष्ट तं चेव' बाकिका सर्वकथक पूर्वोक्त कथन के जैसा ही है। वह कथन कहां तक का ग्रहण करना चाहिए इस संशय की निवृत्यर्थ कहते हैं 'जाव गोयमा ! नवकूडा ५ दिशामा 'कच्छस्स' ४२७ नामना 'चकवट्टिविजयस्स' यती वियना पच्चत्थिमेण पश्चिम दिशामा ‘एत्थ' महीयां 'ण' निश्श्यथी 'महाविदेहे' भाविनामना 'वासे और 'मालवंते णाम' भास्यवान् नाभना 'वक्खारपव्वए' सीमा त 'पण्णत्ते रस
तना भाना प्रभानु ४थन ४२ छ–'उत्तर दाहिणायए' ते ५ त२ क्षियभi eमा छे. 'पाईणपडिविस्थिण्णे' पूर्व पश्चिम हिश त२३ विस्तारपाको छ. पधारे शु उपाय ? 'जं चेव गंधमायणस्स' २ गधाहन पक्ष२४२नु 'पमणं' 22. 'विवभोर વિષ્ક ત્યાં જે કહેલ છે. એ જ પ્રમાણ અને એજ વિષ્કભ આનો પણ સમજી લે. 'णवर वण 'इमं मे ‘णाणत्तं' विशेषता छे, -'सव्ववेरुलियामए' मा पर्वत सी भना वैड्य २लमय छे. 'अवसिटुं तं चेव' मानु सघणु ४थन पडताना ४थन प्रभारी જ છે તે કથન ક્યાં સુધીનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ? એ જીજ્ઞાસાની નિવૃત્તિ માટે કહે છે
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जम्बूहीपप्रशप्तिसूत्र यथा-'सिद्धाययणकूडे ०' सिद्धायतनकूटम्० इत्यादीनि नवकूटानि यारत् इति तानि नवकूतानि नामनिर्देशेनाह-'सिद्धेय सिद्धं च इत्यादि स्पष्टम् नवरम उत्तररात्रे उक्तस्यापि सिद्धायतनकूटस्य पुनरुपादानं गाथानिवद्धत्वेन सर्वकूटसङ्ग्रहार्थमिति, सिद्धं-सिद्धायतनकूटम् नामैकदेशे नामग्रहणात्, च शब्दः पादपूरणार्थकः१, 'मालयंते' माल्यरत्-माल्यवन्नामकं कूटम् प्रस्तुतवक्षस्कारप्रतिकूटम् २, 'उत्तरकुरु' उत्तरकुरुनामकं कूटम्-उत्तरकुरुदेवकूटं ३, 'कच्छसागरे' कच्छसागरे-कच्छं कच्छविजयाधिपं कटं सागरं च सागरनामकं कृटम्४-५, 'रयए' रजतं-रजतनामकं कूटम् इदश्चान्यत्र रुचकनाम्ना प्रसिद्धम् ६, 'सीयाए' सीतायाः सीतानद्याः सूर्याः कुटम् क्वचित् 'सीओयेति' पाठः तत्पक्षे सीते चेतिच्छाया, सीताकूटमिति पण्णत्ता' यावत् हे गौतम ! नव कूट कहे है इस कथन पर्यन्त पूर्वोक्त कथन ग्रहण करलेवें । 'तं जहा' वे नवकूट इस प्रकार से कहे हैं-'सिद्धाययणकडे' सिद्धायतन कूट, इत्यादि नवकूट कहे हैं । अब वे नव कूटों के पृथक् पृथक् नाम निर्देश दिखलाते हैं-'सिद्धया' सिद्ध इत्यादि स्पष्ट है । विशेषता यह है कि यह सिद्ध कूट उत्तर सूत्र में कहने पर भी सिद्धायतन कूटका पुनरुच्चारण गाथा में सर्व कूटों के नाम संग्रहार्थ कहा है ऐसा समझलेवें । गाथा में 'सिद्ध' कहनेसे सिद्धायतन कूट ऐसा समझलेना चाहिए, कारण कि नामका एकदेश के कहनेसे संपूर्ण नाम ग्रहण होजाता है १, 'मालवंते' माल्यवान नामका कूट यह प्रस्तुत वक्षस्कारका प्रतिकूट है २, 'उत्तरकुरू उत्तरकुरु नामका कूट यह उत्तरकुरु देव का कूट है ३, 'कच्छसागरे' कच्छ नाम का कूट ४ तथा सागर नाम का कूट ५, 'रयए' रजत नाम का कूट यह अन्य स्थान में रुचक नामसे प्रसिद्ध है ६, 'सीयाए सीता नदी का सूर्य कूट हैं, कहीं पर 'सीयोएति' ऐसा पाठ है, इस पक्ष में 'सीता जाव गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता' यावत् गौतम ! नटी डेसा छ. मा ४थन पर्यन्त पूर्वरित ४थन डाय ४री त जहा' ते नव दूटो मा प्रभारी छ. 'सिद्धाययणकूडे' સિદ્ધાયતન ફૂટ ઈત્યાદિ નવ ફૂટે છે.
वसन टनु दु नाम निशपूर्व४ मताव छ-'सिद्धेय' सिद्ध त्या ગાથાર્થ સ્પષ્ટ છે. વિશેષતા એ છે કે–આ સિદ્ધ કૂટ ઉત્તર સૂત્રમાં કહેવા છતાં પણ સિદ્ધાથતન કૃટનું પુનરચ્ચારણ ગાથામાં સર્વ ટેના નામને સંગ્રહ બતાવવા માટે કહેલ છે. तभ सम . गाथामा 'सिद्ध' वाथी सिद्धायतन दूट मेम सम नध्य. १२ -नामना से देशन ४उपाथी सपू नामनु प्रड २४ लय छ १ 'मालवते' भास्यवान् नामना कूट से प्रस्तुत क्षार प्रतिट छ. २ 'उत्तरकुरु' उत्त२७३ नामना दूट मा उत्त२ १३ नामना वना छूट छ 3 'कच्छसागरे ४२७ नामना छूट ४ तथा सागर नाभनाइट ५ 'रयए' २०४त नामना छूट भादूट अन्य स्थानमा ३५४ नामथी प्रसिद्ध ७.६ 'सीयाए' सीता नहीना सूर्य दूर छ. ४यां४ 'सीयोएत्ति' मेवी 48 छ, मे पक्षमा 'सीता
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम्
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तदर्थः, नामैकदेशे नाम्नोग्रहणात् तत्र सीतानदी देवीकूट मिति परमार्थः, च समुच्चये७, 'पुण्णभद्दे' पूर्ण भद्रं - पूर्णभद्र नामकस्य व्यन्तराधिपस्य कूटं पूर्णभद्रकूटम् ८, 'हरिस्सहे चेव बोद्धव्वे' हरिस्सहं चैत्र बोद्धव्यम्, हरिस्सह नाम्न उत्तरश्रेणिपतिविद्युत्कुमारेन्द्रस्य कूटं हरिस्सहकूटम् च समुच्चये, एव शब्दोऽवधारणे बोद्धव्यं ज्ञेयम्९, अथ नवकूटस्थानं निरूपयितुमाह'कहि णं भंते !' क्व खलु भदन्त । इत्यादि - प्रश्नसूत्रमुत्तानार्थकम् उत्तरसूत्रे - 'गोयमा !” गौतम ! 'मंदरस्स' मन्दरस्य - एतन्नामकस्य 'पव्वयस्स' पर्वतस्य 'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन - उत्तरपूर्वदिगन्तराले ईशानकोणे 'मालवंतस्त्र' माल्यवतः 'कूडस्स' कूटस्य, 'दाहिणपच्चत्थिमेणं' दक्षिणपश्चिमेन निर्ऋतिकोणे 'एत्थ' अत्र '' खलु 'सिद्धाययणे' सिद्धयतनं 'कूडे कूटं 'पण्णत्तं' प्रज्ञतम् तत् किम्प्रमाणं कीदृशं चेत्यपेक्षायामाह - 'पंच जोयण'चेति' ऐसी छाया होती है अतः सीता कूट ऐसा उसका अर्थ होता है कारण कि नामैकदेश के ग्रहण से समग्र नामका ग्रहण हो जाता है इस पक्ष में सीतानदी देवीकूट ऐसा अर्थ हो जाता है ७ । 'पुण्णभद्दे' पूर्णभद्र, पूर्णभद्र नामका व्यन्तराधिपति देवका कूट पूर्णभद्र कूट है ८, 'हरिस्स हे 'चैवोद्धव्वै' हरिस्सह नामका उत्तर श्रेणि का अधिपति विद्युत्कुमारेन्द्र का कूट हरिस्सह कूट है ऐसा जानना ९,
अब नव कूटों के स्थानों का निरूपण करते हुए सूत्रकार कहते हैं - 'कहिणं भंते ! मालवंते वक्खारपच्चए' हे भगवन् माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत में 'सिद्धाययण कूडे णामं कूडे पण्णत्ते' सिद्धायतन कूट नामका कूट कहाँ पर कहा है ? इसी प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री गौतम को कहते है 'गोयमा !' हे गौतम ! 'मंदरस्त' मंदर नाम के 'पव्वयस्स' पर्वत के 'उत्तरपुरत्थिमेणं' ईशान कोण में 'माल - वंतस्स' माल्यवान् 'कूडस्स' कूटका 'दाहिण पच्चत्थिमेणं' नैऋत्य कोण में 'एस्थ' यहां पर '' निश्चित 'सिद्धाययणे' सिद्धायतन 'कूडे' कूट 'पण्णत्तं' कहा गया है । चेति' खेती छाया थाय छे. तेथी सीता छूट मेव। तेन। अर्थ थाय छे, र है-नाभ દેશના ગ્રહણથી સંપૂર્ણ નામનુ ગ્રહણ થઈ જાય છે. એ પક્ષમાં સીતા નદી દેવી છૂટ सेवा मर्थ थर्ध लय हे ७, 'पुण्णभद्दे' पशु भद्र व्यन्तराधिपतिदेवना छूट युभद्र 'छूट छे. ८; 'हरिस्सहे चैव बोद्धव्वे' इरिस्सड नामना उत्तर श्रेीना अधियति विद्युत्कुभाરેન્દ્રના ફૂટ હરિસ્સહ ફૂટ છે. તેમ સમજવું ૯.
वे नव टोना स्थानानु निश्या हरतां सूत्रार डे छे.- 'कहिणं भंते! मालवंत· वक्खारपव्वए' हे भगवन् भाझ्यवन्त वक्षस्४२ पर्वतभां 'सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' સિદ્ધાયતન નામના ફૂટ કયાં આવેલા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે है - 'गोयमा !' हे गौतम! 'मंदरस्स' भंडर नामना 'पव्वयरस' पर्व'तना 'उत्तर पुरत्थिमेणं' , ईशान आशुभा 'मालवं तस्स' भाट्यवान् 'कूडस्स' छूटना 'दाहिणपन्चत्थिमेणं' नैऋत्यहिशाभां '' एत्थ' गडीयां 'ण' निश्वयथी 'सिद्धाययणे' सिद्धायतन 'कूडे' हूड ' पण्णत्तं' हे छे.
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे सयाई' पञ्चयोजनशतानीत्यादि-पश्चशतयोजनानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेण' उच्चत्वेन 'अवसिह अवशिष्ट-मूलविष्कम्भादिकम् 'तं चेव' तदेव-गन्धमादनसिद्धायतनकूटोक्तमेवमूलविष्कम्भादिकमत्रापि वक्तव्यम् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव रायहाणी' यावद् राजधानी वर्णकपर्यन्तम्-अयमाशय:-सिद्धायतनकूटवर्णके सामान्यतः कूटवर्णयसूत्रं विशेषतः सिद्धायतनवर्णकसूत्रं चेतवयमपि वक्तव्यम् तत्र सिद्धायतनकूटे राजधानीसूत्रं न युज्यतेऽतो राजधानीसूत्रं विहाय तदधस्तनसूत्रं वक्तव्यमिति, अत्र यावच्छन्दो न सङ्ग्राहकः किन्त्ववधिमात्रसूचका, अथ लाघवार्थमतिदेशसूत्रमाह-'एवं मालवंतस्स' एवं माल्यवतः इत्यादि-एवम्इत्थम्-सिद्धायतनकूटवत् माल्यवतः-माल्यवन्नामकस्य 'कूडस्स' कूटस्य 'उत्तरकुरुकूडस्स'
उस कूट का क्या प्रमाण है एवं वह कूट कैसा है इस अपेक्षा निवृत्यर्थ सत्रकार कहते हैं-'पंच जोयणसयाई' पांच सो योजन का 'उर्दू उच्चत्तणं' उपर
भाग में ऊंचा है 'अवसिडे' शेष कथन अर्थात् मूल विष्कंभादि का कथन 'तं चेव गंधमादन एवं सिद्धायतन कूट के जैसाही कहा है । वह कथन कहांतक समान है ? इसके लिए कहते हैं 'जाव रायहाणी' यावत् राजधानी अर्थात् राजधानी का वर्णन पर्यन्त वह कथन ग्रहण करलेवें। ___ इस कथन का भाव यह है कि सिद्धायतन कूट के वर्णन में सामान्य से कूट वर्णन सूत्र एवं विशेषतया सिद्धायतन का वर्णन सूत्र ये दोनों कहना चाहिए उस कथन में सिद्धायतन कूट के वर्णन में राजधानी संबंधी सूत्र नहीं कहना चाहिए अतः राजधानी के कथन को छोडकर उसके नीचे का वर्णन परक सूत्र कहलेवें । यहां पर यावत् शब्द संग्रहार्थ में नहीं है अपितु अवधिमात्र सूचक है। ___ अव संक्षेप करने के उद्देश से अतिदेश सूत्र कहते हैं-'एवं मालवंतस्स' सिद्धायतन कूट के कथनानुसार माल्यवान् नामक 'कूडस्स' कूटका 'उत्तरकुरू
એ ફૂટનું શું પ્રમાણ છે? અને એ કૂટ કે છે? એ અપેક્ષાની નિવૃત્તિ નિમિત્તે सत्रा२ ४ छ.-'पंचजोयणसयाई' यांयसे। यौन सी 'उद्धं उच्चत्तेणं' 6५२नी २५ 6 छ. 'अवसिद्ध मादीनु ४थन अर्थात् भूदा १० विगैरे ४थन 'तं चेव' गधभाहन भने सिद्धायतन ठूटनी भर ४ छ. जाव रायहाणी' यावत् रायानीना वर्णन पन्त તે કથન ગ્રહણ કરી લેવું.
આ કથનને ભાવ એ છે કેસિદ્ધાયતન કૃટના વર્ણનમાં સામાન્ય રીતે કુટનું વર્ણન કરનાર સૂત્ર અને વિશેષ રીતે સિદ્ધાયતનનું વર્ણન કરનાર સૂત્ર એ બને કહેવા જોઈએ. એ કથમાં સિદ્ધયતન ફૂટના વર્ણનમાં રાજધાની સંબંધી સૂત્ર કહેવાનું નથી. તેથી રાજધાનીના કથનને ત્યાગ કરીને તેની નીચેનું વર્ણન પરક સૂત્ર કહી લેવું. અહીંયાં થાવત્ શબ્દ સંપ્રહાર્થમાં નથી પરંતુ અવધિમાત્રનું સૂચક છે.
३ स २५ ४२वाना देशथी गतिश सूत्र ४९ छ.-"एवं मालव तस्स' सिद्धायतन
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सृ. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् उत्तरकुरुकूटस्य उत्तरकुरुदेवकूटस्य' 'कच्छस्स' कछस्य-कच्छविजयापिकूटस्य आयामविष्कम्भादिक वक्तव्यम्, इत्युपरिष्टादध्याहार्यम्, अर्थतानि कि परस्परं स्थानादिना तुल्या"निवाऽनुल्योनीत्यपेक्षायामाहे-'एए.चत्तारि एतानि चवारि इत्यादि-एतानि अनन्तरीक्तानि चत्वारि-सिद्धायतनादीनि 'कूडा' कूटानि परस्पर दिसाहिं दिग्भिः-ईशानादिविदिग्लक्षणाभिः पमाणेहिं प्रमाणैः-आयामादिभिमान तुल्यानि "नयेव्या' तव्यानि-योधपथं प्रापणीयानि बोध्यानि, अयशिया-प्रथमं सिद्धार्यतेनकूट १; मेरीरुत्तरेस्यां दिशि स्थितम्, ततस्तदिशि द्वितीय माल्यवत्कूटर ततस्तस्यामेव दिशि तृतीयमुत्तरकुरुकूट, ततोऽ. समुपयां-दिशि चतुर्थ -कच्छकूटम् ४ एतान्ति ,चत्वार्यपि हानि, विदिग्पत्ती नि मानतो
हिमवत्कूटतुल्यानि इति । एषु कटेषु कि नामका देवाः ? इत्या -'कंडसैरिसनामया "देवा' कूटसदृश-नामकाः देवा:-यथा फूटानों नामानि तथों 'देवानामपि, परमत्र ___ कूडस्स' उत्तर कुरु देव कूट का 'कच्छस्' कच्छविंजयाधिपति के कूटका आयाम हाविष्कंभादिकःकहलेवें..
:- - । ये सब कूट के स्थानादि समान है ? या असमान है.? इस शंका किनिवत्तिके लिए सूत्रकार कहते हैं 'एएं चत्तारि कूडी यें पूर्वोक्त चार कट आपस में "'दिसाहि ईशानादि दिशाओं के "पमाणेहि प्रमाण से अर्थात् आयोनादिमाण - 'सें समान 'णेयधा' जानलेना। .... ...... - " "' . .इस कथन का भाव यह है कि-पहला सिद्धायतन कूट,मेरु की उत्तर दिशा ..में स्थित हैं,१, उस के पीछे उसी दिशामें दूसरा माल्यवान्, कूट कहा है २, तद्
नन्तर उसी दिशामें तीसरा उत्तरकुरु कूट आता है ३, पश्चात् उन्ली दिशामें चौथो कच्छ नामका कूट आती हैं ४, यह चारों कूट विदिशामें स्थित है एवं इन "सर्वका मान हिमवान् कूट के समान है। इन कूटों में कौन नाम-धारी देव वसते - है. वह कहते हैं- कूडसरिसनामया देवा' कूट के नाम, सरीखे.नाम धारी देव
दूटना ४थान अभावमास्यपान तामना, 'कूडस्स' टन उत्तरकुरुकूडस्स' उत्त२ १३ हेव दूटना 'कच्छस्स' ४२ विन्याधिपतिना टना 'मायाम विमा वा
આ બધા ફૂટેના સ્થાનાદિ એક સરખા છે? કે અસમાન છે? એ શકાના સમાન धान निमित्त सूत्रा२ ४९ छ 'एए चत्तारिकृडा. ..पूत यार. छूट ५२२५२मा दिसा - हि' शानशासाना 'पमाणेहिं प्रभYथी समर्थात् मायामा प्रभाथी मे४ स२॥ .'णेयव्वा' सभसे. * , આ કથનને ભાવ એ છે કે–પહેલે સિંદ્ધાથલને કૂટે મેરની ઉત્તર દિશામાં રહેલ છે ૧ તેના પછી એજ દિશામાં બીજો મોઘેવા કૂટ હિલ છે રે, તે પછી જ દિશામાં ત્રીજે ઉત્તરકુરૂ ફૂટ આવેલ છે ૩, તે પછી એજ દિશામાં કચ્છનામને કૃટ આવે છે. - ૪, એ ચારે કૂટ વિદિશામાં રહેલ છે. એ બધાનું માપ હિમાવાન કૂટના સરખું છે આ
टोमा ४ नाभवा पसे र . ४':-'लूडसरिसनामया देवा' छूटना
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसत्र 'यावत्संभवं विधि प्राप्ति' रिति न्यायात् सिद्धायतनकूटातिरिक्तेपु त्रिषु कूटेषु माल्यवदादिषु कूटसदृशनामका देवा इति बोध्यम्, सिद्धायतनकूटेतु सिद्धायतनं न तु देवः, अन्यथा 'छ सयरिकूडेमु तहाचूलाचउवणतरुसु जिणभवणा। भणिया नंबुद्दीवे सदेवया सेस ठाणेम॥१॥ एतच्छाया-पट् सप्रतिकूटेषु तथा चूलाः चतुर्वनतरुषु जिनभवनानि । भणितानि जम्बूद्वीपे सदेवकानि शेपस्थानेषु ॥१॥ इति वचने न विरोधः स्यात् । तस्मात्तत्र सिद्धानामायतन मेवास्तीति निश्चितम् । अथ शेपकूटस्वरूपमाह-'कहि णं क्व खलुइत्यादि--प्रश्नसूत्रं व्यक्तम्, उत्तरसूत्रे 'गोयमा !' हे गौतम ! 'कच्छकूडस्स' कच्छकूटस्य वहां वसते हैं अर्थात् जैसा कूटका नाम है वैसाही उन उन कूटाधिष्ठित देवका नाम है। परंतु यहां पर 'यावत् संभव विधि की प्राप्ति' इस न्याय से सिद्धायतन कूट से भिन्न तीन कूटों में अर्थात् माल्यवदादि में कूट के सदृश नामवाले देव हैं ऐसा समझलेवें । परंतु सिद्धायतन कूटमें सिद्धायतन है देव नहीं है अन्यथा
'छसयरि कटेसु तहा चूला चउवण तरुसु जिणभवणा ।
भणिया जवुद्दीवे सदेवया सेसठाणेसु ॥१॥ सडसठ कूटों में तथा चूला, चार वन तरुओं में जिन भवन कहे है शेष स्थानों जंबूद्वीप में देव सहित कहे है, इस वचन में विरोध नहीं आता हैं। अतः सिद्धायनन कूट में सिद्धों का आवासही है यह निश्चित होता है
__ अव शेष कूटों के स्वरूप का निरूपण करते हैं'कहि णं भंते ! हे भगवन् कहांपर 'मालवंते सागरकूडे णाम' माल्यवन्त सागरकट नामका 'कूडे पण्णत्ते' कूट कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा!' हे गौतम ! 'कच्छ कुडस्स' चोथा काछकूड के 'उत्तरपुरस्थि. નામ સરખા નામવાળા દેવ ત્યાં વસે છે. અર્થાત જેવું કૂટનું નામ છે. એવાજ નામવાળા તે તે કૂટાધિષ્ઠિત દેવ છે. પરંતુ અહીયાં ચાવત્સભવ વિધિની પ્રાપ્તિ એ ન્યાયથી જુદા ત્રણ ફૂટેમાં અર્થાત્ માલ્યવદાદિમાં કૂટના સરખા નામવાળા દેવ છે. તેમ સમજી લેવું પરંતુ સિદ્ધાયતન ફૂટમાં સિદ્ધાયતન દેવ નથી. નહીંતર–
__ 'छसयरि कूटेसु तहा चूला चउणतरुसु जिणभवणा।
भणिया जंबुद्दीवे सदेवया सेसठाणेसु ॥ १ ॥ જંબુપમાં સડસઠ ફટમાં તથા ચૂલા, ચાર વન તરૂઓમાં જનભવને કહેલા છે. બાકીના સ્થાને દેવ સહિત કહ્યા છે. આ વચનમાં વિરોધ આવતો નથી. તેથી સિદ્ધાયતન ફૂટમાં સિદ્ધોને આવાસ જ છે. એ વાત નિશ્ચિત થાય છે.
वे माना टोमा २१३५नु नि३५ ४२वाभा माये है.-'कहिणं भंते ! 'संपन् ४यां भागण 'मालवते सागरकूडे णाम' भास्यवान् सागर टूट नाभना 'कूडे पण्णत्तेट ४६ छ? 0 प्रश्नमा, उत्तरमा प्रभुश्री ९-गोयमा ! ३ गौतम ! 'कच्छकूडस्स' याया
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम्
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चतुर्थस्य 'उत्तरपुर स्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन - उत्तरपूर्वस्याम् ईशानकोणे ' रययकूडस्स' रजतकूटस्य 'दक्खिण' दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि 'एत्थ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खलु 'सागरकुडे' सागरकूटं 'णामं' नाम 'कूडे' कूटं 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तम्, तस्य मानमाह - 'पंच जोयणसयाइ " पश्च योजनशतानि - पञ्चशतयोजनानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन 'अवसिद्धं' अवशिष्टं - शेषम् मूल विष्कम्भादिकम् 'तं चेव' तदेव - गन्धमादनाभिधवक्षस्कार पर्वतवत्, अत्र देवीमाह - 'सुभोगादेवी' सुभोगादेवी - अधोलोकवासिनी दिकुकुमारी, अस्या राजधानीमाह'शहाणी' राजधानी 'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन - उत्तरपूर्वस्याम्-ईशानकोणे,
अथ रजत कूटे देवीमाह- 'रययकूडे ' रजतकूटे - षष्ठे, 'भोगमा लिणी' भोगमालिनी दिक्कुमारी देवी, अस्या राजधानीमाह - 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन - ईशानकोणे, एवं षट्रकूटान्युक्तानि अथ सप्तमादि नवमान्तकूटानि निरूपयितुमाह - ' अवसिहा कूडा ' अवशिष्टानि कूटानि सीताकूटादीनि त्रीणि 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तरदक्षिणेन-उत्तर दक्षिणस्याम्नेतव्यानि - बोधपथं नेयानि बोध्यानि, अयमाशयः - पूर्वस्मात्पूर्वस्मात् कूटात् उत्तरोत्तरं कूट
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मेणं' ईशान कोण में 'रययकूडस्स' रजतकूद की 'दक्खिणेणं' दक्षिण दिशा में 'एत्थ' यहां पर 'णं' निश्चय से 'सागर कूडे णामं' सागरकूट नामका 'कूडे पण्णत्ते' कूट कहा है | 'पंच जोयणसयाई' पांचसो योजन का 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊंचा है। 'अवसिहं' शेष मूल विष्कंभादि कथन 'तं चेव' गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के जैसा ही कहा है । 'सुभोगा देवी' अधोलोक में बसनेवाली दिक्कुमारी सुभोगा यहां की देवी है ।
अब सागर कूट की राजधानी का कथन करते हैं - 'रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं' यहाँ की राजधानी ईशान कोणमें कही है। इस प्रकार छ कूटों का कथन किया हैं । अब सातवें कूट से लेकर नववें कूट का कथन करते हैं - ' अवसिट्ठा कूडा' अवशिष्ट सीतादि तीन कूट 'उत्तरदहिणेणं' उत्तर दक्षिणमें समझलेवें ।
इस कथन का भाव यह है कि पहले पहले कूटों से पीछे पीछेका कूट उत्तर ४२७ छूटना ‘उत्तर पुरत्थिमेणं' ईशान दिशाभां 'रयय कूडरस' २४ छूटनी 'दक्खिणं' दक्षिण हिंशामां 'एत्थ' महीयां 'णं' निश्चय 'सागर कूडे णामं' सागर ईट नामनो 'फूडें पण्णत्ते' ईट ४डेस छे 'पंच जोयणसयाई' पांयसेो येोन्न 'उद्ध' उच्चत्तेनं' (या छे 'अवसिहं' जाडीना भूज विष्ट्ठल विगेरे स्थन 'तं चेव' गधभाहन वक्षस्ठार पर्वतना स्थन प्रभावो ४४ छे. 'सुभोगा देवी' अधोमां वसनारी हिउकुमारी सुलोगा महींनी हेवा छे. हुवे सागर छूटनी राजधानी थन ४रे छे. - 'रायहाणी उत्तरपुरत्थिमेणं' मडीं'नी रा४ધાની ઈશાન કાણુમાં કહેલ છે. આ રીતે છ ફૂટનુ કથન કરવામાં આવેલ છે.
हुवे सातभा छूटथी साने नवमां छूट सुधीना छूटोन उथन ४रे छे- 'अवसिट्ठा कूडा' माडीना सीताहि त्राणु छूट 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तर दक्षिणुभां समल सेवा.
આ કથનના ભાવ એ છે કે-પહેલા પહેલા કૂટથી પછિપછિના ફૂટા ઉત્તર દિશામ
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- -- - -अस्थतीपप्रतिम
युत्तरस्यामुत्तरस्यां दिशि, यच्चोत्तरस्यामुत्तरस्यां स्थितं.तस्मादुत्तरस्मांदुत्तरस्मारकूटात् पूर्व पूर्व ... फूटं दक्षिणस्यां दक्षिणस्यां दिशि स्थित मिति, तानि त्रीण्यपि कूटानि सीत कुटादीनि 'एकेणं, . एकेन तुल्येन 'पमाणेणं' प्रमाणेन स्थितानि सर्वपामपि हिमवत्कूट प्रमाणत्वात् ।।२० २४॥. अथ पूर्वेषु नवसु कूटेपु नवमं हरिस्सहकूटं सहस्राकृमिति तत् पृथग्निर्देप्टुमाह
मूलम्-कहिण-भंते । मालवंते हरिस्सहकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ?. गोयमा! पुण्णभहस्स उत्तरेणं णीलवंतस्स दक्षिणेणं एत्थ णं हरिस्सहकूडे "णामं कूडे पण्णत्ते, एग जोयणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं जमगपमा, णणं णेयव्वं, रायहाणी उत्तरेणं असंखेज्जे दीवे अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे.... उत्तरेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं हरिस्सहस्स देवस्स हरिस्लहा णानं रायहाणी पण्णत्ता, चउरासीई जोयणसहस्साई' आयामविक्खंभेणं वे जोयणसयसहस्साई पाटिं च सहस्साई छच्च छत्तीसे जोयणसए परिक्खेवेणं, सेसं जहा चमरचंचाए रायहाणीए. तहा.., पमा भाणियध्वं, महिद्धीए महज्जुईए, से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ... मालबते वक्वारपवएँ?, गोयमा । मालवंते ण वखारपव्वए तत्थ तत्थ दे तहि२ दहवे सरियागुम्मा.णोमालियागुम्मा जाव मगदंतिया . गुम्मा, ते णं शुम्मा दसद्धवष्णं कुसुमं कुसुमेति, जे. णं तं मालवंतस्स. ववारपवयेस्स बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं वायविधुयग्गसालामुक्कपुः । एफपुँजीयारकलिय करेंति, मालवते ये इत्थ देचे महिद्धीए जाव पलि
ओवमहिइए परिक्साइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ, अदुत्तरं च णं जाव णिच्चे ॥सू० २५॥ . . . . . " दिशा में कहा है एवं जो उत्तर दिशामें स्थित है उस उत्तर उत्तरकूट से पहला पहलाकूट दक्षिण दिशामें रहे हुवे हैं वे तीनों सीतादिकूट एक्केणं' एक सरीखे 'पमालेणं' प्रमाण से स्थित है कारण कि, सब कूदों का प्रमाण हिमवत्कूट के संदर्श कहा गया है । अतः समान प्रमाण वाले,तीनों कूट कहे हैं। सू. २४ ॥ કહેલા છે અને જે ઉત્તર દિશામાં રહેલા છે. એ ઉત્તર ઉત્તર ફૂટથી બહેલા પહેલા ફૂટે
क्षि शिम २९सा-छ. सीता-"एक्केण से सRAI पमाणेणं' प्रभानुथा, ८ રહેલા છું. કારણ કે બધા-કૂટનું પ્રમાણ હિમવસ્કૂટના સરખુ કહેવામા આવેલ છે. તેથી: “ सं२मा प्रभावात्रट डेटा छे. ॥ २४ ॥
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू० २५ हरिरसहकूटनिरूपणम्
छाया-क्व खल भदन्त ! माल्यवति हरिस्सह्कूटं नामकूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! पूर्णभद्रस्य । उत्तरेण नीलवतो दक्षिणेन अत्र खलु हरिस्सहकूटं नामकूटं प्रज्ञप्तम्, एक योजनसहस्रम् ऊध्र्व-" मुच्चल्वेन यमकप्रमाणेन नेतन्यम्, राजधानी उत्तरेण असंख्येयान् द्वीपान् अन्यस्मिन् जम्बू-7द्वीपे द्वीपे उत्तरेण द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य अत्र खलु हरिस्सहस्य देवस्य हरिस्सहा नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, चतुरशीति योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण द्वे योजनशतसहस्रषट् पष्टि च सहस्राणि पद च पत्रिंशाति योजनशतानि परिक्षेपण शेषं यथा चमरचंञ्चाया राजधान्यास्तथा प्रमाणं भणितव्यम्, महर्द्धिको महाद्युतिकः, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमु-' च्यते-माल्यवान् वक्षस्कारपर्वतः २१, गौतम ! माल्यवति खलु वक्षस्कारपर्वते तत्र तत्र देशे" तत्र तंत्र बहवः सरिकागुल्माः नवमालिकागुल्मा: यावद् मगदन्तिकागुल्मा:, ते खलु गुल्माः । दशावण कुसुमं कुसुमयन्ति, ये खेलु तं माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य बहुसमरमणीयं भूमिमा भार्ग वातविधुताग्रशालामुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलितं कुर्वन्तिमाल्यवांश्चात्र देवो महर्द्धिको यावत् ., पल्यापमंस्थितिकः परिवसति, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते, अदुत्तरम् । (अथ) च खल्लु . यावत्-नित्यः॥सू० २५॥ . ... ... , . , . ... . - -
टीका-'कहिणं. भंते !' क्व खलु भदन्त' इत्यादि क्ल-कुत्र खल भदन्त ! 'मालवंते : माल्यवति-माल्यवन्नामके वक्षस्कारपर्वते 'हरिस्सहकडे, हरिस्सहकूटं 'णाम' नाम 'कूड़े कूटं : 'पण्णात्ते अज्ञप्तम्-१, इति प्रश्नस्योत्तर भगवानाह, गोयमा । गौतम ! 'पुण्णभहस्स' पूर्णभद्रस्य अनन्तरसूत्रोक्तस्य तन्नामककूटस्य - 'उत्तरेण उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि 'णीलवंतस्स" नीलवतः, पर्वतस्य दक्षिणेणं-दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि ‘एत्थ'. अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु.. 'हरिस्सहकूडे'- हरिस्सहकूटं 'णाम' नाम 'कूडे..कूटर 'पाणत्त' प्रज्ञप्तम्, तत् कि, प्रमाणम् ?
कहिण भंते मालवते हरिस्सहकूडे' इत्यादिः, . "टीकार्थ-'कहिणं भंते ! मालवते' हे भगवन् कहांपर माल्यवान् नामक वक्षः स्कार पर्वत में 'हरिस्तहकूडे', हरिस्सह कूट 'णामं कूडे' नामका कूट. 'पण्णत्ते। कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयमा ! हैं. गौतमा पुष्ण भहस्स' पूर्व सूत्र में कहाँ हुआ पूर्णभद्र कूट की 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में 'णीलपंतस्स' नीलबान पर्वत की 'दंक्खिणेणं' दक्षिण दिशामें 'एत्थ' यहां पर 'ण'. निश्चयसे 'हरिस्तह कूडे' हरिस्सकूट 'णामं कूडे' नामका कूट 'पण्णत्ता' कहा ' 'कहिण-भंते ! मालनसे हरिस्सहकूडे" या
डी-कहिणं भंते ! मालेवते" सपन या आगज भाल्यवान माना तभा हरिसिंह कूडे, रिसड ५८ 'णाम कूडे' नामना ८'पणत्ते' YA छ l अनुना तो प्रभुश्री छ-गोयमा । गौतम । 'पुण्णभदरस' पूर्व सूत्रमा "
सनी उत्तरेण मणीलवतस्स' नासवान पतना दक्खिणेण दक्षिण Hशमा 'एत्थ' या निश्चयथा 'हरिस्सहकूडे' 'रिस 'णाम कूडे मिनी
कहिण,
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे इत्याह-'एगं' एकं 'जोयणसहम्स' योजनसहस्रम् 'उद्धं' उर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन अवशिष्टमायामविष्कम्भादिकम् 'जमगपमाणेणं' यमकप्रमाणेन-यमकनामकपर्वतप्रमाणेन 'णेय, नेतव्य-बोधपथं प्रापणीयं-बोध्यम् तथाहि-'अद्धाइजाइ जोयणसयाई उव्वेहेणं मूले एग जोयणसहस्सं आयाम विक्खंभेणं' एतच्छाया-अर्द्धवतीयानि योजनशतानि उधेन मुले एक योजनसहस्रम् आयामविष्कम्भेण, पाख्या चास्य सुगमा, इत्यादि यमकपर्वतप्रमाणेनास्योवैधादि बोध्यम्, अस्य हरिस्सहकूटस्याधिपतेरन्य राजधानीतो दिक्प्रमाणाधैर्विशेपो राजधान्यामिति तां राजधानीवक्तुकाम आह-'रायहाणी' राजधानी अग्रे वक्ष्यमाणा हरिस्सहामि धाना 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि, एतदेव विशदयति-'असंखेज्जे' असंख्येयान्संख्यातमशक्यान् 'दीवे' द्वीपान् अस्याग्रेतनेन "अवगाह्य" इत्यनेन सम्बन्धः, इदमुपलक्षम्तेन "मंदरस्स पन्चयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाई दीवसमुदाई वीईवइत्ता" इदं ग्राह्यम्, है। 'एग जोयणसहस्सं' वह एक हजार योजन 'उद्धं' ऊपर की ओर 'उच्चत्तर्ण' ऊंचा है। शेष आयाम विष्कंभादिक 'जमगपमाणेणं जमक नाम के पर्वत के आयाम विष्कंभ के समान 'णेय,' जान लेवें। जो इस प्रकार से है-'अद्धाइज्जाई जोयणसयाई उज्वेहेणं मूले एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं' ढाईसो योजन का उसका उद्वेध है, मूल में एक हजार योजन इसका आयाम विष्कंभ कहा है । इत्यादि समग्र कथन यमक पर्वत के कथनानुसार समझ लेवें ।
इस हरिस्सहकूट केअधिपति की राजधानी के कथन में अन्य राजधानी से दिप्रमाणादि से विशेषता है अतः उस राजधानी का कथन करते हैं-रायहाणी इसकी राजधानी हरिस्सहा नामकी 'उत्तरेणं' इत्तर दिशा में 'असंखेज्जे असंख्यात 'दीवो' द्वीपों को 'अवगाहन करके' ऐसा आगे सम्बन्ध आता है यह द्वीप पदउपलक्षण है अतः 'मंदरस्स पन्धयस्त उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाई दीवसमुद्दाई वीईवइत्ता' यह पाठ ग्रहण होता है ? मन्दर पर्वत की उत्तर दिशा में दूट 'पण्णत्तं' डस छे. 'एगं जोयणसहस्सं सेट मे 8M२ यो । 'उद्ध' ५२नी मानु 'उच्चत्तेण' या छ. माडीनु मायाम Go विगेरे 'जमगपमाणेण' यम नामना - तन मायाम मिनी सरभु 'णेयव्व' सम देव. २ मा प्रभाथे छे-'अद्ध इज्जाई जोयणसयाई उन्चेहेणं मूले एगं जोयणसहसं आयामविखंभेण' मढिसा योन शो તેને ઉધ છે. વિગેરે તમામ કથન યમક પર્વતના કથનાનુસાર સમજી લેવું. રાજધાનીના કથનમાં આ હરિસ્સહ કુટના અધિપતિની અન્ય રાજધાનીથી દિફ પ્રમાણુદિથી વિશેષપણું छ. तेथी से राधानानु ४थन ४२वामां आवे छे.-'रायहाणी' सनी धानी रिसह मामनी 'उत्तरेण' उत्तर दिशामा 'असंखेज्जे मस यात 'दीवे द्वापान माहित शर से प्रभार मा समय मावे छ. २॥ दी५ ५६ SARY छे. तेथी 'मंदरस पत्रय
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २५ हरिस्सहकूटनिरूपणम्
३०३ एतच्छाया-'मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण तिर्थगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्य' इति एतस्य व्याख्या स्पष्टा नवरम् व्यतिव्रज्य-अतिक्रम्य 'अण्णंमि' अन्यस्मिन् 'जंबुद्दीवे' जम्बूद्वीपे 'दीवे' द्वीपे 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उ-रस्यां दिशि 'वारस' द्वादश 'जोयणसहस्साइ' योजनसहस्राणि द्वादशसहस्त्रयोजनानीति सुकुलितार्थः, 'ओगाहित्ता' अवगाह्य-प्रविश्य 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'हरिस्सहस्स' हरिस्सहस्य-एतनामकस्य 'देवस्स' देवस्य-हरिस्सहकूटाधिपस्य 'हरिस्सहा' हरिस्सहा 'णाम' नाम 'रायहाणी' राजबानी 'पण्णत्ता' प्रशंसा, तस्या मानमाह-'चउरासीई'चतुराशीति 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्त्राणि 'मायामविक्खंभेणं' आयामविष्करण-दैर्घ्य विस्तारामार '' द्वे 'जोयणसयसहस्साई' योजनशतसहस्रयोजनलले 'पट्टि पञ्चपप्टि 'च' च 'सहस्साई' सहस्राणि-योजनसहस्राणि 'छच्च' पट् च 'छत्तीसे' ट्त्रिंशानि-पत्रिंशदधिलानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना प्रज्ञप्तेति पूर्वेण सम्बन्धः, 'सेस' शेपम्-अवशिष्टम् उच्चवोद्वेधादिकम् 'जहा' यथा-येन प्रकारेण 'चमरचंचाए' चमरचश्चाया:-'रायहाणीए' राजधान्याः चमरेन्द्रतिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों को उलंघन करके 'अण्णमि' दूसरे जंबुद्दीचे' जंधु द्वीप नाम के 'दीवे' द्वीप में 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में 'वारस जोयणसहस्साई' बारह हजार योजन 'ओगाहिता' प्रवेश करके 'एत्व' यहां पर 'ण' निश्चय से 'हरिस्सहस्ल देवस्स हरियह नाम के देवका 'हरिस्सहा णामं रायहाणी पण्णत्ता' हरिस्सहा नामकी राजधानी कही है। ____ अब इसका प्रमाण कहते हैं-'चउरासीइं जोयणसहस्साई चोरासी हजार योजन 'आयाम विक्खंभेगं' उसकी लंबाई चोडाई कही है । 'वे जोयणसयसहस्साई' दो लाख योजन पण्णहि च सहस्साई पैसठ हजार 'छच्च छत्तीसे' छत्तीस अधिक 'जोयणसए' छसो योजन परिक्खेवेणं' ईसका परिक्षेप कहा है । 'सेस' बाकिका समग्र कथन अर्थात् उच्चत्व उद्देधादिक 'जहा' जैसा 'चमरचंचाए' चमस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाई दीवसमुद्दाई वीईवइत्ता' मा ५४ अहए थाय छ. भन्६२ पतिना- उत्तर दिशामा तिमिस'ज्यात दी५ समुद्री योगीर 'अण्णमि' मी 'जंबूहोवे' दीप नामना 'दीवे' द्वीपमा उत्तरेण उत्तर शिम 'बारस जोयणमहस्साई' मार
१२ योन 'ओगाहिता' प्रवेश ४शन 'एत्थ' ही या 'ण' निश्चयथा 'हरिस्सहस्स देवस्स' सिड नामाना हेवनी 'हरिस्सहा णामं रायहाणी पण गत्ता' रिहानामानी पानी डा. . हवे तेनु प्रभार मता यावे छे.-'चउरासीइं जोयणसरस्साइ' व्यायांशी लर योन 'आयामविक्खभण' नाम पाउदी छे. 'बे जोयणसयसहस्साई' an यो- 'पण्णटिं च सहस्साई पास BM२ 'छच्च छत्तीसे' छत्रीस पधारे 'जोयण 'सए' सो यो- 'परिक्खेवण' तेन परिक्ष५ ४ छे. 'सेस' टीनु समय ४थन अर्थात्
स्या देशात 'जहा' म 'चमरचंचाए' यमर या नामनी रायहाणीए' राधानानु
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
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- राजधान्यास्तुन्नाम्न्याः 'तहा' तथा तेन प्रकारेण 'पमाणं' प्रमाणं - प्रासादादीनां मानम् 'भाणियव्वं'- भणितव्यं-वक्तव्यम्, अस्यां राजधान्यां हरिस्तहाभिवो देवः 'मद्धीए महज्जुइए' • महर्द्धिकः महाद्युतिकः 'जाव' यावत् 'पलिओम डिइए' परिवसति यावत्पाद्याणि पंदानि - अष्टम सूत्रतः सव्याख्यानि सग्रहीतव्यानि, यद्यपीद जाव शब्दो नास्ति तथापि सूचकतया महर्द्धिकादिपदेनैव तद्बोद्धुमुचितत्वेन तेषां सग्रहो बोध्यः । एवं इरिस्कूटस्य नामविषय-- प्रश्नोत्तरे सवयति, तेन तस्यान्वर्थमास प्रश्नसूत्रं कध्यम् तथाहि - " से केणट्टेणं अंते ! एवं बुबइ-हरिसकूड़े. २१ गोयमा 1 हरिहसहकूडे वढवे उप्पलाई पउमाई हरिरसह कूड समव= ष्णा जाब हरिस णासं देवे य इत्थ महिदीए जाव परिवस से तेणट्टेणं जाब- अदुत्तरं मोमा ! जाव. सास गामत्रेज्जे" इति एतच्छाया अथ केनार्थेन, अदन्व । एवमु11 च्यते - हरिसहकूटं / २०१ - गौतम ! हरिसहकुटे बहूनि उत्पलानि पद्मानि हरिसह कूटसम्म - रचचा नामकी 'रायहाणीए' राजधानी का कहा है, 'तहा' वैसा ही 'प्रमाण' प्रासादिक का मान 'भाणियच्वं' कह लेना चाहिए । इस राजधानी का अधिपति, हरि: सह नाम का देव है, वह 'महद्वीए महज्जुहए' महाऋद्धिसंपन्न एवं महाद्युतिवाला 'है 'जाब पलिओ महिए' यावत्-एक पल्योपम की स्थिति वाला निवास करता है । यहाँ पर यावत्पदसे संग्राहक पद आठवें सूत्र से अर्थ सहित ग्रहण कर लेवे । यद्यपि यहाँ पर 'जावं' शब्द नहीं है तो भी महर्द्धिकादिक पद से उसको 'जान लेना उचित होने से उन पदों का संग्रह समझ लेवें । इस प्रकार हरिस्सह कूट के नाम विषयक प्रनोत्तर में सूचित है। अतः उसका' अन्वये नाम विषय 4:5 पाठ समझ लेवे 'जो इस प्रकार है- 'से केणट्टेणं भंते 1 एवं बुच्चह हरिस्सहेकूडे
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हरिरसह कूडे ? गोयमा ! हरिस्सह कूडे बहवे उप्पलाई पउमाई 'हरिस्सह कूटसवण्णाई जाव हरिस्सहे णामं देवे य इत्थ महिद्धीए जाव परिवसह से तेणें जाव अनुत्तरं च णं गोयमा ! जाव सासए नामघेज्जे' इति हे भगवन् किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यह हरिस्सह नाम का हरिस्सह कूट है ? ६. ४५.छे ‘तहा’मेन, अभा पमाण ? आसानु भाथ 'आणियन्वं' ४श होवु ले यो 2K7 आ राष्ट्रघातीमा डस्सिड नामना, देव, छे. ते देव' 'महद्धीए महज्जुइए' महाऋद्धि संपन्न तेभून्न भड्डाधुतिवाजा छे. 'जाव पछिओवमट्ठिइए' यावत् ते देव में पापनी स्थिति वाणा છે તે નિવાસ કરે છે અહીં યાં યાવપદથી સંગ્રહે થતા પદે ટેમાં સ્ત્રથી અથ સહિત ગ્રહણ કરી લેવાં જે કે મહીયાં નાવ” શબ્દ આપેલ નથી તે પણ મહુદ્ધિ કાર્ત્તિ પદથી 'તેને સમજી લેવા યાગ્ય હાવાથી તે પદ્યને! સંગ્રહ સમજી લેવા. એ રીતે હરિસ્સહ ફૂટ નાનામ વિષયક પ્રશ્નોત્તરમાં સૂચવેલ છે. તેથી તેના અન્વથ નામ સંબધી પાઠે સમજી सेवा ? म अभाऐ छे. - ' से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ हरिरसह कूडे हरिस्संहकूर्डे ? गोयमा ! हरिम्सकडे हवे उपलाई पउमाई हरिस्सहकूड समवण्णाई" जाव हरिस्सहे णामं देव य इत्थ महिद्धीएं जांव परिवसई से तेणट्टेणं जाव अदुत्तर च ण गोयमा ! जाव सासए नाम
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २५ हरिस्सहकूटनिरूपणम् वर्णानि यावद् हरिस्सहो नाम देवश्चात्र महद्धिको यावत् परिवसति, तत् तेनार्थेन यावद् अदुत्तरं च खलु गौतम ! यावत् शाश्वतं नामधेयम्” इति । एतद्वयाख्या सुगमा, ___ अथास्य वक्षस्कारपर्वतस्य नामार्थ पृच्छति-से केणटेणं' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् उत्तरसूचकसूत्रे-गोयमा !" हे गौतम ! 'मालवंते' माल्यवति-एतनामके 'ण' खलु 'वक्खारपवए' वक्षस्कारपर्वते 'तत्थ तत्थ' तत्र तत्र-तस्मिंस्तस्मिन् 'देसे' देशे-स्थाने 'तर्हिर' तत्र २-देशैक-देशे-देशावान्तरप्रदेशे 'वहवे' वहवा-अनेके 'सरियागुम्मा' सरिकागुल्मा:-सरिका पुष्पलता विशेषः, तस्या गुल्मा:-स्तम्बाः, 'णोमालिया-गुम्मा' नवलिका गुल्मा:-नवमालिका -पुष्पलतातिशेपस्तदगुल्माः, 'जाव' यावत-'मगदंतियागुम्मा' मगदन्तिकागुल्मा:-मगदन्ति. कापुष्पलता विशेपस्तद्गुल्माः सन्तीति शेषः, 'ते' ते-पूर्वोक्ताः 'ण' खलु 'गुम्सा' गुल्माः उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं हे गौतम ! हरिस्सह कूट में बहुत से उत्पल एवं बहुत से पद्म हरिस्सह कूट के समान वर्ण वाले है । यावत् हरिस्ताह नामका देव जो महर्द्धिकादिक विशेषण विशिष्ट है वह यहां निवास करता है। इस कारण से इस कूट का नाम हरिस्सह ऐसा हुआ है। इससे अलाघा हे गौतम ! यह नाम 'शाश्वत है। .
अब इस वक्षस्कार पर्वत के नामार्थ विषयक प्रश्न करते हैं'सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चई' हे भगवन् किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'मालवंते वक्खारपव्वए' यह माल्यवन्त नामका वक्षस्कार पर्वत है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री महावीर प्रभु कहते हैं-'गोयमा ' हे नौतम ! मालवंते' माल्यवान् नाम के 'ण' निश्चय से 'ववखारपव्वए' वक्षस्कार पर्वत में 'तस्थ तत्थ उस २ 'देसे'प्रदेश में अर्थात् स्थान में 'तहिं तहि स्थान के एक भाग मे 'वहवो' अनेक 'सरियागुम्मा' सरिका नामक पुष्पवल्ली विशेष के समूह 'णोमाઘન્ને ઈતિ હે ભગવન કયા કારણથી એમ કહેવામાં આવે છે, કે આ હરિસહ નામને હરિસ્સહ ફૂટ છે? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ! હરિસહ ફૂટમાં ઘણું ઉત્પલ અને ઘણા પ હરિસ્સહ ફૂટના સરખા વર્ણવાળા છે, યાવત્ હરિસ્સહ નામના દેવ કે જે મહદ્ધિક વિગેરે વિશેષણ વાળા છે. તે ત્યાં નિવાસ કરે છે. એ કારણથી આ કૂટનું નામ હરિસ્સહ એવું પડેલ છે. તે સિવાય હે ગૌતમ! એ નામ શાશ્વત નામ છે.
वेसे वक्षार पतन नामार्थ समधी प्रश्न ४२ छ-'से केणट्रेणं भंते ! एवं बुच्चई भगवन् ॥ रथी मे ४डवामा मात्र छ :-'मालवते वक्खारपव्वए' मा માલ્યવંત નામને વક્ષસ્કાર પર્વત છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં શ્રી મહાવીર પ્રભુ કહે છે'गोयमा! गौतम! 'मालव'ते' मादयवान् नामना ' निश्चयथी 'वक्खारपव्वए' पक्षा२ पतभा 'तत्थ तत्थ त 'देसे देशमा अर्थात् स्थानमा 'तहिं तहि स्थानना - मामा 'बहवे' भने, 'सरिण गुम्मा' स२ि४ा नामना Y०५ की विशेषता समूह
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'दसवण्णं' दशार्द्धवर्ण-पञ्चवर्ण-कृष्णनीललोहितहारिद्रशुक्लवर्णमिति यावत् 'कुसुम' कुसुम पुष्पं 'कुसुमेति' कुसुमयन्ति कुसुमं जनयन्ति, अत्र कुमुमशव्दाजनि धात्वर्थे णिच् 'जे' ये 'ण' ।। खलु गुल्माः तं-प्रसिद्धं भूमिभागमित्यग्रिमेण सम्बन्धः, 'मालवंतस्स' माल्यवतः-माल्यवनामकस्य 'वक्खारपबयस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'बहुसमरमणिज्ज' बहुसमरमणीयम्-अत्यन्तसमतलमत एव रमणीयं मनोहरं 'भूमिभाग' भूमिभागं 'वायविधुयग्गसाला मुक्कपुप्फपुंनोरयारकलियं' वातविधुताग्रशालामुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलित-बातेन-वायुना विधुताग्राविधुतं-कम्पितमग्रम्-उपरिभागो यस्याः सा तथाभूता या शाला-शाखा तप्त्या मुक्तो यः पुष्पपुञ्जः-पुष्पसमूहः स एवोपचार:-शोभासामग्री तेन कलितं-युक्तं 'करेंति' कर्वन्ति ततः 'मालवंते' माल्यवान् माल्यं-पुष्पमाल्यं पुष्यं वा नित्यमस्त्यस्येति माल्यवान-माल्यवन्नामकः 'य' च 'इत्थ' अत्र-अस्मिन् माल्यवति वक्षस्कारपर्वते देव:-अधिष्ठाता परिवसतीत्यग्रेतनेन सम्बन्धः, स च कीदृशः ? इत्याह-'महद्धिए जाव पलिओवमट्टिइए' महर्चिको यावत् पल्योपमस्थितिकः-महर्दिक इत्यारभ्य पल्योपयस्थितिक इति पर्यन्तानां तद्विशेषणवाचकपदानामत्र यावत्पदेन सङ्ग्रहो वोध्या, स च सार्थोऽष्टमसूत्राद्वोध्यः । तेन तघो. लिया गुम्मा' नवमालिका नामकी पुष्पलता विशेष के 'समूह जाव' यावतू 'मगदतिया गुम्मा' मगदंतिका नामक पुष्पलता के समूह हैं। 'तेणं गुम्मा' वे समूह 'दसद्धवणं' कृष्ण नील लोहित हारिद्र एवं शुक्ल ऐसा पांच वर्ण वाले 'कुसुमं कुसुमें ति' पुष्पों को उत्पन्न करते हैं। 'जे गं' जो वल्ली समूह 'मालवंतस्स' माल्यवान् नामके 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत के 'बहुसमरमणिज्ज' अत्यन्त समतल होने से रमणीय भूमिभार्ग' भूमि भाग के वायविधुयग्गसाला मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं वायु के द्वारा कंपित अग्रभाग वाली शाखाओं से गिरे हुए पुष्प समूह रूपी शोभा सामग्री से युक्त 'करें ति' करते हैं। तथा 'मालवंते' माल्यवान् नाम का देव 'य इत्थ' यहां पर निवास करते हैं यह सम्बन्ध आगे कहा जायगा वह देव कैसा है ? सो कहते हैं-'महद्धीए जाव पलिओवमट्टिइए' महर्द्धिक से ‘णोमालिया गुम्मा' नव भाति नामनी युध्यक्षता विशेषता समूह 'जाव' यावत् 'माग दंतिया गुम्मा' मा ति नामनी ०५सताना समूह छ. 'तेणं गुम्मा' से समूह 'दस. द्धवणं' , ना, ति, R, भने शुंद अभ पांय गवाणा 'कुसुमं कुसुमेति' पुण्याने उत्पन्न ४२ छे. 'जे णं'२ ता समूह 'मालवंतस्स' मास्यवान् नामना 'वक्खारपव्वयस्स' पक्षा२ पतिना 'बहुसमरमणिज्ज' सत्यत समतवडापाथी रमणीय मेवा 'भूमिमार्ग' भूमिमागत वायविधुयग्गसाला मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिय' वनथा ४पायभान समाजवाणा शापामाथी मा १०५ समा ३पी शामाथी युत 'करेति' ४२ छ. तथा 'मालवते' माल्यवान् नाभना हे 'इत्थ' त्या निवास ४२ छ. से सम्मन्य मागण डिपामा मावशे तवा छे? ते ४९ छ 'महडीए जाव पलिओवमदिइए' मा યાત અક પાપમની સ્થિતિવાળા છે. અહી યાં મહદ્ધિક પદથી લઈને પલ્યોપમના
SMARTIAL 34 'अन्य महाद्वीप जाब पल्लियोवान
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २५ हरिस्सहकूटनिरूपणम्
३०७ गादसावपि माल्यवानित्युच्यते, तदेवाह-'से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ स तेनार्थेन गौतम एवमुच्यते, स:-अनन्तरोक्तो माल्यवान् वक्षस्कारपर्वतः तेन-पूर्वोक्तेन अर्थेनकारणेन एवम्-इत्थम् उच्यते-माल्यवानिति । 'अदुत्तरं च णं' अदुत्तरम्-अथ च खलु 'जाव णिच्चे' यावद् नित्यम्-नित्य इति पर्यन्तः पाठो बोध्यः ॥सू०२५॥
इह द्विविधा विदेहाः पूर्वापरभेदाभ्याम्, तत्र पूर्वविदेहाः मेरोः पूर्वस्यां सीताख्यमहानद्या दक्षिणोत्तरभागाभ्यां द्विधा विभक्ताः, अपरविदेहाश्च मेरोः पश्चिमायां सीतामहानया कृतद्विभागाः एवं विदेहानां भागचतुष्टयं प्रदर्शितम्, अधुनाऽमीषु विजयवक्षस्कारादिव्यवस्था लाधवाय पिण्डार्धगत्या सूत्रकारेण दर्शयिष्यमाणया रीत्या दुरावगमाः प्रतिभान्ति विजयादय इति विस्तरेण प्ररूप्यन्ते, तत्रैकस्मिन् भागे माल्यवत्प्रभृति गजदन्ताकारवक्षस्कारपर्वतस्यालेकर पल्योपम की स्थिति पर्यन्त के उसके विशेषण वाचक पदों का यावत्पद से संग्रह जान लेवें। वह समग्र पाठ अर्थ सहित आठवें सूत्र से समझ लेवें। इस देव के योग से यह पर्वत भी माल्यवान् नाम से कहा जाता है वही सूत्रकार कहते हैं 'से तेणष्टेणं गोयमा एवं वुच्चई' इस कारण से हे गौतम ! यह माल्यवान् पर्वत है ऐसा कहा जाता है। 'अदुत्तरं च णं' इससे अलावा भी 'जाव णिच्चे यावत् यह माल्यवानू ऐसा नाम नित्य है। यहां यावत् पद से नित्य पर्यन्त का संपूर्ण पाठ ग्रहण कर लेवें ॥२५॥ ___ यहां पूर्व एवं अपर के भेद से विदेह दो कहा है इसमें पूर्व विदेह मेरुकी पूर्व दिशा में सीता महा नदी के दक्षिण तथा उत्तर भाग से दो भाग में अलग किया है । अपरविदेह मेरु की पश्चिम दिशा में सीता महा नदी के द्वारा विभक्त है। इस प्रकार विदेह के चार भाग दिखाया है। अब इसमें विजयवक्षस्कारादि की व्यवस्था को संक्षिप्त करने के लिए पीडार्ध गति से सूत्रकार द्वारा સ્થિતિ પર્વતના તેના વિશેષણ વાચક પદને સંગ્રહ યાવત્પદથી સમજી લે. એ સંપૂર્ણ પાઠ અર્થ સાથે આઠમાં સૂત્રથી સમજી લે. એ દેવના વેગથી આ પર્વત પણ માલ્યવાન नामयी ४वाय छे. 'से तेणद्वेणं गोयमा । एवं वुच्चई' थे. ४२४था गौतम ! मा मायपान त छ, सम ४वामां भाव छ. 'अदुत्तरं च ण" शिवाय ५] 'जाव णिच्चे' થાવત્ આ માલ્યવાન એવું નામ નિત્ય છે. અહીંયાં ચાવત્પદથી નિત્ય પર્યન્તને સંપૂર્ણ પાઠ ગ્રહણ કરી લે છે સૂ. ૨૫
અહીંયાં પૂર્વ અને અપરના ભેદથી વિદેહ બે કહ્યા છે. તેમાં પૂર્વ વિદેહ મેરૂની પૂર્વ દિશામાં સીતા મહા નદીના દક્ષિણ તથા ઉત્તર ભાગથી બે ભાગમાં અલગ કર્યા છે. અપર વિદેહ મેરૂની પશ્ચિમ દિશામાં સીતામહ નદી દ્વારા અલગ કરાયેલ છે. એ રીતે વિદેહના ચાર ભાગ બતાવ્યા છે. હવે તેમાં વિજય વક્ષસ્કારદિની વ્યવસ્થાને સંક્ષિપ્ત કરવા માટે પડાઈ ગતિથી સૂત્રકાર દ્વારા કહેવામાં આવનારી રીતથી વિજયાદિ દુધ જેવા પ્રતીત થાય છે. તેથી વિસ્તાર પૂર્વક તેનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. તેમાં એક
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र सन्न एको विजयः, तथा चत्वारः ऋजवो वक्षस्कारपर्वतास्तिस्रोऽन्तनधः, एतत्सप्तकस्या ऽन्तराणि, प्रत्यन्तरे एकैकविजयसत्त्वेन पडू विजयाः, एते चत्वारो वक्षस्कारपर्वता एकैक मध्यवर्तिनद्याऽन्तरिता इति चतुर्णा वक्षस्कारपर्वतानां मध्ये तिस्रोऽन्तर्नध इति तद्वत्यवस्था वोध्य, तथा वनमुखमवधीकृत्यैको विजय इति प्रतिविभागेऽष्टौ विजयाः सिद्धाः चत्वारो वक्षस्कारगिरयस्तिस्रोऽन्तनंद्य एकं वनमुखमिति इयमत्र तद्वयवस्था-पूर्वविदेहेषु माल्यवतो गजदन्तपर्वतस्य पूर्वस्यां सीताया महानद्या उत्तरस्यामेको विजयः, ततः पूर्वस्यां प्रथमो वक्षस्कारपर्वतः, ततः पूर्वस्यां द्वितीयो विजयः, ततः पूर्वस्यां प्रथमाऽन्तर्नदी, एवं क्रमेण तृतीयो विजयो द्वितीयो वक्षस्कारपर्वतश्चतुर्थों विजयो द्वितीयाऽन्तनदी पञ्चमो विजयस्तु. तीयो वक्षस्कारगिरिः, पष्ठो विनयस्तृतीयाऽन्तनदी, सप्तमो विजयश्चतुर्थों वक्षस्कारगिरिकही जाने वाली रीति से विजयादि दुर्योधसा प्रतीत होता है। अतः विस्तार पूर्वक इसका निरूपण करते हैं । उसमें एक भाग में माल्यवदादि गजदंताकार वक्षस्कार पर्वत के नजदीक एक विजय कहा है । तथा चार ऋजु वक्षस्कार पर्वत तीन अन्तनदियां इन साती के अन्तर, प्रत्यन्तर में एक एक विजय होने से छ विजय हो जाते हैं। ये चार वक्षस्कार पर्वत एक एक मध्यवर्तिनी नदी से अंतरित है, इस प्रकार चार वक्षस्कार पर्वत के बीच में तीन अन्तर्नदीयां होती है, इस प्रकार की इसकी व्यवस्था समझें । तथा प्रत्येक वनमुख में एक प्रक विजय कहा है इस प्रकार प्रति विभाग में आठ विजय सिद्ध होते हैं ? चार वक्षस्कार पर्वत तीन अन्तदीयां एक वनमुख इस प्रकार उसकी व्यवस्था होती है-पूर्वविदेह में माल्यवान राजदन्त पर्वत की पूर्व दिशा में तथा सीता महानदी की उत्तर दिशा में एक एक विजय होता है । उससे पूर्व में पहला वक्षस्कार पर्वत आता है। उसके पूर्व में दूसरा विजय, उससे पूर्व में पहली अन्तर्नदी, इस प्रकार के फ्रम से लीसरा विजय तथा दूसरा वक्षस्कार पर्वत, चोथा विजय तथा दूसरी ભાગમાં માલ્યવદાદિ ગજદન્તાકાર વક્ષસ્કાર પર્વતની નજીક એક વિજય કહેલ છે. તથા ચાર બાજી વક્ષસ્કર પર્વત ત્રણ અન્તર્કદીયે એ સાતેના અંતર, પ્રત્ય-નરમાં એક એક વિજય હાવાથી છ વિજય થઈ જાય છે આ ચાર વક્ષસ્કાર પર્વત એક એક મધ્યમાં આવેલ નદીથી અન્તરવાળા છે, આ રીતે ચાર વક્ષસકાર પર્વતની વચમાં ત્રણ અન્તર્કદીયા થાય છે. આ રીતની વ્યવસ્થા સમજવી. તેથી દરેક વનના સુખ પ્રદેશમાં એક એક વિજય કહેલ છે. આ રીતે દરેક વિભાગમાં આઠ વિજ સિદ્ધ થાય છે. ૧ ચાર વક્ષસ્કાર પર્વત, ત્રણ અન્તર્નાદીયે, એક વનમુખ આ રીતે તેની વ્યવસ્થા હેય છે પૂર્વ વિદેહમાં માલ્યવાન
જદત પર્વતની પૂર્વ દિશામાં તથા સીતા મહા નદીની ઉત્તર દિશામાં એક એક વિજય હોય છે. તેનાથી પૂર્વમાં પહેલે વક્ષસ્કાર પર્વત આવે છે. તેની પૂર્વમાં બીજી વિજય, તેનાથી પૂર્વમાં પહેલી અન્તદી, આ રીતના કમથી ત્રી વિજય તથા બીજે વક્ષરકાર પર્વત શુ વિજ્ય તથા બીજી અન્તર્નદી, પાંચમું વિજય અને ત્રીજે વક્ષરકાર પર્વત છડું
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम्
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रष्टमो विजय एकं जगत्यासन्नं वनमुखमिति, एवं सीतामहानद्या दक्षिणस्यामपि सौमनसगजदन्त गिरेः पूर्वस्यामयमेव विजयादि व्यवस्थाक्रमः, तथा सीतामहानद्या उत्तरस्यामपि गन्धमादनस्य पश्चिमायां विजयादि स्थापनाक्रमो बोध्यः । अथ प्रदक्षिणक्रमेण विजयादि निरूपणेऽयमेव प्रथमइति, प्रथमविभागमुखे कच्छविजयनिरूपयिषुराह
मूलम - कहि णं भंते! जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पण्णत्ते ? गोयमा ! सीयाए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्षिणेगं चित्तकूडस्स वक्खारएव्वयस्स पच्चत्थिमेणं मालवतस्त वक्खारपत्रयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजय पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीण विस्थिपणे पलियं कसं ठाणसंठिए गंगा - सिंधुहिं महाणईहिं वेयद्वेण य पव्वणं छन्भागपविभत्ते सोलस जोयणसहस्साइं पंच य बाणउए जोयणसए दोणिय एगुणवीसभाए जोयणस्स आयामेणं दो जोयणसहस्साई दोणि य तेरसुतरे जोयणसए किंचिविसेसूणे विक्खंभेणंति कच्छस्स णं विजयस्त बहुमज्झदे सभाए एत्थ णं वेयद्धे णामं पव्त्रए पण्णत्ते, जे णं कच्छविजयं दुहा विभयमाणे २ चिटुइ, तं जहा - दाहिणद्ध कच्छं १ च उत्तरद्वकच्छं चेति, कहिणं भंते! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिrasच्छे णामं विजय पण्णत्ते ?, गोयसा ! वेयद्धस्स पवयस्स दाहिणेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं चितकूडस्त वक्खारपव्वयस्स पञ्चत्थिमेणं मालवेतस वक्वारपव्ययस्त्र पुरत्थिमेणं एत्थणं जंबुद्दोवे दीवे महाअन्तर्नदी, पांचवां विजय एवं तीसरा वक्षस्कार पर्वत, छट्ठा विजय तथा तीसरी अन्तर्नदी, सातवां विजय तथा चौथा वक्षस्कार पर्वत, आठवां विजय एक जगती के नजदीक का बलसुख ईसी प्रकार सीता महानदी को दक्षिण दिशा में भी सौमनस तथा गजदन्त पत के पूर्व में यही विजयादि व्यवस्था का क्रम है तथा सीता महानदी के उत्तर में तथा गन्धमादन के पश्चिम में भी विजगदि की स्थापना का कम समझ देवें ।
વિજપ અને ત્રીજી અન્તનદી, સાતમુ વિજ્ય તથા ચેથેા વક્ષસ્કાર પર્વત, આઠમ્મુ વિજય, અને એક જગતીની નજીકનું વનસુખ એ રીતે સીતા મહા નદીની ઉત્તરમાં તથા ગન્ધન માદનની પશ્ચિમમાં પણ વિયાદિની સ્થાપનાના ક્રમ સમજી લેવે.
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जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्र विदेह वासे दाहिणद्वकच्छे णासं विजए पाणत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीगवित्यिणे अट्र जोयणसहस्साई दोणि य एगसत्तरे जोयणसए एवं च एगूणवीसइ मागं जोयणस्त आयामेणं दो जोयणसहस्साई दोषिण य तेरसुत्तरे जोयणसए किंचित्रिलेसूणे विक्वंभेणं पलियंकसंठाणसंठिए, दाहिणहकच्छस्स णं भंते | विजयरस केरिसए आयारभावपडोयारे पपणत्ते ?, गोयसा! बहुसमरमणिज्जे शूमिभागे षण्णत्ते, तं जहा कित्तिमहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव, दाहिणद्धकच्छे णं भंते ! विजए सणुयाणं केरिसए आयारभावपडोशारे पण्णत्ते ?, गोयमा ! तेसिणं मणुयाण छबिहे संघयणे जाव सम्पदुक्खागमंतं करेंति ।
कहिण भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे विजए वेयद्धे णाम पव्वए ?, गोयमा दाहिगद्धकच्छविजयस्त उत्तरेणं उत्तरद्धकच्छस्स दाहिणेणं चित्तकूडस्ल पञ्चस्थिमेणं सालवंतस्त वक्खारपवयस्त पुरस्थि मेणं पत्थणं कच्छे विजए वेबद्रे णामं पबए पण्णत्ते, तं जहा पाईणपडीणायाए उदीणदाहिणवित्थिणे दुहा वखारपचए पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए जाव दोहिं वि पुट्टे भग्हवेयद्वसरिसए णवरं दो गाहाओ जीवा धणुपट्टे चणं कायव्वं विजयविखंभसरिसे आयामेणं, विक्खंभो उच्चत्तं उव्वेहो तहेव च विजाहर आभियोगसेढीओ तहेब, णवरं पणपण्णं २ दिजाहरणगगवासा पण्णता, आभियोगसेढीए उत्तरिल्लाओ सेढीओ सीयाए ईलाणम्स सेसाओ सकस्सत्ति, कुडा-सिटे १ कच्छे २ खंडग ३ माणी वेयद्ध५ पुषण ६ तिमिसगुहा ७ कच्छ ८ वेसमणे ९ वा वेयद्धे होति कूडाइं ॥१॥
कहि णं भंते ! जंबुहोवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरद्धकच्छे णामं विजए पग्णत्ते ?, गोयमा ! वेयद्धस्स पव्वयस्त उत्तरेणं णीलवंतस्स यासहरपव्ययस्स दाहिणणं मालवंतस्ल वक्खारपव्वयस्त पुरथिमेणं मिनकूदम्म वयावारपवयम्स पञ्चस्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे जाव मिनि. नव णेयव्वं सव्वं । काहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदह वामे उत्तरदकच्छे विजण सिंधुकुडे णामं कुंडे पण्णते ?, गोयमा!
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कार: सू० २६ विभागसुखेन कच्छ विजय निरूपणम् ३११ मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं उसभकूडस्स पञ्चत्थिमेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले पितंबे एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरढकच्छविजए सिंधु कुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सट्ठि जोयणाणि आयामविवखंभेणं जाव भवणं अटो रायहाणी य णेयव्वा, रहसिंधु कुंडसरिसं वं णेयव्वं जाव तरस णं सिंधुकुंडस्स दाहि जिल्लेणं तोरणेणं सिंधुमहाणई पवूढा समाणी उत्तरद्ध कच्छविजयं एज्जेमागीर सत्तहिं सलिला सहस्सेहिं आपूरेमाणीर अहे तिमि सगुहाए वेयद्धपव्वयं दालयित्ता दाहिणकच्छविजयं एज्जेमाणी २ चोदसहि सलिला सहस्सेहिं समग्गा दाहिणेणं सीयं महाणां समप्पे, सिंधु महाणई पत्रहे य मूले य भरहसिंधुसरिसा पमाणेणं जात्र दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता । कहि णं भंते! उत्तरद्धकच्छविजए उसभकूडे णामं पव्वए पण्णत्ते ?, गोयमा ! सिंधुकुंडस्स पुरत्थिमेणं गंगाकुंडस पञ्चत्थिमेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं उत्तरद्धकच्छविजए उलहकूडे णामं पत्रए पण्णत्ते, अटु जोयाई उ उच्चणं तं चैव पमाणं जाव रायहाणी से णवरं उत्तरेणं भाणिव्वा । कहि णं भंते । उत्तरद्वकच्छे विजए गंगाकुंडे णामं कुंडे पणत्ते ? गोयमा ! चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पञ्च्चत्थिमेणं उसहकूडस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंवे एत्थ णं उत्तरद्धकच्छे गंगाकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते सद्धिं जोयणाई आयाम विक्खंभेणं सहेव जहा सिंधू जाव वणसंडेण य संपरिक्खित्ता । से केणणं भंते ! एवं वृच्चइ कच्छे विजए कच्छे बिजए ?, गोयमा ! कच्छे विजए वेयद्धस्स पव्वयस्त दाहिणेणं सीयाए महाणईए पञ्चत्थिमेणं दाहिणद्धकच्छविजयस्स बहुमज्झदे सभाए, एत्थ णं खेमाणामं राहाणी पण्णत्ता विणीया रायहाणीसरिसा भाणियव्वा, तत्थ णं खेमाए रायहाणीए कच्छे णासं राया समुप्पजइ, महया हिमवंत जाव सव्वं भरहोयवणं भाणियव्वं निक्खमणवज्जं से सव्वं भाणियत्वं
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जाव भुंजए माणुस्लए सुहे कच्छ णामधेज्जे य कच्छे इत्थदेवे महिद्धीए जाव पलिओवमटिईए परिवलइ, से एएणटणं गोयमा! एवं बुच्चइ कच्छे विजए कच्छे विजए जाव गिच्चे सू० २६॥ ___ छाया-क खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे कच्छो नाम विजयः प्रज्ञसः ?, गौतम ! सीताया महानद्या उत्तरेण नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन चित्रकूटस्य वक्षस्कापर्वतस्य पश्चिमेन माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे कच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतिचीनविस्तीर्णः पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः गङ्गा-सिन्धुभ्यां महानदीभ्यां वैताढयेन च पर्व तेन पडूभागप्रविभक्तः पोडश योजनसहस्राणि पश्च च द्वि नवतानि योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य आयामेन द्वे योजनसहरी द्वे च त्रयोदशौत्तरे योजनशते किश्चिद्विशेपोने विष्कम्भेणेति ! कच्छस्य खलु विनयस्य वहुमध्यदेशमागे अत्र खलु वैताढयो नाम पर्वतः प्रज्ञप्ता, य: खलु कच्छं विजयं द्विधा विभजमानः २ तिष्ठति, तद्यथा-दक्षिणार्द्ध कच्छमुत्तराईकच्छं चेति, क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे दक्षिणार्द्धकच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! वैताढयस्य पर्वतस्य दक्षिणेन सीताया महानद्या उत्तरेण चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन अत्र खल्ल जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे दक्षिणा कच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीन प्रतीचीनविस्तीर्णः अष्ट योजनसहस्राणि द्वे च एकसप्तते योजनशते एकं च एकोनविंशतिभागं योजनस्य आयामेन द्वे योजनसहस्रे द्वे च त्रयोदशोत्तरे योजनशते किञ्चिद्विशेपोने विष्कम्भेण पल्यङ्क-संस्थानसंस्थितः, दक्षिणार्द्धकच्छस्य खल भदन्त ! विजयस्य कीदृशक आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-यावत् कृत्रिमैश्चैव अकृत्रिमैचैव । दक्षिणाईकच्छे खलु भदन्त ! विजये मनुजानां कीदृशक आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः १, गौतम ! तेषां खल मनुजानां पविधं संहननं यावत् सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति । क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे कच्छे विजये वैताढयो नाम पर्वतः ?, गौतम ! दक्षिणाईकच्छविजयस्य उत्तरेण उत्तरार्द्धकच्छस्य दक्षिणेन चित्रकूटस्य पश्चिमेन माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन अत्र खल कच्छे विजये वैनाढयो नाम पर्वतःप्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्राचीनप्रतीचिनाऽऽयतः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः द्विधा वक्षस्कारपर्वतौ स्पृष्टः-पौरस्त्यया कोटया यावद् द्वाभ्यामपि स्पृष्टः भरतवैताढयसदृशकः नवरं द्वे वाहे जीवा धनुष्पृष्ठं च न कर्तव्यम्, विजयविष्कम्भसदृशः आयामेन, विष्कम्भ उच्चत्वगुद्वेधस्तथैव च विद्याधराभियोग्यश्रेण्यौ तथैव नवरं पञ्चपञ्चाशदरविद्यावरनगरावासाः प्रज्ञप्ताः, आभियोग्यश्रेण्यां औत्तराह्यः श्रेणयः सीतायाः ईशानस्य शेपाः शक्रस्येति, कूटानि-सिद्धं १ कच्छं २ खण्डक ३ माणि ४ वैताढय ५ पूर्ण ६ तमिस्रगुहा ७ कच्छं ८ वैश्रवणं ९ वा वैतादये भवन्ति कूटानि ।श क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३१३ विदेहे वर्षे उत्तरकच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! वैताढयस्य पर्वतस्य उत्तरेण नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे यावत् सिध्यन्ति, तथैव नेतव्यं सर्वम्, क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे उत्तरकच्छे विजये सिन्धुकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन ऋषभकूटस्य पश्चिमेन नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षि णात्ये नितम्वे अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे उत्तरार्द्धकच्छविजये सिन्धकूण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् ?, पष्टिं योजनानि आयामविष्कम्भेण यावद् भवनम् अर्थों राजधानी च नेतव्या, भरतकुण्डसदृशं सर्व नेतव्यम्, यावत् तस्य खलु सिन्धुकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन सिन्धु. महानदी प्रव्यूढा सती उत्तरार्द्धकच्छविजयम् इयंती २ सप्तभिः सलिलासहस्रैः आपूर्यमाणा २ अधस्तमिस्रगुहायाः वैताढयपर्वतं दारयिखा दक्षिणकच्छविजयं इर्यती २ चतुर्दशभिः सलिलासहनैः समग्रा दक्षिणेन सीतां महानदीं समाप्नोति, सिन्धु महानदी प्रवहे च मूले च भरतसिन्धुसदृशी प्रमाणेन यावद् द्वाभ्यां वनपण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्ता ।
क्व खलु भदन्त ! उत्तरार्द्धकच्छविजये ऋषभकूटो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! सिन्धुकुण्डस्य पौरस्त्येन गङ्गाकुण्डस्य पश्चिमेन नीलवती वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्ये नितम्बे अत्र खलु उत्तरार्द्धकच्छविजये ऋषभकूटो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, अष्ट योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन तदेव प्रमाणं यावद् राजधानी सा नवरम् उत्तरेण भणितव्या । ____क्व खल भदन्त ! उत्तरकच्छे विजये गङ्गाकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् १, गौतम ! चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन ऋषभकूटस्य पर्वतस्य पौरस्त्येन नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षि. णात्ये नितम् अत्र खलु उत्तरार्द्धकच्छे गङ्गाकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम्, पष्टिं योजनानि आयामविष्कम्भेण तथैव यथा सिन्धुः यावद वनपण्डेन च सम्परिक्षिप्ता । अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-कच्छो विजयः कच्छो विजयः १, गौतम! कच्छे विजये वैताढन्यस्य पर्वतस्य दक्षिणेन सीताया महानद्या उत्तरेण गङ्गाया महानद्याः पश्चिमेन सिन्ध्या महानद्याः पौरस्त्येन दक्षिणार्द्धकच्छविजयस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र खलु क्षेमा नाम राजधानी प्रज्ञप्ता विनीताराजधानी सदृशी भणितव्या, तत्र खलु क्षेमायां राजधान्यां कच्छो नाम राजा समुत्पद्यते, महाहिमवत्० यावत् सर्व भरतसाधनं भणितव्यम् निष्क्रमणवर्ज शेषं सर्व भणितव्यं यावद् भुङ्क्ते मानुष्यकानि सुखानि, कच्छनामधेयश्च कच्छोऽत्र देवो महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिक परिवसति, स एतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-कच्छो विजयः कच्छो विजयः यावत् नित्यः॥सू०२६॥ . अब प्रदक्षिणा के क्रम से विजयादि के निरूपण में यही पहला है, इस हेत से प्रथम विभागमुख से कच्छाविजय का निरूपण करने की इच्छा से सूत्रकार
- હવે પ્રદક્ષિણના ક્રમથી વિજ્યાદિના નિરૂપણમાં આજ પહેલો છે, એ હેતુથી પહેલાં વિભાગમુખથી કચ્છ વિજયનું નિરૂપણ કરવાની ઈચ્છાથી સૂત્રકાર સૂત્ર કહે છે–ણિ
ज० ४०
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जम्बूलापप्रज्ञाप्तसत्र टीका-'कहि णं भंते !' इत्यादि-'कहि णं भंते !' क्य खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाधिदेहे वर्षे 'कच्छे कच्छ: 'णाम' नाम "विजए' विजय:-चक्रवति विजेतव्य-भूविभागरूपः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा!' गौतम ! 'सीयाए महाईए' सीताया महानद्याः 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि, अत्र सप्तम्यन्तादेनपूप्रत्ययः, एवमग्रेऽपि, तथा 'णीलवंतस्स' नीलवतः 'वासहरपव्ययस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'दक्षिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि, तथा 'चित्तकूडस्य' चित्रकूटस्य-एतनामकस्य 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य ‘पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'मालवंतस्स' माल्यवतः-. गजदन्ताकारस्य 'वक्खारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि-'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'कच्छे णाम विजए' कच्छो नाम विजयः 'पण्णत्ने' प्रज्ञप्तः, स च कीदृशः ? इत्यक्षायामाह'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायत:-उत्तरदक्षिणयोर्दिशोरायतः-दीर्घः, तथा 'पाइणपडीणसूत्र कहते हैं-'कहिणं भंते ! इत्यादि ____टीकार्थ-'कहि णं भंते ! जंवृदीवे दीवे' हे भगवन जंबू द्वीप नाम के द्वीप में 'महाविदेहे वासे' महाविदेह क्षेत्र में 'कच्छे णामं कच्छ नामका. 'विजए' विजय चक्रवर्ति के द्वारा जितने योग्य भूमिभागरूप 'पण्णत्ते कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! हे गौतम! 'सीयाए महाणईए' सीता महानदी के उत्तरेणं' उत्तर दिशा में तथा 'णीलवतस्स' नीलबान 'वासहरपव्ययस्स' वर्षधर पर्वत के 'दक्खिणेणं' दक्षिण दिशा में तथा 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट नामका 'वक्खारपब्वयस्ल' वक्षस्कार पर्वत की 'पच्चस्थिमेण पश्चिम दिशा में 'मालवंतस्स' गजदन्ताकार माल्यवान 'वक्खार पव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत के 'पुरथिमेणं पूर्वदिशा में 'एत्थणे यहां पर निश्चय से 'जवू दीवे दीवे' जंबू द्वीप नाम के दीप से 'महाविदेहे वासे' महाविदेह क्षेत्र में 'कच्छे णामं विजए' कच्छ नामका विजय 'पण्णत्ते' कहा है। वह विजय किस प्रकार का है ? इस अपेक्षा निवृत्ति के लिए कहते हैं-'उत्तरदाहिणायए' वह - भंते !' त्या
-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मावन्द्वी नाभना बीमा 'महाविदेहे वासे' महावित क्षेत्रमा 'कच्छे णाम' ४२७ नामनु 'विजए' विश्य न्यपति द्वारा
तपाने योग्य भूमिमा ३५ 'पण्णत्ते' ४९ छ १ मा प्रश्न उत्तरभां प्रभुश्री ४३ छ-.. 'गोयमा!' गौतम! 'सीयाए महाणईए' सीता भड नहीना 'उत्तरेणं' उत्त२ हिशामातथा 'णीलवंतस्स' नासवान् 'वासहरपव्वयस्स' qषधर तिनी 'दक्खिणेणं' क्षिशिमा तथा 'चित्तकूहस्स' चित्रट नमन 'वक्खारपव्वयस्स' पक्ष४२ पतनी 'पच्चत्थिमेणं' पूर्व शिमा 'एत्थणं' महीया निश्चय 'जबुद्दीवे दीवे' मूद्वीप नामना दीपना 'महाविदेहे वासे' -- भावित क्षेत्रमा 'कच्छे णाम विजए' ४२७ नाम विनय 'पग्णत्ते' ४ छ.ते विभय यु ? भयक्षानी निवृत्ति माटे छे-'उत्तरदाहिणायए' ते उत्तर दक्षिण दिशाभा का
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३५ वित्थिण्णे' प्राचीन प्रतीचीनविस्तीर्ण:-पूर्वपश्चिमयोदिशोविस्तारयुक्तः, तथा 'पलियंकसंठाणसंठिए' पल्यङ्कसंस्थानसंस्थित:-पर्यङ्काकारेण संस्थितः, आयतचतुरस्रत्वात्, 'गंगा-सिंधूहि' गङ्गा-सिन्धुभ्याम् 'महाणईहि' महानदीभ्याम् 'वेयर्तण य' वैताढयेन च-वैताब्य-नामकेन चे 'पचएण' पर्वतेन 'छब्भागपविभत्तः' षड्भागप्रविभक्ता-पभि भांगैः प्रविभक्त:-पडूधा खण्डितः एवमन्येऽपि विजया भावनीयाः, परन्तु सीताया उदीचीनाः कच्छादयः शीतोदाया दाक्षिणात्याः पक्ष्मादयो गङ्गा सिन्धुभ्यां पडधा विभक्ता', सीताया दाक्षिणात्या चच्छादयः शीतोदाया उदीचीना वप्रादयो रक्तारक्तवतीभ्यां पडघा विभक्ता इति उत्तरदक्षिणायतेति 'विशदयति 'सोलस' इत्यादि 'सोलस' षोडश 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'पंच य' पञ्च च 'वाणउए' द्विनवतानि-द्विनवत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'जोयणस्स' योजनस्य 'दोण्णि य द्वौ च 'एग्रणवीसइमाए' एकोनविंशतिभागौ 'आयामेणं' आयामेनउत्तर दक्षिण दिशा में लंबा है 'पाईणपईणवित्थिपणे' पूर्वपश्चिम दिशा में विस्तृत है तथा 'पलियंकसंठाणसंठिए' पर्यङ्काकार से स्थित है, लबा एवं चौकोण होने से । 'गंगासिंधूहि' गंगा एवं सिंधु नामकी 'महाणईहिं' महानदी से तथा 'वेयडेण य' वैतादय नाम के 'पन्चएण' पर्वत से 'छन्भागपविभत्ते' छ भाग मे विभक्त होता है। इसी प्रकार अन्य विजयों के संबंध में भी समझ लेवें। परंत सीता महानदी की उत्तर दिशा में कच्छादि विजय शीतोदा की दक्षिण दिशा के पक्ष्मादि गंगा एवं सिंधु महानदी के द्वारा छ प्रकार से विभक्त होता है। सीता महानदी की दक्षिण ओर के वच्छादि तथा शीतोदा की उत्तर दिशा में वप्रादि रक्त एवं रक्तवती नदी के द्वारा छ प्रकार से विभक्त होता है। ___ अब उत्तर दक्षिण की दीर्घता को स्पष्ट करते हैं-'सोलसजोयणसहस्साई, सोलह हजार योजन 'पंचय वाणउए' जोयणसए' पांचसो विरानवें अर्थात १६५९२२ जोयणस्स' एक योजन के 'दोणिय' दो 'एगूणवीसइ भागे' उन्नीसवां छ. 'पाईणपईणवित्थिण्णे' पूर्व पश्चिम दिशामा विस्तृत छ. तथा 'पलियंकसंठाणसहित पय ४२ री स्थित . सांभु भने यतुण्डा डावाथी 'गंगासिंधूहि ॥ मन सि नामनी 'महोणई हिं' महानहीथी तथा 'वेयइढेणय' वताय नामना 'पव्वएणं' यतथी 'छम्भागविभत्ते' छ सालमा मास थाय छे. २मा Na मी विन्याना समयमा सभा લેવું, પરંત સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં કચ્છાદિ વિજય શીતાદાની દક્ષિણ દિશાના પફમાદિ ગંગા અને સિંધુ મહાનદી દ્વારા છ પ્રકારથી અલગ થાય છે. સીતા મહાનદીની દક્ષિણ તરફના વચ્છાદિ તથા શીતેદાની ઉત્તર દિશામાં વપ્રાદિ રક્ત અને રક્તવતી નદી દ્વારા છ ભાગમાં અલગ થાય છે. • उत्तर दक्षिानी मा २५७८ ४२ छ-'सोलस जोयणसहरसाई' से हुनर योर पंचय वाणउए' पांयसे। मा 'जोयगस्स' मे४ 201ना 'दोण्णिय' में 'एगूणवीसई
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे दैर्येण, इहोपपत्ति रेवम्-योजन ३२६८४ कला ८ रूपाद्विदेहविस्तारात्सीतायाः शीतोदाया वा नद्या विस्तारो पञ्चशतमित योजनलक्षणः प्राप्यते, यथोक्तमानं शेपस्या? लभ्यते, इह यधपि सीतायाः शीतोदाया वा नद्याः समुद्रप्रवेशस्थाने एव पञ्चशतयोजनप्रमाणो विस्तारोऽस्ति अन्यत्र तु स्वल्पः स्वल्पतरो विस्तारोऽस्ति, तथापि कच्छादिविजयसमीपे तटद्वयवर्तिनौ रमणदेशावादाय पञ्चशतयोजनप्रमाणो विस्तारो लभ्यत इति, कच्छविजयस्योत्तरदक्षिणायतबविवरणं गतम्, अधुना पूर्वपश्चिमविस्तीर्णत्वं वित्रियते-'दो जोयणसहस्साई इत्यादि-द्वे योजनसहले 'दोणि य द्वे च 'तेरसुत्तरे' त्रयोदशोत्तरे-त्रयोदशाधिके 'जोयणसए' योजनशते 'किंचिविसेसणे' किश्चिद्विशेषोने-किश्चिन्यूने 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण प्रज्ञप्त इति, इहाऽप्युपपत्ति रेवम्-इह महाविदेहेषु देवकुरुत्तरकुरुमेरुभद्रशालवनवक्षस्कारपर्वतान्तरनदीवनमुखाभाग अर्थात् एक योजल के उन्नीसिया दो भाग । 'आयामेण लंबाई से होते है।
यहाँ इस प्रकार से समझना चाहिए-३२६८४ योजन कला ८ रूप विदेह क्षेत्र के विस्तार से सीता एवं सीतोदा नदी का विस्तार पांचसो योजन के प्रमाणवाला मिलता है । यथोक्त प्रमाण शेष के आधे से प्राप्त होता है, यहां पर यद्यपि सीता अथवा शीतोदा नदी के समुद्र प्रवेशस्थान में ही पांचसो योजन प्रमाण का विस्तार है अन्यत्र स्वल्प या स्वल्पतर विस्तार होता है तो भी कच्छादि विजय के समीप दोनों तटवर्ति प्रदेश क्रीडास्थान को लेकर पांचसो योजन प्रमाण का विस्तार लभ्य हो जाता है, इस प्रकार कच्छ विजय का उत्तर दक्षिण में लंबाई का विवरण होता है। ___ अब पूर्व पश्चिम के विस्तार का निरूपण करते हैं-'दो जोयण सहस्साई' दो हजार 'दोणि य तेरसुत्तरे जोयणसए' दोसो तेरह योजन से 'किंचि विसेसूणे' कुछ कम 'विक्खंभेण विष्कंभ से कहा है। यहां पर भी इस प्रकार से ज्ञात भागे मागणीसमा सार अर्थात् ४ योगनना १६ माणसयां मे मा 'आयामेणं' લંબાઈ થાય છે.
અહીંયાં આ રીતે સમજવું જોઈએ ૩૨૬૮૪ જન કલા ૮ રૂપ વિદેહ ક્ષેત્રના વિસ્તારથી સીતા અને શીતેદા નદીને વિસ્તાર પાંચસે જન પ્રમાણ મળે છે. યક્ત પ્રમ ણ શેષના અર્ધામાં મળે છે. અહીંયાં છે કે સીતા અગર શીતેદા નદીના સમુદ્ર પ્રવેશ માર્ગમાં જ પાંચસે જન પ્રમાણને વિસ્તાર છે, બીજે વલ્પ અગર સ્વલ્પતર વિસ્તાર થાય છે. તે પણ કચ્છાદિ વિજયની નજીક બેઉ તટવતિ પ્રદેશ ક્રીડા સ્થાનને લઈને પાંચસે જન પ્રમાણને વિસ્તાર પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. આ રીતે કચ્છ વિજયની ઉત્તર દક્ષિણમાં લંબાઈનું વર્ણન થાય છે.
वे पूर्व पश्चिमा विस्तारनु नि३५ ४२ छ.-'दो जोयणसहस्साई' मे २ 'दोण्णि य तेरसुत्तरे जोयणसए' मी ते२ योनी "किंचि विसेसूणे' ४४४४म 'विक्खंभेणं'
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कार: सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम्
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तिरिक्तेषु सर्वेषु विजयाः सन्ति, ते च पूर्वपश्चिमयोः समविस्तारकाः, तत्रैकस्मिन् दक्षिणभागे उत्तरमागे वा वक्षस्कार पर्वता अष्टौ सन्ति, एकैकस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चशतयोजनप्रमाण आयामः, अष्टानां वक्षस्कार गिरीणामायामसङ्कलनाया चतुःसहस्रयोजनानि भवन्ति । तत्रान्तरनद्यः षट् सन्ति, तासु एकैकस्या अन्तरनया विस्तारः पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतम्, षण्णामन्तरनदीनां विस्तारप्रमाणसंरूपासङ्कलनायां पञ्चाशदधिकान् सप्तशती सम्पद्यते, वनमुखे च द्वे स्तः, तत्रैकैकस्य वनमुखस्य विस्तारो द्वाविंशत्यधिकैकोन त्रिंश. च्छतानि २९२२, द्वयोविस्तार - संख्या संकलनायां चतुश्चत्वारिंशदुत्तराष्ट पञ्चाशच्छतानि ५८४४, मेरुविस्तारो दशसहस्र योजनानि १००००, पूर्वपश्चिम भद्रशालवनयोरायामश्चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि ४४०००, सर्वसंख्या संकलनाया चतुर्नवत्यधिक पञ्चशताधिक चतुष्पष्टिहोता है - महाविदेह क्षेत्र में देवकुरु एवं उत्तरकुरु, मेरु भद्रशालवन वक्षस्कार पर्वत से अन्तरित नदी वनमुख से भिन्न सर्वस्थान में विजय कहे हैं। वे पूर्व पश्चिम में समान विस्तार वाले हैं । उसमें एक एक के दक्षिण भाग में अथवा उत्तर भाग में आठ वक्षस्कार पर्वत होते हैं। एक एक वक्षस्कार पर्वत का पांचसो योजन का आयाम - लंबाई है । आठों पर्वतों के आयाम का संकलन करने से चार हजार योजन हो जाता है । उसमें अन्तर्नदियां छह होती हैं, उनमें एक एक अन्तर्नदी का विस्तार के प्रमाण की संख्या को जोडने से ७५० सातसो पचास हो जाता हैं । वनमुख दो होते हैं उनमें एक एक वनमुखका विस्तार २९२२ उन्तीस सौ बावीस होता है, दोनों के विस्तार की संख्या को जोडने से ५८४४ पांच हजार २ आठसो चवालीस होता है । मेरु का विस्तार १०००० दस हजार योजन का हैं पूर्व पश्चिम के भद्रशालवन का आयाम ४४००० चुवालीस हजार योजन का होता है । सब को जोडने से चौसठ हजार पांचसो चउराणवे વિષ્ટ ભ કહેલ છે.
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અહીંયા પણ આ રીતે જણાય છે. મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં દેવકુફ્ અને ઉત્તરકુરૂ, મેરૂ, ભદ્ર શાલવન વક્ષસ્કાર પર્વતથી અંતરવાળું, નદી વનમુખથી અલગ બધા સ્થાનમાં વિજય કહ્યા છે. તે પૂર્વ પશ્ચિમમાં સરખા વિસ્તારવાળા છે. તેમાં એકના દક્ષિણ ભાગમાં અથવા ઉત્તરભાગમાં આઠ વક્ષસ્કાર પ`ત હાય છે. એક એક વક્ષસ્કાર પવ તના પાંચસે ચાજનના આયામ-લબાઇ છે. આઠે પતાની લખાઇ મેળવવાથી ચાર હજાર ચૈાજન થઈ જાય છે. તેમાં અન્તની હાય છે. તેમાં એક એક અન્તનદીના વિસ્તારના પ્રમાણુની સંખ્યા મેળવવાથી ૭૫૦ સાતસેા પચાસ થઈ જાય છે. વનસુખ એ ાય છે. તેમાં એક એક વનમુખના વિસ્તાર ૨૯૨૨ એગણુ ત્રીસસેા ખાવીસ થાય છે. બેઉના વિસ્તારની સંખ્યા મેળવવાથી પાંચ હજાર આઠસા ચુંમાળીસ થાય છે. મેરૂના વિસ્તાર ૧૦૦૦૦ ઇસ હજાર ચેાજનના છે. પૂર્વ પશ્ચિમના ભદ્રશાલવનના આયામ-૪૪૦૦૦ ચુંમાળીસ હજાર ચેાજનના
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे ३१८ सहस्राणि ६४५९४, एतत्प्रमाणं जम्बूद्वीपविस्ताराच्छोध्यते । ततश्च शेपं जातम्-३५४०६ पडुत्तरचतुःशताधिक पञ्चत्रिंशत्सहस्राणि, एकैकस्मिन् दक्षिणे उत्तरे वा भागे पोडश विजयाः सन्ति, ततः पोडशभि भांगे हृते ३५४०६ - १६= २२१३ लब्धानि किश्चिन्यूनत्रयोदशाधिक द्वाविंशति शतानि, त्रयोदशस्य योजनस्य पोडशचतुर्दशभागरूपत्वात्, एतावानेव एकैकस्य विजयस्य विस्तारोऽस्ति । अयं च कच्छविजयो भरतवद् वैवाढयपर्वतेन द्विधा विभक्त इति द्विधाविभाजकं वैताढयं वर्णयितुमाह-'कच्छस्स णं' इत्यादि-कच्छस्य खलु 'विजयस्स' विजयस्य 'बहुमज्झदेसभाए' वहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागे 'एत्य अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खल्ल 'वेयद्धे' वैताढयः 'णाम' नाम 'पन्चए' पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, 'जे णं' यः खलु 'कच्छं विजय कच्छं विजयम् ‘दुहा' द्विधा 'विभयमाणे २ विभजमानः २ विभक्तं कुर्वाणः २ 'चिट्टइ' तिष्ठति, विभागप्रकारमाह-'तं जहा' तद्यथा-'दाहिणद्धकन्छ' दक्षिणाईकच्छं 'च' च 'उत्तरद्धकच्छंचेति' उत्तरार्द्धकच्छंचेति कच्छद्वयं विभजमानो वैताढन्यपर्वतस्तिष्ठतीति ६४५९४ योजन है। यह प्रमाण जंबूद्वीप के विस्तार से शोधित किया जाता है। उसमें से शेष पैतीस हजार चारसो छ ३५४०६ योजन होता है। दक्षिण अथवा उत्तर की ओर सोलह विजय होते हैं । उसका सोल से भाग करने पर कुछ कम चावीससो तेरह प्राप्त होते हैं। तेरहवें योजन के सोलहवे या चौदहवें भागरूप होने से इतना ही एक एक विजय का विस्तार होता है। ___ यह कच्छविजय भरत के जैसा वैताढय पर्वत से दो भाग में विभक्त हुआ है अतः दो भाग में विभक्त करने वाला वैताढय पर्वत का वर्णन करने के उद्देश्य से कहते हैं-'कच्छस्स णं विजयस्स' कच्छ विजय के 'यहुमझदेसभाए' ठीक मध्यभाग में 'एस्थणं' यहां पर 'वेयड्रेणामं पवए पण्णत्त'
वैताढय नामका पर्वत कहा है। 'जेण' जोकि 'कच्छं विजयं कच्छ विजय को 'दुहा विभघमाणे२' दोभाग में विभक्त करता हुआ चिट्ठई' स्थित है। 'तंजहा' विभक्त
છે. એ બધાને મેળવવાથી ૬૪૫૯૪ ચોસઠ હજાર પાંચસે ચોરાણુ જન થાય છે. આ પ્રમાણ જંબદ્વીપના વિરતારથી રોધિત કરવામાં આવે છે. તેમાંથી બાકીના ૩૫૪૦૬ પાંત્રીસ હજાર ચારસે છ જન થાય છે. દક્ષિણ અને ઉત્તરની તરફ સોળ વિજ્ય હેય છે. તેને સેળથી ભાગવાથી કંઈક ઓછા ૨૨૧૩ બાવીસ સે તેર પ્રાપ્ત થાય છે. તેરમા જનના સેળમાં અગર ચોદમાં ભાગ રૂપે હોવાથી એટલેજ એક એક વિજયને વિસ્તાર હોય છે.
આ કચ્છ વિજય ભારતની જેમ વૈતાઢય પર્વતથી બે ભાગમાં વહેંચાયેલ છે. તેથી બે ભાગમાં અલગ કરનાર વૈતાઢય પર્વતનું વર્ણન કરવાના ઉદ્દેશથી સૂત્રકાર કહે છે'कच्छस्स णं विजयस्स' ४२७ वियना 'बहमझदेसभाए' भराभर मध्य भागमा 'एत्थ णं' मही या 'वेयढे णामं पव्वए पण्णत्ते' वैतादयनामनात डेट छ. 'जे ण ३२ कच्छ विजय' ४२७ वियर 'दुहा विभयमाणे २१ मे मामा पयार 'चिटई' स्थित . 'तं जहा' मा ४२वाना प्रहार मा प्रभारी छ. 'दाहिणद्धकच्छं च' क्षिध .
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३१९ पूर्वेणान्वयः । च शब्दद्वयमुभयोः कच्छयोः समकक्षता सूचनार्थम् । दक्षिणार्द्धकच्छः कुत्रास्तीति पृच्छन्नाह-'कहि णं भंते' इत्यादि-क्व खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'दाहिणद्धकच्छे णामं विजए' दक्षिणार्द्धकच्छो नाम विजयः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा!' गौतम ! 'वेयद्धस्स' वैताढयस्स 'पन्चयस्स' पर्वतस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'सीयाए' सीतायाः-सीताभिधानाया: 'महाणईए' महानद्याः 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि-'चित्तकूडस्स' चित्रकूटस्य-चित्रकूटनामकस्य 'वक्खारपव्वस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'एत्थ' अत्रअत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'दाहिणद्धकच्छे णामं विजए' दक्षिणाईकच्छो नाम विजयः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, स च कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह-'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायत:-उत्तर-दक्षिणयोर्दिशोरायत:-दीर्घः, 'पाईणपडीणवित्थिण्णे' प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्ण:-पूर्वपश्चिमदिशो विस्तारयुक्तः, 'अट्ट' अष्ट का प्रकार इस प्रकार है-'दाहिणद्धकच्छंच' दक्षिणार्द्धकच्छ एवं 'उत्तरकच्छंच' उत्तरार्द्ध कच्छ ऐसे दो कच्छ के विभाग करने वाला वैताढय पर्वत है । 'कहिणंभते ! जंबूद्दीवे दीवे हे भगवन् ! जंबू द्वीप नाम के द्वीप में कहां पर 'महाविदेहेवासे' महाविदेह क्षेत्र में 'दाहिणद्धकच्छे णामं विजए' दक्षिणार्धकच्छ नाम का विजय 'पण्णत्ते' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री महावीर प्रभु कहते हैं'गोयमा !' हे गौतम ! 'वेयद्धस्स पव्वयस्स' वैताढय पर्वत की 'दाहिणणं' दक्षिण दिशा में 'सीयाए महाणईए' सीता महानदी की 'उत्तरेण', उत्तर दिशा में 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट नाम के वक्खारपत्रयस्स' वक्षस्कार पर्वत के 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशा में एत्थर्ण' यहां पर जंवृद्दीवे दीवे' जंबू द्वीप नाम के द्वीप के 'महा विदेहे वासे' महाविदेह क्षेत्र में 'दाहिणकच्छे णामं विजए' दक्षिणार्द्ध कच्छ नाम का विजय 'पण्णत्ते' कहा है । वह 'उत्तर दाहिणायए' उत्तर दक्षिण दिशा में लंबा है । 'पाईणपडीणवित्थिणे' पूर्व पश्चिम दिशा में विस्तार वाला है 'अट्ठमन 'उत्तरद्धकच्छं च' उत्तरा ४२७ को शते मे भाभा ४२७ वियन न्यास ४२१२ वैतादय पति छ. 'कहिणं भंते ! जबुद्दीवे दीवे' भगवन् दीप नामना द्वीपमा ४यां मा 'महाविदेहे वासे' महाविड क्षेत्रमा 'दाहिणद्धकच्छे णाम विजए' हक्षिा ४२७ नामनु पिय 'पण्णत्ते' ४ छ १ २ प्रश्न उत्तरमा महावीर प्रसुश्री ४९ छ-'गोयमा ! गौतम ! 'वेयद्धस्स पव्वयस्स' वैतादय पतनी 'दाहिणेणं' इक्षिण हिशाम सीयाए महाणईए' सीत। महानहीनी 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामा 'चित्तकूडस्स' मित्र दूट नामना 'वक्खारपव्वयस्स' पक्षार पतनी 'पच्चत्यिमेणं' पश्चिममा 'एत्थ ण' हयां 'जबुदीवे दीवे' द्वीप नामना दीपना 'महाविदेहे वासे' भविड क्षेत्रमा 'दाहिणकच्छे णाम विजए' क्षिा ४२७ नामनु विश्य 'पण्णत्ते' ४३स छ, ते विन्य
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र 'जोयणसहस्साई योजनसहस्राणि 'दोणि' द्वे 'य' च एगसत्तरे' एकसप्तति 'जोयणसएं योजनशते 'एक्क' एक 'च' च 'एगृणवीसभाग' एकोनविंशतिभागं 'जोयणस्स' योजनस्य 'आयामेणं' आयामेन-दैर्येण 'दो' द्वे 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'दोणि' द्वे 'य' च 'तेरसुत्तरे' त्रयोदशोत्तरे-त्रयोदशाधिके 'जोयणसए' योजनशते 'किंचिविसेसणे' किशिद्विशेपोने-किश्चिन्यूने 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण, इत्यायाम-विष्कम्भाभ्यां तमु. क्त्वा संस्था नेनाह-'पलियंकसंठाणसंठिए' पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः-पर्यङ्काकारेण संस्थितः । अथास्याकारभावप्रत्यक्तारं प्रश्नोत्तराम्यामाह-'दाहिणद्धकच्छस्स' इत्यादि-दक्षिणार्द्धकच्छस्य ‘णं' खलु 'विजयस्स' विजयस्य 'कैरिसए' कीदृशक:-कीदृशः 'आयारभावपडोयारे' आकारभावप्रत्यवतार:-तत्राऽऽकार:-स्वरूपम् भावाः-पृथिवीवक्षस्कारादयस्तदन्तर्गताः पदाजोयणसहरसाई आठ हजार योजन 'दोणिय एगसत्तरे जोयणसए' दो हजार एकसो इकहत्तर योजन 'एकच एक 'एगूणवीसहभाग' उन्नीसवां भाग 'जोय. णस्ल' योजन का 'आयामेणं' लंबाइ से 'दो जोयणसहस्साई' दो हजार योजन 'दोण्णि' दो 'तेरसुत्तरे' तेरह अधिक 'जोयणसए' योजन शत अर्थात् दोसो तेरह योजन से 'किंचि विखेसूणे कुछ कम 'विक्खंभेणं' विस्तार से है।
इस प्रकार आयाम विष्कंभ से वर्णन करके उसका संस्थान कहते हैं-'पलि यंकसंठाणसंठिए' पर्यकाकार से स्थित है।
अब इसका आकार भाव प्रत्यवतार प्रश्नोत्तर बारा कहते हैं-'दाहिणद्ध कच्छस्स णं' दक्षिणाईकच्छ 'विजयस्स' विजय का 'केरिसए' किस प्रकार का 'आयारभावपडोयारे' आकार भाव प्रत्यवनार आकार अर्थात् स्वरूप भाव माने पृथिवी वक्षस्कारादि उसके अन्तर्गत पदार्थ सोही कहा है प्रत्यवतार माने प्रकटी'उत्तर दाहिणायए' उत्तर दक्षिण दिशाम सांभुछ. 'पाईणपईणवित्थिण्णे' पूर्व पश्चिम शिम विस्तृत छ. 'अट्ट जोयणसहस्साई' मा8 600२ योरन दोणिय एगसत्तरे जोयणसए' महतर गेसो छाते२ योन 'एक्कं च' मे४ योजना 'एगूणवीसइभाग' भागशीसमा लास 'जोयणस्स' योजना 'आयामेणं' माथी 'दो जोयणसहस्साई' 2 m२ योन 'दोणिय' असे 'तेरसुत्तरे' ते२ जोयणसए' योशनशत अर्थात् मा ते२ योनी 'कि चि विसेसणे' ४४४ ४म 'विक्खंभेणं' विस्तारथी छे.
शत मायाम विजयी पन ४शन तनु सस्थान मतावे छे.-'पलियंक संठाणसंठिए' ५५४२थी स्थित छे.
वे तना मा२ मा प्रत्यवतार प्रश्नोत्तरे द्वारा ४९ छे. 'दाहिणद्धकच्छस्स गं' हक्षिा ४२छन'विजयस्स' वियनु 'केरिसए' ४या प्रा२ना 'आयारभावपडोयारे' આકાર ભાવ પ્રત્યવતાર આકાર એટલે સ્વરૂપ ભાવ એટલે પૃથિવી વક્ષસ્કારાદિ તેના અંતગત પદાર્થ, પ્રત્યવતાર એટલે પ્રકટી ભાવ “ત્તેિ કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં શ્રી
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३२१ र्थाः, तद्युक्तः प्रत्यवतार:-प्रकटीभावः, 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! अस्य दक्षिणाईकच्छविजयस्य 'बहुसमरमणिज्जे' वहुसमरमणीयः अत्यन्त समोऽत एव रमणीयः मनोहरः 'भूमिभागे' भूमिभागः' 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, तस्य वर्णनं सूचयितुमाह'तं जहा' तद्यथा 'जाव कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव' यावत कृत्रिमैश्चैव अकृत्रिमैश्चैव अत्र यावत्पदेन 'आलिंगपुक्खेरइ वा' इत्यारभ्य कृत्रिमैश्चैवाकृत्रिमैश्चैव मणिभिस्तृणैश्चोपशोभित इति पर्यन्तो वर्णको ग्राह्यः, सच पष्ठसूत्रादवगन्तव्यः, ग्रन्थविस्तरभयादत्र नोपन्यस्यते । अधुनाऽत्र वास्तव्यानां मनुष्याणामाकारभावप्रत्यवतारं प्रश्नोत्तराभ्यामाह-'पाहिणकच्छे' इत्यादिदक्षिणार्द्धकच्छे प्रागुक्त स्वरूपे 'ण' खलु 'भंते !' भदन्त ! 'विजए' विजये 'गनुयाणं' मनुजानां मनुष्याणां 'केरिसए' कीदृशकः कीदृशः 'आयारभावपडोयारे' आकारभावप्रत्यवतार:तत्राकारः स्वरूपम् भावाः तदन्तर्गताः संहननादयः पदार्थाः तदुभयस हितः प्रत्यवतारः प्रादुभाव 'पण्णत्ते' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीनहावीर प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा' हे गौतम ! इस दक्षिणाई कच्छ विजय का 'बहुसमरमणिज्जो' अत्यन्त समहोने से रमणीय 'भूमिभागे' भूमिभाग 'पण्णत्ते' कहा है। उसका वर्णन सूचनार्थ कहते हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार है 'जगाव कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहिं . चेव' यावतू कृत्रिम अथवा अकृत्रिम यहां धावत्पदसे 'आलिंग पुक्खरे इवा' अलिंगपुष्कर के कथन से प्रारंभ कर के कृत्रिम अथवा अकृत्रिम मणि एवं तृणों, से उपशोभित इस कथन पर्यन्त का वर्णन करलेना चाहिए वह वर्णन छठे सूत्र से समझलेवें ग्रंथ के विस्तार भय से यहां पुनः प्रदर्शित नहीं किया है।
' अब दक्षिणार्द्ध कच्छ में निवास करनेवाले मनुष्यों के आकारभाव प्रत्यवतार प्रश्नोत्तर द्वारा कहते हैं-'दाहिणद्धकच्छे' इत्यादि पूर्वोक्त दक्षिणा कच्छ में 'णं भंते !' हे भगवन् 'विजए' विजय में 'मणुयाणं मनुष्यों के 'केरिलए' किस भलापीर प्रभुश्री ४ छ 'गोयमा ।। गौतम ! म क्षिा ४२७ वियना 'बहुसमरमणिज्जे' सत्यत समहापाथी रमणीय मेव। 'भूमिभागे' भूमिमा 'पण्णत्ते' स छे. तेनु वन सूचना ३३ मत छे. 'तं जहा' २ मा प्रभारी छ. 'जाव कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहि चेव' यात त्रिम अथवा मत्रिम मयां यावत् ५४थी 'आलिंगपुक्खरेફુવા આલિંગ પુષ્કરના કથનથી આરંભ કરીને કૃત્રિમ અથવા અત્રિ મ િઅને તણાથી શોભાયમાન આ કથન પર્યન્તનું સઘળું વર્ણન કરી લેવું તે વર્ણન છઠ્ઠા સૂત્રમાંથી સમજી લેવું. પુસ્તકના વિસ્તારભયથી અહીંયાં તે પુનઃ બતાવેલ નથી. ' હવે દક્ષિણ કચ્છમાં વસનારા મનુષ્યના આકાર ભાવ અને પ્રત્યવતાર પ્રશ્નોત્તર द्वारा प्रगट ४२ छ.-'दाहिणद्धकच्छे' त्या प्रति क्षिा ४२७मा ‘णं, भंते ! 10 भगवन्, “विजए' विन्यमा 'मणुयाणं' भनुष्याना 'केरिसए' ३२ 'आयारभावपड़ो
ज०४१
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे भीवः 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तः, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा ! गौतम ! 'तेसिं' तेपां दक्षिणार्द्ध विजयोत्पन्नानां 'ण' खलु 'मणुयाणं' मनुजानां 'छबिहे' पइविधं 'संघयण' संहननम्-अस्थिसंचयः तत् 'पविधं-वज्रऋपभनाराच १ ऋषभनाराच २ नाराच ३ अर्द्धनाराच ४ कीलिका ५ सेवात ६ भेदात् 'जाव' यावत्-अत्र यावत्पदेन 'छबिहे संठाणे पंचवणुसयाई उद्धं उच्चेतेणं जहण्णेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं पुचकोडीआउयं पालेंति पालेत्ता अप्पेगइया णिरयगामी जाव अप्पेगइया सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिन्यायति' इति साह्यम् एनच्छाया-'पड़. विधं संस्थान पश्चधनुः शतानि ऊर्ध्वगुच्चत्वेन जघन्येन अन्तर्मुहर्त्तम् उत्कर्पण पूर्वकोटयायुः पायलन्ति पालयित्वा अप्येकके निरयगामिनः यावत् अप्येकके सिद्धयन्ति बुध्यन्ते मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति' इति 'सव्वदुक्खाणमंत' सर्वदुक्खानामन्तं 'करेंति' कुर्वन्ति एपां व्याख्या प्रकार का आयारभावपडोयारे' आकारभाव प्रत्यवतार आकार माने स्वरूप भाव-अन्तर्गत भाव अर्थात् संहननादि पदार्थ उन दोनों के साथ प्रत्यवतारप्रादुर्भाव 'पण्णत्ते ?' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं-'गोयमा !' हे गौतम ! 'तेसिं' उस दक्षिणाई विजय में उत्पन्न हुए 'णं मणुयाणां' मनुष्यों के 'छबिहे' छह प्रकार का 'संवयणे' संहनन अर्थात् अस्थिसंचय-वह छप्रकार वज्रऋषभनाराच१, ऋषभनाराचर, नाराच३, अर्द्धनारणं ४, कीलिका ५, सेवात ६, के भद से हैं 'जाव' यावत् यहां यावत्पद से 'छविहे संठाणे पंच धणुसयाई उद्धं उच्चत्ते णं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उकोलेणं पुन्चकोडी आउथं पालेंति पालेत्ता अप्पेगइया निरयगामी जाव अप्पेगइया लिझंति बुझंति मुञ्चति परिणिन्यायंति' इन पदों का संग्रह हुवा है। इस का अर्थ इस प्रकार है-छ प्रकार का संस्थान है, पांचसो धनुष के ऊंचे है, जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की एवं उत्कृष्ट से पूर्वकोटि की आयुवाले हैं आयु के क्षय होने पर कितनेक मोक्षगामी होते हैं यावतू कितनेक सिद्ध, वुद्ध एवं मुक्त होते हुए परिनिर्वाण को प्राप्न कर के 'सव्व दुःखाणमंतं यारे मा२ मा भने प्रत्यक्ता२ अर्थात् मा४२ मे २१३५ मार गट मतगत मा अर्थात् सहनना पहा प्रत्यवतार-प्रादुर्भाव 'पण्णत्ते' ४उस छ ? २मा प्रश्नना Vाममा प्रभुश्री ४३ --'गोयमा !' गौतम ! 'तेसिं' थे क्षिा नियमा अत्पन्न थयेसा 'णं मणुयाणं' भनुष्याना 'छबिहे' ७ प्रारना 'संघयणे सहनन अर्थात् मस्थि સંચય છે. તે છ પ્રકાર આ પ્રમાણે છે-વાત્રકષભનારા ૧, બાષભનારાગ ૨, નારાચ ૩, मनाराय ४, सिप, सेवात ४ना मेथी छ. 'जाव' यावत् माडी यां यावत्पथी 'छबिहे संठाणे पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेंण जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी आउयं पालेति पालेत्ता अप्पेगया निरयगामी जाव अप्पेगईया सिझंति, मुच्चंत्ति, परिणिब्वायति' मा पहने। સંગ્રહ થયેલ છે. આને અર્થ આ પ્રમાણે છે-છ પ્રકારના સંસ્થાન છે. પાંચસે ધનુષ જેટલા ઉંચા છે. જઘન્યથી અન્તર્મુહૂર્તની અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂર્વ કેટિનું આયુષ્ય છે. આયુનો
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प्रकाशिफा टीका-चतुर्थवक्षस्कारः स्. २६ विभागमुखेम कच्छविजयनिरूपणम् ३२३ चैकादशसूत्राद् बोध्या । एनं चास्य कर्मभूमिरूपत्वं निर्णीतम् अथास्य सीमाकारी वैताढयपर्वतः कुत्रास्त्रीति पृच्छति-'कहि णं' इत्यादि क्व खलु भंते ! भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'कच्छे' कच्छे 'विजए' विजये 'चेयद्धे' वैतादयः 'गाम' नाम 'पधए !' पर्वतः ? प्रज्ञप्त इति शेषः, इति प्रश्ने भगवानाह'गोयमा!' गौतम ! 'दाहिणद्धकच्छविजयस्स' दक्षिणार्द्ध कच्छविजयस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'चित्तकूडस्स' चित्रकूटस्य पर्वतस्य 'पञ्चत्थिमेण' पश्चिमेन पश्चिमदिशि ‘मालवंतस्स' माल्यवतः माल्यवनामकस्य 'वक्खारपब्वयस्सा वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'एत्य' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'कच्छे विजए' कच्छे विजये 'वेयद्धो णाम' करें ति समस्त दुःखों का अन्त-पार करते हैं । इस की समग्र व्याख्या ग्यारहवें सूत्र से समझलेवें । इस प्रकार इस का कर्मभूमिरूप निरूपित किया है। ___अब सीमाकारी वैताढय पर्वत कहां पर है ? इस विषय की गौतमस्वामी पृच्छा करते हैं-'कहि णं भंते ! हे भगवन कहां पर 'जंबुद्दीवे दीवे' जंबूद्वीप नाम के डीप में 'महाविदेहे वासे' महाविदेहक्षेत्र में 'कच्छे विजए' कच्छनाम का विजय में 'वेयद्धे' वैताढ्य ‘णाम' नामका 'पवए' पर्वत कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री महावीर प्रभु कहते हैं-'गोयमा !' हे गौतम 'दाहिणद्ध कच्छविजयस्स' दक्षिणाई कच्छविजय की 'दाहिणेणं दक्षिण दिशा में 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट पर्वत की 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमदिशा में 'मालवंतस्स' माल्यवान नाम के 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत की 'पुरस्थिमेणं पूर्वदिशा में 'एत्थ' यहां पर 'ण' निश्चित 'कच्छे विजए' कच्छविजय में 'वेयद्धो णाम पव्वए' वैताढय नाम का पर्वत 'पण्णत्ते' कहा है 'तं जहा' वह पर्वत कैसा है ? सो कहते हैंક્ષય થવાથી કેટલાક મોક્ષગામી થાય છે. યાવત્ કેટલાક સિદ્ધ, બુદ્ધ, અને મુક્ત થઈને पानाने आस ४शन 'सब दुक्खाणमंतं करेंति' सपा मानो शत-पा२ ४३ छे. આની તમામ વ્યાખ્યા અગીયારમાં સૂત્રમાંથી સમજી લેવી. આ રીતે આમનું કર્મભૂમિ રૂપ નિરૂપણ કરેલ છે. - હવે સીમાકારી વૈતાઢય પર્વત ક્યાં આવેલ છે? આ વિષય સંબંધી ગૌતમસ્વામી प्रश्न ४३ 2.-'कहिणं भंते !' मगवन् ! ४यां मा 'जंबुद्दीवे दीवे' मदीय नामना द्वीपमा 'महाविदेहे वासे' महावि क्षेत्रमा 'कच्छे विजए' ४२७ नामनाविन्यमा 'वेयद्धे' वैतढिय ' 'णाम' नामन 'पव्वए' ५ त ४ छ ?
या प्रश्न उत्तरमा महावीर प्रभुश्री ४. छ.-'गोयमा !' गौतम ! 'दाहिणद्ध कच्छविनयस' क्षिा ४२७ वियना 'दाहिणेणं क्षिय हशामा 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट - तनी 'पच्चत्थिमेण' पश्चिम दिशामा 'मालवंतस्स' माध्यवान् नामना 'वनखारपव्वयस्स' १६२२ ५'तनी 'पुरथिमे गं' पू शामा 'एत्थणं' या PRIL 'कच्छे विजए' ४२७
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र पव्वए' वैतात्यो नाम पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः तं जहा' तयथा-क्वचिदेतत्पाठो नास्ति, सच कीदृशः ? इति जिज्ञासायामाह-'पाईणपडीणायए' प्राचीनप्रतीचीनायत:-पूर्वपश्चिमदिशो दीर्घः 'उदीणदाहिणविस्थिण्णे' उदीचीनदक्षिण विस्तीर्णः-उत्तरदक्षिणदिशो विरतारयुक्तः 'दुहा' द्विधा 'वक्खारपव्वए' वक्षस्कारपर्वतौ 'पुढे' स्पृष्टः स्पृष्टवान् अत्र स्पृश् धातोः कतरिक्त प्रत्ययस्तेन कर्मणि द्वितीया, एतदेव स्पष्टीकरोति 'पुरस्थिमिल्लाए' पौरस्त्यया पूर्व दिग्भवया 'कोडीए' कोटया-अग्रभागेन 'जाव' यावत् यावत्पदेन-'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्ययं पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं वक्खारपब्वयं' इति समाद्यम् एतच्छाया-'पौरस्त्यं वक्षस्कारपर्वत पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं वक्षस्कारपर्वतम्' इति, एतद्वयाख्या सुगमा, एताभ्यां (दोहि वि) द्वाभ्यामपि कोटीभ्यां पूर्वोक्तौ पौरस्त्यपाश्चात्यो चित्रकूटमाल्यवन्तौ वक्षस्कारपर्वतौ (पुढे) स्पृष्टः स्पृष्टवान एवं सः (भरहवेयद्धसरिसए) भरतवैताढयसदृशका भरतवर्पवर्तिवैताढयवत् रजतमयत्वाद्रुचकसंस्थानसंस्थितत्वाच्च बोध्यः (णवरं) नवरं-केवलम् (दो वाहाओ) द्वे वाहे (जीवा) जीवा (धणुपुटं च) धनुप्पृष्ठं चैतद्वस्तुत्रयं (ण कायब्ध) न 'पाईणपडीणायए' पूर्व एव पश्चिमदिशा में वह लंबा है। 'उदीण दाहिणविधिण्णे' उत्तर एवं दक्षिण दिशा में विस्तार युक्त है । 'दुहा' दोनों तरफ 'वक्खारपन्वए' वक्षस्कार पर्वत 'पुटो' स्पृष्टः स्पृष्ट है' 'पुरथिमिल्लाए' पूर्वदिशासंबंधी 'कोडीए' कोटी ले 'जाव' यावत् 'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्ययं' पूर्वदिशा के वक्षस्कार पर्वत को 'पच्चस्थिनिल्लाए कोडीए' पश्चिमदिशा संबंधी कोटी से 'पच्चथिमिल्लं वक्खारपवयं' पश्चिमदिशा के वक्षस्कार पर्वत को इस प्रकार ये 'दोहि वि' दोनों कोटी से पूर्वपश्चिम के चित्रकूट एवं माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत 'पुढे' स्पृष्ट है। इस प्रकार वह "भरह वेयद्धसरिसए' भरत वैताढय के समान अर्थात् भरत वस्थित वैताढय के सदृश-अर्थात् रजतमय एवं रुचक संस्थान में संस्थित होने से समझलेवें । 'णवरं' केवल 'दो वाहाओ' दो वाहा 'जीवा' विश्यमा 'वेयद्धे णामं पव्वए' वैतादय नाभन त 'पण्णत्ते' ४३स छे. 'तं जहा'
तो छ १ मे मतावे छे. 'पाईणपडीणायए' पूर्व मने पश्चिम शाम त eiमा छ. 'उदीणदाहिणवित्थिण्णे' उत्तर मन दक्षि हिशाम विस्तारपाणी छे. 'दुहा' भन्ने त२५ 'वक्खारपब्वए' पक्षा२ 'त 'पुढे' पछि 'पुरथिमिल्लाए' पूर्व संधी 'कोडीए' डीथी 'जाव' यावत् 'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं' पू शाना १९४२ पतन 'पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए' पश्चिम दिशा समधी टीथी 'पच्चत्थिमिल्लं वक्खारपव्वयं' पश्चिम सन १६४।२ तिने मे शते थे 'दोहिवि' पूर्व पश्चिम मन्न थी अर्थात त्रिट मने माल्यवान् १९४२ तिने 'पुढे' २५0 छ. मा शते ते. 'भरहवेयद्ध सरिसए' सरत भने वैतादय पवतो सर सरले रत्नभय भने ३३४ स्थानमा स्थित पाथी तभ सभ दे णवरं पण दो वाहाओ' में पारा 'जीवा' ७ 'धणु
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३२५ कर्तव्यम्-न वर्णनीयम् त्याज्यम् अवनक्षेत्रवर्तित्वात् लम्वभागश्च न भरतवैतादयवदित्याह(विजयविक्खंभसरिसे) विजयविष्कम्भसदृशः-विजयस्य-कच्छादिरूपस्य यो विष्कम्भ:विस्तारः किञ्चिन्यूनत्रयोदशाधिक द्वाविंशतिशतयोजनरूपस्तेन सदृशः-तुल्यः (आयामेणं) आयामेन-दैर्येण अयम्भाव:-कच्छादिविजयस्य यो विष्तम्भभागः सोऽस्य वैताढयस्यास्य यामभाग इति, (विक्खंभो) विष्कम्भा-विस्तारः (उच्चत्तं) उच्चत्वम् (उव्वेह) उद्वेधःभूमिप्रवेशश्चैते (तहेव) तथैव-भरतवैताढयवदेव वोध्याः, तत्र-विष्कम्भः पञ्चाशद्योजनात्मकः, उच्चत्वं पञ्चविंशतियोजनरूपम् उद्वेधश्च-पञ्चविंशतिक्रोशलक्षणो भरतवैताढन्यस्य यथा (तहेव) तथैव अस्य वैताढयस्यापि, (च) च-पुनः (विज्जाहराभिओगसेढीओ) विद्याधराऽऽभियोग्यश्रेण्यौ-विद्याधराणामाभियोग्यानां च श्रेण्यो तत्र-विद्याधरश्रेण्यौ प्रथमदशयोजनानन्तरं (तहेव) तथैव भरतवर्षवतिवैताढयवदेव बोध्ये (णवरं) नवरं केवलम विशेषोऽयम् जीवा 'धणुपुढेच' धनुष्पृष्ठ ये तीनों 'ण कायव्वं न कहे अवक्रक्षेत्रवर्ति होने से पूर्वोक्त तीनों अवक्तव्य है। इस का दीर्घभाग भरत एवं वैताढय के सहश नहीं है । 'विजयविक्खंभसरिसे' कच्छादि विजय का जो विस्तार अर्थात् कुछ कम बावीससो तेरह २२१३ योजन २२५ उसके लमान 'आयामेणं' दीर्घता से इस कथन का भाव यह है की कच्छादि विजय का जो विष्कम्भ भाग है वह इस वैताढय का आयाम भाग अर्थात् दीर्घ भाग है 'विक्खंभो' विष्कंभ-विस्तार 'उच्चत्तं' उच्चत्व 'उव्वेहो' उद्वेध भूमि के अन्तर्गत भाग ये सब तहेव' भरत एवं वैताढय के समानहीं समझलेवें, उसमें विष्कंभ पचास योजनात्मक एवं उच्चत्व पचीस योजनात्मक एवं उछेध पचीस कोशात्मक भरत वैताढय का जैसा कहा है 'तहेव' उसी प्रकार इस वैताढय पर्वत का भी समझना चाहिए' 'च' और 'विनोहर आभिओगसेढीओ' विद्याधर एवं आभियोग्य देवों की श्रेणी उसी प्रकार कही है अर्थात् विद्याधरों की श्रेणी प्रथम दश योजन के पुटुंच' धनुष्ट मात्र ‘ण कायव्वं' न ४ा अप क्षेत्रात पाथी पूर्वरित त्रले ४पाना नथी. तन मा An A२त मन वैतादयाना वा नथी 'विजयविक्खंभसरिसे' કચ્છાદિ વિજયને જે વિસ્તાર અર્થાત કંઈક ઓછો બાવીસ સે તેર ૨૧૧૩ જનરૂપ तेनी समान आयामेणं' मा छ. मा ४थनमा माप मे छे 3-२ वियनारे वि०४ मा छे. ते मा वैतादयन। मायाम मास मेटाउवाको माछ. 'विक्खंभे विस्तार 'उच्चत्तं' या 'उव्वेहो' उद्वेष अर्थात् सभीननी मरने से मधु तहेव' ભરત અને વૈતાઢ્ય પર્વતની સરખા જ સમજી લેવા. તેમાં વિષ્ક ૫૦ પચાસ એજનાત્મક અને ઉંચાઈ પચીસ ચેજનાત્મક તથા ઉપ પચ્ચીસ કેશાત્મક (પચીસ ગાઉ જેટલો भरत वैतादयनारे प्रमाणे ४स छ. 'तहेव' के प्रमाणे २॥ वैतादय पतना पण सम नसे. 'च' भने 'विज्जाहरआभिओगसेढीओ' विधाय२ म मालियोग्य
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'उत्तरद्धकच्छे णामं विजए' उत्तरद्धकच्छोनाम विजयः 'पण्णचे' प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्ने भगवानुत्तरमाह-'गोयमा ! गौतमः ! वेयद्धस्स' वैतादयस्य 'पव्ययस्स' पर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि ‘णीलवंतस्स' नीलवतः 'वासहरपञ्चयस्स' वर्पधरपर्वतस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'मालवंतस्स' माल्यवतः 'वक्खारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'चित्तकूडस्स' चित्रकूटस्य 'वक्खारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पच्चरिथमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'एत्थ अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'जाव सिझंति' यावत् सिद्धयन्ति अत्र यावत्पदेन ।
'उत्तरद्धकच्छे णामं विजए पण्णत्ने उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिण्णे अट्ठजोयणसहस्साई दोणिय एगसत्तरे जोयणसए एक्कं चं एगूणवीसइभागं जोयणस्स आयामेणं दो
अब गौतमस्वामी कच्छविजय के विषय में प्रभु से प्रश्न करते हैं-'कहिणं' कहां पर "भते' हे भगवन् 'जंबुद्दीचे दीये जंबूदीप नामक द्वीपमें 'महाविदेहे वासे' महाविदेह वर्पने 'उत्तरद्धय च्छे णामं विजए' उत्तरार्द्धकच्छ नामका विजय 'पण्णत्ते' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् श्री महावीर प्रभु कहते हैं'गोयमा! हे गौतम ! 'वेयद्धस्स' वैताढय 'पव्वयस्स' पर्वत की 'उत्तरेणं उत्तर दिशामें 'णीलवंतस्स' नीलचाल 'वामहरपव्ययस्स' वर्षधर पर्वत की 'दाहिणेणं' दक्षिणदिशा में 'मालवंतस्स' माल्यवान् 'वक्खार पन्चयस्स' वक्षस्कार पर्वत की 'पुरस्थिमेणं' पूर्व दिशामें 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट नाम के 'वक्खार पव्वयस्स वक्षस्कार पर्वत की 'पकचत्थिमेणं' पश्चिम दिशामें 'एत्थ' यहां पर 'ण' निश्चित 'जंबुद्दीवे दीवे' जंबुद्रीपनामक दीपमें 'जाव लिझंति' यावत् सिद्ध होते हैं। यहां यावत्पद से 'उत्तरद्धकच्छे णामं विजए पण्णत्ते, 'उत्तरदाहिणायए, पईण
व गौतभस्वामी ४२७ वियना विषयमा प्रभुने प्रश्न पूछे छ 'कहिणं' ४यां माण 'भंते । 13 मापन् 'जबुहीवे दीवे' यूद्री५ नाम नदीमा 'महाविदेहे वासे' मावि वर्षभा 'उत्तरद्धकच्छे णामं विजए' (तरा ४२७ नामनु विलय 'पण्णत्ते' ४ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ-'गोयमा गौतम ! 'वेयद्धस्स' वैतादय 'पवयरस' पतनी 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामा 'णीचंतस्स' नासवान 'वासहरपब्बयस्स' ५२ तिनी 'दाहिणेणं' क्षि शाम 'मालवंतस्स' भास्यवान् “वक्खारपव्वयस्स' पक्षा२ पतनी 'पुरत्यिमेण' पूर्व शिामा 'चित्तकूडस्म' यि नामना 'वक्खारपव्ययस्स' पक्षा२ %तनी 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिम Hi 'एत्थणं' मी मा 'जवुद्दीवे दीवे' दीपनारना द्वीपमा 'जाव सिज्मंति' यावत् सिद्ध थाय छे. या यावत्पथी 'उत्तरकच्छे णाम विजए पण्णत्ते, उत्तर दाहिणायए पाईणपडीणवित्थिण्णे, अट्ट जोयण सहस्साई दोण्णिय एगमनरे जोयणसए एकं च एगूणवीसई भागं जोयणस्स आयामेणं दो जोयणसहस्साई
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थ वक्षस्कारः सू .२६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३२९ जोयणसहस्साई दोण्णि य तेरसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेखणे विक्खंभेणं पलियंकसंठाणसंठिए, उत्तरद्धकच्छस्स णं भंते ! विजयरस केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णते ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते तं जहा कित्तिमे हि चेव अकित्तिमेहि चेव जाव उवसोभिए, उत्तरद्धकच्छे णं भंते । विजए मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ?, गोयमा ! तेसि णं मणुयाणं छविहे संघयणे जाव बहूई वासाई पालेंति पालित्ता अप्पेगइया णियरगामी अप्पेगइया तिरियगामी अप्पेगइया मणुयगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पेगइया' इतिपर्यन्तपदसङ्ग्रहो बोध्यः, एतच्छायाऽथी सुगमौ सिझंतीत्युपलक्षणं तेन 'वुझंति, मुच्चंति, परिणिव्वायंति, सन्नदुक्खाणमंतं करेंति, इत्येषां सङ्ग्रहः एतद्वन्याख्या चैकादशसूत्राद् ग्राह्या । एवं दक्षिणार्द्धकच्छवद्' बोध्यम् एतदेव सुचयितुमाह-'तहेव णेयव्वं सव्वं तथैव नेतव्यं सर्वमिति तथैव दक्षिणाईकच्छवदेव सर्वम् आयामविष्कम्भादिकम् नेतव्यं वोधपथं प्रापणीयं योध्यमित्यर्थः, पडीणविस्थिपणे अह जोयणसहस्साई दोणिय एगसत्तरे जोयणसए एकंच एगूणवीसहभागं जोयणस्स आयामेणं दो जोयणसहस्साई दोणिय तेरसुत्तरे जोयणसए किंचि विसेसूणे विक्खंभेणं पलियंकसंठाणसंठिए, उत्तरद्धकच्छस्स णं भंते ! विजयस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्त? गोयमा ! बहुसम रमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' तं जहा-कित्तिमेहि चेव अकिति मेहिं चेव जाव उवसोभिए, उत्तरद्धकच्छे णं भंते ! विजए मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा! तेसिणं मणुयाणं छविहें संघयणे जाव बहुई वासाई पालेति पालित्ता अप्पेगइया गिरथगामी अप्पेगइया तिरियगामी अप्पेगइया मणुयगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पेगाइया' इन पदों का संग्रह हुआ है। इन पदों का अर्थ सुगम है अतः यहां नहीं दिया है । 'सिझंति' यह पद उपलक्षण है अतः 'वुज्झति, मुच्चंति, परिणिवायंति, सव्वदुःखाणमंतं करेंति, इन पदों को भी ग्रहण करलेवें । और सब वर्णन दक्षिणाई कच्छ के वर्णन के जैसा दोण्णि य तेरसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेसूणे विक्खंभेण पलियंकसंठाणसंठिए उत्तरद्धकच्छस्स णं भंते ! विजयस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । तं जहा कित्तिमेहिं चेत्र अकित्तिमेहिं चेव जाव उवसोभिए ! उत्तरद्धकच्छे णं भंते ! विजए मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! तेसिणं मणुयाणं छविहे संघयणे जाव बहुइं वासाई पालेति पालिता अप्पेगइया जिरयगामी आपेगडया तिरियगामी अप्पेगइया मणुयगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पे ।इया' मा पहाना सह थय। छ. मा पहना म सरण छ. रथी मही या मतावर नथी. 'सिझंति' मा ५ Seक्षर छे. तेथी 'बुझंति, मुच्चंति, परिणिव्वायंनि सव्वदुःखाणमंतं करेंति' मा પદને પણ ગ્રહણ કરી લેવા બીજુ તમામ વર્ણન દક્ષિણા કચ્છના વર્ણનની જેમ સમજી वे. मतावा भाटे सूत्रधारे 'तहेव णेयव्यं सम्य' क्षणधि ४२छन। वर्णननी सरभु
ज० ४२
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जम्बूद्वीपमाप्तिसूत्र अथैतदन्तर्वति सिन्धुकुण्डं विवर्णयिपुराह-'कहि णं भंते !' वत्र खल्ल भदन्त ! 'जंबु. दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्ष 'उत्तरकन्छे विजए' उत्तरार्द्धकच्छे विजये 'सिंधुकुंडे णामं कुंडे' सिन्धुकुण्डं नाम कुण्डं 'पण्णत्त ?' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! 'मालवंतस्स' माल्यवतः 'चकवारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरथिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'उसभकूडस्स' ऋषभकूटस्य 'पच्चधिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि ‘णीलवंतस्स' नीलवतः 'वासहरपव्ययस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्ये-दक्षिणदिग्भवे 'णितंवे' नितम्बे-मध्यभागे मेखलारूपे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'उत्तरकच्छविजए' समझलेवें, यह कहने के लिए सूत्रकार ने 'तहेव णेयध्वं सब्छ' उसी प्रकार अर्थात् दक्षिणाईकच्छ के वर्णन के सहा सय वर्णन समझलेवें यह पद दिया है। इसका आयाम विष्कंभ आदि सबवर्णन दक्षिणाईकच्छ के कथनानुसार समझलेवें।
अब उत्तरार्द्ध कच्छविजय के अंतर्गत सिंधुकुंड का वर्णन करने की इच्छा से सूत्रकार कहते हैं-'कहि णं भंते ! हे भगवन् कहां पर 'जंबुद्दीवे दीवे' जंबूद्वीप नाम के द्वीपमें 'महाविदेहे वासे' महाविदेह वर्षमें 'उत्तरद्धकच्छे विजए' उत्तराईकच्छ विजय में सिंधुकुंडे णामं कुडे सिंधुक्कड नामका कुंड 'पपणत्त' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में महावीर प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! हे गौतम! 'मालवंतस्स' माल्यवान नाम के 'वक्खारपवयस्त वक्षस्कार पर्वत की 'पुरस्थिमेणं' पूर्व दिशामें 'उसभडस्स' ऋषभकूट नाम के वक्षस्कार पर्वत के 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिम दिशामें 'णीलवंतस्स' नीलवंत 'चासहरपवयस्ल' वर्षधर पर्वत के 'दाहिणिल्ले दक्षिणदिशा के 'णितं मध्यभाग में-मेग्चलारूप में 'एत्थणं' यहां पर 'जंबुद्दीचे दीने जंबूद्वीप नाम के द्विपमें 'महाविदेहे वासे' महाविदेह તમામ વર્ણન સમજી લેવું. આ પદ આપેલ છે. આના આયામ વિધ્વંભાદિ સઘળું વર્ણન દક્ષિણા કચ્છના વર્ણન પ્રમાણે સમજી લેવું.
હવે ઉત્તરાર્ધ કચ્છ વિજયની અંદર આવેલ સિધુ કુંડનું વર્ણન કરવાની ભાવનાથી सूत्रा२ ४ छ-'कहि णं भंते !' मगवन् ४यां भागण 'जंबुद्दीवे दो' ५ नामना द्वीपमा 'महाविदेहे वासे' भविड वर्ष भी 'उरद्धकच्छे विजए' उत्तराध ४२७ विश्यमा 'सिंधुकुंडे णामं कुंडे' सिंधु' नामना 'पण्णत्ते ४ छ १ मा प्रश्नमा उत्तरमा भावीर प्रसुश्री ४ छ. 'गोयमा!' गौतम ! 'मालवंतस्स' माल्यवान् नामना 'वक्खारपव्वयस्स' ११४२ 'तनी 'पुरस्थिमेणं' पूर्व शाम 'उसभकूडस्स' ऋषम छूट नामना १६२४१२ पतनी ‘पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशामा 'णीलवंतरस' नसत 'वासहरपव्ययस्स' १२ पर्वतमा 'दाहिणिल्ले दक्षिण दिशान "णितवे मध्य भागमां-भेमा ३५भा 'एत्थ णं मी माग 'जंबुद्दीवे दीवे' दीप नामना दीपमा 'महाविदेहे वासे' भाव
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवनस्कारः सू. २६ विभागमुखेम कच्छविजयनिरूपणम् ३३१ उत्तरार्द्धऋच्छविजये 'सिंधुकुंडं णाम कुंडं' सिन्धुकुण्डं नाम कुण्डं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तस्, तच्च 'सर्टि' पष्टिं 'जोयणाणि' योजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्ध्य-विस्ताराभ्याम् 'जाव भवणं' यावद् भवनं-भवनपर्यन्तम् वर्णनीयम् 'अटुं' अर्थ:-सिन्धुकुण्डेति नामार्थः'रायहाणी' राजधानी 'य' च 'णेयन्या' नेतव्या प्रापणीया बोध्या, लाघवार्थमतिदेशमाह-'भरहसिंधुकुंड सरिसं सव्यं णेयव्वं' भरतसिन्धुकुण्डसदृशं सर्व नेतव्यं भरतवर्पयति सिन्धुकुण्डवत् सर्व नेतव्यम् ज्ञेयम् । तच्च किम्पर्यन्तम् इत्याह-'जाव' इत्यादि-यावत् 'तस्स' तस्य 'ण' खल्लु 'सिंधुकुंडस्स' सिन्धुकुण्डस्य 'दाहिणिल्लेणं' दाक्षिणात्येन दक्षिणदिग्भवेन 'तोरणेणं' तोरणेन वहिारेण 'सिंधुमहाणई' सिन्धुमहानदी 'पवूढा' प्रव्यूढा निर्गता 'समाणी' सती 'उत्तरद्ध कच्छविजयं' उत्तरार्द्धकच्छविजयम् 'एज्जेमाणी २' इयंती २ भूयो भूयो गच्छन्ती 'सत्तहि' सप्तभिः 'सलिलासहस्सेहि' सलिलासहस्त्रैः-नदीसहस्त्रैः 'आपूरेमाणी२' आपूर्यमाणा २ पुनः वर्षमें 'उत्तरकच्छविजए' उत्तरार्द्ध कच्छविजय में 'सिंधुकुंडे णामं कुंड' सिन्धुकुंड नामका कुंड 'पण्णत्ते' कहा है। वह सिंधुकुंड 'साहिसाइठ ६० 'जोयणाणि' योजन 'आयामविखंभेणं' लंबाई चोडाई से कहा है 'जाव भवणं' यावतू भवन के वर्णन पर्यन्त का वर्णन करलेवें 'अहं' सिंधुकुंड के नामार्थ 'रायहाणी' उसकी राजधानी 'य' एवं 'णेयवा' सब वर्णन समझलेवें इस वर्ण को संक्षेप करने के हेतु से अतिदेश द्वारा सूत्रकार कहते हैं- भरहसिंधु कुंड. सरिसं सव्वं णेयवं' भरतकुड के वर्णन के समान समग्र वर्णन समझलेवें। वह वर्णन यहां कहांतक का ग्राह्य है ? इस के लिए कहते हैं 'जाव' इत्यादि यावत् 'तस्स णं' उत्त 'सिंयुकुडस्त' सिंधुकुंड कि 'दाहिणिल्लेणं' दक्षिणदिशा के 'तोरणेणं' बहिार से 'सिंधुमहाणई' सिंधु महा नदी 'पवूढासमाणी' निकलती हुई 'उत्तरद्धकच्छविजयं' उत्तराद्ध कच्छविजय को 'एज्जमाणी२' स्पर्श करती हुई२ सत्तहिं' सात 'सलिला सहस्सेहि' हजार नदीयों से 'आपूरेपषमा 'उत्तरद्धयच्छविजए' उत्तराध ४२७ विनयभा 'सिंधुकुंडे णाम कुंड' सिंधु नामना हु 'पण्णत्ते' उस छ. मे सिधु 'सर्द्धि' 58 ६० 'जोयणाणि' योन 'आयाम विक्खंभेणं' मा पाथी ४९स छे. 'जाव भवणा यावत् सनन वान पय तनु न ४री . 'अटुं' सिन नामा: 'रायहाणीय' यानी विगैरे णेयव्वा' सघ वर्णन सभ दे. 2 वर्णनन स२५ ४२वाना तथा
मति देश द्वारा सूत्रा२ ४९ छ,-'भरहसिंधुकुंडसरिसं सव्वं णेयव्वं' मरतना वन પ્રમાણે સઘળું વર્ણન સમજી લેવું. એ વર્ણન અહીંયાં કયાં સુધીનું ગ્રહણ કરવાનું છે? से ज्ञासा निवृत्ति माट ४३ छ-'जाव' त्यात यावत् 'तस्स गं' से 'सिंधुकुंडस्स' सिंधु
उनी 'दाहिणिल्लेग' क्षY निशाना 'तोरणेणं' मरिथी "सिंधुमहाणई सिधु महानही 'पवूढा समाणी' नीजीन 'उत्तरकच्छविजयं उत्तराध, ५२७ विन्यन 'एज्जमाणी २' २५शता २५शती 'सत्तहिं' सात 'सलिलासहस्सेहिं
आपूरेमाणी २ वा वा२ भरती
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र पुनः सम्पूरिता भवन्ति 'अहे' अधःअधोभागे 'तिमिसगुहाए' तिमिस्रगुहायाः 'वैयद्धपवयं वैताढयपर्वतं 'दालयित्ता' दारयित्वा 'दाहिणकच्छ विजयं' दक्षिणकच्छविजयम् 'एज्जेमाणी २' इयंती २ पुनः पुना, गच्छन्ती 'चोहसहि' चतुर्दशगिः 'सलिलासहस्से हिं' सलिलासहस्त्रैः 'समग्गा' समग्रा-सम्पूर्णा 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'सीयं' सीतां 'महाणई' महानदी 'समप्पेइ' समाप्नोति राम्-सम्यक्तया आप्नोति गच्छति प्रविशतीतिभावः, 'सिंधु. महाणई' सिन्धुमहानदी 'पवहे' प्रबहे-समुद्रप्रवेशे 'य' च पुनः 'मूले' मृले निर्गमस्थाने 'य' च 'भरहसिंधुसरिसा' भरतसिन्धुसदृशी भातवर्षयति सिन्धुमहानदीवत् ‘पमाणेणं' प्रमाणेन आयामविष्कम्भादिमानेन इत्यारभ्य 'नाव दोहिं वणराडेहिं संपरिक्खित्ता' यावद् द्वाभ्यां वनपण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्ता परिवेष्टिता इति पर्यन्तं वर्णनं बोध्यम् । एतत्सर्वं भरतवर्षवर्ति सिन्धुमहानदी प्रकरणतो ग्राह्यम् । ___ अथोत्तरार्द्धकच्छान्तर्वति ऋपभकूट पर्वतं वर्णयितुमाह-'कहि णं भंते !' क्व खलु माणी२' बार बार पूरित होती हुई 'अहो' अधो भागमें 'तिमिसगुहाए' तमिस्रा गुहामें 'वेयद्धपवयं' वैताढ्यपर्वत को 'दालयित्ता' पार कर के 'दाहिणकच्छविजयं' दक्षिणदिशा के कच्छविजय को 'एजमाणीर बार बार स्पर्शती हुई 'चोदसहि' चतुर्दश चौदह 'सलिलासहस्सेहिं' १४ हजार नदीयों से 'समग्गा' सम्पूर्ण होती हुई 'दाहिणेणं' दक्षिण दिशामें 'सीयं 'महागई' सीता महानदी को 'समप्पेई प्राप्त करती है अर्थात् सीता महा नदी में मिलती है । 'सिंधुमहाणई' मिंधु महा नदी 'पवहेय' समुद्रप्रवेश में
और 'मूले' मूल में अर्थात् उद्गमस्थान में 'य' और 'भरह सिंधुसरिसा' भरतवर्पगत सिंधु महानदी के जैसी 'पमाणेणं' आयामविष्कभादि प्रमाण से यहां से आरम्भ कर 'जाव दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता' यावत् दो वनषण्डों से वेष्टित होती हुई इस कथन पर्यन्त का सम्पूर्ण वर्णन समझलेवें । यह सय वर्णन भरत. वर्ष में रही सिंधुमहा नदी के वर्णनावसर से समझलेवें। यही 'अहे' मा लामा 'तिमिसगुहाए' तिभिसामा 'यद्धपव्वयं वैताब्य पतन 'दालयित्ता' ५२ रीन 'दाहिणकच्छविजयं दक्षिा निशाना ४२७ वियने 'एज्जमाणी२' २५शती २५शती 'चोदसहि' यो 'सलिलासहस्सेहिं २ नहीयाथी 'समग्गा माता मराती 'दाहिणेणं' दक्षिण दिशामा 'सीय महाणई सीता महानहीन 'समप्पेइ' प्रास ४२ छ. अर्थात् सीता भडानी भणे छ. 'सिंधु महोणई सिधुमहानही 'पवहेय' समुद्र प्रय शमा भने 'मूले' भूमी गेट उत्पत्ति स्थानमा 'य' भने 'भरहसिंधु सरिसा' मरत વામાં આવેલ સિંધુ મહાનદીના જેવી “gષા આયામ વિષ્કભાદિ પ્રમાણુથી અહીંથી मार लीन 'जाव दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता' यारत मे वनपथी वीटाती मा ४थन પર્યન્તનું પુરેપુરું વર્ણન સમજી લેવું. આ બધું વર્ણન ભરતવર્ષમાં આવેલ સિધુમહા નદીના વર્ણન પ્રસંગથી સમજી લેવું
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प्रकाशिका टीफा-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३३३ भदन्त ! 'उत्तरद्धकच्छविजए' उत्तरार्द्धकच्छविजये 'उसभकूडे णाम ऋपभकूटो नाम 'पन्चए' पर्वतः 'पण्णचे ?' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! 'सिंधुकुंडस्स' सिन्धुकुण्डस्य 'पुरस्थिगेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'गंगाकुंडस्स' गङ्गाकुण्डस्य 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'णीलवंतस्त' नीलवतः 'वासहरपब्वयस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्ये 'णितंवे' नितम्बे मध्यभागे मेखलालक्षणे 'एत्थ' अत्र अनान्तरे 'ण' खलु 'उत्त. रद्ध कच्छविजए' उत्तराईकच्छविजये 'उसह कूडे' ऋपभक्कूटः ‘णाम' नाम 'पवए' पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, स च 'अट्ट' अष्ट 'जोयणाई' योजनानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन प्रज्ञप्तः 'तं चेव' तदेव एकोनविंशतितमसूत्रोक्तोत्तरार्द्धभरतवर्षवर्तिऋषभकूटपर्वतवदेव 'पमाणं' प्रमाणस् उच्चत्वोद्वेधादिमानं बोध्यम् एवं तत्रत्यः सौं वर्णकोऽत्र ग्राह्यः, स च ___ अब उत्तरार्द्धयच्छ के अन्तर्वति ऋषभकूट पर्वत का वर्णन करते हुवे सूत्रकार कहते हैं-'कहिणं भंते ! हे भगवन् कहां पर 'उत्तरकच्छविजय उत्तराईकच्छविजय में 'उसमकूडे नाम ऋपभकूट नामका 'पवए' पर्वन 'पण्णत्ते' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान श्री कहते हैं-'गोयमा!' हे गौतम ! 'सिंधुकु डस्स सिंधुकुंड की 'पुरथिमेणं' पूर्वदिशा में 'गंगाकुडस्ल' गंगाकुड की 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशा में 'णीलवंतस्त' नीलवान् 'वासहरपव्ययस्त' वर्षधर पर्वत को 'दाहिणिल्ले दक्षिणका '
णिवे' मेखलारूा मध्यभाग में 'एत्थणं' यहां पर 'उत्तरद्धकच्छविजए' उत्तरार्द्धयच्छ विजय में 'उसहकूडे' ऋषभकूट 'णाम' नामका 'पव्यए' पर्वत 'पण्णत्ते' कहा है। वह पर्वत' अष्टु' आठ' जोयणाई' योजन 'उद्धं उच्चत्तण' ऊपर की ओर ऊंचा है। 'तं चेव उन्नीसवें सत्र में कहा गया उत्तरार्द्ध भरत वर्ष ऋषभकूट पर्वत के कथनानुसार ही 'पमाणं' प्रमाण अर्थात् उच्चत्व उद्वेध आदिमान जानना चाहिए। इसी प्रकार ऋषभकूट
व उत्तरा २छना भतात ऋषभट पतनुन ४२त सूत्रधार ४ छ-'कहि ण भंते ! सावन ध्यां भासण 'उत्तरद्धकच्छविजए' उत्तरा ४२७ विश्यमा 'उसभकूडे णाम' ऋषम छूट नाभन 'पव्वए' पति 'पण्णत्ते' ४रेस छ ?
या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ 'गोयमा!' गौतम ! 'सिंधुकुंडस्स' सिधु 33नी 'पुरस्थिमेणं पूर्व म. 'गंगाकुंडस्स' उनी 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिम दिशामा 'णीलवंतस्स' नासवान् 'वासहरपव्वयस्स' पर पतनी 'दाहिणिले' क्षिर भागना 'णितंवे' मध्य भागमा 'एत्थणं' मी माग 'उत्तरद्धकच्छविजए' उत्तराध ४२७ विरयमा 'उसहकूडे' अषम दूट ‘णाम' नामना 'पव्वए' पर्वत 'पण्णत्ते' ४ . त 'अट्ठ' मा 'जोयणाई' योन 'उद्धं उच्चत्तण' ५२नी मानु यो छ 'तं चेव' मागणीસમાં સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલ ઉત્તરાર્ધ ભરત વર્ષવતિ ઋષભ કૂટ પર્વતના કથન પ્રમાણેનું 'पमाणं' प्रमाण अर्थात याव, द्वेष, विगेरे भा५ सम .
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्रे किम्पर्यन्तः इत्याह-जाव रायहाणी' यावद् राजधानी राजधानीवर्णकपर्यन्तः, किन्तु तत्र दक्षिणेन राजधानी प्रोक्ता अत्र तु 'से' सा राजधानी 'णवरं' केवलं 'उत्तरेणं उत्तरेण उत्तरदिशि 'भाणियव्या' अणिनव्या वक्तव्या, अन्यत् सर्व तहदेन वर्णनीयमिति । विशेषजिज्ञासुभिरेकोनविंशतितमसूत्रं निलोनीयम् । अयैतदन्तर्वतिगङ्गाकुण्डं वर्णयितुमाह-'कहिणमंते।' इत्यादि क्व खलु भदन्त ! 'उत्तरकच्छविनए' उत्तरार्द्धकच्छविजये 'गंगाकुडे' गाकुण्डं 'जाम' नाम 'कुडे' कुण्डं 'पण्णते' प्रज्ञतम् ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा ! गौतम । 'चित्तकूडस्स' चित्रकूटस्य 'यवखारपब्वयरस' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिगि 'उसभवूडस्स' ऋपमकूटस्य 'पञ्चयस्स' पर्वतरय 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि ‘णीलवंतस्स' नीलवतः 'वासहरपव्वयस्स' वर्पधरपर्वतस्य 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्ये पर्वत का समग्र वर्णन यहां समझलेना चाहिए । वह वर्णन कहां तक का ग्रहण करना इस के लिए कहते हैं 'जाव रायहाणी' यावत् राजधानी के वर्णन पर्यन्त का सभी वर्णन यहां पर समझलेवें । परंतु वहां पर राजधानी दक्षिण दिशा में कही गई है, एवं यहां पर 'से' बह राजधानी 'गवरं' केवल 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामें माणियन्वा' कहनी चाहिए। और सभी कथन वहां के वर्णनानुसार वर्णित करलेवें । विशेष जिज्ञास्तुओं को उन्नीसवां सूत्र देखलेना चाहिए।
अब उसके अन्तर्वति गंगाकुड का वर्णन करने के हेतु से कहते हैं-'कहि णं भंते !' इत्यादि हे भगवन् कहाँ पर 'उत्तरकच्छविजए' उत्तरार्द्धकच्छविजय में "गंगाकुडे' गंगाकुड ‘णाम' नामका 'कुडे' कुड 'पण्णत्ते' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री महावीर प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा !' हे गौतम ! 'चित्त. दूडस्स' चित्रकूट 'वक्वारपन्चयास' वक्षस्कारपर्वत की 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिम दिशामें 'उसभकूडस्स' ऋषभकूड 'पव्ययस्ल' पर्वत की 'पुरथिमेणं' पूर्वदिशामें
એ જ પ્રમાણે પણ કૂટ પર્વતનું સંપૂર્ણ વર્ણન અહીંયાં સમજી લેવું. તે વર્ણન ध्यां सुधानु र ४२९ ? गे भाटे ४ छ-'जाव रायहाणी' यावत् २४पानी प र्नु બધુ વર્ણન અહીંયાં સમજી લેવું જોઈએ પરંતુ ત્યાં રાજધાની દક્ષિણ દિશામાં કહેલ છે. भने महीया 'से' यानी 'णवरं १ 'उत्तरेणं उत्तर दिशामा 'भाणियव्वा' ४वी જોઈએ. બીજું તમામ કથન ત્યાંના વર્ણન પ્રમાણે વર્ણવી લેવું. વિશેષ જિજ્ઞાસુઓએ ઓગણીસમું સૂત્ર જોઈ લેવું જોઈએ.
तेनी मरमावेस गनाउनु पर्थन ४२वाना उतुथी ४३ छे 'कहिणं भंते !' मगवन् ४यां सारण 'उत्तरद्वकच्छविजए' उत्तरा ४२७ विश्यमा 'गंगाकुंडे' गा 'णाम' नामने। 'कुडे' 3 'पण्णत्ते' ४ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा महावीर प्रभु श्री । छ-'गोयमा !' गौतम ! 'चित्तकूडस्स' चित्रट 'वक्खारपव्ययस्स' वृक्ष२४२ तिनी पच्चत्यिमेणं' पश्चिम दिशामा 'उसभकूडस्स' ऋषम छूट 'पव्ययस्स' ५वतनी 'पुरस्थिमेणं'
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजगनि रूपणम् ३३५ 'णितंबे' नितम्बे मध्यभागे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'उत्तरद्धकच्छे' उत्तरार्द्धकच्छे 'गंगाकुंडे' गङ्गाकुण्डम् ‘णाम' नाम 'कुंडे' कुण्ड 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् तच्च 'सर्टि पष्टिं 'जोयणाई' योजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य विरताराश्याम् प्रज्ञप्तम् इदं च 'तहेव' तथैव तद्वदेव 'जहा' यथा 'सिंधू' सिन्धुः-सिन्धुमहानदी गङ्गामहानदीवद् गङ्गासिन्धुस्वरूपवर्णनाधिकारे वर्णिता तद्वर्णकांशमेव दर्शयितुमाह-'जाव वणसंडेण य संपरिक्खिचेति' यावद् वनपण्डेन च सम्परिक्षिप्ता तत्र सिन्धु-प्रपातकुण्डं गङ्गाप्रपातकुण्डवदेव वर्णितं तदशेष वर्णनमिहापि वाच्यम् तथा चात्र गङ्गाकुण्डं सिन्धुकुण्डवद् वर्णनीयमिति पर्यवसितम् किन्तु तत्र प्रथमं गङ्गावर्णनं ततः सिन्धुवर्णनम् अत्र तु व्यत्यया, तत्कारणं च माल्यवद्वक्षस्कारतो विजयप्ररूपणायाः प्रक्रान्तत्वेन तदासनावात् सिन्धुकुण्डस्य प्ररूपणा प्रथमतः कर्तु'णीलवंतस्ल' नीलचान 'वासहरपन्चयस्स' वर्षधर पर्वत की 'दाहिल्ले दक्षिणदिशा के 'णितं मध्यभाग में "एत्थर्ण यहां पर "उत्तरद्धकच्छे उत्तराईकच्छ का "गंगाकुडे, गंगाकुड 'णार्म' नामका 'कुडे' कुड 'पण्णत्ते' कहा गया है। वह कुड 'साहि' साईठ 'जोयणाई' योजन 'आयाविखंभेण लंबाई चोडाई से कहा है । इसका वर्णन 'तहेव' वैसाही सनझें कि 'जहा' जिस प्रकार "सिंधू सिंधुमहा नदी गंगामहा नदी के वर्णनसमान गंगा सिंधुस्वरूप वर्णनाधिकार में वर्णित किया है। उस वर्णनांश को प्रकट करते हुवे कहते हैं-'जाव वणसंडेण य संपरिक्खित्तेत्ति' यावद्धनषंड से परिक्षिप्त वहां पर सिंधुप्रपातकुड का वर्णन गंगाप्रपातकुंड के लशही किया है, वहीं समग्र वर्णन यहां पर भी कहलेना चाहिये। इस प्रकार यहां पर गंगाकुड का वर्णन सिंधुड के सदृशर्णित कर लेना यह निश्चित हुआ। परंतु वहां पर पहला गंगाका वर्णन आया है, तदनन्तर सिन्धु का वर्णन है। यहां पर व्यत्यय है उसका कारण माल्यवान् वक्षस्कार पूर्वमा ‘णीलवंतस्स' नीसवान 'वासहरपत्रगस्स' वषधर पतनी 'दाहिणिल्ले दक्षिण शान 'णितंवे' मध्यभागमा 'एत्थणं' मिडीयो 'उत्तरद्धकच्छे' त्तराध ४४ 'गंगाकुंडे' गाळूट 'णाम' नामना 'कुडे' ' 'पण्णत्ते' डस छ. मे ९ 'सदि' साइड 'जोयणाई' या 'आयामविक्खंभेणं' 5 पाणी छे. तेनु पान तहेव'
थेसमरपु. 'जहा'२ प्रमाणे सिंधू' (सधु महानदी भानहीनासमान, सिधु २१३५ नारिभावित छ. मे १ष्णु नाशने प्राट ४२di 2-'जाव वणसंडेण य संपरिक्खित्तेत्ति' यावत् वनष थी व्यात त्यां निधु प्रपात हुनु वर्णनाप्रपातना સરખું જ કરેલ છે. એ તમામ વર્ણન અહીંયાં પણ કહી લેવું જોઈએ. એ રીતે અહીંયાં ગંગાકુંડનું વર્ણન રિ ઉકંડકા વર્ણન પ્રમાણે વર્ણવી લેવું તેમ નિશ્ચય થયેલ છે પરંતુ ત્યાં આગળ પહેલા ગંગાનું વર્ણન આવેલ છે. તે પછી સિંધુનું વર્ણન છે. પણ અહીંયાં તેમાં ફેરફાર છે. તેનું કારણ માલ્યવાન વક્ષસ્કાર પર્વતથી વિજ્યની પ્રરૂપણાના પ્રકારા
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जम्बूद्वीपवतिसूत्रे
मुचितेति तन्निर्गतायाः सिन्धोः अपि प्ररूपणात्र प्रथमतः कृता ततो गङ्गाया इति, परन्तु गङ्गाप्रपात कुण्ड निर्गता गङ्गामहानदी खण्ड प्रपातगुहाया अधो चैताढ्य गिरिं दारयित्वा दक्षिणभागे सीतानदी मुपैतीति विशेषः ।
अथ प्रश्नोत्तराभ्यां कच्छविजयेति नामार्थमाह-'से केणट्टे णं भने !" इत्यादि-अथ केनान केन कारणेन भदन्त ! 'एवं बुच्चइ' एवमुच्यते 'कच्छे विजए कच्छे विजए ?' कच्छो नाम विजयः कच्छो विजयः इति, गौतमस्वामिनः प्रश्नोत्तरं भगवानाह - 'गोयमा !" गौतम ! 'कच्छे विजए' कच्छो विजयः 'वेबद्धस्स' वैताढचनामकस्य 'पव्ययस्स' पर्वतस्य ' दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'सीयाए' सीतायाः 'महाणईए' महानद्याः 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि 'गंगा' गङ्गाया: 'महाणईए' महानद्याः 'पचस्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'सिंधु' सिन्ध्याः 'महाणईए' महानद्या: 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि दाहिकच्छविजय रस' पर्वत से विजय की प्ररूपणा का प्रकारान्तर से उसका समीपवर्तिपना होने से सिंधुकुंड की प्ररूपणा प्रथम करना उचित होने से वहां से निर्गत सिंधु की प्ररूपणा प्रथम की है, तत्पश्चात् गंगाकुंड की । परंतु गंगाप्रपातकुंड से निकली हुई गंगामहा नदी खंडप्रपातगुहा के नीचे वैताढ्य गिरिको दवाकर दक्षिणभाग में सीतानदी को प्राप्त होता है यह विशेष है ।
अब प्रश्नोत्तर द्वारा कच्छविजय नामका अर्थ कहते हैं- 'से केणट्टेणं भंते ।' हे भगवन् किस कारण से 'एवं बुच्चई' ऐसा कहा जाता है कि 'कच्छेविजए कच्छे बिजए' इस का नाम कच्छविजय इस प्रकार कहा है ? गौतमस्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में श्रीभगवान कहते हैं - 'गोयमा !' हे गौतम 'कच्छे चिजए' कच्छविजय 'वेयद्वस्त' वैताढ्य 'पञ्चयस्स' पर्वत की 'दाहिणेणं' दक्षिणदिशा में 'मीयाए' सीता 'महाणईए' महानदी कि 'उत्तरे णं' उत्तरदिशा में 'गंगाए' गंगा
ન્તરથી તેનું નજીક પણું હાવાથી ત્યાંથી નીકળેલ સિંધુની પ્રરૂપણા પહેવાં કરેલ છે. તે પછી ગંગાકુંડની પરંતુ ગંગાપ્રપાત કુંડથી નીકળેલ ગગા મહાનદી ખંડ પ્રપાત શુહાની નીચે વૈતાઢય પવ તને દખાવીને દક્ષિણ ભાગમાં સીતા નદીને મળે છે એ વિશેષતા છે. हुवे प्रश्नोत्तर द्वारा ४२ विश्य नामनो अर्थ गतावे छे- 'से केद्वेण भंते ! ' लगवन् शा अराशुथी 'एवं बुच्चइ' मेम म्हेत्रमां आवे छे. 'कच्छे विजए, कच्छे विनए' આનું નામ કચ્છ વિજય એ પ્રમાણે કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે— 'गोयमा !' हे गीतभ ! 'कच्छे विजए' ४२७ विन्न्य 'वेयद्धस्स' वैताढ्य 'पव्त्रयस्स' पर्वतनी 'दाहिणे ' दृक्षिशु द्विशाभां 'सीयाए' सीता 'महाणईए' महानहीनी 'उत्तरेण' उत्तर दिशामां 'गंगाए गंगा 'महाणदीए' भड्डा नहीनी 'पच्चत्थिमेनं' पश्चिम दिशामा 'सिंधु' सिधु 'महाणईए' भडानहीनी 'पुत्थिमेणं' पूर्व दिशामा 'दाहिणकच्छ विजयस्स' दक्षिणार्ध ६२० विनयनी 'चहुमज्झदे पभाए' बहु मध्य देशलाभां 'पत्थणं' सहींयां 'खेमा नाम '
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३३७ दक्षिणार्द्धकच्छविजयस्य 'वहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे-मध्यखण्डे 'एत्थ' अत्र-अत्रा-न्तरे ‘णं' खल 'खेमाणाम' क्षेमा नाम 'रायहाणी' राजधानी 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च 'वि. णीया रायहाणी सरिसा' विनीता राजधानी सदृशी विनीताराजधानीवत् 'भाणियव्वा' भणितव्या वक्तव्या, विनीतावर्णकः सूत्रान्तराद् ग्राह्यः 'तस्थ' तत्र 'ग' खलु 'खेमाए' क्षेमायाम् 'रायहाणीए' राजधान्याम् 'कच्छे णाम' कच्छो नाम 'राया' राजा चक्रवर्ती 'समुप्पज्जइ' समुत्पद्यते संजायते। अयम्भाव:-क्षेमाराजधान्यामुत्पद्यमानः षट्खण्डैश्चर्यमोगी कच्छ इति लोकैर्व्यवयित्ते, अत्र वर्तमाननिर्देशेन सर्वदाऽपि यथासम्भवं चक्रवर्तिराजोत्पत्तिः सचिता, ननु भरतवर्षक्षेत्र इव चक्रवर्ति राजोत्पत्तौ कालनियम इति, स च राजा श्रीशकः १ इति जिज्ञासायामाह-'महया हिमवंत०' महाहिमवन्मलयमन्दरमहेन्द्रसार:-महाहिमवान्-हैमवतक्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वर्षधरः पर्वतः, मलयः- पर्वतविशेषः, मन्दरः-मेरा, महेन्द्रः-पर्वत'महाणदीए' महानदी की 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमदिशा में सिंधु सिधु 'महाणईए' महानदी के 'पुरथिमेणं' पूिर्वदशा में 'दाहिणद्ध फच्छविजयस्त' दक्षिणार्द्ध कच्छविजय के 'बहुमज्झदेसभाए' बटुमध्यदेशभाग 'एत्व गं' यहां पर 'खेमा णाम' क्षेमा नामकी 'रायहाणी' राजधानी 'एण्णत्ता' कही गई है। वह राजधानी 'विणीयारायहाणी सरिता' विनीता राजधानी के समान 'भाणियव्वा' कहनी चाहिए। विनीता का वर्णन अन्य सूत्र से ज्ञात करलेवें। 'तत्थ णं' वहां पर 'खेमाए' क्षेमा 'रायहाणीए' राजधानी में 'कच्छे णाम' कच्छनामका 'राया' चक्रवर्ति राजा 'युप्पज्जई' उत्पन्न होगा ! इस कथन का भाव इस प्रकार है-क्षेमाराजधानी में उत्पन्न होनेवाला कच्छनामका, राजा षटूखंड ऐश्वर्य का भोक्ता होगा ऐसा लोकोक्ति है। यहां पर वर्तमान निर्देश से यथासम्भव चक्रवर्ति राजा की उत्पत्ति सूचित की है-भरतवर्ष क्षेत्र के जैसे चक्रवर्ति राजा की उपत्ति में कालनियम नहीं है, वह राजा कैसा है ? इस के लिए कहते हैं-'महयाहिमवंत' महाहिमवन्मलयमंदर महेन्द्र के जैसे सारवान् महाहिमवान्-हैमवत क्षेत्र के उत्तर में सीमाकारी क्षेमा नामनी रायहाणी' यानी 'पण्णत्ता' ४डस छ. ये राधानी विणीयारायहाणी 'सरिसा' विनीत यानीनी सभी भाणियव्वा' ४ नये. विनीता यानी वन भी सूत्र यामाथी onी A. 'तत्थ णं' या RAI 'खेमाए' मा नामनी 'रायहाणीए' राजधानीमा 'कच्छे णाम' ४२७ नामधारी 'राया' यति राल पदमश्वयन ભેગવનાર થશે તેમ લેકેક્તિ છે અહીંયાં વર્તમાનના નિર્દેશથી સર્વદા યથાસાવ ચકવતિ રાજાની ઉત્પત્તિ સૂચવેલ છે. ભારત વર્ષ ક્ષેત્રના જેવા ચક્રવતિ રાજાની ઉત્પત્તિમાં &स नियम नथी. ते शक । छ ? ते मतावा भाटे ४३ छे. 'महयाहिमवंत' भहा હિમવન્મલય મંદર મહેન્દ્રના જે સારવાળે મહાહિમવાન-હૈમવતક્ષેત્રની ઉત્તરમાં સીમાકારી વર્ષધર પર્વત. મલય–પર્વત વિશેષ; મન્ટર-મેરુ મહેન્દ્ર-પર્વત વિશેષ આ બધાની
ज० ४३
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जम्बूद्वीपप्रमतिसरे विशेपश्चैते इव सारः-प्रधानः" इत्यादि पदसमूहो राजवर्णनपरोऽत्र बोध्य इति सूचयितुमाह'जाव' यावत् 'सव्वं सर्व 'भरहोअवणं' भरतसाधनं-भरतक्षेत्रस्वायत्तीकरणमभिव्याप्य 'भाणियध्वं' भणितव्यस् वक्तव्यम् परन्तु 'णिक्खमणवज्ज' निष्क्रमणवर्ज प्रवम्याग्रहणं त्यक्त्वा 'सेस' सर्व निःशेष 'भाणियव्वं' भणितव्यम् वाच्यम् यतो भरतचक्रवर्तिना सर्वविरतिः स्वीकृता कच्छचक्रवर्तिनस्तु सर्वविरतिस्वीकारे नियमाभावो लभ्यते इति, तत्सर्वे किम्पर्यन्तम् ? इत्यपेक्षायामाह-'नाव भुंजए माणुस्सए सुहे' यावद् 'झुक्के मानुष्यकानि मुखानि' मानुष्यकानि सुखानि' मानुष्यकानि 'मनुष्यसम्बन्धीनि मुखानि भुक्त' इत्येतद्वर्णकपर्यन्तमित्यर्थः अत्रत्य यावत्पदसङ्ग्राह्य औपपातिकसूत्रस्यैकादशसूत्रतः कार्यः, तदर्यश्च तत्रैव मत्कृतपीयूपर्पिणी टीकातो वोध्यः, इत्येकं कच्छविजयनामकारणम् अपरं च कारणमाह-'कच्छणामधेज्जे य' कच्छनामधेयश्च 'कच्छे इत्थ' कच्छोऽत्र विजये 'देव' देवः राजा परिवसतीति वर्षधर पर्वत मलय-पर्वतविशेष-मन्दर-मेम-महेन्द्र पर्वतविशेष-ये सय के समान प्रधान इत्यादि पदसमूह यहां पर राजवर्णनपरक कहलेवें । यह सूचन के लिये कहते हैं-'जाव' यावत् 'सव्वं' सघ 'भरहोअवर्ण' भरतक्षेत्र के स्वायत्ती करण से लेकर 'भाणियव्वं' कहलेवें परंतु 'णिक्खमणवज्ज' निष्क्रमण प्रव्रज्या ग्रहण को छोडकर 'सेस' अवशिष्ट निष्क्रमण प्रतिपादक वर्णनातिरिक्त 'सव्वं' समग्र वर्णन 'भाणियव्वं' कहलेवें । कारण भरत चक्रवर्ति ने सर्व विरति (दीक्षा) का स्वीकार किया था । कच्छचक्रवर्ति ने तो दीक्षास्वीकार में नियमालाव होता है । वह सब वर्णन कहांतक का ग्रहण करना इस लिये कहते हैं-'जाव झुंजए माणुस्प्लए सुहे' यावतू मनुष्य संबंधी सुख भोगते हैं यह कथन पर्यन्त यहां के यावत्पद से ग्रहण करने योग्य संग्रह औपपातिक सूत्र के ग्यारहवे सूत्र से ग्रहण करलेवें । उसका अर्थभी वहां पर मेरे द्वारा की गई पीयूषवर्षिणी टीका से समझलेवें। यह कच्छविजय इसनास होने का एक कारण है। સર પ્રધાન ઈત્યાદિ પદસમહ અહીંયાં રાજવનના સંબંધમાં કહી લેવા. એ સૂચન भाटे सूत्रधार ४ छ-'नाव' यावत् 'सव्वं' सणु 'भरहोअवर्ण' सत क्षेत्रना साधान ४थी दान 'भाणियव्वं' ही . परतुणिक्खमणवज्ज' नभए-न्या प्रश्न छोडी 'सेस' माही नभएर प्रतिपा४ वान शिवाय 'सव्व' सघणुन भाणि: व्वं' ही यु. ४३२९ मत यति स वि२ति (ER)नी स्वाहा२ ४या ता. કચ્છ ચક્રવર્તિએ દીક્ષાસ્વીકારમાં નિયમભાવ થાય છે. આ બધું વર્ણન ક્યાં सुधानु हुए ४२ मे मतावा हे छ. 'जाव भुंजए मणुस्सए सुहे' यावत् मनुष्यलय સંબંધી સુખ ભોગવે છે. આ કથન પર્યન્ત ગ્રહણ કરી લેવું. અહીંના ચાવત્પદથી ગ્રહણ કરવા યોગ્ય સંગ્રહ ઔપપાતિક સૂત્રના અગીયારમા સૂત્રથી ગ્રહણ કરી લેવું. તેના અર્થ પણ ત્યાં મેં કરેલ પિયૂષવર્ષિણી ટીકામાંથી સમજી લે. કચ્છ વિજય એ નામ થવાનું આ એક કારણ છે.
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३३९ - परेणान्वयः स च कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह-'महद्धीए जाव पलिओवमट्टिईए परिवसई' . महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति-'महर्दिक' इत्यारभ्य 'पल्योपमस्थितिक' इति पर्यन्तानां तद्विशेषणवाचकपदानां सङ्ग्रहो अत्र वोध्यः सचाष्टमसूञात् कार्य:, तदर्थश्च तत्रैव कृतो ग्राह्यः 'से' स:-कच्छविजयः 'एएणडेणं' एतेनार्थेन अमुना हेतुना 'गोयमा !" गौतम ! 'एवं बुच्चई' एवम् इत्थम् उच्यते कथ्यते 'कच्छे विजए कच्छे विजए' कच्छो विजयः कच्छो विजयः कच्छराजाधिष्ठितत्वाच्च कच्छविजयः कच्छविजय इत्युच्यत इति 'जाव णिच्चे' यावनित्यः नित्यः इति पदपर्यन्तं सूत्रमत्र बोध्यम् तथाहि-कच्छो विजयः खल भदन्त ! कालतः कियचिरं भवति ?, गौतम ! न कदाचिन्नाऽऽसीत् न कदाचिन्न भवति न कदाचिन भविष्यति, अभूच्च भवति च भविष्यति च ध्रुवो नियतः शाश्वतोऽक्षयोऽव्य.
अब दूसरा कारण कहते हैं-'कच्छणामधेज्जेय' कच्छ नामका 'कच्छे इत्थ' कच्छ यहां पर विजय में 'देवे' देव राजा रहता हैं-वह राजा कैसा हैं-'महद्धीए जाव पलिओवमहिइए परिवसई' महद्धिक यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाला निवास करता है । महद्धिक इस पद से आरंभ कर के पल्योपमस्थिति पर्यन्त के तद्विषेषण वाचक पद का संग्रह यहां पर समझलेवें । वह आठवें सूत्र से समझलेवें । उसका अर्थ भी वहां पर लिखा हैं वहां से समझलेवें । 'से' वह कच्छविजय को 'एएटेणं' इस कारण से 'गोयमा!' हे गौतम ! 'एवं वुच्चइ' ऐसा कहा जाता है 'कच्छे विजए कच्छेविजए' यह कच्छविजय है यह कच्छविजय है 'जाव णिच्चे' यावतू वह नित्य है 'नित्य' पद पर्यन्त का सूत्र यहां पर कहलेवें वह इस प्रकार है-हे भगवन् कच्छविजय काल से कितना होता है ? हे गौतम ! वह कदापि नहीं था वैसा नहीं हैं अर्थातू भूतकाल में वह था, वर्तमान में नहीं है वैसाभी नहीं है वर्तमान में विद्यमान है। एवं भविष्य में नहीं होगा वैसा नहीं है । भूतकाल में था, वर्तमान में है एवं भविष्य
वे भानु ४२ मताद छ.-'कच्छणामधेज्जेय' ४२७ नामना 'कच्छे इत्थ' मडीयां ४विश्यमा 'देवे' हे २९ छे. तलव छ? ते मताव छ. 'महद्धीए जाव पलिओवमहिईए परिवसई' भद: यारत् ४ पक्ष्योपभनी स्थितिवाणी निवास ४२ છે. મહદ્ધિક એ પદથી આરંભ કરીને પલ્યોપમની સ્થિતિ સુધીના તેના વિશેષણે બતાવનારા પદેને સંગ્રહ અહીંયાં સમજી લે. તે સંગ્રહ આઠમા સૂત્રમાંથી સમજી લે. तेना म ५ त्यो मत छ. 'से' से ४२७ विन्यने 'एएटेणं' मे ४।२९थी 'गोयमा ! 3 गौतम ! 'एवं वुच्चइ' मेम पामा भावे छे. 'कच्छे विजए कच्छे विजए' मा ४२७ विश्य छ, मा ४२७ विनय छे. 'जाव णिच्चे' यावत् नित्य छे. नित्य ५६ सुधारा सूत्रपा અહીંયાં કહી લે. તે આ પ્રમાણે છે.–હે ભગવન કચ્છ વિજય કાળથી કેટલે કહેવાય છે? હે ગૌતમ!તે કઈ કાળે ન હતું તેમ નથી. અર્થાત્ ભૂતકાળમાં તે હતા. વર્તમાનમાં
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जम्बूदीपप्रतिसूत्र योऽवस्थितो नित्यः' इति सूत्रपर्यवसितम् एतद्विवरणं चतुर्थसूत्राब्दोध्यम् तत्र पायरवेदिका प्रस्तावात स्त्रीत्वेन विवृतम् अत्र पुंस्त्वेन विवरणीयमिति भेदः । अन्यत् समानम् । • इति प्रथमस्य कच्छविजयस्य वर्णनं सम्पूर्णम् ॥९० २६॥
· अथ चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन कच्छविजयउक्तस्तत्रोस्थिताकादक्षचित्रकूटं वर्णयितुमाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि।
मूलम्-कहि णं भंते जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चित्तकूडे णाम वक्खारपवए पण्णत्ते ?, गोयमा ! सीयाए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं कच्छविजयस्ल पुरथिमेणं सुकच्छविजयस्स पञ्चस्थिसेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चित्तकूडे णाम वक्तारपवए पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिपणे सोल. जोयणलहस्साई पंचय पाणउए जोयणसए दुण्णि य एगूणवीसहभाए जोयणलए आयामेणं पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं णीलवंतवासहरपठनयंतणं चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उन्हेणं तवणंतरं च णं मायाए २ उस्सेहोव्वेहपरिवुद्धीए परिवद्धमाणे २ सीथाहाणई अंतेणं पंचजोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पंच गाउयसथाई उन्हेणं अस्सखंघसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे सण्हे जाव पडिरूबे उसओ पासि दोहिं पउनवरदेइयाहिं दोहिं य वणसंडेहिं संपमें होगा। अच, लियन शाश्वत अक्षय अव्यय, अवस्थित एवं नित्य हैं। यह कथन पर्यन्त सघकथक समझलेवें । इसका विवरण चौथे सूत्रे से समझलेवें । वहां पर पनवेदिका के प्रस्ताव ले स्त्रीलिंग से वर्णन किया है। यहां पर पुल्लिग से वर्णन करना यही भेद समझें । और सब कथन समान होते हैं॥२६॥
इस प्रकार पहला कच्छविजय का कथन सम्पूर्ण તે નથી તેમ પણ નથી. વર્તમાનમાં તે વિદ્યમાન છે. તેમજ ભવિષ્ય કાળમાં તે નહીં હોય તેમ પણ નથી. અર્થાત્, ભૂતકાળમાં હતું, વર્તમાનમાં છે, અને ભવિષ્યમાં પણ હશે જ. એટલે કે તે ધ્રુવ, નિયત, શાશ્વત, અક્ષય, અવ્યય, અવસ્થિત અને નિત્ય છે. આ કથન પર્યન્તનું સઘળું કથન અહીંયાં સમજી લેવું. આનું વિશેષ વિવરણ ચેથા સૂત્રમાંથી - સમજી લેવું. ત્યાં આગળ પદ્વવર વેદિકાના પ્રસ્તાવથી તે સ્ત્રીલિંગના નિર્દેશથી વર્ણવેલ છે, અને અહીંયાં પુલિંગના નિર્દેશથી વર્ણન કરવાનું છે એટલે જ ફરક છે. બાકીનું, तमाम ४थन सरभु का छे. ॥ सू. २१ ॥
આ રીતે પહેલા કચ્છ વિજયનું કથન સંપૂર્ણ
का कथन सम्पूर्ण
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थंचक्षस्कारः सं० २७ चित्रकूटवक्षस्कारनिरूपणम्
ફેર્
रिक्खिते, वग्णओ दुव्ह वि, चित्तकूड़स्स णं वक्खार पव्त्रयस्स उपि बहुसमरस णिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयंति, चित्तकूडे णं अंते ! वक्खारपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं जहा- सिद्धाययणकूडे चित्तकूडे कच्छकूडे सुकच्छकूडे, समाउत्तरदाहिणं परुप्परंति, पढमं सीयाए उत्तरेणं चउत्थए नीलवंतस्स वासहरपव्यस्त दाहिणं एत्थ णं चित्रकूडे णामं देवे महिद्धीए जाव रायहाणी से चि ॥सू० २७॥
छाया-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे चित्रकूटो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! सीताया महानद्या उत्तरेण नीलवतो वर्षधर पर्वतस्य दक्षिणेन कच्छविजयस्य पौरस्त्येन सुकच्छविजयस्य पश्चिमेन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे चित्रकूटो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतीचीन विस्तीर्णः षोडशयोजन सहस्राणि पञ्च द्विनवतानि योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशति भागौ योजनस्य आयामेन पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण नीलवद्वर्पधरपर्वतान्ते खलु चत्वारि योजनसहस्राणि ऊर्ध्व मुच्चत्वेन चत्वारि गव्युतशतानि उद्वेधेन, तदनन्तरं च खलु मात्रया २ उत्सेधोद्वेधपरिवृद्धया' परिवर्धमानः २ सीतामहानद्यन्ते खलु पश्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पश्च गच्यूतशतानि उद्वेधेन अश्वस्कन्धसंस्थानसंस्थितः सर्वरत्नमयः अच्छः श्लक्ष्णः यावत् प्रतिरूपः उभयोः पार्श्वयोर्द्वाभ्यां पद्मवर वेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्तः, वर्णको द्वयोरपि, चित्रकूटस्य खलु वक्षस्कारपर्वतस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः यावद् आसते, चित्रकूटे खलु भदन्त ! वक्षस्कारपर्वते कति कूटानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! चत्वारि कूटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा सिद्धायतनकूटं १ चित्रकूटं २ कच्छकूटं ३ सुकच्छकूटम् ४, समानि उत्तरदक्षिणेन परस्परमिति, प्रथमं सीताया उत्तरेण चतुर्थकं नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन अत्र खल चित्रकूटो नाम देवो महर्द्धिको यावत् राजधानी सेति [० २७||
यह कच्छविजय चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत की पश्चिमदिशा में है - अतः अब उस चित्रकूट वक्षस्कार का कथन किया जाता है
'कहि णं भंते । जंबूदीवे दीने महाविदेहे वासे' इत्यादि ।
टीकार्थ- गौतमने प्रभु से पूछा है- 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे આ! કચ્છ વિજય ચિત્રકૂટ, વક્ષસ્કાર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં આવેલ છે. એથી હવે તે ચિત્રકૂટ વક્ષસ્કારનું કથન સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે
'कहिणं ते! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे पासे' इत्यादि
टीठार्थ—गौतसे अलुते या लतना प्रश्न ¥र्यो 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महा
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अम्बुद्वीपमाप्तिसूत्र । टीका-'कहि णं भंते !' इत्यादि-छायागम्यम्, नवरस् 'उचरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणा यतः-उत्तरदक्षिणयो दिशो गयतः दीर्घः-'पाईणपडीणवित्यण्णे' प्राचीनप्रतीचीन विस्तीर्णः-पूर्वपश्चिमयोः दिशो विस्तीर्णः विरतारयुक्तः 'सोलसजोयणमहस्साई पीटग्रयोजन सहस्राणि-पोडशसहस्रयोजनानि 'पंच य पञ्च च 'याणउप' द्विनवतानि द्विनात्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'दुणि य द्वौ च 'एगृणवीसभाए' एकोनविंशतिभागी 'जोय. णस्स' योजनस्य 'आयामेणं' आयामेन-दैव्येण प्रनप्त इति पूर्वेणान्वयः, एवमायामोऽस्य विजयवत् परन्तु 'पंचजोयणसयाई' पञ्च योगनगतानि 'विक्खंभण' विष्कम्भेण-विस्तार णेति विशेषः ननु विष्कम्भे पञ्च योजनशतानीति कथम् ?, इति चेदुच्यते-जम्बूद्वीपपरिवासे' हे भयन्त ! जम्बूदीप नाम के द्वीपमें महाविदेहक्षेत्र में चित्रकूडे णामं वक्खारपव्यए पण्णत्ते' चित्रकूट नामकावक्षस्कार पर्वत कहां पर कहा गया है उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स बासहरपब्व. यस्स दाहिणणं कच्छविजयस्स पुरथिमेणं सुकन्छविजयस्स पच्चस्टिमेणं एत्य गं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे चासे चित्तकडे णामं वक्खारपन्चए पण्णत्ते' हे गौतम! सीतामहानदी की उत्तरदिशा में नीलचन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशा में कच्छविजय की पूर्व दिशा में, और सुकच्छविजय की पश्चिमदिशा में जंबूढीप नाम के द्वीप के भीतर वर्तमान महाविदेहक्षेत्र में चित्रकूटनाम का वक्षस्कार पर्वत कहा गया है । उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे' यह पर्वत उत्तर से दक्षिणतक दीर्घ है तथा पूर्व पश्चिम दिशा में विस्तीर्ण है 'सोलसजोयणसहस्साई पंचय वाणउए जोयणसए दुणिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं' इस का आयाम १६५९२. योजन का है और ५०० सी योजन का इस का विष्कम्भ है 'नीलवंतवासहरपव्ययंतेणं चत्तारि जोयणसयाई विदेहे वासें Red! मुदी५ नाम द्वीपमा महाविड क्षेत्रमा 'चित्तकूड़े णामं वक्सारपन्धए पण्णत्ते' मिळूट नाम पक्ष पर्वत ४या स्थणे मावेस छ ? भेना उत्तरमा प्रभु ४ थे-'गोयमा! सीआए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं कच्छविजयस्स पुरथिमेणं सुकच्छविजयस्स पच्चत्यिमेणं एत्य णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चित्तकूडे णामं वक्खारपव्यए पण्णत्ते' हे गौतम ! सीता महानहानी 6त्त२ हशमां नीस વન્ત વર્ષધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં કચ્છ વિજયની પૂર્વ દિશામાં અને સુકચ્છ વિજયની પશ્ચિમ દિશામાં જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપની અંદર વર્તમાન મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ચિત્રકૂટ નામક पक्ष२४१२ पात मावेस छे. 'उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे' मा त उत्तरथी हक्ष सुधीही छे तमस पूर्व-पश्चिम दिशामा पिस्ता छे. 'सोलस जोयणसहस्साई पंचय वाणउए जायणसए दुण्णिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं पंच जोवणसयाई विक्खंभेणं' मेन मायाम १६५८२२ योजना छ भने ५०० योरन रोमेन
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २७ चित्रकूटवक्षस्कारनिरूपणम् 'माणविस्तारात् पगवतिसहस्रेषु शोधितेषु शेषाणि चत्वारि सहस्त्राणि एकस्मिन् दक्षिणे उत्तरे वा भागेऽष्टौ वक्षस्काराः पर्वताः सन्तीति तैरष्टाभिविभज्यन्ते ततो वक्षस्काराणां पर्वतानां प्रत्येकं प्रागुक्तो विष्कम्भः सम्पद्यत इति, इह विदेहेषु विजयान्तरनदीमुखवनर्वादि विहायान्यत्र सर्वत्र वक्षस्काराः पर्वताः पूर्वपश्चिमदिशो विस्तृताः सन्ति तेच समानविष्कम्मा इति विष्कम्भपरिमाणमेवम्, तत्र पोडशानां विजयानां विस्तारः पडुत्तरचतुशताधिक पञ्च'त्रिंशत्सहस्राणि ३५४९६, षण्णासन्तरनदीनां विस्तारः पश्चाशदधिकसप्तशती ७५०, मेरो विस्तारः पूर्वपश्चिमवर्तिभद्रशालयनस्य चायामः ५४०००, सुखवनयोविस्तार:-चतुश्चत्वारि शदधिकाऽष्टपञ्चाशच्छती ५८४४, सकलसङ्कलनाया १६०००, पण्णवतिसहस्राणि जातानि उद्धं उच्चत्तण, चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेणं' नीलवन्त वर्षधर पर्वत के समीप यह चारसौ योजन की ऊँचाई वाला है तथा इसका उद्वेध चारसौ कोश का है विष्कम्भ जो इसका पांचसौ योजन का कहा गया है वह इस प्रकार से कहा गया है जम्बूद्वीप का परिमाण १ लाख योजन का कहा गया है उसमें से ९६००० कम करनेपर ४००० रह जाते हैं दक्षिणमाग में आठवक्षस्कार पर्वत हैं और उत्तर भागमें आठवक्षस्कार पर्वत है ४००० में आठका भाग देनेपर ५०० आते हैं यही प्रत्येक वक्षस्कारपर्वत का विष्कम्भ आता है इन विदेहों में विजयान्तरनदीमुख वन मेरु आदि को छोड कर अन्यत्र सर्वत्र वक्षस्कार पर्वत पूर्वपश्चिम दिशामें विस्तृत हैं और समान विष्कम्भवाले हैं। इसलिये यह विष्कम्भ का परिमाण है । १६ विजयों का विस्तार ३५४०५ है ६ अन्तरनदियों का विस्तार ७५० है मेरु का विस्तार और पूर्वपश्चिमवर्ती भद्रशालवन का आयान-विस्तार ५४००० है दोनों मुखवनों का विस्तार ५८४४ है इस प्रकार से Fast छ. 'नीलवंतवासहरपव्वयंतेणं चचारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तणं चत्तारि गाउअसयाइं उबहेणं' नसवन्त वर्ष ५२ ५'तनी पासे थे यारसा योगनरेटली ઊંચાઈવાળે છે તેમજ આને ઉદ્દેધ ચારસો ગાઉ જેટલું છે. એને જે વિઠંભ પાંચસો
જન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે તે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. જંબુદ્વીપનું પરિ. માણુ એક લાખ જન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે તેમાંથી ૯૬૦૦૦ બાદ કરીએ તે ૪૦૦૦ શેષ રહે છે. દક્ષિણ ભાગમાં આઠ વક્ષસ્કાર પર્વતે આવેલા છે અને ઉત્તર ભાગમાં આઠ વક્ષસ્કાર પર્વતે આવેલા છે. ૪૮૮૦ માં આઠને ભાગાકાર કરીએ તે ૫૦૦ આવે છે એ જ દરેકે દરેક વક્ષસ્કાર પર્વતને વિષ્ઠભ છે એ વિદેહમાં વિજયાનન્તર નદી મુખ, વન, મેરૂ વગેરેને બાદ કરીને અન્યત્ર સર્વ સ્થળે વક્ષસ્કાર પર્વત પૂર્વ પશ્ચિમ દિશામાં વિસ્તૃત છે અને સમાન વિષ્કલવાળે છે. આમ આ વિધ્વંભનું પરિણામ છે. ૧૬ વિજોને વિસ્તાર ૩૫૪૦૫ છે. ૬ અનન્તર નદીઓને વિસ્તાર ૭૫૦ છે. મેસનો વિસ્તાર અને પૂર્વ પશ્ચિમવતી ભદ્રશાલ વનને આયામ-વિસ્તાર ૫૪૦૦૦ છે, બન્ને મુખ
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे इति, तथा 'णीलवंतवासहरपव्ययंतेणं' नीलबद्वर्पधरपर्वतान्ते खलु-नीलबन्चालकस्य वर्षधरपर्वतस्य अन्ते निकटे अन्तशब्दस्यात्र समीपपरत्वात् तथा चोक्तम् 'अन्तः स्वरूपे निकटे प्रान्ते निश्चय नाशयोः' इति हैमोशे, 'चत्तारि' चत्वारि 'जोयणसयाई योजनशतानि 'उद्धं ऊर्ध्वम् 'उच्चतेणं' उच्चत्वेन 'चत्तारि' चत्वारि 'गाउयसयाई' गगृतशतानि 'उव्वे हेणं' उद्वेधेन भूप्रवेशेन 'तयणंतरं चणं' तदनन्तरं च खल्ल 'मायाए२' मात्रयार-क्रमेण २ 'उस्सेहोव्वेहपरिवुद्धीए' उत्सेधोद्वेधपरिवृद्धया उच्चत्वभूप्रवेशयोः परिवर्धनेन 'परिवद्धमाणे २१ परिबर्द्धमानः २ यत्र यावानुत्सेधः तत्र तच्चतुर्थभाग उद्वेध इति द्वाभ्यां प्रभाराभ्यां पुनः पुनरधिकतरो भवन् 'सीयामाहाणई अंतेणं' सीतामहानद्यन्ते खलु-सीतामहानदीसमीपे 'पंच जोयणसयाई' पञ्च योजनशतानि 'उद्धं' अर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन 'पंचगाउयरायाई पञ्चगव्यूतशतानि-दशशतक्रोशानिति पदद्वयार्थः, 'उव्वेहेण' उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन, अत एव 'अस्मसंधसंठाणसंठीए' यश्वस्कन्धसंस्थानसंस्थितः घोटकस्कन्धाकारेण संस्थितः आदी निम्नत्वादन्ते क्रमेण तुङ्गत्वात् स च 'सबरयणामए' सर्वरत्नमयः-सर्वात्मना रत्नमयः 'अच्छे अच्छ:-आकाशस्फटिकवन्निर्मल: 'सण्हे' श्लक्ष्णः इत्यारभ्य 'जाब पडिरूवे' याव. त्प्रतिरूपः-प्रतिरूप इति पर्यन्तस्तद्वर्णकपदसमूहो वोध्यः स च चतुर्यसूत्राद् ग्राह्यः, इन सबका जोड़ ९६००० होता है इन्ही को जम्बूद्वीप के विस्तार में कम किया गया है-'तयणंतरं च णं मायाए २ उस्लेहोब्वेयपरिवुडीए परिवद्धमाणे२ सीयामहाणदी अंतेणं पंचजोधणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पंचगाउयसयाई उव्हेण अस्सखंधसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे सण्हे जाव पडिरूवे' फिर यह चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत नीलवन्त वर्षधर के पास से क्रमशः उत्सेध और उळेध की परिवृद्धि करता २ सीतामहानदी के पास में इसकी ऊँचाई पांचसौ योजन की हो जाती है और उद्वेध इस का ५०० कोश का हो जाता है इस का आकार जैसा घोड़े का स्कंध होता है वैसा है । यह सर्वात्मना रत्नमय है और आकाश एवं स्फटिक के जैसा वह निर्नल है । श्लक्ष्ण यावत् प्रतिरूप हैं यहां यावत्पदग्राश्य पदों વનેને વિસ્તાર ૫૮૪૪ છે. આ પ્રમાણે એ બધાને સરવાળે ૯૦૦૦ થાય છે. એમને १५ पुदीपना विस्तारमाथी माह ४२पामा मावेस छ. 'तयणतरं च णं मायाए २ उस्ले होव्वेहपरिघुढोए परिवद्धमाणे २ सीया महाणदी अंवेणं पंचजोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेण पंचगाउयसयाई उन्हेण अस्सखंधसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे सण्हे जाव पडि. रूवे' पछी में चित्रकूट पक्षा२ पति नीसवन्त qष धरनी पाथी भश उत्सेध भने ઉધની પરિવૃદ્ધિ કરેતે-કરતે સીતા મહા નદીની પાસે પાંચસો જન જેટલા ઊંચા થઈ જાય છે, અને આને ઉદ્ધવ ૫૦૦ ગાઉ જેટલું થઈ જાય છે. એને આકાર ઘડા જે છે. એ સર્વાત્મના નમય છે અને આકાશ તેમજ સ્ફટિકની જેમ એ નિર્મળ છે. ક્ષણ યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. અહી યાવત્ પદથી જે પદોનું ગ્રહણ થયું છે તે સર્વની
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः रू. २७ चित्रकूटवक्षस्कारनिरूपणम् तदर्धश्च तत्रैव द्रष्टव्यः, 'उभओ पासिं' उभयोः-द्वयोः पार्श्वयोः भागयोः 'दोहिं द्वाभ्यां 'पउपवरवेहयाहि' पबवरवेदिकाभ्याम् 'दोहि य द्वाभ्यां च 'वणसंडेहि' वनपण्डाभ्याम् 'संपरिक्खिने' सम्परिक्षितः सम्यक् प्रकारेण परिवेष्टितः, 'वष्णओ' वर्णकावर्णनपरः पदसमूहः 'दुण्ड वि द्वयोरपि अत्र अन्यत उद्धृत्य न्यसनीयः, तत्र पद्मवरवेदिका वर्णाश्चतुर्यसूत्रात् वनपण्डवर्णश्च पञ्चमसूत्राद् बोध्यः । अथास्य शिखरभागवर्णनमाह-'चित्रकूडस चित्रकटस्य 'ण' खलु 'वक्वारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'उपि' उपरि 'बहुसमरमणिज्जे वहुसयरमणीयः 'भूमिमागे' भूमिमायः ‘पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः 'जाव आसयंति' यावदासते अन्न यावत्पदेन भूमिगागवर्णनं तथा 'तत्थ वह वाणमन्तरा देवाय देवीओय' इति व समासम्, एतच्छाया'तत्र बहवः व्यन्तराः 'वानमन्तरा:' देवाश्च देव्यश्च' इति, तत्र--सूमिभागवर्णनं पष्ठ सूत्रात् संग्राह्यम् तथा-तत्रेत्यादीनां पदानामर्थश्च तत एव वोध्या, । की जानकारी चतुर्थ सूत्र ले करलेनी चाहिये 'उभओ पारिंदोहिं पाउनबरवेड्याहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिस्वित्ते' यह दोनों पावभाग की तरफ दो पनवरवेदिकाओं से एवं दो वनपंडो से अच्छी तरह से घिरा हुआ है । 'वष्णओ' वनपंड और पद्मवरवेदिका का वर्णन यहां पर करलेना चाहिये यह इसका वर्णन क्रमशः पंचम सूत्र और चतुर्थ सूत्र में किया जा चुका है। 'चिन्तकूडस्ल वक्खारपब्वयस्स उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' चित्रकूटनामके वक्षस्कार पर्वत का ऊपर की भूमिका जो भाग है वह बहुसमरमणीय है 'जाव आलयंति' यहां यावत् अनेक देव देवियां आराम किया करती है तथा सोती उठती बैठती रहती हैं। यहां यावत् पद से भूमिभाग के वर्णन करने की एवं 'तत्थ बहवे बाणमंतरा देवाय देवीओय' इस प्रकार से पाठको ग्रहण करने की घात कही गई है भूमिभाग के वर्णन को जानने के लिये छठा सत्र देखना चाहिये 'चित्तकूडे णं वक्खारपन्चए का कूडा पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयना ! . व्याभ्या यतुर्थ सूत्रमाथी नवीन, 'उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहि दोहिय वणसंडेहि संपरिक्खित्ते से तमन्स पाव माग त२३ मे ५२ म्याथी तभर मे वनमाथी सारी शत परिवृत छ. 'वण्णओ' न मने पद्मप२ वहिहानु वन અહીં કરવું જોઈએ એ બન્નેનું વર્ણન ક્રમશઃ પંચમ સૂત્ર અને ચતુર્થ સૂત્રમાં કરવામાં मावत छ. 'चित्तकूडस्स वखारपव्वयस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिगगे पण्णत्ते' यित्र ફૂટ નામક વક્ષસ્કાર પર્વતની ઉપરની ભૂમિકાને જે ભાગ છે. તે બહુ સમરમણીય છે. 'जाव आसयति' मही यावत् मने हव-हवीमा माराम ४२ती २९ छ तभर सूती, 68ती-मेसाती २ छे. मही यावत ५४थी भूमिमानुपान ४२वानी भर 'तत्थ वाहवे वाणमंतरदेवा य देवीओ च' मा प्रभारी 48 अय ४२वाना पात वामां मावली छ. भूमिमाना वन विषे ला माटे छ। सूत्रनी व्याभ्या वांयी नये. 'चित्तकूडे
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र __ अथास्य कूटानां वर्णनं चिकीर्षुः संख्यां प्रदर्शयितुमाह-'चित्तकडे' चित्रकूटे '' खल 'वक्खारपधए' वक्षस्कारपर्वते 'कइ' कति 'कुडा' कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि ? इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' भो गौतम ! 'चत्तारि' चत्वारि 'कूडा' कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, 'तं जहा' तद्यथा 'सिद्धाययणकूडे' सिद्धायतनकूटम् इदं च द्वितीयस्य चित्रकूटस्य दक्षिणस्यां दिशि१, 'चित्तकूडे' चित्रकूटम् इदं च सिद्धायतनकूटस्योत्तरदिशि २, 'कच्छ कूडे' कच्छकूटम् इदं च चित्रकूटस्यास्य उत्तरदिशि ३, 'मुकच्छकूडे' मुकच्छकटम् इदं च कच्छकूटाइक्षिणस्यां दिशि, इमानि च सीता महानद्या नीलवर्षधरपर्वतस्य च कस्यां दिशि सन्तीत्याह-'पढम' प्रथमं सिद्धायतनकूटम् 'सीयाए उत्तरेणं' सीताया उत्तरेण उत्तरदिशि 'चउत्थे' चतुर्थ सुकच्छकूटम् 'नीलवंतस्स वासहरपव्ययस्स' नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिणणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि द्वितीयं चित्रकूटं तु सूत्रोक्तक्रमवलात् सिद्धायतनान्तरं वोध्यम् तृतीयं कच्छकटं च सुकच्छा प्राक अवसेयं । चत्तारि कूडा पण्णत्ता' हे गौतम ! चार कूट कहे गये हैं 'तं जहा' वे इस प्रकार से हैं-'सिद्धाययणकूडे' सिद्धायतनकूट-यह द्वितीय चित्रकूट की दक्षिण दिशामें है 'चितकूडे' चित्रकूट-यह सिद्धायतनकूट की उत्तर दिशा में है 'कच्छकूडे' कच्छक्ट-यह कच्छकूट चित्रकूट की उत्तर दिशा में है। 'सुकच्छकूडे' और चतुर्थ सुकच्छकूट यह कच्छकूट से दक्षिणदिशा में है। ये सीतामहानदी और नीलवान् वर्षधर पर्वत की किस दिशा में हैं अब इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं।
'पढमं सीयाए उत्तरेणं, चउत्थे नीलवंतस्स वालहरपव्वयस्स दाहिणेणं' प्रथम जो सिद्धायतनकूट है वह सीता महानदी की उत्तरदिशा में है। तथा चतुर्थे जो सुकच्छकूट है वह नीलवन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशामें द्वितीय चित्रकूट सूत्र क्रमके बल से सिद्धायतनकट के बाद है तीसरा कच्छकूट सुकच्छकृट के पहिले है । 'एत्थ णं चित्तकूडे णाम देवे महिद्धिए जाव परिवसइ) चित्रकूट जो णं वक्खारपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता' Rid ! मा यिस्ट १९४२ त ५२४८६ फूट मावा छ ? वाममा प्रभुश्री ४ छ-'गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता' गौतम! यार दूटी माला . 'तं जहा ते स्टा प्रभाए छ-'सिद्धाययणकडे सिद्धायतनट द्वितीय वित्रटनी क्षिय हशामा छ. 'चित्तकूडे' चित्रकूट-से सिद्धायतन टनी तर शाम छ. 'कच्छकूडे' ४२७८-20 ४२४छूट चित्रकूटनी उत्तर दिशाम छे. 'सुकच्छकूडे' मन यतु સુકછ ફૂટ એ કચ્છકૂટથી દક્ષિણ દિશામાં આવેલ છે. એ સીતા મહાનદી અને નીલવાનું વર્ષ ५२ पतनी ४६ [
६ २३ मावस छ, तमगे सूत्रधारे २५०टता ४२ छ-'पढम सीयाए उत्तरेणं, चउत्थे नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं' प्रयम २ सिद्धायतन छूट , त સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં આવેલ છે, તેમજ ચતર્થ જે સુચ્છ ફૂટ છે તે નીલવન્ત વર્ષધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં–દ્વિતીય ચિત્રકૂટ સૂત્રોક્ત ક્રમના બળથી સિદ્ધાયતન ફૂટ पछी मावस छ. चीन ४२७ छूट छे ते सु४२७ टनी पडे छ. 'एस्थ णं चित्तकडे णामं देवे
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २७ चित्रकूटवक्षस्कारनिरूपणम्
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अथास्य नामार्थं प्ररूपयितुमाह - 'एत्थ' इत्यादि - अत्र - अस्मिन् चित्रकूटे 'णं' खलु 'चित्तकूडे णामं' चित्रकूटो नाम 'देवे' देवः परिवसति, स च कीदृश: ? इत्यपेक्षायामाह - 'महिद्धीए जाव' महर्द्धिको यावत् यावत्पदेत - 'महाद्युतिकः, महावकः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः' इत्येषां पदानां संग्रहो वोध्यः, तदर्थश्चाप्टमसूत्राद्बोध्यः, तथाऽस्य 'रायहाणी' राजधानी मेरुगिरेरुत्तरस्यां दिशि सीतामहानद्या उदीच्य वक्षस्काराधिपत्यात् एवमग्रिमेष्वपि वक्षस्कारगिरिषु यथासम्भवं वक्तव्यमिति ॥ २७॥ ॥ इति प्रथमवक्षस्कारवर्णनं समाप्तम् ॥
अथ द्वितीयविजयं वर्णयितुमुपक्रमते 'कहि णं भंते !' इत्यादि ।
मूलम् - कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दोवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजय पण्णत्ते ? गोयमा ! सीयाए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहर पव्वयस्स दाहिणेणं गाहावईए महाणईए पच्चत्थिमेणं चित्तकू डस्स वक्खारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजय पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए जहेव कच्छे विजए तव सुकच्छे विजए, णवरं खेमपुरा रायहाणी सुकच्छे राया समुपज्जइ ऐसानाम इसका हुआ है उसमें कारण यह है कि यहां पर चित्रकूट नामका महर्द्धिक यावत् एकपल्योपम की स्थितिवाला देव रहता है 'यहां यावत् पदसे महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिक:' इन पदों का संग्रह हुआ है इन पदों की व्याख्या जानने के लिये अष्टम सूत्र देखना चाहिये इस चित्रकूट नामक देवकी राजधानी मेरु पर्वत की उत्तरदिशा में है । क्योकि यह सीता महानदी की उत्तर दिशा के वक्षस्कार का अधिपति है इसी प्रकार से आगे के वक्षस्कार गिरियों-पर्वतों के सम्बन्ध में भी यथा संभव कहलेना चाहिये ॥ २७ ॥
प्रथमवक्षस्कार वर्णन समाप्त
महिद्धिए जाव परिवसई' चित्रट मेवु नाम ? मेनु सुप्रसिद्ध थयुं छे तेमां अयु भा छे કે અહીં ચિત્રકૂટ નામક મહદ્ધિક યાવત્ એક પુત્ચાપમ જેટલી સ્થિતિવાળા દેવ રહે છે. अडी' न्यावेता यावत् पढथी - 'महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः महानुभावः पल्योपमस्थितिकः' मे यहोनुं ग्रहण थयुं छे. ये यहोनी व्याच्या लगुवा भाटे अष्टभ સૂત્રની વ્યાખ્યા જોવી જોઈ એ. એ ચિત્રકૂટ નામક દેવની રાજધાની મેરુ પર્વતની ઉત્તર દિશામાં છે, કેમકે એ સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશાના વક્ષસ્કારના અધિપતિ છે. આ પ્રમાણે હવે પછીના વક્ષસ્કાર-ગિરિઓ-પવ તાના સબંધમાં પણ યથા સ ́ભવ સ્પષ્ટતા ४री सेवी लेये ॥ सू. २७ ॥
પ્રથમ વક્ષસ્કાર વન સમાપ્ત
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न
...................... जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तहेव लव्वं । कहिणं भंते! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुंडे पण्णते ? गोयमा ! सुकच्छविजयस्स पुरथिमेणं महाकच्छस्त विजयस्स पच्चस्थिमेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थणं जंबुद्दीने दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुंडे णाम कुंडे पक्षणत्ते, जहेव रोहियंसाकुंडे तहेव जाच गाहावइ दीवे भवणे, तस्स णं गाहावइस्ल कुंडस्ल दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गाहाबई महाणई पवूढा समाणी सुकच्छमहाकच्छविजए दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिला सहस्तेहिं लमग्गा दाहिणेणं सीयं महाणइं समप्पेइ, गाहावई णं महाणई पबहेया मुहेय सव्वस्थ समा पणवीसं जोयणसयं विक्खंभेणं अद्धाइजाई जोषणाई उव्वेहेणं उसओ पासिं दोहि य पउमवरवेइयाहिं दोहिय वनसंडेहिं जाव दुपहवि वण्णओ इति । कहि णं भंते ! महाविदेहे वाले महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते !, गोयमा ! पीलवंतस्त वालहरपश्यस्त दाहिणेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं पउमकूडस्स वक्खाकव्वाल पच्चस्थिमेणं गाहावईए पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे जहाकच्छे णासं विजए पण्णत्ते, सेसं जहा कच्छविजयस्ल जाव महाकच्छे इस्थ देवे महिद्धीए अटोय भाणियो। कहिणं भंते ! महा विदेहे वाले पउसकूडे जासं वक्खारपचए पण्णते?, गोयमा ! णीलवंतस्ल दक्षिणेनं सोयाए महाणईए उत्तरेणं महाकच्छस्स पुरस्थिमेणं कच्छावईए पञ्चस्थिनेणं एत्थ णं महाविदेहे वाले पउमकूडे णामं वक्खारपयर पण्णते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविस्थिपणे सेलं जहा चित्रकूडस्ल जाव आलयंति, पउमकूडे चत्तारि कूडा पण्णता, तं जहा सिद्धाययणकूडे १ पउमकूड २ महाकच्छकूडे ३ कच्छावइकूडे ४ एवं जाव अट्रो, पउसकडे इत्थ देवे महद्धीए पलिओवमट्रिईए परिवसइ,से तेपाटेणं गोयमा ! एवं उच्चइ । कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे कच्छगावई णामं विजए पण्णत्ते ? गोयमा ! णीलवंतस्स दाहिणेणं सीयाए महा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीयसुकच्छदिजयनिरूपणम् ३४६ पईए उत्तरेणं दहावईए महाणईए पच्चरिथमेणं पउमकूडस्ल पुरस्थि. मेणं इत्थ णं महाविदेहे वासे कच्छावई णामं विजए पणत्ते, उत्तर दाहिणायए पाईणपडीणवित्थपणे सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स जाव कच्छावई य इत्थ देवे, कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे दहावई कुंडे णामं कुंडे पणत्ते ?, गोषमा ! आवत्तस्स विजयस्ल पञ्चस्थिभेणं कच्छगावईए विजयस्त पुरस्थिमेणं णीलवंतस्त दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं महाविदेहे वाले दहावई कुंडे णाम कुंडे पण्णत्ते, सेसं जहा गाहावई कुंडस्ल जाव अटो, तस्स णं दहावईकुंडस्स दाहिणेणं तोरणेणं दहावई महाणई पवूढा समाणी कच्छावई आवत्ते विजए दुहा विभयमाणीर दाहिणेणं लीयं महाणई समप्पेइ, सेलं जहा गाहावईए । कहि णं संते ! महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पण्णत्ते ? गोयमा! णीलतस्स वासहरपवयस्स दाहिणेणं सोयाए महाणईए उत्तरेणं गलिगकडस्स वनखारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं दहावईए महाणईए पुरस्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वाले आवत्ते णामं विजए पण्णत्ते, सेसं जहा कच्छस्ल विजयस्त इति । _____ कहि गं भंते ! महाविदेहे वासे गलिणकूड णानं वक्खारपव्वए पण्णते ?, गोयना ! णीलवंतत्त दाहिणणं सीयाए उत्तरेणं मंगलावइस्स विजयस्त पञ्चत्थिमेणं आरत्तस्ल विजयस्स पुरस्थिमेणं इत्थ णं महाविदेहे वाले गलिगकूडे गाम वखारपठभए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणमिस्थिपणे लेसं जहा चित्तकूडस्स जाव आसयंति णलिणकडेणं मंते ! कई छूडा पण्णता ?, गोयमा! चत्तारि कडा पषणता, तं जहा-सिद्धापयण कूडे गलिणकूडे आवत्तकडे संगलाबत्तकूडे, एए झूठा पंचसइया रायहाणीओ उत्तरेण ।
कहिणं भंते ! नहाविदेहे बाले मंगलाक्त्ते णामं विजए पण्णते ?, गोयमा ! णीलवंतस्स दक्षिणेणं सोयाए उत्तरेणं गलिणकूडस्त पुर
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे स्थिमेणं पंकावईए पच्चत्थिमेणं एत्थणं मंगलावत्ते णामं विजए पण्णत्ते, जहा कच्छस्ल विजए तहा एसो भाणियन्बो जाव मंगला वत्तेय इत्थ देवे परिवसइ, से एएटेणं ।
कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे पंकावई कुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते?, गोयमा ! मंगलावत्तस्त पुरस्थिमेणं पुक्खलविजयस्स पञ्चस्थिमेणं णीलवंतस्स दाहिणे णितंवे, एत्थ णं पंकावई जाव कुडे पणते तं चेव गाहावइकुंडप्पमाणं जाव मंगलवत्त पुक्खलावत्तविजए दुहा विभयसाणी२ अवसेसं तं चेव जं चेव गाहावईए । कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे पुक्खलावत्ते णामं विजए पण्णत्ते ?, गोयमा ! णीलवंतस्स दाहिणेणं सीयाए उत्तरेणं पंकाईए पुरस्थिमेणं एक्सेलस्स वक्खारपव्वयस्ल पच्चत्थिमेणं, एत्थ ण पुक्खलावत्ते णांम विजए पपणत्ते जहा कच्छविजए तहा भाणियव्वं जाव पुक्खले य इत्यदेवे महिड्डीए पलिओवमटिइए परिवसइ, से एएणटेणं ।
कहि गं अंते ! महाविदेहे वासे एगसेले णामं वक्खारपदए पण्णत्ते ? गोयमा ! पुक्खलावत्तचकवादिविजयस्स पुरस्थिमेणं पोक्खलावइ चकवाहिविजयस्स पञ्चस्थिमेणं णीलवंतस्त दक्खिणेणं सीयाए उत्तरेणं, एत्थ णं एगसेले णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते, चित्तकूडगमेणं णेयव्यो जाव देवा आसयंति, चत्तारि कूड़ा, तं जहा-सिद्धाययणकूडे एगसेलकूडे पुक्खलावत्तकूडे पुक्खलावईकडे, कूडाणं तं चेव पंचसइयं परिमाणं जाव एगसेले य देवे महिद्धीए।
कहि भंते ! महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं चकवाटि. विजए पण्णत्ते ?, गोयमा ! णीलवंतस्स दक्षिणेणं सीयाए उत्तरेणं उत्तरिल्लस्स सीयामुहवणस्स पञ्चस्थिमेणं एगसेलस्स वक्खारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं, एत्थणं महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं विजए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए एवं जहा कच्छविजयस्स जाव पुक्खलावई य इत्थ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीयसुकच्छविजयनिरूपणम् ___ ३५१ देवे परिवसइ, एएणटेणं । ____कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे सीयाए महाणईए उत्तरिल्ले सोयामुहवणे णामं वणे पण्णत्ते ?, गोयमा! भीलवंतस्स दक्खिणेणं सीयाए उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पञ्चस्थिमेणं पुक्खलावइ चक्कवहिविजयस्स पुरथिमेगं, सीयामुहवणे णाम वणे पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिपणे सोलसजोयणसहस्साइं पंच य बाणउए जोयणसए दोणि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं सीयाए महाणईए अंतेणं दो जोयणसहस्साइं नव य बावीसे जोयणसए विक्खंभेणं तयणंतरं च णं मायाए २ परिहायमाणे २ णीलवंतवासहरपवयंतेणं एगं एगूणवीसइभागं जोयणस्स विक्खंभेणंति, से गं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं संपरिक्खित्तं वण्णओ सीयामुहवणस्स जाव देवा आसयंति, एवं उत्तरिल्लं पासं समत्तं । विजया भणिया रायहाणीओ इमाओ-खेमा खेमपुरार चेव, रिट्टा३ रिट्रपुरा४ तहा । खग्गी ५ मंजसा ६ अवि य ७ पुंडरीगिणो ८॥१॥
सोलसविजाहरसेढीओ तावइयाओ अभियोगसेढीओ सव्वाओ इमाओ ईसाणस्स, सव्वेसु विजएसु कच्छवत्तश्या जाव अटो रायाणो सरिसणामगा विजएसु लोलसण्हं वक्खारपत्रयाणं चित्तकूडवत्तव्वया जाव कूडा चत्तारि २ बारसण्हं गईणं गाहावइ वत्तव्वया जाव उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं वणसंडेहिय वण्णओ ॥सू०२८॥ ___ छाया-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे .सुकच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः?, गौतम ! सीताया महानद्याः उत्तरेणं नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन ग्राहावत्या महानद्याः पश्चिमेन चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे सुकच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः यथैव कच्छो विजयः तथैव सुकच्छो विजयः, नवरं क्षेमपुरा राजधानी सुकच्छो राजा समुत्पश्यते तथैव सर्वम् । क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे ग्राहावतीकुण्डं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मुकच्छविजयस्य पौरस्त्येन महाकच्छस्य विजयस्य पश्चिमेन नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्ये नितम्वे अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे ग्राहावतीकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् यथैव रोहितां
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शाकुण्डं तथैव यावत् ग्राहावतीद्वीपं भवनम् तस्य खल ग्राहावत्याः कुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन ब्राहावती महानदी प्रव्यूढा सती सुरुच्छमहाकच्छविजय द्विवा विभज्यमाना २ अष्टाविंशत्या सलिलासहस्रैः समग्रा दक्षिणेन सीतां मगनदीं समाप्नोति, ग्रानवत्याः खलु महानद्याः प्रवहे च सुखे च सर्वत्र समा पञ्चविंशानि योजनशतानि विस्भेण भर्द्धद्वतीयानि योजनानि उद्वेधेन उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां च पचवरछेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च चण्डां यावद् द्वयोरपि वर्णकः इति । का खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे मटाच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नीलवतो वर्षभरपर्वतस्य दक्षिणेन सीताया महानया उत्तरेण पक्ष्मकूटस्य वक्षस्कार पर्वतस्य पश्चिमेन ग्रामात्रत्या महानद्याः पौरस्पेन भन खलु महाविदेहे व महाकच्छो नाम विजयः प्रज्ञतः, शेषं यथा फच्छविजयस्य यावद् महाकच्छ्रोत्र देवो महर्द्धिकः अर्थश्च भणितव्यः । क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे पदमकुटो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया महानद्याः उत्तरेण महाकच्छस्य पौरस्त्येन कच्छावत्याः पश्चिमेन अत्र खजु महाविदेहे वर्षे पक्ष्मकूटो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः शेषं यथा चित्रकूटस्य यावदासते, पक्ष्मकृदे चत्वारि कूटानि प्रज्ञप्तानि तथा सिद्धायतनकूटं १ पदमकूटं २ महाकच्छकूटं ३ फच्छायती कूटम् ४ एवं यावद् अर्थः, पक्ष्मकूटोऽत्र देवो महर्द्धिकः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते खलु भदन्त ! महाविदेदे वर्षे कच्छावती नाम विजयः प्रज्ञप्तः, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया महानद्या उत्तरेण हृदावत्या महानद्याः पश्चिमेन पक्ष्मकूटस्य पौरस्त्येन अत्र खल महाविदेहे वर्षे कच्छावती नाम विजयः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणागतः प्राचीनप्रतीचीन विस्तीर्णः शेषं यथा कच्छस्य विजयस्य यावत् कच्छाaat चात्र देवः, क्ा खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे हृढावती कुण्डं नाम कुडं प्रज्ञसम्, गौतम ! आवर्तस्य विजयस्य पश्चिमेन कच्छकावत्या विजयस्य पौरस्त्येन नीलवतोदाक्षिणात्ये नितम्बे अत्र खलु महाविदेहे वर्षे ह्रदावतीकुण्डं नामकुण्डं प्रज्ञम्, शेषं यथा ग्राहावतीकुण्डस्य यावद् अर्थः, तस्य खलु ह्रदावतीकुण्डस्य दक्षिणेन तोरणेन हृदावती महानदी प्रव्युहासती कच्छावत्यात्रत विजय द्विधा विभजमाना २ दक्षिणेन सीतां महानदीं समाप्नोति शेषं यथा ग्राहावत्याः ।
क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे आवर्ती नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नीलवतो वर्षधर पर्वतस्य दक्षिणेन सीताया महानद्या उत्तरेण नलिनक्टस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन इदावत्या महानद्याः पौरस्त्येन अत्र खल महाविदेहे वर्षे आवर्ती नाम विजयः प्रज्ञप्तः, शेषं यथा कच्छस्य विजयस्य इति । क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे नलिनकूटो नाम वक्षस्कारपर्वतः ः प्रज्ञप्तः १, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण मङ्गलावत्याः विजयस्य पश्चिमेन आवर्त्तस्य विजयस्य पौरस्त्येन अत्र खलु महाविदेहे वर्षे नलिनकूटो नाम वक्षस्कार पर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः शेषं यथा चित्रकूटस्य यावत् आसते, नलिनकूटे खलु भदन्त ! कतिकूटानि ग्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! चत्वारि कूटानि प्रज्ञप्तानि,
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम्
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तद्यथा - सिद्धायतनकुटं १ नलिनकूटं २ आवर्त्तकूटं ३ मङ्गलावर्त्तकूटम् ४ एतानि कूटानि पश्चशतिकाराजधान्य उत्तरेण, क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे मङ्गालावर्त्तो नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण नलिनकूटस्य पौरस्त्येन पङ्कावत्याः पश्चिमेन, अत्र खलु मङ्गालवर्त्तो नाम विजयः प्रज्ञप्तः, यथा कच्छस्य विजयः तथा एप भणितव्यः यावद् मङ्गलावत्तत्र देवः परिवसति, स एतेनार्थेन० ।
क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे पङ्कावती कुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मङ्गलावर्त्तस्य पौरस्त्येन पुष्कलविजयरय पश्चिमेन नीलवतो दाक्षिणात्ये नितम्बे अत्र खलु पङ्कावती यावत् कुण्डं प्रज्ञप्तम्, तदेव ग्राहावाती कुण्डप्रमाणं यावत् मङ्गलावर्त्त पुष्कलावर्त विजयौ द्विधा विभजमाना २ अवशेषं तदेव यदेव ग्राहावत्याः ।
क्व खलु भदन्त | महाविदेहे वर्षे पुष्कलावत नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण पङ्कावत्याः पौरस्त्येन एकशैलस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन, अत्र खल पुष्कलावत नाम विजयः प्रज्ञप्तः, यथा कच्छविजयः तथा भणितव्यम् यावत् पुष्कलोऽत्र देवो महर्द्धिकः पल्योपमस्थितिकः प्रतिवसति स एतेनार्थेन० ।
क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे एकशैलो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः १, गौतम ! पुष्कलावर्त्त चक्रवर्तिविजयस्य पौरस्त्येन पुष्कलावती चक्रवर्तिविजयस्य पश्चिमेन नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण, अत्र खलु एकशैलो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, चित्रकूटगमेन नेतव्यो यावद् देवा असते, चत्वारि कूटानि तद्यथा- सिद्धायतनकूटम् १ एकशैलकूटं २ पुष्कलावर्त्तकूटं ३ पुष्कलावीकूटम् ४, कटानां तदेव पञ्चशतिकं प्रमाणं यावद् एकशैलोऽत्रदेवो महर्द्धिकः । क्व खलु भदन्त ! महाविदे हे वर्षे पुष्कलावती नाम चक्रवर्ति विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण औत्तराहस्य सीतामुखवनस्य पश्चिमेन एकशैलस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन, अत्र खलु महाविदेहे वर्षे पुष्कलावती नाम विजयः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायनः एवं यथा कच्छ विजयस्य यावत् पुष्कलावती चात्र देवः परिवसति, एतेनार्थेन ० ।
क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे सीताया महानद्या औत्तराहे सीतामुखवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रश्य पश्चिमेन पुष्कलावती चक्रवर्तिविजयस्य पौरस्त्येन, अत्र खलु सीतामुखवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम्, उत्तरदक्षिणायतं प्राचीनप्रतीची विस्तीर्ण पोडश योजनमहस्राणि पञ्च च द्वानवतानि योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य आयामेन सीताया महानद्या अन्तेन योजनसहसाणि नत्र च द्वाविंशानि योजनशतानि विष्कम्भेण तदनन्तरं च खलु मात्रया २ परिहीयमानं २ नीलवपंधरपर्वतान्तेन एकोनविंशतिभागं योजनस्य विष्कम्भेणेति, तत् खलु एकया पद्मवरवे - दिकया एकेन च वनपण्डेन संपरिक्षिप्तम् वर्णकः सीतामुखवनस्य यावद् देवा आसते, एवमौतराहं पार्श्व समाप्तम् । विजया भणिताः । राजधान्य इमाः - क्षेमा १ क्षेमपुरा २ चैव अरिष्ठा ३ अरिष्ठपुर ४ तथा । खड्गी ५ मज्जूपा ६ अपि च औषधी ७ पुण्डरीकिणी ८ ॥ १ ॥
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्रे पोडश विद्याधरश्रेण्यः तावत्य आभियोग्यश्रेणयः सर्वा इमा ईशानस्य, सर्वेषु विजयेषु कच्छवक्तव्यता यावत् अर्थों राजानः सदृशनामकाः विजयेपु पोडशानां वक्षस्कारपर्वतानां चित्रकृटवक्तव्यता यावत् कूटानि चत्वारि २ द्वादशानां नदीनां ग्राहावती वक्तव्यता यावद उभयोः पार्थयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां वनपण्डाभ्यां चल, वर्णकः ॥ ० २८॥
टीका-'कहि णं भंते !' इत्यादि-कब खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'सुकच्छे णाम विजए' मुकच्छो नाम विजयः 'पण्णत्ते प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्न भगवानाह-'गोयमा !' इत्याद्युत्तरसूत्रं सुगमं कच्छवद्वर्णनीयत्वात् ‘णवरं'
द्वितीय विजय वक्षस्कार का वर्णन 'कहि णं भंते ! जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे' इत्यादि
टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतम प्रभु से ऐसा पूछ रहे हैं-'कहि णं भंते । जं. हीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजए पण्णत्ते' हे भदन्त ! इल जम्बूद्वीप नाम के द्वीपमें जो महाविदेह क्षेत्र है उसमें सुकच्छनामका विजय कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! सीयाए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं गाहावईए महाणईए पच्चत्थिमेणं चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं जंबूद्दीवे दीवे-महाविदेहे वासे सुकच्छे. णामं विजए पण्णत्ते' हे गौतम । सीता महानदीकी पश्चिम दिशामें, नीलवन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशामें ग्राहावती महानदी की पश्चिम दिशामें एवं चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत की पूर्व दिशामें जम्बूडीप नामके द्वीप के भीतर वर्तमान महाविदेह क्षेत्रमें सुकच्छ नामका विजय कहा गया है 'उत्तरदाहिणायए जहेव
દ્વિતીય વિયવક્ષસ્કારનું વર્ણન 'कहि णं भंते ! वुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे' इत्यादि
स-मा सूत्रप गौतभस्वामी प्रसुन माती प्रश्न ४२ छ -'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजए पण्णत्ते' 3 Raa ! पूदी नाम: દ્વીપમાં જે મહાવિદેહ ક્ષેત્ર છે, તેમાં સુકચ્છ નામક વિજય કયા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાममा प्रमुडे -'गोयमा ! सीयाए महाणईए उत्तरेग णीलवंतस्स वासहरपव्वयस् दाहिणेणं गाहावईए महाणईए पच्चत्थिमेणं चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ ण जंबूहीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णाम विजए पण्णत्ते' गौतम ! सीता महानहीनी उत्तर शिमi aleવત વર્ષધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં ગાહાવતી મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ ચિત્રકૂટ વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં, જમ્બુદ્વીપનામક દ્વીપની અંદર વર્તમાન મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં सु४२७ नाम विन्य मावेल छ. 'उत्तरदाहिणायए जहेव कच्छे विजए तहेव सुकच्छे णाम विजए पण्णत्ते' मा सुच्छ नाम विनय उत्तरथी दक्षिy &ा सुधी मायती छे भने पूर्वथा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम् ३५५ नवर केवलम् 'खेमपुरा रायहाणी' क्षेमपुरा राजधानी, तत्र 'सुकच्छे राया' सुकच्छो राजा सुकच्छ नामा राजा चक्रवर्ती 'समुप्पज्जई' समुत्पद्यते विजयस्वायत्तीकरणादिकं तहेव' तथैवकच्छवदेव 'सळ' सर्व वाच्यमितिशेषः । अथ प्रथमान्तरनदी वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं मंते' इत्यादि-क्व खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'गाहावइकुंडे' ग्राहावतीकुण्डं ग्राहावत्याख्यान्तरनदी प्रभवस्थानं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! 'सुकच्छविजयस्स' सुकच्छविजयस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'महाकच्छस्स विजयस्स' महाकच्छस्य विजयस्य 'पञ्चस्थिमेणं' पश्चिमेनपश्चिमदिशि 'णीलवंतस्प वासहरपव्ययस्स' नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्ये 'णितंवे' नितम्बे मध्यभागे 'इत्थ' अत्र अत्रान्तरे मध्यभागसमीपे 'ण' खलु 'जंबूद्दीवे कच्छेविजए तहेव सुकच्छे णामं विजए पण्णत्ते' यह सुकच्छ नामका विजय उत्तर से दक्षिण दिशातक आयत लम्बा है और पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण है इत्यादि रूपसे सब कथन कच्छ विजय प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसाही वह सब कथन इस सुकच्छ विजय प्रकरण में भी करलेना चाहिये 'णवरं खेमपुरा रायहाणी, सुकच्छे राया, सत्रुप्पज्जइ तहेव सव्यं परन्तु यहां पर क्षेमपुरा नामकी राजधानी है उसमें सुकच्छ नामका चक्रवर्ती राजा शासन करता है इत्यादि सब कथन जैसा कच्छ विजय प्रकरण में कच्छ चक्रवर्ती राजा के सम्बन्ध में किया जा चुका है वैसाही वह सब कथन यहां पर भी कहलेना चाहिये।। ___'कहि णं भंते ! जवुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुडे पण्णत्ते' हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके इस द्वीपमें वर्तमान महाविदेह क्षेत्र में ग्राहावती नामका कुड कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा। सुकच्छ विजयस्त पुरथिमेणं महाकच्छस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं णीलवंतस्स बासहरपव्ययस्ल दाहिणिल्ले णितंवे एत्थ णं जवुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे પશ્ચિમ સુધી વિસ્તર્ણ છે. ઈત્યાદિ રૂપથી સર્વ કથન ક૭ વિજય પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેલું છે તેવું જ બધું કથન આ સુકચ્છ વિજય પ્રકરણમાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. 'णवरं खेमपुरा रायहाणी सुकच्छे राया, समुप्पज्जइ तहेव सव्वं' ५ मही मधुश नाम: રાજધાની છે તેમાં સુકચ્છ નામક ચક્રવર્તી રાજા શાસન કરે છે, વગેરે બધું કથન જેવું કચ્છ વિજય પ્રકરણમાં કચછ ચક્રવતી રાજાના સંબંધમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. તેવું જ બધું કથન અહીં પણ સમજી લેવું જોઈએ.
'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुंडे पण्णत्ते' ! - દ્વીપ નામક આ દ્વીપમાં વર્તમાન મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ગ્રાહાવતી નામક કુંડ ક્યા સ્થળે भाव छ ? सेना पक्षमा प्रभु ४९ छ-'गोयमा! सुकच्छविजयस्स पुरत्थिमेणं महा कच्छस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं णीलवंतस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणिल्ले णितंवे एत्यणं जंबु
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___— जम्बूद्वीपप्रचप्तिसूत्र दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'गाहावइकुंडं णामं कुण्डं' ग्राहावती. कुण्डं नाम कुण्डं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तत् कीदृशम् ? इत्यपेक्षायामाह-'जहेब रोहियंसाकुंढे तहेव' ययेवा रोहितांगा कुण्डं तथैव-अयमात्र:-रोरितांशाकुण्डं यथा-'सवीसं जोयणसयं आयामविक्खंभेणं तिणि असीए जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं दस जोयणाई उव्येहेणं' इत्यादि वर्णकेन वर्णितं तथैवेदमपि वर्णनीयमिति किम्पर्यन्तम् इत्यपेक्षायामाह-'जाव गाहावइ दीवे भवणे' यावद् ग्राहावती द्वीपं भवनम् ग्राहावत्या द्वीपं भवनं चाभिव्याप्य वर्णनीयम् अस्योपलक्षणतया तन्नामार्थ सूत्रमपीह वोध्यम् तथाहि-'से केणटेणं भंते एवं बुच्चइ-गाहावई दीवे गाहावई दीवे ?, गोयमा ! गाहावई दीवे णं बहुइं उप्पलाई जाव सहस्तपत्ताई गाहावइ दीपसमप्पभाई समवण्णाई' इत्यादि एतच्छाया-अथ केनार्थेन भदन्त ! एवजुच्यते-ग्राहावती द्वीपो ग्राहावती द्वीप:१, गौतम ! ग्राहावती द्वीपे खलु वहनि उत्पलानि यावत् सहस्रपत्राणि ग्राहावती द्वीपसमप्रभाणि समवर्णानि' इत्यादि, एतद्वन्याख्या सुममा, गाहावइकुंडे णाम कुंडे पण्णत्ते' हे गौतम ! सुकच्छ विजयकी पूर्व दिशामें महा कच्छ विजयकी पश्चिम दिशामें नीलवन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशामें वर्तमान नितम्ब के ऊपर-ठीक मध्यभाग के ऊपर-जम्बूदीप नामके द्वीपमें वर्तमान महाविदेह क्षेत्रने ग्राहावती कुड नामका कुण्ड कहा गया है 'जहेव रोहिअंसा कूडे तहेव जाच गाहावइदी भवणे' रोहितांशा कुण्ड की तरह इसका आयाम और विष्कम्भ १२० योजन का है परिक्षेप इसका अछकम ३८० योजन का है १० योजन का उद्वेध है इत्यादि रूप से सब वर्णन इसका करलेना चाहिये ग्राहावती नामका इसमें दीप है और उसमें इसी नामका भवन है। इस द्वीपका ऐसा नाम किस कारण से हुआ है ? तो इस सम्बन्ध में ऐप्ता कह लेना चाहिये कि ग्राहावती द्वीप में अनेक उत्पल यावत् सहनपत्र पाहावती डोपकी जैसी प्रभावाले होते हैं । अतः इसका नाम ग्राहावती द्वीप हुआ है तथा और भी जो कथन दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकु डे णाम कुडे पण ते' 3 जोनम ! सु४२७ विना पूर्ण દિશામાં મહાકછ વિજયની પશ્ચિમ દિશામાં નીલવન્ત વર્ષધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં વર્તમાન નિતંબની ઉપર ઠીક મધ્યાગની ઉપર જમ્બુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં વર્તમાન મહાविड क्षेत्रमा पाडवी 3 नाम ॐ माल . 'जहेव रोहिअंसाकुडे तहेव जाव गाहावइ दीवे भवणे' शखितांनी म मेना गायाम मन Com १२० यान જેટલું છે. એને પરિક્ષેપ કંઈક અલ્પ ૩૮૦ એજન જેટલો છે. ૧૦ એજન જેટલે એને ઉદ્દેધ છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં બધું વર્ણન કરી લેવું જોઈએ. ચાત ગ્રાહાવતી નામે એમાં એક કપ છે અને તેમાં એજ નામવાળું ભવન છે. એ દ્વીપનું નામ ગ્રાહાવતી કેવી રીતે સુપ્રસિદ્ધ થયું? તે એ સંબંધમાં આટલું જાણી લેવું જોઈએ કે ગ્રાહાવતી દ્વીપમાં અનેક ઉત્પલ યાવત્ સહમ્રપત્ર ગ્રાહાતી હીપના જેવા પ્રભાવાળાં હોય છે. એથી એનું
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २८ द्वितीय सुकच्छदिजयनिरूपणम् ३५७ ___ अथास्माद् ग्राहावती कुण्डानिः सरन्ती स्रोतस्वतीं वर्णयितुमुपक्रमते-'तस्स णं तस्य खलु 'गाहावईस' ग्राहावत्याः 'कुंठस्स' कुण्डस्य 'दाहिणिल्लेणं' दाक्षिणात्येन दक्षिणदिग्भवेन 'तोरणेणं' तोरणेन बहिद्वारेण 'गाहावई' ग्राहावतो 'महाणई महानदी 'पवूढा' प्रव्यूहा निर्गता 'समाणी' सती 'मुकच्छमहाकच्छत्रिजए' सुकच्छमहाकच्छविजयौ 'दुहा' द्विधा 'विभयमाणी२' विभजमाना२ विभक्तौ कुर्वाणार 'अट्टावीसाए' अष्टाविंशत्या 'सलिलासहस्सेहि' सलिलासहस्रः नदी सहस्त्रैः 'समग्गा' समग्रा सम्पूर्णा मेरोः 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिण भागेन 'सीयं महाणई' सीतां महानदीम् 'समप्पेइ समाप्नोति समुपैति अथास्या ग्राहावत्या विष्कम्भादिकमाह-'गाहावई ण' ग्राहावती खलु 'महाणई' महानदी 'पवहे य मुहे य' प्रवहे-ग्राहावती कुण्डानिर्गमे च पुनः मुखे-सीतामहानदी प्रवेशे च 'सव्वत्थ' सर्वत्र मुख प्रवहयोस्तथा तदतिरिक्तेऽपि स्थाने 'समा' समानविष्कम्भो द्वेषा प्रज्ञप्ता, एतदेव प्रदर्शयति-पणवीसं जोयणसयं पञ्चविंशं-पञ्चविंशत्याधिक योजनशतम् 'विक्खंभेण' विष्कम्भेण-विस्तारेण 'अद्धाइजाई' अर्द्धवतीयानि 'जोयणाई' योजनानि 'उव्वे हेणं' उद्वेधेन-भूप्रवे शेन उण्डत्वेन सपादशतयोजनानां पञ्चाशत्तमभागे एतावत एव मानस्य लाभात्, पृथुलता च पूर्ववत्, तथाहि-महाविदेहेषु कुरुमेरुभद्रशालविजयवक्षस्कारइस नामनिक्षेप में जैसा पीछे कहा जा चुका है वैसा ही करलेनी चाहियेयावत् यह शाश्वत नाम वाला है। ___ 'तस्लणं गाहावइस्ल कुंडस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गाहावई महाणई पबूढा समाणी सुकच्छमहाकच्छविजए दुहा विभजमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा दाहिणणं सीधे महाणइं समप्पेई' उस ग्राहावती कुण्ड के दक्षिणदिग्वर्ती तोरण से ग्राहावती नामकी नदी निकली है और सुकच्छ और महाकच्छ विजयों को विभक्त करती हुइ यह २८ हजार नदियों से परिपूर्ण होकर दक्षिण भाग से सीता महानदी में प्रविष्ट हो गई है 'गाहावईणं महाणई पवहे अमुहें य सम्वत्थ समा पणवीसं जोयणसयं विपखंभेणं अद्धाइज्जाइ जोयणाई उन्हेणं, उभओ पासिं दोहिय पउभवरवेइआहिं दोहि अ वण નામ ગ્રાહાવતી દ્વિપ તરીકે સુપ્રસિદ્ધ થયું. તેમજ બીજું જે કંઈ કથન એ નામ નિક્ષેપમાં સંભવી શકતું હોય તે પહેલાં જેમ કહેવામાં આવ્યું છે તેવું જ સમજી લેવું જોઈએ. ચાવત એ શાશ્વત નામવાળે કપ છે.
तरसणे गाहावइस्स कुंडस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गाहावई महाणई पढा सगाणी सुकच्छ महाकच्छविजए दुहा विभजमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्से हिं समग्गा दाहिणेणं सी महाणई समापेइ' ते पाडापती नीक्षिणे मावेस तरथी श्राडापती नाम नही नीती છે, અને સુકચ્છ અને મહાક૭ વિજોને વિભક્ત કરતી એ ૨૮ હજાર નદીઓથી પરિ પૂર્ણ થઈને દક્ષિણ ભાગથી સીતા મહાનદીમાં પ્રવિષ્ટ થઈ ગઈ છે.
'गाहावईणं महाणई पवहे अ मुहे य सम्वत्थ समापणवीसं जोयणसय विक्खंभेणं
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मुखवनातिरिक्तेषु सर्वत्रान्तरनद्यः सन्ति, ताश्च पूर्वपाश्चिमविस्तृताः समविस्तारप्रमाणाः, ततश्चैवं प्रमाणम्-तत्र-मेरुविष्कम्भस्य पूर्वपश्चिमवति भद्रशालयनयोरायामस्य च प्रमाणं चतुः पञ्चाशत्सहस्राणि ५४०००, विजयविस्तारश्च पडुत्तरचतुः शताधिकपञ्चत्रिंशत् सहस्राणि ३५४०६, वक्षरकारपर्वतविस्तारः चखारि सहमाणि ४०००, मुखवनयोविस्तारः ५८४४ चतुश्चत्वारिंशदधिकाष्टगत्युत्तरपञ्चशती, सकलसंकलनायां कृतायाम्. पञ्चाशदधिकद्विशत्युत्तर नवनवतिसहस्राणि ९९२५०, एतच्च प्रमाणं जम्बूद्वीपस्य लक्षायोजनप्रमाणविष्कम्भात् संशोसंडेहि जाव दुण्ह वि षण्णओ इति' यह ग्राहावती महानदी प्रवह में-ग्राहावती अण्ड से निर्गम स्थान में-एवं सीता नदी में जहां से प्रवेश करती है उस स्थान में सर्वत्र समान है अर्थात् मुख प्रवह एवं इनसे अतिरिक्त स्थानों में समान विष्कंभ और समान उछेध वाली है इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार कहते हैं इसका विष्कम १२५ योजन का है और उद्वेध इसका २॥ योजन का है क्योंकि १२५ योजन का पचालवां भाग इतना हो होता है। उसकी मोटाई पूर्ववत् समझ लेवे । महाविदेह क्षेत्र में कुरू, मेरु भद्र शालविजय वक्षस्कार मुखवन के सिवाय लर्वत्र अन्तर्नदीयां कही गई हैं। वे नदीयां पूर्व पश्चिम में विस्तार वाली है, समाल विस्तार वाली हैं, इस प्रकार उनका प्रमाण होता हैमेरु के विष्कम पूर्व पश्चिम में भद्रशालवन के आयाम का प्रमाण ५४००० चोपन हजार, योजन, विजय का विस्तार ३५४०६ पैंतीस हजार चार सो छह योजन, वक्षस्कार पर्वत का विस्तार ४००० चार हजार योगन, मुखवन का विस्तार ५८४४ पांच हजार आठ सो चुनालिस योजन । सयको जोडने से-९९२५० नण्णाणु हजार दो सो पचास योजन होता है। अद्धाइजाई जोयणाई उठवेहेणं, उभओ पासिं दोहिं य पउपवरवेइआहिं दोहि अ वणसंडे हिं जाव दुण्ह वि वण्णओ इति' गे पाडावती भानही प्रवडमां-बापती ना निगमन સ્થાનમાં–તેમજ સીતા નદીમાં જયાંથી પ્રવેશ કરે છે તે સ્થાનમાં–સર્વત્ર સમાન છે એટલે કે મુખ્ય પ્રવાહ તેમજ અન્ય બીજા સ્થાનમાં સમાન વિષ્ક અને સમાન ઉદેધવાળી છે. એ વાતને સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે આને વિખંભ ૧૨૫ પેજન જેટલું છે અને ઉદ્ધધ રા જન જેટલું છે. કેમકે ૧૨૫ પેજનને પચાસમો ભાગ આટલો જ થાય છે. તેની જાડાઈ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવી જોઈએ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં મેરુ ભદ્રશાલવિજય વક્ષરકાર મુખવન સિવાય બધે જ અન્તર્કદી કહેલી છે. તે નદી પૂર્વપશ્ચિમમાં વિસ્તારવાળી છે. અને તે સમાન વિસ્તારવાળી છે. તેનું પ્રમાણ આ રીતે થાય છે–મેરૂ પર્વતના વિખંભની પૂર્વ પશ્ચિમમાં ભદ્રશાલવનના આયામનું પ્રમાણ ૫૪૦૦૦ ચેપન હજાર
જન, વિજયને વિસ્તાર ૩૫૪૦૬ પાંત્રીસ હજાર ચારસે છ એજન, વક્ષસ્કાર પર્વતને વિરતાર ૪૦૦૦ ચાર હજાર એજન, મુખવનને વિસ્તાર ૫૮૪૪ પાંચહજાર આઠસે ચુંમાળીસ એજન, એ બધાને મેળવવાથી ૯૯૨૫૦ નવાણુ હજાર બસો પચાસ એજન થાય છે.
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम्
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ध्यते तथा सति पञ्चाशदधिक सप्तशती ७५० सम्पद्यते, इदं च विष्कम्भप्रमाणं दक्षिणोत्तरयो भगयोरन्तर्वर्तिनीनां पण्णां नदीनां पभिर्भागे हृते लभ्यते इति, आयामस्तु विजयस्य तद्वक्षस्कारपर्वतान्तरनदीमुखवनानां च सम एवेति नतु अन्तरनदीनामुक्त आयामो न सङ्गच्छते पञ्चचत्वारिंशत्सहस्रप्रमाणस्यैवायामस्य सच्चात् तथा चोक्तस्
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जावइया सलिलाओ माणुसलोगंमि सव्वंसि । पणयालीस सहसा आयामो होइ सव्वसरियाणं ॥
एतच्छाया - यावत्यः सलिला मानुष्यलोके सर्वस्मिन् ।
पञ्चचत्वारिंशत् सहस्राणि आयामो भवति सर्व सरिताम् ॥ इतिचेत्, अत्रोच्यते - पञ्चचत्वारिंशत्सहस्रायामप्रतिपादकवचनमिदं भरतान्तर्गतगङ्गादि यह प्रमाण जंबूद्वीप के एक लाख योजन विष्कंभ से शोधित करने पर ७५० सात सो पचास योजन रह जाता है । यह विष्कंभ प्रमाण दक्षिण एवं उत्तर भाग में अन्तवर्तिनी छह नदीयों के छह से भाग देने पर निकलता है । विजय वक्षस्कार का आयाम एवं अन्तवर्ति वक्षस्कारों का एवं नदी मुख वनों का आयाम समान ही कहा है।
शंका- अन्तर्नदीयों का उक्त आयाम कहना ठीक नहीं होगा कारण चोपन हजार का ही आयाम पहले कहा है कहा भी है-सर्व मनुष्य लोक में जितनी नदीयाँ हैं उनका आयाम चोपन हजार योजन का ही कहा है ।
उत्तर - चोपन हजार योजन का आयाम का प्रतिपादक यह वचन भरत क्षेत्रान्तर्गत गंगादि नदीयों का साधारण कहा है अतः जैसे वहां नदी क्षेत्र का अल्प परिणाम होने से अनुपपत्ति होने से उसकी उपपत्ति कोट्ठाकरण न्याय का आश्रयणीय है
આ પ્રમાણે જમ્મૂ દ્વીપના એકલાખ ચેાજનના વિષ્ફલમાંથી ખાદ્ય કરવાથી ૭૫૦ સાડાસાતસેા ચેાજન શેષ રહે છે આ વિષ્ણુ ભત્તુ પ્રમાણુ દક્ષિણ અને ઉત્તર ભાગમાં અન્ત તિ છ નીચેાને થી ભાગવાથી નીકળે છે. વિજય વક્ષરકારના આયામ અને અન્તતિ વક્ષસ્કાર અને નદી મુખવનાના માયામ સરખા જ છે
શકા—અન્તનીચેાના એ પ્રમાણેના આયામ કહેવા તે ખરાબર નથી કારણ કે-તેમા આયામ ચાપન હજાર ચેાજનના જ કહ્યો છે. કહ્યુ પણ છે-મધા મનુષ્ય લેાકમાં જેટલી નદીયે છે, તેના આયામ ચાપન હજાર ચેાજનના જ છે.
उत्तर-थोपन हुनर योन्ननो न्यायाम वे. ते मरोर नथी. अर - प्रभा ણેના આયામનું પ્રતિપાદક આ વચન ભરતક્ષેત્રવર્તિ ગંગાદિં નીયાનું સાધારણ કહેલે છે. જેથી ત્યાં નદી ક્ષેત્રનું અલ્પપ્રમાણ કહેવાથી સંગતતા ન થવાથી તેની સંગતી માટે કાષ્ટાકરણ ન્યાયના આશ્રય લઈને સમજી લેવું,
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्रे नदीसाधारणं तेन यथा तत्र नदीक्षेत्रस्याल्पपरिमाणत्वे नानुपपत्तौ तदुपपत्तय कोट्टाकारणमाश्रयणीयं भवति तथाऽनापि तमाश्रयणीयम्'
'उभओ पासि’ उमयोः द्वयोः पार्श्वयोः भागयोः 'दोहि य पउमवरवेइयाहि द्वाभ्यां च पायरवेदिकाभ्याम् 'दोहि य वणसंडेहि' द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां 'जाव' गावत् यावत्पदेन 'संपरिक्खित्ता' इति सङ्ग्राह्यम् संपरिक्षिप्तेति तच्छाया तदर्थश्व परिवेष्टितेति 'दुण्डवि' द्वयोरपि पावरवेदिका-वनपण्डयोरपि वर्णकः वर्णनपरपदसमूहोऽत्र वोध्यः, स च चतुर्थपञ्चसूत्रतो ग्राह्यः, अथ तृतीयं महाकच्छविजयं वर्णयित्नुपक्रमते-'कहि णं भंते !" इसकी दोनों तरफ दो पद्मवरवेदिकाएं हैं और दो बनपण्ड हैं उनसे यह घिरी हुई है (जाव दुण्ह वि वगओ) यहां यास्तू शब्द से बाबर वेदिका एवं वन पण्ड इन दोनों का वर्णन कर लेना चाहिए (कहि णं भंते ! महाचिदेहे वासे महाकच्छे णाम विजए पण्णत्ते) हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में महाकच्छ नामका विजय कहां पर कहा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं(गोयमा ! णीलवनस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणणं सीयाए महागइए उत्तरेणं पउमकूडस्स वखारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं गाहावईए पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे महाकच्छे णाम विजए पण्णते) हे गौतम ! नीलवंत वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशा में सीता महानदी की उत्तर दिशा में पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत की पश्चिम दिशा में एवं ग्राहावती महानदी की पूर्व दिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर महाकच्छ नामका विजय कहा गया है (सेसं जहा कच्छविजयस्स जाव महाकच्छे इत्थदेवे महिद्धीए अट्ठो अभाणियचो) वाकी का और सब कथन इसके सम्बन्ध का जैसा कच्छ विजय के प्रकरण में कहा गया है वैसा ही जानना चाहिए इसका महाकच्छ विजय ऐसा जो नाम हुआ है उसका कारण यावत એના અને પાધભાગોમા બે પવાર વેદિકા છે અને બે વનડે છે, તેમ नाथी में परिवृत छ. 'जाव दुण्ह वि वण्णओ' महा यापत् मन्ननु न श से नई 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते ईत! म વિદેહ ક્ષેત્રમાં મહાચ્છ નામક વિજય કયા સ્થળે આવેલ છે. એના જવાબમાં પ્રભુ કહે छ-'गोयमा ! णीलवतस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं पउमफूडस्स वक्खाग्पव्वयरस पच्चत्यिमेणं णोहावईए पुरथिमेणं एत्थ गं महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते' गौतम नीलवन्त षधि२ पतनी दक्षिण दिशाम सीता भानहीनी ઉત્તર દિશામાં પકૂટ વક્ષરકાર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ ગ્રાહાવતી મહાનદીની पूर्व महावित क्षेत्रनी २ मा ४२७ नाम विन्य मावस छ. 'सेसं जहा कच्छविजयस्स जाव महाकच्छे इत्थ देवे महिद्धीए अटो अ भाणियव्यों' २५ मधु કથન એ સંબંધમાં જેમ કચછ વિજય પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલ છે, તેવું જ સમજવું જોઈએ. એ વિજયનું મહાકછ વિજય એવું જે નામે પ્રસિદ્ધ થયું છે તેનું કારણ યાત
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम्
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इत्यादि छायागम्यम् नवरं 'जाव' महाकच्छे इत्थ देवे' यावद् महाकच्छोऽत्र देवः, परिवसति स च कीदृश: ? इत्याह- 'महिद्धीए' महर्द्धिकः इत्युपलक्षणम् तेन महाद्युतिक इत्यादिपदानां सङ्ग्रहो बोध्यः स चाष्टमसुत्रात् सव्याख्यो ग्राह्यः यावत्पदेन - ' तत्थ णं अरिहाए रायहाणी महाकच्छे णामं राया समुपज्जइ, महया हिमवंत जाव सव्वं भरहो अ वणं भाणियन्त्रं, णिक्खमणवज्जं सेसं भाणियन्वं जाव भुंजइ माणुस्सए सुहे, महाकच्छणामघेज्जे' इति ग्रहीतव्यम्
एतच्छाया-'तत्र खलु अरिष्टायां राजधान्यां महाकच्छो नाम राजा समुत्पद्यते, महाहिमवद् यावत् सर्वे भरतसाधनं भणितव्यं यावद् युङ्क्ते मानुष्यकानि सुखानि महाकच्छ'नामधेयः' इति तत्र 'महाहिमवद् यावद् इत्यत्र यावत्पदेन - 'मलयमन्दर महेन्द्रसारः ' इति ग्राह्यम् तस्य च महाहिमवत्पदेन योगो बोध्यः, तथा सति महाहिमवन्मलय मन्दर महेन्द्रमहाकच्छ नामका यहाँ पर महर्द्धिक देव कि जिसकी एक पल्योपम की स्थिति है रहता है यहां यावत् पद से महाद्युतिक महाबल आदि पदों का ग्रहण हुआ है तथा 'तत्थ णं अरिद्वार रायहाणीए महाकच्छे णामं राया समुप्पज्जइ महया हिमवंत जाव सव्वं भरहो अ वणं भणियव्वं णिक्खमणवज्ज' सेस भाणियव्यं जाव भुंजइ माणुस्सर सुहे महाकच्छणामधेज्जे" वहां पर अरिष्ठा नामकी राजधानी है महाकच्छ नामका चक्रवर्ती राजा उसका शासन करता है यह महाहिमवंत पर्वत आदि के जैसा विशिष्ट शक्तिशाली और अजेय है भरतचक्रवर्ती की तरह यह मनुष्य भव सम्बन्धी सुखों का भोक्ता है परन्तु इसने अपने जीवन में सकल संयम धारण नहीं किया ऐसा यह सब प्रकरण पूर्व की तरह यहां पर कह लेना चाहिये महाकच्छ ऐला नाम इसका क्यों हुआ सो इस सम्बन्ध में यहां पर महाकच्छ नाम का ही चक्रवर्ती यहां पर होता रहता है तथा महाकच्छ नामका देव रहता है इस कारण इसका नाम महाकच्छ ऐसा कहा गया है । મહાકચ્છ નામક મહુદ્ધિક દેવ કે જેની એક પચેપમ જેટલી સ્થિતિ રહે છે. અહીં” यावत् पढ्थी ‘महाद्युतिकः' वगेरे चहानु' ग्रह] थयु ं छे. तेभन 'तत्थणं अरिट्टाए रायहाणीर महाकच्छ्रे णामं राया समुप्पज्जइ, महया हिमांत जाव सव्वं भरहो अवणं भणियन्त्र' निक्खमणवज्जं जाब सेसं भाणियव्वळ जाव गुंजइ, माणुस्सए सुहे महाकच्छ णामघेज्जे' त्यां भरिष्टय नामनी रा४ધાની છે. મહા કચ્છનામક ચક્રવતી રાજા તેના શાસન કર્યાં છે. એ માહિમવત પર્યંત વગેરે જેવા વિશિષ્ટ શક્તિશાળી અને અજેય છે. ભરત ચીની જેમ એ મનુષ્ય ભવ સંબંધી સુખાને ભેાક્તા છે, પણ તેણે પોતાના જીવનમાં સકલ સંયમ ધારણ કર્યુ” નથી એવું તે બધું પ્રકરણ પૂર્વાવત્ અહીં” પણ સમજી લેવુ જોઈ એ, મહાકચ્છ એવું નામ એનું શા કારણથી પ્રસિદ્ધ થયુ? તે એના સબંધમાં આટલું જ કહેવુ. પર્યાપ્ત છે કે અહીં મહાચ્છ નામે ચક્રવર્તી રહે છે તેમજ મહાકચ્છ નામક દેવ રહે છે આ કારણે એનું નામ મહાકચ્છ એવુ કહેવામાં આવેલ છે.
ज० ४६
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દર
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सार इति समस्तं पदम्, तद्वत्याख्या पूर्वं गता, 'यावद् भुङ्क्ते' इत्यत्रत्य यावत्पदसग्राह्यानां पदानां सङ्ग्रह औपपातिकसूत्रस्यैकादशसूत्रतः कार्यः तदर्थश्च तत्रैव मत्कृतपीयपर्पिणी टीकातो वोध्या, ईशामिलापेन महाकच्छशब्दस्य 'अस्थो य भाणियबो' अर्थश्च भणितव्यः वाच्यः सम्प्रति ब्रह्मकूटाख्यं वक्षस्कारपर्वत वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' इत्यादि छायागम्यम् नवरम् 'सेसं जहा चित्तकूडस्स जाव आसयति' शेषं यथा चित्रकूटस्य यावदासते-शेपं वर्णितातिरिक्तं सर्वं यथा चित्रकूटस्य तथा वाच्यम् उत् किम्पर्यन्तम् इत्याहयावदासते-यावत्पदेन आयामादि सूत्रं भूमिभागवर्णनसूत्रपर्यन्तं च सर्व भणितव्यम्,
अधात्र कटानि वर्णयितुमाह-'पउमकूडे चत्तारि कूडा' इत्यादि-गुगमम् ‘एवं' एवम्(कहिणं भंते ! महानिदेहे वासे पउमडे णामं वक्खारपच्चए पण्णत्ते) हे भदन्न ! महाविदेह क्षेत्र में पद्मकूट नामका वक्षस्कार पर्वत कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! णीलवंतस्स दविणेणं सीयाए महाणईए उन्तरेणं महाकच्छस्स पुरस्थिमेणं कच्छावईए पञ्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वाले पउमकूडे णामं पवक्खारपच्यर पण्णत्त) हे गौतम ! नीलवंत पर्वत की दक्षिण दिशा में, सीता महानदी की उत्तर दिशा में, महाकच्छ विजय की पूर्व दिशा में एवं कच्छावती की पश्चिम दिशा में महाविदेह के भीतर पद्म कूट नामका वक्षस्कार पर्वत कहा गया है । (उत्तरदाहिणायए पाईणपडीण विच्छिन्ने) यह पद्मकूट नामका वक्षस्कार पर्वत उत्तर से दक्षिण तक तो लंवा है तथा पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण है-(सेसं जहा चित्तकूडस्त जाव आसयंति) बाकी का और सय वर्णन इसके सम्बन्ध का चित्रकूट वक्षस्कार के प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही है यावत वहां पर अनेक व्यन्तर देव और देवियां आराम करती है विश्राम करती है । (पउमकूडे चत्तारि कूडा पण्णत्ता) पाकूड के ऊपर
__'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे पउमकडे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते हैं महत! મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં પટ નામક વક્ષસ્કાર પર્વત ક્યા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાબમાં प्रभु छ ? 'गोयमा ! णीलवंतस्स दक्खिणेणं सीयाए महाणईर पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे पवउमडे . णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते' है गीतम! नीसन्त पतनी क्षिय દિશામાં સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં, મહાકચ્છ વિજયની પૂર્વ દિશામાં તેમજ કચ્છपतीनी. पश्चिमाहशामा मडाविनी मह२ पाट नाम पसार पर्वत मावेस छ. 'उत्तरः दाहिणाय पाईणपढीणविच्छिन्ने थे पट नाम पक्ष२५' उत्तरथी दक्षि सुधी सामा छ तमा पूर्वथी पश्चिम सुधी विस्ती छ. 'सेसं जहा चित्तकूडस्स जाव आसयंति' में સંબંધમાં શેષ બધું વર્ણન ચિત્રકૂટ વક્ષસ્કારના પ્રકરણમાં કહ્યું છે તેવું જ સમજવું. ચાવત या या व्यतिर हे। मन वीमा आराम ४२ छ, विश्राम ४२ छ 'पउमकूडे चत्तारि कृडा पण्णत्ता' पाटनी ५२ यार टूटा वामां मावस छ, 'तं जहा' तेमना नाभा ।
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम् अनेन प्रकारेण चित्रकूटवक्षस्कारपर्वतान्तकूटानुसारेण इमानि चत्वारि कूटानि वर्णनीयानि 'जाव' यावत्-यावत्पदेन 'समा उत्तरदाहिणेणं परुप्परंति, पढमं सीयाए उत्तरेणं' इत्यादि सग्राह्यम् एतत्समस्तमनन्तरोक्त सूत्राबोध्यम्, छायाऽथौं तत एव ज्ञातव्यौ 'अट्टः' अर्थ:ब्रह्मकूटेति नाम्नोऽर्थः प्राग्वत् तथाहि-'से केणटेणं भंते ! एवं कुच्चइ-पउमकूडे पउमकूडे ? गोरमा ! पउमकूडे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओउमहिईए परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुचइ पउमडे पउमकूडे' इति एतच्छायाौँ सुगमौं, अत्र देवविशेषणवाचकानां महद्धिकादि पल्योपस्थितिकपर्यन्तानां पदानां सङ्ग्रहः सव्याख्योऽष्टमसूत्रस्थाद्वि. जयद्वारदेवाधिकाराद्वोध्यः, ___अथ चतुर्थ कच्छकावतीनामकं विजयं वर्णमितुमुपक्रमते 'कहि णं भंते !' इत्पादिचार कूट कहे गये हैं । 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-(सिद्धायणकडे १, पउमडे२, महाकच्छकूडे ३, कच्छावाकूडे४) सिद्धायतनकूट, पद्मकूट, महाकच्छकूट और कच्छवतीकूट, (एवं जाव अट्टो) यहां आगत इस यावत्पद से (समा उत्तर दाहिणेणं परुप्परंति, पढवं सीयाए उत्तरेणं) इत्यादि पदों का संग्रह हुआ है यह सब कथन अनन्तरोक्त सूत्र ले जाना जा सकता है। पद्मकूट ऐसा इसका नाम क्यों हुआ-इस विषय में आलाप इस प्रकार से बनाना चाहिये 'से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ पउमकूडे' उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोथमा' पउम कूडे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमहिईए परिवसइ, से तेण टेणं गोयमा! एवं बुच्चइपउसकूडे २,' इस आलापक की, जो प्रश्न और उत्तर रूपमें है अर्थ सुगम है। देवके विशेषणचूत महर्द्धिक आदि पदोंकी व्याख्या अष्टमसूत्रस्थ विजयद्वार के देवाधिकार से जानलेनी चाहिये।
(कहिणं मंते ! महाविदेहे वासे कच्छगावती णामं विजए पण्णत्ते) हे भदन्त ! प्रमाणे छे. 'सिद्धाययणकूडे १, पउमडे-२, महाकच्छकूडे ३, कच्छावइकूडे-४' सिद्धा. यतन, पाडूट, महा २७ फूट भने ४२छापती दूट 'एवं जाव अट्ठो' माही भारत यात् ५४थी 'समा उत्तरदाहिणेणं परूपरेंति, पढमं सीयाए उत्तरेणं' वगेरे पहानु हा થયું છે. આ બધું કથન અનન્તક્ત સૂત્રમાંથી જાણી શકાય તેમ છે. એનું નામ પડ્યા ફૂટ એવું શા કારણથી સુપ્રસિદ્ધ થયું? આના સંબંધમાં આલાપક એવી રીતે સમજ नये से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ पउमकूडे' उत्तरमा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! पउमकूडे य इत्थदेवे महिद्धीए जाव पलिओवमट्टिईए परिवसइ, से तेण?णं गोयमा ! एवं पुच्चड पउमकूडे, २२ मे माला २ प्रश्न महत्त२ ३५मा छ-मथ सुगम छे. हेना विशे. ષણભૂત મહદ્ધિક વગેરે પદેની વ્યાખ્યા અષ્ટમ સૂરસ્થ વિજયદ્વારના દેવાધિકારમાંથી જાણી લેવી જોઈએ.
'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे कच्छगावती णाम विजए पग्णत्ते' Herd ! महा
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રૂદ્ર્ષ્ટ
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
सुगमम् नवरं 'कच्छकावती - कच्छः तटं, स एव कच्छकः सोऽस्त्यामिति कच्छकावती अतिशयार्थेऽत्र मतुप् प्रत्ययः स्त्रीत्वान्ङीप् दीर्घस्तु शरादित्वाद्बोध्यः, 'सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स' शेषम् उक्तातिरिक्तं सर्वकथनम् यथा कच्छरय विजयस्य तथाऽस्यापि विजयस्य सर्व वक्तव्यम् तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह- 'जाव कच्छगावई य इत्थ देवे' यावत् कच्छावती चात्रदेवः परिवसतीति पर्यन्तं सर्वं वाच्यम्, तत्र देवविशेपणानि प्राग्वत् अथास्मात्प्राच्यमन्तरनदीं वर्णयितुमुपक्रमते 'कहि णं भंते 1 इत्यादि - प्रश्नमत्रं युगमम् उत्तरसूत्रे 'गोयमा ' हे गौतम ! ' आवत्तस्स' आवर्तस्य एतन्नामकस्य 'विजयस्स' विजयस्य ' पच्चत्थिगेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि : कच्छगावईए' कच्छकावत्याः पतन्नामकस्य 'विजयस्स' विजयस्य 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन - पूर्वदिशि 'णीलवंतस्स' नीलवतः एतन्नामकस्य वर्षधर पर्वतस्य 'दाहि पिल्ले' दाक्षिणात्ये 'णितंचे' नितम्बे - मध्यभागे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'णं' खलु 'महामहाविदेह क्षेत्र में चतुर्थ कच्छकावती नामका विजय कहां पर कहा गया है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! पीलवंतस्स दाहिणेणं सीयाए महाणईए उत्तरेण दहावतीए महाणईए, पच्चत्थियेणं पउसकूडस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे कच्छ्गावती णामं विजए पण्णत्ते' हे गौतम! नीलवन्त की दक्षिणदिशा में, सीता महानदी की उत्तरदिशा में, हृदावती महानदी की पश्चिम दिशा में एवं पद्मकूट की पूर्वदिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर कच्छाकावती नामका विजय कहा गया है । (उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिन्ने) यह विजए उत्तर दक्षिण दिशा की ओर दीर्घ लंबा है और पूर्व और पश्चिम की तरफ विस्तीर्ण है । 'सेसं जहा कच्छहस विजयस्स जाव कच्छगावई अ इत्थदेवे' इस से अवशिष्ट और सब कथन कच्छविजय के कथनानुसार ही जानना चाहिये यावत् कच्छकावती नामका देव यहां पर रहता है ।
'कहि णं भंते! महाविदेहे वासे दहावई कुंडे पान्त' हे भदन्त ! महाविदेह વિદેહ ક્ષેત્રમાં ચતુર્થાં કચ્છકાવતી નામક વિજય કા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાણમાં अलु ४ छे - 'गोयमा ! नीलवंतत्स दाहिणणं सीयार महानईए उत्तरे दहावतीए महाणईए पच्चत्थिमेणं पउम कूडस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वाले कच्छगावती णामं विजय पण्णत्ते' હે ગૌતમ ! નીલવન્તની દક્ષિણુ દિશામાં, સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં, ટૂંકાવતી મહા નદીની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ પદ્મફૂટની પૂર્વ દિશામાં મહાવિદેહ ક્ષેત્રની અંદર કચ્છકાવતી नाम विनय मावेस हे 'उत्तरदाहिणायम पाई० पडणविच्छिन्ने' से विनय उत्तर दक्षि दिशा तर दीर्घ शोटले हे सामो छे, भने पूर्व रमने पश्चिम तर विस्ती छे. 'सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स जाव क छवई अ इत्थ देवे' शेष मधु थन हुन्छ विश्यना पान भुम लगी सेवु लेोि. यावत् १२छावती नाम देव अड़ी रहे छे. 'कहि णं अंते । महाविदेहे वासे दहावई कुडे पप्णते' हे लहन्त भहाविद्वेड क्षेत्रमां द्रडावती नाम झुंड या स्थणे आवेस
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प्रकाशिका टीका - बतुर्थ वक्षस्काः सू० २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम्
'विदेहे' महाविदेहे 'वासे' वर्षे 'दहावईकुंडे णामं कुंडे' इदावती कुण्डं नाम कुण्डं 'पण्णने ' प्रज्ञतम् 'सेसं' शेपम् आयामविष्कम्नादिकम् 'जहा' यथा 'गाहावई कुंडरस' ग्राहावतीकुंड स्थ तथाsस्यापि बोध्यम् किम्पर्यनम् ? इत्याह- 'जाब अहो' यावदर्थ:- ग्राहायतीति नामार्थवर्णनपर सूत्रपर्यन्तमित्यर्थः, नवरं हृदावतीद्वीपो हृदावती देवीभवनं हृदावती प्रभपत्रादि योगादिदं कुण्डमपि इदावतीत्यन्वर्थनामकम् इति वोध्यस् तत्र द्वदाः अगाधा जलाशयास्ते सन्त्यस्यामि दावती अत्र शरादित्वाद्दीर्घः पूर्ववत् सुज्ञानः, अध यथेयं सीतामहानदीं गच्छति तथाऽऽह 'तस्स णं' इत्यादि तस्य खलु 'दाहावई कुंडन्स' हृदावतीकुण्डस्य ' दाहिणेणं' दक्षिणे- दक्षिणदिकस्थेन 'तोरणेणं' तोरणेन बहिर्द्वारेण 'दहावई महाणई' इदावती महानदी 'पवूढा' प्रव्यूढा निर्गता 'समाणी' सती 'कच्छावई आवते' कच्छावत्यात 'विजए' विजय 'दुहा' द्विधा 'विभयमाणी २' विभजमाना २ दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिण दिशि 'सीयं' सीताम् 'महाणई' महानदीं 'समप्पेइ' समाप्नोति समुपैतीत्यर्थः अथ पञ्चमं विजयं
क्षेत्र में हृद्रावती नामका कुण्ड कहाँ पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोमा ! आवत्तस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं कच्छगावइए विजयस्स पुरत्थिमेणं नीलवंतस्स दाहिणिल्ले जितं एत्थ णं महाविदेहे वासे दहावईकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते' हे गौतम! आवर्तनामक विजय की पश्चिमदिशा में कच्छकावती विजय की पूर्वदिशा में, तथा नीलवन्त पर्वन के दक्षिणदिशा में रहे हुए नितम्बपर महाविदेह क्षेत्र के भीतर द्रहावती नामका कुण्ड कहा गया है । 'सेसं जहा गाहावई कुंडस्स जाव अट्ठो' इस कथन के अतिरिक्त और सब इस कुण्ड के विषय का आगेका कथन ग्राहावती कुण्ड के कथन जैसाही यावत् इसका नाम ऐसा क्यों हुआ इस अन्तिम कथन तक यहां पर जानना चाहिये 'तस्स णं दहावइ कुंडल्स दाहिणेणं तोरणं दहावई महाणई पवूढा समाणी कच्छावई आवत्ते विजए दुहा विभजमाणीर दाहिणेणं सीअं महाणई समप्पेइ' उस ब्रहावती कुण्डके दक्षिणतोरणद्वार
है ? सेना वाममां प्रभु उडे छे - 'गोयमा ! आवत्तस्स विजयस्स पच्चत्थिमेण कच्छगावइए विजयस्स पुरत्थिमेणं णीलांतरस दाहिणिल्ले णितंवे एत्थ णं महानिदेहे वासे दद्दानई कुडे णामं પુરુંતુ પળત્તે' હું ગૌતમ ! માવત નામક વિજયની પશ્ચિા દિશામાં મુકાવતી વિજયની પૂર્વ દિશામાં તથા નીલવન્ત પર્યંતની દક્ષિણ દિશામાં આવેલ નિતંબ ભાગ ઉપર મહાવિદેહુ क्षेत्रनी शहर द्रडावती नाम झुंड गावे छे. 'सेसं जहा गाहावई कुंडस्स जाव अट्ठो' था थन શિવાય ખીજું બધું અ' કુંડ વિષેનું કથન ગ્રહાવતી કુંડના કથન જેવું જ છે ચાવએનુ નામ એવુ... શા કારણથી રાખવામાં આવ્યું આ અ ંતિમ કથન સુધી અહીં જાણી લેવુ જોઈએ. 'तस्स णं दहावइ कुंडस्स दाहिणेणं तोरणेगं दहावई महाणई पवृढा समाणी कच्छावई आवत्ते विजए दुहा विभजमाणी२ दाहिणेणं सीअं महाणई समप्पेइ' ते द्रावती डुडना दृक्षिषु तारण
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे वर्णयितुमुपक्रमने-'कहिणं भंने !' इत्यादि-पत्र खलु भदन्त ! 'महाविदेहे महाविदेहे 'वासे' वर्षे 'आवत्तो णास विजए' आवों नाम विजय: 'पण्णते ?' प्रनतः ? 'गोयमा !' इत्याधुत्तरसूत्रं स्पष्टार्थकाम्, गवरम् 'सेसं' शेपम् आयामविष्कम्भादिकम् 'जहा कच्छस्स विजयस्त' यथा कच्छस्य विजयस्य तथाऽस्याप्यावर्तविजयस्येति । अथ तृतीयं नलिनकूटनामकवक्षस्कारपर्वत वर्गयितुमुपक्रमते 'साहि णं भने !' इत्यादि-प्रश्नसूत्रमुत्तरसूत्र च स्पष्टम् से बहावनी नामकी महानदी निकली है और यह महानदी कच्छावती एवं आवर्त विजयको दो विभागों में विलक्त करती हुई दक्षिणदिशा में सीता महानदी में प्रविष्ट हो जाती है 'सेलं जहा गाहाचईस' इस के स्मन्ध में आगे का और सब कथन ग्राहावनी नदी को सम्बन्ध में कहे गये वक्तव्य के अनुसार समझना चाहिये 'कहिणं संते ! महाविदेहे वासे आपत्ते णामं विजए पण्णत्ते' हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में आवर्तविजय नामझा विजय कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयना ! णीलबन्तस्स बासहरपव्ययरस दाहिणेणं सीयाए महाणई उत्तरेगं गलिगकुंडस्स चरखारपाययस्स पच्चस्थिमेणं दहावतीए महाणईए पुरथिोणं एत्य णं महाविदेहे वासे आपत्ते णामं विजए पण्णत्ते' हे गौतम ! नीलवन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिणदिशा में सीता महानदी की उत्तरदिशा में नलिनकुण्ड वक्षस्कार पर्वत की पश्चिम दिशा में दहावती महानदी की पूर्वदिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर आवर्त नामका विजय कहा गया है। 'सेसं जहा कच्छरस विजयस्स इति' इसके आयाम और विष्कम्भ आदि का कथन जैसा कच्छविजय का प्रकरण में कहा जा चुका है वैसाही है 'कहिणं भंते! દ્વારથી દ્રાવતી નામે મહા નદી નીકળી છે અને એ મહાનદી કચ્છાવતી અને આવર્ત વિજ્યને બે વિભાગમાં વિભક્ત કરતી દક્ષિણ દિશામાં સીતા મહાનદીમાં પ્રવિષ્ટ થઈ જાય છે. 'सेस जहा गाहावईए सेना समयमा शे५ मधु, ४१ पाडापती नहीन समयमा स्पष्ट ४२वामा गाल परतव्य सु ती aa . 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे आवत्ते णाम विजए पण्ण' त ! महावित क्षेत्रमा मावत विय नाम विशय ४या स्थणे मावेश छ ? r i प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं णलिणकुंडस वक्खारपब्धयरस पच्चस्थिमेणं दहावतीए महाणईए पुरथिमेणं एन्थ णं महाविदेहे वासे आवत्ते णाम विजए पण्णत्ते' हे गीतमा नीसन्त वर्ष ધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં સીતા મહા નદીની ઉત્તર દિશામાં નલિન કુંડ વક્ષસ્કાર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં દ્રાવતી મહાનદીની પૂર્વ દિયામાં મહાવિદેહ ક્ષેત્રની અંદર मावत' नाम विशय आव छ. 'सेस जहा कच्छत्स विजयास इनि' गेना सयाम qिbal અંગેનું કથન જે પ્રમાણે કચ્છ વિજયના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવે છે, તેવું જ છે. 'कहि णं भंते ! महानिदेहे वासे णलिणकूडे णामं वक्खारपव्यए पण्णत्त' Rard भडा
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थ वक्षस्कारः लू. २८ द्वितीयगुणकच्छविजयनिरूपणस्
नवरम् सच 'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायतः- उत्तरदक्षिण दिशोर्दीर्घः 'पाईगवडीणवित्थिण्णे प्राचीनप्रतीचीन विस्तीर्ण:- पूर्वपश्चिम दिशो विस्तारयुक्तः 'सेसं' शेपम् - उद्वेधादिकम् 'जहा' यथा 'चित्तकूडस्स' चित्रकूटस्य तथाऽस्यापि तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह- 'जाब आसयंति' यावदासते अन यावत्पदेन - 'तत्थ णं वहवे वाणमन्तरा देवा य देवीओ य ' इति सङ्ग्राहचम्, एतच्छाया - ' तत्र खलु बहवो व्यन्तराः 'वानव्यन्तराः ' देवाश्व देव्यश्व' इति 'आस' इत्युपलक्षणम् तेन 'सति चिति णिसीयंति तुयद्वंति रमंति ललंति की लंति कि ंति मोहंति' इत्येषां ग्रहणम्, एतच्छाया- 'शेरते तिष्ठन्ति निषीदन्ति, त्वचयन्ति, रमन्ते, ललन्ति, क्रीडन्ति, कीर्तयन्ति, मोहन्ति इति एषां व्याख्या पष्ठसूत्रे गततस्ततो बोध्या, महाविदेहे वासे णणिकूडे णानं वक्खारपच्चए पण्णत्ते' हे भदन्न । महाविदेह क्षेत्र में नलिनकूट नामका वक्षस्कार पर्वत कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोमा ! णोलवंतस्स दाहिणेणं सीयाए उत्तरेणं मंगलावइस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं आवन्तस्स विजयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे णलिणकूडे णामं चखारफचर पण्णत्ते' हे गौतम! नीलवन्त पर्वत की दक्षिण दिशामें, सीता महानदी की उत्तरदिशा में, मंगलावती विजय की पश्चिमदिशा में और आवर्त विजय की पूर्व दिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर नलिनकूट नामका वक्षस्कार पर्वत कहा गया है । 'उत्तरदाणियए, पाईणपडीणविच्छिण्णे,
'सेसं जहा विसकूडस्स जाव आसयति' यह नलिनकूट नामका वक्षस्कार पर्वत उत्तर और दक्षिण में आयत - दीर्घ लम्बा है, तथा पूर्व पश्चिम में विस्तीर्ण है । वाकीका इसके सम्बन्धका - और सब आघामादि के प्रमाण का कथन जैसा चित्रकूट के प्रकरण में कहा गया है वैसा ही है यहां यावत् पद से अनेक વિદેડ ક્ષેત્રમાં નલિન ફૂટ નામક ક્ષસ્કાર પર્વત કયા સ્થળે આવેલ છે? જવાબમાં પ્રભુ छे- 'गोयमा ! णीलवंतरस दाहिणेणं सीयार उत्तरेणं मंगलावइरस विजयस्स पच्चत्थिमेणं आवत्तस्स विजयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे णलिणकूडे णामं चक्खारपञ्चए पण्णत्ते' हे गौतम | नीलवन्त पतनी दक्षिण दिशामां सीता महा नहीनी उत्तर दिशाभां મગલાવતી વિજયની પશ્ચિમ દિશામાં અને માવત' વિજયની પૂર્વ દિશામાં મહાવિદેહ क्षेत्रनी अंडर नसिन छूट नाभे वक्षस्कार पर्व गावे छे. 'उत्तरदाहिणायए पाईणपढीणविच्छिण्णे, सेसं जहा चित्तकूडस्स जाव आसयति' या नविन छूट नाम अस्ार ५१त उत्तर અને દક્ષિણમાં આાયત–દી–લાંગે છે. તેમજ પૂર્વ પશ્ચિમમા વિસ્તી છે. આ સંબંધમાં શેષમધુ આયામ અંગેના પ્રમાણુનુ કથન જેવુ... ચિત્રકૂટના પ્રકરણમાં કડુામાં આવેલ છે, તેવુ જ સમજવું યાવત્ પદથી અહી અનેક વ્યન્તર દેવ-દેવીએ આવીને વિશ્રામ કરે છે 242 243 2. (1) (el veel ‘aifa, fug'fa, forefúfa, gugat (cúfa, sófa, mófa, fag'fa, mìéfa) 2 yêı d'agla quı . A u
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जम्बूद्वीपप्रजतिसूत्र अथ नलिनकूटाख्यवक्षस्कारगिरौ कूटानि पिच्छिपुराह-'नलिणकूटे णं भंते' इत्यादिछायागम्यम्, नवरं तत्रोत्तरसूत्रे 'एए कूडा पंचसइया' एतानि कूटानि पंञ्चशतिकानि-पञ्चशतप्रमाणानि कूटवर्तिन्यो राजधान्यः कस्यां दिश्यवतिष्ठन्त इत्याह-रायहाणीयो उत्तरेणं' राजधान्यः-राजवसतयः, उत्तरेण-उत्तरदिशि, _____ अथ पष्ठं विजयं वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !" इत्यादि सुगमम्, नवरं 'पंकावईए' व्यतर देव-देवियां आकर विश्राम करती है और आराम करती है ।
‘णलिणकडेणं भंते ! कतिकूला पन्नत्ता' हे भदन्त ! नलिनकूट के ऊपर कितने कूट कहे गये हैं ! 'गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णता' हे गौतम ! चार कूट कहे गये है 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-'सिद्धाययणकूडे, गलिणकूडे, आवत्तकूडे मंगलावत्तकूडे, एए कूडापंचसइया रायहाणी उत्तरेणं) सिद्धायतन कट, नलिन कूट, आवर्त क्रूट, और मंगलावर्त कूट ये कूट, पांच सौ हैं यहां पर राजधानियां उत्तर दिशा में हैं। (कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे मंगलावत्ते णामं विजए पण्णत्ते) हे भदंत ! महाविदेह क्षेत्र में मंगलावर्त नामका विजय कहां पर कहा गया है (गोयमा ! नीलवंतस्स दक्खिणेणं सीयाए उत्तरेणं णलिणकूडस्स पुरस्थिमेणं पंकावईए पच्चत्थिमेणं एत्य णं मंगलावत्ते णामं विजए पण्णत्ते)हे गौतम ! नीलवंत पर्वत की दक्षिण दिशा में, सीता महानदी की उत्तर दिशा में, नलिन कूट की पूर्व दिशा में एवं पंकावती की पश्चिम दिशा में महानिदेह क्षेत्र के भीतर मंगलावत नासका विजय कहा गया है।
४. सूत्रमाथी नयी वीन. 'णलिणकूडेणं भने ! कति कूडो पन्नता महत । नतिन इट सा दूटो (शिम) मावेसा छ ? 'गोयमा। चत्तारि कूडा पण्णत्ता 8 है गौतम ! या२ ट। मावेला छे. 'तं जहा' तेना नामी २मा प्रमाणे छे. 'सिद्धाययणकूडे, णलिणकडे, आवत्तकूडे, मंगलावत्तकूडे, ए कूडा, पंचसइया रायहाणी उत्तरेणं' सिalયતનકૂટ, નલિન કૂટ, આવર્ત ફૂટ અને મંગલાવર્ત કૂટ એ ફૂટ ૫૦૦ છે. અહીં રાજ धानीमा उत्तर दिशाभ ही छ. 'कहिणं भंते । महाविदेहे वासे मंगलावत्ते णाम विजए पण्णत्ते' 3 सहन्त । भविड क्षेत्रमा मनसावत' नाम विभय ४या स्थणे आवेत छ ? 'गोयसा! नीलवंतस्स दनिखणेणं सीयाए उत्तरेणं णलिणकूडस पुरत्विमेणं पंकावईए पच्चत्थिमेणं एत्थ णं मंगलायत्ते णाम विजए पण्णत्ते' गीतम! नासवन्त पतनी क्षY हिशमां, સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં નલિન ફૂટની પૂર્વ દિશામાં તેમજ પકાવતીની પશ્ચિમ हिशामा भविड क्षेत्रनी म२ मावत नामे विन्य मावत छ. 'जहा कच्छस्स
(१) यहां यावत् शब्द से" संयंति, चिटुंति, णिसीयंति, तुपति, रमंति, ललंति, कीलंति, किटति, मोहंति" इन पदोंका ग्रहण हुआ है इनकी व्याख्या छठे सूत्र से जान लेनी चाहिए।
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम् ३६९ पकावत्याः तृतीयान्तरनधाः 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि, इति, अथ प्रागुक्त तृतीयान्तरनदी वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि गं' इत्यादि-प्राग्गत् केवलम् 'पंकावईकुंडे' पत्रावतीकुण्डं 'णाम' नाम 'कुंडे' कुण्डम्, तत्र पङ्कावतीत्यस्य पकाऽतिशयेनास्त्यस्यामिति पङ्कावती, ; अत्रापि शरादिलादीर्थों वो या,
अथ पुष्पलारत सप्तमविजयं वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि ' इत्यादि सुगमम्, अथ चतुर्थ
(जहा कच्छह विजए तहा एसो भाणियन्चो जाव मंगलावते य इत्थ देवे परिवसइ, से एएणोणं) इस मंगलादर्त विजय का वर्णन कच्छविजय के वर्णन
जैसा है यावत् इसमें मंगलावर्त नामका देव रहता है इस कारण इसका नाम भंग ‘लावर्त विजय ऐसा कहा गया है (कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे पंकाचई कुडे णामं कुडे पण्णत्त ) हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में पड़ावती नामका कुण्ड कहां पर कहा गया है (गोयला ! मंगलायत्तस्ल पुरथिमेण पुश्खलविजयस्स पच्चत्थिमेणं णीलचंतस्स दाहिणे णितंबे एस्थ णं पंक्षावई जाव कुडे पण्णत्ते) हे गौतम! मंगलावर्त विजय की पूर्व दिशा में, पुष्कल विजय की पश्चिम दिशा में एवं नील. वन पर्वत के दक्षिण दिग्धती नितम्ब पर पञ्जावती नाम का कुण्ड कहा गया है।
(तंचेच गाहावा हुंडप्पमाणं जाब मंगलायतपुक्खलावत्त विजए दुहा विभयमाणी २ अक्सेसं तं वेव जं चेव गाहावईए) इसका प्रमाण ग्राहावती कुण्ड के जैसा ही है यावत् इन्म कुण्ड से पडावती नामकी एक अन्तर नदी निकलती है और इसने मंगलायन और पुष्कलावत विजय को विभक्त कर दिया है बाकी का और सब कथन इसी नदी के सम्बन्ध का ग्राहवती नदी के जैसा ही है (कहि णं भंते ! महाविदेहे वाले पुक्खलायत्ते णानं विजए पण्णत्ते) है विजए तहा ऐसो भाणि"बो जाव मंगलाबत्ते य इस्थ देवे परिवसइ से एएणदेणं' मा મંગલાવર્ત વિજયનું વર્ણન કચ્છવિજયના વર્ણન જેવું છે, યાવત્ એમાં મંગલાવત नाभ व २९ छे. मेथी मेनु नाम भावविश्य मे २रावामा माव छ. 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे पंकावई कुंडे णामं कुडे पण्णत्ते' ३ मत ! महाविड क्षेत्रमा यवती नामः ॐ ४या स्थणे मा छे ? 'गोयमो | मंगलावत्तस्स पुरस्थिमेणं पुक्खल. विजयस्स पच्चत्थिमेणं णीलवंतस्स दाहिणे णितंवे एत्थणं पकावई जाव कुंडे पग्णत्ते है ગૌતમ ! મંગલાવ વિજયની પૂર્વ દિશામાં પુષ્કળ વિજયની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ નીલવંત પર્વતનાં દક્ષિણ દિગ્વતી નિતંબ ઉપર પંકાવતી નામક કુંડ આવેલ છે. 'तं चेव गाहावइ कुडप्पमाणं जाव मंगलावत्त पुक्खलावत्तविजए दुहा विभयमाणी २ अवसेसं तं चेत्र जे चेव गाहावईए' मेनु प्रम पाडावती र १ छे. यावत् मा કુંડમાંથી પંકાવતી નામે એક અંતર નદી નીકળી છે અને એણે મંગલાવર્ત અને પુષ્ક. લાવત’ વિજયને વિભાજિત કર્યા છે. એ નદીના સંબંધમાં બાકી બધું કથન ગ્રાહાવતી
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जम्बूद्वीपप्रचलित - मेकशैलनामकं वक्षरकारशैलं वर्णयिनुलपक्रमते- 'कहि णं एगसेले' इत्यादि-उत्तानार्थम्, अयं पुष्कलावतः सप्तमो विजयश्चक्रवति विजेतव्यत्वेन चक्रवर्तिविजय इत्युच्यते, एवं पुष्कलावती चक्रवर्तिविजयोऽपि मध्यमपदलोपि तत्पुरुपसमास युक्तो वोध्या, अथाष्टमं चक्रवर्तिविजय भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में पुरकलावत नाम का विजय कहां पर कहा गया है ? (गोयमा ! णीलवनस्ल दाहिजेणं लीयाए उत्तरेण पंकावईए पुरथिमेणं एक सेलस्स धक्खारपध्वयस्थ पच्चरिथमेणं एस्थ णं पुक्खलावंतो णामं विजए पण्णत्ते) हे गौतम ! नीलवंत वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशा में सीता महानदी की उत्तर दिशा में एवं पत्रावती महानदी की पूर्व दिशा में तथा एकौल नाम के वक्षस्कार पर्वत की पश्चिम दिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर पुष्कलावन पर्वत नाम का विजय कहा गया है ___(जहा कच्छरिजए तहा भाणिय) जैसा वर्णन कच्छविजय का है उसी प्रकार का वर्णन इसका ली है (जाच पुक्खले अ इत्थ देवे महिडिए पलिओचमहिइए परिवलह) यावत् यहां पर पुष्कल नाम का एक देव जो कि महद्धिक अरौ एक पल्योपस की स्थिति वाला है रहता है इसी कारण मैने हे गौतम ! इसका नाम पुष्कलविजय कहा है। (कहिणं संते! महाविदेहे वाले एगसेले नामं वक्खारपच्चए पणते) हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में एकौल नाम का 'वक्षस्कार पर्वत कहाँ पर कहा गया है ? उत्तर में मधु दाहते हैं (गोयमा ! पुका लाचचकवद्विविजयस्ता पुररिथमेणं पोश्खलावती चक्कवष्टिविजयरस पच्च. नही र ४ छे. 'कहिणं भले महादिदे वासे पुक्खलातत्ते णाम विजए पण्णत्ते' में ME | महाविड क्षेत्रमा पुसावत' नाम विय ४या स्थणे मावेश छ ? 'गोगमा ! णीलवंतस्स दाहिणेणं सीआए उत्तरेणं पंकावईए पुरस्थिमेणं । कोलम्म बक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं एत्थणं पुक्खलाक्त्ते णामं विजए पण्णत्ते गौतम ! नीसन १६२ यतिनी દક્ષિણ દિશામાં સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં તેમજ પંકાવતી મહાનદીની પૂર્વ દિશામાં તથા એક નામક વક્ષરકાર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં મહાદેહ ક્ષેત્રની
२ Y०४सावत' नामे पिय मावस . 'जहा कच्छविजए तहा भ.णियव्व' रे वन २७ वियनु छ ते १ न भनु ५५ ७.-'जाब पुक्खलेश इत्यदेवे महिढिए पलिओवमद्विइए परिखसई' यावत्त मही नामे महद्धि गते ४ यापम જેટલી સ્થિતિવાળે દેવ રહે છે. એથી જ મેં હે ગૌતમ! એનું નામ પુષ્કલ વિજય मे राभ्यु छे. 'कहिणं भंते महाविदेहे वासे एगसेले नामं वक्खारपत्रए पण्णत्ते' ७ ભદંત ! મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં એકશલ નામક વક્ષરકાર પર્વત કયા સ્થળે આવેલ છે ? रामभ प्रभु ४३ छ-'गोयमा । पुनकलावट्टचक्करट्टिविजयस्स पुरत्पिमेणं पाक्खलावता चकवट्टिविजयस्स पच्चत्थिमेणं णीलवंतस्स दक्षिणेणं सीआए उत्तरेणं एत्थणं एगसेले णाम बक्खारपव्वए पण्णत्ते' हे गौतम ! Y४ात यती विशयनी पूर्व दिशामा Yo
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'प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय मुकच्छविजयनिरूपणम् ७१ वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं-चकवष्टिविजए' इत्यादि सुगमम् नवरम् 'उत्तरिल्लस्स सीयामुहवणस्स' औतराहस्य उत्तरदिग्भवस्य शीतामुखवनस्य-शीतायाः मुखवनस्य अनन्तराग्रिमसूत्रे • वक्ष्यमाणस्वरूपस्य शीतानीलवन्मध्यस्थस्य 'मुखवनस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेल-पश्चिमदिशि
अत्र शीतामुखचनं द्विविधम् औतगह-दाक्षिणात्यभेदाद, तत्रौत्तराहग्रहणं दाक्षिणात्यशीताथिमेणं णीलवंतस्ल दक्षिणेणं लीआए उत्तरेणं एत्थ ण एगोले णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते) हे गौतम ! पुष्कलावर्त चक्रवर्ती विजय की पूर्व दिशा में, पुष्कलावती चक्रवर्ती विजय की पश्चिम दिशा में, नीलवंत वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशा में सीता नदी की उत्तर दिशा में एकौल नामका वक्षस्कार पर्वत कहा गया है। पुष्कलावर्त यह सप्तम विजय है। यह सप्तमविजय चक्रवती द्वारा विजेतव्य होने के कारण चक्रवर्ती विजय इस रूप से कहा गया है इसी तरह से पुष्कलावती को भी चक्रवर्ती विजय रूप से कहा गया जानना चाहिये (चित्त. कूडगमेणं यन्धो जाव देवा आसयंति, चत्तारि कूडा, तं जहा-सिद्धाययणकूडे, एगसेलकूडे, पुक्खलावत्तकूडे, पुक्खलावईकूडे) इस सम्बन्ध में और सब कथन चित्र कूट के प्रकरणानुसार ही जानना चाहिए यावत् यहां व्यन्तर देव विश्राम करते हैं इस प्रकार चार कूट कहे गये हैं प्रथम सिद्धायतन कूट, द्वितीय एकशैल कूट, तृतीय पुष्कलावर्त कूट, और चतुर्थ पुष्कलावती कट (कूडाणं तं चेव पंचसइयं परिमाणं जाव एगसेले य देवे महिद्धीए) कूटों का परिमाण पंचशतिक पांच सौ है-यावत् यहां पर एकौल नामका महर्द्धिक देव रहता है इस कारण इसका नाम 'एक शैल' ऐसा कहा गया है। (कहि णं अंते ! महाविदेहे वासे पुक्खला
લાવતી ચક્રવતી વિજ્યની પશ્ચિમ દિશામાં નીલવન્ત વર્ષધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં તેમજ * સીતા નદીની ઉત્તર દિશામાં એકછૌલ નામે વક્ષસ્કાર પર્વત આવેલ છે. પુષ્કલાવત -સસમ વિજય છે. આ સપ્તમ વિજ્ય ચક્રવતી વડે વિજેતવ્ય હવાથી ચકવતી વિજય નામે સંબોધિત કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે પુષ્કલાવતીને પણ ચક્રવતી વિજ્યના ३५मा समाधित ४२मा मा छे. 'चित्तकूडगमेणं णेयव्वो जाव देवा आसयंति, चत्तारि कूडा, तं जहां सिद्धाययणकूडे, एगसेलकूडे, पुक्खलावत्तकूडे पुक्खलावई फूडे' આ સંબંધમાં શેષ બધું કથન ચિત્રકૂટના પ્રકરણ મુજબ જ જાણવું જોઈએ યાવતું ત્યાં -- વ્યન્તર દેવે વિશ્રામ કરે છે એની ઉપર ચાર ફૂટે આવેલા છે. પ્રથમ સિદ્ધાયતન ફૂટ, द्वितीय शेख यूट, तृतीय ५०४मावत दूट भने यतु पुलावती दूट. 'कूडाणे तं "चेव पंचसइयं परिमाण जाव एकसेले य देवे महिद्धिए' (टानु परिभा यति मेट
પાંચસો છે. યાવત ત્યાં એશલ નામ મહદ્ધિક દેવ રહે છે. એથી એનું નામ “એક 'शेर' रामपामा सास छ. 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे पुरख लावई णाम - चकाट्टिविजए पण्णत्ते लत ! महाविड क्षेत्रमा पुसावती नामे यवती faru
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जम्बूद्वीपतिसूत्रे
मुखवनव्यावृत्यर्थम्, अथानन्तरोक्तं शीता मुखवनमुत्थिताकाङ्क्षं लक्षयन्नाह - 'कहि णं भंते ! उत्तरिल्ले सीमामुखाणे' इत्यादि का खलु 'भंते !' भदन्त ! 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे ‘सीयाए' शीतायाः ‘महाणईए' महानद्य: 'उत्तरिल्ले' औत्तराहम् - उत्तर दिग्वर्ति 'सीयामुवर्ण' शीताखवनं शीताया:- एतन्नाम्न्या महानद्याः सुखानं मुखे समुद्रादेशे वनं शीतासुखवनं 'णामं' नाम 'वणे' वनं 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तम् ? तत्र शीतामुखवने औत्तराहल विशेषणोपादानेन दाहिणात्यस्य तस्य व्यावृतिः, तथा मुखवने शीता सम्बन्धित्वयोपादानाच्चीतोaf णामं चक्क चिजए पण्णत्ते) हे भदन्त । महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नामका चक्रवर्ती विजय कहीं पर कहा गया है ? (गोयमा ! णीलवंतस्स दक्खिजेणं सीया उत्तरेणं उत्तरिल्लस्स सीयामुहवणस्स पच्चत्थिमेण एगसेलस्स वक्खारपन्चयस्त्र पुरत्थिमेणं एत्थणं महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं विजए पण्णत्ते) हे गौतम ! नीलवंत पर्वत की दक्षिण दिशा में, सीना नदी की उत्तर दिशा में, उत्तर दिग्वर्ती सीतामुख नदी की पश्चिम दिशा में, एकल नामक वक्षस्कार पर्वत की पूर्वदिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर पुष्कलावती नामका विजय कहा गया है (उत्तरदाहिणायए, एवं जहा कच्छविजयस्त जाव पुक्खलावई इत्थ देवे परिवल, एए ट्टेण) यह उत्तर से दक्षिण तक आयत - दीर्घ है एवं पूर्व से पश्चिम तक विस्तृत है । इस तरह से जैसा कथन कच्छ विजय के प्रकरण में कहा गया है वैसा ही कथन यहां पर कर लेना चाहिये यावत् पुष्कलावती नामकी देवी यहाँ पर रहती है-इस कारण हे गौतम! मैने इसका नाम पुष्कलावती विजय ऐसा कहा है (कहिणं भंते! महाविदेहे वाले सीयाए महा -ईए उसरिल्ले सीयाहवणे णामं बणे पण्णत्ते) हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में सीना महानदी की उत्तर दिशा में रहा हुया सीता मुख वन कहां पर कहा या स्थणे मावेस छे? सेना अलुछे- 'गोयम ! णीलांतरस दक्खिणं सीमाए उत्तरेणं उत्तरिल्लरस सीया मुहत्रणस्स पञ्चत्थिमेणं एगसेलास दक्खारपत्र पुरत्थिमेण एत्थ णं महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं विजय पण्णत्ते' हे गौतम, नीटान्त પર્યંતની દક્ષ્ણિ દિશામાં, સીતા નદીની ઉત્તર દિશામાં ઉત્તર દિગ્બી સીતા સુખ વનની પશ્ચિમ દિશામાં એકીલ નામક વક્ષસ્કાર પતની પૂર્વ દિશામાં મહાવિદેહ ક્ષેત્રની महर चुष्ठुसावर्ती नाम विनय गावेस हे 'उत्तरदाहिणायर एवं जहा कच्छ विजयस्स जाव पुक्खलावई य इत्थ देवे परिवसइ एएणट्टेणं' से उत्तरथी दक्षिण सुधी आायत दीर्घ છે તેમજ પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી વિસ્તૃત છે. આ પ્રમાણે જેવુ' કથન કચ્છ વિજયના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલુ છે. તેવુ જ થન અહીં પણ સમજી લેવુ જોઈ એ. ચાવત પુલાવતી નામક દેવી અહી રહે છે એથી હું ગૌતમ ! મે એનુ નામ પુષ્કલાવતી વિજય मेधु ं राभ्यु' छे, 'कहिणं भंते महाविदेहे वासे सीआए महाणईए उत्तरिल्ले सीयामुद्दवणे
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २८ द्वितीयं सुकच्छविजयनिरूपणम् ३७३ दासम्बन्धिनः तस्य व्यावृत्तिः, तथाहि-चत्वारि मुखवनानि सन्ति शीता नीलवन्मध्यवर्ति १ शीता निषधमध्यवर्ति २ शीतोदा निषधमध्यवर्ति ३ शीतोदा नीलमध्यवर्ति चेति एपांमध्ये प्रथममेव मुखवनं शीतामहानद्या उत्तरदिशि वर्तत इति तदेवात्र विवक्षितम् इत्येवं प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! 'णीलवंतस्स नीलवतः 'दक्षिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'सीयाए' शीतायाः महानद्याः 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि 'पुरस्थिमलवणसमुहस्स' पौरस्त्यळवणसमुद्रस्य-पूर्वदिग्वचिनो लवणसमुद्रस्य 'पचत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमायां दिशि
गया है ? सीता महानदी का शुखवन दो प्रकार का है एक उत्तर दिग्वनी • मुख वन और दूसरा दक्षिण दिग्वती मुखवन यहाँ पर उत्तर दिग्वी मुख
वन के विषय में गौतमस्वामी ने प्रश्न किया है सीता महानदी जहां से समुद्र में प्रवेश करती है उस स्थान का नाम सुख है उस स्थान पर रहे हुए वन का नाम मुखवन है यहां इस वन से दक्षिण दिग्वती सीतामुख नदी की निवृत्ति की गई है। तथा शीता नदी के कहने से शीतोदा सम्बन्धि मुखवन की निवृत्ति की गइ है मुखवन चार कहे गए हैं (१) सीता और नीलवंत पर्वत के बीच में रहा हुआ मुखवन (२) शीता और निषध के मध्य में रहा हुआ मुखवन (३) शीतोदा
और निषध के मध्य में रहा हुआ सुग्ववन (४) शीनोदा और नील पर्वन के बीच में रहा हुआ मुखषन इनके बीच में प्रथम जो सुखवन है वही शीता महानदी की उत्तर दिशा में हैं। इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हे-(गोयना ! णीलवंगस्स दक्खिणेणं सीयाए उत्तरेणं पुरस्थिपलवणपदस्त पञ्चत्यिमेणं पुश्खलावद चावटिविजयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं सीया सुहवणे गामं वणे णामं वणे पण्णत्ते है ! महावित क्षेत्रमा सीता महानहीनी उत्तर दिशामा मावत સીતામુખ વન નામે વન ક્યા સ્થળે આવેલ છે? સીતા મહાનદીનાં મુખવને બે છે એક ઉત્તર દિવસ મુખવન અને દ્વિતીય દક્ષિણ દિગ્વતી મુખવન. અહીં ગૌતમસ્વામીએઉત્તરદિવર્તી મુખવન વિષે પ્રશ્ન કર્યો છે. સીતા મહાનદી જ્યાંથી સમુદ્રમાં પ્રવેશ કરે છે. તે સ્થાનનું નામ સુખ છે તે સ્થાન ઉપર આવેલા વનનું નામ મુખવન છે. જ્હી આ વનથી દક્ષિણ દિગ્વતી સીતા મુખવનની નિવૃત્તિ કરવામાં આવેલ છે. તેમજ સીતા નદીના કથનથી શીતેદા સંબંધી મુખવનની નિવૃત્તિ કરવામાં આવેલી છે. મુખવને ચાર છે(૧) સીતા અને નીલવન્ત પર્વતના, મધ્યભાગમાં આવેલું મુખવન, ૨) શીતા અને નિષધ પવતના મધ્ય ભાગમાં આવેલું મુખવન (૩) શીદા અને નીલવન્તના મધ્ય ભાગમાં આવેલ મુખવન એમના મધ્ય ભાગમાં પ્રથમ જે મુખવન છે, તેજ શીતા મહાનદીની ઉત્તર शिमा छ. मे प्रश्न मा लगवान् श्री महावीर प्रभु ५९ छ-'गोरमा ! णीलवंतस्स दक्खिणेणं सीयाए उत्तरेणं - पुरथिमलवणममुदस्स पच्चत्यिमेणं पुक्खलावइ चकवहिविजयस्स पुरथिमेणं एत्थणं सीयामुहवणे णामं वणे पण्णत्ते' 3 गौतम ! नीसवन्त पतनी दक्षिण
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जम्बूद्वीपप्रश्नप्तिसूत्र 'पुक्खलावइचकाधिविजयस्स' पुष्कलावतीचक्रवर्तिविजयस्य 'पुरथिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्र-अप्रान्तरे 'ण' खलु 'सीयामुहवणं णामं वर्ण' शीतामुखवनं नाम वन 'पण्णत्ते' 'प्रज्ञप्तम्, राच 'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायतम् उत्तरदक्षिणदिशोर्दीर्घम्, 'पाईणपडीणविस्थिणे' प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णम् पूर्वपश्चिमदिशो विस्तारयुक्तम् 'सोलस जोयणसहस्साई' पोडशयोजनसहस्राणि पोडशसहस्रपरिमित योजनानि 'पंचय' पञ्च च 'वाणउए' द्वानवतानि -द्वानवत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'दोणिय द्वौ च 'एगूगवीसइभाए' एकोन विंशतिभागी 'जोरणस्स' योजनस्य 'आयामेणं' आयामेन-दैध्येण 'सीयाए महाणईएशीतायाः महानद्याः 'अंतेणं' अन्न-समीपेन 'दो जोयणसहस्साई द्वे योजनसहने 'णव य' नव च 'वावीसे' द्वाविंशानि-द्वाविंशत्यधिनानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'विक्खंभेणं' · विष्कम्भेण-विस्तारेण 'तयणंतरं च णं' तदनन्तरं च खलु 'मायाए २ मात्रया २ क्रमेण २' 'परिहायमाणे २' परिहीयमानं २ 'णीलबंतवासहरपव्ययंतेणं नीलवद्वपंधरपर्वतान्तेन-नील वनामकवर्षधरपर्वतस्य अन्तेन-समीपेन 'ए' एकम् ‘एगणवीसहभाग' एकोनविंशतिभाग 'जोयणरूस' योजनाय 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण, इति 'से' तत् औत्तराई शीता- मुखवनं 'ग' खलु 'एगाए' एकया 'पउमवरवेइयाए' पद्मवरवेदिकया 'एगेण य' एकेन च पण्णत्ते) हे गौतम ! नीलवंत पर्वत की दक्षिण दिशा में, सीता नदी की उत्तर दिशा में पूर्व दिग्वती लवण समुद्र की पश्चिम दिशा में, तथा पुष्कलावती नामक चक्रवर्ती विजय की पूर्व दिशा में सीता सुखवन नायका वन कहा गया है (उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिन्ने) यह वन उत्तर से दक्षिण दिशा तक लम्बा है और पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण है (सोलसजोयणसहस्साई पंचय वाणउए जोयणलए दोणि य एगूणवीसइभाए जोयणस्त आयामेणं सीयाए महागईए अंतेणं दो जोयणसहस्लाइं नव य बावीसे जोयणसए चिक्खंभेणं तयणंतरं च णं मायाए २ परिहायमाणे २) इसका आयाम १६५९२२० योजन का है सीता नदी के पास इसका विष्कंभ दो हजार नौ सो बाईल योजन का है फिर यह क्रमशः घटता गया है और (णीलवंतवासहरદિશામ, સીતા નદીની ઉત્તર દિશામાં, પૂર્વ દિવતી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ પુષ્કલાવતી નામક ચક્રવતી વિજયની પૂર્વ દિશાનાં, સીતા મુખવન નામે વન આવેલું छ. 'उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिन्ने' से वन उत्तरथी इक्षिण An सुधी ही छ भने पूर्वाथी पश्चिम सुधी विस्ती छ. 'सोलस जोयण सहस्साई पंच य बाणउए जोयणसए दोण्णिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं सीयाए महाणईए अन्तेणं दो जोयण सहस्साई नव य बावीसे जोयणसए विक्खंभेणं तयणंतरं च णं मायाए २ परिहायमाणे २ એને આયામ ૧૯૫૦ એજન જેટલો છે. સીતા નદીની પાસે એને વિષ્ઠભ ૨૯૨૨ नशा छ पछी सभा मताशय सलतामहापरते
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम्
• वनसडेणे' वनपण्डेन 'संपरिक्खितं' सम्परिक्षितम् 'वण्णओ' वर्णकः पश्चवर वेदिका वनपण्डयोवर्णनपर पदसमूहोऽत्र वोध्यः, स च चतुर्थपञ्चमसूत्राभ्यां बोध्यः । तथा 'सीयासुदवणस्स' शीतामुखखनस्य च वर्णको वोध्यः स च 'किण्हे किण्होमास' इत्यादि पदैः पञ्चयसूत्रोक्त वध्यः, किम्पर्यन्तः ? इत्याह- 'जाव देवा आसयंति' यावद् देवा आसते देवा आसत इति पर्यन्तो वर्णको वोध्यः, स च पष्ठसूत्रादवगन्तव्यः, अथोपसंहरन्नाह - ' एवं उत्तरिल्लं पार्स सम' एवमौत्तराई पाश्च समाप्तम् + एवम् विजयादिवर्णनेन औत्तराहम् उत्तरदिग्भवं पाश्व पार्श्वभागः समाप्त - सम्पूर्णम् वक्तव्यमिति शेषः, प्राक् चतुर्विभागत्वेदोद्दिष्टस्य विदेहक्षेत्रस्य पूर्वोत्तरपा विजयादि वर्णनापेक्षया पूर्ण निर्दिष्ट मित्यर्थः,
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१९
पञ्चयंतेणं) नीलवंत वर्षधर पर्वत के पास में इसका विष्कम्भ भागप्रमाण रह गया है अर्थात् १ योजन के १९ खंडों में से एक खण्ड प्रमाण रह गया है (से णं एगए उदरवेश्याए एगेण य वणसंडेणं संपरिविखन्तं वष्णओ सीघामुहवणस्स जाव देवा आसयंति एवं उत्तरिल्लं पास सम्पन्त) यह सीता महानदी का उत्तर मुखवन एक पद्मवरवेदिका से और एक बनवण्ड से संपरिक्षिप्त है - घिरा हुआ है इन दोनों का पद्मवर वेदिका और वषण्ड का यहां पर वर्णन कर लेना चाहिये और यह वर्णन चतुर्थ और पंचम सूत्र से समझ लेना चाहिये तथा सीता मुख का वर्णन "किहे कि होभासे" आदि पदों द्वारा जैसा पीछे वन का वर्णन किया जा चुका है वैसा ही वह वर्णन - " यावत् अनेक व्यंतर देव और देवियां यहां पर आकर आराम करती हैं विश्राम करती है" यहां तक के सूत्रपाठ को वहां से लेकर यहां पर कह लेना चाहिये यह सूत्रपाठ यहां छट्टे सूत्र में कहा गया है इस तरह के इस विजयादि के वर्णन से उत्तर दिग्बत जो पार्श्व भाग है उसका वर्णन समाप्त हो गया जानना चाहिए पूर्व में विदेह क्षेत्र के નીલવન્ત વધર પતની પાસે એના વિષ્ણુભ ભાગ પ્રમાણુ રહી ગયે છે. એટલે } ये योन १८ अ डोभाथी १ खंड प्रभाणु ने सो रही गया छे. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं संपरिक्खित्तं वण्णओ सीचामुहवणम्स जाव देवा आसयंति एवं उत्तरिल्लं पासं सम्मत्तं' भी सीता भहानही उत्तर भुवन को पद्मवर वेहि श्रर्थी અને એક વનખંડથી સ*પરિક્ષિત છે આવેષ્ટિત છે. પદ્મવર-વેદિકા અને વનખંડ એ બન્નેનુ' અહીં વર્ણન કરી લેવુ જોઈએ. અને એ વન ચતુર્થાં અને પંચમ સૂત્રમાંથી वांची सेवु लेो. तेभन सीता भुभवनतु वर्धन 'किण्हे डिण्होभासे' वगेरे यहा वडे જેવુ પહેલાં વનનુ વર્ષોંન કરવામાં આવેલુ છે તેવુ જ બધુ વન યાવત્ અનેક વ્યન્તર દેવા અને દેવીએ ત્યાં જઇને આરામ કરે છે—વિશ્રામ કરે છે. મમ્મી સુધીના સૂત્રપાઠને અત્રે અધ્યાહ્ત કરી લેવા જોઈ એ. એ સૂત્રપાઠ ત્યાં છટ્ઠા સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે આ વિજયાદિના વનથી ઉત્તર દિગ્ધ જે પા ભાગ છે, તેવુ. કન સમાપ્ત થયું છે, એમ સમજવું જોઈ એ. પૂર્વમાં વિદેહ ક્ષેત્રના
ચાર વિભાગો પ્રકટ
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जम्बूद्वीपप्रतिसूत्र अथ प्रतिविम्यमेकैका राजधानों नामतो निर्दिशनाह-'विजया भणिया' विजया भणिता: वर्णिताः, अत्र भणितानां विजयानां यत्पुनः कथनं तद्राजधानी निरूपयितुम् 'रायहाणीयो इमा' राजधान्य इमाः अनुपदं वक्ष्यमाणाः, ताः पद्यवन्धेन सडयन्ते 'खेमे' त्यादि कच्छविजयतः क्रमेण क्षेमादयो राजधान्यो वोध्या:, तत्र क्षेमा १ क्षेमपुरा २ चैव अरिष्ठा ३ अरिष्ठपुरा ४ तथा खड्गी ५ मञ्जपा ६ अपि चेति समुच्चये औषधी ७ पुण्डरीकिणी ८ इमा अष्टौ शीतामहानद्या उत्तादियानां विजयानां दक्षिणार्द्धमध्यमपण्डेषु बोध्याः ॥१॥
उक्तेष्वष्टसु कच्छादि विजयेषु प्रत्येक वे द्वे इति पोडश विद्याधरश्रेणी निर्दिशनाह'सोलस' इत्यादि पोडश 'विजाहरसेटीओ' विद्याधरश्रेणयः प्रतिवैतादयं द्वयोर्द्वयोः श्रेण्योः चार विभाग प्रकट किये जा चुके हैं सो विदेह क्षेत्र के पूर्व भाग और उत्तर भाग इन दोनों को इस विजयादि वर्णन के अपेक्षा वर्णन समाप्त हो चुका है।
अब सूत्रकार हर एक विजय में जो २ राजधानी है उसका नाम निर्देश करते हुए कहते हैं-(विजया भणिया, रायहाणीओ इमाओ-खेमा १ खेमपुरा २ चेव, रिट्टा ३ रिठ्ठपुरा ४ लहा, खग्गी ५ मंजुसा ६ अविअ ७ ओसही ७ पुंडरीगिणी ८ ॥१॥
विजया राजधानी के सम्बन्ध में पूर्व में कहा जा चुका है । क्षमा १क्षेमपुरा २ अरिष्ठा ३ अरिष्ठपुरा ४ खड्गी ५ मंजषा ६ औषधी ७ और पुण्डरीकिणी ८ ये आठ राजधानियों के नाम है ये आठ राजधानियां कच्छादि विजयों में यथा क्रम से हैं। "अविन" यह "अपिच" इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और यह समुच्चयार्थक है ये आठ राजधानियां सीता महानदी की उत्तर दिशा में रहे हुए विजयों के दक्षिणाई मध्यम खण्डों में है। કરવામાં અાવેલ છે. તે વિદેહ ક્ષેત્રના પૂર્વ ભાગ અને ઉત્તર ભાગ એ બને ભાગની અપેક્ષાએ આ વિસ્થાદિ વર્ણન અને સંપૂર્ણ થયું છે.
હવે સૂત્રકાર દરેકે દરેક વિજયમાં જે-જે રાજધાની છે, તેનું નામ નિર્દેશ કરના है-'विजश भणिया, रायहाणी ओ-खेमा-१, खेमपुरा २ चेव, रिद्वा ३, रिदपुरा ४ तहा, खग्गी ५, मंजूसा ६ अविअ ओसही-७, पुंडरीगिणी ८ ॥ ९ ॥ विश्या यानी विष પહેલાં વર્ણન કરવામાં આવેલું છે. ક્ષેમાં ૧, ક્ષેમપુરા ૨, અરિષ્ઠ-૩, અરિષ્ઠપુરા, ખડ઼ી ૫, મજૂષા-૬, ઔષધી ૭ અને પુંડકિશું ૮. એ આઠ રાજધાનીના નામે छ. स. मा पानीले ४२४ा विन्यामा यथाभ छ. 'अविअ' थे. ५४ पिच' એ અર્થમાં પ્રયુક્ત થયેલ છે. અને એ પદ સમુચ્ચયાર્થક છે. એ ૮ રાજધાનીઓ શીલા મહાનદી ની ઉત્તર દિશામાં આવેલા વિજયે ના દક્ષિણુદ્ધ મધ્યમ ખંડમાં છે. હવે સૂત્રકાર કચ્છાદિ વિજમાંથી દરેકે દરેક વિજયમાં જે બે-બે વિદ્યધર શ્રેણીઓ છે તે સંબંધમાં
टता ४२di ४छे-सोलस विजाहरसेढीओ तावइयाओ आभिओगसेढीओ सव्वाओ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम् ३५ सम्भवात् तथा 'तावइआओ' तावत्यः पोडशसंख्यकाः 'अभियोगसेढीओ' आभियोग्यश्रेणय: वक्तव्याः सव्वाओ इमाओ' सर्वा इमा:-अनन्तरोक्ता:-आभियोग्यश्रेणयः 'ईसाणस्स' ईशानस्य ईशानाख्यरयेन्द्रस्य अधीना बोध्याः मेरुत-उत्तरदिग्वतित्वात्, अथावशिष्टानां विजयवक्षस्कारपर्वतादीनां स्वरूपं वर्णयितुं लाघवार्थमतिदेशसूत्रमाह-'सव्वेसु विजएस' इत्यादि-सर्वेषु विजयेषु 'कच्छवत्तव्वया' कच्छवक्तव्यता-कच्छस्य विजयस्य या वक्तव्यता वर्णनरीतिः सा बोल्या, सा किम्पयन्ता ? इत्याह-'जाव अट्ठो' यावदर्थ:-अर्थः तत्तद्विजयानां नामार्थः तत्पर्यन्ता वक्तव्यता बोच्या तत्र च विजयेषु 'रायाणो' राजानः अधिपत्यः 'सरिसणामगा' सदृशनामकाः तत्तद्विजयसदृशनामका बोध्याः, तथा 'विजयेसु' विजयेषु 'सोलसण्ह' 'षोडशानां वक्खारपबयाणं' वक्षस्कारपर्वतानां 'चित्तकूडवत्तव्यया' चित्रकूटवक्तव्यता-चित्रकूटपर्वतवद् वक्तव्यता वर्णनरीतिः वोध्या 'जाव कूडा चत्तारि २' यावत् कूटानि ____ अब सूत्रकार कच्छादि विजयों में ले प्रत्येक विजय में जो दो दो विद्याधर श्रेणियां है उनका निर्देश करते हुए कहते हैं-(सोलस विजाहरसेढीओ तावइयाओ आभि मोगसेढीओ सचाओ इमाओ ईसाणस्स)इन पूर्वोक्त कच्छादि विज़यों में प्रति वैनाढय पर्वत के ऊपर दो अणियों के सद्भाव से तथा इतनी
आभियोग्य श्रेणियों के सद्भाव से १६ विद्याधर श्रेणियां और १६ आभियोग्य श्रेणियां हैं । ये आभियोग्य श्रेणियाँ ईशानेन्द्र की हैं अर्थात् ईशान देव लोक के इन्द्र की अधीनता में ये रहती हैं । क्यों कि ये मेरु से उत्तर दिशा में वर्तमान हैं। (सम्वेतु विजए कच्छ वत्तव्वया जाच अहो रायाणो सरिसणामगा विजएलु सोलसहं वखारपव्ययाणं चित्तकूड वत्तव्वया जाव कूडा चत्तारि २ बारसण्ह नईणं गाहावइ बत्तदया जाच उसओ पासि दोहिं पउमवरवेड्याहिं वणसंडेहि अवण्णओ) जितने ये विजय कहे गये है उन सब विजयों में जो वक्तव्यता है वह उस २ विजय के नाम पर्यन्त तक कच्छ विजय इमाओ ईसाणस' में पूति १२ विध्यामा प्रति देताय पतनी ५२ मे अशीએના સદ્દભાવથી તેમજ એટલી જ આભિયોગ્ય શ્રેણીઓના સદુભાવથી ૧૬ સેળ વિદ્યાધર શ્રેણીઓ અને ૧૬ સેળ આભિયોગ્ય શ્રેણીઓ ઈશાનેન્દ્રની છે. અર્થાત્ ઈશાનદેવલેકના ઈન્દ્રની અધીનતામાં એ રહે છે. કેમકે એ મેરુથી ઉત્તર દિશામાં વર્તમાન છે. सव्वेसु विजएसु कच्छवत्तवया जाव अट्ठो रायणो सरिसणामगा विजएसु सोलसण्हं वक्खार पबयाणं चित्तकूडवत्तव्वया जाव कूडा चत्तारि २ बारसण्हं नईण गाहावइ वत्तव्यया जाव उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं वणसंडेहिं अ वण्णओं' रेसा मे विनय ४वामा આવેલા છે તે સર્વ વિજેમાં જે વક્તવ્યતા છે તે વક્તવ્યતા તત્સંબંધી વિજયના નામ સુધી કચ્છ વિજયની વક્તવ્યતા જેવી છે તેમજ તે વિના જેવાં નામો છે, તે નામ અનુસાર જ ત્યાં ચવતી રાજાઓના નામે છે. તેમજ એક વિજયમાં એક–એક વક્ષસ્કાર
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जम्बूद्धीपप्राप्ति चत्वारि २ चत्वारि २ कूटानि यावद्वर्णितानि भवन्ति तावत् चित्रकूटवक्तव्यता दोध्या, तथा 'चारसोई' द्वादशानां गईण नदीनाम्-अन्तरनदीनाम् 'गाहावइवत्तव्यया' ग्राहावतीवक्ता व्यता वोध्या, साच किम्पयन्ता ? इत्याह-'जाव उभभो' इत्यादि गवद् उभयोः द्वयोः 'पासि पार्श्वयोः 'दोहि द्वाभ्यां 'पउमपरवेझ्याहिं' पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां 'वणसंडेहि वनपण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्ता इति पर्यन्ता, तत्र पद्मवरवेदिकावनपण्डयोः 'वण्णओ' वर्णकः वर्णनपरपदसमूहो योध्या, सच चतुर्थपञ्चमसूत्रानुसारेण वोध्यः ॥सू० २८॥ ' अथ द्वितीय विदेहविभागं प्रदर्शयितुमाह-'काहि णं मंते' इत्यादि , मूलम् - कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीयाए महाणईए दाहिणिल्ले सीयामुहवणे णामं वणे पण्णत्ते ?, एवं जहचेव उत्तरिल्लं सीयामुहवणं तह चेव दाहिणं पि भाणियव्वं, णवरं णिसह. इस वासहरपवयस्ल उत्तरेणं सीयाए महाणईए दहिणेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स पञ्चस्थिमेण वच्छस्स विजयस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं जंबु. दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीयाए महाणईए दाहिणिल्ले सीयामुहणे णाम वणे पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए तहेव सव्वं णवरं णिसहवासह .. पवयंतेणं एगमेगूणवीसहभागं जोयणस्स विक्वंभेणं किण्हे किण्होभासे जाव महया गंधद्धाणि मुअंते जाव आसयंति उभओ पासिं की वृक्तव्यता जैली है तथा उन विजयों का जैसा नाम है उसी नाम के अनुसार वहां चक्रवर्ती राजाओं का नाम है। तथा विजयों में जो प्रत्येक विजय में एक एक वक्षस्कार पर्वत के होने ले १६ वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं। उन वक्षस्कार पर्वतों की वक्तव्यता चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत की वक्तव्यता जैसी है तथा इन वक्षस्कार पर्वतों के ऊपर हर एक वक्षस्कार पर्वत पर ४-४ जो कूट प्रकट किये गये हैं उनकी वक्तव्यता चित्रकूट पर्वत के कूटों जैसी है । तथा १२ अन्तर नदियों की वक्तव्यता ग्राहावती नदी की दोनों पाच भागों में दो पदम वर, वेदिकाएं और दो वनड़ों के वर्णन तक की वक्तव्या के जैसी है ॥२८॥ પર્વત હોવાથી કુલ ૧૬ વક્ષસ્કાર પર્વતે થાય છે. તે સર્વ વક્ષસ્કાર પર્વત વિષેની વ્રતચંતા ચિત્રકૂટ વક્ષસ્કાર પર્વતની વક્તવ્યતા જેવી છે તેમજ એ વક્ષસ્કાર પર્વતની ઉપર એટલે કે દરેકે દરેક વક્ષસ્કાર પર્વત ઉપર ચાર–ચાર કર્યો પ્રકટ કરવામાં આવેલા છે અને તેમની વક્તવ્યતા ચિત્રકૂટ પર્વતના જેવી છે. તેમજ ૧૨ અંતર નદીઓની વકતવ્યતા પ્રાપાવતી નદીના બન્ને પાશ્વભાગમાં બે પદ્મવરવેદિકા અને બે વનડે સુધી વનવ્યતા જેવી છે ૨૮
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प्रकाशिका टीका-तुर्थवक्षस्कारः सू० २९ द्वितीय विदेहविभाग निरूपणम् दोहिं उसवरवेइयाहि वणत्रणओ इति ।
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कहि णं भंते ! जंबुद्दीचे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णामं विजएं पण्णत्ते ?, गोषमा ! णिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेण सीयाए महाईए दाहिनेणं दाहिणिल्लस्स सीवामुहवणस्स पच्चत्थिमेणं तिउडस्स वक्खारपव्वस्त पुरत्थिमेणं एत्थगं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णामं विजय पण तं चैव पनागं सुसीमा रायहाणी १, तिउडे वक्खारपव्वए सुवच्छे विजय कुंडला रायहाणी २, तत्तजलाई, महावच्छे विजए अपराजिया रायहाणी ३, वेसमणकूडे वक्खारपए बच्छावई विजय पभंकरा रायहाणी ४, मत्तजलाई रस्मे विजए अंकावई रायहाणी ५, अंजणे वक्खारपन्वए रम्भगे विजए पन्हावई रायहाणी ६, उम्मतला महाणई रमणिज्जे विजए सुभा रायहाणी ७, मायं जणे ...वक्खारपव्वए मंगलावई विजए रयणसंचया रायहाणीति ८ एवं जह . चैव सीयाए महाणईए उत्तरं पासं तहचेव दक्खिणिल्लं भाणियव्वं, दाहिणिल्लं सीयामुहवणाइ, इमे वक्खारकूडा-तं जहां- तिउडे १ वेसमणकूड २ अंजणे ३ मायंजणे ४ ( ई उ तत्तजला १ मत्तजला उम्मत्त जला ३) विजया तं जहा-बच्छे सुबच्छे महावच्छे, 'चउत्थे वच्छ गावई । रमे रम्नए चेक, रमणिज्जे मंगलावई | १|| रायहाणीओ तं जहा - सुसीमा कुंडला चेत्र अपराजिय पहंकरा । अंकावई पम्हावई सुहा रणसंवया ॥ २ ॥ वच्छस्त विजयस्त जिसहे दहिणेणं सीया उत्त रेण दाहिणिल्ले लीयाहवणे पुरस्थि मेणं तिउडे पच्चत्थिमेणं सुसीमा
यहाणी पमाणं तं चैवेनि, वच्छरणंतरं तिउडे तो सुवच्छे विजए एए कमेणं तराजला गई महावच्छे विजय वेसमणकूडे वक्खारपन्चए वच्छावई विजए मजला गई रस्मे विजए अंजणे क्क्खारपन्त्रए रम्मए विजए उम्मत्तजला नई रमणिज्जे विजए मायंजणे वक्खारपव्वए मंगलावई जिए || सू०२९॥
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस
छाया -क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महादिदेहे वर्षे शोताया महानद्याः दाक्षिणात्यं शीताखवनं नाम वनं प्रज्ञतम् ? एवं यथैव औत्तराहं शीता मुखवनं तथैव दक्षिणमपि भणितव्यम्, नवरं निपधस्य वर्प र पर्वतस्य उत्तरेण शीवाया महानद्या दक्षिणेन पौरस्त्यलवण समुद्रस्य पश्चिमेन वत्सस्य विजयस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे शीताया महा'नद्या दाक्षिणात्यं शीता मुखवनं नाम वनं प्रज्ञतम् उत्तरदक्षिणायतं तथैव सर्व नवरं निपववर्ष घरपर्वतान्तेन एकमेक्रोनविंशतिसागं योजनस्य विष्कम्भेण कृष्णं कृष्णावसासं यावत् महागन्धघाणि मुञ्चन्तो यावद् आसते उभयोः पार्थयोः द्वाभ्यां पद्मवर वेदिकाभ्यां चनवर्णक इति ।
ar खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे वत्सो नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! निपधस्य वर्पधरपर्वतस्य उत्तरेण शीताया महानद्या दक्षिणेन दक्षिणात्यरय शीतामुखवनस्य पश्चिमेन त्रिकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे - वत्सो नाम विजयः प्रज्ञप्तः, प्रमाणं सुसीमा राजधानीं १, त्रिकूटो वक्षस्कारपर्वतः मुवत्सो विजयः कुण्डला राजधानी २, तप्त जला नदी महावत्सो विजयः अपराजिता राजधानी ३, वैश्रवणकूटो वक्षस्कारपर्वतो वत्सावती विजयः प्रभङ्करा राजधानी ४, मत्तजला नदी रम्यो विजयः अङ्कावती राजधानी ५, अञ्जनो वक्षस्कारपर्वतो रम्यको विजयः पक्ष्मावती राजधानी ६, उन्मत्तजला महानदी रमणीयो विजयः शुभा राजधानी ७, मातञ्जनो वक्षस्कार पर्वतो मङ्गलावती विजयः रत्नसञ्चया राजधानी ८, एवं यथैव शीताया महानद्या पार्श्व तथैव दाक्षिणात्यं भणितव्यम्, दाक्षिणात्यशी तासुखवनादि, इमानि वक्षस्कारकूटा ! तथा त्रिकूट : १ वैश्रवणकूटः २ अञ्जनः ३ मातञ्जनः ४ 'नदी तु तप्तजला १ मत्तजला २ उन्मत्तजला ३' विजयाः तद्यथा-वत्सः सुवत्सो महावत्स चतुर्थी वत्सकावती । रम्यो erreचैव रमणीयो मङ्गलावती ॥१॥ राजधान्यः, तद्यथा - सुसीमाकुण्डला चैव अपराजिता भरा अङ्काaat yearedी शुभ रत्नसञ्चया ||२|| वत्सस्य विजयस्य निपधो दक्षिणेन शीता उत्तरेण दाक्षिणात्य सीतामुखवनं पौरस्त्येन त्रिकूटः पश्चिमेन सुसीमा राजधानी प्रमाणं 'तदेवेति, वत्सानन्तरं त्रिकूटः, ततः सुवत्सो विजयः, एतेन क्रमेण सजला नदी महावत्सो विजयः वैश्रवणकूटो वक्षस्कारपर्वतो वरसावतो विजयो मत्तजला नदी रम्यो विजयः अञ्जनो वक्षस्कारपर्वतः रम्यको विजय उन्मत्तजला नदी रमणीयो विजयो मातञ्जनो वक्षस्कारपर्वतः मङ्गलावती विजय: ।। सू० २९ ॥
S
द्वितीय विदेह की प्ररूपणा
'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वाले' - इत्यादि
टीकार्थ - इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है - ( कहि णं
દ્વિતીય વિક્રેડ વિભાગની પ્રરૂપણા
'कहिणं भंते ! जंबुद्दीचे दीवे महा विदेहे वासे' इत्यादि
टीडार्थ-स्मा सूत्र वडे गौतमस्वाभीओ अभुनेोवी रीते अन ये छे है 'काहणं भवे 1
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू. २९ द्वितीयविदेहविभागनिरूपणम् ३८१
टीका-कहि णं भंते ! इत्यादि-क्न खलु भदन्त ! 'जंबुद्दोवे जम्बूद्वीपे जग्बूद्वीपनामके 'दीवे' द्वीपे 'महाविदेहे' महाविदेहे 'वासे' वर्षे 'सीयाए' शीताया शीतानाम्न्याः 'महाणईए' महानद्याः 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्यं-दक्षिणदिग्वति 'सीयाहवणे' शीतामुखवनं 'णाम' नाम 'वणे' वनं 'पण्णते ?' प्रज्ञप्तम् ?, इतिप्रश्ने औत्तराह शीतामुखश्नरत् तद्वर्ण'यितुमतिदेशसूत्रत्वेनोत्तरसूत्रमाह-एवं जहचेव' इत्यादि-एवम् असुना प्रकारेण यथैव 'उत्तरिल्लं' औत्तराहम्-उत्तरदिग्वति 'सीयामुहवणं' शीतामुखवनं प्रागुक्तं 'तहचेव' तथैव तेनैव प्रकारेण 'दाहिणंपि' दक्षिणमपि-दक्षिणदिग्वर्त्यपि शीतामुखवनं 'भाणियव्वं' भणितव्यं वक्तव्यम्, परन्तु अनन्तरसूत्रोक्तोत्तराह-शीतामुखवनायो विशेपस्तं प्रदर्शयितुमाह-'णवरं' इत्यादि नवरं केवलं 'णिसहस्स' निषधस्य-निषधनामकस्य 'वासहरपब्वयस्स' वर्पधरपर्वतस्य : 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'सीयाए' शीतायाः 'महाणईए' महानद्याः 'दाहिणेणं' दक्षि'णेन दक्षिणदिशि 'पुरस्थिमलवणसमुदस्स' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य-पूर्वदिग्पतिलवणसमुद्रस्य • 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'वच्छस्स' वत्सस्य-वत्सनामकस्य विदेहद्वितीय भागवतिनः प्रथमस्य 'विनयस्स' विजयस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वस्यां दिशि ‘एत्थ' अत्रभंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीयाए महाणईए दाहिणिल्ले लीयामुहवण्णे णामं वणे पण्णत्ते) हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नाम के इस द्वीप में महाविदेह क्षेत्र में सीता महानदी का दक्षिण दिग्भागवती सीता सुखवन नामका वन कहां पर कहा गया है इसके उत्तर में प्रभु कहने हैं-एवं जह व उन्तरिल्लं स्लीयामुहवणं तह चेव दाहिणपि भाणियव्य) हे गौतम ! जैसा कथन लीता महानदी के उत्तर दिग्वती सीतामुखपन नाम के वन के विषय में किया गया है वैसा ही कथन इस दक्षिणदिग्वती सीतामुखवनके विषय में भी जान लेना चाहिए (णवरं णिसहस्त वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं सीयाए महाणईए दाहिणेणं पुरथिम लवणसमुदस्स पच्चत्थिमेण वच्छस्स विजयस्स पुरथिलेणं एत्थणं जवुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे) परन्तु उत्तरदिग्वनी सीतामुखयन की अपेक्षा जो इस वन जंबुढीवे दीवे महाविवेहे वासे सीयाए महाणईए दाहिणिल्ले सीयामुह्वणे णोमं वणे पण्णत्ते के ભદંત ! એક લાખ જન વિસ્તારવાળા જંબૂઢીપ નામક આ દ્વીપના મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં સીતા મહાનદીના દક્ષિણ ભાગ સીતામુખવન નામે વન ક્યા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાબમાં प्रभुश्री ४३ है-'एवं जहचेव उत्तरिल्लं रीयामुहवणं तहचे दाहिणं पि भाणियन्वं' गौतम ! જેવું કથન સીતા મહાનદીના ઉત્તર દિગ્વતી સીતા મુખવન નામક વન વિષે સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે, તેવું જ કથન આ દક્ષિણ દિશ્વત સતા મુખવન નામક વનવિષે પણ aag a २४ये. 'णवरं णिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं सीयाए महाणईए दाहिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेण वच्छरस विजयस्स पुरथिमेणं एत्थर्ण जंबुहीवे दीवे महाविदेहे वासे' ५ उत्तरपिता सीता भुभपतनी मपेक्षा २ मा बनना
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जम्बूद्वीपप्रजतिसूत्र अत्रान्तरे 'ण' बलु 'जंबुद्दीवे' जम्बूद्वीपे 'दीवे' द्वीपे 'महाविदेहे महाविदेहे 'वामे वर्षे 'सीयाए' शीतायाः 'महाणईए' महानद्याः 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्य दक्षिणदिग्वति 'सीयामुहवणे' शीतामुखवनं ‘णाम' नाम 'वणे' वनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, एतच्च 'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायतम्-उत्तरदक्षिणदिशोर्दीर्घ 'तहेव' तथैव औत्तराहशीतामुखरनवदेव 'सव्वं' सर्व प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्ण पोडशयोजनसहस्राणि एञ्च च द्वानवत्यधिकानि योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशतिभागी योजनस्य आयामेन इत्येतत्समस्तं च तथैव अतः परं ततो विशेष . दर्शयितुमाह-'णवरं' नवरं केवलं 'णिसहवासहरपचयंते णं' निपधवर्षधरपर्वतान्ते-निषध
नामक वर्षधरपर्वतस्यान्ते समीपे खलु 'एगं' एकम् 'एग्रणवीसइमागं' एकोनविंशतिभागम 'जोयणस्स' योजनस्य 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण पुनस्तत् कीदृशम् ? इत्याहके कथन में विशेषता है वह ऐसी है कि यह दक्षिणदिग्व सीतामुखवन निषध वर्षधर पर्वत की उत्तर दिशा में, सीतामहानदी की दक्षिण दिशा में, पूर्व दिग्र्ती लवणसमुद्र की पश्चिम दिशा में और विदेह के द्वितीय भान में रहे हुए वत्स नान के प्रथम विजय की पूर्व दिशा में इस जंबूदीप के अन्तर्गत विदेह क्षेत्र के भीतर कहा गया है । यह वन (उत्तर दाहिणायए तहेव सव्वं णवरं णिलहवासहर पच्वयंतेणं एगमेगूणवीसइभागं जोयणस्स विक्खंभेणं, किण्हे किण्होभाले, जाव महया गंधद्धाणि सुयंते जाच आलयंति) उत्तर से दक्षिण तक लम्बा है इत्यादि रूप से सब कथन उत्तर दिग्वर्ती सीता मुखवन की तरह से यहाँ पर कह लेना चाहिए तथाच पूर्व से पश्चिम तक विस्तृत है १६५९२२ योजन का इसका आयाम है इत्यादि परन्तु यह क्रमशः घटते २ निषध वर्षधर पर्यंत के पास में योजन प्रमाण अर्थात् १ योजन के १९ भागों मसे १ भाग प्रमाण विस्तार वाला रह जाता है यह वन क्वचित् २ कृष्ण કચનમાં વિશેષતા છે તે આ પ્રમાણે છે કે આ દક્ષિણ દિવતી સીતા મુખવન નિષેધ વર્ષધર પર્વ ની ઉત્તર દિશામાં સીતા મહા નદી દક્ષિણ દિશામાં, પૂર્વ દિગ્ગત લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં અને વિદેહના દ્વિતીય ભાગમાં આવેલ વત્સ નામક પ્રથમ विशयनी पूर्व से त२६ गुदी विमा छे. मापन 'उत्तरदाहिणायए तहेव सव्वं णवर णिसहवासहरपन्चयंतेण एगमेगणवीसइभागं जोयणरस विक्खंभेणं' किण्हे • किण्होमासे, जाव महया गंधद्वाणि मुयते जाव आसयति' उत्तरथी दक्षिण सुधी ही छ, વગેરે રૂપમાં બધું કથન ઉત્તર દિગ્વતી સીતા મુખવનની જેમ જ અહીં પણ સમજી લેવું જોઈએ. તથા પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી વિસ્તૃત છે. ૧૬૯૨ જન જેટલો એને આયામ છે ઇત્યાદિ, પણ આ અવૃક્રમે ક્ષીણ થતું ગયું છે અને નિષધ વર્ષધર પર્વતની પાસે જ જન પ્રમાણ એટલે કે ૧ રોજનના ૧૯ ભાગમાંથી ૧ ભાગ પ્રમાણુ વિસ્તાર યુક્ત રહી જાય છે. આ વન કુવચિત-વચિત કૃષ્ણ વર્ણવાળા પગેથી યુક્ત હવા બદલ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः स. २९ द्वितीयविदेहविभागनिरूपणम् 'किण्हे' इत्यादि-कृष्णं कृष्णवर्णम् मध्यमावस्थायां कृष्णवर्णपत्रसम्पनखाहनमपि कृष्णवर्णम् न चोपचारमात्रेण कृष्णमिति व्यपदिश्यते किन्तु कृष्णतया प्रतिभासनात् तथाऽऽह 'किण्हो भासे' कृष्णावभासम् यावति वनभागे कृष्णदलानि सन्ति तावति तद्भागे तद्वनमतीव कृष्णवर्णमवभासमानम् अतः परं नीलं नीलावभासमित्यादि सङ्ग्रहीतुमाह-'जाच' अत्र यावत्पदेन संग्राहयपदानां सङ्ग्रहोऽर्थश्च पञ्चमसूत्रटीकातो वोध्यः 'महया गंधद्धाणि' महागन्धघ्राणि 'मुअंते' मुश्चन्तः इत्यारभ्य 'जाव आसयंति' यावदासते 'आसते' इति पर्यन्तानां पदानां सङ्ग्रहोऽत्र बोध्याः स च सार्थः पञ्चमषष्ठसूत्राभ्यां वोध्यः। तथा तत् 'उभो पासिं उभयोः द्वयोः पार्श्वयोः भागयोः 'दोहि' द्वाभ्यां 'पउमवरवेइयाहिं' पद्मवरवेदिकाभ्याम् इत्युपलक्षणं तेन द्वाभ्यां वनषण्डाभ्यां च सम्पशिक्षिप्तम् इत्येतत्पदद्वयस्य सङ्ग्रहो बोध्यः, तयोः 'वण्णओ' वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहोऽत्र वोध्यः स च प्राग्वत् चतुर्थपञ्चमसूत्राभ्यां वोध्यः । ___ अथ द्वितीये महाविदेहविभागे वत्सादिविजय-तत्प्रमाणसुसीमादि-राजधानी त्रिकूटादि वक्षस्कारपर्वतः तप्तजलादि नदी व्यवस्थामाह-'कहि णं भने !' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं स्पष्टम्, वर्ण वाले पत्रों से युक्त होने के कारण कृष्ण है, और इसी कारण यह कृष्ण रूप से प्रतिभासित होता है क्वचित् २ यह वन नील पत्रों से युक्त होने ने कारण नीला है और इसी से यह नीला प्रतीत होता है इत्यादि रूप से इस वन का वर्णन पंचम सूत्र की टीका के अनुसार कर लेना चाहिये यहाँ आगत यावत्पद से यही बात प्रकट की गई है 'महया गंधद्धाणि सुयंते" से लेकर "जाव आसयंति" यहाँ तक के पदों का संग्रह पंचम और छठे सूत्र के कथनानुसार यहां पर कर लेना चाहिये यह वन (उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेष्याहिंदोहि वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते) दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं से एवं दो बनपंडों से घिरा हुआ है इन दोनों का पद्मवरवेदिका और वनषंड का-वर्णनकरने वाले पदसमूह समग्र प्रकार से यहां चतुर्थ पंचम सत्र से समझ लेना चाहिये (कहिणं भंते ! जंघुद्दीवे दीवे महाविदेहे यासे बच्छे णामं विजए पग्णत्ते) भदन्त ! जंबुद्वीप કુણું છે. અને એથી જ આ કૃષ્ણ રૂપમાં પ્રતિભાસિત થાય છે. કવચિત-કવચિત આ વન નીલપથી યુક્ત હોવા બદલ નીલુ છે અને એથી જ આ નીલું પ્રતીત થાય છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં આ વનનું વર્ણન પંચમ સૂત્રની ટીકા મુજબ સમજી લેવું જોઈએ. यही मावता यावतू ५४थी मे पात घट ४२वामां मावी छ 'महया गंधद्धाणि मयंते। महीथी भांडअन 'जोव आसयंति' मही सुधाना हानु हY ५ यम भने ५४ सूचना थन भु५ मही श से ले . मापन 'उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं वणसंडेहि संपरिक्खित्ते' भन्ने त२५ मे ५१२वडियोथी तेभर मे बनम 3.2ी मावृत छ પવવર વેદિકા અને વનખંડ વિષેનું વર્ણન ચતુર્થ અને પંચમ સૂત્રમાં કરવામાં આવેલું छ. Coralसुमीतमाथी लावा यन ४२. 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविहे वासे वच्छे
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जम्बूद्वीपप्रतिस्ते उत्तरसूत्रे 'गोयमा !" हे गौतम ! 'णिसहस्स' निषधस्य-निपधनामकस्य 'वासहरपव्ययस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'सीयाए' शीतायाः 'महाणईए' मानधाः 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'दाहिणिल्लस्स' दाक्षिणात्यस्य दक्षिणदिग्यर्दिनः 'सीयामुहवणस्स' शीताखवनस्य 'पञ्चस्थियेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'तिउडस्स' त्रिकूटस्यत्रिकूटनामकस्य 'वक्खारपस्यस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरस्थिमण' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'एत्य' पत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे जम्बूद्वीपे 'दीवे' द्वीपे 'महाविदेहे महाविदेहे 'यासे' वर्षे 'बच्छे' वत्सः ‘णाम' नाम 'विजए' विजयः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, अस्य 'तं चेव' तदेव 'पमाणं' प्रमाणम् 'सुसीमा' मुसीमा-मुसीमा नाम्नी 'शयहाणी' राजधानी अस्याः प्रमाणमयोध्याराजधानीवन्, अथ विनयविभाजकं वक्षस्कारगिरिमाह-'तिउडे' त्रिकूटः त्रिकूट नामकः 'वक्खारपरए' वक्षस्थारपर्चतः १, 'सुवच्छे' मुवत्सा-मुवत्सनामा 'विजए' विजयः 'कुंडला' कुण्डला कुण्डलानाम्नी 'रायहाणी २' राजधानी 'तत्तजलाणई' तप्तजला नदी नाम के द्वीप में महाविदेह क्षेत्र में वत्स नाम का विजय कहां पर कहा है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! णिसहस्रू वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं सीयाए महाणईए दाहिणेणं दाहिणिल्लस सीयामुहवणस्स पच्चस्थिमेणं तिउडस्स वक्खारपध्वयस्स पुरथिमेणं एस्थ गं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वाले वच्छे णाम विजए पण्णत्त) हे गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत की उत्तर दिशा में सीता महानदी की दक्षिण दिशा में, दक्षिण दिग्वती सीता मुखवन की पश्चिम दिशा में त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत की पूर्व दिशा में जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में वर्तमान विदेह क्षेत्र-महाविदेह क्षेत्र के भीतर वत्स नाम का विजय कहा गया है (तं चेच पमाणं सुसीमा रायहाणी तिउडे वखारपन्चए सुवच्छे विजए कुंडला रायहाणी २ तन्तजला गई महावन्छे विजए अपराजिया रायहाणी ३) इसका प्रमाण वही है सुसोमा यहां राजधानी है इसका वर्णन अयोध्या राजधानी के णाम विजए पण्णत्ते' 8 मत ! दीपभां, महावित क्षेत्रमा पस नाम विजय या स्यने सावट छ ? ना ४५.५i प्रभु ४ छ-'गोयना! णिसहस्स वासहरपधयास उत्तरेणं सीयाए महावईए दाहिणेणं दाहिणिल्लस्स सीयामुहवणस्स पच्चत्थिमेश तिउडस्स वक्खारपव्ययस्स पुरत्थिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णाम विजए पण्णत्ते' હે ગૌતમ ! નિષધ વર્ષધર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં, સીતા મહાનદીની દણિ દિશામાં, દક્ષિણ દિશ્વતી સીતા મુખવનની પશ્ચિમ દિશામાં, ત્રિકૂટ વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વદિશ માં, જંબૂઢીપ નામક દ્વીપમાં વર્તમાન વિદેહ ક્ષેત્ર–મહાવિદેહની અંદર વત્સ નામક વિજય मावत छ. 'तं चेव पमाणं सुमीमा रायहाणी तिउडे वक्खारपव्वए सुवच्छे विजए कुंडला रायहाणी २ तत्तजला णई महावच्छे विजए अपराजिया रायहाणी ३' मेनु प्रभा] पूर्ववत જ છે. અહીં સુસીમાં નામે રાજધાની છે. એનું વર્ણન અધ્યા રાજધાની જેવું છે,
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कार: सू० २९ द्वितीय विदेह विभाग निरूपणम्
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उत्तर नदी 'महावच्छे' महावत्सः - महावत्सनामा 'विजए' विजय: 'अपराजिया' अपराजिता - अपराजितानाम्नी 'रायहाणी' राजधानी ३ 'वेसमणकूटे' वैश्रवणकूटः- वैश्रवणकूटनामा' 'वक्खारपव्वए' वक्षस्कार पर्वतः 'बच्छावईविजए' वत्सावती विजयः 'पभंकरा' प्रभकरा - प्रभङ्करा नाम्नी 'रायहाणी' राजधानी ४ 'मत्तजला गई' मत्तजला नदी 'रम्मे विजए' - रम्यः रम्यनामा विजयः 'अंकावई रायहाणी' अङ्कावती राजधानी ५ 'अंजणे' अञ्जनः अञ्जनामा 'वक्खापoor' वक्षस्कारपर्वतः 'रम्मगे' रम्यक : - रम्यकनामा 'विजए' विजयः 'पहावई' पक्षमावती - पक्ष्मावतीनाम्नी 'रायहाणी' राजधानी ६, 'उम्मत्तजला महाणई' उन्मतजला उन्मत्त जलानाम्नी महानदी 'रमणिज्जे' रमणीयः- रमणीयनामा 'विजए' विजय: 'सुभा' शुभा - शुभानाम्नी 'रायहाणी' राजधानी ७ 'मायंजणे' मातञ्जनः --मातञ्जननामा 'वक्खारपoar' वक्षस्कारपर्वत: 'मंगलावई चिजए' मङ्गलावती - मङ्गलावतीनामकः जैसा है । त्रिकूड नाम का वक्षस्कार पर्वत है सुबत्स विजय है, कुंडला नामकी यहां राजधानी है और तप्तजला नाम की नदी है महावत्स नामका विजय है अपराजिता नाम की राजधानी है ( एवं वेसमणकूडे वक्खारपव्वए) वैश्रवण कूट नामका वक्षस्कार पर्वत है (वच्छावई विजए पभंकरा रायहाणी) वत्सावती विजय है और इसमें प्रभंकरा नामकी राजधानी है (मत्तजला गई) मत्तजला नाम की नदी है (रम्मे विजए, अंकावई रायहाणी ५ अंजणे वक्खारपव्वए) रम्य नाम का विजय है, अङ्कावती नाम की इसमें राजधानी है अंजन नाम का वक्षस्कार पर्वत है ( रम्मगे विजए पन्हावई रायहाणी ६ उम्मत्तजला महाणई) रम्यक नाम का विजय है, पद्मावती नामकी इसमें राजधानी है और उन्मत्त जला नामकी नदी है (रमणिज्जे विजए सुभा रायहाणी ७ मायंजणे वक्खारपव्वए) रमणीय नामका विजय है शुभ नामकी राजधानी है और मातञ्जन नाम का वक्षस्कार पर्वत है (मंगलावई विजए रयणंसचया रायहाणी ८) मंगलावती
•
અહીંં ચિત્ર ફૂટ નામે વક્ષસ્કાર પવત છે અને સુવત્સ વિજય છે અહીં કુંડલા નામક રાજધાની છે અને તપ્તજલા નામક નદી છે. મહાવત્સ નામક વિજય છે અને અપરાनिता नामः राजधानी छे. 'एवं वेसमणकूडे वक्खारपव्वए' वश्रवा ईट नाभ पक्ष२४२ पर्वत छे. 'वच्छावईविजए पकरा रायहाणी' वत्भावती विनय हो भने मेभां अल ४२॥ नाभ४ राज्धानी छे. 'मत्तनला गई' भत्ता नामे नही छे. 'रम्मे विजए, अंकावई रायहाणी ५ अंजणे वक्वारपत्रए' २भ्य नाभा विश्य छे, अावती नाभे खेभां राष्ट्रघानी छे, मटन नाम वक्षस्कार पर्वत हे 'रम्मगे विजय पहावइ रायहाणी ६ उम्मत्तजला महाणई' २४५४ नामे विनय छे. अडावती नाम मेभां राज्धानी छे भने उन्भन्त नया नाभ४ नही छे. 'रमणिज्जे विजए सुभा रायहाणी ७ मायंजणे वक्खारपव्वए' રમણીય નામક વિજય છે. શુભા નામક રાજધાની છે અને માતરંજન નામક વક્ષસ્કાર
ज० ४९
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. . . . . . . . . . . अम्यूलीपप्राप्तिसूते. 'विजए' विजयः रियणसंचया रायहाणी' रत्नसञ्चया-रत्नमयानाम्नी राजधानी ८, इमा, राजधान्य: शीतामहानदी दक्षिणदिग्वतित्वेन विजयानामुत्तराईमध्यमखण्डेपु वोध्या, ... अथ ,विजयादीनां विष्कम्भादि समानत्वे दर्शितेऽपि कञ्चिदपि पार्श्वयोः परस्परं भेदो न स्फुटी भवितुमर्हे दिति संशयं निराकर्तुमाह-'एवं जह चेव' इत्यादि-एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण, यथैव-येनैव प्रकारेण 'सीयाए' शीतायाः 'महाणईए' महानघाः 'उररं पास', उत्तरं पार्श्व प्राच्यम् 'सह चेव' तथैव-तेनैव प्रकारेण 'दक्खिणिल्लं दाक्षिणात्य-दक्षिणदिग्पतिः पार्श्वमपि 'भाणियन्वं' भणिराव्य-वक्तव्यं तच कीदृशम् इत्याह-'दाहिणिल्लसोयामुहवणाइ? दाक्षिणात्यशीतामुखवनादि-दाक्षिणात्यं शीतासुखदनमादिःप्रथमं यस्य तदाक्षिणात्यशीता-- मुखवनादि, ए होन यथा प्रथमविभागस्य कच्छविजय आदिरमिहितस्तथा द्वितीयविभागस्यादि। दाक्षिणात्यशीतामुख्यनमुक्तमिति तथा 'इमे वक्वारकूडा' इमे वक्षस्कार कूटा:-वक्षस्काराश्यते.. कूटा:-कूटानि सन्त्येपामिति कूटा:-कूटवन्तः अत्रार्श आदित्वादच प्रत्ययो बोध्या, वक्षस्कोरकूट: वक्षस्कारपर्वताः 'तं जहा' तद्यथा-'तिउढे त्रिकूटः १ 'वेसमणकूढे', वैश्रवण, विजय है रत्नसंचया नासली राजधानी है ये सब राजधानियां शीता महानदी को दक्षिण दिशा में हैं इस कारण विजयों के उत्तरार्ध मध्य खंडो में व्यवस्थित हैं। (एवं जहवेव लीयाए महाणईए उत्तरं पालं तहचेव दक्खिणिल्ल भाणिय); इस तरह जैसा सीता नदी का उत्तर दिग्पति पर्यभाग कहा गया है वैसा ही सीता नदी का यह दक्षिणं दिग्धती पश्चिम भाग कहा गया है, (दाहिणिल. सीयांमुह वाइ) जिस प्रकार से प्रथम विभाग की आदि में कच्छ विजय, कहा गया है इसी प्रकार से इस द्वितीय विभाग की आदि में दक्षिण दिग्वी, सीतानुख बन कहा गया है (हमे पक्खारकूडा) ये वक्षस्कार पर्वत हैं (तं जहा); जैसे-(तिउडे१ वेसमणक्रूडे २ अंजणे३ मायंजणे४, (गइउ तत्तजला मत्तजला उम्मतंजलाई, तप्तजला१ मन्तजलार और उन्मत्तजला३ ये नदियां है. . : : पति छे. 'मंगलावई विजए रगणसंचया रायहाणी भरावती य छ. रत्नस यया નામક રાજધાની છે. એ સર્વ રાજધાનીઓ'શીતા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં છે એથી स यिोना उत्तराध' भय भी व्यस्थित है.' 'एवं जहचेत्र सीगए महाणा ई। उत्तरं पास तहचेव दक्खिणिल्लं भाणियव्वं' मा प्रभारी रम सीताना त्तर हिपता પાશ્વભાગ વિષે વર્ણન કરવામાં આવેલું છે, તેવું જ આ સીતા નદીના દક્ષિણે દિગ્વતી पश्चिम भाग ५ वामामावेश छ 'दाहिणिल्लसीयामुहवाई ३२ प्रभाएं प्रथम વિભાગના પ્રારંભમાં કચ્છ વિજય વિષે કહેવામાં આવેલું છે તે પ્રમાણે આ દ્વિતીય AHITHI HIRai क्षिपिता सीताभुमन वर्ष ५५ समान: "इमें' वक्खारकूडा' या १९४२ ताछे. 'तं जहा' रेम -'तिउडे १, वेसगणकूडे. २ अंजो.,३, मायजणे ४,' प्रिट, वैश्रम , म मने मायन'ट.'णइ 'उ त', त्तजला १, मत्तजला.., उम्मत्तजला ३, तप्तoren १,,भत्ता २, गन::Havels
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प्रकाशिका, टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २९ द्वितीयविदेहविभागनिरूपणम् ३८७ कूटः २ 'अंजणे' अञ्जनः ३ 'मायंगणे' मातञ्जनः ४ 'गईउ तत्तजला १ पत्तजला २ उम्मत्त जला ३ नदोतु-ततजला १ मत्तजला २ उन्मत्तजला ३ इमास्तिनः। अथ वत्सादि 'विजयानां सङ्ग्रहार्थमाह-'विजया तं जहा' इत्यादि-विजयाः तघया-'वच्छे सुवेच्छे इत्यादि पद्यमुत्तानार्थस् १, एतच्च पधं विजयानामेकदैव सुखबोधार्थमुक्तं तेन न पुनरुक्तिः शङ्कनीया, एवं राजधानीनामेन नामानि सङ्ग्रहीतुं पधमाह-रायहाणीओ तं जहा' इत्यादि राजधान्यः, तद्यथा 'मुसीमा कुंडला चेव' इत्यादि पधं सुगमम् ।'
" अथ पूर्वसूत्राद्वत्स विजयस्य दिनियमे छुगमेऽपि सूत्रप्रवृत्तिवैचित्र्यात्तनियमनाथ क्रमान्तरमाह-वच्छस्स' इत्यादि-वत्सस्य-वत्सनामस्य 'विजयस्स' विजयस्य : 'णिसहे' निपधा-निषधनामको वर्षधरपर्वतः 'दाहिणेणं'- दक्षिणेन दक्षिणदिशि तथाऽस्य सीया' शीता-शीतानाम्नी महानदी 'उत्तरेण उत्तरेण उत्तरदिशि वर्तते 'दाहिणिल्लसीयाहवणे दाक्षिणात्यशीतामुखवन 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन--पूर्वदिशि 'तिउडे' त्रिकूटो-त्रिकूटनामा वक्षस्कारगिरि 'एचस्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'सुसीमा सुसीमा 'रायहाणी' राजधानी “अस्याः 'पमाण: प्रमाणं 'तं. चेव तदेव-पूर्वोक्तमेव-अयोध्या राजधानीवत्' इतिभावः, राजधान्याः पुनरुपादानं प्रमाणकथनार्थम् तेन न पुनरुक्तिदोषः, , , . ,
(विजया तं जहा) ये विजय हैं-(वच्छे, सुवच्छे, महावच्छे, चउत्थे वच्छगावई रम्मे रम्मए चेव रमणिज्जे मंगलावई ॥१॥ वस्त, सुचत्स, महावत्स, घत्सकावती, रम्य, रम्यक, रमणीय और मंगलावती (रायहाणीओ (तं जहा) ये राजधानियां हैं-(सुसीमा कुंडला चेव अपराजिय पहंकरा अंकावई पम्हावई सुहा रयणसंचया) सुसीमा, कुंडला, अपराजिता, प्रशंकरा, अंकावती, पक्षमावती, शुभा और रत्नसंचया, (बच्छत विजयस्त णिलहे दाहिणणं सीया उत्तरेणं 'दाहिणिलहीयावहवणे पुरस्थिमेणं तिउडे पच्चत्थिमेणं संसीमा रायहाणी पसाणं तं देवेति) वत्संविजय की दक्षिण दिशा में निषध पर्वत है और उत्तर दिशा में सीता महानदी है तथा पूर्व दिशा में सीतामुखवन है और पश्चिम " मधी नहीच्या 2. 'विजया तं जहा' मा वियो छ भाडे-'वच्छे, सुवच्छे, महावच्छे, चउत्थे वच्छगावई, रम्मे रम्मए चेव रमणिज्जे मंगलावई ॥१॥' वत्स, सवत्स, - महास, वरसावती, २भ्य, २भ्य४, २भणीय भने मनसावती. 'रोयहोणीओ तं 'जहा' ! - 'धानीमा छ-'सुसीमा कुडलाचे अपराजिय पहंकरा अंकावई पम्हावई सुहा रयणसंचया' સુસીમા, કંડલા, અપરાજિતા, પ્રભંકરા, અંકાવતી, પદ્માવતી, શુભ અને રત્નસંચય 'वच्छस्स. विजयस्स णिसहे दाहिणेणं सीयः उत्तरेणं दाहिणिल्लसीयांमुहवणे पुरथिमेणं तिउडे पच्चत्थिमेगं सुसीमा रायहाणी पमाणं तं चेवेति' वत्सपियनी Elay शाम निषध પર્વત છે અને ઉત્તર દિશામાં સીતા મહાનદી છે તેમજ પૂર્વ દિશામાં સીતા મુખન છે અને પશ્ચિમ દિશામાં ત્રિકૂટ વક્ષસ્કર પર્વત છે. સુસીમા અહી રાજધાની છે; એનું
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ચૂંટઢ
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
अपां वत्सादि विजयानां स्थानक्रमं प्रदर्शयितुमाह - ' वच्छानंतरं' इत्यादि-वत्सानन्तरं वत्सस्य वत्सनामकविजयस्य अनन्तरं परम् 'तिउडे' त्रिकूट:- त्रिकूट नामको वक्षस्कारपर्वतोsस्ति स च पश्चिमतो वोध्यः 'तो' ततः - त्रिकूटानन्तरं 'भुवच्छे' सुवत्सः - सुवत्सनामकः 'विजए' विजयः 'एएणं' एतेन अनन्तरोक्तेन 'कमेणं' क्रमेण रीत्या ' तत्तजला' तप्तजला 'ई' नदी शेषं स्पष्टम् ॥ सू० २९॥
अथ क्रमप्राप्तं सौमनसाख्यं गजदन्तपर्वतं लक्षयितुमाह- 'कहि णं भंते !' इत्यादि ।
मूलम् - कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्खारपव्व पष्णते ?, गोयमा । णिसहस्त वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं मंदरस्स व्वयस्स दाहिणपुरत्थिमेणं मंगलावई विजयस्स पञ्चस्थिमेणं देवकुराए पुरत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्खारपव्यए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपड़ीणवित्थिपणे जहा मालवंते वक्खारपव्वए तहा, नवरं सव्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे, णिसहवासहरपव्वयंतेणं चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चतेणं चत्तारि गाऊयसयाई उब्वेहेणं सेसं तहेव सव्वं वरं अट्टो से दिशा में त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत है सुसीमा यहां राजधानी है इसका प्रमाण अयोध्या के जैसा ही है (वच्छातरं तिउडे तओ सुवच्छे विजए एएणं कमेणं तत्तजला गई महावच्छे विजए वेसमणकूडे वक्खारपच्चए बच्छावई विजए मत्तजला ई) वत्स विजय के अनन्तर ही त्रिकूट नामका वक्षस्कार पर्वत है और यह पश्चिम दिशा में है त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत के अनन्तर सुवत्स नामका विजय है इस अनन्तरोक्त क्रम के अनुसार तप्तजला नाम की नदी है इसके बाद महावत्स नामका विजय है उसके बाद वैश्रमणकूट है फिर वत्सावती विजय है बाद में मन्तजला नामकी नदी है इत्यादि रूप से ही आगे का यह कथन स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए ॥ २९ ॥
प्रभाणु अयोध्या देवु ४ छे. 'वच्छाणंतरं तिउडे तओ सुवच्छे विजए एएणं कमेणं तत्त जलाणई महावच्छे विजए वेसमणकूडे वक्खारपन्त्रए बच्छावई विजए मत्तजला गई ' વત્સ વિજય પછી જ ત્રિકૂટ નામક વક્ષસ્કાર પત છે અને આ પશ્ચિમ દિશામાં છે. ત્રિકૂટ વક્ષસ્સાર પત પછી સુવત્સ નામ વિજય છે. આ અનંતાકૃત ક્રમ મુજબ તપ્ત જલા નામે નદી છે. ત્યાર બાદ મહાવત્સ નામક વિજય છે. ત્યાર ખાઈ વૈશ્રમણ ફૂટ છે. પછી વત્સાવતી વિજય છે. ત્યાર બાદ મત્તજલા નામક નદી છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં શેષ થન સમજી લેવુ જોઈ એ. ॥ ૨૯ ૫
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३० सौमनसगजदन्तपर्वतवर्णनम् ...... गोयमा ! सोमणसेणं वक्वारपव्वए बहवे देवा य देवीओ.य सोमा सुमणा सोमणसे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव परिवसइ से एएणणं गोयमा ! जाव णिच्चे । सोमणसे वक्खारपठवए कइकूडा पण्णता ?, गोयमा ! सत्तकूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धे१, सोमणसे२, बिअ बोद्धव्वे मंगलावई कूडे३, देवकूडे ४ विमल५ कंचण६ वसिटकूडे७ य बोद्धव्वे॥१॥ एवं सव्वे पंचसइया कूडा, एएसिं पुच्छा दिसिविदिसाए भाणियन्या जहा गंधमायणस्स, विमलकंचणकूडेसु णवरं देवयाओ सुवच्छा वच्छमित्ताय अवसिट्रेसु कूडेसु सरिसणामगा देवा रायहागीओ दक्खिणेणंति। . कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पण्णता ?, गोयमा ! मंदरस्स फव्वयस्स दाहिणणं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं विज्जुप्पहस्त वक्खारपव्ययस्ल पुरस्थिमेणं सोमणसवक्खारपन्न यस्स पञ्चस्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे देवकुरा णाम कुरा पण्णता पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविस्थिष्णा इकारस जोयणसहस्साई अट्ट य बायाले जोयणसए दुण्णि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं जहा उत्तरकुराए वत्तव्वया जाव अणुसज्जमाणा पम्हगंधा मियगन्धा अममा सहा तेतली सणिचारीति ६ । सू० ३०॥ - छाया-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे सौमनसो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिण पौरस्त्येन मङ्गलावती विजयस्य पश्चिमेन देवकुरुणां पौरस्त्येन अत्र खल जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे सोमनसो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः यथा माल्यवान् वक्षस्कारपर्वतः तथा, नवरं सर्वरत्नमयः अच्छो यावत् प्रतिरूपः, निषधवर्षधरपर्वतान्तेन चखारि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चत्वारि गव्यूतशतानि उद्वेधेन शेष तथैव सर्व नवरम् अर्थः सः गौतम ! सौमनसे खलु वक्षस्कारपर्वते वहवो देवाश्च देव्यश्च सौम्याः सुमनसः सौमनसश्चात्र देवो महद्धिको यावत् प्रतिवसति स एतेनार्थेन गौतम ! यावन्नित्यः । सोमनसे वक्षस्कारपर्वते कति कूटानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! सप्त कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथासिद्धं १ सौमनसमपि च २ वोद्धव्यं मङ्गलावती कूटम् ३ । देवकुरु ४ विमल ५ कञ्चन ६ जासिष्ठकूटं ७ च वोद्धव्यम् ॥१॥ एवं सर्वाणि पश्चशतिकानि कूटानि, एतेपां पृच्छा दिग्वि
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३९6 ..........-:- -.जम्बूद्वीपमाप्तिसूत्र दिशि भणितव्या यथा गन्धमादनस्य, विमलकाश्चनकूटयोः नवरं देवता:-सुवत्सा वत्समित्रा च, अशिष्टेयु कूटेषु सदृशनामका देवाः, राजधान्यो दक्षिणेनेति । . .. ..
. क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे देवकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञप्ता: ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण विधुलाभस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन सौमनसबक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन अब खलु महाविदेहे वर्षे देवकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञताः प्राचीनप्रतीचीनायताः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णाः एकादश योजनसहस्त्राणि अष्ट च द्वाचवारिशानि योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशतिभागी योजनस्य विष्कम्भेण यथोत्तरकुरुणां वक्तव्यता यावद् अनुसज्जन्तः पनगन्धाः मृगगन्धाः अमलाः सहाः सेतलिनः शनैश्चारिण इति सू०३०॥
टीका-'कहिणं भंते !' 'इत्यादि-प्रश्नसूत्र स्पष्टार्थकम्, उत्तरसूत्रे 'गोयमा !' हे गौतम ! 'णिसहस्स' निपधल्य-निपधनामकस्य वासहरपन्चयस्स? वर्षधरपरंतरय "उत्तरेणं', उत्तरेण उत्तरदिशि 'मंदरस्स' मन्दरस्य-मन्दरनामकस्य 'पन्चयन्स' पर्वतस्य 'दाहिणपुरस्थिमेणं' दक्षिणपौरस्त्येन-आग्नेयकोणे 'मंगलावई विजयस्म' मङ्गलावतीविजयस्य 'पञ्चस्थिमेणं पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'देवकुराए' देवकुरूणां 'पुरत्यिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'ए-थ' अत्र
सौमनस गजदन्त पर्वन का कंशन . ' 'कहिण भंते ! जंबुदीने दीपे सहाविदेहे वासे-इत्यादि। . ' ... टीकार्थ-इस सत्र द्वारा अव गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है-(कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे) हे भदन्त ! कहां पर इस जंबूवीप के भीतर महाविदेह क्षेत्र में (सोमणले णाम) लौमनस नामका (वक्वारपव्वए) वक्षस्कार पर्वत (पण्णत्ते) कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा !णिसहस्स वॉसहरपवयस्त उत्तरेणं मंदरस्म पव्वयस्स दाहिणपुरस्थिमेण मंगलाचई विजयरंस पच्चत्थिमेणं देवकुराए पुरस्थिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे २ महापिदेहे वासे सोमणसे .णानं बखारपधए पण्णत्ते) हे गौतम!निषध वर्षधर पर्वत की उत्तर दिशा में मंदर की. आग्नेय विदिशा में-आग्नेय कोण में-मंगलावती विजय की . सौमनस tart-1 पतनु ४थन -
1, , । 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे-इत्यादि . . . . . # - स -मा सूत्रप व गौतभस्वामी प्रभुन.वी शत प्रश्न ४.छे । 'कहिण भंते ! जंत्रुहीवे दीवे महाविदेहे वासे' 3 Atal Bया मापूदीपनी म४२ भा; वि क्षेत्रमा सोमणसे णमं सौमनस नाम 'वक्खारपन्चए' १३५२ पत 'पण्णत्ते' वामा मावेस छ ? यन वाम प्रभु 2-'गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं मदरस्स पव्ययस्त दाहिणपुरथिमेणं मंगलावई विजयस्स पच्चरिथमेणं देवकुराए पुरथिमेणं एत्थण जंबहीवे २ महादिदेहे वासे णामं वक्खारपन्चए पण्णत्ते' ७ गौतम ! 'निष पर પર્વતની ઉત્તર દિશામાં મંદર પર્વતની આનેય વિદિશામાં–ખાય કેણુમાં–મંગલાવતી
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः लू. ३० सोमनसगजदन्तपर्वतवर्णनम् ......... अत्रान्तरे ‘ण खलु निश्चयेन 'जंबुद्दीवे दीवे जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वः सोमणसे 'णाम' सौमनसो नाम 'वक्खारपचए' वक्षस्कारपर्वतः 'पण्णत्ते प्रज्ञप्तः, सच कीदृशः ?. · इत्यपेक्षायामाह-'उत्तरदाक्षिणायए' उत्तरदक्षिणायत:-उत्तरदक्षिणदिशोदीपः पुनः "पाईणपडीवित्थिण्ण' प्राचीनप्रतिचीन विस्तीर्ण:-पूर्वपश्चिमयो दिशो विस्तारयुक्तः, अयं हि 'जहा' यथा 'मालवंते' माल्यवान् नाम 'वक्खारपन्यए' वक्षस्कारपर्वतः प्राग्वर्णितः 'तहा' तथा वर्णनीया, ततोऽत्र यो विशेषस्तं दर्शयितुमाह-'णरं' नवरं केवलं 'सवरययामए'. सर्वरजतमय:-सर्वात्मना रजतमयः माल्यवांस्तु वैडूर्यमयः तथा 'अच्छे जाय पडिहवे. अच्छो यावत्प्रतिरूप अच्छ इत्यारभ्य प्रतिरूप इति पर्यन्तानां तद्विशेषणवाचकानां पदानामत्र' सङ्ग्रहो बोध्या, स च बहुषु सूत्रेषु प्रसङ्गात्कृतो बोध्यः । अयं च 'णिसह वासहरपश्यतेणे' निधिवर्षधरपर्वतान्ते-निषधवर्षधरनामकपर्वतसमीपे खलु माल्यवास्तु नीलवत्समीपे चत्तारि' चलारि "जोयणसयाई योजनशतानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तण उच्चत्वेन 'चत्तारि चवारिस पश्चिम दिशा में-एवं देवकुरु की पूर्वदिशा में जंबूद्वीप नाम के द्वीप के भीतर वर्तमान महाविदेह क्षेत्र में सौमनस नामका वक्षस्कार पर्वत कहा गया है.(उत्तरदाहिणायए पाइणपईणवित्थिंणे) यह वक्षस्कार पर्वत उत्तर से दक्षिण तक दीर्घ है और पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण है। "
(जहा मालवंते वक्खारंपच्चए तहा-णवरं सवरयणामए अच्छे जाव पडिस्वे) जिस प्रकार से माल्यवान पर्वत के वर्णन के सम्बन्ध में कथन किया जा चुका है उसी प्रकार का वर्णन इस पर्वत का है, परन्तु यह सौमनस नामका वक्षस्कार पर्वत सर्वात्मना रत्नमय है आकाश और स्फटिक के जैसा निर्मल है चावत प्रतिरूप है यहां पर दर्शनीय आदि शेष पदों का संग्रह यावत् पद से किया गया है। इन संग्रहीत पदों की व्याख्या यथास्थान कंह स्थलों में की जा चुकी है अत: वहीं से इसे समझ लेना चाहिये (णिसहवासहरणजयंतेणं चत्तारि जोयण: વિજયની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ દેવકુરુક્ષેત્રની પૂર્વ દિશામાં જંબૂદ્ધપ નામક દ્વીપની અંદર : વર્તમાન મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં સૌમનસ નામક અતિ મણીય વક્ષસ્કાર પર્વત આવેલ છે. ઉત્તરदाहिणायए पाईणपड़ीणविस्थिपणे U RAIR Fत्त२यी क्षिर सुधीही मन पू थी.. पश्चिम सुधी विस्ती छे. 'जहा मालवंते वक्खारपव्वएं - तहाँ-णवरं सबरयणामए अच्छे जाव पडीरूवे रे प्रभारी मात्यवान कृतना न वि ४थन ४२वाभां भाव छ। તેવું જ વર્ણન આ પર્વનું છે, પણ અસૌમનસ નામક વક્ષસ્કાર 'પર્વત સર્વાત્મના २त्नभय ..PAI812 अने, टिना रम निम यावत् ति३५ छ..ही 'दर्शनीय વગેરે શેષ પદેનું ગ્રહણ થાવત્ પદથી થયેલું છે. એ પદેની વ્યાખ્યા યથાસ્થાન અનેક स्थान राम मावली छ, मेथा लासुसी त्यांची पायन ४२. - 'णिसवासहरपव्वयंतेणं, चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसाई उन्बहेणं 'सेंसे तहेवं संवं
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५९२
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
'गाऊ सवाई' गव्यूतशतानि 'उच्चेद्देणं' उद्वेवेन भूमिप्रवेशेन 'सेसं' शेषम् अवशिष्टम्विष्कम्भादि 'तहेच' तथैव - माल्यवद्वक्षस्कार गिरिवदेव 'सन्धं' सर्वे बोध्यम् 'णवरं' नवरं केवलम् 'अहो' अर्थ: सौमनसेतिनामार्थः शेषेषु विशेषः तं च नामार्थ प्ररूपयितुं सूत्रं स्मारयति- 'से', इति-से केद्वेगं भंते! एवं बुच्चइ सोमण से वक्खारपन्वए २१, इत्यादि सूत्रं बोध्यम् अथ केना-र्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - सौमनसो वक्षस्कारपर्वतः २ १ इति, प्राग्वत् 'गोयमा !' भो गौतम ! 'सोमणसे' सौमनमे 'णं' खलु 'वक्खारपच्चए' वक्षस्कारपर्वते 'वहवे' वरवः 'देवाय' देवाच 'देवीओ य' देव्यश्व 'सोम' सौम्याः - सरल स्वभावाः 'सुमणा' सुमनसः - सुभावनाकलितमानसाः आसते यावद् मेहन् ततः सुमनसामयमावासः सौमनसोऽयं गिरिः, अत्र देवमाह'सोमण से य' सौमनसथ 'इत्थ' अत्र 'देवे' देवः तदधिपतिः परिवसतीति परेणान्वयः, सच 'देवः कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह - 'महिद्धीए जाव परिवसद्' महर्द्धिको यावत् परिवसतिमहर्द्धिक इत्यारभ्य परिवसतीति पर्यन्तानां पदानामत्र सग्रहो वोध्यः तथाहि - 'महर्द्धिकः, महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः परिवसति' इति एषामर्थश्चाष्टमसूत्रव्याख्यातो ग्राह्यः । इति नामकारण मुक्तोपसंहरति- 'से एएणद्वेणं सयाई उद्धं उच्चत्तणं चत्तारि गाउयसयाई उब्वेहेणं सेसं तहेव सव्वं, णवरं अट्टो से गोयमा । सोमणसेणं वक्खारपञ्चए घहवे देवा य देवीओ अ ) यह सौमनस नामका वक्षस्कार पर्वत निषेध वर्षधर पर्वत के पास में चारसौ योजन का ऊंचा है, और चारसौ कोश का उद्वेध वाला है बाकी का और सब विष्कंभ आदि का कथन माल्यवान पर्वत के प्रकरण जैसा ही है । किन्तु इसका जो "सौमनस" ऐसा नाम कहा गया है वह यहां पर अनेक देव और देवियां आकर विश्राम करती है आराम करती है । ये सब देव और देवियां सरल स्वभाव वाली होती है और शुभ भावना वाली होती हैं । तथा (सोमण से अ इत्थ देवे महिद्धीए जाच परिवसइ) सौमनस नामका देव जो महर्द्धिक आदि विशेषणों वाला है यहां पर रहता है ( से एएणडेणं गोयमा ! जाव णिच्चे) इस
वरं अट्ठो से गोयमा ! सामणसेणं वक्खाररन्त्रए घहवे देवाय देवीओ अ०' मा सोमनस' નામક વક્ષસ્કાર પર્વત નિષધ વધર પર્વતની પાસે આવેલ છે અને તે ચારસે (૪૦૦) ચેાજન જેટલે ઊંચા છે. અને ચારસા (૪૦૦) ગાઉ જેટલા પ્રમાણમાં ઉદ્દેધવાળા છે શેષ મધુ વિષ્ણુભ વગેરેના સંબંધમાં કથન માલ્યવાન વક્ષસ્કાર પર્યંતના પ્રકરણ જેવું જ છે. પણ मेनु ? 'सौमनस' वु' नाम राभवामां आव्यु छे. तेनु' र अड्डी' मने देव-देवीओ આવીને વિશ્રામ કરે છે, આરામ કરે છે. એ દેવ દેવીઓ સરલ સ્વભાવવાળાં હાય છે. भने शुभ भावनावाजां होय छे ते 'सोमणसे अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव परिवसई' सोभनस नाभ४ देव है ? महर्द्धि वगेरे विशेषो। वाणी छे अड्डी रहे छे. 'से एएणट्टेणं गोयमा ! जाव णिच्चे' मेथी हे गौतम | मेनु' नाम 'सौमनस' मेषु' रामवामां मान्यु
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः लू. ३० सौमनसगजदन्तपर्वतवर्णनम् गोयमा !' इति सः-सौमनसो वक्षस्कारगिरिः एतेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन हैएवमुच्यते सौमनसो वक्षस्कारपर्वतः २ इति 'जाव णिच्चे' यावन्नित्यः-'अनुत्तरं च ॥ गोयमा ! सोमणसेति सासए णामधिज्जे पण्णते । सोमणसेणं भंते ! किं सालए असासए ?, गोयमा ! सिय सासए सिय असालए, से केपट्टेणं सिय सासए लिय अलासए ? जोयमा! दबट्टयाए सासए षण्णपज्जवेहि गंधपज्जपेहिं फासपज्जवेहि असासए, से तेजडेणं एवं बुच्चइसिव सासर सिय असासए । सोमणले णं भंते ! कालओ केवच्चिरं कोइ ?, गोरमा ! ण कयाई णासी ण कयाई ण भवइ ण कयाइ ण भविस्सइ भुवि च भवइ य अविरता य धुवे णियए सासए अखए अबए अवहिए णिच्चे' इति सूत्रं पर्यवसितमिति, व्याजमा चास्य चतुर्थमनटीकातो वोध्या, चतुर्थसूत्रे पद्मवरवेदिका प्रसङ्गारसीत्वेनोत्तपत्र पुरस्वेन वक्त: कारण हे गौतम ! इसका नाम "सौमनस" ऐसा कहा गया है "म मिचे"
इस सूत्रांश को संगत बैठाने के लिये इसके पहिले 'अदुतरंचणं-यमा! सोमणसे ति सालए णामधिज्जे पण्णत्ते ! सोमणसेणं भंते ! कि लालए अनासए गोयमा सिय सासए सिय असासए से केणटेणं सिय सासए सिष असालए? गोयमा ! व्वट्टयाए सासए, घण्णपज्जवेहि गंधपज्जवेहि फासपातहि असासए से तेणटेणं एवं वुच्चइ सिय सासए सिय असासए सोमणलेणं ! कालओ केवच्चिरं होई ? गोयमाण कयाई णासी ण कयाइ ण भवह, जकयाइ ण भविस्सइ, भुर्विच भवाय भविस्सइ य धुवे णियए, सालए अक्खए, अचए, अवटिए णिच्चे' यह पाठ लगालेना चाहिये इस पाठकी व्याख्या चतुर्थ स्त्रकी टीका से जानलेनी चाहिये चतुर्थ सूत्र में यह पाठ पद्मवर वेदिका के प्रसङ्ग में स्त्री लिङ्ग में पदोंको रखकर कहा गया है और यहां उसे पुलिङ्ग में पदोंको रखकर कहा गया है यस यही अन्तर हैं अर्थ में कोई अन्तर नहीं हैं (सोमणसे2. 'जाव णिच्छे' मा सूत्राशनी गति मेसा । भाटे सनी पडi 'अदुत्तरं च णं गोयमा सोमणसे ति सासए णामधिज्जे पण्णत्ते सोमणसेणं भंते ! किं सासए असासए गोयमा सिय सांसए सिय असासए से केणटेणं सिय सासए सिय असासए ? गोयमा ! दवट्ठयाए सासए वण्ण पज्जवेहिं गंधपज्जवेहि फासपज्जवेहि असासए से वेणद्वेणं एवं वुच्चइ सिय सासए सिय असासए सोमससेणं भंते कालओ केवच्चिरं होई ? गोयमा । ण कयाइ णासी ण कयाइ ण भवइ, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुवि च भवइय भविस्सइ य, धुवे णियए सासए अक्खए, अबए अवट्रिए णिच्चे' २ भू नये, म पानी व्याभ्या, यतु सत्रना ટીકામાંથી વાંચી લેવો જોઈએ. આ પાઠ ચતુર્થ સત્રમાં પદ્મવદિકાના સંદર્ભમાં સ્ત્રી લિંગમાં પદોને મૂકી ને કહેવામાં આવેલ છે, પણ અહીં તે પાઠના પદને પુલિંગનાં ગોઠવીને અધ્યાત કરવામાં આવેલ છે. માત્ર અહીં તફાવત આટલે જ છે. અર્થમાં કોઈ ५ गत तशत नथी. 'सोमणसे वक्खारपव्वए कइ फूडा पण्णत्ता' मत ! ॥
ज० ५०
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्रे व्यमिति स्वयमूहनीयम्, अथास्योपरिवर्तीनि सिद्धायतनादीनि कूटानि वर्णयितुमाह-'सोमणसे' इत्यादि-सौमनसे-सौमनसनामके 'वक्खारपन्नए' वक्षस्कारपर्वते 'कइ' कति कियन्ति 'कूडा' कूटानि शिखराणि 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तानि, पत्र पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् सूत्रकृतोक्तम् एवमग्रेऽपि इतिप्रश्ने भगवानुत्तरमाह-'सत्त' सप्त कडा' कूटानि 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तानि, तानि नामतो निर्दिशति-तं जहा-सिद्धे' इत्यादि तद्यथा-सिद्धं-सिद्धायतनकूटम् अत्र नामैकदेशग्रहणे नामग्रहणम्' इति नियमेन सिद्धति नामैकदेशेन सिद्धायतनकूटेति सम्पूर्णनामग्रहणं वोध्यम् एवमग्रेऽपि १, 'सोमणसे २ विय' सौमनसमपि च-सौमनसकूटमपि च 'बोद्धव्वे' बोद्धष्यं नेयम् २, 'मंगलावईकूडे ३' मङ्गलावतीकूःम् ३ । 'देवकुरु ४ विमल ५ कंचण ६ वसिहकडे ७' देवकुरु ४ विमल ५ कश्चन ६ वासिष्ठकूटम्-अत्र समाहारद्वन्द्वान्ते श्रूयमाणस्य कूटस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् देवकुरुकूटं ४ विमलफूटं ५ काश्चनकूटम् ६ वासिष्ठकूटमित्यर्थः, 'य' च 'वोद्धव्वे' बोद्धव्यम् ।।१॥ अथादितः सर्वकूटसङ्कलनायां यावन्ति कूटानि भवन्ति तावन्स्याह'एवं सम्वे पंचसइया कूडा' इति एवम् इत्थम् सर्वाणि भादित आरभ्य सौमनसपर्वतोपरिवतीनि सकलानि सप्तापि कूटानि पञ्चशतिकानि पञ्चशतयोजनप्रमाणानि जायन्ते, 'एएसिं' वक्खारपन्यप कइकूडा पण्णत्ता) हे भदन्त ! इस सौमनसवक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? 'पण्णत्ता' में पुलिङ्गता प्राकृत होने से कही गई है। उत्तर में प्रभुने कहा है-(गोधमा । सत्त कूडा पण्णत्ता) हे गौतम ! यहां पर सात कूट कहे गये हैं (तं जहा) उनके नाम इस प्रकार से हैं (सिद्ध सोमणसे विय बोद्धब्वे मंगलावईकूडे, देवकुरु विमल कंचणवसिह कूडेअ योद्धव्वे) सिद्धा. यतनकूट१, सोमणसकूट२, मंगलावतीकूट ३, देवकुरुकूट४, विमलकूट५, कंचनकूट६, और वशिष्टकूट७ ऐसा नियम हैं कि नामके एकदेश से पूरे नामका ग्रहण हो जाता है-अतः इसी नियमके अनुसार 'सिद्धे' पदले सिद्धायतनकूट ऐसा पूरा नाम गृहीत हो गया है तथा दद्वान्ते श्रूयमाणं पदं प्रत्येकं संबद्धयते' इस कथन के अनुसार प्रत्येक पद के साथ कूट शब्द का प्रयोग हुआ जानलेना સૌમનસ વક્ષસ્કાર પર્વત ઉપર કેટલા ફૂટ (શિખરે આવેલા છે? “quત્તા માં પ્રાકૃત डापायी भुमिगत अट ४२वामा मादेसी छ. गेन। पाममा ४३ छ-'गोयमा! 'सत्त कूडा पण्णत्ता' गोतम ही सात ट। मावा छे. 'तं जहा' तटाना नामा
मा प्रभारी छ-'सिद्धे सोमणसे वि य योद्धव्वे मंगलावई कुडे, देवकुरू विमल कंचण वसिटकूडे अ बोद्धव्वे' सिद्धारतन टूट १, सौमनस छूट २, माती टूट 3, ४ फूट ४, વિમલ ફૂટ ૫, કંચન ફૂટ ૬ અને વશિષ્ઠ કૂટ ૭ એ નિયમ છે કે નામના એક
राथी पूरा नामनु य याय छे. मेथी म नियम भुक्ष्म 'सिद्धे' ५४थी सिद्धायतन हट मोडं पुरनाम हात थयु छ तमा 'द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं पदं प्रत्यकं संवद्ध्यते' मा કથન મુજબ દરેક પદની સાથે કુટ શબ્દ પ્રયુત થયેલ છે, એવું સમજી લેવું જોઈએ.
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३० सौमनसगजदन्तपर्वतवर्णनम् एतेषां प्रायुक्तानां कूटानां 'पुच्छ।' पृच्छा सूत्रनिर्दिष्टः प्रश्नः 'दिसि विदिसाए' दिग्विदिशि-दिशश्च विदिशश्चैषां समाहारो दिग्विदिक तस्मिन् दिग्विदिशि-दिक्षु विदिक्षु चेत्यर्थः 'जहा' यथा येन प्रकारेण 'गंधमायणस्स' गन्धमादनस्य पर्वतस्य भणिता तथा 'माणियव्वा' मणितव्या वक्तव्या प्रथमवक्षरकार गन्धमादनवदेषां कूटानां प्रश्नसूत्रं दिग्विदिनु वक्तव्यमिति समुदितार्थः, तत्र प्रश्नसूत्र हि-'कहि णं भंते ! सोमणसे वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णाम कूडे पण्णत्ते ?' इत्यादि, एतच्छाया-क खलु भदन्त ! सौमनसि वक्षस्कारपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ? इति कूटानां दिग्विदिग्वक्तव्यताहि-मेरुगिरेः समीपवर्ति दक्षिणपूर्वस्यां विदिशि सिद्धायतनकूटं १ तस्य दक्षिणपूर्वस्यां विदिशि द्वितीयं सौमनसकूटं २ तस्य च दक्षिणवस्यां विदिशि तृतीयं मङ्गलावतीइटम् ३ तस्य दक्षिणपूर्वस्यां पञ्चमस्य विमलचाहिये (एवं सव्वे पंच सइया कूड़ा) इस तरह आदिले लेकर सौमनस पर्वत तक के जितने भी कूट कहे गये हैं वे सब पांचसो पोजन प्रमाणवाले हैं। (एएसिं पुच्छा दिसि विदिसाए भाणिअव्वा) इन सौमनस पर्वत सम्बन्धीकूटों के होने में दिशा और विदिशाको लेकर प्रश्न पूछना चाहिये जैसा कि पहिले (गंध. मायणस्स) गन्धमादन पर्वत के कूटों के प्रकरण में पूछा गया है। अर्थात् (कहिणं भंते ! सोमणसे वक्खारपधए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते) हे भदन्त ! सौमनस वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतन नामका कूट कहां पर कहा गया है? इत्यादि-तो इन प्रश्नों के उत्तर में ऐसा कहना चाहिये-मेरुगिरिके पास उसकी दक्षिण पूर्वदिशा के अन्तराल में सिद्धायतन कूट कहा गया है उसकी दक्षिण पूर्व दिशा के अन्तराल में द्वितीय सौमनसकूट कहा गया है और उसकी दक्षिण पूर्वदिशा के अन्तराल में तृतीय मंगलावती कूट कहा गया है ये ३ कूट विदिग्भावी हैं । मंगलावती कूटकी दक्षिण पूर्वदिशा के अन्तराल में और "एवं सव्वे पंचसइया कूडा' मा प्रमाणे प्रारमयी भांडीन सौमनस पति सुधाना रेसा इटावामा मासा छ, ते मया पांयसेयो प्रभाव छ. 'एएसिं पुच्छा दिसि विदिसाए भाणिअव्वा' से सौमनस ५तथी सम्पर्क टूटीना मस्तित्व वि मनश तभर GRAL विष प्रश्नो ४२१. र. मेटो २ प्रमाणे 'गंधमायणस्स' गधभाहन પર્વતના હટેના પ્રકરણમાં પ્રશ્નો પૂછવામાં આવેલા છે. તેવી જ રીતે અહીં પણ પ્રશ્નો १२ अर्थात् 'कहिणं भंते ! सोमणसे वक्खारपब्बए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' હે ભદંત! સૌમનસ વક્ષસ્કાર પર્વત ઉપર સિદ્ધાયતન નામને ફૂટ કયા સ્થળે આવેલ છે ? ઈત્યાદિ. એ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ કે મેરુગિરિની પાસે તેની દક્ષિણ પૂર્વ દિશના અન્તરાલમાં સિદ્ધ યતન ફૂટ છે. તે કૂટની દક્ષિણ પૂર્વ દિશાના અંતરાલમા દ્વિતીય સૌમનસ ફૂટ આવેલ છે અને તેની પણ દક્ષિણ પૂર્વ દિશાના અંતરાલમાં તૃતીય મંગલાવતી ફૂટ આવેલ છે. એ ત્રણ કટ વિદિભાવી છે. મંગલાવતી કૂટની દક્ષિણ પૂર્વ
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अभ्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे
कूटस्योत्तरस्यां चतुर्थं देवकुरुकूटम् ४, तस्य दक्षिणस्यां पञ्चमं विमलकूटं ५ तस्य च दक्षिणस्यां पष्ठं काञ्चनकूटम् ६, तस्य दक्षिणस्यां निपधस्योत्तरस्यां सप्तमं वासिष्टकूटम् ७, एतानि च सर्वात्मना रत्नमयानि बोध्यानि, हिमवन्कूटप्रमाणानि, तत्प्रासादादिकमपि तद्वदेव वोध्यम्, तत्र यो विशेषस्तं दर्शयति- 'विमलकंच कुठेसु णवरं देवयाओ' विमलकाश्चनकूटयोः नवरंदेवते - देव्यौ ते च 'सुवच्छा वच्छमित्ताय' सुवत्सा वत्समित्रा चेति द्वे क्रमेण देव्यौ वोध्ये 'अवसिट्टेसु कूठेसु' अवशिष्टेषु पश्चसु कूटेषु 'सरिसणामगा देवा' सदृशनामकाः कूटसदृश - नामकाः देवाः अधिपतयो बोध्याः तेपां 'रायहाणीओ' राजधान्यः 'दक्खिणेण' दक्षिणेनदक्षिणस्यां दिशि मेरोरिति शेषः इति ।
इदानीं देवकुरुं निरूपयितुमुपक्रमते - 'कहि णं भंते !' इत्यादि - क खल्ल भदन्त ! 'महापंचम विमलकूट की उत्तर दिशामें चतुर्थ देवकुरु नामका कूट कहा गया है देवकुरु कूटकी दक्षिण दिशा में पांचवा विमलकूट कहा गया है विमलकूट की दक्षिणदिशा में छट्ठा काञ्चनकूट कहा गया है काञ्चनकूट की दक्षिणदिशा में और निषेध पर्वत की उत्तरदिशा में सातवां वसिष्ठकूट कहा गया है ये सब कूट सर्वात्मना रत्नमय हैं । परिमाण में ये सब हिमवत् के कूटों के तुल्य हैं यहां पर प्रासादादिक सब उसी प्रकार से हैं । (विमल कंचणकूडेसु णवरं देवयाओ वच्छमित्ताय, अवसिद्वेस कडेसु सरिणामया देवा रायहाणीओ क्विति) विमलकूट पर और कांचनकूट पर केवल सुबत्सा और वत्समित्रा ये दो देवियां रहती हैं और बाकी के कूटों पर-पांच कूटों पर - कूट सदृश नामबाले देव रहेते हैं इनकी राजधानियां मेरुकी दक्षिणदिशा में हैं ।
देवकरू का निरूपण
(कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे देवकुरूणामं कुरा पण्णत्ता) हे भदन्त ! દિશાના અંતરાલમાં અને 'પાંચમ વમળફૂટની' ઉત્તરદિશામાં ચતુર્થાં દેવકુરુ નામક ફૂટ આવેલ છે. દેવકુરુ ફૂટની દક્ષિણુ દિશામાં પચમ વિમળ કૂટ શ્રાવેલ છે. વિમળ ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં પૃષ્ઠ કાંચન ફ્રૂટ આવેલ છે કાંચન ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં અને નિષધ પ તની ઉત્તર દિશામાં સપ્તમ વશિષ્ઠ ફૂટ આવેલ છે. એ બધા ફૂટ સર્વાંત્મના રત્નમય છે. પરિમાણુમાં એ બધા ડિમવનના ફુટે તુલ્ય છે. અહીં પ્રાસાદ્યાર્દિક બધું તે પ્રમાણે જ છે. 'विमलकं चणकूडेमु सरिसणामचा देवनाओ वच्छमित्ताय, अवसिट्ठेसु कूडेसु, सरिसणायया देवा रायहाण!ओ दक्खिणेणंति' विसंण छूट उपर सने हाथन छूट उपर इस्त सुत्रत्सा भने વત્સમિત્રા એ બે દેવીઓ રહે છે અને શેષ ફૂટ ઉપર એટલે કે પાંચ ફૂટ ઉપર ફૂટ સંદેશ નામવાળા દેવા રહે છે. એમની રાજધાનીએ મેરુ'ની દક્ષિણ દિશામાં છે.
દેવકુરુનુ... નિરૂપણ
'कहि णं भंते! महा विदेहे वासे देवकुरु णामं कुरा पण्णत्ता' हे लढत ! भडाविहेडभां
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३० सौमनसगजदन्तपर्वतवर्णनम् - विदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'देवकुरा णाम कुरा' देवकुरवो नाम कुरवः 'पण्णत्ता' प्रज्ञा इतिप्रश्ने भगवानुत्तरमाह-'गोयमा!' इत्यादि-गौतम ! “मंदरस्स' मन्दरस्य, 'पव्ययस्स' पर्वतस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'णिसहस्स' निपधस्य 'चासहरपव्वयस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'विज्जुप्पहस्स' विद्युत्प्रमस्य 'वक्खारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'सोमणसवक्खारपव्वयस्स'. सौमनसवक्षस्कारपर्वतस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'देवकुरा णाम' देवकुरवो नाम 'कुरा' कुरवः 'पण्णचा' प्रज्ञप्ताः, ते च कीदृशाः? इत्याह-'पाईणपडीणायया' प्राचीनप्रतीचीनायता:-पूर्वपश्चिमदिशोर्दीर्घाः 'उदीण. दाहिणवित्थिण्णा' उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णाः-उत्तरदक्षिणयोर्दिशोः, विस्तारयुक्ताः 'इकारस' एकादश 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'अट्ठ य' अष्ट च 'वायाले' द्वाचत्वारिंशानिद्वाचत्वारिंशदधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'दुण्णि य' द्वौ च 'एगृणवीसइभाए' एकोनविंशतिभागौ 'जोयणस्स' योजनस्य 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण प्रज्ञताः, एपां शेपवर्णनमुत्तरकुरुवन्निर्देष्टुमाह-'जहा उत्तरकुराए वत्तव्वया' यथा उत्तरकुरूणां वक्तव्यता महाविदेह में देवकुरु नामके कुरु कहां पर कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं(गोयमा ? मंदस्स पव्वयस्स दाहिणेणं णिसहस्स वासहरपन्चयस्स उत्तरेणं विज्जुप्पहस्स वक्खारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं सोमणसवक्खारपव्ययस्स पच्चथिमेणं एत्थणं महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पण्णत्ता) हे गौतम । मन्दर पर्वत की दक्षिणदिशा में निषध वर्षधर पर्वत की उत्तरदिशा में, विद्युत्प्रभवक्षस्कार पर्वत की पूर्वदिशा में, एवं सौमनस वक्षस्कार पर्वत की पश्चिमदिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर देवकुरु नाम के कुरु कहे गये हैं । (पाईण पडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा) ये कुरु पूर्व से पश्चिम तक दीर्घ हैं और उत्तर से दक्षिण तक विस्तीर्ण हैं (एकारसजोयणसहस्साइं अव्य बायाले जोयणमा दणि य एगूणवीसहभाए जोयणस्स विक्खंभेणं जहा उत्तरकुराए वत्तव्यया हरु प्रयासले मावस छ ? मेन पाममा प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! मंदररस पच्चय
स दाहिणं णिलहस्स वासहरपव्ययस्त उत्तरेणं विज्जुपहस्स वखारपव्ययस्स पुरथिमेणं सोमणसवक्खारपव्वयरस पच्चस्थिमेणं एत्य णं महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पण्णता
ગૌતમ! મન્દર પવતની દક્ષિણ દિશામાં, નિષધ વર્ષધર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં. વિદ્યત્ર વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં તેમજ સૌમનસ વક્ષસ્કાર પર્વતની પશ્ચિમ शाम मावि नी सहर पर ना
छे. 'पाईण पडीणायया उद्रीण બ્રિષ્ટિ રિઝEM કુરુઓ પૂર્વથી પશ્ચિ૫ સુધી દો છે અને ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી विस्ती छ. 'एक्कारसजोयणसहस्साई अठ्य वायाले जोयणसए दुणिय एगूणवीसह भाए जोयणस्स विखंभेणं जहा उत्तरकुराए वत्तव्बया जाव अणुसज्जमाणा पम्हगंधभि
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• जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्र वर्णनरीतिः तथैपामपि वोध्या, सा च वि.म्पर्यन्ता ? इत्याह-'जाव अणुसज्जमाणा' यावद् अनुपजन्त:-सन्तानेनानुवर्तमानाः सन्ति, तत्रानुपजन्तीति अनुपज्जन्त इति वर्तमाननिर्देशः कालत्रयेऽपि एपां सत्ता सूचनार्थः, तेऽनुपजन्तः के सन्ति ? इत्याह-'पम्हगंधा मियगंधा अममा सहा तेतकी सणिचारीति ६' पद्मगन्धाः १, मृगगन्धाः २, अममाः ३, सहाः ४, तेतलिनः ५, शनैश्चारिणः ६ इति पडू मनुष्यजाति भेदाः, एपां विशेषतो विवरणं सुपमलपमाकालवर्णनमसङ्गे प्रागुक्तं, तजिज्ञासुमिस्ततो बोध्यम् ।।सू० ३०॥
अथात्र वर्तिनी चित्रविचित्रकूटी गिरी वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' इत्यादि ।
मूलम्-कहि णं भंते ! देवकुराए चित्तविचित्तकूडा णाम दुवे पचया पण्णता ?, गोयमा ! णिसहस्स वासहरपवयस्स उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ अट्र चोत्तीसे जोयणसए चत्तारि य सत्तभाए जोयणस्स अवाहाए लीयोयाए महाणईए पुरस्थिमपञ्चस्थिमेणं उभओ कूले एत्थ णं जाव अणुसज्जमाणा पम्हगंधमिअगंधा अमया सहा तेतली सणिचारीति) इनका विस्तार ११८४२ योजन और एक योजन के १९ भागों में से दो भाग प्रमाण है बाकी का इनका शेष वर्णन उत्तर कुरु के वर्णन जैसा है-यही बात स्त्रकारने (जहा उत्तरकुराए वत्तन्वया) इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की है यहां वर्णन उत्तर -कुरु के जैसा 'अणुसज्जमाणा पम्हगन्धा, मिअगंधा अमया सहा तेतली. .सणिचारीति' वहां के इस वर्णन तक करना चाहिये 'अणुसज्जमाणा पद यह • प्रकट करता है कि इनकी वंशपरंपरा का त्रिकाल में भी विच्छेद नहीं होता है - इनके शरीर की गन्ध पद्म की गन्ध जैसी होती है इत्यादि रूपसे वहां की पटू प्रकार की मनुष्यजाति के भेदों का वर्णन करनेवाले इन मृगगंध आदि पदों की व्याख्या सुषम सुषमाकाल वर्णन के प्रसङ्ग में हमने पहिले करदी है अत: वहीं से यह समझलेनी चाहिये ॥३०॥ अगंधा अमया सहा तेतली सणिचारीति' समता विस्तार ११८४२ ये.सन भने । જિનના ૧૯ ભાગમાંથી બે ભાગ પ્રમાણ છે અમનું શેષ બધું વર્ણન-ઉત્તરકુરુના વર્ણન - २ छ. मेरी बात सूत्रधारे 'जहा उत्तरकुराए वत्तत्रया' मा सूत्रपा8 43 ५४८ ४
भी शेष पन त्त२२ नी म 'अणुसज्जयाणा पम्हगंधा मिअगंधा अमया सहा तेतली सणिचारीति' मही सुधान सभा न . 'अणुसज्जमाणा' ५४ मापात ५४८ ४२ छ કે એમની વંશપરંપરાને ત્રિકાલમાં પણ વિચછેદ શક્ય નથી. એમના શરીરને ગંધ પદ્મના ગંધ જેવો છે. વગેરે રૂપમાં ત્યાંના ૬ પ્રકારની મનુષ્યગતિઓના ભેદના વર્ણન કરનારા से 'मृगगंध' वगेरे पहानी व्याख्या सुपम सुषमास वनना प्रसभा गमे पडसा ४० छ. मेथी ज्ञासु त्यांथी Myqा प्रयत्न ४२. ॥ सू-३० ॥
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३१ चित्रविचित्रादिकूटनिरूपणम्__३९९ चित्तविचित्तकूडा णाम दुवे पयसा पण्णता, एवं जं चेव जमगपवयाणं तं चैव एएसिं, रायहाणीओ दक्खिणेणंति ॥ सू० ३१॥ __छाया-क्व खलु भदन्त ! देवकुरुपु चित्रविचित्रकूटौ नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ ?, गौतम ! निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य औत्तराहात चरमान्तात् अष्ट चतुस्त्रिंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्य अबाधया शीतोदारा महानयाः पौरस्त्यपश्चिमेन उभयोः कूलयोः अत्र चित्रविचित्रकूटौ नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्ती, एवं यदेव यमकपर्वतयोः तदेवैतयोः, राजधान्यौ दक्षिणेनेति ॥सू. ३१॥ ___टीका-'कहि णं भंते ! देवकुराए' इत्यादि । सुगमम्, नवरम् एवम् उक्तरीत्या ' चेव' यदेव वर्णनं 'जमगपव्वयाणं' यमकपर्वतयोः प्रागुक्तयोः 'तं चेव' तदेव वर्णनं 'एएसिं' एतयो: चित्रविचित्रकूटयोः पर्वतयो बोध्यम्, एतयोरधिपती चित्रविचित्रौ स्वनामसदृशनामको, तयोः
चित्रविचित्र पर्वतों की व्याख्या । 'कहिणं भंते ! देवकुराए चित्तविचित्तकूडा'-इत्यादि
टीकार्थ-(कहिणं भंते! देवकुराए चित्तविचित्तकूडा णाम दुबे पव्वया पण्णता) हे भदन्त ! देवकुरु में चित्र और विचित्र नाम के दो पर्वत कहां पर कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! णिसहस्त वासहरपव्वयस्स उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ अट्ट चोसीसे जोयणसए चत्तास्थि सत्तभाए जोयणस्स अबाहाए सोओयाए महाणईए पुरथिम पच्चस्थिमेणं उभओ कूले एत्थणं चित्तविचित्तकूडा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता) हे गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर दिग्वर्ती चरमान्त से ८३४-योजन की दूरी पर सीतोदा महानदी के पूर्व पश्चिम दिशा के अन्तराल में दोनों तटों पर ये चित्रविचित्र नाम के दो पर्वत कहे गये है। 'एवं जंचेव जमग पव्वयाणं तं चेव एएसि रायहाणीओ दक्खि
ચિત્ર-વિચિત્ર પર્વતની વ્યાખ્યા 'कहिणं भंते ! देवकुराए चित्तविचित्तकूडा' इत्यादि
थि:-'कहिणं भंते ! देवकुराए चित्तविचित्तकूडा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता लत ! દેવકુરુમાં ચિત્ર અને વિચિત્ર નામક એ બે પર્વતે કયા સ્થળે આવેલા છે? જવાબમાં प्रभुश्री ४ ठे-'गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उतरिल्लाओ चरिमंताओ अट्ठ चोत्तीसे जोयणसए चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स अवाहाए सोओयाए महाणईए पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं उभओ कूले एत्थणं चित्तविचित्तकूडा णाम दुवे पव्वया पण्णत्ता' गौतम ! निषध qषधर પર્વતના ઉત્તર દિવતી ચરમાન્તથી ૮૩૪હૈં યેન જેટલે દૂર સતેદા મહાનદીની પૂર્વ– પશ્ચિમ દિશાના અન્તરાલમાં બને કિનારાઓ ઉપર એ ચિત્ર-વિચિત્ર નામે બે પર્વતે था। . 'एवं जं चेव जमगपव्वयाणं तं चेव एएसि रायहाणोओ दक्खिणेणंति' रे वन य
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूर्य 'रायहाणीओ' राजधान्यौ चित्रा विचित्रे 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि योध्ये।।सू. ३१।।
अथ पश्चानां इदानां स्वरूपमाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि । मूलम् -कहिणं भंते! देवकुराए कराए णिसन्दहे गा दहे पणते ?, गोयमा ! तेसिं चित्तविचित्तकूडाणं प्रध्यमाणं उत्तरिल्लायो चरिताओ अट चोत्तीसे जोयणलए चत्तारि म लतमाए जोयणल अवाहाए लीओयाए पहाणाईए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं णिसहदहे णावं दहे पणत्ते, जा चेव नीलवंत उत्तरकुरु चंदे रावयवालवताणं वत्तव्यथा सा चेवाणिसह देवकुरूसूरसुलसविज्जुप्पभाणं णेयवासयहाणीओ दक्खिणेणंतिसू.३२॥ __छाया-क्व खलु भदन्त ! देवकुरुषु कुरुपु निपधहदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! तयो श्चित्र-विचित्रकूटयोः पर्वतयो? औत्तराच्चरमान्तात् अष्ट चतुस्त्रिंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्त मागान् योजनस्य अबाधया शीतोदाया महानद्याः बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु निपधहदो नाम हुदः प्रज्ञप्तः, यैव नीलबदुत्तरकुरुचन्द्ररासतमाल्यवतां वक्तव्यता सैव निपधदेवकुरु सूरसुलसविद्युत्प्रभाणां नेतन्या राजधान्यो दक्षिणेनेति ॥सू० ३२॥
ति) जो वर्णन यमक पर्वतों के सम्बन्ध में कहा गया है वही वर्णन इन चित्र विचित्र पर्वतों के सम्बन्ध में कहा गया है इनके अधिपति चित्रविचित्र नाम के हैं इनकी राजधानियां भी चित्रा विचित्रा नामकी है और ये मेरु की दक्षिण दिशा में हैं ॥३॥
'कहिणं भंते ! देवकुराए कुराए णिसहद्दहे णामं दहे पण्णत्ते' इत्यादि
टीकार्थ-(कहि णं भंते ! देवकुराए कुराए णिसहदहे णामं दहे पण्णत्ते) हे भदन्त ! निषध द्रह नामका द्रह देवकुरु में कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा! तेसिं चित्तविचित्तकूडाण पच्चयाणं उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ अट्ठचोत्तीसे जोयणसए चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स अबाहाए सीयोयाए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थणं णिसहद्दहे णामं दहे पण्णत्ते) हे પર્વતના સંદર્ભમાં કરવામાં આવેલું છે તે જ વર્ણન આ ચિત્રવિચિત્ર પર્વતના સંદર્ભમાં પણ જાણવું જોઈએ. એમના અધિપતિ ચિત્રવિચિત્ર નામક છે. એમની રાજધાનીઓ પણ ચિત્ર-વિચિત્રા નામક છે અને એ મેરુની દક્ષિણ દિશામાં આવેલી છે. ૩૧ છે
'कहिणं भवे ! देवकुराए कुराए णिसहदहे णामं दहे पण्णत्ते' इत्यादि । टी -'कहिणं भंते ! देवकुराए कुराए णिसहहहे णामं दहे पण्णत्ते' 3
ल द्र नाम के हेरुमा ४या स्थणे मावस छ ? पाममा प्रभुश्री ४ छ-'गोयमा ! तेसिं चित्त-विचित्तकूडाणं पव्वयाणं उत्तरिल्लाओ चहिमंताओ अट्ठ चोत्तीसे जोयणसए चत्तारि य
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प्रकाकाशि टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३२ चित्रविचित्रादिकूटनिरूपणम् ... . टीका-'कहि णं भंते ! देवकुराए' इत्यादि-सुगमम्, नवरम् एवम् उक्तालापकानुसारेण यैव नीलवदुत्तरकुरुचन्द्ररावतमाल्यवतां पञ्चानां इदानामुत्तरकुरुपु वक्तव्यता सैव निपधदेवकुरुसूरतुलसविद्युत्ममाणामपि वक्तव्यता नेतच्या बोधपथं प्रापणीया बोध्येति भावः, एषां राज. धान्यः 'दक्षिणेणं' दक्षिणेन-मेरोदक्षिणादिशि बोध्या इति ॥सू० ३२॥ । अथ देवकुरुष्वेव कूटशाल्मलीपीठं वर्णयितुमपक्रमसे-'कहि णं भंते !' इत्यादि। . मूला-कहि णं भंते ! देवकुराए कुराए कूडसामलिपेढे गानं पेढे पण्णते?, गोथमा ! मंदरस्त पव्ययस्ल दाहिणपस्थिरेण जिवहस्स वासहरपत्रयस्त उत्तरेण विज्जुप्पमस्त वक्खारफ्क्याल पुरथिनेणं सीओयाए महाणईए पञ्चत्थिमेणं देवकुरु पञ्चस्थिमस्त मजादेखभाए एत्थ णं देवकुराए कूडसामलीपेढे णास पेढे पण्णत्ते, एवं जा चेव सुदंसणाए वत्तव्वया सा चेव सामलीए वि भाणियव्वा मानविणा गरुलदेवे रायहाणी दक्खिणेणं अवसिटुं तं चेव जाव देवकुल व इत्यदेवे पलिओवमटिइए परिवसइ, से तेणट्टणं गोयमा! एवं बुच्चा देवरार, 'अदुत्तरं च णं देवकुराए ॥सू० ३३॥ गौतम ! उन चित्र विचित्र पर्वतों के उत्तर दिग्वती चरमान्त से ८३४४ योजन की दूरी पर सीतोदा महानदी के ठीक मध्यम भाग में निषध नाम का वह कहा गया है । (जा चेव णीलवंत उत्तरकुरुचंदेरावयमालवंताणं चत्तच्छया ला चेव णिसहदेवकुरुसूरसुलसविज्जुप्पभाणं णेयव्वा रायहाणीओ दक्षिणेति) जो वक्तव्यता नीलवंत, उत्तर कुरु, चन्द्र, एरावत और मालवंत इन पांच द्रहों की उत्तर कुरु में कही गई है । वही वक्तव्यता, निषध, देवकुरु, सूर सुलस और चित्पभ इन पांच द्रहों की कही गई है ऐसा जानना चाहिये। यहां पर इसी के नाम के देव हैं इनकी राजधानियां मेरु की दक्षिण दिशा में हैं ॥३२॥ सत्तमाए जोयणस्स अबाहाए सीयोयाए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थणं णिसहहहे णामं दहे पण्णत्ते' हे गीतम! त्रिविचित्र पतना उत्तरहिवती यरमा-तथी ८३४४ मासा ચેત્રીસ સાતીયાચાર એજન જેટલે દૂર સીતા મહાનદીના ઠીક મધ્યભાગમાં નિષધ નામે પ્રહ सास . 'जा चेव णीलवंत उत्तरकुरु चंदेरावयमालवंताणं वत्तव्वया सा चेव णिसहदेवकुरुसरसुलसविज्जुप्पभाणं णेयव्वा रायहाणीओ दक्खिणेणंति' ने पतव्यता उत्तरशुरुमा नसत. ઉત્તરકુરુ, ચન્દ્ર, રાવત અને માલવન્ત એ પાંચ દહા વિષે કહેવામાં આવેલી છે, તેજ વક્તવ્યતા નિષધ, દેવકુરુ, સૂર, સુલસ અને વિદ્યુ—ભ એ પાંચ દહેની પણ કહેવામાં આવેલી છે. એવું જાણી લેવું જોઈએ. અહીં એનાજ નામવાળા દે છે. એ સર્વની રાજધાનીઓ મેરુની દક્ષિણ દિશામાં આવેલી છે. જે સૂ, ૩૨ છે
ज० ५१
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जम्बूद्वीपप्रतिर छाया-क्व खलु भदन्त ! देवकुरुपु कुरुपु कूटशाल्मलीपीठं नाम पोठं प्रज्ञतम् , गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणपश्चिमेन निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण विधुत्प्रभस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन शीतोदायाः महानद्याः पश्चिमेन देवकुरुपश्चिमार्द्धस्य बहुमध्यदेशभागे अप्र खलु देवकुरुपु कुरुषु कूटशाल्मलीपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तम्, एवं यैव जम्बाः सुदर्शनाया वक्तव्यता सैव शाल्मल्या अपि भणितव्या नामविहीना गरुडदेवः राजधानी दक्षिणेन अवशिष्टं तदेव यावद् देवकुरुश्चात्र देवः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तत् तेनार्येन गौतम ! एवमुच्यते-देवकुरवः कुरवा, अदुत्तरं च खल्लु देवकुरूणां० ॥सू० ३३॥
टीका-'कहि णं भंते देवकुराए' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं सुगमम्, नवरं कूटशाल्मलीपीठ-कूट शिखरं, तदाकारा शाल्मली-वृक्षविशेषः, कूटशाल्मली, वस्याः पीठम्-आसनम् कूटशाल्मलीउत्तरसूत्रे-गोयमा !' गौतम ! 'मंदरस्स' मन्दरस्य 'पन्वयस्स' पर्वतस्य 'दाहिणपच्चत्थिमेणं' दक्षिणपश्चिमेन नैत्यकोणे "णिसहस्स' निपधस्य 'वासहरपन्वयस्स' वर्षभरपर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'विज्जुप्पभस्स' विद्युत्भस्य 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरथिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'सीयोयाए' शीतोदाया-शीतोदानाम्न्याः 'महाणईए' महानघाः 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'देवकुरुपच्चत्थिमद्धस्स' देवकुरुपश्चिमा स्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खल्ल 'देवकुराए' देवकुरुषु
-कूटशाल्मली पीठ वक्तव्यता"कहिण भंते ! देवकुराए कुराए कूडसामली" इत्यादि
टीकार्थ-गौतमने इस सूत्र बारा प्रभु से ऐसा पूछा-है(कहिणं मंते ! देवकुराए कुराए कूडसामलिपेढे णामं पेढे पण्णत्ते) हे भदन्त ! देवकुरु नाम के कुरु में कूट शाल्मलीपीठ कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभुकहते हैं (गोयमा मंदरस्स पर्व चस्स दाहिणपच्चत्थिमेगं णिसहस्स वासहरपब्धयस्स उत्तरेणं विज्जुप्पभस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं सीयाए महाणईए पच्चस्थिमेणं देवकुरुपञ्चस्थिमद्धस्स घहुमज्नदेसभाए एत्थ णं देवकुराए कूडसामलिपेढे णामं पेढे पण्णते) हे गौतम! मन्दर पर्वत के नैऋतकोण में निषधवर्षधर पर्वत की उत्तरदिशा में विद्युत्म
ફૂટ લાલમલી પીઠ વક્તવ્યતા 'कहिणं भंते ! देवकराए कूडसामली' इत्यादि
Aar-गौतमे मा सूत्रप असुन मागतना प्रश्न या छ -'कहिणं भंते ! देव फुराए कुराए कुडसामिलिपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' मा ३ नामनामा ट AEHसीपी ४यां मावेश छ १ 'गोयमा! मंदरस्स पव्ययस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं णिसहस्स पास हरपव्वयस्स उत्तरेणं विज्जुप्पभस्त्र वक्खोरपब्बयरस पुरस्थिमेणं सीयाए महाणईए पच्चत्मिमेणं देवकुरु पच्चस्थिमवस्स बहुमझदेसभाए एत्थणं देवकुराए कूडसामलिपेढे णाम पेढे पण्णत्ते' हे गौतम ! भन्६२ ५६तना नात्य भा.
निषधर तिनी उत्तर (शामा,
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३३ कूटशाल्मलीपीठवर्णनम् .. ४०३ 'फुराए' कुरुषु 'कूडसामलीपेढे' कूटशाल्मीपीठं 'णाम' नाम 'पेढे' पीठं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् 'एवं' एवम्-अनन्तरोक्तसूत्रानुसारेण 'जा चेव' यैव 'जम्बूए' जम्ब्वाः 'सुदंसणाए' सुदर्शनायाः 'वत्तव्वया' वक्तव्यता 'सा चेव' सैव 'सामलीए वि' शाल्मल्या अपि 'भाणियन्या' भणितव्या वक्तव्या, इह जम्बूसुदर्शनातो विशेष दर्शयितुमाह-'णामविहूणा' नाम विहीना नामभिः प्रागुक्तैादशभिर्जम्बूनामभिर्विहीना-चनिता वक्तव्यता भणितव्या इह शाल्मली नामानि न सन्तीति तद्विहीना वक्तव्यता वाच्येति तात्पर्यम्, तथा 'गरुडदेवे' गरुडदेव जम्बूसुदर्शनायां तु अनाहतो देव इति ततोऽत्र विशेषः, तत्र गरुडजातीयो वेणुदेवनामा देवो निवसतीति तदर्थः तस्य च रायहाणी' राजधानी 'दक्खिणेण दक्षिणेन मेरुगिरितो दक्षिणदिशि विद्यत इति बोध्यम् 'अवसिडें' अवशिष्टं शेपं प्रासादभवनादि 'तं चेव' तदेव जम्बूसुदर्शनावदेव बोध्यम्, तत् क्रिम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव देवकुरु य इस्थ दवे' यावद् भवक्षस्कार पर्वत की पूर्व दिशा में, एवं शीतोदा महानदी की पश्चिमदिशा में देवकुरु के पश्चिमार्द्ध के-शीतादा नदी द्वारा द्वीधाकृन देवकुरु के पश्चिमाई के-बहु मध्य देशभाग में देवकुरुक्षेत्र में कूट शाल्मली पीठ कहा गया है । (एवं जच्चेद जम्बूए सुदंसणाए वत्तव्वया सच्चेव सामलीए वि भाणियव्या णामविहूणा गरुल देवे रायहाणी दक्खिणेणं) जो वक्तव्यता जम्बू नामक सुदर्शना की है वही वक्तव्यता इस शाल्मली पीठकी है जम्बू सुदर्शना के उसकी वक्तव्यता में १२ नाम प्रकट किये गये हैं पर ऐसे १२ नाम यहां शाल्मली पीठ की वक्तव्यता में नहीं कहे गये हैं। गरुडदेव यहां पर रहता है-जैसा कि वहां पर अनाहत देव रहता है। इसकी राजधानी मेरुकी दक्षिण दिशा में है। (अवसिटुं तं चेष जाव देवकुरु अ देवे पलिओवमट्टिइए परिवसइ) प्रासाद भवनादिका कथन जम्नू सुदर्शना के प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही कहलेना चाहिये-यावत् देवकुरु नामका देव यहां पर रहता है । इसकी एक पल्योपमकी स्थिति है । यहां વિદ્યુબભ વક્ષસકાર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં અને શીદા મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં, દેવ કરના પશ્ચિમાદ્ધના–સીતાદા નદી વડે કિધાકૃત દેવકુના પશ્ચિમાદ્ધના–બહુમધ દેશભાगी, ४१४२ क्षेत्रमा ठूट इमली108 मावत छ. 'एवं जच्चेव जम्बूए सुदंसणाए वत्तव्वया सच्चेव सामलीए वि भाणियव्वा पामविहूणा गरुलदेवे रायहाणी दक्खिणेणं' रे १४तव्यता જબૂ નામક સુદર્શનાની છે તે જ વક્તવ્યતા આ શાલમલીપીઠની પણ છે. જબૂસુદર્શના માટે તેની વક્તધ્યતામાં ૧૨ નામે પ્રકટ કરવામાં આવેલાં છે પણ શાલ્મલીપીઠની અહીં જે વક્તવ્યતા છે તેમાં નામે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા નથી. અહીં ગરુડ દેવ રહે છે. અને स्या मनात व २७ छ. येनी पानी भरनी Ela शाम छ ' अवसिद्रं तंचेव जाव देवकुरु अ देवे पलिओवमदिइए परिवसई' प्रासा: सपना विनु ४थन मूसुदर्शनाना પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે તેવું જ અહીં પણ સમજવું જોઈએ, યાવત
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र छाया-क्व खलु भदन्त ! देवकुरुषु कुरुपु कूटशाल्मलीपीठं नाम पोठं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणपश्चिमेन निषधस्य वर्पधरपर्वतस्य उत्तरेण विधुत्प्रभस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन शीतोदायाः महानद्याः पश्चिमेन देवकुरुपश्चिमार्द्धस्य बहुमध्यदेशभागे अप्र खलु देवकुरुपु कुरुपु कूटशाल्मलीपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तम्, एवं यैव जम्बाः मुदर्शनाया: वक्तव्यता सैव शाल्मल्या अपि भणितव्या नामविहीना गरुडदेवः राजधानी दक्षिणेन अवशिष्टं तदेव यावद् देवकुरुश्चात्र देवः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-देवकुरवः कुरवा, अदुत्तरं च खलु देवकुरूणां० ॥सू० ३३॥ _____टीका-'कहि णं भंते देवकुराए' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं सुगमम्, नवरं कूटशाल्मलीपीठं-कूटं शिखरं, तदाकारा शाल्मली-वृक्षविशेषः, कूटशाल्मली, तस्याः पीठम्-शासनम् कूटशाल्मलीउत्तरसूत्रे-गोयया !' गौतम ! 'मंदरस्स' मन्दरस्य 'पव्वयस्स' पर्वतस्य 'दाहिणपच्चत्यिमेणं' दक्षिणपश्चिमेन नैर्ऋत्यकोणे 'णिसहस्स' निपधस्य 'वासहरपव्वयस्स' वर्षभरपर्वतस्य 'उत्तरेण' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'विज्जुप्पभस्स' विगुत्तमस्य 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'सीयोयाए' शीतोदाया-शीतोदानाम्न्याः 'महाणईए' महानद्याः 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'देवकुरुपच्चत्थिमद्धस्स' देवकुरुपश्चिमादस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'देवकुराए' देवकुरुषु
___-कूटशाल्मली पीठ वक्तव्यता"कहिण भंते ! देषकुराए कुराए कूडसामली" इत्यादि
टीकार्थ-गौतमने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा-है(कहिण मंते ! देवकुराए कुराए कूडसामलिपेढे णामं पेढे पण्णत्ते) हे भदन्त ! देवकुरु नाम के कुरु में कूट शाल्मलीपीठ कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा मंदरस्स पध्व. चस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं विज्जुप्पभस्स चक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं सीयाए महाणईए पच्चस्थिमेणं देवकुरुपञ्चस्थिमद्धस्स घहुमज्झदेसभाए एत्थ णं देवकुराए कूडसामलिपेढे णामं पेढे पण्णत्ते) हे गौतम! मन्दर पर्वत के नैऋतकोण में निषधवर्षधर पर्वत की उत्तरदिशा में विद्युत्प्र
* ફૂટ શાલ્મલી પીઠ વક્તવ્યતા 'कहिणं भंते ! देवकुराए कूडसामली' इत्यादि
सार्थ-गौतम 20 सूत्रप प्रभु मा तना प्रश्न या छ ?-'कहिणं भंते ! देव फुराए कुराए कुडसामिलिपेढे णाम पेढे पण्णत्ते' उलगवन् १९३ नाभना भाट शEभसीपी ४या मावेस छे ? 'गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं णिसहस्स पासहरपव्वयस्स उत्तरेणं विजुप्पभस्म वक्खोरपव्वयस्स पुरथिमेणं सीयाए महाणईए पच्चत्थिमेणं देवकुरु पच्चस्थिमद्धस्स. बहुमज्झदेसभाए एत्थणं देवकुराए कूडसामलिपेढे णाम पेढे पण्णत्ते' हे गौतम ! भन्६२ ५६ तना नैन्य अभ.
निषधर पतनी उत्तर दिशाभी,
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४०३
प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः रु. ३३ कूटशामलीपीठवर्णनम् .. 'कुराए' कुरुषु 'कूडसामली पेढे' कूटशाल्मीपीठ 'णाम' नाम 'पेढे' पीठं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् 'एवं' एवम्-अनन्तरोक्तसूत्रानुसारेण 'जा चेव' यैव 'जम्बूए' जम्ब्वाः 'मुदसणाए' सुदर्शनायाः 'वत्तव्वया' वक्तव्यता 'सा चेव' सैव 'सामलीए वि' शाल्मल्या अपि 'भाणियच्या' भणितव्या-वक्तव्या, इह जम्बूसुदर्शनातो विशेष दर्शयितुमाह-'णामविहूणा' नाम विहीना नामभिः प्रागुक्तैदशभिर्जम्बूनामभिर्विहीना-चर्जिता वक्तव्यता भणितव्या इह शाल्मली नामानि न सन्तीति तद्विहीना वक्तव्यता वाच्येति तात्पर्यम्, तथा 'गरुडदेवे' गरुडदेवः जम्बूसुदर्शनायां तु अनाहतो देव इति ततोऽत्र विशेषा, तत्र गरुडजातीयो वेणुदेवनामा देवो निवसतीति तदर्थः तस्य च 'रायहाणी' राजधानी 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन मेरुगिरितो दक्षिणदिशि विद्यत इति बोध्यम् 'अवसिर्ट' अवशिष्टं शेषं प्रासादभवनादि 'तं चेव' तदेव जम्बूसुदर्शनावदेव बोध्यम्, तत् क्रिम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव देवकुरु य इस्थ देवे' यावद् भवक्षस्कार पर्वत की पूर्वदिशा में, एवं शीतोदा महानदी की पश्चिमदिशा में देवकुरु के पश्चिमार्द्ध के-शीतादा नदी द्वारा द्वीधाकृन देवकुरु के पश्चिमाई के-बहु मध्य देशभाग में देवकुरु क्षेत्र में कूट शाल्मली पीठ कहा गया है। (एवं जच्चेव जम्बूए सुदंसणाए वत्तव्वया सच्चेव सामलीए वि भाणियव्वा णामविहूणागरुल देवे रायहाणी दक्खिणेणं) जो वक्तव्यता जम्बू नामक सुदर्शना की है वही वक्तव्यता इस शाल्मली पीठकी है जम्बू सुदर्शना के उसकी वक्तव्यता में १२ नाम प्रकट किये गये हैं पर ऐसे १२ नाम यहां शाल्मली पीठ की वक्तव्यता में नहीं कहे गये हैं। गरुडदेव यहां पर रहता है-जैसा कि वहां पर अनाहत देव रहता है। इसकी राजधानी मेरुकी दक्षिण दिशा में है । (अवसिष्टुं तं चेव जाव देवकुरु अ देवे पलिओवमट्टिइए परिवसइ) प्रासाद भवनादिका कथन जम्नू सुदर्शना के प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही कहलेना चाहिये-यावत् देवकुरु नामका देव यहां पर रहता है। इसकी एक पल्योपमकी स्थिति है। यहां વિધુતપ્રભ વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં અને શીદા મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં દેવ કરના પશ્ચિમાદ્ધના-સીદા નદી વડે દ્વિધાકૃત દેવફરુના પશ્ચિમાદ્ધના–બહમધ્ય દેશભાगभा, हे क्षेत्रमा ट शामलीपी8 आवे छे. 'एवं जच्चेव जम्बूए सुदंसणाए वत्तव्वया सच्चेव सामलीए वि भाणियव्वा णामविहूणा गरुलदेवे रायहाणी दक्खिणेणं' २ पतयता જબૂ નામક સુદશનાની છે તેજ વક્તવ્યતા આ શાલભલીપીઠની પણ છે. જગ્ગદર્શના માટે તેની વક્તબ્ધતામાં ૧૨ નામે પ્રકટ કરવામાં આવેલાં છે પણ શાલમલીપીઠની અહી જે વક્તવ્યતા છે તેમાં નામે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા નથી. અહીં ગરુડ દેવ રહે છે. અને स्या मनात ३१ २ छ. सेना पानी भरनी क्षिशिमा छ ' अवसिटुं तंचेव जाव देवकुरु अ देवे पलिओवमदिइए परिवसई' प्रासाई सपना विषेनु ४थन मूसुशनाना પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે તેવું જ અહીં પણ સમજવું જોઈએ, યાવત,
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છઠછે
अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे देवकुरुश्चात्र देवः 'पलिओवमटिइए' पल्योपमस्थितिकः 'परिवसई' परिवसति इह यावत्पद सङ्ग्राह्यपदानि अष्टमसूत्रात्सङ्ग्राह्याणि, तदर्थश्च तत एव ज्ञेयः, देवकुरुनामार्थसूत्रं 'प्राग्वद्विवरणीयम् ॥सू० ३३॥
अथ चतुर्थं विद्युत्प्रभनामकं वक्षस्कारपर्वतं वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं मंते ! जंबुद्दी' इत्यादि। , मूलम्-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पभे
णामं वक्खारपवए पण्णत्ते ?, गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स . उत्तरेणं मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणपञ्चत्थिमेणं देवकुराए पञ्चस्थिमेणं “पम्हस्स विजयस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पभे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालवंते णवरं सव्वतवणिजमए अच्छे जाव देवा आसयंति । ।
विज्जुप्पभेणं भंते ! वक्खारपव्वए कइकूडा पण्णता ? गोयमा ! नवकूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे विज्जुप्पभकूडे देवकुरुकूडे पम्हकडे कणगडे सोवत्थियकूडे सीयोयाकूडे सयजलकूडे हरिकूडे । 'सिद्धे व विज्जुणामे देवकुरु पम्हकणगसोवत्थी । सीयोया य सयज्जलं
हरिकूडे चेव बोद्धव्वे ॥१॥ एए हरिकूडवजा पंचसइया णेयव्वा, एएसिं • कूडाणं पुच्छा दिसि विदिसाओ णेयवाओ जहा मालवंतस्स हरिस्सहकूडे तह चेव हरिकूडे रायहाणो जह चेव दाहिणेणं चमरचंचा रायहाणी तह णेयव्वा, कणगसोवत्थिंयकूडेसु वारिसेणबलाहयाओ दो देवयाओ अवलिट्रेसु कूडसरिसणामगा देवा रायहाणीओ दाहिणेणं से केणणं भते । एवं वुच्चा विज्जुप्पभे वक्खारपव्वए २१, गोयमा ! यावत्पद संग्राह्य पदों को और उनके अर्थ को जानने के लिये अष्टम सूत्र से जानलेना चाहिये तथा देवकुरु नामार्थ सूत्र पहिले कथित पद्धति के अनुसार ही विकृत करलेना चाहिये ॥३॥ દેવકુરુ નામક દેવ અહીં રહે છે. એની એક પંપમ જેટલી સ્થિતિ છે. અહીં યાવત્ પદ સંગ્રાહા પઢે અને તેમના અર્થ જાણવા માટે અષ્ટમ સૂત્રમાં જેવું જોઈએ. તેમજ દિવકુરુ નામાર્થ સૂત્ર પૂર્વ કથિત પદ્ધતિ મુજબ જ વિવૃત કરી લેવું જોઈએ સૂ. ૩૩
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३४ विद्युत्मभवक्षस्कारपर्वतवर्णनम् ४०५ विज्जुप्पभेणं वक्खारपव्वए विज्जुमिव सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोवेइ पभालइ विज्जुएभे य इत्थ देवे पलिओवमद्विइए जाव परिवसइ, से एएणट्रेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-विज्जुप्पभे२, अदुत्तरं च णं
जाव णिच्चे ॥सू० ३४॥ ' छाया-क खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे विद्युत्प्रभो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणपश्चिमेन देवकुरुणां पश्चिमेन पद्मस्य विजयस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे विद्युत्प्रभो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः एवं यथा माल्यवान् नवरं सर्वतपनीयमयः अच्छो यावद् देवा आसते ।। __विद्युत्प्रभे खलु भदन्त ! वक्षस्कारपर्वते कतिकूटानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! नव कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धायतनकूट विधुत्प्रभकूट देवकुरुकूटं कनककूटं स्वस्तिककूटं शीतोदाकूटं शतज्वलकूट हरिकूटम् । सिद्धं च विद्युम्नाम देवकुरु पद्मकनक-स्वस्तिकानि । शीतोदा च शतज्ज्वल हरिकूटं चैव बोद्धव्यम् ॥१॥ एतानि हरिकूटवर्जानि पञ्चशतिकानि नेतव्यानि, एतेषां कूटानां पृच्छा दिग्विदिशो नेतव्याः यथा माल्यवतो हरिस्सहकूटं तथैव हरिकूट राजधानी यथैव दक्षिणेन चमरचञ्चा राजधानी तथा नेतव्या, कनक-स्वस्तिककूटयोः वारिषेणा-वलाहिके द्वे देवते, अवशिष्टेषु कूटेषु कूटसदृशनामका देवाः राजधान्यो दक्षिणेन, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-विद्युत्प्रभो वक्षस्कारपर्वतः २१, गौतम ! विद्युत्प्रभः खलु वक्षस्कारपर्वतो विद्युदिव सर्वतः समन्ताद् अत्रभासते उद्योतयति प्रभासते विद्युत्प्रभवात्र देवः पल्योपमस्थितिको यावत् परिवसति, स एतेनार्थेन गौतम । एवमुच्यते-विद्युत्प्रभः,२, अदुत्तरं च खलु यावनित्यः ॥सू० ३४। . टीका-'कहि णं भंते जंबुद्दीवे'-इत्यादि-सुगमम्, किन्तु माल्यवानिवायमुक्तस्तत्र माल्यवतो विशेष दर्शयितुमाह-'णवरं नवरं केवलं 'तवणिज्जमए' तपनीयमयः-तपनीयं रक्त
. विद्युत्प्रभवक्षस्कार पर्वत की वक्तव्यताकहिणं भंते ! जवुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पभे' इत्यादि। टीकार्थ- (कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे) हे भदन्त ! इस जम्वद्वीप नाम के द्वीप में वर्तमान महाविदेह क्षेत्र में विद्युतप्रभ नाम का वक्षस्कार पर्वत कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रसु कहते हैं-(गोयमा! णिसह
T વિધ...ભ વક્ષસ્કાર પર્વતની વક્તવ્યતા 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विजुप्पों' इत्यादि टीआय:-'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे' HEN I मादी नाम:
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र सुवर्ण, तन्मयोऽयम् तथा 'अच्छे अच्छ:-आकाशस्फटिकवदतिनिर्मल: 'जाव' यावत्यावत्पदेन 'लक्ष्णः, घृष्टः, मृष्टः, नीरजाः, निर्मल:, निष्पकः निष्कङ्कटच्छायः, सप्रमा, समरीचिका, सोधोतः, प्रासादीयः, दर्शनीयः, अभिरूपः, प्रतिरूपः,' इत्येषां सङ्ग्रहो वोध्या, एषां व्याख्या चतुर्यसूत्रटीकातो वोध्या तथा तत्र खलु बहवो व्यन्तरा इत्येपामपि स्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं मंदस्स पचयस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं देव कुराए पच्चस्थिमेणं पम्हम्स विजयस्स पुरथिमेणं एत्थणं जंघुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पभे णामं वक्खारपन्चए पण्णत्ते) हे गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत की उत्तर दिशा में, मेरु पर्वत के दक्षिण पश्चिम कोने में देवकुरु की पश्चिम दिशा में और पद्म विजय की पूर्व दिशा में जम्बूद्वीप के भीतर वर्तमान महाविदेह क्षेत्र में विद्युत्प्रभ नामका वक्षस्कार पर्वत कहा गया है (उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालवंते णवरि सव्व तवणिज्जमए अच्छे जाव देवा आसयंति) यह घक्षस्कार पर्वत उत्तर से दक्षिण तक दीर्घ है इस तरह से जैसा कथन माल्यधन्त पर्वत के प्रकरण में किया गया है वैसा ही कथन यहां पर भी कर लेना चाहिये यह पर्वत सर्वात्मना तपनीय मय है आकाश और स्फटिक के जैसा निर्मल है यावत् इस पर अनेक व्यन्तर देव और देवियां आकर विश्राम करती हैं
और आराम करती है। यहां यावत्पद से 'लक्ष्णः, घृष्टः, मृष्टः, नीरजाः, निर्मला, निष्पकः, निष्कंटकछायः, सप्रभा, समरीचिका, सोद्योतः, प्रासादीयः, दर्श नीयः अभिरूपः," इन पदों का संग्रह हुआ है इन पदों की व्याख्या चतुर्थ सूत्र દ્વીપમાં, વર્તમાન મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં વિદ્યુતપ્રભ નામક વક્ષસ્કાર પર્વત કયા સ્થળે આવેલ ® याममा प्रभु श्री ४ थे-'गोयमा ! णिसहस्स वासहरपन्चयस्स उत्तरेणं मदरस्स पव्वयस्स पाहिणपच्चत्यिमेणं देवकुराए पच्चत्थिमेणं पम्हस्स विनयस्स पुरस्थिमेण एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विजुप्पभे णामं वक्खारपव्यए पग्णत्ते' हे गौतम निपथ पर पतनी उत्तर દિશામાં, મેરુ પર્વતના દણિક્ષ પશ્ચિમના કેણુમાં, દેવકુમ્ની પશ્ચિમ દિશામાં અને પ વિજયની પૂર્વ દિશામાં જંબૂઢીપની અંદર વર્તમાન મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં વિદ્યુતપ્રભ નામે ११९४२ त मावेस छ. 'उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालवंते णवरि सव्वतवणिज्जमए अच्छे जाव देवा ऑसयंति' मा ११४२ ५' उत्तरथी क्षिय सुधा ही छ. मा प्रभारी જેવું કથન માલ્યવત પર્વતના પ્રકરણમાં કરવામાં આવેલું છે તેવું જ કથન અહીં પણ ક્ષમજવું જોઈએ. આ પર્વત સર્વાત્મના તપનીયમય છે. આકાશ અને રફટિકવત નિર્મળ છે. યાવતું એની ઉપર ઘણું વ્યન્તર દેવ અને દેવીઓ આવીને વિશ્રામ કરે છે અને माराम ४२ छे. मही यावत् पहथी 'लक्ष्णः, घृष्टः, मृष्टः, नीरजः, निर्मलः, निष्पङ्क, निष्क्टकछायः, सप्रमः, समरीचिका, सोद्योतः, प्रासादीयः, दर्शनीयः अभिरूपः, प्रतिरूपः, से પનું ગ્રહણ થયું છે. એ પદની વ્યાખ્ખા તુર્થ સૂત્રમાંથી જાણી લેવી જોઈએ ?
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३४ विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वतवर्णनम् संग्रहः 'देवा' देवाः इत्युपलक्षणं, तेन वहवो देव्यश्च 'आसयंति' आसते इत्यप्युपलक्षणं तेन शेरते तिष्ठन्ति निपीदन्ति स्ववर्त्तयन्ति इत्यादि वोध्यम् ।
अथात्र कुटानि वर्णयितुगुपक्रमते-'विज्जुप्पभे णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रमुत्तानार्थम्, उत्तरसूत्रे तु-नवकूटानि यथा 'सिद्धाययणकूडे' सिद्धायतनकूटम् १ 'विज्जुप्पमकूडे' विधुप्रभकूटंविधुत्प्रभो वक्षस्कारपर्वतविशेषः तत्सदृशनामकं कूटम् २, एवं 'देवकुरुकूडे' देवकुरुकूटं देवकुरुनामक कुरुविशेषसदृशनामकं कूदम् ३ 'पम्हकूडे' पक्षमकूट-पक्ष्मनामक विजयसहशनामकं कूटम् ४ 'कणगकूडे' कनककूटम् ५ 'सोवत्थियफूडे' स्वस्तिककूटम् ६ 'सीयोयाकूडे' शीतोदाकूटम्७ सयजलकूढे' शतज्वलकूटम्८ 'हरिकूडे' हरिकूट-हरेः-हरिनामकस्य दक्षिणश्रेण्यधिपस्य विद्युत्कुमारेन्द्रस्य कूटं हरिकूटम् ९ इति, इमान्येव नव कूटानि से समझ लेनी चाहिये देव पद यहां उपलक्षणरूप है इससे देवियों का भी ग्रहण हो जाता है। तथा 'आसयंति' इस क्रिया पद से उपलक्षण रूप होने के कारण 'शेरते, तिष्ठन्ति, निषीदन्ति, स्वरवर्तयन्ति, इत्यादि प्रियापदों का ग्रहण हो जाता है। ___ (विजुप्पमेणं अंते ! वक्खारपन्यए कह कूडा पण्णत्ता) हे भदन्त ! विशुस्प्रभ वक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ! नवकूडा पण्णत्ता) हे गौतम ! नौ कूट कहे गये हैं (तं जहा) उन कूटों के नाम इस प्रकार हैं-(सिद्धाययणकूडे, विज्जुप्पभकूडे, देवकुरुकूडे, पम्हकूडे, कणगकूडे, सोवस्थियकूडे, सीओआकूडे, सयजलकूडे, हरिकूडे,) सिद्धेय, विज्जुणामे, देवरु पम्हकणग, सोवत्थी सीओआ य सयजल हरिकूड़े चेव योद्धव्वा ॥१॥ (एए हरिकूडवजा पंचसइया णेयन्या) सिद्धायतनकूट, विद्युत्मभकूट, देवकुरुकूट, पश्नकूट कनककूट, स्वस्तिककूट, सीतोदाकूट, शतज्वलकूट, और हरिकूट इनमें प४ गडी GRAY ३५ छ. सनाथी हवीमा पर थयुछे. तथा 'मासयंति' मा ठिया५४थी SARY ३५ वा मदर 'शेरते, तिष्ठन्ति, निषीदन्ति, त्वग्वर्तयन्ति' विशेर ક્રિયાપદ ગ્રહણ થઈ જાય છે.
विजुप्पभेणं भंते ! वक्खारपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता' हे महन्त ! विधुत्प्रन १३२ 'त ७५२ मा ट। आवसा छ ? ये सभी प्रभु ४ छ-'गोयमा! नवकूडा पण्णत्ता' है गौतम ! नटी मा छ. 'तं जहा' ते टीना नाम २ प्रमाणे :-सिद्धाययण कूडे, विज्जुप्पभकूडे, देवकुरुकूडे, पम्हकूडे, फणगकूडे, सोवस्थियकूडे, सीओआकूडे, सयज्जल कूडे, हरिकूडे सिद्धेय, विज्जुणामे देवकुरु पम्हकणगसोवत्थि सीओआ य सयज्जवल हरि कूडे चेव बोद्धव्वे ॥ १ ॥ एए हरिकूडवज्जा पंचसइया णेयवा' सिद्धायतन (ट, विद्यापन ફૂટ, દેવકુરુ કુટ, પાકૂટ, કનક ફૂટ, સ્વસ્તિક કૂટ, સીદા ફૂટ, શતજવલ કૂટ અને હરિ ફૂટ. એમાં જે નિg...ભ વક્ષસ્કાર પર્વત વિશેષ જેવા નામવાળા ફૂટ છે, તેનું નામ વિદ્યુપ્રભ
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जम्बूद्वीपप्रज्ञतिसूत्रे
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गाथया सङ्ग्रहीतुमाह- 'सिद्धे य' इत्यादि - छायागम्यम्, अथ सर्वाणि कूटानि परियणयितुमाह - 'एए हरिकूडवज्जा' एतानि हरिकूटवर्जीनि हरिकूटं वर्जयित्वा हरिकूटस्य सहस्रयोजन प्रमाणत्वात्, शेपाणि सिद्धायतनादीनि अष्टकूटानि 'पंचसया' पञ्चचदिकानि पञ्चशतयोजन प्रमाणानि 'णेयच्या' नेतव्यानि योधपथं प्राप्याणि बोध्यादि, तत्र हरिकूटस्य प्रमुखता परिगणनायामैच्छिकी न तु क्रामिकी 'एएसिं' एतेषाम् अनन्तरोक्तानाम् 'इडाणं ' कूटानां पुच्छा' पृच्छा-सूत्रनिर्दिष्टः प्रश्नः प्रश्नसूत्रमिति भावः तथा तदाधारतया 'दिसि - विदिसाओ' दिग्विदिशः दिशो विदिशश्च 'णेयश्याओ' नेतन्याः ज्ञातव्याः, तत्र प्रश्नसू हि - 'कहि णं भंते! विज्जुप्पभे वक्षारपञ्च सिद्धाययणकूडे णायं कूडे पण्णचे ?" एवमादिरूपम्, दिग्विदिशचैवम् - मेरोर्दक्षिणपश्चिमायां विदिशि मेरुसमीपवर्ति प्रथमं सिद्धायतनकूटं, तस्य निर्ऋतिकोणे विद्युत्प्रभकूटं नाम द्वितीयं कूटम्, तस्य निर्ऋतिकोणे तृतीयं देवकूटं, जो विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत विशेष के जैसे नान वाला कूट है ? उसका नाम विद्युत्प्रभ कूट है । देवकुरु के जैसे नाम वाला देवकुरुकूट है पक्ष्म नामक विजय के जैसा नाम वाला पक्ष्मकूट है दक्षिण श्रेणी का जो अधिपति विद्युत्कुमारेन्द्र हैं उसका जो कूट है वह हरिकूट है इन्हीं नौ कूटों का इस सिद्ध आदि गाथा द्वारा संग्रह किया गया है- इनमें हरि कूट को छोडकर बाकी के जो आठ कूट हैं वे एक एक कूट पांचसौर योजन के हैं हरिकूट का प्रमाण एक हजार योजन का है (एएसिं कूडाणं पुच्छा दिसि विदिसाओ णेयव्वाभो जहा मालवंतस्स) इन कूटों के सम्बन्ध में दिशा में और विदिशा में कौन कौन कूट हैं" ऐसा पृच्छा यहां पर कर लेनी चाहिये "जैसे कहिणं भंते ! विज्जुपभे वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते) हे भदन्त ! विद्युत्प्रभ वक्षस्कारपर्वत पर सिद्धायतन नामका कूट कहाँ पर कहा गया है ? तब उत्तर में ऐसा कहना - हे गौतम! मेरु के दक्षिण पश्चिम कोने में मेरुसमीपवर्ती प्रथम सिद्धायतन कूट कहा गया है
ફૂટ છે. દેવકુરુ જેવા નામવાળા દેવકુરુ ફૂટ છે. પદ્મ નામક વિજયના જેવા નામવાળા પક્ષ્મ ફૂટ છે. દક્ષિણ શ્રેણીના જે અધિપતિ વિદ્યુત્ક્રમારેન્દ્ર છે, તેના જે ફૂટ છે તે હરિકૂટ છે. એ નવ ફૂટના આ સિદ્ધ આદિ ગાથા વડે સંગ્રહ કરવામાં આવેલ છે. એમાં રિક્રૂટને ખાદ કરી શેષ જે આઠ ફૂટ છે તે દરેકે દરેક પાંચસેા ચેાજન જેટલા છે. રિકૂટનું પ્રમાણુ भेड हुन्नर योन्जन नेटयुं छे. 'एएसि कूडाणं पुच्छा दिसि विदिसाओ णेयव्वाओ जहा मालવૈતરણ” એ ફૂટેના સંબંધમાં દિશામાં અને વિદિશામાં ક્યા ક્યા ફ્રૂટ છે ? એવી પૃચ્છા अत्रे ४री सेवी लेधये. ?भ - 'कहिणं भंते ! विज्जुप्पभे वक्खारपव्त्रए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' हे लत! विद्युत्य वक्षस्ठार पर्वत पर सिद्धायतन छूट यां स्थ આવેલ છે? ત્યારે જવામમાં પ્રભુ કહે છે—હૈ ગૌતમ ! મેરુના દક્ષિણ—પશ્ચિમ કાણુમાં મેરુ સમીપવતી પ્રથમ સિદ્ધાયતન ફૂટ આવેલ છે. સિદ્ધાયતન ફૂટની નૈૠત્ય વિદિશામાં વિદ્ય
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३४ विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वतवर्णनम् . ४०९ तस्य नितिकोणे चतुर्थ पक्षमकूट, पक्ष्मकूटस्य नितिकोणे स्वस्तिककूटस्योत्तरदिशि पञ्चमं कनकट, तस्य दक्षिणस्यां दिशि स्वस्तिककूटं नाम पष्ठं कूट, तस्य दक्षिणदिशि सप्तमं शीतोदाकूट, तस्य दक्षिणदिशि शतज्वलकूटं नामाष्टमं कूट, नवमं हरिकूटं शीतोदाकूटस्य दक्षिणलां दिधि निषधपर्वतसमीपति, अस्य यो विशेषस्तमतिदिशति-'जहा बालवंतस्स' यथा माल्यक्तो वक्षस्कारपर्वतस्य 'हरिस्साकूडे' हरिस्सहकूटं नाम क्रूटमेसहायोजनोच्चमहतीयशतान्यवगाढं मूले सहस्त्रयोजनानि विस्तीर्णं यमकप्रमाणेन ज्ञातुं मानिर्दिष्टं 'तह चेव तथैव हरिकूटं बोध्यम्, हरिस्सहकूटं च पूर्णभद्रस्योपदिशि नीलवतो लक्षिपदिशि प्रायुक्तम्, अस्य राजधानी प्रदर्शयितुमाह-रायहाणी जह चेव दहिणेणं चसरचंचा रायहाणी तह जेवव्या' राजधानी यथैव दक्षिणेन-दक्षिणदिशि चमरचचा राजधानी वर्णिता तथैव सिद्धायतन कूट की नैऋत विदिशा में विद्युत्मा कूट कहा गया है विद्युत्मभ कूट की नैऋत विदिशा में देवकुरु कूट कहा गया है देवकुरु कूट की नैऋत विदिशा में पक्ष्मकूट कहा गया है पक्षमकूट की लत विदिशा में और स्वस्तिक कूट की उत्तर दिशा में पाचवां कनककूट कहा गया है सरकार की दक्षिण दिशा में स्वस्तिककूट नामका छट्ठा कूट कहा गया है स्वस्तिककट की दक्षिण दिशा में सातवां शीतोदाकूट कहा गया है, शीतोदाकूट की दक्षिण दिशा में शतज्वल नामका आठवां कूट कहा गया है नोवा जो हरिकूट है वह शीतोदा कूट की दक्षिण दिशा में निषध पर्वत के समीपवर्ती कहा गया है जैसो माल्यवन्त वक्षस्कारपर्वत का (हरिस्सहकूडे तह चेव हरिकूडे) हरिस्सह नाम का कूट है वैसा ही यह कूट है यह कूट एक हजार १००० योजन का ऊंचा है २॥ सौ २५० योजन का इसका जमीन के भीतर अवगाह है मूल में यह एक हजार योजन का मोटा है ऐसा ही हरिस्सहकूट है हरिस्सहकूट पूर्णभद्र की उत्तर दिशा
ત્યભ ફૂટ આવેલ છે. વિદુભ ફૂટની છત્ય વિદિશામાં દેવકરૂ ફૂટ આવેલ છે દેવકુની નિત્ય વિદિશામાં પહમણૂટ આવેલ છે. પમ ફૂટની નિત્ય વિદિશામાં અને સ્વસ્તિક ફૂટની ઉત્તર દિશામાં પાંચમે કનકકૂટ નામને ફૂટ આવેલ છે. કનકૂટની દક્ષિણ દિશામાં સ્વસ્તિક ફૂટ નામને છઠે ફૂટ આવેલ છે. સ્વસ્તિક ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં શતલ નામક અષ્ટમ કૂટ આવેલ છે. નવ જે હરિકૂટ છે તે શીદા ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં निष५ पतनी पारी मावद छ. वो भायवन्त १६४२ यता 'हरिस्सह कूडे तहचेव हरिकूडे' रस्सर नाम४ फूट छे तेवमा रिट पY. मा કૂટ એક હજાર જન જેટલે ઊંચો છે. જમીનની અંદર એને અવગાહ ૨૫૦
જન જેટલે છે. મૂળમાં એક હજાર રોજન જેટલો એ મટે છે. એ જ હરિસ્સહ કટ છે. હરિસ્સહ ફૂટ પૂર્ણભદ્રની ઉત્તર દિશામાં છે અને નીલવન્ત પર્વતની દક્ષિણ दिशामा छ. भा प्रभारी पडसा अवामी माव्यु छे. 'रायहाणी ज़हचेव दाहिणेणं चमर
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र हरिकूद्रस्यापि राजधानी नेतव्या वोधपथं प्रापणीया वोध्या कणगसोवत्थियकूडेमु' कनक स्वस्तिककूटयोः 'वारिसेण वलाहयाओ' वारिषेणा पलाहिके 'दो देवयानो' द्वे देवते दिक्कुमार्यों देव्यो परिवसतः 'अवसिहेसु' अवशिष्टेषु विद्युत्प्रभादिषु 'कूडेमु' कूटेषु 'कूडसरिसणामगा' कूटसदृशनामकाः 'देवा' देवाः परिवसन्ति, तेपा 'रायहाणीओ राजधान्यः 'दाहिणेण दक्षिणेन-दक्षिणदिशि वोध्याः। .' अथास्य नामार्थ प्रदर्शयितुमुपक्रमते-'से केणटेणं भंते ! इत्यादि-अथ केन अर्थेन कारणेन भदन्त ! 'एवं बुचई' एवमुच्यते 'विज्जुप्पभे विद्युत्प्रभः 'वक्खारपब्वए २१ वक्षस्कारपर्वतः २ ?, इतिप्रश्ने भगवानुत्तरमाह-'गोयमा ' गौतम ! 'विज्जुप्पभेणं' विद्युत्प्रभा खल 'वक्खारपचए' वक्षस्कारपर्वतः ‘विन्जुविव' विधुदिव रक्तवर्णत्वात् 'सवओ' सर्वतः में है और नीलचंत पर्वत की दक्षिण दिशा में हैं ऐसा पहले कहा जा चुका है (रायहाणी जह चेव दाहिणणं चसरचंचा रायहाणी तह णेयव्या) जिस प्रकार से दक्षिण दिशा में चमरचचा नामकी राजधानी कही गई है अर्थात् चमरचंचा नामकी राजधानी का जैसा वर्णन किया गया है वैसा ही वर्णन यहां की राजधानी का भी कहा गया है । हरि कूट की भी यह राजधानी मेरु की दक्षिण दिशा में है। (कणासोवत्थिय कूडेसु वारिसेणबलाहयाओ दो देवयाओ अवसिहेतु कूड़े कूडलरिसणामगा देवा रायहाणीओ दाहिणणं) कनक कूट और सौवस्तिक कूट इन दो कूटों पर वारिसेणा और बलाहका ये दो दिक्कुमारिकाएं रहती है और अवशिष्ट विद्युत्मभ आदि कूटों पर कूट जैसेही नाम वाले देव रहते हैं। इनकी राजधानियां मेरू की दक्षिण दिशा में है '' (से केणट्टेणं भंते ! एव धुच्चई विजुप्पभे २ वक्खारपव्वए) हे भदन्त ! इस पर्वत का विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत ऐसा नाम किस कारण से कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है (गोयमा ! विज्जुप्पमेणं वक्खारपवए विज्जुमिव चंचा रायहाणी तह णेयव्वा' में प्रभा क्षय शाम यस्य' या नामे यानी भावेला છે એટલે કે ચમ ચંચા નામક રાજધાનીનું જે પ્રમાણે વર્ણન કરવામાં આવેલું છે તેવું જ વર્ણન અહીંની રાજધાનીનું પણ છે. હરિફૂટની રાજધાની પણ મેરુની દક્ષિણ દિશામાં છે. 'कणगोवत्थियकूडेसु वारिसेणबलाह्याओ दो देवयाओ अवसिद्धेसु फूडेसु फूडसरिसणामगा देवा रायहाणीओ दाहिणेणं' ४४ ट म सोपतs दूट में 28५२ वारिसे। એક બલાહક એ બે દિફકમારિકાઓ રહે છે. અને અવશિષ્ટ વિદ્યુભ વગેરે ફૂટે ઉપર કુટના જેવા નામવાળા દે રહે છે. એમની રાજધાનીઓ મેરૂની દક્ષિણ દિશામાં આવેલી છે.
से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ विज्जुप्पभे २ प्रक्खारपव्वए' ३ मत ! 2 पतर्नु વિદ્યુભ વક્ષકાર પર્વત એવું નામ શા કારણથી રાખવામાં આવેલું છે? એના જવાબમાં પ્રભુ
छे-'गोयमा! विज्जुप्पभेणं वक्खारपवार विज्जुमिव सव्वओ समंता ओभासेइ, उज्जो.
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३४ विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वतवर्णन सर्वदिक्षु 'समंता' समन्तात् सर्वविदिक्षु च 'ओमासेई' अवभासते द्रष्टुंणां लोचनपथे प्रतिभाति यदयं विद्युत्प्रकाश इति, एतदेव दृढयितुमाह-'उज्जोवेइ' उद्योतयति भामुरत्वात् स्वासन्नं वस्तुजातं प्रकाशयति, स च स्वयमपि 'पभासइ' प्रभासते प्रकाशते तेन विद्युत्प्रभः विद्युदिव प्रभातीति विद्युत्प्रभोऽन्वर्थनामाऽयं वक्षस्कारगिरि अस्य देवमाह-'विज्जुप्पमे य इत्थ देवे' विधुत्नभश्चात्र देवः परिवंसतीत्यंग्रिमेणान्वयः, सं च देवः कीदृशः ? इत्याई'पलिओवमहिईए जीव परिवसइ' पल्योपमस्थितिको यावत् परिवसति महर्दिक इत्यारभ्य पल्योपमस्थितिक इति पर्यन्तंपदानामत्र सइन्ग्रहो बोध्यः, सं चाष्टमसूत्रात् संविवरणो बोध्यः एतादृशो महर्दिकत्वादि विशिष्टो देवः परिवंसति तदधिष्ठितवादपि विद्युत्प्रभ इत्येवमुच्यते एतदेवोपसंहरति-'स एएणटेणं गोयमा 'स:-विद्युत्प्रभः एतेन-अनन्तरोक्तेन अर्थेनं हेतुना हे गौतम ! एवमुच्यते विद्युत्प्रभों इति शेपं प्राग्यंत् ॥सू० ३४॥ सव्वओ समंता ओभासेइ, उज्जोवेह, पभासेइ विजुपमे य इत्थ देवे पलिओवमहिए जावं परिवर्सइ से एएण?णं गोयमा ! एवं उच्चई विलुप्प २) हे गौतम ! यह विधत्तम नाम का वक्षस्कार पर्वत विद्युत् की तरह रक्तवर्ण होने से दिशाओं और विदिशाओं में चमकता रहता है अंत: लोकों को ऐसा प्रतीत होता है कि यह बिजली का प्रकाश है भासुर होने के कारण यह अपने निकटवर्ती पदार्थों को भी प्रकाशयुक्त करना है और स्वयं भी प्रकाशित होता है इसी कारण हे गौतम मैने इसका नाम विद्युत्प्रल ऐसा कहा है ! दूसरी वात यह भी है कि यहां पर विद्युत्प्रय नाम का देव रहता है इसकी एक पल्यापम की स्थिति है यहीं यावत् शब्द से महर्द्धिक से लेकर पल्यापम स्थिति तक के बीच में आये हए पदों का संग्रह हुआ है। इन पदों का अर्थ अष्टम सूत्र से जाना जा सकता है अतः हे गौतम । विद्युत के जैसी आभा याला होने से तथा विद्युत्प्रभ देव का निवास स्थान होने से इस पर्वत का नाम विद्युत्प्रभ ऐसा कहा गया है ॥३४॥ वेई, पभासेई विर्जुप्पभेय इत्थं देवे पलिओवमदिइए जाव परिवसई से एएणदेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ विज्जुप्पभे २ गीतम! मा विधुत्सम ना १९४२ पंत विधत्नी रेभ રક્તવર્ણ હથી દિશા અને વિદિશાઓમાં ચમકતું રહે છે. એથી લેકેને એવું લાગે છે કે એ વિદ્યતને પ્રકાશ જ છે. ભાસુર હવાથી એ પિતાના નિકટવર્તી પદાર્થોને પણ પ્રકાશયુક્ત કરે છે અને સ્વયં પણ પ્રકાશિત થાય છે. એથી જ હે ગૌતમ! મેં એનું નામ વિધ્યભ એવું રાખ્યું છે. બીજી વાત એ છે કે અહીં વિભ્રભ નામે દેવે રહે છે. એની એક પપમ જેટલી સ્થિતિ છે. અહીં યાવત શબ્દથી મહદ્ધિકથી માંડીને પલ્ય પમ સ્થિતિ સુધીના સર્વ પદ્યને સંગ્રહ થયે છે. એ પદેને અષ્ટમ સત્રમાંથી જાણી શકાય
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जिम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र _____ अथ महाविदेहवर्पस्य दाक्षिणात्यपश्चिमाख्यं तृतीयविभागं वक्तुं तदन्तर्वतिनो विजयादीनाह-'एवं पम्हे विजए' इत्यादि । ___ मूलम्-एवं पम्हे विजए अस्सपुरा रायहाणी अंकावई वक्खारपव्वए ? सुपम्हे विजए सीहपुरा रायहाणी खीरोदा महाणई २, महापम्हे विजए महापुरा रायहाणी पम्हावई वक्खारपवए ३,पम्हगावई विजए विजयपुरा रायहाणी सीयसोया महाणई ४, संखे विजए अवराइया रायहाणी आसीविसे वक्खारपव्वए ५, कुमुदे विजए अरजा रायहाणी अंतोवाहिणी महाणई ६, णलिणे विजए असोगा रायहाणी सुहावहे वक्खारपवए ७, णलिणावई विजए वीयसोगा रायहाणी ८, दाहिणिल्ले सीयोया मुहवणसंडे, उत्तरिल्ले वि एवमेव भाणियव्वे जहा सीयाए, वप्पे विजए विजया रायहाणी चंदे वक्खारपक्वए १, सुवप्पे विजए जयंती रायहाणी उम्मिमालिणीणई, महावप्पे विजए जयंती रायहाणी सूरे वक्खारपव्वए ३, वप्पावई विजए अपराइया रायहाणी फेणमालिणी गई १. वग्गू विजए चक्कपुरा रायहाणी णागे वक्खारपव्वए ५, सुवग्गू विजए खग्गपुरा रायहाणी गंभीरमालिणी अंतरणई ६, गंधिले विजए अवज्झा रायहाणी देवे वक्खारपव्वए ७, गंधिलावई विजए अयोज्झा रायहाणी ८, एवं मंदरस्स पव्वयस्स पच्चस्थिमिल्लं पास भाणियव्वं, तत्थ ताव सीयोयाए णईए दाहिणिल्ले णं कूले इसे विजया तं जहा-पन्हे सुरम्हे चउत्थे पम्हगावई संखे ।कुसुए लिणे, असे गलिणावई ॥१॥ इमाओ रायहाणीओ, तं जहा-आसपुरा लोहपुरा चेव हाइ विजयपुरा, अवराइया य अरया असोगा तह वीयसोगा य ॥२॥ इभे वक्खारा, तं जहा-अंके पम्हे आसीविसे सुहावहे एवं इत्थ परिवाडीए दो दो विजया कूडसरिलणासगा भाणियबा दिसा विदिसाओ य भाणियवाओ, सीयोयामुहवणं व भाणियवं તેમ છે. એથી હે ગૌતમ ! વિદ્યુત જેવી આભાવાળા હોવાથી તેમજ વિદ્યુમ્રભ દેવનું નિવાસસ્થાન લેવા બદલ આ પર્વતને વિદ્યુમ્રભ નામથી સંબંધમાં આવે છે. એ સ. ૩૪
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू.३५ महाविदेहस्य तृतीयविभागान्ततिविजयदिनि० ४१३ सीयोयाए दाहिणिल्लं उत्तरिल्लं च, सीयोयाए उत्तरिल्ले पासे इमे विजया, तं जहा-वप्पे सुवप्पे महावप्पे चउत्थे वप्पयावई ।
- वग्गू य सुवग्गू य, गंधिले गंधिलावई ॥१॥ . रायहाणीओ इमाओ, तं जहा-विजया वेजयंती जयंती अपराजिया। चकपुरा खग्गपुरा हवइ अवज्झा अउज्झाय ॥२॥ इमे वक्खारा, तं जहा-चंदपव्वए १ सूरपव्वए २णागपत्रए ३ देवपव्वए ४, इमाओ गईओ सीयोयाए महाणईए दाहिणिल्ले कूले-खीरोया सीयसोया अंतरवाहिणीओ गईओ३, उम्मिमालिणी १ फेणमालिणी २ गंभीरमालिणी ३ उत्तरिल्लविजयाणंतराउत्ति, इत्थ परिवाडीए दो दो कूडा विजयसरिसणामया भाणियव्वा, इमे दो दो कडा अवट्रिया, तं जहासिद्धाययणकूड पव्वयसरिसणामकूडे ॥सू० ३५॥
छाया-एवं पक्ष्मो विजयः अश्वपुरी राजधानी अङ्कावती वक्षस्कारपर्वतः १, सुपक्ष्मो विजयः सिंहपुरी राजधानी क्षीरोदा महानदी २, महापक्ष्मो विजयः महापुरी राजधानी पक्ष्मावती वक्षस्कारपर्वतः ३, पक्ष्मकावती विजयः विजयपुरी राजधानी शीतस्रोता महानदी ४, शङ्खो विजयः अपराजिता राजधानी आशीविशो वक्षस्कारपर्वतः ५, कुमुदो विजयः अरजा राजधानी अन्तर्वाहिणी महानदी ६, नलिनो विजयः अशोका राजधानी मुखावहो वक्षस्कारपर्वतः ७, नलिनावती विजयः वीतशोका राजधानी ८, दाक्षिणात्ये शीतोदामुखवनखण्डे,
औत्तराहेऽपि एवमेव भणितव्यम् यथा शीतायाः वो विजयः विजया राजधानी चन्द्रो वक्षस्कारपर्वतः १, सुवप्रो विजयः जयन्ती राजधानी उर्मिमालिनी नदी २, महावप्रो विजयः जयन्ती राजधानी सूरो वक्षस्कारपर्वतः ३, वप्रावती विजयः अपराजिता राजधानी फेनमालिनी नदी ४, वल्गुर्विजयः चक्रपुरी राजधानी नागो वक्षस्कारपर्वतः ५, सुचल्युर्विजयः खड्गपुरी राजधानी गम्भीरमालिनी अन्तरनदी ६, गन्धिलो विजयः अवध्या राजधानी देवो वक्षस्कारपर्वतः ७, गन्धिलावती विजयः अयोध्या राजधानी ८, एवं मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चिमात्यं पार्थ भणितव्यम् तत्र तावद् शीतोदाया नद्या दाक्षिणात्ये खलु कूले इमे विजयाः, तद्यथा-पक्ष्मः सुपक्ष्मो महापक्ष्मः, चतुर्थः पक्ष्मकावती । शङ्खः कुगुदो नलिना, अष्टमो नलिनावती ॥१॥ इमा राजधान्यः, तद्यथा-अश्वपुरी सिंहपुरी महापुरी चैव भवति विजय पुरी । अपराजिता च अरजा अशोका तथा वीतशोका च ॥२॥ इमे वक्षस्काराः, तद्यथा-अङ्कः पक्ष्य आशीविषः सुखावहः एवमत्र परिपाटयां द्वौ द्वौ विजयौ कूटसदृशनामको भणितव्यो दिशो विदिशश्च भणितव्याः, शीतोदामुखवनं च भणितव्यं शीतोदाया
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जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे
दाक्षिणात्यमौत्तराहं च शीतोदाया औत्तराहे पार्श्वे इमे विजयाः, तद्यथा - वप्रः सुवप्रो महाप्रचतुर्थी वकावती । वलाच सुवल्गश्च गन्धिलो गन्धिलावती ॥१॥ राजधान्य इमा, तथथा - विजया वैजयन्ती जयन्ती अपराजिता । चक्रपुरी खड्गपुरी भवति अवध्या अयोध्या च ॥२॥ इमे वक्षस्काराः पर्वतस्य चन्द्रपर्वतः १, सूरं पर्वतः २, नागपर्वतः ३, देव पर्वतः ४, इमा नद्यः शीतोदाया महानद्यां दाक्षिणात्यें कूलें क्षीरोदा १ शीतस्रोता २ अन्तरवाहिन्यौ नद्यौ, ऊर्मिमालिनी १९ फेनमालिनी २ गम्भीरमालिनी ३ औत्तराह विजयीनामन्तरा इति, अत्र परिपाटयां द्वे द्वे कूटे विजयसदृशनामके भणितव्ये, इमे द्वे द्वे कूटे अवस्थिते, तद्यथा सिद्धायतनकूटं १ पर्वतसदृशनामकूटम् २ ||सू० ३५||
टीका- 'एवं पम्हें विजए' इत्यादि - छायागम्यम्, नवरम् 'अस्सपुरा' अश्वपुरी, मुले अन्तत्वं स्वार्थत्वात् एवमग्रेऽपि 'सीeपुरा' इत्यादी बोध्यम्, इति शीतोंदा महानद्या दाक्षिणात्यमुखवनखण्डे विजयराजधानी वक्षस्कारपर्वतनदीनिरूपणम् । अथ महाविदेह'एवं परहे विजय अस्सपुंरा रायहाणी अंकावई वक्खारपञ्चए' इत्यादि
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टीकार्थ - इसी तरह पक्ष्म नाम का विजय है उसमें अश्वपुरी नामकी राजधानी है और अङ्कावती नाम का वक्षस्कार पर्वत हैं ( सुप हे विजए सीहपुरा राहाणी खीरोदा महाणई) सुपक्ष्म नाम की विजय है, सीहपुरी नाम की राजधानी है क्षीरोदा नाम की इसमें महानदी है (महामहे विजए महापुरा रायहाणी पहावई वक्खारपञ्चए) महापक्ष नामका विजय है इसमें महापुरी नाम की राजधानी है और पक्ष्मावती नाम का वक्षस्कार पर्वत है (पम्हगावई विजए विजयपुरा रायहाणी सीअसो महाणई) पक्ष्माचती नाम का विजय है, इसमें विजयपुरी नाम की राजधानी है शीतस्रोता नाम की महानंदी है (सखे विजय अराईया राहाणी असीविसे वक्खारपन्च ) शेख नाम का विजय है इसमें अपराजिता नाम की राजधानी है और आंशीविषानाम का
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' एवं पम्हे विजए अत्सपुरा रायहाणी अंकावई वक्खारपव्वए' इत्यादि
ટીકા་– આ પ્રમાણે પમ નામક વિજય છે. તેમાં અશ્વપુરી નામક રાજધાની છે. मने सभापती नाम वक्षस्र पर्वत छे. 'सुप हे विजए सीहपुरा रायहाणी खींगेदा महा" સુપમ નાર્મક વિજય છે. સહપુરી નામક રાજધાની છે. ક્ષીરાઈ નામક એમાં મહા नहीं छे. 'महापम्हें बिजए महांपुरा रायहाणी पहावई वस्त्रारपत्र' भडोपभ नाभ વિજય છે. એમાં મહાપુરી નામક રાજધાની છે અને પદ્માવતી નામક વક્ષસ્તાર પત छे. 'पहंगावई विजए विजयपुरा रायहाणी सौअसोओ महाणई' पक्ष्भावती नाम विषय छे. श्रभां विभ्यपुरी नाभा राज्धानी छे शीतखोता नाभ भहानही छे. 'संखे विजय अवं राईया राहाणी आसीविंसे वक्खारपत्र्वए श' नामक विश्यं छे. मेभां अपराजिता नाम राजधानी छे भने आशीविष नाम वक्षस्म पर्वत छे. 'कुमुदे विजए, अंरजा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू.३५ महाविदेहस्य तृतीयविभागान्ततिविजयदिनि० ४१५ स्य चतुर्थविभागे शीताया औत्तराह मुखवनखण्डे विजयादीनिरूपमितुमाह-'उत्तरिल्ले वि एवमेव भाणिय३' इत्यादि-औत्तराहे-उत्तरदिग्भवे अपि च शीताया मुखवतखण्डे एक्येवउलप्रकारेणैव शीताया दाक्षिणात्यमुखवनखण्डवदेव विजयादि मणितत्यं वक्तव्यम्, एतदेव दृढयितुमाह-'जहा सीयाए' इति यथा येन प्रकारेण शीनाया महानद्या दाक्षिणात्यं मुखवन: खण्डं भणितं तथैवौत्तराहवनखण्डमपि भणितव्यमित्यर्थः, तत्र विजयादीभिर्दिशति-वप्पे विजए' इत्यादि सुगमम्, नवरम् 'उम्मिमालिणी' ऊर्मिमालिनी-ऊर्मीन्-तरङ्गान-मालते वक्षस्कार पर्वत हैं (कुमदे विजए, अजारायहाणी, अंतोवाहिणी महाणई) कुमुद नाम का विजय है इसमें अरजा द्रामकी राजधानी है और अन्तर्वाहिनी नाम की महानदी है (गलिणे विजए असोगा रायहाणी, सुहावहे वक्खारपच्चए) नलिन नामका विजय है, इसमें अशोका नाम की राजधानी है और सुखावह नाम का पक्षहकार पर्वल है (गलिणावई विजए, वीयसोगा रायहाणी दाहिणिल्ले सीओआसुहवणसंडे) नलिनाचती विजय है, इसमें पीतशोका नाम की सुरम्य राजधानी है और दक्षिण दिशा में रहा हुआ शीतोदा मुखवनषण्ड है (उतरिल्लेवि एमेव भाणिअन्वे जहा सीआए) दाक्षिणात्य शीतामुखवन के कथन अनुसार ही उत्तर दिग्भावि शीतोदा मुखवनप्रण्ड में भी ऐसा ही कथन कर लेना चाहिये जिस तरह से शीता के दक्षिणदिग्वी मुखवन में विजयादिकों का व्याख्यान किया गया है उसी तरह से शीता के उत्तरदिग्वर्ती मुखवन में भी विजयादिकों का कथन कर लेना चाहिये इसी घात को अब सूत्रकार स्पष्ट करते हैं (वप्पे विजए विजया रायहाणी, चंदे वक्खारपव्वए) शीता महानदी के उत्तरदिग्वर्ती मुखवनखण्ड में वम नाम का विजय है विजया नाम की राजधानी है और चन्द्र नाम का वक्षस्कारपर्वत है रायहाणी अंतोवाहिणी महाणई। मुह नाम विन्य छे. सभा २५२ नभ पानी छ भने सन्तान नाम भडानी छ. 'णलिणे विजए असोगा रायहाणी, सुहावहे वक्खारVશ્વા' નલિન નામે વિજય છે. એમાં અશોકા નામક રાજધાની છે અને સુખાવહ નામક ११४.२ पति छ. 'णलिणावई विजए, वीयसोगा रायहाणी दाहिणिल्ले सीओआमुहवण: સ નલિનાવતી વિજય છે એમાં વીતશેકા નામક રાજધાની છે અને દક્ષિણ દિશામાં मावेस शीतोहाभुम न छे. 'उतरिल्ले वि एमेव भाणिअव्वे जहा सीआएं' मियालय શિતા મુખવનના કથન પ્રમાણે જ ઉત્તર દિશભાવી શીદા મુખવનખંડમાં પણ એવું જ કથન સમજી લેવું જોઇએ. જેમ સીતાદાના દક્ષિણ દિશ્વની મુખવનમાં વિજ્યાદિ વિષે નિરૂપણ કરવામાં આવેલું છે તેમજ શીતાના ઉત્તરદિગ્વતી ગુખવનમાં પણ વિજ્યાદિકનું કથન કરી લેવું જોઈશે. એજ વાતને હવે સૂત્રકાર સ્પષ્ટ કરે छ. 'वप्पे विजए विजया रायहाणी, चंदे वक्खारपत्रए' शीता महानहीना उत्तर
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___. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र धारयतीत्येवं शीला अत्र 'मल, मल्ल धारणे' इति भौवादिक मलधातो णिनि प्रत्यये नान्तलक्षणो डीप्प्रत्ययः स्त्रियां वोध्यः, एवमग्रे फेनमालिनी गम्भीरमालिनीत्यत्रापि, तत्र गम्भीरमालिनीत्यस्य गम्भीरं-निम्नं जलं मालते इत्येवं शीत्यर्थः ‘एवं मंदस पञ्चयस्स' इत्यादि-एवम्-उत्ताभिलापेन शीतोदा सहानदीतविभाग युगलान्तर्गत विजयादि निरुपणप्रकारेण मन्दरस्य पर्वतस्य 'पञ्चस्थिमं पाश्चात्यं 'पास' पाच 'माणियवं' भणितव्यंवक्तव्यम् 'तत्थ' तत्र विजयादिपु 'ताव' तावत् इति वारयालझारे 'सीयोयाए णईए' (सुखप्पे विजए वेजयंती रायहाणी ओम्निमालिणी नई) सुबन लाना विजय है, वैजयन्ती नामकी राजधानी है और उनिमालिनी नाल की नदी है (महावप्पे विजए जयंति रायहाणी, सूरे वक्खारपव्वए) महावन नाम का विजय है जयन्ती नामकी राजधानी है और सर नाम का वक्षस्कार पर्वत है (वप्पावई विजए, अपराइया रायहाणी फेणमालिणी गई) वप्रावती नामका विजय है अपराजिता नाम की राजधानी है और फेनमालिनी नामका नदी है (घग्गू विजए चक्कपुरारायहाणी, णागे वक्खारपच्चए) बल्गू नाम का विजय है, चक्रपुरी नामकी राजधानी है और नाग नाम का वक्षस्कार पर्वत है (सुवग्गू विजए, खग्गपुरा रायहाणी, गंभीरमालिणी अंतरणई) सुवल्गू नाम का विजय है, खड्गपुरी नामकी राजधानी है, और गंभीरमालिनी नामको अन्तर नदी है (गंधिल्ले विजए, अवज्झा रायहाणी, देवे वक्खारपव्वए) गंधिल्ला नामका विजय है, अवध्या नामकी राजधानी है और देव नाम का वक्षस्कार पर्वत है (गंधिलावई विजए अओज्झा रायहाणी) ८ वां विजय गंधिलावती नाम का है और इसमें अयोध्या नाम की राजधानी है (एवं मंदरस्स पव्वદિવ મુખવનખંડમાં વપ્ર નામક વિજય છે. વિજયા નામે રાજધાની છે. અને ચન્દ્ર नाम पक्ष त छ. 'सुवप्पे विजए वेजयंती रायहाणी ओम्मिमालिणी नई सुक्न નામક વિજય છે. વિજયન્તી નામે રાજધાની છે અને ઉમિમાલિની નામની નદી છે. 'महावप्पे विजए, जयंति रायहाणी, सूरे वक्खारपव्वए' महाप नाम विनय छे. यन्ती नाम राजधानी छ भने सूर नाम क्षार पर्वत छ. 'वप्पावई विजए, अपराइया रायहाणी फेणमालिणी गई' प्रावती नाम विभयछ. मति नामे यानी छ भने निभा. नि नाम नही छ. 'वग्गू विजए चक्कपुरा, रोयहाणी णागे वक्खारपव्वए' पशु नामे विन्य छ, य४पुरी नाम४ सयानी छ भने नाम नाम १४२ त छ. 'सुवग्गू विजए, खग्गपुरा रायहाणी, गंभीरमालिणी अंतरणई' सुपरशु नाभे विभय छे. समां मा पुरी नाम यानी छ भने अलीर भासिनी नाम४ मन्त२ नही छे. 'गंधिल्ले विजए, अवज्झा रायहाणी, देवे वक्खारपव्वए' घिe नाम विनय छे. सध्या नाम - धानी छ भने ४१ नामे पक्षा२ त छ. 'गंधिल्लावई विजए अओझा, रायहाणी'
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प्रकाशिका टोका-चतुर्थवक्षस्कारः सू.३५ महाविदेहस्य तृतीयविभागान्ततिविजयदिनि०१७ शीतोदाया नद्याः महानघाः 'दक्खिणिल्ले' दाक्षिणात्ये-दक्षिण दिग्भवे 'ण' खलु 'कूल' कूले तटे 'इमे' इमे अनुपदं वक्ष्यमाणा: 'विजया' विजयाः चक्रवर्तिविजेतव्या विषयाः, तद्यथा-गाथया तान् विजयानाह पम्हे' इत्यादि-छायागम्यम् । एवं राजधानी राह--'इमाओ रायहाणीओ इमाः वक्ष्यमाणा राजधान्यः सन्ति 'तं जहा' तद्यथा-ता राजधानी थियाह'आस पुरा' इत्यादि-स्पष्टम् । वक्षस्कारपर्वतानाह-'इमे वक्खारा तं जहा अंके' इत्यादि अङ्क: अङ्गावती नामैकदेशे नामग्रहणात्, एवं 'पम्हे' पक्षमा-पक्ष्मावती 'आसीविसे' आशीविष: 'सुहावहे' सुखावह इति, अथ द्वात्रिशतोऽपि विजयानां नामानि प्रदर्शयितुमाह-'एवं इत्थ यस्स पच्चत्थिनिल्लं पासं भाणियव्वं तत्थ ताव सीओआए णईए दक्खिजिल्ले णं कूले इमे विजया) इस तरह से मन्दर पर्वत का पश्चिम दिग्वर्ती पार्श्वभाग कहलेना चाहिये, वहां पर शीतोदा महानदी के दक्षिण दिग्वर्ती कूल पर ये विजय है-(तं जहा) उनके नाम इस प्रकार हैं-(पम्हे, सुपम्हे, महापम्हे, चउत्थे पम्हगावई, संखे, कुमुए, णलिणे, अट्टमे णलिणावई) पक्ष्म सुपक्ष्म, महापक्ष्म, पक्ष्मकावती, शङ्ख, कुमुद, नलिन, नलिनावती (इमाओ रायहाणीओ तं जहा) ये वहां राजधानियां हैं जिनके नाम इस प्रकार से है (आसपुरा सीहपुरा, महापुराचेच, हवइ विजयपुरा, अवराइया य अरया असोग तहवीयसोगा य) अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अपराजिता अरजा अशोका और वीतशोका (इमे वक्खारा तं जहा) ये वहां वक्षस्कार पर्वत है जिनके नाम इस प्रकार से हैं-(अंके, पम्हे, आरसीविसे, सुहाबहे एवं इत्थ परिवाडीए दो दो विजया कूडसरिसणामया माणियव्वा, दिसाविदिसाओ अ भाणियवाओ एवं सीआमुहवणं च भाणिअव्व) अङ्क-अङ्कावती पक्ष्मामामी विrय गघिसावती नाम छ. म अया। नाम यानी छ. 'एवं मंदरस्त पव्वयस्स पच्चस्थिमिल्लं पासं भाणियव्वं तत्थ ताव सीओआए णईए दक्खिणिल्ले णं कूले इमे विजया' 20 प्रमाणे मह२ ५ तना पश्चिम हिपती पायमा विधे ५ वन समल લેવું જોઈએ ત્યાં શીદા મહાનદીના દક્ષિણ દિગ્ધત ફૂલ પર એ વિષે આવેલા છે 'तं जहा' तमना नाम 20 प्रभारी छ–'पम्हे, सुपम्हे, महापम्हे, चउत्थे, पम्हगावई, संखे, कुमुए णलिणे, अट्ठमे णलिणावई' ५६भ, सुपक्ष्भ, म ५६म, ५६भवती, भ, भु, नतिन भने नलिनापती. 'इमाओ रायहाणीओ तं जहां प्रभारी सधानीमा छ तमना नामी २॥ प्रभारी छ-'आसपुरा, सीहपुरा, महापुरा चेव इवइ विजयपुरा, अवराइया अरया असोगतह वीयसोगाय' शवपुरी, सिधुरी, महापुरी, विन्यपुरी, म५२ildi. भरत मशर, मन वात 'इमे वक्खारा तं जहा' या प्रमाणे त्या क्षार पता मासा छे. तभना नाभी मा प्रभाव छ-'अंके पम्हे, आसीविसे, सुहावहे एवं एत्य परिवाडीए दो दो विजया कूडसरिसणामया भाणियबा, दिसाविदिसाओ अ भाणियवाओ एवं सीआमुह
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अम्बूद्वीपप्रज्ञतिसूत्रे
परिवाडीए' इत्यादि एवम् अनन्तरोक्त प्रकारेण अत्र अस्यां परिपाट्यां महाविदेह विभागचतुष्टयवर्ति विजयक्रमे 'दो दो विजया' द्वौ द्वौ विजयौ 'कूडसरिणामगा' कूटसदृशनामकौ 'भाणियव्वा' भणितव्यों स्वस्वविजयविभाजकवक्षस्कारपर्वत तृतीय चतुर्थकूट नामक वक्तव्यौ, तथाहि - चित्रकूटाभिधवक्षस्कारगिरी कूटतुष्टये फच्छकूटसुकच्छकूटे तृतीयचतु उक्ते तत्सनाको कच्छसुकच्छौ विजयों, एवमन्यत्र सर्वत्रोहनीयम् तथा 'दिसो विदिसाभो य भाणियन्नाओ' दिशः पूर्वादयः, विदिशः दिग्द्वयोरन्तरालभागवता अमि कोणादयः च अपि भणितव्याः वक्तव्याः, एवं दिग्विदिनियमो विधेयः, तथाहि कच्छो विजयः शीतामहानद्या उत्तरदिशि नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणदिशि चित्रकूटस्य सरलवक्षस्कारगिरेः पश्चिमदिशि माल्यवतो नगदन्ताकारयक्षस्कार पर्वतस्य पूर्वदिशि वर्तत इति, एवं कच्छादि विजयेष्वपि स्वस्वदिग्यर्तिवस्त्वनुसारेण तचद्दिशो नियमनीया' एवं 'सीयोवती आशीविष एवं सुखावह इस परिपाटीरूप इस तरह विभाग चतुष्टयवर्ती विस्तारक्रम में कूट के समान नाम वाले दो दो विजय कह लेना चाहिये तथा दिशाएं और विदिशाएं भी इनके होने के सम्बन्ध में अर्थात् चित्रकूट नामका वक्षस्कार गिरि के ऊपर चार कूट कहे गये हैं उनमें कच्छकूट और सुकच्छकूटये तृतीय और चतुर्थ स्थान पर कहे गये हैं और इन्हीं के नाम जैसे कच्छ विजय और सुकच्छ विजय कहे गये हैं इसी प्रकार से इसे अन्यत्र जान लेना चाहिए । अर्थात् ये किस किस दिशा में किस २ विदिशा में हैं इस प्रश्न के उत्तर में ये अमुक २ दिशा में अमुक २ विदिशा में है इस प्रकार से दिशाओं को और विदिशाओं को भी कहलेना चाहिये । जैसे कच्छविजय शीता महानदी की उत्तर दिशा में नीलवन्त पर्वत की दक्षिण दिशा में सरल वक्षस्कार गिरिरूप चित्रकूट की पश्चिम दिशा में एवं गजदन्ताकार रूप माल्यवन्त वक्षकार वर्णं च भाणिअव्त्रं' २४, अभारती, पक्ष्मावती, आशीविष भने सुभाव मा परिपाटी રૂપ એટલે કે અ. પ્રમાણે વિભાગ ચતુષ્ટત્રી વિસ્તાર કમમાં ફ્રૂટ જેવા નામવાળા અખે વિજયે પાવેલા છે, તેમજ શિએ અને વિક્રિશામેના સંધમાં અર્થાત્ ચિત્ર ફૂટ નામક વક્ષસ્કાર ગિરિની ઉપર ચાર ફૂટો આવેલા છે. તેમાં કચ્છફૂટ અને સુકૂટ એ ફૂટા ત્રીજા અને ચેાથા સ્થાન ઉપર આવેલા છે. અને એમના નામ જેવા જ વિજય અને સુવિજય આવેલ છે. આ પ્રમાણે આ સંબધમાં અન્યત્રથી પણ જાણી શકાય છે. એટલે કે એ કઈ કઈ ક્રિશાએમાં અને કઈ કઈ વિદિશાએમાં આવેલા છે ? એ પ્રશ્નના જવાણમાં એ અચુક અમુક દિશાઓમાં અમુ–અમુક વિદિશાએમાં આવેલા છે. આ પ્રમાણે દિશાએ અને વિદિશા વિષે પણ જાણી લેવુ જોઈ એ. જેમ કચ્છ વિજય શીતા મહામદીની ઉત્તર દિશામાં, નીલવન્ત પની દક્ષિણ દિશામાં, સરલવક્ષસ્કારરૂપ ચિત્રકૂટની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ ગજદતાકાર રૂપ માલ્યવંત વક્ષસ્કાર પર્યંતની પૂર્વ દિશામાં છે. આ પ્રમા
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू.३५ महाविदेहस्य तृतीयविभागान्तर्वतिविजयादिनि० ४१९ यामुहवणं च शीतोदामुखवनं च 'भाणिय' माणितव्यं वाच्यम् तद्विमागतो दर्शयितुमाह'सीयोयाए दाहिणिल्लं उत्तरिल्लं च' इति शीतोदाया: महानद्या दाक्षिणात्यं दक्षिणदिग्भवम् औतरिकम् उत्तरदिन्भवं च शीतोदाखवनं भणितव्यमिति पूर्वेण सम्बन्धः । ___ अथ चतुर्थविभागगतविजयादीन् सङ्ग्रहीतुमाह-'सीयोयाए' शीतोदाया महानद्याः 'उत्तरिल्ले' औत्तराहे-उत्तरदिग्भवे 'पासे पार्थे 'इमें इमे अनुपदं वक्ष्यमाणाः विजयादयः, सन्तीति शेषः तत्र विजयान् गाथयाऽऽह-तं जहा' इत्यादि-तद्यथा 'चप्पे सुवप्पे महावप्पे' इत्यादि गाथा-छायागम्या, नवरं 'चप्पगाबई' प्रकावती वप्रावती विजयः॥१॥ विजयादि राजधानी सङ्ग्रहीतुमाह-रायहणीओ इमाओ' राजधान्या इमा: अनुपदं वक्ष्यमाणाः सन्तीति शेषः 'तं जहा' तद्यथा 'विजया' इत्यादि छायागस्यम् । वक्षस्कारगिरीन् सन्ग्रहीतुमाह'इमे वक्खारा' अनुपदं वक्ष्यमाणाः वक्षस्काराः वक्षस्कारपर्वताः सन्ति 'तं जहा' तद्यथापर्वत की पूर्वदिशा में है इसी प्रकार से सुकच्छादि विजयों में भी अपने दिग्वी वस्तु के अनुसार उन २ दिशाओं को नियमित कर लेना चाहिये ।
तथा इसी प्रकार से शीतोदा महानदी का दक्षिण दिग्वर्ती और उत्तर दिग्वती सुखवन भी कहलेना चाहिये (सीओआए उत्तरिल्ले पासे इमे विजया-तं जहा) इस शीतोदा महानदी के उत्तर दिग्वी पार्श्व भाग में ये विजय हैं जिनके नाम इस प्रकार से हैं-(वप्पे, सुचप्पे, महावप्पे, चउत्थे, वप्पगावई वग्गूय सुवग्गूय गंधिले गंधिलाबई ॥१॥ वन, सुवन, महावन, वप्रकावती, वल्गू सुवल्गू, गन्धिल और गन्धिलावती (रायहाणीओ इमाओ तं जहा) ये राजधानियां हैं जिनके नाम इस प्रकार से हैं-(विजया, पेजयंती, जयंती अपराजिता, चक्कपुरा, खरगपुरा, हाइ, अवज्ञाय ॥२॥ विजया वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता चक्कपुरी, खड्गपुरी, अवन्ध्या और अयोध्या (इमे वखारा-तं जहा(चंद पन्चए, सूरपब्वए, नागपव्वर, इमाओ गईओ-सीओदाए महाणईए दाहि
જ સુકચ્છાદિ વિજ્યમાં પણ તત તત્ દિગ્વતી વસ્તુ મુજબ તત્ તત્ દિશાઓને નિયમિત કરી લેવી જોઈએ..
તેમજ આ પ્રમાણે જ શીતેદા સહનદીનું દક્ષિણ દિગ્વતી અને ઉતર દિગ્ધતિ મુખવન વિષે ५ही नये. 'सीओआए उत्तरिल्ले पासे इमे विजया-तं जहा' मा शीत महानहीना ઉત્તર દિગ્વતી પાર્શ્વભાગમે એ વિજયે આવેલા છે. વિજયેના નામે આ પ્રમાણે છે'वप्पे, सुवप्पे, महावप्पे, चउत्थे, वप्पगाई, बग्गूय, सुवग्गूय, गंधिले, गंधिलावई ॥ १॥ १५, सु१५, महाप, प ती , प, सुपक्ष्य, गन्धित मने गनिसाती. 'रायहाणीओ इमोओ तं जहा' राधानीमा भने तेमना नामी या प्रमाणे छ-विजया, वेजयंती, जयंती, अपराजिया चक्कपुरा, खग्गपुरा, हवई, अवज्झाय ॥ २ ॥ विया, वैश्यनी यन्ती, अपरित, पुरी, माधुरी, ASALA मरे भयोध्या. 'इमे वक्खारा-तं जहा
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ઉ
अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
'चंदपण्यए' इत्यादि छायागम्यम्, अधुना प्रागलुका अपि पाचालविभागद्वयान्तरनदीः सङ्ग्रहीतुमाह-' इमाओ पईभी सीयोयाए' इत्यादि-उमाः अनुपदं वक्ष्यमाणाः नद्यः सीतोदायाः ‘महाणईए' महानद्या: 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्ये 'कूले' फूले तटे सन्ति 'खीगेया' क्षीरोदा 'सीय सोया' शीतस्रोताः शीतं शीतलं स्रोतः अम्बुसरणं यस्याः सा शीतस्रोताः इसे द्वे 'अंतरवाहिणोओ' अन्तरवाहिन्यो 'ईओ' नवौ स्तः, अथ शीतोदाया औत्त - राहतवर्तिनां वप्रसुमहावप्रवप्राचतीप्रभृति विजयानामन्तरनदीं सद्ग्रहीतुमाह- 'उम्मि मालिणी १, ऊर्मिमालिनी १ 'फेणमालिणी २, फेनमालिनो २ 'गंभीरमारिणी ३, गम्भीरमालिनी ३ इमास्तिस्रः 'उत्तरिल्ल विजया नंतराव त्ति' औत्तराहविजय नाम् अन्तराः अन्तरपिल्ले कूले खीनेआ, सीहसोआ, अंतरवाहिणीओ ईओ) चे वक्षस्कार पर्वत हैं नाम उनके इस प्रकार से हैं-चन्द्र पर्वत सूर्य पर्वत एवं नाग पर्वत ये नदियां हैं जो सीतोदा महानदी के दक्षिण दिग्वर्ती कूल पर हैं- एक क्षीरोदा और दूसरी शीतस्रोता थे दोनों अन्तर नदियां है । अब शीनोदा महानदी के उत्तर दिग्वर्ती तट पर रहे हुए बम सुवप्र महावम, एवं बावनी विजयों की जो अन्तर नदियां हैं उनका नाम ऐसा है, ( उम्मिमालिनी फेणमालिशी गंभीरमालिनी उत्तरिल्ल विजयाणन्तरा उत्ति) उर्मिमालिनी फेनमालिनी गंभीरमालिनो इस कथन का तात्पर्य ऐसा है कि विजय में विजया : राजधानी है और चन्द्र नाम का वक्षस्कार पर्वत है सुवप्रा नाम के विजय में वैजयन्ती नामकी राजधानी है और उर्मिमालिनी नामकी नदी है महावप्रविजय में जयन्ती नामकी राजधानी है सूर नामका वक्षस्कार पर्वन है वप्रावती विजय में अपराजिता नाम की राजधानी है और फेनमालिनी नामकी नदी है वल्गविजय में चक्रपुरी राज
चंद पव्वए सूरपत्र, नागपन्त्रए, इमाओ णईओ-सीओए महाणईए द: हिणिल्ले कूले खी आसीहसोआ, अंतरवाहिणीओ ईओ' ये क्षार पर्वते। छे. तेभना नाम या प्रभाशे છે—ચન્દ્ર પર્યંત, સૂ પર્યંત અને નાગ પત. મા નદી છે-કે જેઓ સીતેાદા મહા નદીના દક્ષિણ હિંગ્વતી સ્કૂલ ઉપર છે—એક ક્ષીરેાદા અને ખીજી શીતસ્રોતા. એ બન્ને અન્તર નીએ છે. હવે સીતાદા રહાનદીની ઉત્તર ક્રિશ્ર્વતી તટ પર આવેલા વપ્ર, સુવપ્ર, મહાવપ્ર તેમજ વત્રાવતી વિજયેની જે ઋન્તર નદીએ છે તેમ 11 નામે બતાવવામાં આવે છે. મિ मालिणी, फेणमालिणी, गंभीर मालिणी, उत्तरिल्ल विजयाणन्तरा उत्ति' अभिभासिनी, ड्रेन માલિની, ગભીર માલિની. આ કથનને ભાવા આ પ્રમાણે છે કે વપ્રવિજયમાં વિજયા રાજધાની છે અને ચન્દ્ર નામક, વક્ષસ્કાર પર્યંત છે સુવપ્ર નામક વિજયમાં વૈજયન્તી નામક રાજધાની છે અને ઉમિમાલિની નામક નદી છે. મહાપ્ર વિજયમાં જયન્તી નામક રાજધાની છે સૂર નામક વક્ષસ્કાર પર્વત છે, વપ્રવતી વિયમાં અપરાજિતા નામક રાજધાની છે અને ફ્નમાલિની નામક નદી છે. વલ્ગ વિજયમાં ચક્રપુરી રાજધાની છે અને નાગ
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३५ महाविदेहस्य तृतीयविभागान्तवैर्तिविजयदिनि० ४२१ नद्यः सन्ति अत्रोत्तरपदलोपो वोध्यः, तत्रोचरपदलोपविधायकं वार्तिकम् - 'विनाऽपि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयो व लोपो वाच्यः' इति, यथा- भीमः, भीमसेनः, सत्या, सत्यभामा, पार्श्वः, पार्श्वनाथः इत्यादि । यत्तु पूर्वविभागे विजयादयः प्राच्यविभागद्वये चान्तरधोन सङ्ग्रहीताः, तत्र सूत्रकृतां प्रवृत्तिवैचित्र्यमेव वीजं व्यवच्छिनत्वं वेति बोध्यम्, अत्र सरलवक्षस्कारकूटेषु नामानयनप्रकारम : ह - ' इत्थ परिवाडीए' इत्यादि - अत्र अस्यां परिपाटा-वक्षस्कारपर्वतानुक्रमे 'दो दो कूडा' द्वौ द्वौ कूटो 'विजयसरिसमामगा' विजयसदृश
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धानी है और नाग नाम का वक्षस्कार पर्वत है सुवल्गू विजय में खड्गपुरी नामकी राजधानी है और गंभीरमालिनी नामको अन्तर नदी है गन्धिल विजय में अवध्या नामकी राजधानी है और देव नामका वक्षस्कार पर्वत है गन्धिलावती विजय में अयोध्या नामकी राजधानी हैं । इस तरह शीतोदा नदी के द्वारा कृत विभाग में वर्तमान विजयादिकों के निरूपण से मन्दर पर्वत का पाश्चात्य पार्श्व भणितव्य कहा गया हो जाता है ऐसा यह सब कथन ऊपर से स्पष्ट कर दिया गया है । इस तरह ये उर्मिमालिनी आदि जो तीन नदियां है ये शीतोदा नदी के उत्तर दिग्वर्ती तट पर रहे हुए, वन सुवप्र आदि विजयों की अन्तर नदियां हैं । "अंतरा उत्ति" में जो नदी शब्द का प्रयोग नहीं किया है वह 'विनाऽपिप्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वा लोपो वाच्यः' इस वार्तिक के अनुसार लुप्त हो गया है तथा पूर्व विभाग में विजयादिकों का और प्राच्य विभाग य में अन्तर नदियों का जो संग्रह नहीं किया गया है वह सूत्रकारों की प्रवृत्ति की विचित्रता का द्योतक है । अथवा इनका संग्रह कारक सूत्र व्यवच्छिन्न हो गया है ऐसा जानना चाहिये (हत्थ परिवाडीए दो दो कूडा विजयपुरिणामगा
નાપક વક્ષસ્કાર પર્વત છે. સુવલ્ગ વિજયમા ખડૂગપુરી નામક રાજધાની છે અને ગંભીર માલિની નામક અત્તર નદી છે. ગન્ધિલ વિજયમાં અા નામક રાજધાની છે અને દેવ નામક વક્ષસ્કાર પર્વત છે. ગન્ધિલાવતી વિજયમાં ભચૈધ્યા નામક રાજધાની છે. આ પ્રમાણે શીતેાદા નદી વડે વિભક્ત બે ભાંગેશ્વમાં વર્તમાન વિજ્યા દકાના નિરૂપણથી મન્દર પર્વતના પુ.શ્ચાત્ય પાશ્વ ભાગ કથનીય છે એવુ' સ્પષ્ટ થઇ જાય છે. છા પ્રમાણે આ મધુ કથન પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલું છે. આમ એ ઉમિમાલિની વગેરે જે ત્રણ નદીઓ છે તે શીતેાદા નદીના ઉત્તર દિગ્દતા તટ ઉપર આવેલા વપ્ર, સુવપ્ર, વગેરે વિજયે ની અન્તર नहीओो छे 'अंतरा उत्ति' भी थे 'नदी' शब्द प्रयोग रवामां मान्या नथी ते 'विनाऽपि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वालोपो वाच्यः मा वार्तिः भुल्भ बुस थच गये। छे. तेमन पूर्व विभाગમાં વિજ્રયાક્રિકાને અને પ્રાચ્ય વિભાગમાં હ્રયમાં અન્તર નદીમાના જે સંગ્રહ કરવામાં બ્યા નથી તે સૂત્રકારની વિચિત્ર પ્રવૃત્તિને લક્ષિત કરે છે. અથવા ઝૂના સહુથી सभ्भद्ध सूत्र व्यवच्छिन्न थागयु छे, येवु लगी होवु लेई मे. 'इत्थ परिवाडीए, दो दो कूडा विजयसरिणामगा भाणियन्त्रा' वक्षस्रोनी आनुपूर्वाभां मोटो पोत-पोताना
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नम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र नामके 'भाणिय वा' भणितव्यौ वक्तव्यौः, अयमाशयः-प्रतिवक्षस्कारं चखारि चखारि कूटानि सन्ति तत्रादिने द्वे नियते एक, तथा सूत्रकारः स्वयं वक्ष्यति, तृतीयचतुर्थे चानियते, तत्र यो यो वक्षरकारपर्वतो यौ यौ विजयौ विभजते, तत्र विनयमानविजयमध्ये यो यः पाश्चात्ये विजयस्तद्विजयसशनामकं तनीय कूटं तस्मिन्वक्षस्कारगिरौ बोध्यम्, यो यश्च पूर्वी विजयस्तद्विजयसहशनामकं चतुर्थ कूटं तत्र ज्ञेयम्, 'इमे दो दो कूडा अवहिया' इमे द्वे द्वे कूटे अवस्थिते नियते 'तं जहा' तद्यथा-'सिद्धाययणकूढे' सिद्धायतनकूटम् १, अपरं च 'पव्ययसरिसणागडे' पर्वतसदृशनामकूटस्-वक्षस्कारपर्वतसदृशनामककूटम् २, कस्मिन्नपि वक्षस्कारपर्वते इमे द्वे कूटे स्वनामाक्षरपरिवर्तनं न प्राप्नुन इति हेतो स्वस्थिते यथावद्वयवस्थिते एव तिष्ठतः, ननु द्वयोः कूटयोर्मध्ये सिद्धायतनकूटस्यावस्थितत्वं समीचीनं परन्तु पर्वतसदृशनाभाणियच्या) पक्षकारों की आनुपूर्वी में दो दो कूट अपने २ विजय के जैसे नाम घाले कह लेना चाहिये तात्पर्य इस कथन का ऐसा है की-हर एक वक्षस्कार में चार २ कूट होते हैं इनमें आदि के दो कूट तोनियत रूप से हैं और तृतीय चतुर्थ कूट अनिचत (अनिश्चित) है इस बात को सूत्रकार स्वयं कहने वाले हैं। इनमें जो जो वक्षकार पर्जत जिन दो कूटों को विनत करता है उस विभज्यमान पर्वत के जो जो पाश्चात्य विजय है उसके जैसे नाम वाला उस वक्षस्कार पर्वत पर तृतीय कूट है और जो अग्रिम विजय है उसके जैसे नामवाला चतुर्थ कूट है इस तरह से तुतीय और चतुर्थ कूट में अनियतता प्रस्ट की गई है और जो प्रथम एवं द्वितीय क्रूट में नियतता प्रकट की गई है उसका तात्पर्य ऐसा है कि सिद्धायलन कूट और दूसरा पर्वल के नाम वाला कूट इनका नाम नहीं बदलने से ये दो फूट अवस्थित हैं यदि यहां पर ऐली आशंका की जावे कि सिद्धायतन कूट तो अवस्थित जो कहा गया है वह तो नाम नहीं बदलने से अवस्थित माना વિજયના જેવા નાગવાળા જાણી લેવા જોઈએ. આ કથનને ભાવાર્થ એ થાય છે કે દરેકે દરેક વક્ષસ્કારમ ચાર ફૂટે છે એમાં પ્રારંભના બે ફૂટે તે નિયત અને તૃતીયચતઈ કટ અનિયત છે, એ વાતને સૂત્રકાર પિતે કહેશે એમાં જે-જે વક્ષસ્કાર પર્વત જે બે ફૂટને વિભક્ત કરે છે, તે વિભાજયમાન પર્વતના મધ્યમાં જે-જે પશ્ચાત્ય વિજયે છે તેના જેવા નામવાળા તે વક્ષરકાર પર્વત ઉપર તૃતીક ફૂટ છે અને જે અગ્રિમ વિજય છે તેના જેવા નામવાળે તુર્થ ફૂટ છે. આ પ્રમાણે તૃતીય અને ચતુર્થ ફૂટમાં અનિયતતા પ્રન્ટ કરવામાં આવી છે અને પ્રથમ અને દ્વિતીય કૂટમાં નિયતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. તેને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે સિદ્ધાયતન ફૂટ અને બીજે પર્વત જેવા નામ વાળ કૂટ એ બન્નેના નામે નહિ બદલાવાથી એ બને કૃટે અવસ્થિત છે. જે અહીં એવી આશંકા કરવામાં આવે કે સિદ્ધાયતન કૂટ તે અવસ્થિત કહેવામાં આવેલ છે, તે તે નામ નહિ બદલવાથી અવસ્થિત કહી શકાય તેમ છે પણ દ્વિતીય કૃટ જેવું તેના પર્વતનું નામ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपपतस्य वर्णनम् मकस्य कूटस्य तत्तद्वक्षस्कारनामानुसारिनामकत्वेन कथमवस्थितत्वमिति चेद् ? अत्रोच्यतेपर्वतसदृशनामकत्वलक्षणधर्मस्य सकलवक्षस्कार द्वितीयकूटेषु समजुगतत्वाद् व्यभिचारिणा तेन धर्मेणावस्थितत्वं पर्वतसदृशनामककूटस्यापि युक्तमेव, न चैवं विजयसदृशनामकल्वरूप. धर्मेण कच्छसुकच्छयोरिव तदन्ययोरपि कूटयोरवस्थितत्वं प्रसज्जेदुक्तधर्मस्य कच्छसुकच्छातिरिक्तेषु सर्वेष्वपि तत्तद्वक्षस्कारतृतीयचतुर्थकूटेषु समभुगतत्वेनाव्यभिचरितत्वादिति वाच्यम्, विजयसदृशनामकत्वधर्मस्य तत्तद्वक्षस्कारसदृशनामकयो ईयोः कूटयोवृत्तित्वेन तेन तयोरेकतरस्य निर्णयाभावेन नासव्यवहारस्य सपदि तुमशक्यत्यादिति !सू० ३५॥ .. अधुना महाविदेहवर्षस्य पूर्वपश्चिमविभाजकं मेलं 'मंदरं' वर्णयितुमुपक्रमते-कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे २ इत्यादि !
मूलम्-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वाले अंदरे णाम पव्वए पण्णते ?, गोयमा ! उत्तरकुराए दक्षिणेणं देवकुराए उत्तरेणं पुव्वविदेहस्त वासस्स पञ्चस्थिमेणं अवविदेहस्स वासरल पुरथिमेणं जंबुद्दीवस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं जंबुद्दीचे दीवे मंदरे णानं पच्चए पण्णत्ते, णवणउइजोयणसहस्साई उद्धं उच्चत्तेणं एग जोयणसहस्सं उव्वेहेणं मूले दसजोयणसहस्साई णवई च जोयणाई दल य एगारसभाए जोयणस्स विक्खंभेणं, धरणियले दस जोयणलहरूलाई विक्खंभेणं तयणंतरं च णं सायाए मायाए परिहायमाणे परिहायाणे उवरितले जा सकता है परन्तु द्वितीय कूट जैसा उसके पर्वत का नाम होगा पैसा उसका नाम हो जाने से अवस्थित नाल वाला कैसे हो सकता है ? तो इसका लमा. धान ऐसा है की यहां जो अवस्थित नामता कही गई है वह कूटों के नाम के सदृश नाम को लेकर ही कही गई है अतः जितने भी कूट होंगे और उनमें जो नामता होगी वही द्वितीय कूट का नाम होगा ऐली नामता तृतीय चतुर्थ कूट में नियमित नहीं है। इसी हृद्य को लेकर सूत्रकार ने (इसे दो दो कूडा अवट्टिया सिद्धाययणकूडे पव्वयसरिसणामकूडे) यह सूत्र कहा है ॥३५॥ હશે તેવું તેનું નામ થઈ જવાથી અવસ્થિત નામવાળો કેવી રીતે થઈ શકશે? તે આ શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે છે કે અહીં જે અવસ્થિત નામતા કહેવામાં આવેલી છે, તે કુટેના નામ સદશ નામને અનુલક્ષીને જ કહેવામાં આવેલી છે. જેથી જેટલા ફૂટે હશે અને તેમાં જે નામતા થશે તેજ દ્વિતીય કૂટનું નામ હશે. એવી નામના તૃતીયयतुटमा नियमित नथी. मे आशयन वन सूत्र४ारे 'इमे दो दो कूडा अवटिया सिद्धायचणकूडे पञ्चयसरिसणामकूडे' मा सूत्र घुछ. ॥ ३५ ॥
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कम्यूटीपप्रमतिले एग जोयणलहस्तं विखंभेणं मूले एकत्तीसं जोयणसहस्साई णव य दसुत्तरे जोयणसए तिषिण य एगारसभाए जोयणस्ल परिवखेवेण धरणिअले एकत्तीस जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए परिवखेवेणं उपरितले तिणि जोयणसहस्साई एगं च वावट जोयणसयं किंचि विसेसाहियं परिवखेदेणं सृले वित्थिपणे मज्झे संखित्ते उवरि तणुए गोपुच्छतंठागलंठिए सव्वरयणामए अच्छे सण्हेति । से णं एगाए पउपरवेझ्याए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते वणओति, मंदरेणं भंते ! पचए कइ वणा पण्णता ?, गोयमा ! चत्तारि वणा पणता, तं जहा- भदसालवणे १ गंदणवणे२ सोमणसवणे३ पंडगवणे, कहि णं अंते ! मंदरे पवए भदसालवणे णाम वणे वष्णते, गोयमा ! धरणिअले एत्थ णं मंदरे फव्वए मसालदणे णामं वणे पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिाणे सोमणस बिज्जुप्पहगंधमायणमालवंतेहिं वक्खारपत्रएहिं सीयासीयोयाहिं य महाणई हिं अभागपविभत्ते संदरस्त पव्वयस्स पुरथिमपञ्चरिथमेणं बावीस बावीसं जोयगसहस्साई आयामेणं उत्तरदाहिोणं अद्धाइनाइं अद्धाइज्जाइं जोयणस्थाई विश्वंभेणंति, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्दओ समंता संपरिरिखत्ते दुपहरि वणो माणियवो, किण्हो किण्होमासो जाव देवा आसयंति सयंति, मंदरस्त णं फव्वयस्स पुरस्थिमेणं भहसालवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पणते पण्णासंजोयणाई आयामेणं पणवीसंजोयणाइं विक्खंभेण छत्तीसं जोयगाई उद्धं उच्चत्तणं अणेगसंभलयसण्णिविटै वष्णओ, तस्त णं सिद्धायणस्स तिदिसिं तओ दारा पण्णता, ते णं दारा अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि जोयगाई विकखंभेग तावइयं चेत्र पवेसेणं सेया वरकणमथूभियागा जाव वणमालाओ भूमिभागो य भाणियवो, तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिया पण्णत्ता अट्ठ
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काकाशि टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मैरुपर्वतस्य वर्णनम् जोयगाइं आयामविसंभेणं चत्तारि जोषणाई बाहल्लेणं सत्वरयणामई अच्छा, तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं देवच्छंदए अटुजोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं अटू जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमां वण्णओ देवच्छंदगस्त जाव धूवकडच्छुआणं इति । मंदस्त णं पव्वयस्स दाहिणेणं भ६सालवणं पपणास एवं चउदिसि पि मंदरस्स भदसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा भाणियव्वा, मंदरस्सण पव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं भदसालव पणास जोयणाइं ओगाहिता एत्थ णं चत्तारि गंदापुक्खरिणोओ एण्णत्ताओ, तं जहा-पडमा १ पउमप्पभा २ चेव कुमुदा३ कुमुदप्पभा४, ताओणं पुक्खरिणीओ एण्णासं जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेगं दस जोयणाई उध्वेहेणं वण्णओ वेड्यावणसंड्राणं भाणिश्वो, चउदिसिं तोरणा जाव तासि ण पुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए एस्थ णं सहं एगे ईसाणस्स देविंदस्स देवरपणो पासायवडिसए पाणत्ते पंचजोयणलयाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धाइजाइं जोयणसयाई विकखंभेणं, अब्भुग्गयमूसि य एवं सपरिवारो पासायवडिंसओ भाणियव्यो, मंदरस्त णं एवं दाहिणपुरस्थिमेणं पुश्खरिणीओ उप्पल. गुम्मा णलिणा उप्पला उप्पलुजला तं चेव पमाणं मज्झे पासायवडिंसओ सक्कस्स सपरिवारो ते णं चेव पमाणेणं दाहिणपञ्चस्थिमेण वि पुक्खरिणीओ भिंगा सिंगणिक्षाचेव, अंजणा अंजणप्पभा पासायडिंसओ सकस्स सीहासणं सपरिवारं उत्तरपञ्चस्थिमेणं पुक्खरिणीओ सिरिकता सिरिचंदार सिरिमहिया३ चेव सिरिणिलया। पासायवडिसओ ईसाणस्स सीहासणं सपरिवारंति । मंदरेणं भंते ! पवए भदसालवणे कइ दिसाहस्थिकूडा पण्णत्ता, गोयमा । अट दिसाहत्थिकूडा पण्णत्ता, तं जहा-पउमुत्तरे१ णीलरते२ सुहत्थी३ अंजणगिरी । कुमुदे य ५ पलासे य६ वडिंसे७ रोयणागिरी८ ॥१॥ कहि णं भंते । संदरे पव्वए भदसालवणे पउमुत्तरे णाम दिसाहन्थिकूडे पणते ?, गोयमा! मंदरस्स पश्यस्स उत्तरपुरस्थिमेणं पुरथिमिल्लाए सीयाए उत्तरेणं एत्थ णं
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Gadhurafres
परमुत्तरे णाम दिसाहत्यिकूडे पष्णते पंचजोयणसचाइ उर्दू उच्चत्तेर्ण पंचगाउयसयाई उच्चेहेणं एवं विक्स परिवखेवो भाणियव्वो चुल्लहिमवंतसरिसो, पासायाण य तं चैव परसुतरो देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थि मेणं १। एवं णीलवंतदिसाहत्यिकूडे मंदरस्स दाहिणपुरस्थिमेणं पुरस्थि - मिल्लाए सीयाए दक्खिणेणं एयस्स वि पीलवतो देवो रायहाणी दाहि णपुरस्थिमेणं, एवं सुहत्थिदिसाहत्थिकूडे मंदरस्स दाहिणपुर स्थिमेणं दक्खिणिल्लाए सीयोपार पुरस्थिमेणं एयरस निसुहत्थी देवो रायहाणी दाहिणपुरत्थिसेणं, एवं चेत्र अंजणगिरिदिसाहत्यिकडे मंदरस्स दाहिणपञ्चस्थिमेणं दक्खिणिल्लाए सीयोयाए पञ्चत्थिमेणं, एयस्स वि अंजगिरिदेवो रायहाणी दाहिणपञ्चस्थिमेगंध, एवं कुमुदे विदिसाहत्यिकूडे मंदरस्स दाहिणपञ्चत्थिमेणं पञ्च्चत्थिमिल्लाए सीयोयाए दविखणेणं एयस्स वि कुमुदो देवो रायहाणी दाहिणपञ्चत्थिमेनं५, एवं पलासेविदिसाहत्यिकूडे मंदरस्त उत्तरपच्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमिल्लाए सीयोयाए उत्तरेणं पयस्स वि पलासो देवो रायहाणी उत्तरपञ्चत्थिमेणं६, एवं वडेंसे विदिसाहस्थिकूडे संदरस्त उत्तरपञ्चत्थिमेणं उत्तरिल्लाए सोयाए महाणईए पञ्च्चत्थिमेणं एयस्त वि वडेंसो देवो रायहाणी उत्तरपच्चत्थिमेणं, एवं रोयणागिरीदिसाहस्थिकूडे मंदरस्स उत्तरपुर स्थिमेणं उत्तरिल्लाए सीयाए पुरत्थिमेणं एयस्स वि रोयणागिरी देवो रायहाणी उत्तरपुरत्थिमेणं ॥सू० ३६॥
-:. छाया - का खलु भदन्त ! जम्बुद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे मन्दरो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! उत्तरकुरूणां दक्षिणेन देवकुरूणामुत्तरेणं पूर्वविदेहस्य वर्षस्य पश्चिमेन अपरविदेहस्य वर्षस्य पौरस्त्येन जम्बूद्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, नवनवति योजनसहस्राणि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एकं योजनसहस्रमुद्वेधेन मूले दशयोजनसहस्राणि नवतिं च योजनानि दश च एकादशभागान योजनस्य विष्कम्भेण, धरणितले दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भेण तदनन्तरं च खलु मात्रा मात्रया परिहीयमानः परिहीयमानः उपरितले एकं योजनसहस्रं विष्कम्भेण मूले एकत्रिंशतं योजनसहस्राणि नच च दशो
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम्
પરંતુ
तराणि योजनशतानि त्रींच एकादशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण धरणितले एकत्रिशतं योजन सहस्राणि षट् च त्रयोविंशानि योजनशतानि परिक्षेपेण उपरितले त्रीणि योजनसहत्राणि एकं च द्वापष्टं योजनशतं किञ्चिद्विशेपाधिकं परिक्षेपेण मूले विस्तीर्णः मध्ये संक्षिप्तः - उपरि तनुकः गोपुच्छ संस्थानसंस्थितः सर्व रत्नमयः अच्छः श्लक्ष्ण इति । स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च चनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षितः, वर्णक इति,
मन्दरे खलु भदन्त ! पर्वते कति वनानि प्रज्ञसानि ?, गौतम ! चत्वारि वनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - भद्रशा (सा) लवनं ९ नन्दनवनं २ सौमनसवनं ३ पण्डकवनम् ४ क्व खलु भदन्त ! मन्दरपर्वते भद्रशालवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! धरणितले अन खलु मन्दरे पर्वते भद्रशालवनं नाम वनं प्रज्ञप्तं प्राचीनप्रतीचीनायतम् उदीर्णदक्षिणविस्तीर्ण सौमनसविद्युत्प्रभगन्धमादनमाल्यवद्भिर्वक्षस्कारपर्वतैः शीताशीतोदाभ्यां च महानदीभ्याम् अष्टभागप्रविभक्तं मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपश्चिमेन द्वाविंशति द्वाविंशतिं योजनसहस्राणि आयामेन उत्तरदक्षिणेन अर्द्धतृतीयानि अर्द्धतृतीचामि योजनशतानि विष्कम्भेणेति, तत् खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं द्वयोरपि वर्णको भवणितव्यः कृष्णः कृष्णावभासः यावद देवा आसते शेरते, मन्दरस्य खल पर्वतस्य पौरस्त्येन भद्रशाल'वनं पञ्चशतं योजनानि अवगाह्य अत्र खलु महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तं पञ्चाशतं योजनानि 'आयामेन पञ्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण पट्त्रिंशतं योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अनेक-स्तम्भशतसन्निविष्टं वर्णकः, तस्य खलु सिद्धायतनस्य त्रिदिशि त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तानि खलु द्वाराणि अष्ट योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चत्वारि योजनानि विष्कम्भेण तावदेव च प्रवेशेन श्वेताः वरकनकस्तूपिकाकाः यावद् वनमाला: भूमिभागथ भणितव्यः, तस्य खलु बहुमध्यदेश भागे अत्र खलु महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता अष्ट योजनानि आयामविष्कम्भेण चत्वारि योजनानि बाहल्येन सर्वरत्नमयी अच्छा, तस्याः खलु मणिपीठिकाया उपरि देवच्छन्दोऽष्टयोजनानि आयामविष्कम्भेण सातिरेकाणि अष्टयोजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन यावत् जनप्रतिमावर्णकः देवच्छन्दकस्य यावद् धृपकडुच्छुकाणामिति । मन्दरस्य खलु पर्व - तस्य दक्षिणेन भद्रशालवनं पञ्चाशतं (योजनानि) एवं चतुर्दिश्यपि मन्दरस्य भद्रशालवने चत्वारि सिद्धायतनानि भणितव्यानि मन्दरस्य खलु पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्येन भद्रशालवनं पञ्चाशतं योजनानि अवगाह्य अत्र खलु चतस्रो नन्दापुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - पद्मा १ पद्मप्रभा २ चैव कुमुदा ३ कुमुदप्रभा ४, साः खलु पुष्करिण्यः पञ्चाशतं योजनानि आया- मेन पञ्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण दशयोजनानि उद्देधेन वर्णक: वेदिका वनपण्डयो भणितव्यः, चतुर्दिशि तोरणाः यावत् तासां खलु पुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु महानेक ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः पञ्चयोजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण, अभ्युद्गतोच्छ्रित एवं सपरिवारः प्रासादावतंसको भणितव्यः, मन्दरस्य खल एवं दक्षिणपौरस्त्येन पुष्करिण्यः उत्पलगुल्मा
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કરંટ
जम्यूहीपप्रश्नप्तिसूत्र १ नलिना २ उत्पला ३ उत्पलोज्ज्वला ४ तदेव प्रमाणं मध्ये प्रासादावतंसक शक्रस्य सपरिवारः तेनैव प्रमाणेन दक्षिणपश्चिमेनापि पुष्करिण्य:-भृङ्गा १ भृङ्गनिभा २ चैव अञ्जना ३ अञ्जनप्रभा ४ । प्रासादावतंसकः शक्रस्य सिंहासनं सपरिवारम् उत्तरपश्चिमेन पुष्करिण्यः श्रीकान्ता १ श्रीचन्द्रा २ श्रीमहिता ३ चैव श्रीनिलया ४ प्रासादावतंसकः ईशानस्य सिंहासनं सपरिवारमिति । मन्दरे खल्ल भदन्त ! पर्वते भद्रशालबने कति दिग्हस्तिकूटानि प्रज्ञ. प्तानि ?, गौतम ! अष्ट दिग्यस्ति कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पद्मोत्तरो १ नीलवान् २ मुहस्ती३ अञ्जनागिरिः४ । कुमुदश्व५ पलाशश्च ६ अदतंसो ७ रोचनागिरिः ८॥१॥ क्व खलु भदन्त ! मन्दरे पर्वते भद्रशालवने पद्मोत्तरो नाम दिग्धस्तिकूटः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्येन पौररुयायाः शीवाया उत्तरेण अत्र खलु पद्मोत्तरो नाम दिग्रहस्तिकूटः प्रज्ञप्तः, पञ्चयोजनशतानि अर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्चगव्यूतशतानि उद्वधेन, एवं विष्कम्भपरिक्षेपो भणितव्यः, क्षुद्रहिमवत्सदृशः, प्रासादानां च तदेव पद्मोत्तरो देवो राजधानी उत्तरपौरस्त्येन १, एवं नीलवदिग्दस्तिकूटो मन्दरस्य दक्षिणपौरस्त्येन पौरस्त्याया: शीताया दक्षिणेन एतस्यापि नीलबान् देशको राजधानी दक्षिणपौरस्त्येन २, एवं मुहस्तिदिग्वस्तिकूटो मन्दरस्य दक्षिणपौरस्त्येन दाक्षिणात्यायाः शीतोदायाः पौरस्त्येन एतस्यापि मुहस्ती देवो राजधानी दक्षिणपौरस्त्येन ३, एवमेर अञ्जनगिरिदिग्ह स्तिकूटो मन्दरस्य दक्षिणपश्चिमेन दाक्षिणात्यायाः शीतोदायाः पश्चिमेन, एतस्यापि अञ्जनगिरिदेवो राजधानी दक्षिणपश्चिमेन पाश्चात्यायाः शीतोदाया: दक्षिणेन एतस्यापि कुमुदो देवो राजधानी दक्षिणपश्चिमेन ५, एवं पलाशो विदिग्हस्तिकूटो मन्दरस्य उत्तरपश्चिमेन पाश्चात्यायाः शीतोदाया उत्तरेण एतस्यापि पलाशो देवो राजधानी उत्तरपश्चिमेन६, एवमवतंसो विदिग्वस्तिकूटो मन्द. रस्योत्तरपश्चिमेन औतरिकायाः शीवाया महानद्याः पश्चिमेन एतस्यापि अक्सो देवो राजधानी उत्तरपश्चिमेन, एवं रोचनागिरिदिग्हस्तिकूटो मन्दरस्य उत्तरपौररत्येन औतरिकायाः शीतायाः पौरस्त्येन एतस्यापि रोचनागिरिदेवो राजधानी उत्तरपौरस्त्येन ॥ सू० ३६ ॥ टीका-'कहि णं भंते ! जम्बूद्दीवे' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं छायागम्यम् उत्तरसूत्रे 'गोयमा !'
मेरु वक्तव्यता 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे'-इत्यादि टीकार्थ-(कहि ण भंते ! वुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरे णामं पचए पण्णत्ते) इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है की हे भदन्त ! इस जम्बू द्वीप नाम के द्वीप में महाविदेह क्षेत्र में मन्दर नाम का पर्वत किस स्थान पर कहा गया है ?
મેરુ વક્તવ્યતા 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे' इत्यादि
टी:-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरे णामं पव्वए पण्णत्ते' मा સત્ર વડે ગૌતમસામી પ્રભુને એ પ્રશ્ન કર્યો છે કે હે ભદન્ત! આ જંબૂઢીપ નામક દ્વીપમાં
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કરશે
प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् गौतम ! 'उत्तरकुराए' उत्तरकुरूणास् मूले प्राकृतलादेकवचनेन निर्देश:, यद्वा-कस्यचिन्मतेनैकवचनेऽपि प्रयोगा उत्तरकुरोरित्यर्थः, एवमग्रेऽपि 'दक्खिणेणं' दक्षिणदिशि 'देवकुराए' देवकुरूणाम् 'उत्तरेणं' उत्तरेग उत्तरदिशि 'पुनविदेहस्स' पूर्वत्रिदेहस्व 'वास' वर्षस्य 'पञ्चथिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'अवरविदेहस्स' अपरविदेहस्य पश्चिम महाविदेवस्य 'वासस्स' वर्षस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'जंबुद्दीवरस' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागे 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुढीवे दीवे' जम्बुद्दीपे द्वीपे 'मंदरे णाम' मन्दरो नाम 'पन्चए' पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, स च किं प्रमाणक: १ इति जिज्ञासायामाह-'णवणउति जोयणसहस्साई' नवनवति योजनसहस्राणिनवनवति-सहस्रयोजनानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन 'एग जोयणसहस्सं एक योजनसहस्रम्-एकसहस्रमित योजनानि 'उव्वेहेणं' उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन 'मूले' मूले-मूलावच्छेदेन 'दस जोयणसहस्साइ' दशयोजनसहस्राणि-दशसहस्रयोजनानि 'णवईच जोयणाई' नवति च योजनानि 'दस य दश च 'एगारसभाए' एकादशभागान् 'जोयणास' योजनस्य 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्वारेण प्रज्ञप्तः 'धरणिअले' धरणितले पृथिवीतले समे भागे इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-(गोयमा ! उत्तरकुराए दकिखणेणं देवकुराए उत्तरेणं पुव्वविदेहस्त वासस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहस्स वासस्स पुरथिमेणं जंधुदीवस्स बहुमज्ज्ञदेसभाए एत्थ णं जवु दीवे अंदरे णाम पव्यए पण्णत्त) हे गौतम ! उत्तर कुरु की दक्षिण दिशा में देवकुरु की उत्तर दिशा में पूर्व विदेह क्षेत्र की पश्चिम दिशा में एवं अपरचिदेह क्षेत्र की पूर्व दिशा में जंबूद्वीप के भोलर ठीक उसके मध्यभाग में मन्दर नामका पर्वत कहा गया है (णवणउइजोयणसहस्साई उद्धं उच्चत्तण एगं जोयणसहस्सं उध्वेहेणं भूले दसजायणसहस्साई गवई च जोयणाई दसय एगारसभाए जोयणस्स विक्खंलण) इस पर्वत की ऊंचाई ९९ हजार योजन की है एक हजार योजन का इसका उळेध है १००९०१० योजन का मूल में विस्तार है (धरणियले दलजोयणलहस्ताई विखंभेणं तयणंतरं च णं મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં મંદર નામક પર્વત ક્યા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે छे-'गोयमा! उत्तरकुराए दक्खिणेणं देवकुराए उत्तरेणं पुव्वविदेहस्स वासस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहरस वासरस पुरस्थिमेणं जंबुढीवस्स वहुमज्झदेसभाए एत्थ ण जंबुद्दीवे दीवे मंदरे णाम पव्वए पण्णत्ते गौतम! उत्तर रुसी क्ष शाम हेरनी तर हशामा પૂર્વ વિદેહ ક્ષેત્રની પશ્ચિમ દિશામાં, તેમજ અપરવિદેહ ક્ષેત્રની પૂર્વ દિશામાં જંબુદ્વીપની मह२४ तेना मध्यभागमा भन्४२ नाम त मावे छे. 'णवणउइजोयणसह स्साई उद्धं उच्चत्तेणं एगं जोयणसहस्सं उब्वेहेणं मूले दस जोरणसहस्साई णवई च जोयणाई दस य एगारसभाए जोयणस्स विक्वंभेणं' मा पतनी लाई २ योरन જેટલી છે. એક હજાર રોજન એટલે એને ઉશ્કેલ છે. ૧૦૦૯ જન મૂળમાં એને
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પૂ
जीप सूर्य
'द जोयणसहसाई'' दायां जनसहस्राणि 'विक्संमेणं' विष्कम्भेण मूलतो योजनसहस्रसूयमेन गुळगवानि नवतियोजनानि योजनस्य दश चैकादशभागास्त्रुटिमा पुरित्यर्थः 'यतरं च ' तदनन्तरं च ततः परं च 'मायाए २१ मात्रया २ क्रमेण २ ऊर्ध्वगमने सम्प्रति मन्दर पर्वत वर्दिवनखण्डानि वर्णयितुमुपक्रमते - 'मंदरे' इत्यादि मन्दरे इत्यादि प्रश्नसूत्रं स्पष्टामाया २ परायाणे २ उचरिनले एर्ग जोगणसहस्सं विभेणं मूले एकनी जीमणसमाएं णचय दसुत्तरे जोगणसए परिवखेवेणं उवरितले तिमिण जोयणदहल्लाई एगंच वावहं जोगणसयं किंचि पिसेसाहियं परिक्रणं विच्छिणे ज्झे संखित्ते उयरिं तणुए गोपुच्छ संठाणसंठिए सरपगामये अच्छे सपत्ति) पृथ्वी पर इसका विस्तार १ हजार योजन का है इसके बाद यह मशः २ घटता २ ऊपर में इसका विस्तार १ एक हजार योजन का रह गया है मूलमें इसका परिप ३१९९० योजन का है और ऊपर में इसका परिक्षेत्र कुछ अधिक तीन हजार एकसौ वा योजन का है यह इस तरह मूल विस्तीर्ण हो गया है, मध्य में संक्षिप्त हो गया है और उपर में पतला हो गया है-इसलिये इसका आकार जैसा गाय की पूंछ का आकार होता है वैसा हो गया है यह सर्वात्मना रत्नमय है आकाश और स्फटिक के जैसा यह निर्मल है एवं श्लक्ष्ण आदि विशेषणों से युक्त है (से णं एगाए पउसवर वेश्याए एगेण य वणसंडेणं सच्चओ मंत्रा संपत्ति) यह एक पनवरवेदिका से और एक वनपण्ड से चारों ओर से अच्छी तरह से घिरा हुआ है (बण्गओत्ति) यहां पर पद्मथरदेदिका और वनपण्ड का जैसा पीछे वर्णन किया जा चुका वैसाही वर्णन
११
विस्तार छे. 'धरणिय के दस जोयणसहस्साई विक्संभेणं तयणनरं च २ उपरितले एवं जोयणसहस्सं दिसंभेणं मूले एकतीसं जोयणसहस्साई जोयणसए परिक्खेवेणं उवस्तिले तिष्णि जोयणसहस्साई एगं च घाव चि पिसेसाहियं परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्गे मज्झे संखिते वरं तणु सव्त्ररयणामये अच्छे सहेत्ति' पृथ्वी पर मेनेो विस्तार १० उत्तर ત્યારે માદ અનુરો ક્ષીણ થતા-થતા ઉપર એના વિસ્તાર ૧ હન્તર ગર્ચા છે. મૂલમાં એને પરિક્ષેપ ૩૧૯૧૦૩, ચાજન જેટલે છે અને ઉપરના ભાગમાં એના પરિક્ષેપ કંઇક વધારે ત્રણ હજાર એકસે ખાસડ ચેાજન જેટલે છે. આમ આ મૂળમાં વિસ્તીર્ણ થઇ ગયેા છે, મધ્યમાં સ'ક્ષિસ થઈ ગયા છે. અને ઉપરના ભાગમાં પાતળા થઇ ગયા છે. એથી એને આકાર ગાયના પૂછના આકાર જેવા થઈ ગયા છે. એ સર્વાત્મના રત્નમય છે. આાકાશ અને સ્ફટિક જેવે એ નિળ તેમજ ફ્લણ વગેરે શેિષણાથી યુક્ત छे. 'सेणं एगाए परमत्ररवेइया ए एगेण य वणसंडेगं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते' मा श्रेष्ठ युद्मवर वेहिप्रायो भने ४ वनमंडथी याभेर सारी शेते वीटजायेसु छे. 'वण्णओत्ति'
गाया २ परिहारमाणे
णव य दसुत्तरे जोयणस्यं किं गोपुच्छ ठाणसंठिए येजन लेटो छे. ચેાજન જેટલેા રહી
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम्
કફ્ર
र्यम्, उत्तरसूत्रे 'गोयमा !' गौतम ! ' चत्तारि ' चत्वारि 'वणा' वनानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा ' तद्यथा - 'भद्दसालवणे' भद्रशालवनं - राद्राः सद्भूभवत्वेन सरलाः शाला:- आलयाः 'साला:' वृक्षशाखा वा यस्मिन् तत् भद्रशालं 'सालं तच्च तद्वनं भद्रगालवनम् यद्वा भद्राः
समझलेवें (मंदरेण भंते ! कइ वणा पण्णत्ता) हे भदन्त मंदर पर्वत पर कितने वन कहे गये है ? (गोमा ! चत्तारि वणा पण्णता हे गौतम ! चार वन कहे गये हैं (वण्णओ) यहां पर पद्मवरवेदिका और वनपण्ड का वर्णन करनेवाला पद समूह पीछे के सूत्रों द्वारा कहा जा चुका है अतः वहीं से इसे समझलेना चाहिये सुमेरु पर्वत का विस्तार एक लाख योजन का कहा गया है सो इसमें ९९ हजार योजन की तो उसकी ऊंचाई है और १ हजार योजन का इसका उद्वेध है इस तरह १ लाख योजन पूरा हो जाता है परन्तु इसकी जो चूलिका है यह ४० चालीस हजार योजन की है अतःयह प्रमाण मिलाने से सुमेरु पर्वत का १ लाख योजन से अधिक प्रमाण हो जाता है । यह जो पहिले कहा गया है कि जितनी ऊंचाई जिस पर्वत की होती है उसका चतुर्थांश उसका उद्वेध होता है को यह बात मेरुवर्ज पर्वतों के ही सम्बन्ध मे लागू पडती है इस मेरु पर्वत के सम्बन्ध में नही इसलिये इसका उद्वेध १ हजार योजन का कहा गया है । अब चार वनों का नाम निर्देश करने के निमित्त प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं - (तं जहा - भवालय मे, दणवणे सोमणसवणे, पंडगवणे) हे गौतन ! उन चार सनों के मात्र इस प्रकार से हैं - भद्रशालवन, नन्दनवन, सौमनसवन और पण्डवन इनमें जो भद्रचाल
અહી પદ્મવરવેદિકા અને વનષ ́ડનું પહેલાંની જેમ જ વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે અન भंते! कइ वा पण्णत्ता हे महंत ! भन्दर पर्वत उपर डेटा वना आवेला छे ? 'गोयमा ! चारि वर्णा पण्णत्ता' है गोतम । थार वने। वामां आवेला छे. 'वण्णओ' सही' पद्मनदेि અને વનખંડના વણુ નથી સમ્મદ્ધ પદોં પૂર્વોક્ત સૂત્રોમાં કહેવામાં આવેલા છે. એથી જિજ્ઞાસુએ ત્યાંથી જ જાણવા પ્રયત્ન કરે સુમેરુ પર્યંતના વિસ્તાર એક લાખ ચૈાજન જેટલે કહેવામાં આવેલ છે, એની ૯૯ હજાર ચેાજન જેટલી ઊંચાઈ છે અને એક ૧ હે૨ ચેાજન એના ઉદ્વેષ છે. આ પ્રમાણે ૧ લાખ ચેાજન પૂરા થઈ જાય છે. ણુ એની જે સૂહિકા છે તે ચાલીસ હજાર ચેાજન જેટલી છે એથી આ પ્રમાણ મેળવવાથી સુઅેરુ પ`તનું ૧ લાખ ચેાજન કરતાં વધારે પ્રમાણુ થઈ જાય છે. એ જે પહેલાં કહેવામાં ક્યુ છે કે જે પતની જેટલી ઊંચાઈ હાચ તેના ચતુર્થાંશ જેટલે તેના ઉદ્દેવ હૈાય છે. તે મા વાત મેરુ સિવાયના પાને જ લાગૂ પડે છે. આ મેરુ પર્વતને આ વાત લાગૂ પડતી નથી. એથી જ એના ઉદ્વેષ ૧ હજાર ચૈાજન જેટલે કહેવામાં આવેલ છે. હવે ચાર વનાના नाम निर्दिष्ट ४२वा प्रभु गौतमने हे छे- 'तं जहां भद्दसालवणे. नंदणवणे मोगणसवणे पंगवणे' हे गौतम! ते यार बनाना नाभो या प्रमाणे हे सद्रशासन, नंदनपन, सौभ
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जम्बूद्वीपमति शालाः वृक्षाः यस्मिंस्तद् भद्रशालं शेपं प्राग्वत् १, 'णंदणवने' नन्दन-नं नन्दयति-सुरादी. नानन्दयतीति नन्दनं तच्च तहनं नन्दनवनर २, 'सोमणसवणे' सौमनसवनं मुमनमो देवास्तेपामिदं सौमनसं तच्च तद्वनं तथा, देवोपभोग्य भूमिकासनादि शालित्वात् ३, 'पंडगवणे' पण्डकवन-पण्ड ते तीर्थकृतज्जन्माभिपेकधामतया सकलबने पु मूर्धन्यतां गच्छतीति पण्डकं, तच्च तद्वनं तत्तथा ४, इमानि चत्वारि मन्दरं परिवेष्टय स्वस्वस्थाने तिष्ठन्ति, तत्र प्रथमवनस्थान निर्देष्टुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' क खलु भदन्त ! इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्, उत्तरसूत्रे-गोयमा !' गौतम ! 'धरणिअले' धरणितले 'एत्व' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'मंदरेमेरौ 'प.ए' पर्वते 'भहसालवणे' भद्रशालयनं 'णाम' नाम 'वणे' वनं 'एण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तच्च 'पाईणपडीणायए' प्राचीनप्रतीचीनायतं पूर्वपश्चिमयोदीर्घम् 'सोमणसविज्जुप्पहगंधमायणमालवंतेहिं सौमनसविद्युत्प्रभगन्धमादनमाल्यवद्भिः 'वक्खारपन्चएहि वक्षस्कारपर्वतैः 'सीण सीयोयाहिं' शीताशीतोदाभ्यां 'य' च 'महाणई हिं' महानदीभ्याम् 'अट्ठभागपविभत्ते' वन है उसमें आलय या वृक्षशाखाएँ या वृक्ष बहुत ही सरल है सीधे-हैं टेडे. मेडे नहीं हैं । द्वितीय नन्दन वन में देवादिक आनन्द करते हैं सौमनसवन एक प्रकार से देवताओं का घर जैसा है तथा जो पंडकवन है उसमें तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है अतः इसे सब धनों से उत्तम कहा गया है ये चार वन मेकको अपनी अपनी जगह पर घेरे हुए स्थित है ।अय गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-(कहिण भंते ! मंद्रे पच्चए भदसालवणे नाल वणे पण्णत्ते) हे भदन्त ! मन्दर पर्वत पर भद्रशालचन कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! धरणिअले एत्थणं मंदरे पञ्चए भ६सालवणे णामं चणे पण्णत्त) हे गौत्तम ! इस पृथ्वी पर वर्तमान सुमेरुपर्वत के ऊपर भद्रशाल बन कहा गया है (पाईणपडीणायए) यह वन पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है (उदीणदाहिणविच्छिपणे) उत्तर और से दक्षिणतक विस्तीर्ण हैं (सोमणसविज्जुप्पह गंधमायण मालवंतेहिं નસવન અને પંડકવન. એમાં જે ભદ્રશાલ વન છે, તેમાં આલય અથવા વૃક્ષશાખાઓ અથવા વૃક્ષે અતીવ સરલ છે–સીધા છે–વાંકા–સૂકા નથી. દ્વિતીય નન્દન વનમાં દેવાદિકે આનંદ કરે છે. સૌમનસવન એક રીતે દેવતાઓના માટે ઘર જેવું છે. તથા જે પંડકવન છે તેમાં તીર્થકરોને જન્માભિષેક થાય છે. એથી આને બધા વનમાં ઉત્તમ કહેવામાં આવેલ છે એ ચાર અને મેરુને પિતા પોતાના સ્થાને આવૃત કરીને રિત છે. હવે ગીતમાલામી ઝભુને माजतना प्रश्न ४२ छ है 'ऋहिणं भंते ! मंदरे पब्बए भदसालवणे पण्णत्ते ३ मत ! म१२ 4 6५२ भद्रशासन ४यां स्थणे मावेस छ ? मेना याममा प्रभु छ-'गोरमा! धरणिअले एत्थणं मंगरे पव्वए भद्दसालवणे णामं वणे पण्णत्ते' 3 गौतम ! मा पृथ्वी 6५२ वर्तमान सुमेरु पतनी 6५२ साल वन भावयु छे. 'पाईणपडीणायए' मा पन पूर्वथी पश्चिम भुधी व छ. 'उदीणदाहिण विच्छिण्णे' मन उत्तरथी दक्षिय सुधी
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम्
४३३' अष्टभागप्रविभक्तम् अष्टघा कृतम्, तधथा मेरुगिरेः पूर्वस्यां दिशि प्रथमो भागः १, तस्यैव गिरेः पश्चिमायां दिशि द्वितीयोभागः २, विद्युत्प्रभ सौमनसयो वक्षस्कारपर्वतयोर्मध्ये दक्षिणस्यां दिशि तृतीयो भागः ३, गन्धमादनमाल्यवतो वक्षस्कारपर्वतयो मध्ये उत्तरस्यां दिशि चतुर्थों भागः४, मेरुत्तरतो वहन्त्या शीतोदा महानद्या पूर्वपश्चिमविभागाभ्यां द्वैधीकृतदक्षिणखण्डरूपः पञ्चमो भागः५, मेरुपश्चिमदिशि वहन्त्या शीतोदाया दक्षिणोत्तरविभागाभ्यां द्वैधीकृतपश्चिमखण्डरूपः षष्ठो भागः६, मेरुदक्षिणाभिमुखवाहिन्या शीतामहानद्याः पूर्वपश्चिमविभागाभ्यां द्वैधीकृतोत्तरखण्डरूपः सप्तमो भागः ७, तयैव नद्याः पूर्वाभिमुखवाहिन्यां वक्खारपव्वएहिं सीया सीओदाहि य महाणईहिं अट्ठ भागपविभत्ते मंदस्स पव्वयस्स पुरिस्थिमपच्चत्थिमेणं बावीसे २ जोयण सहस्सा आयामेणं) यह वन सौमनस, विद्युत्प्रभ, गंधमादन, और माल्यवान् इन वक्षस्कार पर्वतों से एवं शीतासीतोदा महानदियों से आठ विभाग रूप में विभक्त कर दिया गया है उसके आठ भाग इस प्रकार से हैं-मेरुगिरिकी पूर्व दिशा में इसका प्रथम भाग है मेरुगिरि की पश्चिमदिशा में इसका द्वितीय भाग है विद्युत्प्रभ सौमनस इन दो वक्षस्कार पर्वतों के बीच में दक्षिणदिशा की ओर इसका तृतीयभाग है गन्धमादन और माल्यवान् वक्षस्कार पर्वतों के बीच में उत्तर दिशा की ओर इसका चतुर्थ भाग है मेरु की उत्तरदिशा में बहनेवाली शीतोदा महानदी के द्वारा पूर्व पश्चिम भाग रूप से वैधीकृत दक्षिणखण्डरूप इसका पांचवां भाग है मेरुकी पश्चिमदिशा में वहनेवाली शीतोदा महानदी के द्वारा दक्षिण पश्चिम भाग रूप से वैधीकृत पश्चिमखण्डरूप छट्ठा भाग है मेरु की दक्षिण दिशा की ओर वहनेवाली शीता महानदी के द्वारा पूर्वपश्चिम विभागरूप से वैधीकृत उत्तर खंड विस्ता छ. 'सोमणसविज्जुप्पहगंधमायण मालवंतेहिं पक्खारपव्वएहि सीया सीओ दाहिय महाणईहिं अट्ठ 'भागपविभत्ते मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमेणं बावीसे २ जोयणसहस्साई आयामेणं' मा वन सौमनस, विद्युत्मन, माइन भने भास्यवान से વક્ષરકાર પર્વતથી તેમજ સીતા સીતા મહાનદીએથી આઠ વિભાગ રૂપમાં વિભક્ત કરવામાં આવેલ છે. તેના એ આઠ ભાગે આ પ્રમાણે છે મેરુ ગિરિની પૂર્વ દિશામાં એને પ્રથમ ભાગ છે. મેરુ ગિરિની પશ્ચિમ દિશામાં એને દ્વિતીય ભાગ છે. વિસ્મભ સૌમનસ એ બે વક્ષસ્કાર પર્વતના મધ્ય ભાગમાં દક્ષિણ દિશા તરફ એને તતીય ભાગ છે. ગન્ધમાદન અને માલ્યવાન વક્ષસ્કાર પર્વતના મધ્યમાં ઉત્તર દિશા તરફ એને ચતુર્થ ભાગ છે. મેરુની ઉત્તર દિશામાં પ્રવાહિત થતી શીદા મહાનદી વડે પૂર્વ પશ્ચિમ ભાગ રૂપથી દ્વિધાકૃત દક્ષિણ ખંડ રૂ૫ એને પંચમ ભાગ છે. મેરુની પશ્ચિમ દિશામાં પ્રવાહિત થતી શીતેદા મહાનદી વડે દક્ષિણ પશ્ચિમ ભાગ રૂપથી દ્વિધાકૃત પશ્ચિમ ખંડરૂપ ષષ્ઠ ભાગ છે. મેરુથી દક્ષિણ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી શીતા મહા નદી વડે પૂર્વ
न० ५५
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- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
दक्षिणोत्तरविभागाभ्यां द्वैवीकृतपूर्वखण्डरूपोऽष्टमो भागः ८,,
विभागाष्टक कोष्ठम्
ट
'मंदरस्स' मन्दरस्य 'पव्ययस्स' पर्वतस्य 'पुरथिमपञ्चत्थिमेणं' पौरस्त्यपश्चिमेन पूर्वपश्चिमयो दिशोः प्रत्येकं 'वावीसं २' द्वाविंशतिं २ 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'आयामेणं' आयामेन, तत्प्रकारो यथा-कुरुजीवा ५३००० त्रिपश्चाशयोजनसहस्राणि, एकैकस्यां जीवायां स्थितस्य वक्षस्कारपर्वतस्य मूले विस्तारः पञ्चयोजनशतानि ५०० द्वयो ईयो वक्षस्कारपर्वतयोर्मूले विस्तारमानं योजनसहस्रं तस्य पूर्वराशौ प्रक्षेपे ५४००० चतुष्पश्चाशइसका सातवां भाग है । तथा मेरु से पूर्व दिशा की ओर बहनेवाली शीता महा'नदी के द्वारा दक्षिण उत्तरविभाग रूप से द्वैधीकृत पूर्वखण्डरूप इसका ८ आठवां भाग है । मन्दरपर्वत की पूर्वपश्चिम दिशा में इसका आयाम बाईस वाईस हजार योजन का है यहां पर संस्कृत टीका में दी हुइ आकृति देख लेना चाहिये। _ (उत्तर दाहिणेणं अद्धाहज्जाई जोयणसयाई) तथा उत्तर और दक्षिण दिशा में इसका विष्कम्म २॥२॥ सौ योजन का है इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है-कुरुक्षेत्र की जीवा प्रत्यश्चा-५३००० योजन की है एक एक जीवा में स्थितों वक्षस्कार पर्वत का मूल में विस्तार ५०० सौ योजन का है दो वक्षस्कार पर्वत के मूल में विस्तार का प्रमाण १००० योजन का होता है-५३००० में इस પશ્ચિમ વિભાગ રૂપથી દ્વિધાકૃત ઉત્તર ખંડ એને સપ્તમ ભાગ છે. તેમજ મેરુથી પૂર્વ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી શીતા મહા નદી વડે દક્ષિણ ઉત્તર વિભાગ રૂપથી દ્વિધાકૃત પૂર્વ ખંડ રૂપ એને અષ્ટમ ભાગ છે.
મન્દર પર્વતની પૂર્વ પશ્ચિમ દિશામાં એનો આયામ બાવીસ હજાર એજન જેટલે છે. અહીં સંસ્કૃતમાં આપ્યા પ્રમાણે આકૃતિ જોઈ લેવી. - उत्तरदाहिणेणं अद्धाइज्जाई जोयणसयाइ' तेमन त क्षिामा सना वि०४२॥-२॥ સે યે જન જેટલું છે. એનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે-કુરુક્ષેત્રની જીવા પ્રત્યંચા-પ૩૦૦૦
જન જેટલી છે. એક-એક છવામાં સ્થિત વક્ષસ્કાર પર્વતને ભલમાં વિસ્તાર ૫૦૦ ચાજન જેટ છે. બે વક્ષસ્કાર પર્વતને મૂળના વિસ્તારનું પ્રમાણ ૧૦૦૦ એજન જેટલું હોય
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम्
४३५ घोजनसहस्राणि, तस्मान्मेरुविस्तारे शोधिते शेष ४४००० चतुश्चवारिंशयोजनसहस्राणि, तेषामर्दै २२००० द्वाविंशति योजनसहस्राणि मन्दरपर्वतस्य पूर्वपश्चिमयो दिशो भवन्ति, एतत्प्रकारान्तरं हि-शीतावनमुखं २९२२ द्वाविंशत्यधिक नवशताधिक द्वि सहस्र योजनानि, अन्तरनद्यः षट् च ७५० साई सप्तशतयोजनानि, अष्टौ वक्षस्कारपर्वताःचतुःसहस्रयोजनानि ४०००, षोडशविजयविस्तारः ३५४०२ द्वयधिकचतुःशताधिक पञ्चत्रिंशद्योजनानि, शीतोदामुखवनं २९२२ शीतामुखवनवद् द्वाविंशत्यधिकनवशताधिक द्विसहस्रयोजनानि, एतेषां विस्तारसंख्यासंकलनायाम् पद चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि भवन्ति, एतत्प्रमाणं च लक्षप्रमाणमहाविदेहजीवायाः शोध्यते, शेष चतुःपञ्चाशयोजनसहस्राणि, एतत्ममाणं भद्रशालवनं क्षेत्रं, तच्च मेरुयुवमिति धरणितलवृत्ति दशयोजनसहस्रशोधने शेषं चत्वारिंशयोजनएक हजार की राशि को जोडने पर ५४००० होते हैं मेरु के विस्तार में से ५४००० कम कर देने पर ४४००० बचते हैं-इनको आधा करने पर २२००० जो आते हैं यही मन्दर पर्वत की पूर्व पश्चिम दिशा में इसके आयामका प्रमाण निकल आता है अथवा यह संख्या इस प्रकार से भी लभ्य हो जाती है शीता नदी का वनमुख २९२२ योजन का है छह अन्तर नदियों का विस्तार ७५० योजन का है आठ वक्षस्कारों का विस्तार ४००० योजन का है १६ विजयों का पृथुत्व ३५४०६ योजन का है शीतोदानदी का वनमुख २९२२ योजन का है इन सबका जोड ४६००० आता है महाविदेह क्षेत्र की जीवा का प्रमाण १ लाख योजन का है एक लाख मे से ४६ हजार को घटाने से ५४००० हजार बचते हैं सो यह प्रमाण भद्रशाल वन क्षेत्र का है इस में मेरुके धरणीतल का प्रमाण भी सम्मिलित है-अतः मेरु के धरणीतल का १००० हजार योजन का प्रमाण और कम कर देने पर ४४ हजार योजन आ जाते हैं इनका आधा છે. પ૩૦૦૦મા આ એક હજાર જેટલી રાશિને જેડીએ તે ૫૪૦૦૦ થાય છે. મેરના વિસ્તારમાંથી ૫૪૦૦૦ સંખ્યા બાદ કરવાથી ૪૪૦૦૦ શેષ રહે છે. આ સંખ્યાને અર્ધા કરીએ તે ૨૨૦૦૦ થાય છે. અજ મન્દર પર્વતની પૂર્વ-પશ્ચિમ દિશામાં એના આયામનું પ્રમાણે છે. અથવા આ સંખ્યા આ પ્રમાણે પણ મેળવી શકાય તેમ છે. શીતા નદીન વનમુખ ૨૯૩૨ વૈજન જેટલું છે. ૬ છ અંતર નદીઓનો વિસ્તાર ૭૫૦ એજન જેટલો છે. ૮ વક્ષસ્કારેને વિસ્તાર ૪૦૦ એજન જેટલો છે. ૧૬ વિજયેથી સમ્બદ્ધ પૃથુત્વ ૩૫૪૦૨ ચજન જેટલું હોય છે. શીતદા નદીનું વનમુખ ૨૯૨૨ જન જેટલું છે. એ સર્વને સરવાળે ૪૬૦૦૦ થાય છે. મહાવિદેહ ક્ષેત્રની જીવાનું પ્રમાણ ૧ લાખ જન જેટલું છે. એક લાખમાંથી ૪૬ હજારને બાદ કરીએ તે ૫૪૦૦૦ શેષ રહે છે. તે આ પ્રમાણ ભદ્રશાલ વન ક્ષેત્રનું છે. આમાં મેરુના ધરણીતલનું પ્રમાણ પણ સમ્મિલિત છે. એથી મેરૂના ધરણીતલનું ૧૦૦૦ (એક હજાર) જન પ્રમાણુ કમ કરવોથી ૪૪ હજાર ચેજન આવી
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अम्बूद्वीपप्रतिसूत्र सहस्राणि तस्याः एकैकस्मिन् पार्श्व द्वाविंशतिः २ योजनसहस्राणि सम्पद्यन्त इति । तथा मन्दरगिरेः 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तरदक्षिणेन उत्तरदक्षिणयो दिशोः प्रत्येकं 'अद्भाइजाई २' अर्द्धतृतीयानि २ 'जोयणसयाई' योजनशतानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण भद्रगालवनं देवोत्तरकुरपु प्रविष्टमित्यर्थः, अर्थतस्य पदुमवरवेदिकावनपण्डपरिवेष्टितत्वेन तद् वर्णयति-'से ण' तत् खलु भद्रशालवनं 'एगाए' एकया 'पउमवरवेइया' पद्मवरवेदिकया 'एगेण य' एकेन च 'वणसंडेणं' दनपण्डेन 'सवओ समंता' सर्वतःसमन्तात् 'संपरिक्खित्वे' सम्परिक्षिप्तं-परिवेष्टितमस्ति, अनयोः 'दुण्डवि' द्वयोरपि पद्मवरवेदिका वनपण्डयोः 'वण्णओ' वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहः 'भाणियव्यो' भणितव्यः-वक्तव्यः, तत्र पद्मवरवेदिकावर्णकश्चतुर्थ सूत्रव्याख्यातो वोध्यः, वनपण्डवर्णकोऽपि 'किण्हे किण्होभासे' कृष्णः कृष्णावभास इत्यादिः चतुर्थ सूत्रव्याख्यातो वोध्यः, तदर्थोऽपि तत एव चोध्या, 'जाव देवा आसयंति सयंति' यावद् देवा आसते शेरते-इत्यत्र यावत्पदेन-'तत्य णं बहवो वाणमन्तरा' २२ हजार २२ हजार योजन होता है सो यही प्रमाण इसके पूर्व पश्चिम दिशा में आयाम का निकल आता है तथा दक्षिण और उत्तर में जो इसके विस्तार का प्रमाण २॥२॥ योजन का कहा गया है सो इसका तात्पर्य ऐसा है कि यह देवकुरु और उत्तर कुरू में २-२॥ सो योजन तक भीतर प्रवेश किया हुआ है (लेणं एगाए पउमवरवेद्याए एगेण य वणसंडेण सम्बोसमंतासंपरिक्खित्ते) वह भद्रशाल वन एक पावरवेदिका और एक वनखंड से अच्छी तरह सय तरफ से घिरा हुआ है (दुपहविवण्णओ) यहां पर इन दोनों का वर्णक पाठ चतुर्थ सूत्र से और वनपण्ड का वर्णक पाठ "किण्हे किण्हो भासे" इत्यादि रूप में चतुर्थ सूत्र की व्याख्या से समझलेना चाहिये (जाव देवा आसयंति सचंति) यहा चावत्पद से "तत्थणं बहवे वाणमन्तरा" इन पदों का संग्रह हुआ है "देवा" पद यहां उपलक्षण प है इसमें "देवीओ य" इस पदका संग्रह हो जाता है જાય છે. એના બે ભાગ કરીએ તે ૨૨ હજાર, ૨૨ હજાર જન થઈ જાય છે. એજ પ્રમાણે એના પૂર્વ પશ્ચિમ દિશામાં આયમનું નીકળી આવે છે. તેમજ દક્ષિણ અને ઉત્તરમાં જે એના વિસ્તારનું પ્રમાણ રા રા રોજન જેટલું કહેવામાં આવેલું છે તે એને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે આ દેવકુરુ અને ઉત્તરકુરુમાં રા–રા જન સુધી અંદર પ્રવિષ્ટ थयेट छे. 'सेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य षणसंडेणं सब्बओ समंता संपरिक्खित्ते' તે ભદ્રશાલવન એક પવરવેદિકા અને એક વનખંડથી મેર સારી રીતે વીંટળાયેલું है. 'दुण्ह वि वण्णओ' महा मन्नना १ पाठ ४ी से 2. सभा २ यावरबेहि छे, ते सगते १४ ५४ यतु सुत्रमाथी अने नमन : 48 'किण्हे किण्होभासे' वगेरे ३५मां यतुर्थ सूत्रनी व्यायामांथी onी देवु नये. 'जाव देवा भासयति सयंति' मी यावत् ५४थी 'तत्थणं बहवे वाणमंतरा' ये पहानी स यथा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मैरुपर्वतस्य वर्णनम् इति साह्यम् 'देवा' इत्युपलक्षणं, तेन 'देवीभो य' इत्यस्य ग्रहणम् 'आसते शेरते' इत्युपलक्षणं, तेन 'विट्ठति णि पीयं ते' इत्यादीनां पदानां ग्रहणम्, एतेषां पदानां विवरणं पञ्चमसूत्राब्दोध्यम् , अथात्र सिद्धायतनादि वक्तव्यमाह-'मंदरस्स णं' मन्दरस्य खल्ल 'पव्वयस्स' पर्वतस्य मेरुगिरेः 'पुरथिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वस्यां दिशि 'भदसालवनं' भद्रशालवनं 'पण्णासं' पञ्चाशतं 'जोयणाई' योजनानि 'ओगाहित्ता' अवगाह्य-प्रविश्य - अतिक्रम्येति यावत् 'एत्थ अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'महं एगे' महदेवं 'सिद्धाययणे' सिद्धायतनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तच प्रमाणादिना वर्णयति-'पण्णासं' पञ्चाशतं 'जोयणाई' योजनानि 'आयामेण' आयामेन दैर्येण, 'पणवीसं' पञ्चविंशति 'जोयणाई' योजनानि विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण 'छत्तीसं' पत्रिंशतं 'जोयणाई' योजनानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं उच्चत्वेन 'अणेगखंभसयसणिविट्रे' अनेकस्तम्भशतसभिविष्टम् इत्युपलक्षणं, तेन स्तम्भोद्गतेत्यादि पदानां सङ्ग्रहणम् एवं 'वण्णो ' वर्णकोऽत्र बोध्या, स च पञ्चदशसूत्रात्सार्थों बोध्यः, अथात्र द्वारादि वर्णयितुमाह-'तस्स गं' तस्य-सिद्धायतनस्य खलु 'तिदिशि त्रिदिसि तिसृषु दिक्षु "आसते शेरते" ये क्रियापद भी उपलक्षण रूप है-इन से" चिट्ठति, णिसीयंति" इत्यादि क्रियापदों का ग्रहण किया गया है इन सबका विवरण पंचम सूत्र से समझलेना चाहिये (मंदस णं पव्वयस्स पुरत्थिमेणं भदसालवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थणं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते) मंदर पर्वत की पूर्वदिशा में भद्रशालबन है इस से ५० योजन आगे जाने पर एक बहुत विशाल सिद्धायतन है (पण्णासं जोयणाई आयामेणं, पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं, छत्तीसं जोयणई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसंनिविलु वण्णओ) यह सिद्धायतन आयाम की अपेक्षा ५० योजन का है और विष्कम्भ की अपेक्षा २५ योजन का है इसकी ऊंचाई ३६ योजन की है यह सैंकडो स्तम्भों के उपर खडा हुआ है इसका वर्णकपाठ पंद्रह १५ वे सूत्र से जानलेना चाहिए (तस्स णं सिद्धाययः
छ. 'देवा' ५६ मही पक्ष ३५ छे. सभा ‘देवीओ य' मा पहाना सह थयो . 'आसते, शेरते' यापही पY BRक्ष ३५ छे. सेनाथी-'चिटुंति, णितीयंति, त्यात ક્રિયાપદનું ગ્રહણ થયું છે. એ સર્વનું વિવરણ પંચમ સૂત્રમાંથી સમજી લેવું જોઈએ. 'मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरस्थिमेणं भद्दसालवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थणं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते' म१२ पतनी पूर्ण मा सात न मावयु छ. सनाथी पर यान माण तi S५२ ४ सय विश सिद्धायतन माय छे. (पण्णासं जोय. णाई आयामेणं, पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं छत्तीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तण अणेगखंभसय. संनिविद्रं वण्णओ' मा सिद्धायतन मायामनी अपेक्षा ५० थान र छ. म विनी અપેક્ષાએ એ ૨૫ જન જેટલું છે. એની ઊંચાઈ ૩૬ જન જેટલી છે. આ સહસો સ્તંભ ઉપર ઊંભુ છે. એને વણુંક પાઠ ૧૫ પંદરમાં સૂત્રમાંથી જાણી લેવો જોઈએ.
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 'तो दारा' त्रीणि द्वाराणि 'पण्णचा' प्रज्ञप्तानि, 'ते थे' तानि खलु 'दारा' द्वाराणि 'अट्ठ जोयणाई' अष्ट योजनानि 'उद्धं उच्चत्तेणं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'चत्तारि' चत्वारि 'जोयणाई योजनानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण 'तावइयं चेव तावदेव-तत्प्रमाणमेव योजनचतुष्टयमेवेत्यर्थः 'पवेसेणं' प्रवेशेन प्रवेशमार्गावच्छेदेन, 'सेया' श्वेतानि-शुक्लवर्णानि 'वरकणगथूभियागा' वरकनकस्तूपिकानि-उत्तमस्वर्णमयशिखरयुक्तानि, एतद्वाराणि वर्णयितुं सूचयति-'जाव वणमालाओ' यावद्वनमालाः-ईहामृगेत्यारभ्य वनमालापर्यन्तवर्णको वोध्या, सचाष्टमसूत्रात्सार्थों ग्राह्यः । तथा 'भूमिभागो य' भूमिभागश्च 'भापियव्यो' भणितव्य:वक्तव्यः तस्य वर्णनं पञ्चमसूत्राद्वोध्यम्, 'तस्स थे' तस्य भूमिभागस्य खलु 'बहुमज्झदेसमाए' वहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागे 'एस्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु 'महं एगा' महत्येका 'मणिपेढिया' मणिपीठिका मणिमयासनविशेषः, 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च 'अट्ट' अष्ट 'जोयणाई' योजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण दैर्घ्यविस्ताराभ्याम् 'चत्तारि णस तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता) इस सिद्धायतन के तीन दिशाओं में तीन दरवाजें कहे गये हैं । (ते णं दारा अट्ठजोयणाई उद्धं उच्चत्तंण, चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेलेणं सेआ वरकणगथूभियागा जाव वणमालाओ भूमिभागो य भाणियचो) ये द्वार आठ योजन के ऊंचे हैं चार योजन का इनका विष्कम्भ है और इतना ही इनका प्रवेश है ये श्वेत वर्ण के हैं और इनकी जो शिखरे हैं वे सुन्दर सोने की बनी हुई हैं। यहां पर वन मालाओं का एवं भूमिभाग का वर्णन करलेना चाहिये वनमालाओं का वर्णन "इहामिय" आदि पाठ से जानलेना चाहिये यह पाठ अष्टम सूत्र से और भूमिभाग का वर्णन पश्चम सूत्र से समझलेना चाहिये वनमाला और भूमिभाग के वर्णन तक ही इन द्वारों का वर्णन किया गया है (तस्सणं यहुज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिया पण्णत्ता) उसी भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल मणिपीठिका 'तस्सगं सिद्धाययणस्स तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता' मा सिद्धायतननी हिशा सामi ४२वात मावदा छे. 'तेणं दारा अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाई विक्वं. भेणं तावइयं चेव पवसेणं सेआ वरकणगथूभियागा जाव वणमलाओ भूमिभागो य भाणियन्वों' એ દ્વારે આઠ પેજન જેટલા ઊંચા છે. ચાર એજન જેટલા એ કારેને વિષ્ઠભ છે, અને આટલે જ એમને પ્રવેશ છે. એ દ્વારા વેત વર્ણવાળાં છે. એમના જે શિખરે છે તે સુંદર સુવર્ણ નિમિત છે. અહીં વનમાળાઓ તેમજ ભૂમિભાગનું વર્ણન કરી લેવું જોઈએ. बनभाणामानु वर्णन 'इहामिय' पोरे पाश्री ateja नये. या 418 अष्टम सूत्रમાંથી અને ભૂમિભાગનું વર્ણન પંચમ સૂત્રમાંથી જાણી લેવું જોઈએ. વનમાળા અને ભૂમિलागना पर्युन सुधी १ मे दानु वर्णन ४२वामा मावि छ. 'तस्स णं,.बहुमज्झदेसभाए एत्यणं महं ,एगा, मणिपेढिया, पणत्ता', ते ..भिमान : ४ मध्य, मामा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सु. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् चत्वारि 'जोयणाई' योजनानि 'वाहल्लेणं' पाहल्येन-पिण्डेन 'सबरयणामई' सर्वरत्नमयी सर्वात्मना रत्नमयी 'अच्छा' अच्छा, इदमुपलक्षणं, तेन श्लक्ष्णादि परिग्रहः पूर्ववत् । 'तीसे गं' तस्याः खलु 'मणिपेढियाए' मणिपीठिकायाः 'उपरि उपरि 'देवन्छंदए' देवच्छन्दकः देवीपवेशनार्थमासनम्, स च 'अट्ट जोयणाई' अष्ट योजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण 'साइरेगाई' सातिरेकाणि-किञ्चिदधिमानि 'अट्ट जोयणाई' अष्ट योजनानि 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'जाव जिणपडिमावण्णओ' यावजिनप्रतिमावर्णकः .अत्र यावत्पदेन-'इत्थ असए जिणपडिमाणं पण्णत्ते, तासि णं जिणपडिमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' इत्यादिरूपो जिनप्रतिमानां-यक्षप्रतिमानां वर्णको ग्राह्यः, तथा 'देवच्छंदगस्त' देवच्छन्दकस्य देवासनविशेषस्य 'सव्वरयणामये' इत्यादिरूपो वर्णको वोध्यः 'जाव धूवकडच्छुयाणं' कही गई है (अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं) इस मणिपीठिका का आयाम और विष्कम्भ आठ योजन का है । (चत्तारिजोयणाई बाहल्लेणं सव्वरयणामई अच्छा) इसका बाहल्य-मोटाई-चार योजन का है यह सर्वात्मना रत्नमयी है और आकाश एवं स्फटिक मणिके जैसी निर्मल है "अच्छा" यह पद यहां उपलक्षण रूप है, इस से श्लक्ष्ण आदि पदों का ग्रहण हो जाता है (तीसे णं मणिपेढियाए उवरि देवच्छंदए अह जोयणाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाई अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तणं जाव जिणपडिमा वण्णओ) उस मणिपीठिका के ऊपर एक देवच्छन्द-देवों के बैठने का आसन है उस आसन का आयाम और विष्कम्भ आठ योजन का है और इसकी ऊंचाई भी कुछ अधिक आठ योजन की ही है यहां यावत् जिन प्रतिमाएं है यहां यावत्पद ले "इत्थ असए जिण पडिमाणं पण्णत्ते तासिणं जिणपडिमाणं अयमेयाख्वे वण्णावासे पण्णत्ते" इस पाठ का संग्रह हुआ है यहां जिनप्रतिमा से कामदेव की प्रतिमा तथा यक्ष विशाल भाषाl६४ मावेसी छे. 'अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणेओ' मा मणिपालना मायाम-वि०४ मा यौन र। छ. 'चत्तारि जोयणाई व हल्लेणं सव्वरयणामई अच्छा' એને બહલ્ય એટલે કે મેટાઈ ચાર જન જેટલી છે. આ સર્વાત્મના રત્નમયી છે, અને माश तमन २४ मणिवत् निभग छे. 'अच्छा' मा ५४ मही सक्ष ३५ छ. सनाथी सय कोरे पहानु ग्रह थयु छे. 'तीसेणं मणिपेढियाए उवरि देवच्छंदए अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाई अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तण जाव जिणपडिमा वण्णणे ते મણિપીઠિકાની ઉપર એક દેવછન્દ એટલે કે દેવેને બેસવા માટેનું આસન છે તે આસનને આયામ–વિષ્ઠભ આઠ જન જેટલું છે અને તેની ઊંચાઈ પણ કંઈક વધારે આઠ योशन रेसी छे. महा 'यावत्' ५४थी लिन प्रतिमामान। सह थयो छ. मही यात्५४थी 'इत्थ अदुसए जिणपडिमाणं पण्णत्ते तासिणं जिणपडिमाणं अयमेयारूवे वण्णा. वासे पण्णत्ते में पाईने। सह थय। छ. म नि प्रतिमायाथी मपनी प्रतिभा
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे यावद्धूपकडुच्छुकानाम् अत्र यावत्पदेन 'असए' इत्यस्य ग्रहणम्, तथा च अष्टशतं धूपकटुच्छुकानां धूपपात्र विशेषाणां प्रज्ञप्तम्, अनयोजिनप्रतिमा धूपकटुच्छकयो वर्णको राजप्रश्नीयसूत्रस्याशीतितमैकाशीतितमाभ्यां सूत्राभ्यां ग्राह्यः, तदर्थच तयोरेव मत्कृतसुबोधिनीटीकाasaसेय इति । अथावशिष्ट सिद्धायतनवर्णनार्थमुक्तरीतिं प्रदर्शयति- 'मंदरस्स णं' मन्दरस्प खल 'पव्त्रयस्त' पर्वतस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन- दक्षिणदिशि 'भद्दसालवनं' भद्र'शालवनं 'पण्णासं' पञ्चाशतं योजनानि अवगाह्येति ग्राह्यम् ' एवं ' एवम् उक्तरीत्या 'चउद्दिसिपि चतुर्दिश्यपि दिक्चतुष्टयेऽपि 'मंदरस्त' मन्दरस्य पर्वतस्य 'भद्दसालवणे' भद्रशालवने 'चचारि' चत्वारि 'सिद्धाययणा' सिद्धायतनानि 'भाणियन्या' भणितव्यानि वक्तव्यानीत्यर्थः यत्र सिद्धायतनत्रिकस्यातिदेशे कर्त्तव्ये तच्चतुष्टयातिदेशः कृतस्तत्र समाधानं जम्बूद्वीपद्वारवर्णकोक्तम् ' एवं चत्तारि वि द्वारा भाणियच्या' इत्येतत्सूत्रव्याख्यानमनुसृत्य बोध्यम्, अथैतदन्तर्गतपुष्करिणी चतुष्टयं वर्णयितुमुपक्रमते - 'मंदरस्त' मन्दरस्य 'णं' खलु 'पव्वयस्स' पर्वतस्य 'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणे 'भद्दसालवनं' भद्रशालवनं 'पण्णा सं' प्रतिमाओं को जानना चाहिये (देवच्छंदणस्स जाव धृवकडच्छुगाणं इति) यह - देवच्छंद सर्वात्मना रत्नमय है यावत् यहां पर १०८ धूपकडा हे हैं - जिनमे धूप 'जलाई जाती है जिनप्रतिमा और धूपकटाहों का वर्णन जानने के लिये राजप्रश्नीय सूत्र के ८० और ८१ सूत्रों को देखना चाहिये उनकी टीका में मैने इस विषय को स्पष्ट किया है (मंदरस्स णं पव्वयस्स दाहिजेणं भद्दसालवणं पण्णासं एवं चउद्दिसि पि मदरस्स भद्दसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा भाणियव्वा) मन्दर पर्वत की दक्षिणदिशा में भद्रशालवन में ५० योजन आगे जाने पर - भद्रशालवन में ५० योजन प्रवेश करने पर मन्दर पर्वत की चारों दिशाओं में भद्रशाल-वन में सिद्धायतन है यहां तीन सिद्धायतन कहना चाहिये थे परन्तु जो चार सिद्धायतन कहे गये हैं इस सम्बन्ध में समाधान जम्बूद्वीपद्वार के वर्णक में कह तेभन यक्ष प्रतिभागी लागुवी ले थे. 'देवच्छंद्गस्स जाव धूवकडुच्छ्रयाणं इति' मा ધ્રુવચ્છંદ સર્વાત્મના રત્નમય છે ચાવત્ અહીં ૧૦૮ ધૂપ કટાહા છે. જેમાં ધૂપ સળગાવવામાં આવે છે. જિનપ્રતિમાએ અને ધૂપ ક્રેટાડાના વર્ણન વિષે જાણવા માટે રાજ પ્રશ્નીય સૂત્રના ૮૦ અને ૮૧મા સૂત્રો જોવા જોઈએ. એ સૂત્રોની ટીકામાં મેં આ વિષયનુ’ स्पष्टी छे. 'मंदरस्स णं पव्वयस्स दाहिणेणं भद्दसालवणं पण्णासं एवं चउद्दिसिं पि मंदरस्स भद्दसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा भाणियव्वा' भौंहर पर्वतनी दृक्षिशु दिशाभां ભદ્રશાલ વનમાં ૫૦ ચેાજન આગળ જવાથી ઉપર ભદ્રશાલવનમાં ૫૦ ચેાજન પ્રવિષ્ટ થયા પછી મન્દર પતની ચેમેર, ભદ્રશાલ વનમાં ચાર સિદ્ધાયતના આવેલા છે. અહીં ત્રણ સિદ્ધાયતના કહેવાં જોઈએ પણ ત્રણના સ્થાને જે ચાર સિદ્ધાયતના કહેવામાં આવેલાં છે, એ સંખ ધમાં સમાધાન જ ખૂદ્રીપ દ્વારના વર્ણાંકમાં કરવામાં આવેલું છે. આ સમાધાન
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कार: सू. ३६ मेरुपर्वतस्य धनम्
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पञ्चाशतं 'जोयणाई' योजनानि 'ओगाहित्ता' अवगाह्य अतीत्य 'एत्थ णं' अत्र अत्रान्तरे खल 'चत्तारि' चतस्रः 'णंदापुक्खरिणी ओ' नन्दापुष्करिण्यः नन्दाख्याः शाश्वताः पुष्करिण्यः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा ' तद्यथा 'पडमा' पद्मा १ 'परमप्पभा' पद्मप्रभा २ 'चेव' चैव 'कुमुदा' कुमुदा ३ 'कुमुदप्पभा' कुमुदप्रभा ४ इति, ताः प्रमाण' दितो वर्णयिनुमाह- 'ताओ णंइत्यादि ताः अनन्तरोक्ताः खलु 'पुक्ख विणीओ' पुष्करिण्यः 'पंचासं' पञ्चाशतं 'जोयणाई' योजनानि 'आयापेणं' आयामेन देर्येण 'पणवीसं' पञ्चविंशर्ति 'जोयणाई' योजनानि' 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण विस्तारेण 'दसजोयण' हूं' दशयोजनानि 'उब्बेणं' उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन उण्डस्वेन 'वेइया वनसंडणं' देदिका वनपण्डयोः 'वण्णभो' वर्णकः 'भाणियच्चो ' भणितव्यः- वक्तव्यः, स च चतुर्थस्य मत्कृतव्याख्यातो बोध्यः, तदर्थश्च तत एव बोध्यः, 'चतुदिया गया है यह समाधान वहां 'एवं चत्तारिवि द्वारा भाणियचा' इस सूत्र के अनुसार जानलेना चाहिये (मन्दरस्स णं पञ्चयस्स उत्तरपुर स्थिमेणं अद्दसालवणं पण्णसिं जोयणाह' ओगाहिता एत्थणं चत्तारि णंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ) मन्दर पर्वत के ईशान कोण में भद्रशालवन को ५० योजन पार करके आगतस्थान में चार नन्दा नामकी शाश्वत पुष्करिणियां हैं ( तं जहा) इनके नाम इस प्रकार से है - (१मा१, उमाभार, वेव कुमुदा ३, कुमुदप्पभा४ ) पद्मा, पद्मप्रभा, कुमुदा और कुमुदप्रभा (ताओ णं पुक्खरिणीओ पण्णासं जोगणाई आयामेणं पणवीस जोषणा विवखंभेणं, दस जोयणाई उत्रेणं वण्णओ वेश्यावणसंडाणं भाणियो) ये पुष्करिणियां आयाम में ५० योजन की हैं और विष्कम्भ में २५ योजन की हैं तथा इनकी गहराई १० योजन की हैं। यहां after और dress का वर्णन करना चाहिये और वह चतुर्थ सूत्रकी व्याख्या से समझलेना चाहिये (चउद्दिसिं तोरणा जाव तासिणं पुक्खरिणीणं
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त्यां एवं चरि विदारा भाणिकत्रा' या सूत्र भुणभागी सेवु लेो. 'मंदरस्सणं पव्वयस्स उत्तरपुरत्थिमेण भदसालवणं पण्णासं जोयणाइ ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि णंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओं' भन्दर पर्वतना ईशान आशुभां लद्रशासवनने ५० येोमन पटावी જઈએ ત્યારખાદ જે સ્થાન આવે છે ત્યાં નન્દા નામક ચાર શાશ્વત પુષ્કરિણીએ છે 'तं जहा' तेभना नाभा मा अभा हे- 'पउमा १, पउमप्पभा २, चेव कुमुदा ३ कुमुदप्पभा ४' 'यद्मा, यद्मप्रभ', डुभुट्टा याने अभुहप्रा. 'ताओणं पुक्खरिणीओ पण्णासं जोयणाई आयामेगं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं, दस जोयणाई उव्वेद्देणं वण्णओ वेइयावणसंडाणं भाणियव्वो' से પુષ્કરિણીએ આયામની અપેક્ષાએ ૫૦ ચેાજન જેટલી છે. અને વિકલની અપેક્ષાએ ૨૫ योजन नेटसी छे, तेभन गोभनी गंभीरता (31) १० योनन-भेटसी छे. अहीं वेहि અને વનખંડનુ વર્ણન કરી લેવુ જોઇએ. અને વેદિકા અને વનખંડ વિષેનું વર્ણન ચતુ सूत्रनी व्याभ्यामांयी लागी सेवु' लेई मे. 'चउद्दिसिं तोरणा जाव तो सिगं पुक्खरिणीणं
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लम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूने:
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दिसि' चतुर्दिशि - दिषचतुष्टये तोरणानि वहिर्द्वाराणि 'जाव' यावत् अत्र यावत्पदेन - 'नाना - मणिमयानि' इत्यादीनां तोरणविशेषणवाचकपदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, स च सार्थः राजप्रश्नीयसूत्रस्य त्रयोदशसूत्रस्य मत्कृतसुवोधिनी टीकातोऽवसेयः, अथैतत्पुष्करिणीमध्यवर्तिप्रासा-दावतंसकं वर्णयितुमुपक्रमते - 'तासि णं' तासां खल 'पुक्खरिणीणं' पुष्करिणीनां 'बहुमजादेसभा ए' बहुमध्यदेश भागे - अत्यन्त मध्यदेश भागे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'नं' खलु 'महं एगे' महानेकः 'ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो' ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य 'पासायवर्डिसर' प्रासादावतंसकः उत्तमप्रासादः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः स्वपरिवेष्टनी भूतपुष्करिणीचतुष्टयवहुमध्यदेशभागवर्ती प्रासादोऽयमुक्त इत्यर्थः, स च 'पंचजोयण सवाई' पञ्च योजनशतानि 'उद्धं उच्च सेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'अाइज्जा' अर्द्धतृतीयानि 'जोयणमयाई' योजनशतानि 'चिक्खभेणं' विष्कम्भेण विस्तारेण 'अव्युग्गयमूसिव पह सिय इव' अभ्युद्गतोतिप्रहसित इव इत्यादिपदानां प्रासादविशेषणवाचकानामत्र सङ्ग्रहो बोध्यः, स च राजप्रश्नीयसूत्रस्य मत्कृतचहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगे महं ईसाणस्स देविदस्त देवरण्णो पासायवसिगे पण्णत्ते) यहां चारों दिशाओं में तोरण- बहिदार है यहां यावत्पद से " नाना मणिमयानि" इत्यादिरूप से कहे गये तोरणों के विशेषणों का ग्रहण हुआ है इन्हें राजप्रश्नीय सूत्र की सुबोधिनी टीका से समझ लेना चाहिये इन पुष्करिणियों के ठीक मध्यभाग में एक विशाल देवेन्द्र देवराज ईशान का प्रासादावतंसक - श्रेष्ठ प्रासाद - कहा गया है (पंच जोगणसयाई उड्डू उच्चतेणं अद्वाइवाई जोयणसयाह विकवभेनं अम्भुग्गपलूसिय एवं सपरिवारो पासायवर्डिसगो भाणियध्वो) यह प्रासादावतंसक ऊंचाई में ५ योजन का है २५० योजनका इसका विष्कम्भ है "अभुग्गय इत्यादि पर्दों का जोकि प्रासादावतंसक के विशेषणरूप से प्रयुक्त किये गये हैं यहां संग्रह हुआ है इन पदों का संग्रह श्रीराजप्रश्नीय सूत्र से समझलेना चाहिये प्रासादातंसक का वर्णन मुख्यासन और गौणासन रूप परिवार सहित करलेना चाहिये (मंदर
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बहुमज्झदे सभ्गए एत्थणं एगे मह ईसाणस्स देविंदरस देवरण्णो पामायवर्डिसगे पण्णत्ते' 'अडी 'यारे हिशाओोभां तोरणु-महिर्द्वार- छे. अहीं यावत् यही 'नाना मणिमयानि' वगेरे ३५भां કથિત તેારણેાના વિશેષણાનું ગ્રહણ થયું છે. એ વિશેષણના અથ રાજપ્રશ્નીયસૂત્ર' ની સુત્રેાધિની ટીકામાંથી જાણી લેવા જોઇએ. એ પુષ્કરિણીના ઠીક મધ્યભાગમાં એક વિશાળ देवेन्द्र देवराज ईशानने। प्रसाहात स-श्रेष्ठ प्रासाद-मावेस छे, 'पंच जोयणसयाई उड्ढ उच्चत्तेणं अद्धाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं, अम्मुग्गयमूसिय एवं सपरिवारो पासार्वाड सगो भाणियवो' मा प्रासाहवतांसह या भांप योजन भेटो छे. २५० येोन भेटलो मेन। विष्ठल४ छे. 'अभुगाय' वगेरे होते अत्रे संग्रह थये है. ये यह प्रासादावત'સદના વિશેષણુ રૂપમાં પ્રયુક્ત થયેલાં છે. એ પદ્યના ભાવાથ રાજપ્રશ્નીય સૂત્રમાંથી
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प्रकाशिका टीका-तुर्थवक्षस्कार: सु. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम्
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सुबोधिनी टीकातः सार्थोऽवसेयः, 'एवं' एवम् अनेन प्रकारेण 'सपरिवारो' सपरिवारः मुख्यामनगौणासनरूपपरिवारसहितः 'पासायवडिसओ' प्रासादावतंसकः 'भाणियच्चो' भणितव्यः वक्तव्यः अथ प्रदक्षिणक्रमेण वर्तमानावशिष्टकोणगत पुष्करिण्यादि प्ररूपयितुमाह'मंदरस्स णं' मन्दरस्य गेरोः सउ ' एवं ' एवम् उक्तरीत्या - भद्रशालवनं पञ्चाशतं योजनान्यव'गा 'दारिस्थिमेणं' दक्षिणपौरस्त्येन-अग्निकोणे ' पुक्खरिणीओ' पुष्करिण्यः चतस्रः प्रज्ञप्ताः, ताथ पूर्वक्रमेणेमाः 'उप्पलगुम्मा' उत्पलगुल्मा १ 'गलिणा' नलिना २ ' उप्पला' उत्पचा ३ ‘उप्पलुज्जला' उत्पलोज्ज्वला ४ इति, 'तं 'चेन' तदेव ईशानकोणगतप्रासादप्रमाणमेन एतासामपि पुष्करिणीनां मध्यवर्तिप्रासादस्य 'पमाणं' प्रमाणम् एतदग्निकोणगत पुष्करिणीनां 'मज्झे' मध्ये 'पासायच डिसओ' प्रासादावतंसकः 'सकस' शक्रस्य - शक्रेन्द्रस्य 'सपरिवारों' सपरिवारः परिवारसहितो वव्यः, स च प्राग्वत् 'तेणं चेव' तेनैव - पूर्वोक्तेनैव 'पमाणेणं' प्रमाणेन वाच्यः 'दाहिणपच्चत्थिमेण वि' दक्षिणपश्चिमेनापि नैर्ऋत्यकोणेऽपि 'पुक्खरिणीओ' पुष्करिण्यः चतस्रः प्रज्ञप्ताः, ताथ 'भिंगा' भृङ्गा १ 'भिंगनिभा' भृङ्गनिभा २ 'चेव' चैत्र 'अंजणा' अञ्जना ३ 'अंजणप्पा' अञ्जनप्रभा ४ इति । एतन्नैर्ऋत्यकोणवर्तिसणं एवं दाहिमपुरत्थिमेणं पुनरिणीओ उप्पलगुम्माणलिणा उप्पला उप्पलुजला तंचेच पमाणं मज्झे पासायवर्डिसओ सक्करस सपरिवारो) इसी प्रकार मन्दर मेरुके भद्रशाल वन के भीतर ५० योजन जानेपर आग्नेयकोण में चार पुष्करणियां हैं उनके नाम इस प्रकार से हैं उत्पलगुल्मा १, नलिना २ उत्पला ३ और उत्पलोज्ज्वला ४ इन पुष्करिणियों के भी ठीक मध्य भाग में एक प्रासादांव"तंसक है इसका भी यहां पर प्रमाण ईशान कोणगत प्रासादावतंसक के जितना ही है यह देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र का है यहां पर शक्रेन्द्र अपने परिवार सहित रहता है ऐसा वर्णन इसका भी कर लेना चाहिये (ते णं चैव पमाणेणं दाहिणपस्चस्थिमेणवि पुन्नखरिणीओ भिंगा, भिंगनिभा चेव, अंजणा अंजणप्पभा पासायवर्डिसओ सक्कस्स सीहासणं सपरिवारं ) इसी प्रकार से नैर्ऋतकोण में
સમજી લેવા જોઇએ, પ્રાસ દાવ તસકનું વર્ણન મુખ્યાસન અને ગૌણાસન રૂપ પરિવાર સહિત पुरी सेवु लेागो. 'मंदरस्स णं एवं दाहिणपुरत्थिमेण पुनखरिणीओ उप्पलगुम्मा णलिंगा उप्पला उप्पलुज्जला तं चेत्र पमाणं मज्झे पासायवडिसओ सक्करस सपरिवारो' मा प्रभा જ મન્દર મેરુના ભદ્રશાલવનની અંદર ૫૦ ચાજ ગયા પછી આગ્નેય કોણમાં ચાર પુષ્ક रियो छे. तेभना नाभो या अभाये छे-त्यसमुहमा - १, नसिना -२, बत्यक्षा-3, भने ઉત્પલેાજજવલા ૪. એ પુષ્કરિણીઓના પણ ઠીક મધ્યભાગમાં એક પ્રાસાદાવત સક છે. એનુ પ્રમાણ પણ ઈશાન કાણુગત પ્રાસ દાવત સક જેટલું જ છે. પસાદાવતસક દેવેન્દ્ર દેવરાજને * છે. અહી શકેન્દ્ર પોતાના પરિવાર સાથે રહે છે. ન એનું પણ કરી લેવુ જોઈએ
'ते चेव पमाणेणं दाहिणपच्चत्थिमेण वि क्खरि
भिंगनिभा चेव
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र पुष्करिणी बहुमध्यदेशभागवर्ती 'पासायडिंसओ' प्रासादावतंसकः 'सकस' शक्रस्यशक्रेन्द्रस्य शक्रेन्द्राधिष्ठितोऽयमितिभावः, तत्प्रासादावतंसकवति 'सीमासणं' सिंहासन 'सपरिवार' सपरिवार-भद्रासनादि परिवारसहितं पूर्ववदेवात्रापि वक्तव्यम्, तथा 'उत्तरपच्चस्थिमेणं' उत्तरपश्चिमेन वायव्यकोणे 'पुक्खरिणीओ' पुष्करिण्यः 'सिरिकता श्रीकान्ता १ 'सिरिचंदा' श्रीचन्द्रा २ 'सिरिमहिया' श्रीमहिता ३ 'चेव' चैत्र 'सिरिणिलया' श्रीनिलया ४ एतत्पुष्करिणी बहुमध्यदेशभागवर्ती 'पासायडिंसओ' प्रासादावतंसकः 'ईसाणस्स' ईशानस्य-ईशानेन्द्रस्य तत्प्रासादमध्यवर्ति 'सीहासणं' सिंहासनं 'सपरिवारं' सपरिवारंभद्रासनादि परिवारसहितं वक्तव्यमिति । अधुनाऽस्मिन्नेव भद्रशालवने दिग्धस्तिकूटानि वर्णयितुमुपक्रमते-'मंदरे णं' इत्यादि-मन्दरे-मेरो खलु 'भंते !' भदन्त ! 'पन्नए' पर्वते 'भद्दसालवणे' भद्रशालवने 'कइ' कति कियन्ति 'दिसाहन्थिकूडा' दिगृहस्तिकूटानि 'पण्णता?' भी चार पुष्करिणियां है उनके नाम इस प्रकार से हैं-भृङ्गा, भृङ्गनिभा, अंजना और अञ्जनप्रभा इन पुष्करिणियों के ठीक मध्यभाग में प्रासादावतंसक है यह भासादावतंसक भी शकेन्द्र से अधिष्ठित है इस प्रासादावनंसक का मध्यवतां सिंहासन भी पूर्व की तरह अपने परिवारभूत अन्य सिंहासनों से परिवेष्टित है (उत्तरपुरस्थिमेणं पुक्खरिणिओ) इसी प्रकार वायव्यकोण में भी पुक्खरिणियां हैं उनके नाम (सिरिकता, सिरिचंदा, सिरीमहिया चेव सिरिणिलया) श्री कान्ता, श्रीचन्द्रा, श्री महिता, और श्रीनिलया है (पासायवडिसओ ईसाणस्स सीहासणं सपरिवारं) इनके मध्यभाग में भी प्रासादावतंसक कहे गये हैं यह प्रासादावतंसक ईशानेन्द्रका है इस प्रासादावतलक का मध्यवर्ती सिंहासन भीअपनेअपने परिवारभूत सिंहासनों के साथ वर्णित कर लेना चाहिये (मंद्रेणंभंते !पचए भद्दसालवणे कइ दिसाहत्थिकूडा पण्णत्ता हे भदन्त ! इस मन्दरपर्वतवर्ती अंजणापभा पासायवडिंसओ सक्कस्स सीहासणं सपरिवार' मा प्रभारी नैऋत्य शुभां पर ચાર પુષ્કરિણીઓ છે. તેમના નામે આ પ્રમાણે છે–ભંગા-૧, ભંગનિભા-૨, અંજના ૩, અને અંજનપ્રભા ૪. આ પુષ્કરિણીઓના ઠીક મધ્યભાગમાં પ્રાસાદાવંતસિક છે. આ પ્રાસાદાવંતસક પણ શકેન્દ્ર વડે અધિષ્ઠિત છે. આ પ્રાસાદાવતંસક મધ્યવતીર સિંહાસન પણ पडसानी रेभ याताना परिवार भूत अन्य सिलासनाथी परिवटित छ 'उत्तरपुरस्थिજે પુરવાળો આ પ્રમાણે વાયવ્ય કોણમાં પણ પુષ્કરિણીઓ છે. તેમના નામે આ प्रभारी -'सिरिकता, सिरिचंदा, सिरिमहिया चेव सिरिणिलया' श्री u-al, श्री यन्द्रा, श्री . मलिता मन श्री निसया. 'पासायवडिसओ ईसाणस सीहसणं सपरिवारं' अमना मध्य ભાગમાં પણ પ્રાસાદાવતંસક આવેલા છે. એ પ્રસાદાવંતસક ઈશાનેન્દ્ર છે. આ પ્રાસા દાવ તસકનું મધ્યવર્તી સિંહાસન પણ પિત–પિતાના પરિવાર ભૂત સિંહાસની સાથે વર્ણિત ४शस मे. 'मंदरेणं भंते ! पव्वए भद्दसालवणे कइ दिसाहत्थि कूडा पण्णत्ता 3 rd! આ મંદર પર્વતની ભદ્રશાલ વનમાં કેટલા દિહસ્તિ ફૂટ આવેલા છે? અ ફૂટે ઈશાન
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् प्रज्ञसानि ?, 'गोयमा !' गौतम ! 'अट्ट' अष्ट 'दिसाहस्थिकूडा' दिगृहस्तिकूटानि दिक्षु ऐशान्यादिषु विदिगादिषु हस्तिकूटानि हस्त्याज्ञाराणि कूटानि 'एण्णमा' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा 'पउमुत्तरे' पद्मोत्तरः १, 'णीलवंते' नीलवान् २, 'मुहत्थी' मुहस्ती ३, 'अंजणगिरी' अजुनगिरिः, अनाञ्जनशब्दस्य 'वनगिर्योः संज्ञायां कोटरकि' शुलकादीनाम् । ६३३११७॥ इति पाणिनीयसूत्रेण दीर्घः ४, 'कुमुदे य' कुमुदश्च ५, 'पलासे य' पलाशश्च ६, 'वडिंसे' वतंसः ७, 'रोयणागिरी' रोचनागिरिः क्वचिद् रोहणागिरिः पठ्यते अत्रापि उपरितनसूत्रेणेव दीर्घः ८॥१॥ अयैपां कूटानां दिशी व्यवस्थापयितुपुरक्रमते-'कहिणं मंते !' इत्यादि-क खलु भदन्त ! 'मंदरे पन्नए' मन्दरे पर्वते, 'भदसालवणे' भद्रशालवने 'पउमुत्तरे' पद्मोतरः पझोतरं 'णाम नाम प्रसिद्धं 'दिसाहस्तिकूडे' दिग्रहस्तिङ्कटं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् कथितम् ? 'गोयमा !' गौतम ! 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्त पर्वतस्य 'उत्तरपुर त्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन-ईशानकोणे 'पुरस्थिमिल्लाए' पौरस्त्या :-पूर्व दिग्वतिन्याः भद्रशाल वन में कितने दिग्रहस्ति कूट कहे गये हैं। ये कूट ईशान आदि विदिशाओं में एवं पूर्वादि दिशाओ में होते हैं और आकार इसका हस्ति का जैसा होता है इस कारण इनको हस्तियूट कहा गया है उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा! अह दिसाहस्थि कूडा पण्णत्ता) हे गौतम! आठ विग्रहस्निकूट कहे गये हैं (तं जहा) जो इस प्रकारसे है (पउमुत्तरेणीलवंते२ तुहत्थि३, अंजणागिरि४, कुसुदेअ५ पलासे६, वडिसे७, रोयणागिरि ॥८) पद्मोत्तर, नीलयान २ सुहस्ति३, अंजनगिरि४, कुमुद्र, पलाश, दतंल और रोचनागिरि या रोहणागिरि८ (कहिणं भंते ! मन्दरे पवए भदसालपणे पउमुत्तरेणाम दिसाहत्थिकूडे पण्णत्त) हे भदन्त ! मन्दर पर्वत पर वर्तमान भद्रशाल वन में पद्मोत्तर नामका दिन हस्तिकूट कहां पर कहा गया है? उत्तर मे प्रभु कहते है (गोयमा ! मंदस्स पवस्स उत्तरपुरथिमेणं पुरथिमिल्लाए सीयाए उत्तरेणं एत्थणं पउमुत्तरे णामं दिशाहत्थि कूडे पण्णत्ते) हे गौतम ! વગેરે વિદિશાઓમાં તેમજ પૂર્વાદિ દિશાઓમાં હોય છે. અને આકાર એમને હસ્તિક જેવો હોય છે. એથી જ એ હસ્તિકૂટ કહેવામાં આવ્યા છે જવાબમાં પ્રભુ કહે છે'गोयमा ! अट दिसाहस्थिकूडा पण्णत्ता गौतम ! 8 स्तिकूट। ४पामा भाव छ. 'तं जहाँ ते । प्रभारी छ-'१ पउमुत्तरे २० णीलवंते ३, सुहल्थि ४, अंजणागिरि ५, कुमु. देअ ६, पलासे अ ७, दडिसे ८, रोयणागिरि ९ ॥१॥ ' पोत्त२-१, नीसवान-२, सुस्त 3, मनजि२-४, भु-५, ५८-६, पतस-७, मन शयन २७ . 'कहिणं भंते ! मंदरे पव्वए भदसालवणे पउमुत्तरे णाम दिसाहत्थिकूडे पण्णत्ते' मत ! મંદર પર્વત ઉપર વર્તમાન ભદ્રશાલવનમાં પ ત્તર નામક દિગ્રહસ્તિ ફૂટ કાયા સ્થળે भाव छ ? उत्तरमा प्रमुडे -'गोरमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरथिमेणं पुरस्थिमिल्लाए सीयाए उत्तरेणं एत्थणं पउमुत्तरे णाम दिसाहत्थिकूडे पण्णत्ते' 3 गौतम! महर
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 'सोयाए' शीवाया मदानद्याः 'उत्तरेणं' उत्तरेणं-उत्तरदिशि 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खल्लु 'पउनुत्तरे' पयोत्तरः-पद्मोत्तरनामकं 'णाम' नाम प्रसिद्धं 'दिसाहस्तिकूडे' दिग्दस्तिकूट 'पण्णते' प्रज्ञतम् तच्च 'पंचजोयणसयाई पंच योजनशतानि 'उद्धं उच्चत्तेणं उर्ध्वपुच्चत्वेन पंचगाउयसयाई' पञ्चगव्यूदशतानि 'उ-वेहेणं' उद्वेधेन-भूमिप्रवेशेन 'एवं' एवम् उच्चत्वादिवत् 'विक्खंभपरिक्खेवो' विष्कम्भपरिक्षेपः विष्कम्भपरिक्षेपः विष्कम्मो विस्तारस्तत्सहितः परिक्षेपः परिधिः 'भाणियचो' भणितव्यः वक्तव्यः, तथाहि स्ले पञ्चयोजनशतानि मध्ये योजनानां शतत्रयम् पञ्चसप्तत्यधिकम् उपरि अर्द्धतीयानि योजनशतानीत्येवरूपो विष्कम्भा, परिक्षेपश्च-मूले पञ्चदशयोजनशतानि एकाशीत्यधिकानि, मध्ये एकादशयोजनशतानि पडशीत्यधिकानि किश्चिदनानि उपरि किञ्चिन्न्यूनानि एकनवत्यथिकानि सप्त योजनशतानि इत्येवं रूपः 'चुल्लदिमवंतसरिसो' क्षुद्रहिमवत्सदृशो वक्तव्यः (पासायाण य) प्रासादानां च मन्दर पर्वत की उत्तरदिशा और पूर्वदिशा के अन्तराल में-इशान कोणमें पद्मोत्तरं नामका दिग्हस्निकूट कहा गया है (पच जोयणलयाई उद्धं उच्चत्तर्ण पंच गाउयसयाई उन्हेष एवं विक्खंभपरिक्खेवो भाणिश्वो चुल्ल हिमवंतसरिसो) यह कूट पांचसो योजन की ऊंचाई वाला है तथा जमील के भीतर यह पांचसौ कोश तक नीचे गया है अर्थातूं जमीन के भीतर इलकी नीव ५०० कोशतक गहरी गई हुई है विष्कम्भ और परिक्षेप इसका इस प्रकार से है मूलमें इसका विष्कम्भ ५०० पांचसो योजन का है मध्यमे इसका विस्तार ३०० तीनसो ७५ योजन का है और ऊपर में इसका विस्तार २५० योजन का है भूल में इसका परिक्षेप १५८१ सौ योजन का है मध्यमें इसका परिक्षेप कुछकम ११८६ योजन का है और ऊपर में इसका परिक्षेप कुछ कम ७९१ योजन का है। इस तरह यह कूट क्षुद्र हिमवान् पर्वत के जैसा है (पालायाण य तं चेष) जो प्रमाण क्षुद्र हीमवत् પર્વતની ઉત્તર દિશા અને પૂર્વ દિશાના અંતરાલમાં-ઈશાન કોણમાં તેમજ પૂર્વ દિગ્વતી शीता भी नहीनी उत्तर शाम पहभे त२ नाम ElEd ट मास छ 'पच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पंच गाउयसयाइं उन्हेणं एवं विक्खंभपरिक्खेयो भाणियब्बो चुल्लहिमવંતરિસો આ ફૂટ પાંચસો એજન જેટલી ઊંચાઈવાળો છે તેમજ જમીનની અંદર પણ પાંચસે ગાઉ સુધી નીચે ગયેલે છે. એટલે કે જમીનની અંદર એની નીમ ૫૦૦ ગાઉ જેટલી ઉંડી છે. એના વિભ–પરિક્ષેપે આ પ્રમાણે છે. મૂલમાં એને વિષ્ઠભ ૫૦૦
જન જેટલું છે મધ્યમાં એને વિસ્તાર ૩૭૫ પેજન જેટલું છે અને ઉપર એને વિસ્તાર ૨૫૦ એજન જેટલું છે એ પરિક્ષેપ ૧૫૮ જન જેટલો છે. મધ્યમાં એને પરિક્ષેપ કંઈક કમ ૧૧૮૬ જનને છે, અને ઉપર તેને પરિક્ષેપ ૭૯૧ જન જેટલો છે. આ प्रमाणे या छूट क्षुद्र लिभपान पति छ. 'पासायाणय तं चेवरेटप्रभा क्षुद्राभવત ફૂટપતિના પ્રાસાદ માટે કહેવામાં આવેલું છે, તેટલું જ પ્રમાણુ આની ઉપર આવેલા
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थयक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम्
४४७. 'तं चेव' तदेव प्रमाणम् वोध्यं यत् क्षुद्रहिमवत्कूटाधिपप्रासादस्य, अत्र बहुत्वेन निर्देशो वक्ष्यमाण दिग्रहस्तिकूटपति प्रासादेष्वपि प्रमाणसाम्यसूचनार्थः, पद्मोत्तरस्याधिपतिमाह'पउमुत्तरो देवो' पद्मोत्तरः पद्मोत्तर नामको देवः तदधिपतिरस्तीति शेपः, अस्य देवस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तपुरस्थिमेणं उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणे तद्वति कूटाधिपत्वादिति १, अथ शेषकूटानि प्रदक्षिणक्रमेण वर्णयितुमतिदिशति-'एवं गीलवंतदिसाहस्थिकूढे' इत्यादि एवम् उक्तप्रकारेण नीलबदिग्हस्तिकूटं 'मदरस्स' मन्दरस्य 'दाहिणपुरस्थिमेणं' दक्षिणपौरस्त्येन-अग्निकोणे 'पुरथिमिल्लाए' पौरस्त्यायाः 'सीयाए' शीताया महानद्याः 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि बोध्यम्, 'एयस्स वि' एतस्यापि नीलवन्नामकस्यापि कूटस्य गीलवंतो देवो' नीलवान् देवः अधिपतिः, अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'दाहिणपुरस्थिमेणं' दक्षिणपौरस्त्येन अग्निकोणे अस्तीति शेपः २, ‘एवं' एवम् उक्तकूटवत् 'मुहत्थि दिसाहस्थिडे' सुदृस्तिदिग्हस्तिकूटं 'मंदरस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य (दाहिणपुरस्थिमेणं) दक्षिण. कूटपति के प्रासाद का कहा गया है वही उसके ऊपर रहे हुए देव प्रासादों का कहा गया है। यहाँ बहुवचन का निर्देश वक्ष्यमाणदिग्हस्ति कूटपति प्रासादों को लेकर किया गया है अतः उन सबके प्रमाण भी क्षुद्र हिमवत् कूट के अधिपति के प्रासाद के जैसा ही है ऐसा प्रकट किया गया जानना चाहिये (पउमुत्तरी देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं) इस पद्मोत्तर दिग्दस्तिकूट का अधिपति पद्मोत्तर नामका देव है इसकी राजधानी ईशानकोणमे है । (एवं णीलवंत दिसाहत्थिडे मंदरस्स दाहिणपुरस्थेिमेणं पुरथिमिल्लाए सीयाए दक्खिणेणं एयरस चिणीलबंतो देवो रायहाणी दाहिणपुरस्थिमेणं) इसी प्रकार नीलवन्तदिग्हस्ति कूट नन्दर पर्वत के अग्निकोण में तथा पूर्व दिग्वर्ती सीता महानदी की दक्षिणदिशा में है इस नीलबन्न नामक दिग्हस्ति कूटका अधिपति इसी नामका है इसकी राजधानी इस दिग्हरितकूट के आग्नेयकोण में है। (एवं सुहथिदिसाहत्थिकूडे अंदरस्व दाहिणपुरस्थिमेणं दक्विणिल्लाए सीओआए पुरथिमेणं દેવ પ્રાસાદે એ પણ જાણવું. અહીં બહુવચન કથન વયમાણ દિતિકૃવતી પ્રાસાદોને લઈને કરવામાં આવેલું છે. એથી તે બધાનું પ્રમાણ પણ ક્ષુદ્રહિમવત ફૂટના અધિપતિના प्रसाई र छ, मे ती येवु नये. 'पउमुनरो देवो रायहाणी उत्तरपुरत्थि ' આ પત્તર દિગહસ્તિ ફૂટને અધિપતિ પત્તર નામક દેવ છે. એની રાજધાની शान भी मावसी . 'एवं णीलवंतदिसाहस्थिकूडे मंदरा दाहिणपुरस्थिमेणं पुरथिमिल्लाए सीयोए दवित्रणेणं एयस्स वि णीलवंतो देवो रायहाणी-दाहिणपुरस्थिमेणं' मा પ્રમાણે જ નીલવન્ત દિગ્દસ્તિ ફૂટ મન્દર પર્વતના અગ્નિકેશુમાં તેમજ પૂર્વ દિગ્વતી સીતા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં આવેલ છે. આ નીલવન્ત નામક દિહસ્તિ ફટને અધિ પતિ એ જ નામને છે. એની રાજધાની આ હિસ્તિ કૂટના भासी
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जम्बूद्वीपप्रहसिस्त्र पौरस्त्येन अग्निकोणे 'दक्खिणिल्लाए' दाक्षिणात्यायाः दक्षिणदिग्वतिन्याः सीओयाए शीतोदायाः 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि अस्तीति शेषः 'एयस्स वि' एतस्यापि मुहस्थिनामकस्यापि कूटस्य 'सुहत्थी' सुहस्ति नामका 'देवो' देवः अधिपतिः अस्तीति शेषः, अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'दाहिणपुरथिमेणं' दक्षिणपौरस्त्येन-अग्निकोणे अग्निकोणवर्तिकूटाधिपतित्वात् ३, 'एवंचेव' एवमेव उक्तप्रकारेणैव 'अंजणागिरिदिसाहत्यिकूडे' अञ्जनागिरिदिग्हस्टिकूट 'मंदरस्स' मन्दरस्य मेरोः पर्वतस्य 'दाहिणपच्चत्थिमेणं' दक्षिणपश्चिमेन नैऋत्यकोणे 'दक्खिणिल्लाए' दाक्षिणात्याः दक्षिणाभिमुखं वहन्त्याः 'सीओयाए' शीतोदायाः महानद्याः 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि अस्तीति शेषा, 'एएस्स वि' 'एतस्स वि' एतस्यापि कूटस्य अंजनागिरीदेवो अञ्जनागिरि नाम देवः अधिपोऽस्ति, अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'दाहिणपस्थिमेगं' दक्षिणपश्चिमेन नैत्यकोणेऽस्ति ४, 'एच' एवम् अनेन प्रकारेण 'कुमुदे वि दिसाहस्थिडे' कुमुदः कुमुदा विदिग्दस्तिकूटं 'मंदरस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'दाहिणपच्चत्थियेणं' दक्षिणपश्चिमेन नैत्यकोणे 'पञ्चथिमिल्लाए' पाश्चिमात्यायाः-पश्चिमाभिमुखं वहन्त्याः 'सीओयाए' शीतोदाया महानद्याः 'दक्खिणेणं' दक्षिणेनएयस्स विसुहत्थि देवो रायहाणी दाहिणपुरथिमेणं) सुहस्ती नामका दिग्हस्तिकूट भी मन्दर पर्वत की आग्नेय विदिशा में हैं तथा दक्षिण दिगवर्ती सीतोदानदी की पूर्व दिशा में है इस कूटका भी अधिपति सुहस्ती नामका देव है और इसकी राजधानी आग्नेयकोण में है (एवंचेच अंजणागिरि दिसाहथिकूडे मंदस्स दाहिणपच्चस्थिमेणं दक्खिणिल्लाए सीयोयाए पच्चत्थिमेग एयस्स वि अंजणगिरि देवो रायहाणी दाहिणपच्चत्थिमेग) अंजनगिरि नामका जो दिहस्तिकूट है वह मन्दर पर्वत की नैऋतविदिशा में है तथा दक्षिण की ओर बहती हुई सीतोदा महानदी की पश्चिमदिशा में है इस कूट पर इसी नामका देव रहता है इसकी राजधानी इसी कूट के नैर्ऋतकोने में है । (एवं कुमुदे विदिसाहथिकूडे मंदुरस्त दाहिणपच्चत्थिमेणं पच्चस्थिमिल्लाए सीओआए दक्खिणेणं) कुमुद छ. 'एवं सुहत्थि दिसाहन्थिकूडे मंदरस्स दाहिणपुरथिमेणं दक्खिणिल्लाए सीओआए पुरत्थिमेणं एयस्त वि सुहत्थिदेवो रायहाणी दाहिणपुरथिमेणं' सुस्ति नाम हस्तिदूट પણ મંદર પર્વતની અનેક વિદિશામાં આવેલ છે તથા દક્ષિણ દિગ્ગત સતેદા નદીની પૂર્વ દિશામાં આવેલ છે. આ ફૂટને અધિપતિ પણ સુહસ્તી નામક દેવ છે અને એની
Rधानी मानेय शुभ मावेली . 'एव चेव अंजणागिरि दिसाहत्थिकूडे मंदरस्स दाहिणपुरस्थिमेणं' अनगिरि नामे sled टूट छे. ते भन्४२ पतनी नैऋत्य दिशामा छ તથા દક્ષિણ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી સીતેરા નામની મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં છે એ કટ ઉપર એજ નામને દેવ રહે છે એની રાજધાની એજ કૂટના નિત્ય કેણમાં આવેલી छ. 'एवं कुमुदे विदिसाइथिकूड़े मंदरस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमिल्लाए सीओआए
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् दक्षिणदिशि विद्या इति शेषः (एयस्सवि) एतस्यापि कूटस्य 'कुमुदो देवो' कुमुदो नामदेवःअधिपोऽस्ति अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'दाहिणपच्चरिथमेणं' दक्षिणपश्चिमेन-नैऋत्यकोणेऽस्ति ५, 'एवं' एवम् बनेन प्रकारेण 'पलासे' पलाश:-पलाशाभिधं 'विदिसाहत्थिकूडे' विदिग्हस्तिकूट 'मंदरस्स' मन्दरस्य 'उत्तरपच्चस्थिमेणं' उत्तरपश्चिमेन वायव्यकोणे 'पचस्थिमिल्लाए' पाश्चिमात्यायाः पश्चिमाभिमुखं वहन्त्याः 'सीयोयाए' शीतोदाया माहानघाः 'उत्तरेणं' उत्तरेण-'उत्तरदिशि अस्तीति शेषः 'एएस्स वि' एतस्यापि कूटस्य 'पलासे देवो' पलाशो नाम देव:-अधिपतिरस्तीति शेपः, अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरपच्चस्थिमेणं' उत्तरपश्चिमेन वायव्यकोणे अस्तीति शेषः ६, 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'वडे से' अवतंस:--अवतं. सोभिधं 'विदिसाहत्यिकूडे' विदिग्हस्तिकूटं 'मंदरस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरपच्चत्थिमेणं' उत्तरपश्चिमेन-वायव्यकोणे 'उत्तरिल्लाए' औत्तरायाः उत्तराभिमुखं वहन्त्याः 'सीयाए' शीतायाः 'महाणईए' महानद्याः पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि विद्यत इति शेषः, 'एयस्स नामका जो दिग्हस्निकूट है वह मन्दर पर्वत की नैर्ऋतकोण में है तथा पश्चिमदिशा की ओर वहती हुई शीतोदा महानदी की दक्षिणदिशा में है (एयस्स वि कुमुदो देवो रायहाणी दाहिणपच्चत्थिमेणं) इस कूट के अधिपति का नाम कुमुद है और यह देव है इसकी राजधानी इस कूट की नैर्ऋतरूप विदिशा में है (एवं पलाले विदिसाहत्थिकूडे मंदरस्स उत्तरपच्चत्थियेणं पच्चस्थिमिल्लाए .सीओआए उत्तरेणं एयत्स वि पलासो देवो रायहाणी उत्तरपच्चत्थिमेणं) इसी तरह पलाश नामका जो दिग्हस्तिकूट है यह कूट भी मन्दर पर्वत की वायव्यकोणरूप विदिशा में हैं तथा पश्चिमदिशा की ओर बहनेवाली शीतोदा महानदी की उत्तर दिशा में है इस कटका देव इसी पलाश नामका है इसकी राजधानी वायव्यकोण में है
(एवं वडेंसे विदिसाहत्थिकडे मंदरस्त उत्तरपच्चत्थिमेणं उत्तरिल्लाए दक्खिणेणं' मुह नाम हस्ति छ त भन्४२ ५'तना नऋत्य क्षोभ मावत छ તથા પશ્ચિમ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી શીદા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં આવેલ છે. 'एयस्स वि कुमुदो देवो रायहाणी दाहिणपच्चत्थिमेणं' । टन मधिपतिनु नाम भुद्ध છે અને આ અધિપતિ દેવ છે. એની રાજધાની આ ફૂટના નિત્ય રૂપ દિશામાં આવેલી छ. 'एवं पलासे विदिसाहत्थिडे मंदरस्स उत्तरपच्चत्थिमेण पञ्चस्थिमिल्लाए सीओआए उत्तरेण एयस्स वि पलासो देवो रायहाणी उत्तरपच्चत्थिमेणं' मा प्रभारी २ लाश नाम: દિલ્ડસ્તિ ફૂટ છે, આ છૂટ પણ મન્દર પર્વતની વાયવ્ય-દેણ રૂપ વિદિશામાં આવેલ છે. તેમજ પશ્ચિમ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી શીદા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં આવેલ છે. આ ફૂટને દેવ પલાશ નામથી જ સુપ્રસિદ્ધ છે અને એની રાજધાની વાયવ્ય કે શુમાં આવેલી છે. ___ 'एवं वडेंसे विदिसाहत्थिकूडे मंदरस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं उत्तरिल्लाए सीयाए महाण जे. ५७
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जम्बूद्वीप प्रतिसूत्र वि' एतस्यापि कूटस्य 'वढे सो देवो' अवतंसो नाम देना अधिपतिरस्तीति शेपः, अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरपच्चस्थिमेणं' उत्तरपश्चिगेन-चायव्यसोणे अस्तीति शेषः ७, 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'रोयणागिरी' रोचनागिरिः एतन्नामक 'दिसाहन्थिकूडे' दिग्हस्तिकूट मंदरस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरपुरथिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन-ईशानकोणे 'उत्तरिल्लाए' औतराद्याः उत्तराभिमुखं वहन्त्याः 'सीपाए' शीताण. महानद्याः 'पुरस्थियेणं' पौरस्त्येनपूर्वदिशि विद्यत इति शेपः 'एयरस वि' एतस्यापि कूटस्य ‘रोयणागिरी देवो' रोचनागिरिनाम देवः अधिपतिरस्ति अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तर पुरस्थिगेर्ण' उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणे वर्तत इति शेपः ८॥ सू०३६ ॥
अथ नन्दनवनं वर्णयितुगुपक्रमते-कहिणं भंते ! मंदरे' इत्यादि ।
मूलम्-कहि णं भंते ! मंदरे पनाए गंदणवणे णामं वणे पण्णत्ते?, गोयमा ! सहसालवणस्त बहुसमरमाणिजाओ भूमिभागाओ पंचजोयणसयाई उद्धं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे पदए णंदणरणे णानं वणे पग्णत्ते पंच जोयणसयाई चलवालविक्खंभेणं बटे वलयाकारलंठाणसंठिए जे 'णं संदरं पध्वयं सव्वओ समंता संपरिनिखत्ताणं चिट्ठइति णवजोयणसीयाए महाणईए पच्चत्थिमेणं एयरा पि दउँसो देवो रायहाणी उत्तरपच्चस्थिमेणं) वतंस नामका जो दिरहस्तिकूट है वह मन्दर पर्वन की वायपविदिशा में है तथा उत्तरदिशा की ओर बहनेवाली सीता महानदी की पश्चिम दिशा में है 'इस कूट के अधिपति देवका नाम बतंग है इसकी राजधानी बायव्यकोण में है '(एवं रोअणागिरि दिला हथिकूडे संदरस्न उत्तरपुरथिमेणं, उत्तरिल्लाए सीआए पुरथिमेणं एयस्स वि रोयणागिरि देवो रायहाणी उत्तर पुरथिमेणं) रोचनागिरि नामका जो दिग्हस्तिकूट है वह मन्दर पर्वत की ईशान विदिशा में है तथा उत्तरदिशा की ओर बहती हुई सीलानदी की पूर्वदिशा में इस कूट के अधिपति का नाम रोचनागिरि है इसकी राजधानी ईशानकोण में है ॥३६॥ ईए पच्चत्थिमेणं एयस्स वि वडेसो देवो रायहाणी उत्तरपच्चस्थिम पतस नामહસ્તિ ફૂટ છે તે મંદર પર્વતની વાયવ્ય-વિદિશામાં આવેલ છે તેમજ ઉત્તર દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી સીતા મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં છે. આ ફૂટના અધિપતિ દેવનું નામ વતંસ छ. मेनी सयानी वायभा मावेसी छ. “एवं रोअणागिरि दिसाहथिकूडे मंदरस उत्तरपुत्थिमेणं उत्तरिल्लाए सीआए पुरस्थिमेणं एयस्स वि रोयणगिरि देवो रायहाणी उचर पुरथिमेणं शयनागिरि नाम४२Eafed ट छ, त भन्४२ पतनी शान विशमi આવેલ છે તથા ઉત્તર દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી સીતા ગાદીની પૂર્વ દિશામાં આવેલ છે. આ ફૂટના અધિપતિનું નામ રચનાગિરિ છે. એની રાજધાની ઈશાન કેણમાં આવેલી છે. સૂત્ર ૩
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थ वक्षस्कारः सूं. ३७ नन्दनवनस्वरूपवर्णनम्
છેલછે.
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सहरुलाई व य उप्पण्णे जोयणसए छच्चेगारसभाए जोयणस्स बाहिं गिरिविभो एनदीसं जोयणलहस्साइ चत्तारि य अउणासीए जोयणसर किंचिविसाहिए वाहिं गिरिपरिरएणं अट्ट जोयणसहरुलाई णव य चउप्परणे जोपणसए छच्चेगारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविक्यो अट्ठावीस जोगणसहस्साइं तिपिन य सोलसुत्तरे जोयणसए अटू य इकारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिपरिरए से णं एगाए पड narasure एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते वण्णओ जात्र देव आलयंति, मंदररूप णं पव्दयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं महं एगे सिद्धायपणे पण्णत्ते, एवं चउद्दिसिं चत्तारि सिद्धाययणा विदिसासु पुक्खरिणीओ तं चैव पमाणं सिद्धाययणाणं पुक्खरिणीणं च पासायद डिंसगा तहचैत्र सक्केसाणाणं तेणं चेव पमाणेणं, णंदणवणं भंते । कद कूडा पण्णत्ता ? गोयना ! णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा-दणदणकूडे मंदरकूडे २ णिसहकूडे ३ हिमत्रयकूडे ४ रययकूडे ५ रुयगकूडे६ सागरचित्तकूडे७ वइरकूडेट बलकूडे ९ । कहि णं भंते! दणवणे णंदणवणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते'. गोयमा | मंदरस्स पव्वयस्स : पुरात्थिनिल्ल सिद्वाययणस्स उत्तरेणं उत्तरपुर स्थिमिल्लस्स पासानवडेंसयस्स दक्खिणेणं, एत्थ णं णंदणवणे णंदणवणे णामं कूडे पण्णत्ते पंच सइया कूडा पुव्ववण्णिया भाणियव्वा, देवी मेहंकरा रायहाणी विदिसान ति१, एवाहिं चेत्र पुव्त्राभिलावेणं णेयव्वा, इमे कूडा इमाहिं दिसाहिं पुरथिमिल्लस्स भरणस्स दाहिणेणं दाहिणपुरत्थिमि. ल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं मंदरे कूडे मेहवई रायहाणी पुव्वेणं दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पुरत्थिमेणं दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पञ्चस्थिमेणं णिसहे कूडे सुमेहा देवी रायहाणी दक्खिणेणं३दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पञ्चत्थिमेणं दक्षिणरचरिथमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पुरस्थिमेणं हेमत्रए कूडे हेममालिणी देवी रायहाणी दक्खि
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जम्बूद्वीपप्रश्नप्तिस्त्र णेणं४, दक्खिणिल्लस्ल भवणस्त पञ्चस्थिमेणं दक्षिणपञ्चस्थिमिज्लस्स पासायवडेंसगस्त उत्तरेणं रयए कूडे सुऋच्छा देवी रायहाणी पचत्थिमेणं५, पञ्चथिमिल्लस्ल भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपञ्चस्थिमिल्लस्ल पासाय. वडेंसगस्स दक्षिणेनं रुयगे कूडे वच्छसित्ता देवी रायहाणी पचत्थि. मेणं उत्तरिल्लस्स भवणस्त पञ्चस्थिमेणं उत्तरपञ्चस्थिमिल्लस्स पासाय. वडेंसगस्स पुरथिमेणं सागरचित्ते कूडे वइरसेणा देवी रायहाणी उत्त रेणं७ उत्तरिल्लस्स भवणस्त पुरस्थिमेगं उत्तरपुरस्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पुरथिमेणं सागरचित्ते कडे वइसेणा देवी रायहागी उत्तरेणं७ उत्तरिल्लस्स भवणस्त पुरस्थिमेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायव.सगस्स पञ्चस्थिमेणं वइरकूडे बलाहया देवी रायहाणी उत्तरेणंतिद, कहिणं भंते ! गंदणवणे बलकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ?, गोयमा! मंदरस्स पचयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं णंदणवणे वलकडे णामं कुडे पण्णत्ते, एवं जं चेव हरिस्सहकूडस्ल पमाणं रायहाणी य तं चेव बलकूडस्स वि, णवरं बलो देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं ॥सू० ३७॥ ___ छाया-क खलु भदन्त ! मन्दरे पर्वते नन्दनवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! भद्रशालवनस्य बहुसमरमणीयाद् भूमिभागात् पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुत्पत्य अत्र खलु मन्दरे पर्वते नन्दनवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् पञ्च योजनशतानि चक्रवालविष्कम्भेण वृत्तं वलयाकारसंस्थानसंस्थितं यत् खलु मन्दरं पर्वतं सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्य खलु तिष्ठतीति नवगेजनसहस्राणि नव च चतुप्पञ्चाशानि योजनशतानि पट् चैकादशभागान् योजनस्य बहिगिरिविष्कम्भः एकत्रिशतं योजनसहस्राणि चत्वारि च ऊनाशीतानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि वहिगिरिरयेण अष्ट योजनसहस्राणि नव च चतुप्पञ्चाशानि योजनशतानि पट् चैकादशभागान् योजनस्य अन्तर्गिरिविष्कम्भः अष्टाविंशति योजनसहस्राणि त्रीणि च पोडशोत्तराणि योजनशतानि अष्ट च एकादशभागान् योजनस्य अन्तगिरिपरिरयेण, तत् खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्तम्, वर्णकः यावद् देवा आसते, मन्दरस्य खलु पर्वतस्य पौरस्त्येन अत्र खलु महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तम्, एवं चतुर्दिशि चत्वारि सिद्धायतनानि विदिक्षु पुष्करिण्यः तदेव प्रमाण सिद्धायतनानां पुष्करिणीनां च प्रासादावतंसकास्तथैव शक्रेशानयोः तेनैव प्रमाणेन, नन्दनवने खलु भदन्त ! कति कूटानि - प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! नव कटानि प्रज्ञतानि, तद्यथा-नन्दनवनकूटं १ मन्दरकूटं २ निषधकूट
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३७ नन्दनवनस्वरूपवर्णनम् ३ हिमव कूट ४ रजतकूटं ५ रुचककूट ६ सागरचित्रकूटं ७ वज्रकूटं ८ बलकूटम् ९ क्व खलु भदन्त ! नन्दनबने नन्दनस्नकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वनस्य पौरस्त्यसिद्धायतनस्य उत्तरेणं उत्तरपौरस्त्यस्य प्रासादावतंसकस्य दक्षिणेन, अत्र खलु नन्दनवने नन्दनवनं नाम कूटं प्रज्ञप्तं पञ्चशतिकानि कूटानि पूर्ववर्णितानि भणितव्यानि, देवी मेघङ्करा राजधानी विदिशीति १, एताभिरेव पूर्वाभिलापेन नेतव्यानि इमानि कूटानि आभिदिग्भिः पौरस्त्यस्य भवनस्य दक्षिणेन दक्षिणपौरस्त्यस्य प्रासादावतंसकस्य उत्तरेण मन्दरे कूटे मेघवती राजधानी पूर्वेण २, दाक्षिणात्यस्य भवनस्य पौरस्त्येन दक्षिणपौरस्त्यस्य प्रासादा. वतंसकस्य पश्चिमेन निषधे कूटे सुमेधा देवी राजधानी दक्षिणेन ३, दाक्षिणात्यस्य भवनस्य पश्चिमेन दक्षिणपश्चिमस्प प्रासादास्तरामस्य पौरस्त्येन हैमवते कूटे हेममालिनी देवी राजधानी दक्षिणेन ४, पाश्चात्यस्य भवनस्य दक्षिणेन दक्षिणपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्य उत्तरेण रजते कूटे सुवत्सा देवी राजधानी पश्चिमेन ५, पाश्चिमात्यस्य भवनस्य उत्तरेण उत्तरपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्य दक्षिणेन रुचके कूटे वत्समित्रा देवी राजधानी पश्चिमेन ६, औत्तराहस्य भवनस्य पश्चिमेन उत्तरपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्य पौरस्त्येन सागरचित्रे बूटे वज्रसेना देवी राजधानी उत्तरेण ७, भोत्तराहस्य भवनस्य पोरस्त्येन उत्तरपोरस्त्यस्य प्रासादावनसकस्य पश्चिमेन वज्रकूटे वलाहिका देवी राजधानी उत्तरेणेति ८, र खल भदन्त ! नन्दनवने बलकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्येन अत्र खलु नन्दनवने बलकूट नाम कूटं प्रज्ञप्तम्, एवं यदेव हरिस्सहकूटस्य प्रमाणं राजधानी च तदेव बलकूटस्यापि, नवरं बलो देवो राजधानी उत्तरपौरस्त्येनेति ॥सू० ३७॥ ____टीका-'कहि णं भंते !' इन्यादि-स्व खलु भदन्त ! 'मंदरे पव्वए' मन्दरे-मेरौ पर्वते "णंदणवणे णाम' नन्दनवनं नाम 'वणे' वनं 'पण्णसे ?' प्रज्ञप्तम् ?, इति प्रश्नस्योत्तरं भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'भहसालवणस्स' भद्रशालवनस्य 'बहुसमरमणिज्जाओ' बहुसम
नन्दवनवक्तव्यता 'कहिणं भंते ! मंदरे पन्धए गंदणवणे णामं वणे पण्णत्ते' इत्यादि
टीकार्थ-गौतम ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-(कहि णं भंते मंदरेपव्वए गंदणवणे णामं वणे'पण्णत्ते) हे भदन्त ! मंदर पर्वत में नन्दन वन नामका वन कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ! भद्दसाल. वणस्स बहुससरमणिज्जाओ भूमिभागाओ पंचजोयणसयाई उद्धं उप्पइत्ता
નંદનવન વક્તવ્યતા 'कहिणं भंते । मंदरे पव्वए णंदणवणे णामं वणे पण्णत्ते इत्यादि
राय:-गौतमस्वाभीमे प्रभुने मा सूत्र मेवी श२ प्रश्न या छ ? 'कहिणं भंते ! मंदरे पव्वए गंदणवणे णाम वणे पण्णत्ते' R ! मह२ ५ तमा न न नामे पन या स्थ मा छ १ मेना पाममा प्रभु छ-'गोयमा ! भद्दसालवणस्स बहुसमरमणि
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પૂવર્ણ
जम्बूद्वीपति
रमणीत् - अत्यन्तसमदलरमणीयात् 'भूमिभागाओ' भूमिभागात् 'पंनजोयणसयाई' पंच योजनशतानि 'उर्द्ध' ऊर्ध्वम् 'उप्पइत्ता' उत्पत्य गत्वा अग्रतो वर्धिष्णाविति गम्यम्, तस्य वक्ष्यमाणेन 'मंदरे पर्वते' इत्येनान्वयः 'एत्थ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खलु 'मंदरे पव्यए' मन्दरे पर्वते 'णंदणवणे णार्म' नन्दनवनं नाम 'वणे' वनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तं तच्च 'पंचजोयणसवाई' पश्च योजनशतानि 'चकवालविवखंभेणं' चक्रवालविष्कम्भेण चक्रवालशब्दोऽत्र समचक्रवालपरो विशेषस्य सामान्यान्तर्गतत्वात् तेन समचक्रवालं सममण्डलं तस्य यो विष्कम्भः स्वपरिधेः सर्वतः समप्रमाणत्वेन विस्तारस्तेन, अत्र समत्वविशेपणोपादानेन विपमत्वादि विशिष्ट चक्रवालविष्कम्भस्य व्यावृत्तिः, अत एव तद्वनं 'वट्टे' वृत्तं वर्तुलं तच्चायोगोलका - दिवद्धनमपि सम्भाव्येतेत्यत आह- 'वलयाकार संठाणसंठिए' वलयाकार संस्थानसंस्थितःचलयः कङ्कणं तच्च मध्यविवरयुतं भवति, तस्येव आकार :- स्वरूपं रिक्तमध्यत्वं यस्य संस्थानस्य तद् वलयाकारं तच्च तत् संस्थानं वलयाकार संस्थानं तेन संस्थितम् एतदेव स्पष्टीकरोति'जेणं' यत् खल 'मंदरं पत्र' मन्दरं पर्वतं 'सम्भो' सर्वतः सर्वदिक्षु 'समता' समन्तात् एत्थ मंदरे पर गंदणवणे णानं वणे पणान्ते) हे गौतम ! भद्रशालवन के बहु. समरमणीय भूमिभाग से पांचसौ योजन ऊपर जाने पर आगत ठीक इसी स्थान पर मन्दर पर्वत के ऊपर नन्दनवन नामका वन कहा गया है (पंचजोयणसयाईं चक्कवालचिक्खंभेणं वट्टे वलयाकार संठाणसंठिय) यह वन चक्रवाल विकम्भ की अपेक्षा पांचसौ योजन विस्तार वाला है चक्रवाल शब्द से यहां समचक्र घाल विवक्षित हुआ है समचक्रचाल का अर्थ सममंडल ऐसा होता है अपनी परीधि का जो बराबर का विस्तार है वही समचक्रवाल विष्कम्भ है । चिष्कंभ चक्रवालfasstभ की निवृत्ति के लिये यहाँ सनविशेषण का उपादान करलेना चाहिये इसी कारण इस बनको "वह" घृत गोल बतलाया गया है और इसी से इसका आकार जैसा वलय का होता है वैसा प्रकट किया गया है । (जे णं मंदरं पव्वयं ज्जाओ भूमिभागाओ पंच जोयणसयाई उर्दू उपपत्ता एत्थणं मंदरे पव्व णंदणवणे णामं घणे पण्णत्ते' हे गौतम! भद्रशास बनना महुसभन्भलीय अभि लाग्यो पायसेो येोन्न ઉપર જવા ખાદ્ય જે સ્થાન આવે છે, ઠીક તે સ્થાન ઉપર મર્દ્વાર પર્વાંતની ઉપર નંદનવન નામક वन यावे छे. 'पंच जोयणसया हूँ चक्कवालविक्खभेणं वट्टे वलचाकारसंठाणसंठिए' मा वन शुवास निष्छलनी अपेक्षा यांयसेो योजन भेटसु છે. ચક્રવાલ શબ્દથી અહી' સમચક્ર લ વિક્ષિત થયેલ છે. સમચક્રવાલના અર્થ સમ મડળ એવા થાય છે. પોતાની પરિધિને જે ખરાખર વિસ્તાર છે તેજ સમચક્રવાલ વિષ્ણુભ છે. વિષ્ણુભ ચક્રવાલ વિષ્ણુભની નિવૃત્તિ માટે અહીં સવિશેષણનું ઉપાદન કરી લેવુ જોઇએ. એ કારણથી જ એ વનને વટ્ટ એટલે કે વૃત્ત (ગાળ)મતાવળ માં આવેલ છે, અને એથી જ એના આકાર જેવા વલયના હૈાય છે, તેવેા જ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે.
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. २७ नन्दनवन स्वरूपवर्णनम्
४५५
सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ता' 'संपरिक्षिप्य - परिवेष्टध 'णं' खल 'चिट्ठ इति' तिष्ठतीति, अथ मन्दरस्य वहिर्विष्कम्भादिमानमाह - 'णव जोयणसहस्साई' इत्यादि - नव नवसंख्यानि योजन - सहस्राणि 'णव य' नव च 'चउप्पण्णे' चतुष्पश्चशानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि 'जोयणसए' योज 'नशतानि 'छच्चेगारसभाए' षट् चैकादशभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'बाहि' बहिः बहिः प्रदेशे 'गिरिविवखंभो' गिरिविष्कम्भः गिरिः मन्दरस्य पर्वतस्य विष्कम्भः विस्तारः, पर्वतानां हि नितम्बभागे वाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्वौ विष्कम्भौ भवतः, तत्र बाह्यो विष्कम्भः उक्तः, तथा - 'एगत्तीसं' एकत्रिंशतं 'जोयणसहस्सा ई' योजन सहस्राणि 'चत्तारि य' चत्वारि च 'अउ - 'णासीए' ऊनाशीतानि - ऊनाशीत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'किंचिविसेसाहिए' किञ्चिद्विशेषाधिकानि - किञ्चिदधिकानि 'बाहिं' वहि: - बहि: प्रदेशवर्ती 'गिरिपरिएणं' गिरिपरिरयः गिरेः मन्दरस्य परिश्यः परिधिः 'णं' खलु अस्तीति शेषः तथा 'अट्ट' अष्ट 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'णव य' नव च 'चपणे' चतुष्पञ्चाशानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'छच्चेगार सभाए' पट् चैकादशभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'अंतो' अन्तः - मध्ये नन्दनदनात् प्राय् 'गिरिविवखंभो' गिरिविष्कम्भः - मेरुपर्वत विस्तारः, तथT (अव) अष्टाविंशति ( जोयणसहस्लाई) योजनसहस्राणि ( तिष्णिय) त्रीणि च . 'सोलमुत्तरे' पोडशोत्तराणि - पोडशाधिकानि ( जोयणसए) योजनशतानि (अट्ठय) अष्टच सव्चओ समता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइति) यह नन्दन वन सुमेरु पर्वत को चारों ओर से घेरे हुए है । (णवजोयणसहस्साइं पणव य चउप्पण्णे जोयणसए छच्चेगारसभाए जोगणसए वाहिं गिरिबिक्खंभो ) सुमेरुपर्वत का वाह्य विष्कम्भ ९९५४ योजन का और एक योजन के ११ भागों में ६ भाग प्रमाण है ( एगतीसं जोयणसहरुलाई चत्तारि य अउणासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए चाहि गिरिपरिरएणं, अट्ठ जोयणसहस्साई णव य चडपण्णे जोयणसए छच्चेगारसभाए जोचणस्स अंतो गिरिविवखंभो ) इस गिरि का बाह्य परिक्षेप कुछ अधिक ३१४७९ योजन का है और भीतरी विस्तार इसका ५९५४ योजन का है और एक योजन के ११ भागों में से छ भाग प्रमाण है (अट्ठावीसं जोयणसहस्साई
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'जेणं मंदरं पव्वयं सव्वओ समता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइत्ति' मा नहनवन सभेरु पर्वतथी મરવૃત छे. 'णव जोयणसरस्साई णबय चउप्पण्णे जोयणसए छच्चेगारसभाए जोयणसए बाहिं गिरिविक्खभो' सुमेरु पर्वतनो माह्य विष्ल ८८५४ थान भेटलो भने योगनना ११ लागोस लाग प्रभाणु छे. 'एगतीसं जोयणसहस्साइं चत्तारिय - अउणासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए चाहि गिरिपरिरएणं, अट्ठ जोयणसहस्साइं णचय चउपणे जोयणसए छच्चेगा सभाए जोयणस्ल अंतो गिरिविक्खंभो' मा गिरिना मा પરિક્ષેપ કંઇક અધિક૩૧૪૭૯ રાજન જેટલે છે અને ભીતરી વિસ્તાર એના ૮૯૫૪ योन रेट भने ४ योजना ११ लागीभांथी ६ भाग प्रभाणु छे! 'अट्ठावीसं जोयण
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D
___जबूद्वीपप्रजातिक (इकारसमाए) एकादशभागान् (जोयणस्प्त) योजनस्य (अंतो) अन्त:-अभ्यन्तरवर्ती (गिरिपरिरए) पिरिपरिरया-मेरुपर्वतपरिधिः (ण) खलु अस्तीति शेपः, अथात्र पद्मवरवेदिकादिफमाह से णं एगाए) इत्यादि तद् नन्दनवनं खलु एकया (पउमवरवेइयाए) पद्मवरवेदिकया (एगेण य) एकेन च (वणसंडेणं) वनपण्डेन (सयओ) सर्वतः सर्वदिक्षु (समंता) समन्तात्सर्वविदिक्षु (संपरिक्खित्ते) सम्परिक्षितं-परिवेष्टितं विद्यत इति शेषः, तयोः पद्मवरवेदिकावनपण्डयोः (वण्णओ) वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः, स च चतुर्थपञ्चमसूत्रतो ग्राह्या, सच किम्पर्यन्तो ग्राह्य इति जिज्ञासायामाह-'जाव देवा आसयंति' यावदेवा आसते 'देवा 'भासते' इति पदपर्यन्तो वर्णको ग्राह्यः, अत्र यावत्पदसङ्ग्राह्यपदसङ्गहः पञ्चमसूत्रात्कर्तव्या, तत्र-'देवा' इत्युपलक्षणं, तेन 'सयंति, चिट्ठति' इत्यादिनां ग्रहणम्, एवं पदानां व्याख्या पञ्चमसूत्रव्याख्यातोऽवसेया, अथात्र सिद्धायतनानि वर्णयितुमुपक्रमते-'मंदरस्स णं पव्वयस्स' इत्यादि-मन्दरस्य मेरोः खलु पर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'एत्य' अत्रतिणि य सोलसुत्तरे जोयणसए अट्टय इक्कारसभाए जोयणस्त अंतोगिरि परिरयेणं) तथा इस गिरिका भीनरी परिक्षेप २८३१६ योजन का और एक योजन के ११ भागों मे से आठ भाग प्रमाण है । (से णं एगाए पउमवरवेझ्याए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते) वह नन्दन वन एक पद्मवर वेदिका से और एक वनषण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है (वण्णओ जाव देवा आस यंति) इस पावर वेदिका और वनषण्ड का वर्णक यहां पर कहलेना चाहिये इसे जानने के लिये चतुर्थ और पंचम सूत्र देखिये यहाँ पर यह वर्णन 'आसयंति' पद कहा गश है यहाँ यावत्पद से जो पद संगृहीत हुए हैं वे पंचम सूत्र से जाने जा सकते हैं । “आसयंति" यह पद उपलक्षण रूप है इससे "सयंति चिट्ठति" सहस्साई तिष्णिय सोलसुत्तरे जोयणसए अद्वय इक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरि परिर of તેમજ આ ગિરિને અંદરને પરિક્ષેપ ૨૮૩૧૬ જન જેટલે અને એક એજનના ११ मागाभाथी म& all प्रमाण छे. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए ऐगेण य वणसंडेणं सव्व ओ समंता संपरिक्खित्ते' मा नन्दन वन 28 ५५५२ थी मन से नमी योमेर मात छ. 'वण्णओ जाव देवा आसयंति' मा ५५१२ मिन बनना १४ વિષે અહીં અષ્ણાહુત કરી લેવું જોઈએ. એ સબંધમાં જાણવા માટે ચતુર્થ અને પંચમ सत्रमा शिाभुभाय नमे. मी मा वर्णन 'आसयंति' पहथी समर छ. मही થાવત પદથી જે પદે સંગૃહીત થયા છે તે અહીં પંચમ સૂત્રમાંથી જાણી શકાય તેમ છે. 'आसयंति' मा ५६ S५क्षय ३५ छे. अनाथी सयंति चिटुंति वगैरे ठियापही प्रय थथुछ. मे पहानी व्याच्या पंथम सूत्रमा ४२वाभा मावशी छे. 'मंदरस्त णं पचयस्स पुरथि मेणं एत्थणं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते' मा भ४२ ५वती पू शामा म विशा सिद्धायतन मावेस छ. 'एवं चउदिसिं चत्तारि सिद्धाययणा विदिसासु पुक्खरिणीओ नं चेव पमाणं
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प्रकाशिका रीका-चतुर्थवक्षस्कारः रु. ३७ नन्दनवनस्वरूपवर्णनम्
४५७. अत्रान्तरे 'ण' खल्लु 'महं एगं' महदेकं "सिद्धारयणे' सिद्धायतनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तं 'एवं :एवम्-अनन्तरसूत्रोक्त भद्मालयनानुसारेण 'चउपि' चर्दिशि पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रतिदिगे.. कैकेमिति 'चत्तारि' चत्वारि 'सिद्धाययणा' सिद्धायतनानि प्रज्ञप्तानि, तथा 'विदिसासु' विदिक्षु ईशानादिकोणेनु 'हुक्परिणीओ पुष्करिण्यः प्रज्ञताः आसाम् 'तंचेव' तदेव भंद्रशालवनोक्तमेव 'पमाणं' प्रमाण-विष्कम्भाविमानस् 'सिद्धाययणाणं' सिद्धायतनानास् 'पुक्खरिणीण च' पुष्कारिणीनां च बहुमध्यदेश भागवर्तिनः 'पासायडिंगा' प्रासादावतंसका; 'तहचेव' । तथैव भद्रशालवनतिनन्दापुष्करिणीगतमासादावतंसदेव 'सकेसाणाण' शक्रेशानयो:-शक.. न्द्रसम्वन्धिन ईशानेन्द्रगन्बन्धिनश्च भगितव्याः, अयमाशयः यथा भद्रशालयने शकेन्द्रसम्बन्धिन, आग्नेय नैत्यकोणवर्तिनः प्रासादावतंसकाः उताः तथेशानेन्द्रसम्बन्धिनो वायव्येशान आदि क्रिया पदों ग्रहण हुभा है। इन पदों की व्याख्या पंचम सूत्र में की गई. है। (मंदरस्सणं पव्ययस्त पुरस्थिनेगं एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णसे) इस मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है (एवं चउदि.. सिं चत्तारि सिद्धाययणा विदिनासु पुक्खरिणीओ तंव पमाणं) मेरु पर्वत की पूर्वदिशा में भी एक एक सिदायतन कहा गण है इस तरह कुल सिद्धायतन , पूर्वादि दिशाओं में से एक दिशा में एक एक के होने से ४ प्रतिपादित हुए हैं। (विदिसातु पुस्खरिणीओ तंव पमाणं) तथा इस कथन के अनुसार विदिशाओं में ईशान आदि कोनों में पुष्करिणियाँ प्रतिपादित हुई है । इन पुष्करिणियों के : विष्कादि के प्रमाण अद्रशाल दन की पुष्परिणियों के विष्कंभादि के प्रमाण जैसा ही कहा गया है तथा (सिद्धाययणाणं) सिद्धायतनों का विष्कं. भादि प्रमाण भी भद्रशाल के प्रकरण में कथित सिद्धायतन के प्रमाण जैसा, ही कहा गया है। (पुस्खरिणीणं च पासायव सगा तह चेव) पुष्करिणियों के बनमध्यदेशवनिप्रासादावतंसक भद्रशालवन वर्ती नन्दा पुष्करिणिगत प्रासादावतंक के जैसे ही हैं। (तहचेव लक्केसाणाणं तेगं चेव पमाणेणं) મેરુ પર્વતની પૂર્વ દિશામાં જેવું સિદ્ધાયતન કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે પૂર્વ વગેરે थारयार दिशामाभाग-2 द्विायतन छ तथा मुख यार सिद्धायतन। थयां विदिसामु पुखरिणीओ तं चेत्र पमाण' तभ४ २0 ४५न मुरम विशिमा शान वगेरे मा १४. રિણુએ પ્રતિપાદિત થઈ છે એ પુષ્કરિણુઓના વિઝંભાદિના પ્રમાણ ભદ્રશાલવનની પુષ્ક ” २ि यो महिनामा २ छ. तेभर 'सिद्धाययणा णं' सिद्धायतनाना foreile प्रमाण ५ भद्रशासन प्ररमा ४थित सिद्धायतनाना प्रभावत् छे. 'पुक्खरिणी णं च पासाय: वडेंसगा तहचेव' पुरियाना मर्डमध्य देशपात: प्रासस पy मशवनती नन्हा orget प्रसाहात सो ४ छ. 'तहचेव सक्केसाणाणं तेणं चैव पमाणेणं' એ પ્રાસાદાવતં કે શકે અને ઈશાનના છે એટલે કે જેમ ભદ્રશાલ વરમાં આય અને
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जम्बूखीपप्राप्तिसूत्र कोणवर्तिनः प्रासादावतंसका भणिताः, तथैव नन्दनवनेऽपि शक्रेशानेन्द्रयोक्ततत्तत्कोणवर्तिनः प्रासादावतंसका वाच्या इति, ते च प्रासादा भद्रशालवनवनि पूर्वोत्तरादि कोणमत पद्मादि पुष्कारिणीवहुमध्यदेशवर्तिन इव नन्दनवनवति पूर्वोत्तरादिकोणगतनन्दोत्तरादि पुष्करिणी बहुमध्यदेशवर्तिनो वोध्याः, ताश्च पुष्कारिण्योऽत्र नामतो निर्दिश्यन्ते नथाहि-नन्दोत्तरा' - १नन्दा रसुनन्दा ३नन्दिवर्धना ४चैता ईशानकोणे, तथा-नन्दिषेणा१ अमोघा२ गोस्तूपा३ सुदर्शना४ चैता आग्नेयकोणे, तथा-भद्रा१ विशाला२ कुमुदा३ पुण्डरीकिणी४ चैता नैऋत्यकोणे, तथा-विजया१ वैजयन्तीर अपराजिता जयन्ती४ चैता वायव्यकोणे, इति प्रतिकोणं ये प्रासादावतंसक शक्र और ईशान के हैं-अर्थात् जिस प्रकार से भद्रशाल वन में आग्नेय और नैऋत्यकोण संबंधी प्रासादावतंसक शकेन्द्र संबंधी कहे गये हैं तथा वायव्य और ईशानवर्ती प्रासादावतंसक ईशानेन्द्र संबंधी कहे गये हैं उसी प्रकार से इस नन्दनवन में भी आग्नेय और नैऋत्यकोणवर्ती प्रासादावतंसक शक्रेन्द्र संबंधी और वायव्य एवं ईशानकोणवर्ती प्रासादावतंसक ईशानेन्द्र सम्बंधी है ऐसाजानना चाहिए। वे प्रासाद भद्रशालयमवर्ति पूर्वोत्तरादिकोण गत पद्मादि पुष्करिणियों के बहु मध्यदेश भाग में जैसे प्रकट किये गये हैं वैसे ही ये प्रासाद नन्दनवनवर्ती पूर्वोतरादिकोण गत नन्दोत्तरादि पुष्करिणियों के घहुमध्य देशवर्ती हैं ऐसा जानना चाहिये यहां पर नन्दोत्तरा, नन्दा, सुनन्दा, नन्दिवर्धना ये चार पुष्करिणियां ईशानकोण में हैं तथा-लन्दिषेणा, अमोघाँ गोस्तूपा, और सुदर्शना ये चार पुष्करिणियां आग्नेयकोण में हैं भद्रा, विशाला, कुमुदा और पुण्डरीकिणी ये चार पुष्करिणियां नैत्यकोण में हैं और विजया, वैजयन्ती जयन्ती और अपराजिता ये चार पुष्करिणियां वायव्यकोण में हैं इस નૈઋત્ય કેણુથી સંબદ્ધ પ્રાસાદાવર્તસકે શકેન્દ્ર સંબંધી કહેવામાં આવેલા છે અને જેમ વાયવ્ય અને ઈશાનવતી પ્રાસાદાવતંસક ઈશાનેન્દ્ર સંબંધી કહેવામાં આવેલ છે તેમજ આ નન્દનવનમાં પણ આગ્નેય અને નૈઋત્ય કેણવતી પ્રાસાદાવતં સકે કેન્દ્ર સંબંધી અને વાયવ્ય તેમજ ઈશાન કેણુવતી પ્રાસાદાવતંસકે ઈશાનેન્દ્ર સંબં-1 છે, એવું જાણવું જોઈએ. એ પ્રાસાદે ભદ્રશાલવન વતિ પૂર્વોત્તરાદિ કેણુ ગત પડ્યાદિ પુષ્કરિણીઓના બહુમધ્ય દશ ભાગમાં જે પ્રમાણે નિરૂપિત કરવામાં આવેલ છે તેવા જ એ પ્રાસાદે નન્દનવનતિ પૂર્વેત્તરાદિ કે ગત નત્તર દિ પુષ્કરિણીઓના બહુમધ્ય દેશવતી છે. એમ જાણવું જોઈએ. અહીં નોત્તરા, નન્દા, સુનન્દા, નન્દિવર્ધન એ ચાર પુષ્કરિણીઓ ઈશાન કોણમાં આવેલી છે. તેમજ નદિષેણ, અમેઘા, ગેસ્તુવા અને સુદર્શન એ ચાર પુષ્કરિણીઓ આગ્નેય કેણમાં આવેલી છે. ભદ્રા વિશાલા, કુમુદા અને પુંડરીકિણી એ ચાર પુષ્કરિણીઓ નિત્ય. કેણમાં આવેલી છે, અને વિજ્યા, વૈજયન્તી, જયન્તી અને અપરાજિતા એ ચાર પુષ્કરિણીઓ
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"प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३७ नन्दनवनस्वरूपवर्णनम्
४६९ चतरथतस्रः पुष्करिण्योऽवसेयाः, एतत्पुष्करिणी बहुमध्यदेशभागवर्तिनस्ते प्रासादाः 'तेणं चेव' भद्रशालपन गतप्रासादोक्तेनैव पञ्चशतयोजनोचत्वादिरूपेण 'पमाणेणं' प्रमाणेन वाच्याः वक्ष्यमाणानि कूटाण्यपि मेरुपर्वतात्तावत्येवान्तरे सिद्धायतनप्रासादावतंसकमध्यवर्तीनि बोध्यानि, तत्र संख्या-नामकृतभेदं प्रदर्शयितुमाह-'गंदणवणे णं भंते !" इत्यादि-नन्दनवने खलु भदन्त ! 'क' कति-कियन्ति कडा कूटानि 'पग्णना' प्रज्ञमानि 'गोयमा' गौतम ! 'णव' नव 'कूडा' कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञसनि 'तं जहा' तबथा-'णंदणवणकूडे' नन्दनवनकूटं१ 'मंदरकूडे' म-दाकूटं२ "णिसहकूडे' निषधकूटं ३ 'हिमवयकूडे' हिमवत्कूट४ 'रययकूडे रजतकूटं५ 'रुयगकूडे' रुचाकूटं६ 'सागरचित्तकूडे' सागरचित्रकूटं७ 'वइरकूडे' वज्रकूटं८ 'बलकूडे' चलकूटम् । तत्र प्रथपकूटं पृच्छति-'कहि णं भंते ! गंदणवणे क्व खलु भदन्त ! तरह हर एक कोण में चार २ पुष्करिणियां है ? इन पुष्करिणियों के बहुमध्यदेश भाग में प्रालादावतंसक हैं जिस प्रकार की पांचसो योजन की उच्चता आदि रूप प्रमाणता भद्रशालवनगत प्रासादों की कही गई है वैसी ही उच्चता आदि रूप प्रमाणता इन प्रासादों की भी कही गई जाननी चाहिये । मेरु पर्वत से उतने ही अन्तर में सिद्धायतन और प्रासादावतंसकों के मध्य में ये नौ कूट कहे गये हैं गौतमस्वामी ने जब प्रभु से ऐसा पूछा-(णंदणवणेणं भंते । कइकडा पण्णत्ता) हे भदन्त । नन्दनवन में कितने कूट कहे गये हैं ? तब प्रभुने उनसे ऐसा कहा(गोयमा ! णव कूडा पण्णता) हे गौतम ! यहां पर नौ कूट कहे गये है (तं जहा-) उनके नाम इस प्रकार से हैं-(णंदणवणकूडे, मंदरकूडे, णिसहकूडे, हिमवयकूडे, रययकूडे, रुयगकूडे, सागरचित्तकूडे, वरकूडे, बलकूडे) नन्दनवनकूट, मन्दरकूट, निषधकूट, हिमयतकूट, रजसकूट, रुचककूट, सागरचित्रकूट, वनकूट,
और बलकूट । अब गौतम !ने प्रभु से ऐसा पूछा है- (कहि णं भंते ! णंदणवणे णंदणवणकूडे पण्णत्ते) हे भदन्त ! नन्दन वनमें नन्दन बन नामका कूट कहां पर कहा વાયવ્ય કે ણમાં આવેલી છે. આ પ્રમાણે દરેક કેણમાં ચાર-ચાર પુષ્કરિણીઓ આવેલી છે. એ પુષ્કરિણીઓના બહુ મધ્ય દેશભાગમાં પ્રાસાદાવત આવેલા છે. જે પ્રકારની પાંચ
જન જેટલી ઉતા વગેરે રૂપ પ્રમાણુતા ભદ્રશાલવનગત પ્રાસાદની કહેવામાં આવેલી છે, તેવી જ ઉચ્ચતા વગેરે રૂપ પ્રમાણુતા એ પ્રાસાદની પણ કહેવામાં આવેલી છે. મેરુ પર્વતથી તેટલા જ અંતરે સિદ્ધાયતન અને પ્રાસાદાવતં કેના મધ્યમાં એ નવ ફૂટ આવેલા છે. હવે गौतमश्चमी प्रभुने २॥ शत प्रश्न ४ा 'गंदणवणेणं भते! कइकूडा पण्णत्ता महत! नन्दनवनमा teensी वामां मावेसा छ ? त्यारे सुमे तभने ४ह्यु-'गोयमा ! णव कूडो पण्णत्ता' गीतमा त्यांना वाम मासा छ. 'तं जहा' तमना नाम या प्रमाणे छ-णंदणवणकडे, मंदरकूडे, णिसहकूडे, हिमवयकूडे, रययकूडे, रुयगकूडे, सागरचित्तकूडे, वइरकूडे, बलकूडे' नन्दनवन फूट, म ४२, निषट, भिवत् ८, २०४८, रुयट, साग२ शिट,
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जम्बूहीपालतिसूत्र , नन्दनवने 'णंदणवणकूडे णाम' नन्दनवनकूटं नाम 'कूडे' कूटं 'पण्णचे ?' प्रगतम् 'गोयमा' गौतम ! 'मंदरस्स पन्जयस' मन्दरस्म पर्वतस्य 'पुरस्थिमिल्लसिन्द्राययणस्य पौरस्त्य सिद्धायतनस्य 'उगरेणं उत्तरेण-उत्तरदिशि 'उत्तरपुरस्थिमिल्लरस' उत्तरपोरर यस्य-ईशानकोणवर्तिनः 'पासायवडे सयरस' प्रासादावतं कस्य 'दविखणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'एत्य' 'अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'गंदणवणे' नन्दनवणे 'णंदवणे णास' रन्दननं नाम 'कूडे' कुटं
'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् अनापि मेरुतः सिद्धायतलपञ्चाशयोजनानि व्यतिक्रम्यैत्र क्षेत्रनियमो 'बोध्यः, अन्यथाऽस्य प्रासादावतं सकभवनयोरन्तरालत्विं न स्यात् । . अथ वर्णितवर्णयिष्यमाणबूटानां सद्भ्यामतिदेप्टुमाह-'पंचलइया मूडा' पञ्चशतिकानि • कूटानि 'पुव्ववण्णिया' पूर्ववर्णितानि-पूर्व-प्राग् विदिग्रहस्तिकटवर्णनप्रसङ्गे वर्णितानि उच्चत्वविष्कम्भपरिधिवर्णसंस्थानदेवराजधानी दिगादिभिरुक्तानि तानि चात्र 'माणियव्या' भणितव्यानि वक्तव्यानि सदृशपाठलात् अत्र 'देवी' देशी अधिष्ठात्री देवता 'मेहंकरा' मेघ- गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोंयमा मिंदरास पचयक्ष पुरथिमिल्ले . सिद्धाययणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्त पाखायवढे ल्यस्त दक्खिणेणं
एत्थणं णंदवणे गंदणवणे णामं कडे पण्णत) हे गीता ! मन्दर पर्वत की पूर्वदिशा में रहे हुए सिद्धायतन की उत्तरदिशा में तथा-ईशानकोणवर्ती प्रासादावतंसक • की दक्षिणदिशा में नन्दनवन में नन्दनवन नामका कूट कहा गया है यहां ( पर भी मेरुको पचास योजन पार करके ही क्षेत्रका नियन कहा गया जानना
चाहिये । यदि ऐसा न मानाजावे तो फिर प्रासादायतंसक और भवन के अन्त: राल में वर्तित्व इस कूट में नहीं आवेगा । (पंचसईयाकूडा पु-वपिणया भाणि. यव्वा, देवी मेहकरा रायहाणी विदिसाएत्ति) जिस प्रकार से विदिग्दस्तिकूट · के प्रकरण में उच्चता, व्यास-विष्कंम्भ, परिधि परिक्षेप-वर्ण, संरथान, देव,
वनट मन माट. शिथी गौतस्वामी प्रसुन वा प्रश्न या कहिणं भंते ! गंदण वणे गंदणवण कूडे पण्णत्ते' 3 NEd! नन्नयनमा ननवन नामेट ४५॥ २यणे मारा छ? मना११५५i प्रभु ४३ छ-'गोयमा मंदरस्स परयस्स पुरथिमिल्ले सिद्धाययणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरथिमिल्लास पासायवडे'सयस्स दक्खिणेणं एत्थ ण णदणवणे णदणवणे णामं कूडे पण्णत्ते'.3 गौतम भन्४२ पतनी पूर्व शिम भावमा सिद्धायतननी उत्तर દિશામાં તેમજ ઈશાન કેણુવતી પ્રાસાદાવર્તસકની દક્ષિણ દિશામાં નન્દન વનમાં નન્દનવન નામે કૂટ આવેલ છે. અહીં પણ એને પચાસ રોજન પાર કરીને જ ક્ષેત્રને નિયમ કહે - વાએલે જણ જોઈએ. જે આ પ્રમાણે માનવામાં નહિ આવે તે પછી પ્રાસાદાવતંસક
भने सपना तसतिल मा टम आवरी ना. 'पंचसईया कूडा पुत्र पणिया माणियव्वा, देवी मेहंकरा रायहाणी विदिसाएत्ति' रे प्रमाणे
विस्टिना પ્રકરણમાં ઉચ્ચતા, વ્યાસ, વિષ્ક પરિદ્ધિ-પરિક્ષેપ વર્ણ, સંસ્થાન દેવ રાજધાની દિશા
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: प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३७ नन्दनवनस्वरूपवर्णनम्
राभिधाना अस्याः देव्याः 'रायहाणी' राजधानी 'विदिसाएत्ति' विदिशि-ईशानकोणे पद्मोत्तरकूटवद्वर्णनीयत्वात्, इति प्रथमकूटवर्णनम् १ अथावशिष्टकूटानां तद्देवीनां तद्राजधानीनां च व्यवस्था चिकीर्षुराह -'एयाहि इत्यादि-एताभिः देवीमिः 'चेव' चकारात् राजधानीभिः-अनन्तरसूत्रे वक्ष्यमाणाभिरेव सह 'पुनाभिलावणं' पूर्वाभिलापेन-पूर्वेण नन्दनवनकूटोक्तेन अभिलापेन-सूनपाठेन 'णेयव्या' नेतन्यालि, बोध्यानि 'इमेकूडा'. इमानि वक्ष्यमाणानि कूटानि 'इसाहिं दिसाहि' इमाभिः वक्ष्यमाणाभिदिग्भिः भणितव्यानीति शेषः, एतदेव स्पष्टीकरोति 'पुरथिमिल्लस्स' पौरस्त्यस्य-पूर्वदिग्भवस्य 'भवणस्स' भवनस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि दाहिणपुरस्थिनिल्लस्स' दक्षिणपौरस्त्य आग्नेयकोणवर्तिनः 'पासायवडे सगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'मंदरे' मन्दरे-मन्दरनाम्नि कूडे' कूटे 'मेहवई' मेघवती नाम 'रायहाणी' राजधानी 'पुट्वेणं' पूर्वेण पूर्वस्या राजधानी दिशा आदि द्वारा को लेकर कूटवर्णित किये गये हैं उसी प्रकार से यहां पर भी इन कूटों का वर्णन इन्हीं सब उच्चता आदि द्वारों को लेकर करलेना चाहिये क्योंकि उस पाठ में और यहां के पाठ में कोई अन्तर नहीं है। अतः इन द्वारों को लेकर जैशा प्रश्नोत्तर रूप से वहां पर कूटों का कथन किया गया है वैसा ही वह लब कथन यहां पर भी है उस वर्णन में और इस वर्णन में कोई अन्तर नहीं है ये सब कूट पांचसौ योजन के विस्तारवाले हैं। यहां पर देवी मेघङ्करा नामकी है इसकी राजधानी विदिशा में ईशानकोण में है इल तरह पदोत्तरकूट की तरह ही इस कूटका वर्णन है (एयाहिं चेव पुवाभिला. वेणं णेयव्या इमे कूड़ा इमाहिं दिसाहिं पुरथिमिल्लस्स भषणल्स दाहिणे णं दाहिण पुरथिमिल्लस्स पासाघवडे सगस्त उत्तरेणं मंदरे कूडे मेहबईरायः हाणी) इसी मेघकूटोक्त अभिलाप के अनुसार इन २ दिशाओं में देदियों और राजधानियों से युक्त ये अवशिष्टकूट समझलेना चाहिये जैसे कि पूर्व વિગેરેના દ્વારથી માંડીને છૂટે વિષે વર્ણન કરવામાં આવેલું છે, તે પ્રમાણે જ અહીં પણ એ ફૂટેનું વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ કેમકે તે પાઠમાં અને અહીંના પાઠમાં કોઈ પણ તફાવત નથી. એથી એ દ્વારા માટે પ્રશ્નોત્તર રૂપમાં ત્યાં ફૂટ વિષે કયન સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલું છે તેવું જ બધું કથન અહીં પણ સમજવું જોઈએ. તે વર્ણનમાં અને આ વર્ણનમાં કેઈ પણ જાતને તફાવત નથી. એ બધા ફૂટે પાંચસો યે ન જેટલા વિસ્તારવાળા છે. અહીં મેકરા નામક દેવી છે. એની રાજધાની વિદિશ માં ઈનફેણમાં આવેલી છે. આ पोत्तर छूटनी रेभ ४ मा टनु पा] वर्णन समपार्नु छे. 'एआहि चेव पुवाभिलावेणं णेयन्या इमे कृडा इमाहिं दिसाहिं पुरथिमिल्लस्स भयणन्स पाहिणेगं दाहिण पुरथिमिल्लस्स पासायवडेसगस्त उत्तरेणं मंदरे कूडे मेहबई रायहाणी' 21 मे छूटा 1 ममिलाप भुम તત્ તત્ દિશાઓમાં દેવીઓ અને રાજધાનીઓથી યુક્ત એ અવશિષ્ટ કૂટે સમજી લેવા
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जम्बूद्वीपप्रतिरो दिशि, इति द्वितीयकूटवर्णनम् २ 'दक्खिणिल्लस्स' दाक्षिणात्यस्य-दक्षिणदिमवस्य 'भवणस्स' भवनस्य 'पुरत्यिमेण' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'दाहिणपुरस्थिमिल्लस्स' दक्षिणपौरस्त्यस्यआग्नेयकोणवर्तिनः 'पासायक्डेंसगल्ल' प्रासादावतंसहस्प 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिष 'णिसहे कूडे' निपधं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् 'अस्याधिष्ठात्री 'सुमेहा देवी' सुमेधा नाम देवी प्रज्ञप्ता 'रायहाणी' राजधानी 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि प्रज्ञप्ता इति तृतीयकूटवर्णनम् ३ अथ चतुर्थकूटवर्णनम्-'दक्खिणिल्लस्स' दाक्षिणात्यस्य 'भवणस्स' भवनस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'दक्षिणपच्चत्थिमिल्लस्स' दक्षिणपश्चिमस्य-नैर्ऋत्यकोणवर्तिनः 'पासायवडेंसगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'हेमवएकूडे' हैमवतं नाम कूट प्रज्ञप्तम्, अस्याधिष्ठात्री 'हेममालिणी देवी' हेममालिनी नाम देवी प्रजप्ता, अस्य हैमवत्कूटस्य रायहाणी' राजधानी 'दक्षिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि प्रज्ञप्ता इति चतुर्थकूटदिग्वर्ती भवन की दक्षिणदिशा में तथा आग्नेयकोणवर्ती प्रासादावतंसक की उत्तरदिशा में वर्तमान मन्दर नामके कूट पर मेघवती नामकी राजधानी है यह राजधानी कूट की पूर्व दिशा में है । ___ (दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पुरथिमेणं दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पच्चस्थिमेगं णिसहे कूटे सुमेहा देवी, रायहाणी दक्षिणेणं ३) दक्षिणदिग्वर्ती भवन की पूर्वदिशा में तथा आग्नेयकोणवनि प्रासादावतंसक की पश्चिम• दिशा में निषध नामका कूट है इसकी अधिष्ठात्री सुमेधा नामकी देवी है इसकी
राजधानी इस कूट की दक्षिणदिशा में कही गई है । (दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पच्चस्थिमेणं हेमवए कूडे हेममालिनी देवी रायहाणी दक्षिणेणं ४) दक्षिणदिग्वर्ती भवन की पश्चिमदिशा में तथा नैऋत्यकोणवर्ती प्रासादावतंसक की पूर्वदिशा में हैमवत नामका कूट है इसकी अधिष्ठात्री हेममालिनी नामकी देवी જોઈએ. જેમકે પૂર્વ દિશ્વત ભવનની દક્ષિણ દિશામાં તેમ? અને કેણવતી પ્ર સારાવતસકની ઉત્તર દિશામાં વર્તમાન મંદિર નામક કૂટ ઉપર મેઘવતી નામક રાજધાની છે. આ રાજધાની કુટની પૂર્વ દિશામાં આવેલી છે. ૨
___'क्खिणिल्लस्स भवणस्स पुरथिमेगं दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पच्चस्थिमेणं णिसहे फूडे सुमेहादेवी, रायहाणी दक्खिणणं ३' दक्षिY हित लवननी पूर्व દિશામાં તેમજ આગ્નેય કૈણવતી પ્રાસાદાવતંસકની પશ્ચિમ દિશામાં નિષધ નામક ફૂટ આવેલ છે. એની અધિષ્ઠાત્રી સુમેધા નામક દેવી છે. એની રાજધાની કૂટની क्षिष्य मावती छे. 'दक्खिणिल्लस्स भवणरस पच्चत्यिमेण दक्षिणपच्चस्थिमिल्लस्स पासायवडे सगस्स पुरस्थिमेणं हेमवए कूडे हेममालिनी देवी रायहाणी दक्षिणेणं ४' क्षष्य દિવતી ભવનની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ મિત્ર કેણુવત્ પ્રાસાદાવર્તસકની પૂર્વ દિશામાં હમવત નામક ફૂટ આવેલ છે. એ ફટની અધિષ્ઠાત્રી હેમમાલિની નામક દેવી છે અને એની
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कार: सू. ३७ नन्दनवन स्वरूपवर्णनम्
યુર
वर्णनम् ४ अव पश्चमकूटवर्णनम् -' पञ्चत्थिमिल्लस्स' पाश्चिमात्यस्य - पश्चिमदिग्वर्तिनः 'भवण स' भवनस्य 'दक्खिगेणं' दक्षिणेत्र-दक्षिणदिशि 'दाहिणपच्चत्थिमिल्लस्स' दक्षिणपश्चिमस्य नैर्ऋत्यकोणवर्तिनः 'पासायवडेंसगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'उत्तरेण' उत्तरेण उत्तरदिशि 'स्यए' रजतं नाम 'कूटे' कूटं प्रप्तम् अस्याधिष्ठात्री 'सुवच्छा देवी' सुवत्सा नाम देवी प्रज्ञता, अस्य रजतकूटस्य 'रायहाणी' राजधानी 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि प्रज्ञप्ता इति पञ्चमकूटवर्णनम् । अथ पष्ठकूटवर्णनम् ' पच्चत्थिमिल्लस्स' पाश्चिमात्यस्य - पश्चिमदिग्वर्तिनः 'भवणस्स' भवनस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण- उत्तरदिशि 'उत्तरपच्चत्थिमिल्लस्स' उत्तरपश्चिमस्य-वायव्यकोणवर्त्तिनः 'पासायवडेंसगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'दक्खिणं' दक्षिणेन - दक्षिणदिशि 'रुयगे' रुचकं नाम 'कूटे' कूटं प्रज्ञप्तम् अस्य कूटस्याधिष्ठात्री 'वच्छमित्ता 'देवी' वत्स मित्रा नाम देवी प्रज्ञप्ता, अस्य कूटस्य 'रायहाणी' 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेनपश्चिमदिशि प्रज्ञप्ता, इति पष्ठकूटवर्णनम् ६ ।
है और इसकी राजधानी कूट की दक्षिणदिशा में है । ( पच्चत्थिमिल्लस्स भवणस्स दविखणेणं दाहिणपच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडें सगस्स उत्तरेणं रए कूडे सुवच्छा देवी रायहाणी पच्चत्थिमेणं) पश्चिमदिग्वर्ती भवन की दक्षिणदिशा में तथा नैर्ऋत्यकोणवर्ती प्रासादावतंसक की उत्तरदिशा में रजत नामका कूट है उसकी अधिष्ठात्री देवी सुवत्सा है इसकी राजधानी कूट की पश्चिम दिशा में हैं ( पच्चत्थिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडें सगस्स दक्खिणेणं रूपगे कूडे वच्छमित्ता देवी रायहाणी पच्चत्थिमेणं६) पश्चिमदिग्वर्ती भवन की उत्तर दिशा में तथा उत्तरपश्चिम दिग्वर्ती- वायव्यकोणवर्ती प्रासादवतंसक की दक्षिणदिशा में रुचक नामका कूट है यहां की अधिष्ठात्री वत्समित्रा नामकी देवी है इसकी राजधानी इस कूट की पश्चिम दिशा में है (उत्तरिल्लस्स भवणस्स पच्चत्थिमेणं उत्तरपच्चत्थिमिल्लस्स पासावडे समस्त पुरस्थिमेणं सागरचिते कूडे बहरसेणा देवी रायहाणी राष्ट्रधान छूटनी दक्षिण दिशामां आवेली छे, 'पच्चत्थिमिहलस्स भवणस्स दक्खिणेणं दाहिण पच्चत्थिमिल्लास पासायवडें सगस्स उत्तरेणं रयए कूडे सुत्रच्छा देवी रायहाणी पच्चत्थिमेणं ' પશ્ચિમ દિગ્વતી ભવનની દક્ષિણ દિશામાં તેમજ નૈઋત્યકેણુવતી પ્રાસાદાવત"સકની ઉત્તર દિશામાં રજત નામક ફૂટ આવેલ છે. એ ફૂટની અધિòાત્રી દેવી સુવત્સા છે. એની રાજધાની छूटनी पश्चिम दिशाभां छे. 'पच्चत्थिमिल्टस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडे - सगस्स दक्खिणेणं रुयगे कूडे वच्छमित्ता देवी रायहाणी पच्चत्थिमेणं ६' पश्चिम श्विर्ती लवननी ઉત્તર દિશામાં તેમજ ઉત્તર પશ્ચિમ દ્વિગ્નતી વાયન્ય કાણુવતી પ્રાસાદાવત સકની દક્ષિણ દિશામાં રુચક નામક ફૂટ આવેલ છે. અહી'ની અધિષ્ઠાત્રી દેવી વત્સમિત્રા નામે છે. એની राजधानी मे हूँढनी पश्चिम हिशासां भावेक्षी छे, 'उत्तरिल्लरस भपणास पच्चमि
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“ अम्बद्रीपंप्राप्तिसूत्रे : अथ सप्तमकूटवर्णनम्-'उत्तरिल्लस्स' औत्तराहस्य उत्तरदिग्वर्तिनः 'भवणस्स' भवनस्स 'पच्चन्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'उत्तरपञ्चस्थिमिल्लस्स' उत्तरपश्चिमस्य वायव्यकोणयतिनः 'पासायनसगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'सागरचित्तेकूडे' सागरचित्र नाम कूटं प्रज्ञप्तम् , अस्य कूटस्याधिष्ठात्री 'वडरसेणा देवी' वज्रसेना नाम देवी प्रज्ञप्ता, अस्य कूटस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि प्रज्ञप्ता, इति सप्तमकटवर्णनम् । अथाष्टमबूटवर्णनम्-'उत्तरित्लस्स' औतराहस्य-उत्तरदिग्वर्तिनः भवणस्स' भवनस्य 'पुरत्यिमेग' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'उत्तरपुरथिमिल्लस्स' उत्तरपौरस्त्यस्य-ईशानकोणवर्तिनः 'पासायवडें मगस्स' प्रासादावतंसमस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पशिमेन पश्चिमदिशि 'वइरकूडे' बजटं नाम ङ्कटं प्रनाम्, अस्य कूटस्याधिष्ठात्री 'वलाहयादेवी' वलाहिका देवी प्रज्ञप्ता, अस्य कूटम्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरेणंति' उत्तरेण उत्तरदिशि प्रज्ञप्तेति अष्टमकूटवर्णनं गतम्८ । ___ अध नवमं बलकूटं सहस्राङ्गापरनामझमिति नन्दनवनकुटादितः पृथग्वर्णयितुमुपक्रमते'कहिणं भने !' इत्यादि क्व खलु भदन्त ! 'णंदणवणे' नन्दनवने 'वलकूडेणामं कूडे' वरकूट नागकूटं 'पण्याने ?' प्रज्ञसम् ?, 'गोयमा !' गौतम ! 'संदरस्स' मन्दरस्य 'पव्ययम्स' पर्वतस्य उत्तरेणं ७) उत्तर दिग्वर्ती भवन की पश्चिम दिशा में तथा वायव्यकोणवर्ति प्रासादावतंसक की पूर्व दिशा में सागर चित्र नामका कूट है पञलेना नामकी देवी यहां की अधिष्ठात्री देवी है इसकी राजधानी इस कूटकी उत्तरदिशा में हैं। (उत्तरिल्लस्स भवस्स पुरथिमेणं उत्तरपुरस्थिभिल्लस्स पासायपढ़ें . मगम पच्चधिमेणं पहरकडे बलाया देवी रायहाणी उत्तरेणंति ८) उत्तर दिग्वी भवन की पूर्वदिशा में तथा-ईशानकोणी प्रासादावतंसफ की पश्चिमदिशा में वज्रकूट नाता कूट है। इस कूट की अधिष्ठात्री देवी बलाहिका है इमली राजधानी कुट की उत्तरदिशा में है । (कहिणं भंते ! णंदणदणे यल. कृढे णाम लडे पण्णत्ते) हे भदन्न । नन्दनवन में पलकूट नामका कूट कहां पर कहा गया ? उत्तर में प्रभु कहने है-(गोयमा ! मंदरस्त पव्वयस्त उत्तरपुर मेणं उत्तरसच्चनियमिन्लम्स पासायवई मगम्स पुरथिमेणं सागरचित्त कूडे वहरसेणा देवी गयााणी उत्तरेणं . उत्तर ती लवननी पश्चिम शिम भर वायव्य भक्ती પ્રાસાદ વિતરકની પૂર્વ દિશામાં સાગરચિત્ર નામક કૃટ આવેલ છે. જેના નામે ત્યાં अधि: 21 2. मी यानी येनी उत्तर भां मावसी छ 'उत्तरिल्लम्स भवणान पुरथिमेश उत्तर पुरथिमिल्लास पासायव सगस्स पच्चस्थिमेणं अइग्कृडे वलाहया देवी गयदाणी उत्तरेणंनिहिती जननी पूर्व दिशाभ ने नवंती પ્રમાદાવનમકના પશ્ચિમ દિશામાં વિજ કર નામક કટ આવે છે. એ કૃની અધિષ્ઠાત્રી की RED. नी नी नी त हिशामा सावली . 'कमिणं भने ! गंदण गे या शाम को पगले' से htra! नवनमा मसट नाम ४८ ४या स्थणे मावस
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प्रकाशिका टीका -तुर्थवक्षस्कारः सू. ३७ नन्दनवन स्वरूपवर्णनम्
'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणे 'एत्थ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खलु 'णंदणवणे' अम्दनवने 'बलकूड़े णामं कूडे' बलकूटं नाम कूटं 'पष्णते' प्रज्ञप्तम् अत्रेदं तात्पर्यम् - मेरुगिरितः पञ्चाशद्योजनानन्तरे ईशानकोणे ज्ञानप्रासादः प्रज्ञप्तस्ततोऽपि ईशानकोणे बलकूटं नाम कूटं विशालतमस्य वस्तुन आधारस्यापि विशालतमत्वात् प्रकृते विशालतमस्य वल्कूटस्याधारभूतेशानकोणस्य विशालतमप्रमाणकत्वमिति । ' एवं ' एवम् अनेन प्रकारेण उक्ताभिलापानुसारेण 'जं चैव' यदेव 'हरिस्तहकूडस्स' हरिस्सहकूटस्य - माल्यवनामकवक्षस्कार पर्वतवर्तिनो नवमकूटस्य 'पमाणं' प्रमाणं सहस्रयोजनलक्षणं तगिरिकूटवर्णनप्रकरणे प्रागुक्तम् 'रायहाणी य' राजधानी च हरिस्सहा नाम्नी आयामविष्कम्भतश्चतुरशीति योजनसहस्रप्रमाणा वर्णिता 'तं चेव' तदेव प्रमाणं 'बलकूडस्सवि' वलकूटस्यापि वाच्यम्, एवं हरिस्सह राजधानी वद् बलकूटत्थिमेणं एत्थ णं णंदणवणे बलकडे णामं कूडे पण्णत्ते) हे गौतम । मन्दर पर्वत की ईशान विदिशा में नन्दनवन में बलकूट नामका कूट कहा गया इस कूटका दूसका नाम सहस्त्राङ्क कूट भी है इसका तात्पर्य ऐसा है कि मेरु पर्वत से ५० योजन आगे जाने पर ईशानकोण में ऐशान इन्द्र का प्रासाद है इसके भी ईशानकोण में यह बलकूट नामका कूट है । जो वस्तु विशालतम होती है यहां उस विशाल तम ही आधार की आवश्यकता होती है इस कूटकी आधारभूत जो विदिशा है वह विशालतम प्रमाणवाली है । ( एवं जं चेव हरिस्सह कूडस्स प्रमाणं रायहाणी अतं चैव बलकूडस्स वि, णवरं बलो देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणंति) इस तरह जो हरिस्सह कूटंकी - माल्यवान् पर्वतवर्ती नौवें कूट की - एक हजार योजनरूप प्रमाणता-पहिले कही गई है, तथा हरिस्सहा नामकी जो राजधानी आयाम विष्कंभ की अपेक्षालेकर ८४ हजार योजन प्रमाण वाली कही गई है वही सब कथन यहां पर भी कहलेना चाहिये अर्थात् इस बलकट का
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१ ४वाभां प्रभु ४ छे- 'गोयमा । मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरत्थि मेणं एत्थणं णंदणवणे बुलकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' हे गीतभ ! भन्दर भवर्तनी ईशान विद्विशामां नन्दनवनभां जसे ફૂટ નામક ફૂટ આવેલ છે. એ ફ્રૂટ સહસ્રાંક ફૂટ નામથી પણ સુપ્રસિદ્ધ છે આનુ તાત્પર્ય આ પ્રમણે છે કે મેરુ પર્યંતી ૫૦ ચેાજન આગળ જવાથી ઈશાન કાણુમાં ઐશાન ઇન્દ્રના મહેલ છે. તેના પણ ઈશાન કાણુમાં ॥ મલકૂટ નામક ફૂટ છે જે વસ્તુ વિશાલતમ ડાય છે, તેના માટે વિશાલતમ આધારની જરૂરત રહે છે. અહીં એ ફૂટની જે આધારભૂત વિદિશ छे ते विशासतभ प्रभाशवाणी छे. 'एवं जं चैव हरिस्सह कूडस्स पमाण रायहाणी अ तं चैव बलकूडरस वि, णवरं बलो देवो रायहाणी उत्तरपुरत्थिमेणं ति' मा प्रभा नवभ रिस्सड टूटनी भेट - માલ્યવાન પ તવતી નવમ ફૂટનીએક સહસ્ર ચેાજન રૂપ પ્રમાણુતા પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે. તેમજ હેરિસ્સહા નામે જે રાજધાની છે તે માયામ—વિષ્ણુભની અપેક્ષાએ ૮૪ હજાર ચાજન પ્રમાણુ જેટલી કહેવામાં આવેલી છે. આ પ્રમાણે શેષ મધુ કથન અહી
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसून स्यापि राजधान्या प्रमाणं वाच्यम् ‘णवर' नवरं-केरलं बलकूटस्याधिष्ठाता 'यलो देवो' बलों नाम देवः, हरिरुसहकूटस्य तु हरिरलहो नाम देव उक्त इति विशेपः, बलदेवस्यं 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरपुरस्थिमेणंति' उत्तरपौरस्त्येन-ईशानकोणे प्रजोति नवमक्टवर्णनं गतम्, इति मन्दरगिरिवति नन्दनवनगतानां नवकूटानां नन्दनबनकूटादि वर्णनम्, इति मन्दरवर्ति द्वितीयनन्दनवनवर्णनं समाप्तम् ।।मू ० ३७||
अथ तृतीयं सौमनसवनं वर्णयितुमुपक्रमगे-'कक्षिण भंते' इत्यादि । . .. मूलम्-कहि णं भंते ! मंदरे पव्यए सोमणसवणे णानं वणे पण्णत्ते ? गोयमा ! गंदणवणस्स बहुसमरराणिज्जाओ भूमिभागाओ अद्ध तेवट्रि जोयणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता एस्थ णं संदरे पव्वए सोमणसरणे णामं वणे पण्णत्ते, पंच जोयणसथाई पकवालविभेणं पट्टे दलयाकान्संठाणसंठिए जे णं मंदरं पव्वयं सवओ सरता संपरिक्खित्ता णं चिर्इ, चत्तारि जोयणसहस्लाइं दुषिण य पावत्तरे जोपणसए अटु य इकारसभाए जोयणस्स बाहिं गिरिविकावंभणं तेरस जोयणसहस्लाइं पंचय एकारे जोयणसए छन्च एकारसभाए जोयसल बाहिं गिरिपरिसरणं तिणि जोयणसहस्साइं दुष्णि य वायत्तरे जोयणलए अट्टय इकारसप्रमाण एक हजार योजन का है और बलकूट नानकी राजधानी के आयाम विष्कम्भ का प्रमाण ८४ हजार योजन का है (णवरं) पद द्वारा उसकी अपेक्षा जो यहां अन्तर है वह ऐसा है कि यहां पर पल नामका देव उसका अधिष्ठाता है हरिस्सह कूटका अधिष्ठाता हरिस्सह नामका देव है इस बलदेव की राज घानी इस कूटकी ईशान विदिशा में कही गई है। इस प्रकार से मन्दर गिरिवर्ति जो नन्दनवन है और इसमें जो ये नौ कूट हैं उनका सनका कथन समाप्त हुआ यह नन्दनवन अन्दरगिरिका द्वितीय वन है ॥३७॥ પણ સમજી લેવું જોઈએ. એટલે કે એ બલકૂટનું પ્રમાણ એક હજાર એજન જેટલું છે અને બલકૂટ નામની રાજધાનીના આયામ–વિષ્ક નું પ્રમાણ ૮૪ હજાર જન જેટલું છે. 'णवर' ५४ 48 मतायुती अपेक्षा २81 मत२ छ, ते २॥ प्रभारी छे .. અહીં બલ નામક દેવ એને અધિષ્ઠાતા છે. હરિસ્સહ ફૂટને અધિષ્ઠાતા હરિસ્સહ નામક દેવ છે. એ બલદેવની રાજધાની એ ફૂટની ઈશાન વિદિશામાં આવેલી છે. આ પ્રમાણે મન્દર ગિરિવર્તી જે નન્દન વન છે અને એમાં જે નવટે આવેલા છે. તે બધા વિષે यन समास थयु. मा नन्दनवन भन्४२ रनु द्वितीय 'वन छ. ॥ सूत्र-३७ ॥
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षत्कारः सू. ३८ सौमनसवनवर्णनम् भाए जोधणस्त अंतो गिरिविक्खंभेणं दस जोधणसहस्साइं तिणि य अउणापणे जोयणलए तिरिणय इकारसभाए जोशणस्ल अंतो गिरिपरिरएणति । सेणं एनाए पासवरवेइयाए हगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिस्वित्ते, वणओ किण्हे किण्होभासे जाव आसयंति कूडवज्जा सा चेत्र पंदणवणवत्ता आणिवा, तं चेत्र ओगाहिऊण जाव पालाय. सगा सकीसाणाणात ॥५० ३८
. :- छावा-क्व खलु भदन्त ! सन्दरे पर्वते सौमनसवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! नन्दनदनस्य वहुसमरमणीयाद् भूगिभागाद अर्द्धविष्टिं योजनसहस्राणि ऊर्ध्वमुत्पत्य अत्र खलु मन्दरे पर्वते सौमनसवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम्। पञ्चयोजनशतानि चक्रवालविष्कम्भेण वृत्तं वलयाकारसंस्थानसंस्थितं यद् सज्जु मन्दर पर्वतं सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति, चत्वारि योजनसहस्राणि द्वे च द्वासप्तले योजनशते अष्ट च एकादशभागान् योजनस्य वहिगिरिविष्कम्भेण त्रयोदश योजनसहलागि पञ्च च एकादशानि योजनशतानि च षट् च एकादशभागान् योजनस्य वहिगिरिपरिरयेण त्रीणि योजनसहस्राणि द्वे च द्वासप्तते योजनशते अष्ट च एकादशभागान् अन्तगिरिविष्कम्भेण दश योजनसहस्राणि त्रीणि च एकोनपश्चाशानि योजनशतानि श्रीश्च एकादशभागान योजनस्य अन्तगिरिपरिरयेणेति । तत् खल्लु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्तं वर्णकः कृष्णः कृष्णावभासो यावद् आसते, एवं कूटवर्जा सैव नन्दनवनवक्तव्यता भणितव्या, तदेव अवगाह्य यावत् प्रासादावतंसकः शक्रेशानयोरिति ॥सू० ३८॥
टीका-'कहि णं भंते ! मंदरे' इत्यादि-क्य खलु भदन्त ! 'मंदरे' मन्दरे मेरौ 'पवए' पर्वते 'सोमणवणे णाम' सौमनसवनं नाम 'वणे' व 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् ?, 'गोयमा !! गौतम ! 'णंदणवणस्स' नन्दनवनस्य 'बहुसमरमणिज्जाओ' बहुसमरमणीयात् 'भूमिभागाओ'
तृतीय लौमनसवनका वर्णन 'कहिणं भंते ! मंदरे पव्यए सोमणसवणे णामं वणे पण्णन्ते' इत्यादि। .
टीकार्थ-गौतमस्वामी ने इस सत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-(कहिणं भंते ! मंदरे पच्चए सोमणसवणे णानं वणे पण्णत्ते) हे अदन्त ! मन्दर पर्वत पर सौमनस नामका वन कहां पर कहा गया है । उन्नर में प्रभुश्री कहते हैं-(गोयमा ! णंदणव
તૃતીય સૌમનસ વનનું વર્ણન 'कहिणं भंते ! मंदरे पव्वए सोमणसवणे णाम वणे पण्णत्ते' इत्यादि ।
At-गौतमे मा सूत्र व प्रभुले And प्रश्न छ है 'कहिण भंते ! मंदरे पबए सोमणसवणे णामं वणे पण्णत्ते' मन्त ! भर पर्वत ५२ सौमनस नाम वन या स्थणे भास छ १ सना पासमा प्रभु ४३ छ. 'गोयमा! गंदणवणस्स बहुममरमणिज्जाओ
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___ जम्बूद्वीपप्राप्तियों भूमिभागात् 'अद्धतेवहि अर्द्धत्रिपष्टि-सा द्वापष्टि 'जोयणसहस्साई योजनसहस्राणि उद्धं उप्पइत्ता' ऊर्ध्वमुत्पत्य उपरि गत्वा 'इत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'मंदरे पचए' मन्दरे पर्वते 'सोमणसवणे णाम' सौमनसवनं नाम 'वणे' यनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तच्च 'पंचनोयण सहस्साई पञ्चयोजनशतानि 'चकवालविखंभेणं' चक्रवालविष्कम्भेण मण्डलाकारविस्तारण 'चट्टे' वृत्तं वर्तुलं 'वलयाकारसंठाणसंठिए' वलयाकारसंस्थानसंस्थितं-चलयो हि मध्यच्छिद्रयुक्तों भवति तद्वदाकारकसंस्थानेन संस्थितम्, एतदेव स्पष्टीकरोति-'जे' यत्-सौमनसवनं 'ण' खलु 'मंदरं पव्ययं मन्दरं पर्वत 'सकाओ' सर्वतः-सर्वदिक्षु 'समंता' सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ता' सम्परिक्षिप्य-परिवेष्टय 'ण' खलु 'चिटई' तिष्ठति, एतच्च कियद्विष्कम्भ कियत्पपरिक्षेपम् ? इति जिज्ञासायामाह-'चत्तारि चत्वारि 'जोयणसहस्साई योजनसहस्राणि 'दुण्णि य द्वे च 'वायत्तरे द्वासप्तते द्वासप्तत्यधिके 'जोयणसए' योजनशते 'बट य' अष्टाच 'इक्कारसभाए' एकादशभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'वाहि' वहिः 'गिरिविक्खंभेणं' गिरिविष्कम्भेण मेरुपर्वतविस्तारेण 'तेरस' त्रयोदश 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'पंचय पस्सं बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अद्धतेवढि जोयणसहस्साई उद्धं उपइत्ता एत्थणं मंदरे पव्वए सोमणसवणे णामं वणे पण्णत्ते' हे गौतम ! नन्दन वन के बहुंसमरमणीय भूमि भाग से ६२॥ हजार योजन ऊपर जाने पर मन्दर पर्वत के ऊपर सौमनसवन नामका वन कहा गया है । (पंच जोयणसयाई चकवाल.. विखंभेणं बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए' यह सौमनसवन पांचसौ योजन' के मण्डलांकाररूप विस्तार से युक्त है गोल है इसीलिये इसका आकार गोल घलय के जैसा हो गया है 'जे णं मंदरं पव्वयं सचओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्टई' यह सौमनसवन मन्दर पर्वत को सब ओर से अच्छी तरह घेरे हुए हैं 'चत्तारि जोयणसहस्साइं दुण्णि य वायत्तरे जोयणसए अट्ट य एकारसभाए जोयणस्स पाहिं गिरिविक्खंभेणं' इसका बाह्य विस्तार ४२७२ योजन- और १ भूमिभागाओ अद्धत्तेवष्टुिं जोयणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता एत्थणं मंदरे पव्वर सोमणसवणे णाम- वणे पण्णत्ते' गौतम! नन बनना मई सभरमणीय भूमि माथी १२॥ ७२ योन 8५२ गया मा २ पंतनी ५२ सौमनसवन नामे पन मावत छ. 'पंचजायणसयाई चक्कवालविखंभेणं वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए' मा सौमनस बन पांसे
જન જેટલા મંડળાકાર રૂપ વિસ્તારથી યુક્ત છે. ગોળ છે. એથી એને આકાર મેળqय । छे. 'जे णं मदरं पव्वयं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिदुइ' महर पतनी यामे२ मा सोमनसवन वीजाये छे. 'चत्तारि जोयणसहस्साई दुणिय वावत्तरे जोयण सए अट्ठय एक्कारसभाए जोयणस्स वाहिं गिरिविक्खंभेण' मेन माह्य विस्तार ४२७२ योनन भने मे योनना १३ भागमाथी ८ मा प्रभार छ. 'तेरस जोयणसहस्साइं छच्च एक्कारसभाए जोयणस्स पाहिं गिरिपरिरयण' मेला मा परिपनु प्रभा! १३५११ योजन
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३८ सौमनसवनवर्णनम् . ..... - पञ्च च 'एक्कारे' एकादशानि-एकादशाधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'उच्च' षड्च 'एकारसभाए' एकादशभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'बाहि' बहिः 'गिरिपरिरएणं' गिरिपरिरयेण गिरिपरिधिना, 'तिण्णि त्रीणि 'जोयणसहस्साई योजनसहस्राणि 'दुणि य' द्वे च 'बोवत्तरे' द्वासप्ततानि द्विसप्तत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'अह य अष्ट च 'एक्कारसभाए' एकादशभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'अंतो' अन्त: मध्ये नितम्बप्रदेशें 'गिरिविक्खंभेणं' गिरिविष्कम्भेण 'दस' दश 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'तिणि य' त्रीणि च 'अउणावण्णे' एकोनपंचाशानि-एकोनपश्चाशदधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'तिष्णिं य' त्रींश्च 'इक्कारसभाए' एकादशभागान 'जोयणस्स' योजनस्य 'अंतो' अन्त:-मध्ये 'गिरिपरिरएणं' गिरिपरिरयेण गिरिपरिधिना इति । अथ सौमनसवनं वर्णयितुं सत्रमाह-'से तत् 'ण' खलु सौमनसक्नं 'एगाए' एकया 'पउमवरवेइयाए' पद्मवरवेदिकया 'एंगेण य एकेन च 'वणसंडेणं' वनपण्डेन 'संचओ' सर्वतः 'समंता' समन्तात् 'संपरिक्खित्ते सम्परिक्षिप्त परिवेष्टितमस्ति, अनयोः पद्मवरवेदिका बनषण्डयोः 'वण्णाओ' वर्णका वर्णनपरपंद: समूहोऽत्र बोध्यः, स च पश्चमसूत्राद् ग्राह्यः, स च किम्पर्यन्तः ? इत्याह-'किण्हे किण्होभासे योजन के ११ भागों में से ८ भाग प्रमाण है 'तेरस जोयणसहस्साई पंच यं एक्कारे जोयणसए छच्च एकारसभाए जोयणस्स बाहिं गिरिपरिरएणं' इसका वोय परिक्षेप प्रमाण १३५११ योजन और १ योजन के ११ भागों में से ६ भाग प्रमाण है । 'तिणि जोयणसहस्साई दुष्णि य बावत्तरे जोयणसए अहय इंकारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविक्खंभेणं, दस जोयणसहस्साई तिण्णय. अउणापण्णे जोयणसए तिणिय एक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिपरिरएं। ति' इसका भीतरी विस्तार ३२७२ योजन और एक योजनं के ११ भागों में से ८ भाग प्रमाण है तथा इसका भीतरी परिक्षेत्र का प्रमाण १०३४९ योजन
और एक योजन के ११ भागों में से ३ भाग प्रमाण है.। 'सेगं एंगाए पउमेवरवेड्याएं एगेण य वणसंडेणं सवओं समंता संपरिक्खित्ते वण्णओ-किण्णे किण्हो भासे जाव आसयंति एवं कूडवज्ज सच्चेव णंदणवणवत्तव्वया भाणियंव्वा' भने १ योजना ११ मामाथी ६ मा प्रभा छ 'तिण्णि जोयणसहस्साई दुणिय धावत्तरे जोयणसए अद्वय एक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविक्खंभेणं, दस जोयणसहस्साई तिष्णिय अउणावण्णे जोयणसए तिण्णिय एकारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिपरिरयेणंति' सना ભીતરી વિસ્તાર ૩૨૭૨ જન અને એક એજનના ૧૧ ભાગમાંથી ૮ ભાગ પ્રમાણ છે. તેમજ આના અાંતરીય પરિક્ષેપનું પ્રમાણ ૧૦૩૪૯ ૨જન અને એક એજનનાં ११ मागोमाथी 3 मा प्रभार छ. 'से णं एगाए पज्वरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते वण्णओ-किण्णे किण्होभासे जाव आसयंति एवं फूडवज्ज सच्चेव णंदणवर्णवत्तव्वया भाणियव्वा' मा सौमसन मे पद्मावर २६ मन मे 43थीं थीभश्या
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जम्बूद्वीपतिसूत्रे
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जाव आसयंति' कृष्णः कृष्णावभासो यावदासते - कृष्णः कृष्णावभास इत्यारभ्य आसत इति पर्यन्तो वोध्यः, अयं सर्वः पाठः पञ्चमपष्टसूत्रतो चोव्यः अस्यार्थोऽपि तत एव ज्ञेयः । ' एवं ' एवम् उक्ताभिलापानुसारेण 'कूडवज्जा' कूटवर्जा - कूटवर्जिता 'सा चेव' सैव प्रागुक्तैव 'णंदणचणवत्तच्वया' नन्दनवनवक्तव्यता 'भाणियव्या' भाणितव्या वक्तव्या, सा च नन्दन- वनवक्तव्यता किम्पर्यन्ता ? इत्याह- 'तं चेव' इत्यादि तदेव मेरुपर्वतात् पञ्चाशद्योजनरूपं क्षेत्रम् 'ओगाहिऊण' अवगाह्य - प्रविश्य 'जाव पासायवडेंसगा सक्कीसाणंति' यावत् प्रासादावतंसकाः शक्रेशानयोरिति शक्रेन्द्रस्येशानेन्द्रस्य च प्रासादावतंसकवर्णनपर्यन्तेत्यर्थः इयं वक्तव्यता नन्दनवनवर्णनप्रकरणेऽनन्तरसूत्रे गता एतत्सौमनसवनवर्तिन्यो वाप्यः, ईशानादि - कोणक्रमेणेमाः - सुमनाः १ सौमनसा २ सौमनांसा 'सौमनस्या' ३ मनोरमा ४ इत्यैशान्याम्, उत्तरकुरुः १ देवकुरुः २ वारिषेणा ३ सरस्वती ४ इत्याग्नेय्यास्, विशाला १ माघभद्रा २. अभयसेना ३ रोहिणी ४ इति नैर्ऋत्याम् भद्रोत्तरा १ भद्रा २ सुभद्रा ३ भद्रा 'द्र' वती ४ वायव्याम् ||० ३८||
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यह सौमनस वन एक पद्मवर वेदिका और एक वनबंड से चारों ओर से घिरा हुआ है यहां पर इन दोनों का वर्णक पद समूह 'किन्ही किन्होभासे जाबआसयंति' इस पाठ तक कहलेना चाहिये यह पद समूह पंचम एवं छठें सूत्रमें प्रकट किया गया है। इस कूटों की वक्तव्यता को छोडकर बाकी की और सब वक्तव्यता जैसी नन्दन वन के प्रकरण में कही गई है वैसी ही यहां पर. कहलेनी चाहिये यह नन्दन वन वक्तव्यता 'मेरु से ५० योजन के आगे के क्षेत्र को छोडकर आगत इस स्थान में शकेन्द्र और ऐशानेन्द्र के प्रासादावतंसक है' यहां तक के पाठ तक ही यहां कहलेना चाहिये ।
इस सौमनसवन में ये ईशानादि कोण क्रम से १ सुमना, २ सौमनसा, ३. सौमनसा, एवं ४ मनोरमा ये ईशान दिशा में चार बावडिया हैं, उत्तर कुरु १, देवकुरु २, वारिषेणा ३, और सरस्वती. ४, ये चार वापिकाएं आग्नेय भावृत छे. अहीं से मन्नेनो वायु यह समूह 'किण्होकि हो भासे जव आसयति' मा - ૫૭ સુધી કહી લેવા Àઈએ. આ પદ સમૃહ પંચમ અને ષષ્ઠ સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. એ કૂટાની વક્તવ્યતાને ખાદ કરીને શેષ બધી વક્તવ્યતા જે પ્રમાણે નદનવનના પ્રકરણનાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે તે પ્રમાણે જ અહીં પણ કહી લેવી જોઇએ. આ 'नन्दनवनवक्तव्यता' भेरुपी ५० योजन भेटला मागणना क्षेत्रने छोडीने यावेसा स्थानभां શક્રેન્દ્ર અને ઐશાનેન્દ્રને પ્રાસ દાવત ́સ છે. અહી સુધીના પ૪ સુધી કહી લેવી જોઇએ. એ સૌમનસ વનમાં ઇશાનાદિ કાણુકમથી ૧ સુમના, ૨ સૌમનસા, ૩ સૌમનાંસા तेभनं ४ भनारभा से शिनहिशाभां ४ व पियो छे. उत्तरकुरु - १, देव२ -२, वारिषेशा ૩, અને સરસ્વતી ૪ એ ૪ વાર્ષિકાએ આગ્નેય દિશામાં આવેલી છે. વિશાલા ૧,. માઘ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३९ पण्डकवनवर्णनम् अर्थ मन्दरगिरिवर्ति पण्डकवनं नाम चतुर्यक्नं वर्णयितुमुपक्रमते-कहि णं भंते ! इत्यादिः ।
मूलम्-कहि णं अंते ! मंदरपठनए पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते.?. गोयमा ! सोमणसवणस्ल बहुसभरमणिजाओ भूमिभागाओ छत्तीसं जोयणसहस्साई उद्धं उपइत्ता एत्थ णं मंदुरे पव्वए सिहरतले पंडग... वणे णामं दणे पणत्ते, चत्तारि चउणउए जोयणसए चकवालविक्खें. भेणं वटे वलयाकारसंठाणसंठिए, जेणं मंदरचूलियं सव्वओ समंता, संपरिक्खित्ताणं चिटुइ तिणि जोगणसहस्साइं एगं च बावटुं जोयण-:, सयं किंचित्रितेसाहियं परिवेश, सेणं एगाए पउपवरवेइयाए एगेण य वणसडेणं जाव किण्हे देना आसयंति, पंडगवणस्त बहुमज्झदेसभाए' एत्थ णं मंदरचूलिया णामं चूलिया पण्णत्ता बत्तालीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं सूले बारस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे अट्ट जोयणाई विक्खभेणं उप्पि चत्तारि जोयणाई पिक्खंभेणं मूले साइरेगाई सत्तत्तीसं जोयणाई परिक्खेवेणं मज्झे साइरेगाई पणबीसं जोयणाई परिक्खेवेणं उप्पि साइरेगाई वारसजोयणाई परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उणि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्ववेरुलियामई अच्छा सा णं एगाए पउलवरवेइयाए जान संपरिक्खित्ता इति उपि बहुसमरमणि-. ज्जे सूमिमाए जाव सिद्धाययणं बहुमज्झदेससाए कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसय जाव. धूवकडच्छुगा, मंदरचूलियाए णं पुरस्थिमेणं पंडगवर्ण पण्णासं जोयणाई ओगाहिता एत्य णं महं एगे भवणे पण्णत्ते एवं जच्चेव सोमणसे
दिशा में हैं विशाला १, माघभद्रा २, अभयसेना ३, और रोहिणी ४, ये चार वापिकाएं नैदत्यकोण में हैं, तथा. भद्रोत्तरा, १, भद्रा २, सुभद्रा ३, और भद्रावती ४, ये चार वापिकाएं वायव्य विदिशा में हैं ।।३।। ભદ્રા ૨, અભયસેના ૩ અને રોહિણી ૪ એ ચાર વપિકાઓ જોઈત્ય કેણુમાં આવેલી છે. તથા ભદ્રોત્તર ૧, ભદ્રા-૨, સુભદ્રા, ૩ અને ભદ્રાવતી ૪ એ ચાર વપિકાએ વાયવ્ય દિશામાં આવેલી છે. તે ૩૮ છે
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जम्बूद्वीपमति
godaforओ गमो भवणाणं पुक्खरिणीणं पासायवडेंसगाण य सो चेव जा सकीसाणवडेंसगा ते णं चैव परिमाणेणं ॥ सू० ३९॥
छाया-क खलु भदन्त ! मन्दरपर्वते पण्डकवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! सौमनसवनस्य बहुसमरमणीयाद भूमिभागात् पत्रिंशतं योजनसहस्राणि ऊर्ध्वमुत्पत्य अत्र खलु मन्दरेपर्वते शिखरतले पण्डकवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम्, चत्वारि चतुर्नवतानि योजनशतानि चक्रवालविष्कंभेणं वृत्तं वलयाकार संस्थानसंस्थितं यत् खलु मन्दरचूलिकां सर्वतः समन्तात् सम्परि "क्षिप्य खल तिष्ठति त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वापरं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण, तत् खलु एकया पद्मवर वेदिकग्रा एकेन च वनपण्डेन यावत् कृष्णः देवा आसते, पण्डवनस्य बहुमध्यदेश भागे अत्र खल मन्दरचूलिकानाम चूलिका प्रज्ञप्ता चतुश्चत्वारिंशर्त योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन मूळे द्वादश योजनानि विष्कम्भेण मध्ये अष्ट योजनानि विष्कम्भेण उपरि चत्वारि योजनानि विष्कम्भेण मूळे सातिरेकाणि सप्तत्रिंशतं योजनानि परिक्षेपेण मध्ये सांतिरेकाणि पञ्चविंशति योजनानि परिक्षेपेण उपरि सातिरेकाणि द्वादश योजनानि परिक्षेपेण मूळे विस्तीर्णा, मध्ये संक्षिप्ता, उपरि तनुका, गोपुच्छसंस्थान संस्थिता सर्ववैदूर्यमृयी अच्छा सा खल एकया पद्मवरवेदिकया यावत् संपरिक्षिप्ता इति उपरि बहुसमरमणीय भूमिभागो यावत् सिद्धायतनं वहुमध्यदेशभागे क्रोशमायामेन अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेण 'देशोनेकं क्रोशमूर्ध्वमुच्चत्वेन अनेकस्तम्भशत यावद् धृपकच्छुका, मन्दरचूलिकायाः खलु पौरस्त्येन पण्डकवनं पञ्चाशतं योजनानि अवगाह्य अत्र खलु महदेकं भवनं प्रज्ञप्तम्, एवं य एव सौमनसे पूर्ववर्णितो गमो भवनानां पुष्करिणीनां प्रासादावतंसकानां च स एव नेतव्यः यावत् शुक्रेशानयोः प्रासादावतंसकाः तेनैव परिमाणेन ॥०३९ ॥
टीका- 'कहि णं भंते!' इत्यादि - क्व खलु भदन्त ! 'मंदर पव्वए' मन्दरपर्वते 'पंडग़वणे णामं' पण्डकवनं नाम 'वणे' वनं 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तम्, 'गोयमा !' गौतम ! 'सोमणसवणस्स' सौमनवनस्य बहुसमरमणिज्जाओ' बहुसमरमणीयाद् 'भूमिभागाओ' भूमिभागात् 'छंतीसं '
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पण्डकवनका वर्णन
'कहिणं भंते ! मंदरपच्चए पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते' इत्यादि । टीकार्थ- गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा इस सूत्रद्वारा पूछा है- 'कहि भूते ! मंदरपव्चए पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते' हे 'भदन्त ! मंदर पर्वत पर पण्डकवन नामका वन कहाँ पर कहा गया है १ उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा !
પણ્ડક વનનું વર્ણન
'कहिणं भंते! मंदरपत्रए पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते' इत्यादि
टीष्ठार्थ-या सूत्र वडे गोतमे अलुने प्रश्न ये है 'कहिणं भंते ! मंदरपव्त्रए पंडगवणे णामं वणे पण्णसे' हे लत ! भंडर पर्वत पर एडवन नामक वन या स्थजे आवेस छे ?
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३९ पण्डकवनवर्णनम् पट्त्रिंशतं 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उप्पइत्ता' उत्पत्य-गत्या 'एत्य अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु मंदरे पाए' मन्दरे पर्वते 'सिहरतले' शिखरतले-शिरोभागे 'पंडगवणे णाम' पण्डकवनं नाम 'वणे' वनं प्रज्ञप्तम्, तच्च ‘चत्तारि' चत्वारि 'चउणउए' चतुर्नवतानि चतुर्नवत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'चक्कवालविक्खंभेणं' चक्रवालविष्कम्भेण मण्डलाकारविस्तीरेण 'बट्टे' वृत्तं-वर्तुलं 'वलयाकारसंठाणसंठिए' वलयाकारसंस्थानसंस्थितं रिक्तमध्यकङ्कणवत् मध्ये तरुलतागुल्मादि रहिततया संस्थिम् एतदेव स्पष्टी- . करोति-'जे' यत् पण्डकवनं 'ण' खलु 'मंदरचूलिभ' मन्दरचूलिकां 'सव्वओ' सर्वतः सर्वदिक्षु 'समंता' समन्तात्-सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ता' सम्परिक्षिप्य परिवेष्टय 'ण' खलु 'चिठ्ठइ' तिष्ठति 'तिण्णि' त्रीणि 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'एगं च' एकं च 'बावर्ट' द्वाषष्टं-द्वाषष्टयधिक 'जोयण सयं योजनशतं 'किंचिक्सेिसाहियं' किश्चिद् विशेषाधिककिञ्चिदधिकं 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तम्, तत्पुनः पमरवेदिका वनंपण्डाभ्यों सोमणसवणस्स बहु समरमणिज्जाओ भूमिभागाओ छत्तीसं जोयणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता एस्थ णं मंदरे पव्वए लिहरतले पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते' हे गोतम ! सौमनसवन के बहसमरमणीय भूमि आग से छत्तीस हजार योजन ऊपर जाने पर आगत इसी स्थान पर मन्दर पर्वत के शिखर तल पर यह पण्डक वन नामका वन कहा गया है 'चत्तारि चउणउए जोयणसए चक्कवालविक्खंभेणं वहे वलयाकारसंठाणसंठिए' यह समचक्रवाल विष्कम्भ की अपेक्षा ४९४ योजन प्रमाण है यह गोल है तथा उसका आकार गोलाकार वलय के जैसा है जिस प्रकार वलय अपने मध्य में खाली रहता है उसी प्रकार यह वन भी अपने बीच में तरुलता गुल्म आदि से रहित है। 'जे णं मंदरचूलिअं सचओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिटई' यह पण्डक वन मंदर पर्वत की चूलिकाको चारों ओर से घेरे हुए हैं ! (तिष्णिजोयणसहस्साई एगंच बावर्ट जोयणसयं
मेन वामभा प्रभु ई -गोयमा ! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागांओ छत्तीसं जोयणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता एत्थणं मंदरे पव्वए सिहरतले पंडगरणे णामं वणे पण्णत्तें' હે ગૌતમ! સૌમનવનના બહુ સમરમણીય ભૂમિભાગથી ૩૬ હજાર યોજન ઉપર ગયા પછી જે સ્થાન આવે છે તે સ્થાન પર મંદર પર્વતના શિખર પ્રદેશ ઉપર આ પણ્ડકવન નામક पन मावे छे. 'चत्तारि चउणउए जोयणसए चक्कवालविक्खंभेणं वटूटे वलयाकारसंठाणसंठिए' मा समन्यवाद qिex सनी अपेक्षा ४८४ या प्रभार छे. मागोवारमा છે તથા તેને આકાર ગોળાકાર વલય જેવું છે. જેમ વલય પિતાના મધ્યમાં ખાલી રહે छ तभ०४ मा वन पर पोताना मध्यभागमा तरु-सता गुम वगेरेथी दहित छ. 'जे गं मंदरचूलिअं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिदई' मा ५९४ भर तना यूलिआने योमरथी मात ४श मस्थित छ. 'तिणि जोयणसहस्साई एगं च बावटुं जोयण
ज०६०
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जम्बूद्वीपप्राप्ति 'परिवेप्टितत्वेन वर्णयितुमाह-'से णं एगाए' 'तत् खलु एकया 'पउमवरवेइयाए' पद्मवरवेदिकया 'एगेण य' एकेन च 'वणसंडेणं' वनपण्डेन' इत्यारभ्य 'जाव किण्हे देवा आसयंति' यावत् 'कृष्णो देवा आसत' इति पर्यन्तो वर्णकोऽत्र वोध्यः, स च सार्थः पञ्चमपष्ठसूत्राभ्या. -मवगन्तव्यः, अथ पण्डकव नवेष्टितां मन्दरचूलिकां जातजिज्ञासां वर्णयितुमुपक्रमते-पंडगवणस्स' इत्यादि-पण्डकवनस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे अत्यन्तमध्यदेशभागे 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'मंदरचूलिया णामं चूलिया' मन्दरचूलिका मन्दरस्य-मेरु. 'गिरेः चूलिका चूला-शिखा सैर चूलिका, मन्दरचूलिका नाम चूलिका 'पण्णता' प्रज्ञप्ता, सा च 'चत्तालीसं' चत्वारिंगत 'जोयणाई' योजनानि 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'मूले' मूळे-मूलदेशावच्छेदेन 'बारस' द्वादश 'जोयणाई' योजनानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण प्रज्ञप्तेति शेपः, एवमग्रेऽपि, 'मज्झे' मध्ये-नितम्ब देशावच्छेदेन 'अट्ट' अष्ट 'जोयणाई' योजनानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण 'उप्पि' उपरि-शिखरावच्छेदेन 'चत्तारि' किंचिंविसेसाहियं परिक्खेवेण) इसका परिक्षेप-परीधि कुछ अधिक एक हजार एक सौ ६२ योजन का है। 'सेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव किण्हे किण्होभासे देवा आसयंति' यह पण्डकवन एक पावर वेदिका से और एक वनषंड से चारों ओर से घिरा हुआ है यावत् यह वनषंड कृष्ण है वानव्यन्तर देव यहां पर आराम विश्राम करते हैं । यह सब कृष्णादि रूप वर्णन पंचम एवं षष्ठ सूत्रों से जानलेला चाहिए।
'पंडगवणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं मंदरचूलिभा णामं चूलिआ पण्णत्ता चत्तालीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं मूले बारस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं उपि चत्तारी जोयणाई विक्खंभेणं, मूले साइरेगाई सत्तत्तीसंजोयणाई परिक्खेवेणं' इस पण्डक वन के बहुमध्य भाग में एक मंदरचूलिका नामकी चूलिका है यह चूलिका ४० योजन प्रमाण ऊंची है मूल देशमें इसको सय किचि विसेसाहियं परिक्खेवणं' मानो परिक्ष५ (464) अधिः ११६२ योरन
से छे. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव किण्हे किण्होभासे देवा જાતિ આ પાણ્ડક વન એક પદ્વવર વેદિકાથી અને એક વનખંડથી ચોમેરથી આવૃત છે. ચાવતુ આ વનખંડ કૃષ્ણ છે. વનવ્યંતર દેવે અહીં આરામ-વિશ્રામ કરે છે. આ मधु l ३५ पन यम भने १४ सूत्रामाथी नया वु नये. 'पंडरावणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्यणं मंदरचूलिआ णामं चूलिआ पण्णत्ता चत्तालीसं जोयणाई उद्धं उच्चतेण मूळे घारस जोयणाई विक्खंभेणं मझे अढ जोयणाई विक्खंभेणं उप्पिं चत्तारि जोयणाई विक्ख. भेणं, मूले साइरेगाई सत्ततीसं जोयणाई परिक्खेवेणं' मा ५९७५ बनना महु मध्यभागमा એક મંદર ચૂલિકા નામક ચૂલિકા છે. આ ચૂલિકા ૪૦ એજન પ્રમાણ ઊંચી છે. મૂલ દેશમાં આને વિધ્વંભ–વિસ્તાર–૧૨ જન જેટલું છે. મધ્યભાગમાં અને વિસ્તાર આઠ ચાજન
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः रु. ३९ पण्डकवनवर्णनम्
४७५ चत्वारि 'जोयणाई' योजनानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेग, पुनः 'मूळे' मूलावच्छेदेन 'साइरेगाई' सातिरेकाणि किश्चिदधिकानि "सत्तत्तीसं' सप्तत्रिंशतं 'जोयणाई' योजनानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना तथा 'मज्झे' मध्ये 'साइरेगाई' सातिरेकाणि 'पणवीसं पञ्चविंशति 'जोयणाई योजनानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण वर्तुलत्वेन 'उप्पि' उपरि 'साइरेगाई' सातिरेकाणि 'वारस' द्वादश 'जोयणाई योजनानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण 'मूले मूले 'विच्छिण्णा' विस्तीर्णा मध्योपरिभागापेक्षया विस्तारवती मज्झे' मध्ये 'संखित्ता' संक्षिप्ता मूलापेक्षयाऽल्पविस्तारा 'उपि' उपरि 'तणुया' तनुका मूलमध्यापेक्षयाऽल्पतरविस्तारा अत एव 'गोपुच्छसंठाणसंठिया' गोपुच्छसंस्थानसंस्थिता-जीकृतगोपुच्छाकारेण स्थिता, तथा 'सबवेरुलियामई' सर्ववैडूर्यमयी सर्वात्मना वैडूर्यमणिमयी तथा 'अच्छा' अच्छा-आकाशस्फटिकवन्निर्मला अथैतां पद्मवरवेदिका वनपण्डाभ्यां परिवेप्टिततया वर्णयति-'सा णं' एगाए' सा मन्दरचूलिका खल एकया 'पउमवश्वेइयाए' पद्मवरवेदिकया 'जाव' यावत् विष्का-विस्तार-१२ योजन का है मध्यभाग में इसका विस्तार आठ योजन का है शिखरभाग में इसका विस्तार चार योजन का है खूल भाग में इसका परिक्षेप कुछ अधिक ३७ योजन का है तथा 'मज्ञ साइरेगाईपणवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं' मध्यभाग में इसका परिक्षेप कुछ अधिक २५ योजन का है 'उप्पिसाइरेगाईघारस जोषणाई परिक्खेवेणं' ऊपर में इसका परिक्षेप कुछ अधिक १२ योजन का है।"भूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उपित्तणुआ गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्ववेलियामई अच्छा' इस तरह यह मूलमें विस्तीर्ण मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में पतली हो गई है अतः इसका आकार गायकी उर्वीकृत पूंछ के जैसा हो गया है । यह सर्वात्मना वज्रमय है और आकाश एवं स्फटिक-स्फटिक मणि के जैसी निर्मल है। 'साणं एगाए पउपवरवेड्याए जाव संपरिक्खित्ता इति' यह मन्दर चूलिका एक पावर वेदिका और एक वनषण्ड से चारों ओर से घिरी हुई है यहां यावत्पद से 'एकेन वनषण्डेन च सर्वतः समन्तातू' यह पाठ ग्रहीत જેટલું છે. શિખર ભાગમાં આનો વિસ્તાર ચાર એજન જેટલું છે. મૂલ ભાગમાં આવે परिक्ष५ ४४ अधि: 3७ यान - 22वी छ. तथा 'मझे साइरेगाई पणवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं' मध्य भागमा गाना प२२५ ४ मधि४ २५ योशन । छे. 'उप्पि साइरेगाइं बारस जोयणाई परिक्खेवणं'. परिक्षामा याना परि२५४७ अधिः १२ योजन
सो छ. 'मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पि तणुआ गोपुच्छसंठाणसांठया सव्व वेरु लियामई अच्छा' मा प्रभाव मा भूदमा विस्तायु, मध्यमा सक्षिस भने परि भागमा પાતળી થઈ ગઈ છે. એથી આને આકાર ગાયના ઉથ્વીકૃત પૂંછ જે થઈ ગયો છે. આ सत्मिना भय मन मा तभ० २६२४२वी निभग छे. 'सा णं एगाए पउमवरवेड्याए जाव संपरिक्खित्ता इति' भी भ२ यूलि ४ ५१२ ३६ भने ४ नमथा.
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जम्बूद्वीपप्रमप्तिसूत्र यावत्पदेन 'एकेन वनपण्डेन च सर्वतः समन्तात्' इति सङ्ग्राह्यम् एषां पदानां व्याख्या प्राग्वत् 'संपरिक्खिता' संपरिक्षिप्ता परिवेष्टितेति, अथास्यां चूलिकायां बहुसमरणीयभूमिभागं तत्र सिद्धायतनं च वर्णयितुमुपक्रमते-'उम्पि बहुसमरमणिज्जे' इत्यादि-उपरि मन्दरचूलिकाया उपरि शिखर इत्यर्थः बहुसमरमणीयो 'भूमिभागे' भूमिभागः 'जाव' यावत् यावत्पदेन-'प्रज्ञप्तः स यथानामकः आलिङ्गपुष्करमिति वा' इत्यारभ्य 'तस्य बहुमध्यदेशभागे' इति पर्यन्तः पाठः साह्यः स च पष्ठसूत्रादवसेयः, तत्र 'सिद्धाययणं' सिद्धायतनं प्रज्ञप्तम् क्वेति जिज्ञासायामाह-'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे बहुसमरमणीयभूमिभागः वर्तिनि सिद्वायतं प्रज्ञानमित्यन्त्रपा, तच्च कोसं आयामेग' क्रोशम् आयामेन दैर्येण तथा 'अद्धकोसं विखंभेणं' अर्द्धकोशं क्रोशस्याईम्, विष्कम्भेण विस्तारेण तथा 'देसूर्ण कोसं' देशोनं-किञ्चिद्देशन्यून क्रोशस् 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन तथा 'अणेगखंभसय जाव हुआ है । 'उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव सिद्धाययणं बहु मज्झ देससाए कोसं आयामेणं अद्धकोसं विखंभेणं देसूर्ण कोसं उद्धं उच्चत्तण अणेगखंभलय जाव धूवकडच्छुगा' मन्दर चूलिका के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है यहां यावत्पद से 'प्रज्ञप्तः, स यथानासकः आलिङ्ग पुष्कर मितिवा इस पाठ से लेकर 'तस्य यहु मध्यदेशभागे' यहां तक का पाठ ग्रहीत हुआ है यह पाठ छठे सूत्र से जानलेना चाहिये उस भूमिभाग में एक सिद्धायतन कहा गया है यह सिद्धायतन आयाम में एक कोश का है और विस्तार में आधे कोशका है तथा ऊंचाई में यह कुछ कम एक कोशका है यह अनेक संकडो खंभों के ऊपर टिकाहुआ है अर्थात खडा हुआ है इस सिद्धायतन के वर्णन में 'अनेक स्तम्भशतसंनिविष्ट इस पद से लेकर धूपकडच्छुकानामष्टोत्तरशतम्' यहां तक का पाठ लेना चाहिये-अर्थात् १०८ यहां पर धूपके कटा हे हे करच्छु' इस पाठको जानने के लिये पन्द्रहवां सूत्र देखना चाहिये इस सिद्धायतन के थोरथी भात छ. मी यावत् १४थी "एकेन वनपण्डेन च सर्वतः समन्त त्” भा या गृहीत थय छे. उपिं बहु समरमणिज्जे भूमिभागे जाव सिद्धाययणं बहु मझदेसभाए कोस आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूण कोसं उद्वं उच्चत्तेणं अणेग खंभसय जाव धूव; કાદુ મંદર ચૂલિકાની ઉપર બહુ સમરમણીય ભૂમિભાગ આવે છે. અહીં યાવત ५४थी "प्रज्ञप्तः स यथानामकः आलिङ्गपुष्करमिति,वा" मा पाथी भांडी. "तस्य बहु मध्य देशभागे" मी सुधीना ५४ सहीत येतो छ. मा ५४ १५ सूत्रमाथी लामी सेवन તે ભૂમિ ભાગમાં એક સિદ્ધાયતન આવેલું છે. આ સિંહાયતન આયામમાં એકગાઉ જેટલું છે. તથા વિસ્તારમાં અગાઉ જેટલું છે. તથા ઊચાઈમાં આ કંઈક કમ એક ગાઉ જેટલું છે. આ सिद्धायतन सस्त मे S५२ अवस्थित छे. या सिद्धायतनना पनमा अनेक स्तम्भशत. सन्निविष्ठ' पहली भांडी धूपकडच्छुकानामष्टोत्तरशतम्' मही सुधीन 48 समन्व . भने ४१०८ माडी धूपटाडा छे. 'करच्छु' को ५४२ सभा भाट १५भी सूत्रने पाय
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प्रकाकाशि टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सु. ३९ पण्डकवनवर्णनम्
धूवकडच्छुभा' अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टमित्यारभ्य धूपकच्छुकानामष्टोत्तरशतमित्यन्तो वर्णकोsa बोध्यः, तत्र 'अनेकस्तम्भेत्यादि वर्णकः सिद्धायतनस्यास्ति स पञ्चदशसूत्रे प्रागुक्त इति ततो ग्राह्यः, तदर्थोऽपि तत एव बोध्यः तस्य खलु सिद्धायतनस्य वहुमध्यभागे महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता तद्वर्णक राजप्रश्नीयसूत्रस्य एकोनाशीतितमसूत्रतो वोध्यः तत्र मणिपीठायां महानेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः, तत्र जिनप्रतियाः सन्ति तासां पुरतोऽष्टोत्तरशतं घानाम् अष्टोत्तरशतं चन्दनकलशानाम् अष्टोत्तरशतं भृङ्गाराणाम् अष्टोत्तरशतमादर्शानास् अष्टोत्तरं स्थालानाम्, पात्रीणां सुप्रतिष्ठानां मनोगुलिकानां वातकराणां चित्रकराणां रत्नकरण्डकाणां कण्ठानां कोष्ठसमुद्गानां हरितालसमुद्गानां हिङ्गुलकसमुद्गानां मनः शिलासमुद्गानाम् अञ्जनसमुद्गानां ध्वजानां तथा धूपकच्छुकानां प्रत्येकमष्टोत्तरशतं संनिक्षिप्तं तिष्ठतीति पर्यन्तो वर्णको राजप्रश्नीयसूत्रस्याष्टसप्ततितमसूत्राद्यशीतितमपर्यन्तसूत्रेभ्यो बोध्यः तदर्थोऽपि तत एव बोध्यः,
अथास्मिन पण्डवने भवन पुष्करिणी प्रासादावतंसकान् वर्णयितुमुपक्रमते 'मंदर चूलियाए णं' इत्यादि - मन्दरचूलिकायाः खल 'पुरत्थिमेणं' पूर्वदिशि 'पंडगवणं' पण्डकवनं 'पंचा' पञ्चाशतं 'जोयणाई' योजनानि 'ओगाहित्ता' अवगाह्य - प्रविश्य 'एत्थ' अत्रबहु मध्यदेश भांग में एक विशाल मणिपीठिका है इसका वर्णक पाठ राजप्रश्नी सूत्र के ७९ वें नम्बर के सूत्र से समझलेना चाहिये उस मणिपीठिका के ऊपर एक देवच्छन्दक नामका स्थान है यहां पर जिन 'यक्ष' प्रतिमाएं हैं इनके आगे १०८ घंटाएं उगी हुई हैं, १०८ चन्दनकलश रखे हुए हैं १०८ भृङ्गारक रखे हुए हैं १०८ दर्पण रखे हुए हैं १.०८ बडे बडे थाल रखे हुए हैं १०८ पात्री - छोटे२. पात्र - रखी हुई है इत्यादिरूप से यह सब कथन १०८ धूपकडुच्छुकरखे हुए हैं यहां तक जानना चाहिये इस वर्णन को जानने के लिये राजप्रश्नीय सूत्रका ७८ सूत्र से लेकर ८० नं. तक का सूत्र देखना चाहिये 'मंदर चूलिआएणं पुरत्थिमेणं पंडगवणं पण्णास जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं भवणे पण्णत्ते एवं जच्चेवसोજોઈએ. આ સિદ્ધાયતનના મહું મધ્ય દેશ ભાગમાં એક વિશાળ મણિપીઠિકા આવેલી છે. આ પીઠિકાનુ` વર્ષોંન ‘રાજપક્ષીયસૂત્ર' ના ૭૯ માં સૂત્રમાં કરવામાં આવેલું છે. એ મણિપઠિકાની ઉપર એક દેવઋંદ નામક સ્થાન આવેલુ છે. અહી જિન (યક્ષ) પ્રતિમાઓ આવેલી છે. એની આંગળ ૧૦૮ ઘટા લટકી રહ્યા છે. ૧૦૮ ચદન કળશા મૂકેલા છે. ૧૦૮ શ્રૃંગારકા મૂકેલા છે. १०८ । भूईसा छे. १०८ भोटा-मोटा थाणा भूसा थे, १०८ यात्रीयो- ( नाना पात्रो) મૂકેલી છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં અહીં બધુ કથન ૧૦૮ ધૂપ કટાહા મૂકેલા છે. અહીં સુધી જાણી લેવુ જોઈએ. એ વન વિષે જાણવા માટે રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના ૭૮ માં સૂત્રથી भांडीने ८०भा सूत्र सुधी लेड से लेहध्ये. 'मंदरचूलिआएणं पुरत्थिमेणं पंडवणं पण्णा जोयणाई' 'ओगाहित्ता एत्थणं महं एगे भवणे पण्णत्ते एवं जच्चेव सोमणसे पुव्ववण्णिओ'
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जम्बूद्धीपप्रवतिसूत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'महं एगे भवणे' महत् विशालम् एकं भवनं गृहं सिद्धायतं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् ‘एवं' एवम् भवनवत् पुष्करिण्यः प्रासादावतंसका अपि वक्तव्याः ते भवनादयः कीदृशाः इत्यपेक्षायां तद्वर्णनाय सौमनसवनवति भवनादि पाठं सूचयितुमाह-'जच्चेव सोमणसे पुन्चवणिो गमो' इत्यादि य एव सौमनसे सौमनसाख्ये मन्दरवर्तिनि तृतीयवने वर्ण्यमाने सति पूर्ववर्णित:-पूर्वम्, पण्डकवनवर्णनात् प्राक् वर्णितः-आयामविष्कभवर्णादिना भणितो गमः पाठः 'सो चेव' इत्यग्रेतनेन सम्बन्धः स एव पाठः 'भवणाणं' भवनानां 'पुक्खरिणीणं' पुष्करिणीनां 'पासायवडेंसगाणं' प्रासादावतंसकानां 'य' च 'णेयव्यो' नेतव्य:-योध्या, स च गमः पाठः किम्पर्यन्तः ? इत्यपेक्षायामाह-'जाव सकीसाणवटेंसगा' यावत् शक्रेशानयोः प्रासादावतंसकाः-शकेन्द्रस्य तथेशानेन्द्रस्य तत्तदिग्वनि पुष्करिणी मध्यवर्ति प्रासादावतंसकवर्ण पर्यन्त इत्यर्थः, स च गमः सौमनसवनप्रकरणतो वोध्या, ते च शक्रेशानप्रासादासकाः केन प्रमाणेन वोध्या: ? इति जिज्ञासायामाह-'ते णं चेव पमाणेणं' तेनैव सौमनसवनगमोक्तनै प्रमाणेन आयमादिना वोध्याः, अयमाशयः-यथा सौमनसवनवर्णनप्रसङ्गे वर्जितः सिद्धायतनादि व्यवस्थापका पाठ उक्तः तथाऽत्रापि वाच्यः सदृशवर्णकमणसे पुव्यवपिणओ गनो भवणाणं पुस्खरिणीणं पासायवडे सगाणय सो चेष णेयचो जाव सक्कीसाणवढेसगा तेणंचेव पमाणेणं' इस मंदर चूलिका की पूर्वदिशा में पण्डकवन है इस पण्डकवन में ५० योजन आगे जाकर एक विशाल भवन सिद्वायतन कहा गया है इसी प्रकार से पुष्करिणियां और प्रासादावतंसक भी कहे गये हैं इन सबका वर्णन जैसा लौमनसवन के वर्णन प्रसङ्ग में कहा जा चुका है वैसा ही यहां पर भी कहलेना चाहिये थावत् यहां के नत्तत्पुष्करिणीमध्यवर्ती प्रासादावतंसक और ईशानातकईशानेन्द्र संबंधी हैं । यदि इस वर्णन को जानना हो तो सौमनसवन प्रकरण देखना चाहिये सौमनसवन वर्णन के प्रसङ्ग में कूटवर्जित सिद्धायतनादिव्यवस्थापक पाठ जैसा कहा गया है वैसा ही वह पाठ यहां पर भी कहलेना चाहिये यहां पर वापिकाओं के नाम यद्यपि प्रकट गमो भवणाणं पुक्खरिणीणं पासायवडे सगाणय सो चेव णेयव्यो जाव सक्कीसाणवडें सगा तेणं चेत्र पमाणेज' मा महर यूबिना पू शामा ५४ छ. म १९ वनमा ५० પચાસ એજન આગળ ગયા પછી એક વિશાળ ભવન સિદ્ધાયતન આવેલું છે. આ પ્રમાણે જ પુષ્કરિણીઓ અને પ્રાસાદાવતં સકે વિષે પણ કહેવામાં આવેલું છે. આ બધાં વિશે સૌમનસ વનના વર્ણનમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલું છે તેવું જ અત્રે પણ સમજી લેવું જોઈએ. યાવત્ અહીંના તત્ તત્પષ્કરિણી મધ્યવર્તી પ્રાસાદાવતં સકે અને ઇશાસકેન્દ્ર સંબંધી છે. જે આ સંબંધમાં જાણવું હોય તે સૌમનસવન પ્રકરણ જોઈ લેવું જોઈએ. સૌમનસવન વર્ણનના પ્રસંગમાં ફૂટ વર્જિત સિદ્ધાયતનાદિ વ્યવસ્થાપક પાઠ જે પ્રમાણે કહે છે તે પ્રમાણે જ પાઠ અહીં પણ કહી લેવું જોઈએ. અહી જે કે વાપિકાના
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३९ पण्डक वनवर्णनम्
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स्वाद, अत्र चापीनामानि लेखप्रमादात्सूत्रे ऽदृष्टान्यपि ग्रन्थान्तरात्सङ्गृह्मोपन्यस्यन्ते तथाहिपुण्ड्रा १ पुण्ड्रप्रभा २ सुरक्ता ३ रक्तावती ४ एता ऐशानप्रासादे, तथा क्षीररसा १ इक्षुरसा २ अमृतरसा ३ वारुणी ४ एता आग्नेयप्रासादे, तथा शङ्खोत्तरा १ शङ्खा २ शङ्खावर्त्ता ३ बलाहका ४ एता नैर्ऋत प्रासादे, पुष्पोत्तरा १ पुष्पवती २ सुषुप्पा ३ पुष्पमालिनी ४ एता वायव्यप्रासादे, इमा पोडश वाच्या ईशानादि कोणक्रमेण बोध्याः ॥सू० ३९॥ अथैतत्पण्डकवनवर्तिनीश्चतस्रोऽभिषेकशिला वर्णयितुमुपक्रमते - 'पंडकवणे णं भंते '
इत्यादि ।
मूलम् - पंडगवणेणं भंते ! वणे कइ अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा । चत्तारि अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पंडुसिला १ पंडुकंबलसिला२ रत्तसिलाइ रत्तकंवल सिलेति४ । कहि णं भंते! पंडग वणे पंडुसिला णामं सिला पण्णत्ता ?, गोयमा ! मंदरचूलियाए पुरस्थि - -मेणं पंडगवणपुर स्थिपे ते, एत्थ णं पंडगवणे पंडुसिला णामं सिला पण्णत्ता उत्तरदाहिणायया पाईणपडीणवित्थिणा अद्धचंद संठाणसंठिया . पंजोयणसयाई आयामेणं अद्धाइजाइं जोयणसयाई विक्खंभेणं चतारि नहीं किये गये हैं- फिर भी हम ग्रन्थान्तर से उन्हें देखकर यहां प्रकट करते हैं यहां की पुष्करिणियों के वापिकाओं के नाम इस प्रकार से हैं- पुण्ड्रा १ पुण्ड्र प्रभा २, सुरक्ता ३, रक्तवती ४, ये चार वापिकाएं ईशान विदिग्वर्ती प्रासाद में हैं, क्षीररसा, इक्षुरसा, अमृतरसा और वारुणी ये आग्नेप्रासाद में हैं, शङ्खोत्तरा, शङ्खा, शङ्खावर्त्ता और बलाहका ये चार वापिकाएं नैर्ऋत प्रासाद में है एवं पुष्पोत्तरा, पुष्पवती, सुपुष्पा, पुष्पमालिनी ये चार बापिकाएं वायव्य विदिग्वर्ती प्रासाद में हैं। इस प्रकार के नामवाली ये १६ वापिकाएं ईशानादिकोणक्रम से कही गई है | || ३९ ॥
નામે પ્રકટ કરવામાં આવેલાં નથી છતાં એ અમે યુત્થાન્તરથી જોઈ ને અહીં પ્રકટ કરીએ છીએ. અહીની પુષ્કરિણીઓ તેમજ બાપિકાના નામેા આ પ્રમાણે છે—પુડ્રા ૧, પુ^પણા ૨, સુરક્તા ૩, રક્તવતી ૪, એ ચાર વાપિકાએ ઇશાન વિદ્વિગ્નતી પ્રાસાદમાં આવેલી છે. ક્ષીરસા ૧, ઇસા-૨, અમૃતરસા ૩ અને વાણી એ ચાર વાર્ષિકા આગ્નેય પ્રાસાદોમાં આવેલી છે. શ’ખાત્તરા, શખા, શખાવત્તાં અને અલાહકા એ ચાર વાપિકાએ નૈૠત્ય પ્રાસાદમાં આવેલી છે. તેમજ પુષ્પાત્તરા, પુષ્પવતી, પુખ્ખા અને પુષ્પમાલિની એ ચાર વાર્ષિકાએ વાયવ્ય વિદ્વિષ્વતી પ્રાસાદમાં આવેલી છે. આ પ્રમાણે એ ૧૬ વાપિકા · ईथानाहि आलु उभथी हेवामां आवेली छे, ॥ 3 ॥
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्ते जोयणाई वाहल्लेणं सव्वकणगामई अच्छा वेइया दणसंडेणं सवओ समता संपरिक्खित्ता वण्णओ, तीसेणं पंडुसिलाए चउदिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पणत्ता जाव तोरणा वण्णओ, तीसेणं पंडुसिलाए उपि वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पंपणत्ते जाव देवा आसपंति, तस्सणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उत्तरदाहिणणं एत्थ ण दुवे सीहासणा पण्णत्ता पंच धणुसयाई आयामविक्खंभेगं अद्धाइ. जाई धणुलयाई वाहल्लेणं सीहालणवण्णओ भाणियन्तो विजयदूसवजोत्ति । तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सीहासणे तत्थ णं वहहिं भवणवई वाणमंतरजोइसिय वेमाणिएहि देवेहिं देवीहि य कच्छाइया तित्थयरा अभिसिच्चंति, तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ णं वहर्हि भवण जाव वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य वच्छाइया तित्थयरा अभिसिच्चति । कहि णं भंते ! पंडगवणे पंडुकंवलसिला णामं सिला पपणता ?, गोयमा ! मंदरचूलियाए दक्खिणेणं पंडगवणदाहिणपेरते. एत्थ णं पंडगवणे पंडुकंबलसिला णामं सिला पण्णता, पाईणपडीणायया उत्तरदाहिणविस्थिष्णा एवं तं चेव पमाणं वत्तव्ययाय भाणियन्वा जावं तस्सणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं मह एगे सीहासणे पण्णत्ते तं चेव सीहासणप्पमाणं तत्थ गं बहहिं भवणवइ जाव भारहगा तित्थयरा अहिसिच्चंति । कहि णं भंते ! पंडगवणे रेतसिला णामं सिला पाणत्ता ? गोयमा ! मंदरचूलियाए पच्चरिथमेण पंडेगवणपञ्चत्थिमपेरते, एत्थ णं पंडगवणे रत्तसिला णाम सिंला पण्णत्ता उत्तरदाहिणायया पाईणपडीणविस्थिपणा जाव ते चैव पमाणं सव्वतंवणिजमई अच्छा उत्तरदाहिणेण एत्थं णं दुवें सीहासंणा पण्णता, तस्स णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ णं वहहिं भवण. पम्हाइया तित्थयरा अहिसिच्चंति, तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सीहासणे तस्थ णं बहहिं भवण० जाव वप्पाइयां तित्थयरा अहिंसिंच्चंति, कहि णं भंते ! पंडगवणे रत्तकंवलसिला णामं सिला पण्णता ?,गोयमा! मंदरचूंलियाए
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्फारः खु. ३९ पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् उत्तरेणं पंडगवण उत्तरचरिमंते, एत्थ णं पंडगवणे रत्तकंवलसिला णामं सिला पण्णता, पाईणएडीणायया उदीणदाहिणविस्थिषणा सक्तवणिजमई अच्छा जाव मज्झदेलभाए सीहासणं, तत्थ णं वहहिं भवणवइ जाव देवेहिं देवीहिय एराक्यगा तिथवरा अलिसिचंति ॥सू० ४०॥ __ छाया-पण्डकवने खलु भदन्त ! वने कति अभिषेकशिलाः प्रज्ञप्ताः ?, गौतम ! चतस्रोऽभिषेकशिलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पाण्डुशिला १ पाण्डुकम्बलशिला २ रक्तशिला ३ रक्तकम्बलशिला ४ इति । क्व खलु भदन्त ! पण्डकवने पाण्डुशिला नाम शिला प्रज्ञता ?, गौतम ! मन्दरचूलिकायाः पौरस्त्येन पण्डकवनपौरस्त्यपर्यन्ते, अब खलु पण्डकवने पाण्डुशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता उत्तरदाहिणायता प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णा अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिता पंचयोजनशतानि आयामेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण चखारि योजनानि बाहल्येन सर्वकनकमयी अच्छा वेदिका वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ता वर्णकः, तस्यां खलु पाण्डुशिलायाश्चतुर्दिशि चवारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि यावत् तोरणाः वर्णका, तस्याः खलु पाण्डुशिलायाः उपरि वहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः यावद् देवा आसते, तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिमागस्य बहुमध्यदेशभागे उत्तरदक्षिणेन अत्र खलु द्वे सिंहासने प्रज्ञप्ते पञ्च धनुः शतानि आयामविष्कम्भेण अर्द्धत्तीयानि धनुः शतानि बाहल्येन सिंहासनवर्णको भणितव्यो विजयदृष्यवज इति । तत्र खल यत् तत् औत्तराई सिंहासनं तत्र खलु बहुभिः भवनपतिवानभ्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकैर्देवैर्देवोभिश्च कच्छादिजास्तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते । तत्र खलु यत् तदाक्षिणात्य सिंहासनं तत्र खलु बहुभिर्भवन यावद्वैमानिकैदेवदेवीभिश्च वत्सादिजास्तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते । क्व खलु भदन्त । पण्ड कवने पाण्डुकम्बलशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! मन्दरचूलिकाया दक्षिणेन पण्डकवनदक्षिणपर्यन्ते, अत्र खलु पण्डकवने पाण्डुकम्बलशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता, प्राचीनप्रतीचीनायता उत्तरदक्षिणविस्तीर्णा एवं तदेव प्रमाणं वक्तव्यता च भणितव्या, यावत् तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तम्, तदेव सिंहासनप्रमाणं तत्र खलु वहुभिर्भत्रनपति यावत् भारतकास्तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते, क्य खलु भदन्त ! पण्डकवने रक्तशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! मन्दरचूलिकायाः पश्चिमेन पण्डकवनपश्चिमपर्यन्ते, अत्र खलु पण्डकवने रक्तशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता उत्तरदक्षिणायता प्राचीनप्रतीचीन विस्तीर्णा यावत तदेव प्रमाणं सर्वतपनीयमयी अच्छा उत्तरदक्षिणेन अत्र खलु द्वे सिंहासने प्रज्ञप्ते, तत्र खलु यत् तद् दाक्षिणात्य सिंहासनं तत्र खलु बहुभिर्भवन० पक्ष्मादिजास्तीर्थकरा अभिपिच्यन्ते, तत्र खलु यत् तद् औत्तराई सिंहासनं तत्र खल्ल वहुभिर्भवन० यावद् वप्रादिजास्तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते, क्व खलु भदन्त ! पण्डकवने रक्तकम्बलशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! मन्दरचूलिकाया उत्तरेण पण्डकवनोत्तरचरमान्ते अत्र खलु पण्डकवने रक्ताम्बल
ज० ६१
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HARE
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र शिला नाम शिला प्रज्ञप्ता, प्राचीनप्रतीचीनायना उत्तरदक्षिणविस्तीर्णा सर्वतपनीयमयी अच्छा यावत् मध्यदेशभागे सिंहासन, तत्र खलु बहुभिभवनपति यावदेवैर्देवीभिश्च ऐरावतकास्तीर्थ करा अभिपिच्यन्ते सू० ४०॥
टीका-'पण्डकवणे णं भंते !' इत्यादि-पण्डकवने खलु भदन्त ! 'वणे' बने 'कई' कति-कियत्यः 'अभिसेयसिलाओ' अभिपेकशिलाः तत्र अभिषेक:-जिनजन्मस्नपनं तस्मै याः शिला:-उपलाः, ताः कतीतिपूर्वेण सम्वन्धः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, इति गौतमेन पृष्टो भगवांस्तम्प्रत्याह-'गोयमा!' गौतम ! 'चत्तारि' चतस्त्रः 'अभिसेयसिलाओ' अभिषेकशिलाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा 'पंडुसिला' पाण्डुशिला १ 'पंडुकंवलशिला' पाण्डुकम्वलशिला २ 'रत्तसिला' रक्तशिला ३ 'रत्तकंबलसिलेति' रक्तकम्बलशिला ४ इति, क्वचित्तु पाण्डुकम्पला १ अतिपाण्डुकम्वला २ रक्तकम्बला ३ अतिरिक्तकम्पला ४ इति भिननाम्न्य
पण्डकवनवर्ती चार अभिषेकशिलाओं की वक्तव्यता'पंडकवणे गं भंते ! वणे कई अभिप्लेयसिलाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि ।
टीकार्थ-गौतम ने इस सूत्र बारा प्रभु से ऐसा पूछा है-'पंडकरणे णं भंते ! वणे कइ अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! पण्डकवन में जिन जन्म के समय में जिनेन्द्रको जिस पर स्थापित करके अभिषेक किया जाता है ऐसी अभिषेक शिलाएं कितनी कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! चत्तारि अभिसेअसिलाओ पण्णत्ता' हे गौतम ! वहां पर चार अभिषेक शिलाएं कही गई हैं । 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-'पंडुशिला, पंडुकंबल. सिला रत्तसिला, रत्तसंबलसिला' १ पाण्डुशिला २ पांडुकंबलशिला ३ रक्तशिला और ४ रक्तकंवलशिला कहीं २ इन शिलाओं के नाम इस प्रकार से भी लिखेहुए मिलते हैं-पाण्डुकम्बला १, अतिपाण्डकम्बला २ रक्तकम्बला ३
પડકવનવ ચાર અભિષેક શિલાઓની વક્તવ્યતા 'पंडकवणे णं भंते ! वणे कइ अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि
टाय-गौतमे मा सूपडे प्रभुने म तना प्रश्न ४ छ । 'पंडकवणे णं भंते ! वणे कइ अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ' मत! ५४ मा निरन्म समयमा निन्द्रने સ્થાપિત કરીને અભિષેક કરવામાં આવે છે, એવી અભિષેક શિલાઓ કેટલી કહેવામાં આવેલી सेना मम प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! चत्तारि अभिसेअसिलाओ पण्णत्ताओं' गौतम ! त्यां यार मलि शिक्षा वामां आवसा छे. 'तं जहा' शिक्षायान नाम मा प्रभारी छपंडुसिला, पंडुकंबलसिला, रत्तसिला, रत्तकंबलसिला' १ ५शिक्षा, २ ५४ शिक्षा, 3 રક્તશિલા અને ૪ ૨ક્તકંબલ શિલા. કેટલાક સ્થાને એ શિલાઓના નામે આ પ્રમાણે પણું ઉદ્દધૃત કરવામાં આવેલા છે–પાંડુકંબલા ૧, અતિ પાંડુકંબલા ૨, ૨ક્ત કંબલા ૩, અને અતિ २४४ मा. 'कहि णं भंते ! पंडकरणे पंडुसिला णामं सिला पणत्ता' RE ! ५५४५ वनमा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३९ पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४३ श्चतस्र उताः, तत्राद्या शिला कुत्रास्तीति पृच्छति-'कहि णं शंते !' इत्यादि-क्व खलु भंदन्त ! 'पंडगवणे पण्डकवने 'पंडुसिला णामं सिला' पाण्डुशिला नाम शिना 'पण्णत्ता ?' प्रज्ञप्ता ?, भगवानुत्तरयत्ति-'गोयमा !' गौतम ! 'संदरचूलियाए' सन्दरचूलिकायाः 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'पंडगवणपुरथिमपेरंते' पण्डकयनपौरस्त्यपर्यन्ते-पण्डकवनस्य पूर्वसीमापर्यन्ते 'एन्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'पंडगवणे' पण्ड कवने 'पंडुसिला णामं सिला' पाण्डुशिला नाम शिव 'पण्णता' प्रज्ञप्ता, सा च 'उत्तरदाहिणायया' उत्तरदक्षिणायता उत्तर दक्षिणयोर्दिशोसयता दीर्घा तपा 'पाईणपडीणवित्थिण्णा' प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णा पूर्वपश्चिमदिशोविस्तारयुक्ता 'अद्धचंदसंठाणसंठिया' अर्द्धचन्द्र स्थानसंस्थिता अर्द्धचन्द्राकारेणसंस्थिता 'पंचगोयणसयाई' पञ्चयोजनशतानि 'आयामेणं' आयामेन मुखविभागेन 'अद्धाइजाई' अर्द्धवतीयानि 'जोयणसयाई' योजनशतानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारण 'चत्तारि' चत्वारि 'जोयगाई' योजनानि 'वाहल्लेणं' वाहल्येन पिण्डेन 'सवकणगामई'
और अतिरक्तशरदला ४ 'कहिणं भंते ! पंडुसिलाणामलिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पण्डकवन में पांडुशिला नामकी शिला कहां पर कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयमा ! मंदरचूलिभार पुरथिमेणं' पंडगवणपुरथिमपेरते, एस्थ णं पंडगवणे पंडुसिला णामं सिला पणत्ता' हे गौतम ! मंदर चूलिका की पूर्वदिशा में तथा पंडकचन की पूर्व सीमा के अन्त में पंडकवन में पांडशिला नामकी शिला कही गई है । 'उत्तर दाहिणायया, पाईण पडीणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया पंचजोयणसयाई आयामेणं अशाइजाइं जोयणसयाई विक्खभेणं चत्वारि जोयणाई बाहल्लेणं सवकणगामई अच्छा वैइयारणसंडेणं सचओ समंता संपरिक्खित्ता घण्णओ' यह शिला उत्तर से दक्षिण तक लम्बी है और पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण है । इसका आकार अर्धचंद्र के आकार जैसा है पांचसो योजन का इसका आयाम है और अढाई लौ योजन का इसका विष्कम्भ है एवं इसका पाहल्य-मोटाई-चार योजन का है। सालना सुवर्णमय है और visशिला नभनी शिक्षा या स्थणे भावही छ ? ना पाममा प्रमुछे-'गोयमा ! मंदर चूलिआए पुरथिमेणं पंडगवणपुरत्यिमपेरते, एस्थग पंडगवणे पंडुसिला णामं सिला पण्णत्तो है ગૌતમ! મંદર ચૂલિકાની પૂર્વ દિશામાં તથા પંડકવનની પૂર્વ સીમાના અંતમાં પડકવનમાં पांड शिक्षा नाम शिस मावेसी छ. 'उत्तरदाहिणायया, पाईणपडीगविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया पंच नोयणसयाई आयामेणं अद्धाइज्जाइं जोयणसयाई विक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई वाहल्लेणं सव्य कणगामई अच्छा वेइया वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता वण्णओ' मा શિલા ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી લાંબી છે અને પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી વિસ્તીર્ણ છે. એને આકાર અર્ધ ચંદ્રના આકાર જેવો છે. ૫૦૦ એજન એટલે એને આયામ છે તથા ૨૫૦ એજન એટલે આને વિષ્ક છે. બાહુલ્ય (મેટાઈ) ચાર જન જેટલું છે. આ સર્વાત્માના સુવર્ણ
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जम्बूद्वीपप्रति सर्वकनकमयी-सर्वात्मना मुवर्णमयी 'अच्छा' अच्छा आकाशस्फटिकवनिर्मला 'वेइयाण:संहेणं' वेदिकावनपण्डेन पद्मवरवेदिकया वनपण्डेन च 'सन्चो ' सर्वतः-सर्वशिक्षु 'समंता' समन्तात् सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ता' सम्परिक्षिप्ता परिवेष्टिता 'वण्ण यो' वर्णक:-पद्मवर-- वेदिका वनपण्डयोर्वणनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः स च चतुर्थ पञ्चममत्रतोऽवसेयः, तदर्थोऽपि तत एव बोध्या, 'तीसे णं पंदुप्तिलाए' तस्याम् अनन्तरोन्नायां खलु पाण्डुशिलायां 'चर. हिसिं चतुर्दिशि दिश्चतुष्टयावच्छेदेन 'चत्तारि' चन्यारि 'विसोवाणपडिख्यगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-प्रतिरूपकाणि सुन्दराणि तानि च त्रिसोपानानि चेति तथा, अत्र प्राकृतत्त्वाद्विशेषणवाचकपदस्य परनिपातो योध्या, 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, तेषां त्रिसोपानानां वर्णकोऽत्र वाच्यः स किम्पयन्तः ? इति जिज्ञासायामाह-'जाव तोरणा वणो' यावर तोरणा वर्णक:तोरणवर्णकपर्यन्तो वर्णको भणितव्य इत्यर्थः, स च गदा सिन्धु नदीस्वरूपवर्णनप्रकरणत: समायः, तदर्थोऽपि तत एव वोध्यः, अथ पाण्डुशिलाया उपरितनभूमिमागसौभाग्यं वर्णयितुमुपक्रमते-'तीसे णं पंडसिलाए' इत्यादि-तस्याः खलु पाण्डशिलायाः 'उप्पि' उपरिऊर्ध्वभागे 'वहुसमरमणिज्जे' वहुममरमणीयः 'भूमिमागे' भूमिभागः भूमिकांश: 'पण्णत्ते' आकाश तथा स्फटिक के जैसी निर्मल है चारों ओर से यह पद्मवरवेदि का और वनपण्ड से घिरी हुई है यहां पर पद्मवरवेदिका और वनपंड का वर्णक पद समूह चतुर्थ पंचम स्त्र से लेकर कहलेना चाहिये 'तीसेणं पंडुलिलाए चदिसिंचत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता' उस पाण्डुशिला की चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये है। और त्रिसोपानप्रतिरूपक में प्रनिरूपक यह त्रिसोपान पदका विशेषण है और इसका अर्थ सुन्दर है यहां प्राकृन होने से इसका पर निपात हो गया है। 'जाय तोरणा वण्णओ' इन चार त्रिसोपानक प्रतिरूपकों का वर्णक पाठ तोरणतक का यहां पर ग्रहण करलेना चाहिये यह तोरणतक का वर्णक पद समूह गङ्गा सिन्धु नदी के स्वरूप वर्णन करनेवाले प्रकरण से समझलेना चाहिये 'तीसेणं पंड्डलिलाए उपि बहुममरमणिज्जे भूमिभागे મય છે અને આકશ તથા ફટિક જેવી નિર્મળ છે. ચેમેરથી આ પદ્મવદિકા અને વનખંડથી આવૃત છે. અહીં પદ્મવર વેદિકા અને વનખંડને વર્ણક પદ સમૂહ ચતુર્થ५यम सूत्रम गावे . ते सासुमागे त्यांची पांधी नये 'तीसेणं पंडुसिलाए चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूगा पग्णत्ता' 2 पांड शिवानी योमर यार विसापान પ્રતિ રૂપકે છે. ત્રિપાન પ્રતિરૂપકમાં પ્રતિરૂપક એ શબ્દ ત્રિપાન પદનું વિશેષણ છે. અને આનો અર્થ સુંદર થાય છે. અહીં પ્રાકૃત હોવાથી એને પરનિપાત થઈ ગયા છે. 'जाव तोरणा वण्णओ' ये, यार त्रिसायन प्रति३५ नि। १४ ५ तार सुधीन मही
ગ્રહણ કર જોઈએ. આ તેરણ સુધીને વર્લ્ડકપ સમૂહ વિષે ગંગા-સિંધુ નદીના સ્વરૂપનું --- - ४२॥२॥ ४२शुभाथी की से न . 'तीसेणं पंडुसिलाए उपि वहुसमरमगिज्जे
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३९ पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४८५ प्रज्ञप्तः, अस्य वर्णनं सूचयितुमाह-'जाव देवा आसयंति' इति यावद् देश आसते अत्र यावत्पदेन 'से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा' इत्यारभ्य 'तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवाय देवीओय आसयंति' इति पर्यन्तो वर्णको बोध्यः, स च षष्ठसूत्राद् ग्राह्यः तस्य छायादिरपि तत एव वोध्या, तत्र 'आसयंति' इत्युपलक्षणं तेन 'चिटुंति' इत्यादीनां ग्रहणम् एपामपि व्याख्या षष्ठादेव सूत्राबोध्या, अथात्राभिषेकसिंहासनं वर्णयितुषुपक्रमते-'तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स' तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य 'भूमिभागस्स' भूमिभागस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तरदक्षिणेन उत्तरदक्षिणयोर्दिशोः 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु प्रत्येक दिशि एकैकमिति 'दुवे' द्वे 'सीहासणा' सिंहासने जिनाभिषेकसिंहासने 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, ते च 'पंच धणुसयाई' पंच धनुः शतानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैयविस्ताराभ्याम् 'अद्धाइजाई' अर्द्धतृतीयानि 'धणुसयाई धनुः शतानि 'बाहल्लेणं' बाहल्येन-पिण्डेन, अत्र 'सीहासणवण्णओ' सिंहासनवर्णका-सिंहासनस्य जिनाभिषेकसिंहासपण्णत्ते' उस पांडुशिला का ऊपर का भूमिभाग बलुसमरमणीय कहा गया है 'जाव देवा आसयंति' यावत् यहां पर व्यन्तर देव आते हैं और आराम विश्राम करते हैं । यहां यावत्पद से 'से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइवा' यहां से लेकर 'तत्थणं बहवे वाणमंतरा देवाय देवीओ य आसयंति' यहां तक का पाठ गृहीत हुआ है । इसे समझना हो तो छठवे सूत्र को देखना चाहिये यहां 'आसयंति' यह क्रियापद उपलक्षणरूप है अतः इससे 'चिटुंति' इत्यादि क्रियापदों का ग्रहण हो जाता है 'तस्सणं बहुसलरमणिज्जस्स भूमिभागस्त बहुमज्झदेसभाए उत्तर दाहिणे णं एत्थगं दुवे सीहासणा पण्णत्ता' उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में उत्तर-दक्षिण दिशाओं की ओर अर्थात् उत्तरदिशा एवं दक्षिगदिशा में एक एक सिंहासन कहा गया है 'पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेगं अद्धाइज्जाई धणुसयाई बाहल्लेणं सीहाणवण्णओ भाणियन्वो विजयदूसवज्जोत्ति' यह भूमिभागे पण्णत्ते ते पांड शिक्षानी २ मा मसभरभणीय ४२वामी मावी छ. 'जाव देवा आसयंति' यापत मी माग व्यतर देवा मा छ भने माराम विश्राम ४२ छ. भली यावत् ५४थी से जहाणामए आलिंगपुक्खरेहवा' माथी भांडीर 'तत्थणं बहवे वाणमंतरा देवाय देवीओय आसयति' मही सुधीन 48 सहीत थयेछे. या विधे ongqा भाटे ५०४ सूत्रमाथी वांयी देवु नये. गडी 'आसयंति' मा या५६ BRक्षy ३५. छ. मेथी माथी 'चिटुंति' वगैरे ठिया५हानु IMय छ 'तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उत्तरदाहिणेणं एत्थणं दुवे सीहासणा पग्णत्ता' તે બહુ સમરમણીય ભૂમિ ભાગના એકદમ મધ્યમાં ઉત્તર-દક્ષિણ દિશા તરફ એટલે કે उत्तर दिशा मन क्षिय हिशामा मे४--23 सिडासन मावसु छे. 'पंच धगुसयाई आयाम: विक्खंभेणं अद्धाइज्जाई धणुसयाई बाहल्लेणं सीहासण वण्णओ भाणियव्यो विजयदूस वज्जोत्ति'
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Mandaldandramund
अम्यूद्वीपप्रनप्तिसूत्र नस्य वर्णकः वर्णनपरपद समूहः 'माणिययो' भणितव्यः स च 'विजयदुसयजोत्ति विजयदुष्यवर्जः उपरिभागे विजयनामचन्द्रोदशवर्णनरहितो वाच्यः शिलासिंहासनानामनाच्छादितदेशे स्थितत्याद, पत्र च सिंहासनानां समायामविष्कम्गत्वेन समचतुरसता वोध्येति, नन्वत्रकैनैव सिंहासनेन जिनजन्माभिपेके सिद्ध किमासनान्तरेणेत्यनार-प्रत्य ण जे से' इत्यादि-तत्र तयो योरासनयोर्मध्ये 'ण' खल्लु यत् तदिति वाक्यालकारे 'उनरिल्ले' औताह्यम् उत्तरदिग्भवं 'सीदालणे सिंहासनमस्ति 'तत्थ तत्र 'ण' खलु 'वह हिं' वहुभिः 'भवणवई' वाण. मंतरजोइसियवेमाणिएहि भवनपति वान व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकः 'देवेहि देवैः 'देवीडिय'. सिंहासन शायाम और विष्कम्भ की अपेक्षा पांचसी धनुष का है तथा वाहल्यमोटाई की अपेक्षा २५० धनुष का है यहां पर सिंहासन का वर्णक पदसमूह कहलेना चाहिये उसमें विजय दृष्य का वर्णन नहीं करना चाहिये क्योंकि शिला
और सिंहासन ये दोनों अनाच्छादित देश में ही रिश्रत है अतः इनके ऊपर में विजय नालक चन्दवा नहीं तना हुआ हैं सिंहासन सम आयाम और विष्कम्भ पाले जप कहे गये हैं तो इस से उनमें लम चतुरस्त्रता ही है ऐसा जानना चाहिये यहां ऐसी आशंका होती है कि जिनजन्माभिषेक में एक ही सिंहासन पर्याप्त होला है फिर आसमान्तरों की यहां क्या आवश्यकता है कि जिस से यहां उनका अस्तित्व प्रकट किया गया है तो इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं-'तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सीहासणे नत्थणं महहिं भवणवावाणमंतर जोइन्सियनेमाणिएहिं देवेहि देवीहिय कच्छाइया तित्थयरा अनिसिच्चंति' हे गौतम ! उन दो सिंहासनों के बीच में जो उत्तर दिग्धर्ती सिंहासन है उस पर अनेक भवनपति वालव्यन्तर ज्योतिप्क और पैमानिक देवों एवं देवियों द्वारा આ સિંહાસન આયામ અને વિધ્વંભની અપેક્ષાએ ૫૦૦ ધનુષ જેટલું છે. તેમજ બહથ મોટાઈની અપેક્ષાએ ૨૫૦ ધનુષ જેટલું છે. અહીં સિંહાસન વિશે વર્ણક પદ-સમૂહ કહી લેવું જોઈએ. તેમાં વિજયવ્યનું વર્ણન કરવું જોઈએ નહિ. કેમકે શિલા અને સિંહસન એ બને અનાચ્છાદિત દેશમાં જ સ્થિત છે. એથી એમની ઉપર વિજય નામક ચન્દ્રવાન તાણેલ હેય સિંહાસને જ્યારે સમ, આયામ અને વિષ્ઠભવાળા કહેવામાં આવ્યાં છે ત્યારે તેમાં સમચતુરસ્ત્રના છે એવું આપિ બાપ જાશીલેવું જોઈએ. અહીં એવી અ શંકા થાય છે કે જિન જન્માભિષેકમાં એક જ સિંહાસન પર્યાપ્ત હોય છે પછી આસાન્તની અહીં શી આવશ્યકતા છે કે જેથી અહીં તેમનું અસ્તિત્વ પ્રકટ કરવામાં આવેલું છે. તે मीना पाणमा प्रधु गौतमने ४३ छे-'तत्थ णं जे से उतरिल्ले सीहासणे तत्वणं बहूहिं भवणवइवाणमन्तरजोइसियवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहिय कच्छा इया तित्थयरा अभिसिच्चति' । હે ગૌતમ! તે બે સિંહાસના મધ્યમાં જે ઉત્તર દિતી સિંહાસન છે, તેની ઉપર અનેક , ભવનપતિ, વાનગૅતર, જતિષ્ક અને વૈમાનિક દેવ અને દેવીઓ વડે કંછાદિ વિજય'
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प्रकाकाशि टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३९ पण्डकवन गताऽभिषेकशिलावर्णनम् देवीभिव 'कच्छाईया' कच्छादिजाः - कच्छ प्रभृति विजयाष्टकोत्पन्नाः 'तित्थयरा' तीर्थकरा:-जिना: 'अभिसिच्चति' अभिषिच्यन्ते जन्मोत्सवकरणार्थं स्नप्यन्ते इति प्रथमस्यौतराहस्य सिंहासनस्य प्रयोजनम्, द्वितीयस्य दाक्षिणात्यस्य तस्य प्रयोजनमाह - 'तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे' इत्यादि तत्र तयोरासनयोर्मध्ये खलु यत् दाक्षिणात्यं दक्षिणदिग्वर्ति सिंहासनं तदिति प्राग्वत् 'तत्थ' तत्र - दाक्षिणात्ये सिंहासने 'णं' खलु 'भवण० जाव वेमाणिएहि ' भवन व्यावद्वैमानिकैः - भवन पत्यादि वैमानिकपर्यन्तैः - भवन पतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानि - 'कैरित्यर्थः 'देवेहि' देवैः 'देवीहिय' देवीभिश्र 'बच्छाईआ' वत्सादिजा वत्सादिदिजयोत्पन्नाः 'तित्थयरा' तीर्थकराः 'अभिषिच्चति' अभिषिच्यन्ने, अस्नायमभिप्रायः - असौ पाण्डुशिला पूर्वाभिमुखा वर्तते तदभिमुखमेव पूर्वमहाविदेह नाम क्षेत्राला तीर्थकराबुद्येव तत्र शीतामहानच तरदिग्वति कच्छादि विजयाष्टकजातस्य तीर्थकृत उचरवर्ति सिंहा सनेऽभिषेो भवति, तथा शीतामहानद्या दक्षिणदिग्वर्ति वत्सादि विजयजातरूप तस्य दक्षिण कच्छादि विजयाष्टकों में उत्पन्न हुए तीर्थंकर स्थापित करके जन्मोत्सव के अभिषेक से अभिषिक्त किये जाते हैं 'तत्थणं जे से दाहिणितले सीहासणे तत्थणं बहूहिं भवणवश्वाणमंत रजोइसियवेनाणिएहिं देवेहिं देवीहिय वच्छाईया 'तित्थयरा अभिच्चिति' तथा ये दक्षिण दिग्वर्ती सिंहासन है उस पर वत्सादि विजयों में अत्पन्न हुए तीर्थकर अनेक भवनपति वानव्यन्तर ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों द्वारा जन्माभिषेक के अभिषेक से अभिषिक्त किये जाते हैं । 'तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि यह पाण्डुशिला पूर्वाभिमुखवाली है और उसी के सामने पूर्व महाविदेह नामका क्षेत्र है वहां पर एक साथ दो तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं इनमें शीता महानदी के उत्तर दिग्वर्ती कच्छादि विजयाष्टक में उत्पन्न हुए तीर्थकर हैं उनका अभिषेक उत्तर दिग्वर्ती सिंहासन पर होता है और शीता महानदी के दक्षिण दिग्वर्ती वत्सादि विजय में उत्पन्न हुए तीर्थकर ટકામાં ઉત્પન્ન થયેલા તીથ"કરાને સ્થાપિત કરીને જગૈાત્સવના અભિષેકચી અભિષિક્ત ४२वामां आवे छे. 'तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थभं बहूहि भवन इवाणमंतर. जोइसियवेमाणिएहि देवेहिं देवीहिय बच्छाईया तित्थयरा अभिसिंच्चति' तेभन ने दृक्षिण દિગ્દર્તી સિહાસના છે તેની ઉપર વત્સાહ વિજચેામાં ઉત્પન્ન થયેલા તી કરાને અનેક ભવન પતિ, માનવ્યતર, નૈતિષ્ક તેમજ વૈમાનિક દેવા વડે જન્માભિષેકના અભિષેકથી અભિષિક્ત કરવામાં આવે છે. આ કથનનુ તાત્પય` આ પ્રમાણે છે કે આ પાંડુશિલા પૂર્વાભિમુખવાળી છે અને તેની જ સામે પૂર્વ મહાવિદેહ નામક ક્ષેત્ર આવેલુ' છે. ત્યાં એકીસાથે એ 'તીર્થંકરા ઉત્પન્ન થાય છે. એમાં શીતા મહા નદીના ઉત્તર દિગ્વતી કŁાઢિ વિજ્યા૦૩૪માં ઉત્પન્ન થયેલા તૌકરા છે. એમના અભિષેક ઉત્તર દિગ્વતી સિહાસન ઉપર થાય છે અને શીતા મહાનદીના દક્ષિણ દિગ્વતી વત્સાદિ વિજયૈામાં ઉત્પન્ન થયેલા તાઁ
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
दिति सिंहासनेऽभिषेक इति द्वयोः सिंहासनयोः प्रयोजनम् । अथ द्वितीयाभिषेकशिलां वर्णयितुमुपक्रमते - 'कहिणं भंते !' इत्यादि - प्रश्नसूत्रं स्पष्टम् उत्तरसूत्रे 'गोयमा' गौतम ! 'मंदर चूलियाए' मन्दरचूलिकायाः 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'पंडगवणदाहिण पेरं ' पण्डकवनदक्षिणपर्यन्ते - पण्डकवनस्य दक्षिणसीमा पर्यन्तभागे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'णं' खलु 'पंडवणे' पण्डकबने 'पंडुकंवलसिला णामं सिला' पाण्डुकम्बलशिला नाम शिला 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च ' पाईणपडीणायया' प्राचीनप्रतीची नाऽऽयता पूर्वपश्चिमदिशो दीर्घा 'उत्तरदाहिणवित्थण्णा' उत्तरदक्षिणविस्तीर्णा - उत्तरदक्षिण दिशो विस्तारयुक्ता, एतद्विशेषणद्वयं विहायापरं पूर्वोक्तमति दिशति 'एवं तं चेव' एवम् पूर्वोक्ताभिलापानुसारेण तदेव प्रागुक्तमेव 'प्रमाणं' प्रमाणं - पञ्चोत्रनशतायामादिमानं भणितव्यं तथा 'वत्तच्चया' वक्तव्यता 'य' च 'भाणियन्त्रा' भणितव्या सा च वक्तव्यता किम्पर्यन्ता ? इत्यपेक्षायामाह - ' जाव तस्स णं' का अभिषेक दक्षिण दिग्वती सिंहासन पर होता है इस तरह यह दो सिंहासनों के होनेका प्रयोजन है 'कहिणं भंते ! पंडकवने पंडुकंचलसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पंडकवन में पाण्डुकम्बल शिला नामकी द्वितीय शिला कहां पर कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! मन्दर चूलिआए दक्खिणं पंडगवणदाहिण पेरते, एत्थणं पंडगवणे पंडुकंवलसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे गौतम ! मन्दर चूलिका की दक्षिणदिशा में और पाण्डुवन की दक्षिण सीमा के अन्त भाग में पण्डकवन में पाण्डुकंबल शिला नामकी शिला कही गई है' पाईण पडीणायया उत्तर दाहिण विच्छिण्णा एवं तं चैव पमाणवत्तव्या य भाणियव्वा' यह शिला पूर्व से पश्चिम तक लम्बी है और उत्तर से दक्षिण तक विस्तृत है। इसका पंच योजन शत प्रमाण आयामादिका पूर्वोक्त अभिलाप के अनुसार कहलेना चाहिये यावत् इसका जो बहुसमरमणीय भूमिभाग है उसके बहुमध्य देश में एक सिंहासन है यही बात 'जाब तहसणं बहुसमरमणिज्जरस भूमिभागस्स
રાના અભિષેક દક્ષિણ દિગ્વી` સિંહાસન ઉપર થાય છે. આ પ્રમાણે એ એ સિંહાસના शा भाटे छे ते प्रयोजन स्पष्ट ठरवामां आवे छे. 'कहिणं भंते । पंडगवणे पंडुकंबल सिला णामं सिला पण्णत्ता' हे महांत ! पंड वनभां पांडुकुंजस शिक्षा नाभे मोल शिक्षा श्या स्थजे यावेली छे ? भेना नवाणभां अलु आहे - 'गोयमा ! मन्दर चूलिओए दक्खि • - णेण पंडगवणदाहिणपेरंते' एत्थणं पंडगवणे पंडुकंचलसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे गौतम! મન્દર ચૂલિકાની દક્ષિણુ દિશામાં અને પડકવનની દક્ષિણ સીમાના અન્તભાગમાં પડકવનમાં थंड्डु कुंजस शिक्षा नाभे शिक्षा भावेसी छे. 'पाईणपडीणायया उत्तरदाहिणविच्छिण्णा एवं तं व माणवत्तया य भाणियना' मा शिक्षा पूर्वथी पश्चिम सुधी सांणी छे भने उत्तरथी દક્ષિણ સુધી વિસ્તૃત છે. એના પાઁચ ચેાજન શત પ્રમાણુ આયામાઢિ પ્રમાણુ વિશે પૂર્વોક્ત અભિલાપ મુજબ સમજી લેવું જોઈ એ. ચાવત્ એને જે બહું સમરમણીય ભૂમિભાગ છે,
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४० पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४८९ यावत् तस्य खलु 'वहुसमरमणिज्जास' बहुसमरमणीयस्य 'भूमिमागस्स' भूमिभागस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशमागे 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु ‘महं एगे' महदेकं 'सीहासणे' सिंहासनं 'पण्णते प्रज्ञप्तम् तद्बहुसमरमणीयभूमि मागसम्बन्धिवहुमध्यदेशभागवति महदेकसिंहासनवर्णनपर्यन्ता वक्तव्यता भाणितव्येत्यर्थः तं चेव तदेव पूर्वोक्ताभिलापोक्तमेव पञ्चधनुः शतादिकं 'सीहासणप्पमाणं' सिंहासनप्रमाणम् उच्चसादौ वोध्यम् 'तत्थ तत्र सिंहासणे 'ण' खलु 'वह हि बहुभिः 'मवणवइ जाव' भवनपति यावत् भवनपतिव्यन्तरज्योक्किवैमानिकैवैर्देवीभिश्चेति यावत्पइसचितपदसङ्ग्रहोऽवगन्तव्यः 'भारहगा' भारतकाः-भरते भरतनामके क्षेत्रे जाता भारतास्त एव भारतका:-भरतक्षेत्रोत्पन्नाः 'तिस्थयरा' तीर्थकरा:-जिना: 'अभिसिच्चंति' अभिपिच्यन्ते, ननु पूर्वोक्त पाण्डुशिलायां सिंहासनद्वयमुक्तं पाण्डुकम्बलायामस्यां शिलायामेकसिंहासनोतौ को हेतुः १ इति चेच्छृणु-एपा शिला दक्षिणदिगभिमुखाबहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे अहं सीहासणे पण्णत्ते' इस सूत्र पाठ द्वारा व्यक्त की गई है। 'तं चेव सीहासणप्पमाणं' यह सिंहासन आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा पांचसो धनुष का है तथा २५० धनुष की इसकी मोटाई है इस प्रकार से जैसा सिंहासन का वर्णन पाण्डुशिला के प्रकरण में कहा गया है वैसा ही वह प्रमाण वर्णन यहां पर भी कर लेना चाहिये 'तत्थणं बहू, अवणवइयाणमंतर जोइसियवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहिय भारहगा तित्थयरा अहिलिंचंति' इस सिंहासन के ऊपर भरतक्षेत्र सम्बन्धी तीर्थकर को स्थापित करके अनेक भवनपति व्यानव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देखियों द्वारा जन्माभिषेक किया जाता है। यहां एसी शंका हो सकती है कि पहिले पाण्डुशिला के प्रकरण में दो सिंहासनों का होना प्रकट किया गया है और यहां पर एक ही सिंहासन का होना कहा गया है सो इसका कारण क्या है ? तो इसका समाधान रूप तेना महु भयहेशमा मेसिन छ, म पात 'जाव तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगे महं सीहासणे पण्णत्ते' २॥ सूत्रया 43 व्यत ४२वामा मावली छ. 'तं चेव सीहासणप्पमाणं' मा सिसन मायाम मन मिनी अपेक्षाये ૫૦૦ ધનુષ જેટલું છે, તથા ૨૫૦ ધનુષ જેટલી એની મેટાઈ છે. આમ સિંહાસનનું
જેવું વર્ણન પાંડુશિલા પ્રકરણમાં કરવામાં આવેલું છે, તેવું જ વર્ણન અહીં પણ સમ, से न . 'तत्थणं वहहिं भवणवइवाणमंतरजोईसिय वेमाणिएहिं देवेहित भारहगा तित्थयरा अहिसिंचति' के सिंहासननी ५२ मतक्षेत्र सधी तीथ કરીને અનેક ભવનપતિ, વાનર્થાતર, તિષ્ક અને વૈમાનિક દેવ અને ? જન્માભિષેક કરે છે. અહીં એવી શંકા ઉદ્ભવી શકે કે પ્રથમ સિંહાસનું વર્ણન કરવામાં આવેલું છે અને અહીં એ આવેલ છે. તે આનું શું કારણ છે? એના સમાધાન - -- Aanel महानही १
ज० ६२
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जम्बूहीपप्रक्षतिसूत्रे ऽस्ति तदभिमुखं भरतक्षेत्रमस्ति तदैकदैक एव तीर्थकरो जायत इति तस्यैकस्य जन्ममहो
सवार्थाभिषेक एकेनैव सिंहासने सम्पचत इति हेतोरेकमेवात्र सिंहासनमुक्तमिति । ___ अथ तृतीयां रक्तशिलाभिधानां शिलां वर्णयितुमुपक्रमते-'कहिण भी पंडगवणे रसिला' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं स्पष्टम्, उनमूने-'गोयमा' गौतम ! 'मंदरचूलियार' मन्दरचूलिकाया: 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चियेन पश्चिपदिशि 'पंडगरणपञ्च स्थिमपेरंते पंडकवनपश्चिमपर्यन्ते पण्डकवनस्य पश्चिमसीमापर्यन्तमागे 'एन्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ग' खलु 'पंडगवणे' पण्डकवने 'रत्तसिला नाम सिला' रक्तशिला नाम शिला 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च 'उत्तरदाहिणायया' उत्तरदक्षिणायता उत्तरदक्षिणदिशो दीर्घा 'पाईणपडीणवित्थिण्णा' प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णा पूर्वपश्चिमदिशोविस्तारयुक्ता' इत्यारभ्य 'जाय तं चेव पमाणं' अर्द्धचन्द्रसंस्थानरांस्थिता पश्चयोजनशतानि आयामेन अर्द्धवृत्तीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण चखारि योजनानि वाइल्येन, इति पर्य-तं तदेव प्रागुकमेव प्रमाणमस्या वाच्यम्, तथा एपा शिला 'सबसवणिजनई' सर्वतपनीयमयी सर्वात्मना तपनीयमयी रक्त वर्णमयी तथा 'अच्छा' अच्छा आकाशस्फटिकवनिर्मला, उत्तर ऐसा है कि यह शिला दक्षिणदिगाभिमुखवाली है इसी ओर भरत क्षेत्र है भरत क्षेत्र में एक कालमें एक ही तीर्थकर उत्पन्न होते हैं एक साथ दो तीर्थकर उत्पन्न नहीं होते हैं । अतः उस एक तीर्थकर के जन्माभिषेक के लिये एक ही सिंहासन पर्याप्त है। इसी कारण यहां एक ही सिंहासन के होने का कथन किया गया है 'कहिणं भंते ! पंडगवणे रत्तसिलाणा सिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पंडकवन में रक्तशिला नामकी तृतीय शिला कहां पर कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोथमा ! 'संदरचूलियाए पच्चत्यिलेणं पंडगवणपञ्चत्थिम: परंते एस्थ णं पण्डगवणे रससिलाणामलिला पण्णत्ता उत्तरदाहिणायया पाईण. पडीणविच्छिण्णा जाच तंचेष पमाणं सबनरणिज्जमई अच्छा' हे गौतम ! रक्तशिला नामकी यह तृतीयशिला मन्दर चूलिका की पश्चिमदिशा में और पण्डकबन की पश्चिमदिशा की अन्तिम सीमा के अन्त में पण्डकवन में कही गई है यह દક્ષિણ દિશાભિમુખવાળી છે. આ તરફ જ ભરતો છે. ભરત ક્ષેત્રમાં એક કાળમા એક જ તીર્થકર ઉત્પન્ન થાય છે. એકી સાથે બે તીર્થકરે ઉત્પન્ન થતા નથી. એથી તે એક તીર્થકરના જન્માભિષેક માટે એક જ સિંહાસન પર્યાપ્ત છે. એથી જ અહીં એક જ સિંહાસન અંગેનું श्यन प्राट ४२वामां आवे छे. 'कहिण भंते ! पंडगवणे रत्तासला णामं सिला पण्णत्ता' S '' પંડવનમાં રક્તશિલા નામે તૃતીય શિલા કયા સ્થળે આવેલું છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે'गोपमा ! मंदरचूलियाए पच्चन्थिमेणं पंडगवणपच्चत्थिमपेरते एत्यणं पण्डगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता उत्तरदाहिणायया पाईणपडीणविच्छिण्णा जाव तं चैव एमाणं सव्य तवणिज्जमई
છ હે ગૌતમ ! રફત શિલા નામે આ તૃતીય શિલા પંદર લિકાની પશ્ચિમ દિશામાં અને પડક વનની પશ્ચિમ દિશાની અંતિમ સીમાના અંતમાં પંડક વનમાં આવેલી છે.
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प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कार: सूँ. ४० पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् अस्याः शिचायाः 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तरदक्षिणेन उत्तरतो दक्षिणतच 'एस्थ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खलु 'दुवे ' द्वे 'सीहासणा' सिंहासने - जिनजन्मोत्सवार्थाभिषेक सिंहासने 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ते, अत्र सिंहासनद्वत्वे कारणमिदम् इयं शिला पश्चिमाभिमुखाऽस्ति तदभिमुखं च पश्चिममहाविदेrक्षेत्रं तच्च शीतोदामहानद्या दक्षिणोत्तर भागाभ्यां विभक्तं, तस्य प्रत्येकस्मिन् भागे एकैकतीर्थ करजन्मसम्भवादेकदा तीर्थकरद्वयं जायते इति द्वयोरेकदैव जन्मोत्सवाभिषेकार्थ सिंहासनद्वयमावश्यकमिति द्वे सिंहासने उक्त 'तत्थ' तत्र तयो द्वयोः सिंहासनयो मध्ये 'णं' खल 'जे' यत् 'से' तत् इति वाक्यालङ्कारे 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्यं दक्षिणभागवर्ति 'सोहासणे' सिंहासनं 'तत्थ' तत्र तस्मिन् सिंहासने 'गं' खलु 'बहूहिं' बहुभिः 'भवण ० ' भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क बैमानिकदेवैर्देवीभिश्च 'पन्हाइया' पक्ष्मादिजाः दक्षिणभागवर्ति पक्ष्मादि विजयाष्टकोत्पन्नाः 'तित्थयरा' तीर्थकराः जिना: 'अहिसिच्चति' अभिषिच्यन्ते इति प्रथम
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शिला सर्वात्मना सुवर्णमयी है और आकाश तथा स्फटिकमणि के जैसी निर्मल है यह उत्तर से दक्षिण तक लम्बी है और पूर्व पश्चिमदिशा में विस्तीर्ण है यावत् इसका प्रमाण भी "पांच सौ योजन की इसकी लम्बाई है और अढाई सौ योजन की इसकी चौडाई है तथा इसका आकार अर्द्ध चन्द्र के जैसा है इसकी मोटाई चार योजन की है। इस रूप से कहलेना चाहिये यह शिला सर्वात्मना तपनीय सुवर्णमयी है एवं आकाश तथा स्फटिक के जैसी यह निर्मल है। 'उत्तर दाहिणेणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता' इस शिला की उत्तर दक्षिण दिशा में दो सिंहासन कहे गये हैं 'तत्थ णं जे से दाहिणिल्लसीहासणे तत्थ णं बहूहिंभवण० पम्हाइया तित्थपरा अहिसिंयंति' इनमें जो दक्षिण दिग्वर्ती सिंहासन है उसके ऊपर तो अनेक भवनपति, वानव्यन्तर ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव देवियों द्वारा प्रभुका जन्माभिषेक किया जाता है अर्थात् पश्चिम महाविदेह नामका जो क्षेत्र है कि जिसके शितोदा महानदी के द्वारा दक्षिण और उत्तर भाग रूप से दो भाग हो આ શિલા સર્વોત્સના સુવર્ણમયી છે અને આકાશ તેમજ સ્ફટિક મણિ જેવી નિળ છે. આ ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી લાંબી છે અને પૂર્વ-પશ્ચિમ દિશામાં વસ્તી છે યાવત્ એનું પ્રમાણ પણ આ પ્રમાણે છે કે ૫૦૦ ચેાજન જેટલી એની લખાઇ છે અને ૨૫૦ ચેાજન જેટલી એની પહેાળાઈ છે તેમજ અના આકાર અધ ચન્દ્રમા જેવા છે. એની મેટાઈ ચાર ચેાજન જેટલી છે. આ શિલા સર્વાત્મના તપનીય સુવર્ણામયી છે અને આકાશ તેમજ સ્ફટિક नेवी निर्माण छे. 'उत्तरदाहिणेणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता' मा शिक्षानी उत्तर दक्षिणु हिशाभां मे सिद्धासना भावेला छे. 'तत्थणं जे से दाहिणिल्लसीहासणे तत्थणं बहूहिं भवण० पम्हाइया तित्ययरा अहिसिचंति' मां ने हसिए हित सिंहासन छे तेनी उपर तो अने ભવનપતિ, વાનન્ય તર, નૈતિ અને વૈમાનિક દેવ-દેવીએ પ્રભુને જન્માભિષેક કરે છે. એટલે કે પશ્ચિમ મહાવિદેહ નામઢ જે ક્ષેત્ર છે કે જેના શિવેાદા મહાનદી વડે
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जम्बूद्वीपप्रश्नतिन सिंहासनप्रयोजनम् अथ द्वितीयसिंहासनप्रयोजनमाह-'तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले' इत्यादितत्र-तयोरासनयो मध्ये खलु यत तदिति प्राग्वत्, औत्तराहम्-उत्तरभागवति 'सीहासणे' सिंहासन 'तत्थ' तत्र-तस्मिन् सिंहासने 'ण' खलु, बहुहि' बहुभिः 'भवण जाव' भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकवर्देवी मिश्च 'वप्पाइया' वनादिजाः उत्तरभागवर्तिवादिविजयाप्टकोत्पन्नाः 'तित्थयरा' तीर्थकरा:-जिनाः 'अहिसिच्चंति' अभिपिच्यन्ते, अथ चतुर्थी रक्तकपलशिलामिधा शिलां वर्णयितुमुपक्रमते-'कहिणं भंते ! पंडगवणे रक्तकंबलसिला' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्, उत्तरसूत्रं पाण्डुकस्बलशिलास्त्रमनुसृत्य व्याख्येयं नवरम् 'सब्बतवणिजमई गये हैं और जिसके प्रत्येक भागमें एक एक जिनेन्द्र की एक साथ उत्पत्ति होती है उसके दक्षिण भाग गत आठ पक्ष्मादि विजय है उत्तर भाग गत आठ वप्रादि विजय हैं इनमें दक्षिण भाग गत आठ पक्ष्मादि विजयों में उत्पन्न हुए तीर्थकर का जन्माभिषेक तो दक्षिणदिन भागवर्ती सिंहासन पर होता है और 'तत्य णं जे से उत्तरिल्ले सीहालणे तत्थणं यहहिं भवण जाव वपाइआ तित्थयरा अहि सिच्चंति' जो उत्तर दिग्वर्ती सिंहासन है उस पर ८ वादि विजयगत तीर्थकर का जन्मांभिषेक होता है यह जन्माभिषेक भवनपति आदि चतुर्विध निकाय के देव और देवियों द्वारा किया जाता है। 'कहिणं भंते ! पंडकत्रणे रत्तकवल सिला णामं सिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पंडकवन में रक्त कंवल शिला नामकी शिला कहां पर कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! मंदरचूलियाए उत्तरेणं पंडगवण उत्तरचरिमंते एत्थ पंडगवणे रत्तकंबलसिला नामं सिला पण्णत्ता' हे गौतम ! सन्दर चूलिका की उत्तरदिशा में तथा पंडकवन की उत्तर सीमा के अन्त में पंडकवन में रक्तकम्बलशिला नामकी शिला कही गई है દક્ષિણ અને ઉત્તર ભાગ રૂપ બે ભાગ થઈ ગયા છે અને જેના દરેક ભાગમાં એક-એક જિનેન્દ્રની એકી સાથે ઉત્પત્તિ થાય છે. તેના દક્ષિણ ભાગમાં આઠ પમાદિ વિજયો આવેલા છે. ઉત્તર ભાગમાં આઠ વપ્રાદિ વિજો આવેલા છે. એમાં દક્ષિણ ભાગ ગત આઠ પમાદિ 'વિજેમાં ઉત્પન્ન થયેલા તીર્થકરને જન્માભિષેક તે દક્ષિણ દિમ્ભાગવતી સિંહાસન ઉપર सेय छे. मने 'तस्थ ण जे से उत्तरिल्ले सीहासणे तत्य गं बहहिं भवण नाव वप्पाइआ तित्थयरा अहिसिच्चंति' २ तर ती सडासन छ तेनी ९५२ मा विन्य ગત તીર્થકરો જન્માભિષેક થાય છે. એ જન્માભિષેક ભવનપતિ વગેરે ચતુર્વિધ નિકાयना व अन वीमा ५४ ४२वाभा मा छे. 'कहिणं भंते । पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता' ! ५७चनमा २५त ४ NिAL नामे शिया २५णे आवधी छ १ मेना पाममा प्रभु डे -'गोगमा ! मंदरचूलियाए उत्तरेणं पंडगवणउत्तरचरिमंवे पत्य णं पंडगवगे रत्तकंबल सिला ण म तिला पण्णता' गौतम! भर न्यूसिवाना ઉત્તર દિશામાં તેમજ પંડક વનની ઉત્તર સીમાના અંતમાં પડકવનમાં રફત કંબલ શિલા
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४० पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४९३ सर्वतपनीयमयी-सर्वात्मना रक्तमुवर्णमयीति वर्णतो वोध्या, अत्रत्य सिंहासने 'एरावयगा' ऐरावतका:-ऐरावतक्षेत्रीत्पनाः 'तित्थयरा' तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते । अस्य सिंहासनस्यैकलविषयकशङ्कासमाधाने भरतक्षेत्रोक्ततिमनुसृतरीय बोध्ये ॥सू० ४०॥
अथ मन्दरे काण्डसंख्यां गौतमो भगवन्तं पृच्छति-'मंदरस्स णं भंते' इत्यादि । .. मूलम्-मंदरस्त णं भंते ! फवयस्स कइ कंडा पणत्ता ?,गोयमा! तओ कंडा पणत्ता, तं जहा-हिटिल्ले कंडे १, मझिल्ले कंडे २, उवरिल्ले कंडे ३, मंदरस्त णं भंते ! पव्वयस्त हिटिल्ले कंडे कइविहे पण्णते ?, गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-पुढवी १ उबले २ वइरे ३ सकरा ४, मझिमिल्ले णं भंते ! कंडे कइविहे पण्णते ?, गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-अंके १ फलिहे २ जायरूवे ३ रयए ४, उवरिल्ले कंडे कइविहे पण्णते ?, गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते सव्वजंबूणयामए, मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स हेटिल्ले कंडे केवइयं बाहल्लेणं 'पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा सचतवणिज्जमई अच्छा जाव मज्झदेसभाए सीहालणं, तत्थ णं बहूहिं भवणवई जाव देवेहिं देवीहि य एरा वयगा तित्थयरा अहिसिंचंति' यह शिला पूर्व से पश्चिम तक लम्बी है और उत्तर दक्षिण में विस्तीर्ण है यह शिला सर्वात्मना तप्त सुवर्णमयी है आकाश एवं स्फटिकमणि के जैसी निर्मल है । इस शिला का ऊपरी भाग बहु समरमणीय है इसके मध्य भाग में एक सिंहासन है इस पर ऐरावत क्षेत्र के भीतर उत्पन्न हुए तीर्थंकर का जन्माभिषेक किया जाता है यह जन्माभिषेक अनेक भवनपति आदि चतुर्विध देवनिकायों द्वारा संपन्न किया जाता है भरतक्षेत्र की तरह-ऐरावत क्षेत्र में भी एक काल में एक ही तीर्थकर का जन्म होता है, अतः उनके अभिषेक के लिये यह शिला प्रयुक्त होती है ॥४०॥ नामे शिला भावली छ. 'पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा सव्व तवणिज्जमई अच्छा जाव मम्झदेसभाए सीहासणं, तत्थणं बहूहिं भवणवई जाव देवेहिं देवीहिय एरावयगा तित्थयरा अहिसिंचति' मा शिक्षा पूर्वथा पश्चिम सुधी खiमी छ भने उत्तर-दक्षिणमा વિસ્તીર્ણ છે. આ શિલા સર્વાત્મના તપ્ત સુવર્ણમયી છે. આકાશ તેમજ સ્ફટિક મણિ જેવી નિર્મળ છે. આ શિલાનો ઉપરનો ભાગ બહુ સમરમણીય છે. એના મધ્ય ભાગમાં એક સિંહાસન આવેલું છે. એની ઉપર અરવિત ક્ષેત્રની અંદર ઉત્પન્ન થયેલા તીર્થકરનો જન્માભિષેક કરવામાં આવે છે. આ જન્માભિષેક અનેક ભવનપતિ વગેરે ચતુવિધ દેવનિકા વડે સમ્પન કરવામાં આવે છે. ભરતક્ષેત્રની જેમ ઐરાવત ક્ષેત્રમાં પણ એક કાલમાં એક જ તાર્યકરને જન્મ થાય છે. એથી તેમના અભિષેક માટે આ શિલાને ઉપગ થાય છે. ૪૦
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अम्बूढीपप्रतिस्त्रे पण्णत्ते ?, गोयमा ! एग जोयणसहस्सं वाहल्लेणं पण्णत्ते, मज्झिमिल्ले कंडे पुच्छा, गोयमा ! तेवट्टि जोयणसहस्साई वाहल्लेणं पणत्ते, उवरिल्ले पुच्छा, गोयमा ! छत्तीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते, एवामेव सपुव्वावरेणं मंदरे पव्वए एगं जोयणसयसहस्सं लव्वग्गेणं एण्णत्ते सू० ४१॥
छाया-मन्दरस्य खलु भदन्त ! पर्वतस्य कतिकाण्डानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! त्रीणि काण्डानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-अधस्तन काण्डं १ मध्यमं काण्ड २ उपरितनं काण्डम् ३ मन्दरस्य खल्ल भदन्त ! पर्वतस्य अधस्तन काण्डं कतिविधं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तया-पृथिवी १ उपलाः २ वनागि ३ शर्कराः ४, मध्यमं बलु भदन्त ! काण्ड कतिविधं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तघया-आकः १ स्फटिकः २ जातरूपं ३ रजतम् ४, उपरितनं काण्ड कतिविधं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! एकाकारं प्रज्ञप्तं सर्वजाम्बूनदमयम्, मन्दरस्य खलु भदन्त ! पर्वतस्य अधस्तुन काण्डं कियद् वाहल्येन प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! एक योजनपहस्रं वाहत्येन प्रज्ञतम्, मध्यमे काण्डे पृच्छा, गौतम ! त्रिपष्टि योजनसहस्राणि वाहल्येन प्रज्ञप्तम्, उपरितने पृच्छा, गौतम ! पत्रिंशतं योजनसहस्राणि वाहल्येन प्रनप्तम् एवमेव सपूर्वापरेण मन्दरः पर्वतः, एक योजनशतसहसं सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तः ॥९० ४१॥ ___टीका-'मंदरस्स णं अंते' इत्यादि-मन्दरस्य-मेरोः खलु भदन्त ! 'पव्ययस्स' पर्वतस्य 'कई कति-कियन्ति 'कंडा' काण्डानि विभागाः 'पण्णता?' प्रज्ञप्तानि ?, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा! गौतम ! 'तो' त्रीणि 'कंडा' काडानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तयया 'हिडिल्ले'.अबस्तनम् -अधोभा 'कंडे' काण्डं १, 'मझिल्ले' मव्यं मध्य
मंदरकाण्डसंख्यावक्तव्यता'मंदरस्लणं भंते ! पव्वयस्ल कइ कंडा पण्णत्ता' इत्यादि ।
टीकार्य-गौतम ने प्रभु से अब ऐसा पूछा है-'मंदरस्स णं भंते ! पव्ययस्स कह कंडा पण्णता हे भदन्त ! संदर पर्वत के कितने काण्ड विभाग कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! तओ कंडा पण्णत्ता' हे गौतम ! तीन काण्ड कहे गये हैं। 'तं जहा-'जो इस प्रकार से हैं-हिडिल्ले कंडे, मझिल्ले कंडे'
મંદર કાંડ સંખ્યા વક્તવ્યતા 'मंदसरा णं मते ! पञ्चयस्स कइ कंडा पण्णत्ता' इत्यादि
टीआय-गीतमे वे प्रभुने मा तना प्रश्न या 'मंदरस्स णं भो ! पव्वयस्स कह कंडा पण्णत्ता मत! मह पतन seen ti-विभागापामा सावटा छ? मेना प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! तओ कंडा पण्णत्ता गौतम ! a sistआमा मा . 'तं जहा' रेभ'हिद्विल्ले ,कंडे, मझिल्ले कंडे उवरिल्ले कंडे' १ अस्त
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवशस्कार सू. ४१ मन्दरपर्वतस्य काण्डसंख्यानिरूपणम् ४९५ प्रदेशभवम् २ 'कंडे' काण्डम् २ 'उबरिल्ले' उपरितनं शिखरभवं 'कंडे' काण्डम् ३, तत्र प्रथमकाण्ड भेदं पृच्छति-'मंदरस्स' मन्दरस्य-मेरोः 'ग' खलु 'भंते ! भदन्त ! 'पव्ययस्स' पर्वतस्य 'हिडिल्ले' अधस्तनं 'कंडे' काण्डं 'कइबिहे' कतिविधं-क्रियत्पकारक 'पष्णते ?' प्रज्ञप्तम् ?, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौनम ! अगस्ननं काण्डं 'चउबिहे' चतुर्विधं चतुष्मकारकं 'पण्णत्ते' प्रज्ञतम् 'तं जहा' तद्यथा-'पुढवी' पृथ्वी-मृत्तिका १, 'उबले' उपला:-प्रस्तराः २, 'वइरे' वजाणि-हीरकाः ३, 'सकरा' शर्करा:-कर्करिकाः ४, एवञ्च मन्दरः पृथ्वीपापाणहीरपशर्करामयकन्दकः सिद्धः, अत्याधस्तनमेव काण्डं सहस्रयोजनप्रमाणम्, नन्नवरतनकाण्डस्य पृथिव्यादिभेदेन चतुर्विधवात्तदीय योजनसहनस्य भागचतुष्टयकरणे पृथिव्यायकैकस्य भेदस्य योजनसहस्त्रचतुर्थभागप्रमाणता स्यात् तथा व सति विशिष्ट उरिल्ले कंडे १ अधस्तनकाण्ड २ अध्यकाण्ड और ३ उपरितकाण्ड अब गौतम पुनः प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'अंदरस्त णं भंते ! पश्य यस्म हिल्लेि कंडे कइविहे पण्णत्ते' हे भदन्त ! मन्दर पर्वत का जो अघकान काण्ड है वह मिनने प्रकार का कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयया ! चउविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! अधस्तनकाण्ड चार प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे 'पुढवी, उवले, वइरे सक्करा' एक पृथिनीरूप, दूसरा उपलरूप, तीसरा वज्ररूप और चौथा शर्करा-कंकररूप इस तरह के इस कथन से अन्दर पर्वत पृथिवी, पाषाण हीरक और कंकड मयकन्दक वाला सिद्ध होता है यह प्रथम काण्ड ही १ हजार योजन प्रमाणशला है यहां ऐसी शंका होती है कि जब प्रथमकाण्ड १ हजार योजन प्रमाणवाला है तो इसके जो चार विभाग प्रकट किये गये हैं उनमें एक एक विभाग एक हजार योजन का चतुर्थी श रूप होगा अतः एसा होने पर विशिष्ट परिणामानुगत विच्छेदरूप पृथिव्यादिक काण्ड की संख्या के बर्द्धक हो जायेगें નકાડ, ૨ મધ્યકાંડ અને ઉપરિતનકાડ. હવે ગૌતમસ્વામી ફરી પ્રભુને પ્રશ્ન કરે છે કે'मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स हिडिल्ले कंडे कइविहे पण्णत्ते' , मत ! म४२ परतना જે અધસ્તન કાંડ છે, તે કેટલા પ્રકારને કહેવામાં આવેલ છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે छे-गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते' गौतम ! मस्तन is या२ २ ४उवामां मावेस छ. 'तं जहा' रेभ. 'पुढवी, उपले, वइरे, सक्करा' मे४ पृथ्वी ३५, माले ८ ३५. ત્રીજે વજ રૂપ અને રથ શર્કરા એટલે કે કકરા રૂપ. આમ આ જાતના કથનથી મંદિર પર્વત પૃથિવી પાષાણ, હીરક અને કાંકરા ભય કંદકવાળે સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રથમ કાંડ જ એક હજાર અને પ્રમાણુવાળે છે. અહીં શંકા ઉદ્ભવે છે કે જ્યારે પ્રથમ કાંડ ૧ હજાર રોજન પ્રમાણવાળો છે તે એના ચાર વિભાગો પ્રકટ કરવામાં આવેલા છે તેમનામાં એક-એક વિભાગ એક હજાર એજનને ચતુર્થાંશ રૂ૫ થશે એથી એમ થાયતે વિશિષ્ટ પરિણામનુગત વિચ્છેદ રૂપ પૃથિવ્યાદિક કાંડની સંખ્યાના વાદ્ધ કે થઈ જશે તે પછી આ
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जम्बूद्वीपप्रभाप्तिस्ते परिणामानुगतविच्छेदरूपाः पृथिव्यादयः काण्डसंग्ख्या बढ़ ये युरिनि चेत् सत्यम् अत्रीच्यनेअधस्तनकाण्डस्य पृथिव्यादि भेदकयनस्येदं तार्यम्-प्रथमकाण्डं क्यचित्पृथ्वीबहुलं क्वचि. दुपलबहुलं क्वचिद् बज्रबहुलं क्वचिच्छराबहुलं न तु पृथिव्यादि चतुष्टयातिरिक्ताहम्फटिकादि घटितमितिहेतो नियमेन पृथिव्यादिरूपविभागा न काण्डम्प किन्तु काण्डम्य प्रथमभेदे स्वस्वप्राचुर्यदर्शका एव इति काण्डसंख्यां बर्द्धयितुं पश्च्यिादयो न शक्नुवन्ति,
अथ मध्यम काण्डति वस्तूनि वर्णयितुमुपक्रमते-'मज्झिमिल्लेणं भने ' मध्यम खलु भदन्त ! 'कंडे' काण्ड 'कवि' कतिविध-किसत्तकारकं 'पण्णते ?' प्रसप्तम् ?, 'गोयमा !' गौतम ! मध्यमं काण्डं 'चउबिहे' चतुर्विध 'पण्गत्ते' प्राप्तम्, 'तं नहा' तद्यथा-'अंको' अङ्क:'फलिहे' स्फटिका-कटिकमणिः २, 'जायल्ये' जातरूपं मुर्गम् 3, 'स्यए रजत रुप्यम् अङ्करत्नम् १, ४, एनचतुष्टयमय मध्यमं काण्डमिनि भावः, अत्रापि प्रथमकाण्डवत् काचिदकतो फिर यह चतुः प्रकारता विरुद्ध पड जावेगी तो इस शंका का उत्तर ऐसा हैं-कि यह प्रथम काण्ड की चतुः प्रकारता विरुद्ध नही पडेगी-वयों कि प्रथम काण्ड क्वचित् स्थल पर पृथिवी पहुल है, क्वचित् स्थल पर उपल बहुल है, क्वचित् स्थल पर वन बहुल है और क्वचित् स्थल पर शर्करा बहुल है इन चार प्रकार से अतिरिक्त अङ्करत्न या स्फटिकादि से वह यहुल नहीं है इस कारण ये पृथिव्यादिरूप विभाग काण्ड के प्रथम भेदमें अपनी अपनी प्रचुरता के प्रदर्शक कही है-इसलिये काण्ड की संख्या इनसे नहीं बढ़ सकती है 'मज्झिमिल्ले णं भंते ! कंडे कइविहे पण्णत्त' हे अदन्त ! मध्यमकाण्ड कितने प्रकार का कहा गया है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! चन्विहे पण्णत्ते' हे गौतम ! मध्यमकाण्ड चार प्रकार का कहा गया है-'तं जहा' जैसे 'अंके,फलिहेजायख्वे, रयए' अङ्करत्नरूप, स्फटिकरूप, जातरूप रूप, और सुवर्णरूप इन भेदों से यही समझना चाहिये-कि प्रथम काण्ड की तरह यह काण्ड भी कहीं २ अङ्करत्न ચતુ પ્રકારના વિરુદ્ધ લેખાશે. આ શંકાને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે આ પ્રથમકાંડની ચતુઃ પ્રકારના વિરુદ્ધ લેખાશે નહિ. કેમકે પ્રથમ કાંડ ફવિચિત્ સ્થળે પૃથિવી બહલ છે, કવચિત સ્થળે ઉપલ બહલ છે, ફવચિત્ સ્થળે જ બહુલ છે અને વિચિત સ્થળે શર્કરા બહુલ છે. એ ચાર પ્રકારે સિવાય અંક, રત્ન કે સ્ફટિકાદિની દષ્ટિએ તે બહલ નથી. એથી આ પૃથિવ્યાદિ રૂપ વિભાગ કાંડના નથી પણ કાંડના પ્રથમ ભેદમાં પિત–પિતાની પ્રચુરતાના प्र छ. मेथी ४isनी सध्या सेमनाथी यती नथी. 'मज्झिमिल्ले णं ते! कंडे कइ विहे पण्णत्ते' 3 मत ! Husis
वामां मावेस छ ? तो मनायाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा! चउबिहे पण्णत्ते' हे गौतम ! मध्यम ४७ यार प्रहारना डेवामा मा छ. 'तं जहा, रेभ अंक, फलिहे जायरूवे, रयए' ५४ २८न ३५, २४ ३५, જાત રૂપ અને સુવર્ણ રૂપ. એ ભેદેથી એજ સમજવું જોઈએ કે પ્રથમ કાંડની જેમ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४१ मन्दरपर्वतस्य काण्डसंख्यानिरूपणम् ४७ बहुलं क्वचित् स्फटिकाहुलं क्वचिज्जातरूपबहुलं क्वचिद्रजतबहुलमिति भावनीयस् । अथ तृतीयं काण्डं वर्णयिमुपक्रमते-'उवरिल्ले' उपरितनं 'कंडे' काण्ड 'काबिहे कतिविधं 'पण्णत्ते? प्रज्ञप्तम् ?, गोयमा!' गौतम ! 'एनागारे' एकाकार-प्रकारान्तररहित 'पण्णत्ते' प्रज्ञसम् एतदेव स्पष्टीकरोति 'सव्वजंबूणयामए' सर्वजाम्बूनदमयं-सर्वात्मना जाम्बूनदमयं रक्तमुवर्णमयम् । अथ मन्दरकाण्डत्रयपरिमाणद्वारा मन्दरपरिमाणं वर्णयितुमुपक्रमते-'संदरम्स णं भंते !' इत्यादि-मन्दरस्य मेरोः खलु भदन्त ! भगवन् ! 'पन्चयस्स' पर्वतस्य 'हेहिल्ले' अश्स्तनं 'कंडे' काण्डं 'केवइयं' कियत् किम्परिमाणं 'दाहरुलेणं' वाहल्येन उच्चत्वेन 'पण्णत्ते?" प्रज्ञप्तम् ?, एतत्प्रश्नस्योत्तरमाह- गोयमा !' गौतम ! 'एग एक 'जोयणसहस्सं' योजनसहसं 'वाहल्लेणं' वाहल्येन 'पण्णले प्रज्ञतम्, एवं 'मज्झिमिल्ले' मध्यभे 'कंडे' काण्डे 'पुच्छा' पृच्छा प्रश्नपद्धति बोध्या सा हि-'मंदरस्स णं भंते ! मझिल्लेि कंडे केवइयं पाहल्लेणं पण्णत्ते ?' एतच्छाया-'मन्दरस्य खलु भदन्त ! मध्यमं काण्डं कियद् वाहल्येन प्रज्ञप्तमिति, एतदुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'तेवहि त्रिपष्टिं 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि बहुल है कहीं २ स्फटिक मणिबहुल है कहीं २ रजत पहल है और कहीं २ जातरूप बहल है 'उपरिल्ले कंडे कविहे पण्णत्ते उपरितनकाण्ड हे भदन्त ! कितने प्रकार का कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा! एगागारे पण्णत्ते' हे गौतम ! उपरितन काण्ड एक ही प्रकार का कहा गया है 'सव्वजंबूणयामए' और सर्चात्मना जंबूनदमय-रक्तसुवर्णमय है 'मंदरसणं भंते ! पन्चथस्ल हेहिल्ले कंण्डे केवइयं वाहल्लेणं पण्णत्ते' हे भदन्त ! मंदर पर्वत का जो अधस्तल काण्ड है उसका बाहल्य ऊंचाई-कितना कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! एग जोचणसहस्सं पाहल्लेणं पण्णत्ते' हे गौतम ! अधस्तन काण्ड की ऊंचाई एक हजार योजन की कही गई है 'मज्झिमिल्ले कंडे पुच्छा' हे भदन्त ! मध्यमांड की ऊंचाई कितनी कही गई है इसके उत्तर में આ કાંડ પણ કયાંક કયાંક અંક રત્ન બહલ છે. કયાંક-ક્યાંક સ્ફટિક મણિ બહલ છે. કયાંક २४ मत छ भने ४i and ३५ महुल छ. "उवरिल्ले कंडे कइ विहे पण्णत्ते' मन्त! उपरितन i3 Tean प्रारना ४ामी मावी छ ? सेना पक्षमा प्रभु ४ छ-'गोश्मा एगागारे पण्णत्ते' हे गौतम ! परितन is an ४२ने। वामां मावस छ. 'सव्व जंबूणयामए' मन मा सर्वात्मना भूनमय-२३त सु१ भय है. 'मंदरस्त णं भंते ! पव्वयस्स हेदिल्ले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्त' I २ ५ तारे २५५स्तन છે, તેનું બાહલ્ય–તેની ઊંચાઈ કેટલી ' કહેવામાં આવેલી છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે छे-'गोयमा ! एग जोयणसहरसं वाल्लेणं पण्णत्ते' के गीतम ! अस्तन xistीयाध मे १२ यौन सी ४ामा साक्षी छ. 'मज्झिमिल्ले कंडे पुच्छा है मत! भध्य ४istी यामी ४३वामा मावेसी छे, मेना वाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा !
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जम्बूद्वीपप्रमतिले 'वाहल्लेणं' वाहल्येन उच्चत्वेन 'पण्णत्ते' प्रज्ञसम्, एतेन भद्रशालयनं नन्दनवनं सौमनसवनमन्तरद्वयं चैतानि सर्वाणि मन्दरपर्वतस्य मध्यमकाण्डेऽन्तर्भवन्ति, ननु द्वितीयकाण्डविभागस्य समवायाङ्गसूत्रस्याष्टत्रिंशत्तमसमवायेऽष्टत्रिंशत्सहस्रयोजनोच्छ्रितत्वेन वर्णितत्वात्रिपष्टियो. जनसहस्रोच्चत्वं कथं सगच्छते ? इति चेत्, अत्रोच्यते-समवायागोक्तोच्चत्वस्य मतान्तरावलम्घनमूलकत्वात्प्रकृतोच्चत्वे न वाधकतेति । एवम् ‘उवरिल्ले पुच्छा' उपरितले काण्डे पृच्छा प्रश्नपद्धतिरूहनीया, तत्प्रश्नोत्तरमाह-'गोयमा ! गौतम ! 'छत्तीसं' पत्रिंशतं 'जोयणसहस्साई' योजनसह त्राणि 'वाहल्लेणं' वाहत्येन 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् 'एवामेव' एवमेव-पूर्वोक्त. रीत्यैत्र 'सपुवावरेणं' सपूर्वापरेण-पूर्व संख्यानसहितापरसंख्यानेन सङ्कलितेन समा 'मंदरे' मन्दरः 'पञ्चए' पर्वतः 'एगं' एक 'जोयणसयसहस्स' योजनशतसहस्र 'समगेग' सर्वाग्रेण प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! तेवहि जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते' हे गौतम ! मध्यम काण्ड की ऊंचाई ६३ हजार योजन की कही गई है इस कथन से 'भद्रशालचन नन्दनवन, सौमनसवन और दो अन्तर ये सब मन्दर पर्वत के मध्यम काण्ड में अन्तर्भूत है' यह बात समझनी चाहिये।
शंका-समवायाङ्ग सूत्र के ३८ वें समवाय में इस द्वितीय काण्ड ल्पविभाग को ३८ हजार योजन की ऊंचाई वाला कहा गया है फिर आपका यह ६३ हजार की ऊंचाई वाला कथन कैसे संगत हो सकता है ? तो इसका उत्तर ऐसा है कि वहां जो ऐसा कहा गया है वह मतान्तर की अपेक्षा से कहा गया है अतः वह कथन इस कथन का बाधक नहीं हो सकता 'उवरिल्ले पुच्छा' हे भदन्त उपरितन काण्ड की ऊंचाई कितनी कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! छत्तीसं जोयणसहस्साई वाहल्लेणं पण्णत्ते' हे गौतम! उपरितनकाण्ड की ऊंचाई ३६ हजार योजन की कही गई है 'एचामेव सपुवावरेणं मंदरे पच्चए तेवष्टि जोयणसहम्साई वाहल्लेणं पण्णत्ते' हे गौतम! मध्यम isी १३ 8२
જન જેટલી કહેવામાં આવેલી છે. આ કથનથી ભદ્રશાલવન, નંદનવન, સોમનસવન, અને બે અન્ડર એ બધા મન્દર પર્વતના મધ્યકાંડમાં અન્તર્ભત થઈ જાય છે.
શંકાસમવાયાંગ સૂત્રના ૩૮મા સમવાયમાં એ દ્વિતીય કાંડ રૂપ વિભાગને ૩૮ હજાર જન જેટલી ઊંચાઈવાળો કહેવામાં આવેલ છે, તે પછી અહીં ૬૩ હજાર જેટલી ઊંચાઈનું કથન કેવી રીતે ચોગ્ય કહેવાશે? આને જવાબ આ પ્રમાણે છે કે ત્યાં જે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, તે મતાન્તરની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલું છે. એથી ते ४थन २॥ ४यनk मा नथी 'उबरिल्ले पुच्छा मत ! 6रतन ४3नी या ४क्षी धडपामा मानी छ ? साना वाममा प्रमुछे-'गोयमा ! छत्तीस जोयणसहस्साई चाहल्लेणं पण्णत्ते' गौतम ! परितन नी या 38 m२ योन सी ४डपामा भावना छे. 'एवामेव सपुब्बावरेणं मंदरे पञ्चए एगं जोयणसयसहस्सं सव्वगेणं पण्णचे' मा
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प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४१ मन्दरपर्वतस्य काण्डसंख्यानिरूपणम् ४९९ सर्वसंख्यया 'पण्णत्ते' प्रज्ञतः, ननु मेरुशिखरवर्तिनी चत्वारिंशद्योजनप्रमाणा चूलिका मेरु प्रमाणमध्ये कुतो नोक्ता ?, इति चेत् सत्यम्, श्रूयतां-मेरुशृङ्गस्थचूलिकायान्मेरुक्षेत्रचूलात्वेनास्वीकारान्मेरुप्रमाणमध्ये न कथनम् । लोकेऽपि पुरुषस्योच्चत्वे परिमीयमाने शिरोवर्ति चिकरनिकुरम्बं विहायैव सार्द्धहस्तत्रयादिमानव्यवहारो दृश्यते, अन्यथा 'लम्बमानकेशपाशपरिमाणोपादाने' तावन्मानं न घटैवेति । इयं त्रिसूत्रीसमानपद्धतिकतयैकत्रैव सूत्राङ्के समाङ्कि। सू० ४१॥ । अथ समयप्रसिद्धानि मन्दरस्य षोडशनामानि निर्देष्टुमुपक्रमते-'मंदरस्स णं भंते !! इत्यादि।
मूलम्-मंदरस्ल णं भंते ! पव्वयस्स कइ णामधेजा पण्णता ?, गोयमा ! सोलस णामधेजा पण्णत्ता, तं जहा-मंदर १ मेरु २ मणोरम ३ सुदंसण ४ सयंपभे य ५ गिरिराया ६ । रयणोच्चय ७ सिलोच्चय ८ मज्झे लोगस्स ९ णाभीय १० ॥१॥ अच्छे य ११ सूरियावत्ते १२ सूरिएगं जोयणसयसहस्सं सब्बग्गेणं पण्णत्ते' इस तरह का कुल यह प्रमाण मंदर पर्वन का १ लाख योजन का हो जाता है। __ शंका-मेरुकी चूलिका का प्रमाण जो ४० योजन का कहा गया है वह इस १ लाख योजन के प्रमाण में क्यों नहीं-परिगणित किया गया है ? तो इस शंका का उत्तर ऐसा है कि मेरुकी चूलिका को मेरु क्षेत्र की चूलारूप होने से अस्वीकार किया गया है, इस कारण उसे मेरु के प्रमाण के बीच में परिगणित नहीं किया गया है लोक में भी ऐसा ही देखा जाता है कि जब पुरुष की ऊंचाई नापी जाती है तो उसमें शिरोवर्ति बालों की ऊंचाई नहीं ली जाती है यदि ऐसा होने लगे तो फिर सार्द्धहस्तत्रयादिरूप अचाई का प्रमाण व्यवहार अच्छिन्न हो जावेगा यह त्रिसूत्री समान पद्धतिवाली है अतः एक ही सूत्र के अङ्क से अङ्कित की गई है ॥४१॥ . પ્રમાણે આ મંદિર પર્વતનું કુલ પ્રમાણ એક લાખ એજન જેટલું થઈ જાય છે.
શંકા-મેરુની ચૂલિકાનું પ્રમાણ જે ૪૦ એજન જેટલું કહેવામાં આવેલું છે તે આ ૧ લાખ એજનના પ્રમાણમાં શા માટે પરિણિત કરવામાં આવ્યું નથી. તે આ શંકાને જવાબ આ પ્રમાણે છે કે મેરુની ચૂલિકાને મેરુ ક્ષેત્રની ચૂલા રૂપ હોવા બદલ અસ્વીકૃત કરવામાં આવે છે. એથી મેરુના પ્રમાણમાં તેની ગણના કરવામાં આવી નથી. લેકમાં પણ આ રીતે જ જોવા મળે છે કે જ્યારે પુરુષની ઊંચાઈ માપવામાં આવે છે તે તેમાં શિરાવતિ વાળની ઊંચાઈની ગણના કરવામાં આવતી નથી. જો આવું થવા માટે તે સાદ્ધ હસ્ત ત્રયાદિ રૂ૫ ઊંચાઈના પ્રમાણુ રૂપ વ્યવહાર ઉછિન્ન જ થઈ જશે. એ ત્રિસૂત્રી સમાન પદ્ધતિ વાળી છે, એથી એક જ સૂત્રના અંકથી અંકિત કરવામાં આવેલી છે. જે ૪૧ છે
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जम्बूद्वीपप्रतिसूत्र यावरणे १३ तिया । उत्तसे १४ अ दिसादीय १५ वडेंसेति १६ य सोलसे ॥२॥ से केणढणं भंते ! एवं वुबइ अंदरे पत्रए २ ? गोयमा ! मंदरे पव्यए मंदरे णाम देवे परिवसइ माहिदीए जाव पलिओचमटिइए, से तेगटेणं गोयमा ! एवं बुचड़ मंदरे रूपए २ अदुत्तरं तं चेवत्ति ॥८०४२॥
छाया-मन्दरस्य खलु भदन्त ! पर्वतस्य कति नामधेयानि प्रज्ञसानि?, गोनम ! पोडश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-गन्दरः १ मेरु: २ मनोरमः ३ सुदर्शन: ४ स्वयम्प्रभश्च ५ गिरिराजः ६ । रत्नोच्चयः ७ शिलोच्चयः ८ मध्यलोकस्य ९ नाभिश्च १० ॥१॥ अच्छश्च ११ सूर्यावर्त्तः १२ सूर्यावरणः १३ इति च । उत्तमः १४ च दिशादिश्च १५ अवतंस इति १६ च पोडश ॥२॥ अथ फेनार्थेण भदन्त ! एवमुच्यते-मन्दर पर्वतः २१, गौतम ! मन्दरे पर्वते मन्दरो नाम देवः परिवसति महद्धिको यारत् पल्पोपमस्थितिकः, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-न्दरः पर्वतः २ अदुत्तरं तदेवेति । सू० ४२॥
टोका-'मंदरतणं मंते' इत्यादि मन्दरस्य खलु भदन्त ! भगवन् ! पर्वतस्य 'कई कति-क्रियन्ति 'णामधेजा' नामधेयानि नामानि 'पण्णता?' प्रज्ञतानि ?, इति प्रश्नस्योत्तरमाह-'गोरमा ।' भो गौतम ! 'सोस' पोडश 'णामवेज्जा' नागवेयानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा-मन्दरेत्यादि श्लोकद्वयम्, मन्दरस्य पोडशनामसूचकम्, तत्र 'मंदर' मन्दरः,
मन्दर पर्वत के समय प्रसिद्ध १६ नामान्तर. 'मंदरस जंमते ! पन्यास कहनामधेजा पत्ता इत्यादि।
हीकार्थ-भंते' हे भदन्त! 'मन्दरस्सणं पव्ययस्स का नामधेजा पण्णत्ता' मन्दर पर्वत के कितने नाम कहे गये हैं ? 'गोयमा सोल सणामधेजा पण्णत्ता' हे गौतम ! मन्दर पर्वत के १६ नाम कहे गये हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं-'मन्दर १ मेरु २, मणोरम ३, सुदंराण ४, सयंपमेय ५गिरिराया ६रयणोच्चय ७, सिलोच्चय ८, मज्झे लोगस्सणाभी य १० ॥१॥ भूल में प्राकृन होने से मन्दर पद में
મન્દર પર્વતના સમય પ્રસિદ્ધ ૧૬નામાન્તરે 'मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स कइ नामवेज्जा पण्णत्ता' इत्यादि
टी -'भंते !'Bad ! 'मदरस्स णं पव्वयस्स कइ नामधेज्जा पण्णत्ता' म पतिना सा नाम वामां मारा छ ? 'गोयमा! सोलस णामधेजा पण्णत्ता' गौतम ! भ२ पतन १६ नामा वामां मासा छे. 'तं जहा, ते नाभी सा प्रमाणे छ-मन्दर १, मेरु २, मणोरम ३, सुदंसण ४, सयपभेय ५, गिरिराया ६, रयणोच्चय ७' सिलोच्चय ८, मझे लोगस्म ९, णाभीय १०, ॥ १ ॥ भूगमा प्राकृत पापी मह२ ५४मा विalsi લેપ થયેલ છે. અથવા મન્દરથી માંડીને સ્વયંપ્રભ સુધીના શબ્દોમાં સમાહારબંદ્ધ समास थये। छ. मेथी ५ 'मन्दर मेरु मनोरम सुदर्शन स्वयम्प्रभ' मा मे क्यनान्त यह
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४२ मन्दरस्य षोडशनामनिरूपणम् ५०१ मूले प्राकृतलाद्विभक्तिलोपः, यद्वा मन्दरादि स्वयंप्रभान्तानां समाहारद्वन्द्वः, अस्मिन् पक्षे मन्दरमेरुमनोरमसुदर्शनस्वयम्प्रभमिति समस्तमेकवचनान्तं पदम्, तत्र मन्दरेति नामधेय. कारणं स्वयमेव सूत्रताग्रे 'मंदरे पन्चए मन्दरे णामं देवे' परिवसई' इति वक्ष्यते, इति शीघ्रजिज्ञासायां मन्दरनामकदेवाधिष्ठितत्वान्मन्दरेति नाम बोध्यम् १ द्वितीयं नामाह-'गेरु' मेरुः एतनामकारणमपि मेरुनामकदेव परिवास एव बोध्यम्- ननु एकस्यैव मन्दरस्य नामान्तरसत्त्वेन मन्दरस्यैव मेरु द्वितीयो देवः स्यादिति चेत्-श्रूयतां मन्दरनामान्तरवदेवस्य नामन्तराङ्गीकार इति न देवान्तरम्, अत्र निर्णयो बहुश्रुतगम्य इति २, तृतीयं नामाह'मणोरम' मनोरमा-रमयतीति रमः मनसां-देवानां चेतसां रमो मनोरम:-अतिरमणीयकेन देवमनोरञ्जकः ३, चतुर्थ नामाह-'मुदसण' सुदर्शनः सु शोभनं जाम्बूनदमयत्वेन रत्नबहुलविभक्ति का लोप हो गया है अथवा नन्दर से लेकर स्वयंप्रभा तक के शब्दों में समाहार इन्द्व समास हुआ है इसी कारण-"मन्दर मेरु मनोरम सुदर्शन स्वयम्प्रभ" यह एक वचनान्त पद बन गया है । मन्दर यह प्रथम नाम है, मेरु यह दूसरा नाम है, मनोरम यह तृतीय नाम है, सुदर्शन यह चतुर्थ नाम है, स्वयं प्रभ यह पांचवां नाम है, गिरिराज यह छठा नाम है, रत्नोच्चय सातवां नाम है, शिलोच्चय यह ८ वा नाम है, मध्यलोक यह ९ वा नाम है, और नाभि यह १० वां नाम है। मन्दर नामक देव से यह अधिष्ठित है इस कारण इसका नाम मन्दर ऐसा हो गया है, मेरु नामक देव के परिवास से मेरु ऐसाद्वितीय नाम इसका हो गया है, जैसा मन्द्र यह एक नाम है और मेरु यह इसीका दूसरा नाम है इसी प्रकार से देवका भी एक नाम मंदर है और दूसरा नाम मेरु है अतः यहां इस नाम में नामान्तर की कल्पना से द्वितीय देवका सद्भाव नहीं मानना चाहिये अथवा इस सम्बन्ध में निर्णय बहुश्रुतगम्य है । यह पर्वत बहुत ही रमणीय है-देवों के मन को हरण करने वाला है इस कारण इसका तृतीय नाम मनोरम ऐसा कहा गया है, यह पर्वत जाम्बूनद मय कहा गया है तथा रत्नबहुल प्रकट किया गया है अतः સિદ્ધ થયેલ છે. મન્દર એ પહેલું નામ છે. મેરુ આ બીજું નામ છે. મનોરમ આ ત્રીજું નામ છે. સુદર્શન આ ચોથું નામ છે. સ્વયંપ્રભ એ પાંચમું નામ છે. ગિરિરાજ એ છે નામ છે. રનેય એ સાતમું નામ છે. શિશ્ચય આ આઠમું નામ છે. મધ્યલોક આ નવમું નામ છે અને નાભિ આ દશમું નામ છે મન્દર નામક દેવથી આ અધિષ્ઠિત છે. એથી જ આનું નામ મન્દર એરીતે પ્રસિદ્ધ થયું છે. જેમ મન્દર આ એક નામ છે એવું જ મેરુ આ એનું બીજું નામ છે. આ પ્રમાણે દેવનું પણ એક નામ મન્દર છે. અને બીજું નામ મેરું છે. એથી અહીં એ નામમાં નામાન્તરની કલ્પનાથી બીજા દેવને સદભાવ માન જોઈએ નહિ. અથવા આ સંબંધમાં નિર્ણય બહુશ્રુત ગમ્ય છે. આ પર્વત અતીવ રમણીય છે. જેના મનને આકૃષ્ટ કરનાર છે. એથી આનું ત્રીજું નામ મને એવું
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र त्वेन च मनः प्रसादकं दर्शनं वीक्षणं यस्य स तथा ४, पञ्चमं नामाह-'सयंपभे' स्वयंप्रमःस्वयम् आत्मना सूर्यादिप्रकाशनिरपेक्षतया प्रभाति प्रकाशत इति स्वयम्प्रभः 'य' च, चशब्दः समुच्चयार्थक:५, पष्ठं नामाह-'गिरिराया' गिरिराजः-गिरीणां पर्वतानां राजा इतिगिरिराजः, तत्वं चोच्चत्वेन जिनजन्मोत्सवाभिषेकशिलाश्रयत्वेन च बोध्यम् ६, सप्तमं नामाह-'रयणो. च्चय' रत्नोच्चयः-रत्नानि अकादीनि बहुविधानि उच्चीयन्ते-उत्कणोपचीयन्तेऽत्रेति रत्नोच्चयः ७, अष्टमं नामाह-'सिलोच्चय' शिलोच्चयः-शिलाः पाण्डुशिलादयः उच्चीयन्ते-गिग्यरे समहियन्तेऽत्रेति शिलोच्चयः, यद्वा शिलाभिरुच्चीयत इति शिलोच्चयः ८, नवमं नामाह-'मज्झे लोगस्स' मध्यो लोकस्य-लोकस्य-भुवनस्य मध्यः सर्वलोकमध्यस्थलत्वात्, ननु अत्र लोकशब्देन चतुर्दशरज्जुलक्षणो लोको व्याख्यातुमुचितः, धर्मादिलोकमध्यंमनाप्रसादक इमका दर्शन होने से इसका चतुर्थ नाम सुदर्शन ऐसा कहा गया है मर्यादिक के प्रकाश की आवश्यकता यह अपने प्रकाशित करने में नहीं रखता है-किन्तु यह स्वयं ही प्रकाशित होता रहता है इस कारण इसे 'स्वयंप्रकाश' इस नामान्तर वाच्य कहा गया है जिन जन्मोत्सव जिस पर होता है ऐसी शिला का आधार होने से तथा यह अपनी ऊचाई में सब पर्वतों का शिर मोर है इस कारण से इसे पर्वतों का राजा मान लिया गया है अतः इसका नाम गिरिराज कहा गया है इस में अङ्क आदि अनेक प्रकार के रत्न उत्पन्न होते रहते हैं या उनका गला वहाँ पडा रहता है इस कारण रत्नोच्चय ऐसा इसका सातवा नामान्तर कहा गया है पांडकशिला आदि के ऊपर भी इसका सद्भाव रहता है इस कारण इसका नाम शिलोच्चय कहा गया है समस्त लोक के मध्य का यह एक स्थलभूत है इस कारण इसे मध्यलोक नाम से अभिहित किया गया है
ધેવામાં આવેલું છે. આ પર્વત જાબુનદમય કહેવામાં આવે છે તથા રન બહલ પ્રગટ કરવામાં આવે છે. એથી મનઃ પ્રસાદક એનું દર્શન લેવા બદલ એનું ચોથું નામ સુદર્શન એવું કહેવામાં આવેલું છે. પ્રકાશિત થવા માટે અને સુર્યાદિના પ્રકાશની આવશ્યકતા રહેતી નથી પરંતુ આ પિતે જ પ્રકાશિત થ છે એ કારણથી આને “વયંપ્રકાશ એ નામાન્સરથી બેધિન કરવામાં આવેલ છે. જિન જન્મોત્સવ જેની ઉપર થાય છે એવી શિલાને એ આધાર લેવાથી તથા એ પિતાની ઊચાઈમાં બધા પર્વતને શિરોમણિ છે. એથી આને પતિને રાજા માનવામાં આવેલ છે. એથી જ આને ગિરિરાજ કહેવામાં શાવેલ છે. જેમાં અંક વગેરે અનેક પ્રકારના રત્ન ઉત્પન્ન થતાં રહે છે અથવા એ રને ઢગલે ત્યા પણ રહે છે. એ કારણથી રત્નશ્ચય આનું સાતમું નામાન્તર છે પાંડુક શિલા વરની ઉપર પણ આને સદુભાવ રહે છે એથી એનું નામ શિલેરાય કહેવામાં આવેલું છે. સમસ્ત લોકના મધ્ય ભાગને એ સ્થલભૂત છે. એથી આને મધ્યક એવા નામથી અભિહિત કરવામાં આવેલ છે. એટલે કે સમસ્ત લેકના મધ્યમાં આ પર્વત આવેલ છે.
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४२ मन्दरस्य षोडशनामनिरूपणम् ५०३ धर्मादीनां-धर्मा-प्रथमनरकशूमिः साऽऽदिर्यासां ता धर्मादयः तासां लोकमध्यम् 'योजनासंख्यकोटिमि:-योजनानामसंख्याताभिः कोटिभिः अतिक्रान्ताभिः सद्भिर्भवति' इत्यर्थकात् 'धम्माई लोगमज्झं जोयण असंखकोडीहि' इति वचनात्, परन्तु सोर्थों मेरौ न घटते, यदि च लोकशब्देन अष्टादशशतयोजनप्रमाणोच्चत्व स्तियग्लोको गृह्यत तथापि तस्य चतुर्दशरजावेवान्तर्भावात्पृथगायासो विफलः स्यात्, ततो मेरुः कथं लोकमध्यवर्तीति चेत् श्रूयताम्अत्र लोकशब्देन तिर्यग्लोके तिर्यग्भागस्य स्थालाकारैकरज्जुप्रमाणायामविष्कम्भस्य स्वीकारोऽस्ति तस्यैव मध्यः-मध्यवर्ती मेरुरिति सर्वमयदातम् ९, दसमं नामाह-'णानी य' नाभिश्चअर्थात् समस्त लोक के मध्य में यह पर्वत बतलाया गया है इससे इसे लोक मध्य ऐसा कह दिया गया है।
शंका-लोक शब्द से यहां १४ राजू प्रमाण लोक व्याख्यातव्य होना चाहिये क्योकि “धम्लाइ लोकमज्झं जोयण अरसंखकोडीहि" एसा अन्यत्र कहा गया है सो इस लोक का मध्य तो इस साभूतल से रत्नप्रभा पृथिवी से असंख्यात योजन कोटियां जब अलिक्रान्त हो जाती हैं तब आता है ऐसे उस मध्य में सुमेरु का. सद्भाव तो कहा नहीं गया है, अतः लोक मध्यरूप से इसका नामान्तर कथन बाधित होता है यदि कहा जावे कि यहां लोक शब्द से तिर्यग्लोक गृहीत हुआ है-सो यह तिर्यग्लोक १८ हजार योजन का ऊंचा कहा गया है-ऐसे इस तिर्यग्लोक का अन्तर्भाव तो इस १४ राजू प्रमाणलोक में ही हो जाता है फिर इसकी अपेक्षा लेकर लोक मध्य की कल्पना करना विफल ही है अतः मेरु में नामान्तर करने के लिये "लोकमध्य" नामकी सफलता कैसे हो सकती है ? सो किसीकी ऐसी यह शङ्का है अतः उसके समा. धान निमित्त कहा जाता है कि लोक शब्द से यहां स्थल के आकार भूत तथा એથી આને કમળ’ એવા નામથી અભિહિત કરવામાં આવેલ છે.
શંકા-લેક શબ્દથી અહીં ૧૪ રાજુ પ્રમાણુ લેક વ્યાખ્યાત હવે જોઈએ. કેમકે 'घम्माइ लोकमज्झं • जोयण अस्संखकोडीहिं' मेरे अन्य स्थणे पाम मावा छ તે આ લોકને મધ્ય ભાગ તે આ સમ ભૂતળથી રત્નપ્ર પૃથિવીથી આગળ અસ ખ્યાત
જન કેટીઓ જ્યારે અતિક્રાન્ત થઈ જાય છે ત્યારે આવે છે, એવા તે મ ભાગમાં સુમેન સદુભાવ તે કહેવામાં આવેલ નથી, એથી લેક મધ્ય રૂપથી એનું નામાન્તર કથન બાધિત થાય છે. જે કહેવામાં આવે કે અહીં લોક શબ્દથી તિક ગૃહીત થયું છે. તે આ તિયક ૧૮ હજાર જન જેટલો ઉચે કહેવામાં આવે છે. એવા આ તિર્યશ્લોકને, અન્તર્ભાવ તે આ ૧૪ ચૌદ રાજ પ્રમાણ લેકમાં જ થઈ જાય છે. તે પછી એની અપેક્ષાએ લોક मध्यनी ४६पना ४२वी व्यथ छे. मेथी मेरुमा नामान्तर ४२वा माटे "लोकमध्य" नामनी સફલતા કેવી રીતે સંભવી શકે તેમ છે? આમ કઈ શંકા ઉઠાવી શકે. એથી આ શંકાના
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પદક
जम्बूद्वीपप्रबप्तिसूत्रे लोकस्य नाभिरित्यर्थः लोकस्येत्यस्य देहलीदीपन्यायेन पूर्वापरपदार्थाभ्यामन्वयात, च समु. च्चयार्थकः १०, एकादशं नामाह-'अच्छे य' अच्छश्च निर्मलश्च जाम्बूनदरत्नबहुलत्वात् ११, द्वादशं नामाह-'मरियायत्ते' सूर्यावतः-सूर्यपदम् उपलक्षणाच्चन्द्रादिज्योतिपापि ग्राहकं तेन सूर्येश्चन्द्रादिभिश्चावृत्यते प्रदक्षिणीक्रियत इति सूर्यावर्त्तः सूर्यचन्द्रादि प्रदक्षिणी क्रियमाण इत्यर्थः १२, त्रयोदशं नामाह-'सूरियावरणे' सूर्यावरणः सूर्य:-चन्द्रग्रहनक्षत्रादिभिश्चेत्यया, सूर्यपदस्योपलक्षणत्वात्, आवियते वेष्टयत इति सूर्यावरणः सूर्यादिवेष्टयमानः, अत्र वाहुलकात् कर्मणि ल्युत् प्रत्ययो बोध्यः १३, 'इतिय' इति च-इति शब्दः समाप्तौ स च प्रकृते नाम समाप्नौ वोध्यः, चः प्राग्वत्, चतुर्दशं नामाह-'उत्तमे' उत्तमः पर्वतेपु श्रेष्ठः सकल१ राजू प्रमाण आयाम विष्कम्भ वाला तिघग्लोक संपन्धी तिग्माव विवक्षित हुआ है ऐसे लोक के मध्य में यह सुमेरु पर्वत स्थित है इस कारण इसे लोकमध्यवर्ती कहा गया है दशयां नाम इसका लोकनाभि है लोक शब्द यह देहली दीपकन्याय से लोक और अलोक के साथ संबंधित हो जाता है इस तरह लोक और अलोक का यह मध्यवर्ती है अतः लोकनाभि" ऐसा इसका नाम दशवां कहा गया हैं 'अच्छेघ ११ सूरियावत्ते, १२ सूरिआवरणे १३ ति । उत्तमे १४ अ दिसादीअ १५ बडेंसेति १६ अ सोलसे ॥२॥ अच्छ निर्मल यह इसका ११ षां नाम है क्यों कि यह जाम्बूनद और रत्न यहुल है इस कारण इसका ऐसा नाम रखा गया है । सूर्यावर्त यह इसका १२ वां नाम है क्यों कि इसकी सूर्य और उपलक्षण से ग्रहीत चन्द्रादिक प्रदक्षिणा किया करते हैं। सूर्या. चरण यह इसका १३ वां नाम है क्यों कि इसे सूर्य और चन्द्र आदि परिवेष्टित किये रहते हैं यहां "बाहुलकातू" सूत्र से कर्म में ल्युट प्रत्यय हुआ है "उत्तम" સમાધાનમાં કહી શકાય કે અહીં લેક શબ્દથી સ્થળના આકારભૂત તથા ૧ રાજુ પ્રમાણ આયામ–વિષ્યભવાળે તિર્યશ્લેક સંબંધી તિર્યભાવ વિવક્ષિત થયેલું છે. એવા લેકના મધ્યમાં આ સુમેરુ પર્વત અવસ્થિત છે. એવી આ પર્વતને લેક મધ્યવતી કહેવામાં આવેલ छ. या पवत'नु शभु नाम नाम छ. Als A3 A37, 'देहलो-दीपक न्याय' थी લેક અને અલેક બનેથી સંબંધિત થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે આ લેક અને અલકના भध्यक्ती स्थान पासो छ. मेथी 'लोकनामि' मेयु सानु शभुनामामा भावे छ. 'अच्छेय ११, सूरियावत्ते १२, सूरिआवरणे १३, ति अ । उत्तमे १४ अ दिसादि अ १५, वडे सेति १६ अ सोलसे ॥ २ ॥' ५२७-निर्मक, से मेनु नियाभु नाम छ. म मा જબુનર રન બહુલ છે. એથી આનું એવું નામ પ્રસિદ્ધ થયું છે. સૂર્યાવર્ત એ એનું બારમું નામ છે, કેમકે એની સૂર્ય અને ઉપલક્ષણથી ગ્રહીત ચન્દ્રાદિન પ્રક્ષિણ કરતા રહે છે. સૂર્યાવરણ આ એનું તેરમું નામ છે. કેમકે આને સૂર્ય અને ચન્દ્ર વગેરે પવિટિત ४१ २९ छे. मी 'बाहुलकात्' सूत्रकी भभी युद्ध प्रत्यय येवा छे. 'उत्तम, मा એનું ૧૪મું નામ છે. એનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે બીજા જેટલા પર્વત છે. તેમની
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प्रमाविका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४२ मन्दरस्य पोडशनामनिरूपणम् ५० गिरितोऽप्यधिकतुङ्गखात् 'य' च-चशब्दः प्राग्वत् १४, पश्चदशं नामाह-'दिगादी य' दिगादिः च-दिशां-पूर्वादीनाम् आदिः प्रभवः उत्पत्तिस्थानम्, तथाहि-रुचकपर्वताद् दिशा विदिशां चोत्पत्तिः, रुचकस्याष्टप्रदेशात्मकस्य मेरुपर्वतान्तर्गतत्वाद्रुचकवन्मेरुरपि प्राधान्येन द्विगादिरुच्यते १५, पोडशं नामाह-'वडेंसे' अवतंसः पर्वतानां मुकुटायमानः प्रधानत्वात् १६, 'य सोलसे' च पोडश चशब्दः प्राग्वत् इति पोडशसंख्यकानि मन्दरनामानि कृश्चित षोडशा-पोडशानां पूरण इत्याह ।
अथ पूर्वोक्तस्य मन्दरेति प्रधाननाम्नोऽन्वर्थतां वर्णयितुमुपक्रमते 'से केणद्वेणं भंते !' इत्यादि-चतुर्थसूत्रोक्तपवरवेदिकावद् बोध्यम् तत्र स्त्रीत्वेन निर्देशः अत्र पुंस्त्वेनेति विशेषः, तथा-पद्मवरवेदिकानामं तत्र, अत्र तु मन्दरेति नाम अन्यत्सर्वं समानमिति ॥V० ४२॥ यह इसका १४ वां नाम है इसका कारण यह है कि यह अन्य जितने भी पर्वत है उनकी अपेक्षा बहुत ऊंचा है अतः उनमें यह श्रेष्ठ गिना गया है दिगादि यह इसका १५ वां नाम है क्यों की पूर्वादि दिशाओं की उत्पत्ति का यही आदि कारण है रुचक से दिशाओं की और विदिशाओं की उत्पत्ति होती है यह रुचक अष्ट प्रदेशात्मक होता है और मेरु के अन्तर्गत माना गया हैं अतः मेरु से दिशाओं की उत्पत्ति होती है ऐसा मानलिया जाता है और इसी से मेरु को दिगादि कह दिया गया है। अवतंस यह इसका १६ वा नाम है अवतंस नाम मुकुट का है समस्त पर्वनों के बीच में यह मुकुट के जैसा गिना गया है इसलिये इसे "अवतंस" के रूप में इस नामान्तर द्वारा प्रकट किया गया है इस प्रकार से ये मेरु के १६ नाम हैं। ____'से केणढे णं अंते ! बुच्चइ संदरे पधए' हे भदन्त ! इसका मन्दर पर्वत ऐसा नाम आपने किस कारण से कहा है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा? मंदरे पव्वए मंदरे णाम देवे परिवलइ महिद्धीए जाव पलिओवमटिइए, से तेणઅપેક્ષાએ અતીવ ઊંચે છે, એથી તે સર્વમાં આ પર્વત શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે. “દિગાદિ આ પ્રમાણેનું આ પર્વતનું પંદરમું નામ છે. કેમકે પૂર્વાદિ દિશાઓની ઉત્પત્તિનું એજ આવિ કરણ છે. રુચથી દિશાઓની અને વિદિશાઓની ઉત્પત્તિ થાય છે. આ રુચક અષ્ટ પ્રદેશાત્મક હોય છે, અને તેની અંદર એની ગણના થાય છે. એથી મેરૂથી દિશાઓની ઉત્પત્તિ થાય છે. એવું માની લેવામાં આવે છે અને એથી જ મેરુને ગિાદિ કહેવામાં આવેલ છે. “અવતંસ આ એનું સેળનું નામ છે. અવતંસ મુકુટનું નામ છે. સમસ્ત પતેના મધ્ય સ્થાનમાં આને મુકુટ જેવો માનવામાં આવેલ છે, એથી જ આને અવતંસના રૂપમાં નામાન્તરથી સંબંધિત કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે આ મેરુના ૧૬ નામો થયા. ___'से केणट्रेणं भंते । एवं बुच्चइ मंदरे पव्वए' Hdl मा यति भन्४२ से नाम मा५श्रीमे ॥ ४॥२९थी ४ह्यु छ ? मेन ममा प्रमुडे छे–'गोयमा ! संदरे पवए णाम देवे परिवसइ महिद्धीए जाव पलिओवमट्ठिए, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ मंदरे
ज० ६४
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र पूर्व महाविदेहा वर्णिता इदानी महाविदेहक्षेत्रतः परतः स्थितं नीलवन्नामवर्षधरपर्वतं वर्णयितुमुपक्रमते-'कहिणं भंते !' इत्यादि ।
मूलमू-कहि णं भंते ! जंबुद्दीचे दीने णीलवंते णामं वासहरपव्वए पण्णते ?, गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्न उत्तरेणं स्मनगवासस्स दक्खिणेणं पुरथिमिल्ललवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरस्थिमेणं एत्थ जंबुद्दीवे दीवे णीलवंते णानं वालहरपध्वए पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणदिस्थिपणे णिसहवत्तटक्या णीलवंतस्स भाणियदा, णव जीवा दाहिणेणं धणु उत्तरेणं एत्थ णं केसरिदहो, दाहिणणं सीया लहाणई पवूढा समाणी उत्तरकुरुं एज्जेमाणी २ जमगठवए णीलवंत उत्तरकुरुचंदेरावयमालवंतदहे य दुहा विभयमाणी२ चउरालीए सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी२ मसालवणं एज्जे. माणी२ संदरं पवयं दोहिं जोयोहिं असंस्ता पुरथिमाभिमुही आवत्ता लमाणी अहे मालवंतवक्खारपठनयं दालइत्ता, संदरस्स पव्वयस्ल पुरथिमेणं पुव्वविदेहवासं दुहा विभयनाणी २ एगमे गाओ चकवाट्रिविजयाओ अलावीलाएर सलिलालहस्टोहि आपूरेमाणी २ पंचहिं सलिलासहस्सेहिं मन्तीसाए य सलिलासहस्सेहिं समग्गा टेणं गोयमा ! एवं चुच्चइ मंदरे पच्चए २ अदुत्तरं तंवन्ति' हे गौतम! मन्दर पर्वत पर मन्दर नामका देव रहता है यह महर्डिक आदि विशेषणों वाला है तथा एक पल्योपम की इसकी स्थिति है अतः इसका नाम मन्दर पर्वत ऐसा कहा है अथवा इसका ऐला यह नाम अनादि निधन है भूतकाल में यह ऐसा ही था वर्तमान में भी यह ऐसा ही है और आगे भी यह ऐशा ही रहेगा विशेष रूपसे जानने के लिये चतुर्थ सत्रोक्त पद्मवर वेदिका के वर्णन को देखें वहां जितने विशेषण कहे गये है उन्हें यहां पुलिङ्ग में परिवर्तित कर लगा लेना चाहिए॥४२॥ पव्वए २ अदुत्तरं तं चेवत्ति' गौतम । भन्४२ ५'त ५२ भन्४२ नाम हे २२ छे. તે મહદ્ધિક વગેરે વિશેષણે વાળો છે. તથા એક પલેપમ જેટલી એની સ્થિતિ છે. એથી આનું નામ મન્દર પર્વત એવું કહેવામાં આવ્યું છે. અથવા આનું આવું નામ અનાદિ નિષ્પન્ન છે. ભૂતકાળમાં આ નામ એવું જ હતું, વર્તમાનમાં પણ આ નામ જેવું જ છે અને ભવિષ્યમાં પણ આ નામ એવું જ રહેશે. વિશેષ રૂપમાં જાણવા માટે ચતુર્થ સૂક્ત પાવર વેદિકાના વર્ણનને વાંચી લેવું જોઈએ. ત્યાં જેટલા વિશેષણો કહેવામાં આવેલા છે, तेभने ही अभिमा परिवर्तित की बगाव ये. ॥ ४२ ॥
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अंकालाशि टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४३ नीलवन्नामकवर्षधरपर्वतनिरूपणम् ५०७ अहे विजयस्स दारस्स जगई दालयित्ता पुरथिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, अवसिद्रं तं चेति । एवं गारिकता वि उत्तराभिमुही णेयव्वा णवरमिनं णाणतं गंधावइन्वेषापवयं जोयणेणं असंपत्ता पञ्चत्थाभिमुही आजता समागी अवलिटुंतं चेव पवहे य मुहे य जहा हरिकता सलिला इति । णीलते णं भंते ! वासहर वए कइ कूडा पण्णता?; गोयमा ! णव कूडा पण्णता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे०, सिद्धे णीले२ पुश्वविदेहे३ सीया य४ कित्ति५ णारी य६ । अवरविदेहे७ रमागकूडे ८ उपदसणे चेव ९ ॥१॥ सव्वे एए कूडा पंचलइया रायहाणीउ उत्तरेणं । से केणटेणं भंते ! एवं बुञ्चइ-जीलवंते वासहरपत्रए १२ गोयमा । णीले णीलोभासे गीलवंते य हत्थदेवे महिद्धीए जाव परिवसइ सव्ववेरुलियामए णीलवते जाव णिच्चेति । सू० ४३॥ ' छाया-व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे नीलवान नाम वर्षधरपर्वतःप्रज्ञप्तः१, गौतम! महाविदेहस्य वर्षस्य उत्तरेण रम्पकवर्षस्य दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिम लवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खल्ल जम्बूद्वीपे द्वीपे नीलवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः प्राचीनप्रतीचीनायतः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः निषधवक्तव्यता नीलवतो भणितव्या, नवर जीवा दक्षिणेन धनुरुत्तरेण अत्र खलु केसरिहूदः, दक्षिणेन शीता महानदी प्रव्यूढा सती उत्तरकुरून् इयतीर यमकपर्वतौ नीलवदुत्तरकुरु चन्द्ररावतमाल्यवर्धदान् द्विधा विभजमानार चतुरशीत्या सलिलासहनापूर्यमाणा २ भद्रशालवनमिरर्यती २ मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां योजनाभ्यामसम्प्राप्ता पौरस्त्याभिमुखी आवृत्ता सती अधो माल्यवद्वक्षस्कारपर्वतं दारयिखा मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्येन पूर्व विदेहवर्ष द्विधा विभजमाना २ एकैकस्माच्चक्रवर्तिविजयादष्टाविंशत्या २ सलिलालहरापूर्यमाणा २ पञ्चभिः सलिलासहस्रात्रिंशता च सलिलासहस्त्रैः समग्रा अधो विजयस्य द्वारस्य जगनी दारयित्वा पौरस्त्येन लवणसमुद्रं समाप्नोति, अवशिष्टं तदेवेति । एवं नारीकान्ताऽपि उत्तराभिमुखी नेतव्या, नवरमिदं नानात्वं गन्धापातिवृत्तर्वैताढयपर्वतं योजनेनासम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती अवशिष्टं तदेव प्रबहे च मुखे च यथा हरिकान्ता सलिला इति । नीलवदि खलु भदन्त ! पर्वते कतिकूटानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! नव कुटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धायतनकूटम्०, सिद्धं १ नीलं २ पूर्वविदेहं ३ शीताच ४ कीर्ति ५ नारी च ६ । अपरविदेहं ७ रम्यककूटम् ८ उपदर्शनं चैव ९ ॥१॥ सर्वाण्येतानि कूटानि पञ्चशतिकानि राजधान्य उत्तरेण । अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नीलवान् वर्धधरपर्वतः २ ?, गौतम ! नीलो नीलावभासो नीलवांश्चात्र देवो महद्धिको यावत् परिवसति सर्ववैडूर्यमयः नीलवान यावद् नित्य इति ॥ सू० ४३॥
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
टीका- 'कहि णं भंते !' इत्यादि - का खल भदन्त ! 'जंबुद्दीवे' जम्बूद्वीपे जम्बूद्वीपा - भिधे 'दीवे' द्वीपे 'णीलवंते णाम' नीलवान नाम 'वासहरपव्वए' वर्षधरपर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह - 'गोयमा !' गौतम ! 'सहा विदेहस्स' महाविदेहस्य 'वासस्स' वर्षस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण- उत्तर दिशि 'ररमगवासस्त' रम्यकवर्षस्य महाविदेदेभ्यः परतः स्थितस्य युगलिकमनुष्याश्रितस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन- दक्षिणदिशि 'पुरत्थिमिल्ललवणसमुदस्स' पौरस्त्यलचणसमुद्रस्य - पूर्वदिग्भवलवण समुद्रस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन - पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खल 'जंबुद्दी वे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'गोलवंते णामं' नीलवान् नाम 'वासहरपच्चए' वर्षधरपर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, स च कीदृश: ? इति जिज्ञासायामाह - 'पाईणपडीणायए' प्राचीनप्रतीचीना यतः पूर्वपश्चिम दिशोदीर्घ', तथा 'उदीणदाक्षिण चित्थिण्णे'
महाविदेह क्षेत्र से आगे के नीलवान् वर्षधर पर्वत की वक्तव्यता'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे नीलवंत णामं वासहरपव्वर पण्णत्ते' इत्यादि । टीकार्थ - इस सूत्र द्वारा गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है - 'कहिणं भंते! जंधुवे दीवेणीलवंते णामं वासहरपच्चए पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस जंबूद्वीप नाम के द्वीप में नीलवान् नामका वर्षधर पर्वत कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है 'गोमा ! महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं रम्मवासस्स दक्खि
णं पुरथिमिल्ललवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवण समुदस्स पुरस्थिमेणं एत्थर्ण जंबुद्दीवे दोवे णीलवंते णामं वासहरपव्चए पण्णत्ते' हे गौतम! महा विदेह क्षेत्र की उत्तर दिशा में तथा रम्यक क्षेत्र की दक्षिणदिशा में एवं पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिम दिशा में और पश्चिम दिग्वर्ती लवणसमुद्र की पूर्वदिशा में जंबूद्वीप नाम के द्वीप में नीलवान् नामको वर्पधर पर्वत कहा गया है 'पाईणपडीणायए उदीर्णदाहिणविच्छिणे' यह वर्षधर पर्वत पूर्व से મહાવિદેહ ક્ષેત્રની આગળના નીલવાન્ ધરપતની વક્તવ્યતા 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे णीलवंते णामं वासहरपव्वर पण्णत्ते' इत्यादि
टीडार्थ- - मा सूत्र वडे गौतभस्वाभीये अनुने या नतना प्रश्न ४ छे - 'कहिणं मंते ! जंबुद्दीवे दीवेणीलवंते णामं वासहरराव्त्रए पण्णत्ते' हे लत! माभूद्दीय नाभष्ठ द्वीपभां નીલવાન્ નામે વધર પર્યંત કયા સ્થળે આવેલા છે? એના જવાઝમાં પ્રભુ કહે છે કે 'गोयमा | महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं रम्मगवासस्स दक्खिणेणं पुरत्थिमिल्ललवणसमुइस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे २ णीलवे णामं वासहरपव्व पण्णत्ते' हे गौतम! भहाविद्वे क्षेत्रनी उत्तर दिशामां तेभन २४२४ क्षेत्रंमी દક્ષિણ દિશામાં અને પૂર્વ દિગ્વતી' લવણુ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં અને પશ્ચિમદિગ્દતી લવણુ સમુદ્રની પૂર્વી દિશામાં જમૂદ્રીપ નામક દ્વીપમાં નીલવાન નામે વધર પર્વત मावेस छे. 'पाणपाडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे' या वर्षधर पर्वत पूर्वथा पश्चिम
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४३ नीलवन्नामकवर्षधरपर्वतनिरूपणम् . ५९ उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः-उत्तरदक्षिगदिशो विस्तारयुक्तः, अयं निषधसदृश इति तद्वक्तव्यतामथ सूचयति-णिसहवत्तव्वया णीलवंतस्स भाणियव्वा' इति निषधवक्तव्यता-निषधाभिधंस्य पर्वतस्य या वक्तव्यता वर्णनपद्धतिः साऽस्यापि नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य भणितव्यावक्तव्यां, निषधादांशिकविशेष दर्शयितुमाह-'णवरं नवरं-केवलं 'जीवा' जीवा-परम आयाम 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'घणु' धनु:-धनुष्पृष्ठम् 'उत्तेरणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'एत्य' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खल 'केसरिरहे' केसरिहद:-केसरिइद नामा हुदा, अस्मा, हूंदात् 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'सीया महाणई शीतामहानदी 'पवूढा' प्रव्यूटों निःसरन्ती 'समाणी' सती 'उत्तरकुरु' उत्तरकुरून् 'एज्जेमाणी २' इयती गच्छन्ती २ जम. गपब्धए' यमकपर्वतौ 'णीलवंतउत्तर कुरुचंदेरावयमालवंतहहे' नीलवदुत्तरकुरु चन्द्ररावतमाल्यवज्रेहान्-नीलबदुत्तरकुरु चन्द्ररावतमाल्यवन्नामधेयान् पश्चापि हुँदान 'य' च 'दुही द्विधों 'विभयमाणो २ विभजमानार विभक्तान् कुर्वाणा २ 'चउरासीए' चतुरशीत्या 'सलिलासहस्सेहि' सलिलासहः-नदीसहस्रैः 'आपूरेमाणा २' आपूर्यमाणा २ वारिभिः संभ्रियमाणार 'भहसालवणं' भद्रशालवन-भद्रशालाभिधं मेरुगिरेवनम् 'एज्जेमाणी२' ३तीर गच्छन्तीर पश्चिम तक लम्बा है और उत्तर से दक्षिण तक विस्तीर्ण है 'णिसहवतः व्वया णीलवंतस्स भाणियव्वा' जैसी वक्तव्यता निषध वर्षधर पर्वत के सम्बन्ध में कही जा चुकी है वैसी ही वक्तव्यता इस नीलवान वर्षधर पर्वत के सम्बन्ध में कहलेनी चाहिये 'णवरं दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं तं चेव' इसकी जीवा दक्षिण दिशा में है और धनु:पृष्ठ उत्तरदिशा में है' यही विशेषता पूर्व में कही गई निषध की वक्तव्यता से इसकी वक्तव्यता में है बाकी का और सर्व कथन निषध चर्षघर पर्वत की वक्तव्यता के हो जैसा है 'एस्थ णं केसरिदहों, दाहिणेणं सीआ महाणई पवूढा समाणी उत्तरकुरूं एज्जेमाणी २ जमगपच्चएँ णीलवंत उत्तरकुरुचंदेरावतमालवंतराहे य दुहा विभयमाणी २ चउरासीएं सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ भदसालवणं एज्जेमाणी २ मंदरपञ्चयं इस सुधी खiमा छ भने उत्तरथी दक्षिय सुधी qिeal . 'णिसह वत्तव्वया णीलवंतसिं भाणियवा' रवी वतव्यता निषष वध२ तिना समन्धमा वामां आवती छ, तेकी १ तव्यता निसवान वषधर पतिना समयमा वामां मासी छ. 'णवर दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं ध' अवसेसं तं चेव' सनी ल क्षण भी मावीमन ધનુપૃષ્ઠ ઉત્તર દિશામાં આવેલું છે. પૂર્વમાં કથિત નિષધની વક્તવ્યતામાં આટલી જ વિશે ताछ शेष मधु ४यन निषध ५२ पतनी xयता र १ छ. 'एत्थण केसरिहहो, दाहिणेणं सीआ महाणई पवूढा समाणी उत्तरकुरु' एज्जेमाणी २ जमगरब्बए णील. वत उत्तरकुरुचंदेरावतमालतहदेय दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलसहस्सेहि औपूरेमाणी २ भदसालवणं एज्जेमाणी २ मंदरपव्ययं' मा ५२ मत 6५२ शश
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अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 'मंदरं पव्ययं मन्दरं मेरु पर्वतं 'दोहिं जोयणेहि द्वाभ्यां योजनाभ्याम् 'असंपत्ता' अराम्याप्ता अस्पृशन्ती 'पुरत्थाभिमुही' पौरस्त्याभिमुखी पूर्वदिगभिमुखी 'आवत्ता समाणी' आवृत्तापरावृत्ता सती 'अहे मालवंतवक्खारपवयं' अधो माल्यवद्वक्षस्कारपर्वत-माल्यवन्नामकवक्षस्कारपर्वतम् अध:-अधस्तन प्रदेशावच्छेदेन 'दालइत्ता' दारयित्वा-विदीर्ण कृत्वा 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य मेरुगिरेः 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'पुच्चविदेहवास' पूर्व विदेहवर्ष-पूर्वविदेहनामकं वर्ष 'दुहा' द्विधा 'विभयमाणी २' विभजमाना २ विभक्तं कुर्वाणा २ 'एगमेगाओ' एकैकस्मात्-प्रत्येकस्मात् 'चकवष्टिविजयाओ' चक्रवर्तिविजयात् 'अट्ठावीसाए २' अष्टाविंशल्या २ 'सलिलासहस्सेहि' सलिलासहसः 'आपूरेमाणी २' आपूयमाणा २ संभ्रियमाणा २ 'पंचहि पञ्चभिः 'सलिलासहस्सेहि' सलिलासहः-नदीसहस्रैः 'बत्तीसाए य द्वात्रिंशता च 'सलिलासहस्सेहि' सलिलासहत्तैः नदोसहस्त्रैः 'समग्गा' समग्राघर्षधर पर्वत पर केशरी नामका द्रह है इसके दक्षिण लोरण द्वार से शीता महानदी निकली है और उत्तरकुरु में बहती २ यमक पर्वतों को तथा नीलवान् उत्तरशुरू, चन्द्र, ऐरावत् और माल्यवान् इन पांच नहीं को विभक्त करती २ चौरासी हजार नदियों से संयुक्त होकर भद्रशालवन की ओर जाती है और वहां से होकर बहती हुई वह महानदी मंदर पर्वत को 'दोहिं जोयणेहिं असंपत्ता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी अहे मालवंनवखारपब्वयं दालयित्ता मंदरस्स' पब्धयस्स पुरथिमेणं पुलविदेहवासं दुहा विषयमाणी २' दो योजन दूर छोडकर पूर्वाभिमुख होकर लौटती है और नीचे की ओर से माल्यवान वक्षस्कार पर्वत को छोडकर वह लंदर पर्वत की पूर्वदिशा से होकर पूर्वविदेहानास को दो रुप से विभक कर देती है 'एगमेगाप्रो चश्कवधि विजयाओ अट्ठावीसाए २ सलिलासहस्सेहिं आपूरेभाणी २ पंचाहिं सलिलासहस्लेहि समबत्तीसाए य सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे विजयस्स दारस्स जगई दालहत्ता पुरथिमेणं - કહે છે. એના દક્ષિણ તેરણ દ્વારથી શીતા મહાનદી નીકળી છે. અને ઉત્તર કુરુમાં પ્રવાહિત થતી યમક પર્વતે તેમજ નીલવાનું ઉત્તર કુરુ, ચન્દ્ર, અરાવત અને માથવા એ પાંચ કહેને વિભક્ત કરતી-કરતી ૮૪ હજાર નદીઓથી સંયુક્ત થઈને આગળ પ્રવાહિત थती ते भानही भन्४२ यतने 'दोहिं जोयणेहिं शसंपत्ता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी अहे मालवंतवक्खारपव्ययं दालयित्ता मंदरस्स पव्ययस्स पुरात्यमेणं पुव्वविदेहवासं दुहा विभयमाणी २' म योन २ महीने पूर्वाभिमुन धन पाछी ३२ छ भने नायनी तर માલધાવાન વક્ષસકાર પર્વતને મૂકીને તે મન્દર પર્વતની પૂર્વ દિશા તરફ થઈને, પૂર્વ વિદેહ पास में माम विनत ४श नाणे छे. 'एगमेगाओ चकवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए २ सलिलासहम्सेहिं आपूरेमाणी २ पंचहि सलिलासहस्सेहि सनवत्तीलाए य सलिलासहसेहिं समग्गा अहे. विजयस्स दारस्स जगई दालइत्ता पुराथिमेणं लवणसमुदं समप्पेई' ५छ।
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४३ नीलवन्नामकवर्षधरपर्वतनिरूपणम् ५११' सम्पूर्णा 'अहे विजयस्स दारस्स' अधो विजयस्य द्वारस्य विजयाख्यद्वारस्याधः प्रदेशे 'जगई जगतीं पृथ्वी 'दालइत्ता' दारयित्वा-विदीर्णां कृत्वा 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वेण-पूर्वदिशि 'लवणसमुई-लवणसमुद्रं 'समप्पेई' समाप्नोति-समुपैति 'अवसिष्टुं अवशिष्ट प्रवह विस्तारगभीरत्वादिकम् 'तं चेवत्ति । तदेव-निषधगिरिनिःहतशीतोदा महानदी प्रकरणोक्तमेव बोध्यम्, अथास्मादेव नीलवत् पर्वतादुत्तरदिशि प्रवहन्तीं नारीकान्तां नदीमतिदिशति-'एवं णारिकता वि' एवम् अनन्तरोक्तप्रकारेण नारीकान्ताऽपि नारीकान्तानाम्नी नद्यपि 'उत्तराभिमुही' उत्तरामिसुखी 'णेयवा' नेतव्या-ग्राहा, अयमाशय:-यथा नीलवति वर्षधरभूधरेऽवस्थितांत केसरिहदाच्छीता महानदी दक्षिणाभिमुखी निःसृता तथा नारीकान्ताऽपि नदी उत्तराभिमुखी निर्गता, नलु समानवर्णकत्वेनास्याः समुद्रप्रवेशोऽपि शीता महानदीवत् सम्भाव्ये तेत्याशङ्का लवणसलुई सराप्ने' फिर वहां से वह एक २ चक्रवर्ति विजय से २८-२८ हजार नदियों द्वारा भरती हुई कुल पांच लाख ३२ हजार नदियों से युक्त होकर वह विजय द्वार को जगती को नीचे से विदारित कर पूर्वदिशा की ओर वर्तमान लक्षणलशुद्र पद में प्रवेश करती है ५ लाख ३२ हजार नदियों की संख्या इसी सूत्र में आगे कही जायगी वहां से देखना चाहिये। 'अवसिह तं चेव' इसके अतिरिक्त और लव कथन-प्रवाह विस्तार-गंभीरता-गहराई आदि का कथन निषध पर्वत से निर्गत शीतोदानदी के प्रकरण में कहे अनुसार ही समझना चाहिये 'एचं गारिकंता वि उत्तराभिमुही णेयव्या' इसी नीलचान् पर्वल ने नारीकान्ता नामकी नदी भी उत्तराभिमुखी होकर निकली है तात्पर्य ऐसा है कि नीलचाल पर्वत के ऊपर अवस्थित केशरी हूद से जैसी शीता महानदी दक्षिणाभिलुखी होकर निकली है उसी प्रकार से यह नारीकान्ता नामकी महानदी भी उत्तराभिमुखी होकर निकली है-शंका-शीता और नारीकान्ता महानदी का वर्णक जालमान है तो इसका समुद्र प्रवेश भी शीता महानदी के ही जैसा होता होगा? तो इस आशंका को निरस्त करने के लिये सूत्रकार ત્યાંથી એક–એક ચક્રવતી વિજયમાંથી ૨૮–૨૮ હજાર નદીઓ વડે સપૂરિત થઈને કુલ ૫૩૨૦૦૦ નદીએથી યુક્ત થઈને તે વિજય દ્વારની જગતીને નીચેથી વિદીર્ણ કરીને પૂર્વ દિશા તરફ વર્તમાન લવણું સમુદ્રમાં પ્રવેશ કરે છે. ૫૩૨૦૦૦ નદીઓની સંખ્યા વિશે मान सूत्रमा मा ४ामा माव। ज्ञासुमे त्यांथीयो यु 'अवसिद्ध तं चेव' मना સિવાય શેષ મધું કથન–પ્રવહ-વિસ્તાર, ગંભીરતા વગેરેનું કથન-નિષધ પર્વતમાંથી નિર્ગત शीतही नहींना २ मु४५ १ सभा नये. 'एवं णारिकता वि उत्तराभिमुही णेयन्वा' એજ નીલવાન પર્વતમાંથી નાસી કાન્તા નામે નદી પણ ઉત્તરાભિમુખી થઈને નીકળે છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે નીલવા પર્વતની ઉપર અવસ્થિત કેશરી હદથી જે પ્રમાણે શીતા મહાનદી દક્ષિણાભિમુખ થઈને નીકળી છે તે જ પ્રમાણે નારીકાન્તા મહાનદી પણ ઉત્તરાભિમુખ થઈને નીકળી છે.
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जम्बूद्वीपप्रति दुरीकर्तुमाह-'णवरमिम' नवरलिदम् केवलम् इदम् वक्ष्यमाणं 'णाण' नानात्वं भेदः, एतदेव दर्शयति-'गंधावइबटवेयद्धपजयं' गन्धापातिवृत्तवैतादयपर्वतं 'जोयणेणं' योजनेन 'असंपला असम्प्राप्ता-अस्पृष्टवती 'पञ्चत्थाभिमुही' पश्चिमाभिमुखी 'आवत्ता' समाणी' सती इत्यादि 'अवसिटुं' अवशिष्टं रम्यकवर्षस्य द्वैधीकरणादिकम् 'तं चेच' तदेव हरिकान्तानदी प्रकरणोक्त मेव बोध्यम् तद्यथा-'रस्मंगवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लवणसालई समप्पेइ' एतच्छायां-रम्यकवर्ष द्विधा विभजः माना २ पट्पश्चाशता सलिलासहस्त्रैः समग्रा अधो जगतीं दारयित्वा पश्चिमेन लवणसमुद्रं संसाप्नोति इति, अस्य व्याख्या छायागम्या, अत्रावशिष्टपदसङ्ग्रहे प्रवहमुखविस्तारादि नं विवक्षितं, समुद्रप्रवेशपर्यन्तस्यैव पाठस्य तत्प्रकरणे दृष्टत्वात् , अतस्तत्पृथगेवाह-'पवहे य मुहे य जहा इरिकता सलिला इति । प्रवहे निर्गमस्थाने च मुखे समुद्रप्रवेशे च यथा-येन प्रकारेण हरिकान्ता सलिला हरिकान्तानाम्नी नदी वर्णिता तथेयमपि वर्णनीयेति, तथाहिकहते हैं-'णवरमिमं 'णाणत्तं गंधावइवटवेअपव्वयं जोयणेणं असंपत्ता पच्चः स्थाभिमुही आवत्ता समाणी अवसिह तंचेव पवहे य मुहे य जहा हरिकता सलिला इति' हे गौतम ! इसका समुद्र प्रवेश नारीकान्ता महानदी के जैसा नहीं होता है किन्तु यह गंधापाति जो वृत्तवैताढय पर्वत है उसे १ योजन दूर छोड देती है और पश्चिमदिशा की और मुड जाती है यहां से आगे का और सब कथन जैसे-रम्यक वर्ष को विभक्त करना आदिरूप कथन-हरिकान्ता नदि के प्रकरण में कहे गये अनुसार ही है इस सम्बन्ध में आलापक इस प्रकार से है-'रम्मगवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालहत्ता पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेई' यहां अवशिष्ट पद संग्रह में प्रवहमुख व्यास आदि का जो विचार नहीं किया गया है उसका कारण आलाप का समुद्र प्रवेश तक ही मिलना है अतः इसी से सूत्रकारने "प्रवहे च मुखे च
શંકા-શીતા અને નારીકાન્તા મહાનદીના વર્ણક જ્યારે સમાન છે તે પછી આને સમુદ્ર પ્રવેશ પણ શીતા મહાનદી જે જ થતું હશે? તે આ શંકાના સમાધાન માટે २३४२ ४३ छ‘णवरमिमं णाणत्तं गंधावइवट्टवेअद्धपवयं जोयणेणं असंपत्ता पच्च. स्थाभिमुही आवत्ता समाणी अवसिटुं तं चेव पवहेय मुहेय जहा हरिकता सलिला इति' के ગૌતમ! આને સમુદ્ર પ્રવેશ નારીકાન્તા મહાનદી જેવું નથી. પરંતુ આ ગંધાપતિ જે વૃતવૈતાઢય પર્વત છે, તેને ૧ રોજન દર મૂકી છે અને પશ્ચિમ દિશા તરફ વળી જાય છે. અહીંથી આગળનું બધું કથન–જેમકે રમ્યક વર્ષને બે ભાગમાં વિભાજિત કર વગેરે રૂ૫કથન હરિકાન્તા નદીના પ્રકરણમાં કહ્યા મુજબ જ છે. આ સંબંધમાં આલાપક આ प्रमाणे छे. 'रम्मगवासं दुहा विभयमाणी २ छपण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पच्छत्थिमेणं लवणसमुई समप्पेई' मही शेष ५४ सयडमा प्रव भुभ, વ્યાસ વગેરેના સંબંધમાં વિચાર કરવામાં આવ્યો નથી, તેનું કારણ આલાપનું સમુદ્ર प्रवेश सुधी १ मा छे. मेथी १ सूत्रारे 'प्रबहे च मुखे च हरिकान्ता सलिला
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४३ नीलवन्नामकवर्षधरपर्वतनिरूपणम् ५१३ प्रवहे पञ्चविंशतियोजनानि विष्कम्भेण अर्द्धयोजनमुद्वेधेन मुखे-सार्द्धद्विशती योजनानि विष्कम्भेण पञ्चयोजनान्युद्वेधेनेति, अत्र प्रबह खयोर्हरिसलिला दृष्टान्ते वक्तव्ये हरिकान्ता दृष्टान्तोक्तिः 'समानवर्णकत्वात्तयोहरिसलिलाप्रकरणेऽपि हरिकान्तातिदेशसूचनार्था । अथास्मिन्नीलगिरौकूटानि वर्णयितुमुपक्रमते-'णीलवंतेणं भंते !' इत्यादि-नीलवति खलु महन्त ! 'वासहरपन्चए' वर्षधरपर्वते 'कइ कति 'कुटानि 'पणत्ता' प्रज्ञातानि, अस्य प्रश्नस्योत्तरं हरिकान्ता सलिला" ऐला स्वतन्त्र रूप से सूत्र का प्रतिपादन किया गया है। इसके द्वारा यह समझाया गया है कि जिस प्रकार से हरिकान्ता नदी के प्रयह आदि के सम्बन्ध में पहिले वर्णन किया गया है वैसा ही वर्णन प्रवह आदि के सम्बन्ध में इस महानदी का भी कर लेना चाहिये । तथा च यह नदी प्रवाह में विष्कम्भ की अपेक्षा २५ योजन की है एवं उदेध की अपेक्षा अर्द्ध योजल की है मुख में यह २५० योजन की विष्कम्भ की अपेक्षा है और उछेध की अपेक्षा ५ योजन की है यहां यद्यपि प्रवह में हरि महानदी का दृष्टान्त वक्तव्य था पर जो हरिकान्ता महानदी का दृष्टान्त दिया गया है वह इन दोनों के समान वर्णक होने की अपेक्षा से दिया गया है तथा हरिनदी के प्रकरण में भी हरिकान्ता को दृष्टातरूप कहलेना चाहिये इस बात की सूचना के निमित्त है। । इस नीलवान् पर्वत के ऊपर के कूटों की वक्तव्यता- गौतमने इस नीलधान वर्षधरपर्वत के कूटों को जानने के निमित्त प्रभु से ऐसा पूछा है-'णीलवंते णं भंते! दासहरपव्वए कह कूडा पण्णत्ता' हे भदन्त ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर कितने कूट कहे गये है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं
તત્ર રૂપમાં પ્રતિપાદન કર્યું છે. એના વડે એ સમજાવવામાં આવ્યું છે કે જેમ હરિ.. કાન્હા નદીના પ્રવાહ વગેરેના સંબંધમાં પહેલાં વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, તેવું જ વર્ણન પ્રવહ વગેરેના સંબંધમાં આ મહાનદી વિશે પણ કરી લેવું જોઈએ, તથા આ નદી પ્રવાહમાં વિષ્ક્રભની ' અપેક્ષાએ ૨૫ પેજન જેટલી છે. તેમજ ઉધની અપેક્ષાએ અર્ધ જિન જેટલી છે. મુખમાં આ નદી ૨૫૦ એજન વિધ્વંભની અપેક્ષાઓ છે, અને ઉધની અપેક્ષાએ ૫ોજન જેટલી છે. અહીં જે કે પ્રવાહમાં હરિ મહાનદીનું દષ્ટાન્ત આપવાનું હતું પણ જે હરિકાન્તા મહાનદીનું દષ્ટાન્ત આપવામાં આવ્યું છે તેની પાછળ આ કારણ છે કે એ બને સમાન વણુંક ધરાવે છે. તેમજ હરિ નદીના પ્રકરણમાં પણ હરિકાન્તાને દષ્ટાન્ત રૂપમાં ગણવી જોઈએ. એ વાત એનાથી સૂચિત થાય છે.
આ નીલવાન પર્વત ઉપરના ફૂટેની વક્તવ્યતા - ગૌતમ સ્વામીએ આ નીલવાનું વર્ષધર પર્વતના કૂટે વિશે જાણવા માટે પ્રભુને प्रश्न ये.' 'णीलवंतेणं भंते ! वासहरसबए कइ कूडा पण्णत्ता' हे महत!. नासवान् १५५२ प ५२ साटो माया छ ? सना याममा प्रभु ९ छ -'गोयम । णव ,
ज० ६५
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भगवानाह-गोयमा गौत्म ! 'ण' नव 'कूडा' कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा 'सिद्धाययणकूडे' सिद्धायतनकूटम् एतच्च पूर्वस्यां दिशि समुद्र समीपति इत्यादीनि नवकूटानि सङ्ग्रहीतुं गाथामुपन्यस्यति 'सिद्ध १' इत्यादि सिद्धम् , अत्र नामैकदेशग्रहणा. नमग्रहणमिति सिद्धपदेन सिद्धायतनकूटं ग्राह्यम् , एवमग्रेऽपि, ततः परं 'णीले २' नीलं नीलवत्कूटम्-नीलवतः नीलवन्नामववक्षस्कारभूधरस्य नीलबन्नामकदेवस्य कूटमित्यर्थः २ 'पुव्वविदेहे ३' पूर्वविदेह-पूर्व विदेहवर्षापधिकूटम् ३ 'सीया ४' शीता-शीतादेवीकूटम् ४ 'य' च-चकारः सपुच्चयार्थकः 'कित्ति ५' कीतिः केसरिहदाधिष्ठात्री देवी तस्याः कूट निवासभूतम् ५ 'णारी ६' नारी-नारीकान्ता नदीदेवी कूटम् ६ 'य' च-चकारः प्राग्वत् 'अवरविदेहे ७' अपर विदेहम् अपरविदेहवर्षापधिकूटम् ७ 'रम्मगकूडे ८ रम्यककूटं-रम्यक क्षेत्राधिपकूटम् ८, 'उवदंसणे २' उपदर्शनम् एतनामकं कूटं चैव चशब्दः प्राग्यत् एव निर्धारणे ९॥१॥ 'सव्वे एए कूडा' सर्वाणि निःशेपाणि एतानि नीलवगिरिवर्तीनि नवापि कूटानि हिमवत्कूटानीव पंवसइया' पञ्चशतिकानि-पञ्चशतयोजनप्रमाणानि वाच्यानि एतद्वक्तव्य'गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता' हे गौतम ! नीलवान वर्षधर पर्वत के ऊपर नौ कूट कहे गये हैं। 'तं जहां उनके नाम इस प्रकार से हैं-'सिद्धाययणकूडे'१ मिद्वायतन कूट यह कूट पूर्व दिशा में समुद्र के पास मे है, अवशिष्ट कूटों की यह संग्रह गाथा है-'सिद्धणिले, पुव्वविदेहे, सीआ य कित्ति णारी अ. अवरविदेहे रम्गकूडे, उवदसणेचेव' नीलवत्कूट २ यह कूट नीलबान नामक वक्षस्कार पर्वत का जो नीलवान देव है उसका है। पूर्वविदेह ३-यह कूट पूर्वविदेह क्षेत्र के अधिपति का है । सीताकूट ४-यह क्रूट सीतादेवी का है। कीर्तिकूट ५ यह कूट केशरि हूद की अधिष्ठात्री देवी का है, नारीकूट६ यह कूट नारी कान्तानदी देवी का है। अपरविदेह कूट ७ यह कूट अपरविदेह क्षेत्र के अधिपति का है। रम्यककूट८ यह कूट रम्यक क्षेत्र के अधिपति का है। और उपदर्शन कूट-'सव्वे एए कूडा पंच सइआरायहाणीउ उत्तरेणं' ये सब कूट हिमवत्कूटों की तरह पांचसो योजन के हैं अतः कूडा पण्णत्ता' गौतम ! नीतवान् ! १५२ पति उप२ नवटा मासा छ. 'तं जहा' ते दूटोना नाभी या प्रमाणु छ-'सिद्धाययणकूडे' १ सिद्धायतन १८. मा टूट पूर्व दिशामा समुदनी पासे छे. शेष टूटानी मा सय गाथा छ-'सिद्धेणिले, पुव्वविदेहे, सीआय कित्ति णारी अ० अवरविदेहे रम्मगकूडे उबदसणे चेव' नीट २, मादूट नासवान् नाम: વક્ષસ્કાર પર્વતને જે નીલન દેવ છે, તેને આ ફૂટ છે. પૂર્વ વિદેહ ૩-આ કૂટ પૂર્વ વિદેહ ક્ષેત્રના અધિપતિને છે. સંતા કૂટ-૪, આ ફૂટ સીતાદેવીનો છે. કીર્તિસ્કૂટ-૫, આ ફૂટ કેશર હૃદની અધિષ્ઠાત્રી દેવીનો છે. નારી કૂટ--આ ફૂટ નારીકાન્તા નદી દેવીનો છે. અપરવિદેહ છૂટ-ડ આ છૂટ અપર વિદેહ ક્ષેત્રના અધિપતિ છે. રમ્યકકૂટ, ૮-આ १८ २भ्य क्षेत्रना अधिपतिनो छ भने पनि ४-६. 'सव्वे एए ‘ कूडा 'पंचसइआ
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प्रकाकाशि टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४३ नीलवन्नामकवर्षधर पर्वत निरूपणम्
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ताऽपि हि कूटानामिव वोध्या, एप 'रायहाणीउ' राजधान्यः - त्रक्ष्यमाणनीलवन्नामक देवस्य नित्रमतयः 'उत्तरेणं' उत्तरेण मेरुत उत्तरस्यां दिशि बोध्याः, अथास्य नीलवदिति नामकारणं पृच्छति - 'से के गट्टेणं मंते !' अथ केन अर्थेन - कारणेन भदन्छ ! ' एवं बुच्चइ' एवमुच्चते नीलवदित्याकारकं नाम व्यवह्नियते एतदेव स्पष्टयति 'णीलवंते वा सहरपव्वए २' नीलवान् वर्षधर पर्वतो नीलवान् वर्ष घरपर्वतः इति प्रश्नस्योत्तरं भगवानाह - 'गोयमा " गौतम ! अयं नीलवान् पर्वतः 'णीले' नीलः नीलवर्णः 'गोलोभासे' नीहावभास अवभास नमवमासः, नीलोऽवभासः प्रकाशो यस्य स नीलावभासः, यद्वा- नीलमवभासयतीति नीलावभासः नीलप्रकाशः, स्वा सम्न्नमन्यदपि वस्तु नीलवर्णमयं करोति तेन नीलवर्णयोगाद् नीलवानित्युच्यते, अथास्याधिपमाह - 'णीलवंते य इत्थ देवे' नीलवांश्चात्र देवः परिवसतीत्यग्रिमेण सम्बन्धः, स च कीदृश: ? इत्याह- 'मद्दिद्धीए जाव परिवसई' महर्द्धिको यावत् परिवसति अत्र यावत्पदेन - " महाद्युतिकः, इनके सम्बन्ध की वक्तव्यता भी हिमवत्कूट के जैसी ही जाननी चाहिये नीलवान् नामक देवकी एवं कूटों के अधिपतियों की राजधानियां मेरु की उत्तर दिशा में जाननी चाहिये | 'से केणणं भंते ! एवं वच्चइ णीलवंते वासहरपव्वए ? हे भदन्त ! ऐसा आपने इस पर्वत का नाम "नीलवान् पर्वत" क्यों कहा है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - गोयमा ! णीले नीलोभासे णीलवंते अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव परिवसइ सव्ववेरुलियामए णीलवंते जाव णिच्चेति' हे गौतम ! जो चतुर्थ नीलवान् गिरि है वह नीलवर्ण वाला है और इसीसे इसका प्रकाश नीला होता है यह अपने पास में रही हुई अन्य वस्तुओं को भी नीलवर्णमय करदेता है अतः नीलवर्ण योग से इसे 'नीलवान' ऐसा कहा गया है । इस पर्वन का अधिपति नीलवान् देव है, वह यहां पर रहता है यह महर्द्धिक देव है यावत् एक पल्योपम की इसकी आयु है यहां यावत्पद से 'महाद्युतिकः, महाबलः, महारायहाणी उ उत्तरेणं' थे मधा ठूटो डिभवत् इटनी नेम ५०० योजन नेटला छे. मेथी એમના વિશેની વક્તવ્યતા પણ હિમવત્સૂટ જેવી જ સમજવી જોઇએ. નીલવાન્ નામક દેવીની અને ફૂટાના અધિપતિએની રાજધાનીએ મેરુની ઉત્તર દિશામાં આવેલી છે. સે केणणं भंते! एवं वच्चइ णीलवंते वासहरपव्वए २' हे लत! आपश्री मे मा पर्वतनु नाभ 'नीतवान् पर्वत' मेनुं शा भरणुथी धुं छे ? भेना वाणमां अलु ४ छे- 'गोयमा ! णीले पीलोभासे णीलांते अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव परिवसइ सव्ववेरुलियामए णीलवन्ते जाव णिच्चेति' हे गौतम! यो ? थोथा नीसवान् पर्वत छे, ते नीसवाणु वाणी छे भने એથી જ એના પ્રકાશ નીલવર્ણના હાય છે. એ પેાતાની નજીક પડેલી ખીજી વસ્તુઓને પણ નીલવ મય કરી નાખે છે. એથી નીલવના ચેગથી આને • નીલવાન્” નામથી સ'મેધવામાં આવેલે છે. આ પર્યંતના અધિપતિ નીલવાન્ દેવ છે. તે અહી' રહે છે. આ મહુદ્ધિ કે દેવ છે. ચાવત્ એક ચેપમ જેટલું એનું આયુષ્ય છે. અહીં ચાવત પદથી
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जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्र महावलः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः" इत्येषां सडग्रहो वोध्यः, एपां महदिकादिपदानां व्याख्याऽष्टमसूत्रस्थ विजयद्वाराधिपविजयदेवप्रकरणा
द्वोध्या, एतादृशो नीलवन्नाम देवः परिवराति, तेन तद्योगादपि गिरिरयं नीलबानित्युच्यते यद्वा-सव्यवेरुलियामए' सर्ववैडूर्यमयः-सर्वात्मना वैडूर्यरत्नमयः, तेन वैडूर्यरत्नसमानार्थक नीलमणियोगानीला, शेपं प्राग्वत् ।
अथास्य शाश्वतत्वाशाश्वतत्वे पृच्छति-'णीलयंतेजार णिच्चेति' नीलवान यावनित्य इति अत्रेदं सूत्र वोध्यं तथाहि-“अदुत्तरं च णं गोयमा ! णीलबंतेति सासए णामधिज्जे पण्णत्ते णीलवंते णं भंते ! कि सासए असासए ?, गोयमा ! सिय सासए सिय असासए, से केणटेणं सिय सासए सिय असासए ?, गोमाया ! दवट्ठयाए सासए वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासए; से तेणटेणं एवं कुच्चा सिय सासर सिय असासए । णीलवंतेणं मंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! ण कयाइ णासी ण कयाइ ण भवइ ण कयाइ ण भविस्सइ यशाः, महासौख्यः, महानुभावः” इन पदों का संग्रह हुआ है इन पदों की व्याख्या जानने के लिये अष्टम सूत्रस्थ विजय दाराधिप विजयदेव का प्रकरण देखना चाहिये' इस कारण हे गौतम ! मैंने इस वर्षधर का नाम "नीलवान्" ऐसा कहा है अथवा यह पर्वत सर्वात्मना वैडूर्यरत्नमय है-इसलिये वैडूर्यरत्न समानार्थक नीलमणि के योग से इसे नीलवान् कहा गया है। यह नीलवान् पर्वत यावत् नित्य है । इसके पहिले यहां “अदुत्तरं च णं गोयमा ! णीलवंते ति सासए णामधिज्जे पण्णते। णीलवंते णं भंते ! किं सासए असासए ? गोयमा ! सासए लिय असासए, से केणट्टेणं सिय सासए सिय असासए ? गोयमा!
घट्टयाए सासए, दण्गपज्जवेहि गंधपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं, असासए से तेण टेणं एवं बुच्चह सिय साम्सए, सिय असासए णीलचंतेणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! ण कयाइ णासी ण कयाइ ण भवइ, ण कयाइ ण भवि'महाद्युतिकः महाबल', महायशाः महासौरख्या, महानुभावः' से ही सगृहीत थया छ. ये પની વ્યાખ્યા જાણવા માટે અષ્ટમ સૂરસ્થ વિજય દ્વારાધિપ વિજયદેવનું પ્રકરણ જેવું જઈએ એથી હે ગૌતમ! મેં આ વર્ષધરનું નામ “નીલવાન' એવું કહ્યું છે. અથવા આ પર્વત સર્વાત્મના વડૂર્ય રત્નમય છે એથી વિર્ય રત્ન સમાનાર્થક નીલ મણિના ચેગથી આને નીલવાન કહેવામાં આવે છે. આ નીલવાન પર્વત યાવત્ નિત્ય છે. એની પૂર્વે
ही 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! णीलवंतेति सासए णामधिज्जे पण्णत्ते । णीलवंते णं भंते ! किं सासए असासए ? गोयमा ! सिय सासए.सिय असासर से केणटेणं सिय सासए सिय असासए ? गोयमा ! दबढणए सासए, पञ्जवेहि गंधपज्जवेहि फासपज्जवेहि असासए से, तेण?ण एवं बुन्चइ सिय सासए, सिय असासए । णीलवंतेणं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! ण कयाई णासी ण कयाइ ण भवइ. ण कयाइ ण भविरसइ, मुवि च भवइय भविस्स
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षरकारः सू. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् भुविंच भवइय भविस्सइय धुवे णियए सासए अक्खए अब्बए अवहिए णिच्चे” इति अस्य व्याख्या चतुर्थसूत्रटीकातो बोध्या, चतुर्थसूत्रे पावरवेदिका प्रसङ्गात्स्त्रीत्वेन व्याख्यातम् अत्र पुंस्त्वेन व्याख्येयमिति स्वयमूहनीयम् । अन्यत् सर्व समानमेव बोध्यम् ॥सू० ४३॥
अथ पञ्चमं रम्यकाभिधं वर्ष वर्णयितुमुपक्रमते-"कहि णं भंते !" इत्यादि। - मूलम्-कहि गं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे रम्मए णाम. वासे पणते ?, गोयमा ! णीलवंतस्त उत्तरेणं रुप्पिस्स दक्खिणेणं पुरस्थिमलवणसमु. हस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चस्थिमलरणसमुदस्स पुरस्थिमेणं एवं जह चेत्र हरिवासं तह चेव रम्मयं वासं भाणियव्वं, णवरं दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं ध' अवसेसं तं चेव । कहि णं भंते ! रम्भए वासे गंधावई णामं वट्टवेयद्धपाए पण्णत्ते ?, गोयमा ! णरकताए पञ्चस्थिमेणं णारीकताए पुरस्थिमेणं रम्मगवासस्त बहुमज्झदेसभाए एत्थणं गंधाई णामं पट्टवेयद्धे पवए पण्णत्ते, जं चेत्र वियडावइस्स तं चेव गंधावइस्स वि वत्तव्वं; अट्ठो बहवे उप्पलाई जाव गंधावई णामं गंधावइपनाई पउ य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमट्टिईए, रायहाणी उत्तरेणंति । से केणटुणं भंते ! एवं बुच्चइ रम्मए वासे २ ?, गोयमा ! रस्मगवासे णं रम्मे रम्मए रमणिज्जे रम्मए य इत्थ देवे जाव परिक्सइ, से तेणणं। कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे रुप्पी णामं वालहरपबए पण्णते ? गोयमा ! रम्मगवासस्स उत्तरेणं हेरण्णवयवासस्स दक्षिणेणं पुरस्थि. स्सइ, भुवि च भवइ य भविस्सइ य धुवे णियए सालए अक्खए अब्बए अवहिए णिच्चे" इस सूत्र की व्याख्या चतुर्थ सूत्र की टीका से जाननी चाहिये ये पद वहां पद्मवर वेदिका के विशेषगभूत होने से स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त हुए हैं और यहां पर पुलिङ्गरूप नीलवन्त के विशेषणभूत होने से पुल्लिङ्ग में प्रयुक्त किये गये हैं। अवशिष्ट और सब कथन समान ही है ॥४३॥ इय धुवे णियए सासए अक्खर अबए अवद्विए णिच्चे' मा सूचनी व्याच्या तुथ सूत्रनी થીકામાંથી વાંચી લેવી જોઈએ. એ પદે ત્યાં પાવર વેદિકાના વિશેષણના રૂપમાં પ્રયુક્ત થયા છે તેથી ત્યાં એમને પ્રયોગ સ્ત્રી લિંગમાં કરવામાં આવેલ છે. અહીં એ પદ નીલ. વન્તના વિશેષણ ભૂત હોવાથી પુલિંગમાં પ્રયુક્ત થયેલા છે. શેષ બધું કથન સમાન,
छ. ॥ सूत्र-४३ ॥
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जम्बूद्वीपप्रतिसूर मलवणससुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे रुप्पी णामं वासहरपळवए पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविस्थिपणे, एवं जा चेव महाहिमवंत वत्तव्वया सा चेव रुप्पिस्स वि, णवरं दाहिणेणं जीवा उत्तरेणं घणु अवसेसं तं चेव महा पुंडरीए दहे णरकंता णई दक्खिणेणं णेयव्वा जहा रोहिया पुरथिमेणं गच्छइ, रुप्पकूला उत्तरेणं णेयवा जहा हरिकता पञ्चस्थिमेणं गच्छइ, अवसेसं तं वत्ति। रूपिमि गंभंत। वासहरपत्रए कइकडा पण्णता?, गोयमा ! अकूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धे १ रुप्पी २ रम्मग ३ णरकंता ४ बुद्धि ५ रुप्पकूला य ६ । हेरण्णवय ७ मणिकंचण ८ अट्ट य रुपिमि कूडाइं ॥॥ सव्वे वि पंचसइया रायहाणीओ उत्तरेणं । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ रुप्पी वासहरपञ्चए २ ?, गोयमा ! रुप्पी णं वासहरपव्वए रुप्पी रुप्पपट्टे रुप्पोमासे सव्वरुप्पामए रुप्पी य इत्थ देवे पलिभोवमट्टिईए परिवसइ, से एएणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चइत्ति । कहि णं भंते ! जंबुद्दोवे दीवे हेरपणवए णामं वासे पण्णते ?, गोयमा ! रूप्पिस्स उत्तरेणं सिहरिस्त दक्खिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पचत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुहस्त पुरस्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हिरणवए वासे पण्णत्ते, एवं जह चेव हेमवयं तह चेव हेरण्णवयंपि भाणियव्वं, णवरं जीवा दाहिणेणं उत्तरेणं धणुं अवसिट्रं तं वत्ति । कहिणं भंते ! हेरण्णवए वासे मालवंत परियाए णामं वट्टवेयद्ध पव्वए पण्णते?, गोयमा ! सुवण्णकूलाए पञ्चस्थिमेणं रुप्पकूलाए पुरथिमेणं एत्थ णं हेरपणक्यस्त वासस्स बहुमज्झदेसभाए मालवंतपरियाए णामं वट्टवेयद्धे पण्णत्ते जह चेव सदावई तह चेव मालवंतपरियाए वि, अहो उप्पलाई पउमाइं मालवंतप्पभाई मालवंतवण्णाई मालवंतवण्णाभाई पभासे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमट्रिईए परिवसइ, से एएणटेणं०, रायहाणी उत्तरेणंति । से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-हेरपणवए वासे २१,
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प्रकाशिका टीका-चतुर्यवक्षस्कारः सू० ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् गोयमा ! हेरण्णवए णं वासे रुप्पीसिहरीहि वासहरएवएहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हिरणं दलई णिच्चं हिरणं मुंबइ णिच्चं हिरणं पगासइ हेरण्णवए य इत्थ देवे परिवसइ से एएगट्टेणेति । ___ कहि णं अंते ! जंबुद्दीवे दीवे सिहरी णामं वासहरपवए पण्णत्ते ? गोयमा ? हेरष्णवयस्स उत्तरेणं एरावयस्त दाहिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पञ्चस्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुदस्त पुरथिमेणं, एवं जह चेव चुल्लहिमवंतो तह चेत्र सिहरी वि, णवरं जीवा दाहिणेणं ध[ उत्तरेणं अवसिटुं तं चेत्र पुंडरीए दहे सुवण्णकूला महाणई दाहिणेणं णेयव्वा जहा रोहियंसा पुरस्थिमेणं गच्छइ, एवं जह चेव गंगासिंधूओ तह चेव रत्तारत्तवईओ णेयवाओ पुरथिमेणं रत्ता पचत्थिमेणं स्त्तवई अवसिटुं तं चेव (अबसेसं भाणियव्यंति) सिहरिम्निणं भंते वासहरपव्वए कई कूडा पण्णत्ता ?, गोयमा ! इकारसकूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे १ सिहरिकूडे २ हेरण्णवयकूडे ३ सुवण्णकूलाकूडे ४ सुरादेवीकूडे ५ रत्ताकूडे ६ लच्छीकूडे ७ रत्तवईकूडे ८ इलादेवीकूडे ९ एरवयकूडे १० तिगिच्छिकूडे ११ एवं सव्वे वि कूडा पंचसइया रायहाणीमो उत्तरेणं । से केणटुंगं भंते ! एवमुच्चइ-सिहरिवासहरपन्चए २ ?, गोयना ! सिहरिमि वालहरपबए बहवे कूडा सिहरि संठाणसं ठया सव्वरयणामया सिहरी य इत्थ देवे जाव परिवसइ, से तेणटेणं०।। - कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे एरावए णामं वासे पण्णत्ते ?, गोयमा ! सिहरिस्स उत्तरेणं उत्तरलवणसमुदस्स दक्षिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पचत्थिमेणं पञ्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे एरावए णामं वासे पग्णत्ते, खाणुवहुले कंटकबहुले एवं जा चेव भरहस्त वत्तव्यया सा चेत्र सवा निरवसा णेयव्वा लओनवणाय सणिक्खमणा सपरिनिव्वाणा णरं एराओ चक्काट्टी एरावओ देवो, से तेगटेणं एगवए वासे २ ॥सू० ४४॥
जंबुद्दीवे दीवास वतव्वया सा चाणवर एराओ
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• जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे छाया-क खल भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे रम्यकं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! नीलवत उत्तरेण रुक्मिणो दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन एवं यथैव इरिवर्प तथैव रम्यकं वर्षे भगितव्यं, नवरं दक्षिणेन जीवा उनरेण धनुः अवशेष तदेव । क्व खलु भदन्त ! रम्यवे. वर्षे गन्धापाती नाम वृत्तवैतान्यपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नरकान्तायाः पश्चिमेन नारीकान्तायाः पौरस्त्येन रम्यकपर्पस्य बहुमध्यदेशमागे अत्र खलु गन्धापाती नाम वृत्तवैतादयः पर्वतः प्रज्ञप्तः, यदेव विकटापातिनस्तदेव गन्धापानिनोऽपि वक्तव्यम् , अर्थों यहूनि उत्पलानि यावद् गन्धापातिवर्णानि गन्धापातिप्रमाणि पद्मश्चात्र देवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, राजधानी उत्तरेणेति अथ केनार्थेन भदन्त.! एवमुच्यते-रभ्य वर्षम् २ ?, गौतम ! रम्यकवर्ष खलु रम्यं रम्यकं रमणीयं रम्यकश्चात्र देवो यावत् परिवसति, तर तेनार्थेन । क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे रुक्मीनाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! रम्यवर्पस्य उत्तरेण हैरण्यवतवर्षस्य दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे रुक्मी नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः प्राचीनप्रतीचीनायतः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः, एवं यैव महाहिमवद्वक्तव्यता सैव रुक्मिणोऽपि, नवरं दक्षिणेन जीवा उत्तरेण घणुः अवशेपं तदेव महापुण्डरीको हृदः नरकान्ता नदी दक्षिणेन नेतव्या यथा रोहिता पौरस्त्येन गच्छति, रूप्यकूला उत्तरेण नेतन्या यथा हरिकान्ता पश्चिमेन गच्छति, अवशेषं तदवेति । रुक्मिणि खलु भदन्त ! वर्षवरपर्वते कतिकूटानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! अष्ट कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धं १ रुक्मि २ रम्बकं ३ नरकान्ता ४ बुद्धि ५ रुप्यकूला ६ च । हैरण्यवतं ७ मणिकाञ्चन ८ मष्ट च रुक्मिणि कुटानि ॥१॥ सर्याण्यपि एतानि पञ्चशतिकानि, राजधान्य उत्तरेण । अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-रुक्मी वर्पधरपर्वतः २१, गौतम ! रुक्मी खलु वर्षधरपर्वतः रुक्मी रूप्यपट्टः रूप्यावभासः सर्वरूप्यमयः रुक्मीचात्र देवः यावत् पल्योयमस्थितिकः परिवसति, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यत इति । स खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हैरण्यवतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! रुक्मिण उत्तरेण शिस्वारिणो दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलक्षणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे हैरण्यवतं वर्ष प्रज्ञसम्, एवं यथैव हैमवतं तथैव हैरण्यवतमपि मणितव्यम्, नवरं जीवा दक्षिणेन उत्तरेण धनुः अवशिष्टं तदेवेति । क्व खल भदन्त ! हैरण्यवते वर्षे माल्यवत्पर्यायो नाम वृत्तवैताढत्यपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! सुवर्णकूलायाः पश्चिमेन रूप्यकुलायाः पौरस्त्येन अत्र खलु हैरण्यवतस्य वर्पस्य बहुमध्यदेशभागे माल्यवत् पर्यागो नाम वृत्तवैवाढयः प्रज्ञप्तः यथैव शब्दापाती तयैव माल्यवत्पर्यायोऽपि, अर्थ उत्पलानि पद्मानि माल्यवत्प्रभाणि माल्यवद्वर्णानि माल्यवद्वर्णाभानि प्रभासश्चात्र देवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स एतेनार्थेन०, राजधानी उत्तरेणेति । अथ. केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-हरण्यवतं वर्पम् २१, गौतम ! हेरण्यवतं खलु वर्षे रुक्मि शिखर रिभ्यां वर्षवरपर्वताभ्यां द्विधातः समुपगूढं नित्यं हिरण्यं ददाति नित्यं हिरण्यं मुञ्चति नित्यं
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् हिरण्यं प्रकाशयति हरण्यवतश्चात्र देवः परिवसति स एतेनार्थेनेति।
क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे शिखरीनाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञता ?, गौतम ! हैरण्यक्तस्य उत्तरेण ऐरावतस्य दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन, एवं यथैव क्षुद्रहिमवान् तथैव शिखर्यपि नवरं जीवा दक्षिणेन धनुरुत्तरेण अवशिष्टं तदेव पुण्डरीको हृदः सुवर्णकूला महानदी दक्षिणेन नेतव्या यथा रोहितांशा पौरस्त्येन गच्छति, एवं यथैव गङ्गा सिन्धू तथैव रस्ता रकवत्यौ नेतव्ये, पौररत्येन रला पश्चिमेन रक्तावती अवशिष्टं तदेव, 'अवशेष भणितव्यमिति'। शिखरिणि खलु भदन्त ! पंधरपर्वते कति फूटानि प्रज्ञप्तानि', गौतम ! एकादश कूटानि प्रज्ञप्तानि ? तद्यथा-सिद्धायतन कूटं ? शिखरिकूटं २ हैरण्यवत कूटं ३ सुवर्णकूलाकूटं ४ खुरादेवीकूटं ५ रक्ताकूट ६ लक्ष्मीकूटं ७ रक्तावतीकूटम् ८ इलादेवीकूटम् ९ ऐरावतकूटं १० तिगिच्छिकूटम् ११, एवं सर्वाण्यपि कूटानि पञ्चशतिकानि राजधान्य उत्तरेण । अथ केनार्थेन भदन्त ! एवम्युच्यते शिखरि वर्षधरपर्वतः २१, गौतम ! शिखरिणि वर्षधरपर्वते बहूनि कूटानि शिखरिसंस्थानसंस्थितानि सर्वरत्नमयानि शिखरी चात्र देवो यावत् परिवसति, स तेनार्थेन।
क्व खल भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे ऐरावतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तस् ?, गौतम ! शिखरिण उत्तरेण उत्तरलवणसमुद्रस्य दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पाश्चात्यलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन, अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे ऐरावतं नाम वर्षे प्रज्ञप्तम् , स्थाणुबहुलं कण्टकबहुलम् एवं यैव भरतस्य वक्तव्यता सैव सर्वा निरवशेषा नेतव्या ससाधना सनिष्क्रमणा सपरिनिर्वाणा नवरमैरावतश्चक्रवर्ती ऐरावतो देवः, स तेनार्थेन ऐरावतं वर्षम् २ ॥९० ३४॥ ____टीका-"कहिणं भंते ! जंबुद्दीवेर” इत्यादि-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे 'रम्मएणाम' रम्यकं नाम 'वासे' वर्ष 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तम्, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतष ! 'णीलवंतस्स' नीलवतः पर्वतस्य 'उत्तरेणं उत्तरेण उत्तरदिशि 'रुप्पिस्स' रुक्मिणः
रम्यकक्षेत्रवक्तव्यता'कहिणं भंते! जंबुद्दीवे दीवे रम्मए णामं वासे पण्णत्ते' इत्यादि ।
टीकार्थ-गौतमने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है- 'कहि णं भंते ! जंवूहीवे २ रस्मए णामं वासे पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में रम्यक नामका क्षेत्र कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं, 'गोयमा ! णीलवंतस्स उत्तरेणं रुपिस्स दखिणेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स
રમ્યક ક્ષેત્ર વક્તવ્યતા 'कहि णं भंते ! जंणुद्दीवे दीवे रम्मए णाम वासे पण्णत्ते ? इत्यादि
साथ-गौतमे प्रभुन मा सूत्र 43 प्रश्न ये छ है-'कहिणं भवे ! जंबूदीवे २ रम्मए णाम वासे पण्णत्ते के महत! द्वीप नाम दीपमा २भ्य४ नामे क्षेत्र या स्थणे भावयु छे. मेन पाममा प्रभु ४९ छे-'गोयमा । णीलवंतस्स उत्तरेणं रुपिस्स दक्खिणेणं
ज० ६६
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र अग्रे वक्ष्यमाणस्य तन्नामकस्य वर्षधरपर्वतस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'पुरस्थिमलवणसमुहस्स' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पूर्वदिग्वति लवणसमुद्रस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'पच्चित्थिमलवणसमुहस्स' पश्चिमलवणसमुद्रस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वीदशि 'एवं' एवम् एतादृशेनाभिलापकेन 'जहचेव' यथैव येनैव प्रकारेण 'हरिवास' हरिवर्ष भणितं . 'तहचेव' तथैव तेनैव प्रकारेण 'रम्मयं वासं रम्यकं वर्ष 'भाणियन्वं' भणितव्यं वक्तव्यम् ,
अत्र हरिवर्पापेक्षया यो विशेपस्तं प्रदर्शयितुमाह-'णवरं' नवरं केवलं 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'जीवा' जीवा-धनुः प्रत्यञ्चाकारप्रदेशः 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि 'धणुं' धनु:-धनुष्पृष्ठम् 'अवसेसं' अवशेपम्-अवशिष्टं विष्कम्भायामादिकम् 'तं चैव तदेव हरिवर्पप्रकरणोक्तमेव वोध्यम् । अथ पूर्व सूत्रे नारीकान्ता नदी रम्यकवयं गच्छन्ती गन्धापातिवृत्तवैता'ढयपर्वत योजनेनासम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी परावृत्ता सतीत्याधुक्तं तत्र गन्धापाती नाम वृत्तवैताढयपर्वतः कुत्रास्तीति पृच्छति-'कहिणं भंते ।" इत्यादि-क्व खलु भदन्त ! 'रम्मए वासे' रम्यके वर्षे 'गंधावईणाम' गन्धापाती नाम 'वट्टवेयः पव्वए' वृत्तवैताढयः पर्वतः पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एवं जह चेव हरिवासं तह चेव रम्मयं वासं भाणियव्वं' हे गौतम ! नीलवन्त पर्वत की उत्तरदिशा में, एवं रुक्मि पर्वत की दक्षिणदिशा में, पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिमदिशा में तथा पश्चिम दिग्बलवण समुद्र की पूर्वदिशा में हरिवर्प क्षेत्र के जैसा रम्यक क्षेत्र कहा गया है परन्तु हरिवर्ष क्षेत्र की अपेक्षा जो विशेषता है वह 'णवरं दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं त चेच' ऐसी है कि इसकी जीवा दक्षिणदिशा में है और धनुपृष्ठ उत्तरदिशा में है इसके सिवाय और कोइ विशेषता नहीं है सब कथन हरिधर्ष क्षेत्र के जैसा ही है 'कहिणं भंते! रम्मए वासे गंधावईणामं वट्टवेयद्धपश्चए' गौतमने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! जो आपने 'पहिले कहा है नारीकान्ता नदी रम्यक वर्षकी ओर जाती हुई गन्धापाती वृत्त वैतादय को एक योजन दूर छोड देती है सो यह गन्धापुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्यिमलपणसमुहस्स पुरत्थिमेगं एवं जहचेव हरिवासं तहचेव रम्मयं वासं भाणियव्वं' गौतम! नीसन्त पतनी उत्तर दिशामा भार 'ફિમ પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં, પૂર્વ દિગ્દતી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામા તથા પશ્ચિમ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં હરિવર્ષ ક્ષેત્ર જેવું રમ્યફ ક્ષેત્ર આવેલું છે. પરંતુ रिर्ष क्षेत्रनी अपेक्षाध्य मात्रमा विशेषतः छे ते 'णवरं दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं तं चेव' मा प्रभारी छ है मेनी क्षि शाम छ मन धनु००४ -ઉત્તર દિશામાં છે એના સિવાય બીજી કઈ વિશેષતા નથી. શેષ બધું કથન હરિવર્ષ ક્ષેત્ર
र १ छे. 'कहिणं भंते ! रम्मए वासे गंधावई णामं वट्टवेयद्धपव्वए' गौतम स्वाभीमे मा सूत्र વડે પ્રભુને આ જાતને પ્રશ્ન કર્યો છે કે હે ભદન્ત ! જે આપશ્રીએ પહેલાં કહ્યું છે કે નારી'કાન્તા નદી મ્યક વર્ષ તરફ વહેતી ગજાપતી વૃતાઢયને એક જન દર મૂકે કે આ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् .. . ५२३ 'पण्णत्त' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'गरकताएं' नरका- . न्तायां महानद्याः 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमंदिशि 'णारीकंताए' नारीकान्ताया नद्याः 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्व दिशि 'रम्मगवासस्स' रम्यकपर्पस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागे 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'गंधावई णाम गन्धीपाती नाम "वट्टवेयद्ध पब्वए' वृत्तवैताढयपर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, अस्य' वर्णनं विकंटापांतिवृत्तवैताढ्यपर्वतवत् प्रदर्शयितुमाह-'जं चेव वियडावइस्स' यदेव विकटापातिनो वर्णन 'त चेव तदेवं वर्णनं 'गंधावइस्सवि' गन्धापातिनोऽपि 'वत्तव्यं वक्तव्यम्, अत्र समानक्षेत्रस्थितिकत्वा : द्विकटापातिन एवातिदेशः, तेन सविस्तरनिरूपितस्यापि शब्दापातिनोऽतिदेशाभावे न क्षतिः अत्र गन्धापात्यपेक्षया यो विशेषस्तमाह-'अहो' अर्थः-वक्ष्यमाणो नामार्थः तथाहि-'वहवे' , बहूनि-प्रचुराणि 'उप्पलाई' उत्पलानि कुवलयानि चन्द्रविकाशीनि. कमलनि 'जाव' यावत् . पाती वृत्त वैताढय पर्वत रम्यम क्षेत्र में कहां पर हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते । है-'गोयमा ! णरकताए पच्चत्थिमेणं णारीकंताए पुरथिमेणं रम्मगवासस बहुमज्झदेसभाए एत्थणं गंधाचईणामं वटवेअद्धे पच्चए पण्णत्ते' हे गौतम ! नरकान्ता नदी की पश्चिमदिशा में एवं नारीकान्ता नदी की पूर्वदिशा में रम्यक क्षेत्र में उसके बहुमध्यभाग में यह गन्धापाती नामका वृत्तवैताढय पर्वन कहा, गया है 'जं चेव वियडावइस्स तंचे व गंधावइस्ल वि वत्तव्वं' इसका वर्णन विकटापाति वृत्तवैनाढय पर्वत के जैसा जानना चाहिये यह विकटापाति वृत्तवैताढय पर्वत हरिवर्ष क्षेत्र में स्थित कहा गया है उसकी उच्चता आदि के जैसी ही इसकी उच्चता आदि है यहां पर विस्तार रूप से निरूपित किये गये शब्दापाती वृत्तवैतात्य पर्वत के अतिदेश को छोड कर जो विकटापाति पर्वत का अतिदेश किया गया है उसका कारण उन-दोनों की-तुल्य क्षेत्र स्थितिकता है। गन्धा- - ગન્ધાવાતી વૃત્તવૈતાઢય પર્વત રમ્યક ક્ષેત્રમાં ક્યાં સ્થળે આવેલું છે? એના જવાબમાં પ્રભુ ४ छ-'गोयमा ! णरकांताए पच्चत्थिमेणं णारीकंताए पुरथिमेणं रम्मगवासस्स बहुमज्झ देसभाए एत्थणं गंधावई णाम वट्टवेअद्धे पन्चए पण्णत्ते' गौतम ! न२४ता नहीनी પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ નારી કાન્તા નદીની પૂર્વ દિશામાં રમ્યક ક્ષેત્રમાં તેના બહમધ્ય भागमा मा अन्यायानी नामे वृत्त वैतादय त मावतो छ. 'जं चेव वियडावइस्स ते चेव गंधावइस्स वि वत्तव्यं' मानु वन विटाति वृत्तवेतादय पर्वत रे नए જોઈએ આ વિકટાપાતિ વૃત્ત વૈતાઢય પર્વત હરિવર્ષ ક્ષેત્રમાં સ્થિત છે. એની ઉગ્રતા વગેરે જેવીજ ઉચ્ચતા તેની પણ છે. અહીં વિસ્તાર રૂપમાં નિરૂપિત કરવામાં આવેલા શબ્દાપાતી વૃત્તવૈતાઢય પર્વતના અતિ દેશને બાદ કરીને જે વિટાપતિ પર્વતના અતિ દેશ વિશે કહેવામાં આવેલું છે તેનું કારણ એ બનેની તુલ્ય ક્ષેત્ર સ્થિતિક્તા છે. ગળ્યા
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जिम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र । यावत्पदेन-"पद्मानि कुमुदानि, नलिनानि, मुभगानि, सौगन्धिकानि, पुण्डरीकाणि, महापुण्डरीकाणि, सहस्रपत्राणि शतसहस्रपत्राणि' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो वोध्यः, एपामथों विंशतितम सूत्रव्याख्यातोऽनसेया, वानिकीदृशानि? इत्याह-'गंधावईवण्णाई' गन्धापातिवर्णानि गन्धापातिनाम तृतीयवृत्तवैताढयपर्वतवर्णसदृशवर्णकानि 'गंधावइप्पभाई' गन्धापातिप्रभाणि गन्यापातिवृत्तवैताढयाकाराणि सर्वत्र समत्वात्, तेन तद्वर्णत्वात् तदाकारत्वाच्च गन्त्रापातीत्येवमुच्यते, अस्याधिपमाह-'पउमे य इत्थ देवे' पद्मः-पवनामकः च अन अस्मिन् रम्यकवर्षे देवः अधिपः परिवसति स च कीदृशः? इत्याह-'महिद्धीए जाव पलिओवाईए' महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिक:-'महद्धिक' इत्यारभ्य 'पल्योपमस्थितिक' इति पर्यन्तानां यावत्पदस
ग्राह्यानां पदानां सङ्ग्रहोऽर्थश्चाष्टमसूत्राद्वोध्यौ, एतादृशो देवः परिवसति तेन तद्योगात्तत् स्वामिकत्वाच्च गन्धापातीत्येवमुच्यते अस्य 'रायहाणी' राजधानी राजवसतिः 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि वोध्येति । ___ अथ रम्पकवर्षनामकारणं वर्णयितुमाह-'से केणडेणं भंते !' अथ केन अर्थेन कारणेन पाती वृत्तवैताढय की अपेक्षा जो विशेषता है उसे 'अट्ठो बहवे उप्पलाई वग्णाई गंधावईपाई पउसे अ इत्थ देवे महिदिए जाव पलिओवसहिईए परिवसई' इस सूत्र द्वारा अन्नकारने प्रकट किया है इसमें यह समझाया गया है कि यहां पर जो उत्पल आदि ले लेकर शतसहस्त्र पत्र तक कमल हैं वे सब गन्धापाति नामका जो तृतीयवृत्त बैनाढय पर्वत है उसके जैसे वर्णनवाले हैं और उसके जैसी प्रभावाले हैं तथा उसका जैसा आकार है उस आकार के हैं। अतः इसका नाम गन्धापाति वृत्तवैताब्य पर्वत कहा गया है । दूसरी बात यह है कि यहां पर पद्म नामका महाद्धिक देव रहता है इसकी स्थिति एक पल्योपम की है उत्पल से लेकर शत सहस्त्रपत्र तक के कमलों को जानने के लिये २० वें सूत्र की व्याख्या को तथा अति पद से लेकर पल्योपम स्थिति के बीच के पदों को देखने के लिये अष्ठम सूत्र को देखना चाहिये 'रायहाणी उत्तरेणंति' इस पद्म देवकी राजधानी पाती वृत्त बतायनी असाध्य रे विशेषता छ, तर 'अट्ठो वहवे उग्पलाई बण्णाई गंधावईपभाई पउमे अ इत्य देवे महि ढिए जात्र पलिओवमदिईए परिवसई' मा सूत्र 4 सूत्रधारे પ્રકટ કરી છે. એમાં આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે અહીં જે ઉત્પલ વગેરેથી શત -સહસ્ત્ર પત્ર સુધીના કમળ છે તે બધાં ગન્યાપતિ નામે જે તૃતીય વૈતાઢય પર્વત છે, તેના જેવા વર્ણવાળાં છે. અને તેના જેવી પ્રભાવાળા છે તથા તેના જેવા આકારવાળા છે. એથી આનું નામ ગન્ધાપતિ વૃત વૈતાઢય પર્વત એવું કહેવામાં આવેલું છે. બીજી વાત આમ છે કે અહીં પધનામે એક મહદ્ધિક દેવ રહે છે. એની સ્થિતિ એક પોપમ જેટલી છે. ઉત્પલથી માંડીને શત સહસ્ત્રપત્ર સુધીના કમળ. વિશે જાણવા માટે ૨૦ માં સૂત્રની વ્યાખ્યાને તથા મહદ્ધિક પદથી માંડીને પલેપમ સ્થિરિના વચ્ચે આવેલા પાને જેવા भाट गटम सूत्रने न ये. 'रायहाणी उत्तरेणंति' मा पानी पानी उत्तर
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४ रम्यकवर्षनिरूपणम् भदन्त ! ‘एवं बुच्चइ' एवमुच्यते 'रम्मए वासे २' रम्यकं वर्षम् २ १, इति भगवानाह'गोयमा' गौतम ! 'रस्मगवासे' रम्यकप रम्यते-क्रीडयते बहुविधकल्पवृक्षः काञ्चनमणिमयैस्तत्तत्प्रदेशैरतिरामणीयकेन रतिविषयीक्रियत इति रम्यं तदेव रम्यकं तच्च वर्ष चेति रम्यक वर्षम् 'ण' खलु रस्मे रम्मए रमणिज्जे' रम्यं रम्यकं रमणीयम् एतानि त्रीण्यपि समानार्थकानि पदानि रामणीयकातिशयद्योतनार्थमुपानानि 'रम्मए य इत्थ देवे जाव परिवसई' रम्यकश्चात्र देवो यावत् परित्रसति अत्र यावत्पदेन महर्द्धिकादि पल्योपमस्थितिकान्तपदानां सङ्ग्रहोऽष्टम सूत्राद्धोध्याः, तदर्थोऽपि तत एवावगन्तव्यः, एतादृशो देवः परिवसति तेन तद्रम्यक तद्योगाद रम्यक मित्येवमुच्यते । अथ रुक्मिनामकं पञ्चमं वर्षधरपर्वतं वर्णयितुयुपक्रमते'कहि णं भंते !' इत्यादि-क्य खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'रुप्पी णाम वासहरपव्वए' रुक्मी नाम वर्षधरपर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह'गोयमा !' गौतम ! 'रस्मगवासस्प्त' रम्यकवर्षस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि ‘हेरण्णवयइसकी उत्तर दिशा में है। 'ले केणष्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ रम्भए वासे २' हे भदन्त ! इस क्षेत्र का नाम 'रम्यक' ऐसा किस कारण से आपने कहा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! रम्मगवासेणं रम्मे रम्मए रमणिज्जे, रम्मए अ एस्थ देवे जाब परिक्सइ से तेणटेणं०' हे गौतम ! यहां पर नाना प्रकार के कल्पवृक्ष है और स्वर्णमणि खचित अनेक प्रकार के प्रदेश है इससे यह क्षेत्र रमणीय हो रहा है अतः इसी कारण इस क्षेत्र का नाम रम्यक् ऐसा कहा गया है रम्य रम्यक रमणीयक ये एक ही अर्थ के वाचक शब्द है। दूसरी बात यह भी है कि इस रम्यक क्षेत्र में रम्धक नामका देव रहता है अतः इस महर्दिक देव आदि के संबन्ध से भी इसका नाम रम्यक ऐसा कहा गया है 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे रुप्पी णानं वासहरपन्चए पपणत्ते' अब गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में रुक्मी नामका वर्षधर पर्वत शिम मावली छ. 'से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ रम्मए वासे २' ! क्षेत्रनु नाम '२भ्य४ मे ॥ ४ारथी मा५श्रीये युं छे ? नाममा प्रभु छे-'गोयमा । रम्भगवासेणं रम्मे रम्मए रमणिज्जे रिम्मए अ एत्थ देवे जाव परिवसई से तेणडे. ગૌતમ! અહીં અનેક પ્રકારના કલ્પવૃક્ષે છે અને સ્વર્ણમણિ ખચિત અનેક પ્રકારના પ્રદેશે છે. આથી આ ક્ષેત્ર રમણીય થઈ ગયું છે. એટલા માટે જ આ ક્ષેત્રનું નામ રમ્યફ એવું પ્રસિદ્ધ થઈ ગયુ છે. રમ્ય, રમ્યક, રમણીય એ બધાં સમાનાર્થી શબ્દો છે. બીજી વાત આ છે કે આ રમ્યક ક્ષેત્રમાં રમ્યક નામે દેવ રહે છે. એથી આ મહદ્ધિક દેવ વગેરેના समाश्री ५५५ मा क्षेत्र नाम २भ्य४ मे ४वामी माध्यु छ. 'कहिणं भंते जंबुद्दीवे दीवे रुप्पी णामं वाटहरपव्वए पण्णत्ते' हवे गौतमे प्रभुने तन प्रश्न या छ र ભદંત ! આ જમ્બુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં રુદ્ધમાં નામે વષધર પર્વત ક્યા સ્થળે આવે છે ?
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जम्बूहीपप्राप्तिसूत्र वासस्स' हैरण्यवतवर्पस्य हैरण्यवतक्षेत्रस्य 'दक्खित्तेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'पुरस्थिमळवणसमुदस्स' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य-पूर्वलवणसमुद्रस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'पञ्चथिमलवणसमुद्दस्म' पश्चिमलवणसमुद्रस्य 'पुरथिमेग' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'एत्व' अत्रअत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे रुप्पी' रुखमी 'णाम' नाम 'चासहरपयए' वर्षधरपर्वतः 'पण्ण' प्रज्ञप्तः स च 'पाईणपडीणायए' प्राचीनप्रतीचीनायत:-पूर्वपश्चिनयोदिशो दीर्घः 'उदीणदाहिणवित्थिण्णे' उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः उत्तरदक्षिणयोविंशो विस्तारयुक्तः 'एच' एवम्-पूर्वोक्ता भिलापकानुसारेण 'जा चे' यैर 'महाहिमवंतवत्तव्यया' महाहिमद्वक्तव्यता । महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य वक्तव्यता वर्णनपद्धतिः 'सा चेव' सैव वत्तव्यता 'रुप्पिस्स वि' रुक्मिणोऽपि अस्य वर्षयरपर्वतस्य वोध्या, अथ हिमवद्वर्पधरपर्वतापेक्षयाऽस्य यो विशेपस्तं प्रदर्शयितुमाह-'णवर? नवरं केवलं 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'जीवा' जीवा धनुः प्रत्यश्चाकार प्रदेशः 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'घण्' धनु:-धनुप्पृष्टम् 'अवसेसं अवकहां, पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! रम्भगवासस्स उत्तरेणं हेरण्णावयवासस्स दक्खिणेगं पुरथिमलदणसमुहस्स पच्चरिथमेणं पच्चस्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे रुप्पीणामं वासहरपच्चए पण्णत्तेत्ति' हे गौतम ! रम्यक क्षेत्र की उत्तरदिशा में एवं हैरण्यवत क्षेत्र की दक्षिणदिशा में, पूर्वदिग्वर्ती लवण समुद्र की पश्चिमदिशा में तथा पश्चिम दिग्वर्ती लवण समुद्र की पूर्वदिशा में जम्बूद्वीप नामके द्वीप में लक्ष्मी नामका वर्षधर पर्वत कहा गया है 'पाईंणगडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे' यह पर्वत पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है एवं उत्तर से दक्षिण तक चौडा है 'एवं जाचेव महाहिमवंते वत्तव्वया सा चेव : रुप्पिस्स वि णवरं दाहिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं तंचेव' इस तरह से - जैसी. वक्तव्यता महाहिमवान् पर्वत के विषय में पहिले कही जा चुकी है वैसी ही --- वह सब वक्तव्यता रुक्मीवर्षधर पर्वत के सम्बन्ध में भी कहलेनी चाहिये इसकी मनापाममा प्रभु ४ छ 'गोयमा ! रम्मगगासस्स उत्तरेणं हेरण्णवयवासस्स दक्षिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं पच्चस्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एस्थ ण जंबुद्दीवे दीवे रुपी णाम वासहरपब्वए पण्णत्ते' ३ गौतम ! २भ्य क्षेत्रनी बत्त२ शाम तमा હૈરર્થવત ક્ષેત્રની દક્ષિણ દિશામાં પૂર્વ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તથા પશ્ચિમ દિગ્ગત લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં જંબૂઢીપ નામક દ્વીપમાં સમી નામે વર્ષધર પર્વત मावत छे. 'पाईणपडीणायए उदीणाहिणविच्छिण्णे' मा पर्वत पूरथी पश्चिम सुधी eiमा-छे भने उत्तरथी दक्षिण सुधी पडाणे छ. एवं जा चेव महाहिमवते वत्तव्वया सा । चेव रुप्पिस्स वि. णवरं दाहिणेणं जीवा उतरेणं धणु अवसेसं तं चेव' मा प्रावीaxt
વ્યતા મહા હિમવાનું પર્વતના વિશે પહેલાં કહેવામાં આવી છે. તેવી જ વક્તવ્યતા રુકમી V: "ધર પર્વતના સંબંધમાં પણ અહીં સમજી લેવી જોઈએ. એની જીવા–પ્રત્યંચાકાર પ્રદેશ
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सु. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम्
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शेषम् अवशिष्टं विष्कम्भायामादिदम् 'तं चेव' तदेव - महा हिमवद्वर्पधरपर्वत प्रकरणोक्तमेव रुक्मि महाहिमवतो थिस्तुल्यत्वात्, अथ रुक्मिवर्तिनं हृदं तनिस्सृत नदीबाह - 'महापुंडरीए दहे' इत्यादि महापुण्डरीको हृदः महापद्महूद सदृशोऽत्र ततः 'णरकंता गई' नरकान्ता नाम नदी रुक्मिगिरे निर्गता 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन - दक्षिणतोरणेन निर्गत्य 'प्रवहन्ती 'णेयच्या ' तव्या बोधविषयं प्रापणीया चोध्येत्यर्थः । तत्र दृष्टान्तत्वेन नंदीमुपन्यस्यति - 'जहा रोहिया' यथा रोहिता नदी महाहिमतो महापद्महृदतो दक्षिणेन निर्गता सती 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'गच्छइ' गच्छति पूर्वलवणसमुद्रं याति तथा नरकान्ताऽपि रुक्मिणो महापुण्डरीक हृदाद् दक्षिणतोरणेन निःसृता सती पूर्वलवणसमुद्रं गच्छति रोहितां नरकान्तयो दक्षिणतोरणेन स्वस्वहूदा निःसरणं पूर्वसमुद्रगमनं च समानमिति दृष्टान्तदान्तिक भात्रः । इति नरकान्तावर्णनम्
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अथ रुक्मिर्ति महापुण्डरीकहूदान्निर्गतां रूप्यकूलां नदीं वर्णयितुमुपक्रते - 'रुप्पकूला' रूप्यकूला नदी 'उत्तरेणं' उत्तरतोरणेन महापुण्डरीक हृदान्निर्गता पश्चिमलवण समुद्रं प्रविशन्ती 'यव्वा' नेतव्या बोध्या, अत्र दृष्टान्तत्वेन नदीमुपन्यस्यति - 'जहा हरिकंता' यथा येन प्रकारेण हरिकान्ता तन्नाम्नी हरिवर्ष क्षेत्रवाहिनी महानदी 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिमेन - पश्चिमजीवा - प्रत्यञ्चाकार प्रदेश दक्षिणदिशा में है और धनुष्पृष्ठ उत्तरदिशा में है । इस कथन के अतिरिक्त और सब कथन - विष्कम्भ एवं आयामादि का वर्णन - जैसा महाहिमवान् पर्वत का कहा गया है वैसा ही है ( महापुंडरीए दहे, णरकंता नदी, : दक्खिणं णेयव्वा इस पर्वतपर 'महा पुंडरीक नामका हूद है इससे नरकान्ता नामकी महानदी दक्षिण तोरण द्वार से निकली है 'जहा रोहिआ पुरस्थिमेणं गच्छ' और यह पूर्वदिग्वर्ती लवण समुद्र में जा कर मिली है इस नरकान्ता नदी की वक्तव्यता रोहिता नदी के समान है अर्थात् महापद्मद से दक्षिणतोरण द्वार से रोहिता नदी निकलकर पूर्व दिग्वर्ती लवण समुद्र में मिली है उसी प्रकार से यह भी महापुण्डरीक ह्रद से दक्षिण तोरण द्वार से निकल कर पूर्वदिग्वर्ती
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1 દક્ષિણ દિશામાં છે અને ધનુપૃષ્ઠ ઉત્તર દિશામાં છે. આ 'કૅથન સિવાય શેષ મધુ કથનવિષ્ણુભ તેમજ આયામાદિનું વર્ણન—જેવુ' મહામિવાત્ પર્યંત વિશે કરવામાં આવેલું છે तेवु ४ समवु' 'महा पुडरीए दहे णरकंता नदी, दक्खिणेणं णेयव्वा' मा पर्वत पर મહા પુંડરીક નામે- હદ છે. એમાર્થી નરકાન્તા નામે મહાનદી દક્ષિણ તારણ દ્વારથી નીકળી छे. 'जहा रोहिआ पुरत्थिमेणं गच्छइ' भने या पूर्वद्विग्वती संवायु समुद्रमां ने भणे छे. આ નરકાન્તા નદીની વક્તવ્યતા રાહિતા નદીની જેમ છે. એટલે કે મહાપદ્મėદથી દક્ષિણ તારણ દ્વારથી રેાહિતા નદી નીકળીને પૂ``દિગ્વી` લવણુ સમુદ્રમાં મળે છે. તે પ્રમાણે જ આ પણ મહા પુંડરીક હદી—દક્ષિણ તેારણુ દ્વારથી નીકળીને પૂવ દુગ્ધતી લત્રણ समुद्रभां अनिष्ट थाय छे, 'रुपकूला उत्तरेण यन्त्रा जहा हरिकंता पच्चत्थिमेणं गच्छ '
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जम्बूद्वीपप्रतिसूत्रे
दिशि स्थितं लवणसमुद्रं 'गच्छइ' गच्छति तथा रूप्यकूलाऽपि बोध्या, अवावशिष्टं स्वस्वक्षेत्रवर्ति नदीवद्वर्णयितुं प्रदर्शयति- 'अवसेसं त चेवत्ति' अवशेषम् - म्वशिष्टं गिरिगमनमुखमूळविस्तारनदी प्रभृति तदेव स्पस्वक्षेत्रवर्ति नदी प्रकरणोक्तमेव बोध्यम् तत्र नरकान्तानद्या हरिकान्ता नदी प्रकरणोक्तं शेपं रूप्यकूकानद्यास्तु रोहिता नदी प्रकरणो वोध्यम्, यत्तु नरकान्तानद्या रोहिता नदीवर्णन निर्देशनं रूप्यकूलानद्यास्तु हरिकान्तानदीवत्, तदेकदिनिः सरणमेक दिग्गमन माश्रित्य नतु विष्कम्भादिकमिति बोध्यम् । अयाकूटानि वर्णयितुमुपक्रमते - 'रुपिमि णं भंते !' इत्यादि प्रश्ननं स्पष्टम्, उत्तरसूत्रे 'गोयमा' गौतम ! 'अटु' अष्ट लवण समुद्र में मिली है 'रुपकूला उत्तरे णेयव्वा, जहा हरिकंना पच्चत्थिमेणं गच्छइ' इसी रुक्मीवर्ती महापुंडरीक हद से उत्तर तोरण द्वार से रुप्यकूला नामकी महानदी भी निकली है और यह हरिकान्ता नदी की तरह पश्चिम दिग्वर्ती लवण समुद्र में जाकर मिली है हरिकान्ता नामकी महानदी हरिवर्ष क्षेत्र में बहती है 'अवसेसं तं चेवत्ति' बाकी का और सब गिरिगमन मुखमूल विस्तार आदि का कथन अपने २ क्षेत्रवर्तिनदी के प्रकरण में जैसा कहा गया है' - वैसा ही है । नरकान्ता नदी का शेप कथन हरिकान्ता नदी के प्रकरण के जैसा है रुकूला नदी का शेप रोहिता नदी के प्रकरण के जैसा है । नरकान्ता नदी का वर्णन जो रोहिता नदी के वर्णन जैसा कहा गया है, वह तथा रूप्य कूला नदी का हरिकान्ता नदी के जैसा कहा गया है वह एक दिशा से निकलने की अपेक्षा तथा एकही नामकी दिशा में जाने की अपेक्षा लेकर कहा गया है विष्कम्भादिक की अपेक्षा लेकर नहीं कहा गया है ।
'रूपिणिं भंते वासहरपञ्चए कई कूडा पण्णत्ता' हे भदन्त ! रुक्मी नाम के इस वर्षधर पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? 'गोधमा ! अडकूडा पण्णत्ता'
આ રુમીવી મહા પુંડરીક હદથી ઉત્તર તેારણુ દ્વારથી− ુપ્યફૂલા નામે મહા નદી પણ નીકળી છે. અને આ હરિકાન્તા નદીની જેમ પશ્ચિમ દિશ્વતી લલણ સમ્રુદ્રમાં જઈને મળે छे. हरिजन्ता नाभे महानही हरिवर्ष क्षेत्रमां व छे. 'अवसेसं तं चैवेति' शेष मधु गिरि ગમન મુખ મૂલ વિસ્તાર વગેરેનું કથન પોત-પોતાન ક્ષેત્રવતી નદીના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે જ છે. નરકાન્તા નદી વિશેતુ શેષ કથન હેર્રિકાન્તા નદીના પ્રકરણ જેવું જ છે. રુખ્ય ફૂલા નદીનું શેષ કથન રાહિતા નદીના પ્રકરણ જેવુ જ છે. નરકાન્તા નદીનું વÖન જે રહિતા નદીના વન જેવુ' કહેવામાં આવેલું છે, તેમજ રુપ્ચકૂલા નદીનું વર્ણોન હેરિકાન્તા ની જેવું કહેવામાં આવ્યું છે તે એક દિશાથી નીકળવાની અપેક્ષાએ તેમજ એકજ નામની દિશાાં વહેવાની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલ છે. વિષ્ણુ ભાદિકની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવ્યું નથી.
'रुप्पिमि णं भते । वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता' हे लढत । शुश्मी नामना भी वर्षधर पर्वत ७५२ ईदला हुटी भरता है ? 'गोयमा । अट्ठ कूडा पण्णत्ता' हे गौतम!
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू०४४ रम्यकवर्षनिरूपणम्
· ५२९ 'कूडा' कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा-कूटाष्टक नामनिर्देशाय गाथामुपन्यस्यति'सिद्धे १' इत्यादि-सिद्ध-सिद्धायतनकूटं तच समुद्रदिशि वर्तत इति प्रथमम् १ 'रुप्पी' रुक्मी-रुक्मिकूटम्, तच्च पञ्चमवर्षधरपतिकूटमिति द्वीतियम् २, 'रम्मग' रम्यकं-रम्यककूट तच्च रम्यक्षेत्राधिपदेवकूटं मूले प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपः इति तृतीयम् ३ 'गरकता' नरकान्ता नरकान्तानदी देवीकूटम् इति चतुर्थश् ४, बुद्धि' बुद्धि-बुद्धिकूट-महापुण्डरीकहूददेवी कूटमिति पञ्चमम् ५, 'रुप्पकूला य' रूप्यकूला च रूप्यकलानदी देवीकूटं च शब्दः समुच्चये इति पष्ठ कूटस् ६ । 'हेरण्णवय' हैरण्यवतं-हैरण्यवतं कूटं हैरण्यवतक्षेत्राधिपदेवकूटम्, अत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् इति सप्तमम् ७, 'माणिकंचण' मणिकाञ्चन-मणिकाञ्चनकूटम् अत्रापि विभक्तिलोपः प्राग्वद्वोध्यः 'अट्ट' अष्ट 'रुप्पिमि' रुक्मिणिगिरौ 'कूडाई कूटानि शिखराणि प्रज्ञप्तानि ८॥ इति एतेषां मानं निरूपयति 'सव्वे वि एए' सर्वाणि अष्टापि एतानि अनन्तरोक्तानि पूर्वापरायतश्रेण्या व्यवस्थितानि पंचसइया' पञ्चशतिकानि पञ्चशतयोजनप्रमाणानि हे गौतम ! आठ कूट कहे गये हैं 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं 'सिद्धे, रुप्पी, रम्भग, णरकंता, बुद्धि, रुप्पकूला य, हेरण्णव य, मणिकंचण अह य रुपि मि कूडाई' १ सिद्धायतनकूट यह लवण समुद्र की दिशा में है २ रुक्मीकूट-यह पांचवे वर्षधर के अधिपति देवका कूट है ३ रम्यककूट-यह रम्यक क्षेत्र के अधिपति देवका कूट है प्राकृत होने से यहां मूलमें विभक्ति का लोप हो गया है। नरकान्ताकूट यह नरकान्ता नदी की देवी का कूट है ५ बुद्धिकूट यह महापुण्डरीक हद वर्तिनी देवी का कूट है ६ रूप्पकूला कूट-यह रूप्यकूला नदी की देवी का कूट है ७ हैरण्यवत कूट-यह हैरण्यवत क्षेत्र के अधिपति देवका कूट है। ८ वां कूट मणिकांचनकूट-यह मणिकांचन नामके देवका कूट है इस प्रकार से ये आठ कूट है 'सव्वे वि एए पंच सइया रायहाणीओ उत्तरेणं' ये सब कूट पांचसो योजन के विस्तार वाले हैं तथा इन कूटों के जो अधिपति देव हैं उन सबकी
मा दूटो भावसा . 'तं जहा' टोना नाम मा प्रभाव छ-'सिद्धे, रुप्पी, रम्मग, णरकता, बुद्धि रुप्पकूला य, हेरण्णवय, मणिकंचण अट्ठ य रुप्पिमि कूडाई १ सिद्धायतन ફૂટ, આ ફૂટ લવણ સમુદ્રની દિશામાં છે. ૨ રૂફમીકૂટ–આ ફૂટ પાંચમાં વર્ષધરના અધિપતિ દેવને છે. ૩ રમ્યક ફૂટ–આ ફૂટ રમ્યક ક્ષેત્રના અધિપતિ દેવને છે. પ્રાકૃત હોવાથી અહીં મૂલમાં વિભકૃિત–લેપ થઈ ગયો છે. ૪ નરકાન્ત ફૂટ–આ નરકાન્તા નદીની દેવીને ફૂટ છે. ૫ બુદ્ધિ ફૂટ-આ મહા પુંડરીક સુંદવતિની દેવીને ફૂટ છે. ૬ રુખ્યકૂલા કૂટ–આ રૂકૂલા નદીની દેવીને ફૂટ છે. ૭ હરણ્યવત ફૂટ-આ હૈરયવત ક્ષેત્રના અધિપતિ દેવને ફૂટ છે. ૮ મણિકંચન ફૂટઆ મણિકાંચન નામે દેવને ફૂટ છે. આ પ્રમાણે એ આઠ दूटो छे. 'सव्वे वि एए पंचसइया रायहाणीओ उत्तरेणं' से माटी ५००, ५०० योजन જેટલા વિસ્તારવાળા છે. તથા એ ફૂટના જે અધિપતિ છે તે બધાની રાજધાનીઓ
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जम्बूद्वीपमाप्ति वोध्यानि अर्थतस्कूटाधिपदेवानां राजधान्यः स्यां दिशि ? इत्याह-शायहाणीश्री राजधान्यः 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि मधुनाऽस्य रक्मीति नामार्थ निस्पयितुमुपक्रमते-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि-अथ तदनन्तरं केन अर्थन कारणेन गवन्त ! 'पवं युच्चइ एवमुच्यते 'हप्पी' पासहरपव्यए २१ रुक्मी वर्षधरपर्वतः २१, इति प्रश्नग्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'रुप्पी' रुक्मी 'ण' खलु क्वचित् 'णाम' इतिपाठः, तत्पक्षे नाम इनि तदर्यः 'वासहरपव्यए' वर्षधरपर्वतः 'रुप्पी' रुखमी रुक्मं रजतं तदम्य नित्यमस्तीति रुक्मी नित्ययोगे इन प्रत्ययविधानात् यद्यपि कोपे हामशब्दः सुवर्ण दृष्टस्तथापि शब्दानामनेकार्थत्याद् रजतार्थ आदृतः, तथा 'रुप्पपट्टे' रूप्यपट्ट:-रूप्यमयः शाशविकः 'मपोगासे' रुपावभाम:रूप्यवद्-रजवत् सर्वतोऽवभासः प्रकाशो भामरत्वेन यस्य स तथा एतदेव स्पष्टमाचष्टे 'सव्वरुप्पामए' सर्वरूप्यमयः सर्वात्मना रूप्यमयः रजतमय इति, तथा 'मापी य रुक्मी च 'इत्थ' अत्र-अस्मिन् रुक्मिणि पर्वते 'देवे' अधिपः परिवसतीत्युत्तरेणान्वयः, स च कीदृशः? इत्याह-महिद्धीए जाव पलिओवमहिईए' महद्धिको यावत् पल्योपमरिधनिकः, अत्र यावत्पदेन राजधानीयां अपने २ फूटों की उत्तरदिशा में है। सेकेणटेणं भते ! एवं बुच्चड़, रूप्पीवासहरपचए २' हे भदन्त ! रक्मी वर्षधर पर्वत ऐसा नाम आपने किस कारण से कहा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! स्पीणाम घासहर• पव्वए रूप्पी रूपपट्टे रूप्पोभासे सघल्पामप, रूप्पी य इत्थदेवे पलिओवमहिईए परिवसई' हे गौतम ! यह पर्वत रजनमय चांदीका है तथा रजतमय चांदी ही इसका भासुर होने से प्रकाश होता है एवं यह सर्वात्मना रजतमय है इस कारण इस वर्षधर पर्वत का नाम रूक्मी ऐसा कहा गया है । यद्यपि कोशमें रूक्म शब्दका अर्थ मिलता है परन्तु वह अर्थ जो यहां नहीं लिया गया है और चांदी ऐसा जो अर्थ लिया गया है वह 'शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं। इस कथन के अनुसार लिया गया है यहां रूक्म शब्द से नित्य अर्थ में इन् प्रत्यय हुआ है तथा यहां
पातपाताना टोनी उत्तर शिम भावसी छे 'से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ रुप्पी वासहरપંડ્યા રહે ભદંત! રૂફમી વર્ષધર એવું નામ આપશ્રીએ શા કારણથી કહ્યું છે? એના P4ममा प्रभु ४ ठे-'गोयमा ! रुप्पीणाम वासहरपव्वए रुप्पी रुप्पपट्टे रुप्पोभ.से सव्व. रुप्पामए, रुप्पीय इत्थ देवे पलिओयमदुिई परिवसई' गौतम ! म त २४तभय-मेट કે ચાંદીને છે તેમજ રજતમય ચાંદી જ આને ભાસુર હોવાથી પ્રકાશ હોય છે, તેમજ આ સર્વાત્મના રજતમય છે. આથી આ વર્ષધર પર્વતનું નામ રમી એવું કહેવામાં આવેલ છે. જો કે કેષમાં રુમ શબ્દને અર્થ સુર્વણ આપે છે પરંતુ તે અર્થ અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું નથી, અને ચાંદી એ જે બર્થ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે તે “શબ્દના અનેક અર્થે થાય છે. આ કથન મુજબ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. અહીં રુમ શબ્દથી નિય અર્થમાં રૂનું પ્રત્યય થયો છે. તેમજ અહીં રુફમી નામે દેવ રહે છે. આ જૈવ
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवनिरूपणम्
५ सङ्ग्राह्यपदानां सङ्ग्रहः सार्थोऽष्टमसूत्रटीकातो बोध्या, एतादृशो देवः परिवसति तदधिपकत्वाच्च रुक्मीति स व्यवह्रियते तदेवाह-'से एएणेटेणं' सः रुक्मी वर्षधरपर्वतः एतेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन रजतमयत्वरुक्मिदेवाधिष्ठितत्वैतदुभयेन कारणेन 'गोयमा' गौतम ! ‘एवं वुच्चइत्ति' एवमुच्यत इति । अथ पष्ठं वर्षधरं वर्णयितुगुपक्रमके–'कहिणं भंते !' इत्यादि क्व खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'हेरण्णयए णाम' हैरण्यवतं नाम 'वासे' वर्ष 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् ? 'गोयमा' गौतम ! 'रुपिस्स' रुक्मिणो वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरेणं उत्तरेणउत्तरदिशि 'सिहरिस्स' शिखरिणः-अनन्तरं वक्ष्यमाणस्य वर्षधरपर्वतस्य दक्खिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'पुरस्थिमलवणसमुदस्स’ पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि पच्चस्थिमलवणसमुहस्स' पश्चिमलवणसमुद्रस्य 'पुरस्थिमेणं पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्रअत्रान्तरे 'ग' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'हिरण्णवए वासे' हैरण्यवतं वर्ष 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् ‘एवं' एवम्-पूर्वोक्ताभिलापानुसारेण 'जहचेव' यथैव-येनैव प्रकारेण 'हेमवयं' हैमवतं पर रूक्मी नामका देव रहता है यह महद्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाला है यहां यावत्पद से संग्राह्य पदों को जानने के लिये अष्टम सूत्र देखना चहिये अतः इन सब के संयोग से इसका नाम रुक्मी ऐसा कहा गया है यही बात 'से एएढे णं गोयमा एवं बुच्चई' इस सूत्र द्वारा पुष्ट की गई है । 'कहिणं भंते ! जवुद्दीवे २ हेरपणवए णामं वासे पण्णत्ते' हे भदन्त ! हैरण्यवत नामका क्षेत्र इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा! रूप्पिस्स उत्तरेणं सिहरिस्स दक्खिणेणं पुरस्थिप्रलवणसमुद्दस पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हिरण्णवए वासे पण्णत्ते' हे गौतम ! रूक्मी नामक वर्षधर पर्वत की उत्तरदिशा में तथा शिखरी नामक वर्षधर पर्वत की दक्षिणदिशा में, पूर्वदिश्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिमदिशा में एवं पश्चिमदिग्वर्ती लवण समुद्र की पूर्वदिशा में इस जम्बूद्वीप મહદ્ધિક યવત પપમ જેટલી સ્થિતિવાળે છે. અહીં યાવત્ પરથી સંગ્રાહ્ય પદને જાણવા માટે અષ્ટમસૂવ વાંચવું જોઈએ. એથી આ સર્વના સંગથી આનું નામ રૂફમી ये ४ामा मासु छ. मे बात से एएटेणं गोयमा! एवं वुच्चई' मा सूत्र पडे पुष्ट ४२वामां मावेसी छे. 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे २ हेरण्णवए णामं वासे पण्णत्ते' ! હૈરણ્યવત નામક ક્ષેત્ર જંબૂઢીપ નામક દ્વીપમાં કયા સ્થળે આવેલું છે? એના જવાબમાં प्रभु ४ छ 'गोयमा | रुपिस्स उत्तरेणं सिहरिस्स दक्खिणेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स पच्च त्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हिरण्णवए वासे पण्णत्ते' હે ગૌતમ! રુમી નામક વર્ષધર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં તેમજ શિખરી નામક વર્ષધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં, પૂર્વ દિગ્ગત લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ પશ્ચિમ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં આ જંબુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં હૈરણ્યવતનામક ક્ષેત્ર
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अम्बूलीपप्रतिसूत्र वर्षे 'तहचेव' तथैव तेनैव प्रकारेण 'हेरण्णवयंपि' हैरण्यवतमपि वर्ष 'माणियन्य' भणितव्य वक्तव्यम्', अथात्र हैमवतवर्षापेक्षया यो विशेपस्तं प्रदर्शयितुमाह-'णवरं नवरं केवलं 'जीवा' जीवा धनुः प्रत्यञ्चाकारप्रदेशः 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'उत्तरेणं घj' उत्तरेणउत्तरदिशि धनु:-धनुष्पृष्ठं बोध्यम् 'अवसिह' अवसिष्टं-शेपं विष्कम्भायामादि चेव' तदेव हैमवतवर्षप्रकरणोक्तमेव 'इति' इति एतद्बोध्यम् ।। ___ अथ माल्यवत्पर्यायं वृत्तवैताढयपर्वत वर्णयितुमुपक्रते-'कहिणं भंते !' इत्यादि क्व खलु भदन्त ! 'हेरण्णवए वासे' हरण्यवते वर्षे 'मालवंतपरियाए' माल्यवत्पर्यायः 'णाम' नाम 'घट्टवेयद्धपव्वए' वृत्तवैताढ्यपर्वतः 'पण्णते ?' प्रज्ञप्तः, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह'गोयमा !' गौतम ! 'सुवण्णकूलाए' सुवर्णकूलाया:-एतत्क्षेत्रवति पूर्वदियुगामि महानद्याः 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'रुप्पकूलाए' रूप्यकलायाः-एतत्क्षेत्रवर्तिपश्चिमदिग्गामि महानद्याः 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'हेरण्णवयस्स' हैरण्यवतस्य 'वासस्स' वर्पस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यनामके द्वीप में हैरण्यवत नामका क्षेत्र कहा गया है। एवं 'जह चेव हेमवयं तहचेच हेरण्णवयंपि' इस तरह जिस प्रकार की वक्तव्यता दक्षिण दिग्वर्ती हैमवत क्षेत्र की कही गई है उसी प्रकार की वक्तव्यता इस उत्तर दिश्वर्ती हरण्यवत क्षेत्र की जाननी चाहिये 'णवरं जीवा दाहिणेणं उत्तरेण धणु अवसिट नं चेवत्ति' परन्तु विशेपता यही है कि इसकी जीवा-धनुः प्रत्यञ्चाकार प्रदेश-दक्षिणदिशा में है और धनु:पृष्ठ इसका उत्तरदिशा में है बाकीका और सव विष्कम्भादि का कथन हैमवत् क्षेत्र के प्रकरण के अनुसार ही है 'कहि णं भंते ! हेरण्णवए घासे मालवंतपरिआए णामं वटवेयडपधए पण्णत्ते' हे भदन्त ! हैरण्य क्षेत्र में माल्यवत्पर्याय नामका वृत्तवैताढय पर्वत कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' सुवण्णकूलाए पच्चस्थिमेणं रूप्पकूलाए पुरथिमेणं एत्थ णं हेरण्णवयस्स चाहस्स बहुमज्झदेसभाए मालवंतपरियाए णानं वटवेयड्ढे भाव 2. 'एवं जहचेव हेमवयं तहचेव हेरण्णवयंपि' मा प्रभारी रे नी तव्यता દક્ષિણ દિશ્વર્તી હૈમવત ક્ષેત્રની કહેવામાં આવેલી છે તે પ્રકારની વક્તવ્યતા આ ઉત્તર हिवती २५यक्त क्षेत्रनी की . 'णवरं जीवा दाहिणेणं उत्तरेणं धणु अवसिटुं तं चेवत्ति' ५२'तु विशेषता मासी छे मेनी 41-धनुः प्रत्यय२ प्रदेश-दक्षियशामा છે અને ધનુપૃષ્ઠ એનું ઉત્તર દિશામાં છે. શેવ બધું વિધ્વંભાદિ વિષયક કથન હૈમવત क्षेत्रमा ४२ भु०४५ ॥ छ. 'कहि ण भंते ! हेरण्णवए-वासे मालवंतपरिआए णामं पट्टवेयड्ढ़ पव्वए पण्णत्ते' मान्त ! ६५य क्षेत्रमा भब्यक्त् पर्याय नामे वृत्तवैतादय पत ४या २५ मावशा छ १ सेना पसभा प्रभु ४ छे. 'गोयमा सुवण्णफूलाए पच्चत्थिमेणं रुप्पकूलाए पुरथिमेणं एत्थणं हेरण्णवयस्स बासस्स बहुमज्झदेसभाए मालवंतपरियाए णामं वट्टवेयड्ढे
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः रु. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम्
५३६ देशभागे 'मालवंतपरियाए' माल्यवत्पर्यायः 'गाम' नाम 'वट्टवेयद्धे' वृत्तवैताढ्यः पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, अय वर्णनेऽनुसरणीयपर्वतमाह-'जहचेव सदावई' यथैव येनैव प्रकारेण शब्दापाती वृत्तवैताढयपर्वतो वर्णितः 'तहचेव' तथैव तेनैव प्रकारेण 'मालवंतपरियाए वि माल्यवत्र्यायोऽपि वृत्तवैताढयपर्वतो वर्णनीयः, अथास्य शब्दापातिवृत्तवैताढयपर्वतापेक्षया नामार्थे विशेष प्रदर्शयितुमाह-'अहो' अर्थः माल्यवत्पर्यायेतिनामार्थ:तत्कारणं हि 'उप्पलाई उत्पलानि चन्द्रविकाशीनि कमलानि 'पउमाई पद्मानि-सूर्य विकाशीनि कमलानि इदमुपलक्षणं तेन कुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्रशतसहस्रपत्राण्यपि ग्राह्याणि तानि कीदृशानि इत्याह-'मालवंतप्पभाई' माल्यवत्प्रभाणि-माल्यवत्पर्वताकाराणि 'मालवंतवण्णाई' माल्यवद्ववर्णानि-माल्यवत्पर्वतवर्णकानि मालवंतवण्णाभाई' माल्यवत्वर्णाभानि-माल्यवत्पर्वतवर्णप्रतिभासानि, तद्योगादयं माल्यवत् पर्याय इत्येवमुच्यते तथा 'पभासे य इत्थ देवे' प्रभासश्चात्र देवः अत्र-अस्मिन् गिरौं प्रभासनामा देवः परिवसतीति परेणान्वयः स च कीदृशः ? इत्याह-'महिदीए जाव पलिओवमहिईए' महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिक:-अत्र यावत्पदसङ्ग्राह्यपदानां साथैः सङ्ग्रहोऽ. ष्टमसूत्रव्याख्यातो बोध्या, एतादृशो देवः 'परिवसई' परिवसति 'से तेणटेणं' सः माल्यवपण्णत्त' हे गौतम ! सुवर्णकला महानदी की पूर्वदिशा में, हैरण्यवत क्षेत्र के बहुमध्य देश में माल्यवन्त पर्याय नामका वृत्तवेताढय पर्वत कहा गया है। 'जहचेव सद्दावई तह चेव मालवंत परियाए वि' इसका वर्णन संबंधी प्रकार शब्दापाती नामक वृत्तवैताढय पर्वत के जैसा ही है। 'अट्ठो उप्पलाई पउमाई मालवंतपभाई मालवंत वण्णाई मालवन्तवण्णाभाई पभासेअ इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलि भोवमट्टिईए परिवसई' इसका माल्यवन्त पर्याय ऐसा जो नाम कहा गया है उसका कारण यहां के उत्पलों एवं कमलों का माल्यवन्त की प्रभावाले, माल्यवन्त के जैसे वर्णवाले और माल्यवन्त के वर्ण की प्रभावाले होता है तथा यहां पर प्रभास नामका देव रहता है जो कि महद्धिक यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाला है । 'से एएणटेण' इस कारण हे गौतम ! इसका नाम माल्यवन्त पर्याय पण्णत्ते गौतम! सुवर्ण । महानहीनी पश्चिम दिशाम तथा ३न्य सा महानहीनी પૂર્વ દિશામાં, હૈરણ્યવત ક્ષેત્રના બહુ મધ્ય દેશમાં માલ્યવત પર્યાય નામક વૃત્તતા ५मावा छे. 'जह चेव सदावई तह चेव मालवंतपरियाए वि' मानु न शहा. पाती नाम वृत्त वैतादय ५१ त ४ छे. 'अटो उप्पलाई मालवंतप्पभाई मालवंतवण्णाई मालवंतपण्णाभाई पभासे अ इत्थ देवे महिद्धीए पलिओवमट्टिईए परिवसई मेन २ માલ્યવન્ત પર્યાય એવું જે નામ કહેવામાં આવેલું છે, તેનું કારણ એ છે કે અહીંના ઉત્પલે અને કમળાની પ્રભા માલ્યવંત જેવી વર્ણવાળી પણ છે. તેમજ અહીં પ્રભાસ નામક ३१ .त व भव यावत् मे पक्ष्यापम रेटली यतिवाणी छे. 'से एएणट्रेणं.' मथी गौतम ! मेनु नाम भायत पर्याय मे रामपामा माव्यु छ. 'रायहाणी उत्त.
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- जम्बूद्वीपप्रमप्तिसूब त्पर्यायः तेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन एवमुच्यते-माल्यवत्पर्याय इति, अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरेणंति' उत्तरदिशि इति बोध्यम्, अथ हैरण्यवननामार्थ प्रकाशयितुमुपक्रमते'से केणटेणं भंते ! इत्यादि-अथ हैरण्यवतस्वरूपनिरूपणानन्तरं केन अर्थेन-हेतुना भदन्त ! 'एवं' वुच्चइ' एवमुच्यते 'हेरण्णवए वासे २ ?' हैरगवतं वर्षम् २१, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'हेरण्णवए णं वासे औरण्यवतं खलु वर्ष क्षेत्रम् 'रुप्पी सिहरीति' रुक्मि शिखरिभ्यां 'वासहरपचएहि वर्षधरपर्वताभ्यां 'दुहओं' द्विधातः उमयोदक्षिणोत्तरपार्श्वयोः 'समवगूढे' समाश्लिष्टं-कृतसीमाकमित्यर्थः, तामयसमालिप्टत्वादस्य हैरण्यवतमिति नाम व्यवहियते, तथाहि हिरण्यपदेन स्वर्णरूप्योभये गृह्यते तदस्त्यनयोरिति हिरण्यवन्तो रुक्मि शिखरिणी, तयोरिदं हैरण्यवतं रूप्यस्वर्णमयरुक्मिशिखरिसम्बन्धि एवं तयोयोगातू हैरण्यवतमिति नम वोध्यम् यद्वा 'गिच्छ नित्यं 'हिरणं' हिरण्यं 'मुंचई' मुञ्चति न्य नति णिच्चं' नित्यं 'हिरणं' हिरण्यं पगासई' प्रकाशयति-तत्रतत्र प्रदेशे ऐसा कहा गया है 'रायहाणी उत्तरेणंति' इस देवकी राजधानी इस पर्वत की उत्तरदिशा में है। ले केणटे णं भंते ! एवं बुच्चह हेरण्णवएवासे २' अब गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! आपने किल कारण को लेकर हैरण्यवत क्षेत्र ऐसा नाम कहा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! हेरण्णवए णं वासे रूप्पीसिहरीहिं वासहरपन्चएहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हिरणं दलइ णिच्चं हिरगणं मुंचइ, णिच्चं हिरण्यं पगालइ, हेरण्णवए अ इत्थ देवे परिवसइ से एए पट्टणं ति' हे गौतम! हैरण्यवत क्षेत्र, दक्षिण और उत्तर पार्श्वभागों में कमी और शिखरी इन दो वर्षधर पर्वतों से घिरा हुआ है-इसी कारण इसका नाम हैरण्यवत क्षेत्र हुआ है तात्पर्य ऐसा है-हिरण्य पद स्वर्ण और रूप्य इन दोनों का ग्राहक होता है अतः रूपमी और शिखरी इन दोनों वर्षधर पर्वतों का यहां इस पद से ग्रहण हो जाता है इसी कारण इसका नाम हैरण्यवत क्षेत्रऐसा रेणति' मा पनी धानी मा पतनी उत्तर दिशामा मावली छ. 'से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ हेरण्णवए वासे २' हवे. गौतमै प्रभुन मा तना प्रश्न ये छ ! આપશ્રીએ શા કારણથી હૈમવંત ક્ષેત્ર એવું નામ કહ્યું છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે 'गोयमा ! हेरण्णवए णं वासे रुप्पी सिहरीहिं वासहरपब्वएहि दुहओ समवगूढे णिच्चं हिरणं दलइ णिच्चं हिरणं मुंचइ, णिच्चं हिरण्णं पगासइ हेरण्णवए अ इत्थ देवे परिवसइ से एएજÈળ તિ” હે ગૌતમ! હૈરણ્યવત ક્ષેત્ર દક્ષિણ અને ઉત્તર પાર્થભાગમાં રુકમી અને શિખરી એ બે વર્ષધર પર્વતોથી અવૃત છે. એ કારણથી જ એનું નામ હૈરણ્યવત ક્ષેત્ર એવું પ્રસિદ્ધ થયું છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે હિરણ્ય પર સ્વર્ણ અને સુખ એ બને અને વાચક છે. એથી રુકમી અને શિખરી એ બન્ને વર્ષધર પર્વતનું અહીં આ પદથી ગ્રહણ થઈ જાય છે. આ કારણથી જ એનું નામ હૈરયવત ક્ષેત્ર એવું કહેવામાં આવેલું છે. કેમકે
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प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कार: सू. ४४ रम्यकवर्ष निरूपणम्
दर्शन नोहारितया प्रकटी करोति जनेभ्य इति शेषः, अयं भावः तत्र युग्मकमनुष्याणामासनशयनादि लक्षणोपभोगार्थ बहवो हिरण्यमयाः शिलापट्टाः सन्ति तांच तत्रत्या मानवा आसनादिरूपतयोपभुज्जन्ते ततश्च हिरण्यं प्रशस्तं नित्यं प्रचुरं वाऽस्यास्तीति हिरण्यवत तदेव हैरण्यवतं स्वार्थिकाय् प्रत्ययान्तमिदम् इति । नामकारणान्तरमाह - ' हेरण्णवए य इत्थ देवे' हैरण्यवतश्चात्र देवः 'परिवसई' परिवसति स च देव महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः, एतद्विवरणं प्राग्वद्बोध्यम् तेन हैरण्यवतदेव स्वामिकत्वादिदं हैरण्यत्रतमित्युच्यते, अथ पष्टं वर्षधरपर्वतं वर्गयितुमुपक्रमते - 'कहिणं भंते !' इत्यादि-वव खल भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'सिहरीणामं ' शिखरीनाम 'वासहरपव्वए' वर्षधरपर्वतः पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः १, इति प्रश्नन्य भगवानुत्तरमाह - 'गोयमा !' गौतम ! 'हेरण्णवयस्स' हैरण्यवतस्य वर्षस्य 'उत्तरेणं' कहा जाता है क्योंकि यह रूप्यमय और स्वर्णमय रुक्मी एवं शिखरी पर्वतों से सम्बन्धित है अतः इनके योग से इसका नाम हैमवत ऐसा हो गया है । अथवा - यह नित्य सुवर्ण को देता है नित्य स्वर्ण को छोडता है नित्य स्वर्ण को प्रकाशित करता है तात्पर्य इसका ऐसा है कि वहां पर अनेक स्वर्णमय शिला पक है अतः वहां के युग्मक मनुष्य आसन शयन आदिरूप उपभोग के -निमित्त इनका उपयोग करते रहते हैं इससे ऐसा कहा जाता है कि यह क्षेत्र नित्य स्वर्ण प्रदानादि करता है हैरण्यत में स्वार्थिक अणु प्रत्यय हुआ है तथा यहां पर हैरण्यवत् नामका देव रहता है यह देव महर्द्धिक यावत् एक 'पत्योपम की स्थिति वाला है इस कारण से भी इसका नाम हैरण्यवत क्षेत्र ऐसा कहा गया है । 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे सिहरीणामं वासहरपव्व पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में शिखरी नामका वर्षधर पर्वत कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! हेरण्णवयस्स उत्त
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આ રુખ્યમય અને સ્વર્ણમય રુમી અને શિખરી પતેથી સંબંધિત છે. એટલા માટે એમના ચેગથી એનુ નામ હૈમવત એવુ' પ્રસિદ્ધ થયુ' છે. અથવા આ પર્વત નિત્ય સુવણું આપે છે, નિત્ય સુવણુ મહાર કાઢે છે, નિત્ય સુવર્ણન પ્રકાશિત કરે છે તાત્પય` આમ છે કે આ પર્વત ઉપર અનેક સ્વમય શિલા પકે છે, એથી ત્યાંના યુગ્મક મનુષ્યે આસન શયન આહિં રૂપ ઉપભેગ માટે એમને ઉપયેગ કરે છે. એથી આમ કહેવાય છે કે આ ક્ષેત્ર નિત્ય સુવર્ણ પ્રદાનાદિ કરે છે. હેરણ્યવતમાં સ્વાકિ અણુ પ્રત્યય થયેલ છે. તેમજ અહી હૈરણ્યવત નામક ધ્રુવ રહે છે. આ દેવ મહદ્ધિક યાવત એક પાપમ જેટલી સ્થિતિવાળા छे. मेथी षणु भानु नाम सैरएयवत क्षेत्र मेवु 'हेवामां आवे
छे. 'कहिणं भंते!
भूद्रीय नाम द्वीयभां જવાખમાં પ્રભુ કહે છે—
जंबुद्दीवे दीवे सिहरी णामं वासहरपव्वर पण्णत्ते' हे लत! मा શિખરી નામક વર્ષધર પર્વત કયા સ્થળે આવેલા છે? એના
- 'गोयमा ! हेरण्णवयस्स उत्तरेणं एरावयास दाहिणेणं पुरत्थिमलवणसमुदस्स पण्चत्थिमेणं
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जम्बूद्वीपप्राप्ति उत्तरेण-उत्तरदिशि 'एरावयस्स' ऐरावतस्य वक्ष्यमाणस्य सप्तमवर्षस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेनदक्षिणदिशि 'पुरस्थिमलवणसमुहस्स' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य-पूर्वदिग्वदिलवणसमुद्रस्य 'पञ्चस्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'पच्चत्थिमलवणसमुहस्स' पश्चिमलपणसमुद्रस्स 'पुरन्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि ‘एवं' एवम्-पूर्वोक्ताभिलापानुसारेण 'जाचेव' यथैव येनैव प्रकारेण 'चुल्लहिमवंतो' क्षुद्राहिमवान् प्रथमवर्षधरपर्वतो वर्णितः 'हचेव' तथैव तेनैव प्रकारेण 'सिहरीवि' शिखर्यपि पष्ठो वर्षधरभृधरो वर्णनीयः ।
अथात्र क्षुद्रहिमवदपेक्षया कंचिद्विशेष प्रवर्गयितुमाह-'णवरं' नवरं-केवलं 'जीवा' जीवा धनुः प्रत्यञ्चाकारप्रदेशः 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'धणुं उत्तरेणं' धनु:-धनुप्पृष्ठम् उत्तरेण-उत्तरदिशि प्रज्ञप्तम् 'अवसिर्ट' अवशिष्टं शेपं विष्कम्भायामादिकं 'तं चेव' तदेव क्षुद्रहिमवत्प्रकरणोक्तमेव बोध्यम्, तथा 'पुंडरीए दहे' पुण्डरीको हृदः, ततो निर्गता 'मुवण्णकूला महाणई' सुवर्णकूला नाम महानदी 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणतोरणेन प्रवहन्ती रेणं एरावयस्स दाहिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्यिमेणं, पच्चत्थिमलवण. समुदस्स पुरथिमेणं एवं जह चेव चुल्लहिमवंतो तहवेव सिहरीवि णवरं जीवा दाहिणेणं धणु उत्तरेणं अवस्टुिं तं चेव' हे गौतम ! हैरण्यवत क्षेत्र की उत्तरदिशा में तथा ऐरावत क्षेत्र की दक्षिण दिशा में, पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिमदिशा में, और पश्चिमदिग्ची लवणसमुद्र की पूर्वदिशा में क्षुल्ल-क्षुद्रहिमवान् प्रथम वर्षधर पर्वत के जैसा यह छठा शिखरी वर्षधर पर्वत कहा गया है शिखरी पर्वत का वर्णन जैसा प्रथम क्षुद्रहिमवानू पर्वत का वर्णन पहिले किया गया है वैसा ही है 'णवरं' परन्तु 'जीचा दाहिणेणं धणु उत्तरेणं अवसिडें तं चेव' इस कथन के अनुसार इसकी जीवा दक्षिणदिशा में है और धनुष्पृष्ठ उत्तरदिशा में है, बाकी का और सब आयामविष्कम्भादि का कथन प्रथम वर्षधर पर्वत के जैसा ही है 'पुंडरीएदहे, सुवण्णकूला महाणई, दाहिणेणं णेयत्वा' इसके ऊपर पुंडरीक नामका हूद है इसके दक्षिण तोरण द्वार से सुवर्णकूला नामकी पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरात्थिमेणं एवं जहचेव चुल्लहिमवंतो तहचेव सिहरीव णवरं जीवा दाहिणेणं धणु उत्तरेणं अवसिटुं तं चेव' हे गौतम! २९यक्त क्षेत्रनी उत्तर दिशामा तथा અરવત ક્ષેત્રની દક્ષિણ દિશામાં પૂર્વદિવતી લવણસમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં અને પશ્ચિમ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં ક્ષુલ્લ–સુદ-હિમવાનું પ્રથમ વર્ષધર પર્વત જેવા આ છઠો શિખરી વર્ષધર પર્વત કહેવામાં આવે છે. જે પ્રમાણે પ્રથમ ક્ષુદ્ર હિમવાન પર્વતનું વર્ણન પહેલાં કરવામાં આવેલું છે, તેવું જ વર્ણન શિખરી પર્વતનું પણ समा. 'णवरं' ५२. 'जीवा दाहिणणं धणं उत्तरेणं अवसिद्रं तं चेव' मा કથન મુજબ એની જીવા દક્ષિણ દિશામાં છે અને ધનુપૃષ્ઠ ઉત્તર દિશામાં છે. શેષ બધું मायाम-वि०४ पोथी समा ४थन प्रथम १५२ पत २९ छ 'पुंडरीए दहे, सुवण्णकूला महाणई, दाहिणेणं णेयवा' मनी ५२ धुरी नाय छ, यना क्षण
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् 'णेयव्या' नेतच्या बोध्या । अथास्याश्चतुर्दशनदीसहस्रपरिवारादियुत नदीदृष्टान्तमाह-'जहा. यथा 'रोहियंसा' रोहितांशानदी पाहूदस्यौत्तरेण तोरणेन निर्गत्य पश्चिमदिशि लवणसमुद्रं गच्छति तथेयम् 'पुरस्थियेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'गच्छइ' गच्छति पूर्वलवणसमुद्रं समुपैति सुवर्णकूला दक्षिणतोरणेन पुण्डरीकहदानिर्गत्य पूर्वलवणसमुद्रं पूर्वाभिमुखवाहिनी सती समुपैति रोहितांशा सुवर्णकूलयोदृष्टान्तदान्तिकभावो हृदनिर्गमननदीपरिवारहैरण्यवर्षगमनलवणसमुद्रगमनादि साम्यमभ्युपेत्य न तु दिक्साम्यम् ‘एवं' एवं पूर्वोक्ताभिलापानुसारेण सुवर्णकूलालघा रोहितांशा नदी दृष्टान्तत्वरीत्या 'जह चेव' यथैव 'गंगा सिंधुओ' गङ्गासिन्धू महानद्यौ-प्राग्वणिते 'तह चेव' तथैव 'रत्तारत्तवईओ' रक्तारक्तवत्यो ‘णेपच्चाओ' नेतव्ये वोध्ये अनयो दिग्भेदं प्रदर्शयितुमाह-'पुरस्थिमेणं रत्ता' पौरस्त्येन पूर्वदिशि रक्ता रक्ताभिधा महानदी निकली है 'जहा रोहियंका' जिस प्रकार रोहिताशा नदी पद्माद के उत्तरदिग्वर्ती तोरणद्वार हे निकल कर पश्चिमदिशा की ओर पश्चिम लवणसमुद्र में मिलती है उसी प्रकार से यह नदी पूर्वदिशा की और जाकर पूर्वलवण समुद्र में मिलती है सुवर्णकूला महानदी पुण्डरीक हूद से दक्षिण तोरण द्वार से निकल कर पूर्व दिशा की ओर बहती हुई पूर्व लवण समुद्र में मिलती है, यह
रोहितांशा एवं सुवर्णकूला इन दोनों में जो दृष्टान्त दार्शन्तिक भाव प्रदर्शित किया गया है वह हूद निर्गमन, नदीपरिवार, हैरण्यवत गमन एवं लवणसमुद्रः गमन आदि को लेकर ही प्रदर्शित किया गया है, दिक्साम्य को लेकर नहीं 'एवं जह चेव गंगा सिंधूओ तह चेव रत्तारत्तवईओ णेयव्चाओ' जिस प्रकार से गंगा और सिन्धु इन दो महानदियों का वर्णन किया गया है उसी प्रकार से रक्ता और रक्तवती नदियों का वर्णन, जानना चाहिये इनमें पूर्वदिशा की ओर रक्ता नामकी महानदी वहनी है पूर्वदिशा की ओर बहनेवाली महानदी पूर्वतl२५५ द्वारथी सुवर्णा नामे महानही नीजी छ. 'जहा रोहियसा' तिनी પહદના ઉત્તર દિવતી તરણ કારથી નીકળીને પશ્ચિમ દિશા તરફ પશ્ચિમ લવણું સમુદ્રમાં પ્રવેશે છે તેમજ આ નદી પૂર્વ દિશા તરફ પ્રવાહિત થઈને પૂર્વ લવણ સમુદ્રમાં પ્રવેશે છે. સુવર્ણ ફૂલા મહાનદી પુંડરીક હૃદથી, દક્ષિણ તરણ દ્વારથી નીકળીને પૂર્વ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી પૂર્વ લવણસમુદ્રમાં પ્રવેશે છે. આ રેહિતાંશા તેમજ સુવર્ણ ફૂલા એ બન્નેમાં જે દષ્ટાન્ત અને રાષ્ટ્રતિક ભાવ પ્રદર્શિત કરવામાં આવેલ છે તે હદ નિર્ગમન, નદી પરિવાર, હૈરણ્ય ગમન તેમજ લવણસમુદ્ર ગમન વગેરેને લઈને જ પ્રદર્શિત કરવામાં આવે છે.
साभ्यने सन नहि. 'एवं जह चेव गंगासिंधूओ तहचे रत्तारत्तवईओ 'णेयव्वाओं' જે પ્રમાણે ગંગા અને સિંધુ એ બે મહાનદીઓનું વર્ણન કરવામાં આવેલું છે. તે પ્રમાણે રક્તા અને રક્તવતી નદીઓનું વર્ણન પણ સમજી લેવું જોઈએ. એમાં પૂર્વ દિશા તરફ રતા નામક મહાનદી વહે છે અને પશ્ચિમ દિશા તરફ રક્તવતી નામની મહાનદી વહે છે,
ज०६८
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जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे
नदी 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन - पश्चिमदिशि 'रत्तवई' रक्तवती नाम नदी प्रवहति 'अवसिहूं' अवशिष्टं विष्कम्भायामनदीपरिवारादि 'तं चेव' तदेव गङ्गासिन्धु महानदीप्रकरणोक्तमेव सर्वम् 'अवशेपं भणितव्यमिति' अथैतद्वर्तिकूटानि वर्णयितुमुपक्रमते - 'सिद्दरिम्मि णं भंते । इत्यादि शिखरिणि प्राग्वर्णितस्वरूपे 'वासहरपव्वए' वर्षधरपर्वते खलु भदन्त ! 'क' कति किम्प्रमाणानि 'कूडा ' कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि ?, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह - 'गोयमा ।' गौतम ! 'इकारस' एकादश 'कूडा' कूटानि 'पण्णत्ता' ' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा ' तद्यथा - 'सिद्धाययणकूटे' सिद्धायतनकूटम् इदं पूर्वस्यां दिशि वर्तते १ ततः क्रमेण 'सिहरिकुडे' शिखरिकटं शिखरिवर्पधरपर्वतनाम्ना प्रसिद्धं कुटम् २, 'हेरण्णवयकडे' हैरण्यवतकूटं - हैरण्यवत क्षेत्रदेवकूटम् ३, 'सुवण्णकूलाकूडे' सुवर्णकूला कूटं सुवर्णकूलानदी देवीकूटम् ४, 'मुरादेवीकू डे' सुरादेवीकूटं सुरादेवी दिक्कुमारीकूटम् ५, 'रत्ताकूडे ' रक्तकटं रक्तावर्तनकूटम् ६, 'लच्छी कूडे ' लक्ष्मीकूटं - पुण्डरीकहूददेवीकूटम् ७, 'रत्तवईकूडे ' रक्त ती कूटं - रक्तवती नदी परावर्तनकूटम् ८, लवणसमुद्र में और पश्चिमदिशा की ओर बहनेवाली महानदी पश्चिम लवणसमुद्र में मिलती है ऐसा जानना चाहिये 'अवसेसं' इनका विष्कम्भ और आयामादि का परिमाण कथन तथा नदी परिवार आदि का कथन 'तं चेव' गंगा सिन्धु महानदी के प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही है 'सिहरम्मि णं भंते! वासहर पच्चए कह कूडा पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस शिखरी नामके वर्षधर पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! इक्कारस कूडा पण्णत्ता' हे गौतम! इस शिखरी नामके वर्ष घर पर्वत पर ११ कूट कहे गये हैं । 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं 'सिद्धाययणकूडे सिहरिकूडे हेरण्णचय कूढे, सुवण्णकूलाकडे, सुरादेवीकूडे, रत्ताकूडे, 'लच्छीकुडे, रक्तवईकडे इलादेवी कुडे, एरवयकूडे, तिगिच्छिकूडे' सिद्धायतनकूट १, शिखरिकूट २, हैरण्यवतकूट ३,
,
પૂર્વ દિશા તરફ પ્રવાહિત થનારી મહા નદી પૂલવણુસમુદ્રમાં અને પશ્ચિમ દિશા તરફ वडेनारी भडानही पश्चिभावसमुद्रमा प्रवेशे छे. खेम 'लगी सेवु' ले 'अवसेसं' એમના વિષ્ણુભ અને આયામાદિ પરિમાણુ વિશેનુ શેષ થન તથા નદી પરિવાર વગેરેથી संभद्ध भ्थन ‘तं चेत्र' गंगा-सिन्धु महानहीना अरमां ने प्रभावामां आवेलु छे, , अभा ४ छे. 'सिहरम्मि णं भंते! वासहरं पव्त्रए कइ कूडा पण्णत्ता' हे महन्त ! भ्या શિખરી નામક વધર પર્યંત ઉપર કેટલા ફૂટે કહેવામાં આવ્યા છે? જવાખમાં પ્રભુ કહે છે કે 'गोयमा ! इक्कारस कूडा पण्णत्ता' हे गौतम! मी शिमरी नाभ४ वर्षधर पर्वत ७५२ ११ झूटो भावेला छे. 'सं जहा' ते टीना नाम मा प्रभा - 'सिद्धाययणकूड़े, सिहरिकूडे, हेरण्णवयकूडे, सुवण्णकूलाकूडे, सुरा देवी कूडे, रत्ताकूडे, लच्छी कूडे, रत्तवई कूडे, इलादेवी कूडे, एरवयक्कूडे, तिगिच्छ्कुडे' सिद्धायतन ट १, शिरि २, डैश्एयवत छूट 3, सुवार्थ सा
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम्
.५३९ 'इलादेवीकूडे' इलादेवीकूटम्-इलादेवीदिक्कुमारीकूटम् ९. 'एरवयकूडे' ऐरवतकूटम्ऐरावतवर्षाधिपकूटम् १०, 'तिगिच्छिकूडे' तिगिच्छिहूददेवकूटम् ११ एवं' एवम्-अनन्तरोतानि 'सव्वेवि' सर्वाण्यपि 'कूडा' कूटानि 'पंचसइया' पञ्चशतिकानि पञ्चशतयोजनप्रमाणानि बोध्यानि एषां 'रायहाणीओ' राजधान्यः 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि बोध्याः, अथास्य नामार्थ प्रष्टुमाह-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि अथ शिखरिस्वरूपनिरूपणानन्तरं केन अर्थेन कारणेन भदन्त ! 'एवमुच्चइ' एवमुच्यते 'सिहरिवासहरपब्वए २ ?' शिखरिवर्षधरपर्वतः २१, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा ! गौतम ! 'सिहरिम्मि' शिखरिणि 'वासहरपव्वए' वर्षधरपर्वते सिद्धायतनाघतिरिक्तानि 'बहवे' बहूनि 'कूडा' कूटानि 'सिहरिसंठाणसंठिया' शिखरिसंस्थानसंस्थितानि-वृक्षाकारसंस्थितानि 'सव्वरयणामया' सर्वरत्नमसुवर्णकलाकूट ४, सुरादेवीकूट, ५, रक्ताकूट ६, लक्ष्मीकूट ७, रक्तवतीकूट ८, इलादेवीकूट ९, ऐरवतकूट १०, और तिगिच्छिकूट ११ इनमें सिद्धायतनकूट इस पर्वत की पूर्वदिशा में है। शिखरी वर्षधरपर्वत के नाम से प्रसिद्ध द्वितीयकूट है हैरण्यवत क्षेत्र के देवका तृतीय कूट है सुवर्णकूला नदी की देवी का चतुर्थ कूट है सुरादेवी नामकी दिक्कुमारी का पांचवां कूट है रक्तावर्तन कूटका नाम रक्ताकूट है यह छठा कूट है पुण्डरीक हूद की देवी का ७ वां कूट है रक्तवती नदी का जो परावर्तन कूट है वह ८ वां कूट है इला देवी नामकी दिक्कुमारी का ९ वां कूट है ऐरावत क्षेत्र के अधिपति देवका १० वां कूट है तथा तिगिच्छि हद देवका ११ वां कूट है 'सन् वि एए पंचसइया, रायहाणीओ उत्तरेणं' ये सब कूट ५०० ५०० योजन प्रमाण वाले हैं इनके देवों की राजधानियां अपने अपने कूटों की उत्तरदिशा में हैं 'से के णटे णं भंते ! एवं वुच्चई सिहरिवासहरपब्वए' हे भदन्त ! इसका शिखरी वर्षधर पर्वत ऐसा नाम क्यों पडा ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं दूट ४, सुहेवी छूट ५, २४तावी छूट ६, सभी एट ७, २४तात ट ६, साहवा कूट-०, અરવત ફૂટ–૧૦ અને તિગિ૭ ફૂટ એમાં જે સિદ્ધાયતન ફૂટ કહેવામાં આવેલ છે તે આ પર્વની પૂર્વ દિશામાં આવે છે. શિખરી વર્ષધર પર્વતના નામથી પ્રસિદ્ધ દ્વિતીય કૂટ છે. હૈદણ્યવત ક્ષેત્રના દેવને તૃતીય ફૂટ છે. સુવર્ણ કૂલા નદીની દેવીને ચતુર્થ ફૂટ છે. સુરા દેવી નામક દિકુમારીનો પંચમ ફૂટ છે. રક્તાવન ફૂટનું નામ રક્તા કૂટ છે. આ ષષ્ઠ ફૂટ છે. પુંડરીક હદની દેવીને સપ્તમ ફૂટ છે. રક્તવતી નદીને જે પરાવર્તન કૂટ છે, તે અષ્ટમ કૂટ છે ઈલાદેવી નામની દિકકુમારીને નવમ કૂટ છે ઐરાવત ક્ષેત્રના અધિપતિ वन शमट छ तथा तिरछ । हेवन। मनियारभाट छे. 'सव्वे वि एए पंच. सइया रायहाणीओ उत्तरेणं' से मधाळूट। ५००, ५०० यान प्रभावामा छ. अमना हेवानी Rधानीमापात-पाताना टोनी उत्तर दिशाभी मावी छे. 'से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ सिहरिवासहरपव्वए' हे मत से शिमरी धर पर्वत मे नाम । रथी ५७यु छ ? सेना वाममा प्रभु ४ छे-गोयमा! सिहरिम्मि वासहरपव्वए कूड़ा
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अम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्र यानि-सर्वात्मना-रत्नमयानि सन्तीति तद्योगादयं शिखरीत्येवमुच्यते, एतेनान्यवर्षधरपर्वतो. व्यावृत्तिरस्य कृता अन्यथाऽन्येपामपि कूटवत्त्वेन शिखरिपदेन व्यवहारः स्यादिति, यद्वा 'सिहरी य इत्थदेवे' शिखरी-शिखरिनामा च अत्र-अस्मिन् शिखरिणि पर्वते देव:-अधिपः 'जाव परिवसइ' यावत् परिवसति अत्र-यावत्पदेन-महदिकादिपल्योपमस्थितिकपर्यन्तपदानामष्टसूत्रोक्तानां सङ्ग्रहो वोध्या, एतादृशो देवः परिवसति तेन तत्स्वामिकखाच्छिखरीस्येवं स उच्यते तदाह-'से तेणढण.' एतेनार्थेन इत्यादि प्राग्वत् । अथ सप्तमवर्ष वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' 'इत्यादि-क खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे "एरावए णाम' ऐरावतं नाम 'वासे' वर्ष 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तम् ? इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह'गोयमा' गौतम ! 'सिंहरिस्से' शिखरिण:-अनन्तरोक्तस्य वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरेण उत्तरेण, उत्तरदिशि 'उत्तरलवणसमुहस्स' उत्तरलवणसमुद्रस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'पुरस्थिमलवणसमुदस्स' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य 'पञ्चत्थिगेण पशिमेन-पश्चिमदिशि 'पञ्चत्थि'गोयमा ! सिहरिम्भि वासहरपव्वए कूडा सिहरिसंठाणसंठिया सव्वरयणा. मया लिहरीय इत्य देवे बहवे जाव परिवसई' हे गौतम! इस शिखरी नामके वर्षधर पर्वत पर सिद्धायतन आदि के अतिरिक्त और भी अनेक वृक्षो के आकार जैसे कूट है ये कूट सर्वात्मना रत्नमय हैं। इस कारण "शिखरी" ऐसा इनका नाम पडा है इस कथन से अन्य वर्षधर पर्वतों से इसकी भिन्नता प्रकट की गई है नहीं तो कूटवत्व होने ले अन्य पर्वतों में भी शिखरी पद वाच्यता आ जाती यहा शिखरी नामका देव यहाँ रहता है यह देव नहद्धिक आदि विशेषणों वाला है तथा इसकी आयु एक पल्योपम की है अष्टन सूत्र से यहां पर महर्दिक और पल्यापम के भीतर के विशेषणों का संग्रह हुआ जान लेना चाहिये इन्हीं कारणों को लेकर हे गौतम ! इसका ऐसा नाम कहा गया है।
'कहिणं गते ! जंबुद्दीवे दीवे एरावए णामं वाले पण्णत्ते' हे भदन्त ! जंबूद्वीप नाम के द्वीप में ऐरावत नामका क्षेत्र कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु सिहरिसंठाणसंठिया सव्वरयणामया सिहरी अ इत्य देवे वहुवे जाव परिवसई' 3 गौतम! આ શિખરી નામક વર્ષધર પર્વત ઉપર સિદ્ધાયતન વગેરે સિવાય અન્ય કેટલાક વૃક્ષેના આકાર જેવા કૂટે છે. સર્વાત્મના રત્નમય છે. એથી એનું નામ “શિખરી? એવું પડયું છે. આ કથનથી અન્ય વર્ષધર પર્વતેથી એની ભિન્નતા પ્રકટ કરવામાં આવેલી છે. નહિંતર કટવ હોવાથી અન્ય પર્વતેમાં પણ શિખરી, પ વાગ્યતા આવી જતી. અથવા શિખરી નામક દેવ અહીં રહે છે. આ દેવ મહદ્ધિક વગેરે વિશેષણે વાળે છે તથા એનું આયુષ્ય એક પલ્યોપમ જેટલું છે. અષ્ટમ સૂત્રમાંથી અહીં મહદ્ધિક અને પેપરની મધ્યમાં આવેલા વિશેષણને સંગ્રહ જાણવું જોઈએ. એ બધાં કારણોને લીધે એનું નામ “શિખરી स डपामा मासु छ. 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे एरावए णामं वासे पण्णत्ते लत! "આ જ ખૂલીપ નામક દ્વીપમાં એરાવત નામક ક્ષેત્ર કયા સ્થળે આવેલું છે? એિના જવાબમાં
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'प्रकाशाशि श्रीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् मलवणसमुदस्स' पश्चिमलवणसमुद्रस्य 'पुरथिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'एरावए णाम' ऐरावतं नाम 'वासे' वर्षे 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तच्च कीदृशम्-इत्याह-'खाणुबहुले' स्थाणुबहुलं कीलबहुलं 'कंटकबहुले" कण्टकबहुलम् 'एच' एवम् अनेन प्रकारेण 'जा चेव' यैव 'भरहस्स वत्तव्यया' भरतस्य वक्तव्यता 'सेव' सैव वक्तव्यताऽस्यापि वर्षस्य 'सव्वा' सर्वा, नतु शाटयेकदेशे दग्धे सर्वाशाटी दग्धेत्यादौ सर्वशब्दस्यावयवेऽपि व्यवहारस्य दर्शनादेकांशतोऽपि भरतवक्तव्यता गृह्यतेत्यत आह-'निरवसेसा' निरवशेषा-अवशेषांशरहिता वक्तव्यता 'णेयव्वा' नेतव्या-बोधविषयतां प्रापणीया बोध्येत्यर्थः, सा च वक्तव्यता कथम्भूता ? इत्याह-'सओअवणा' ससाधना-पट खण्डैरावतक्षेत्रसाधनारहिता, तथा 'सणिक्खमणा' सनिष्क्रमणा-परिव्रज्याग्रहणकल्याणकवर्णकसहिता, तस्यां सत्यामपि विशेष प्रदर्शयितुमाह-'णवरं' नवरं-केवलम् ‘एरावओ चक्कट्टी' ऐरावतः-ऐरायतनामकः चक्रवर्ती भरते भरतचक्रवर्तिवदत्र भणितव्यः तस्य भरतचक्रवर्तिन इव दिग्विजयप्रयाणादिकं वक्तव्यम् तेनैरावतस्वामिकंबादस्यैरावतमित्येवं नामोच्यते, यद्वाकहते हैं-'गोयमा ! सिहरिस्त उत्तरेणं उन्सरलवणसमुदस्स दक्खिणेणं पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे एरावए णानं वासे पण्णत्ते' हे गौतम । शिखरी वर्षधर पर्वत की उत्तरदिशा में, तथा उत्तरदिग्वर्ती लवणसमुद्र की दक्षिणदिशा में, पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिमदिशा में एवं पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पूर्व दिशा में इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में एरावंत नामका क्षेत्र कहा गया है, यह क्षेत्र 'खाणुबहुले एवं जच्चेय भरहस्स वत्तव्बया सच्चेव सव्वा निरसेसा णेयव्वा' स्थाणुबहुलहै, कंटकबहल है, इस तरह की जो वक्तव्यता पहिले भरत क्षेत्र के वर्णन प्रकरण में कही जा चुकी है वही सब वक्तव्यता पूर्ण रूप से यहां पर भी जाननी चाहिये क्यों कि भरत क्षेत्र का वर्णन एकसा है 'सओअवणा सणिक्खमणा सपरिनिव्याणा णवरं एरावओ चक्कवही एरावओ देवो, से तेजष्टेणं एरावएबासे २' भरत क्षेत्र प्रम र छे. 'गोयमा! सिहरिस्स उत्तरेणं उत्तरलवणसमुदस्स दक्खिणेणं पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुहस्त, पुरत्यिमेणं एत्यणं जंबुद्दीवे दीवे एरावए णाम वासे पण्णत्ते' है गौतम ! AAN ५५ तनी उत्त२ शाम तथा उत्तर हिवता લવણ સમદ્રની દક્ષિણ દિશામાં, પૂર્વ દિગ્ગત લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ પશ્ચિમ હિંવતી લવ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં આ જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપમાં એરવત નામક ક્ષેત્ર मावत छ. मा २ 'खाणुबहुले कंटकबहुले एवं जच्चेव भरहस्वं चत्तव्वया सच्चे सव्वा निरवसेसा णेवैव्वा' स्थार मर्डस छ. '४८४ मई छ. थे प्रमाणे २ १०५ता ५३ ભરત ક્ષેત્રના વર્ણન પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલી છે, તે પ્રમાણે જ બધી વક્તવ્યતા પૂર્ણ રૂપમાં અહીં પણ જાણું લેવી જોઈએ. કેમકે ભરતક્ષેત્ર અને એરવત ક્ષેત્રનું વર્ણન એક
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अम्बूदीपमति
'परावओ देवो' ऐरावतो देवो महर्द्धिकलादि विशिष्ट पल्योपमस्थितिकलसम्पन्नः परिवसति तेन तत्स्वामित्वादस्यैरावतमिति नाम व्यवहियते, तदाह- 'से तेणद्वेणं पुरावर वासे २' स तेनार्थेन ऐरावतं वर्षम् २ इति निगमनवाक्यं पूर्ववहनीयम् ||० ४४ || इतिश्री विश्वविख्यात - जगदवल्लभ - प्रसिद्धवाच रूपञ्च मापाकलित-ललितकला पालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनशास्त्राचार्य' - पदविभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारी जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर - पूज्यश्री - वासीलाल- प्रतिविरचितायां श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रस्य प्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां चतुर्थो वक्षस्कारः समाप्तः ४ ॥
जिस प्रकार छहखंडों से युक्त कहा गया है उसी प्रकार यह ऐरावत क्षेत्र भी छह खंडों से मंडित कहा गया है। वहां जिस प्रकार भरत चक्रवर्ती छह खंडो का शासन करता है उसी प्रकार यहां पर भी ऐरावन नामका चक्रवर्ती यहां के छह खंडो पर शासन करता है भरत चक्रवर्ती जिस प्रकार सकर संयम को धारण कर मुक्तरमा का वरण करता है उसी प्रकार यहां का ऐरावत चक्रवर्ती भी सकलसंयम धारण कर मुक्तिरमा का वरण करता है तात्पर्य कहने का यही है कि यहां की जितनी भी वक्तव्यता है वह सब भरत खंड के जैसी ही है यदि कुछ अन्तर है तो वह चक्रवर्ती के नामको लेकर ही है बाकी का और कोई अन्तर नहीं है अतः हे गौतम ! इस एरावत चकन इसका स्वामी होने से तथा ऐरावत नामक महर्दिक देवका इसमें निवास होने से इस क्षेत्र का नाम ऐरावत ऐसा कहा गया है ||४४ ॥
॥ चौथा वक्षस्कार समाप्त ॥
- सर ४ छे. 'सओअवणा सणिक्खमणा सपरिनित्र्वाणा णवरं एरावओ चक्कवट्टी एराचओ देवो, से तेणट्टेणं एरावएवासे २' लरत क्षेत्र मे प्रभा ६ भडोयो युक्त हेवामां भावेसु છે, તે પ્રમાણે જ આ અવત ક્ષેત્ર પણ ૬ ખડાથી મંડિત કહેવામાં આવેલું છે. અહીં જે પ્રમાણે ભરત ચક્રવ્રુતી હું ખડા ઉપર શાસન કરે છે તે પ્રમાણે જ અહી પણ ભૈરવત નામક ચક્રવતી અહીના ૬ ખડા ઉપર શાસન કરે છે. ભરત ચક્રવર્તી જેમ સકલ સંયમ ધારણ કરીને મુક્તિ રમાતુ’ વરણ કરે છે, તેમજ અહીંના અરવત ચક્રવતી પણ સલ સયમ ધારણ કરીને મુક્તિ રમાનુ` વરણ કરે છે. તાપ' આ પ્રમાણે છે કે અહીંની જેટલી વક્તવ્યતા 'છે તે વક્તવ્યતા સ ́પૂર્ણ રૂપમાં ભરત ખંડ જેવી જ છે. જો કંઇક તફાવત છે તે તે ફક્ત ચક્રવતીના નામને જ છે. શેષ કાઇ પણ જાતના તફાવત નથી, એથી હું ગૌતમ ! આ ભૈરવત ચક્રવતી તેના સ્વામી હાવાથી તથા અરવત નામક મદ્ધિક દેવ આ ક્ષેત્રમાં 'निवास रे छे, मेथी या क्षेत्रनु नाम अरवत मेवु वामां आवे छे. ॥ सूत्र-४४ ॥
येथे
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प्रकाशिकाटीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४५ जिनजन्माभिषेकवर्णनम्
पञ्चमवक्षस्कार प्रारभ्यते सम्प्रति यदुक्तं पाण्डुकम्बलाशिलादौ सिंहासनवर्णनाधिकारे 'अत्र जिना अभिपिच्यन्ते' तत् सिंहावलोकनन्यायेन अनुस्मरन् जिनजन्माभिषेकोत्सववर्णनार्थ प्रस्तावना सूत्रमाह"जयाण" इत्यादि।
मूलम्-जया णं एक्कमेक्के चकट्टिविजए भगवतो तित्थयरा समुप्पजंति, तेणं कालेणं तेणं समएणं अहे लोगवत्थव्वाओ अट दिसा कुमारीओ महत्तरिआओ सएहिं सएहिं कूडेहिं सएहिं सएहिं भवणेहिं सएहिर पासायवडे सएहिं, पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं चउहि महत्तरिआहिं सपरिवाराहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तएहिं अणिआहिवईहिं सोलसएहिं आयरक्खदेवसाहस्तीहि अण्णेहिय बहूहिं भवणवइवाणमंतरेहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडाओ महयाहयणगीयवाइय जाव भोगभोगाइं मुंजमाणीओ विहरंति, तं जहा
भोगंकरा १ भोगवई २ सुभोगा ३ भोगमालिनी। तोयधारा ५ विचित्ता य ६ पुप्फमाला ७ अणिदिया ८॥१॥
तएणं तासि अहेलोगवत्थव्वाणं अटण्हं दिसाकुमारीणं मयहरिआणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलंति, तएणं ताओ अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलिआई पासंति पासित्ता ओहिं पति पउंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएंति आभोएत्ता अण्णमण्णं सदावेंति सदावित्ता एवं क्यासीउप्पपणे खल्लु भो ! जम्बुद्दीवे दीवे भयवं ! तित्थयरे तं जीयमेअंतीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं अहेलोगवत्थवाणं अटण्हं दिसाकुमारी महत्तरिआणं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करेत्तए, तं गच्छामो गं अम्हे वि भगवओ जम्नणमहिमं करेमो तिकट्ठ एवं वयंति, वइत्ता पत्तेयं पत्तेयं आभिओगिए देवे सदाति सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पा. मेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखम्भसयसण्णिविटे लीलट्रिअ० एवं विमाणवण्णओ भाणियवो जाव जोयणविच्छिपणे दिव्वे जाणविमाणे
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जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे
त्रिविना एयमाणत्तियं पञ्चषिणहति । तपणं ते अभियोगा देवा अणेग खम्भसय जाव पञ्चपिनंति, तपणं ताओ अहेलोगवत्थव्वाओ अट्टदिताकुमारी महत्तरिआओ हट्टतुट्ट० पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं चउहिं महरिआहिं जाय अण्णेहिं पहूहिं देवेहिं देवीहि असद्धिं संपरिवुडाओ ते दिव्वे जाणविमाणे दुरुहंति दुरूहित्ता सव्वड्ढीए सव्वजुईए घणमुइंगपण पवाइअरवेणं ताए उक्किट्टाए जाव देव गईए जेणेव भगवओ तित्थगरस्त जम्माणणगरे जेणेव तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेत्र उवागच्छंति उवागच्छित्ता भगवओ तित्थ रस्स जम्मणभत्रणं तेहिं दिव्वेहिं जाणविमाणेहिं तिखुतो आयाहिणपयाहिणं करेंति करिता उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए ईसि चउरंगुलमसंपत्ते धरणियले ते दिव्वे जाणत्रिमाणे ठत्रिति ठक्त्तिा पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणिअसहस्सेहिं जाव सद्धिं संपविडाओ दिव्वेर्हितो जाणविमाणेहिंतो पच्चोरुहंति पञ्च्चोरुहित्ता सव्वद्धीए जाव णाइएणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छेति उवागच्छिता भगवं तित्थवरं तित्ययरमायरं च तिखुत्तो आवाहिण पयाहिणं करेंति करितापत्तेयं पतेयं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी - णमोत्थु ते रयणकुंच्छिधारिए जगप्पईवदाईए सव्वजगमंगलस्स चक्खुण्णो य मुत्तस्स सव्वजगजीववच्छलस्स हियकारग मग्गदेसि पाणिद्धि विभुप्पभुस्स जिणस्स णाणिस्स नाययस्स वुहस्स बोहगस्स सव्वलोगनाहस्त निम्ममस्स पवरकुलसमुब्भवस्स जाईए खचिअस्स से लोगुत्तमस्त जणणी धण्णासि तं पुष्णासि कचत्थासि अम्हेणं देवाप्पिए! अहे लोगवत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारी महत्तरिआओ भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो तण्णं तुम्भेहिं ण भाइव्वं इति कट्टु उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवकर्मति अवकमित्ता वेउत्रिसमुग्धारणं समोहणंति सम्मोहणित्ता संबिजाई जोयणाई दंड
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम्
५४५ निसरंति, तं जहा रयणाणं जाव संवगवाए विउव्वंति विउवित्ता तेणं सिवेणं अडएणं मारुएणं अणुधुएणं भूमिललविमलकरणेणं मणहरेणं सोउअ सुरहिकुसुमगंधाणुवासिएणं पिडिमणिहारिमेणं गंधु एणं तिरिअंपाइएणं भगवो तित्थयरस्त जम्मणभवणस्त सव्वओ समंता . जोयणपरिमंडलं से जहा णामए कम्मगरदारए सिआ जाव तहेव जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कयवरं वा असुइमचोक्खं पूइअं दुन्मिगंधं तं सवं आहुणिअ एगते ऐडंति एडित्ता जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भगवओ तित्थयरस तित्थयरमा.. याए य अदूरसामंते आगायमाणीओ परिंगायमाणोओ चिट्ठति ॥सू०१॥
• छाया-यदा खलु एकैकस्मिन् चक्रवर्तिविजये भगवन्तस्तीर्थकराः समुत्पद्यन्ते तेन समयेन अधोलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमार्यों महत्तरिकाः स्वकैः स्वकैः कूटैः स्वकैः स्वकैः भवनैः स्वकैःस्वकैः प्रासादावतंसकैः प्रत्येकं प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकसहः चतसृभिः महातरिकाभिः सपरिवाराभिः सप्तभिः अनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः षोडश भिरात्मरक्षकदेवसहस्रैः अन्यैश्च बहुभिः भवनपतिवानमन्तरैः देवैः देवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृत्ताः महताहतनाटयगीतवादित यावत् भोग भोगानि भुञ्जानो विहरन्ति तद्यथा• 'भोगंकरा १ भोगवती २ सुभोगा ३ भोगमालिनी ४। ' तोयधरा ५ विचित्राच ६ पुष्पमाला ६ अनिन्दिता ८॥१॥ : ततः खलु तासाम् अधोलोकवास्तव्यानाम् अष्टानां दिक्कुमारीणां महत्तरिकाणां प्रत्येक प्रत्येकम् आसनानि प्रचलन्ति । ततः खलु ता अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमार्यों महतरिकाः प्रत्येक प्रत्येकमासनानि चलितानि पश्यन्ति दृष्ट्वा अवधि प्रयुञ्जन्ति प्रयुज्य भगवन्तं तीर्थकरम् अवधिना आभोगयन्ति आभोग्य अन्यमन्यं शब्दयित्वा एवमवादिषुः उत्पन्नः खलु भो ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवांस्तीर्थकरः तज्जीतमेतत् अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानाम् अधोलोकवास्तव्यानाम् अष्टानां दिक्कुमारी महत्तरिकाणां भगवतस्तीर्थंकरस्य जन्ममहिमानं कर्तुम् । तद् गच्छामः खलु वयमपि भगवतो जन्ममहिमानं कुम्म इति कृखा एवं वदन्ति उदिला प्रत्येक प्रत्येकमाभियोगिकान् देवान् शब्दयन्ति शब्दयित्वा एवमवादिषु:-क्षिप्रमेव भो देवाणुप्रियाः! अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टानि लीलास्थिशालभञ्जिकाकानि, एवं विमानवर्णको भणितव्यो यावत् योजनविस्तीर्णानि दिव्यानि यानविमानानि विकुर्वत विकुर्व्य एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयत इति । ततः खलु ते आभियोगिका देवाः अनेकस्तम्भशत यावत् प्रत्यर्पयन्ति । ततः खलु ता अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः हृष्टतुष्ट० प्रत्येकं प्रत्येकं सामानिकसहरी चतसृभिः महत्तरिकाभिः यावद् अन्यैः बहुभिर्देवैर्देवी
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जम्बूद्वीपमातिसूत्रे भिश्च सार्द्ध सपरिवृताः तानि दिव्यानि यानविमानानि दुरोइन्ति दुरुध सर्वद्धर्या सर्वधुत्या धनमृदङ्गपणवप्रवादितरवेण तया उत्कृष्टया यावत् देवगत्या यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रैव तीर्थकरस्य जन्म भवनं तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य भगवतस्तीर्थकस्य जन्मभवनं तैः दिव्यैः यानविमानैः त्रिः कृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति कृला उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे ईपच्चतुरङ्गुलमसम्प्राप्तानि धरणितले तानि दिव्यानि यानविमानानि. स्थापयन्ति स्थापयिन्वा प्रत्येकं प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकसहः यावत्साई संपरिवृताः दिव्येभ्यो यानविमानेभ्यः प्रत्यवरोहन्ति प्रत्यवरुह्य सर्वद्धर्या यावत् नादितेन यत्रैव भगवान् तीर्थकरस्तीर्थरमाता च तत्रैव उपगच्छन्ति उपागत्य भगवन्तं तीर्थकरं तीर्थकरमातरं च त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति कृत्वा प्रत्येकं प्रत्येकं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत्त मस्तके अञ्जलिं कृता एवमवादिपुः नमोऽस्तु ते रत्नकुक्षिधारके जगत्प्रदीपदीपिके सर्वजगन्मङ्गलस्य चक्षुपश्च मुक्तस्य सर्वजगज्जीववत्सलस्य हितकारकमार्गदेशकचक्रऋद्धिविभु. प्रभुस्य जिनस्य ज्ञानिनः नायकस्य वुद्धस्य वोधकस्य सर्वलोकनाथस्य निममस्य प्रवरकुशलसमुद्भवस्य जात्या क्षत्रियस्य लोकोत्तमस्य यदसि जननी तत् धन्याऽसि, पुण्याऽसि कृतार्थाऽसि वयं खलु हे देवानुप्रिय ! अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानम् करिष्यामः तत् खलु युष्माभिर्न भेतव्यम् इति कृत्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागमपक्रामन्ति अपक्रम्य वैक्रियससुदधातेन समवघ्नन्ति समवहत्य सख्यातानि योजनानि दण्डं निसृजन्ति तद्यथा रत्नानां यावत् संवर्तकवातान् विकुर्वन्ति विकुयं तेन शिवेन मृदुकेन मारुतेन अनूवृतेन भूमितलविमलकरणेन मनोहरेण सर्वर्तुकसुरभिकुसुमगन्धानुवासितेन पिण्डिमनिर्झरिमेण गन्धोद्धरेण तिर्यक् प्रवातेन भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य सर्वतः समन्तात् योजनपरिमण्डलम्, स यथानामकः कर्मकारदारकः स्यात् यावत् तथैव यत् तत्र तृणं वा पत्रंवा काष्ठं वा कचवरं वा अशुचि अचोक्षम् पूतिकम् दुरभिगन्धं तत्सर्वम् आधूय आध्य एका. न्ते एडयन्ति एडयित्वा यत्रैव भगवान् तीर्थकर स्तीर्थकरमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य भगवस्तीर्थंकरस्य तीर्थंकरमातुश्च अदूरसामन्ते आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्ति ॥सू० १॥
टीका-"जया णं" इत्यादि । 'जया णं एक्कमेक्के चकवट्टिविजये भगवंतो तित्थयरा समुप्पज्जति' यदा खलु यस्मिन् काले किल एकैकस्मिन् चक्रवत्ति विजये क्षेत्रखण्डे भरतै
पंचम वक्षस्कार का कथन प्रारंभ'जया णं एक्कमेक्के चक्कवटि विजए-' इत्यादि इस सूत्र द्वारा सूत्रकार जिनेन्द्र देव के जन्माभिषेक का वर्णन करते हुए
પાંચમા વક્ષસ્કારને પ્રારંભ–
'जया णं एक्कमेक्के चक्कवट्टि विजए' इत्यादि ટીકાઈ–આ સૂત્ર વડે સૂત્રકાર જિનેન્દ્ર દેવના જન્માભિષેકનું વર્ણન કરતાં કહે છે'जया णं एक्कमेक्के चक्कवट्टिविजए न्यारे में-मे पती द्वारा वितव्य क्षेत्र म ३५
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् रावतादौ, भगवन्तस्तीर्थकराः समुत्पद्यन्ते तदाऽयं जन्ममहोत्सवः प्रवर्तते इति भावः, एकैकस्मिन्नित्यत्र च वीप्साकरणात् सर्वत्रापि कर्मभूमौ जिनजन्मसम्भवो यथाकालमभिहित इति, अन्यथा चक्रवर्तिविजये इत्येत्तावन्मात्रोक्तौ अकर्ममूमिषु देवकुर्वादिषु सर्वत्र जिनजन्मसम्भवः स्यात् अतः एकैकस्मिनित्यत्र वीप्सोपादानं सङ्गच्छते । तत्र तीर्थकरजन्ममहोत्सवे अधोलोकवासिनीनाष्टानां दिवकुमारीणां स्वरूपमाह-'तेणं कालेणं' इत्यादि । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं अहेलोगवत्थवाओ अढदिसाकुमारीओ महत्तरियाओ' तस्मिन् काले सम्भवन्जिनजन्मके भरतैरावतेषु तृतीयचतुर्थारकलक्षणे महाविदेहेषु चतुर्थारकप्रतिभागलक्षणे, तत्र सर्वदापि तदाद्यसमयसदृश कालस्य वर्तमानत्वात् तस्मिन् समये सर्वत्रापि अर्द्धरात्रलक्षणे तीर्थकराणां हि मध्यरात्र एव जन्मसम्भवात् अधोलोकवास्तव्याः चतुर्णा गजदन्तानामधः समभूतलाम् नवयोजनरूपां तिर्यग्लोकव्यवस्था विमुच्य प्रतिगजदन्तं द्वि द्वि भावेन तत्र भवनेषु वसनशीलाः अष्टौ दिक्कुमार्यों-दिक्कुमार-भवनपति जातीयाः, महत्तरिकाः स्वर्येषु प्रधानतरिकाः 'सएहि सएहि कूडेहि' स्वकेषु स्वकेषु कूटेषु गजदन्तादि गिरिवर्तिपु, 'सएहि सरहिं भवणेहि' स्वकेषु स्वकेषु भवनेषु भवनपतिदेवावासेषु 'सएहिं सएहिं पासायव.सएहिं' स्वकेषु स्वकेषु प्रासादावतंसकेपु प्रासादश्रेष्ठेषु स्वस्वकूटवत्ति क्रीडावासेषु कहते है 'जयाणं एक्कमेक्के चक्कवट्टि विजए' जब एक चक्रवर्ति द्वारा विजेतव्य क्षेत्र खण्डरूप भरत ऐरवत 'आदि क्षेत्रों में 'भगवंतो तित्थयरा समुप्पज्जंति' भगवन्त तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं।
'तेणं कालेणं तेणं समएणं अहे लोगवत्थव्चाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ' तब उस कालमें और उस समय में तृतीय चतुर्थ आरेमें एवं अर्धरात्रि के समय में तीर्थंकर भगवंतो के उत्पन्न होने पर अधोलोक मे रहनेवाली आठ दिक्कुमारी देवियां जो कि अपने वर्गकी देवियों में प्रधानतर होती हैं. 'सएहिं २ कूडेहिं सएहिं २ भवणेहिं सएहिं २ पासायवडेंसएहि पत्तेयं २ सरत, २१ क्षेत्रमा भगवंतो तित्थया समुप्पजंति' भगवन्ततीय ४२ सत्पन्न थाय छ. 'तेणं कालेणं तेण समएणं अहे लोगवत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ' त्यारे ते કાળમાં અને તે સમયમાં તૃતીય-ચતુર્થ મારામાં તેમજ અર્ધ રાત્રિના સમયમાં તીર્થકર ભગવન ઉત્પન્ન થઈ જાય ત્યારે અલકમાં રહેનારી આઠદિકુમારી દેવીઓ કે જેઓ પિતાના पानी वा मामा प्रधानत२ जाय छे. 'सएहिं २ कूडेहिं सएहिं २ भवणेहिं सएहिं २ पास.य
(१) यहां आदि शब्द से महाविदेह क्षेत्र लिया गया है इनमें बीस तीर्थकर विद्यमान रहते हैं-महाविदेहों में सदा चौथा आरा रहता है।
(૧) અહીં આદિ શબ્દથી મહાવિદેહ ક્ષેત્ર ગ્રહણ કરવામાં આવેલું છે. આ ક્ષેત્રમાં ૨૦ તીર્થકરે વિદ્યમાન રહે છે. મહાવિદેહમાં સર્વદા ચતુર્થ આરે રહે છે.
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जम्मूढीपप्रनप्तिस्त्र सूत्रे च सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात् 'पत्तेयं पत्तेयं चउहि सामाणियसाहस्सीहिं' प्रत्येक प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकानां दिक्कुमारी सदृशाति विभवादिकदेवानां सहसः चतुः सहस्र संख्यकसामानिकदेवैरित्यर्थः 'चउहिं महत्तरियाहिं सपरिवाराहि' चतमभिः महत्तरिकाभिः दिक्कुमारिकातुल्यविभवाभिः सपरिवाराभिः स्वस्वपरिवारसहिताभिः 'सत्तहिं अणिएहि' सप्तभिरनीकैः गजाश्वरथपदातिमहिपगन्धर्वनाटयरूपैः 'सत्तहिं अणिआहिवईहि' सप्तभि अनीकाधिपतिभिः सोलसएहि आयरक्खदेवसाइस्सीहि' पोडशभिरात्मरक्षकसदेवहौः पोडशसहस्रसंख्यकैः आत्मरक्षकदेवैरित्यर्थः 'अण्णेहिय बहहिं भवणवइवाणमंतरेहिं देवे हि देवीहिय सद्धिं संपरिवुडाओ' अन्यैश्च बहुभिः भवनपतिवानमन्तरैः देवैः देवीभिश्च साई सम्परिवृताः संवेष्टिताः ननु कांसाचिद् दिक्कुमारीणां व्यक्ता स्थानाङ्गे पल्योपमस्थिते भणनात् समानजातीयत्वेन एतासामपि दिक्कुमारीणां तथाभूतायुषः सम्भाव्यमानत्वाद भवनपतिजातीयत्वं सिद्धं तेन भवनपतिजातीयानां वानव्यन्तरजातीयपरिकरः कथं सङ्गतो भवति चेत् उच्यते, एतासां महर्दिकत्वेन ये आज्ञाकारिणो व्यन्तरास्ते ग्राह्या इति, अथवा वानमन्तरशब्देन अत्र वनानामन्तरेषु चरन्ति ये ते वानमन्तरा इति यौगिकार्थव्युत्पादनेन भवनपतयोऽपि वानमन्तरशन्देन गृह्यन्ते उभयेषामपि प्रायो वनादिपु विहरशीलत्वात् 'महयाहयणगीयवाइय जाव भोगभोगाई भुजमाणीओ विहरंति' महताऽहतनाटयगीतवादित यावत् भोगभोगान् भुञ्जानाः विहरन्ति, अत्र यावत्पदात् तन्त्रीतलताल तूर्य धनमृदङ्ग पटुप्रवादितरवेणेति ग्राह्यम्, तथा च महताऽहतनाटयगीतवादिततन्त्रीतलतालतूर्यघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण तत्र महता चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहि महत्तरिआहिं सपरिवाराहि वे प्रत्येक अपने २ कटों में अपने अपने भवनों में अपने २ प्रासादावतंसको में चार हजार सामानिक देवो, चार सपरिवार महत्तरिकाओं 'सत्तहिं अणिएहि सात सेनाओं, 'सत्तहिं अणीयाहिबईहि' सात अनीकाधिपतियों,'सोलसएहिं आयक्खदेवसाह. स्सीहिं' सोलह हजार आत्मरक्षक देवों, एवं 'अण्णेहिं य बहहिं भवणवइवाणमंतरेहिं देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपेरिवुडाओ महयायणगीयवाइय जाव भोगभोगाई झुंजमाणीओ विहरंति' और भी दूसरे अनेक भवनपति एवं वानव्यन्तर 'देव एवं देवियों से संपरिवृत होती हुई नाटय गीत आदि की ध्वनियों एवं वढ्सएहिं पत्तेयं २ चउहि सामाणिय साहस्सीहि चरहिं महत्तरिआहिं सपरिवाराहि तेसहरे દરેક પિત–પિતાના કૂટમાં, પિત–પતાના ભવનમા, પિત–પિતાના પ્રાસાદાવતંસકામાં, ચાર
१२ सामानि हे, या२ सपरिवार भत्तरिया 'सत्तहिं अणीयाहिवईहि' सात मनाविपतिमा, 'सोलसएहिं आयक्खदेवसाहस्सीहि ' सौ २ मात्म २३४ हे तेभर 'अण्णेहिं य बहूहि भवणवइवाणमंतरेहि देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिखुडाओ महया हय णगीय वाइय जवि भोगभोगाई भुजमाणीओ विहरति' भने मी ५ भने सनपति તેમજ વાનગંતર દેવ અને દેવીઓથી સંપરિવૃત્ત થઈને નાટ્ય, ગીત વગેરે દવનિએ તેમજ
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प्रकाकाशि टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् प्रधानेन बृहता वा इत्यस्य रवेणेत्यग्रे सम्बन्धः महतः अनुबद्धो रवस्य विशेषणम्, नाटयं नृतं तेन युक्तं गीतं तच्च वादितानि च शब्दवन्ति कृतानि तन्त्री च वीणा तलौ च हस्तौ तालाश्च कंशिकाः तूर्याणि च पटहादीनि इति वादिततन्त्रीतलतालतूर्याणि तानि च तथा धनो मेघः तदाकारो यो मृदङ्गो ध्वनिगाम्भीर्य साधाव स चासौ पटुना दक्षेण प्रादितश्च यः स घनमृदङ्गपटुप्रवादितः स चेति अहतनाटयगीतबादिततन्त्रीतलतालतूर्यनमृदङ्गपटुप्रवादिता इति इतरेतरद्वन्द्वाद बहुवचनम् तेषां यो रवः तेन करणभूतेन महता रवेण शब्देन अत्र च मृदङ्गग्रहणं तूर्येषु प्रधानं बोध्यम् भोगभोगान् भुजानाः अनुभवन्त्यः ताः दिक्कुमारोमहत्तरिकाः विहरन्ति तिष्ठन्ति, आसां नामान्याह-'तं जहा-भोगंकरा १, भोगवइ २, सुभोगा ३, भोगमालिनी ४ । तोयधरा ५, विचित्ता य ६, पुप्फमाला ७, अणिदिया ८॥ भोगंकरा १ भोगवती २ सुभोगा ३ भोगमालिनी ४ । तोयधरा ५ विचित्राच ६ पुप्पमाला ७ अनिन्दिता ८ ॥१॥ विविध प्रकार के बाजों की गडगडाट की ध्वनियों से मनोविनोदपूर्वक भोगों को भोगने में लगी हुई थी उन आठ दिक्कुमारिकाओं के नाम इस प्रकार से हैं
भोगंकरा १ भोगवती २ सुभोगा ३ भोगमालिनी ४ ॥४॥
तोयधारा ५ विचित्राच ६ पुष्पमाला ७ अनिन्दिता ८॥१॥ जब भरत और ऐरवत आदि क्षेत्रों में भगवन्त तीर्थकर का जन्म होता है, तभी यह जन्ममहोत्सव होता है तीर्थंकर प्रभु का जन्म कर्मभूमि में इन कालों में ही होता है इससे यह जानना चाहिये कि देवकुरू आदि अकर्मभूमियों में तीर्थकर का जन्म नहीं होना है और इन कालों के अतिरिक्त अन्यकालों में नहीं होता है। जब तीर्थंकर प्रभु गर्भ में आते हैं तब ५६ दिक्कुमारीयां प्रभुको माताकी सेवा करने के लिये उपस्थित हो जाती हैं इनमें जो आठ दिक्कुमारियां है उनका क्या स्वरूप है यह यहां प्रकट किया गया है जब तृतीय आरा समाप्त વિવિધ પ્રકારના વાદ્યોની ગડગડાહટની અવનિએથી મનેવિટ પૂર્વક ભાગે ભેળવવામાં પ્રવૃત્ત હતી. તે આઠ દિકુમારિકાઓના નામે આ પ્રમાણે છે–ભેગંકરા-૧, ભગવતી ૨, સભેગા ૩, ભેગમાલિની ૪, તેયધરા ૫, વિચિત્રા ૬, પૃપમાલા અને અનિન્દિતા ૮. જ્યારે ભરત અને અરવત વગેરે ક્ષેત્રોમાં ભગવન્ત તીર્થકર જન્મ ધારણ કરે છે. ત્યારે જ આ જન્મોત્સવ થાય છે. તીર્થંકર પ્રભુને જન્મ કર્મભૂમિમાં એ કાળે માં જ થાય છે. એથી આ પણ જાણી શકાય કે દેવકુરુ વગેરે અકર્મભૂમિમાં તીર્થકરને જન્મ થત નથી. અને આ કાલે સિવાય બીજા કાળમાં થતું નથી. જ્યારે તીર્થંકર પ્રભુ ગર્ભમાં આવે છે ત્યારે ૫૬ દિકુમારીઓ પ્રભુની માતાની સેવા કરવા માટે ઉપસ્થિત થઈ જાય છે. એમાં જે આઠ દિકુમારીઓ છે તેમના સ્વરૂપ કેવાં છે એ વિશે અહીં સ્પષ્ટતા કરવામાં આવેલી છે. જ્યારે તૃતીય આરે સમાપ્ત થવાની અણી પર હોય અને પલ્યનું આઠમું પ્રમાણ
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भेम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र ___ अथ एतासु एवं विहरन्तिसु किं जातमित्याह-'तए णं' इत्यादि 'तए णं तासि अहे लोगवत्थव्वाणं अट्ठण्हं दिक्कुमारीणं मयहरियाणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाणि चलंति' ततः खलु तदनन्तरं किल तासामधोलोकवास्तव्यानामष्टानां दिक्कुमारीणां मह तरिकाणाम् प्रत्येक "प्रत्येकमासनानि चलन्ति चलितानि भवन्ति 'तए णं ताओ अहेलोगवत्थचाओ अदिसा-कुमारीओ महत्तरियाओ पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलियाई पासंति तत!-आसनचलनानन्तरं खलु ताः अधोकोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमार्यों महत्तरिझा: प्रत्येकं प्रत्येकम्, आसनानि स्वकीयासनानि चलितानि कम्पितानि पश्यन्ति 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'ओहिं पउंजंति' अवधि प्रयुञ्जन्ति 'अवधिज्ञानेन जानन्ति 'परंजित्ता' प्रयुज्य ताः दिक्कुमार्याः 'भगवं तिथियरं ' होते २ पल्य के आठवें प्रमाण बाकी रहता है-लभी से कुलकरों की उत्पत्ति होना प्रारम्भ हो जाती है तृतीय कालकी समाप्ति का समय जब ८४ लाख पूर्व
और ३१ वर्ष बाकी था तब आदिनाथ प्रभु का जन्म हआ था और पाचों कल्याणक होकर वे मोक्ष में चले गये थे। इसी बात को सूचित करने के लिये तृतीय चतुर्थ आरे को भगवन्त तीर्थकरों की उत्पत्ति का काल कहा गया है तथा हर एक तीर्थकर का जन्म मध्यरात्रि में ही होता है इस बात को प्रकट करने के लिये "ते णं समएणं" ऐसा कहा गया है । 'तए णं तासि अहे लोगवत्थव्वाणं अट्टण्हं दिसाकुमारीणं मयहरिआणं पत्तेयं २ आसणाई चलंति' जब तीर्थ कर प्रभु का जन्म हो चुका तब उन अधोलोक वास्तव्य आठ महत्तरिक दिक्कुमारियों के प्रत्येक के आसन चलायमान होने लगे' 'तए णं ताओ अहे 'लोगवत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ पत्तेयं २ आसणाई चलि. - आई पासंति' जब उन अधोलोक वास्तव्य आठ महत्तरिक दिक्कुमारिका. 'ओने अपने आसन कंपित होते हुए देखे तो 'पासित्ता ओहिं पउंजंति' देख - શેષ રહે છે, ત્યારથી જ કુલકરનો જન્મ થવા માંડે છે. તૃતીય કાળની સમાપ્તિને
જ્યારે સમય ૮૪ લાખ પૂર્વ અને ૩ વર્ષ શેષ હતું ત્યારે આદિનાથ પ્રભુને જન્મ , થ અને પાંચ કલ્યાણુક થઈને તેઓશ્રી મોક્ષધામમાં જતા રહ્યા હતા. એજ વાતને સૂચિત કરવા માટે તૃતીય-ચતુર્થ આરાને ભગવન્ત તીર્થકરોની ઉત્પત્તિને કાળ કહેવામાં આવે છે. તથા દરેક તીર્થકરને જન્મ મધ્ય રાત્રિમાં જ થાય છે. એ વાતને પ્રગટ કરવા માટે 'तेणं समएणं' ये उपामा मावदुछे 'तएणं तासि अहोलोगवत्थव्वाणं अटुण्हं दिसा -कुमारीणं मयहरिआणं पत्तेयं २ आसणाई चलंति' क्यारे तीथ ४२ असुना सन्म 25 गये। ત્યારે તે અધેલકમાં વસનારી આઠ મહત્તરિક દિકુમારિકાઓમાંથી દરેકેદરેકના આસને यसायमान था साया. 'तएणं ताओ अहेलोगवत्यव्याओ अदिसाकुमारीओ महत्तरिया ओ पत्तय २ आसणाई चलिआई पासंति' न्यारे ते अधोसोमा पसनारी मा महत्त:२७।माया पात-पाताना मासापित यता नया त्यार 'पासित्ता ओहिं पठ
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम्
ओहिणा आभोएंति' भगवन्तं तीर्थंकरम् अवधिना अवधिज्ञानेन आभोगयन्ति जानन्तीत्यर्थः 'आभोएत्ता' आभोग्य ज्ञात्वा अण्णमण्णं सद्दाविंति ' अन्योऽन्यं परस्परम् शब्दयन्ति एकद्वित्रिचतस्रः पञ्च षट् सप्ताष्टौ दिक्कुमार्यः प्रति एवम् एता अपि ताः प्रति परस्पर मादयन्ति इत्यर्थः ' सदावित्ता' शब्दयित्वा आहूय 'एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण ताः दिक्कुमार्यः अवदिषुः उक्तवत्यः 'उप्पण्णे खलु भो ! जंबुदीवे दावे भगवं तित्थयरे तं जीयमेअं तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं अहे लोगवत्थन्त्राणं अट्ठण्हं दिसाकुमारी महत्तरियाणं भगवओ तित्थ - रस्स जम्मणमहिमं करेत्तए' उत्पन्नः खलु भोः ! जम्बूद्वीपे द्वीपे - जम्बूद्वीपनामके द्वीपखण्डे, भगवांस्तीर्थकरः तज्जीतमेतत् - आचार एषः अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानामधोलोकवास्तव्यनामष्टानां दिक्कुमारी महतरिकाणां भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं जन्ममहोत्सवं कर्तुम् 'तं गच्छामो णं अम्हे वि भगवओ जम्मणमहिमं करेमोतिकट्टु एवं वयंति' तत् तस्मात्कारणात् गच्छामः खलु वयमपि भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं जन्म महोत्सवं कर उन्होंने अपने अवधिज्ञान को व्यावृत किया 'परंजिता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएंति' अवधिज्ञान को व्यावृत करके उन्होंने उससे भगवान् तीर्थकर को देखा 'आभोएत्ता अण्णमण्णं सदाविति' देख कर फिर उन्होंने, एक दूसरे को बुलाया और 'सद्दावित्ता एवं वयासी' बुलाकर ऐसी बातचीत की 'उप्पण्णे खलु भो जंबूद्दीवे दीवे भयवं तित्थयरे तं जीअमेयं तीयपच्चुप्पण्णमागयाणं अहे लोगवत्थव्वाणं अहं दिसाकुमारी महत्तरियाणं भगवओ तिस्थगरस्स जम्मणम हिमं करितए' जम्बूद्वीप नामके द्वीप में भगवान् तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं तो अतीत, वर्तमान् एवं अनागत महन्तरिक आठ दिक्कुमारि - काओं का यह आचार है कि वे भगवान तीर्थंकर का जन्ममहोत्सव करें । 'तंग' च्छामो णं अम्हे वि भगवओ जम्मणमहिमं करे मोत्तिकट्टु एवं वयंति' तो चलो हम भी भगवान् तीर्थ कर के जन्म की महिमा करें - ऐसा बातचीत करके उन जंति' ले ने तेमध्ये पोताना अवधिज्ञानने व्यावृत आयु. 'पउ जित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएंति' अवधिज्ञानने व्यावृत पुरीने तेमागे तेनाथ भगवान तीर्थ' ४२ने लेया. 'अभो- ' एता अण्णमण्णं सद्दाविति' लेने पछी तेभाणे भे-मीलने मोझाव्या भने 'सद्दावित्ता एवं वयासी' मोसावीने या प्रमाणे वातशीत हरी. 'उप्पण्णे खलु भो जंबूद्दीवे दीवे भयवं तित्थयरे तं जीअमेयं तीय पच्चुप्पण्णमणागयाणं अहे लोगवत्थव्वाणं अटूण्हं दिसाकुमारी महत्तरियाणं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करित्तए' ४ द्वीप नाम द्वीपमां भगवान् तीर्थ १२ उत्पन्न् थया छे. तो अतीत, वर्तमान तीर्थ ४२ उत्पन्न थया छे. तो अतीत, वर्तमान તેમજ અનાગત મહત્તરિક આડ દિકુમારિકાખેાનેા એ આચાર છે કે તેઓ ભગવાન્ तीर्थ पुरनो नम्भ महोत्सव रे. 'तं गच्छामो णं अम्हे वि भगवओ जम्मणमहिमं करेमोत्ति कट्टु एवं वयंत्ति' तो थायी, आपण सर्वे भारी
भजीने लगवान्, तीर्थश्ना
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जम्बूद्वीपप्रजातिसूत्र कुर्म इति कृत्वा इति विचार्य मनसा एवम् अनन्तरोक्तं वदन्ति 'वडत्ता' वदित्वा 'पत्तेय पत्तेयं आभिभोगिए देवे सहावेंति' प्रत्येकं प्रत्येकम् आभियोगिहान् आज्ञाकारिणो देवान् शब्दयन्ति आयन्ति 'सद्दावित्ता' शब्दयित्वा 'एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण ता अष्टौ दिक्कुमार्यः अवादिषुः-उक्तवत्यः 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखमसयसण्णिविढे लीलटिअसालिभंजियाए एवं विमाणवण्ण भो भाणियो' क्षिप्रमेव शीघ्रमेव भो देवानु प्रियाः अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टानि अनेकानि बहूनि स्तम्भशतानि अनेक शतसंख्यकस्तम्भाः, सन्निविष्टानि संलग्नानि येपु विमानेषु तानि तथाभूतानि, तथा लीलस्थितशालिभञ्जिकाकानि-लीलास्थितशालिभञ्जिकाः 'पुतली' इति भाषा प्रसिद्धाः ताः सन्ति शोभाथै येषु तानि तथाभूतानि इत्येवम् अनेन क्रमेण विमानवर्णको भणितव्यः, स चायम् ईहामिगउसमतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिसभीने एक निर्णय किया 'वइत्ता पत्तेयंर आभिओगिए देवे सद्दावेंति ऐसा निर्णय करके फिर उन्होंने प्रत्येकने अपने २ आभियोगिक देवों को बुलाया 'सद्दावित्ता एवं क्यासी' बुलाकर उनसे ऐसा कहा-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेग. खंभसयसण्णिविढे लीलहिय सालिभंजियाए एवं विमाणवण्णओ भाणियन्वो' हे देवानुप्रियो । तुम लोग शीघ्र ही सैकडो खंभोवाले, तथा जिन में लीला करती हुइ स्थिति में अनेक पुतलियां शोभा के निमित्त बनाई गइ हों ऐसे 'पूर्व में किये गये विमानवर्णक की तरह वर्णन वाले 'जाव जोयणविच्छिण्णे दिव्वे जाणविमाणे' यावत् एक योजन के विस्तार वाले दिव्य यान विमानों की विउव्वित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणहत्ति' विकुर्वणा करके हमलोगों को इस आज्ञा की समासि हो जाने की खबर दो यहां विमान का यह वर्णन इसके पहिले २ का इस प्रकार से है-"इहामिगउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमर
मना मलिना शस. मा शत तो सर्व माहिमामे भगा नियध्ये. 'वइत्ता पत्तेयं २ आभिओगिए देवे सहावें ति' मेवानिय ४शन पछी तमामाथी १२ पात-पाताना मानियोजित वान मासाव्या. 'सदावित्ता एवं चयासी' मालावीन तभणे भा प्रभाये ४यु 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेग खंभसयसाण्णिविदे लीलट्रिय सालिमंजियाए एवं विमाणवण्णओ भाणियचो' हेपानुप्रिया! तमे सो शीत स्तनोवाणातभर भनामा લીલા કરતી સ્થિતિમાં અનેક પુનલિકાઓ શોભા માટે બનાવવામાં આવી છે એવા પૂર્વે विमान मां वर्णव्या भु' १ नवाणा 'जाव जोयणविच्छिण्णे दिव्वे जाणविमाणे' यावत् मे योन रेखा विस्तारवाहित्य यान विभाननी 'विउव्वित्ता एयमाणत्तिय पच्चप्पिणहत्ति' विया शन पछी अभारी मा माज्ञानु पासन ४२पामा मावस छ, એવી અમને સૂચના આપે. અહીં વિમાન વિશેનું તે વર્ણન જે પહેલાં કરવામાં આવ્યું
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् चित्ते खंभुग्गयवइरवेइमा परिगयाभिरामे विजाहरजमलजुयसलजन्तजुत्ते विव अच्चीसहस्समालिणीए रूवगहस्सकलिए भिसमाणे भिब्मिसमाणे चक्खुल्लोअणले से मुहफासे सस्सिरीयरूवे घंटावलिअमहुरमणहरसरे सुभे कंते दरिसणिज्जे निउणोवियमिसिमिसेन्तमणिर यण-घंटियाजाल परिक्षिते ति' ईहामृगपातुरगनरम करविहगनालककिन्नररुरुशरभचामरकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्राणि स्तम्भोगतवनवेदिकापरिगताभिरामाणि विद्याधर यमलयुगलयन्त्रयुक्तानि इवाचिसहनमालिनीकानि रूपसहस्रकलितानि भास्यमानानि बाभास्यमानानि चक्षुलौचनलेन्यानि सुखस्पर्शानि सश्रीकरूपाणि घण्टावलिकमधुरमनोहरसहशानि 'शुभानि कान्तानि दर्शनीयानि 'मिसिमिसेन्त' मणिरत्नघण्टिकाजालपरिक्षिप्तानि इति । कियत्पर्यन्तमित्याह-जाव जोयणविच्छिण्णे दिव्वे जाणविमाणे विउव्वह' इति यावद् योजनविस्तीर्णानि दिव्यानि यानविमानानि, यानाय इष्टस्थाने गमनाय विमानानि अथवा यानरूपाणि-वाहनरूपाणि विमानानि यानविमानानि विकुर्वत वैक्रियशक्त्या लम्पादयत 'विउन्वित्ता' विकुर्विवा-वैक्रियशक्त्या सम्पाद्य 'एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह'त्ति, एताम् उक्तप्रकारामाज्ञसिकां प्रत्यर्पयत समर्पयत इति । 'तए णं ते आमिओगा देवा अणेगखंभसय जाव पच्चप्पिणंति' ततः खलु तदनन्तरं किल ते आभियोगिकाः आज्ञाकारिणो देवा अनेक कुंजरवणलया पउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गयवइरवेझ्या परिग्गयाभिरामे, विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्ते विव अच्चीसहस्समालिणीए, स्वर्गसहस्सकलिए, मिसमाणे, मिम्भिसमाणे, चक्खुल्लोअणलेले, सुहफासे, सस्सि. रीयरूबे, घंटादलियनहरमणहरसरे, सुभे, कंते, दरिसणिज्जे, निउणोविय मिसभिसंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्ते" इन सब पदों की व्याख्या पहिले राजप्रश्नीयादि ग्रन्थों में की जा चुकी है 'तएणं ते आभिओगा देवा अणेगखंभसय जाव पच्चप्पिणति' इस प्रकार से "दिक्कुमारियों के द्वारा आज्ञप्त हुए उन आभियोगिय देवाने अनेक सैकडो खंभोवाले आदि विशेषणों से युक्त उन यान विमानों को अपनी विक्रिया शक्ति से निष्पन्न करके उनको उनकी छ त मा ,प्रभारी छ-'इहामिगउसमतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरमचमरकुंजरवणलया पउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गयषहरवेझ्यापरिगयाभिरामे, विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्ते विव अच्चीसहम्समालिणीए, रूगसहस्सकलिए, भिसमाणे, भिन्भिसमाणे, चक्षुल्लोअणलेसे, सुहफासे, .सस्सिरीयरूंवे, घंटावलिय महुरमणहरसरे, सुभे, 'कंते, दरिसणिज्जे निउणोवियमिस'मिसेंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्ते' .व्ये म पानी व्याय! ४श्नीय सूत्रनी सभागे स्थेत सुमाथि व्यायामा म मन्य सूत्र अन्यामा ४२वामां आवसी छ. 'तएण ते
आरिओगा देवा अणेगखंभसय जाव पच्चप्पिणंति' २मा प्रभारी हिमारिया 43 मास થયેલા તે આભિગિક દેવેએ હજારે સ્તંભેવાળા વગેરે વિશેષાણેથી યુક્ત તે ચાનવિમાનેને પિતાની વિક્રિયા શક્તિથી નિષ્પન કરીને તે કુમારિકાઓએ જે પ્રમાણે કરવાની
ज० ७०
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जम्बूहीपप्राप्ति स्तम्भशतमन्निविष्टानि यावदाज्ञप्तिको प्रत्यर्पयन्ति दिक्कुमारिका वा आज्ञानुसारेण विमान. सम्पादनरूपं कार्य क्रियशक्त्या सम्पाय तामाज्ञप्ति दिक्कुमारीभ्यः समर्पयन्तीत्यर्थः 'तए णं वाओ अहेलोगवत्थब्बाओ अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरियाओ इहत०' ततः खलु ता अधोलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः हतुप्टेति पदैकदेशदर्शनेन सम्पूर्ण आलापको ग्राह्यः स चायं तथाहि-हृप्टतुष्टचित्तानन्दिताः, प्रीतमनसः, परमसोमनस्थिताः, हर्षवंशविसर्पद् हृदयाः, विकसितवरकमलनयनाः प्रचलितवरकटकत्रुटितकेयूरकुण्डलहारविराजमानरतिदवक्षस्काः पालम्बप्रलम्बमानघोलन्तभूपणधराः ससंभ्रमं त्वरितं चपलं सिंहासनाद् अभ्युत्तिछन्ति, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहन्ति प्रत्यवरुह्य 'पत्तेयं पत्तेयं चसहि सामाणिम साहस्सीहिं चउहि महत्तरियाहिं जाव अण्णेहिं वह हिं देवेहि देवीहि असद्धिं संपरिघुडाओ यथावत् आज्ञा संपादित हो जाने की खबर देदी 'तएणं ताओ अहेलोगवत्थधाओ अट्ठ दिक्कुमारीमहत्तरियाओ हट्ट तु१० पत्तेय चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहि महत्तरियाहिं जाव अण्णेहिं बहहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिघुडाओ ते दिवे जाणविमाने दूरुहंति' खबर पाते ही वे प्रत्येक अधोलोक वास्तव्य आठ महत्तरिका रूप दिक्कुमारीयां हर्षित एवं तुष्ट आदि विशेषणों वाली होती चार हजार सामानिक देवों. चार महत्तरिकाओं, यावत् अन्य और अनेक देव देवियों के साथ २ उन विकुवित एक २ योजन के विस्तारवाले यान विमानों पर आरूढ हो गये "हतुट्ठ०" पद से गृहीत हुआ संपूण आलापक इस प्रकार से हैं 'हृष्टतुष्ट चित्तानंदिताः, प्रीतिमनसः, परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पहृदयाः, विकसितवरकमलनयना, प्रचलितवरकटकत्रुटितकेयूरकुण्डलहार विराजमानरतिदवक्षस्काः, प्रालम्बप्रलम्बमानघोलन्तभूषणधराः ससंभ्रमं, त्वरितं चपलं सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठिन्ति, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहઆજ્ઞા કરી હતી તે આજ્ઞાનું સંપૂર્ણ રીતે પાલન કરીને તેમણે આજ્ઞા પૂરી થવાની सूचना माची. 'त एणं ताओ अहे लोगवत्थव्वोओ अट्ट दिक्कुमारीमहत्तरियोओ हटु तुद्ध. पत्तय पत्तयं चरहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं जाय अण्णेहिं बहूहि देवेहि देवीहि य सद्धिं संपरिवुडाओ ते दिव्वे जानविमाणे दुरूहंति' सम२ भगतi or d અલેક વાસ્તય આઠ દિકુમારીકાઓ હર્ષિત તેમજ તુષ્ટ્ર આદિ વિશેષણવાળી થઈને ચાર હજાર સામાનિક દેવો, ચાર મહત્તરિકાએ ચાવત્ અન્ય ઘણું દેવ-દેવીઓની સાથે વિકૃતિ તે એક–એક જન જેટલા વિસ્તારવાળા યાન-વિમાને ઉપર આરૂઢ થઈ गया. 'हदु तुटु०' ५४थी गडीत येस सपू मासा४ मा प्रभारी छ-'हृष्टतुष्ठचित्तानंदितप्रीतिमनसः, परमसौमनस्थिताः, हर्पवशविसर्पहृदयाः, विकसितवरकमलनयना, प्रचलिताः वरकटकत्रुटितकेयूरकुण्डलहारविराजमानरतिदवक्षस्काः प्रालम्बप्रलम्बमान घोलन्त भूपणधराः ससंभ्रमं, त्वरितं, चपलं सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठन्ति, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्य
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् ते दिव्वे जाणत्रिमाणे दुरूहति' प्रत्येकं प्रत्येक चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः चतसृभिर्महत्तरिकाभिः यावदन्यैश्च बहुभिर्देवैः देवी भिश्च साई संपरिवृत्ता:-संवेष्टिताः सत्यः तानि दिव्यानि यानविमानानि दुरोहन्ति आरोहन्ति 'दुरुहिता' दुरुह्य आरुह्य 'सविडीए सव्वजुईए घणमुइंगपणवपवाइयरवेणं' सर्वा सर्वसंपदा सर्वद्युत्या सर्वकान्त्या धनमृदङ्गपणवप्रवादितरवेण तत्र-धनो मेघस्तदाकारो यो मृदङ्गः ध्वनिगाम्भीर्यसादृश्यात् पणवो मृत्पटहः उपलक्षणमेतत् तेन अन्येषामपि तूर्यादीनां संग्रहः एतेषां प्रवादितानां यो वः शब्दस्तेन तथा भूतेन, तथा 'ताए उक्विटाए जाव देवगईए जेणेव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणगरे जेणेव तित्थगरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छति' तया उत्कृष्टया यावदेवगत्या यत्रैव भगवत: स्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रैव च तीर्थकरस्य जन्मभवनं तत्रैव उपागच्छन्ति, अत्र यावत्पदात् त्वरया चपलया चण्डया सिंहया दिव्यया इति ग्राह्यम् एषां व्याख्यानन्तु अस्मिन्नेव वक्षस्कारे सप्तमसूत्रे द्रष्टव्यम् । 'उआगच्छित्ता' उपागत्य ताः अष्टौ दिक्कुमार्यः 'भगवभो तित्थयरस्स' न्ति, प्रत्यवरुव" । दुरुहिता सचिडीए सव्वजुईए घणमुइंगपणवपवाइयरवेणं ताए उक्ट्टियाए जाव देवगईए जेणेव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणयरे जेणेव तित्थघरस्त जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छंति' उन विमानों पर आरूढ होकर वे सबकी सब आठ महत्तरिक दिगकुमारियां अपनी २ पूर्ण संपत्ति, पूर्ण द्युति' पूर्णकान्ति से युक्त होती हुई मेघ के आकार जैसे मृदङ्ग और पटह आदि वादिनों की गडगडाहट के साथ अपनी उस उत्कृष्ट आदि विशेषणों वाली देवगति से चलतो चलती जहां भगवान् तीर्थ कर की जन्म नगरी थी और उसमें भी जहां उन तीर्थंकर प्रभु का जन्म का भवन था वहां पर आई "त्वरया, चपलया, चण्डया, सिंहया, दिव्यया" ये देवगति के विशेषण है । इनकी व्याख्या यथा स्थान की जा चुकी है। यदि इसे देखना हो तो ७ वे वक्षस्कार के ससम सूत्रको देखो । 'उवगच्छिन्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेहि दिव्वेहि जाणवरोहान्ति, प्रत्यवरुह्य । दुरुहित्ता सव्वड्ढीए सव्वजुईए घणमुइंगपणवपवाइयरवेणं ताए उक्किट्ठयाए जाव देवगईए जेणेव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणयरे जेणेव तित्थयरस्स जम्मण भवणे तेणेव उवागच्छति' विमान ५२ मा३० थान स मा भत्तहिमाરીઓ પિતાની પૂર્ણ સંપત્તિ, પૂર્ણ તિ, પૂર્ણકાંતિથી યુક્ત થતી, મેઘના આકાર જેવા મૃદંગ અને પટહ વગેરે વાદ્યોના ગડગડાટ સાથે પિતાની ઉત્કૃષ્ટ વગેરે વિશેષણોવાળી દેવગતિથી ચાલતી ચાલતી જ્યાં ભગવાન તીર્થકરની જન્મ નગરી હતી અને તેમાં પણ જ્યાં તે तीय°४२ प्रभुनु म सवन हेतु त्यो 8. 'त्वरया चवलया, चण्डया, सिंहया, दिव्यंया' એ બધા દેવગતિના વિશેષણે છે. એ પદની વ્યાખ્યા યથાસ્થાને કરવામાં આવી છે. જેને આ પદેની વ્યાખ્યા વાંચવી હોય તેઓ સાતમાં વક્ષસ્કારના સાતમા સૂત્રને વાંચે. 'उवागच्छिता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवगं तेहिं दिव्वेहिं जाणविमाणेहि तिखुत्तो
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........ .. ... जम्बूछीपप्रतिसूत्र जम्मणभवणं तेहिं दिव्वे हि जाणविमाणेहि ति खुत्तो आयाहिणपयामिणं करेंति' भगवतः तीर्थकरस्य जन्मभवनं तै दिव्य यानाविमानै स्त्रिः कृतः-यारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणकुर्वन्ति त्रीन् वारान् प्रदक्षिणयन्तीत्यर्थः 'करित्ता' खा त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य ताः दिक्कुमार्यः उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए ईसिं चउरंगुलमसंपत्त धरणियले ते दिवे जाणविमाणे ठविति उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे ईशानकोणे ईपच्चतुरङ्गुलमसम्प्राप्तानि चतुरझुलतोऽपि नयनस्थान न त्यक्तानि धरणितले तानि दिव्यानि यानविमानानि. स्थापयन्ति 'ठवित्ता' स्थापयित्वा 'पत्तेयं पत्तेयं चउहि सामाणियलहस्से हि जाब सद्धि संपरिखुडाभो दिव्वेदितो जाणविमाणेहितो पच्चोरुहंति' प्रत्येक प्रत्येक चतभिः सामानिकसहः यायत सार्द्ध सम्परिवृत्ताः वेप्टिता सत्यः ता अष्टौ दिक्कुमार्यः दिव्यैः यानविमानैः प्रत्यरोहन्ति भरतरन्ति, अन यावत्पदान चतसृभिः महतरिकाभिः सपरिवाराभिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः पोडशभिराः स्मरक्षकदेवसहस्रः अन्यैश्च बहुभिःभवनपतिवानव्यन्तः देव देवीभिश्चति ग्राह्यम् 'पञ्चोरुहिता' विमाणेहिं तिखुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति' वहां आकर के उन्होंने उन विमानो द्वारा भावान् तीर्थकर के जन्म भवन की तीन प्रदक्षिणा की 'करित्ता उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए ईसिं चउरंगुलमसंपत्ते धरणियले ले दिव्वे जाणवि. माणे ठाविति' तीन प्रदक्षिणा करके ईशान दिशामें फिर उन्होंने अपने २ उन. यान विमानों को जमीन से चार अंगुल अधर आकाश में ही खडा किया, 'ठवित्ता पत्तय २ चरहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव सद्धि संपरिचुडाओ दिव्वेहितो जाणविमाणेहितो पच्चोरुहंति' आकाश में खडा करके वे प्रत्येक अपने. २ चार हजार सामानिक देव आदिकों के साथ २ उन दिव्य यान विमानों से नीचे उतरी यहां यावत्पद से चतसभिः महत्तरिकाभिः सपरिवाराभिः, सप्तभिरनीकैः, सप्तभिरनीकाधिपतिभिः पोडशभिरात्मरक्षकदेवसहस्त्रै अन्यैश्च बहुभिः सवनपतिवानव्यन्तरदेवैः देवोनिश्च" इस पीछे के पाठका ग्रहण हुआ है:। 'पच्चोरुहित्ता सव्वडोए जाव णाइए णं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थ. आयाहिणं पयाहिणं करेंति' त्यां न तेभो त विभाना लगवान ती ४२ना म. माननी प्रक्षिाये। ४२१. 'करित्ता उत्तरपुरथिमे दिखीभाए ईसि. चउरंगुलमसंपत्ते धरणियले. तं दिव्वे जाणविमाणे ठविति' प्रदक्षिणा-या ४शन पछी तेभरे पात-पाताना. यान, विमानाने शान, शाम 4 अपस्थित- ४ा. 'ठवित्ता पत्तेयं २ चाहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव सिद्धि संपरिखुद्धाओ दिव्वेहि तो जाणविमाणे हितोपच्चोरुहंति' मारामांજ, પિતા પોતાના ચાન–વિમાનેને અવસ્થિત કરીને તે આમાંથી દરેકે દરેક - પિત–પિતાના ચાર હજાર સામાનિક દેવ વગેરેની સાથે-સાથે તે દિવ્ય યાન-વિમાનમાંથી નીચે ઉતરી, यापत ५४थी 'चतुसृभि.. महत्तरिकाभिः, सपरिवाराभिः सप्तभिरनीकैः, सप्तभिरनीकाधिपतिभिःडशभिरात्मरक्षकदेवसहस्त्रैः अन्यैश्च .बहुभिः भवनपतिवानव्यंतरदेवैः देवीभिश्च' मा ५ पानुषो।
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कोशिका टीका-पञ्चवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिपैकवर्णनम् प्रत्यवरुव अवतीर्य 'सबिद्धोए जाव णाइएणं जेणेव भगवं तित्ययरे तिस्थयरमाचा य तेव उबागच्छंति' सर्वद्धर्या यावत् नादितेन यत्रैव भगवांस्तीर्यकर स्तीर्थकरमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति, अत्र यावत्पदात् सर्वधु-या घनमृदङ्गपगाववादितरवेग तया उत्कृष्टया यावदेवगत्या इति ग्राह्य कियत्पर्यन्तमित्याह-नादितेनेति-शङ्खपणवभेरीझल्लरीखरमुखीहुडुक्कारजमृदङ्गदुन्दुभिनिर्वोपनादिनेति 'उबागच्छित्ता' उपागत्य, ता अष्टौ दिक्कुमार्यः ‘भएवं तित्थयां तित्थयरगायरं च तिखुत्तो आयाहिण पयाहिणं करेंति' भगवन्त तीर्थकरमारारं च त्रिः कृत्व:जीन वारान् आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति 'करिता' कृत्वा त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य 'पत्त्यं पत्तेयं करयलपरिग्गहियं दसनई सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं क्यासी' प्रत्येक प्रत्येक करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावः मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिपुः उक्तवत्यः, ता अष्टौ दिक्कुमार्यः किमवादिषुरित्याह-'णमोत्थु ते रयणकृच्छिवारिए' इत्यादि। नमोऽस्तु ते रत्नकुतियारिके ! रत्नं भगवल्लक्षणं कुक्षौ उदरे धरतीति रत्नकुक्षिधारिका तस्य सम्बोधने हे रत्नकुक्षिधारिके ! तीर्थकरमातः ! ते तुभ्यं नमोऽस्तु तथा 'जगप्पईवदाइए' यरमाया य तेणेव उवागच्छति उत्तर कर फिर वे अपनी समस्तऋद्धि आदि सहित ही जहां भगवन् तीर्थकर और तीर्थंकर की माता थी वहां पह गई । 'उवागच्छित्ता भयवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिच्छुत्तो आयाहिणपयाहिणं करें ति' वहां जाकर उन्होंने तीर्थकर और तीर्थ कर की माताकी तीन प्रदक्षिणाएं की 'करित्ता पत्तेवर करयलपरिग्गहियं सिरसावतं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी' तीन प्रदक्षिणाएं करके उन प्रत्येक ने अपने दोनों हाथों की अंजुलिबनाकर थावतू उसे मस्तक पर घुमा कर इस प्रकार से कहा-'मोत्थुते रयणकुच्छिधारिए जगप्पईचदाईए सम्वजगमंगलस्त चक्खुमो अमुत्तस्स सधजगज्जीववच्छलस्स हे रत्नकुक्षि धारिके-तीर्थ कर माता ! आपको हम सबका नमस्कार हो, हे जगत् प्रदीपदीपिके! जगत्वर्ती समस्तजन एवं समस्त पदार्थ के प्रकाशक होने के कारण दीपक के जैसे घड ४२रायो छे. 'पच्चोरुहित्ता सव्वड्ढीए जाव णाइएणं जेणेव भगवं तित्थयरे तिथयरमया य तेणेव उवागच्छंति' नीये उत्तरीन पछी तमा पातानी समस्त विगैरे सहित न्या भगवान् तीथ ४२ मत तय ४२न। माताश्री ता त्यi 5. 'वोगच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्ययरमायरं च तिखुत्ते । आयाहिणपयाहिण करेति' त्यi raमरे तीथ ४२ मन तीय ४२ना भाताश्रीन! ) प्रतक्षाया.४६१. 'करित्ता पत्तेयं २ करवलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं फटु एवं वयासी' र प्रहसियामा शन पछी तमामाथी ४२४ हमारस. એએ પિતાના હાથની અંજલિ બનાવીને યાવત્ તે અંજલિને મસ્તક ઉપર ફેરવીને આ प्रमाणे धु-'णमोत्थु ते रयणकुच्छिधारिए जगप्पईवदाईए सबजगमंगलस्स चस्खुगो य मुत्तस्स सबजगज्जीववच्छलस्स' २नक्षिधार! तीर्थ :२ माना! मा५श्रीन समारा नमार હે, હે જગત્ પ્રદીપદીપિકે, જગવતી સમસ્ત જન તેમજ સમસ્ત પદાર્થોના પ્રકાશક
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जम्बूद्वीपप्रमसि जगत् प्रदीपदी पिके जगतो जगत्ति जनानां सर्वभावानां प्रकाशकत्वेन प्रदीप इव प्रदीपो भगवान् तस्य दीपिका तत्सम्बोधने हे जगत्प्रदीपदीपिके ! लोकोत्तमस्य तीर्थङ्करस्य यत्त्वं असि तत्त्वं धन्याऽसि इत्यग्रे सम्बन्धः, कीदृशस्य तीर्थंकरस्य इत्याह-'सब्बजग मंगलस्स चक्खुणो अ' सर्वजगन्मङ्गलस्य सर्व जगन्मङ्गलभूतस्य चक्षुरिव चक्षुः सकल जगद्भावदर्शकत्वात् तस्य च, च: समुच्चये, चक्षुश्च द्रव्यभावभेदाभ्यां द्विधा तबाधं मावचक्षुरसहकृतं न सर्व प्रकाशकं भवति तेन भावचक्षुपा भगवान् अनुमीयते तस्य भगवतः तीर्थङ्करस्य तथा 'गुत्तस्स सव्यजगजीववच्छल. प्रभुको चमकानेवाली हे माता आपको हम सबका नमस्कार हो क्योंकि लोकोत्त मभून तीर्थंकर की आप माता हो ऐसा आगे के पद के साथ सम्बन्ध है यहां अब तीर्थ कर के विशेषणों की व्याख्या की जाती है वे तीर्थ कर सकल जगत् के पदर्थों के भावों पर्यायों के दर्शक होने से इस संसार में मंगलभूत चक्षु के जैसे हैं द्रव्यचक्षु और भावचक्षु के भेद से चक्षु दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यचक्षु भावचक्षु से असहकृत् हुआ कुछ भी प्रकाश नहीं कर सकता है भावचक्षु ज्ञानरूप होता है द्रव्यचक्षु पौगलिक होता है भगवान को भावचक्षु रूप इसलिये कहा गया है कि वे अपने केवलज्ञान रूप चक्षु से त्रिकालवी पदार्थों को उनकी अनन्त पर्यायों सहिन ज्ञान होते हैं यद्यपि इस समय वे ऐसे नहीं है आगे ऐसे हो जावेगें अतः भविष्यत्कालिन पर्याय का वर्तमान में उपचार करके यह कथन किया गया है यहां च शब्द समुच्चय अर्थ में प्रयुक्त हुआ है शरीर के साथ आत्मा का जब तक सम्बन्ध है तब तक वह किसी अपेक्षा से मूर्तिक माना गया है जैसा कि "बंधंपडिएयत्तं लक्खणदो हवेइ तस्स णाणत्तं" यह कथन है इसीलिये यहां હવા બદલ દીપક જેવા પ્રભુને પ્રકાશિત કરનારી છેમાતા ! આપશ્રીને અમારા નમસ્કાર છે. કેમકે લકત્તમ ભૂત તીર્થકરની આપશ્રી માતા છે, એ આગળના પદની સાથે એને સમ્બધ છે. અહીં હવે તીર્થકરના વિશેષણોની વ્યાખ્યા કરવામાં આવે છે. તે તીર્થકર સમસ્ત જગતના પદાર્થોના ભાવે-પર્યાના દર્શક હેવા બદલ આ સંસારમાં મંગલભૂત ચક્ષુ જેવા છે. દ્રવ્ય ચક્ષુ અને ભાવચક્ષુના ભેદથી ચક્ષુ બે પ્રકારનાં હોય છે. દ્રવ્ય ચક્ષુ ભાવચક્ષુથી અસહકૃત થયેલ કોઈને પણ પ્રકાશિત કરી શકતું નથી. ભાવચક્ષુ જ્ઞાન રૂપ હોય છે. દ્રવ્યચક્ષુ પૌગલિક હોય છે. ભગવાનને ભાવચક્ષુ રૂપ એટલા માટે કહેવામાં આવેલા છે કે તેઓશ્રી પિતાના કેવલજ્ઞાન રૂ૫ ચક્ષુથી ત્રિકાલવતી પદાર્થોને, તેમની અનન્ત પર્યાયે સહિત જાણી લે છે. જો કે આ સમયે તેઓશ્રી એવા નથી, ભવિષ્યમાં એવા થઈ જશે. એથી ભવિષ્યકાલીન પર્યાયને વર્તમાનમાં ઉપચાર કરીને આ કથન સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલું છે. અહીં જ શબ્દ સમુચ્ચય અર્થમાં પ્રયુક્ત થયેલ છે. શરીરની સાથે આત્માને
જ્યાં સુધી સંબંધ છે ત્યાં સુધી તે કઈ અપેક્ષાથી મૂતિક માનવામાં આવે છે. જેમકે'वं पडिएयत्तं लक्खणदो हवइ तस्स णाणच' मा ४थन छ. मेथी मही प्रभु भाई
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम्
५५९ स्स' मूर्तस्य चक्षुह्यस्येत्यर्थः, तथा सर्वजगज्जीववत्सलस्य-सर्वजगजीवानामुपकारकाय, प्रोक्तार्थे विशेषणद्वारा हेतुमाह-'हियकारगमग्गदेसिय वागिद्धिवि पशुस्स' हितकारकमार्गदेशक वाग् ऋद्धि विशुप्रभुकस्य तत्र हितकारको मार्गः मुक्तिमार्गः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्र रूपः तस्य देशिका उपदेशदर्शिका तथा विश्वी सर्वव्यापिनी सकलश्रोतहृदयसंलग्नतात्पर्यार्था एवंविधा वाग् ऋद्धिः-पाक सम्पत् तस्याः प्रभुः स्वामी सातिशयवचनलब्धिक प्रभु का विशेषण "मुत्तस्स" रखा गया है जनता के चक्षुओं के वे विषय है इसलिये वे मूर्त हैं-चक्षुग्राह्य है अथवा "मुत्तस्स" की छाया मुक्त" ऐसी भी होती है वे प्रभु मुक्ति कान्ना के पति भविष्यकाल में होगे-समस्त कर्मों का समूल विनाश कर निर्वाण प्राप्त करेंगे इसलिये युवराज को राजा कहने के अनुसार द्रव्यनिक्षेप को लेकर यहां प्रभु को मुक्त ऐसा भी कहा जा सकता है वे प्रभु इसी कारण यहां समस्त जगत् के जीवों के वत्सल परोपकारक इस विशेषण द्वारा अभिहित किये गये हैं 'हियकारगमग्गदेसियवागिद्धि विभुपभुस्स' संसार में जितने भी संयोगी पदार्थ हैं चाहे वे स्त्रीपुत्र मित्रादिरूप हों चाहें माता पिता आदि रूप हो-वे इस जीव के हितकारी-निराकुल परिणतिकारी नहीं हो सकते हैं-यदि निराकुल परिणतिकारी कोई है तो वह मुक्ति का ही मार्ग है-उस मुक्ति के मार्ग को देशना प्रभुने अपनी वाणी द्वारा दो है-वह प्रभुकी वाणी ऐसी होती है कि जो भी जीव उसे सुनता है वह उसकी भाषा में परिणत हो जाती है ऐसी वाणी द्वारा उपदिष्ट सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप जो मुक्ति का मार्ग है वही आत्मा का सच्चा हितकारक है इस बात को प्रभुने 'मुत्तस्स' विशेष भूवामां आवे . नताना यक्षु साना तमाश्री विषय छ, मेथी तयारी भूत छे. यक्षु बाह्य छे. मथवा-'मुत्तम्स' नी छाया 'मुक्त' मेवी पण थाय छे. તે પ્રભુ મુક્તિ-કાન્તાના પતિ ભવિષ્યત્કાલમાં થવાના છે. સમસ્ત કર્મોને સમૂલ વિનાશ કરીને તેઓશ્રી નિર્વાણ પ્રાપ્ત કરશે, એથી યુવરાજને રાજા કહીએ તે મુજબ દ્રવ્ય નિક્ષેપને લઈને અહીં પ્રભુને “મુt' એવા પણ કહી શકીએ તે પ્રભુ આ કારણથી જ અહી સમસ્ત જગતના જીના વત્સલ–પરોપકારક–આ વિશેષણ વડે અભિહિત કરવામાં આવેલા છે. 'हियकारगमग्गदेसिय वागिद्धि विभुपभुस्स' संसारमा रेखा सयासी पाय छे, मोते. સ્ત્રી-પુત્ર મિત્રાદિના રૂપે હોય કે ભલે માતા-પિતા વગેરેના રૂપે હોય, તેઓ આ જીવના માટે હિતકારી નિરાકુલ પરિણતકારી થઈ શકે જ નહિ. જે કોઈ પણ નિરાકુલ પરિણત કારી હોય તે તે ફક્ત મુક્તિને જ માર્ગ છે. તે મુક્તિના માર્ગની દેશના પ્રભુએ પિતાની વાણી દ્વારા આપી છે. તે પ્રભુની વાણી એવી થાય છે કે જે કઈ જીવ તેને સાંભળે છે. તે તેની ભાષામાં પરિણત થઈ જાય છે. એવી વાણી વડે ઉપદિષ્ટ સમ્યગ્દર્શન, જ્ઞાન, ચારિત્ર રૂપ જે મુક્તિ માર્ગ છે તેજ માર્ગ આત્માને ખરે હિતકારી છે, એ વાતને
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लम्पप्रतिस्
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इत्यर्थः, तस्य अत्र विशेषणस्य विश्रुपदस्य मूले परनिपात: प्राकृतत्वात् नया 'जिणस्स णाणिस्स नायगस्स बुहस्स बोहगस्स' जिनस्य रागद्वेपजेतुः तथा ज्ञानिनः - सातिशयज्ञानयुक्तस्य, तथा नायकस्य धर्मश्रेष्ठचक्रवर्त्तिनः, तथा बुद्धस्य विदिततत्त्वस्य तथा वोधकस्य परेपामा वेदितत स्वस्य तथा 'सन्चलोगनाहरस निम्ममस्स' सकललोकनाथस्य समस्त प्राणिवर्गस्य ज्ञानवीजाधान संरक्षणाभ्यां योगक्षेमकारित्वाद, तथा निर्ममस्य ममत्वरहितस्य तथा 'पवरकुळस भवस जाईए खत्तियास' प्रदरकुल समुद्भवस्य जात्वा क्षत्रियस्य क्षत्रियसुवंशोत्पन्नस्येत्यर्थः 'जंसि लोगुत्तमस्त्र जणणी धण्णासि तं पुष्णासि कयत्यासि' एवंविधविख्यातगुणस्य लोकोत्तमस्य तीर्थकरस्य यत्त्वयसि जननी माता तत्त्वं धन्याऽसि धन्याऽसि, समस्त जीवों को समझाया है अतः प्रभु सातिशयवचन लब्धिवाले इस विशे पण द्वारा प्रकट किये गये हैं । 'जिणस्स णाणिस्स नायगर वुस्स वोहस्स सव्वलोगनाहस्त निम्नमस्स पचर कुलसंभवस्स जाईए खत्तिअस्स जंसि लोगुतमस्स जणणी' उन्हों ने राग द्वेष रूपी अन्तरंग शत्रुओं पर विजय पाई है इसलिये उन्हें जिन कहा गया है वे सातिशय ज्ञान युक्त हुए हैं इसलिये ज्ञानी उन्हें प्रकट किया गया है नायक उन्हें इसलिये कहा गया है कि वे धर्म के श्रेष्ठ नायक हुए है मोक्ष मार्ग के नेता हुए हैं तत्त्वों के ज्ञाता होने से बुद्ध, दूसरों को तत्त्वो का ज्ञान कराने से योधक, समस्त प्राणि वर्ग में ज्ञान रूप वीज के आधान से और उसके संरक्षण से योग क्षेमकारी होने के कारण सकल लोकनाथ, ममता विहीन होने से निर्ममत्व श्रेष्ठ कुलमें उद्भूत होने के कारण प्रवरकुलसमुद्भूत एवं क्षत्रिय वंश में जन्म लेने से जात्या क्षत्रिय प्रकट किये गये हैं । इस प्रकार के विख्यात गुणवाले लोकोत्तम तीर्थ कर की तुम जन्मदात्री - जननी हो इसलिये
પ્રભુએ બધા જીવેાને સમજાવી છે. એથી પ્રભુને સતિશય વચન લબ્ધિ રૂપ આ×શેષણુ વડે પ્રકટ કરવામા भाव्या है. 'जिणस्स णोणिस्स नायगस्स बुहस्स घोहगस्स सव्वलोगनाहस्स निम्ममरस पवरकुल संभवस्स जाईए खत्तिअस्स जंसि लोगुत्तमस्स जणणी' तेम રાગ-દ્વેષ રૂપી અન્તરંગ શત્રુઓ ઉપર વિય મેળળ્યેા છે. એથી જ તેએથ્રીને જિન કહે વામાં આવે છે. તેમેાથી સાતિશય જ્ઞાન યુક્ત થયા છે એથી તેમને જ્ઞાની પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. તેઓ ધમના નાયક છે તેથી તેમને નાયક પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. તે મેાક્ષ માર્ગના નેતા છે. તે તત્વાના જ્ઞાતા હૈાવાથી બુદ્ધ, ખીજાએને તત્ત્વાનુ જ્ઞાન કરાવે છે તેથી એધક, સમસ્ત પ્રાણિ-વર્ગમાં જ્ઞાન રૂપી ધીંજનું આધાન તેમજ તેના સંરક્ષણુથી ચેગ ક્ષેમકરી હાવાથી સલલેક નાથ મમતા વિહીન હાવાથી નિમત્વ, શ્રેષ્ઠ કુળમાં ઉદ્ભુત હેાવા બદલ પ્રવર કુલ સમુદ્ભૂત તેમજ ક્ષત્રિય વંશમાં જન્મ લેવાથી જાત્યા ક્ષત્રિય પ્રકટ કરવામાં આવેલા છે. આ પ્રકારના વિખ્યાત ગુણુ સપન્ન લેાકેાત્તમ તીર્થ४२नी आपश्री बन्सहात्री जननी है। मेथी 'घण्णासि' तभे धन्य हो, 'पुण्णासि' युट्य
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू० १ जिनजन्माभिपेकवर्णनम् पुण्याऽसि पुण्यवत्यसि कृतार्थाऽसि सम्पादितश्योजलाऽसि 'अम्हे णं देवाणुप्पिए! अहे लोगवत्थव्याओ अट्ठदिसाकुमारीमहत्तरियाओ भगरमओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो तण्णं तुम्भे ण भाइअव्वं इति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अबक्कमंति' हे देवानुप्रिये ! तीर्थकरमातः ! वयं खलु अधोलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः भगवतस्तीर्थंकरस्य जन्ममहिमानं जन्ममहोत्सवं करिष्यामः तेन युष्माभि न भेतव्यम् असम्भाव्यमाने अस्मिन्नेकान्तस्थाने विसदृशजातीया: इमाः किमर्थ समुपस्थिताः इत्याशङ्काकुलं चेतो न कार्यम् इति कृत्वा इत्युक्त्वा उत्तरपौत्यं दिग् भागम् ईशानकोणम् अपक्रामन्ति गच्छन्ति 'अवक्कमित्ता' अपक्रम्य 'वेउविअसमुग्धाएणं समोणंति वैक्रिय समुद्घा तेन वैक्रियकरणार्थक प्रयत्नविशेषेण समवघ्नन्ति आत्मप्रदेशान् दृरतो विक्षिपन्ति 'समोहणित्ता' समवहत्य आत्मप्रदेशान् दरतो विक्षिप्य 'संखिज्जाई जोयणाई दंडं निसरंति' सख्यातानि योजनानि दण्डम् दण्ड इव दण्डः अधिः आयतः शरीर वाहल्यो जीव प्रदेश त्वं निसृजन्ति शरीराबहि. 'धण्णासि' तुम धन्य हो 'पुण्णालि' पुण्यवती हो 'कयथासि' और कृतार्थ हो 'अम्हेणं देवाणुप्पिए अहेलोगवत्थव्वाओ अदिसाकुमारी महत्तरियाओ भगवो नित्थगरस्त जम्मणमहिमं करीस्सालो तण्णं तुम्भेहिं ण भाइअव्वं इति कटु उत्तर पुरत्थिमं दिसौभागं अवक्कमंति' हे देवानुप्रिये ! हम अधोलोक निवासिनी आठ महत्तरिकदिक्कुमारिकाएं हैं, भगवान् तीर्थकर के जन्ममहोत्सव को करने के लिये आई हुई हैं । अतः आप भयभीत न हों अर्थात् असम्भाव्यमान है पर जनका आपात जिसमें ऐसे इस एकान्त स्थान में विसदृश जातीय ये किसलिये यहां उपस्थित हुइ हैं इस प्रकारकी आशंका से आकुलित चित्त आप न हो ऐसा कहकर वे ईशानकोण में चली गई । 'अवक्कमित्ता देउन्षियसमुग्घाएणं समोहणंति वहां जाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्धात द्वारा अपने आत्म प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाला 'समोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाई दंड निसरंलि' बाहिर पती छ।, 'कयत्यासि' भन कृतार्था छ।. 'अम्हेणं देवाणुप्पिए अहेलोग वत्यव्वाओ अदिसा कुमारीमहत्तरियाओ भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करीस्सामो तण्णं तुन्भेहि ण भाइयव्वं इति कट्ठ उत्तरपुरस्थिमं दिसीभाग अवक्कमंति' देवानुप्रिये ! ममे भयोas CGTસિની આઠ મહત્તરિક દિકુમારીકાઓ છીએ. ભર્ગવાન તીર્થકરના જન્મ મહોત્સને ઉજવવા માટે અમે અત્રે આવેલી છીએ, એથી તમે ભયભીત થાઓ નહિ. એટલે કે અસં. ભાયમાન છે પર જનને આપાત જેમાં એવા આ એકાત સ્થાનમાં વિસદશ જાતીય એએ શા માટે અત્રે ઉપસ્થિત થયા છે, આ જાતની આશંકાથી આકુલિત ચિત્ત આપશ્રી था। नहि. साम ४डान तमो शान त२६ ती रही. 'अवक्कमित्ता वेउव्विय'समुग्धाएणं संमोहणंति' त्यांने तेभ वैश्य समुद्धात पडे घाताना मात्म प्रशान शरीरमांथी मह.२ ४ादया. 'सम्मोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाई दंई निसरंति' मार दान
ज० ७१
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जम्बूद्वीपप्राप्तिस्त्रे निष्काशयन्ति निसृज्य ताः किं कुर्वन्तीत्याह-'तं जहा रयणाणं जाच संवट्टगवाए बिउव्यति' तद्यथा रत्नानां यावत् संवर्तकवातान् विकुर्वन्ति अत्र यावत्पदान 'वइराणं वेरुलिआणं, लोहिअक्खाणं, मसारगल्लाणं, हंस गम्भाणं, पुलयाणं, सोगंबियाणं, जोईरसाणं, अंजणाणं, अंजण 'पुलयाणं, जायरूवाणं, अंकाणं, फलिहाणं रिहाणं, अहावायरे पुग्गले परिसाउँति परिसाडित्ता ___ अहा मुहुमे पुग्गले परिआदिधति, दुच्चपि वेउविअसमुग्याएणं समोहणंति समोहणित्ता' . इतिपदसङ्ग्रहः, हीरकाणाम् १ वत्राणाम् २ वैयाणाम् ३ लोहिताक्षाणाम् ४ मसारगल्ला
नाम् ५ हंसगर्भाणाम् ६ पुलकानाम् ७ सौगन्धिकानाम् ८ ज्योतिरसानाम् ९ अञ्जनानाम् · १० अञ्जनपुलकानाम् ११ जातरूपाणाम् १२ सुवर्णरूपयाणाम् १३ अङ्कानाम् १४ स्फटिका
नाम् १५ रिष्टानाम् १६ एतेपां तत् तन्नामकपोडशरत्नविशेषाणां सम्बन्धिनो यथा वादरान् , असारान् पुद्गलान् परिसाटयन्ति परिस्यजन्ति, परिसाटय असारान् पुद्गलान् परित्यज्य , यथा सूक्ष्मान् सारान् पुद्गलान् पर्याददते गृह्णन्ति इष्ट कार्य सम्पादनाथ द्वितीयमपि वारम् , वैक्रियसमुद्घातेन वैक्रियकरणार्थकप्रयत्नविशेषेण समवघ्नति आत्मप्रदेशान् दृरतो विक्षि
निकाल कर उन आत्मप्रदेशों को उन्होंने संख्यात योजनों तक दण्डाकार में : दण्ड के आकार के रूप में परिणमाया 'तं जहा रयणाणं जाच संवगवाए
विउध्वंति, विउश्चित्ता ते णं सिवेणं मउएणं मारुएणं अणुद्धएणं भूमितलविमल • करणेणं मणहरेणं' और फिर उन्होंने यावत्पद गृहीत-"वइराणं वेरुलिआणं, · लोहियक्खाणं मसारगल्लागं, हंसगम्भाणं, पुलयाणं, सोगंधियाणं, जोइ. , रसाणं अंजणाणं, अंजणपुलयाणं, जायसवाणं, अंकाणं, फलिहाणं' हीरों के, __वनों के, वैडूर्यों के, लोहिताक्षों के, मसारगल्लों के, हंसगर्भो के, पुलकों के,
• सौगन्धिकों के, ज्योतिरसों के, अञ्जनों के, अञ्जन पुलकों के, जातरूपों के सुवर्ण" रूपों के, अङ्कों के स्फटिकों के और रिष्टों के तथा रत्नों के असार पुनलों को - छोडकर यथा सूक्ष्म पुगलों को सार पुद्गलों को ग्रहण किया फिर उन्होंने इष्ट
कार्य के संपादन के निमित्त द्वितीय वार भी वैक्रिय समुद्धात किया और उससे , તે આત્મ પ્રદેશને તેમણે સંખ્યાત જન સુધી દંડાકારમાં દંડના આકારના રૂપમાં–પરિ..त ४ा. 'तं जहा रयणाणं जाव संवट्टगवाए विउव्वंति, विउवित्ता तेणं सिवेणं मउएण
मारुएणं अणु एणं भूमितलविमलकरणेणं मणहरेणं' म पछी तेभर यावत् ५६ गडीत • 'वइराणं वेरुलिआण; लोहियक्खाणं मसारगल्लाण, हंसगन्माण पुलयाण सोगंधियाणं, जोइरसाण,
अंजणाणं, अंजणपुलयाण, जायरूवाणं, अंकाणं, फलिहाणं' हीयाना, पाना बेडूयाना, 'a.हिताना, भावना, सगना, खाना, सौगघिना, यातिरसाना, - ,નેના, અંજન પુલકેના, જાત રૂપના. સુવર્ણરૂપના, અંકના સ્ફટિકના અને રિન્ટેના
તથા રત્નના અસાર પુદ્ગલેને છેડીને યથા સૂમ પુદ્ગલેને સાર પુદ્ગલેને ગ્રહણ કર્યો. કે પછી તેમણે ઈષ્ટ કાર્યના સંપાદન માટે બીજીવાર પણ વૈકિય સમુદ્દઘાત કર્યો અને તેથી
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषकवणनम् पन्ति समवहत्य विक्षिप्य पुनक्रियसमुद्घातपूर्वकं संवर्तकवातान विकुर्वन्ति इति 'विउव्वित्ता' विकुळ 'तेणं सिवेणं मउएणं मारुएर्ण' तेन तत्कालविकुक्तेिन शिवेन उपद्रवरहितकल्याणमपेन, मृदुकेन भूमिसर्पिणा मारुतेन वायुना 'अगुद्धएणं भूमितलविमलकरणेणं 'मणहरेणं, अनुद्धतेन अनूर्ध्वगामिना भूमितलविमलकरणेन-पृथिवीतलस्वच्छकारिणा मनोहरेण मानसरञ्जनकारकेण 'सयोउ मसुरहि कुसुमगंधाणुबासिएणं पिंडिमणिहारिमेणं गंधुद्धएणं तिरिक्ष पवाइएणं' सर्व ऋतुकसुरभिकुसुमगन्धानुवासितेन पिण्डिमनिहारिमेण गन्धोद्धरेण तिर्यक प्रवातेन तत्र सर्वऋतुकानां षड् ऋतु समुत्पन्नानां सुरभिकुसुमानां सुगन्धितपुष्पाणां गन्धेन अनुवासितेन पिण्डिम:-पिण्डितः सन् निहारिमो-दूरं निर्गमनशीलो यस्तेन तथाभूतेन गन्धेन उद्धरेण बलिष्ठेन, तिर्यक वातुमारब्धेन प्रवातेन वायुना 'भगवभो तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स सत्रओ समंता जोयणपडिमंडलं' भगवतस्तीर्थंकरस्य जन्मभवनस्य सर्वतः दिक्षु समन्ताद् विदिक्षु योजनपरिपण्डलम् ताः अष्टौ दिक्कुमार्यः 'से जहाणामए कम्मारसंवर्तकवायुकाय की विकुर्वणा की वह वायुकाय शिव-कल्याणरूप था मृदुक था भूमि के ही ऊपर बहता था इसलिये अनुद्धत था अनूर्ध्वगामी था-ऊपर की ओर नहीं वहता था इससे भूमितल को साफ करनेवाला होने से वह मनोरञ्जक था 'सशेउय सुरभिकुसुमगंधाणुवासिएणं' समस्त ऋतुओं के पुष्यों की गन्ध से वह वासित था 'पिण्डिमणिहारिमेणं' उसकी गंध पिण्डित होकर दूर दूर तक जाती थी अतः वह (उद्धरेणं) बलिष्ठ था और (तिरिअं पवाइएणं) तिरछा चल. रहा था ऐसे (मारुएणं) उस वायुकाय के द्वारा (भगवओ तित्थयरस्स जम्मण भवणस्स सव्वओ समंता जोयणपरिमंडलं से जहा जामए कम्मदारए सिआ: जाव तहेव) भगवान् तीर्थंकर के जन्म भवन की सब तरफ से अच्छी तरह से उन आठ महत्तरिक दिक्कुमारियों ने कर्मदारक की तरह संमार्जना की-सफाई की यहां आगत यावत्पाद से कर्मदारक के विशेषणों का बोधक पाठ इस प्रकार से, है-यह प्रकट किया गया है-"से जहाणामए कम्मयरदारए सिया तरुणे बलवं, સંવર્તક વાયુકાયની વિમુર્વણા કરી. તે વાયુકાય શિવ કલ્યાણ રૂપ હતું. મૃદુક હતું, ભૂમિ ઉપર જ પ્રવાહિત થતું હતું એથી અનુદ્ધત હતું. અર્ધ્વગામી હતું, એટલે કે ઉપરની તરફ पडेनार न तु. से भूभितम सा३४२नार हेतु तेथी भना२०४४ हेतु : 'सव्वोउयसुरभि कुसुमगन्धाणुवासिएण' सव' ऋतुमानापानी गयी ते आवासितस्तु: 'पिंडिमणिहारिमेण तनाग ७ि३५/२-२ सुधीरताना, मेथी 'उद्धरेणं' मरशी तुमने 'तिरिअपवाहए. णं' पतिथी यासतुडतुसेवा 'मारंएण' तपायुय 43 'मगवओ तिस्थयरस्त जम्मणभवणस्स सव्वओ समंता जोयणपरिमंडलं से जहा नामए कम्मदारए सिंआ जाव तहेव सावान् तथ:કરના જન્મ ભવનના ચેમેરથી સારી રીતે તે આઠ મહત્તરિક દિકુમારિકાઓએ કામદાર કની જેમ સંમાર્જના કરી–સફાઈ કરી. અહીં આવેલા યાવત્ પદના પાઠથી કર્મધારકના
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अम्बूद्वीपमातिस्ले दारए सिमा जाव' इत्येतत्सूत्रैकदेशसूचितदृष्टान्तसूत्रान्तर्गतेन सम्मायतीतिपदेन तहेवेति दान्तिकसूत्रबलादायातेन एकवचनस्य बहुवचनपरकलमादाय विभक्तिविपरिणामात् सम्मार्जयन्तीति पदेन सह अन्वय योजना कार्या, यावत् पदासंगृहीतं तच्चेदं दृष्टान्तसूत्रम् 'से जहाणामए कम्मयरदारए सिया तरुणे वलयं जुगवं जुवाणे अप्पायंक थिरग्गहत्यदढपाणिपाएं पिलुसरोरुपरिणए घणनिचि अवटवलिअखंधे, चम्मेद्वगदुहणमुहिम समाहय निचिअगत्ते उरस्सबलसमण्णागए तरजमलजुअलपरिघवाहू लघणपवणजवणपमहणसमत्थे छेए दक्खे पट्टे कुसले मेहावी निउणसिप्पोवगए एगं महंत सलागहत्थग वा दंडसंपुच्छणि वा वेणुसलागिगं वा गहाय रायंगणं वा रायतेउरं वा देवकुलं वा सभं वा पर्व वा आरामं वा उज्जाणं वा अतुरिअमचवलमसंभंत निरंतरं सनिउणं सत्रओ समन्ता संपमज्जइ' स यथानामको यत्प्रकारनामकः कर्मकरदारकः स्यात् भवेत्, आसन्नमृत्युर्हि दारको न विशिष्ट सामर्थ्यवान् भवति, इत्यत आह-तरुणः प्रवर्द्धमानवयाः, स च बलहीनोऽपि स्यात् इत्यत जुगवं, जुवाणे, अप्पातके, थिरग्गहत्थदढपाणिपाए, पिटुंतरोपरिणए, घणणिचिअ वयलियखंधे, चम्मेहगदुहणमुट्ठिय समायनिचियगत्ते, उरस्सबल सम ण्णागए, तलजमलजुअलपरिघवाहू, लंघणपवणजइणपमहणसमत्थे, छेए, दक्खे, पट्टे, कुसले, मेहावी, णिउणलिप्पोवगए, एगं, महंत, सिलागहत्वगं वा दण्डसंपुच्छणि वा वेणुसिलागिगं वा गहाय रायंगणं चा, रायंतेउरं वा देवकुलं वा संभ वा पर्व वा आरामं वा उज्जाणं वा अतुरिय मचवलमसंभंत निरंतरं सनिउणं सव्वओ समंता संपमज्जइ" इस पाठ का अर्थ इस प्रकार से है जैसे कोई कर्मदारक वयः प्राप्त नौकरी करनेवाला लडका हो और वह आसन्न मृत्यु से रहित क्यों की आसन्न मृत्युवाला दारक विशिष्ट सामोपेत नहीं होता है तथा वह तरुण हो-प्रवर्धमान वयवाला हो बलिष्ठ हो, सुषम दुष्मादि काल में जिसका जन्म हुआ हो, युवावस्था संपन्न हो, किसीभी प्रकार की विमारी विशेष माध४ 418 21 प्रमाणे ४८ ४२पामा माटो छ से जहाणामए कम्मयरदारए सिया तरुणे बलवं, जुगवं, जुशणे अप्पानंके, थिरग्गहत्यदढयाणिपाए, पिटुंतरोरुपरिणए, घणणिचिअवट्टवलियखधे, चम्मेद्वगद्हण,मुट्ठियसमाहय निचियगत्ते, उरस्सवलसमण्णागए, तलनमलजुअलपरिघवाहू, लंघणपवण जइण पमद्दणसमत्थे, छए, दक्खे पट्टे, कुसले मेहावी, णिउणसिप्पोवगए एग महंत, सिलागहत्थग वा दण्डसंपुच्छणिवा वेणुसिलागिगं बा गहाय रायंगणं वा, राय तेउरं वा, देवकुलं वा, सभं वा, पवं वा, आरामं वा, उज्जाणं बा, अतुरिय मचवल, मसं भतं निरंतरं ,सनिउणं सत्रओ समंता संपमज्जई' मा पनि अर्थ मा प्रभारी छ. रेम કોઈ કર્માદારક વય: પ્રાપ્ત નોકરી કરનાર કોઈ છોકરી હોય અને તે આસન્ન મૃત્યુથી રહિત હાય કેમકે આસન્ન મૃત્યુવાળ છોકરે વિશિષ્ટ સામર્થોપેત હેતે નથી, તથા તે તરુણ
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् माह-बलवान् कालोपद्रवोऽपि विशिष्टसामथ्यविघ्नकारकः संभवतीत्यत आह-युगवान् युगं सुषमदुष्पमादि कालः सोऽदुष्टो निरुपद्रवो विशिष्टसामर्थ्य हेतुर्यस्यास्तीति अनौ युगवान् एतादृशश्च को भवति ? युवा यौवनवयस्थः, ईदृशोऽपि ग्नानः सन् सामर्थ्यहीनो भवतीत्यत आह-अल्पातङ्कः अल्पशब्दो अत्र अभावपरकः, तेन निरातङ्कः (रोगवर्जितः) इत्यर्थः तथा स्थिराग्रहस्तः स्थिरः प्रस्तुतकार्यकरणे कम्पमानरहितः अग्रहस्तो हस्ताग्रं यस्या सौ तथाभूतः, तथा-दृढपाणिपादः दृढं निविडतरमापन्नं पाणिपादं यस्य स तथाभूतः तथा पृष्ठान्तरोरुपरिणतः पृष्ठम् प्रसिद्धम् अन्तरे पार्थरूपे ऊरू सक्थिनी एतानि परिणतानि परिनिष्ठितानि यस्य स तथाभूतः अहोनाङ्ग इत्यर्थः, क्तान्तस्य परनिपातः पाक्षिको वोध्यः, तथा घननिचितवृत्तवलितस्कन्धः घननिचित्तौ निविडतरचयमापन्नौ वलिताविव वलितो हृदयाभिमुखौ जावावित्यर्थः वृत्तौ स्कन्धौ यस्य स तयाभूतः अत्र मूले वृत्तशब्दस्य वलितशब्दात् परप्रयोगः इष्ट पूर्वप्रयोगः प्राकृतत्वाद् बोध्यः, तथा चर्मेष्टर द्रुषणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रः चर्भेष्टकेन चर्मपरिणद्ध कुट्टनोपगरणविशेषेण द्रुघणेण धनेन मुष्टिकया च सृष्टया समाहताः२ सन्तस्ताडितास्ताडिताः सन्तो ये निचिताः निविडीकृताः प्रवहण प्रेष्यमाण वस्तुग्रन्थकादयस्तद्वद् गात्रं यस्य स तथाभूतः तथा उरस्यबलसमन्वागतः उरसिभवमुरस्यम् एवंभूतेन वलेन समन्वागतः आन्तरोत्साहवीर्ययुका, तथा तलयमयुगलपरिववाहुः से विहीन हो, अपने कार्य के करने में जिसका हस्त कम्पन ले रहित हो, जिसके हाथ और पैर बहुन अधिक मजबूत हो, कोई भी अङ्गजिसका हीन न हो-परिपूर्ण अंगोवाला हो, स्कन्ध जिसके बहुत मांसल पुष्ट हो हृदय की तरफ झुके हुए हों और गोल आकार के हो, जिसके शारीरिक अवयव चमडे के बन्धनों से युक्त उपकरण विशेष से या मुद्गर से या मुष्टि का से बार २ कूट २ कर बहुत अधिक धन निचित अवयववाली की गई वस्त्रादिक की गांठ की तरह मजवून हों छातीका बल जिसका बहुत अधिक हो-अर्थात् भीतरी उत्साह और वीर्य से जो युक्त हो जिसके बाहु ताल वृक्ष के जैसे एवं હેય પ્રવર્ધમાન વયવાળ હોય, બલિષ્ઠ હોય, સુષમ, દુષમાદિ કાળમાં જેને જન્મ થયે હિય, યુવાવસ્થા સંપન્ન હોય, તેને કઈ પણ જાતની બીમારી હેય નહિ, પિતાનું કામ કરતી વખતે જેના હાથ અને પગ કંપિત થતા નથી એ હય, જેના હાથ અને પગ પૂબજ સુદઢ હોય, જેનું કંઈ પણ અંગ હીન હેય નહિ–એટલે કે તે પરિપૂર્ણ અંગોવાળે હાય, સ્કછે જેના અતીવ માંસલ એટલે કે પુષ્ટ હાય, હૃદય તરફ નમેલા હોય તેમજ ગોળાકાર વાળા હોય, જેના શારીરિક અવયવે ચામડાના બંધનથી યુક્ત ઉપકરણ વિશેથથી અથવા મુદુગરથી અથવા મુષ્ટિકાથી વારંવાર કૂટી-ફૂટીને બહુજ અધિક ઘન નિશ્ચિત અવયવવાળા વસ્ત્રાદિકેની ગાંઠની જેમ મજબૂત હોય, જેની છાતી બળવાન હોય એટલે કે ભીતરી ઉત્સાહ અને વીર્યથી જે યુક્ત હોય જેના બાહુ તાલવૃક્ષ જેવા અને લાંબા
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जम्बूद्वीपप्रमसिसूत्र -तली तालवृक्षौ तयो यमलम् समश्रेणीकं ययुगलं द्वयं परिघश्च अर्गला तन्निभे तत्सदृशे दीर्घप्तरलपोनत्वादिना वाह यस्य स तथा भूतः, तथा-लङ्घनप्लवनजवनप्रमर्दनसमर्थः तत्र कन्चने गर्तादे रतिक्रमणो प्लवने कूदने जवने अतिशीघ्रगमने प्रमर्दने कटिनस्यापि वस्तूनपूर्णने समर्थ:-सक्तः, तथा छेकः कलापण्डितः दक्षः कार्याणामविलम्बितकारी (शीवकारी) प्रष्ठा-वाग्मी कुशलः सम्पक्रिया परिज्ञायकः, मेधावी सकृन् श्रुनदृष्टकर्मनः, निपुण शिल्पोपगत:-निपुणं यथास्यात्तथा शिल्पक्रियासु कुशलतामुपगतः प्राप्तः, एवंविधः पुरुषः एक महान्तं शलाकहस्तकं वा सरिस्पर्णादिशलाकासमुदायं सरित्पर्णादि शलाकामयीं सम्मानिकामित्यर्थः वा शब्दाः विकल्पार्थाः दण्डसंपुच्छनी वा दण्डयुक्तां सम्मानिकाम् वा, वेणुशलाकिकीं वा-वंशशलाकानिवृत्तां संमार्जनिकां गृहीत्वा आदाय राजागणं वा-राजप्राङ्गणं, राजान्तःपुरं वा, देवकुलं वा, सभां वा, पुरप्रधानानां मुखनिवेशनहेतुमण्डपिकामित्ययः, प्रपा वा पानीयशालाम् आरामं वा दम्पत्यो नंगरासम्मरतिस्थानम्, उधानं वा क्रीडार्थागतलम्बे अर्गला के जैसे जो गत आदि के लांघने में, कूदने में और अति शीघ्र चलने में या अति कठिन भी वस्तु को पूर्ण करने में विशिष्ट शक्तिशाली हो, छेद-कलाभिज्ञ हो, दक्ष हो कार्य करने में विलम्बकर्ता न हो, पृष्ठ वाग्मी हो, कुशल हो-कार्य करने की विधिका जाना हो, मेधावी हो एकवार सुनकर या देखकर उस २ काम का करनेवाला हो, निपुणशिल्पोगत हो-अच्छी तरह से शिल्प क्रियाओं में कुशलता प्राप्त हो ऐसा वह दारक खजूर के पत्तों की बनी हुई बुहारी को या वासकी सीकों से बनी हुई बुहारीको कि जितके भीतर दण्ड लगाया गया हो लेकर राजाङ्गण को या राजा के अन्तः पुरको देवकुलको, या पुरप्रधानजनों को सुख से बैठने योग्य किसी मंडपस्थान को, या पानीयशाला को, आराम को-दम्पतीजनो को, जहां रति क्रीडा करने में निश्चिन्तता मिले ऐसे नगरासन्नवर्ती स्थान को या उद्यान को-क्रीडार्थ आगतजनो के यान वाहन અર્ગલા જેવા છે, જે ગત વગેરેને ઓળંગવામાં, કૂદકો મારવામાં અને અતિ શીઘ ચાલવામાં અથવા અતિ કઠિન વસ્તુને વિચૂર્ણિત કરવામાં વિશિષ્ટ શક્તિશાલી હાય, છેક કલાશિ હોય, દક્ષ હય, કાર્ય કરવામાં વિલંબ કરનાર હાય નહીં, પ્રષ્ઠ-લાગ્મી હોય, કુશળ હાય-કાર્ય કરવાની વિધિને જાણનાર હોય, મેધાવી હોય, એક વખત સાંભળીને કે જોઈને કોઈ પણ કામને શીખીને કરનાર હોય, નિપુણ-
શિપગત હોય, સારી રીત શિલ્પ ક્રિયાઓમાં કુશલતા પ્રાપ્ત હોય એ તે દારક ખજૂરના પાંદડાની બનેલી સાવરણીને અથવા વાંસની સીકેની બનેલી સાવરણીને કે જેની અંદર દંડ બેસાડવામાં આવેલ હોય લઈને રાજાંગણને કે રાજાના અન્તઃપુરને કે દેવ-કુલને કે પુર પ્રધાન જનેને સુખ પૂર્વક બેસવા ગ્ય કેઈ મંડપ સ્થાનને કે પાનીયશાલાને, આરામને-દંપતી જનેને જ્યાં પતિકીડા કરવામાં નિશ્ચિતતા મળે, એવા નગરાસનવતી સ્થાનને કે ઉદ્યાનને-કીડાથે આગત
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'प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिन सन्माभिषेकवर्णनम् जनानां प्रयोजनाभावेनोविलम्वितयान्ववहनाद्याश्रयभूतं तरुखण्डम् अत्वरितमचपलमसंभ्रान्तम् त्वरायां चापल्ये सम्भ्रमे वा सम्यक कचवर घनिवारणासम्भवात्, तत्र त्वरा मानसौमुक्यं चापल्यं कार्योंत्सुक्यं सम्भ्रमश्च गतिस्खलनमिति निरन्तरं नतु अपान्तरालमोचनेन मुनिपुणं स्वल्पस्यापि अक्षोक्षस्य अपसारणेन सर्वतः समन्तात् सम्प्रमार्जयेदिति, अथ उक्तदृष्टान्तस्य दाष्टान्तिकयोजनाय प्राह-'तहेव' तथैव उक्ताकारेणैव एता अपि अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः योजनपरिमण्डलं योजनप्रमाणं वृत्तक्षेत्रं सम्मार्जयन्तीति बहुवचनान्तया विभक्ति विपरिणामः 'जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कटं वा इयवरं वा असुइम बोक्खं पूइअं दुब्भिगंधं तं सव्वं आहुणि आहुणिम एगंते एडेंति एडिता जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयर. माया य तेणेत्र उवागच्छंति' यत्तत्र योजनपरिमण्डले तृणं या पत्रं वा काष्ठं वा कचवरं वा अशुचि अपवित्रम् अचोक्षं मलिनम् पूतिकं दुरभिग-धं तत्सर्वमाधूय आधूय सञ्चाल्य सञ्चाल्य एकान्ते योजनपरिमण्डलादन्यत्र एडयन्ति अपनयन्ति एडयिता अपनीयार्थात् संवर्तकवातोपशमं विधाय यत्रैव भगवांस्तीर्थकरतीर्थकरमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'भगवओ तित्थयरस्स तिस्थयरमायाए य अदरसामंते आगायमाणीओ परिआदि के ठहरने के स्थान को जो कि वृक्षादि कों से समाकुल हो, अत्वरितरूप, अचपलरूप से, असंभ्रान्तररूप से युक्त होकर अच्छी तरह कूडा करकट निकालकर साफ कर देता हैं-स्वच्छ बना देता है-उसी तरह से इन आठ दिक्कुमारिकाओं ने भी योजन परिमित वृत्त क्षेत्र को बिलकुल साफ सुथरा बना दिया 'जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कटं या कयवरं वा असुहमचोक्खं, पूइअं दुन्भिगंध, तं सवं आहुणिय २ एगते एडेंति' जो भी वहां तृण अथवा पत्ते, या लकडी, या कूडा करकट, या अशुचि पदार्थ या दुरभिगन्धवाला पदार्थ था-वह सब उठा २ कर उडवा २ कर उस एक योजन परिमित वृत्तस्थान से दूसरी जगह डाल दिया 'एडित्ता जेणेव भगवं तित्थयरे तित्ययरमाया य तेणेव उवागच्छति' संवर्तकवायुको शान्त कर फिर वे सबकी सय दिक्कुमारिकाएं जहां तीर्थंकर और तीर्थकर की माता थी वहां पर आई-'उवागच्छित्सा भगवओ જના યાન–વાહન વગેરેને ઉભા રાખવાના સ્થાનને કે જે વૃક્ષાદિકથી સમાકુલ હય, અત્વરિત રૂપથી, અચપલ રૂપથ, અસંભ્રાન્ત રૂપથી. યુક્ત થઈને સારી રીતે કચરે સાફ કરી નાખે છે–સ્થાનને સ્વચ્છ બનાવી દે છે, તેમજ તે આઠ દિકકુમારિકાઓએ પણ જન रेटा वृत्त क्षेत्रने सम स्वच्छ नापी धु'. 'जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कवा कयवर "वा असुइमचोक्खं, पुइअं दुभिगंधं तं सव्वं आहुणिय २ एगत्ते एडे ति' त्या तृप, पsi લાકડા, ચરે, અશુચિ પદાર્થ, મલિન પદાર્થ, દુરભિ ગન્ધવાળો પદાર્થ જે કંઈ હતું તેને ઉઠાવી–ઉઠાવીને, તે એક થાજન પરિમિત વૃત્ત સ્થાનથી બીજા સ્થળે નાખી દીધું. 'एडित्ता जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव ज्वागच्छंति' सव वायुने शांत री
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जम्बूद्वीपप्रज्ञतिसूत्रे
गामाणीओ चिति' भगवतस्तीर्थङ्करस्य तीर्थङ्करमातुश्च अदरसामन्ते नातिदूरासन्ने आगायन्त्यः- आ - ईपत्स्वरेण गायन्त्यः प्रारम्भकाले मन्दस्वरेण गायमानत्वात् परिगायन्त्यः गीत प्रवृत्तिकालानन्तरं तारस्वरेण गायन्त्य स्तिष्ठन्ति ताः अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः ||६० १|| अथ ऊर्ध्वलोकवासिनीनामवसरमाह- 'तेणं काळेणं' इत्यादि ।
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं सएहि कूडेहिं, सएहिं सरहिं भवणेहिं एहिं एहिं पासायवडेंस एहिं पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्लीहिं एवं तं चैत्र वदण्णियं जाव विहरंति, तं जहा - मेहंकरा१, मेहर, सुमेहार, मेहमालिनी४ । सुवच्छा५ वच्छमित्ता य६ वारिसेणा७ वलाहगा८ ||१|| तरणं तासिं उद्धलोगवत्थव्याणं अट्टहं दिसाकुमारी महत्तरियाणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलति, एवं तं चैव पुत्रवविणयं भाणि जाव अम्हेणं देवाणुप्पिए । उद्धलोगवत्थव्त्राओ अ दिसाकुमारी महत्तरियाओ जे णं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिसामो तेणं तुम्भेहिं ण भाइअव्वं तिकट्टु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अत्रकमंति, अवकमित्ता जाव अव्भवद्दलए विउव्वंति विउन्त्रित्ता जाव तं निहयरयं णटुरयं भट्टरयं पसंतरयं उवसंत्तरयं करेंति करिता खिप्पामेव पच्चत्रसमंति, एवं पुप्फबद्दलंसि पुष्पवासं वासंति वासित्ता जाव कालागुरु पर जाव सुरवराभिगनणजोग्गं करेंति करिता जेणेव भगवं . तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छेति उवागच्छित्ता जाव आगायसाणीओ परिणायमाणीओ चिति ॥ सू० २ ॥
तित्थपरस्स तित्थयरमायाए अदूरसामंते आगायमाणीओ परिगायभाणीओ चिति' वहां आकर वे अपने उचित स्थान पर बैठ गई और पहिले धीमे धीमे स्वर से और बाद में जोर २ स्वर से गानेलगी ॥१॥
પછી તે બધી દિકુમારિકાએ જ્યાં તી કર અને તીર્થંકરના માતુશ્રી હતાં ત્યાં આવી. 'खागच्छित्ता भगवओ तित्थयरस्स तित्थर रमायाएअदृर सामंते आगायमणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति' त्यां ने तेयो योतपोताना उचित स्थान ઉપર બેસી ગઈ અને પહેલાં ધીમા ધીમા સ્વરે અને ત્યાર પછી જોર-જોરથી ગાવા લાગી. ॥ ૧ ॥
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. २ ऊर्ध्वलोकवासिनीनामवसरवर्णनम्
छाया-तेन कालेन तेन समयेन ऊर्ध्वलोक वास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः वकैः स्वकैः कूटैः स्वकैः स्वकैः भवनैः स्वकैः स्वकैः प्रासादावतंसकै। प्रत्येकं प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः एवं तदेव पूर्ववर्णितं यावद् विहरन्ति तद्यथा-'मेघंकरा १ मेघवती २ मुमेघा ३ मेघमालिनी ४ । सुवत्सा ५ वत्समित्रा ६ च वारिषेणा ७ बलाहका ८ ॥१॥ ततः खलु तासाम् ऊर्ध्वलोकवास्तव्यानाम् अष्टानां दिक्कुमारीमहत्तरिकाणाम् प्रत्येक प्रत्येकम् आसनानि चलन्ति, एवं तदेव पूर्ववणितं भणितव्यं यावत् वयं खलु देवानुप्रिये ! ऊर्ध्वलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिका येन भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं करिष्यामः तेन युष्माभि न भेतव्यम् इति कृत्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग् भागम् अपक्रामन्ति अपक्रभ्य यावत् अभ्रवादलकानि विकुर्वन्ति विकुळ यावत् तत् निहतरजः, नष्टरजः भ्रष्टरजः प्रशान्तरजः उपशान्तरजः कुर्वन्ति कृत्वा क्षिप्रमेव प्रत्युपशाम्यन्ति एवं पुष्पवादलके पुष्पवर्ष वर्षन्ति वर्षित्वा यावत् कालागुरुप्रवर यावत् सुरवराभिगमनयोग्यं कुर्वन्ति कृत्वा यत्रैव भगवान तीर्थङ्करस्तीर्थङ्करमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य यावत् आगायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्ति ॥सू० २॥ ____टीका-'तेणं कालेणं' इत्यादि 'तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोगवत्थव्याओ अट्ट दिसाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं सएहिं कूडेहिं' मूले सप्तम्यर्थे तृतीया तेन तस्मिन् काले सम्भवजिनजन्मके भरतैरावतेषु तृतीयचतुर्थारकलक्षणे महाविदेहेषु चतुर्थारकपतिभागकक्षणे तत्र सर्वदाऽपि तत्रायसमयसदृशकालस्य वर्तमानत्वात् तस्मिन् समये अर्द्धरात्रलक्षणे तीर्थकराणां हि मध्यरात्र एव जन्मसंभवात् ऊर्ध्वलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारीमहत्चरिकाः दिक्कुमार्यों दिक्कुमारभवनपतिजातीयाः महत्तरिकाः स्ववर्येषु प्रधानतरिकाः स्वकैः स्वकै कूटैः सप्तम्यर्थे तृतीया तेन स्वकेषु स्वकेषु कूटेषु 'सएहिं सरहिं भवणेर्डि' स्वकैः स्वकैः भवनैः स्वकेषु स्वकेषु भवनेषु भवनपतिदेवावासेषु 'सएहिं सएहिं पासाय
'तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोगवत्थव्वाओ' सू० ॥२॥
टीकार्थ-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' उस कालमें और उस समय में 'उद्धलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ सएहिं २ कूडेहिं, सएहि २ भवणेहिं, सरहिं २ पासायवडेंसएहिं पत्तेयं २ चाहिं सामाणियसाहस्सीहिं एवं तं चेव पुत्ववणियं जाव विहरंति' उछलोकवासिनी आठ महत्तरिक प्रत्येक दिक्कुमारिकाएं अपने २ कूटों में अपने अपने भवनों में अपने अपने प्रासादाव
'तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोगवत्थव्वाओ' इत्यादि
Ast:-'तेणं कालेणं तेणं समएण' ते ण म त समयमा 'उद्धलोगवत्थव्वाओ अटू दिसाकुमारिमहत्तरियाओ सपहिं २, कूडेहिं, सएहिं २, भवणेहिं, सरहिं २, पासायवडेंसएहिं पतेय २ चरहिं सामाणियसाहस्सीहिं एवं तं चेव पुव्ववणियं जाव विहरति' eqલોક વાસિની આઠ મહત્તરિક દરેક દિકુમારિકાઓ પિત–પિતાના કૂટમાં, પિત–પિતાના
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जम्बूद्वीपप्राप्ति वडेंसएहि' स्वकैः स्वकैः प्रासादावतंसकैः स्वकेषु स्वकेपु प्रासादावतंसकेषु स्वस्वकूटवत्तिक्रीडावासेपु 'पत्तेयं पत्तेयं चउहि सामाणियसाहस्सीहिं' प्रत्येकं प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः सामानिकानां दिक्कुमारीसदृशधुतिविभवादियुतां देवानां सहस्रः चतुः सहस्रसंख्यकसामानिकदेवैरिस्यर्थः एवं तं चेव पूववणियं नाव विहरंति' एवं तदेव पूर्ववदेव पूर्ववणितं यावद् विहरन्ति तिष्ठन्ति, अत्र यावत् पदात् 'चउहि महत्तरियाहि सपरिवाराहिं' इत्यारभ्य 'देवेहि देवीही य सद्धिं संपरिवुडाओ' इत्यन्तं ग्राह्यम्, एतत्सर्वं व्याख्यानं च अव्यवहितपूर्वसूत्रे द्रष्टव्यम्, अयं विशेषः प्रोक्ताष्टदिक्कुमारीमहत्तरिकाणाम् ऊर्श्वलोकवासित्वं च समभूतलात् पश्चाशतयोजनोच्चनन्दनवनगतपञ्चशतिकाष्टकटवासित्वेन ज्ञेयम् तंसकों में जैला कि पहिले प्रथम सूत्र में कहा जा चुका है उसके अनुसार अपने २ चार हजार समानिक देव आदिकों के साथ परिवृत्त होकर भोगों को भोग रही थी उनके नाम इस प्रकार ले है-'मेहंकरा १, मेहबई २, सुमेहा ३, मेहमालिनी ४, सुवच्छा वच्छमित्ताय ६, वारिलेणा ७, बलाहमा ८," मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी सुवत्सा, बत्समित्रा, वारिसेणा, और बलाहका। "एवं चेव तं पुश्ववणियं जाव विहरंति" में जो यावत्पद आया है-उससे "चउहिं महत्तरियाहिं सपरिवाराहि" यहां से लेकर "देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिबुडाओ" तकका पाठ गृहीत हुआ है अर्थात् जैसा यह पाठ प्रथम सूत्र में लिखा जा चुका है-वैसा ही वह सव पाठ यहां पर ग्रहण करलेना चाहिये यही यावत्पद का प्रयोजन है। इनमें और आठ अधोलोक वालिनी दिक्कुमारिकाओं में यह अन्तर है कि इन आठ महत्तरिक दिक्कुमारिकाओं में जो उर्वलोकवासिता है वह इस समतलभूतलसे पांचसी योजन ऊंचाई वाले नन्दनवन में रहे हुए पञ्चशतिक आठ कूटों में रहने से है यहाँ ऐसी आशंका नही करनी ભવમાં, પિત–પિતાના પ્રાસાદાવર્તસકમાં જે પ્રમાણે પ્રથમ સૂત્રમાં કહેવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે પિત–પિતાના ચાર હજાર સામાનિક દે વગેરેની સાથે પરિવૃત થઈને ભેગે मोगली २ही ती, तमना नामी प्रभो छ 'मेहंकरा १, मेहबई ३, सुमेहा ३, मेहमालिनी ४, सुवच्छा ५, वच्छमित्ताय ६, वारिसेणा ७, वलाहगा ८ ॥ ४२१, मेघवती, सुभेधा, मेघमालिनी, सुपत्सा, वत्सभित्रा, पारिस भने माRit. 'एवं चेव तं पुव. पण्णिय जाव विहरंति' मा २ यावत् ५४ व छ तेथी 'चउहि महत्तरियाहिं सापवाराहिं' मही थी भांडार. 'देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुडाओ' सुधीना 46 sीत थ छे. એટલે કે જે પ્રમાણે આ પાઠ પ્રથમ સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલ છે, તેવોજ પાઠ અહીં ગૃહીત થયેલ છે. યાવત્ પદનું એજ પ્રજન છે. એ પાઠમાં અને આઠ અલેક વાસિની દિકુમારિકાઓમાં આટલે તફાવત છે કે આ આઠ મહત્તરિક દિકુમારિકાઓમાં જે ઉર્વ લેકવાસિતા છે તે આ સમતલ ભૂતલથી ૫૦૦ એજન ઊંચાઇ વાળા નન્દન વનમાં આવેલા
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. २ ऊर्ध्वलोकवासिनीनामवसरवर्णनम् ५७६ . ननु अधोलोकवासिनीनां गजदन्तगिरिगतकूटाष्टके यथा क्रीडानिमित्तको वासस्तथैव तासामपि अत्र भविष्यतीति चेत्, मैवं यथाऽधोलोकवासिनीनां गजदन्तगिरिनामधो भवनेषु वासः श्रूयते तथैतासाम् अश्रूयमाणत्वेन तत्र निरन्तरेण वाससद्भावात् ततश्चोर्ध्वलोकवासित्वोपपत्तेः । एतासां नामानि पदवन्धेनाह 'तं जहा-मेहंकरा १ मेहवई २ सुमेहा ३ मेह-' मालिनी ४ । सुवच्छा ५ वच्छमित्ताय ६ वारिसेणा ७ बलाहगा ८ ॥१॥ तद्यथा-मेघङ्करा १ मेघवती २ सुमेघा ३ मेघमालिनी ४ । सुवत्सा ५ वत्समिरा च ६ वारिषेणा ७ बलाइका ८॥१॥ 'तए णं तासिं उद्धलोगवत्थव्वाणं अट्ठण्डं दिसाकुमारीमहत्तरियाणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलंति' ततः खलु तदनन्तरं किल, तासाम् ऊर्ध्वलोकवास्तव्यानास् अप्टानां दिक्कुमारीमहत्तरिकाणां प्रत्येकं प्रत्येकम् आसनानि चलन्ति चलितानि भवन्ति 'एवं तं चेव पूनवण्णिय भाणियव्वं जाव अम्हेणं देवाणुप्पिये ! उड्डलोगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारी चाहिये कि जिस प्रकार अधोलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाओं का वास गजदन्तगिरिगत अष्टकूटों में क्रीडा के निमित्त होता है और इसी से उन्हे "अधोलोक वासिनी" इस विशेषण से अभिहित किया गया है तो ऐसाही इनका निवास पञ्चशतिक आठ कूटों में रहने से होता होगा ? क्योंकि अधोलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाओं का तो वास इसी प्रकार से गजदन्तगिरियों के नीचे के भवनों में सुना गया है वैसा इन उवलोकवासिनी आठ दिक्कुमादिकाओं के वहां निवास के सम्बन्ध में नहीं सुना गया है। ये तो वहां निरन्तरही रहती है 'तएणं तासिं उद्धलोगवत्थव्वाणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीमहत्तरियाणं पत्तेयं २ आसणाइं चलंति' जब तीर्थंकर प्रभु का जन्म हो चुका-तय इन उर्घलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाओं ने अपने अपने आसनों को कम्पित होते हुए देखा 'तं चेव पुश्ववणियं भाणियन्वं' तो देखकर के उन्होने क्या किया-इस सम्बन्ध में जानने के लिये सूत्र प्रथम में जैसा कहा गया है वैसाही यहाँपर भी समझना चाहियेપંચણતિક આઠ કૂટમાં રહેવાથી છે. અહીં એવી આશંકા કરવી જોઈએ નહિ કે જેમ અલાવાસિની આઠ દિકકુમારિકાઓને વાસ ગજદન્ત ગિરિગત અષ્ટ કૂટમાં કીડા નિમિત્તે राय छ, भने मेथी २ तेभने 'अधोलोकवासिनी' से विशेषथी ममिडित ४२पामां આવી છે તે આ પ્રકારને જ એમનો નિવાસ પંચશતિક આઠ કૂટમાં રહેવાથી તે હશે? કેમકે અલોકવાસિની આઠ દિકુમારિકાઓને વાસ તે આ પ્રમાણે ગજદનગિરિઓની નીચેના ભવનમાં સાંભળવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે એ ઉર્વલકવાસિની આઠ દિકમરિકાએ ત્યાં નિવાસ કરે છે, એવું સાંભળવામાં આવ્યું નથી, એ તે નિરંતર त्या २९ छ. तए णं तासिं उद्धलोगवत्थव्वाणं अखण्हं दिसाकुमारीमहत्तरियाणं पत्तय २ आसणाई चलंति' न्यारे तीय ४२ प्रभुने भ थागये।, त्यारे मे Galsपासिनी मा .
मारियाये पातपाताना भासन। ४पित यतां नयां, 'तं चेव पुव्ववण्णिय भाणियवं તે જોઈને તેમણે શું કર્યું ? આ સંબંધમાં જાણવા માટે સૂત્ર પ્રથમમાં જે પ્રમાણે કહે
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्र महत्तरियामओ जे णं तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो' एवं तदेव पूर्ववर्णितम् अव्यवहितपूर्वसूत्रवणितं भणितव्यं वक्तव्यम्, कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव अम्हेणं देवाणुप्पिये !' इत्यादि । हे देवानुप्रिये ! हे तीर्थङ्करमातः यावद् वयं खलु अवलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः येन भगवतः तीर्थङ्करस्य जन्ममहिमानम् जन्ममहोत्सवं करिप्यामः विधास्यामः, अत्र यावच्छन्दोऽवधिवाचको न तु सग्राहकः, 'तेणं तुम्भेहिं न भाइयवं तिकटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीमागं अवकमंति' तेन युष्माभि ने भेतव्यम् असंभाव्यमानेअस्मिन्नेकान्तस्थाने विसदृशजातीयाः इमाः कथं समुपस्थिता इत्याशङ्काकुलं चेतो न कार्यम् इतिकृत्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् ईशानकोणम् अपक्रान्ति निर्गच्छन्ति 'अवकमित्ता' अपक्रम्य निर्गत्य ताः अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः 'जाय अब्भवद्दलए विउव्वंति' यावत् अभ्रवादलकान् अभ्रे आकाशे वाः पानीयं तस्य दलकान् मेघान् विकुर्वन्ति विकुर्वणा शक्त्या निर्मान्ति अत्र यावत्पदात् 'वेउब्वियसमुग्धाएणं समोदणंति समोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाई दंडं निसरंति, दोच्चं वेउब्बियसमुग्धाएणं समोहणंति, समोहणित्ता' इति ग्राह्यम् वैक्रिय'जाव अम्हेणं देवाणुप्पिए उड्लोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरियाओ जेणं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो तेणं तुम्भेहिं ण भाइअव्वं' यावत् हे देवानुप्रिये ! हमलोक उर्ध्वलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिका महत्तरिकाएं हैं हम भगवान् तीर्थकर के जन्ममहोत्सव को करेगी इसलिये आप "असंभाव्यमान है परजन का आपात जिसमें ऐसे इस एकान्त स्थान में विसदृश जातीय ये किसलिये उपस्थित हुई है" इस प्रकार की आशंका से आकुलित चित्त न हो 'त्ति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति' इस प्रकार कह कर वे ईशान कोण में चली गई । 'अवश्कमित्ता जाव अभवद्दलए विउच्चंति' वहां जाकर के उन्हों ने यावत् आकाश में अपनी विक्रिया शक्ति के द्वारा मेघों की विकुर्वणा की-यहां यावत्पद् से "वेउब्धियसमुग्धाएणं संमोहणंति, समोहपाभ छ, ते प्रभारी र सघणु ४थन समान मे. 'जाव अम्हेणं देवाणुप्पिए उडूढलोगवत्थव्वाओ अटु दिसाकुमारीमहत्तरियाओ जे णं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं फरिरसामो तेणं तुमहिं ण भाइअव्वं' यावत् वानु प्रिये ममे सोही Baralsafसनी 18 દિકુમારિકા મહત્તરિકાઓ છીએ. અમે ભગવાન તીર્થકરને જન્મ મહોત્સવ ઉજવીશું. એથી આપશ્રી “અસંભવ્યમાન છે, પરજનને આપાત જેમાં એવાં એકાન્ત થાનમાં વિસદશ જાતીય આ બધી શા માટે આવી છે? આ જાતની આશંકાથી આકલિતચિત્ત થશે नहि. 'त्ति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीमागं अवक्कमति' मा प्रमाणे ही तो शान
य त२६ गती २81. 'अवक्कमित्ता जाव अभवदलए विउच्च ति' त्यो न तभणे यावत् આકાશમાં પિતાની વિક્રિયા શક્તિ વડે એની વિકૃર્વણુ કરી. અહીં યાવત્ પદથી વેaवियस मुग्धाएणं समोहणति समोहणित्ता, संखिजाई जोयणाई दण्ड निसिरति, दोच्चं वेउव्वियसमु..
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. २ ऊर्ध्वलोकवासिनीनामवसरवर्णनम् समुद्घातेन वैक्रियकरणार्थकप्रयत्नविशेषेण समवघ्नन्ति आत्मप्रदेशान् बहिविक्षिपन्ति समवहत्य आत्मप्रदेशान् वहिर्विक्षिप्य संख्यातानि योजनानि दण्डम् दण्ड इव दण्डः ऊर्ध्वाध आयतः शरीरबाहल्यो जीव प्रदेशस्तं निसृजन्ति शरीराद् बहि निष्काशयन्ति चिकीर्षितकार्यसम्पादनार्थ द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति आत्मप्रदेशान बहिर्विक्षिपन्ति समवहत्य आत्मप्रदेशान् बहिर्विक्षिप्य अभ्रमादलकान् मेघान् विकुर्वन्तीति 'विउवित्ता जाव' विकुर्व्य वैक्रियशक्त्या मेघान् कृ वा यावत् अत्र यावत्पदात् 'से जहोणामए कम्मारदारए सिया तरुणे बलवं जुगवं जुवाणे अप्पार्यके थिरग्गहत्थे दढपाणिपाए पिटुंतरोरुपरिणए घणनिचियवट्टवलियखंधे चम्मेलुगदुहणमुट्ठियसमाहयनिषियगत्ते उरस्सवलसमण्णागए तल जमलजुयलपरिघवाहू लंघणपवणजवणपमद्दणसमत्थे छेए दक्खे पढे कुसले मेहावी निउणसिप्पोवगए एगं महतं दगवारगं वा, दगकुंभयं वा, दगथालगं वा, दगकलसं वा, दगभिंगारं वा, गहाय रायंगणं वा जाव समंता आवरिसिज्जा, एवमेव तामो णित्ता, संखिज्जाई जोयणाई दण्डं निसिरति, दोच्चं वेउब्वियसमुग्याएणं संमो. हणित्ता" इस पाठका ग्रहण हुआ है, इन पदों की व्याख्या इसी वक्षस्कार के कथन में. १ सूत्र में की जा चुकी है 'विउन्वित्ता जावतं नियरयं णट्ठरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति' आकाश में वार्दलिकों की-पानी बरसानेवाले मेघो की विकNणा करके यावतू उन्होने उस भगवान् तीर्थकर के जन्म भवन के चारों ओर की एक योजन तक की भूमि को निहत रजवाली; नष्ट रजवाली भ्रष्ट रजवाली: प्रशान्त रजवाली और उपशान्त रजवाली बना दिया यहां यावत् शब्द से-"से जहाणामए कम्प्रारदारए सिया तरुणे, बलवं, जुगवं, जुवाणे,. अप्पायके; थिर. ग्गहत्थे, ढपाणिपाए, पिटुतरोरुपरिणए, घणिचियववलियखंधे, चम्मेव गदुहणमुट्टियसमाहयनिचियगत्ते, उरस्सरलसमपणागए तलजमलजुयलपरि. घबाहू, लंघणपवणजवणपमद्दणसमत्थे, छेए, दक्खे, पढे, कुसले, मेहावी, निउसिप्पोवगए एगं महंत दगवारगं वा द्गकुंभयं वा; दगथालयं वा, दकग्याएणं संमोहणित्ता' मा पा8 सहीत थयो छ. २. पानी व्याच्या मारना ४नमा सूत्र प्रथममा ४२वाभा मावी छे. 'विउवित्ता जोव निहयरयं णदरयं भदरयं पसं. तरय उवसंतश्यं करेति' माशिमा पाजामानी-पाणी परसाना२ भेधानी-विपश થાવત તેમણે વૈકિયશક્તિથી મેઘે ઉત્પન્ન કર્યા અને તે મેઘાએ તે ભગવાન તીર્થકરના જન્મ ભવનની મેરની એક યોજન જેટલી ભૂમિને નિહત રજવાળી, નષ્ટ રજવાળી ભ્રષ્ટ ૨જ્યાળી, પ્રશાંત રજવાળી અને ઉપશાંત રજવાળી બનાવી દીધી. અહીં યાર શબ્દથી 'से जहाणामए कम्मारदारए सिया तरुणे, बलव जुगव, जुवाणे, अप्पायके, थिरगाहये, दढपाणियाए, पि,तरारुपरिणए, घणणिचियववलियखंधे, चम्मेढगदुहणमुद्वियसमाहयनिचियगत उरस्सबलसमण्णागए तलजमलजुयलपरिघबाहू लंघणपवणजवणपमदणसमंत्थे, छेए दखे. पट्टे, कुसले' मेहावी, निउणसिप्पोवगए एग महंत दगवारंग वा, दगकुंभयं वा, दुगथालयं वा
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जम्बूद्वीपप्रशक्तिसूत्र वि उट्ठलोगवत्थव्याश्रो अट्ट दिसाकुमारी महत्तरियाओ अभवदलए विउम्बित्ता खिप्पामेव पतणवणायंति, पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविजआयंति विजआइना भगवओ तित्थगरस्स जम्मणभवणस्स सव्वी समंता जोयणपरिमंडलं णिच्चोयगं नाइमट्टियं पविरलपफुसिय रयरेणुविणासणं दिव्यं सुरभिगंधोदयवासं वासंति' इतिग्राह्यम्, स यथानामकः कर्मकरदारक: स्यात् तरुणो, बलवान्, युगवान्, गुवा, अल्पातङ्कः, स्थिराग्रहस्तः, दृढपाणिपादः, पृष्ठान्तरोरुपरिणतः, घननिचितवृत्तवलितस्कन्धः चर्मेष्टकटुषणाष्टिकसमाहतनिचितगात्रा, उररयबलसमन्वागतः, तलयमलयुगलपरिघबाहुः, लखनप्लवनजवनप्रमर्दनसमर्थः, छेकः, दक्षः, प्रष्ठः, कुशलः, मेधावी निपुणशिल्पोपगतः, एतेपां व्याख्यालम् अव्यहितपूर्वसूत्रे द्रष्टव्यम्, एकं महान्तं दकवारकं वा मृत्तिकामयजलभाजनविशेपम्, दककुम्भकं वा जलघटम् दकस्थालकं वा कांस्यादिमयं जलपात्रम्, दककलशं वा, जलश्रृंगारं वा 'झारी' इति भाषा प्रसिद्धम्, गृहीत्वा राजाङ्गणं वा राजप्राङ्गणम्, यावदुधानं वा समन्तात् सर्वतो भावेन आवर्षेत् कलसं वा, दभिंगारं वा गहाय रायंगणंचा जाव समंता आवरिसिज्जा एवमेव ताओ वि उड्लोगवत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारी महतरियाओ अभवद्दलए विउवित्ता खिप्पामेव पतणतणायंनि, पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविजयायंति, विजआइत्ता भगवो तित्थगस्स जम्मणभवणस्स सन्चो समंता जोयणपरिमंडलं णिच्चोयगं नाइमहिथं पविग्लयात्रियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सुरहिगंधो. दयवासं वासंति' इस पाठका ग्रहण हुआ है इन पदों में से 'से जहाणामए कम्मार दारए' इस पद से लेकर 'णिउणसिप्पोवगए' इस पद तक के पदों की व्याख्या प्रथम सूत्र में की जा चुकी है अब इसके आगे के पदों की व्याख्या इस प्रकार से है-इन पूर्वोक्त विशेषणों वाला वह कर्मकर दारक एक बहुत बडे भारी पानी से भरे हुए मिट्टी के कलश को, अथवा पानी के कुम्भ को, या पानी से भरे हुए थाल को, अगर पानी से भरे हुए घट को, या पानी से भरे हुए श्रृंगार दककलसं वो, दकभिंगारं वा,गहाय; रायंगणं वा जाव समंता आवरिसिज्जा एवमेव ताओ वि इंडढलोगवत्यव्वाओ अढदिसाकुमारीमहत्तरियाओ, अब्भः हलए विउवित्ता खिप्पामेव पतण तणायंति पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविज्जयायंति, विज्जआइत्ता भगवओ तित्थगरस्स. लम्मणभवणस्स सत्रो समंता जोयणपरिमंडलं णिच्चोयगं नाइमट्टियं पविरलपफुसियं रयरेणुविणासणं दिव्व सुरहिगंधोदयवासं वासंति' ! 48 सहीत यया छ. म माथी 'से जहाणामए कम्मारदारए' मा ५४थी भांडान"णिउणसिप्पोवगए, मा ५६ सुधीना પદની વ્યાખ્યા પ્રથમ સૂત્રમાં કરવામાં આવેલી છે. હવે શેષ પદેની વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે છે-એ પૂર્વોક્ત વિશે વાળે તે કમરદારક એક બહુ મોટા પાણીથી ભરેલા માટીના કલશને અથવા પાણીના કુંભને અથવા પાણીથી ભરેલા થાળને અથવા પાણીથી ભરેલા ઘટને અથવા પાણીથી ભરેલા ભંગાર (ઝારી) લઈને રાજાંગણને યાવત ઉવાનને
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. २ ऊर्चलोकवासिनीनामवसरवर्णनम् ५७५ सिञ्चेत्, एवमेव अमुना प्रकारेणैव एता अपि ऊर्श्वलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः अभ्रवादलकान् मेघान् विकुऱ्या पतणतणायन्ति अत्यन्तं गर्जन्तीत्यर्थः, गर्जित्वा क्षिप्रमेव 'पविजायंति' प्रकर्षेण विद्युतं कुर्वन्ति, कृत्वा भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मभवनस्य सर्वतः समन्तात् योजनपरिमण्डलम् अत्र नैरन्तर्ये द्वितीया, निरन्तरं योजनपरिमण्डलक्षेत्र इत्यर्थः, "णिच्चोअगं नाइमट्टियं नात्युदकं नातिमृत्तिकं यथा स्यात् तथा-प्रकर्षेण यावता रेणव: स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेग उत्कर्षेणेतिभावः, तथा प्रविरलप्रस्पृष्टम् प्रविरलानि सान्तराणि घनभावे कर्दमसंभवात् प्रस्पृष्टानि प्रकर्पयुक्त नि स्पर्शनानि मन्दस्पर्शनसम्भवे रेणुस्थगनासंभवात् यस्मिन् वर्षे तत्तथाभूतम्, अतएव रजोरेणु विनाशनम्-रजसा श्लक्ष्णरेणुपुद्गलानां रेणुनाश्च स्थूलतम तत् पुद्गलानां विनाशनं विनाशकम्, दिव्यम्-अतिमनोहरं सुरभिगन्धोदकवर्ष वर्षन्ति वर्षिया च तं निहयरयं णहरयं भट्टरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति' तत् योजनपरिमण्डलं क्षेत्र निहतरजः कुर्वन्तीति योगः, निहतं भूय उत्थानाभावेन मन्दीकृतं रजो यत्र वर्षे तत्तथाभूतम्, तथा भ्रष्टरजः भ्रष्टं वातोद्धृततया योजनमात्रात् दूरतः क्षिप्त रजो यत्र तत्तथाभूतम् अतएव प्रशान्तरजः-प्रशान्तं सर्वथाऽविधमानमिव रजो यत्र तत्तथाभूतम्, अस्यैव आत्यन्तिकताख्यापनार्थमाह-उपशान्तरजः उपशान्तं रजो यत्र तत्तथाभूतम् 'करित्ता' कृत्वा 'खिप्पामेन पज्जुत्रसमंति' क्षिप्रमेव शीघ्रातिशीघ्रामेव प्रत्युपशाम्यन्ति गन्धोदकवर्षगान्निवर्तन्ते इत्यर्थः। को लेकर राजाङ्गण को, यावत् उद्यान को सब ओर से अच्छी तरह से सींचता है उसी तरह से इन्हों ने-उर्वलोकवास्तव्य आठ दिक्कुमारिकाओं ने भी अभ्र में वार्दलिकों की विकुर्वणा करके पहिले तो जोर जोर से गर्जना की और फिर विजलियों को चमकाया बाद में भगवान् तीर्थकर के जन्म भवन की चारों
ओर की १-१-योजन परिमित भूमि में इस तरह से वर्षा की कि जिस से यहां की धूलि जम जावे-पुन: उसका उत्थान होने न पावे या वह यहां से उडकर दूसरी जगह चली जावे, यहां वह रहने न पावे जिससे देखनेवालो को ऐसा प्रतीत हो कि मानों यह धूलि है ही नहीं इस प्रकार से छोटी वूदों के रूप में वे वहां बरसी-'करित्ता खिप्पामेव पच्चुवसमंति' बरस कर फिर वे शीघ्र ही ચોમેરથી સારી રીતે અલિસિંચિત કરે છે, તે પ્રમાણે જ તેમણે–ઉર્વક વાસ્તય આઠ દિક્યુમારિકાઓએ—પણ આકાશમાં વાઈલિકાઓની વિમુર્વણા કરીને પહેલાં તે જોર-જોરથી ગર્જના કરી અને પછી વિદ્યુત ચમકાવડાવી. ત્યાર બાદ ભગવાન તીર્થકરના જન્મ ભવનની ચેમેરા એક-એક જન પરિમિત ભૂમિમાં આ પ્રમાણે વર્ષાકરી કે જેથી ત્યાંની માટી જામી જાય ફરીથી તે માટીનું ઉત્થાન થાય નહિ. અથવા તે માટી ત્યાંથી ઉડીને બીજા સ્થાને જતી રહે નહિ. અથવા તે માટો ત્યાં હોય જ નહિ, જેથી જોનારાઓને આ પ્રમાણે પ્રતીતિ થાય કે જાણે માટી છે જ નહિ, આ પ્રમાણે નાના બૂના રૂપમાં અથવા જેનાથી
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HARI
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अम्यूद्धीपप्रजातिको ___ अथ भासां तृतीयकर्तव्यकरणावसरः ‘एवं पुष्फबद्दलंसि पुप्फवासं वासंति' एवं गन्धो.
कवर्पणानुसारेण पुष्पवादलके पुष्पवर्ष वर्षन्ति, अत्र च तृतीयार्थे सप्तमी तथा च पुष्पवादलकेन पुष्पवयुकवादलकेन पुष्पवृष्टि कुन्तिीत्यर्थः, अत्र एवमित्यादि वाक्यसूचितमिदं सूत्र ज्ञेयस् तथाहि-तच्च पि वेउब्धियसमुग्धारणं समोहणंति समोहणित्ता पुप्फबद्दलए विउव्वंतिसे जहाणामए मालागारदारए सिया जाव सिप्पोवगए एगं महं पुप्फछज्जियं वा पुष्फपडलग या पुप्फचंगेरीयं वा गहाय रायंगणं वा जाव समंता कयग्गहगहियकरयलपभट्टविषमुक्केण दसद्धवण्णेणं कुसुमेणं पुप्फपुंजोवयारकलियं करेइ, एवमेव ताओ वि उद्धलोगवस्थ वाओ पुष्फबद्दलए विउन्धित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति जाच जोयणपरिमंडलं जलय घलय भासुरप्पभूयस्स विटट्ठाइस्स दसवण्णस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं वासं वासंति' त्ति, अथ व्याख्या-तृतीयापि वारम् चैक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति संवर्तकवातविकुर्वणार्यहि शान्त हो गई। 'एवं पुप्फवद्दलंसि पुष्फवासं वासंति' इसी तरह से उन्हों ने पुष्पवरसानेवाले बादलों के रूप में अपनी चिकुर्वणा की और १ योजन परिमित भूमि में पुष्पों की वरसा की-यहां आगत एवं शब्द से यह सूत्र सूचित हुआ है-'तच्चपि वेउब्वियसमुग्धाएणं संमोहणंति, संमोहणित्ता पुष्फबद्दलए विउं. वंति, से जहानामए मालागारदारए सिया जाव सिप्पोवगए एगं महं पुप्फ छज्जियं वा पुप्फपडलगं वा पुप्फचंगेरीयं वा गहाय रायंगणवा जाव समंता कयग्गहगहियकरयलपभविप्पमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं पुष्फपुंजो धधारकलियं करेइ, एवमेव ताओ वि उद्धलोगव्वत्थवाओ पुष्फवद्दलिए विउँवित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति जाच जोयणपरिमंडलजलयथलयभासुरप्पभूयस्त विटहाइस्स दसवण्णस्स कुसुमस्त जाणुस्सेहपमाणमित्तं वासं वासंति' त्ति, इस पाठ का अर्थ इस प्रकार से है पहिले तो अधोलोक वासिनी आठ
1 थाय नाड मा ३५i a alयो त्यो सी. 'करित्ता खिप्पामेव पच्चुवसमंति' १२सार पछी तेया शी aid 25 18. 'एवं पुप्फवद्दलंसि पुप्फवास वासंति' मा प्रभारी જ તેમણે પુષ્પ વરસાવનારા મેઘના રૂપમાં પિતાની વિમુર્વણા કરી. અને એક એજન પરિમિત ભૂમિ ઉપર પુપિની વર્ષા કરી. અહીં આવેલા “ શબ્દથી આ સૂત્ર સૂચિત थयुछे-'तच्च वि वेउव्वियसमुग्याएणं समोहणंति, समोहणित्ता, पुष्फवदलए विउव्वंति से जहा नामए मालागारदारए सिया जाव सिप्पोबगए एग महं पुप्फछाज्जियं वा पुप्फपडलगं वा पुप्फचंगेरीय वा गहाय रायंगणं वा जाव समंता कयग्गहगहिय करयलपमविप्पमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं पुप्फपुजोवयारकलियं करेइ, एवमेव ताओ वि उद्धलोगवत्थव्वाओ पुप्फवद्दलिए विउव्वित्ता विप्पामेव पतणतणायंति जाव जोयणपरिमंडलजलयथलयभसुरप्प भूयरस विट्ठ इस्स दसवण्णस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं वासं वासंति त्ति' मा 418नी અર્થ આ પ્રમાણે છે-પહેલાં તે . અલેકવાસિની આઠ વિક્રમારિકાઓએ બે વખત
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प्रकाशिकाटीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. २ ऊर्ध्वलोकवासिनीनामवसरवर्णनम् यत् वेलाद्वयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समवहनन् तत् किलैकम् एवम् अभ्रवादलकविकुर्वणार्थ द्वितीयम् इदं तु पुष्पवादलाविकुर्वणार्थं तृतीयं वैक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति इत्यर्थः, समवहत्य पुष्पवादलकान् विकुर्वन्ति दृष्टान्तमाह-स यथानामको मालाकारदारको मालिकपुत्रः स्यात् यावनिपुणशिल्पोपगतः एकां महती पुष्पच्छधिकां वा-छाद्यते-उपरि स्थग्यते इति छाया छाव छाधिका पुष्पैभृता छाधिका पुष्पच्छाधिका तार, पुष्पपटलकं वा पुष्पाधारभाजनविशेषम्, पुष्पचङ्गेरीकां वा प्रसिद्धाम् गृहीत्वा राजाङ्गणं वा राजप्राङ्गणं यावत् राजोद्यानं वा समन्तात् रतसलहे या परामुम्बी सुमुखी तस्याः संमुखीकरणाय कचग्रहगृहीतकरतलप्रभ्रष्टविषमुक्तेन-कचेपु केशेषु ग्रहणं कचग्रहस्तत्प्रकारेण गृहीतं तथा करताद् विप्रमुक्तं-स्यक्तं सत् प्रभ्रष्टं करतलप्रभ्रष्टविप्रयुक्तम् अत्र पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् विशेषणसमासः तेन कचग्रहीतकरतलप्रनष्टविप्रनुक्तेन दशार्द्धवर्णेन पञ्चवर्णेन कुसुमेन जात्यपेक्षया एकवचनं कुसुमजातेन पुष्पपुञ्जोपचारकलितं पुष्पपुञ्जोपचारेरण कुसुमसमूहोपचारेण दिक्कुमारियाओं ने दो बार संवर्तक वायु की विकुर्वणा करने के लिये वैक्रियसमु
द्घात किया वह एक बारका समुद्घात किया गया जानना चाहिये। इसके बाद इन उर्वलोकवासिनी दिक्कुमारियों ने अभ्रवादलिको की विकुर्वणा करने के लिये जो समुद्घात किया, वह दूसरी बारका किया गया समुद्घात जानना चाहिये
और अब यह पुष्पवालिकों की विकुर्वणा करने के लिये जो समुद्घात किया गया है वह ततीय वार का समुद्घात किया गया जानना चाहिये। इस तरह के इस तृतीय वार के समुद्घात से उन्हों ने पुष्पवालिकाओं की विकुर्वणा की जैसे कोई मालाकार का दारक हो और वह यावत् शिल्पोपगत हो, सो वह जैसे एक महती पुष्पों से भरी हुई छाचिका को या पुष्पाधार भाजन विशेष को-या पुष्पचंगेरिका को लेकर राजाङ्गण को यावत् सब ओर से कचग्रह के अनुसार ग्रहीत एवं करतल से छूट कर गिरे हुए ऐसे पांचवर्ण के कुसुमों से पुष्पपुञ्जोपचार युक्त સંવર્તક વાયુની વિમુર્વણ કરવા માટે વૈકિય સમુદુઘાત કર્યો. આ એક વખત સમુદુઘાત કર્યો આમ જાણવું જોઈએ. ત્યાર બાદ તે ઉર્વક વાસિની દિકુમારિકાઓએ અજવાઈલિકાઓની વિમુર્વણુ કરવા માટે જે સમુઘાત કર્યો. તે બીજી વખત કરવામાં આવેલે સમુદુઘાત હત અ.મ માનવું જોઈએ. અને હવે આ જે પુષ્પ વાદળિયેની વિદુર્વણ કરવા માટે સમુદ્દઘાત કર્યો, આ ત્રીજી વખત કરવામાં આવેલ સમુદ્યાત હતે આમ સમજવું જોઈએ. એ પ્રમાણે આ ત્રીજી વખતના સમુદ્રઘાતથી તેમણે પુષ્પવાÉલિકાઓની વિમુર્વણ કરી, જેમ કેઈ માલાકારનો દારક હોય અને તે યાવત શિલ્પપગત હોય, તે તે જેમ એક મહતી પુષ્પ-ભરિત છાધિકાને કે પુષ્પાધાર ભાજન વિશેષને કે પુષ્પ ચંગેમિકાને લઈને રાજાંગણને યાવત્ સર્વ તરફથી કચગ્રહ મુજબ ગૃહીત તેમજ કરતલથી મુક્ત થયેલાં એવાં પાંચ વર્ણન કુસુમથી પુષ્પjપચાર કરે છે, તે
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जम्मूछीपप्रतिमा कलितं शोभितं करोति, एवमेव अमुना प्रकारेणैव ता अपि ऊर्बलोशवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः पुष्पवादलकान् विकुळ विकुर्वणाशक्त्या तान् निर्माय क्षिप्रमेव पतणत. णायन्ति-अत्यन्तं गर्जन्ति, ततश्च इत्थं वाक्ययोजना योजनपरिगण्डलं यावद-योजनपरिमण्डलपर्यन्त दशार्द्धवर्णस्य पञ्चपर्णस्य कुसुमस्य पुष्पस्य जान्त्सेधप्रमाणमात्रम् जान्त्सेधः जान्ववधिकउत्सेधस्य प्रमाणं द्वात्रिंशदंगुललक्षणं तेन सदृशीमात्रा यस्य स तथा भूतस्तम् वर्षे वर्षन्ति कीदृशस्य कुसुमस्य ? जलजस्थलज भास्वर प्रभूतस्य तत्र जलनं पद्मोदि स्थलज विचकिलादि भास्वरं दीप्यमानम् प्रभूतं च अतिप्रचुरं ततः कर्मधारयः सारवरं च तत् प्रभू च भास्वरप्रभूतं जलस्थलजं च तत् भास्वरप्रभूतं च तत्तथाभूतम् तस्य, तथा घृन्तस्थायिनः वृन्तेन अधोभागवतिना तिष्ठत्तीत्येवं शीलस्य 'वासित्ता' वर्णित्वा कियत्पर्यन्तोऽयम् ‘एवं' इत्यादि वाक्यसूचिसूत्रसङ्ग्रह इत्याह-'जाव कालागुरुपवर' ति, अत्र यावच्छन्दोऽवधि वाचकः नतु सङ्ग्राहकः "जाव सुरवराभिगमणजोग्गं' ति अत्र या पदात कुन्दरुकतरुक्कडज्झंतधूवमघमघंतगंधुद्धाभिरामं सुगंधदरगंधियं गंधवटिभूयं दिव्यं' इति पर्यन्तं सूत्र करता है इसी तरह इन उप्रलोक वास्तव्य आठ विकुमारिकाओं यावद पुष्प वार्दलिकों की विकुर्वणा करने जैसा पहिले आगेका पाठ कहा गया है वैसा ही इन लोगों ने किया अर्थात् एक योजल परमित क्षेत्र तक दशार्द्ध वर्णवाले पुष्पों की वर्षा की इन पुष्पों की वर्षा में जलज-पम आदि रूप स्थलज-येला-मोधरा आदि रूप दीप्यमान पुष्प प्रचुर मात्रा में थे जब इन पुष्पों की वर्षा हुइ तोइसके वृन्त अधोभाग में ही रहे आगे ऐसा नहीं हुआ कि पुष्पों की पंखुडियां नीचे होगइ हों और वृन्त-इनके उत्ठल-ऊपर की ओर हो गये हों तथा ये पुष्प इतनी अधिक मात्रा में वरसाये गये कि थे २४ अंगुल तक ऊंचे हो गये अर्थात् इतनी विशाल राशि इनकी होगई इस प्रकार से 'वासित्ता जाव कालागुरु पवर जाव सुरवराभिगमणजोग्गंकति' पुरुषों की वर्षा करके उन्होने उस एक योजन પ્રમાણે જ આ દુર્વક વાસ્તવ્ય આઠ દિકુમારિકાઓએ યાત્ પુષ્પવાલિકાઓની વિકુર્વણુ કરીને જેમ પહેલાં આગળને પાઠ કહેવામાં આવે છે, તે પ્રમાણે જ આ લેએ કર્યું, એટલે કે એક જ પરિમિત ક્ષેત્ર સુધી દશાઈ વર્ણવાળા પુષ્પોની વર્ષ કરી. એ પુપની વર્ષોમાં જલજ–પદ્મ આદિ રૂપ સ્થલજ–વેલા, મોગરા રૂપ દીપ્યમાન પુ. પ્રચુર માત્રામાં હતાં. જ્યારે આ જાતના પુષ્પની વર્ષા કરવામાં આવી તે એવી રીતે વધ કરવામાં આ કે તે પુના વૃો અધ ભાગમાં જ રહ્યા. એવું થયું નહિ કે પુષ્પની પાંખડીઓ નીચે થઈ ગઈ છે અને વૃન્ત ઉપરની તરફ થઈ ગયાં હોય તેમજ આ પુ િઆ માત્રામાં વરસાવવામાં આવે કે ૨૪ અંગુલ જેટલે ભૂમિ પર થર જામી गया. यात मुख्य पु.४ प्रभामा १२सापामा आया. ते मा प्रभार 'वासित्ता जाव कालागुरु पयर जाव सुरवगभिगमणजीग करेंति' यानी वर्षा ४री तेभो त भर या पाभित क्षेत्रने यारत् 'कुंदरुक, तुरक्कड़झंतधूवमधमपन्त गंध याभिराम
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५७६ ज्ञातव्यम्, तथा च तत्कालागुरुप्रवरकुन्दरुकतुरुष्कदहळूपधूपितं 'महमहेति' गन्धोधूताभिरामं सुगन्धवरगन्धितं गन्धवर्तिभूतं दिव्यम् अतएव सुरवराभिगमनयोग्यम् सुरवरस्यइन्द्रस्य अभिगमनाय अवतरणाय योग्यम् 'करेंति' कुर्वन्ति 'करित्ता' कृत्वा 'जेणेव भगवंतित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति' यत्रैव भगवान् तीर्थकरः तीर्थङ्करमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति, "उवागच्छित्ता' उपागत्य 'जाव आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्टति' यावदागायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्तीति आईपस्स्वरेण गायः यः प्रारम्भकाले मन्दस्वरेण गायमानत्वात् परिगायन्त्य:-गीतप्रवृत्तिकालानन्तरं तारस्वरेण गायन्त्यस्ताः अष्टौ ऊर्ध्वलोकवास्तव्याः दिक्कुमारीमहत्तरिकास्तिष्ठन्तीति अत्र यावत् पदात् अदूरसामन्ते इति ग्राह्यम् ॥ सू० २॥
मूळम्-तेणं कालेणं तेणं सभएणं पुरत्थिमरुयगवत्थव्वाओ अटू दिसाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं सएहिं कूडेहिं तहेव जाव विहरंति, तं जहा-पंदुत्तराय१, गंदार, आणंदा३ गंदिविद्धणा४। विजया य५ वेज. यंती६ जयंती७, अपराजिया८॥१॥ सेसं तं चेव तुब्भाहिं ण भाइयव्वं परिमित क्षेत्र को यावत्-'कुंदक्कतुरक्रुडझंतधूवमघमघन्तगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गन्धवटिभूयं दिव्वं' काला गुरु की प्रवर कुन्दककी, एवं तुरुष्क-लोमान की धूप जला कर सुगंधित करदिया और उसे ऐसा बना दिया कि मानों यह एक गंध की गोली ही हो इस प्रकार से उस समस्त एक योजन परिमित भू भाग को उन्हों ने सुरवर इन्द्र के अवतरण के योग्य कर दिया 'करित्ता जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति-उवागच्छित्ता जाच आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति' करके फिर वे जहां भगवान् तीर्थकर और तीर्थकर जननी थी वहां आई-वहां आकर वे अपने उचित स्थान पर खडी हो गई और पहिले धीरे से और बाद में जोर से मांगलिक जन्मोत्सव के गीत गाने लगी ॥२॥ सुगंधवरगंधियं गन्धवट्टिभूयं दिव्य' सा शु३नी, प्रवर ४२४नी तेभ तु३४ सामाનને ધૂપ સળગાવીને સુગંધિત કરી દીધું અને એવું બનાવી દઉં કે જાણે આ એક ગંધની ગોળી ન હોય આ પ્રમાણે તે સમસ્ત એક જન પરિમિત ભૂભાગને તેમણે सुर१२ न्ना भाटे अवत२५ योग्य मनावी हीधी. 'करित्ता जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता:जाव आगायमाणीओ परिगायमणीओ चिति' બનાવીને પછી તેઓ સર્વે જ્યાં ભગવાન તીર્થકર અને તીર્થકર જનની હતાં ત્યાં ગઈ. ત્યાં જઈને તેઓ પિતાના ઉચિત સ્થાને બેસી ગઈ અને પહેલા ધીમે-ધીમે અને ત્યાર બાદ જેરજોરથી માંગલિક-જન્મોત્સવ ગીત-ગાવા લાગી. ૨૫
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जम्बूद्धीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
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तिकट्टु भगवओ तित्थयरस्स तित्थयर मायाए य पुरत्थिमेणं आयं सहस्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिति । तेणं कालेणं तेणं समएणं दाहिणस्यवत्थव्त्राओ अटू दिसाकुमारी महत्तरियाओ तहेव जाव विहरंति, तं जहा - समाहारा १, सुप्पइण्णा २, सुप्पबुद्धार, जसो हरा ४ । लच्छि मई ५, सेहवई ६, चित्तगुत्ता७, वसुंधरा८ ||१|| तहेव जाव तुम्भाहिं न भाइयध्वं तिकट्टु भगवओ तित्थयरस्स तित्थयर माऊए य दाहिणेणं सिंगार हत्थगयाओ आगायमाणीओ परिणाय माणीओ चिति । तेणं कालेणं तेणं समएणं पञ्च्चत्थिमरुयगवत्थन्त्रानो अट्ट दिसाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं २ जाव विहरंति, तं जहा - इलादेवी १, सुरादेवी २, पुहवी ३, पउमावइ ४ । एगणासा ५, णवमिया ६, भद्दा ७, सीया य ८ अट्टमा || १|| तब जाव तुम्माहिं ण भाइयव्वं तिकट्टु जाव भगवओ तित्थयरस्त तित्थयरमाऊए य पच्चत्थिमेनं तालियंटहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिति । तेणं कालेणं तेगं समएणं उत्तग्ल्लिरुयगवत्थन्त्राओ जाव विहरंति, तं जहा - अलंबुसा १, मिस्सकेसी २, पुंडरीयाय३, वारुणी४ । हासा५, सव्वप्यभा६, चेव, सिरि७, हिरिट चेव उत्तरओ ||१|| तब जाव वंदित्ता भगवओ तित्थयरमाऊए य उत्तरेणं चामरहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिति । तेणं कालेणं तेणं समएणं विदितरुयगवत्थव्त्राओ चत्तारि दिसाकुमारी महतरियाओ जाव विहरति, तं जहा - चित्ताय १, चित्तकणगार, सतेरा य३, सोदामिणी४ । सहेब जाव ण भाइयव्वं तिकट्टु भगवओ तित्थयरमाऊए य उसु विदिसासु दीविया हत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चितिति । तेनं कालेणं तेणं समएणं मज्झिमरुयगवत्थव्त्राओ चत्तारि दिखाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं सरहिं कूडे हिं तहेव जाव विहरति तं जहा - रूया?, ख्यासिया, सुरुया३, रूथगावई । तहेव जात्र तुम्भाहिं ण भाइयन्त्रं तिकट्टु भगनओ तित्थयरस्स चउरंगुलवज्जं णाभिणालं कप्पंति कप्पेत्ता विवरगं खर्णति खणित्ता
"
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सु. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५८६ वियरगे णाभि णिहणंति णिहणित्ता रयणाण य वइराण य पुरेति पुरित्ता हरियालियाए पेढं बध्नति बधिनत्ता तिदिसिं तओ कयलीहरए विउव्वंति, तएणं तेसिं कयलीहरगाणं बहुमज्झदेसभाए तो चाउस्सालए विउव्वंति, तए णं तेसिं चाउस्सालगाणं बहुमज्झदेसभाए सीहासणं विउव्वंति, तेसि णं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते सवो वण्णगो भाणियो । तए णं ताओ स्थगमज्झवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तरीओ जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं करयल संपुडेणं गिण्हंति तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणेव दाहिणिल्ले कय. लीहरए जेणेव चाउसालाए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छंते उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयाति, णिसीयावेत्ता सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहि अभंगेति, अब्भंगित्ता सुरभिणा गंधवट्टएणं उव्वटुंति, उव्यट्टित्ता भगवं तित्थयरं करयलपुडेण तित्थयरमायरं च बाहासु गिण्हंति गिण्हित्ता जेणेव पुरथिमिल्ले कयलीहरए जेणेव चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयाति णिसीयावेत्ता तिहिं उदएहिं मजाति, तं जहा-गंधोदएणं१, पुप्फोदएणं२, सुद्धोदएणं३, मजाविता सव्वालंकारविभूसिय करति करित्ता भगवं तित्थयरं करयलपुडेगं तित्थयमायरं च बाहाहिं गिण्हंति गिण्हित्ता जेणेत्र उत्तरिल्ले कयलीहरए जेणेव चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसी. याति णिसीयाक्त्तिा आभियोगे देवे सदाविति सदावित्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ गोसीसचंदणकट्ठाई साहरह । तएणं ते आभियोगा देवा ताहि रुयगमज्झ वत्थव्वाहि चउहिं दिसाकुमारी महत्तरियाहिं एवं वुत्ता समाणा हट
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
तुट्टा जाव विणणं वयणं पडिच्छंति परिच्छित्ता खिप्पामेत्र चुल्लहिमबनाओ वासहरपव्वयाओ सरसाई गोसीसचंदणकट्टाई साहरंति, तरणं ताओ मझिगवत्थन्याओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ यं करेंति करिता अरणिं घडेंति अरणि घडिता सरएणं अरणि महिंति सहिता अरिंग पार्डेति पाडित्ता अगिंग संधुकसंति, संधुक्खिता गोसीस चंदणकट्टे पक्खिति पक्खिवित्ता अग्गिहोमं करेंति, करिता भूतिकम्मं करति करिना रक्खापोहलियं बंधंति वषिता णाणामणिरयणभत्तिचित्ते हे पाहावगे गहाय भगवओ तित्थयरस्स कण्णमूलंनि टिट्टियाविति, भवउ भगवं पव्क्याउए २। तरणं ताओ रुपगमज्झत्थवाओ चारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थरायरं च बाहाहिं गिपति, गिव्हित्ता जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेथेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तित्थयरमायरं स्यणि ज्जसि णिसीयाविति, णिसीयावित्ता भगवं तित्थचरं माउए पासे ठवेंति ठविता आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चितीति ॥सु० ३||
پذیرا
छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये पौरस्त्य रुचकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः स्वकैः स्वकैः कुठेः तथैव यावद् विहरन्ति तद्यथा नन्दोत्तरा च १, नन्दा २, आनन्दा ३, नन्दिवर्धना ४ | विजया च ५ वैजयन्ती ६ जयन्ती ७ अपराजिता ८ || १ || शेषं तदेव यावद् युष्माभि र्न भेतव्यम् इति कृत्वा भगवतस्तीर्थ करस्य तीर्थङ्करमातुय आदर्शहस्तगताः आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्ति । तस्मिन्काले तस्मिन् समये दाक्षिणात्यरुचकवास्तव्या अष्टौ दिकुमारी महत्तरिकाः तथैव यावद् विहरन्ति तद्यथा - समाहारा १, सुप्रदक्षा २, सुप्रबुद्धा ३, ४ । लक्ष्मी ५, शेपवती ६, चित्रगुप्ता ७ वसुन्धरा ८ || १॥ तथैव युष्माभिर्न भेतव्यम् इति कृत्वा भगवतस्वीर्यकरस्य दक्षिणेन भृङ्गार हस्तगताः आगायन्त्यः परिगायन्त्यः दिनि । नमन्काले तस्मिन् समये पाचात्यचक वास्तव्या अष्टी दिक्कुमारी महत्तरिकाः यावद् विहरन्ति तद्यथा - इलादेवी १, सुगदेवी २, पृथिवी ३, पद्मावती ४ । कलामा ५ नमिका ६, भद्रा ७, सोता च अष्टमी ८ ॥१॥ तथैव यावद् युष्मभिर्न क्षेत्रमिति कृपा यावद् गस्तीकरस्य तीर्थकरमातु पायात्येन तालवृन्तहस्तगताः भागान्यः परिगापल्यः तिष्ठन्ति । तस्मि तरिमन् समये उदीची रुचकवास्तव्याः या विहरन्ति तद्यथा-असा १, मिश्रकेशी २, पुण्डरीका च ३, वारुणी ४ । हासा ५,
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमबक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५८३ सर्वप्रभा ६, चैव, श्रीः होश्चैत्र उत्तरतः ॥१॥ तथैव यावद् वन्दित्वा भगवतस्तीर्थङ्करस्य तीर्थङ्करमातुश्च उत्तरेण चामरहस्तगता आगायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्ति । तस्मिन्झाले तस्मिन् समये विदिगुरुचावास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमारीमहत्तरिकाः यावद् विहरन्ति, तद्यथा-चित्रा च १, चित्रकनका २, शतेरा ३, सौदामिनी ४ । तथैव यावद न भेतव्यमिति कृत्वा भगवतस्तीर्थरस्थ तीर्थङ्करमातश्च चतसृषु विदिक्षु दीपिकाहस्तगता आगायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्ति इति । तस्मिन्काले तस्मिन् समये मध्यरुचकवास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमारीमहत्तरिकाः स्वः स्वकैः कूटैः तथैव यावद् विहरन्ति, तद्यथा रूपा १, रूपासिका २, सुरूपा ३, रूपकावती ४ । तथैव यावद् युष्माभि ने भेतव्यमिति कृत्वा भगवतस्तीर्थङ्करस्य चतुरङ्गुलवर्ज नाभिनालं कल्पयन्ति, कल्पयित्वा विदरकंखनन्ति, खनित्वा विदरके नाभिम् निदधति । निधाय रत्लैश्च वज्रेश्च पूरयन्ति पूरयित्वा हरितालकाभिः पीठं बध्नन्ति, पीठं वध्वा त्रिदिशि नीणि कदलीगृहाणि विकुर्वन्ति, ततः खलु तेषां कदलीगृहाणां बहुमध्यदेशभागे त्रीणि चतु शालकानि विकुर्वन्ति, ततः खलु तेषां चतुशालकानां बहुमध्यदेशभागे त्रीणि सिंहासनानि विकुर्वन्ति, तेषां खलु सिंहासनानाम् अयमेतद्रूपो वर्णव्यासः प्रज्ञप्तः सौं वर्णको भणितव्यः । ततः खलु ताः रुचकमध्यवास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमार्यो महत्तराः यत्रैव भगवान् तीर्थङ्करः तीर्थङ्कारमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य भगवन्तं तीर्थङ्करं करतलसंपुटेन गृह्णन्ति तीर्थङ्करमातरं च वाहाभिगृह्णन्ति, गृहीला यत्रैव दाक्षिणात्यं कदलीगृह यत्रैव चतुः शालकं यत्रैव सिंहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य भगवन्तं तीर्थकर तीर्थङ्करमातरं च सिहासने निषादयन्ति, निपाद्य शतपाकसहस्रपाकैः तैलैः अभ्यङ्गयन्ति, अभ्यङ्गयिखा सुरभिणा गन्धवर्तकेन उद्वर्त्तयन्ति, उद्वर्त्य भगवन्तं तीर्थङ्करं करतलपुटेन तीर्थङ्करमातरं च वाह्वोर्गृह्णन्ति गृहीत्वा यत्रैव पौरस्त्यं कदलीगृह यत्रैव चतुः शालं यत्रैव सिंहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य भगवन्तं तीर्थङ्करं तीर्थङ्करमातरं च सिंहासने निपादयन्ति, निपाध त्रिभिरुदकैर्मजयन्ति, तद्यथा-गन्धोदकेन १, पुष्पोदकेन २, शुद्धोदकेन ३, मज्जयित्वा सर्वालङ्कारविभूपितों कुर्वन्ति, कृत्वा भगवन्तं तीर्थङ्करं करतलपुटेन तीर्थङ्करमातरं च वाहामिः 'गृहन्ति, गृहीत्वा यत्रैवौत्तराई कदलीगृह यत्रैव चतुःशाळकं यत्रैव सिहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य भगवन्तं तीर्थङ्करं तीर्थङ्करमातरं च सिंहासने निषादयन्ति, निपाद्य आभियोगान् देवान् शब्दयन्ति, शब्दयित्वा एवमवादी क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! क्षुद्राहिमवतो वर्षधरपर्वतात् गोशीर्षवन्दनकाष्ठानि संहरत ततः खलु ते आभियोगाः देवाः तामिः रुंचकमध्यवास्तव्याभिः चतभिः दिक्कुमारीमहत्तरिकाभिः एचप्लुक्तासन्तः हृष्टतुप्टाः यावद् विनयेन वचनं प्रतीच्छन्ति, प्रतीष्य क्षिप्रमेव क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वताव सरसानि गोशीपचन्दनकाष्ठानि संहरन्ति ततः खल्ल ताः मध्यरुचकवास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमारीमहत्तरिकाः शरकं कुर्वन्ति, कृत्वा अरणिं घटयन्ति अरणिं घटयित्वा शरकेण अरणि मनन्ति, मथित्वा अग्नि पातयन्ति पातयित्वा अग्नि सन्धुक्षन्ति सन्धुक्ष्य गोशीपचन्दनकाष्ठानि
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५८४
जम्बूद्वीपप्रशसि
प्रक्षिपन्ति प्रक्षिप्य अग्निमुज्ज्वालयन्ति उज्ज्वालय समिधकाष्ठानि प्रक्षिपन्ति प्रक्षिप्य अग्निहोमं कुर्वन्ति कृत्वा भूतिकर्म कुर्वन्ति कृत्वा रक्षापोहलिकां वध्नन्ति बद्ध्वा नानामणिरत्नभक्तिचित्र द्विविधौ पापाणवृत्तको गृह्णन्ति गृहीला भगवतः तीर्थकरस्य कर्णमूले टिट्टयावैति भवतु भगवान् पर्वतायुः । ततः खलु ताः रूचकमध्यवास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमारी महत्तरिकाः भगवन्तं तीर्थङ्करं करतलपुटेन तीर्थङ्करमातरं च वाहाभिर्गृह्णन्ति गृहीत्वा यत्रैव भगवतः तीर्थकरस्य जन्मभवनं तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य तीर्थकस्मातरं शय्यायां निपादयन्ति, निषाद्य भगवन्तं तीर्थंकरं मातुः पार्श्वे स्थापयन्ति, स्थापयित्वा आगायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्तीति ॥३॥
टीका- 'ते काले' इत्यादि 'तेणं काटेणं, तेणं समएणं पुरत्थिमरुयगवस्थध्वाओ अट्ट दिसाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं सएहिं कूडेहिं जाव विहरंति' तस्मिन् काले तस्मिन् समये अस्पार्थः अन्यहितपूर्वसूत्रे द्रष्टव्यः पौरस्त्यरुचकवास्तव्याः - पूर्वदिग्भागवर्त्ति रुचककूटनिवासिन्यः अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिका ः 'सएहिं सएहिं कूडेहि तद्देव जाव विहरंति' स्वकैः स्वकैः कूटैः अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया स्वकेषु स्वकेषु इत्यर्थः तथैव पूर्वसूत्रवदेव यावद विहरन्ति अत्र यावत् पदात् 'सएहिं सरहिं भवणेहिं' इत्यारभ्य 'देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपरिवुडाओ' इत्यन्तं सबै संग्राम् एतेषां व्याख्यानं च अस्मिन्नेव वक्षस्कारे प्रथमपूर्वसूत्रे दष्टव्यम् आस दिक्कुमारीणां नामान्याह - 'तं जहा ' इत्यादि - ' तं जहा -
दुत्तराय १, गंदा २, आणंदा ३,
दिवडणा ४ । विजया य ५, वैजयंती ६, जयंती ७, अपराजिया ८ ॥ १ ॥
'तेणं काले णं तेणं समएणं पुरत्थिम रुयगवत्थच्चाओ' इत्यादि । टीकार्थ- - उस काल में और उस समय में 'पुरत्थिमरुयगवत्थञ्चाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरियाओ' पूर्व दिग्भागवति रुचक कूट वासिनी आठ दिक्कुमारी महत्तरिकाएं 'सएहिं २ कूडेहिं तहेव जाव विहरंति' अपने २ कूटों में उसी तरह यावत् भोगों को भोग रही थी यहां यावत्पद से 'सएहिं सएहिं भवणेहिं' यहां से लेकर 'देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडाओ' यहां तक का पाठ गृहीत हुआ है इस पाठ का अर्थ प्रथम सूत्र की व्याख्या में लिख दिया गया है 'तं जहा' इन 'तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरत्थिमरुपगवत्थव्वाओ' इत्यादि
ते आणे खते ते समये 'पुरस्थिमरुयग त्रत्थव्याओ अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ' पूर्व हिग्भागवर्ति रु२४ छूट वासिनी गाड कुमारी भन्त्तरि 'सएहिर कूडेसिं तहेव जाव विहरति' पोत पोताना इटोमा ते प्रमाणे यावत् लोगोलोगवी रही हुती, अहीं यावत् हथी 'सएहिं सएहिं भवगेहिं महीं थी भांडीने 'देवेहि' देवीहि य सद्धिं संपरिवुडाओ' સુધીના પાઠ સગૃહીત થયા છે. આ પાઠના અથ પ્રથમ સૂત્રની વ્યખ્યામાં સ્પષ્ટ કરवाभां भाव्या छे. 'तं जहा' ते हिमारियोना नाभी प्रमाणे छे- 'दुत्तराय - १,
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कारण जैसे की समापिमाणीको परिणायमाणा गरमागरम पत्यि
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राशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ::ke
तथा नन्दोत्तरा, च, समुच्चये, नन्दा, आनन्दा,३ नन्दिवर्द्धता -HITE:- विजया च ५, वैजयन्ती... जयन्ती, अपराजिवा,, P SY इत्येताः नामतः कथिता सेस.तचेव जाव. तुल्भाहिं ण भाइयव्वं, तिकट्टाभिगवओ वित्थरस्स तित्थयरमायाए य शेषम् आसनसम्पावधिप्रयोगभगवदर्शनपरस्पराद्वानः स्वस्वाभियोगिककृत्यानविमानविकुणादिकं तथैव यावद् युष्माभि न भेतव्यम् इतिः कृत्वा, इल्युक्त्वा भगवतस्तीर्थङ्करस्य तीयङ्करमातुश्च-पुरस्थिमेणं आयंसहधगयाओ आगीयमाणीओ परिगायमागीलो, चितिपौरस्त्येन-पूर्वरुचकसमागतत्वात् । पूर्वते, आदर्शहस्तगता हस्तगत दिक्कुमारिकाओं के नाम इस प्रकार से है 'ण'दुत्तरायर, गदा ३, आणुदा ३, जांदिवद्धा, विजया ये ५, बैजयंती ६, जयंती ७, अपराजिया नन्दोतरा, नन्दा, आनन्दा, नन्दिवर्धना, विजया, वैजयन्ती, और अपराजिता सेस तचेव
तित्थयरमायाए यपुरस्थि
चिट्ठति यहां बाकी को कथन-जैसे आसन को कम्पायमान होना, उसे देखकर अवधिज्ञान द्वारा जानना, फिर आपस में बुलाकर मंत्रणा करना, अपने अपने आभियोगिक देवों की धुलाना, उन्हें यौन विमान तैयार करने की आज्ञा देना, इत्यादि सव
कधन जैसा प्रथम सूत्र में किया गया है वैसा ही वह सब यहां पर समझलना Fचाहिये और वह सब कथन यावत् आपको भयभीत नहीं होना चाहिये यहां
दिग्भागवी रुचके कट बासिनी दिक्कुमारियां भगवान का "कर माता के पास-समुचित स्थान पर हाथ में दर्पण लिये हुए खड़ी हो गई नाणदा .२,, आणंदा ३, विवृद्धणा - विजयास ५:: वेजयंति, ६, जयंती-७, अपराजिया ८ "न-तर, H-, Arial, Heal, doel, Arural, rय-भने ordl.
मैंण आयसहयगयाओ" आगायमाणीओ परिगायमाणी) चिति" शबनम "ઓયન કપિત
થ ઈને અવધિફર્મથી તેનું કારણ જાણવું ઐર્ટલ છે કાન “સ્થાને એકત્ર થઈને સપ્તાહ કરવ” પતિ-પોતાના અભિયોગિક એને લાવવી, વિને શ્વાન વિમાન તૈયાર દવા આ પવી વગેરે બધુ ધન રે પંથમરમાં પષ્ટ are like out तो मन तारनामा
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नम्धीपमासिक आदर्शो-दर्पणो जिनजनन्योः शृङ्गारादि विलोकनाथुपयोगी यासां ताः हस्तगतादर्शा इत्यर्थः झूले विशेषणस्य हस्तगतपदस्य पूर्वे प्रयोक्तव्ये परनिपातःप्राकृतत्वात् चोध्यः, आगायन्त्यःथा ईपत्स्वरेण गायन्त्यः प्रारम्भकाले मन्दरस्वरेण गायमानत्वात्, परिगायन्त्यः-गीतप्रवृत्ति सालानन्तरम् परितः उच्चस्वरेण गायन्त्यस्तिष्ठन्ति इति । अत्र च रुचकादि स्वरूपप्ररूपणा • इयम् एकादेशेन एकादशे द्वितीयादेशेन त्रयोदशे तृतीयादेशेन एकविंशे रुचकद्वीपे बहुमध्ये . दलयाकारो रचयशैल: चतुरशीतियोजनसहस्राणि उच्चः मूले १००२२ मध्ये ७०२३ शिखरे ४०२४ योजनानि विस्तीर्णः, तस्य च शिरसि चतुर्थे सहसे पूर्वदिशि मध्ये सिदायतनकूटम् उभयोः पाश्वयोः चत्वारि २ दिक्कुमारीणां कूटानि तत्र नन्दोत्तराधाश्रतत्र एकपार्थ कूटचतुष्टये द्वितीये च पाच कूट चतुष्टये विजयाद्याश्वतस्रः दिक्कुमारी महतरिकाः परिवसन्तीतिभावः । . सम्प्रति दक्षिणरुचकस्थानां वक्तव्यमाह-'तेणं कालेणं' इत्यादि, 'तेणं काठेणं तेणं समएणं दाहिणरुयगवत्यवाओ अट्ठदिसाकुमारीमहत्तरियाओ तहेव जाव विहरति' तस्मिन्
और पहिले धीमे स्वर से और बाद में जोर जोर से जन्मोत्सव के मांगलिक गीत गाने लगी इन्हों के हाथ में दर्पण इसलिये था कि जिन और उनकी माता
क्षारादि को देखने के लिये इसे अपने काम में लावें यहां रुचकादि के स्वरूप की प्ररूपणा इस प्रकार से है एक देश से ११ वें द्वितीया देश से १३ वें, तृतीया देश से २१ वें रुचक द्वीप में ठीक बीच में वलय के आकार का रुचक शैल है यह चौरासी हजार योजन का ऊंचा है मूलमें इसका विस्तार १००२२ योजन का है मध्य में ७०२३ योजन का है और ऊपर शिखर में ४०२४ योजन का हे उसके ऊपर शिखर पर चतुर्थ हजार योजन पर पूर्व दिशा की ओर बीच में सिद्धा यतन कूट है दाइ बांई ओर चार कूट दिक्कुमारिकाओं के हैं इनमें नन्दोसरा
आदि दिक्कुमारिकाएं रहती हैं। ' दक्षिण रुचकस्थ दिक्कुमारिकाओं की वक्तव्यता 'तेणं कालेणं तेणं सम. ' સમુચિત સ્થાન ઉપર હાથમાં દર્પણ લઈને ઊભી રહી. અને પહેલાં ધામ માં અને - ત્યાર બાદ જોરજોરથી જજોત્સવના માંગલિક ગીતે ગાવા લાગી. તેમના હાથમાં દર્પણ "એટલા માટે હતું કે જિન અને તેમના માતુશ્રી ગંગારાદિ જેવા માટે એને પિતાના કામમાં લાવે. અહીં ટુચકાદિના સ્વરૂપની પ્રરૂપણું આ પ્રમાણે છે–એક દેશથી ૧૧-, દ્વિતીયા દેશથી ૧૩માં, તૃતીયા દેશથી ૨૧માં સુચક દ્વીપમાં, ઠીક મધ્યભાગમાં વલયના આકાર જે સુચક શૈલ છે, આ ૮૪ હજાર યોજન જેટલે ઊંચે છે. મૂળમાં એને વિસ્તાર ૧૦૦૨૨ જન જેટલું છે. મધ્યમાં ૭૦૨૩ એજન જેટલો છે અને ઉપર શિખરમાં
૪૦૨૪ ચેાજન જેટલો છે. તેની ઉપર–શિખર ઉપર ચાર હજાર જન ઉપર પૂર્વ દિશા - તરફ મધ્યમાં સિદ્ધાયતન ફૂટ આવે છે. એની ડાબી અને જમણી તરફના ચાર ફૂટ * દિકમારિકાઓના છે. એ કૂટમાં નત્તરા આદિ દિકકુમારિકાઓ વસે છે.
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५८७ , काले तस्मिन् समये दक्षिणरुचकवास्तव्या:--पूर्ववत् रुचकशिरसि दक्षिणदिशि मध्ये सिद्धाय-, तनकूटम् उभयोः पार्श्वयोः चत्वारि २ कूटानि तत्र तत्र चतस्रश्चतस्रो वासिन्य इत्या, . मिलित्वा अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः तयैव-पूर्वोक्तवदेव यावद् विहरन्ति तिष्ठतीत्यर्थः, अत्र यावत् 'सएहिं २ कूटेहि' ३ इत्यारभ्य 'देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिवुडाओ' इत्यन्तं सर्वे सङ्ग्राह्यम्, एतेषां सर्वेषां पदानां व्याख्यानं च अस्मिन्नेव वक्षस्कारे प्रथमपूर्वसत्रे द्रष्टव्यम् ।
तं जहा-समाहारा १ मुप्पइण्णा २, मुप्पबुद्धा ३, जसोहरा ४। . - लच्छिमई ५ सेसवइ ६ चित्तगुत्ता ७ वसुंधरा ८॥१॥
उपरा ८ मा
" तद्यथा-समाहारा १ सुप्रदत्ता २ सुप्रबुद्धा ३ यशोधरा ४
लक्ष्मीवतां५ शेषवती ६, चित्रगुप्ता ७, वसुन्धरा ८॥१॥ ''तहेव जाव तुभाहिं न भाइयचं तिकटु जाव भगवओ तित्थयरस्स तिस्थयरमाऊए य दाहिणेणं भिंगार हत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति' तथैव पूर्ववदेव यावद् युष्मामि न भेतव्यमिति कृत्वा तीर्थकरमातरं सावधानीकृत्य, भगवतेस्तीयकरस्य एणं' उस काल में और उस समय में 'दाहिण रुअगवत्थवाओ अट्ट दिसाकुमारी महत्तरियाओ तहेव जाव विहरंति' दक्षिण दिग्भागवति रुचर कूट वासिनी आठ दिक्कुमारी महत्तरिकाएं अपने अपने कूटों में जैसा कि प्रथम सूत्र में कहा जा चुका है यावत् भोगों को भोग रही थीं। यहां पर इसके बाद का सय कथन जैसा पहिले कहा गया है वैसा ही है उन आठ दक्षिणरुचकस्थ दिक्कुमारिकाओं के नाम इस प्रकार से हैं-'समाहारा १ सुप्पाण्णा २, सुप्पबुद्धा३, जसोहरा ४ । लच्छिमई ५, सेसवई ६ चित्तगुत्ता, ७ वसुंधरा ८॥ . समाहारा १, सुप्रदत्ता २, सुप्रबुद्धा ३, यशोधरा ४, लक्ष्मीवती ५.,शेषवती ६, चित्रगुप्ता ७ और वसुन्धरा ८ यहां पर और बाकी का कथन-जैसे आसन का कंपायमान होना उसे देखकर अवधि के प्रयोग से इसका कारण जानना
- દક્ષિણ ચકસ્થ દિકમારિકાઓની વક્તવ્યતા, 'तेणं कालेण तेण समएण' से भी मन त समयमा 'दाहिणरुअगवत्थव्वाओ. अटु दिसाकुमारीमहत्तरियाओ तहेव जाव विहरंति' दक्षिey मा य दूट पासिनी આઠ દિકુમારિ મહારિકાઓ પિત–પિતાનાફૂટમાં–જે પ્રમાણે પ્રથમ સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં मायु"छे-यावत् मागान मे ४२ती ती. महत पछीनु मधुन २ प्रभारी પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે, તેવું જ છે. તે આઠ દક્ષિણ રુચસ્થ દિકુમારિકાઓના नामी या प्रमाण है-'समाहारा १, सुप्पइण्णा २, सुप्पवुद्धा ३, जसोहरा ४ । लच्छिमई ५, सेसवई ६, चित्तगुत्ता ७, वसुंधरा-८ ॥
सभाला।-१, सुप्रहत्ता २, सुप्रभुद्धा 3, या॥ ४, सभीवती ५, शेषपती , ચિત્રગુપ્ત ૭ અને વસુંધરા-૮. અહીં શેષ બધું કથન–જેમકે આસન કંપિત થવું; તેને જઈને અવધિના પ્રગથી એનું કારણ જાણવું વગેરે બધું કથન જે પ્રમાણે પ્રથમ સૂત્રમાં
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ETIRPETIES की ओर रुचक.पर्वत की शिखर पु PMENT जला दक्षिण दिशा की ओर रुचक पर्वत की शिखर पूरी बीच में सिद्धायतन, कूट है उसकी दोनों तरफ चार २ कूद हैं वहां पर ये Ft. योगी जान कर ये भृडासान की माता के स्नान के निमित्त पर FORI
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Man'दाहिणेण भिंगारहवेगआओ भनी लिहिशी सास यि थान ५२ 'ट्रिति जी रही तमामय सुती ली-अली स्थितिमा आंगायमाणीओ" पलिगामाणीओsaidy-ENRथी सपछी+रथी Imसपन"Hilleg ગીતે ગાવા લાગી. દક્ષિણ દિશા તરફદાચ વધના શિખર ઉંપરામમાં સિદ્ધયેતના”
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सु. ३. पौरस्त्यरुव कनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५८६ तस्मिन् काले तस्मिन् समये पश्चिमरुचकवास्तव्याः पश्चिमदिग्भागवृत्ति रुचकवासिन्य अष्टौ ? दिक्कुमारी महत्तरिका:' 'स्वकैः स्वकैः यावद्विरिन्ति तिष्ठन्ति यावत्' पदात्' 'सहि सरहि कूड़ेहि इत्यारभ्य 'देवेहिं देवीहि 'सद्धि "संपरिवुडीओ' इत्यते सबै प्रापतेवा व्या ख्यानम् अस्मिन्नेव वक्षस्कारे प्रथमपूर्वसूत्रे द्रष्टव्यम् । एतासी 'नमान्याह 'त' जहां' इत्यादि' igree F BRE Shipp
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एगणीस ५, णवमिआ ६ भद्दा ७ सीओ व अमा- - in -लादेवी, सुरादेवी पृथिवी, पद्मावती, एकनासा, नवमिका, "भद्रा और आठवीं सीता 'तहेव जाय तुम्भाहिं ण भाविति कहुँ जांब भगवओ तित्थ रस्स' तित्थरमा एय पचेत्थिमेण तालिमेंटहत्थगयाओं आगयमाणीओ परिंगायमाणीओ चिंति' कूटव्यवस्था पूर्व की तरह से ही जाननी चाहिये यां आपको 'जहां पर जनका आना संभावित नहीं हो सकता है ऐसे इस स्थान में વાસિની આઠ દિક્પ્રુમારી'' મહત્તરિકાએ પોત-પોતાના કૂટ' આવામાં ચાવત્ ‘ભાગાના ૫. लेग ईश हाङमा, झंडा' यावत् चेच्थी' सरर्हि से रहि कूडेहि”, श्री पांडथी भाडीने 'देवेहि" देवहि य'सद्धि”संपरिवुडाओ' 'ही' 'सुधानां पाठ संगृहीतथ्य भनी नाम श्री प्रभाछSuse इलादेव ९, सुरदेिवी 'ई, पुहबी ३, पमावई ४ =
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Figrl-lik / "एंगणस" ५, ज॑र॒मि॑आ ६, भदा" ७, सीआय '८, सीमा, सुशस्वी, पृथिवी, पद्मावती, "अनसि
अट्टमा' '१' ॥ SEJ U Cale'नरभिभ,”लेद्रा ंमने' ला" साता
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'तव जाव तुम्भाहिं ण भायिअव्वंति कट्टु जाव "मओ तित्ययरस्स" तित्थयर मांडण्य पपत्थिमेण 'तॉलिअटहत्थगयाओं "आगायणाणीओ परिंगायमाणीओ चिट्ठति "ट व्यवस्था વંત તસુધી જોઈએ? વિત મારે "ધી જનાર્ગમાં બસ ભવિત કરવા
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मम्बूद्वीपप्रतिव इमाः कथं समुपस्थिता इत्याशङ्काकुलं चेतो न कार्यमित्यर्थः इतिकृत्वा तीर्थकरमावरम् इत्युक्त्वा यावद्भगवतस्तीर्थङ्करस्य तीर्थकरमातुश्च पाश्चात्ये पश्चिमरुचकागतत्वाजिनजनन्योः . पश्चिमदिग्भांगे तालवृन्तहस्तगताः-तालवृन्तम् तालव्यजनं तद्धस्तगता: उभयोः सेवार्य: मित्यर्थः आगायन्त्य:-आ ईपत्स्वरेण गायन्त्यः प्रारम्भकाले अल्पस्वरस्यैव , गायमा... नवीत परिगायन्त्यः गीतप्रवृत्तिकालानन्तरं दीर्घस्वरेण गायन्त्यस्ता अष्टौ दिक्कुमारी. महत्तरिकास्तिष्ठन्ति, अत्र प्रथमयावत्पदान तयोः त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत्तं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा हे तीर्थकरमातः इति समागम् "तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरिल्ल रुयगवस्थव्वाओ जाव विहरंति' तस्मिन् काले तस्मिन् समये औतराहरुचकवास्तव्या:-उत्तरदिगू भागवतिरुचकवासिन्यो यावद् विहरन्ति विष्ठन्ति, यावत्पदात् अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः इतिग्राह्यम्, एतासां नामान्याह-'तंबा' तघा-अलंबुसा १, मिस्सकेसी २, पुंडरीया ३, य वारुणी ४ ।
हासा ५, सत्यप्पमा ६, चेव सिरि ७, हिरि ८ चेव उत्तरभो ॥१॥ विसदृश जातीयजनये किसलिये उपस्थित हुई हैं, इस प्रकार की आशंका से आकलित नहीं होना चाहिये इस प्रकार कहकर वे जहां तीर्थंकर और तीर्थकर माता थीं वहाँ पर गई वहां जाकर वे उनके पश्चिम दिग्भाग से आने के कारण पत्रिम दिग्भाग में खड़ी हो गई उनके प्रत्येक के हाथों में पंखा था वहां पर समुचित स्थान में खडी हुई वे प्रथम धीमे स्वर से और बाद में जोर जोर से जन्मोत्सव के मांगलिक गीत गाने लगी यहां प्रथम यावत् शब्द से 'तयोः त्रिकरवा आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावतं मस्तके अंजलिकृत्वा-हे तीर्थकरमातः 'ऐसा पाठ गृहीत हुआ है। ___- 'ते णं कालंणं ते णं समए णं उत्तरिल्लरुअगवथवाओ जाव विहरीतितं.जहा-अलंबुसा १, मिस्तकेसी २, पुण्डरीआ य ३ वारुणी ४, हासा ५, सबઆ સ્થાન ઉપર વિસટશ જાતીયજન આ લેકે શા માટે ઉપસ્થિત થયા છે?” એવી આ શંકાથી આલિત થવું જોઈએ નહિ. આ પ્રમાણે કહીને તેઓ જ્યાં તીર્થકર અને તીર્થ કરના માતા હતાં ત્યાં ગઈ. ત્યાં જઈને તેમણે પશ્ચિમ દિભાગથી આવવાના કારણે પશ્ચિમ દિવભાગ તરફ ઊભી થઈ ગઈ. તેમનામાંથી દરેકે દરેકના હાથમાં પંખાઓ હતા. ત્યાં સમુ. ચિત સ્થાન ઉપર ઊભી થયેલી તેઓ પ્રથમ ધીમા સ્વરે અને ત્યાર બાદ જોર-જોરથી
मात्सपना मांगलिs on In adl. सही प्रथम यावत् शvथी 'तयोः त्रिकत्वः आदक्षिणपदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अंजलिं कृत्वा हे तीर्थकरमात ' को 48 सहीत यया छ..
''णे कालेणं तेणे समएणं उत्तरिल्लरुअगवत्थनाओ जाव विहरंति तं जहा-अलंबुसी १, मिसकेसी २, पुण्डरीआ य ३, वारुणी ४, हासा ५, सव्वप्पभा-६ चेव, सिरि ७.हिरि,.
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः स्. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम्
अलंबुसा १, मिश्रकेसीर २, पुण्डरीका ३, च वारुणी ४ ।
हासा ५, सर्वप्रभा ६, चैव श्रीः ७, ह्रीश्चैत्र ८ उत्तरतः ॥ १ ॥
"तब जाव वंदित्ता भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाउए-य उत्तरेणं चामरहत्थगयाओं आगायमाणीयो परिगायमाणीओ चिति' कूटव्यवस्था तथैव पूर्ववदेव यावद् वन्दित्वा भगवतः तीर्थंकरस्य तर्थङ्करमाgr उत्तरे - उत्तररुचकागतश्वाज्जिनजनन्योरुत्तरदिग्भागे चामरहस्त'गताः - गृहीतहस्तचामराः सत्यः आगायन्त्यः ईषत्स्वरेण गायन्त्यः, परिगायन्त्यः दीर्घ'स्वरेण गायन्त्यः तिष्ठन्ति, अत्र यावत् पदात् त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतठपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा
भा ६ चैव सिरी ७ हिरि ८ चेव उत्तरओ || १||' उस कालमें और उस समय में उत्तर दिग्वर्ती रुचक कूटनिवासिनी यावत् आठ दिवकुमारीकाएं अपने अपने - कूटादिकों में भोग भोगने में तल्लीन थी यहां पर सब प्रकरण इस सम्बन्ध में जैसा पहिले कहा है- वैसा वह सब यहां पर कहलेना चाहिये उन उत्तर दिग्वर्ती रुचक कूटवासिनी दिक्कुमारिकाओं के नाम इस प्रकार से है- अलंबुसा, मिश्रकेशी, पुण्डरीका, वारुणी, हासा, सर्वप्रभा, श्री और ह्री 'तहेव जाव वंदित्ता भगart freeeree तित्थयरमाऊए अ उत्तरेणं चामरहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिति' कूट व्यवस्था पूर्व के जैसी ही समझना चाहिये यावत् वे वन्दना करके भगवान् तीर्थकर और तीर्थ कर माता के पास उचित 'स्थान में उत्तर दिशा में खडी हो गई उनके प्रत्येक के हाथमें उस समय चामर थे वहां खडे होकर उन्होंने पहिले तो धीमे स्वर में और बाद में जोर जोर से जन्मोत्सव के मांगलीक गीत गाये यहां पर भी यावत्पद से 'त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अंजलिं निवासिनी
८ चैव उत्तरओ' ॥ १ ॥ ते अणे अने ते सभये उत्तर तिरु
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ચાવત્ આઠ દરિકાએ પોત-પોતાના છૂટાદિકામાં ભાગો ભાગવવામાં તલ્લીન હતી. અહીં શેષ બધું પ્રકરણ જે પ્રમાણે પહેલાં કહેવામાં આવ્યુ' છે તેવુ' જ ખધું સમજી લેવુ 1 જોઇએ. તે ઉત્તરદિગ્ની રુચક કૂટવાસિની કુમારિકાઓના નામે આ પ્રમાણે છે-અલमुसा, भिश्रद्धेशी, थुउरोभ, वाली, हासा सर्वअला, श्री मने ही. 'तहेव जाव वंदित्ता भगवओ ' तित्थयरस तित्थयरमाऊए अ उत्तरेण चामरहत्थगयाओ आगायमाणीओ परि. गायमाणीओ चिट्ठति' छूट व्यवस्था पूर्ववत् ४ समभवी लेध्ये यावत् तेयो वहन रीन ભગવાન તીર્થંકર અને તૌકરના માતા પાસે ઉચિત સ્થાનમાં ઉત્તર દિશા તરફ ઊભી થઈ ગઇ. તેમાંની દરેકે દરેકના હાથમાં તે સમયે ચામા હતા. ત્યાં ઊભી થઈને પ્રથમ *તા તેમણે ધીમા સ્વરે અને ત્યાર બાદ જોર-જોરથી જન્મેાત્સવના માંગલિક ગીતા ગાવા
झांगी, भड़ीं पशु यावत् पहथी 'न्निः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगृहीतं
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10५९२ FEfi Art il. .
. UYE इतिग्राह्यम् । अथ विदिगुरुचकवासिनीनाम: आगमनावसरः, तेणं. कालेण', इत्यादि । _ 'तेणं कालेणं तेणं समपूर्ण, विदिसि रुयगवत्थवाओ. चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरियाओ ।
लाव विहरति...तस्मिन् : काले तस्मिन् समये विदिर, रुचकवास्तव्याः तस्यैव रुजसर्व
तस्य शिरसि. चतुर्थे योजन सहसे चतुरूप विदिक्षु एकैकं कूट तत्र वासिन्य इत्यर्थः चवस्रो -विदिक्कुमारीमहत्तरिकाः यावद् विहरन्ति तिष्ठन्ति ,इमाश्च विद्युत्कुमारी महत्तरिकाः स्थानाने
उक्ता, अत्र यावत्पदात् 'सएहिं कूटेहि इत्यारभ्य, देवेहि देवी हिय. सदि सपरिवडाओ' इत्यन्त सर्व ग्राह्यम्.एतेषां. व्याख्यानम् अस्मिन्नेव वक्षस्कारे. प्रथमपूर्वसने द्रष्टव्यम् । एतासां नामान्याह-तं जहां चित्ता य? इत्यादि.। तं जहा....:.in: inijy
चित्ताय १, चित्तकणगा २, सत्तेरा ३,.य सौदामिणी ४।। तपथा- चित्रा च २, चित्रकनका , शतेरा, ३, सौदामिनी ४ up" तहेवं जाव ण भाइयचं तिकट्टु भगवओं तित्थयरस, तिस्थयरमाउए ये चउन विदिसास कृत्वा वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा इस पाठका ग्रहण हुआ है।
'तेणं कालेणं ते ण समएणं विदिसि रुअगवत्यवाओ चत्तारि दिसाकमारी महत्तरिआओ. जाव चिहति-तं जहा-चित्ताय १, चित्तकणया.२, सतेराय कसोदामिणी, ४.तहेव जावं ण भाइभवं, ति,कहा भगवओ.तित्थयारस तित्थ
यरमाऊए अचउस विदिसास दीविआत्यगयाओ आगाममाणीओ परिमायमाणोओ चिटंत्ति' उस कालमें और उन समय में रुचक कूटकी चार शिदिशाओं में रहनेवाली चार दिशाकुमारी महत्तरिकाएं यावत् भोगों को भोग रही थी रुचक पर्वत के ऊपर मैं चार हजार योजन पर चार विदिशाओं में एक, कूट है. ये चार दिशाकुमारी महतारिकाएं वहीं पर एक कूट में रहती है. इनके नाम इस प्रकार से हैं-चित्रा, चित्रकनका, शतेरा और सौदामिनी यावत् आपको' असंभाव्यमान इस एकान्तस्थान में विसदृश जानी ये किसलिये आई है इस दुसनवं शिरसावत मस्तके अंजलिं, कृत्रा, वृन्दते, नास्पति, वन्दित्वा नमस्यित्वा'.-41,18
शुरु थथा,छ.. -. .. anterstu H r . .. विणं कालेणं तेणं, समएणं विदिसि रुअगवत्थलवाओ .चत्तारि, दिसाकुमारी महतारिश्राओं जाव विहरंति- जहा-चिचाय १, चित्तकणगा. ; सरा, ३ या सोदामिणी, तहेब जाव जान-पामाइ, अल्वति क? भगवओ तित्थयरस तित्ययरमाएअ.चउसु विदिसामु दीविआइत्यगायाओ. आग़ायमापीओ सरिगायमाणी भो चिटुंति पणे, २. समय-PREMAR વિદિશાઓમાં રહેનારી સર દિશાકમારી મહત્તશિકાઓ ચાવૃત ભેગેગવવામાં તલ્લીન હતી, ..ते २,५४..तिनी,६५२,१२.योन १५२, बार शाम को Parda છે. એ ચાર દિશાકુમારી સુહારિકાએ ત્યાં જ એક માં રહે છે. એમના– આ પ્રમાણે l ease, toadmanagerail यात . भारे - MarateeHIP
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् . ५९३ दीविया हस्थगयाओ आगायमाणोभो परिगायमाणोओ चिट्ठति त्ति' तथैव यावत् न भेतव्यम् युष्माभिः असंभाव्यमानेऽस्मिन्नेकान्तस्थाने विसदृशजातीया इमाः किमथ -समुपस्थिताः इति शङ्काकुलं चेतो न कार्यम् इति कृत्वा तीर्थङ्करमातरं प्रति इत्युक्खा विदिगागतत्वाद् भगवतः तीर्थङ्करस्य तीर्थङ्करमातुश्च चतसृषु विदिक्षु दीपिकाहस्तगताः स्थापितहस्तदीपिका सत्यः आगायन्त्यः-आ ईपत्स्वरेण गायन्त्यः प्रारम्भकाले अल्पखरेणैव गायमानत्वात् परिगायन्त्यः तारस्वरेण गायन्त्यः तिष्ठन्ति ताः चतस्रो विदिक्कुमारी महत्तरिका इति । तथैव यावत्-अत्र यावत्पदात् त्रिः कृत्वा भादक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा भगवन्तं तीर्थंकरं तीर्थङ्करमातरं च वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यिता च इति ग्राघम् ।।
अथ मध्यरुचकवासिनीनां समागमः 'तेणं कालेणं' इत्यादि । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं मज्झिमरुयगवत्थबाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरियाओ सएहि सएहि कूडेहिं तहेव प्रकार की आशंका से आकुलित चित्तयुक्त नहीं होना चाहिये इस प्रकार कहकर वे चारों विदिशाओं से आने के कारण भगवान् तीर्थंकर और तीर्थकर माता की चारों विदिशाओं में खड़ी हो गई इनके सबके हाथों में दीपक थे वहां खडी होकर वे सब की सब पहिले तो धीमे स्वर से और बाद में जोर जोर से जन्मो'त्सव के माङ्गलिक गीत गाने लगीं यहां यावत्पद से 'त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रद. क्षिणं कृत्वा करतलपरिग्रहीतं दशनखं शिरसावतै मस्तके अंजलिं कृत्वा भगवन्तं तीर्थकर तीर्थङ्कर मातरं च वन्दन्ते नमस्यन्ति बन्दित्वा नमस्थित्वा च' इस पाठका ग्रहण हुआ है। __ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' उस कालमें और उस समय में 'मज्झिमरुयगवस्थव्वाओ चत्तारि 'दिसाकुमारीमहत्तरियाओ सएहिं २ कूडेहिं तहेव जाव विहरंति' मध्यम रुचक कूटकी निवासिनी चार दिशाकुमारी महत्तरिकाएं अपने
એકાન્ત સ્થાનમાં વિસદશ જાતિની આ અહીં શા માટે આવી છે ? આ પ્રકારની આ શંકાથી આકલિત ચિત્તયુક્ત થવું ન જોઈએ. આ પ્રમાણે કહીને તેઓ ચારે વિદિશાઓથી આવી હતી તેથી ભગવાન તીર્થકર અને તીર્થકર માતાની ચારે વિદિશાઓમાં ઊભી થઈ ગઈ. તે સર્વના હાથમાં દીપક હતા. ત્યાં ઊભી થઈને તેઓ પહેલાં ધીમા સ્વરે અને ત્યાર બાદ જોર-જોરથી જોત્સવના માંગલિક ગીતે ગાવા લાગી. અહીં યાવત્ પદથી 'त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अंजलिं कृत्वा भगवन्तं तीर्थकर तोर्थकमातरं च वन्दन्ते नमस्यन्ति वान्दित्वा नमास्यित्वा च' ५४ BY ४रायेछे.
'तेणं कालेणं देणं समएण' ते आणे भरते समये 'मज्झिमरुयगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ सरहिं २ कूडेहिं तहेव जाव विहरंति' मध्यम य४ टूटना निवाસિની ચાર દિશાકુમારી મહેરિકાએ પિત–પિતાના ફૂટેમાં જે પ્રમાણે પ્રથમ સૂત્રમાં
ज० ७५
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जम्बूद्वीपमासिक । जाव विहरंति' तस्मिन् काले तस्मिन् समये मध्यरुचकवास्तव्याः मध्यभागवति रुचकपर्वतवासिन्या-चतुर्विशत्यधिक चतुःसहस्रप्रमाणे रुचकशिरोविस्तारे द्वितीयसहस्त्रे चतुर्दिगवर्तिपु चतुपु कूटेषु पूर्वादिक्रमेण वासिन्य इत्यर्थः चतस्रस्ताः दिक्कुमारी महत्तरिकाः स्वकैः स्वकै कूटैः तथैव-पूर्ववदेव यावद् विहरन्ति तिष्ठन्ति, अत्र यावत्पदात् 'सएहि सरहिं भवणेहि' इत्यारभ्य 'देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिघुडाओ' इत्यन्तं सग्राह्यम् । एतासां नाम न्याह 'तं जहा रूया' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा
'ख्या १, ख्यासिया २, मुख्या ३, ख्यगावई ४। '" रूपा १, रूपासिका २, मुरूपा ३, रूपकारती ४। 'तहेव जाव तुम्भाहि ण भाइयच्चं तिकटु भगवओ तित्थयरस्स चउरंगुलवज्ज णाभिणालं कप्पति' तथैव पूर्ववदेव यावद् युष्माभि न भेतव्यम्-असम्भाव्यमाने अस्मिन्नेकान्तस्थाने 'विसदृशजातीया इमाः किमर्थ समुपस्थिता इति शङ्काकुलं चेतो न कार्यम् इति कृत्वा-तीर्थकामावरम्प्रति इत्युक्त्वा भगदतः तीर्थङ्करस्य चतुरगुलवजे नाभिनालं कल्पयन्ति, अत्र यावत्पदात् त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति कन्वा करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसाव अपने कूटों में जैसा पहिले सूत्र में कहा गया है उसी प्रकार से भोग भोगने में लीन थी इसके आगे का सब पाठ जैसा पहिले कह आये हैं वैसा ही है पीछे का वह सब पाठ 'देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपरिखुडाओ' यहां तक का ग्रहण कर कहलेना चाहिये इन दिक्कुमारिकाओं के नाम इस प्रकार से है___ 'रूपा, रूपासिया, सुरूपा रूपगावई रूपा रूपासिका,सुरूपा, और रूपकावती 'तहेव जाच तुम्भाहिं ण भाइयव्यंत्ति कट्टु भगवओ तित्थयरस्ल चउरंगुलवज्ज णाभिणालं कप्पंलि' पहिले की तरह ही थावत् आपको शंका से आकुलित चित नहीं होना चाहिये इस प्रकार कहकर उन्हों ने तीर्थंकर प्रभु के नाभिनाल को चार अंगुल छोड कर काट दिया। '. यहां यावत् शब्द से 'विकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति, कृत्वा तीर्थकर વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તેમ ભેગે ભોગવવામાં તલ્લીન હર્તી. એના પછીને પાઠ જે प्रभारी पडदi वाम 10 ते प्रमाणे ४ . पाछन त मा ५४ देवेहि देवीहिय सिद्धि संपरिवुडाओ' मही सुधी प्रहाय ४शन . मा२४ामाना नामी प्रमाणे छ-'रूपा, रूपासिया, सुरूपा रूपगावई' ३५, ३५सा , सु३५॥ मन ३५
ती. तहेव जाव तुम्माहिण भाइयञ्चं त्ति क. भगवओ तित्ययरस्स चउरंगुलवज्जं णामिणालं कप्पति' पडिलांनी भर यावत् तमे शथी शासित थामा ना આ પ્રમાણે કહીને તેમણે તીર્થકર પ્રભુના નાભિનાલનાલને ચાર અંગુલ મૂકીને કાપી નાખ્યા
म याक्त थी 'विकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति, कृत्वा तीर्थकरं तीर्थंकरमातरं च, वन्दन्ते, नमस्यंति, वन्धित्वा, नमस्यित्वा' मा ५ गडीत थय। छे. 'कप्पेत्ता, वि.
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुवनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५५५ मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा तीर्थकरं तीर्थंकरमातरं च वन्दते नमस्पति वन्दित्वां नमस्यित्वा इति ग्राह्यम् 'कप्पेत्ता' कल्पयिता कर्तयित्वा "वियरगं खणंति' विवरकं गः खनन्ति 'खणित्ता' गतै खनित्वा 'वियरगे णाभि णिहणंति' विवरके गर्ने कल्पिते व नाभिं निदधति गर्ने स्थापयन्ति 'णिहणित्ता' निधाय गस्थापयित्वा 'रयणाण' य वइराणय पूरति' रत्नानां च वज्राणां च रत्नश्च स्त्रैश्च हीरकैः पूरयन्ति 'पूरेत्ता' पूरयित्वा 'हरियालियाए वेढं बंधति' हरितालिकाभिः दूर्वाभिः पीठं बध्नन्ति पीठं बध्वा हरितालिका वपन्तीत्यर्थः विवरक-- खननादिकं च सबै भगवदवयवस्वाशातनानिवृत्यर्थ बोध्यम् 'बंधित्ता' पीठं बध्या "तिदिसिंतओ कयलीहरए विउच्वंति' निदिशि-पश्चिमावर्जदिक् त्रये त्रीणि कदलीगृहाणि विकुर्वन्ति विकुर्वणाशक्त्या निर्मान्तीत्यर्थः 'तएणं तेसिं कयलीहरगाणं बहुमज्झदेसभाए तो चाउ-- स्सालए विउव्वंति' ततः खलु तदनन्तरं किल तेषां कदलीगृहाणां बहुमध्यदेशभागे त्रीणि चतुः शालकानि भवनविशेषान् विकुर्वन्ति विकुणाशक्त्या निष्पादयन्ति. 'तऍणं तेसिं चाउस्सालगाणं बहुमज्झदेसभाए तओ सीहासणे विउव्यति' ततः खलु तेषां चतुः शालकानां तीर्थकरमातरंच वन्दन्ते, नमस्यंति वन्दित्वा नमस्थित्वा यह पाठ गृहीत हुआ है।
'कप्पेत्ता विभरगं खणन्ति, खणित्ता विअरगे णाभिलं' णिहणंति, णि हणित्ता रयणाण यवराण य पूति पूरित्ता हरिअलिआए वेढं बंधति'नालको. काटकर फिर उन्हो ने जमीन में खड्डा किया और उस खड़े में उस नाभिनाल को रखदिया-गाढदिया-गाढकर फिर उस खड़े को उन्हों ने रत्न और वनों से भर दिया-पूर दिया पूर करके फिर उन्हों ने हरी हरी दुर्गा से उसकी पीठ वांधी 'वधित्ता तिदिसिं तओ कयलीहरए विउति तएणं तेसिं कपलीहरगाणं बहु मज्झदेसभाए तओ चाउस्तालए विउव्वंति' दूर्चा से पीठ बांधकर फिर उन्होंने उस खड़े की तीन दिशाओं में पश्चिमदिशा को छोड़ कर पूर्व उत्तर और दक्षिणः दिशा में तीन कदली गृहों की विकुर्वणा की फिर उन तीन कदली गृहों तीन पीच में उन्हो ने तीन चतुः शालाओं की विकुर्वणा की 'तपान भार्ग खणन्ति, खणित्ता विअरगे णामि , (लं) णिहांसिौहासणे णिसीयावेंति' त्यो भावी रेति पूरित्ता हरिअलिआए वेढं बंधतिनो भाता सासन ५२ मेस उयां 'णिसीयावित्ता भने ते मामा ते नाल्लिाह अभंगेति' मेसीन पछी तभणे शता४ भने सहस रस्ता मन nd NR 6५२ भासिय ४३. 'अभंगेत्ता सुरभिणा गन्धवटएणं उवढेंति'
સુગંધિત ઉપરણુથી–ગંધ ચૂર્ણથી મિશ્રિત ઘઉંના ભીના આટાના
मते या५मा सन २४यु. 'उव्वद्वित्ताभयवं तित्थयर २ ४रीन, 842- ४ीन पछी तेभरे तीथ। माताश्रीन सायाथी ५४७या. 'गिण्हित्ता जेणेव
पणे तेणेव उवागच्छंति' ५४ीन पछी
બાંધી
PaRamon
तएणं ते आभिओगा ५.. ..
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भेम्बूद्वीपप्रचलित गृहं यत्रैव चतुः शालं यत्रैव सिंहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'भगवं तित्थयरं वित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयाति' भगवन्तं तीर्थंकरं तीर्थकरमातरंच सिंहासने निपादयन्ति उपवेशयन्ति 'णिसियावित्ता' निपाद्य उपवेश्य 'तिहिं उदएहि मज्जावेंति', त्रिभिरुदकैः मज्जयन्ति स्नपयन्ति, तान्येव त्रीणि दर्शयति 'तं जहा' इत्यादिना 'तं जहागंधोदएणं १ पुप्फोदकेन २ सुद्धोदएणं ३' गन्धोदकेन कुंकुमादिमिश्रिनेन, पुष्पोदकेनजात्यादिमिश्रितेन, शुद्धोदकेन केवलोदकेन 'मज्जावित्ता' मज्जयित्वा स्नपयित्वा 'सन्त्रलङ्कारविभूसियं करेंति' सर्वालंकारविभूपिती कुर्वन्ति, मातपुत्रौ इति भावः, 'करित्ता' कृत्वा. 'भगवं तित्थयरं फरयलपुढेणं तित्थयरमायरं च वाहहिं गिग्हंति' भगवन्तं तीर्थंकरं करतल. सीहासणे तेणेव उवागच्छंति' पकडकर फिर वे जहां पूर्वदिग्दता कदली गृह था
और उसमें भी जहाँ पर चतुः शाला थी और उस चतुःशाला में भी जहां पर सिंहासन था वहां पर आई 'उवागच्छित्ता भगवं तित्थपरं तित्थयरमायरंच सीहालणे णिसीयाति' वहां आकर के उन्हो ने भगवान् तीर्थकर को और तीर्थकर को माता को सिंहासन पर बैठा दिया 'णिसियावित्ता तिहि उदएहि मज्जावेति-तं जहा-गंधोदणं पुष्फोदएणं सुद्धोदएणं सज्जावित्ता सन्चालंकारविभूसियं करेंति' बैठाकर फिर उन्हों ने तीर्थंकर एवं तीर्थकर माता को तीन प्रकार के जल से नहवाया-स्नान कराया वह तीन प्रकार का अल ऐसा है. एक गंधोदक-कुंकुम आदि से मिश्रित जल दूसरा पूष्पोदक-जात्यादि पुष्पों से मिश्रित जल और तीसरा-शुद्धोदक-केवल पानी इन तीन प्रकार के जल से स्नान कराने के बाद फिर उन्हों ने उन्हें सर्वप्रकार के अलङ्कारों से विभूषित' किया 'करित्ता भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरंच बाहाहिं गिण्हति' सब प्रकार के अलङ्कारों से विभूपित करके फिर उन्हों ने भगवान् तीर्थ कर તે જ્યાં પૂર્વ દિગ્વત કદલીગૃહ હતું અને તેમાં પણ જ્યાં ચતુશાલા હતી અને તે यतुःशालामा पY या सिडासन हेतु त्यो मावी. 'उवागच्छित्ता भगवतित्थयर तित्थयर मायारं च सीहासणे णिसीयावेंति' त्या मावीत. तेभी भगवान् ती ४२ने मने तीय४२. भातान सिंहासन ५२ साउया. "णिसीयावित्ता तिहिं उदएहिं मजाति-तं जहा गधोदपणं पुष्फोदएणं सुद्धोदएणं मजावित्ता सबालंकारविभूसियं करेंति साडी पछी भने તીર્થ કરને તેમજ તીર્થકરના માતાશ્રીને ત્રણ પ્રકારના પાણીથી સનાન કરાવ્યું તે ત્રણ પ્રકારનું પણ આ પ્રમાણે છે–પ્રથમ-ગધદક-કુંકુમ આદિથી મિશ્રિત પાણું, દ્વિતીય પુપિદકજાત્યાદિ પુષ્પથી મિશ્રિત પાણી અને તૃતીય શુદ્ધોદક ફક્ત પાણી. આ ત્રણ પ્રકારના પોથી નાન કરાવીને પછી તેમણે તેઓ બનેને સર્વ પ્રકારના અલંકાથી વિભૂષિત કયો - 'करित्ता भगव' तित्थयर फरयलपुडेणं तित्थयरमायरं च वाहाहिं गिण्हति' सब साथ कर
थी विभूषित शन पछी तेभो भगवान् ती ४२ने भने , 'कप्पेत्ता, वि.
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. ३ पौरस्त्यरुचक निवासिनीनाभवसर वर्णनम् ५९९ 'पुटेन तीर्थंकरमातरं च वाहूभ्यां गृह्णन्ति 'गिव्हित्ता' गृहीत्वा 'जेणेव उत्तरिल्ले कथलीहरए - जेणेव चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उपागच्छति' यत्रैवोत्तराहं कदलीगृहं यत्रैव चतुः शालं यत्रैव सिंहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयाविति' भगवन्तं तीथकरं तीर्थङ्कमातरं च सिंहासने निपाद- यन्ति उपवेशयन्ति 'णिसीयावित्ता' ' निपाद्य उपवेश्य 'आभिओगे देवे सहाविति' आभियोगान् आज्ञाकारिणो देवान् शब्दयन्ति आह्वयन्ति 'सद्दावित्ता' शव्दयित्वा आहूय 'एवं - वयासी'' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिषु उक्तवत्यः 'खियामेव भो देवनुपिया ! चुल्लहिमबंताओ वासहरपव्त्रयाओ गोसीसचं दणकट्ठाई साहरह' द्रवतो वर्षघरपर्वतात् गौशीर्ष- चन्दन काष्ठानि संहरत समानयत' 'तरणं ते आभिओगा देवा ताहि स्यगमज्झत्थव्वाहि asi दिसाकुमारी महत्तरियाहि एवंवृत्ता समाणा हट्टतुट्टा जाव विणणं वयणं पडिच्छंति' को और तीर्थ कर की माता को क्रमशः करतलपुर से उठाया एवं हाथों से पकडा " गिणित्ता जेणेव उत्तरिल्ले कथलीहरए चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेच उचा'गच्छंति' पकडकर के वे उत्तर दिग्वर्ती कयली गृहमें जहां चतुः शाला थी और उसमें भी जहाँ सिंहासन था वहां पर गई । 'उवागच्छित्ता भगवं तित्थघरं तिस्थपरमायरं च सीहासणे णिसीयावेंति' वहां जाकर के उन्हों ने भगवान् तीर्थ - कर और तीर्थ कर माता को सिंहासन पर बैठा दिया (णिसीयावित्ता आभिओगे 'देवे सदाविति) सिंहासन पर बैठाकर फिर उन्हों ने अपने २ अभियोगिक देवों को बुलाया 'सद्दावित्ता एवं वयासी' बुलाकर उनसे ऐसा कहा - 'खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ गोसीसचंदणकट्ठाई साहरह' 'हे देवानुप्रियो ! तुमलोग शीघ्र ही क्षुद्र हिमवत्पर्यत से गोशीर्ष चन्दन की लकडियां लेकर आओ 'तणं ते अभिओगा देवा ताहिं रुयगमज्झवत्थव्याहिं
हिं दिसाकुमारी महत्तरियाहिं एवं बुत्ता समाणा हट्ठ तुट्ठा जाच विणणं भाताने उभशः ४२तलपुटथी पाउया भने हाथोथी पाडया 'गिन्हित्ता जेणेत्र उत्तरिल्ले कय्लीहरए जेणेव चउसीलए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छंति' पडीने उत्तर दिशा तरइना દલી ગૃહમાં જ્યાં ચતુઃ શાળા હતી અને તેમાં પણ જ્યાં સિહાસન હતું ત્યાં તેઓ ગઈ 'वागच्छत्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयावेंति' त्यांने तेथे भगवान् तीर्थ ४२ने भने तीर्थ १२नी भाताने सिहासनपर मेसार्या 'णिसीयाविता 'आभिओगे देवे सदाविंति सिंहासन उपर मेसाडीने पछी तेभो पोतपोताना मालियोगि देवाने मीसाव्या. 'सद्दावित्ता एवं वयासी' गोसावीने तेभने या प्रभा ४धुं 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्ययाओ गोसीसचंडणकट्ठाई स'हरह' हे देवानु - પ્રિયે! તમે લેકા શીઘ્ર ક્ષુદ્રહિમવ૫ત્ર તથી ગોશી ચન્દનના લાકડાએ લઈ આવે. 'तएणं ते आभिओगा देवा ताहि रुयगमज्झवत्थव्याहि चउहिं दिसाकुमारी महत्तरियाहिं एवं
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सम्वृद्धीपप्रतिर ततः तासामाज्ञप्त्यनन्तरं खलु ते आभियोगा:-अज्ञाकारिणो देवाः ताभिः रुचकमध्यवास्तव्याभिः चतसृभिः दिक्कुमारीमहत्तरिकामिरेवम् उक्तप्रकारेण उक्ता आज्ञप्ताः सातः हनुष्टा यावद् विनयेन वचनं प्रतीच्छन्ति स्वीकुर्वन्ति अन, यावत् पदात् हृष्टतुष्टचित्तानन्दिताः सुमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पदहदया इति ग्राह्यम् 'पडिच्छित्ता' प्रतीप्य स्वीकृत्य, 'खिप्पामेव चुल्लहिमवंताओ वासहरपाक्याओ सरसाई गोसीसचंदणकट्ठाई साहरंति' क्षिप्रमेव शीघ्रातिशीघ्रमेव क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतात् सरसादि-रससहितानि गो शीर्षचन्दनकाष्ठानि संहरन्ति समानयन्ति 'तएणं ताबो मज्झिमरुर गवस्थवाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरियाओ सरगं करेंति' ततः र लु तदनन्तरं दिल ताः मध्यरचकपर्वतवास्तव्याः चतस्रो दिवकुमारी महतरिकाः शरकं शरप्रतिकृति तीक्ष्णमुरुमन्युत्पदकं काष्ठ विशेष कुर्वन्ति, 'करित्ता' कृत्वा 'अरणिं घडति' अरणि घटयान्त-तेनैव शरवेण सह अरणि वयणं पडिच्छंति' इस प्रकार उन रुचक मध्य वासिनी चार महत्तरिक दिक्क मारियों द्वारा आज्ञप्त हुए वे आभियोगिक देव हृष्ट तुष्ट यारत हुए और बडी विनय से उन्हो ने उनके वचनों को स्वीकार कर लिया यहां यावत्पद से 'कृष्ट तुष्ट चित्तानन्दिताः, सुमनसः परम सौमनस्थिताः हर्पवशविसर्पद् हृदया। इस पाठका ग्रहण हुआ है 'पडिच्छित्ता खिप्पामेव चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ सरसाइं गोसीसचंदणकट्ठाई साहरंति' आज्ञा के वचनों को स्वीकार करके वे आभियोगिक देव क्षुद्रहिमवत्पर्वत पर गये और वहां से गौशीर्ष सरस चन्दन की लकडियां ले आये 'तएणं ताओ मज्झिमरुयग वत्थव्य भो चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ सरगं करें ति' इसके बाद उन चार मध्यरुचक वासिनी महत्तरिक दिक्कुमारियों ने अग्नि को उत्पन्न करने वाला शरक नामका काष्ठ विशेप तैयार किया 'करित्ता अरणि घडेंति उसे तैयार करके उसके साथ अरणिकाप्ठ को संयोजित किया 'अरणिं घडिता सरएणं वुत्ता समाणा हट्ट तुद्वा जाव विणएणं वयणं पडिच्छंति' या प्रमाणे ते २५४ मध्यवासिनी ચાર મહત્તરિક કુિમારિકાઓ વડે આજ્ઞપ્ત થયેલા તે આભિગિક દેવે હષ્ટ-તુષ્ટ થઈને ચાવતું બહુ જ વિનય સાથે તેમણે તેમની આજ્ઞા ન સ્વીકાર કરી લીધું. અહીં ચાવતું ५४थी 'हप्ट तुष्टचित्तानन्दिताः सुमनसः परमसौमनस्थिताः हर्पवशविसर्पद हृदया' मा पान सह थय। छे. 'पहिच्छित्ता खिप्पामेव चल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ सरसाइ गोसीम्रचंदणकटाई साहरंति' माज्ञान वयनानी वीर.४२ पछी त मlalitars દેવ શુદ્ધ હિમવત પર્વની ઉપર ગયા અને ત્યાંથી ગશીર્ષ સરસ ચંદનના લાકડાએ લઈ मा०या. तएण ताओ मझिमरुयगवत्थब्याओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ सरगं करें ति' ત્યારબાદ તે ચાર મધ્ય સુચક વાસિની મહત્તરિક દિકુમારીઓએ અરિનને ઉત્પન્ન કરનાર श२४ नाम४ ४७४ विशेष तयार ४यु'. 'करिता अरणिं घडेति' तेन तयार ४ीन तना साथ
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सु. ३ पौरस्त्यरुच कनिवासिनीनामव सरवर्णनम् ६०१
लोकप्रसिद्धं काष्ठविशेषं घटयन्ति संयोजयन्ति 'अरणिं घडित्ता' अरणिं घटयित्वा संयोज्य 'सरणं अरणि महिंति' शरकेण अणि मध्नन्ति 'महित्ता' मथित्वा 'अरिंग पाडेंति' अग्नि पातयन्ति 'पाडित्ता' पातयित्वा 'अरिंग संधुक्खंति' अग्नि संधुक्षन्ति सदीपयन्ति 'संधुविखत्ता' संधुक्ष्य 'गोसीस चंदणकट्ठे पक्खिवंति' गोशीर्षचन्दन काष्ठानि खण्डशः कृतानि 'यादृशैश्चन्दनकाष्ठैः अग्निरुद्दीपितः स्यात् तादृशानि प्रोक्तकाष्ठानि प्रक्षिपन्ति 'पक्खिवित्ता' प्रक्षिप्य 'अरिंग उज्ज. लंति' अग्निमु ज्यालयन्ति 'उज्जालित्ता' उज्ज्वाल्य 'समिहा कट्ठाई पक्खिर्विति' समित्काष्ठानि प्रादेशप्रमाणानि इन्धनानि समिधस्तद्रूपाणि काष्ठानि अग्नौ प्रक्षिपन्ति पूर्वं हि गोशोर्ष वन्दन काष्ठप्रक्षेपोऽन्युद्दीपनाय अयं च प्रक्षेपः रक्षाकरणायेति 'विशेष', 'पक्खिवित्ता' प्रक्षिप्य 'अग्गिहोमं करेंति' अग्निहोमं कुर्वन्ति अग्नि विशेषतः प्रज्वालयतीत्यर्थः 'करिता' कृत्वा 'भूतिकम्मं करेंति' भूतिकर्म कुर्वन्ति भूतेः भस्मनः कर्म क्रिया तां कर्वन्ति 'करिता' कृत्वा 'रक्खापोहलियं बंधेति रक्षा पोट्टलिकाम् - जिनजनन्योः अरणि महिति' संघोजित करके फिर दोनों को उन्होंने रगडा 'महिता अरिंग पाडेंति' रगड करके अग्नि को उनमें से निकाला 'पाडित्ता अगिंग संधुक्खंति' निकाल कर उस अग्नि को उन्होंने धोंका 'संधुक्खित्ता गोसीसचंदणकट्ठे पक्खिविति' धोंक कर अग्नि में उन गोशीर्ष चन्दन की लकडियों को डाला 'पक्खिवित्ता अरंग उज्जालयंति' डाल करके फिर उन्होंने अग्नि को प्रज्ज्वलित किया 'उज्जालित्ता समिहाकट्ठाई पक्खिविंति ' अग्नि को प्रज्वलित करके फिर उसमें उन्होंने समित्काष्ठों को डाला पहिले तो गोशीर्ष चन्दन की लकडियों से उन्होंने अग्नि को चेताया जलाया बाद में जब अग्नि चेत चूकी तब फिर उसमें उन्होंने इन्धन डाला 'पक्खिवित्ता अग्निहोमं करेति' इन्धन डालकर फिर उन्होंने अग्नि होम किया 'करिता भूतिकम्मं करेति' अग्नि होम करके फिर उन्होंने भूतिकर्म किया 'करिता रक्खापोट्टलियं बं वंति' भूतिकर्म करके उन्हों ने श्मरशिष्ठने संयोजित यु. 'अरणि घडित्ता सरएणं अरणिं मर्हिति' सयोनित हरीने पछी मन्त्रेने तेभणे धस्यां ‘महित्ता अगिंग पोडेति' धसीने अग्निने तेमांथी छाढयेो. 'पडित्ता अग्गिं' संधुक्खंति' अढीने ते अग्निने तेभो समगाव्या. 'संधुक्त्रित्ता गोसीसचंदणकट्ठे पक्खिविति' सणगावीने ते गोशीर्ष यन्दनना साडामने तेमां नाच्या 'पक्खिवित्ता अग्गिं उज्जालयंति' नाजीने तेभो मग्निने अन्यसित र्या. 'उज्जालित्ता समिहारट्ठाई पक्खिविति' अग्निने પ્રજવલિત કરીને પછી તેમાં તેમણે સમિત્ ક ખ્ખા નાખ્યાં. પહેલાં તેમણે ગે શીષ ચન્હનના ‘લાડાએથી અગ્નિ પ્રજવલિત કર્યાં ત્યાર ખાદ જ્યારે અગ્નિ પ્રજ્વલિત થઈ ગયા ત્યારે तेभो तेभां 'धन नाभ्या. 'पक्खिवित्ता अग्गिहोमं करेंति' धिन नामने पछी तेभो अग्नि हाय हुये. 'करिता भूतिकम्मं करेति' अग्नि डाय नेपछी तेभो भूर्ति भ ४यु' 'करित्ता रक्खापोट्टलियं बंधंति' भूतिर्भ होने पछी तेभा रानी चट्टसिश मनावी
न ७६
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:०२ . .
जम्बूदीपप्राप्तिस्ते :शाकिन्यादि दुष्टदेवताभ्यो दृग्दोपादिभ्यश्च रक्षाकरी पोट्टलिका वघ्नन्ति 'वंधेत्ता' बद्ध्वा 'णाणामणिरयणभत्तिचित्त दुविहे पाहाणवट्टगे गिडंति' नाना मणिरत्नमक्तिचित्रौ-नानामणिरत्नानां विविधचन्द्रकान्तहीरकादीनां भक्तीरचना तया विचित्रौ द्विविधौ पापाणवृत्तको पापाणगोलको गृह्णन्ति 'गहाय' गृहीत्वा 'भगवो तित्थयास्स कण्णमूलंमि टिटियाविति' भगववस्तीर्थङ्करस्य कर्णमूले तौ पाषाणगोलको संयोज्य 'टिहियाति' परस्परं ताडनेन टिट्टीतिशब्दोत्पादनपूर्वकं वादयन्तीत्यर्थः 'टिट्टियाति' अनुकरणशब्दोऽयम् अनेन हि बाललीलाक्शादन्यत्र व्यासक्तं भगवन्तं वक्ष्यमाणाशीर्व वनश्रवणे पहुं कुर्वन्तीतिभावः, 'भवउ भगवं पव्वयाउए २' भवतु भगवान् पर्वतायुः भवतु भगवान् पर्वतायुः इत्याशीर्वचनं ददाति • इति । 'तए णं ताओ रुयगमज्झवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ भगवं तित्थयरं
राखकी पोलियां बनाई जिन और जिन जननी की शाकिनी आदि दुष्ट देवियों 'से एवं दृष्टिदोप से रक्षा करनेवाली ऐसी पोहलिका तैयार की और उसे उनके
गले में बांध दिया 'बंधेत्ता णाणामणिरयणभत्तिचित्ते दुविहे पाहाणवट्टगे. 'गिण्हंति' बांधने के बाद फिर उन्हों ने अनेक मणि और रत्नों से जिनमें रचना
हो रही है और इसी से जो विचित्र प्रकार के हैं ऐसे दो गोलपाषाण को-बटईयों को शालिग्राम की जैसी छोटी-छोटी दो वटइयों को उठाया-'गहाय भगविओ.तित्थयरस्स कण्णमूलंमि टिटियाति' और उठाकर उन्हें भगवान् तीर्थ'कर के कर्णमूल पर ले जाकर वजाया-कि जिस से उनके वचन से टी टी ऐसा
शब्द निकला 'टिटियाति' यह अनुकरण शब्द है । इससे यह प्रकट किया गया है कि बाललीला के वश से यदि भगवान् का चित्त अन्यत्र आसक्त हो तो वह एक जगह आजावे ताकि वक्ष्यमाण इस आशीर्वाद के वचनों को वे सावधान से सुन सकें 'भवउ भगवं पञ्चयाउए आप भगवान पर्वत के वरायर आयुवाले हों • જિન અને જિન જનની ની શાકિની વગેરે દુષ્ટ દેવીઓથી તેમજ દષ્ટિ દેષથી રક્ષા કરનારી એવી તેમણે પિટ્ટલિકા તૈયાર કરી અને પછી તે પિટ્ટલિકા તે તેમના ગળામાં બાંધી દીધી. बंधेत्ता, णाणामणिरयणभत्तिचित्ते दुविहे पाहाणवट्टगे गिण्हंति' मध्या माई तेभरे मन મણિઓ અને રત્નની જેમાં રચના થઈ રહી છે અને એનાથી જ જે વિચિત્ર પ્રકારના ', मेवा मे पाषाण:-शसियाम वा मारना मे पाषा-PAI. 'गहाय भग विओ तित्थयरस्स फण्णमूलंमि टिट्टियावें ति' मन. पी. तेभर मगवान् ती ४२ना - મૂલ ઉપર લઈ જઈને વગાડ્યા. કે જેથી તેમના વજનથી જ ટી–ટી એ શબ્દ નીકળે 'टिट्रिया'ति' मनु४२यात्म४ ५४ . सनाथी म पात ४८ ४२वामा माकी छ । બાળલીલાના કારણથી જે ભગવાનનું ચિત્ત અન્ય સ્થળે આસક્ત હોય તે તે એક સ્થાને આવી જાય. જેથી વયમાણ આ આશીર્વાદના વચનેને તેઓથી સાવધાન થઈને સાંભળી :: 'भवन भगवं पव्वयाउए' भा५ मापान पति १२१२ मायुष्यवाणा था-मा. 'तराएण
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ६३ करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च वाहाहिं गिण्हंति' ततः उक्तसकलकार्यकरणानन्तरं खलु ताः रुचकमध्यवास्तव्याः चतस्रो दिवकुमारी महत्तरिकाः भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थंकरमातरं च बाहुभ्यां गृह्णन्ति 'गिण्हित्ता' गृहीत्वा 'जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे: तेणेव उवागच्छंति' यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनं तत्रैव उपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता', उपागत्य 'तित्थयरमायरं सयणिज्जसि णिसीयाविति' तीर्थकरमातरं शय्यायां निषादयन्ति उपवेशयन्ति 'णिसीयावित्ता' निषाद्य उपवेश्य 'भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेंति' भगवन्तं: तीर्थङ्करं मातुः पार्थे स्थापयन्ति 'ठवित्ता' स्थापयित्वा नातिदुरासनगाः सत्यः 'आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति' आगायन्त्यः-आ-ईपत् गायन्त्यः प्रारम्भकाले अल्पस्वरेणैव गायमानत्वात् ततः परिगायन्त्या-दीर्घस्वरेण गायन्त्यस्ताः चतस्रो दिक्कुमारीमहत्तरिकास्तिष्ठन्तीति ॥९० ३॥ 'तएणं ताओ रुयगमज्झवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओं भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हंति' इस प्रकार से आशीर्वाद देने के बाद उन रुचक मध्यवासिनी चार महत्तरिक दिक्कुमारियों ने भगवान् तीर्थंकर को दोनों हाथों से उठालिया और तीर्थ कर माता को दोनों भुजाओं में पकड लिया। "गिण्हित्ता जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छंति' पकड कर फिर वे जहां भगवान तीर्थकर का जन्म भवन था वहां आगई । 'उवागच्छित्ता तित्थयरमायरं सयणिज्जसि णिसीयाति' वहां: आकर के उन्होंने तीर्थकर की माता को शय्या पर बैठा दिया 'णिसीयावित्ता भगवं, तिस्थयरं माउए पासे ठर्विति' बैठा कर फिर उन्हों ने भगवान् तीर्थंकर को उनके पास रख दिया 'ठवित्ता आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठत्ति रखकर फिर वे अपने समुचित स्थान पर खडी हो गई और पहिले धीमे स्वर से और बाद में जोर जोर से जन्मोत्सव के माङ्गलिक गीत गाने लगी ॥३॥ . ताओ रुयगमज्यवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरियाओ भगवं तित्थयरं करयलपुडेणे , तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्डंति' प्रमाणे माशीहि माया मारत अन्य भाय- .. વાસિની ચાર મહત્તરિક દિકુમારીઓએ ભગવાન તીર્થકરને બન્ને હાથમાં ઉઠાવ્યા. અને * तीथ ४२ना भाताना मन्ने माईमा ५४७या. 'गिण्हित्ता जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मण- .' भवणे तेणेव उवागच्छंति' ५४ीर पछी या सगवान् तथ४२नु म सपन हेतु त्यो : तमा मावी. 'उवागच्छित्ता तित्थयरमायरं सयणिज्जंसि णिसीयावेंति' त्या-मावी तेभो .. तीथ ४२ना भाताने शय्या ५२ मसाया. 'णिसीयावित्ता भगवं तित्ययरं माउए पासे . ठविति' मेसीन पछी तभो भगवान् ती ४२नेतेभनी भातानी पासे भूटीहीधा. 'ठवित्ता । आगायमाणीओ परिंगायमाणीओ चिटुंति' भूधार पछी ते येताना समुचित स्थान ली . થઈ ગઈ અને પહેલાં ધીમા-ધીમા સ્વરથી અને ત્યાર બાદ જોર-જોરથી જન્મત્સવના भनि गीत गापा ॥ 3 ॥ . .
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जम्बूद्धीपत्राप्ति . अथेन्द्रकृत्यावसरमाह"मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के णाम देविंदे देवराया वजपाणी पुरंदरे सयकऊ सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिणद्धलोकाहिवई बत्तीसविमाणावाससयसहस्साहिवई एरावणवाहणे सुरिंदे अरयं बरवत्थधरे आलइयमालमउडे नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जआणगंडे भासुरवोंदी पलंबवणमाले महिडिए महन्जुईए महावले महा जसे महाणुभागे महासोक्खे सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए सक्कंसि सीहासणंसि से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणा. वाससयसाहस्सीणं चउरासीए सामाणियसाहस्तीणं तायत्तीसाए ताय. तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं अट्टण्हं अग्गमहिसणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सतण्हं अणिआणं सत्तण्हं अणियाहिबईणं चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च वहणं सोहम्मकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेबच्चं सामित्तं भहित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयणगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुपडहवाइयरवेणं दिव्बाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । तए णं तस्स सकस्त देविंदस्त देवरणो आसणं चलई । तए णं से सक्के जाव आसणं चलियं पासइ पासित्ता ओहिं पउंजइ पउंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ आमोइत्ता हट्टतुट्ठचित्ते आनंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए धाराहयकयंबकुसुमचंचुमालइयऊसवियरोमकूवे वियसियवरकमलनयणवयणे पचलियवरकडगतुडियकेऊरमउडे कुंडलहारविरायंतवच्छे पालंबपलंबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियं चवलं सुरिंदे सीहासणाओ अब्भुट्टेइ अब्भुद्विता पायपीठाओ पञ्चोरुहइ पच्चोरुहिता वेरुलियवरिटुरिट अंजणनिउणोवियमिसिमिसिंत मणिरयणमंडियाओ पाउयाओं ओमुयइ
ओमुइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ' करिता अंजलिमउलियग्गहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तट्रपयाई अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वामं जाणं अचाइ
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् अचित्ता दाहिणं जाणुं धरणीयलंसि साहटु तिखुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेह निवेसित्ता ईसिं पच्चुण्णमइ, पच्चुण्णमित्ता कडगतुडियथंभियाओ भुयाओ साहरइ, साहरित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-णमोत्थुणं अरहताणं भगवंताणं, आइगराणं तित्थयराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमा पुरिस. सीहाणं-पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं लोगणाहाणं लोगहिया लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कट्टीणं, दीवोताणं सरणं गई पइदा अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं वियटू छउमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाण तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं सम्वन्नूर्ण सव्वदरिसीणं सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरवित्तिसिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं णमो जिणाणं जिय. भयाणं णमोत्थुणं भगवओ तित्थयरस्स आइगरस्स जाव संपविउकामस्स वदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवं ! तत्थगए इहगयं ति कटु वंदइ, णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे सण्णिसणे, तएणं तस्त सक्कस्स देविंदस्स देवरणोअयमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था उपपणे खलु भो जंबुद्दीवे दीवे भगवं तित्थयरे तंजीयमेयं तीय पच्चुपण्णमणागयाणं सव्वाग देविंदाणं देवराईणं तित्थयराणं जम्मणमहिमं करेत्तए तं, गच्छामि णं अहंपि भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करेमि ति कट्ठ एवं संपेहित्ता हरिणेगमेसिं पायताणीयाहिवइं देवं सदावेति सदावित्ता एवं वयासी- . खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए मेघोघरसियं गंभीरमहुरयरसदं जोयणपरिमंडलं सुघोस सूसरं घंटं तिक्खुत्तो उल्लालेमाणे २ महया महया सदेणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयांसी-आणवेइयं भो सक्के
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६०६.
जम्बूद्वीपप्रतिमा देविदे देवराया गच्छदणं भो सक्के देविंदे देवराया जंबुद्दीवे दीवे भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करित्तए, तं तुन्भेविणं देवाणुप्पिया। सविद्धीए सव्वजुईए सव्वबलेणं सव्वसमुदयेणं सव्वायरेणं सव्वविभूईए सम्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सबसणाडएहिं सरोवरोहेहिं सवपुष्पगंध-. मल्लालंकारविभूसाए सम्बदिव्वतुडियसदसणिणाएणं महया इद्धीए जाव रवेणं णिययपरियालसंपरिवुडा सयाई सयाइं जाणविमाणवाहणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं चेव सकस्त जाव अंतियं पाउन्भवह । तएणं से हरिणेगमेसी देवे पायत्ताणीयाहिवई सक्केणं ३ जाव एवं वुत्ते समाणे हट्ट तुट्ट जात्र एवं देवोत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ पडिसुणित्ता सकस्त ३ अंतियाओ पडिणिक्खमइ पडिमिक्खमित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए मेघोघरसियगंभीरमहरयरसदा जोयणपरिमंडला सुघोसा घंटा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं मेघोघरसियगंभीरमहुरयरसदं जोयणपरिमंडल सुघोसं घंटे तिक्खुत्तो उल्लालेइ तएणं तीसे मेघोघरसियगंभीरमहुरयरसदाए जोयणपरिमंडलाए सुघोसाए घंटाए तिकवुत्तो उल्लालियाए समाणीए सोहम्मे कप्पे अण्णेहि एगणेहिं बत्तीस. विमाणावाससयसहस्सेहिं अण्णाई एगूणाई वत्तीसं घंटासयसहस्साई जमगसमगं कणकगारावं काउं पयत्ताई हुत्था इति, तएणं सोहम्मे' कप्पे पासायविमाणनिक्खुडावडियसहसमुट्रिय घंटापडेंसुया सय सह. स्ससंकुले जाए यावि होत्था इति, तएणं तेसिं सोहम्मकप्पवासीणं वहणं वेमाणियाणं देवाणय देवीणय एगंत रइपसत्तणिच्चपमत्त विसय सुहमुच्छियाणं सूसरघंटारसियविउलवोलपरियचवलपडिवोहणे कए समाणे घोसणकोऊहलदिण्णकण्णएगग्गचित्त उवउत्तमाणसाणं से पायताणीयाहिवई देवे तंसि घंटारसि निसंतपडिसंतति समार्णसि तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे महया महया सदेणं उग्रोसेमाणे उग्रोसेमाणे एवं वयासीति हंत ! सुणंतु भवंतो बहवे सोहम्मकप्पवासी वेमा
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प्रकारिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्र कृत्यावसर निरूपणम्
'६०७
यि देवा देवीओय सोहम्मकप्पवइणो इणमोक्यणं हिय सुहृत्थं आणावइणं भोसक्के तंचेव जाव अंतियं पाउब्भवहत्ति, तए णं ते देवा देवीओ य एयम सोच्चा हट्टतुटू जाव हियया अप्पेगइया बंदणवत्तियं एवं पुअण वत्तियं सक्कारवत्तियं संमाणवत्तियं दंसणवत्तियं जिणभत्तिरागेणं अप्पेगइया तं जीयमेयं एवमादि तिकट्टु जाव पाउन्भवंति त्ति' एग से सक्के देविंदे देवराया ते विमाणीए देवे देवीओ य अकालपरिहीणं 'चेत्र अंतियं पाउब्भवमाणे पासइ पासित्ता, हट्टे पालयं णामं अभिओगिये देव सहावे सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखंभसंयस णिवि लीलट्ठियसालभंजियाकलिं ईहामियउसभ'तुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभ चमरकुंजरवणलय पउमलयभत्तिचित्तं खंभुग्गयवइरवेड्यापरिगयाभिरामं विज्जा हरजमलजुयलजंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्समालिणीयं रूवगसहस्सकलियं भिमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुलोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीयरूवं घंटावलिय महुरमणहरसरं सुहं कंत दरिमणिज्जं णिउणोविय मिसिमिसित मणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं जोयणसहस्तविच्छिणं पंचजोयणसय मुव्विद्धं सिग्धं तुरियं जइणं णिव्वाहि दिव्वं जाणविमाणं विवाहि 'विउव्वाहित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि ॥ सू० ४ ॥
·
छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये शक्रो नाम देवेन्द्रो देवराजो वज्रपाणिः पुरन्दरः शतक्रतुः सहस्राक्षः मघवा पाकशासनः दक्षिणार्द्धलोकाधिपति: द्वात्रिंशद् विमानावासशतसहस्राधिपतिः ऐरावतवाहनः सुरेन्द्रः अरजों वग्वस्त्रधरः आलगितमालमुकुटः नवहेमचारचित्त, चञ्चलकुण्डळ विलिह्यमान गण्ड : ' वा विलिख्यमान गण्ड : ' भासुरबोन्दिः प्रलम्बवनमाल: महकि: महाद्युतिकः महावल: महायशस्कः महानुभागः महासौख्यः सौधर्मकल्पसौधर्मावतंसकविमाने सभायां सुधर्मायां शक्रे सिंहासने स खलु तत्र द्वात्रिंशतो विमानावासशतसहस्राणां चतुरशीतेः सामानिकसहस्राणां त्रयः त्रिंशतः त्रयस्त्रिंशकानाम् चतुर्णां लोकपालानाम् अष्टानाम् अग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणां परिपदाम् सप्तानामनीकानां सप्तानामनीकाविपतीनां चतुश्चतुरशीतेरात्मरक्षक देवसहस्राणाम् अन्येषां च बहूनां सौधर्मकल्पवासिनां वैमानि - .कानां देवानां च देवीनां च आधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तत्वं महत्तरकत्वम् अ. ज्ञेश्वरसेना
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६०८
जम्बूद्वीपप्राप्तिको पत्यं कारयन् पालयन् महताहतगीतवादिततन्त्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुपटहवादितरवेण दीव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति । ततः खलु तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराज्ञः आसनं चलति, ततः खलु स शक्रो यावत् आसनं चलितं पश्यति, दृष्ट्वा अवधि प्रयुक्ते प्रयुज्य भग वन्तं तीर्थङ्करम् अवधिना आभोगयति आभोग्य हृष्टतुष्टचित्त आनन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हपंत्रशविसर्पद् हृदयः धाराहतकदम्बकुसुम रोमाञ्चितोच्छ्रितरोमकूपः विकसितवरकमलनयनवानः प्रचलितवरकट कत्रुटिककेयूरमुकुटकुण्डलः हारविराजमानवक्षस्कः प्रालम्बप्रलम्बमानघोलद् भूपणधरः ससंभ्रम त्वरितं चपलं सुरेन्द्रः सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युस्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्य वैड्यंवरिष्ठरिष्टाञ्जननिपुणोचितमिसिमिसिन्त मणिरत्नमण्डिते पादुके अवमुञ्चति अमुच्य एकशाटिकम् उत्तरासङ्गं करोति कृत्वा अञ्जलि मुकुलिताग्रहस्तः तीर्थङ्कराभिमुखः सप्ताप्टपदानि अनुगच्छति अनुगत्य वामं जानुम् आकुञ्चयति आकुच्य दक्षिणं जानुं धरणीतले निहत्य त्रिकृत्वः मूर्दानं धरणीतले निवेशयति, निवेश्य ईपत् प्रत्युन्नमति, प्रत्युग्नमित्वा कटकत्रुटिफस्तम्भिनौ भुजौ संहरति संहृत्य करतल परिगृहीत दशनखं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादी-नमोऽस्तु खलु अरिहन्तुणां भगवताम् आदिकराणां तीर्थकराणां स्वयं संयुद्धानां पुरुषोत्तमानां पुरुषसिंहानां पुरुषवरपुण्डरीकाणां पुरुषवरगन्धहस्तिनां लोकोत्तमाना लोकनाथानां लोकहितानाम् लोकप्रदीपानां लोकप्रद्योतकराणाम् अभयदायकानाम् चक्षुर्दायकानां मार्गदकायानां शरणदायकानां जीवदायकानां वोधिदायकानां धर्मदायकानां धर्मदेशकानां धर्मनायकानां धर्मसारथिनां धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिनों दीया त्राणं शरणं गतिश्च प्रविष्टा अप्रतिहतज्ञानदर्शनधराणां विवृत्तछानां जिना. नाम् जावकाना तीर्णानां तारकानां बुद्धानां वोधकानां मुक्तानां मोचकानां सर्वज्ञानां सर्वदर्शिनां शिवमचलमरुनमनन्तमक्षयमव्यावाधमपुनरावृत्ति सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तानां नमो जिनानां जितभयानाम् नमोऽस्तु खलु भगवतस्तीर्थकरस्य आदिकरस्य यावत् संप्राप्नुकामस्य वन्दे खलु भगवन्तं तत्र गतम् इइगतः पश्यतु मां भगवान् तत्रगतः । इगतम् इतिकृत्वा चन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखः संनिषण्णः ततः, खलु तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अयमेतावद्रूपो यावत् साल्पः समुदपद्यत उत्पन्नः खलु-भो जम्बूदीपे द्वीपे भगवांस्तीर्थकरः तस्माजी मेतत्-अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां शक्राणां देवेन्द्राणाम् देवराजानां तीर्थकराणी जन्ममहिमानं कर्तुं तद्गच्छामि खलु अहमपि भगवतस्तीर्थकस्य जन्ममहिमानं करोमीतिकृत्वा एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य हरिणैगमे । पीतिनामानं पदात्यनीकाधिपतिं देवं शब्दयति शब्दायित्वा एवमयादीत क्षिप्रमेव भो देवानांप्रिय ! सभायां सुधर्मायां मेघौघरसितां गंभीरमधुरतरशब्दाम योजनपरिमण्डलां सुघोषा मुस्वरां घण्टां त्रिः कृत्वः उल्लालयन् उल्लालयन् महता महता शब्देन उद्घोषयन् उद्घोषयन् एवं वदत आज्ञापयति भोः शक्रो देवेन्द्रो देवराजः गच्छति खलु भो शक्रो देवेन्द्रो देवराजः जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं कर्तुं तत् यूयमपि खलु देवानुप्रिया
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम्
६०९ सर्वर्या सर्वधुत्या सर्ववलेन सर्वसमुदायेन सर्वादरेण सर्वविभूत्या सर्वविभूषया सर्वसंभ्रमेण सर्वनाटकैः सौंपरोधैः सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूपया सर्वादिव्यत्रुटितशब्दसन्निनादेन महत्या ऋचा यावत् रवेण निजकपरिवारसंपरिवृताः सकानि स्वकानि यानविमानवाहनानि दुरूढाः सन्त: अकालपरिहीणं शक्रस्य यावत् अन्तिके प्रादुर्भवत । ततः खलुस हरिणेगमेषी देवः पादात्यनीधिपतिः शक्रेण३ यावत् एवम् उक्तः सन् हृष्टतुष्ट यावत् एवं 'देवा ! इति आज्ञायाः विनयेन वचनं प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकात् प्रतिनिष्क्रागति प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव सभायां सुधर्मायां मेघोघरसिंतगम्भीरमधु रतरशब्दां योजनपरिमण्डलां भुघोपां घण्टा तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तां मेघौवरसित गम्भोरमधुरतरशब्दां योजनपरिमण्डलां सुघोषां घंटा त्रिः कृत्वः उल्लालयति । ___ ततः खलु तस्यां मेघौधरसितगम्भीर० मधुरतरशब्दायां योजनपरिमण्डलायां मुघोपायां घण्टायां त्रिः कृत्वः उल्लालितायां सत्यां सौ नौ कल्पे अन्येपु एकोनेषु द्वात्रिंशद्विमानावासशतसहस्त्रेषु अन्यानि एकोनानि द्वात्रिंशत् घण्टाशतसहस्त्राणि यमकसमकं कणकणारावं कर्त प्रवृत्तानि अभवत् इति। ततः खलु सौधर्मः कल्पा प्राप्तादविपाननिष्कुटापतितशब्दसमुत्थितघण्टाप्रतिश्रुतशतसहस्त्रसंकुलो जातश्चाप्यभूत् इति । ततः खलु तेषां सं.धर्मकल्पवासिनां बहूनां वैमानिकानां देवानाञ्च देवीनां च एकान्तरतिप्रसननित्यप्रमत्तविषयसुखमूर्छितानाम् सुस्वरघण्टारसितविपुलबोलपूरितचपलपरिवोधने कृते सति घोषणकुतूहलदत्तकणैकाग्रचित्तोपयुक्तमानसानां सपदात्यतीकाधिपति देवः तस्मिन् घण्टारवे निशान्त प्रतिशान्ते सति तत्र तत्र तस्मिन् तस्मिन् देशे महता महता शब्देन उद्घोषयन् उद्घोष"न् एवम् अवादीदिति । हन्त ! श्रृण्वन्तु भवन्तो बहवः सौधर्मकल्पवासिनो वैमानिकदेवाः देयश्च सौधर्मकल्पपतेरिदं वचनं हितमुखायम्-आज्ञापयति खल भो शक्रः तदेव यावत् अन्तिकं प्रादुर्भवत इति, ततश्च ते देवा देव्यश्च एतमर्थ श्रुत्वा हृष्टतुष्ट यावत् हृदया! अप्येककाः दन्दनप्रत्ययम् एवं पूजन प्रत्यम् सत्कारप्रत्ययम् रान्मानप्रत्ययम् जिनभक्तिरागेण अप्पेककाः तत् जीतमेतत् एवमादि इत्यादिकं कृत्वा यावत् प्रादुर्भवन्ति इति । ततः खलु सः शक्रः देवेन्द्रो देवराजः तान् वैमानिकान् देवान् देवींच अकालरिहीनं चेव अन्तिकं प्रादुर्भवतः प्रादुर्भवन्तीश्च पश्यति दृष्ट्वा हृष्टः पालकं नाम आभियोगिकं देवं शब्दयति शब्दयित्वा एधमयादीत् क्षिप्रमेव भो ! देवानुप्रियाः अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टं लीलास्थितशालभञ्जिकाकलितम् ईहामृगऋपभतुरगनरमकरविहगव्यालककिन्नररुरुशरभचामरकुञ्जरवनलतापक्षलताभक्तिचित्रम् स्तम्भोद्गतवज्रवेदिकापरिगतांभिरामम् विद्याधरयमलयुगल यन्त्रयुक्तमित्र अर्चिसहसमालिनीकम् रूपकसहस्वकलितम् भास्यमानं वाभास्यमानं चक्षुलोचनलेश्यं सुखस्पर्श सश्रीकरूपं घण्टावलिकमधुरमनोहर सदृशम् शुभं कान्तं दर्शनीयम् मिसिमिसेन्तमणिरत्नपण्टिकाजोलपरिक्षिप्तम् योजन सहस्रविस्तीर्ण पञ्चशतोच्च शीघं त्वरितं जवन निर्वाहि दिव्यम् यानविमानं विकुर्वस्व विकुर्य एताम् आज्ञप्तिका प्रत्यर्पय ॥ सू०४ ।।
ज ७७
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जम्बूदीपप्रबप्तिसूत्रे टीका-सम्प्रति तीर्थंकरस्य जन्ममहोत्सवे शक्रस्य कृत्याचारं दर्शयति 'ते णं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि
'तेणं कालेणं तेणं समएण' तस्मिन् काले तस्मिन् समये अप्यार्थः अस्मिन्नेववक्षस्कारे प्रथमसूत्रे द्रष्टव्यः 'सक्के णाम' शक्रो नाम सौधर्माधिपतिः 'देविदे' देवेन्द्रः देवस्वामी 'देवराया' देवराजः देवाधिपतिः 'वजपाणी' वज्रपाणिः वज्रः पाणौ हस्ते यस्य स तथाभूतः 'पुरंदरे' पुरन्दरः पुरं दारयति विदारयति, अर्जुनद्वारा इति पुरन्दरः 'सयकेउ' शतक्रतुः शतक्रवतः श्र.वकपञ्चमीप्रतिमा यस्य स तथा कार्तिकनाम श्रेष्ठि भवे तेन श्रावकपञ्चमीप्रतिमां शतवारमाराधितवान् ततः शतक्रतुरिति इन्द्रः कथ्यते 'सहस्सक्खे सहस्राक्षः सहस्रनयनः इन्द्रस्य पश्चशतामित्रणि प्रत्येकं द्वे द्वे अक्षिणी तेन सहस्राक्षः कथ्यते 'मघवं' मघवान् मघाः मेघाः
'ते णं काले गं ते णं समएणं सक्के णाम' इत्यादि
टीकार्थ-'ते णं कालेणं तेणं समएणं' उस कालमें और उस समय में 'सक्के णामं देविदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे सयकेऊ सहस्तक्खे पागसासणे दाहिणद्धलोकाहिबई बत्तीस विमाणावाससयसहस्साहिवई एरावणवाहणे सुरिंदे अरयंवरवत्थधरे' देवों का इन्द्र देवराज शक दिव्य भोगों को भोग रहा था ऐसा यहां सम्बन्ध है इसी सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिये जितने भी यहां इन्द्र के विशेषणरूप से पद् प्रयुक्त किये गये हैं उनका अर्थ इस प्रकार से है-इन्द्र के हाथमें वन रहता है इसलिये इसे वज्रपाणि कहा गया है पुरन्दर इसे इसलिये कहा गया है कि यह इन्द्र के भव को समाप्त करके मनुष्य पर्याय में आकर के रागद्वेषादिरूप नगर का विध्वंस कर मुक्ति प्राप्त करेंगे शतक्रतु इसे इस कारण कहा गया है कि कार्तिक नामक श्रेष्ठि के भव में इसने श्रावक की पाचवीं प्रतिमा की आराधना १०० चार की थी, सहस्त्राक्ष जो इसे कहा गया है उसका
'तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के णाम' इत्यादि
'तेणं कालेणं तेणं समएणं' ते णे भने ते समये 'सक्के णामं दरिदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे सयकेऊ सहस्सक्खे पागसासणे दाहिणद्धलोकाहि वई वत्तीसविमाणावाससयसहम्साहिवई एरावणवाहणे सुरिदे अरयंवरवत्यधरे' हवाना छन्द्र देव श व्य ભેગેને ઉપભેગ કરી રહ્યો હતો, એ અત્રે સંદર્ભ છે. એજ સંદર્ભને સ્પષ્ટ કરવા માટે જેટલા અહીં ઈન્દ્રના વિશેષણ માટે પદે પ્રયુક્ત કરવામાં આવેલા છે, તે પદારા અર્થ આ પ્રમાણે છે-ઈન્દ્રના હાથમાં જ રહે છે, એથી આ વજા પાણિ કહેવાય છે. પુરંદર અને એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે કે એ ઈન્દ્રના ભવને સમાપ્ત કરીને મનુષ્ય પર્યાયમાં આવીને રાગદ્વેષાદિ રૂપ નગરનો વિવંસ કરીને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરશે. શતક્રતુ અને એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે કે કાર્તિક નામક શ્રેષ્ઠિના ભવમાં અણે શ્રાવકની પાંચમી પ્રતિમાની આરાધના ૧૦૦ વાર કરી હતી. આને સહસાક્ષ જે કહેવામાં આવેલ છે ?
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प्रकाशिका टीका-पंञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम्
६११ पन्ति अस्येहि मघवान् 'पागसासणे' पाकशासनः पाको नामासुरः तस्य शासक इत्यर्थः दहिणद्धलोकाहिबई' दक्षिणार्द्धलोकधिपतिः, 'वत्तीसविमाणावाससयसहस्साहिवई' द्वात्रिंरात् विमानावासशतसहस्राधिपतिः द्वात्रिंशल्लक्ष संख्यकविमानावासाधिपतिरित्यर्थः स्वामीतिभावः ‘एरावणवाहणे' ऐगवतवाहनः तन्नामको हस्तिविशेषः वाहनं यस्य स तथाभूतः 'सुरिंदे' सुरेन्द्रः, सुराणां देवानां स्वामी तथा 'अरयंवरवत्थधरे' अरजोऽम्बरवस्त्रधरः प्रांशुरहितनिर्मलस्त्रधरः तथा 'आलइयमालमउले' आलगितमालमुकुट:-यथास्थान स्थापित माल्यमुकुटः 'नवहेमचारुचित्तचञ्चलकुण्डलविलिह्यमानगण्ड:-नवहेमनिर्मितनवीनसुवर्णनिर्मित यत् चारु सुन्दर चित्तवत् चञ्चलं दोलायमानं कुण्डलद्वयं तेन विलिह्यमानः स्पृश्यमानी गण्डः कपोलो यस्य स तथाभूतः 'विलिहिज्जमाण' विलिख्यमानो गण्डो यस्य स कारण यह है कि इसके ५०० मित्र है अतः उनकी दो दो आखों की अपेक्षा लेकर यह सहस्त्राक्ष कह दिया गया है। यह मघ-मेघों का यह स्वामी है इसलिये इसे मघवान कहा गया है । पाकशासन-इसने पाक नामके असुर को शिक्षा दी है इसलिये इसका नाम पाकशासन हो गया है। यह दक्षिणार्धलोक का अधि. पति होता है ३२ लाख विमान इसके अधिकार में रहते हैं ऐरावत हाथी इसकी सवारी के काममें आता है सुरेन्द्र सुरों का यह स्वामी होता है यह पांशु रहित निर्मल वस्त्र पहिनता है-इसलिये अरजोऽम्बर वस्त्रधर इसे कहा गया है। 'आलइय मालमउडे' यथास्थान जिस पर मालाएं रखी हुई रहती हैं ऐसे मुकट को यह मस्तक पर धारण किये रहता है 'नवहेमचारचित्तंचचलकण्डल विलिहिज्जमाणगंडे' ये जिन दो कुण्डलों को कान में पहिनता है वे नबीन हेम सुवर्ण से निर्मित हुए होते हैं इसलिये बडे सुन्दर होते हैं और चित्त के समान वे चञ्चल होते रहते हैं इसी कारण दोनों गाल इसके उनसे रगडते रहते हैं આ કારણથી કે આને ૫૦૦ મિત્ર છે. એથી તેમની બે-બે આંખની અપેક્ષાએ આને સહસાક્ષ કહેવામાં આવે છે. આ મઘ-મેઘને સ્વામી છે એથી એને મઘવાન કહેવામાં આવે છે. પાકશાસન–આ ઈન્દ્ર પાક નામક અસુરને શિક્ષા આપી હતી એથી એનું નામ પાકશાસન થઈ ગયું. આ દક્ષિણાર્ધ લેકને અધિપતિ હોય છે. ૩૨ લાખ વિમાને એના અધિકારમાં રહે છે. સુરેન્દ્ર અને એટલા માટે કહેવામાં આવે છે કે આ સુરેનો સ્વામી છે. આ પાંશુ રહિત નિર્મળ વસ્ત્ર પહેરે છે. એથી આને અરઅર વસ્ત્રધર કહેવામાં भाव छ. 'अलिइय मालमउडे' यथा स्थान नी ५२ भागामी भूपाय छे सेवा भटन मा भरत ५२ ५.२ ४री २ छ. 'नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाण રહે એ જે બે કુંડને કાનેમાં પહેરે છે. તે કુંડળે નવીન હેમ સુવર્ણથી નિમિત હોય છે, એથી તે કુંડળ અતીવ સુંદર લાગે છે. તે કુંડળે ચિત્તની જેમ ચંચળ થતા रहेछ. मेथी र सेना भन्न गासात पाथी घसाता २ छे. 'भासुरबोंदी' भन
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अम्बूद्वीपमासिस तथाभूतः पुनः कीदृशः 'भामुरवोदी' भास्वरवोन्दि: भास्वरशरीरः दीप्यमानदेहयुक्तः इत्यर्थः दीप्तिमान् पलंबवणमाले' प्रलम्बवनमालः लंबायमानमालायुक्तः कीदृशः 'महिदीए' महद्धिकः महत्ती ऋद्धिः विमानादि सम्पत यस्य स तथाभूतः तथा 'महज्जुईए' महाधुतिका महती धुतिः आमरणं प्रमा यस्य स तथाभूतः तथा 'महावले' महाबल: अतिशयवलशाली तथा 'महाजसे' महायशाः विशालकीर्तिः तथा 'महाणुभागे' महानुभागः महानुभावः तथा 'महासोक्खे' महासौख्यः 'सोहम्मे काप्पे' सौधर्मे कल्पे 'सोह म्मवडिसए विमाणे' सौधर्मावतंसके विमाने 'सभाए मुहम्माए' सभायां सुधर्मायां 'सकंसिसीहासणंसि' शक्रे सिंहासने वर्तमानः 'से णं तत्थ' स खलु सौधर्माधिपतिः तत्र 'वत्तीसाए विमाणावाससयसाहस्सी गं' द्वात्रिशतः विमानावासशतप्तहस्राणां द्वात्रिंशल्लक्षसंख्यक विमानावासानाम् आधिपत्यादिकं कारयन् पालयन् विहरति इत्यग्रेण संवन्धः पुनः कीदृशः 'चउरासोए सामाणिअ साहस्तीणं' चतुरशीते :सामानिकसहस्राणां चतुरशीतिसहस्रसंख्यक सामानिकानाम्, आधिपत्यादिकम् तथा 'तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं त्रयस्त्रिंशतस्त्रायस्त्रिंशकानाम् देवविशेपाणाम् आधिपत्यादिकम् तथा 'चउण्हं लोगपालाणं' चतुणी लोकपारानाम् 'भासुरघोंदी' इसकाशरीर सदा दीप्तवना हुआ रहता है 'पलंबवणमाले' इसकी वनमाला बड़ी लम्बी रहती है 'महिद्धिए' इसकी विमानादि सम्पतू बहुत बडी चढ़ी होती है 'महज्जुइए महाबले, महाजसे, महाणुभागे, महासोक्खे! इसके आभरणाद्रिकों की धृति बहुत ऊंची होती है यह अतिशय बलशाली होता है प्रभाव भी हलका विशिष्ट होता है विशिष्ट सुखों का यह भोक्ता होता है ऐसे इन विशेषणों वाला वह शफ 'सोहम्मे कप्पे' सौधर्म कल्पमें 'सोहम्मघडिसए. विमाणे' सौधर्मावतंसक विमान में 'सभाए सुहम्माए' सुधर्मानाम की सभामें 'ससि सीहासणंसि' शक नामके सिंहासन पर विराजमान था 'से तत्य, बत्तीसाए विमाणावाससयसाहस्सीणं,चजरासीए सामाणिय साहस्सी गंतायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं अट्टण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं शरीर सहा वीस २ छे. 'पलंबवणमाले गेनी वनमाला म einी २७ छ. 'महिदिए' सनी विमानात सरत् घी धारे हाय छे. 'महन्जुइए महाबले, महाजसे, महाणुभागे, महा सोक्खे सेना भाnिtी धुति म यी डाय छे. मतिशय Real હોય છે. એની કીતિ વિશાળ હોય છે, એને પ્રભાવ વિશિષ્ટ હોય છે. એ વિશિષ્ટ सुमोना तो डाय छे. मेवा में विशेषवाण ते 'सोहम्मे कप्पे सोध ४६५मां 'सोहम्मवडिसए विमाणे' सी धावत'४ विमानमा 'सभाए सुहम्माए' सुधर्मा नाम समामा 'सकसि सीहासणंसि' २४ नाम सिहासन ५२ सभासीन छन! 'से णं, तत्थ वत्तीसाए विमाणावाससयसाहसीणं, चउगसीए सामाणिय साहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगप लाणं अट्टण्हं अगमहिसोणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्डं अणी
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् आधिपत्यादिकम् 'अढण्ई अग्गमहीसीणं सपरिवाराणं' अवानाम् अग्रमहीपीणाम् सपरिवाराणाम् आधिपत्य स्वामित्वादिकम् तथा 'तिण्हं परिसाणं' तिसृणां परिपदाम् आधिपत्मादिकम् तथा 'सत्तण्हं अणिगण' सप्तानामनी कानाम् सैन्यानाम् 'सत्तण्हं अणिमाहिवईणं' सप्तानाम् अनी. काधिपतीनाम् सेनापतीनामित्यर्थः 'चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीण' चतुरश्चतुरशीतेरात्मरक्षकदेवसहस्राणाम् चतुश्चतुरशीतिसहस्रसंख्यकात्मरक्षकदेवानामित्यर्थः, आधिपत्यादिकम् तथा 'अन्नेसिंच बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं' अन्येषां च वहूनां सौधर्मकल्पवासिनाम् 'वेमाणियाणं देवाण य देवीण य' वैमानिकानाम् देवानां देवीनां च 'आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं अणाईसरसेगावच्चं' आधिपत्यं पौरपत्य स्वामित्वं भर्तृत्वं महत्तरकत्वम् आज्ञेश्वरसेनापतित्वं च 'कारेमाणे पालेमाणे कारयन् पालयन् “महयाहयणगीयवाइय तंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडपटहवाइयरवेणं, महताहत नाटययगीतवादिततन्त्रीतलतालतूर्यचनमृदङ्गपटुपटहवादितरवेण, तत्र महता प्रधानेन बृहता वा रवेण इत्यग्रे सम्बन्धः। अहतः अनुबद्धो खस्येतिविशेषणम् नाटयम् नृत्यं तेन युक्तं गीतं तच्च वादितानि च शब्दवन्ति परिसाणं सत्तण्डं अणीयाणं सत्तण्डं अणीयाहिवईणं चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेव साहस्सीणं अण्णेसिंच बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य' वह इन्द्र अपने सौधर्म देवलोक में रहता हुआ.३२ लाख विमानों का ८४ हजार सामानिक देवों का ३३ त्रायस्त्रिंश देवों का सपरिवार आठ अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का सात सैन्यों का सात अनिकाधिपतियों का चार चौरासी हजार अर्थात् ३ लाख ३६०५० हजार आत्मरक्षक देवों का, तथा और भी अनेक सौधर्मकल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का 'आहेवच्चं पोरेवच्चं सामितं भहित्तं महत्तरगत्तं आणाईसर सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे अधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व भर्तृत्व, महत्तरकत्व और आज्ञेश्वर सेनापतित्व करता हुआ पलवाता हुआ (महयाहयणगीयवाइय तंतीतलताल तुडिय घणमु. अंगपडुप्पटहवाइयरवेणं दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरइ) नाटयगीत आदि याणं सत्तण्हं अणीय.हिवईग चउण्डं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहरसीणं अण्णेसिंच बहण सोहम्मकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य' तेन्द्र देताना सौधम समi રહીને ૩૨ લાખ વિમાન, ૮૪ હજાર સામાનિક દે, ૩૩ ત્રાયશ્ચિંશ–દે, ચાર લોક પાલે, સપરિવાર આડ અગ્રમહિષીઓ, ત્રણ પરિષદા, સાત સૈન્ય, સાત અનીકાધિપતિઓ, ચાર ચોર્યાસી હજાર એટલે કે ૩૩૬૦૦૦ આત્મરક્ષક દેવે, તથા અનેક સૌધર્મ ४८५पासी वैमानि । मन हेवी। 'आहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्त, भट्टित्तं, महत्तरगत आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे' ५२ आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, मतव, महत्त२४५ म. माशेश्व२ सेनापतित्य ४२ता, तभन पोताना शासनमा रामतो. 'महया हयणगीय वाइयतंतीतलतालतुडियधणमुअंगपडुप्पडवाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाइं मुंजमाणे
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मन्बूद्वीपप्राप्तिस्त्र कृतानि तन्त्री च वीगातलौ हस्तौ तालाश्च कंशिकाः तूर्याणि च पटहादीनि इति अह. तनाटय गीतवादिततन्त्रोतलतालतूर्याणि तानि च तथा घनो मेघः तदाकारो यो मृदङ्गो मेघवत् ध्वनिमान् ध्वनिगाम्भीर्यसादृश्यात् स चासौ पटुना दक्षेण वादिनश्च यः पटहः सघनमृदङ्ग पटुवादिनपटहः मूले पहः तेषां रवः शब्दः तेन करणभूतेन अत्र मृङ्गाहणं तूर्यादिवाधेषु प्रधानं वोध्यम् 'दियाई भोगभोगाई झुंजमाणे विहरई' दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति तिष्ठति स सौधर्माधिपतिः ।
'तएणं तस्स सकस्स देविंदस्स देवयणगो आसणं चलइ' ततः खलु तदनन्तरं किल तस्य शक्रस्य सौधर्माधिपतेः देवेन्द्रस्य देवराजस्य आसनं सिंहासनं चलति चलायमानं भवति 'तएणं से सक्के जाव आसणं चलियं पासइ, ततः खलु स शक्रो यावत् आसनं चलितं पश्यति' अत्र यावत्पदात् देवेन्द्रो देवराज इति ग्राह्यम् 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'ओहिं पउं नई' अवधि प्रयुक्ते अवधिज्ञानेन पश्यति 'पउंजित्ता' प्रयुज्य 'भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ, स शक्रः भगवन्तं तीर्थकरम् अवधिना अवधिज्ञानेन आभोगयति जानातीन्यर्थः 'आमोइत्ता' आभोग्य ज्ञात्वा 'हट्टतुद्धचित्ते आनंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवरा विसप्पमाणहियए' हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः पोतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद् हृदयः तथा 'धागहय कयंत्रकुसुमचंचुमालइय को में बजाये गये इन तंत्रीतल आदि अनेक बाजों की ध्वनि पूर्वक दिव्य भोग भोगों को भोग रहा था (तएणं तस्ल सकारस देविंदरस देवरपणो आसणं चलइ, तए णं से सक्के जाच आसणं चलिअं पासह, पासित्ता ओहिं पउंजइ) इतने में उस देवेन्द्र देवराज शक का आसन कंपायमान हुआ आसन को कंपायमान देख कर उस शक ने अपने अवधिज्ञान को व्याप्रत किया (पउंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ) अवधिज्ञान को व्यावृत करके उसने तीर्थकर को देखा (आभोहत्ता हहतुट्ठचित्ते आणदिए, पीइमणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्पमाणहियए धाराहयकयंवकुसुम चंचुइय उसवियरोमकूवे वियसिय વિદ નાટ્યગીત વગેરેમાં વગાડવામાં આવેલાં તંત્રીતાલ વગેરે અનેક વાદ્યોના मधुर स्वश२ सiend ६०य सांगाना Gyan ४२ रडतो तो. 'तरणं तस्स सक्कस्त देविंदस्स देवरण्णो आसणं चलइ, तरणं से सक्के जाव आसणं चलिअं पासइ पासित्ता ओहिं पउंजई' मादाम त हेवेन्द्र रानु' मासन पायभान थयु. पोताना - मासनन पायमान थ न त श पाताना अवधिज्ञान व्यावृत यु. 'पउंजित्ता भगवं तित्थयर ओहिणा आभोएई' मवधिज्ञानन व्याकृत ४ीन ते ती ४२२ नया.. 'आभोइत्ता हट्ट तुट्ठ चित्ते आणदिए, पीइमणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्पमाणहियए धाराहयकयंवकुसुम चंचुइय उसविय रोमकूवे वियसिय वरकमलनयणवयणे' मानते (१) यथा स्थान इन वादित्रों की व्याख्या पहिले की जा चुकी है। ૧ યથાસ્થાન એ વાત્રોની વ્યાખ્યા કરવામાં આવી છે.
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्र कृत्यावसरनिरूपणम्
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उस वियरोमकूवे' धाराइतकदम्बकुमुमरोमाञ्चिचोच्छ्रितरोमकूपः तत्र धाराऽऽहतं जलधारयाऽभिघातितं यत् कदम्बकुसुमं कदम्बनामक पुष्पविशेषः तद्वत् रोमाञ्चितः रोमाञ्चः संजातो यस्य स तथा भूतः, यथा धारापाते कदम्बमतिशयेन विकाशितं भवति, तद्वत् अयमपि रोमाञ्चन युक्तः अतएव उच्छ्रितः ऊर्ध्वोत्थितः रोमकूपो यस्य स तथा भूनः यथा अविकसितं कदम्बकुसुम जलधाराभिगहतं सत् उध्र्वोत्थितं सर्वथा विकसितं भत्रति तथैव हर्पजन्य रोमाश्वेन ऊर्ध्वोत्थितरोमकूपवान् इत्यर्थः, तथा 'विअसियवरकमन्त्रनयणवयणे' विकसितवर कमल. नयनवदनः विकासिते प्रफुल्लिते वरकमलनयने श्रेष्ठकमलनेत्रे वदनं च यस्य स तथाभूतः, तथा 'पचलियवरत्र डगतुडिय केउरमउढे' प्रचलित दरक्टकत्रुटिन केयूरमुकुटः तत्र प्रचलिते तीर्थंकर जन्मजनितहर्षातिशयात् कम्पिते वरकटके प्रधानवलो त्रुटिके वाहुरक्षकौ केयूरे वाहवो. रेवभूपण विशेषौ मुकुटं कुण्डलं च यस्य स तथा भूनः तथा 'कुंडलहारविरायंतर इयवच्छे' कुण्डलहारविराजमा नरतिदवक्षस्कः तत्र हारेण उक्तहर्षातिशयात् प्रचलितमुक्ताहारेण विराजमानम् अतएव रतिदं च प्रमोदजनकं वक्षः वक्षस्थलं यस्य स तथाभूतः तथा 'पालं चपलं माणघोलंतभूसणघरे' प्रालम्बप्रलम्बमानघोलद्- भूषणधरः तत्र प्रलम्बमानः अतिदीर्घः प्रालम्बो वरकमलनयणवघणे) देखकरके वह हृष्ट तुष्ट और चित्त में आनन्द युक्त हुआ प्रीति युक्त मनवाला हुआ परम सौमनस्थित हुआ हर्ष के वश से जिसका हृदय उछलने लगा ऐसा हुआ मेघ धारा से आहत कदंब पुष्प की तरह रोम कूप उसके उर्ध्वमुख होकर विकसित हो गये नेत्र और मुख उसके विकसितकमल के तुल्य बन गये (पचलियवरकडगतुडियकेयूरमउडे) उसके श्रेष्ठ कटक त्रुटित केयूर और मुकुट चञ्चल हो गये क्यों कि हर्ष के मारे उसका सारा शरीर फडक ने लग गया था (कुंडलहार विराजियवच्छे) कानों के कुण्डलों से और कंटगत हार से उसका वक्षः स्थल शोभित होने लगा ( पालंब पलंवमाणघोलंत भूसण धरे) इसके कानों के झूमके लम्बे थे इसलिये इसने जो कंठ में भूषण धारणकर रखेथे वे उनसे रगडने लग गये तात्पर्य यही है कि हर्षातिरेक से इसका शरीर
હૃષ્ટ–તુષ્ટ અને ચિત્તમાં આનંદ યુક્ત થયા, તે પ્રીતિયુક્ત મનવાળા થયા. તે પરમ સૌમનસ્થિત થયા, હર્ષાવેશથી જેનું હૃદય ઉછળવા લાગ્યુ' છે, એવા તે થયા, મેઘધારાથી આહત કબ પુષ્પની જેમ તેના રેશમા ઊમુખ થઈને વિકસિત થઈ ગયા. નેત્ર અને भुख तेना विकसित उभजवत् थ जयां. 'पचलियवरकडग तुडिय केयूर मउडे' तेना श्रेष्ठ કટક, ત્રુટિત, કેયૂર અને મુકુટ ચંચળ થઈ ગયાં કેમકે હર્ષાવેશમાં તેનું આખુ' શરીર ईर४त्रा सायु ं `तुं. ‘कुंडल हार वरा जयवच्छे' अनोना मुंडणोथी तेभन उगत हारथी तेनु वक्षस्थण शोलित थवा साभ्यु 'पालंच पलंबमाणघोलंत भूसणघरे' तेना अनाना ઝૂમખાએ લાંબા હતા, એથી તેણે કંઠમાં જે ભૂષણેા ધારણ કરી રાખ્યાં હતાં તેમનાથી તે ઘષિત થવા લાગ્યા. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે હર્ષાતિરેકથી તેનુ શરીર ચંચળ થઈ
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जम्बूद्वीपप्रजाति झुंबनकं यस्य स तथाभूतः तथा उक्तहर्षातिशयादेव घोलद् दोलायमानं भूपणं धरति यः स तथाभूतः ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः मूछे प्रलम्बमानपदस्य पूर्व प्रयोक्तव्ये परप्रयोगः आपत्वात् 'ससंभमं तुरिअं चवलं सुरिंदे सीहासणओ अभुटेई तत्र ससंभ्रमं सादरम् त्वरित मानसौत्सुक्यं यथास्यात् तथा चपलं कार्यो-सुक्यं यथास्यात् तथा सुरेन्द्रः सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठति 'अन्भुढेत्ता' अभ्युत्थाय 'पायपीढाओ पच्चोरुहइ' पादपीठात् पदासनात् प्रत्यवरोहति अवतरति, 'पच्चोरुहिता' प्रत्यवरुहय अवतीर्य 'वेउव्वियवरिटरिट अंजणनिउ. णोविअमिसिमिसितमणिरयणमंडियाओ पाउआओ ओमु भई वैयं वरिष्टरिष्टाञ्जननिपुणोचित. मिसमिसिन्तमणिरत्नमण्डिते पादुके अवसुश्चति तत्र वैडूर्यवरिष्टरिष्टाञ्जननिपुणोचिते निपुणैः शिल्पिभिः वैडूर्यानि तत्तन्नामकरत्नविशेषेभ्यो निर्मिने तथा मिसिमिसित देदीप्यमानमणिचञ्चल हो उठा इसलिये कानों के झुम्बनकों में और कंठ के आभूपणों में संघटन होने लगा अथवा झुम्बनक नाम चोगे का भी है नथा च-इसने लंबा चोगा पहिन रक्खा था सो जिनेन्द्र का जन्म हुआ है ऐसा जब इसने जाना तव हर्षातिरेक के कारण शरीर में कंपन हुआ सो उसकी वजह से इसके भूषण चश्चल हो उठे वे पहिरे हुए चोगे से भी नहीं दबे यहां आर्ष होने से प्रलम्बमान जो कि प्रालम्ब का विशेषण है उसका पर प्रयोग हुआ है ऐसा वह 'सुरिंदे' शक्र (ससंभमं तुरियं चवलं सीहासणाओ अभुटेइ) बडे आदर के साथ उत्कंठित चनकर अपने सिंहासन से उठा (अब्भुटेत्ता पायपीढाओ पच्चोरहइ) और उठ कर पादपीठ से होकर नीचे उतरा (पच्चोसहित्ता वेरुलिअवरिट रिह अंजण निउणोविअमिसिमिसिंतमणिरयणमंडियाओ पाउयाओ ओमुअइ) नीचे उतर कर निपुणशिल्पियों द्वारा वैडूर्य वरिष्ठ रिष्ट, तथा अंजन नामक रत्न विशेषों की बनाई हुई एवं देदीप्यमान मणिरत्नों से मण्डित हुई ऐसी दोनों ગયું, એથી કાનના ઝુમખાઓમાં અને કંઠના આભૂષણેમાં સંઘટ્ટ થવા માંડ્યું અથવા ચેગાનું નામ પણ ઝુમ્મન છે. તે તેણે લાગે ચેપગે પહેરી રાખ્યું હતું. જ્યારે તેણે જિનેન્દ્રને જન્મ થયે છે એવું જાણ્યું ત્યારે હર્ષાતિરેકને લીધે તેના શરીરમાં કંપન થયું. તેનાથી એના આ ભૂષણે ચચળ થયાં. તે આ ભૂષણે પહેરેલા ચેગાથી પણ દબાયા નહિ. અહીં આઈ હેવાથી પ્રલંબમાન કે જે પ્રાલંબનું વિશેષણ છે, તેને मडी ५२५ थयो छ. मे ते 'सुरिंदे श 'ससंभमं तुरियं चवलं सीहासणाओ अन्भुढेई' ५२४ मा६२ सा2 686त ने पोताना सि डासन ५२थी वो थयो. 'अद्वेत्ता पायपीठाओ पच्चोरुहइ' भR GIRI धन पाई पी8 6५२ २२ नीय तयाँ. 'पच्चोरहित्ता वेलिअ परिदरिट्र अंजणनिउणोविअमिसिमिसितमणिरयणमडियाओ पाउया શો ગોમ નીચે ઉતરીને નિપુણ શિલ્પિ વડે વૈર્ય વરિષ્ઠ શિષ્ય તથા અંજન નામક રન વિશેથી નિર્મિત અને દેદીપ્યમાન મણિરત્નાથી મંડિત થયેલી એવી બને
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् रत्नैश्च माण्ड ते शोभिते एवंभूते पादुके पादत्राणे अवमुञ्चति त्यजनि भक्तयतिशयात् पादुके निःसारयतीतिभावः 'ओमुइत्ता' आमुच्य परित्यज्य 'एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ' एकशाटिकम् उत्तरासङ्गं करोति मुखे बनातीत्यर्थः 'करित्ता" कृत्वा 'अंजलिमुउलियग्गहत्थे' अञ्जलिमुकुलिआग्रहस्तः अञ्जलिना मुकुलितौ कुड्मलाकारीकृतौ संकोचितौ अग्रहस्तौ हस्ताग्रभागौ येन स तथाभूतः 'तित्थयराभिमुहे' तिर्थकराभिमुखः 'सत्तट्टपयाई अणुगच्छइ' सप्ता ष्टपदानि सप्त वा अष्टौ वा पदानि अनुगच्छति, यत्र तीर्थकरस्तस्यादिशि यातीत्यर्थः 'अणुगच्छित्ता' अनुगत्य 'वामं जाणुं अंचेई' वामं जाम् आकुंचयति' ऊर्ध्व करोति स शक: 'अंचेत्ता' आकुच्य ऊर्ध्व कृत्वा 'दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिहटूटु' दक्षिणं जानुं धारणितले निहत्य निवेश्य 'तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ' त्रिकृत्वः त्रि. वारं मूर्धानं धरणितले निवेशयति स्थापयति 'निवेसित्ता' निवेश्य स्थापयित्वा 'ईसि पच्चुप्रणमई' ईषत् प्रत्युम्नमति 'ईसिं पच्चुण्णमित्ता' ईपत् प्रत्युग्नमय्य 'कडगतुडियथंभियभुआओ खडाऊं को उसने पैरों में से उतारदिया (ओसुइत्ता एगलाडिअं उत्तरासंगं करेइ) उन्हे उतार कर फिर उसने अस्यूत शाटक को दुपट्टे का उत्तरासंग कियाअर्थात् दुपट्टे को अपने मुख पर बांधा (करित्ता अंजलिमलियग्गहस्थे तिस्थ यराभिमुहे सत्तहपयाई अणुगच्छद) बांधकर फिर उसने अपने दोनों हाथों को जोडकर-अर्थात् हथेलियों को जोडकर उनकी अंजुलि बनाई और वह जिस दिशा में तीर्थंकर प्रसु थे उनकी ओर सात आठ डग आगे गया (अणुगच्छित्ता वासं जाणुं अंचेइ, अंचेता दाहिणं जाणुं धरणीतलंसि लिहट्टु तिक्खुत्तो मुद्धाण धरणियलंलि निवेखेइ) आगे जाकर उसने वायें घुटने को ऊपर उठाया और उठाकर दाहिने घुटने को जमीन पर जमाया जमा कर फिर उसने तीन बार अपने मस्तक को जमीन पर झुकाया (णिवेसित्ता ईसिंपच्चुण्णमइ) और स्वयं भी थोडा सा नीचे झुका (इंसिं पच्चुण्णमित्ता कडगतुडिय थभियाओ भुयाओ पावडामान तो पताना पगाभाथी तारी नामी. (ओमुइत्ता एगसाडिअं उतरा संगं करेइ' पावडीयान तारी पछी तेथे मस्यूत नहुपट्टाना उत्तरास या स -दुपट्टान पाताना भुम 6५२ मध्या 'करित्ता अंजलिमउलियग्गहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तटुपयाई अणुगच्छई' मांधी२ पछी तेथे पोताना भन्ने थाने सन मेट કે બને હાથની હથેલીઓને જોડીને તેમની અંજલિ બનાવી. પછી તે જે દિશામાં तीय ४२ प्रभु ता, ते २६ सात-मा8 41 माग गया. 'अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचेत्ता दाहिणं जाणु धरणीतलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेई' આગળ જઈને તેણે પિતાના વામ ઘૂંટણને ઉપર ઉઠાવે અને ઉઠાવીને જમણા ઘૂંટણને ભૂમિ ઉપર જમાવ્યું. જમાવીને પછી તેણે ત્રણ વાર પિતાના મસ્તને જમીન તરફ नभित यु. “णिदेसित्ता ईसि पन्चुण्णमई' मने पाते ५५ 2.318 निमित थयो. 'इंसी
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ફર
जम्मूपति
साइरह' कटकटिकस्तम्भिते भुजे संहरति तत्र कटके प्रधानवलये त्रुटिकेच बाहरतकभूषणविशेषौ तैः स्तम्भिने भुजे बाहू संहरति 'साहरिता' संहृत्य 'करयपरिग्गहियं दसण सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं व्यासी' करतलपरिगृहीतं दशनखं गिरसावतं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान् स शक्रः किमवादीत् इत्याह- 'णमो थुणं' इत्यादि 'नमोत्थुणं अरहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थयराणं सयं संबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चक्खुयाणं मग्गदद्याणं सरणदयार्ण जीवदया वोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मणायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचकवट्टीण दीवोताणं सरणं गई पईट्टा अप्पडिटयवरणादंसणधराणं चिअछरमाणं जिणाणं साहरइ, साहरित्ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्यए अंजलि कट्टु एवं वयासी) नीचे थोडा सा झुककर उसने कटकों को प्रधानवलयों को एवं बाहुके आभूषणों को संभालते हुए दोनों हाथों को जोडा जोडकर और उन्हें अंजुलि के रूप में बनाकर एवं मस्तक के उपर से उसे घुमाते हुए फिर उसने इस प्रकार से कहा- (त्थूणं अरहंताणं भगवंताणं, आइगराणं तित्थयराणं सयं संबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधस्थी, लोगुत्तमाणं लोगणाहाणं लोगहियाणं लोग ईवाणं लोगपज्जो अगर (ण) मैं ऐसे अर्हतभगवन्तों को नमस्कारकरता हूं जो अपने शासन के अपेक्षा धर्म के आदिकर हैं तीर्थंकर हैं स्वयं संबुद्ध हैं, पुरुषोत्तम हैं, पुरुषसिंह हैं, पुरुषवर पुंडरीक हैं, पुरुषवर गंधहस्ती हैं, लोकोत्तम हैं, लोकनाथ हैं, लोकहित हैं लोकप्रदीप हैं, लोकप्रद्योतकर हैं 'अभयदयाणं चक्खुदमाणं, मग्गदयाणं, सरणदपच्चुण्णमित्ता कडगतु डियर्थभियाओ भुयाओ साहरई साहरिता करयला रिंगहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी' नीचे थोडो नमित थान तेथे उटीने प्रधान વલચાને—અને ખાડુંઓના આભૂષાને સંભાળતાં ખન્ને હાથેી જોડૂયા. હાથ જેડીને અને હાથાને અંજલિના રૂપમાં બનાવીને તેને મસ્તક ઉપર ફેરવતાં તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું 'णमोत्थूणं अरहंताणं भगवंताणं, आइगराणं, तित्थचराणं, सयं संबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुंडरीयाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोगणाहाणं लोग' हियाणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोअगराणं' हु' मेवा महुत लगवन्तने नमस्४२ ४३ ४ કે જેએ પેાતાના શાસનની અપેક્ષાએ ધર્મના આદિર છે, તીર્થકર છે, સ્વયં સમુદ્ધ छे, पुरुषोत्तम छे, पुरुष सिड छे, पुरुषवर पुंडरी छे, पुरुषवर गंध हस्ती छे, बीत्तभ छे, सोनाथ छे, सोउडित छे, सो ग्रहीय छे, बो४ प्रद्योत ४२ छे, 'अभयदयाणं, चक्खुयाणं, मग्गदयाणं, सरणदयाणं जीवदयाणं, बोहिदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचा उरं तचक्कवट्टीणं मलडाय छे, यक्षुदाय छे, भार्ग हाय! छे,
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प्रकाशिका टीका-पश्चमयक्षस्कांरः सु. ४ इन्द्रकृत्यावसर निरूपणम्
जावयाणं तिष्णाणं तारयाणं बुद्धाणं वोहयाणं सुत्ताणं मोअगाणं सन्वन्नूणं सव्वदरिसीणं सियमयल मरुयमर्णतमक्खयमव्यावाहमपुणरावित्तिसिद्धिगणामधेयं ठाणं संपत्ताणं णमो जिणाणं जियभयाणं' एपामर्थ आवश्यक सूत्रादौ द्रष्टव्यः । ' पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं' पश्यत तत्रगतो भगवान् इहगतम् साम् शक्रम् 'विकट्टु' इति कृत्वा इत्युक्त्वा एतस्यार्थ आव
सूत्रादौ द्रष्टव्यः 'वंदइ नमसइ वंदित्ता नमसित्ता सीहासनवरंसि पुरत्थाभिमुद्दे सणसणे' स शक्रो वन्दते नमस्यति वन्दिला नमस्थित्वा सिंहासनारे श्रेष्ठ सिंहासने पौरत्याभिमुखः सनिषण्ण उपविष्टवान् 'तए णं तस्स सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो अयमेयारूवे याणं, जीवदयाणं घोहिदयाणं, धम्मदयाण, धम्मदेलघाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मचरचाउरंतचक्रवहीणं' अभयदायक हैं चक्षुर्दायिक हैं, मार्गदायक हैं - शरणदायक हैं जीवदायक संयमरूपजीवित को देनेवाले हैं वोधदायक है, धर्मदायक हैं धर्मदेशक हैं, धर्मनायक हैं धर्मसारथि हैं, धर्मवर चातुरन्त चक्रवर्ती हैं इत्यादि पदों से लेकर 'णसोत्थूणं भगवओ तित्थगरस्स आइगरस्स जाव संपाविकास) यहां तकके पदों की व्याख्या आवश्यक सूत्र आदि में की जा चुकी है अतः वहीं से यह देखलेनी चाहिये 'वंदामिणं भगवन्तं तत्थगयं इहगए' यहां रहा हुआ मैं वहां पर विराजमान भगवान् को बन्दना एवं नमस्कार करता हूं 'पास मे भगवं तत्थगए इह गयेति' वहां पर विराजमान वे भगवान यहां पर रहे हुए मुझे देखें ऐसा कहकर 'वंदइ गर्मस' उसने वन्दनाकी और नमः स्कार किया 'वंदिता णमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे सणसणे' वन्दना नमस्कार करके फिर वह आकर अपने सिंहासन पर पूर्वदिशा की और मुंह करके बैठ गया ।
तणं तस्स सक्क्स्स देविंदस्त देवरण्णो अयमेयाख्वे जाव' संकप्पे समुशरणुहाय छे, वहाय है, संयम ३थी भवनले आपनारा छे, मोघ हाय छे, धर्महाय छे, धर्म देश छे, धर्मनाथ थे, धर्म सारथि छे, धर्भवर यातुरन्त यवर्ती छे. वगेरे यहोथी भांडीने 'णमात्थूर्ण भगवओ तित्थगरस्स थाइगरस्स जाव संपाविउकामस्स' અહી સુધીના પદોની વ્યાખ્યા આવશ્યક સૂત્ર વગેરેમાં કરવામાં આવી છે. એથી તે त्यांची लेह सेवी ले थे. 'वंदामिणं भगवन्तं तत्थगयं इहगए' सही रहेतेा हु त्यां विराटभान लगवान्ने बन्ना ने नमस्कार ४ छु ' पास उमे भगवं ! तत्थगए इह गयंति' त्यां विरानभान भाप लगवान् महीं रहेला भने लुओ भाभीने 'वंदइ णमंसई' तेथे वन्हना पुरी भने नभस्टार र्या. 'वंदित्ता णमंसिता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुद्दे सण સળે' વન્દના અને નમસ્કાર કરીને પછી આવીને તે પોતાના સિંહાસન ઉપર પૂર્વ દિશા
(१) यहां संकल्प के जो 'अज्झत्थिए चिंतिए, कप्पिए आदि विशेषण है वे गृहीत हुए हैं इनकी व्याख्या यथा स्थान कह जगह की जा चुकी है।
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जम्बूद्वीपमधिसून जाव संकप्पे समुपज्जित्था' ततः सिंहासनोपवेशनानन्तरं खलु तस्य शक्रस्य सौधर्माधिपते: देवेन्द्रस्य देवराजस्य अयमेतावद्रूपो गवसंकल्पः ससुदपयत समुत्पन्नः अत्र यावत्पदाद अझथिए १, चितिए २, कपिए २, पत्थिर ४, मणोगए ५, इति ग्राह्यम् तत्र अयमेता वनृपः तीर्थकरजन्ममहोत्सवं कत्तु तद्वनगमनविषयक विचार: 'अज्झन्थिए' आध्यात्मिक अध्यात्मविषयक: आत्मगतः अङ्करइव १ तदद्ध 'चितिए' चिन्ततः पुनः पुनः तत्र गमनविपयक स्मरणरूपो विचारः द्विपत्रिवइव २ । तदनु 'कप्पिए' कलित: स एव व्यवस्थायुक्ता, इत्थं रूपेण तत्र तीर्थकर गन्ममहोत्सवं करिष्यामीति कार्याकारेण परिणलो बिचारः पल्लवितइव ३। तदनु 'पत्थिर' प्रार्थितः स एव विचार: इटरूपेण स्वीकृतः पुष्पिताइव ४ । 'मणोगए संकप्पे' मनोगत: संकल्पः मनसि दृढरूपेण निश्चयः, इत्थरोब मया कर्तव्यमिति विचर: फलित इव ५ । समुत्पन्न इत्यर्थः कोऽसी इत्याद-'उच्ण्ण खलु इत्यादि 'उप्पण्णे खलु भो ! जंबुढीवे दीवे भगवं तित्ययरे तं जीययेयं तीय पच्चुप्पण्णमणागाणं सक्काण देविदाणं देवराईणं तित्थयराणं जम्मणमहिम करित्तए' उत्पन्नः खलु भोः जम्बूद्वीपे द्वीपे मध्यजम्बूद्वीपक्षेत्रे भगवांस्तीर्थकर तस्माज्जीतमेतत् भाचार एपः, अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां भूतवर्तमानभविष्यत्कालिकानां शक्राणां देवेन्द्राणां देवरानानां जन्नमटिमानं तीर्थकरजन्ममहो त्सवं कर्तुम् 'तं गच्छामि णं अहंपि भगवमो तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करेमिति कट्टु एवं संपेहेई तत् गच्छामि खलु अहमपि शको भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं जन्ममहात्सव करोमीति कृत्वा मनसि विचार्य एवम् हेतुभूतभाविवक्ष्यमाणं संप्रेक्षते निश्चयं करोति 'संपे प्पज्जित्था' इसके बाद उस देवेन्द्र देवराजशक को यह इस प्रकार का यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ-'उपपणे वलु भो जंबु हीवे-द्दीवे भगवं तित्ययरे जंजीय. मेयं तीय पच्चुप्पणमणागयाणं सरकाणं देविदाणं देवराईणं तित्यराणं जम्मणमहिमं करेत्तए' जम्बूदीप नाल के द्वीप में भगवान् तीर्थकर का जन्म हो चुका है प्रत्युत्पन्न अतीत एवं अनागत देवेन्द्र देवराज शकों का परम्परा से चला आया हुआ यह आचार है कि वे तिर्थंकरों का जन्मोत्सव मनायें अतः 'गच्छामिणं अहंपि भगवओ तित्थगरस्त जम्मणमहिम' करेमित्ति कटु एवं संपेहेई' त२६ भुमीन मेसी गयो (१) तएणं तस्स सक्करम देवि दस्स देवरण्णो अयमेयारूवे जाव संकण्ये समुप्पज्जित्या त्यार माह ते ३-४१२२२८ शने माता यात ६५ मध्ये. 'उप्पण्णे खलु भो जंबुढीवे दीवे भगवं तित्ययरे जं जीयमेयं तीयपच्चुप्पणमणागयाणं सरकाणं देविदाणं देवराईणं तित्ययराणं जम्मणमहिमं करेत्ता ए' वरीय नाम दीपमा ભગવાન તીર્થકરને જન્મ થઈ ચુક્યો છે. પ્રત્યુત્પન્ન, અતીત તેમજ અનાગત દેવેન્દ્ર, દેવરાજ શક્રોનો પરંપરાગત આ આચાર છે કે તેઓ તીર્થકરોને જજોત્સવ ઉજવે. मेथी 'गच्छामि णं अहं पि भगवओ तित्थगरस्स जम्मण महिमं करेमि त्तिक? एवं संपहेई'
(१) सही सपना २ 'अज्झथिए चिंतिए, कप्पिए' को विशेष छ, त Pold થયા છે. એ બધાં વિશેષણ પદેની વ્યાખ્યા યથાસ્થાન ઘણા સ્થાન પર કરવામાં આવી છે.
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् हिता' संप्रेक्ष्य निश्चित्य 'हरिणेगमेखि पायताणीयाहिवइं देवं सदावेइ' हरिणिगमेषिणम् हरेः इन्द्रस्य निगमम् इच्छतीति हरिनिगमेवी तस् अथवा हरिणैगमेषिणम् हरेः इन्द्रस्य निगमै पीनामा देवस्तस् पदात्यनीकाधिति देवं शब्दयति 'सदायित्ता' शब्दइत्ना आहूय ‘एवं पयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत उक्तवान् किमवादिदित्याह-'खिप्पामेव' इत्यादि 'खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया' क्षिप्रमेव अतिशीघ्रमेव भो देवानुप्रिय ! 'सभाए मुहम्माए' सभायां सुधर्मायां 'मेघोघरसियगंभीरमहुरयरसई' मेघौधरसित गम्भीरमधुरतरशब्दाम् मेघानामोघः संघातो मेघौषः तस्य रसितं गर्जितं तद्वत् गम्भीरो गाम्भीर्ययुक्तो मधुरतारश्च शब्दो यस्याः सा तथा भूतास् ताम् । पुनः कीदृशाम् 'जोयणपरिमंडलं' योजनपरिमण्डलाम् योजनप्रमाणं परिमण्डलम् वृत्तन्वं यस्याः सा तथाभूता ताम् । पुनः कीदृशाम् 'सुशेसं सुसरं घंट' सुघोषां नाम सुस्तरां घण्टाए 'दिक्खुत्तो उल्लालेमाणे उल्लालेमाणे' निः कृत्वः श्रीन पारान उल्लालयन् उल्लालयन्ताडयन ताडयन् 'महया महया सदेणं उग्घोसेमाणे उग्बोसेमाणे एवं क्याहिए महता महता वृाता वृत्ता शब्देन उद्योपयन् उदपोपयन् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वद-वहि 'आणवेइ गंभो ! सबके देवि देवराया' आज्ञापयति, आदिशति खलु भो देवाः शक्रो. जाऊं और मैं भी भगवान् तीर्थकर के जन्म की महिलाकरू । ऐसा विचार करके उसने 'हरिगेगमेसि पायतानीचाहियाई देवं सदावेइ' हरिनगमेषी-नामके देव को जो कि पदात्यनीक का अधिपति होता है बुलाया 'सदावित्ता एवं क्यासी'
और बुलाकर उलले ऐसा कहा--'खिप्पानेव भो देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए मेघोघरलिअ गंभीरशास्वरसई जोयण परिगडलं सुघोस सस तिकखुत्तो उल्लालेमाणे २ सहया महया सद्देणं उग्घोलेमाणे उग्योसेमाणे एवं वयाहि हे देवानुप्रिय ! तुन शीव ही उवा सभामें मेघ के सह की जैसी आवाज करनेवाली, गंभीर मथुरतर शब्द वाली एवं अच्छे स्वरवाली ऐसी सुघोषा घंटाको कि जिसकी गोलाई एक योजन की है तीन वार वजा बजा कर ऐसी वार बार जोर जोर से घोषणा करते हुए कहो-'आणवेणं भो सक्के હું ત્યાં જાઉં અને ભગવાન તીર્થકરના જન્મને મહિમા કરું. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને तेर 'हरिणेगमेसि पायताणीयाहिवई देवं सदावेई' निगमेषी-नाम हवने १२ पहात्यनी४२२ मधिपति डाय छे. मासाव्या. 'सदायित्ता एवं बयासी' मन मसाला तर मा प्रमाणे धु-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया | समाए सुहरमाए मेघोघरसिअगंभीरमहुरयरसदं जोयणपरिमंडलं सुघोसं सुसरं घंटं तिक्खुत्तो उल्लालेमाणे २ महया २ सदेणं उग्योसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं वयाहि' 3 वानुप्रिय ! तमेशा सुधर्मा समामा मेध-सभूलनावी હવન કરનારી, ગંભીર મધુરતર શખવાળી તેમજ સારા સ્વરવાળી એવી સુષા ઘંટાને કે જેની ગેળાઈ એક જન જેટલી છે, ત્રણ વાર વગાડી વગાડીને એવી વારંવાર જોર नयी घोषणा ४२त 'आणवेइणं भो सक्के देवि दे देवराया गच्छइ ण भो सबके
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्र देवेन्द्रो देवराजः किमित्याह-'गच्छइ णं' इत्यादि 'गच्छइ णं भो ! सके देविंदे देवराया जंबुद्दीवे दीवे भगवओ विस्थयरस्स जम्मणमहिमं करित्तए' गच्छति खलु भो देवाः शक्रो देवेन्द्रो देवराजः जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं जन्ममहोत्सवं कर्तुम् 'तं तुम्भे वि णं देवाणुप्पिया' तद् यूयमपि देवानुप्रियाः ! भवन्तो देवा ! 'सन्निद्धीए सन्यजुइए' सर्वद्ध- सर्वसंपदा सर्वद्युत्या सर्वकान्त्या 'सचवलेणं सव्वसमुदएणं' सर्ववलेन सर्वसमुदयेन 'सब्बायरेणं सम्वविभूईए' सादरेण सर्वविभृत्या 'सव्वविभूसाए' सर्वविभूपया 'सव्वसंभमेणं सव्वणाडएहिं सर्वसंभ्रमेण सर्वनाटकैः सव्योवरोहेहि' सर्वोपरोधैः उपरोधः वाधा सर्ववाधायुक्तैरपीत्यर्थः 'सवपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए' सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूपया 'सव्वदिव्यतुडियसहसणिणाएणं' सर्वदिव्यत्रुटितशब्दसन्निनादेन 'महया इद्धीए देविदे देवराया, गच्छइणं भो सक्के देविदे देवराया जंधुद्दीवे दीवे भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करेत्तए' हे देवो! देवन्द्र देवराज शक्र आप लोगों को
आज्ञा देता है कि मैं देवेन्द्र देवराज शक जम्बूद्वीप नामके द्वीप में भगवान तीर्थकर के जन्म की महिमा करने के लिये जारहा हूं 'तं तुम्भे विणं देवाणुप्पिया! सच्चिद्वीए सव्वज्जुईए सव्ववलेणं सव्वसमुदएणं सव्वायरेणं सवविभूईए सव्वसंभमेण सव्वणाडएहिं सबोवरोहिं' तो इसलिये हे देवानुप्रियो ! आप अपनी समस्त गुति से अपनी अपनी समस्त सेना से अपने समस्त समुदय से, समस्त प्रकार के आदर भाव से समस्त प्रकार की विभूति से समस्त प्रकार के विभूषा से एवं समस्त प्रकार के नाटकों से युक्त होकर इन्द्र के पास आ जावे चाहे किसी भी प्रकार की आपलोगों को पाधा भी हो तो भी उसका ध्यान न करें और शीघ्र आवें 'सन्त्रपुप्फ गंध मल्लालंकार विभूसाए सवदिव्चतुडियसहसणिणाएणं महया इद्धीए जाव रवेणं' साथ में जो देव जिस प्रकार सुगंदेविदे देवराया जंबुद्दीवे दीवे भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करेत्तए' ।। हेवेन्द्र દેવરાજ શક તમને આજ્ઞા કરે છે કે હું દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક જમ્બુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં लगवान तीथ ४२ना भने महिमा ४२१। भाटे ४४ रह्यो छु. ‘त तुम वि णं देवा. णुप्पिया ! सम्बिद्धीए सव्वज्जुईए, सव्वबलेग, सवायरेणं, सव्यविमूहए, सबविभूसाए, सव्व संभमेण, सव्वणाडएहिं सनोवरोहे हिं' तो मेटला भाटे कानुप्रियो तभे. मां पात પિતાની સમસ્ત કાદ્ધિથી, પિતાપિતાની સમસ્ત ઘતિથી, પિતપિતાની સમસ્ત સેનાથી, પત–પિતાના સમસ્ત સમુદાયથી, સમસ્ત પ્રકારના આદર ભાવથી, સમસ્ત પ્રકારની વિભૂતિઓથી, સમસ્ત પ્રકારની વિભૂવાથી તેમજ સમસ્ત પ્રકારના નાટથી યુક્ત થઈને ઈન્દ્રની પાસે આવી પહોંચે કોઈ પણ જાતની બાધા પણ હોય છે તે તરફ લક્ષ્ય રાખવું नहिं मने तुरंत छन्द्र पास पांथी . 'सच पुष्कगंधमल्लालंकारविभूसाए सबदिव्य तुडिय सहसण्णिणाएणं महया इद्धीए जाव रवेणं' मन, २ ३ ४२न सुचित १०५.ना
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम्
६ भाव रवेणं' महत्या ऋद्धया यावत् रवेण अत्र यावत् पदेन 'महया हयणट्टगीयवाइय तंतीतलतालडिअघणमुइंगपडपडहवाइय' इत्येषां पदानां ग्रहणं भवति व्याख्यानं तु अस्मिन्नेव सूत्रे पूर्व द्रष्टव्यम् 'णिअय परिआलसंपरिवुडा' निजकपरिवारसम्परिवृताः 'सयाई जाणविमाणबाहणाई दुरूढा समाणा' स्वकानि स्वानि वाहनानि य शिविकादीनि आरूढाः सन्तः 'अकालपरिहीणं चेव' अकालपरिहीणम्-निर्विलम्बं यथास्यात्तथा चैव 'सकस्स जाव अंतिय पाउन्भवह' शक्रस्य यावदन्तिक समीपं प्रादुर्भवत । अत्र यावत्पदात् देवेन्द्रस्य देवराजस्य इति ग्राह्यम्
'तए णं से हरिणेगमेसी देवे पायताणीयाहिबई सक्केणं ३ जाव एवं वुत्ते समाणे हट्ट तुह जाव एवं देवोत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २' ततः शनादेशानन्तरं खलु स हरि. धित पुष्पों की माला पहिनता हो, जो जिस प्रकार के अलंकार पहिनता हो वह उस प्रकार की माला से एवं अलंकार से सजधज कर आवें हाथों में कडे भुजाओं में त्रुटित-भुजबंध आदिकों से रहित न आवे आते समय वह दिव्य बाजों की तुमुल ध्वनि के साथ आवे यहां यावत् शब्द से 'महयाहयणगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडपडह वाइअ' इस पाठका संग्रह हुआ है इन पदों की पहिले कई बार व्याख्या की जा चुकी है सो वहीं से इसे देखलेना चाहिये 'णिययपरियाल संपरिवुडा सयाई २ जाणविमाणवाहणाई दुरुढा स. माणा अकालपरिहीणं चेव सक्कस्स जाव अंतियं पाउन्भवह' आते समय में अपनी अपनी इष्ट मंडली सहित एवं परिवार सहित आवें और आने में विलम्ब न करें अविलम्ब आवें आने के लिये सब अपने यान विमानों का उपयोग करेअर्थात यान विमान पर चढ चढ कर आवें और आ करके शक के पास उपस्थित हो जावें 'तएणं से हरिणेगमेली देवे पायत्ताणीयाहिवई सक्केणं ३ जाव एवं घुत्ते समाणे हतुह जाच एवं देवोत्ति आणाए विणएणं वधणं पडिसुणेइ, पडिમાળા પહેરે છે, જે દેવ જે પ્રકારનાં અલંકારે પહેરે છે, તે દેવ તે પ્રકારની માળાઓ તેમજ અલંકારોથી સુશોભિત થઈને આવે હાથમાં કટકે, ભુજાઓમાં ત્રુટિત-ભુજ બધે પહેરીને આવે. આવતા સમયે તેઓ દિવ્ય વાદ્યોના તુમુલ અવનિ સાથે આવે. मही' यावत् ४थी 'महयाहयणट्टगीयवाइयततीतलतालतुडियघणमुइंगपडुपडहवोइअ' मा પાઠને સંગ્રહ થયે છે. એ પની વ્યાખ્યા પહેલાં ઘણીવાર કરવામાં આવી છે. તે
ज्ञासुमो त्यांथी वांया प्रयत्न ४रे. 'णियय-परियोलसंपरिखुडा सयाई २ जोणविमाण वाहणाई दुरूढो समाणा अकालपरिहीणं चेव सक्कस्स जाव अंतियं पाउम्भवह' तेम। પિત–પિતાની ઈષ્ટ મંડળી સહિત તેમજ પિતાના પરિવાર સહિત અહી આવે અને ત્વરિત ગતિથી આવે આવતી વખતે તેઓ બધાં પિતતાના યાન–વિમાનેને ઉપચાગ કરે. એટલે કે યાન-વિમાન ઉપર આરૂઢ થઈને આવે અને આવીને શક્રની પાસે ઉપસ્થિત થઈ જાય. 'तए णं से हरिणेगमेसी देवे पायत्ताणीयाहिवई सक्केणं ३ जाव एवं वुत्ते समाणे हट्ट तुट्ठ
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जम्बूद्वीपप्रक्षप्तिसूत्रे
'नैगमेपीदेवः पदात्यनीकाधिपतिः शक्रेण यावत् एवम उक्तप्रकारेण उक्तः सन् हतुष्ट यावत् एवं देव ! इति आज्ञाया विनोन वचनं प्रतिशृणोति स्वीकरोति । धन प्रथमयावत्पदात् देवेन्द्रेण देवराजेन इति संग्राह्यम् द्वितीययावत्पदात चित्तानगितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशनिसर्पद हृदयः इति ग्राह्यम् । 'पडिमणेत्ता' प्रतिशुत्य स्वीकृत्य (सक्कस्स देवि. दस्स देवरण्णो अंतियाओ पडिणिक्षमई' शक्रस्य देवेन्द्रस्य देशराजम्य अन्तिकात् समीपोत् प्रतिनिष्क्रामति निगच्छति 'पडिणिकखमित्ता' प्रतिनिप्नस्य निर्गत्य 'जेणेव सभाए सुहम्माए मेघोघरसिअगंभीरमहरयरसदा जोयणपरिमंडला सूघोसा घंटा तेणेब उगगच्छड' . यत्रैव मुधर्मायां सभायां मेघौधरसितगम्भीरमधुरतरशब्दा मेघानामोघः संघातः मेघौघस्तस्य "रसितम गर्जितं तद्वत् गम्भीरो मधुरतरश्च शब्दो यस्याः सा तथानना एवं योजनपरिमण्डला
योजनपरिमण्डलं भावप्रधाननिर्देशात् पारिमाण्डल्यं वृत्तत्वं यस्याः सा तथासूता सुघोषा 'तनाम्नी घण्टा तत्रै उपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'तं येघोघरसि अगंभीरमहुरयरसद जोयणपरिमंडलं सुघोस घंटे तिखुतो उल्लालेई तां मेघौघरसितगम्भीरमधुरतरसुणित्ता सक्कस्स ३ अंतियाओ पडिणिकवलई' इस प्रकार वह हरिणेगमेषी पदात्यनोकाधिपित देव जब अपने स्वामीभूत देवेन्द्र देवराज शक के द्वारा आज्ञापित हुआ तो वह सृष्ट पुष्ट यावत होकर कहने लगा 'हे देव ! आपकी आज्ञा हमे प्रमाण है-जैसा आपने आदेश दिया है हम वैसा ही करेगे" इस प्रकार से बडे विनय के साथ उसने अपने प्रभुकी आज्ञा के वचनों को स्वीकार कर लिया और स्वीकार कर वह इन्द्र के पास से चला आण 'डिणिक्खमित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए मेघोघरलिय गम्भीर महरयरसदा जोयणपरिमंडला सुघोसा घंटा-तेणेव उवागच्छह आ करके वह जहां सुधर्माला में मेघ के समूह के शब्द जसीगंभीर मधुरतर शब्दवाली एवं एक योजन के परिमंडलबालो सुघोषा नामको घंटा थी वहां पर आया 'उवागच्छित्ता तं मेघोघरसिअ गम्भीरमहु रयरजाव एवं देवोत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसणेह, पडिसणित्ता सक्करस ३ अंतियाओ पडिणिक्खमई' मा प्रभारी हरिशमेषी पात्यनाधिपति है न्यारे पोताना स्वाभाભૂત દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક્ર વડે આજ્ઞાપિત થયો તે તે હષ્ટ–તુષ્ટ યાવત્ થઈને કહેવા લાગે- હે દેવ! તમારી આજ્ઞા અમારા માટે પ્રમાણ છે. જે પ્રમાણે આપશ્રીએ આદેશ આપે છે, અમે તે પ્રમાણે જ કરીશું. આ પ્રમાણે અહજ વિનય પૂર્વક તેણે પોતાના પ્રભની આજ્ઞાને વચન સ્વીકારી લીધું અને સ્વીકારીને તે ઈન્દ્રની પાસેથી રવાના : 'पडिणिक्खमित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए मेघोघरसियगम्भीरमहुरयरसद्दा जोयणपरिमंडला सुधाता घंटा तेणेव उवागच्छई' २वान थ न्या संघसिमामा भधान सभड 21 मार, મધુરતર શખવાળી તેમજ એક જન. પરિમંડળવાળી સુષા નામની ઘંટા હતી, જે मान्य. 'बागठित्ता न मेघोघरसिभ गम्भीरमायाम जोगपरिमल समास
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् शब्दां योजनपरिमण्डलां सुघोषां तन्नाम्नी घण्टा त्रिः कृत्वः वारत्रयम् उल्लालयति वाक्ष्यति ताडयतीत्यर्थः । 'तएणं तीसे मेघोघरसिअगंभीरमहुरयरसदाए जोयणपरिमंडलाए सुघोसाए घंटाए तिक्खुत्तो उल्लालिआए समाणीए सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगूणेहिं बत्तीसविमाणावाससयसहस्सेहिं ततः घण्टावाडनानन्तरं खलु तस्यां मेघौघरसितगम्भीरमधुरतरशब्दायां योजनपरिमण्डलायां सुघोषायां त्रिः कृत्वः, उल्लालितायां ताडितायां सत्यां सौधर्म कल्पे अन्येभ्यः एकोनेभ्यो द्वात्रिंशद् विमानावासशतसहस्रेभ्यः, अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया तेन अन्येषु एकोनेषु द्वात्रिंशद् विमानावासशतसहस्रेषु द्वात्रिंशद विमानरूपाः ये आवासाः देववासयोग्यानि विमानानि तेषां शतसहस्त्रेषु-द्वात्रिंशल्लक्ष्यसंख्यकविमानेषु इत्यर्थः, 'अण्णाइं एगृणाई बत्तीसं घण्टासयसहस्साई जमगसमग कणकणारावं काउं पयत्ताइ हुत्था इति' अन्यानि एकोनानि द्वात्रिंशघण्टाशतसत्राणि एकोना-द्वात्रिंशल्लक्ष संख्यायुक्ता घण्टा इत्यर्थः । यमकसमकं युगपत् कणकणारावं कणकणाशब्दं कर्तुं प्रवृत्तानि आसन् इति । घण्टानादतो यत्प्रवृत्तं तदाह-'तए णं सोहम्मे कप्पे पासायविमाणनिक्खुडावडियसद्दसमुटिअ घंटापडेंसुआ सयसहस्ससंकुले जाए आवि होत्था' ततः घण्टानां कणकणशब्दप्रवृत्तेरनन्तरं खलु सौधर्मः कल्प: रसई जोयणं परिमण्डलं सुघोसं घंटं तिक्खुत्तो उल्लालेह, तए णं तीसे मेघोघरसिअ गम्भीरसहरयरसदाए जोयणपरिमण्डलाए सुघोसाए घण्टाए तिक्खुत्तो उल्लालिआए समाणीए' वहां आकर के उसने मेघोघ के रसित के जैसी गंभीर मधुरतर शब्दवाली एवं एक योजन परिमण्डलचाली सुघोषा घंटा को तीन वार ताडित किया इस प्रकार उस मेघोघ के रसित के जैसी गंभीर मधुर तर शन्दवाली एवं एक योजन परिमण्डलचाली सुघोषा नामकी घंटा के तीन बार ताडित होने पर 'सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगणेहिं बतीसविमाणावाससयसहस्सेहि अण्णाई एगूणाई बतीसं घण्टासय सहस्साइं जमगलमगं कणकणारावं काउं पयत्ता हत्था इति' सौधर्म कल्प में और भी १ कम ३२ लाख विमानों में १ कम ३२ लाख और भी दूसरी घंटाएं एक साथ कणकण शब्द करनेलगी 'तएणं से सोहम्मे घंटं तिक्खुत्तो उल्लालेइ, तए णं तीसे मेघोघरसिअ गम्भीरमहुयरसदाए जोयणपरि. मण्डलाए सुघोसार घण्टाए तिक्खुत्तो उल्लालिओए समाणीए' त्यां मावा तो मेवाधना રસિત જેવી ગંભીર, મધુરતર શબ્દવાળી તેમજ એક જન પરિમંડળવાળી સુષા ઘંટાને ત્રણ વાર તાડિત કરી આ પ્રમાણે તે મેઘના રસિત જેવી ગંભીર, મધુરતર શખવાળી તેમજ એક જન પરિમડલવાળી સુષા નામક ઘંટા ત્રણ વાર તાડિત ४२वामा भावी त्यारे 'सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगूणेहिं वतीस विमाणावाससयसहस्सेहि अण्णाई एगूणाई वत्तीसं घण्टासयसहस्साई जमगसमगं कणकणारावं काउं पयत्ताई हुत्था इति' સૌધર્મકલ્પમાં એક કમ ૩૨ લાખ વિમાનમાં, ૧ કમ ૩૨ લાખ બીજી ઘટાઓ એકી સાથે तन मनन् २०ी esी. 'तए णं से सोहम्मे कम्पे , पासायविमाणनिवडावडिअ सहस
० पर
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___जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे प्रासादविमाननिष्कूटापतितशब्दसमुत्थितघण्टाप्रतिश्रुतशतसहस्रसंकुलो जातथापि आसीदिति, तत्र प्रासादानां विमानानां वा ये निष्कूटाः गम्भीरप्रदेशाः तेषु ये आपतिवाः संप्राप्ताः शब्दाः, शब्दवर्गणाः पुद्गलाः तेभ्यः समुत्थितानि यानि घण्टा प्रतिश्रुतानां घण्टा सम्बन्धि प्रतिशब्दानां शतसहस्राणि लक्षपरिमितानि तैः संकुलो व्याप्तो जतश्चाप्यभूदित्यर्थः घण्टायां महता प्रयत्नेन ताडितायां ये विनिर्गताः शब्दपुद्गलास्तान् प्रतिघानवशतः सर्वानु दिक्षु विदिक्षु च दिव्यानुभावतः समुच्चलितः प्रतिशब्दैः सकलोऽपि सौधर्मः कल्पो बधिरो जात इति भावः . एवं शब्दमये सौधर्मे कल्पे सञ्जाते सति किं जातं तदाह 'तए णं' इत्यादि 'तएणं तेसिं सोहम्मकप्पवासीणं वहणं वेमाणियाणं देवाण य देवीणय एगंतरइपसत्तणिचपमत्तविसयमुहमुच्छियाणं' ततः शब्दव्याप्त्यनन्तरं खलु तेषां सौधर्मकल्पयासिनां यहूनां वैमानिकानां देवानां देवीनां य एकान्तरतिप्रसक्तनित्यत्रमत्तविपरयुखमूच्छितानार एकान्तेन रतौ संभोगे प्रसक्ताः आसक्ताः एत एव नित्यप्रमत्ताः विषयसुखेषु भूच्छिताः अ युपपन्नाः अत्र कर्मधारयः तेपाम् 'सूसर घंटारसि विउलबोलपूस्थिश्वलपडियोहणे कए समाणे घोसणकोऊहलदिण्णकण्णएगग्गचित्त उवउत्तमाणसाणं' सुस्तर घण्टारसितविपुलबोलपूरितचपलप्रतिकंप्पे पालायविमाणनिक्खुडामडिअसहसमुष्टिय घंटापडेंसुभा सयसहरससंकुले जाए यावि होत्था इति' इस तरह वह सौधर्म लल्प पालादों के एवं विमानों के निष्क्रुटों में गंभीर प्रदेशों में अप्रति शब्दवर्गणारूप पुद्गलों से उत्पन्न हुइ लाखो घंटा प्रतिध्वनियों से व्याप्त हो गया बधिर जैसा बन गया 'तएणं' इस प्रकार शब्दमय सौधर्मकल्प के हो जाने के बाद 'तेति सोहम्मकप्पवासीणं वणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण ण एगंतरहपत्तत्तणिच्चपलत्तविलयसुहमुच्छियाण' उन बहुत से सौधर्मकल्पवासी देव और देवियों को जो कि एकान्त रति क्रिया में प्रसक्त थीं और इसी कारण जो विषय सुखमें इकदम सूच्छित हो रही थीं उन्हें 'मूसर घंटासियविउलवाल पूरिय चचल बोहण कए ससाणे' सुस्वर घंटा-सुघोषा घंटा के उस सकल सौधर्म देवलोक कुक्षिभरी कोलाहल से मुदिअ घंटापडेंसुआ सयसहस्ससंकुले जाए यावि होत्या इति' मा प्रमाणे सोधर्म કલ્પ પ્રાસાદોના તેમજ વિમાનના નિષ્કમાં, ગંભીર પ્રદેશમાં આ પ્રતિ શબ્દ વર્ગણા રૂપ પુદ્ગથી ઉત્પન્ન થયેલા લાખો ઘંટાઓના ધ્વનિઓના ગણ ગણાટથી તે સકલ भूमा मधिर व मनी गयो. 'तएणं ती प्रभाएं या सीधः ४८५ २५४मय मनी गयो त्यारे 'तेसि सोहम्मकापवासीणं वहणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण ण एग. तरइपसत्तणिच्चपमत्तविसयसुहमुच्छियाणं' धा सौधर्म ४८५पाशी मन वाએને કે જેઓ એકાન્ત રતિક્રિયાઓમાં તલ્લીન હતા અને એથી જ જે વિષય સુખમાં
४४म मा ४ हमी २६॥ तi 'सूसरघंटारसिय विउल बोल पूंरिय चवल बोहण कए જો તે અને જ્યારે સૂર ઘટા-સુષ વંટાનાતે સાલ સૌ કેવક કૃષિક્ષરી
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् बोधने कृते सति घोषणकुतूहल दत्तकर्णैकाग्रचित्तोपयुक्तमानसानाम्, तत्र सुस्वरा, या घण्टा तस्याः रसितं वादितं वादनं तस्मात् विपुलः सकलसौधर्मदे लोके संजातो यो वोल:-कोलाहळः तेन पूरिते परिपूर्णे चपले ससम्भ्रमे प्रतिबोधने कृते सति आगामिकासम्भाव्यमाने घोषणे कुतूहलेन किमिदानीमुद्घोषणं भविष्यतीत्यात्मकेन दत्ताः कर्णाः यैस्ते तथाभूताः तथा एकाग्र घोपणश्रवणैकविपयं चितं येषां ते तथाभूताः, तथा उपयुक्तानि मानसानि एषां ते तथाभूताः श्रवणविषयीभूतवस्तुग्रहणप्रवृत्त मानस इत्यर्थः ततो विशेषणसमासः तेषाम् 'पायताणीआहिवई देवे तंसि घंटारवंसि निसंतपरिसंतसि समाणंसि तत्थ तत्थ तहि तहिं देसे महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं वयासोति' स शक्राज्ञाकारी पदात्यनीकाधिपते देवः तस्मिन् घण्टारवे निशान्तप्रशान्ते नितरां शान्तः निशान्तः अत्यन्तमन्दभूतः ततः प्रकर्षण सर्वात्मना शान्तः प्रशान्तः ततो विशेषणसमासस्तस्मिन् सति तत्र तत्र महति देशे तस्मिन् तस्मिन् देशैकदेशे महता महता शब्देन तारतारस्वरेण उद्घोपयन् उद्घोपयन् एवम् वक्ष्यमाण प्रकारेण अवादीत् उक्तवन्तः (हन्त ! सुगंतु भवतो वहवे सोहम्मकप्पवासी वेमाणीयदेवा देवीओय सोहम्मकप्पाइणो इणमो वयणं हिययसुहत्थं आणवई णं भो सक्के तं चेव जाव अंति पाउब्भवदत्ति' हन्त ! इति हर्षे श्रृण्वन्तु भवन्तो बहवः सौधर्मकल्पवासिनो वैमानिका परिपूर्ण ससंभ्रम प्रतियोधन किये जाने पर 'घोसणकोऊहलदिण्णकण्णएगग्ग चित्त उचउत्तमाणसाणं से पायत्ताणीयाहिवइ देवे तंसि घंटारवंसि णिसंतः परिसंसि समाणंसि तहिं २ देसे महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं क्या सीति' तथा घोषणाजन्य कौतूहल से जिन्हों ने उस घोषणा के सुनने में अपने कानों को लगाया है और इसीसे जिनका चित्त एकाग्र होकर उस घोषणाजन्य कौतुहल में उपयुक्त हो रहा है, तथा शुश्रूषित वस्तु के ग्रहण करने में जिनका मन उतावलीवाला बन रहा है ऐसे उन देवों के हो जाने पर उस पदात्यनीकाधिपति देवने उस घंटारव के अत्यन्त शान्त प्रशान्त होते ही उन उन स्थानों पर जोर जोर से घोषणा करते हुए ऐसा कहा 'हत ! सुणंतु भवंतो वहवे सोहम्मकप्पवासीवेमाणिया देवा देवीओ य लोहम्मकप्पवइणो इणमो वयणं हिययसु
सारथी परिपू ससभ स्थितिमा प्रतिमाधित ४ा 'घोसणकोहलदिण्णकण्णएगग्गचित्तउवउत्तमाणसाणं से पायत्ताणीयाहिवइ देवे तसि घंटारवंसि णिसंतपरिसंतसि समाणंसि तहिं २ देसे महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयासीति' तम घोषणा જન્ય કૌતુહલથી જેમણે તે ઘોષણાને સાંભળવામાં પિતાના કાને લગાવ્યા છે અને એથી જ જેમના ચિત્તો એકાગ્ર થઈને ઘષણ જન્ય કૌતુહલમાં ઉપયુક્ત થઈ રહ્યા છે. તથા શુશુષિત વસ્તુના ગ્રહણ કરવામાં જેમનું મન ઉત્કંઠિત થઈ રહ્યું છે, એવા તે દેવે થઈ ગયાં ત્યારે તે પદત્યનીકાધિપતિ દેવે તે ઘંટારવ પૂર્ણ રૂપમાં શાન્ત-પ્રશાન્ત થઈ ગયો ત્યારે ते स्थान। १५२ -०२२थी घोषणा ४२di युं 'हंत | सुणंतु भवंतो बहवे सोहुम्मकप्पवासी
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હિટ
जम्बूद्वीपप्रशस्ति देवाः देव्यश्च सौधर्मकल्पपतेः शक्रस्येदं वचनं हितसुखार्थम् हितं जन्मान्तरकल्याणवई मुखं तद्भवसंवन्धि-इहलोक परलोकसुखजनकं तदर्थमाज्ञापयति खलु भो देवा ! शक्रः तदेव ज्ञेयम् यावत् अन्तिकम्-यत् प्रास्त्रे शक्रेण हरिनैगमेपिणः पुरत: उद्घोपयितव्यमादिष्टं यावत् तत्सर्व प्रादुर्भवत्त इति । 'तएणं ते देवा देवीओ य एयमदं सोचा इह तुह जाव हिअया अप्पेपइया वंदणवत्तियं एवं पूयणवत्तियं सकारवत्ति सम्माणवत्तिअंदसणवत्ति जिणभत्तिरागेणं अप्पेगइया तं जीयमेअं एवमादित्ति कटु जाव पउभवंतित्ति' ततः पदात्यनीकाधिपतिर्देवमुखात् शक्रादेशश्रवणानन्तरं खलु ते देवाः देव्यश्च एवम् अनन्तरपूर्वकथितम् अत्यं' हे सौधर्मकल्पवासी देव और देवियों आप सब बडे हर्प के साथ सौधर्मकल्पपति के हितलुखार्थ इन वचनों को सुनिये यहां 'हन्त' शब्द प्रकर्ष हर्ष का द्योतक है यह वचन जन्मान्तर में कल्याण का कारण है इसलिये हित स्वरूप है
और इस भवमें सुखका दायक है अतः सुखार्थरूप है 'अणावईणं भी सक्के तचेच जाव अंतिअंपाउन्भवत्ति' वह हितसुखार्थक वचन सौधर्मकल्पपतिके इस प्रकार से हैं-कि आप सब शीघ्र ही यावत् शक के पास उपस्थित हों इस प्रकार जैसी घोषणा करने का आदेश पदात्यनीकाधिपति हरिलिगमेपी देवको शक्रने दिया था वह शब शक का आदेश 'आप सब शक्र के पास आकर उपस्थित हो जावे' यहांतक का उसने घोपणा करके सुनादिया 'तएणं ते देवा देवीओ य एयमé लोच्चा हट्ट तुट्ठ जाव हियया अप्पेगड्या वन्दणवत्तियं एवं पूअणवत्तियं सक्कारवत्तियं दसणवत्तियं जिणभत्तिरागेणं अप्पेगइया तं जीयमेयं एव मादित्ति कटु जाय पाउन्भवतित्ति' इसके बाद वे देव और देवियां इस चातको सुनकर हृष्ट तुष्ट यावत् हर्ष से जिनका हृद्य उछल रहा है ऐसी हो वेमाणिया देवा देवीओ य सोहम्मकापव इणो इणमो वयण हिययसुअत्य' र सौधर्म ४५वासी દેવ અને દેવીઓ આપ સર્વે અતી આનંદ પૂર્વક સૌધર્મ કલ્પતિમાં હિતસુખાર્થ મારા मा क्यन समजा-मडी 'हन्त !' श ष उपपोत छ. मा क्यन न्मान्तरमा પણું કલ્યાણ કારી છે એથી હિત સ્વરૂપ છે અને આ ભવમાં સુખદાયક છે, એથી સુખાર્થ ३५ छ 'आणवईणं भो सक्के त चेव नाव अंतिअं पउन्भवहत्ति' हित सुभाथ वयन સીધર્મ કલ્પપતિનું આ પ્રમાણે છે-કે આપ સર્વ શીઘ ચાવત શક્રની પાસે ઉપસ્થિત થાઓ. આ પ્રમાણે પદત્યની કાધિપતિ હરિનિગમેષી દેવને શકે જેવી ઘેષણ કરવાની આજ્ઞા કરી હતી, તે શક્રની “આપ સવે શકની પાસે શીધ્ર ઉપસ્થિત થાઓ “અહી सुधीनी माजाने धेषाना ३५भा सीधी . 'तए णं तं देवा देधीओय एयमद्वं सोच्चा हतुटु जाव हियया अप्पेगइया वन्दणवत्तिय एवं पूअणवत्तियं सक्कारवत्तिय देसण वत्तियं जिणभत्तिरागेणं अपेगइया त' जीयमेवं एवमादित्ति कटु जाव पाउन्भवतित्ति' ત્યાર બાદ તે દેવ અને દેવીઓ આ વાતને સાંભળીને હૃષ્ટ–તુષ્ટ યાવત્ હેથી
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम्
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अर्थ आह्वान शब्दं श्रुत्वा हृष्टतुष्ट यावत् हृदयाः यावत्पदात् हृष्टचित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्पिताः हर्षवशविसर्पद् हृदयाः अप्येककाः केचन देवा देव्यश्व वन्दनप्रत्ययं वन्दनं अभिवादनं प्रशस्त कायवाङ्ग्मनः प्रवृत्तिरूपं तत्प्रत्ययं तदस्माभिस्त्रिभुवनभर्तृकस्य कर्तव्यमित्येवं निमित्तं जन्मसमये वन्दनार्थगमनरूपं एवं पूजन प्रत्ययम् पूजनम् अन्तःकरणेन नमस्करणम् तत्प्रत्ययस् तत्कारणकम् एवं सत्कारप्रत्ययम् सत्कारः स्तुत्यादिभिः गुणोन्नतिकरणं तत्प्रत्ययस् तन्निमित्तं सन्मानप्रत्ययम् सन्मानः अञ्जलिपुट संयोजनमभ्युत्थानादिलक्षणम् नत्प्रत्ययम् दर्शनप्रत्ययम् दर्शनम् ऋपमतीर्थकरस्य विलोकनम् तत्प्रत्ययम् तनिमित्तम् जिनभक्तिरागेण जिनप्रेमानुरागेण वा अप्येकका केचित् देवादेव्यच अस्माकं देवानां देवीनां य तज्जीतमेतत् - आचारः, एषः यत् देवैर्जिनमहोत्सवे गन्तव्यम् 'एव मादीत्यादिकम् आगमननिमित्तमिति कृत्वा चित्तेऽवधार्य यावत् प्रादुर्भवन्ति प्रकटी भवन्ति ते देवा इति । अत्र यावत्पदात् 'अकालपरिहीणं सकस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियं' इति ग्राह्यम् । गई । इनमें से कितनीक देव देवियां इस अभिप्राय से शक्र इन्द्र के पास आई कि यहां चलकर हमलोग त्रिभुवन भट्टारक को प्रशस्तकाय वाङ् : मनकी प्रवृतिरूप अभिवादन करेंगी कितनी देव देवियां इस अभिप्राय से इन्द्र के पास आई कि वहां चलकर हमलोग गन्ध आल्यादिक का अर्पण करते हुए प्रभुको अन्त:करण से नमस्कार करेगी कितनीक देव देवियां इस अभिप्राय से शक्र के पास आई कि वहां चलकर हमलोंग प्रभु की स्तुति आदि के द्वारा गुणोन्नति करेंगी कितनीक देव देवीयां इस अभिप्राय से शक के पास आई कि वहां चलकर हमलोंग प्रभु के समक्ष खडे होकर हाथ जोड़ेंगी, कितनीक देवदेवियां इस अभिप्राय से शक्र के पास आई कि वहां चलकर हमलोग चरम तीर्थकर का दर्शन कर लेगी तथा कितनीक देवदेवियां जिनेन्द्र की भक्ति के उत्सव में जाना यह हमारा आचार है इत्यादि भिन्न-भिन्न अभिप्रायों से प्रेरित हुई शक्र के पास
જેમના હૃદયે ઉછળી રહ્યા છે એવાં થઇ ગયાં. એ સ^માંથી કેટલાક દેવ-દેવીએ આ અભિપ્રાયથી શક—ઇન્દ્રની પાસે આવ્યાં કે અહીં' અમે ત્રિભુવન ભટ્ટારક ને, પ્રશસ્ત ક્રાય, વાડ઼ે મનની પ્રવૃત્તિ રૂપ અભિવાદન ઝરીશુ’. કેટલાંક દેવ-દેવીએ આ અભિપ્રાયથી ઇન્દ્રની પાસે આવ્યાં કે ત્યાં જઈને અમે ગન્ધ, માયાદિકનું અણુ કરીને પ્રભુને અન્તઃકરણ પૂર્વક નમસ્કાર કર'શું. કેટલાક દેત્ર−દેવીએ એ અભિપ્રાયથી શક પાસે આવ્યા કે ત્યાં જઈને પ્રભુની સ્તુતિ વગેરે દ્વારા અમે પ્રભુની ગુણેાન્નતિ કરીશું. કેટલાંક દેવ-દેવીએ એ અભિપ્રાયથી શક પાસે આવ્યા કે ત્યાં જઈને અમે પ્રભુની સામે ઊભા થઈને હાથ જોડી શુ. કેટલાંક દેવ-દેવીઓ આ અભિપ્રાયથી શક પાસે આવ્યા કે ત્યાં જઈને અમે ચરમ તીર્થંકરના દર્શીન કરીશું. કેટલાક દેવ-દેવીએ જિતેન્દ્રની ભક્તિના અનુરાગથી અને કેલાં દેવ-દેવીએ જિન જન્મના ઉત્સવમાં જવું' આ અમારા આચાર છે. વગેર
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
सम्प्रति शक्रेन्द्रस्य कर्तव्यमाह - 'तए णं' इत्यादि 'तए णं से सके देविंदे देवराया ते विमाणि देवे देवीओ य अकालपरिहीणं चेव अंतिय पाउन्भवमाणे पास' ततः देवानां देवीनां च शक्राग्रे उपस्थितानन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजस्तान् बहून् वैमानिकान देवान् देव अकालपरिहीणम् निर्विलम्बम् एव अन्तिकं समीपं प्रादुर्भवन्तः उपतिष्ठमानान् पश्यति 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'हे पालयं णामं आभियोगियं देवं सदावेइ' दृष्ट्वा हृष्टः सन् पालकं पालकनाम विमानविकुर्वणाकारणमाभियोगिकम् आज्ञाकारिणं देवं शब्दयति आह्वयति स शक्रः, अत्र हृष्ट इति एकदेशेन सर्वोऽपि हर्पाकापको ग्राह्यः तथा च हृष्ट तुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमानाः परमसौमनस्थितः हर्पवशविसर्पहृदयः इति हृष्टपदेन ग्राह्यम् 'सद्दावित्ता' शब्दयित्वा आहूय एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान् किमुक्तवान् इत्याह 'खिप्पामेव' इत्यादि 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिए' क्षिप्रमेव अतिशीघ्रमेव भो ! देवानुप्रिये 'अग खंभसयस णिविद्वे' अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टम् 'लीलाडियसालसंजिआकलिअ' atorस्थितशालभञ्जिका कलितम् 'इहामिगाउसभतुरगणरमकर विहगवालग किण्णररुरुसर भचमरकुंजर वणलय पउमलयभत्तिचित्तम्' ईहामृगऋप मतुरगनरम करविहगवालककिन्नर रुरुश मरचामरआई । 'तए णं से सक्के देविंदे देवराया ते चिमाणिए देवे देवीओ अ अकालपरिहीणं चेव अंतिम पाउन्भवमाणे पासह' देवेन्द्र देवराज शक्रने विना विलम्ब किये अपने पास आगत उन देव देवियों को देखा तो उसने 'पासित्ता' देखकर 'हृट्ठे पालय णानं आभियोगियं देवं सद्दावेइ' हर्षित होकर पालक नामक अभियोगिक देवको बुलाया 'सद्दावित्ता एवं वयासी' और बुलाकर उसने ऐसा कहा 'विपामेव भो देवाणुपिया । अगखम्भसयसन्निविडं लीलडियसालभंजिया कलिअं ईहामित्र उस भतुरगणर मगर विहगवालग किण्णररुरुसरभ चमर कुंजरवणलय पउमलय भत्तिचित्तं' हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही एक दिव्य यान की विकुर्वणाकरो जो यान विमान सैंकडो खंभोवाला हो, तथा लीला करती हुइ अनेक पुत्तलिकाओं से यह युक्त हो, ईहा मृग, वृषभ, तुरग, नर, मकर, वगेरे भिन्न भिन्न अभिप्रायोथी प्रेरित थह ने शडेनी पासे खाव्या. 'त एवं से सक्के देवि दे देवराया ते विमाणिए देवे देवीओ अ अकालपरिहीणं चेव अंति पाउन्भवमाणे पास' દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકે વિના વિલ એ તેમની પાસે આવેલાં તે દેવ-દેવીઓનેજોમાં. તે सर्वने 'पासित्ता' ने 'हट्टे पालये णामं आभियोगियं देवं सद्दावेइ' (र्पित ने पा नाभ खाभियोग हेवने मासाव्या. 'सद्दावित्ता एवं बयासी' ने मोसावीने ते श 'म प्रमाणे धु' - 'खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! अणेगखम्भसय सन्निविट्ठ लीलट्ठियसाल'भंजिया कलिअं ईहामि अउसभ तुरगणरमगरविहगवा लगकिष्णररुरुसरभ चमरकु जरवणलय उम'यभत्तिचित्त' हे हेानुप्रिय । तभे शीघ्र शे४ हिव्य याननी विदुर्वया पुरो भा ચાન—વિમાન હજારો સ્ત ંભોવાળુ હૈાય, તથા લીલા કરતી અનેક પુત્તલિકાઓથી ते सुशोभित होय, सामृग, वृषभ, तुरंग, नर, भर, विहग, व्यास, हिन्न२, ३३-भृण
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू०४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम्
६३१ कुञ्जरवनलता पद्मलताभक्तिचित्रम् 'खंझुग्गय रइरवेझ्यापरिगयाभिरामं स्तम्भोद् तवज्रवेदिका परिगताभिरामम् 'विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्तपिव अचीरहस्समालणी विद्याधर यमलयुगलयन्त्रयुक्तमिव अर्चिसहस्रमालिनीयम् 'रूवगसहस्सकलियं व' रूपकसहस्रकलितम् 'भिसमाणं भिन्भिसमार्ण' भास्यमानं वाभास्यमानम् 'चक्खुल्लोअणलेस्सं सुहफास सस्सिरीअरूवं' चक्षुलॊचनलेश्यम् सुखस्पर्शम् । सश्रीकरूपम् 'घंटावलिय महुरमणहरसरं' घण्टावलिकमधुरमनोहरस्वरस् 'मुहं कंतं दरिसणिज्ज' शुभ कान्तं दर्शनीयम् 'णिउणोविअ मिसिमिसिंतमणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्तं निपुणोपेत 'मिसिमिसिंत' देदीप्यमानमणिरत्नघण्टिकाजाल परिक्षिप्तम् 'जोयणसहस्सविच्छिण्णं' योजनसहस्र विस्तीर्ण 'पंचजोयणसयमुव्विद्धं सिग्धं तुरिअं जइण' पञ्चयोजनशतोच्चत्वम् शीघ्रम् त्वरित जवनं अतिशयवेगवत 'णिबाहि' निर्वाहि प्रस्तुत कार्यनिर्वहणशीलम् 'दिव्वं जाणविमाणं विउच्वाहि दिव्यं यानविमानं विकुवस्व विकुर्वणाशक्त्या निष्पादय, एतेषामर्थः अस्मिन्नेव पञ्चमवक्षरकारे प्रथमसूत्रे द्रष्टव्यः, नवरम् योजनसहस्रविस्तीर्णमित्यत्र प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्न योजनलक्ष विज्ञेयम् विउवित्ता' विकुळ विकर्वणाशक्त्या निष्पाद्य 'एयमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि' एतास उक्त प्रकारामाज्ञप्तिकाम् प्रत्यय समय एवं पालकाय आज्ञातिवान् इति ॥ सू० ४ ॥ विहग, व्याल, किन्नर, रुरु-मृग, सरभअष्टापद, कुंजर-हाथी, वनलता एवं पद्मलता, इन सबके चित्रों की रचना से आश्चर्यप्रद हो, इसके प्रत्येक खंभे में वज्रकी वेदिका हो और उससे यह-अभिराम हो, इत्यादि रूप से इसका वर्णन 'जइणणिवाहि' पद तक का जैसा इसी वक्षस्कार के ५ वे सूत्र में यान विमान का वर्णन पीछे किया जा चुका है वैसा ही वह यहां जानना चाहिये इन समस्त पदों की व्याख्या भी वहीं पर की जा चुकी है अतः वहीं से देखलेनी चाहिये इसे जो १ हजार योजन का विस्तीर्ण कहा गया है सो वह योजन प्रमाणाङ्गुल से निष्पन्न हुआ योजन ही गृहीत हुआ है ऐसा जानना चाहिये उत्सेधाङ्गुल से निष्पन हुआ योजन नही जानना चाहिये 'विउव्वित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहिं' ऐसे यान विमान की विकुर्वणा करके हमें शीघ्र पीछे खवर दो ॥४॥.. સરભ, અષ્ટાપદ, કુંજર-હાથી, વનલતા તેમજ પાલતા એ બધાનાં ચિત્રોની રચનાથી એ આશ્ચર્ય પ્રદ હોય, એના દરેક સ્તંભમાં વજની વેદિકા હોય અને એનાથી એ અભિशम सातु डाय त्यादि ३५मां मा यान-विमाननु वन 'जइणणिवाहि' ५६ सुधी જેવું આ જ વક્ષસ્કારના પાચમાં સૂત્રમાં પહેલાં યાન–વિમાનના પ્રસંગ વખતે કરવામાં આવેલું છે તેવું જ ભર્ણન અહીં પણ સમજવું. એ બધા પદેની વ્યાખ્યા પહેલાં કર વામાં આવી છે. જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી વાંચવા પ્રયત્ન કરે. આને જે ૧ હજાર જન જેટલું વિસ્તીર્ણ કહેવામાં આવેલું છે, તે જન પ્રમાણગુલથી નિષ્પન્ન થયેલ જન જ ગૃહીત थयो। छ. त्सेधांशुलथा निष्पन्न येतो योस arya नलि. 'विउव्वित्ता एयमाणत्तिय पहचप्पिणादि मेवा यान-विमानती Lagीन मन त भR RANI. ॥ ४ ॥
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भिएरशाह सउज्जोपासपउमलयतिरंगजारमार
'जम्बूद्वीपप्राप्ति ___ अथ शक्रज्ञप्तिस्वीकारानन्तरं यदनुतिष्ठतिस्म पालको देवस्तदाह-'तएणं से इत्यादि
मूलम्-तए णं से पालयदेवे सक्केणं देविदेणं देवरण्णा एवंवुत्ते समाणे हद्वतु जाव वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणिता तहेव करेइ इति। तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस तिदिसिं तो तिसोवाणपडिरूवगा वण्णओ तेसिं णं पडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा वण्णओ जाव पडिरूवा१। तस्स णं जाणविमाणस अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव दीवियचम्मेइ वा एवं अणेग संकुकीलकसहस्सरितते आवड पच्चावड सेढिपसेढि सुस्थिअ सोवत्थिय वद्धमाणपूसमाणवमच्छंडगमगरंडगजारमारफुल्लावलीपउमपत्त सागरतरंगवसंतलयपउमलयभत्तिचित्तेहिं लच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीइएहिं सउज्जोएहिं णाणाविह पंचवण्णेहिं मणीहिं उवसो. भिए२ तेसिं गं भणीणं वण्णे गंधे, फासे अभाणियव्वे जहा रायप्पसेणइज्जे। तस्ल णं भूमिभागस्स बहुलज्झदेसमाए पेच्छाघरमंडवे अणेगखंभसयसन्निविटेवण्णओ जाव पडिरूवे तस्स उल्लोए पउमलयत्तिचित्ते जाव सत्र तवणिज्जमए जार एडिरूवे, तस्स णं संडवस्त बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेलमार्गसि महं एगा मणिपेढिया अट्ट जोयणाई आयामविक्खंसेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमइ वण्णओ तीए उवरिं महं एगे सीहासणे वण्णओ तस्सुवरि महं एगे विजयदूसे सव्वरयणानए वण्णओ तस्स मज्झदेसभाए एगे वइरामए अंकुसे एत्थ णं महं एगे कुम्भिक्के मुत्तादाने से णं अण्णेहिं तदधुञ्चत्तप्पमाणमित्तेहिं चडहिं अद्धकुम्भिक्केहि मुत्तादामेहि सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते तेणं दासा तवणिज्जलंबूलगा सुवण्णपय रगमंडिया णाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवलोभिया लसुदया ईसि अण्णमण्णमसंपत्ता पुव्वाइएहि वाहिं मंदं २ एइज्जलाणा जाव णिन्वुइकरेणं सदेणं ते पएसे आपरेमाणा २ जाव अईव उवसोभेमाणा २ चिटुंति ति तस्ल णं सीहासणस्स अवरुपारेणं उत्तरेणं उत्तर
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ५ पालकदेवेन शक्रज्ञानुसारेण विकुर्वणादिकम् ६३३ पुरस्थिमेगं एत्थ णं सकस्स चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं चउरासीइ भदासणसाहस्सीओ,पुरस्थिमेणं अटण्हं अग्गमहिसीणं एवं दाहिण पुरस्थिमेणं अभितरपरिसाए दुवालसहं देवसाहस्तीणं दाहिणणं दाहिणेयं मज्झिमाए चउदसण्हं देवसाहस्लीणं,दाहिणपञ्चत्थिमेणं बाहिरपरिसाए सोलसण्हं देवसाहस्सीणं पञ्चस्थिमेणं सत्तण्हं अणिआहिवईणं त्ति आयरक्खदेवसाहस्तीणं एवमाई विभासिअब्बं सुरिआभगमेणं जाव पच्चप्पिणति ति ।।सू. ५॥
छाया-ततः खलु पालको देवः शक्रेग देवेन्द्रेण देवराजेन एवमुक्तः सन् हृष्ट तुष्ट यावत् वैक्रियसमुद्घातेन समवहत्य तयैव करोति, इति तस्य खलु दिपस्य यानविमानस्य त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकाः वर्णकः 'तेषां खलु प्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं तोरणा यावत् प्रतिरूपा १' तस्य खलु यानविमानस्य अन्तः वहुसमरमणीयो भूमिभागः स यथा नाम आलिङ्गपुष्कर इति या यावत् दीपितचर्मइति चा, अनेकशंकुकीलकसहस्रवितते, आर्तप्रत्यावर्तश्रेणि प्रश्रेणि सुस्थित सौवस्थिकधमान पुष्यमा क मस्यण्डकमकरण्डकजारमार पुष्शवली पनपत्र सागरतरङ्ग वासन्तीलतापमलवाभक्तिचित्रैः सच्छायैः सप्रभैः समरीचिकैः सोधोतैः नानाविधपञ्चवर्णैः मणिभिः उपशोभित : २' तेषां खलु माणीनां वर्णों गन्धः मध्यदेशभागे प्रेक्षागृहमण्डपः अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टे वर्णको यावत्प्रतिरूपः । तस्योल्लोकः पालना भक्तिचित्रो यावत्सर्वतपनीयमयः यावत्प्रतिरूपः । तस्य खलु मण्डपस्य बहुसमरमणीयस्य बहुमध्यदेशभागे महती एका मणिपीठिका अष्ट योजनानि आयामविष्कम्भेण चत्वारि योजनानि वाहल्येन सर्वमणिमयीवर्णकः, तस्या उपरि महदेकं सिंहासनम् वर्णकः तस्योपरि महदेकं विजयदूप्यं सर्वरत्नमय वर्णका, तस्य मध्यदेशभागे एको वज्रमयः अंकुशः, अत्र खलु महान् एकः कुम्मिको मुक्तादामः, स खलु अन्यैः तदर्द्ध चतुः प्रमाणमितैश्चतुर्भिरर्द्धकुम्भिकैः, मुक्तादामभिः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षितः, ते खलु दामानः तपनीयलंबूपकाः सुवर्णपत्रकमण्डिताः नानामणिरत्न विविधहारार्द्धहारोपशोभिताः समुदयाः अन्योन्यमसंप्राप्ताः पूर्वादिकैः वातैः मन्दमेजमाना एजमाना यावत् निवृत्तिकरेण शब्देन तान् प्रदेशान् आपूर्यमाणा आपूर्यमाणाः यावददीवोपशोभमाना, उपशोभमानास्तिष्ठन्तीति, तस्य खलु सिंहासनस्य अपरोत्तरेण उत्तरेण उत्तरपौरस्त्येन अत्र खलु शक्रस्य चतुरशीतेःसामानिकसहस्राणां चतुरशीतिः भद्रासनसहस्राणि पौरस्त्येन अष्टानामग्रमहीपीणाम्, एवं दक्षिणपौरस्त्येन आभ्यन्तरपरिषदो द्वादशानां देवसहसाणां दाक्षिणात्येन मध्यमाया चतुर्दशानां देवसहस्राणां दक्षिणपाश्चात्येन बाह्यपरिषदः पोडशानां देवसहस्राणां पाश्चात्येन सप्तानाम् अनीकाधिपतीनाम् इति, ततः खलु तस्य सिंहासनस्य चतुर्दिश चतसृणां चतूरशीतीनामात्मरक्षकदेवसहस्राणाम् एवमादि विभापितव्यम्
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છ
सूर्याभगमेन यावत्प्रत्यर्पयन्ति इति ।। . ५ ॥
टीका- 'तणं से पालए देवे सक्केणं देविदेणं देवरण्णा एवं वृत्ते समाणे हट्ट तह जाव उब्वियसमुग्धारणं समोहणित्ता रुहेव करेड़' ततः शक्रादेशस्वीकारान्तरं खलु स पालको 'देवः शक्रेण देवेद्रेण देवराजेन एवम् उक्तप्रकारेण उक्तः कथितः सन् दृष्ट तुष्ट यावत् वैक्रियसमुद्घातेन विकुर्वणा शक्त्या समवहत्य कृत्वा तथैव करोदि शक्राज्ञप्त्यनुसारेणैव पालकविमानं निर्मातीत्यर्थः, अत्र यावत् पदात् चित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्पवशविसर्पद हृदयः इति ग्राह्यम्
जम्बूद्वीपप्रतिसूत्रे
ar विमानस्वरूपवर्णनायाह - 'तस्स णं' इत्यादि 'तरस णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स तिदिसि तओ तिसोवाणपडिख्वगा वण्णओ' तस्य खलु दिव्यस्य यानविमानस्य त्रिदिशि भागत्रये त्रयः त्रिसोपानप्रतिरूपकाः अतिरम्य सोपानत्रयमित्यर्थः वर्णकः अस्य वर्णनं बोध्यम् 'तेसि णं पडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं तोरणा वण्णओ जाव पडिरून' तेषां खलु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः अग्रे प्रत्येकं प्रत्येकं तोरणानि वहिर्द्वाराणि 'मेरुराव' इति भाषा
'तएण से पालए देवे सक्के णं देविदेणं देवरण्णा'
'तए णं से पालए देवे सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा एवंवुत्ते समाणे' देवेन्द्र देवराज शक्र द्वारा इस प्रकार से कहे उस पालक देवने 'हट्ट तुट्ट जाव वेउच्चिय समुग्धारणं समोहणित्ता तहेव करेह' हृष्ट-तुष्ट यावत् होते हुए वैक्रिय समु धान करके उसी तरह से ग्रान विमान का निर्माण किया 'तस्ल णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स तिदिलि त तिमोवाणपडिबगा वण्णओ' उसने उस दिव्य यान विमान की तीन दिशाओं में तीन सोपान प्रतिरूपकों की विकुर्वणा की उसका वर्णन यहां पहिले कहे गये वर्णन के अनुसार कहलेना चाहिये 'तेसिं णं पडिख्वगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा वष्णओ जाब पडिवा' इन तीन त्रिसोपानप्रतिरूपकों के अतिरम्य सोपानत्रय के आगे अर्थात् प्रत्येक सोपानत्रय के वहिद्वारों - महराबों की विकुर्वणा की इनका वर्णन 'प्रतिरूप' पद तक
'तरण से पालए देवे सक्केण देविंदेणं देवरण्णा' इत्यादि
'तएणं से पालए देवे सक्केणं देवि देणं देवरण्णा एवं वुने समाणे' देवेन्द्र देवराज
शहू वडे या प्रभो यज्ञस थयेला ते पास हवे 'ह तुहू जात्र वेउच्चित्रसमुग्धाएणं समोह णित्ता तहेव करेइ' हृष्ट तुष्ट व थयेला ते पाहा देवे वैयि समुद्यात अने भाज्ञा भुलभ यान-विभाननी विश्र्वा हरी. 'तस्स णं दिव्यस्स जाणविगाणस्स तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिवगा वण्णओ' तेथे ते हिन् यान-विभाननी ऋणु द्विशामभां ત્રણ સોપાન પ્રતિરૂપની વિધ્રુણા કરી. અહીં પહેલાં મુજબ જ વર્ષોંન સમજી લેવુ’ २ तोरणा वण्णको जाव पडिवा' या शु
ની સામે એટલે કે પ્રત્યેક સોપાન યન
5 मे. 'ठेसिणं पविगण पुरओ पत्तेयं ત્રિસોપાન તિરૃપકેાન અતિ રચ ોપાન
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ५ पालकदेवेन शक्रमानुसारेण विकुर्वणादिकम् ६३५ प्रसिद्धानि वर्णको यावत्, प्रतिरूपाणि-अतिरम्याणीत्यर्थः 'तस्स णं जाणविमाणस्स अंतोबहुसमरमणिज्जे भूमियागे' तस्य खल्लु यानविमानस्य अन्तः मध्ये बहुसमरमणीये भूमिभागे 'से जहानामए अलिंगपुक्खरेइ वा जाव दीविअचम्मेइ बा, स यथानामकः, अलिङ्गपुष्कर इति वा अतिरम्य कमलमिति बा, यावत् दीपित चर्म इति वा 'अणेगसंकुकीलकसहस्स वितते' अनेक शङ्ख कोलकसहस्त्र विततः अनेकसहनशकुकीलकविस्तृतः 'आवडपञ्चावडसेढिपसे दि गुत्थिय सोवत्थिा बद्धमाण पूसपाणमच्छंडगमगरंडग जारमारफुल्लावलीपउमपत्तसागरतरंगवसंतलयपउमलयभत्तिचित्तेहिं' आपत् प्रत्यापत् श्रेणिप्रवेणि सुस्थितस्वस्तिक वर्द्धमानपुष्यमाणमत्स्यण्डकमकरण्डक जारमार पुष्पावलीपापनसागरतरंगवासन्तीलता पद्मलता भक्तिचित्रः, तत्र आपत् प्रत्यापद श्रेणीप्रश्रेणीपु विमानस्य आरोहणप्रत्यारोहणतोपानप्रसोपानकदेशेषु स्थितानि यानि स्वस्तिकादि पन्नलतानां भक्तिचित्राणि विभागचित्राणि तैः, तथा 'सच्छाएहि' सच्छायैः छायासहितैः 'सप्पभेहि सप्रभैः प्रभायुक्तैः 'समरीइएहि' समरीचिकैः किरणयुक्तैः 'सउज्जोएहि सोद्योतः उधोतसहितैः ‘णाणाविहपंचवण्णेहि मणीहिं उबसोभिए' नानाविधपञ्चवर्णैः मणिभिः पञ्चवर्णात्मकैः अनेकरत्नरुपशोभितः स जैसा पीछे किया गया है-बैलाही वह यहां पर कर लेना चाहिये 'तस्स णं जाणविमाणस्त अंतो बहुलमरमणिज्जे भूमिभागे उस यान विमान के भीतर का भूमिभाग बहुसमरमणीय था से जहा नामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाच दीवियचम्मेह वा वह भीतर का भूमिभाग ऐसा बहुसमरमणीय था जैसा कि मृदङ्ग का मुख एवं यावत् चीता का चमडा होता है 'अणेग संकुकीलक सहस्स वितते' उस यान विमान को हजारों कीलों और शंकुओं से मजबूत किया गया था 'आवडपच्चाबड सेढिपसेढि सुत्थिअसोवत्थियवद्धभाणपूसमाणव मच्छंडगमगरंडग जार भारफुल्लावलीपउमएत्त सागरतरंगवसंतलय पउमलय भत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरोहएहि सउज्जोएहिं जाणाविह पंचधणेहि मणीहि उवसोभिए' इस सूत्रपाठ से लेकर 'तेसिंणं मणीणं वण्णे गंधे, फाले, य आणिय' इस मलिशिनी विव। ४. 2 दानु वन 'प्रतिरूप' ५४ सुधा २ प्रभारी पडसा २५ट ४२पामा गाव छ, ते ६ मही ५ सम पु नये. 'तस्स णं जाव विमाणस्स अंतो वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे' ते यान विमाननी महरनो भूमिमा माई सभरभणीय हता. 'से जहानामए आलिंगपुरखरेइ वा जाव दीवियचम्मेइ वा' ते मरना ભૂમિ ભાગ મૃદંગ મુખ યાવત્ ચિત્તાના ચર્મ જેવો બહુ સમરમણીય હતે. અને संकु कीलकसहस्सवितते' ते यान विमानन ॥ lal भने शत्रुगना भाभ! सामे 2ी शत शत भामृत ४२वामा मासु तु. 'आवडपच्चावडसोढिपसेढि सुत्थि अ सोवत्थियवद्धमाण पूसमाणव मच्छंडगमगरंडग जारमारफुल्लावलीप उमपत्तसागरतरंगवसंतलयपउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहि समरीइएहिं सउन्नोएहिं
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জুড়ীৰমঞ্জরি यानविमानः 'तेसि णं मणीणं वण्णो गंधे फासे य माणियन्वे जहा रायपसेणइज्जे तेषां खलु मणीनां वर्णो गन्धः स्पर्शश्च भणितव्यो यथा राजप्रश्नीये द्वितीयोपाङ्ग, त्रिसोपानादि वर्णको जीवाभिगमादौ विजयद्वारवर्णने द्रष्टव्यम् अत्र प्रेक्षा गृहमण्डपवर्णनाय ग्राह 'तस्स णं' इत्यादि 'तस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए पिच्छाघरमंडये अणेगखेमसरांण्णिविटे वण्णो जाव पडिरूवे' तस्य खलु भूमिभागस्स बहुमध्यदेशभागे प्रेक्षागृहमण्डपः अनेकस्तम्भशतसन्निविष्ट:- अनेकशतानि स्तम्भाः सन्निविष्टाः संलग्नाः यत्र सोऽनेकशतस्तन्भसन्निविष्टः वर्णको यावत् प्रतिरूपः अतिशयमनोहर इत्यर्थः उपरिभागवर्णनाय प्राह-'तस्रा उल्लोए' इत्यादि 'तस्स उल्लोए पउमलयभतिचित्ते जाव सव्यतवणिज्जमए जाव पडिरूवे' तस्योल्लोकः उपरिभागः पद्मलता भक्तिचित्रः यावद् सर्वात्मना तपनीयगयः सुवर्णमयः यावत्प्रतिरूपः अतिरम्यः, अत्र प्रथम यावत् शब्देन अशोकलता भक्तिचित्रः इत्यादीनां संग्रहः-द्वितीय यावच्छन्देन 'अच्छे सण्हे' अच्छ: स्वच्छ: श्लक्ष्णः, इत्यादीनां संग्रहः
अथात्र मणिपीठिकावर्णनाय प्राह-'तस्स णं' इत्यादि 'तस्स णं मंडवस्स बहुसमरमणिसूत्रपाठ तक का सब वर्णन पहिले 'जहा रायप्पसेणइज्जे' राजप्रश्नीय सूत्र में किया जा चुका है सो वहीं से देखलेना चाहिये यही बात 'जहा रायप्पसेणइज्जे' इस सूत्रपाठ द्वारा सूचित की गई है। 'तस्स भूमिभागस्स बहुमज्झ. देसभाए पेच्छाघरमंडवे अणेग खंभसयसन्निविटे चण्णओ जाव पडिख्वे' इस भूमिभाग के ठीक बीचबीच में उसने प्रेक्षागृह मंडप जो कि सैकड़ों स्तम्भों से युक्त था विकुर्वित किया इसका वर्णन यावत् प्रतिरूप पद तक जैसा पहिले किया गया है वैसा ही वह यहां पर भी करलेना चाहिये 'तस्स उल्लोए पउमलय भत्तिचित्ते जाव सव्व तवणिज्जमए जाव पडिल्वे' इस प्रेक्षागृह मंडप का ऊपरिभाग पद्मलता आदि के रचना से विचित्र था और सर्वात्मना तपनीयमय 'सुवर्णमय, था यावत् प्रतिरूप-अतिरम्य था 'तस्ल णं भंडवस्स बहुसमरमणिणाणाविहपंचत्रणेहिं मणीहि उवसोभिए' मा सूत्रपाथी भान. 'तेसिणं मणीणं वण्णे गंधे, फासे, य भाणियव्वे' मा सूत्रपा४ सुधीनु मधु न पडेट रार પ્રશ્રીય સૂત્રમાં કરવામાં આવેલું છે. તે જિજ્ઞાસુ વાચકે ત્યાંથી જ જાણવા પ્રયત્ન કરે. मेला वात 'जहा रायपसेणइज्जे' मा सूत्र५.४ 43 सूयित ४२वामी मावी छे. 'तस्स ण भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए पेच्छावरमंडवे अणेगखंभसयसन्निविटे वण्णओ जाव पडिरूवे ते भूमियागना ४ मध्य भागमा तेथे १२। स्तनाथा युद्धत प्रेक्षागृ७४ (५) વિકર્ષિત કર્યું. આનું વર્ણન યાવત પ્રતિરૂપ પદ સુધી જે પ્રમાણે પહેલા કરવામાં આવ્યું छे, तेवुन मी सभा. 'तस्स उल्लोए पउमलयभत्तिचित्ते जाव सच तवणिजमए जाव पडिरूवे' मा प्रेक्षागृह मना रनो मा पासता कोरेनी २यनाथी વિચિત્ર હતું અને સર્વાત્મના તપનીયમય–સુવર્ણમય હતે યાવત્ પ્રતિરૂપ અતીવ રમ્ય
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ५ पालकदेवेन शक्रज्ञानुसारेण विकुर्वणादिकम् ६३७ ज्नरस बहुमज्झदेस मागंसि महं एगा मणिपेढिया अट्ठजोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि. जोयणाई बाहल्लेणं सचमणिमयी वण्णओ' तस्य खलु मण्डपस्य वहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुपध्यदेशभागे महती एका मणिपीठिका अष्टौ योजनानि आयामविष्कम्भेण चत्वारि योजनानि वाहल्येन स्थूलतया चन्द्रकान्तादि सर्वमणिमयी, वर्णकः 'तीए उवरि महं एगेप्सोहासणे वण्णओ' तस्या उपरि एकं महत् सिंहासनम् वर्णकः अस्य वर्णनं विजयद्वारस्थ प्रकण्ठकप्रा. सादगतसिंहासनसूत्रवद अवसेयम् 'तस्सुवरिं महं एगे विजयदृसे सव्यरयणामए वण्णओ' तस्य सिंहासनस्वउपरि महत् एकं विजयदुष्यं-विजयवस्त्रं सर्वरत्नमयम् वर्णकः, 'तस्स मज्झदेसभाए एगे वामए अंकुसे' तस्य मध्यदेशमागे एको वज्रमयः अंकुशः, 'एत्थणं महं एगे कुंभिक्के ज्जस्स भूमिभागस्त बहुमज्झदेसभागंमि महं एगा मणिपेढिया अट्ठजोयणाई आयामविखंभेणं चत्तारिजोषणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमयी घण्णओ' इस प्रेक्षागृह मंडप का बहुसदरमणीय जो भूमिभाग था उसके ठीक बीचमें उसने एक विशाल मणिपीठिकाकी जो कि आठ योजन की लम्बी-चौढी थी और चार योजन की मोटी थी एवं सर्वात्मना मणिमय थी विकुर्वणा की इसका भी वर्णन पीछे किये गये वर्णन अनुसार ही है 'तीले उवरि महं एगे सीहासणे' वण्णओ' उस मणिपीठिका के ऊपर उसने एक विशाल सिंहासन की विषणा की इसका भी यहां पर वर्णन कर लेना चाहिये 'तस्प्नुवरि महं एगे विजय दूसे सन्वरयणामए वण्णओ' उस सिंहासन के ऊपर उसने एक सर्वरत्नमय विजय दूष्य कीविजयवस्त्र की-विकर्षणा की इसका भी वर्णन करलेना चाहिये 'तस्स मज्झदेसभाए एगे बहरामए अंकुसे' उसके ठीक मध्य भाग.में उसने एक वज्रमय
तो 'तस्स ण मंडक्रस बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्त वडुसज्झदेसभागमि महं एगा मणिपेढिया अटु जायणाई आयामविक्खभेग चत्तारि जोयणाई वाहल्लेणं सव्व मणिमयी वण्णमओ' આ પ્રેક્ષાગૃહ મંડપને જે બહુસમરમણીય ભૂમિ ભાગ હતો, તેના ઠોક મધ્યભાગમાં તેણે એક વિશાળ મણિપીઠિકાની કે જે આઠ થાજન જેટલી લાંબી અને પહોળી હતી, અને સર્વાત્મના મણિમય હતી વિકુવણુ કરી. આ મણિપીઠિકાનું વર્ણન પણ પહેલાં કરવામાં मावा पन मुरम २४ छ. 'तीसे उबरि महं एगे सीहासणे 'वण्णओ' ते भालપીઠિકાની ઉપર તેણે એક વિશાળ સિંહાસનની વિકુવણ કરી. એ સિંહાસનનું પણ અત્રે वर्णन ४री सेवु नये. 'तस्सुवरि महं एगे विजयदूते सव्वरयणामए वण्णओ' aisi સનની ઉપર તેણે એક સર્વરત્નમય વિજયદ્રષ્યના-વિજય-વસ્ત્રની-વિમુર્વણ કરી. એને ५ न ४ी से न . 'तस्स मज्झदेसभाए एगे वइरामए अंकुसे' तना ही मध्य
(१) इसका वर्गन विजयद्वारस्थ प्रकण्ठक प्रासाद्गत सिंहासन के सूत्रानु. सार जानलेना चाहिये।
(૧) આનુ વર્ણન વિજય દ્વારસ્થ પ્રકંઠક પ્રાસાદગત સુત્રાનુસાર સમજી લેવું જોઈએ,
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जम्बूदीपप्रतिसूत्रे
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मुत्तादामे' अत्र खलु महान एकः कुम्भिकः कुम्भपरिमाणो मुक्तादामा मुक्कामाला, 'से गं अन्नेहिं तद्युच्चत्तपना गमितेहिं चउहिं अक्कुंमिक्केर्हि मुत्तादामेहि सच्चओ समता संपरि क्लित्ते' स खलु मुक्तादामा अन्यैस्नदर्द्ध चतुःप्रमाणमितैः, चतुर्भिरर्द्धकुमिकैर्मुक्तादामभिः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः सम्यक्युक्तः इत्यर्थः, 'ते णं दामा तत्रणिज्जलंबूसगा' ते खलु दामानः, तपनी लम्बूकाः तत्र लम्वूपः कन्दुकाकारआभरणविशेषः तथा च सुवर्णनिर्मित कन्दुकाकाराभरणैः इत्यर्थः 'सुवण्णपयरगमंडिया' सुवर्णपत्रक्रमण्डिताः सुवर्णपत्रकैः शोभिताः 'णाणामणिरयणविचिहद्दारद्धहारउवसोभिया' नानामणिरत्नविविधहारार्द्धहारोपशोभिताः मण्डिता इत्यर्थः 'समुदया' समुदायाः 'इसि अण्णमण्णमसंपत्ता' इपद् अन्योन्यमसंप्राप्ताः 'पुण्याइएहिं मंदं एइज्जमाणा मंदं एइज्जमाणा' पूर्वादिकैः वातैः वायुभिः मन्दमेजमाना मन्दमेजमाना स्वल्पं यथास्यात्तथा कम्पमाना इत्यर्थः जाव निव्वुइकरेगं सदेणं ते परसे आ पूरेमाणा आपूरेमाणा' यावत् निर्वृतिकरेण शब्देन तान् प्रदेशान् अपूरयन्त आपूरयन्तः अत्र यावत्पदात् अंकुश की विकुर्वणा की 'एत्थ नहं एगे कुम्भिक्के सुत्तादामे' यहां फिर उसने कुम्भ प्रमाण एक विशाल मुक्ता मालाको विकुर्पणा की 'से णं अण्णेहिं तदद्युच्चत्तम्पमाणवित्तहिं चउहिं अद्धकुम्भिकेहि मुतादामेहिं सवओ समता संपरिक्खिते' यह मुक्कामाला अन्य मुक्कामालाओं से जो अपने प्रमाण से ऊंचाई में आधो थां और चार अर्धकुम्भ परिमाणवाली थी चारों ओर से अच्छी तरह से घिरी हुई थी 'तेगं दामा तवणिज्ज लंबूसगा सुवर्णपरमंडिया णाणामणिरयण विविहारद्वहारज्यत्तोभिया समुद्घा ईसि अण्णमण्णम संपत्ता पुत्रवाइएहिं बाएहिं मंद २ एइज्जमाणा जाब निव्वुइकरेणं सद्देणं ते पसे आपूरेमाणा २ जाब अईवडवसोममाणा २ चिति ति' ये मालाएं तपनीय सुवर्णनिर्मित कन्दूक के जैसे आभरण विशेषों से सहित धी सुवर्ण के पतरकों से मण्डित थीं नाना मणियों से, अनेक प्रकार के हारों से लागभां ते थे! वक्रभय अशनी विदुषा ४री. 'एत्थणं महं एगे कुम्भिके मुत्तादामे' અહીં ફરી તેણે કુમ્ભપ્રમાણ એક વિશ.ળ મુક્તામાળાની વિકુણા કરી તે નં અળદ્િ तदद्युच्चत्तप्पमाणभित्तेहि ं चउहि अद्धकुम्भिक्केहिं मुत्तादामेहिं सव्चओ समंता संपर વિષ્ણુપ્તે આ મુક્તામાળા અન્ય મુક્તામાળાઓની અપેક્ષા પ્રમાણમા ઉંચાઈમા અધી હતી અને ચાર અ કુંભ પરિમાણવાળી હતી. ચેમેર સારી રીતે પરિવૃત હતી. 'तेणं दामा तवणिज्जलवूसगा सुवण्णपयरग मंडिया णाणामणिरयणविविहहारहारउवसोमिया समुदया ईसि अण्णमण्णम संपत्ता पुत्राइएहि वाहिं मंदं २ एइज्जमाणा जाव निव्वुइकरेणं सद्देणं ते पसे अपूरेमाणा २ नाव अईय उसोभमाणा २ चिट्ठति' એ માળાએ તપનીય સુવણુ નિર્મિત મન્દુક જેવા આભરણુ વિશેષેથી સમલ કૃત હતા. સુવર્ણના પત્રોથી મ"ડિત હતી. વિવિધ મણિએથી, વિવિધહારાથી, અહહારાથી ઉપશે
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कार सू. ५ पालकदेवेन शमशानुसारेण विकुर्वणादिकम् ६३१ 'वेइज़माणा- वेइज्जमाणा पलंबमाणा २ पझंझमाणा २ ओरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं' इति संग्रहः व्येज्यमाना २ प्रलम्बमानाः २ एझंझमाणा २ शब्दं कुर्वन्तः २ उदारेण मनोज्ञेन मनोहरेण 'जाव अईव २ उवमोभेषाणा २ चिट्ठतित्ति' यावत् अतीव २ उवशोभमाना: २ तिष्ठ: न्तीति, यावत्यदात् “ससिरीए' सश्रीकाः इतिग्राह्यम् । ।
सम्प्रति अनास्थाननिवेशनप्रक्रियामाह-'तस्य गं' इत्यादि 'तस्स णं सीहासणः स्स अवरुत्तरेणं' तस्य खलु सिंहासनस्य अपरोत्तराया अत्र इत आरभ्य सर्वत्र सप्तम्यर्थ तृतीया, तभाव-अपरोत्तराणां वायव्यामित्यर्थः 'उत्तरेणं'-उत्तरस्मात् 'उत्तरपुरस्थिः मेणं' उत्तरपूर्वायाम् ऐशान्याम् एत्य णं सक्कस्म चउरासीए सामाणिअसाहस्सीणं चउरासीए भदासणसाहस्सीओ' अत्र खलु शक्रस्य चतुरशीतेः सामानिकसहस्त्राणां चतुर शीतिसहस्रसंख्यकसामानिकानाम् उक्तदिनये चतुरशीतिभद्रासनसहस्राणि चतुरशीति. सहस्रसंख्यक भद्रासनानि 'पुरत्धिमेणं अट्ठण्डं अग्गमहिसीणं' पूर्वस्यां दिशि अष्टानामग्रमहिपोणाम् अष्ट भद्रासनानि ‘एवं दाहिणपुरस्थिमेणं अभितरपरिमाए दुवालसण्हं देवसाहअर्द्धहारों से उपशोभित थी अच्छे उदयवाली श्री-सुन्दर ढंग से बनी हुई थी और आपस में एक दूसरी माला से थोडी थोडी दूर थी पुरवाई हवासे ये मन्द मन्द रूपमें हिल रहीं थी इनके टकराने से जो शब्द निकलता था-वह कर्णइन्द्रिय को बडा आनन्द प्रद लगता था ये अपने आसपास के प्रदेश को सुगंधित कर रही थीं इस तरह से ये मालाएं वहां पर थी यहां पाठ में आगत यावत पाठ से 'देइज्जमाणा पलंदाणा, पझंझमाणा, ओरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं 'यह पद गृहीत हुआ तथा द्वितीय शावत्पाठ से 'सस्सिरीए' इस पदका ग्रहण हुभा है 'तस्स णं सीहासणस्त अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थर्ण सक्यारह चउरासीए सामाणियसाहस्तीणं चउरासीइ भद्दासणसाहस्सीओ, पुरथिमेगं अटण्हं अग्गमाहिसीणं एवं दाहिण पुरथिमेणं अभितरपरिसार दुभलमन्हं देव साहस्सीणं' उस सिंहासन के वायव्यकोने में, उत्तरदिशा ભિત હતી. સારા ઉદયવાળી હતી, સુંદર રીતે તૈયાર કરવામાં આવી હતી અને પરસ્પર એક બીજી માળાથી પરેવાઈ હોવાથી સંઘક્રિત થઈને મંદ-મંદ રૂપમાં હંલી રહી હતી. એમની પરસ્પર સંઘટ્ટનાથી જે શબ્દ નીકળતું હતું તે અતીવ કર્ણ મધુર લાગતું હતું. એ માળાઓ પિતાના આસ-પાસના પ્રદેશને સુગંધિત કરતી હતી. એ પ્રમાણે એ भाना त्यांनी. मा ५४मारे यावत् शाह मावे। छे, तेनाथी 'वेइज्जमाणा, पलं बमाणा, पझंझमाणा, ओरालेणं मणुण्णेणं, मणहरेणं' मा पा गृहीत थयेटी छ. तभ मी यात पाथी 'सस्सिरीए' मा ५४नु र थयु छ. 'तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थणं सक्कस्स चउरासीइ भद्दासणसाहस्सीओ पुरस्थिमेणं अटण्हं अग्गमहिसीणं एवं दाहिणपुरस्थिमेणं अभितरपरिसाए दुवालसण्हं देवसाहस्सीणं'
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હૃદ
अम्बूतिसूत्रे
हसणं' एवम् दक्षिणपूर्वायाम् अग्निकोणे अभ्यन्तरपपदः, सम्बन्धिनां द्वादशानां देवसहस्राण द्वादश भास सहस्राणि 'दाहिणे णं मज्झिमाए चउदसहं देवसाहस्तीर्ण' दक्षिणस्यां मध्य मायाः पर्पदः सम्बन्धिनां चतुर्दशानां देवसहस्राणां चतुर्दशभद्रासन सहस्राणि 'दाहिणपञ्चत्थिमेवं बाहिरपरिसाए सोसण्डं देवसाहस्सीणं' दक्षिणपश्चिमायां नऋतकोणे वाह्यर्पदः सम्बन्धिनां पोडशानां देवसहस्राणां पोडशभद्रासन सहस्राणि 'पच्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणिआदिवइति' पश्चिमायां सप्तानां अनीकाधिपतीनां सप्तभद्रासनानीति 'वए णं तस्स सीहासणस्स चउद्दिसिं उन्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं' ततः प्रथमवल्यस्थापनानन्तरं द्वितीये वलये तस्य सिंहासनस्य चतुर्दिशि चतसृणां चतुरशीतीनां चतुर्गुणीकृत चतुरशीतिसंख्याकानाम् आत्मरक्षत्र, देवसहस्राणां पट्त्रिंशत्सहस्त्राधिकलक्षत्रयमितानाम् आत्मरक्षकदेवानामित्यर्थः, पत्रिंशत्सहस्राधिकलक्ष त्रयमितानि भद्रासनानि विकुर्वितानि इत्यर्थः, 'एवमाई विभासिन्यं सूरिआगमेणं जाव पच्चपिणेड़' एवमादि विभापितव्यम् - इत्यादिवक्तव्यम् सूर्याभगमेन यावत्प्रमें, इशान दिशा में, शक्र के ८४ हजार सामानिक देवों के ८४ हजार भद्रासन पूर्वदिशा में आठ अग्रमहिषियों के आठ भद्रासन, अग्निकोण में आभ्यन्तर परिपदा के १२ हजार देवों के १२ हजार भद्रासन 'दारिणेण मज्झिमाए चउदसण्हं देव साहसणं, दाहिण पच्चत्थिमेणं बाहिरपरिसाए सोलसहं देवसाहस्सीणं पच्चत्थिमेण सत्त अणिआहिवईणनि दक्षिणदिशा में मध्यपरिषदा के १४ हजार देवों के १४ हजार भद्रासन और नैर्ऋतकोण में बाह्यपरिषदा के १६ हजार देवों के १६ हजार भद्रासन तथा पश्चिमदिशा में सात अनीकाधिपनियों के सात भद्रासन स्थापित किये 'तणं तस्म सीहासणहस चउद्दिसिं चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवलाहस्सीणं एवमाई विभासिन्वं सूरियाभरामेणं जाव पच्चपिर्णतित्ति' इसके बाद उसने उस सिहासन की चारों दिशाओं में ८४८४ हजार आत्मरक्षक देवों के ८४-८४ हजार भद्रासन अपनी विकुर्वणा शक्ति
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તે સિહાસનના વાયવ્ય કાણુમાં, ઉત્તર દિશામાં, ઈશાન દિશામાં શક્રના ૮૪ હજાર સામાનિક દેવાના ૮૪ હજાર ભદ્રાસના પૂર્વ દિશામાં, આઠે અગ્રમહિષીએના આઠ ભદ્રાસના અગ્નિકાણુમાં આભ્યતર પરિષદાના ૧૨ હજાર દેવાના ૧૨ હેજાર ભદ્રાસના 'दाहिणेणं मज्झिमाए चउदसहं देवसाहम्सोणं, दाहिणपच्चत्थिमेगं बाहिरपरिसाए सोल सण्डं देवसाहस्सीणं पच्चत्थिमेणं सत्तहूं अणिआहिवईणति' दृक्षिणु हिशामां, मध्य परि વઢના ૧૪ હજાર દેવાના ૧૪ હજાર ભદ્રાસને અને નેતકણમાં ખાદ્ય પરિષદાના ૧૬ હર દેવાના ૧૬ હેજાર ભદ્રાસના તથા પશ્ચિમ દિશામાં સાત અ કાધિપતિઓના सात भद्रासना स्थापित र्ध्या 'तएणं तस्स सीहासणस्य चउद्दिसिं चउन्हं चउरासीणं आयर क्खदेव साहुम्सीणं एवमाई विभासिअव्वं सूरियाभगमेणं जाव पच्चविणंति त्ति' त्यार તેણે તે સિંહાસની ચેમેર ૮૪-૮૪ હજાર આત્મરક્ષક દેવેના ૮૪૮૪ હજાર ભદ્રાસને
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः स. ५ पालकदेवेन शक्राक्षानुसारेण विकुर्वणादिकम् ६४१ त्यर्पयति, समर्पयति स पालको देवः यावत्पदसंग्रहश्चायम् 'तत्सणं दिव्यस्स जाणविमाणस्स इमे एयासवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहा णामए अइरुग्गयस्म हेमंतिअवालसरिअस्स खाइलिंगालाणवा रत्ति पन्जलिआणं जासुमणवणस्स वा केसुभवणस्स वा पलिजायवणस्स वा सधओ समंता संकुलमिभस्म भवेएयारूवेसिया १५ णो इणद्रे समहे, तस्स णं दिस्स जाणविमाणस्स इत्तो रट्टतराए चेच ४ वण्णे पण्णत्ते गंधो फासो जहा मणीणं, तए णं से पालए देवे तं दिव्वं जाणनिमाणं विउवित्ता जेणेव सक्के ३ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्तो सक्कं ३ करयलपरिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ वद्धावित्ता तमाणत्ति, इति अत्र व्याख्या-तस्य खल दिव्यस्य यानविमानस्य अयमेतद्रूपो वर्णव्यास: प्रज्ञप्तः स यथानामकोऽचिरोद्तस्य तत्कालोदितत्य हैमन्तिकस्य हेमन्तकालसम्वन्धिनो बालसूर्यस्य खादिराङ्गाराणां वा खदिरसम्बन्धिनामग्निनाम् ‘रत्ति' सप्तम्यर्थे द्वितीया रात्री प्रज्वलिता. से स्थापित किये इत्यादि रूपसे यह लव कथन सूर्याभ देव के यान विमान के प्रकरण में कहे गये पाठ के अनुसार प्रत्यर्पयन्ति' इस क्रियापद तक जानना चाहिये यहां का पाठ इस प्रकार से है जो यहां यावत्पद से गृहीत हुआ है 'तस्स णं दिध्वस्त जाणविमाणस्ल इमे एयारवे वण्णावासे पण्णत्ते-से जहाणामए अइरुग्गयस्त हेमंतिय पाल सरियस्स खाइलिंगालाण वा रत्ति पज्जलिआणं जासुमणवणस्त वा केस्नुअवणासचा पलिजायवणस्त वा सव्वओ समंता संकुसुमिअस्स, भवेएघारूवे लिया ? जो इणटे समझे, तस्ल णं दिव्यस्स जाणविमाणस्स इसो इतराए चेक ४ वणे पणते, गंधो फासो अजहा क्षणीणं, तए णं से पालए देवे तं दिव्वं जाणविमाणं विउवित्ता जेणेव सक्के ३ तेणेव उवागच्छइ २ उवागच्छित्ता सक्कं ३ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जए णं विजएणं वदावेद वद्धावित्ता तप्राणत्तिअं' इस पाठ की व्याख्या इस प्रकार से है-उस दिन यान विमान का वह इस प्रकार का वर्ण वर्णक है-जैसा तत्काल પિતાની વિમુખ્ય શક્તિથી સ્થાપિત કર્યા વગેરે રૂપમાં આ બધું કથન સુભદેવના यान-विभान प्रश्रय भावाभा मावस या प्रमाणे प्रत्यर्पयन्ति' 21 या ५६ सधी तशी स . त्या ते पा8 20 प्रमाणे छ. २ मा यावत् ५४थी गृहीत थये। छे-'तस्स ण तस्स दिव्वस्स जाणविमाणस्स इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहाणामए अइरुगगयस्स हेमंतियवालसरिनस्स खोइलिंगालाण वा रत्ति पञलिआणं जासुमणवणस्स वा केसूअ वणस्स वा पलिजायवणस्स वा सव्वओ समतो संकुसुमिअस्स भवेयारूवे सिया ? णो इणदें समटे तस्स णं दिव्वस जाणविमाणस्स इत्तो इतराए चेव ४ वण्णे पण्णत्ते, गंधो फासो अ जहा मणीणं, तए णं से पालएदेवे तं दिव्य जाणविमोणं विउव्वित्ता जेणेव सक्के३ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सक्कं ३ कश्यलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धावेइवद्धावित्ता तमाणत्तिमा पानी व्यायामा प्रमाणे छे. ते हिव्य यान-विमानने वવર્ણક–જે પ્રમાણે તત્કાલ ઉદિત થયેલા શિશિર કાળના બાલ સૂર્યને કે રાત્રિમાં પ્રજવલિત
ज० ८१
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ફગ
अम्बूद्वीपप्रज्ञतिसूत्रे
नाम् जपावनस्य वा किंशुकवनस्य वा पारिजातवनस्य वा कल्पद्रुमत्रनस्य वा सर्वतः समन्तात् सम्यक् कुसुमितस्य, अत्र शिष्यः पृच्छति भवेदेतद्रूपः स्यात् कदाचित् छरिराह - नायमर्थः समर्थः तस्य खलु दिव्यस्य यानविमानस्य इत इष्टतरक एव कान्ततरक एवेत्यादि प्राग् वत् वर्णः प्रज्ञप्तः गन्धः स्पर्शश्च यथा प्राङ् मगीनामुक्तस्तथा यान विमानस्यापि वक्तव्यः, अत्र पालकविमानवर्णके प्राक् मणीनां वर्णादयः उक्ताः पुनर्विमानवर्णकादिकथनेन पुनरुक्तिर्न शङ्कनीया, पूर्वंहि अवयवभूतानां मणीनां वर्णादगः प्रोक्ताः सम्प्रति अवयविनो विमानस्येति प्रोक्तशङ्काया अनवसरत्वात्, ततः खलु स पालको देवः तं दिव्यं यानविमानं विकुर्व्य यत्रैव शो देवेन्द्रो देवराजस्तत्रैव उपागच्छति उपागत्य शक्रं देवेन्द्रं देवराजं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तके अंजलि कृत्वा जयेन विजयेन च वर्द्धयति वर्द्धयित्वा तामाज्ञप्तिकामिति यावत् पदग्राह्यसूत्रार्थः ॥ ०५ ॥
उदित हुए शिशिरकाल सम्बन्धी बाल सूर्यका, या, रात्रि में प्रज्वलित खदिर के अंगारों का या सब तरफ से कुसुमित हुए जपादन का या किंशुक (पलाश) के वन का, या कल्पद्रुमों के वनका वर्ण होना है वैसा ही इसका वर्ण था तो क्या हे भदन्त ! यह बात इसमें इसी प्रकार से सर्वथा रूपमें घटित होती है ? उत्तर
प्रभु ने कहा- हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है क्योंकि उस दिव्य यान विमान का वर्ण इनकी अपेक्षा भी इष्टतरक - कान्ततरक कहा गया है इसका गंध और स्पर्श प्रागुक्त मणियों के गन्ध एवं स्पर्श के जैसा कहा गया है अवशिष्ट पाठ की व्याख्या सुगम है इस प्रकार के विशेषणों से विशिष्ट उस दिव्य यान विमान की विकुर्वणा करके वह पालकदेव जहां देवेन्द्र देवराज शक्र था वहां गया और वहां जाकरके उसने दोनों हाथों को जोडकर बडी विनय के साथ शक को जय विजय शब्दों से बधाते हुए यान विमान के पूर्ण रूप से निष्पन्न हो जाने की खबर दी ||५||
ખદિરના અંગારાને કે ચેામેરથી કુસુમિત થયેલા જપાવાનના કે કિંશુક (પલાશ) વનના કે કલ્પદ્રુમેાના વતના વણુ હાય છે તેવા જ માના વણુ હતે. તે શું કે ભદત ! આ વાત આમાં આ પ્રમાણે જ સથા રૂપમાં ઘટિત હાય છે? એના જવામમાં પ્રભુ કહે છે—કે હું ગૌતમ! આ અર્થે સમર્થિત નથી. કેમકે તે દિન્ય યાન–વિમાનના વણુ એ સ કરતાં પણ દૃષ્ટિ તરક, કાન્તરક કહેવામાં આવેલ છે. ાના ગધ તેમજ સ્પર્શી પ્રાગુપ્ત મણિએના અન્ય તેમજ સ્પર્શી જેવા કહેવામાં આવેલ છે. શેષ પાઠતી વ્યાખ્યા સુગમ છે.
આ પ્રકારના વિશેષણાર્થી વિશિષ્ટ તે દિવ્ય યાન—વિમાનની વિધ્રુણા કરીને તે પાલક દૈવજ્યાં ધ્રુવેન્દ્ર દેવરાજ શક હતા ત્યાં ગયા અને ત્યાં જઈને તેણે મને હાથેાને જેડીને વિનયપૂર્વક શક્રને જય-વિજય શબ્દથી વધામણી આપતાં યાનવિમાન પૂર્ણ રૂપમાં निष्यन्न थयुं छे, भेवी भगर आयी. ॥ ५ ॥
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशनकर्तव्यनिरूपणम् ६४३
अथ शक्रकृत्यमाह-'तए णं सक्के' इत्यादि मूलम्-त एणं सकने जाव हदहियए दिव्व जिणेदाभिगमणजुग्गं सव्वालंकारविभूलियं उत्तरवेडविरूवं विउच्वइ, विउविता अहिं अग्गमहिलाहिं सपरिवाराहि णहाणीएहिं गंधव्वाणीएण य सद्धि तं विमाणं अणुप्पयाहिणीकरमाणे करेमाणे पुबिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरूहइ दुरुहिता जाव सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहे सण्णिलण्णेत्ति, एवं चेव सामाणियावि उत्तरेणं तिसोवाणेणं दुरूहित्ता पत्तेयं पत्तेयं पुव्वण्णत्थेसु भदालणेसु णिसिअंति अवसेलाय देवा देवीओ अ दाहिणिल्लेणं तिसो. वाणेणं दुरूहित्ता तहेव जाव णिसीअंति, तएणं तस्स सकस्स तंसि दुरूढस्ल इमे अट्ट मंगलगा पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टिआ, तयणंतरं च णं पुषण कलललभिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचाभरा य दंसणरइअ आलोअदरिसणिज्जा वाउ अ विजयवेजयंतीअ समूसिआ गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुवीए संपटिआ, तयणंतरं छत्तभिंगारं, तयणंतरं च णं बरामयबट्टलटुसंठिन सुसिलिट परिघटपटूसुपइट्रिए विसि] अणेगवरपंचत्रणकुडभी सहस्लपरिमंडियाभिरामे वाउ. धुअ विजयवेजयंती पडागाछत्ताइच्छन्तकलिए तुंगे गगणतलमणुलिहंत सिहरे जोअणसहस्तमूसिए महइमहालए महिंदज्झए पुरओ अहाणुपुवीए संपत्थिएत्ति, तयणंतरं च णं सरूवनेवस्थपरिअच्छिअ सुसज्जा सव्वालंकारविभूलिआ पंच अणिआ पंच अणिआहिवइणो जाव संपट्रिआ, तयणंतरं च णं बहवे आमिओगिआ देवा देवीओ य सरहिं सरहिं रूकेहिं जाव जिओगेहिं सक्कं देविदं देवरायं पुरओअ मग्गओअ तयणंतरं च णं बहवे सोहम्मकप्पशासी देवा य देवीओ य सन्विद्धिए जाव दुरूढा समाणा मग्गोअ जाव संपटुिआ, तए णं से सक्के तेणं पंचाणिअ परिक्खित्तेणं जात्र महिंदज्झएणं पुरओ पकडिजमाणेणं चउरासीए सामाणिअ जाव परिवुडे सव्विद्धीए जाव रवेणं सोहम्मस्स
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र कप्पस्ल मज्झं मझेणं तं दिव्यं देवद्धि जाव उवदंसेमाणे २ जेणेव सोहम्मस्स कप्पल उत्तरिल्ले णिज्जाणमग्गे तेथेच उद्यानच्छा, उवागच्छित्ता जोयणसयसाहस्सीएहिं विग्गहेहिं ओवयमाणे ओवयमाणे ताए उकिटाए जाब देवगईए वीईवयमाणे वीईवयसाणे तिरियमतंखि. जाणं दीवसमुदाणं मज्झं मझेणं जेणेव णंदीसरबरे दीवे जेणेव दाहि. णपुरथिमिल्ले रहकरगपठाए तेणेत्र उबागच्छद उवामच्छित्ता एवं जा चेव सूरियाभस्स क्त्तव्वया णवरं एकाहिगारो उत्तव्यो इति जाव तं दिव्वं देविद्धिं जाव दिव्वं जाणविमाणं पडिसाहरमाणे २ जान जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मण नगरे जेणेव भगनओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तित्थयरस्त भगवओ जम्मणभवणं तेणं दिव्वेणंजाणविमाणेणं तिक्खुत्तो आयाहिणपचाहिणं करेइ, करित्ता भगवओ तित्थयरस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसीमागे बउरंगुलमसंपत्तं धरणियले तं दिव्वं जागविमाणं ठवेइ ठवित्ता अट्रहिं अगमहिसीहिं दोहिं अणिएहिं गंधवाणीएणय गहाणीएण य सद्धि ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ ।
तए णं लकरस देविंदस्त देवरपणो चउरालीई लामाणिअ साहस्सीओ दिवाओ जागविमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोपाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति अवसेसा देवा य देवीओ अ ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पञ्चोरुहंतित्ति। तए णं से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए सामाणियसाहस्सिएहिं जाव सद्धिं संपरिबुडे सव्विद्धीए जात्र दुंदुभिणियोमणाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता आलोए चेव पणामं करेइ करित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करित्ता करयल जाव एवं वयासी नमोत्थु ते , रयणकुच्छिधारए एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव धण्णासि पुण्णासि
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशनकर्तव्यनिरूपणम् ६४५ तं कयथालि अहणणं देवाणुप्पिए सक्के णामं देविंदे देवराया भगवओ तित्थयरस्ल जमणमहिलं करिस्सामि, तं गं तुभाहि ण भाइयध्वं तिकटु ओसोवणिं दलयइ दलइत्ता तित्थवरपडिरूवगं विउ.
बेइ तित्थयरमाउआए पासे ठवेइ, ठवित्ता पंच सक्के विउव्वइ विउवित्ता एगे लक्के भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ एगे सक्के पिटुमो आयवत्तं धरेइ दुवे सका उमओ पासिं वामक्खेवं करेंति, एगे सक्के पुरओ वजशाणी पकडुइति । तएणं से सक्के देविंद देवराया अण्णेहि बहुहिं भवणवइवाणमंतरजोइलिअवेमाणिएहिं देवेहिं देवी हिम सद्धिं संपरितुडे सम्बिद्धीए जाव जाइएणं ताए उकिटाए जाव वीई. वयमाणे २ जेणेव संदरे पत्रए जेणेक पंडगवणे जेणेव अभिसेअसिला जेणेव अभिसे अलीहासणे तेणेव उवागच्छद उागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णेति ।।सू० ६॥ ___ छाया-ततः खलु स शक्रो यावत् हृष्टहृदयो दिव्यं जिनेन्द्राभिगम योग्यं सर्वालंकारविभूषितम् उत्तरवैनियं रूपं विकुर्वति, विकुळ अष्टाभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः नाटयानीकेन गन्धर्वानीकेन सार्द्धम् तं विमानम् अनुप्रदक्षिगी कुर्वन् अनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पौरस्त्येन त्रिसोपानेन दूरोहति, दुरूहय यावत् सिंहासने पौरस्त्याभिमुखे सन्निषण्णः, इति एवमेव सामानिकाअपि, उत्तरेण त्रिसोपानेन दुरोहति दुरोहच प्रत्येकम् २ पूर्वन्यस्तेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति, अव शेवाश्च देवाश्च देव्यश्च दक्षिणेन त्रिसोपानेन दुरोहन्ति दुरूहय तथैवं यावत् निषीदन्ति, ततः खलु तस्य शक्रस्य तस्मिन् दुरूढस्य इमानि अष्टौ अष्टौ मङ्गलकानि पुरतः यथानुपूर्त्या संस्थितानि, तदनन्तरं च खलु पूर्ण कलश-भृङ्गारं दिव्या च छत्रपताका सचामरा च दर्शनरतिदा आलोकदर्शनीया वायूद्धृतविजयवैजयन्ति च समुच्छ्तिा गगनतलमनुलिहन्ती पुरतो यथानुपूर्व्या संप्रस्थिताः तदनन्तरं च खलु वनपय वृत्तलष्ट संस्थितमुश्लिष्ट परिघृष्ट पृष्ट सुपतिष्ठितः विशिष्टः, अनेक वरपञ्चवर्णकुडभिसहस्त्ररिमण्डिताभिरामः वातो
धूत विजयवैजपन्ति पताका छत्रातिच्छनकलितः तुङ्गः गगनतलमनुलिखच्छिखरः योजनसहस्त्रयुत्सृतः महातिमकालयः, महेन्द्रध्वजः पुग्तो यथानुपूर्व्या संप्रस्थितः इति, तदनन्तरं च खलु स्वरूपनेपथ्यपरिकच्छितानि सुसज्जानि सर्वालङ्कारविभूषितानि पञ्चानीकानि पश्चानीकाधिपायश्च यावत् संपस्थितानि तदनन्तरं च खलु बहवः, आभियोगिका देवाश्च देव्यश्च स्कैः स्वकैः रूपैः यावत् नियोगः शक्रं देवेन्द्र देवराजं पुरतश्च पृष्टतः पार्श्वतश्च यथानुपूा संप्रस्थिताः। तदनन्तरं च खल बहवः सौधर्मकल्पवासिनो देवाश्च देव्यश्च
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जम्बुद्वीपप्रप्तिपत्रे सर्वर्या यावत् दुरुढाः सन्तः मार्गतश्च यावत् संपस्थिताः । ततः खलु स शक्रः तेन पञ्चानीकपरिक्षिप्तेन यावत् महेन्द्रध्वजेन पूरतः प्रऋष्यमाणेन चतुरशीत्या सामानिकसहस्त्रैः यावत् परिवृतः सर्वद्धा यावत् रवेण सौधर्मस्य कल्पस्य मध्यं मध्येन तां दिव्यां देवद्धिम् यावत् उपदर्शयन् उपदर्शयन् यत्रैव सौधर्मस्य कल्पस्य औत्तरा निर्याणमार्गः तत्रैव उपागच्छति उपागत्य योजनशतसाहस्त्रिकैः विग्रहः, अवपतन् अवपतन् तया उत्कृष्टया यावत् देवगत्या व्यतिव्रजन् व्यतिव्रजन् तिर्यगसंख्येयानां द्वीपसमुद्राणां मध्य मध्येन यत्रैव नन्दीश्वरद्वीपः यत्रैव दक्षिणपूर्वः रतिकरपर्वतः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य एवं चैव सूर्याभस्य वक्तव्यता नवरं शक्राधिकारी वक्तव्य इति यावत् तां दिव्यां देवद्धिम् यावत् 'दिव्यं यानविमानं प्रतिसंहरन् प्रतिसंहरन् यावत् यत्रैव भगवतः तीर्थङ्करस्य जन्मनगरं यत्रैव भगवत स्तीर्थङ्करस्य जन्मशननं तत्रैव उपागच्छति उपागत्य भगवतस्तीर्थंकरस्य जन्मभवनं तेन दिव्येन यानविमानेन त्रिः कृत्यः आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति कृत्वा भगवतः, तीर्थंकरस्य जन्मभवनस्य उत्तरपौरस्त्ये दियभागे चतुरगुलमसंप्राप्तं धरणितले तं दिव्यं यानविमानं स्थापयति स्थापयित्वा अष्टभिः अग्रमहिपीभिः द्वाभ्यामनीकाभ्यां गन्धर्वानीकेन च नाटयानीकेन च सार्द्ध तस्मात् दिव्यात् यानविमानात् पौरस्त्येन त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति, ततः खलु शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतुरशीतिः सामानिकसहस्राणि दिव्याद् यानविमानात् उत्तरेण त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहन्ति अवशेषा देवाश्च देव्यश्च तस्मात् दिव्यात् यानविमानात् दक्षिणेन त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहन्ति इति ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा, चतुरशीत्या सामानिकसाहस्त्रि, यावत्सार्द्ध संपस्वृितः सर्वद्धर्या यावत् दुन्दुभिनिर्धोपनादितरवेण यत्रैव भगवान् तीर्थङ्करः, ती फरमाता च तत्रैव उपागच्छति उपागत्य, आलोके एव प्रणाम करोति प्रणामं कृत्वा भगवन्तं तीर्थंकर तीर्थकरमातरं च त्रिः कृत्वः आदिक्षणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा करतल यावदेवमवादीत् नमोऽस्तु ते रत्नकुक्षिधरिके ! एवं यथा दिक्कुमार्यः यावत् धन्याऽसि पुण्यासि त्वं कृतार्थाऽसि, अहं खलु देवाज्ञप्रिये ! शको नाम देवेन्द्रो देवरानो भगवस्तीर्थंकरस्य जन्ममहिमानं करिष्यामि तत् खलु युष्माभिने भेतव्यमितिकृत्वा अवस्वापिनी ददाति दत्वा तीर्थकरप्रतिरूपकं करोति तीर्थकरमातुः पा) स्थापयति स्थापवित्वा पञ्चशक्रान् विझुर्वति, चिकुर्ग, एकः शक्रो भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन गृह्णाति, 'एकः शक्रः पृष्टतः आतपत्रं धरनि द्वौं गक्रौ उभयोः पार्थयोश्चामरोक्षेपं कुरुतः एकः शक्रः पुरतो वज्रपाणिः सन् प्रकर्पयति । ततः सल्लु स शक्रो देवेन्द्रो देवरानः अन्यैः बहुभिः भवनपतिवानमन्तरज्योतिष्फवैमानिकैः देवै देवीभिश्च साई संपरिवृतः सर्वद्धा यावत् नादितेन तया उत्कृष्टया यावत् व्यनिव्रजन व्यतित्रजन् यत्रैव मन्दरः पर्वतः यत्रैव पण्डुकचनम् यत्रैव अभिपेशिला यत्रैव अभिपेशसिंहासनम् तत्रैव उपागच्छति उपागत्य सिंहासनबरंगतः पूर्वाभिमुखः सन्निपण्णः । इति ॥ ६॥
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशक्रकतव्यनिरूपणम्' • ६४७
टीका-'तपणं से सक्के जाव घट्ट हिअए' ततः पालकदेवस्य पालकविमाननिर्मातुः शक्राज्ञायाः शक्रसमीपे समर्पणानन्तरं खलु स शक्रो यावत् हष्ट हृदयः प्रमुदितचित्तः सन् अत्र यावत्पदान देवेन्द्रो देवराजः, इति ग्राह्यम् 'दिव्वं जिणेदाभिगमणजुग्गं' दिव्यं प्रधानम् जिनेन्द्राभिगमनयोग्यम् जिनेन्द्रस्य ऋषभभगवतः अभिगमनाय अभिमुखगमनाय योग्यम् -अचित्तम् यादृशेन वपुषा देवसमुदायसर्वातिशायिनी श्रीभवति तादृशेनेत्यर्थः 'सबालंकारविभूसियं' सर्वालङ्कारविभूषितम्-सकलशिरःश्रवणाचलङ्कारैः सुशोभितम् 'उत्तरवेउव्वियं रूवं विउव्वइ' उत्तरवैक्रियम् रूपम् उत्तरं भवधारणीयशरीरापेक्षया कार्योत्पत्तिकालापेक्षया च उत्तरकालभाविवैक्रियरूपं विकुर्वति 'विउन्वित्ता' विकुळ अट्टहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं गट्टाणीए णं गंधब्वाणीएणय सद्धिं तं विमाणं अणुप्पयाहिणी करेमाणे अणुप्पयाहिणी करेमाणे पुल्लेिणं दिसोवाणेणं दुरूहइ' अष्टाभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः प्रत्येकम् २ षोडशदेवीसहस्रपरिवृत्ताभिः नाटयानीकेन गन्धर्वानीकेन च सार्द्धम् तं विमानमनुदक्षिणी कुर्वन् अनुप्रदक्षिणी कुर्वन् पूर्वकेण पूर्वदिकस्थेन त्रिसोपानेन दुरोहन्ति, आरोहन्ति __'तए णं ले सक्के जाव हह हियए दिव्वं-'इत्यादि ।
टीकार्थ-पालकदेव द्वारा दिव्ययानविमान की-कथनानुसार निष्पत्ति हो जानेकी खबर सुनने के बाद से सक्के' उस शक ने 'हहियए' हर्षित हृदय होकर 'दिव्वं जिणेदाभिगमणजुग्गं सव्वालंकारविभूसिअं उत्तरवेउम्वियं रूवं विउव्वई' दिव्य, जिनेन्द्र के सन्मुख जाने के योग्य ऐसा समस्त अलंकारों से विभूषित उत्तर वैक्रियरूप की विकर्वणा की 'विउवित्ता अट्टहिं अग्गमहिसीहि सपरिवाराहिं णट्टाणीएणं गंधव्वाणीएण य सद्धिं तं विमाणं अणुप्पयाहिणी करेमाणे २ पुग्विल्लेणं तिसोवाणेणं दुरूहई' विकुर्वणा करके फिर वह आठ अग्रमहिषियों के साथ, उनकी परिवार भूत १६-१६-हजार देवियों के साथ, नाट्यानीक एवं गन्धर्वानीक के साथ उस दिव्य यान विमान की तीन प्रदक्षिणा करके पूर्वदिग्वर्ती त्रिसोपान से होकर उस पर चढा 'दुरूहित्ता जाव सीहास
'तएणं से सक्के जाव हद हियए दिव्वं-इत्यादि'
ડીકાર્યપાલક દેવ દ્વારા દિવ્ય યાન-વિમાનની આજ્ઞા મુજબ નિષ્પત્તિ થઈ જવાની सम२ सामान से सक्के' ते शो 'हट हियए' तिक्ष्य २ 'दिव्य जिणेदाभिगमणजुग्गं सव्वालंकारविभूसिअं उत्तरवेउव्वियं रूवं विवइ' हय निन्द्रनी सामना योग्य सेवा सर्व-माथी विभूषित उत्तर वैठिय ३५नी qिggu ४१. 'विउव्वित्ता अहिं अग्गमहिसीहि सपरिवाराहिं गट्टाणीएणं गंधवाणीएण य सद्धिं तं विमाणं अणुप्प याहिणी करेमाणे २ पुब्बिल्लेणं तिसोगणेणं दुरूहई' Agaye पछी ते मार અમહિષીઓની સાથે તેમજ તે અગ્રમહિષાઓના પરિવાર ભૂત ૧૬-૧૬ હજાર દેવી. એની સાથે નાટ્યાનીક તેમજ ગંધર્વાની સાથે તે દિવ્ય યાન–વિમાનની ત્રણ પ્રદક્ષિણાઓ
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__जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 'दुरूहित्ता' दुरूह्य आरुह्य 'जाव सीहासणंसि पुरत्याभिमुहे लण्णिसण्णेत्ति' यावत् सिंहासने पूर्वाभिमुखः सण्णिपण्णः असौ शकः उपविष्टवान् इति, अत्र यावत् पदात् चत्रैव सिंहासन तत्रैव उपागच्छति उपागत्य इति ग्राह्यम् ‘एवं चेप सामाणिश्रावि उत्तरेणं तिसोवाणेणं दुरूहंति दुरूहित्ता पत्ते २ पुन्छण्णत्थेसु महासणेसु णिसीअंति' एवमेव अमुना प्रोक्तप्रकारेणैव सामानिका अपि उत्तरेण उत्तरदिवस्थेन त्रिसोपानेन दृरोहन्ति, आरुह्य प्रत्येकं प्रत्येक पूर्वन्यस्तेषु पूर्वभागस्थापितेषु भद्रासनेषु निपीदन्ति उपविशन्ति 'अवसेसा य देवा देवीओम दहिणिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरूहति दुरूहित्ता दहेब जाव णिसीअंति' अवशेषाश्च आभ्यन्तर पार्पद्यादयः देवाः देव्यश्च दक्षिणेन त्रिसोपानेन दुरोहन्ति, आरोहन्ति आरुह्य तथैव पूर्वोक्तप्रकारेणैव यावत् निषीदन्ति उपविशन्ति, । अथ उपदिशतः शक्रस्य पुरः प्रस्थायिनां क्रममाह-'तए णं तस्स' इत्यादि 'तएणं तस्स तंसि दुरूढस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुगंसि पुरत्याभिमुहे सण्णिलण्णेत्ति' और चढकर यावत् वह पूर्वदिशा की ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठ गया यहां यावत्पद से 'यत्रैव सिंहासनं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य' इतने पाठका संग्रह हुआ है एवं चेव सामाणिआ वि उत्तरेणं तिसोवाणेगं दुरुहिता पतंय २ पुषण्णत्थेलु अदालणेष्ठ णिसीअंति' इसी तरह
सामानिक देव भी उत्तरदिग्वी चिसोपान से होकर प्रत्येक अपने पूर्व से रखे ‘गये भद्रासनों पर बैठ गये 'अवलेला य देवा देवीभो य दाहिणिल्लेणं तिसो. वाणेणं दुरुहित्ता तहेव जाव णिती अंति' बाकी के और सर देव और देवियां दक्षिणदिग्वर्ती त्रिसोपान से होकर उसी तरह से अपने अपने पूर्वन्यस्त मिहा सनों पर बैठ गये 'लएणं तस्स सकस्त तंलि दुख्ढरस इमे अनंगलगा पुरओ अहाणुपुचीए संपटिया' इस प्रकार से उस शक उस दिव्य यानविमान में बैठ जाने पर सबसे पहिले उसके आगे ये प्रत्येक प्रत्येक आठ आठ की संख्या में ४शन व हिमती -सोपान ६५२ थ तनी ५२ मा३८ थया. 'दुरूहित्ता जाव सीहासणंसि पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति' भने मा३० 25२ यावत् ते पूर्व हि त२६ भुम ४श सिंहासन ५२ मेसी गयी. मही यावत् ५४थी 'यत्रैव सिंहासनं तत्रैव उपा गच्छति उपागत्य' मा पा संगृहीत थये। छे. 'एवं चेव समाणिआ वि उत्तरेणं तिसोबाणेणं दुरुहित्ता पत्तेयं २ पुदणत्येसु भदासणेसु णिसीअंति' मा प्रमाणे सामानि । ] उत्तर દિવતી ત્રિપાન ઉપર થઈને યાન–વિમાનમાં પિતતાના ભદ્રાસન ઉપર બેસી ગયા. 'अवसेसा य देवा देवीओ य दाहिणिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरुहित्ता तहेव जाव णिसीअंति' શેષ બધાં દેવ-દેવીઓ દક્ષિણ દિગ્વતી ત્રિપાન ઉપર થઈને પિતાપિતાના પૂર્વન્યસ્ત सिहासन B५२ मेसी गया. 'तएणं तस्स सक्कस्स तसि दुरुढस्स इमे अट्ठ मंगलगा पुरआ अहाणुपुब्वीए संपडिया' मा प्रमाणे ते श न्यारे ते दिव्य यान-विमानमा भा३८ थई ગયે ત્યારે સર્વ પ્રથમ તેની સામે પ્રત્યેય-પ્રત્યેક આઠ આઠની સંખ્યામાં મંગલ દ્રવ્ય
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. ६ यानादि निष्पन्नानम्तरीयशककर्तव्यनिरूपणम् १४९
, पुन्त्रीए संपट्टिया' ततः खलु तदनन्तरं किल तस्य शक्रस्य तस्मिन् विमाने आरूढस्य सतः इमानि स्वस्तिक १ श्रीवत्सर २ नन्दिकावर्त ३ वर्द्धमानक ४ भद्रासन ५, मत्स्य ६ कलश ७ दर्पण ८ नामकानि अष्टाष्ट मङ्गलकानि, अष्टाष्टेति वीप्सावचनात् प्रत्येकम्, अष्टौ इत्यर्थः पुरतः अग्रतः यथानुपूर्व्या संप्रस्थितानि चलितानि 'तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं दिव्याय छत्तपडागा सचामरा य दंसणरइय, आलोभदरिसणिज्जा वा उद्घृअविजयवे जयंतीय समुसिया गगणतलमणुरिहंती पुरओ अहाणुपुच्चीए संरत्थिया' तदनंतरं च खल्ल पूर्णकलशभृङ्गारम् - पूर्ण जलभृतं कलशभृङ्गारम्, तत्र कलशः प्रसिद्धः भृङ्गारः ( झारी ) ति भाषा प्रसिद्धा अयं चकलशशब्दः, जलपूर्णत्वेन आलेख्यरूपाष्टमङ्गलान्तर्गन कलशाद् भिन्न इति न पुनरुक्ति: दोषसम्भवः, दिव्या च छत्रपताका दिव्या प्रधाना छत्र विशिष्टा पताका इत्यर्थः सचामरा चामरयुक्ता 'दंसणरइय' दर्शनरचिता - दर्शने प्रस्थातु दृष्टिपथे रचिता मङ्गल्यात् अत एव लोकदर्शनीया आलोके बहिः प्रस्थानसामयिकशकुनानुकल्यालोकने दर्शनीया दर्शनयोग्या वातोद्धृतविजयवैजयन्ती च वातेन वायुना उद्धृता कंपिता विजयसूचिका मंगल द्रव्य क्रमशः प्रस्थित हुए उनके नाम इस प्रकार से है- स्वस्तिक श्रीवत्स, नन्दिताच, वर्द्धमानक, भद्रासन, मत्स्य, कलश, और दर्पण 'तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा य दंसणरइय आलोयदरीसणिसजा वा विजय वैजयन्ती य समूसिआ, गगणतलमणु लिहंती पुरओ अहाणुgoat संपत्थिया' इनके बाद पूर्ण कलश, भृङ्गारक झारी, दिव्य छत्र चामर सहित पताकाएं जो कि प्रस्थाता के दृष्टि पथमें मङ्गलकारी होने से रची जाती हैं और प्रस्थान के समय में जिनका देखना शकुन शास्त्र के अनुकूल माना गया है । आगे आगे चली - इनके वाद वायु से कंपित होती हुई विजयवैजयन्तियां चली जो कि बहुत ऊंची थी और जिनका अग्रभाग आकाश तल को स्पर्श कर रहा था 'तयणंतरं छत्तभिंगारं' इनके वाद छत्र, भृङ्गार, ' तयणंतरं च
ક્રમશઃ પ્રસ્થિત કરવામાં આવ્યાં. તે દ્રષ્ચાના નામેા આ પ્રમાણે છે-સ્વસ્તિક, શ્રીવત્સ, नन्दिर्त, वर्द्धमान, मद्रासन, भत्स्य अशाने हर्षायु 'तयणंतर' चणं पुण्णकलसभिंगार दिव्वा य छत्तडागा सचामराय दंसणरइय आलोयदरिणिज्जा वा उद्ध्यविजय जयन्ती य समूसिआ, गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुत्रीए संपत्थिया' त्यार ખાદ્ય પૂર્ણ કળશ, ભૃંગારક, ઝારી, દિવ્ય છત્ર, ચામર સહિત પતાકાઓ કે જેઓ પ્રસ્થાતાની દૃષ્ટિએ મંગળકારી હાવાથી મૂકાય છે, અને પ્રસ્થાન સમયે જેમનુ દ”ન શકુનશાસ્ત્ર મુજ" અનુકૂળ માનવામાં આવે છે આગળ-આગળ ચાલી. ત્યાર બાદ વાયુથી વિકપિત થતી વિજય વૈજયંતીએ ચાલી. વિજ્રય વૈશયતીએ અતીવ ઊંચી હતી અને તેમના અગ્રભાગ આકાશ तजने स्पर्शी रह्यो हो ' तथनंतर छत्तभिंगार' त्यार शाह, छत्र, श्रृंगार 'तयणंतर' वह्नरामयवट्टलसंठियसुसिलिट् परिघट्टम सुपइदिए विसिह -
४० ६२
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति
वैजयन्ती च पार्श्वतो लघुपताद्वययुक्तः पताका विशेष : 'समूसिया' समुच्छ्रिता समुन्नता गगनतलमनु लिखन्ती अनुस्पृशन्ति एते कलशादयः पदार्थाः पुरतो यथानुपूर्व्या संप्रस्थिताः 'तयणंतरं छत्तभिंगारं' तदनन्तरं छत्रभृङ्गारम् छत्रं च भृङ्गारथ छत्रभृङ्गारम् समाहारादेकवद्भावः नपुंसकत्वं च तत्र छत्रम् 'वेरुलिअभिसंत विमलदंड पलंवं कोरंडमळदामोघसोहिअं चंदमंडलनिभं समृसिअं विमल' इति वर्णकयुक्तम् भरतस्य विनीता राजधानी प्रवेशाधि - कारतो ज्ञेयम् इदं च तत्रैव तृतीयवक्षस्कारे द्रष्टव्यम् भृङ्गारथ विशिष्टवर्ण चित्रोपेतः पूर्व न भृङ्गारस्य जलपूर्णत्वेन कथनात् अयं च जलरिक्तत्वेन इति न पौनरुक्त्यम् पुरतो यथानुपूर्व्या संप्रस्थितम्, महेन्द्र विशेषणान्याह - ' तयणंतरं च णं वइरामयवट्टलद्वसंठि सुसिलिट्ठपरिघट्टमहसुपट्ठिए' तदनन्तरं च खलु वज्रमयवृत्तष्टसंस्थित सुश्लिष्टपरिघृष्टमृष्टसु प्रतिष्ठतः, तत्र वज्रमयः रत्नमयः तथा वृत्तं वर्त्तुलं लप्टं मनोज्ञं संस्थितं संस्थानम् आकाशे यस्य स तथाभूतः तथा मुश्लिष्टः सुश्लपापन्नावयवः सुसंगत इत्यर्थः परिघृष्टे इव परिघृष्टः खरशाणया पापाणवत् मृष्ट इव सृष्टः मार्जितः सुकुमारशाणया पापाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठितः नतु तिर्यक्पतिततया वक्रः ततः एतेषां कर्मधारयः, अत एव 'विसिड' शेपध्वजेभ्यो विशिष्टः परिमण्डिताभिरामः, अनेकानि वराणि पश्चवर्णानि कुडसीनां लघुपताकानां सहस्राणि तैः तथा 'था 'अगवर पंचवण्णकुंड भी सहस्स परिमंडियाभिरामे' अनेकवरपञ्चवर्णकुडभी सहस्रणं वइरामय वहलङ संठिय लुसिलिट्ठ परिघट्टमह सुपहट्टिए विसिह अणेगवरपंचवण्णकुड भी सहस्सपरिमंडियाभिरामे, बाउद्वय विजय वैजयंती पडागा छत्ता इच्छन्तकलिए, तुंगे गगणतलमणु लिहतसिहरे, जोयणसहस्समूलिए, महद्द महालए, महिंदज्झए पुरओ अहाणुपुत्र्वीए संपत्थिएसि' इनके चलने के बाद महेन्द्र ध्वज प्रस्थित हुआ यह महेन्द्र ध्वज रत्नमय था इसका आकार वृत्त-गोल एवं लष्ट मनोज्ञ था सुश्लिष्ट मसृण चिकना था खरसाण से घिसी गई पाषाण प्रतिमा की तरह यह परिमृष्ट था सुकुमार ज्ञाणसे घिसी गई पाषाण प्रतिमा की तरह यह मृष्ट था सुप्रतिष्ठत था इसी कारण यह शेष ध्वजाओं की अपेक्षा विशिष्ट था तथा अनेक पांचो रंगोवाली कुडभियों के लघुपताकाओं के समूहो
अणेगवरपंचत्रण्णकुडभीसहस्स परिमंडियाभिरामे, वाउद्धय विजयवैजयंतीपडागा छत्ताइच्छत्तकलिए, तुंगे गगणतल मणुलित सिहरे, जोयणसहस्समूसिए, महइ महालए, महिंदज्झए, पुरओ, अहा
पुत्री संपत्थिपत्ति' मे सर्वांना अस्थान पछी महेन्द्रध्व अस्थित थथे।. मा भडेन्द्रध्वन રત્નમય હતેા, એના આકાર વૃત્ત ગાળ તેમજ લષ્ટ- મનેાજ્ઞ હતા. એ સુશ્લિષ્ટ-મરણ સુચિકણ હતા. ખરસાણથી ઘસવામાં આવેલી પ્રસ્તર પ્રતિમાની જેમ એ પરિદૃષ્ટ હતા. સુકુમાર શાણુ ઉપર ઘસવામાં આવેલી પાષાણુ પ્રતિમાની જેમ આ સૃષ્ટ હતા, સુપ્રતિષ્ઠિત હતા. એથી જ આ શેષ વોની અપેક્ષાએ વિશિષ્ટ હતા, તેમજ અનેક પાંચ રંગા વાળીકુલિએના-લઘુ પતાકાઓના સમૂહોથી એ અલકૃત હતા. હવાથી ૪'પિત વિજયવૈજય’તીથી તેમજ પતાયાતિષનાક્ષાએથી તથા છત્રાતિન્ત્રોથી એકલિત હતા
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशककर्तव्यनिरूपणम् ६५१ परिमण्डितः अलङ्कृतः सचासौ अभिरामश्चेति तथाभूत: पुनश्च कीदृशः शक्रः 'चाउ - - अविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइच्छत्तकलिए' वातो धूतविजय-वैजयन्तीपताका छत्रा तिच्छत्र कलित:-तत्र वातोद्धृताः, वायुना कंपिता या विजयसूचिका वैजयन्ती पताकाः ताभिः छत्रातिच्छत्रैश्च कलितः युक्तः 'तुंगे' तुङ्गः, अत्युनतः अत एव 'गगणतनमणुलिहं तसिहरे' गगनतलमनुलिखत् शिखरः, तत्र गगनतलम्, आकाशतलमनुलिखत् संस्पृशत् शिखरम्, अग्रभागो यस्य स तथा भूतः, तथा 'जोअणसहस्प्तभूसिए' योजनसहस्रमुत्सृतः, अन एवाह-'महइ महालए' महतिमहालयः अतिशयेन महान् 'महिंदज्झए' महेन्द्रध्वजः 'पुरओ अहाणुपुन्चोए संपत्थिएत्ति' पुरतो यथानुपूर्व्या संप्रस्थितः, इति 'तयणंतरं च णं सरूवनेवत्थ परिअच्छि भ मुसज्जा सव्वालंकारविभूसिआ पंचणि पंवअणिआहिवईणो जाव संपद्विआ' तदनन्तरं च खलु स्वरूपनेपथ्य-परिकच्छितसुसज्जानि, तत्र स्वरूपं स्वकर्मानुसारि नेपथ्यं वेपः परिकच्छितः परिगृहितौ यः, तानि तथा सुसज्जानि पूर्ण सामग्रीकतया अतिशयसजितानि सर्वालङ्कारविभूपितानि एवं भूतानि पञ्चकानीकानि पञ्चानीकाधिपतयश्च पुरतो यथानुपूा संप्रस्थितानि 'तयणंतरं च णं बहवे अभियोगिआ देवा य देवीओअ सएहिं सएहिं रूवेहिं जाव णिओगेहिं सक देविदं देवरायं पुरओम मग्गोअ अहाणुपुवीआ संपटिया' से यह अलकृत था हवा से कंपित विजय वैजयन्ती से एवं पताकातिपनाकाओं से-तथा छत्रातिच्छन्त्रों से यह कलित था तुंग-ऊंचा था इसका अग्रभाग आकाश से बाते कर रहा था क्योंकि यह १ हजार योजन का ऊंचा था इसी कारण यह बहुत ही अधिक महान् विशाल-था 'तयणंतरं च णं सरूव नेवस्थ परिअच्छिये सुसज्जा सवालंकारविभूसिया पंच आणिआ पंच आणियाहिवइणो जाव संघटिया' इसके बाद जिन्हों ने अपने कर्म के अनुरूप बेष पहिर रखा है ऐसी पांच सेनाएं पूर्ण सामग्री युक्त सज्जित किये है समस्त अलंकारों को जिन्होंने ऐसे पांच अनीकाधिपति यथाक्रम से संप्रस्थित हुए तयणंतरं च णं बहवे आभिओगिआ देवाय देवीओ य सएहिं लएहिं रूवेहिं जाव णिओगेहिं सक्कं देविदं એ તંગ ઊ એ હતે. એને અગ્રભાગ આકાશ તલને સ્પર્શી રહ્યો હતે. કેમકે એ એક
M२ योरन या तो मेथी मे सती म४ि महान विशाण ता. 'तयणतरचणं सरूव नेवत्थपरिअच्छिये सुसज्जा सव्वालंकारविभूसिया पंच अणिआ पंच अणियाहिवइणो जाव संपद्विया' त्या२ मा रेमो पोतन। म मनु३५ ३५ ५३री सभ्यो छ, सवा पांय સેનાઓ તેમજ પૂર્ણ સામગ્રી યુક્ત સુસજિત થઈને જેમણે સમસ્ત અલંકાર ધારણ या छ वा पाय अनाधिपति यथामथी सस्थित थया. 'तयणंतरं च णं बहवे आभिअगिआ देवा य देवीओ य सरहिं सएहिं रूवेहि जांव णिओगेहिं सरकं देविदं देवराय पुरमओय मग्गओ य अहाणुपुबीए' या२ मा भने मानिया हे। म वीमा सस्थित થયાં એ બધાં દેવ-દેવીઓ પિત–પિતાના રૂપથી, પિત–પિતાના કર્તવ્ય મુજબ ઉપસ્થિત
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सम्बुद्धीमाप्तिसूत्रे तदनंतरं च खलु बहवः आभियोगिका:-आज्ञाकारिणो देवाश्च देव्यश्च सकैः स्कैः रूपैः, यथा स्वकर्मोपस्थितैः उत्तरवैक्रियस्वरूपैः यावच्छब्दात स्वकैः स्वकैः विभवः यथा कर्मों पस्थितैः संपत्तिभिः स्वकैःनियोगैः उपकरणैः शक्रं देवेन्द्र देवराज पुरतश्च मार्गतश्च पृष्ठतः पार्श्वतश्च उभयोः, यथानुपूा यथा वृद्वक्रमेण संप्रस्थिताः 'तयणंतरं च णं यहवे सोहम्मकप्पवासी देवाय देवीओय सचिद्धीए जाय दुरूढा समाणा मग्गओभ जाव संपढिआ' तदनंतरं च खलु बहवः सौ वर्मकल्पवासिनो देवाश्च देव्यश्च सर्वद्धर्या यावत् दुरूढा आरूढाः सन्तः मार्गतश्च यावत्संप्रस्थिताः, अत्र प्रथम यावत्पदात् शक्रस्य हरिनिगमेपिणं प्रति स्वाज्ञप्तिविषयकः प्रागुक्तः, संपूर्ण आलापको ग्राह्यः, तेन स्वानि स्वानि यानविमानवाहनानि आरूढाः सन्तः इत्यर्थः द्वितीय यावत्पदात् पुरतः पार्श्वतश्च शक्रस्य इति ग्राह्यम् अथ यथा सौधर्मकल्पानिर्याति तथा चाह-'तएणं' इत्यादि 'तए णं से सक्के' तनः खलु स शक्रः 'तेणं पंचाणिअपरिक्खित्ते णं जाव महेदज्झएणं तेन प्रामुक्तस्वरूपेम पश्चानी कपरिक्षिप्तेन पश्चाभिः संग्रामिकैरनीकैः परिक्षिप्तेन-सर्वतः परिवृतेन .यावन्महेन्द्र यावत्पदान् पूर्वोक्तः देवरायं पुरओ य मग्गो य अहाणुपुच्ची' इसके बाद अनेक आभियोगिक देव और देवियां अपने अपने रूपों से अपने अपने कर्तव्य के अनुरूप उपस्थित वैक्रिय स्वरूपों से यावत् अपने २ वैभव से और अपने अपने नियोगों से युक्त हुई देवेन्द्र देवराज शक के आगे पीछे और दाई बाई ओर यथाक्रम से प्रस्थित हुई 'तथणंतरं च णं बहवे सोहम्नकप्पवासी देवाय देवीओय सव्विड्डीए जाव दुरूढा समाणा मग्गओ य जाच संपड़िया' इनके बाद अनेक सौधर्मकल्पवासी देव एवं देवियां अपनी अपनी समस्त ऋद्धि से यान विमानादिरूप संपत्ति से युक्त हुई अपने अपने विमानों पर चढकर देवेन्द्र देवराज शक्र के आगे पीछे और दाई वाई ओर चली 'तएणं से सक्के तेगं पंचाणिय परिक्खित्तेग जाव महिंदज्झएणं पुरओ पकिड्डिज्जमाणेणं चउरासीए सामाणिय जाव परिवुडे सचिड़ीए जाव रवेणं सोहम्मस्स कप्पस्स मज्झं मज्झे गं तं दिव्वं देवद्धिं जाव વૈક્તિ સ્વરૂપથી યાવત્ પિત–પિતાને વિભવથી, પિત–પિતાના નિવેગથી યુક્ત થયેલાં દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકની આગળ-પાછળ અને ડાબી અને જમણી તરફ યથા ક્રમે પ્રસ્થિત થયાં. 'तयणतरं च बहवे सोहम्मकापवासी देवाय देनीओय सबिड्डीए जाव दुरूढा समाणा मग्गओ य जाव संपट्ठिया' त्यार थामने सीधम ४६५वासी व मन हेवमा पातपाताना સમસ્ત ત્રિદ્ધિથી સમ્પન થઈને–ચાન-વિમાનાદિ રૂપ સંપત્તિથી યુક્ત થઈને પોતપોતાના વિમાન ઉપર ચઢીને દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકની આગળ-પાછળ અને ડાબી અને જમણી તરફ याला सायi. 'तएणं से सक्के वेणं पंछाणियपरिक्खित्तेणं जाव महि दज्झसएणं पुरओ पकिड्ढिज्जमाणेणं चउरासोए सामाणिय जात्र परीवुडे सचिड्ढीए जाव रवेणं सोहम्मस्स कप्पस्स मझ मज्झेणं तं दिव्यं देवद्धिं जाव उवदसम,णे २ जेणेव सोहम्मरस कापस्स उत्तरिल्ले णिज्जाण मगे तेणेव उवागच्छइ' मा प्रमाणे तशय मारनी सेनाथी परिवाटत श्यता यावत
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प्रकाचिका टीका-पञ्चमवशफारः स्मृ. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशनकर्तव्यनिरूपणम् ६५६ सम्पूर्णो महेन्द्रध्वजवर्णको ग्रायः 'पुरो पकडिजमाणेणं' पुरतः अग्रतः प्रकृष्यमाणेन निर्गम्यमानेन 'चउरासीए सामाणि जाव पडिबुडे' चतुरशीत्या सामानिकसहस्रैः परिवृतः युक्तः, अत्र यावत् 'बउहि चउरासीहि आयरक्खदेवसाहस्सीहि' इत्यादि ग्राह्यम् 'सन्विद्धीए जाव रवेणं' सर्वद्वयर्या याबद्रवेण अत्र यावत्पदात् 'सबज्जुईए' इत्यारभ्य 'महया इद्धीए' इत्यन्तम् तथा मया हयणगीयसाइय' इत्यारभ्य 'पडपडहवाइय' इत्यन्तं सर्व ग्राह्यम्, एतेषां प्रत्येकपदानां व्याख्यानम् अस्मिन्नेव वक्षस्कारे द्रष्टव्यम् 'सोहम्मरस कप्पस्स मज्झं मज्झेणं तं दिव्वं देवद्धिं जाव उबदंसेमाणे उपदंसे माणे' सौधर्मस्य कल्पस्य मध्यं मध्येन उवदलेमाणे २ जेणेव सोहम्मल्स कप्पास उतरिल्ले णिज्जाणमग्गे तेणेच उवागच्छह इस प्रकार से बह शक उस पञ्च प्रकार की सेना र परिक्षित हुआ यावत् जिलके आगे २ महेन्द्र ध्वज चला जा रहा है और जो ८४ हजार सामानिक देवों से परिश्रुत है यावत् ८४-८४ हजार आत्मरक्षक देवों से जो घिरा हुआ है अपनी पूर्ण सनस्त ऋद्धि के साथ, यावत् सर्व धुति के साथ २ गाजे वाजे पूर्वक सौधर्मकल्प के ठीक बीचोबीच से होता हुआ अपनी उस दिव्य देवर्द्धि को दिखाला दिखाता जहां सौधर्मकल्प का उत्तरदिग्दर्ती निर्याण मार्गनिकलने का रास्ता था यहां पर आया यहां प्रथम यावत्पद से महेन्द्र ध्वज का वर्णनात्मक पूर्ण पाठ गृहीत हुआ है नितीय यावत्पद ले 'चाहिं चउरासीहिं आयरक्खदेवसाहरूसीहिं' इत्यादि पाठ का ग्रहण हुआ है तृतीय पावत्पद से 'सधज्जुईए' इस पद से लेकर 'पडपडहवाइय' यहां तक का सब पाठ गृहीत हुआ है इस पाठ के प्रत्येक पदों की व्याख्या इशी पक्षकार के कथन में की गई है अतः वहीं से इसे देख लेना चाहिये चतुर्थ श्रावन्द से' तां दिव्यां देवद्युति तं दिव्य देवानुभावं' इन पदों का ग्रहण हुआ है 'उवागच्छित्ता जोयणसय साहજેની આગળ-આગળ મહેન્દ્રવજ ચાલી રહ્યો છે અને જે ૮૪ હજાર સામાનિક દેથી પરિવન છે યાવત ૮૪-૮૪ હજાર આત્મરક્ષક દેવી પરિવૃત છે, પિતાની પૂર્ણ, સમસ્ત ત્રાદ્ધિની સાથે, ચાવત્ સર્વ પુતિની સાથે-સાથે-ઉત્તમ માંગલિક, વાદ્યો સાથે સૌધર્મ ક૯૫ના ઠીક મધ્યમાં થઈને પિનાની તે દિવ્ય દેવદ્ધિને બતાવતો બતાવતો જ્યાં સૌધર્મ કલ્પને ઉત્તર દિગ્વતી નિયણ માર્ગ–નીકળવાને માર્ગ હવે ત્યાં આવ્યું અહીં પ્રથમ થાવત્ પદથી મહેન્દ્ર ધ્વજને વર્ણનાત્મક પૂર્ણ પાઠ સંગૃહીત થયું છે. દ્વિતીય યાવત ५.थी 'चउहिं चउरामीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं' वगैरे ५७ सहीत थयो . तृतीय यावत् ५४थी 'सव्वज्जुईए' मा पहथी'पडुण्डहवाइय' मही सुधीन 413 स. હીત થયો છે. આ પાઠમાં આવેલા દરેકે દરેક પદની વ્યાખ્યા આ વક્ષસ્કારના કથનમાં
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લો
जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे
ai दिव्य देव उपदर्शयन् उपदर्शयन् अत्र यावत्पदात् तां दिव्यां देवद्युतिं तं दिव्यं देवानुभावमिति ग्राह्यम्, सौधर्मकल्पवासिनां देवानामुपदर्शयन् उपदर्शयन्नित्यर्थः 'जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उत्तरिल्ले णिज्जाणमग्गे तेणेव उवागच्छ' यत्रैव सौधर्मस्य कल्पस्यौतहः उत्तरभागसम्बन्धी निर्याणमार्गः निर्गमनपन्थाः तत्रैवोपागच्छति स शक्रः, यथा afear नागराणां विवाहोत्सवदर्शनार्थ राजपथे याति नतु नष्टरथ्यादौ तथाऽयमिति भावः 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'जोयणसयसाहस्सी एहिं विग्गदेहिं ओवयमाणे २' योजनशतसाहस्रिकैः योजनलक्षप्रमाणैः विग्रहैः क्रमैरिव गन्तव्यः क्षेत्रातिक्रमरूपैः अवपतन् अव - पतन् अवतरन् अवतरन् 'ताए उक्किहाए जाव देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे' तया उत्कृष्टया यावद्देवगत्या व्यतिव्रजन् व्यतित्रजन् अत्र यावत्पदात् त्वरया चपलया रुद्रया सिंहसदृश्या इति ग्राह्यम् अस्यार्थः अस्मिन्नेववक्षस्कारे प्रथमसूत्रे दृष्टव्यम् 'तिरियम संखिज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झे मज्झेणं जेणेव गंदीसरवरदीवे जेणेव दाहिणपुरथिमिल्ले रहकर गपन्त्रए तेणेव उवागच्छर' तिर्यगसंख्येयानां द्वीपसमुद्राणां मध्यं मध्येन यत्रैव नन्दीश्वरवरोद्वीपः यत्रैव तस्यैव पृथुत्वमध्यभागे दक्षिणपौरस्त्यः, भाग्नेयकोणस्थ रतिकरपर्वतः, तत्र उपागच्छति, ननु सौधर्मादवतरतः शक्रस्य नन्दीश्वरद्वीपे एव अवतरणं युक्तिमत् नतु : स्सीहिं विग्गहेहिं ओवयमाणे २ ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए वीईवयमाणे २ तिरियम संखिज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्ज्ञं मज्झेणं जेणेव मंदीसरबरे दीवे जेणेव दाहिणपुरथिमिले रहकरपच्चए तेणेच उद्यागच्छद्द' वहां आकर के वह १ लाख योजन प्रमाण डगों को गन्तव्यक्षेत्रातिक्रमणरूप पादन्यासों को भरता भरता उस प्रसिद्ध उत्कृष्ट यावत् देवगति से तिर्यगलोक संबन्धी असंख्यात द्वीप समुद्रों के ठीक बीचोबीच से होता हुआ जहां पर नन्दीश्वर द्वीप था और उसमें भी जहां आग्नेय कोण मे रतिकर पर्वत था वहाँ पर आया। यहां शंका ऐली हो सकती है कि सौधर्म स्वर्ग से उतरते हुए शक को नन्दीश्वर द्वीपमें हो सीधा
જ સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. એથી જ જિજ્ઞાસુએ ત્યાંથી વાંચવા પ્રયાસ કરે. ચતુર્થાં यावत् पथी 'तां दिव्यां देवद्युतिं तं दिव्यं देवानुभाव' मे यह संगृहीत थथा छे. 'उवागच्छित्ता जोणस | हस्सीहिं विग्गहेहि ओवयमाणे २ ताए उक्किट्ठाए जात्र देवगईए पीईवयमाणे २ तिरियमसंखिज्जार्ण दीवसमुद्दाणं मज्झ मज्झेणं जेणेव मंदीसरवरे दीवे जेणेव दाहिणपुरत्थिमिल्ले रद्दकरपत्रए तेणेव आगच्छर लाभावीने ते खे साथ ચેાજન પ્રમાણ પગલાઓ ગન્ય ક્ષેત્રાતિક્રમણ રૂપ પાદન્યાસેને ભરતો ભરતો તે પ્રસિદ્ધ ઉત્કૃષ્ટ થાવત્ દેવગતિથી તિર્થંગ લેાક સંબંધી અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રોના ઢીંક મધ્ય ભાગમાં થતો જ્યાં આÖય કેણુમાં રતિકર પર્યંત હતો, ત્યાં આવ્યેા. અહીં' એવી શંકા ઉદૂભવી શકે તેમ છે કે સૌધમ સ્વગમાંથી ઉતરીને શકને નન્દીશ્વર દ્વીપમાં જ સીધા જવું.
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सु. ६ यानादि निष्पन्ननन्तरीयशककर्तव्यनिरूणम् ६५५ पुनरसंख्येय द्वीपसमुद्रातिक्रमेण तत्रागमन मितिचेत् उच्यते-निर्याणमार्गस्य असंख्यातस्य द्वीपस्य वा समुद्रस्य वा उपरिस्थितत्वेन संभाव्यमानखात् तत्रावतरणम्-ततश्च नन्दीश्वराभिगमनेऽसंख्यातद्वीपसमुद्रातिक्रमणं युक्तिमदेवेति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य अत्र दृष्टान्ताय सूत्रम् ‘एवं जा चेव सूरियाभस्स वत्तव्ययात्ति' एवम् उक्तरीत्या यैव सूर्याभस्य वक्तव्यता यथा सूर्याभः सौधर्मकल्पादवतीर्णस्तथाऽयमपीत्यर्थः 'णवरं सक्काधिकारो वत्तव्वोत्ति जाव तं दिव्यं देविद्धिं जाव दिव्वं जाणविमाणपडिसाहरमाणे पडिसाहरमाणे नवरम् अत्रायं विशेषः शक्राधिकारी वक्तव्यः, सौधर्मेन्द्रनाम्ना सर्व वाच्यम् इति यावत् तां दिव्यां देवद्धि यावत् दिव्यं यानविमानं प्रतिसंहरन् प्रतिसंहरन् नवरमत्र प्रथमयावच्छब्दो दृष्टान्तविषयीकृत सूर्याभाधिकारस्य अवधिसूचनार्थः, सचावधिविमानप्रतिसहरणपर्यन्तो वक्तव्यः द्वितीय यावजाना युक्तिमतू था फिर वहां जाने के लिये इसे इन तिर्यग्लोकवर्ती असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करने की क्या आवश्यकता थी ? तो इसका समाधान य. ही है कि लोधन स्वर्ग से उतर कर नन्दीश्वर द्वीप में जानेका मार्ग इन्हीं असं. ख्यात द्वीप समुद्रों के उपर से ही गया हुवा प्रतीत होता है इसलिये इसे वहां से जाना पडा है अतः ऐसा यह कथन युक्ति युक्त ही है । 'उवागच्छित्ता' वहां आक रके 'एवं जा चेव सूरियाभस्स वत्तव्वया णवरं सक्काहिगारोवत्तव्यो इति जाव तं दिव्यं देविद्धिं जाव दिव्वं जाणविमाणं पडिलाहरमाणे २ जाव जेणेव भगवओ तित्थयरस्त जम्मणनगरे जेणेव भगवओ तित्थयरस्स भवणे तेणेव उवागच्छई' इसने फिर क्या किया इत्यादि सब विषय जानने के लिये सूर्याभ देवकी वक्तव्यता को देखना चाहिये यह वक्तव्यता पीछे कही जा चुकी है तात्पर्य यही है कि सूर्याभदेव जिस प्रकार सौधर्मकल्प से अवतीर्ण हुआ उसी तरह से यह યુક્તિમત હતુંપછી તે ત્યાં જવા માટે તેને તિર્યકવતી અસંખ્યાત દ્વીપસમુદ્રોને પાર કરવાની શી આવશ્યક્તા હર્તી? તો આ શંકાનું સમાધાન આ છે કે સૌધર્મ સ્વર્ગમાંથી ઉતરીને નન્દીશ્વર દ્વીપમાં જવાને માર્ગ એજ અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રો ઉપર થઈને જ છે. એથી જ તે શક્રને ત્યાં થઈને જ જવું પડયું હતું એટલા માટે આ કથન યુક્તિ યુક્ત १ छ. 'उवागच्छिचा' त्यां न 'एवं जा चेव सूरियाभस्स वत्तव्वया णवर सक्काहिगारो वत्तव्यो इति जाव तं दिव्यं देविद्धि जाव दिव्व जाणविमाणं पडिसाहरमाणे २ जाव जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणनगरे जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छ।' તેણે શું કર્યું વગેરે જાણવા માટે સૂર્યાભવની વક્તવ્યતાને જોઈ લેવી જોઈએ. આ વક્તવ્યતા પહેલા કહેવામાં આવી છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે સૂર્યાભદેવ જે પ્રમાણે સૌધર્મકલ્પમાંથી અવતીર્ણ થયે. તે જ પ્રમાણે આ શક પણ ત્યાંથી અવતીર્ણ થયે. આ અધિકારમાં તે અધિકાર કરતાં તફાવત આટલે જ છે કે ત્યાં સૂર્યદેવને અધિકાર છે,
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जम्बूद्वीपति छब्दात् 'दिव्वं देवजुई दिव्यं देवाणुभावं' इति पदद्वयं नायम् तथा चायमित्यर्थः दिव्यां देवर्द्धि परिवारसंपदं स्वरिमानवज सौधर्म कल्पवासि देवविमानानां मेंगे प्रपणात्, तथा दिव्यां देवाति शरीरामरणादि हासेन तथा दिव्यं देवानुभावं देवगति इस्वताऽऽपादानेन, तथा दिव्यं यानविमानं पालकनामकं जम्बूद्वीपपरिमाणन्यूनविस्तारायागारणेन प्रतिसंहरन् प्रतिसंहरन् संक्षिपन् संक्षिपन् 'जार जेणेव भगवश्री वित्थयरस्म जम्गणणगरे जेणेव भगवो तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छई' यावत् यत्रैव भगवतस्तीयंकरस्य जन्मनगरं भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनं तत्रै उपागच्छत्ति, स शक्रः अत्र यावत् 'जेणेव जंबु. हीवे दीवे जेणेव भरहे वासे' इति ग्राम्यम् । भी वहां से अवतीर्ण हुआ फर्क केवल इस अधिकार में उन अधिकार की अपेक्षा इतनासाही है शिवहां सूर्यास देवका अधिकार है और यहां शक्र का अधिकार है अतः इव अधिकार का वर्णन करते समय र्याम देव के स्थान में शक्र का प्रयोग करके इस अधिकार का कथन कर लेना चाहिये यावत् इसने उस दिव्य देवद्धिका-दिन बाग विमान का प्रनिहरण-मंकोचन किया, यहां प्रथम यावत् शब्द से पत्रकार ने सूर्याभदेव के अभिकार की अवधि म्हचीत की है और वह यहां विमान के विस्तार को संकोचन करले नक गृहीत हुई है तथा वित्तीय यावत् शब्द से 'दिव्वं देवजुई दिव्यं देवाणुमायादो पदों का ग्रहण हुआ है इसका अर्थ ऐना है दिव्य परिवार रूपनाति को संकुचित करने के लिये उसने-शामा ने-अपने विमान को छोड़कर बाकी के साधकलावासी देवों के विमानों को-मेरू पर भेज दिया तथा शरीर के आभरमादिकों को संकुचिन करने के लिये उसने उन्हें कम कर दिया, दिव्य देवानुभाव को भी संकुचिन करने के लिये उसने उसे काम कर दिया तथा दिव्य यान विमान रूप जो पालक नामका विमान था उसे संकुचित करने के लिये उसने इसके विस्तार की जो અને આ શકનો અધિકાર છે. એથી આ અધિકાનું વર્ણન કરતાં સૂર્યાભદેવના સ્થાનમાં શક શબ્દ પ્રયોગ કરીને આ અધિકારનું કથન કરી લેવું જોઈએ યાવત્ તેણે તે દિવ્ય દેવદ્ધિનું–દિવ્ય ચાન–વિમાનનું પ્રસિંહ રણુ–સ કેચન કર્યું. અહીં પ્રથમ યાવત્ શબ્દથી સૂત્રકારે સૂર્યાભવના અધિકારની અવધિ સૂચિત કરી છે. અને તે અવધિ વિમાનના विस्तारनु सायन ४२ २ सुधी गीत थाई छ. तेभर द्वितीय यावत्या 'दिव्य देवजुई दिवं देवाणुभाव' यो मे ५ संगृहीत यया छे थे पहाना मिथ मा प्रभारी છે. દિવ્ય પરિવાર રૂપ સંપત્તિને સંકુચિત કરવા માટે તે શકે પિતાના વિમાનને બાદ કરીને શેષ સૌધર્મ કલપવાસી દેવાના વિમાનેને મેરુ ઉપર મોકલી દીધાં. તેમજ શરીરના આભરણદિને સંકુચિત કરવા માટે તેણે તેમને કામ કરી નાખ્યાં દિવ્યદેવાનુ રાવને પણ સંકુચિત કરવા માટે તેણે કેમ કરી નાખે તથા દિવ્ય ચાન-
વિન રૂપ જે પાલક નામક
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कार: सू. ६ यानादि निष्पन्ननन्तरीयशक्रकर्तव्यनिरूपणम् ६५७...
'उनागच्छित्ता' उपागत्य 'भगवओ तिथयरस्स जम्मणभवणं तेणं दिव्वेणं तिक्खुत्तो. आयाणिपयाहि णं करेइ' भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनं तेन दिव्येन यानविमानेन त्रिः - कृत्वः - वारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति सः शक्रः 'करिता ' कृत्वा भगवओ तित्थयरस्स, जम्मणभवणस्स उत्तरपुर स्थिमे दिसीभागे चउरंगुलमसंपत्तं धरणियले तं दिव्यं जाणविमाणं ठवे ! भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे ईशानकोणे चतुरङ्गुलमसं-प्राप्तम् धरणितले तं दिव्यं यान विमानं स्थापयति 'ठवित्ता' स्थापयित्वा 'अहिं अगमहि-' iti ahe areas गंधव्वाणिएण य णट्टाणीपण य सद्धिं ताभो दिव्त्राओ जाणविमाणाओ - कि जंम्बूद्वीप के बराबर था कम कर दिया इस तरह सबका संकोच करता २ यावत् वह जहां पर जम्बूद्वीप नामका द्वीप था और उसमें भी जहाँ पर भारतक्षेत्र था और उसमें भी जहां पर भगवान् के जन्म का नगर था और उसमें भी जहां पर भगवान् तीर्थंकर का जन्म भवन था वहां पर आया । यहाँ पर इस यावत् शब्द से 'जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भरहे वासे' इन पदों का ग्रहण हुआ है 'उवागच्छित्ता' आकर के 'भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं ते णं दिग्वेणं जाणविप्राणेणं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेह' उस शक्र ने भगवान् तीर्थकर के जन्म भवन की तीनवार उस दिव्य विमान से प्रदक्षिणा की 'करिता' तीन बार प्रदक्षिणा करके 'भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसी भागे चउरंगुलमसंपत्तं धरणियले तं दिव्वं विमाणं ठवे फिर उस शक्र ने भगवान् तीर्थकर के जन्म भवन के ईशान कोनेमें चार अंगुल अधर जमीन पर उस दिव्य यान विमान को स्थापित करदिया 'ठवित्ता अहिं अग्गमहिसीहिं दोहिं अणीएहिं गंधव्वाणीए ण य णट्टाणीएण य सद्धि ताओ
વિમાન હતું, તેને સકુચિત કરવા માટે તેણે તેના વિસ્તારને કે જે જમ્મૂ દ્વીપ જેટલા હતા, ક્રમ કરી નાખ્યું. આ પ્રમાણે સ` રીતે સકેચ કરતા કરતા યાવત તે જ્યાં જમ્બુદ્વીપ નામક દ્વીપ હતા અને તેમાં પણ જ્યાં ભરત ક્ષેત્ર હતુ, અને તેમાં પણ જયાં ભગવાનના જન્મ થયા. તે નગર હતુ. અને તેમાં પણ જ્યાં ભગવાન તીથ કરતું જન્મ ભવન હતુ ત્યાં ; गयो अडीं यावत् शब्दथी 'जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भरहेबासे' मा यही श्रद्धा थयां छे. 'उवागच्छित्ता' त्यां वर्धने 'भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेणं दिव्वेणं जाणविमाणेणं तिक्खुत्तो आयाहि पाहिणं करेइ' ते शडे भगवान तीर्थ ४२ना न्भलवननी त्रयु वार ते हिव्य विभानथी प्रक्षिणा ४री. 'करिता' त्र वार प्रदक्षिणा हरीने 'भवगओ तित्थयरस्स जम्मणभवण रस उत्तरपुरत्थि मे दिसीभागे चउर गुलमसंपत्तं धरणियले तं दिव्वं विमाणं ठवेइ' पछी ते श ભગવાન તીર્થંકરના જન્મ ભવનના ઈશાન કોણમાં ચાર અંશુલ અદ્ધર જમીન ઉપર તે . हिव्य यान-विभानने स्थापित यु. 'ठवित्ता अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं दोहिं अणीएहिं गंध. दाणीए ण य णट्टाणीपण य सद्धिं ताओ दिव्वाओ जाणविमाणा पुरत्थिमिल्लेणं तिसोवाण
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जम्बूदीपप्राप्तिसूते पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिख्वएणं पच्चोरुहइ' अष्टभिरग्रमहिपीभिः द्वाभ्यामनीकाभ्यां गन्धर्वानीकेन च नाटयानीकेन च साढे तस्मात् दिव्यात् यानविमानात् पौरस्त्येन पूर्व स्थितेन त्रिसोपाप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति अवतरति सः शक्रः ननु पूर्वत्रिसोपानप्रतिरूपकेण शक्रस्य अवतरणमुक्तम् अपराभ्याम् उत्तरदक्षिणाभ्यां केपामवतरणम् इत्याह-'तपणं सकस्स देविंदस्स देवरणो' इत्यादि 'तए थे' ततः खलु 'सकस्स देविंदस्स देवरणो' शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य 'चउरासीइ सामाणिभ सहस्सीओ' चतुरशीतिः सामानिकसाहनिकाः चतुरशीति सहस्त्रसंख्याक सामानिकाः 'दिव्यागो जाणविमाणयो' दिव्यात् यानविमानात् 'उत्तरिल्टेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहति' औतराहेण, उत्तरदिग्भागवर्तिना त्रिसोपानप्रतिरूपण प्रत्यवरोहन्ति, अवतरन्ति 'अवसेसा देवाय, देवीओअ, ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ' दिवाओ जाणविमाणाओ पुरथिमिल्लेणं निलोत्राणपडिरूवएणं पच्चोरुहाई' स्थापित करने बाद फिर वह शक अपनी आठ अग्रभहिपियों के एवं दो अनीकोंगन्धर्वानीक और नाटयानीक के साथ उस दिव्य यान विमान से पूर्व के त्रिसो. पान प्रतिरूपक से होकर नीचे उतरा । ठीक है विमान की पूर्वदिशा में रहे हुए त्रिसोपान प्रतिरूपक से इन्द्र नीचे उतरता है ऐसा आप कहते हैं तो उत्तर के
और दक्षिण के त्रिसोपान प्रतिरूप से कौन उतरता है तो इस आशंका के समाधान निमित्त सूत्रकार कहते हैं___'तएणं सकस्स देविंदस्स देवरणो चउरासीई सामाणिअ साहस्सीओ जाण विमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिस्वरणं पच्चोरुहंति' उस देवेन्द्र देव राज शक के उतरजाने के बाद उसके जो चौरासी हजार सामानिक देव थे वे उस दिव्य यान विमान से उसकी उत्तरदिशा के त्रिसोपान प्रतिरूपक से होकर नीचे उतरे 'अवसेसा देवाय देवीओ य लाओ दिव्चाओ जाणविमाणाओ दाहिजिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति त्ति' बाकी के देव और देवियां उस पडिरूवएणं पच्चोनहई' स्थापित या माशपातानी गाई भयभडिपीमा तभ। બે અનીકે ગન્ધર્વોનીક અને નાની-ની સાથે તે દિવ્ય યાન-વિમાનના પૂર્વ તરફના ત્રિપાન પ્રતિરૂપકે ઉપર થઈને નીચે ઉતર્યો. આ વાત બરાબર છે કે, તે શર્ક વિમાનની પૂર્વ દિશામાં આવેલા ત્રિપાન પ્રતિરૂપકો ઉપર થઈને નીચે ઉતર્યો એવું તમે કહે છે તે પછી ઉત્તર અને દક્ષિણના ત્રિપાન પ્રતિરૂપકે ઉપર થઈને કણ નીચે ઉતર છે? તો આ શંકાના સમાધાનાથે સૂત્રકાર કહે છે
'तए णं सक्कस्स देविदास देवरणो चउरोसीई सामाणिअ साहस्सीओ जाणविमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहति त हेवेन्द्र वरा ४ न्यारे उतरा गया ત્યારે તેના ૮૪ હજાર સામાનિક દેવે તે દિવ્ય યાન-વિમાનમાંથી તેની ઉત્તર દિશાના निसोपानप्रति३५। ५२ / नाय तर्या. 'अवसेसा देवाय देवीओय ताओ दिवाओ
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्ननम्तरीयशनकर्तव्यनिरूपणम् ६५९ अवशेषाः देवाश्च देव्यश्च तस्मात् दिव्यात् यानबिमानात् 'दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंतित्ति' दाक्षिणात्येन दक्षिणभागवर्तिना त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहन्ति-अवतरन्ति इति, 'तए णं से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए सामाणिभ साइस्सीएहिं जाव सद्धिं संपरिबुडे सव्विद्धीए जाव दुदुभिणिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयर . मायाप तेणेव उवागच्छइ' ततः खलु तदनन्तरं किल स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः चतुरशीत्या सामानिकसाहसिक चतुरशीतिसहस्रसंख्यकसामानिकैः यावत्सा? संपरिवृत्तः युक्तः सर्वद्धयावत् दुन्दुभिनिर्घोषनादितरवेण यत्रैवभागवांस्तीर्थकरस्तीर्थकर माता च तत्रैवोपागच्छति, अत्र प्रथमयावत्पदात् अष्टभिरग्रमहिषीभिरित्यादि, द्वितीययावत्पदात् पूर्व सूत्रानुसारेण वोध्यम् 'सधज्जुइए' इत्यादि ग्राह्यस् 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'आलोए चेव पणामं करेइ' आलोके दर्शने जाते एव प्रणामं करोति 'पणामं करित्ता' प्रमाणं कृत्वा भगवं वित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ' भगवन्तं तीर्थकरं तीर्थंकरमातरं च त्रि: दिव्य यान विमान से उसकी दक्षिणदिशा के त्रिलोपान प्रतिरूपक से होकर नीचे उतरे 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए जाव दुंदुभिणिग्घोसनाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छइ' इसके बाद वह देवेन्द्र देवराज शक्र ८४ हजार सामानिक देवों के साथ एवं आठ अग्रमहि: षियों के एवं अनेक देव देवियों के साथ साथ अपनी ऋद्धि एवं यति आदि से युक्त हुआ बजती हुई दुन्दुभि की निर्घोष ध्वनिपूर्वक जहां भगवान तीर्थंकर
और उनकी माता विराजमान थी वहां पर गया 'उवागच्छित्ता आलोए चेव पणामं करेइ, करेत्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेह करेत्ता करयल जाव एवं क्यासी' वहां जाकर के उसने देखते ही प्रभु को एवं उनकी माताको प्रणाम किया प्रणाम करके फिर उसने तीर्थकर और जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति त्ति' शेष हे मनवाया તે દિવ્ય યાન–વિમાનમાંથી તેની દક્ષિણ દિશા તરફના ત્રિપાન પ્રતિરૂપકે ઉપર થઈને नाये तो. 'तए ण से सक्के देविदे देवराया चउरासीए सामाणियसाहस्सीएहिं जाव सद्धिं संपरिखुडे सव्विड्डीए जाव दुंदुभिणिग्धोसनाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमायाय तेणेय उवागच्छइ' त्यार पछी त देवेन्द्र हेवरा श: ८४ M२ सामानि वानी साथै તેમજ આઠ અ9 મહિષીઓની તથા અનેક દેવ-દેવીઓની સાથે સાથે, પિતાની અદ્ધિ ઘતિ વગેરેથી યુક્ત થઈને દુંદુભિના નિર્દોષ સાથે જ્યાં ભગવાન તીર્થકર અને તેમના मातोश्री मरता ता त्यां गया. 'उवागच्छित्ता आलोए चेव पणामं करेइ, करेत्ता भगव' तित्ययर' तित्थयरमायर च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता करयल जोव एवं વચારી’ ત્યાં જઈને તેણે પ્રભુને જોતાં જ પ્રભુને અને તેમના માતાશ્રીને પ્રણામ કર્યા પ્રણામ કરીને પછી તેણે તીર્થકર અને તેમના માતાશ્રીની ત્રણ વાર પ્રદક્ષિણા કરી. પ્રદક્ષિણા
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भवृद्धीपप्राप्तिसूत्रे कृत्वः वारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति 'करित्ता' कृत्वा 'करयल जाय एवं वयासी' का तल यावत् एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण अवादीत् उक्तवान् स शक्रः, अत्र यावत्पदात् परिगृहीतं दशनखं शिरसावत्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा इति ग्राह्यम् 'किमत्रादीदित्याह-'णमोत्युते' इत्यादि णमोत्थुते रयणकुच्छिधारए' हे रत्नकुक्षिधारिके रत्नस्वरूप तीर्थक.रमातः 'ते तुभ्यं नमोऽस्तु एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव' एवम् प्रोक्त प्रकारकं सूत्रं यथा दिक्कुमार्य आहे. स्तथाऽवादी दित्यर्थः, अत्र यावत्पदात् 'जगप्पइवदाईए चक्खुणो अमुत्तस्स सम्वजगजीववच्छलस्स हिअकारगमगदेसिभ वागिद्धि विभुपमुस्स जिणस्त णाणिस्त नायगस्स बुद्धसस वोहगस्स सबलोगणाहस्स सव्यजगमंगलस्स णिम्ममम्स पवरकुलसगुप्त मयप्स जाईए खत्तियस्स जंसि लोगुत्तमस्स जणणीति' कियत्पर्यन्त मित्याह-'धण्णासि' इत्यादि 'धण्णासि पुण्णासि तं कयथासि' धन्यासि पुण्यासि त्वं कृतार्थासि ‘हणं देवाणुप्पिए सक्के णाम देविंदे देवराया भगवओ तित्ययरस्स जम्मणमहिमं करिश्सामि' अहं खलु देवानुप्रिये । उनकी माताको तीनवार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा करके फिर अपने दोनों हाथों को अंजलि के रूपमें करके एवं उसे मस्तक के अपर नीनवार घुमा करके इस प्रकार से उच्चारण किया-'णमोत्थुगं ते रयणकुच्छिधारए' हे-रत्नकुक्षिधारिके ! रत्नरूप तीर्थकर को अपने उदर में धारण करनेवाली हे मातः! तुम्हे मेरा नमस्कार हो 'एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव घण्णासि पुष्णासि तं कयथासि' इस तरह जैसा दिक्कुमारीओं ने स्तुति के रूप में पहिले कहा है वैसा ही यहां इन्द्र ने स्तुति के रूपमें कहा वह पाठ इस प्रकार से है 'जगप्पईवदाईए चक्खुणो अमुत्तस्स सम्बजगजीववच्छलस्स हिअकारगमग्गदेसिअ वागिद्धि विभुप्पभुस्स, जिणस्स, णाणिस्स, सव्वजगमंगलस्स, णिम्म मस्स, पवरकुलसमुप्पभवस्ल जाईए खत्तियस्त जंसि लोगुत्तमस्त जणणी' यह पाठ 'धण्णासि पुण्णासि तं कयथासि अहणं देवाणुप्पिए सक्के णाम देविदे કરીને પછી તેણે બંને હાથને અંજલિના રૂપમાં કરીને તેમજ તે અ જલિને મસ્તક ઉપર भुशीन, ते त्रशु पार ३२वीर मा प्रभारी यु. णमोत्थुगं ते रयणकुच्छिधारए' २. કુક્ષિારિકે ! હે રત્ન રૂપ તીર્થકરને પિતાના ઉદરમાં ધારણ કરનારી હે માતા તમને भा२नमार ‘एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव धण्णासि पुण्णासि तं कयत्यासि' माम જે પ્રમાણે દિકુમારિકાઓએ સ્તુતિના રૂપમાં પહેલાં કહ્યું છે, તેવું જ અહી ઈ દ્ર स्तुतिना ३५मा . मा प्रभारी छ. 'जगप्पईवदाईए चक्खुणो अमुत्तस्प्त सव्व जगजीववच्छलस्स हिअकारग मगदेसिअ वागिद्धि त्रिभुप्पमुस्स जिगस्स गाणिस्स नायगस्स, बुद्धस्स, वोहगस्स, सबलोगणाहस्स, सच जगमंगलम्स, णिम्ममस्स, पवरकुल समुप्पभवस्स जाईए खत्तियस्स जैसि लोगुत्तमस्स जणणी' मा पा8 'धण्णासि, पुण्णासि तं कयत्यासि अहणं देवाणुप्पिए सके णाम देवि दे देवराया भगवओ तित्थयरस्स जम्मण महिमं करिस्सामि, त णं तुमाहिण भाइव्वति' तमे धन्य छ।, तभ Yएयामा छ।, तभ
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षरकारः सू० ६ यानादि निष्पन्ननन्तरीयशनकर्तव्यनिरूपणम् ६६९ तीर्थकरमातः ! शक्रो नाम देवेन्द्रो देवराजः भगवतरतीर्थकरस्य जन्ममहिमानं वरिष्यमि 'तं णं तुम्भाहि ण भाइयव्वं त्ति कटु ओसोवणिं दलयइ' तत् तस्मात् खलु युष्माभिः न भेतव्यमिति कृत्वा अवस्वापिनी ददाति सुते मेरुं नीते सुतविरहार्ता मा दुःखभागभूदिति दिव्यनिन्द्रया निद्राणां करोतीत्यर्थः, 'दलइत्ता' दखा 'तित्थयरपडिख्वगं विउच्चइ तीर्थकर प्रतिरूपकं विकुर्वति तीर्थकरस्य मेरु नेतव्यस्य भगवतः प्रतिरूपकं जिनसदृशं रूपं विकुर्वतीत्यर्थः 'अस्मास्नु मेरुंगतेषु जन्ममहव्यापृति व्यग्रेषु आसन्नदुष्टदेवतया कुतूहलादिनाऽपहत निद्रासती मा इयं तथा भवतु इति भगवठ्ठपानिविशेषणं रूपं विकुर्वन्तीति भावः 'विउवित्ता' देवराया भगवभो तित्थयरस्त जम्नणसहिमं करिस्तामि, तं गं तुम्नाहिण भाइयव्यंति' तुम धन्य हो, तुम पुण्यात्मा हो, तुम कृतार्थ हो यहां तक ग्रहण करना चाहिए हे देवानुप्रिये ! मैं देवेन्द्र देवराज शक हूं-और भगवान तीर्थंकर की जन्म महिमा करने को आया हूं अतः में उनकी जन्म महीमा करूंगा आपलोंग इससे भयभीत न हों ऐसा कहकर उसने माता को 'ओसोवर्णि' निद्रामें 'दलयइ' सुलादिया अर्थात् जब मैं इनके पुत्रको सुमेरु पर्वत पर ले जाऊंगा तो ये सुत के विरह में दुःखित हो जावेगी-इसलिये इन्हें सुनका विरह पीडित न करपावे इस अभिप्राय ले माता को उसने मायामयी निद्रा से निद्रित करदिया 'दलहत्ता' निद्रा से निद्रित करके 'तित्थयर पडिरूवगं विउच्चई' फिर उसने जिन सदृश रूपकी विकुर्वणा की-अपनी विक्रियाशक्ति से जिन सहशरूपवाला बालक बनाया
और वह इल अभिप्राय से कि जन्मोत्सब के करने में व्यग्र ने हए मुझे मेरु पर चले जाने पर यदि कोई आसजवर्ती दुष्ट देवी कुतूहलादि के वशवर्ती बनकर मातोकी निद्रा दूर कर देनी है तो वह पुत्र के विरह से कातर न होने पावे इस हेतु से उस शक्र ने जिनके जैसे रूपवाले एक बालक की विकुर्वणा की 'विउકૃતાર્થ છે, અહીં સુધી શહણ કરવો જોઈએ. હે દેવનુપ્રિયે ! હું દેવેન્દ્ર દેવરાજ શ૪ છું અને ભગવાન તીર્થકરને જન્મ મહિમા કરવા માટે આવ્યો છું એથી હું એમને જન્મ મહિમા કરીશ. આપ સર્વે એનાથી ભયભીત થશે નહિ. આમ કહીને તેણે માતાને 'ओलोत्रणि' निद्रामा 'दलयइ' भन ४N हीधी. मेटर न्यारे हुगमन। पुराने सुमेर પર્વત ઉપર લઈ જઈશ ત્યારે એઓ પિતાના પુત્રના વિરહમાં દુખિત થઈ જશે. એથી એમને સુતને વિરહ દખિત કરે નહિ આ અભિપ્રાયથી માતાને તેણે માયામયી નિદ્રામાં निद्रित ४N Eli. 'दलइत्ता' निद्रा भग्न ४शने 'तित्थयरपडिरूवगं विउव्वइ' पछी २01 સદશ રૂ૫ની વિમુર્વણા કરી–પિતાની વિક્રિયા શક્તિથી તેણે જિન સદશ રૂપવાળું બાળક મન ગ્યું, અને આ અભિપ્રાયથી તેણે આવું કર્યું કે જ્યારે હું જન્મત્સવ કરવા માટે મેરૂ પર્વત પર જ રહીશ અને ત્યાં જન્મોત્સવમાં વ્યસ્ત થઈ જઈશ અને પાછળથી કે આસનવતી દુષ્ટ દેવી કુતુહલવશ થઈને માતાની નિદ્રાને ભંગ કરશે તે તે પુત્રના
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जम्बूद्वीपप्राप्ति विकुऱ्या 'एगे सक्के भगवं तित्थयरं करयलपुढेणं गिण्हइ' तेषां पञ्चाना मध्ये एकः शक्रो भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन करतलयोः ऊर्वाधो व्यवस्थितयोः पुटं संपुटं शुक्तिकासंपुटमिवेत्यर्थः' तेन अति अतिपवित्रेण सरसगोशीपचन्दनचवितेन धूपवासितेनेतिगम्यं गृह्णाति, 'एगे सबके पिट्टओ आयवत्तं धरेइ' एकः शक्रः पृष्ठतः आतपत्रं छत्रं परति गृह्णाति 'दुवे सका उभो पासिं चामरुक्खेवं करेंति' द्वौ शक्रौ उभयोः पायोः चामरोरक्षेपं कुरुतः ‘एगे सक्के पुरओ वजपाणी पकडू' इति' एकः शक्रः पुरतो बज्रपाणिः सन् प्रकर्षति निर्गमयति, आत्मानमिति, अग्रतः प्ररर्तते इत्यर्थः। अत्र च सत्यपि सामानिकदेवपरिवारे यत् इन्द्रस्य स्वयमेव पञ्चरूपविकुर्वणं तत् त्रिजगद्गुरोः परिपूर्ण सेवालिप्मुत्वेन बोध्यम् । वित्ता विकुर्वणाकर के 'तित्थयरमाउआए पासे ठवेह' फिर उसने उस शिशुको तीर्थकर माता के पास रख दिया 'ठवेत्ता पंच सके विउचइ, विउवित्ता एगे सक्के भगवं तित्थयरं करयलपुडेण गिण्णइ एगे सबके पिट्टओ
आयवत्तं धरेइ, दुवे सक्का उभओ पासिं चामक्खेवं करेंति' इसके बाद उसने फिर पांच शकों की विकुर्वणा की अर्थात् वह स्वयं पांच रूपोंवाला बन गया इस प्रकार पांचरूपों में एक शक के रूप ने भगवान् तीर्थकर को अपने करतल पुट से पकडा यह उसका करतल पुट परम पवित्र था, सरल गीशीर्ष चन्दन से लिप्त था और धूप से वासित था एक दूसरे शक ने भगवान के ऊपर छत्र ताना और दो शकों ने भगवान की दोनों ओर खडे होकर उन पर चामर ढोरे तथा 'एगे सक्के पुरओ वज्जपाणी पकडू इति' एक शक हाथ मे वन लेजर भगवान् के आगे २ चला यद्यपि सामानिकादि देवों का परिवार उस समय साथ में चल रहा था परन्तु इस प्रकार से अपने आपको पांच रूपों में विकुर्चित करके વિરહથી દુઃખિત થાય નહિ. એટલા માટે જ તે શકે જિનના જેવા રૂપવાળા એક બાળકની विg . "विउव्चित्ता' विधु' र 'तित्ययरमाउआए पासे ठवेई' ५छी शुने तीय ४२ भातानी पासे भूती दाधी. 'ठवेत्ता पंच सके विउव्वइ, विउवित्ता एगे सक्के भगवं तित्थयर करयलपुडेण गिण्हइ एगे सबके पिटुओ आयवत्तं घरेइ, दुवे सक्का उभओ पासिं चामरुक्खेव करे ति' त्या२ मा तो श पाय शोनी विणा ४ी अटकेत પિતે પાંચ રૂપવાળો બની ગયે. આ પ્રમાણે પાંચ રૂપિયાથી એક શકના રૂપે ભગવાન તીર્થકરને પિતાના કરતલ પટમાં ઉપાડવા તેને આ કરતલ પુટ પરમ પવિત્ર હતો સરસ ગશીર્ષ ચન્દનથી લિપ્ત હતો તેમજ ધૂપથી વાસિત હતો. એક શક્રે ભગવાનની ઉપર છત્ર આચ્છાદિત કર્યું અને બે શક્રો એ ભગવાનની બને તરફ ઊભા રહીને તેમની ઉપર यभर जपा साया तथा 'एगे सक्के पुरओ वज्जपाणी पकड़ह इति' से २४ सयमा વજ લઈને ભગવાનની આગળ આગળ ચાલવા લાગ્યા. જો કે સામાનિકાદિ દેને પરિ વાર તે સમયે સાથે-સાથે ચાલી રહ્યો હતે. પરંતુ આ પ્રમાણે પિતાની જાતને પાંચ
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पननन्तरीयशक्रकर्तव्यनिरूपणम् ६६३
अथ यथा शक्रो विवक्षितस्थान प्राप्नोति तथा आह-'तए णं से सक्के' इत्यादि 'तएणं से सक्के देविदे देवराया' ततः खलु तदनन्तरं किल स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः 'अण्णेहिं वहहिं भवणवइ बाणमंतर जोइसवेमाणिएहिं देवेहि देवीहिअ सद्धिं संपरिडे' अन्यैर्वहुभिर्भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकैदवदेवीभिश्च साद्ध संपरिवृतः 'सव्विदीए जाव णाइएणं' सर्वा यावत् नादितेन अत्र यावत्पदात् 'सबज्जुइए' इत्यादि ग्राह्यम् 'ताए उक्किठाए जाव वीईवयमाणे २' तया उत्कृष्टया यावद् व्यतिव्रजन व्यतिव्रजन् अत्र यावत्पदात् त्वरया चपलया रुद्रया देवगत्या इति ग्राह्यम्, एषां व्याख्यानम् अस्मिन्नेव वक्षस्कारे प्रथमसूत्रे द्रष्टव्यम् 'जेणेव संदरे पत्रए जेणेव पंडगवणे जेणेव अभिसेअसिला जेणेव अभिसेअसीहासणे तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव मन्दरपर्वतः यत्रैव पण्डकवनं यत्रैव अभि. षेकशिला यत्रैव चाभिषेकसिंहासनं तत्रैवोपागच्छति स शक्रः 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'सीहासणवरगए पुरस्थाभिसुहे सण्णिसण्णेति' सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सनिषण्णः उपविष्टवान् स शक्रः ॥ सू०६॥ जो इन्द्र ने इस प्रकार की व्यवस्था की वह सब त्रिजगद्गुरु की परिपूर्ण सेवा प्राप्त करने की इच्छा से ही की 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया अण्णेहिं बहूहि भवणवइवाण मंतरजोइस वेमाणिएहिं देवेहि देवीहिय सद्धिं संपरिबुडे सव्वि दीए जाव णाइए णं ताए उक्किट्ठाए जाव वीईवयमाणे जेणेव मंदरे पव्वए जेणेव पंडगवणे जेणेच अभिसेयसिला' इसके बाद वह देवेन्द्र देवराज शक्र अन्य अनेक भवनति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों से तथादेवियों से युक्त हुआ अपनी समस्त ऋद्धि के अनुसार खूब गाजे बाजे नृत्यादिको के साथ २ उस अपनी उत्कृष्ट गति से चलता २ जहां पर मन्दर पर्वत था और उसमें जहां पण्डकवन था और उसमें भी जहां अभिषेक शिला थी 'जेणेव अभिसेअसीहासणे तेणेव उवागच्छई' एवं जहां पर अभिषेक सिंहासन था રૂપમાં વિકવિત કરીને જે ઈ આ પ્રકારની વ્યવસ્થા કરી હતી. તે ત્રિજગદ્ગુરુની परिपूर्ण सेवा प्रास ४२वा ध्याथी १ ४२ ती. 'तएणं से सक्के देविंद देवराया अण्णेहिं बहूहि भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहिय सद्धि संपरिवुडे सवि. द्धीए जाव णाइएणं ताए उक्किद्वाए जाब वीईवयमाणे जेणेव मंदरे पव्वए जेणेव पंडगवणे जेणेव अभिसेयसिला' त्या मारत हेवेन्द्र १२१ श मन्य मन: सपनपति, पानव्यन्तर, જ્યોતિષ્ક અને વૈમાનિક દેવાથી તેમજ દેવીઓથી યુક્ત થયેલો તે પોતાની સમસ્ત દ્ધિ મુજબ ખૂબજ માંગલિક વાદ્ય-નૃત્યાદિક સાથે-સાથે તે પિતાની ઉત્કૃષ્ટ ગતિથી ચાલતા ચાલતે જ્યાં મન્દર પર્વત હતા અને તેમાં પણ જ્યાં પંડકવન હતું અને તેમાં ५ या मनिष शिक्षा सती. 'जेणेव अभिसेअसीहासणे तेणेव उवागच्छइ' तेभर
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जम्बूद्वीपप्रतिर ", अथेशानेन्द्रावसरमाह-'तणं कालेणं' इत्यादि
- मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं इलाणे देविदे देवराया सूलपाणी वसभवाहणे सुरिंदे उत्तरद्धलोगहिबई अटावील विमाणवाससयसहस्साहिबई अयरंचरवस्थधरे एवं जहा सबके इस णाणतं महाघोसा घंटालहुपरकमो पायत्ताणियाहिबई पुप्फओ विमाणकारी दक्खिणे निजाण । मगे उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपठवओ संदरे समोसरिलो जाव पज्जुवासइत्ति, एवं अवसिहावि इंदा भाणियवा जाब अच्चुभोत्ति, इम णाणतं चउरासीइ असीइ बावत्तरि सत्तरीअ सट्ठीअ पाणावत्तालीसा तीसावीसा ॥१॥ एए सामाणिआ णं बत्तीसत्तावीसा वारसट चाउरोसयसहस्सा । पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्लारे ॥१॥ आणयपाणयकप्पे चत्तारि चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिषिण । एए विमाणाणं इमे जाणविमाणकारीदेवा, तं जहा-पालय१ पुप्फे यर सोशणसे३-लिरिच्छेअ४ गंदिआवत्ते५ कासगमे६ पीइगले मगोरमेट विमल९ सबओभद्दे १० ॥१॥ सोहम्मगाणं सर्णकुमारगाणं वंभलोअगाणं महासुकाणं पाणयगाणं इंदाणं सुघोसा घंटा हरिणेगमेसी पायताणीआहिबई उत्तरिल्ला णिज्जाण भूमी दाहिणपुरथिमिल्ले रइकरगपए, ईसाणगाणं साहिंदलंतकसहस्तार अच्चुयगाण य इंदाण महाघोसा घंटा लहुपरकमो पायत्ताणिआहिवई दक्विणिल्ले णिज्जाणमग्गे उत्तरपुरस्थिसिल्ले रइकरगपए परिसाणं जहा जीवाभिगमे आयरकला सामागिअ चउग्गुणा सव्वेसिं जाणविमाणा सव्वेसि जोयणसयलहरूलविच्छिण्णा उच्चत्तेगं स विमाणप्पमाणा महिंदज्झया सध्वेसिं जोयणसाहस्लिआ सकवजा मंदरे समो अरंति जाव पज्जुवासंतित्ति सू०७॥ वहां पर गया 'उवागच्छित्ता सीहासणवरपए पुरत्याभिमुहे सणिसणेइ' वहां जाकर वह पूर्व की दिशा की ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठ गया ॥६॥ मनि४ सिडासन हेतु त्या गया. 'नागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णेई' स्या न GNI GP
A Sunn... ॥ - ॥
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ७ इशानेन्द्रावसरनिरूपणम् ___ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये ईशानो देवेन्द्रो देवराजः शूलपाणिः वृषभवाहनः सुरेन्द्रः उत्तरार्द्धलोकाधिपतिः अष्टाविंशतिविमानावासशतसहस्राधिपतिः अरजोऽम्वरवस्त्रघर एवं यथाशक्रः इदं नानालम् महाघोषा घण्टा लघुपराक्रमः पदात्यनोकाधिपतिः पुष्पको विमानकारी दक्षिणो निर्याणमार्गः उत्तरपौरस्त्यो रतिकरपर्वनो मन्दरे समवसृतो यावत् पर्युपास्ते इति एवम्, अवशिष्टा अपि इन्द्रा भणितव्याः यावत् अच्युनः, इति इदं नानात्वम्चतुरशीतिः, द्विसप्ततिः सप्ततिश्च पष्ठिश्च, पञ्चाशत् चत्वारिंशत् त्रिंशतिः विंशतिः दशसहस्राणि ॥१॥ एते सामानिकानां द्वात्रिंशत् अष्टाविंशतिः द्वादशाष्ट चत्वारि शतसहस्राणि पश्चाशत् चत्वारिंशत् षट् च सहस्रारे ॥१॥ आनतप्राणतकल्पे चत्वारिशतानि आरणाच्युतयोस्त्रीणि, एते विमानानाम् इमे यानविमानकारिणो देवाः तद्यथा पालकः १, पुष्पक: २, सौमनसः ३ श्रीवत्सः ४ नन्दिकावतः ५ कामगमः ६ गीतिगमः ७ मनोरमः ८ विमल: ९ सर्वतोभद्रः १० ॥१॥ सौधर्मकाणां सनत्कुमारकाणां ब्रह्मलोकानां महाशुक्राणं प्राणतकानाम् इन्द्राणाम् सुघोषाघण्टा हरिनैगमेषी पदात्यनीकाधिपतिः औत्तराहा निर्याणभूमिः दक्षिण पौरस्त्यो रतिकरपर्वतः, ईशानकानां माहेन्द्रलान्तकसहस्राराच्युतकानां चेन्द्राणां महाघोषा घण्टा लघुपराक्रमः पहात्यनीकाधिपतिः, दक्षिणो निर्माणमार्गः उत्तरपौरस्त्ये रतिकरपर्वतः परिषदः खलु यथा जीभिगमे आत्मरक्षकाः सामानिकचतुर्गुणाः सर्वेषाम् यानविमानानि सर्वेषां योजनशवसहस्त्र विस्तीर्णानि उच्चत्वेन स्वविमानप्रमाणानि मदेन्द्रध्वजाः सर्वेषां योजनसाहस्त्रिकाः शक्रयाः मन्दरे समवसरन्ति यावत्पर्युपासते ॥ सु०७॥
टीका-'तेणं कालेणं तेणं समए णं' तस्मिन् काले सम्भवज्जिनजन्मके तीर्थंकरजन्मावसरे तस्मिन् समये-दिक्कुमारी कृत्यानन्तरीये न तु शक्रागमनानन्तरीये सर्वेषामिन्द्राणं' जिनकल्याणाय युगपदेव समागमारम्भस्य जायमानत्वात् यत्तु सूत्रे शक्रागमनानन्तरीय. मीशानेन्द्रागमनमुक्तं तत्क्रमेणैव सूत्रबन्धस्य संभवात् 'ईसाणे' ईशानः देवलोकेन्द्रः 'देविदे' देवेन्द्रः देवानामिन्द्रः स्वामी देवराजः देवाधिपतिः "मूलपाणिः' शूलपाणिः, शूल: पाणौ हस्ते यस्य सः 'वसभवाहणे कृपभवाहनः वृषभो वाहनं यस्य स तथा भूतः 'मुरिंदे सुरेन्द्रः
ईशानेन्द्रावसर 'तेणं कालेणं तेणं लमएणं ईसाणे देविंदे देवराया'
टीकार्थ-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' उस कालमें और उस समय में 'ईसाणे देविंदे देवराया' देवेन्द्र देवराज ईशान 'शूलपाणी' कि जिसके हाथमें त्रिशूल-है 'बलभवाहणे' वाहन जिसका वृषभ है 'सुरिंदे उत्तरद्धलोगाहिबई' सूरों का इन्द्र
ઈશાનેન્દ્રાવસર 'तेणं कालेग तेणं समएणं ईसाणे देवि दे देवराया' इत्यादि,
टी -'तेणं कालेणं तेणं समएण' ते णे ते सभये 'ईसाणे देवि दे देवराया' हेवेन्द्र देव शान 'सूलपाणी' है ना थमा त्रिशुत छे. 'वसभवाहणे' पाउन नु' वृषम
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जन्बूद्वीपतिसरे तथा 'उत्तरद्धलोकाहिबई उत्तरार्द्ध लोकाधिपतिः, मेरोरत्तरनोऽस्यनाऽऽधित्यात् ईशाननामा द्वितीय इन्द्रः पुनः कीदृशः, तत्राह-'अट्ठावीस विमाणवाससयसहस्साहिबई' अष्टाविंशति विमानावासशतसहस्राधिपतिः, अष्टाविंशतिलक्षविमानस्वामीत्यर्थः । तथा 'अरयंवरवत्यधरे अरजोऽवरवस्त्रधरः, अरजांसि पांवरहितत्वात् निर्मलानि अम्बस्दनाणि स्वच्छतया आकाश कल्पानि वसनानि धरति यः स तथाभूतः, आकाशवत् निर्मलदस्त्रधारीत्यर्थः 'गवं जहा सक्के' एवम् उक्त प्रकारेण यथा शक्रस्तथाऽयमपि बोध्यः 'इमं णाणत्त' इदमत्र नानात्वं विशेषः, अस्य 'महाघोसा घंटा लघुपरक्कमो पायत्ताणियाहिवई' महाघोमा घण्टा लघुपराक्रमः लघुपराक्रमनामा पदात्यनीकाधिपतिः 'पुप्फओ रिमाणकारी' पुष्पक:-पुष्पकनामा विमानकारी 'दक्खिणे निजाणलग्गे' दक्षिणो निर्याणमार्गः दक्षिणा निर्याणधूमिरित्यर्थः 'उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपवओ' उत्तरपौरस्त्यो रतिकरपर्वतः 'संदरे समोसरिओ जाव पज्जुवासइत्ति' मन्दरे समवस्तः समागतो यावत् पर्युपास्ते इति अत्र यावत्पदात् 'भगवंतं तित्थयरं है, उत्तराद्धलोक का जो अधिपति है 'अट्ठावीसविनाणावाससयसहस्साहिबई अट्ठाईस लाख विमान जिलके अधिपतित्व से हैं 'अत्यंबरवत्थधरे' निर्मल अम्बरवस्त्रों को स्वच्छ होने के कारण आकाश के जैसे वस्त्रों को धारण किये हुए 'मंदरे समोसरिओ' सुमेरू पर्वन पर आया ऐसा सम्बन्ध यहां पर लगालेना चाहिये 'एवं जहा सबके शक्र-सौधर्मेन्द्र जिस प्रकार के ठाटबाट से आया वैसे ही ठाटवाट से यह भी आया 'इनं णाणतं शक के प्रकरण की अपेक्षा इसके इस प्रकरण में अन्तर केवल यही है कि इस ईशान की 'महाघोला घंटा, लहुपरक्कमो, पायत्ताणियाहिवई, पुप्फओ विमाणकारी, दक्खिणे निजाणमग्गे, उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपव्वओ' महाघोपा नामकी घंटा है लघुपराक्रम नामका पदात्यनीकाधिपति है पुष्पक नामका विमान है दक्षिणदिशा इसके निर्गमन की भूमि है उत्तर पूर्वदिशावर्ती रतिकर पर्वन है 'समोसरिओ जाव' छ. 'सुरिंदे उत्तरद्धलोगाहिवई' सुशन रेन्द्र छ, त र मपति छे, 'अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिवई' मध्यावीस दा विमान ना मधिपतिमा छे. 'अरयंवरवत्थधरे' नि मम२ पत्रोन-२१२७ बात साधे माश 24 पोन
धा, शत 'मंदरे समोसरिओ' सुभे३ त ५२ साव्या. गेवा समय 81 131 .. . 'एवं जहा सक्के २ प्रमाणे श-सौधमेन्द्र 18-भा साथै माव्या लातेवा। 818 भा४ साथ ते ५ माव्या. 'इमं णाणत्तं' 81 रनी अपेक्षा 1 प्रभा माटो त छ । 2. शाननी 'महाघोसा घंटा, लहुपरक्कमो, पायत्ताणियाहिवई, पुप्फओ विमाणकारी, दक्खिणे, निजाणमगे उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपव्व ओ' भडावाषा નામક ઘંટા છે. લઘુ પરાક્રમ નામક પદાત્યની કાધિપતિ છે. પુષ્પક નામક વિમાન છે. દક્ષિણ દિશા તરફ તેના નિર્ગમન માટેની ભૂદ્ધિ છે. ઉત્તર પૂર્વ દિશાવતી રતિકર પર્વત
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. ७ इज्ञानेन्द्रावसरनिरूणम्
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तिक्खुतो याहिणपयाहिण करेइ करिता' वंदइ नमंस बदित्ता नर्मसित्ता पच्चासणे णाइदरे सुस्समाणे णमंसमाणे अभिमुद्दे विणणं पंजलिउडे' एतेषां संग्रहः अथातिदेशेन अवशिष्टानां सनत्कुमारादीन्द्राणां वक्तव्यतामाह - ' एवं अवसिद्वावि' इत्यादि 'एवं अवसिहावि' एवम् अवशिष्टा अपि 'इंदा भाणियन्त्रा' जाव अच्चुओति' इन्द्रा वैमानिकानां भणितव्या यावत् अच्युतेन्द्रः, एकादशद्वादश कल्पाधि नतिरिति, अत्र यो विशेषस्तमाह- 'इमं णाणत्त' इदं नानालम्, भेद: 'चउरासीइ, असीइवावत्तरि सत्तरीय सङ्घीय पण्णाचत्तालीसा तीसावीसा दससहस्सा ॥१॥ अत्र च अन्तिम सहस्रपदस्य पत्येकं संवन्धः तथा च चतुरशीतिः सहस्राणि शक्रस्य अशीतिः सहस्राणि ईशानेन्द्रस्य द्विसप्ततिः सहस्राणि सनत्कुमारेन्द्रस्य एवं सप्ततिः मैं जो यावत्पद आया है उससे 'भगवन्तं तित्थयरं तिक्खुत्तो आग्राहिणपयाहिणं करेइ, करेता बंदइ, णर्मसह, वंदित्ता नर्मसित्ता पच्चासण्णे नाईदूरे सुस्सूसमाणे, नर्मसमाणे अभिमुहे विषएणं पंजलिउडे' इस पाठ का ग्रहण हुआ है इन पदों का अर्थ स्पष्ठ है वहां आकर के उसने प्रभुकी पर्युपासना की 'एवं अवसिहा वि इंदा भाfotoai' इसी तरह अर्थात् सौधर्मेन्द्र के सम्बन्ध में कथित रीती के अनुसार वैमानिक देवों के अवशिष्ट इन्द्र भी आये ऐसा कहलेना चाहिये ! और ये इन्द्र यहां अच्युतेन्द्र तक के आए। यह अच्युतेन्द्र ११-१२ वें कल्प का अधिपति है । 'इमं णानन्तं चउरासीह, असीइ बावन्तरि सत्तरी अणसट्ठीअ पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दससहस्सा बत्तीसहावीसा वारसह चउरो सयसहस्सा, पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सारे' इन गाथाओं द्वारा किन २ इन्द्रों के कितने सामाजिक देव एवं कितने विमान हैं यह प्रकट किया गया है - सौधर्मेन्द्र के ८४ हजार सामानिक देव हैं ईशान के ८० हजार सामानिक देव हैं ७२ हजार सामाजिक देव सनत्कुमारेन्द्र के हैं ७० हजार सामानिक देव माहेन्द्र मावेस छे. 'समोसरिओ जाव' भां ने यावत् युद्ध ड्यु छे तेनाथी 'भगवंतं तित्थयर' तिक्खुतो कायाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, णमंसई, वंदित्ता नर्मसित्ता णच्चासणे नाइदूरे सुस्सूसमाणे, णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे' मा पाठ ग्रहण हरायो छे. थे यहोनो अर्थ स्पष्ट छे. त्यां भावाने तेथे अनी पर्युपासना . ' एवं अवसिट्ठा वि इंदा भाणियश्वा' आ अभा अर्थात् सौधर्मेन्द्रना समंधभां प्रथित रीति भुम्म વૈમાનિક દેવાતા અવશિષ્ટ ઈન્દ્રો પણ આવ્યા, ચોવું હૅહી લેવું જોઇએ. અને એ ઇન્દ્રો પણ અહીં અચ્યુતેન્દ્ર સુધીના અહી' આન્યા, આ અચ્યુતેન્દ્ર ૧૧-૧૨માં કલ્પના અધિપતિ छे. 'इमं णाणत्तं-चउरासीइ, असीइ बावन्तरी अण्णसट्ठीअ पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दससहस्सा बत्तीसट्ठावीसा बारसदृ चउरो सयसहरसा, पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सारे ' આ ગાથાએ વડે કયા-કયા ઈન્દ્રોને કેટલાં સામાનિક દેવા તેમજ કેટલાં વિમાને છે? એ પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે. સૌધર્મેન્દ્રના ૮૪ હજાર સામાનિક દેવા છે. ઈશાનને ૮૦
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जम्बूद्वीपप्रश्नसिक सहस्राणि माहेन्द्रस्य च समुच्चये पष्ठिः सहस्राणि ब्रह्मेन्द्रस्य च समुच्चये, पञ्चाशत् कान्त केन्द्रस्य, चवारिंशत् राहस्राणि शुक्रेन्द्रस्य, शिव सहस्त्राणि सहस्राणि सहसारेन्द्रस्य विंशतिः सहस्राणि आनवप्राणतकल्पद्विकेन्द्रस्य दशसहस्राणि अच्युतकल्पद्विकेन्द्रस्य ॥१२॥ 'एए सामाणियाणं' एते संख्याप्रकाराः सामानिकानां देवानां क्रमेण दशकल्पेन्द्र संवन्धिनामिति तेन 'चउरासीए सामाणियअसाहस्सीणं' इत्येतद्विशेषणस्थाने प्रतीन्द्रालापकम् 'चउरासीए असीइए वायत्तरिए सामाणियसाहसीणं' इण्याघभिलापो ग्राह्यः, तथा 'वत्तीसट्टावोसा वारस चउरोसयसहस्सा पण्णाचत्तालोसा छच्चसहस्सारे ॥१॥ तथा सौधर्मेन्द्रकल्पे द्वात्रिंशल्लक्षाणि, ईशाने अष्टविंशतिर्लक्षाणि एवं सनत्कुमारे द्वात्रिंशद शतसहस्राणि द्वादशलक्षणि, माहेन्द्रे अष्टी लक्षाणि, ब्रह्मलोके चत्वारि लक्षाणि तथा लान्तके पश्चाशत् सहस्राणि, एवं शुक्रे चलारिंशत्सास्राणि च समुच्चये सहस्रारे एट् सहस्राणि, 'आणयपाणय कप्पे चत्तारिसयारणच्चुए तिन्नि । 'एए विमाणाणं इमे जाण विमाणकारी देवा' आनत प्राणतकल्पयोः द्वयोः समुदितयोः चत्वारि शतानि आरणाच्युयोः स्त्रीणिशतानि । एते के है ब्रह्मेन्द्र के सामानिक देव ६० हजार हैं । ५० हजार सामानिक :देव लान्तकेन्द्र के है। ४० चालीसहजार समानिकदेव शुक्रेन्द्र के हैं । ३० हजार सामानिक देव सहस्रारेन्द्र के हैं । २० हजार देव आनत प्राणत कल्पद्विकेन्द्र के हैं। और आरण अच्युत कल्पद्विकेन्द्र के १० हजार सामानिक देव हैं। सौधर्मेन्द्र शक के ३२ लाख विमान है २८ लाख विमान ईशानेन्द्र के हैं सनत्कुमारेन्द्र के १२ लाख विमान हैं माहेन्द्र के आठ लाख विधान हैं ब्रह्मलोकेन्द्र के ४ लाख विमान हैं । लान्तकेन्द्र के ५० हजार विमान शुक्रेन्द्र के ४० हजार विमान हैं सहस्त्रारेन्द्र के ६ हजार विमान हैं आनत प्राणत इन दो कल्पों के 'इन्द्र के चारसौ विमान हैं और आरण अच्युन इन कल्पों के इन्द्र के ३ सौ विमान हैं। यान विमान के विकुर्वणा करनेवाले देवों के नाम क्रमशः इस प्रकार હજાર સામાનિક દે છે. સનસ્કુમારેન્દ્રને ૭૨ હજાર સામાનિક દે છે. મહેન્દ્રને ૭૦ હજાર સામાનિક દેવે છે. બ્રહેન્દ્રને ૬૦ હજાર સામાનિક દે છે. લાન્તકેન્દ્રને ૫૦ હજાર સામાનિક દે છે. શકેન્દ્રને ૪૦ હજાર સામાનિક દે છે. સહસ્સારેન્દ્રને ૩૦ હજાર સામાનિક દે છે. આનત પ્રાણત કપ ક્રિકેન્દ્રને ૨૦ હજાર રામાનિક દેવે છે. આરણ અશ્રુત કલ્પ ક્રિકેન્દ્રને ૧૦ હજાર સામાનિક દે છે. સૌધર્મેન્દ્ર શક્રને ૩૨ લાખ વિમાને છે. ઈશાનને ૨૮ લાખ વિમાને છે. સનકુમારેન્દ્રની ૧૨ લાખ વિમાને છે. મહેન્દ્રને આઠ લાખ વિમાને છે. બ્રહ્મલે કેન્દ્રને ૪ લાખ વિમાને છે. લાન્તકેન્દ્રને ૫૦ હજાર વિમાને છે. શક્રેન્દ્રને ૪૦ હજાર વિમાને છે. સહસરેન્ડને ૬ હજાર વિમાને છે. આનત-પ્રાકૃત એ છે કપના ઈન્દ્રને ૪૦૦ વિમાને છે અને આર અય્યત એ કલ્પના ઈન્દ્રને ૩૦૦ વિમાને છે. થાન-વિમાનની વિકુ છું
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः स्.७ इशानेन्द्रावसरनिरूपणम् संख्या प्रकाराः विमानालाय इमे वक्ष्यमाणाः गानबिमानकारिणः यानक्मिान विकुर्वकाः, देवाः शक्रादिक्रमेण बोध्याः 'लं जहा-पाल्य १ पुप्फेय २ सोमणसे ३ सिरिवच्छे ४ णं दियावचे ५ कामगमे ६ पीदगमे ७ मणोरमे ८ विमल ९ सत्रभोमदे १० ॥१॥ तद्यथा: पालकः १ पुष्पकः २, सौमनसः ३ श्रीवत्सः ४ च समुच्चये, नन्दावर्तः ५ कामगमः ६ प्रीतिगमः ७ मनोरमः ८ विमलः ९ सर्वतोभद्रः १०॥१॥ इति । ___ अथ दशमु कल्पेन्द्रेषु केनचित् प्रकारेण पञ्चानाम् २ साम्यमाह-'सोहम्मगाणं' इत्यादि 'सोहम्मगाणं सगंकुलाराणं बंभलोअगाणं महामुकयाणं पाणयगाणं इंदाणं सुघोसा घंटा हरिणे गमेसी पायताणी भाहिबई उत्तरिल्ला णिज्जाणभूमी दाहिणपुरथिमिल्ले रइकरगएचए' सौधर्म कानां सौधर्मदेवलोकोत्पन्नानाम् तथा सनत्कुपारकाणाम् ब्रह्मलोकानां महाशुक्रकानां प्राणत. कानापिन्द्राणां सुघोपा घंटा हरिणेगमेपी पदात्यनीहाधिपतिः इति औत्तराहा निर्याणभूमिः से है-(१) पालक (२) पुष्पक, (३) लोशनल, (४) श्रीवत्स, नन्दावर्त (५) कामगम (६) प्रीतिगम (७) मनोरल (८) विमल और (२) सर्वलो भद्र, यही विषय'आणयपाणयाप्प, बत्तारि लयाऽऽरणच्चुए लिणि एए विमाणाणं, इमे जाणविमाणकारी देवा पालय पुप्फे य सोमणले सिरिवच्छे दियावत्ते, कामगमे पीइगले मणोरमे विमल लब्धओ भद्दे अब १० कल्पेन्द्रों में से किसी भी प्रकार से जिन पांच इन्द्रों में समानना है वह दिखाया जाता है-'सोहम्मगाणं, सणंकुमारगाणं, चंचलोअगाणं, महामुश्कयाण, पाणयमाणं, इंदाणं सुघोला घंटा, हरिणेगलेली पावसागीआहिलई, उत्तरिल्ला गिजाणभूमि दाहिणपुरस्थिमिल्ले रइकरमपच्कए' लौधर्मेन्द्रों की, सनत्कुमारेन्द्रों की, ब्रह्म लोकेन्द्रों की, महाशुकेन्द्रों की, और प्राणतेन्द्रों की सुघोषा घंटा, हारेनेगमेषो पदात्पनीकाधिपति औसराहा निर्याणभूमि, दक्षिण पौरस्त्य रतिकर पर्वत इन चार वातों को १२ना। हेवाता नामा मनु म! प्रमाणे छ-(१) ५, (२) ०५४, (3) सौमनस (४) श्रीस, नन्हावत', (५) अमगम, (6) प्रीतिभ, (७) मनोरम (८) विमा भने सang n / विषय 'आण-पाणयकापे, चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिण्णि, एए विमाणाणं, इमे जाण विनाणकारी देया पालयपुप्फेय सोमणसे सिरिवच्छे दियावत्ते, काम गमे पीइगमे मणोरमे विमल सनओभद्दे हुवे १० ४६पेन्द्रोमांथी शतरे पाय धन्द्रीमा समानता छ, ते २५०८ ४२३ामा मा छे 'सोहम्मगाणं, रणकुमोरगाणं, वंभलोअगाणं सहासुक्कयाणं, पाणय्गोणं, इनाणं सुघोसाघंटा, हरिणेगमेसी, पायत्ताणीआहिवई, उत्त. रिल्ला णिज्जाणभूमि दाहिणपुरस्थिमिल्ले, रइकरगपञ्चए' सौधर्मेन्द्रोनी, सनमान्द्रोनी ब्रह्मલેકન્દ્રોની મહાશુકેન્દ્રોની અને પ્રાણ-દ્રોની સુષા ઘંટા, હરિનેગમેષી પદત્યનકાધિપતિ ઔરહા, નિર્માણ ભૂમિ દક્ષિણ પરિત્ય રતિકર પર્વત એ ચાર વાતને લઈને પરસ્પર समानता छ. मी २ 'सोहम्मगाणे' पणे पहा. पथनना या ४२वामा
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जम्बूदीपप्रप्तिसूत्र दक्षिणपौरस्त्यो रतिकरपर्वतः, तथा 'ईसाणगाणं माहिदलंग सहस्सार अच्चुअगाणय इंदाण महायोसा घंटा लहुपरक्कमो पायत्ताणीआहिबई दकिस्खपिल्ले णिज्जाणमग्गे उत्तरपुरथिमिल्ले रइकरगपन्चए' तथा ईशानकानां माहेन्द्रलान्तकसहस्राराच्युत्तकानां च इन्द्राणां महाघोपा घण्टा लघुपराक्रमः पदात्यनीकाधिपतिः दक्षिणो निर्याणमार्गः उत्तरपौरस्त्यो रतिकरपर्वतः, 'परिसाणं जहा जीवाभिगमे' परिपत्रः खलु यथा जीवाभिगमे तत्र परिपदः, अभ्यन्तर मध्यवाह्यरूपाः यस्य यात्रदेवदेवी प्रमाणा यथा जीवामिगमे प्रतिपादितास्तथा, ज्ञातव्याः, तत्र देवानां प्रमाणमाह-शक्रस्याभ्यन्तरिकागां पर्पदि १२ द्वादशसहस्राणि देवानां, मध्यमायां लेकर आपस में सामानता है यहां जो 'सोहम्मशाणं' आदि पदों में बहुवचन का प्रयोग किया गया है वह सर्चकालवर्ती इन्द्रों की अपेक्षा से किया गया है "ईलाणगाणं महिंदत्तगतहस्तार अच्चुभगाणं इंदाणं महाघोला घण्टा लहुपरक्कलो पायताणीआहिवई, दक्विपिल्ले णिज्जाणमग्गे उत्तरपुरस्थिमिल्ले रहकरगपचए' ईशानेन्द्रों की, माहेन्द्रों की लांतकेन्द्रों की लहसारेन्द्रों की और अच्युतकेन्द्रों की महाघोजा घंटा लघुपराक्रम पदात्यनीकाधिपति, दक्षिण निर्याणमार्ग, उत्तरपौरस्त्यरतिकर पर्वत, इन चार बानों को लेकर आपस में समानता है 'परिसाणं जहा जीवाभिगसे आयरक्खा सामाणिय चउग्गुणा सब्वेसि जाणविभाणा सत्रेसिं जोधणसयसहरसविच्छिण्णा उच्चत्तेणं सविताणप्पमाणा महिंदज्झया सव्वेसि जोयणसाहस्सिभा, सबकचज्जा, मंदरे संबोअरंति जाव पन्जुवासंति' इनकी परिपदा के सम्बन्ध में जैसा जीवाभिगम सुन्न में कहा गया है वैसा ही यह कथन यहां पर भी कहलेना चाहिये-वहां का वह कथन इस प्रकार से है-परिषदाएं ३ होती हैं एक आभ्यन्तरपरिषदा दूलरी मध्यपरिषदा और तीसरी वाह्य परिषदा शक की आभ्यन्तरपरिषदा में १२ देव होते हैं, मध्यमावा छेते स ii छन्द्रोनी अपेक्षाये ४२वामा मावह छ. 'ईलाणगोण महिंदलंतगसहस्सारअच्चुअगाणं इंदाणं महाघोसो घण्टा लापरक्कमो प.यत्ताणीआहिवई, दविखणिल्ले णिज्जाणमगे, उत्तर पुरथिमिल्ले रइकरपव्वए' शान-श्रीनी, आन्द्रोनी, सतिन्द्रोनी, सखारे. ન્દ્રોની અને અશ્રુતકેન્દ્રોની મહાપા ઘંટ, લઘુ પરાક્રમ પરાત્પનીકાધિપતિ, દક્ષિણ નિર્માણ भाग, उत्तरपी२२५ २ति:२ पति, थे यार पातमा ५२२५२ समानता छ. 'परिसार्ण जहा जीवाभिगमे आयरक्खा सामाणिय च उग्गुणा सब्जेसि जाव विमाण सव्वेसि जोयण सयसहम्सविच्छिण्णा उच्चाणं सविमोणापमाणा महि दया सव्वेसि जोयणसहस्सिी , सक्कवज्जा, मन्दरे समोअरंति ज.व पज्जुवासंति' भनी परिषहाना गया ? પ્રમાણે જીવાભિગમ સૂરમાં કહેવામાં આવેલું છે, તેવું આ કથન અહીં પણ કહી લેવું જોઈએ ત્યાં તે કથન આ પ્રમાણે છે–પરિષદાઓ ૩ હોય છે એક અનંતર પરિષદા, બીજી મધ્ય પરિષદા અને ત્રીજી બાહ્ય પરિષદા શકતી આત્યંતર પરિષદામાં ૧૨ દે હોય છે.
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारा सू. ७ इशानेन्द्रावसर निरूपणम्
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१४ चतुर्दशसहस्राणि बाह्यायां १६ षोडशसहस्राणि ईशानेन्द्रस्याभ्यन्तरिकायां १० दशसहत्राणि बाह्यायां १२ द्वादशसहस्राणि' एवं माहेन्द्रस्य क्रमेण ६-८-१० षट् - अष्टौ - दशसह - स्राणि ब्रह्मेन्द्रस्य क्रमेण ४-६-८ - चत्वारि षट्-अष्टौ सहस्राणि लान्तकेन्द्रस्य क्रमेण २-४-६ सहस्राणि' शक्रेन्द्रय १-२ - ४ - रुहस्राणि सहस्रारेन्द्रस्य ५०० पञ्चाशत् शतानि १० दशशतानि २० विंशतिशतानि देवानां क्रमशो बोध्यानि, आनत प्राणतेन्द्रस्य २ द्वेशते सार्द्धं ५ पञ्चशतानि १० दशशतानि क्रमशः बोध्यानि, आरणाच्युतेन्द्रस्य १ एकं शतं २ द्वे परिषदा में १४ हजार देव होते हैं एवं बहा परिषदा में १० हजार देव होते हैं । ईशानेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में १० हजार देव होते हैं मध्य परिषदा में १२ बारह हजार देव होते हैं, और बाह्यपरिषदा में १४ हजार देव होते हैं सनत्कुमारेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में ८ हजार देव होते हैं, मध्यपरिषदा में १० हजार देव होते हैं, एवं बाह्यपरिषदा में १२ हजार देव होते हैं । माहेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में ६ हजार देव होते हैं, मध्यपरिपदा में १० हजार देव होते हैं, ब्रह्मेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में ४ हजार मध्यपरिषदा में ६ हजार और बाह्यपरिषदा में ८ हजार देव होते हैं लान्तकेन्द्र की आभ्यन्तर सभा में २ हजार देव होते हैं। मध्यपरिषदा में ४ हजार देव होते हैं और बाह्यपरिषदा में ६ हजार देव होते हैं शुक्रेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में १ हजार देव होते हैं, मध्यपरिषदा में हजार देव होते हैं और बाह्यपरिषदा में ४ हजार देव होते हैं सहस्रारेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में ५०० देव होते हैं, मध्यपरिषदा में १ हजार देव होते हैं एवं बाह्यपरिषदा में २००० देव होते हैं आनतप्राणतेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा મધ્ય પરિષદામાં ૧૪ હજાર દેવા હાય છે. તેમજ માહ્ય પરિષદામાં ૧૬ હજાર દેવા હાય છે. ઇશાનેન્દ્રની અ ભ્ય'તર પરિષદ્યામાં ૧૦ હજાર દેવેા હાય છે મધ્ય પરિષદામા ૧૨ હજાર દેવા હાય છે અને ખાદ્ય પરિષદામાં ૧૪ હજાર દેવા હોય છે. સનકુમારન્દ્રની આભ્ય તર પરિષદામાં આર્ડ હજાર દેવા હાય છે; મધ્ય પરિષદામાં ૧૦ હજાર દેવે હાય છે. તેમજ ખાદ્ય પરિષદામાં ૧૨ હજાર દેવા હાય છે, માહેન્દ્રની આભ્યંતર પરિષદામાં ૬ હજાર દેશ હૈય છે, મધ્ય પરિષદામાં ૮ હજાર દેવાડાય છે અને માહ્ય પરિષદામાં ૧૦ હજાર દેશ હાય છે. પ્રશ્નેન્દ્રની માપતર પરિષદામાં ૪ હજાર, મધ્યપરિષદામાં ૬ હજાર અને ખાદ્ય પરિષ દામાં ૮ હજાર દેવા હાય છે. લાન્તકેન્દ્રની આભ્ય તર સભામાં ૨ હજાર દેવે! હાય છે. મધ્યપરિષદ્રામાં ૪ હજાર દેવા હાય છે અને ખાદ્ય પરિષદામાં ૬ હજાર દેવા હાય છે. શક્રેન્દ્રની આભ્યંતર પરિષદામાં ૧ હજાર દેવા હાય છે, મધ્ય પરિષદામાં ૨ હજાર દેવા હાય છે અને ખાદ્ય પરિષદ્રામાં ૪ હજાર દેવે હાય છે સહસ્રારેન્દ્રની આંતર પરિષઢામાં ૫૦૦ દે હેાય છે, મધ્ય પરિષદામાં ૧ હાર દેવા ડાય છે. તેમજ માહ્ય પરિષદામાં ૨ હજાર દેવે છે આાનત પ્રાણુરેન્દ્રની આાન્યતર પરિષદામાં ૨૫૦ ઢવા ડાય
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जम्बुद्वीपप्रमसियले शते साढे ५०० पञ्चाशत् शतानि क्रयशो दोध्यानि, इमाश्च तत्तदिन्द्र वर्णके 'तिण्डं परिसाणं' इत्याधालापके यथासंख्यं मावनीया शक्रेशानयोदेवीपर्पश्यं जीनागिरामादिपु उक्तं तत्रैव विलो. कनीयम् । 'आयरक्खा सामाणिअ चउग्गुण्णा सव्वेसिं' आत्मरक्षाः अगरक्षकाः देवाः सर्वेपामिन्द्राणां स्वस्वसामानिकेभ्यश्चतुर्गणाः एते चेत्थमवर्णकेऽभिन्लाप्पाः, 'चउण्डं चउरासी णं आयरक्खदेवसाहस्सीणं चउण्डं असीइणं आयरक्खदेवसाहसीणं चाहं बावत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं आहेबच्च' इत्यादि तथा 'जाणधिमाणा सव्वेसि जोयणसयमहस्सविच्छिण्णा उच्चत्तेणं सबिमाणप्पमाणा' यानविमानानि सर्वेषां योजनशतसहसविस्तीर्णानि उच्चत्वेन स्व. विमानप्रमाणानि-इन्द्रस्य स्वस्त्रविमानं सौधर्मारसिकादि तरच प्रमाणं-पञ्चशयोजनादिकं येषां तानि तथा भूतानि, अस्यार्थः, आधशक ईशानकल्पद्विकविमानानाम् उच्चत्वं पञ्चमें अढाईसौ देव होते हैं, मध्यपरिपदा में ५ सौ देय होते हैं एवं वाह्यपरिषदा में १००० देव होते हैं आरण अच्युतेन्द्र को आभ्यन्तरपरिपदा में १ सौ देव होते हैं मध्यपरिपदा में २।। सौ देव होते हैं और बाह्यपरिषदा में सौ देव होते हैं यह सब करन वहां 'तिण्हे परिमाणं इत्यादि आलापक में यथासंख्य कहा गया है। शक और ईशान की देवियों की तीन परिषदाओं का वर्णन वही जीवा भिगमादिकों में कहा गया है अतः वहीं से यह करण जानलेना चाहिये
आत्मरक्षक देव समस्त इन्द्रों के जितने-जितने उनके कामानिक देव हैं उनसे चतुर्गुणित हैं ये वर्गक में इस प्रकार ले अभिलाय है
'चउण्हं चउरामीणं आचरखदेवनाहसीणं चउण्झं असीईणं आयरक्खदेव 'साहस्तीणं चजण्हं बावत्सरीणं आयरक्ल देव लाहस्ताणं आहेवच्छ' इत्यादिइन सब इन्द्रों के मान विमान १ लाख योजन विस्तार वाले होते हैं तथा इनकी ऊंचाई अपने अपने विमान प्रमाण होती है प्रथलहितीय कल्प में विमानों की છે, મધ્ય પરિષદામાં ૫૦૦ દે હોય છે તેમજ બાહ્ય પરિષદામાં ૧ હજારો હેય છે. આરણ અયુતેન્ડની આત્યંતર પરિષદામાં ૧૦૦ દેવ હોય છે. મધ્ય પરિષદામાં ૨૫૦ वोडाय छ मत पाहा. परिषतामा ५०० हे। डाय 2. AE मधु ४५न त्यो 'तिण्हे परिसाणं' वगैरे माता५४मा यथा सभ्य वामां भाव छ. श: मने शानेन्द्रना દેવીઓની ત્રણ પરિષદાઓનું વર્ણન તેજ જીવાલિંગમાદિકમાં કહેવામાં આવેલું છે. એથી ત્યાંથી જ આ પ્રકરણ વિશે જાણું લેવું જોઈએ. આત્મરક્ષક દેવ, સમસ્ત ઈન્દ્રોના તેમના જેટલા સામાનિક દેવે છે તેમના કરતાં ચતુર્ગણિત છે. એ બધાં વર્ણકમા આ પ્રમાણે अमिताप्य छ-'चउण्हं चउरासीणं आयक्खदेवसाहस्सीणं चउण्हं असीणंइ आयरक्खदेव साहस्सीणं आहेबच्चं' वगेरे मे. सधा नाना यान-विमान १e यस क्षा વિસ્તારવાળાં હોય છે. તથા એમની ઊંચાઈ પિત–પિતાના વિમાનના પ્રમાણ મુજબ હેય છે. પ્રથમ દ્રિતીય કપમાં વિમાનની ઊંચાઈ ૫૦૦ એજન જેટલી હોય છે. તૃતીય અને
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कार: सू. ७ इशानेन्द्रावसर निरूपणम्
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योजनशतानि द्वितीये द्विके पट्र्योजनशतानि तथा तृतीये द्विके सप्तयोजनशतानि, तथा चतुर्थे द्विके अष्टौ योजनशतानि ततोऽग्रेतने कल्पचतुष्के विमानानाम् उच्चत्वं नवयोजनशतानि तथा 'महिंदझया सव्वेसिं जोयणसाहस्सिया सकवज्जा मंदरे समोअरंति, जाव पज्जुवासंतिति' सर्वेषां महेन्द्रध्वना योजन साहसिकाः सहस्रयोजनविस्तीर्णाः शक्रवजः मन्दरेसमवसरन्ति यावत् पर्युपासते, अत्र यात्रत् पदसंग्रह, अव्यवहितपूर्वसूत्रवत् बोध्यम् व्याख्यानं च तत्रैव द्रष्टव्यम् || सू० ७ ॥
अथ भवनवासिनः
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासांसि चउसट्टीए सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसेहिं चउहिं लोगपालेहिं पंचहिं अग्ग महिसीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अयाविहिं चउहिं चउसट्टिहिं आयरक्खसाइस्सीहिं अण्णेहिअ जहा सक्के णवरं इमं णाणतं दुमो पायत्ताणीआहिवई ओघस्सरा घंटा विमाणं पण्णास जोयणसहस्साई महिंदज्झओ पंचजोयणसया विमाणकारी आभिओगिओ देवो अवसिद्धं तं चेव जाव मंदरे समोसरइ पज्जुवासऊंचाई पांचसौ योजन की होती है तृतीय और चतुर्थकल्प में विमानों की ऊंचाई ६ छसौ योजन की होती है, पांचवें और छठे कल्प में विमानों की ऊंचाइ सात सौ योजन की होती है। सातवें और आठवें कल्प में विमानों की ऊंचाई आठसौ योजन की होती है इसके बाद ९ वें १० वें और ११ वें १२ वें कल्प में ९-९ सौ योजन की ऊंचाई है । समस्त विमानों को महेन्द्र ध्वजाएं एक हजार योजन की विस्तीर्ण हैं । शक्र को छोडकर ये सब माहेन्द्र पर्वत पर आये यावत् यहां पर वे पर्युपासना करने लगे। यहां यावत्पद से संगृहीत पाठ अव्यवहितपूर्व सूत्र की तरह जानना चाहिये और उसका व्याख्यान भी वहीं पर देख लेना चाहिये ||७|| ચતુર્થાં કલ્પમાં વિમાનાની ઊંચાઇ ૬૦૦ ચેાજન જેટલી હૈાય છે. પંચમ અને ષષ્ઠ કલ્પમાં વિમાનાની ઊંચાઈ ૭૦૦ ચૈાજન જેટલી હૈાય છે. સપ્તમ એને અષ્ટમાં ૫માં વિમાનેાની याई ८०० योउन भेटसी छे. त्यार माह ८, १०, ११ भने १२ भयो ८-८ સા ચૈાજન જેટલી ઊંચાઇ હેાય છે. સવ વિમાનાની માહેન્દ્ર વ્રજાએ એક હજાર ચૈાજન જેટલી વિસ્તી હાય છે. શક્રેને બાદ કરીને એ બધા માહેન્દ્ર પર્યંત ઉપર આવ્યાં. યાવત તેઓ ત્યાં પ`પાસના કરવા લાગ્યા અહિં યાવત પદથી સંગૃહીત પાઠે અવ્યવહિત પૂર્વ સૂત્રની જેમજ જાણવા નેઈ એ. અને તેનું વ્યાખ્યાન પણ ત્યાં જ જોઇ લેવુ જોઈ એ. શા
न० ८५
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जम्बूदीपप्राप्तिसूत्र इत्ति । तेणं कालेणं तेणं समएणं बली असुरिदे असुरराया एवमेव णवरं सट्री सामाणीयसाहस्लीओ चउगुणा आयरक्खा महादुमो पायताणीआहिबई महाओहस्सरा घंटा सेसं तं चेव परिसाओ जहा जीवाभिगमे इति। तेणं कालेणं तेणं समएणं धरणे तहेब णाणत्तं छ सामाणिअ साहस्सीओ छ अग्गमहिसीओ चउशुणा आयरक्खा अहस्सरा घंटा भद्दसेणे पायत्ताणीयाहिवई विमाणं पणवीसं जोयणसहस्साई महिंदज्झओ अद्धाइजाइं जोयणसयाई एवमसुरिंदवजिआणं भवणवासि इंदाणं णवरं असुराणं ओघस्तरा घंटा गागाणं मेघस्तरा सुवण्णाणं हंसस्लरा विज्जूर्ण कोंचस्तरा अग्गिणं मंजुस्सरा दिसाणं मंजुघोसा उदहीणं सुस्सरा दीवाहां महुरस्सरा वाऊणं शंदिस्सरा थणिआणं णंदिघोसा। चउसट्टी सष्टी खलु छञ्चलहस्ताउ असुररज्जाणं । सामाणिआउ एए चउग्गुणा आयरक्खाउ ॥१॥ दाहिणिल्लाणं पायत्तागीआहिवई भद्दसेणो उत्तरिल्लाणं दक्खोत्ति। वाणमंतरजोइसिआ णेअमा एवं चेव णवरं चत्तारि सामाणिअ साहस्तीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सोलस आयरक्खसहस्सा विमाणसहस्सं महिंदज्झया पणवीसं जोयणसयं घंटा दाहिणाणं मंजुस्तरा उत्तराणं मंजुघोसा पायत्ताणीआहिवई विमाणकारीअ आभिओगा देवा जोइसिआणं सुस्सरा सुस्सरणिग्योसाओ घंटाओ मंदरे समोसरणं जाव पज्झुवासंतित्ति । सू० ८॥ - छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये चमरोऽसुरेन्द्रोऽसुरराजा, चमरचञ्चायां राजधान्या सभायां सुधर्मायां चपरे सिंहासने चतुः पष्ठया सामानिकसहौः त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिशैः, चतुर्भिः लोकपालैः पञ्चभिहामहिपीभिः, सपरिवाराभिः, तिसृभिः परिषद्भिः, सप्तभिरनिकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः, चतुर्भिः, चतुः पष्टिभिः आत्मरक्षकसहस्रैः, अन्यैश्च यथा शक्रः, नवरम् इदं नानात्वम् द्रुमः पदात्यनीकाधिपतिः, ओघस्वरा घण्टा विमानं पञ्चाशत् योजनसहस्राणि महेन्द्रध्वजः पञ्चयोजनशतानि विमानकारी आभियोगिको देवः, अवशिष्टं तदेव यावद् मन्दरे समवसरति पर्युपास्ते इति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये वलिरसुरेन्द्रोऽसुरराजः, एवमेव, नवरं पष्टिः सामानिकसहस्राणि, चतुर्गुणा आत्मरक्षकाः महाद्रुमः पदात्य
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू० ८ चमरेन्द्रभवनवांसिनां निरूपणम् ६७५ नीकाधिपतिः महौघस्वराः घण्टा शेषं तदेव परिपदो यथा जीवाभिगमे इति । तस्मिन् कालें तस्मिन् समये धरणस्तथैव, नानात्वं षटू सामानिकसहस्राः पडग्रमहिष्यः, चतुर्गुणा आत्मरक्षकाः मेघस्वरा घण्टा भद्रसेनः पदात्यनीकाधिपतिः, विमानं पञ्चविंशति योजनसहस्राणि महेन्द्रध्वजोऽवतीयानि योजनशतानि एवमसुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासीन्द्राणां नवरम् असुराणामोघस्वरा घण्टा नागानां मेघस्वरा सुपर्णानां स्वरा विद्युतास् क्रौञ्चस्वरा अग्नीनां मञ्जुस्वरा दिशां मजुघोपा, चतुष्पष्टिः षष्टिः खलु पट्रचसहस्राणि असुरवानां सामानिकास्तु एते चतुर्गुणा आत्मरक्षकाः ॥१॥ दाक्षिणात्यानां पदात्यनीकाधिपतिर्भद्रसेनः, औतराहाणां दक्ष इति । वानव्यन्तरज्योतिष्काः नेतव्या एक्मेन नवरं चत्वारि सामानिकानां सहस्राणि, चतस्रोऽयमहिष्यः षोडश आत्मरक्षकसहस्राणि विमानानि सहस्रम् महेन्द्रध्वजः पञ्चविशं योजनशतं घण्टा दक्षिणात्यानां मञ्जुस्वरा, औचराहाणां मजुघोषाः, पदात्यनीकाधिपतयो विमानकारिणश्च आभियोगिका देवाः, ज्योतिष्काणां सुस्वराः सुस्वरनि?पाश्च घण्टाः मन्दरे समवसरन्ति यावत् पथुपासते इति ॥ सू. ८॥
टीका-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले सऽभवजिनजन्मके तस्मिन् समये पट्पश्चाशत् दिक्कुमारिकाभिः, आदर्शप्रद शतादिकतत्कार्यकरणानन्तरसमये 'चमरे अमु. रिंदे असुरराया' चमरतनामकः असुरेन्द्रः, असुराणामिन्द्रोऽसुरेन्द्र: असुरराजः दक्षिणदिगधिपतिर्भवनपति देवानामधिपतिः 'चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए' चमरचञ्चायां तन्नाम्न्यां राजधान्यां समायां सुधर्मायां 'चमरंसि सीहासणंसि चमरे सिंहासने 'चउसहीए सामाणि साहस्सीहिं' चतुष्षष्टया सामानिकसहस्रः 'तायत्तीसाए वायत्तीसेहिं त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशः 'चलर्हि लोगपालेहि' चतुर्मिलोकपालैः 'पंचहिं अग्गमहिसीहि सपरिवाराहि'
'ते णं कालेणं ते णं समएणं चमरे' इत्यादि ।
टीकार्थ-'ते णं कालेणं तेणं समएणं' उस कालमें और उस समय में 'चमरे असुरिंदे असुरराया असुरेन्द्र अस्तुरराज चरम 'चमरचंचाए रायहाणीए' अपनी चमारचंचा नामकी राजधानी में 'सुहम्माए सभाए' सुधर्मा सभामें 'चमरसि. सीहासणसि' चार नामके सिंहासन पर 'चउलट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीलाए तायत्तीसेहि' चौसठ हजार सामानिक देवों से, तेतीस त्रायस्त्रिंश देवों से 'चाहिं लोगपालेहिं चार लोकपालों से 'पंचहिं अग्गमहिसीहिं सपरि
'तेणे कालेणं तेणं समएणं चमरे' इत्यादि
साथ-'तेणं कालेणं तेण समएणं' ते णे मन त समये 'चमरे असुरिंदे असुरराया' मसुरेन्द्र मसु२२।०४ यम२ 'चमरचंचाए रायहाणीए' पातानी भ२ या नाम: राधानीमा 'सुहम्माए समाए' सुधर्मा समाHi 'चमर सि सीहासणंसि' य१२ नाम सिडासन १५२ 'चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहि तायत्तीसाए तायत्तीसेहि' ६४ M२ सामानि:
थी, 33 नायनि हेवाथा 'चाहिं लोगपालेईि' यार els यासाशी 'पंचहि अग्ग
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पञ्चभिरग्रमहिपीभिः सपरिवाराभिः 'तिहिं परिसाहि' त्रिभिः परिपद्भिः 'सत्तहि अणिएहि सत्तहिं अणिआदिवई हिं' सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः 'चउहि चउसद्विहिं आयरक्खसाहस्सीहिं' चतसृभिः, चतुष्पष्टिः, आत्मरक्षकसहस्रः 'अण्णेहिभ' अन्यैश्च इत्यालापकांशेन सम्पूर्णः आलापकस्त्वयं बोध्यः 'चमरचंचारायहाणीवत्थव्वे हि वहूहि असुरकुमारेहि देवेहिय देवी हिअत्ति जहा सक्के' यथा शक्रस्तथायमपि ज्ञातव्यः 'णवर' नवरम् अयं विशेषः 'इमं णाणत्त' इदम् नानात्वम् भेदः 'दुमो पायताणोभाहिबई' द्रुमः तन्नामका पदात्यनीकाधिपतिः 'ओवस्सरा घंटा' ओघस्वरा तन्नाम्नी घण्टा 'रिमाणं पण्णासं जोयणसहस्साई' विमानं यानविमानं पञ्चाशत् योजनसहस्राणि विस्तारायामम् महिंदज्झ मो पंचजोयणसयाई महेन्द्रध्वजः पञ्चयोजनशतानि उच्चः 'विमाणकारी आभिओगीओ देवो' विमानकारी विमाननिर्माता आभियोगिको देवो न पुनमानिकेन्द्राणां पालकादिरिव नियतनामकः 'अवसिह तंव जाव मंदरे समोसरइ पज्जुवासईत्ति' अवशिष्टं तदेव शक्राधिकारोक्तमेववाच्यम् नवरं दक्षिणपश्चिमो वाराहिं' अपने अपने परिवारसहित पांच अग्रमहिषियों से 'तिहिं परिसाहिं' तीन परिपदाओं से 'सत्तहिं अणिएहिं' सात अनीकों सैन्यो से 'सत्तहिं अणी. आहिवइहिं चरहिं चउसट्ठीहिं आयरक्खसाहस्सीहि' सात अनीकाधिपतियों से चार चौसठ हजार आत्मरक्षा में '२५००० आत्मरक्षक देवों से' तथा 'चमरचंचा रायहाणीवत्थव्वेहिं बहहिं असुरकुमारेहिं देवेहिअ देवीहि य' चमरचंचा राज धानी में रहे हुए अनेक असुरकुमार देवों एवं देवियों से युक्त हुआ बैठा था वह भी 'जहा सक्के' सौधर्मेन्द्र की तरह 'जाव नंदू समोसरइ' यावत् मन्दर पर्वत पर आया ऐसा यहां अन्वय लगालेना चाहिये 'शक के ठाटबाट में और इसके ठाटवाट में 'इमं णाणत्तं' यही भिन्नता है कि 'दुमो पायत्ताणीआहिवई ओघस्सरा घंटा, विमाणं पण्णासं जोयणसयसस्साई महिंदज्झओ पंचजोयणसयाई, विमाणकारी आभिओगिओ देवो अवसिह तं चेव जाव मंदरे समोसरई' इसकी पैदल चलनेवाली महिसीहिं सपरिवाराहि' पान-पोताना परिवार साथे पाय अमहिषीमाथी 'तिर्हि' परिसाहि' न परिहायोथी 'सत्तहिं अणिएहि सात मनी सैन्याथी 'सत्तहिं अणीआहिव इहिं चउसट्ठीहिं आयरक्खसाहस्सीहि सात मनाधिपतिमाथी, या२ ६४ ७०१२ भाभ२था (२५९००० यात्मरक्ष वाथी) तथा 'चमरचंचारायहाणी वत्थवेहि बहूहि असुरकुमारेहिं देवेहि अ देवीहिय' याभरय या २४धानीमा २९ना। मन मसुमार हे। मन हेवामाथी युक्त गेही त प 'जहा सबके सौधर्मेन्द्रनाम 'जाव मंदरे समोसरह' यावत मन्दर पति 6५२ माव्या. मे मो मन्त्रय समाय नम शना 18-मामा भने माना 8-भाभा 'इम णाण मास तत छ -'दुमा पायत्ताणीआदिवई ओघस्सरा घण्टा, विमाणं पग्णासं जोयगस यसहस्साई महि दज्झओ । पंचजोयणसयाई, विमाणकारी आभियोगिओ देवो अवसिद्रं तं चेव जाव मंदरे समोसर
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः लू. ८ चमरेन्द्रभवनवासिनां निरूपणम्
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रतिकरपर्वतः कियद्दूरमित्याह - यावन्मन्दरे समवसरति पर्युपास्ते इति । अथ बलीन्द्रः ' तेणं काणं' इत्यादि 'ते कालेणं तेणं समएणं बली असुरिंदे असुरराया एवमेत्र' तस्मिन् काले तस्मिन् समये क्लीरसुरेन्द्रोऽसुरराजः एवमेव चमर इव 'णवरं सट्टीसामाणि साहस्सीओ' नवरस् अयं विशेष: । पष्टिः सामानिकसहस्राणि षष्टिसहस्रसंख्याक सामानिका इत्यर्थः 'चउगुणा आयरक्खा' चतुर्गुणा आत्मरक्षकाः, समानिकसंख्यातञ्चतुर्गुणसंख्याका आत्मरक्षका इत्यर्थः । पदं पञ्चाशत् सहस्राधिक द्विलक्षमिति यावत् 'महादुमो पायताणीआहिवई' महा द्रुमः तन्नामकः पदात्यनीकाधिपतिः 'महाओहस्सरा घंटा' महौघस्वरा घण्टा व्याख्यातोऽधिकं प्रतिपाद्यते इति चमरचञ्चास्थाने वलिचञ्चा दाक्षिणात्यो निर्याणमार्गः, उत्तरपश्चिमे रतिकरपर्वतः इति । 'सेसं तं चेव' शेषं यानविधान विस्तारादिकं तदेव एतस्मिन्नेव सूत्रे पर्षदो सेनाका अधिपति-पदात्यनीकाधिपति देव द्रुम नामवाला था घंटा इसकी ओधस्वरा नामकी थी यात विज्ञान इसका ५० हजार योजन का विस्तारवाला था इसकी महेन्द्र ध्वजा ५०० योजन ऊंची थी विमानकारी यह आभियोगिक देव था बाकी का और सब कथन जैसा शक्र के अधिकार में कहा गया है वैसा ही है इसका रतिकर पर्वत दक्षिण पश्चिम दिग्वर्ती होता है कि जहां पर आकर वह वहां से चलता है वहाँ मन्दर पर आकर इसने प्रभुकी पर्युपासना की 'तेगं काले लेणं समएणं' उस कालवें जब कि प्रभुका जन्म हुआ और उस समय में जब कि ४५ दिक्कुमारिकाएं आदर्श प्रदर्शनादिरूप कार्य कर चुकी 'बली असुरिंदे असुरराचा एवमेव वरं सही सामाणीभ साहस्सीओ चउगुणा आयरक्खा महादुमो पायन्ताणी आहिवई महाओहस्सरा घण्टा सेसं तंचेव' असुरेन्द्र असुरराज बली भी चमर की तरह मन्दर पर्वत पर आया और उसने भी प्रभु की पर्युपासना को 'नवरे' पद से यह अन्तर प्रकट किया गया है कि इसके આની પાયદળ ચાલનારી સેનાના અધિપતિ-પદાત્યનીકાધિપતિ-દ્રુમ નામ વાળા હતે એની ઘંટાનું નામ એઘસ્વરા હતું. એનું યાન-વિમાન ૫૦ હજાર ચેાજન જેટલા વિસ્તારવાળુ' હતુ. આની મહેન્દ્રવજા ૫૦૦ ચેાજન જેટલી ઊંચી હતી. આ વિમાનકારી આભિચાગિક દેવ હતે. શેષ મધુ કથન જે પ્રમાણે શક્રના અધિકારમાં કહેવામાં આવ્યું છે, તેવું જ છે. આના રતિકર પર્વત દક્ષિશ દિશ્વતી હાય છે કે જ્યાં આવીને તે ત્યાંથી ચાલે છે. त्यां भन्दर उपर भावीने तेथे अलुनी पर्युपासना ४री. 'तेनं कालेणं तेणं समएणं ते अजे અને તે સમયે, જ્યારે પ્રભુના જન્મ થયા અને જયારે પ૬ કુિમારિકાએ આદ अहर्शनाहि ३५ कार्य साहन पुरी यूही त्यारे 'बली असुरिंदे असुरराया एवमेव णवर सट्टी सामाणीअ साहस्सीओ चउगुणा आयरक्खा महादुमो पायत्तणीहिवई महाओ - हसरा घंटा सेसं तं चेत्र' सुरेन्द्र मसुरडुभाराज जी पशु अभरनी प्रेम न भन्दर પર્વત ઉપર આવ્યા અને તેણે પણ પ્રભુનો પયુ પાસના કરી, વર'' પદ્મથી આ તłાવત
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मम्वृद्धीपप्रबप्तिसूत्र यथा जीवाभिगमे इदं च सूत्रं देहली दीपन्यायेन सम्बन्धनीगं यथा देहलीयो दीपोऽन्तस्था देहलीस्थ वाह्यस्थवस्तु प्रकाशनोपयोगी भवति तथेदमपि, उक्ते चमराधिकारे उच्यमाने बलीन्द्राधिकारे वक्ष्माणेपु अप्टस भवनपतिपु उपयोगि भवति । त्रिष्यपि अविकारेपु पर्पदो वाच्या इत्यर्थः । तथाहि चमरस्थाभ्यन्तरिकायां पर्पदि २४ सहस्राणि देवानाम् मध्यमायां २८ सहस्राणि वाह्यायां ३२ सहस्राणि तथा बलीन्द्रस्याभ्यन्तरिकायां पर्पदि २० सहस्राणि मध्यमायां २४ सहस्राणि वाह्यायां२८ सहस्राणि तथा धरणेन्द्रस्याभ्यन्तरिकायां पर्पदि ६० हजार सामानिक देव थे और सामानिक देवों से चौगुने आत्मरक्षक देव थे सेनापति महाद्रुम नामका देव था महीघस्वरा नामकी इसकी घंटा थी वांकी का
और सब यान विमानादि के विस्तार का कथन चमर के प्रकरण जैसा ही है 'परिसाओ जहा जीवाभिगमे' इसकी तीन परिषदाओं का वर्णन जसा जीवाभिगम सूत्र में कहा है वैसा ही यहां पर जानना इसकी राजधानी का नाम पलिचचा है इसके निकलने का मार्ग दक्षिणदिशा से होता है अर्थात् यह दक्षिण दिशा से होकर निकलता है इसका रतिकर पर्वत उत्तर पश्चिमदिरवर्ती होता है 'जहा जीवाभिगमे यह सूत्र देहली दोपक न्याय से सम्बन्धनीय समझना चाहिये क्योंकि कहे गये चनराधिकार में एवं कहे जानेवाले पलीन्द्रादि अधिकार में आठ भवनपतियों के कथन में उपयोगी हुआ है चमरकी आभ्यन्तर परिपदा में २४ हजार, मध्यपरिषदामें २८ हजार और वालपरिपदा में ३२ हजार देव हैं चलीन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में २० हजार, मध्यपरिपक्षा में २४ हजार और बायपरिषदा में २८ हजार देव हैं धरणेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે એને ૬૦ હજાર સામાનિક દેવે હતા અને સામાનિક દેવો કરતાં ગણુ આત્મરક્ષક દેવ હતા. સેનાપતિ મહા ક્રમ નામક દેવ હવે મહીસ્વરા નામક એની ઘટા હતી. શેષ બધું યાન -વિમાદિક વિસ્તારનું કથન ચગરના પ્રકરણના થન २॥ छे. 'परिसाओ जहा जीवाभिगमे' सनी र परिपहायानु पनि प्रमाणे છવાભિગમ સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલું તેવું જ અહીં પણ સમજવું. એની રાધાનીનું ; નામ બલિચંચા છે. આને નીકળવાનો માર્ગ દક્ષિણ દિશા તરફ હેબ છે. એટલે કે આ દક્ષિણ દિશા તરફ લઈને નીકળે છે અને રતિકર પર્વત ઉત્તર-પશ્ચિમ દિગ્વતી हीय. 'पर्पदो यथा जीवाभिगमे' मा सूत्र हेयी ५४ न्याययो Aled सभा જઈ એ. કેમકે કહેવામાં આવેલા ચમરાધિકારમાં તેમજ હવે જે માટે કહેવામાં આવશે તે બલીન્દ્રાદિકના અધિકારમાં, આઠ ભવનપતિઓના ઠકમાં આ ઉપયોગી હોય છે. ચરમની આધંતર પરિષાદામાં ૨૪ હજાર, મધ્યપરિષદમાં ૨૮ હજાર અને બાહ્ય પરિષદમાં ૩૨ હજાર દેવે છે. બલીન્દ્રની આત્યંતર પરિષદામાં ૨૦ હજાર મધ્ય પરિષદમાં ૨૪ હાર ' અને બાહ્ય પરિષદમાં ૨૮ હજાર દે છે. ધરણેન્દ્રની આ તર પરિષદામાં ૬૦ હજાર
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कार सू. ८ चमरेन्द्रभवनवासिनां निरूपणम् ६७९ ६० सहस्राणि मध्यमायां ७० सहस्राणि वाह्यायां ८० सहस्राणि भूतानन्दस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि ५० सहस्राणि मध्यमायां ६० सहस्राणि बाह्यायां ७० सहस्राणि अवशिष्टनां भवन वासि पोडशेन्द्राणां मध्ये ये वेणुदेवादयो दक्षिणश्रेणिपतयस्तेषां पर्पत्रयं धरणेन्द्रस्येव उत्तर श्रेण्यधिपानां वेणुदालिप्रमुखाणां भूतानन्दस्यैव ज्ञातव्यम्, अथ धरणः 'तेणं कालेणं तेणं समए णं धरणे तहेव' तस्मिन् काले तस्मिन् समये धरणस्तथैव चमरवत्, अयं विशेष: 'णाणत्त' नानात्वं भेदः 'छ सामाणिअ साहस्सीओ' षट् सामानिकसहस्राणि 'छ अग्गमहिसीओ चउगुणा आयरक्खा' षडग्रमहिष्यः चतुर्गुणा आत्मरक्षशः, षट् संख्यातश्चतुर्गुणा २४ आत्मरक्षका इत्यर्थः 'मेघस्सराघंटा' मेघस्वरा घण्टा 'भद्दसेणो पायत्ताणीयाहिवई' भद्रसेनः तन्नामकः पदात्यनीकाधिपतिः 'विमाणं पणवीसं जोयणसहस्साई विमानं पञ्चविंशति योजनसहस्राणि पञ्चविंशतिसहस्रयोजनपरिमितं विस्तारायाममित्यर्थः 'महिंदम्झओ अद्धा६० हजार, मध्यपरिषदा में ७० हजार और बायपरिषदा में ८० हजार देव हैं। भूतानन्दकी आभ्यन्तरपरिषदा में ५० हजार मध्यपरिषदा में ६० हजार और बाह्यपरिषदा में ७० हजार देव है । अवशिष्ट भवनवासियों के १६ इन्द्रों में से जो वेणुदेवादिक दक्षिण श्रेणिपति हैं उनकी परिषत्रय धरणेन्द्र की परिषत्रय के जैसी है तथा उत्तरश्रेणि के अधिपति वेणुदालि आदिकों की परिषत्रय भूतानन्द की तीन परिषदाओं के जैसी है ऐसा जानना चाहिये 'तेणं कालेणं तेणं समएणं धरणे तहेव' उस कालमें और उस समय में धरण भी चमर की तरह ही बडे-भारी ठाटबाट से मन्दर पर्वत पर आया परन्तु वह 'छ सामाणिय साहस्सीओ, ६ अग्गमहिसीओ, चउग्गुणा आयरक्खा, मेघस्सरा घण्टा, भद्दसेणो पायत्ताणीयाहिवई विमाणं पणवीसं जोयणसहस्साइं महिंदज्झओ अद्धाहज्जाई जोयणसयाई ६ हजार सामानिक देवों से ६ अग्रमहिषियों से एवं सामानिक देवों की अपेक्षा चौगुने आत्मरक्षकों से युक्त होकर आया इसकी મધ્ય પરિષદામાં ૭૦ હજાર, અને બાહ્ય પરિષદમાં ૮૦ હજાર દેવે છે. ભૂતાનન્દની આત્યંન્તર પરિષદામાં ૫૦ હજાર મધ્ય પરિષદામાં ૬૦ હજાર અને બાહ્ય પરિષદામાં ૭૦ હજાર દે છે. શેષ ભવનવાસિઓના ૧૬ ઈન્દ્રોમાંથી જે વેણુદેવાદિક દક્ષિણ એણિપતિઓ છે. તેમની પરિષદુ ત્રય ધરણેન્દ્રની પરિષદુ ત્રય જેવી છે તથા ઉત્તર શ્રેણીના અધિપતિ વેણુદાતિ આદિકની પરિષદુત્રય ભૂતાનન્દની ત્રણ પરિષદાઓ જેવી છે. એવું लशुन . 'तेणं कालेणं तेगं समरणं धरणे तहेव' ते ४ाणे म२ ते सभये ५२ ५ भूम 8.8-मा: साथै यभरनी गेम म४२ ५'त माव्या. पर ते 'छ सामाणिय साहस्सीओ ६ अग्गमहिसीओ, चउग्गुणा आयरक्खा, मेघस्सरा घंटा, भद्दसेणो पायत्ताणीयाहिवई विमाण पणवीसं जोयणसहस्साई महिंदमओ अद्धाइज्जाई जोयणसयाई' ६ १२ સામાનિક દેવેથો ૬ અમહિષીઓથી તેમજ સામાનિક દેવેની અપેક્ષાએ ચાર ગુણા
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अम्बुढोपमामि । इज्जाई जोयणप्पयाई' महेन्द्रध्वजोऽर्द्धतृतीयानि योजनशनानि साद्विशनयोजनानि उच्च इत्यर्थः, अथ अवशिष्ट भवनवासीन्द्र वक्तव्यताम् अस्यानिदेशेनाह-एवं' इत्यादि एवं असुरिंद वजिआणं भवणवासिइंदाणं' एवमरेन्द्रवजितानां भवनबासीन्द्राणाम् एवं धरणेन्द्रन्यायेन असुरेन्द्राभ्यां चमरवासीन्द्राभ्यां वनितानां भवनवासीन्द्राणाम् भूतानन्दादीनां वक्तध्यता ज्ञातव्या 'णवर नवरम् अयं विशेष: 'अमुगणं ओघममग घंटा' अमुगणाम् अनुरकुमाराणाम् ओघस्वरा घण्टा ‘णागाणं मेघम्सरा' नागानां नागकुमागणां मेघस्वरा 'मुवण्णाणं इसरसरा' सुवर्णानां गरुडकुमाराणां घण्टा मस्वग घण्टा "विजणं कोचस्सरा' विद्युतां विद्युत्कुमाराणां क्रौंचस्वरा घण्टा अग्गीणं मंजुम्सरा' अग्नीनाम् अग्निकुमाराणाम् मेघस्वर नामकी घंटा थी पदात्पनीकाधिपति का नाम भद्रसेन था २५ हजार योजन प्रमाण विस्तार वाला इसका यान विमान था इसकी महेन्द्र ध्वजा २५० योजन की ऊंची थी 'एवमसुरिंदवज्जियाणं भवणवामिदाणं, णव असुराणं ओघस्सरा घण्टा णागाणं मेघस्सग सुवगाणं हलस्सरा, विज्जूणं कोचस्सरा, अग्गीणं मंजुस्लरा दिसाण मंजुघोसा, उदहीणं सुस्लरा, दीवाणं महुरस्सरा, वाऊणं णंदिस्सरा, थणियाणं दिघोसा, चउसठ्ठी बलु छच्च सहस्सा उ असुरवजाणं ! सामाणिआ उ एए चउग्गुण! आपरग्बाउ ||१|| इसी तरह ले धरणेन्द्र की वक्तव्यता के अनुसार असुरेन्द्रों-नगर और बलीन्द्र को छोडकर भवन वासीन्द्रों के भूतानन्दादिकों के सम्बन्ध मी सो वक्तव्यता जाननी चाहिये । अन्तर केवल इतना ही है कि अलुरकुमारों की घंटा ओघस्वरा नामकी नागकुमारों की घंटा मेघस्वरा नाम की है सुपर्ण कुमारों की घंटा हमस्वरा नामकी है विद्युत्कुमारों की घंटा क्रौचस्वरा नामकी है अग्निकुमारों की घंटा मंजुस्वरा नामकी है दिक्कुमारों की घंटा मंजुघोपा नामकी है उदधिઆત્મરક્ષક દેથી યુક્ત થઈને આવ્યો. એની મેઘવર નામની ઘટ હતી પરાત્પનીકાધિપતિનું નામ ભદ્રસેન હતું. ૨૫ હજાર યેાજન પ્રમાણ વિસ્તારવાળું એનું યાન-વિમાન હતું. આની भडेन्द्र २५० थान रेखा यी ती 'एव मसुरिंदवज्जियाणं भवणवासिइंदाणं णवर असुरोण ओघम्सरा घण्टा गागाणं मेघस्सरा सुवण्णाणं हंसस्सरा, विज्जूणं कोंचरसरा, अग्गीणं मंजुरस्सरा दिसाणं मंजुघोसा, उहीणं सुस्सरा, दीवाणं महुरसरा, वाऊणं णंदिस्सरा, धणियाणं गंदिघोसा, चउसट्ठी खलु छच्च सरस्सा उ असुरवज्जाणं सामाणिआ उ एए चउरगुणा आयरक्खाउ ॥ १ ॥' मा प्रमाणे शेन्द्रनी पतव्यता भुषण मसुरेन्द्रीચમર અને બલીન્દ્રોને બાદ કરીને ભવનવાસીન્દ્રોના–ભૂતાનન્દાદિકના વિશેની વક્તવ્યતા જાણવી જોઈએ. તફાવત ફક્ત આટલે જ છે કે અસુરકુમારોની ઘંટા ઓઘસ્વરા નામક છે અને નાગકુમારની ઘંટા મેઘસ્વરા નામક છે. સુપર્ણકુમારની ઘટા હંસસ્વરા નામક છે. વિદ્યુહુમાની ઘંટા ચસ્વરા નામક છે. અગ્નિકુમારની ઘંટ મંજુવર નામક છે.
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू० ८ चमरेन्द्रभवनवासिनां निरूपणम् ' मञ्जुस्वरा घण्टा 'दिसाणं मंजुघोसा' दिशाम् दिक्कुमाराणाम् मजुघोपा घण्टा 'उदहीणं मुस्सरा' उर्दधीनाम् उदधिकुमाराणाम् सुस्वरा घण्टा 'दीवाणं महुरस्सरा' द्वीपानां द्वीपकुमाराणां मधुरस्वरा घण्टा 'पाऊणं णंदिस्सरा' वायूनां वायुकुमाराणां नन्दि. स्वरा घण्टा 'थणिभा गं गंदिघोसा' स्तनितानां स्तनितकुमाराणं नंदिघोषा घण्टा एषामेवोतानुक्तसामानिक संग्रहार्थम् गाथामाह-'चउसट्ठी सट्टी खलु छच्च सहस्साउ अमुरवजाणं' सामाणिआउ एए चउग्गुणा आयरक्खाउ ॥१॥ चतुष्पष्टिः षष्टिः खलु षट् च सहस्राणि असुरवर्जानां सामानिकाच एते चतुर्गुणाः आत्मरक्षकाः ॥१॥ तत्र चतुप्पष्टिश्चमरेन्द्रस्य, षष्टिबलीन्द्रस्य खलु निश्चये पट् सहस्राणि, अमुरवानां धरणेन्द्रादीनामष्टादश भवनवासीन्द्राणाम्-सामानिकाः, च पुनरर्थे भिन्नक्रमे तेन एते सामानिकाः, चतुर्गुणाः, पुनरात्मरक्षकाः भवन्ति ॥१॥ 'दाहिणील्लाणं पायताणीआहिवई असेणो उत्तरिल्लाणं दक्खोत्ति' दाक्षिणात्यानां चमरेन्द्रवर्जितानां भवनपतीन्द्राणां भद्रसेनः पदात्यनीकाधिपतिः, औत्तराहाणां बलिवर्जितानां दक्षो नाम पदात्यनीकाधिपतिः । अथ व्यन्तरेन्द्रज्योतिप्केन्द्राः 'वाणमंतर' कुमारों की घंटा सुस्वरा नामकी है द्वीपकुमारों की घंटा मधुरस्वरा नामकी है वायुकुमारों की घंटा नन्दिघोषा नामकी है इन्हीं के सामानिक देवों को संग्रह करके प्रकट करनेवाली यह गाथा सूत्रकार ने कही है-चमर के सामानिक देवों की संख्या ६४ हजार है बलीन्द्र के सामानिक देवों की संख्या ६० हजार है धरणेन्द्र के सामानिक देवों की संख्या ६ हजार है इसी तरह ६ हजार असुरवर्ज धरणेन्द्रादि १८ भवनवासीन्द्रों के सामानिक देव हैं तथा इनके आत्मरक्षक देव सामानिक देवों से चौगुने हैं । 'दाहिणिल्लाणं पायत्ताणियाहिवई भद्दसेणो उत्तरिल्ला णं दक्खोत्ति' दक्षिणदिग्वतां चमरेन्द्रवर्जित भवनपतीन्द्रों का पदात्यनीकाधिपति भद्रसेन है तथा उत्तर दिग्वीं बलिवर्जित भवन पतीन्द्रों का पदात्यनीकाधिपति दक्ष है यद्यपि घंटादिकों का कथन पहिले अपने अपने प्रकरण में आए हुए सूत्रों द्वारा कहा जा चुका है फिर भी દિકુમારની ઘંટા મંજુષા છે. ઉદધિકુમારની ઘંટા સુરવરા નામક છે. દ્વીપકુમારની
ઘંટા મધુર સ્વરા નામક છે. વાયુકુમારની ઘટા નદિશે ષા નામક છે. એમના જ સામાનિક . દેવેને સંગ્રહ કરીને પ્રકટ કરનારી આ ગાથા સૂત્રકારે કહી છે–ચમરના સામાનિક દેવેની . સંખ્યા ૬૪ હજાર છે. બલીન્દ્રના સામાનિક દેવની સ ખ્યા ૬૦ હજાર છે. ધરણેન્દ્રના સામાનિક દેવેની સંખ્યા ૬ હજાર છે. આ પ્રમાણે ૬ હજાર અસુરવ ધરણેન્દ્રાદિ ૧૮ ભવન વાસીન્દ્રોના સામાનિક દેવે છે તેમજએમના આત્મરક્ષક દેવે સામાનિક દેવે કરતાં यार गए। छे. 'दाहिणिल्लाणं पायत्ताणीआहिवई भदसेणो उत्तरिल्लाणं दक्खोत्ति' क्षिय દિગ્વતી અમરેન્દ્ર વર્જિત ભવનપતીન્દ્રોને પદત્યનીકાધિપતિ ભદ્રસેન છે. તથા ઉત્તર 'દિવર્તી બલિ વર્જિત ભવનપતીન્દ્રોનો પદાયનેકાધિપતિ દક્ષ છે. જો કે ઘંટાદિકનું કથન પહેલાં પિત–પિતાના પ્રકરણમાં આવેલાં સૂત્રો વડે કહેવામાં આવેલું છે તે સમુદાય વાક્યમાં
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जम्बूद्वीपप्रतिको इत्यादि 'वाणमंतरजोइसिया णेयच्या' वानव्यन्तरज्योतिष्काः व्यन्तरेन्द्राः ज्योतिष्केन्द्राश्च . नेतव्याः; शिष्यवृद्धि प्रापणीयाः 'एवमेव एवमेव यथा भवनवासिनस्तथैवेत्यर्थः 'णवरं चत्तारि सामाणिभ साहस्सीओ चत्तारि अग्गम हिसीओ सोलस पायरक्खसहस्सा' नवरम् अयं विशेषः चत्वारि सामनिकानां सहस्राणि चतसोऽयमविध्यः पोडश आत्मरक्षकसहस्राणि 'विमाणा सहस्सं महिंदज्झया पणवीस जोयणसयं' विमानानि योजनसहस्सम् आयामविष्कम्भाभ्याम्, . महेन्द्रध्वजः, पञ्चविंशत्यधिकयोजनशतम् 'घंटा दाहिणाणं मंजुस्सरा' घण्टा दाक्षिणात्यानाम् मजुस्वराः 'उत्तराणं मंजुघोसा' औत्तराहाणां मजुघोपाः घण्टा: 'पायताणीआहि वई विमाणकारी अ आभिओगा देवा' पदात्यनीकाधिपतयो विमानकारिण्यश्व आभियोगिमाः जो यहां प्रकट किया गया है वह समुदाय वाक्य में सर्व संग्रह के निमित्त ही प्रकट किया गया है 'चाणमंतरजोइलिया णेयधा एवं चेव' जित प्रकार से यह पूर्व में भवनवासियों के सम्बन्ध में कथन किया गया है उसी प्रकार से वानव्यन्तरों एवं ज्योतिष्क देवों के सम्बन्ध में भी कथन करलेना चाहिये पूर्वोक्त कथन से इनके कथन में 'णवरं' जो अन्तर है वह इस प्रकार से है'चत्तारि सामाणिय साहस्सीओ, चत्तारी अग्गमहिसीओ, सोलह आयरक्खसहस्सा विमाणा सहरस, महिंदज्झया पणवीसं जोयणलयं घंटा दाहिणाणं मंजुस्सरा उत्तराणं मंजुघोसा' इनके सामानिक देवों की संख्या चार हजार होती है इनकी पट्टदेवियां चार होती हैं आत्मरक्षक देव इनके १६ हजार होते हैं। इनके यान विमान एक हजार योजन के लम्बे चौडे होते हैं महेन्द्रध्वज की ऊंचाई १२५ योजन की होती है। दक्षिणदिग्वी व्यानव्यन्तरों की घंटाएं सुस्वरा नमकी होती है एवं उत्तर दिग्वर्ती वानव्यन्तरों की घंटाएं सुंजुघोषा नायकी होती है 'पायत्ताणीआहिचई विमाणकारी अ आभिओगा देवा' इनके सर्वस बहुना निमित्तथी हट ४२वामा साव छ 'वाणमंतरजोइसिया कव्वा एवं चेव' मे प्रमाणे या पूर्व भा जवनवासियोना समधमा ४थन प्रगट ४२पामा मासु છે તે પ્રમાણે જ વનવ્યંતરે તેમજ તિષ્ક દેના સંબંધમાં પણ કથન રામજી લેવું नये. पूर्वरित ४थन ४Rai 20 ४थनमा ‘णवर' २ तशत छ ते मा प्रभाए छ'चत्तारि सामाणियसाहम्सीओ, चत्तारि अग्गमहिसीओ, सोलस आयरक्खसहरसा विमाणा सहस्सं, महिंदझया पणवीसं जोयणसय घंटा दाहिणाणं भंजुस्सरा उत्तराणं मजुघोसा' मेमना સામાનિક દેવેની સંખ્યા ચાર હજાર જેટલી છે. એમની પટ્ટ દેવીએ ચાર હોય છે. એમના આત્મરક્ષક દેવે ૧૬ હજાર હોય છે. એમના ચાન-વિમાને એક હજાર એજન જેટલા લબાડા હોય છે. મહેન્દ્ર પ્રજની ઊંચાઈ ૧૨૫ પેજન જેટલી છે. દક્ષિણ દિગ્વતી" વ્યાનવ્યતાની ઘંટાઓ મંજુસ્વરા નામની છે અને ઉત્તર દિગ્વતી વાનગૅતની મંજુષા नाभ४ सय छे. 'पायताणीआहिवई विमाणकारीअ आमिओगा देवा' मेमना हत्यना
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमस्कारः सू. ८ चमरेन्द्रभवनवासिनां निरूपणम्
देवा स्नाम्यादिष्टाहि आभिओगि देवाः घण्टा वादनादिकर्मणि विमानविकुर्वणे च प्रवर्त्तन्ते न पुनर्हरिनिगमै पिवत् पालकवच्च निर्दिष्टनामका इत्यर्थः, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति बलात् सूत्रेऽनुकमपि इदं बोध्यम्-तथाहि सर्वेषामाभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवानाम् ८ अष्ट सहस्राणि मध्यमायां १० दशसहस्राणि बाह्यायां १२ द्वादशसहस्राणि इति । एषामुल्लेखस्त्वयम् 'तेगं कालेणं तेणं समएणं काले णामं पिसाईदे पिराायराया चउहिं सामाणिअ साहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं तिर्हि परिसाहिं सत्तहिं अणी एहिं सतहिं अणीआहिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं तं चेत्र एवं सव्वेवीति' व्यन्तरा इव ज्योतिष्का अपि ज्ञातव्याः तेन सामानिकादि संख्यासु न विशेषो ज्योतिष्काणाम् किन्तु पदात्यनीकाविपति और विमानकारी अभियोगिक देव होते हैं । तात्पर्य यह है कि स्वामियों द्वारा आदिष्ट हुए आभियोगिक देव ही घण्टावादन आदि कार्य में एवं विमान की विकुर्वणा करने में प्रवृत्त होते हैं हरिनिगमैषी की तरह या पालक की तरह ये निर्दिष्ट नामवाले नहीं होते हैं । व्याख्या विशेष प्रतिपादिनोय होती है इस कथन के अनुसार सूत्र में नहीं कहा गया है वह इस प्रकार से वहां समझ लेना चाहिये वानव्यन्तरो की भी तीन परिषदाएं होती हैं इनमें आभ्यन्तर परिषदा में ८ हजार देव होते हैं, मध्यपरिषदा में १० हजार देव होते हैं और बाह्यपरिषद में १२ हजार देव होते हैं इनका उल्लेख इस प्रकार से हैं- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं काले णामं पिसाईदे पिसायराया चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिँ अग्गमहिस्सीहिं सपरिवाराहिं तिर्हि परिसाहिं सत्तहि अणीएहिं सत्तहिं अणीआहिवरहिं सोलसहिं आयरक्ख देव साहसी हिं' इस पाठका अर्थ स्पष्ट है 'तं चैव एवं सव्वे वि' व्यन्तरों के इस पूर्वोक्त कथन के जैसा ही ज्योतिष्क देवों का भी कथन जानना चाहिये परन्तु 'जोइसिआणंति કાધિપતિ અને વિમાનકારી આભિયાગિક દેવા હાય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે સ્વામીએ વધુ આગ઼પ્ત થયેલા આભિયાગિક દેવ જ ઘટા વાઇન વગેરે કાર્ટીમાં તેમજ વિમાનની વિધ્રુણા કરવામાં પ્રવૃત્ત હેાય છે. હૅરિનિગમૈષીની જેમ અથવા પાલક દેવની જેમ એએ નિર્દિષ્ટ નામવાળા હોતા નથી વ્યાખ્યા વિશેષ પ્રતિપાદિની હાય છે. આ કથન મુજબ જે સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલું નથી તે આ મુજબ અહીં સમજી લેવું જોઈએ. વાનન્ય તાની પણ ત્રણ પરિષદાએ હાય છે. એમાં જે આભ્યંતર પરિષદા છે તેમાં ૮ હજાર દેવા હૈાય છે. मध्य परिषहामा १२ र देवो होय छे. मे समधमां उसे या प्रमाणे छे. 'तेणं कालेणं ते सनए काले णामं पिसाइंदे पिसायराया चउहि सामाणियसाहस्सीहिं चउहि अभामहि - सीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणोएहिं सत्तहि अणीआहित्रइहिं सोलसहि आयखदेव साहस्सीहि ' मा पाहनो अर्थ स्पष्ट छे. 'तं चेत्र एवं सव्वे वि' व्यतिरौना पूर्वोक्त स्थन भुज्योतिष्ङ देवानु वन पशु लागवु लेई मे. परंतु 'जोइसि•
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अम्यूद्वीपप्राप्तिसूत्र घण्टासु विशेपा तमेवाह-'जोइसिआणं' इत्यादि 'जोइसिआणं सुस्तरा गुस्सरणिग्योसाओ घंटाओ मंदरे समोसरणं जाव पज्जुवासंतित्ति' ज्योतिष्काणां चन्द्राणां सुस्वरा घण्टा सूर्याणां सुस्वरनिर्घोपा घण्टाः सर्वेषां च मन्दरे मेरुपर्वते समवसरणं वाच्यम् यावत्पर्युपासते यावत्पदग्राह्यं तु प्राग्दर्शितं ततो ज्ञेयम् एपाल्लेखस्तु अयम् 'तेणं कालेणं तेणं समए णं चंदा जोइसिंदा' जोइसरायाणो पत्ते पत्ते चउहि सामाणिय साहस्सीहि चउहि अग्गमहिसीहिं तिहिं परिसाहिं सत्तर्हि अणीएदि सहि अणीआहिवइहिं सोलयहि आयरक्सदेवसहस्सीहि एवं जहा वाणमंतरा एवं सूरावि इति ॥ सू०८ ॥ तुस्सरा सुस्सरणिग्घोसाओ घटाओ समोसरणं जाव पज्जुवासंति त्ति ज्योतिष्कों के कथन में जिन बातों से अन्तर हैं वे बातों इस प्रकार से हैं समस्त चन्द्रों की घंटाएं सुस्वर नामकी है और समस्त सूर्योंकी घटाएं सुस्वर निर्घोष नामकी है ये सब के सब मन्दर पर्वत पर आये वहां आकर के सब ने प्रभु की पर्युपासना की यहां यावत्पद से जो पाठ गृहीत होता है वह वहीं से जानलेना चाहिये । इसका उल्लेख इस प्रकार से है-'तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदा जोइसिंदा जोइसरायाणो पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणिअ साहस्सीहिं चरहिं अग्गमहिसोहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं आणिएहिं सत्तहिं अणिआहिवइहि सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं एवं जहा वाणमंतरा एवं सूरा वि' इस पाठ की व्याख्या स्पष्ट है। यहां शंका ऐसी हो सकती है कि यहां चन्द्र और सूर्य बहुवचनवाले किस कारण से प्रयुक्त हुए हैं क्योंकि प्रस्तुतकर्म में एक ही सूर्य और एक ही चन्द्रमा का अधिकार चल रहा है अन्यथा इन्द्रों की जो ६४ की संख्या कही गई है उसमें व्याघात होनेकी आपत्ति आवेगी? तो इस शङ्का का समाआणति सुस्सरा सुस्सरणिग्घोसाओ घंटो समोसरण जाव पज्जुवासंतीत्ति' न्योताना કથનમાં જે બાબતમાં તફાવત છે, તે આ પ્રમાણે છે– સમસ્ત ચોની ઘંટાઓ સુસ્વર નામક છે. સમસ્ત સૂર્યોની ઘંટાઓ સુસ્વર નિર્દોષ નામક છે. એ બધા મંદર પર્વત ઉપર આવ્યાં. ત્યાં આવીને બધા દેવોએ પ્રભની પયપાસના કરી. અહીં યાવત્ પદેથી જે પાઠ ગૃહીત થયા છે તે પહેલા પ્રકટ કરવામાં આવે છે. તે વિશે ત્યાંથી જ જાણ
नये. मान। सेप गाप्रमाणे छ-तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदा जोइसिदा जोइस रायाणो पत्तेयं पत्तेय चउहि सामाणिअसाहम्सीहि चउहिं अग्गमहिसीहिं तिहिं परिसाहि सत्तहिं अणिएहि सत्तसिं अणिओहिवइहि सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं एवं जहा वाणमंतरा एवं सूरा वि' मा पानी व्याज्या २५१ छे. ही मवा १४. ઉદ્દભવી શકે તેમ છે. કે અહીં ચન્દ્ર અને સૂર્ય બહં વચનના રૂપમાં શા કારણથી પ્રયુ થયા છે? કેમકે પ્રસ્તુત કર્મમાં તે એક જ સૂર્ય અને એક જ ચંન્દ્રના અધિકાર ચાલી રહ્યા છે. અન્યથા ઈન્દ્રોની જે ૯૪ ચોસઠની સંખ્યા કહેવામાં આવેલી છે તેમાં વ્યાઘાત થવાની આપત્તિ આવશે? તે આ શંકાનું સમાધાન પ્રમાણે છે કે જનકલ્યાણ
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः स. ९ अच्युतेन्द्रकृताभिषेक सामग्रीसंग्रहणम् ६.५ अथ अमीषां प्रस्तुतकर्मणीति वक्तव्यमाह-'तं एणं से एच्चुए देविंदे देवराया'
मूलम्-तए णं से अच्चुए देविदे देवराया महं देवाहिवे आभिओगे देवे सदावेइ, सहावित्ता एवं क्यासी खियामेव भो देवाणुप्पिया महत्थं महग्धं महारिहं विउलं तित्थयराभिसेअं उवटुवेह-तएणं ते आभिओगा देवा हटतुट्ट जाव पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभाग अवकमंति अवकमित्ता वेउव्विअ समुग्धाएणं जाब समोहणिता अट्ट सहस्सं सोचण्णिअ कलसाणं एवं रूप्पमयाणं मणिमयाणं सुवण्णरुप्पमयाणं सुवण्णमणिमयाणं रुप्पमणिमयाणं सुवण्णरुप्पमणिमया अट्र सहस्सं भोमिज्जाणं अटुसहस्तं चंदणकलसाणं एवं भिंगाराणं आयं. साणं थालाणं पाइणं सुपईट्रगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं वायकरगाणं पुप्फचंगेरीणं, एवं जहा सूरिआमस्स सव्वचंगेरीओ सव्वपडलगाई विसेसिअतराई माणिअव्वाइं सीहासण छत्तचामरतेल्लससुग्ग जाव सरिसवसमुग्गा तालिअंता जाव अटुंसहस्सं कडुच्छुगाणं विउव्वंति, विउठिवत्ता साहाविए विउत्रिए अ कलसे जाव कडुच्छुएअ गिण्हित्ता जेणेव खीरोदए समुद्दे तेणेव आगम्म खीरोदगं गिण्हंति गिण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं पउमाइं जाव सहस्तपत्ताई ताइं गिण्हंति एवं पुक्खरो धान ऐसा है-जिन कल्याणक आदिकों में दश कल्पेन्द्र, २० भवनवासीन्द्र, ३२ व्यन्तरेन्द्र एवं चन्द्र और सूर्य इस तरह से ६४ इन्द्रों की संख्या हो जाती है परन्तु चन्द्र और सूर्य व्यक्तिरूप से यहां एक एक ही संख्या में परिगणित नहीं हुए हैं किन्तु जाति की अपेक्षा से ही गृहीत हुए हैं इसलिये यहां चन्द्र और सूर्य को बहुवचनान्त पद से व्यक्त किया गया है । अतः इस कथन से चन्द्र और सूर्य असंख्यात भी आते हैं ॥८॥ આદિમાં ૧૦ કલપેન્દ્રો, ૨૦ ભવનવાસીન્દ્રો, ૩૨ વ્યન્તરેન્દ્ર તેમજ ચન્દ્ર અને સૂર્ય આમ ૬૪ ઈન્દ્રોની સંખ્યા થઈ જાય છે. પરંતુ અહીં ચન્દ્ર અને સૂર્ય વૈયક્તિક રૂપમાં એક–એકની સંખ્યામાં પરિગતિ થયા નથી. અહીં એ બને જાતિની અપેક્ષાએ જ ગૃહીત થયા છે. એથી અહીં ચન્દ્ર અને સૂર્ય બનેને બહુ વચનાન્ત પદથી વ્યક્ત કરવામાં આવેલા છે. એથી આ કથન મુજબ ચન્દ્ર અને સૂર્ય અસંખ્યાત પણ હોય છે. જે ૮
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F६८६
वृद्धीपप्रतिमा दाओ जाव भरहेरक्याणं मागहाइ तित्थाणं उदगं महिअंच गिण्हति गिरिहत्ता पउमदहाओ दहोअगं उप्पलादीणि एवं सव्वकुलपव्वएसु वटवेअढेसु सव्वमहदहेसु सव्ववानेसु सम्पचकट्रिविजएसु बक्सारपव्वएसु अंतरणइसु विभासिजा जाव उत्तरकुरुसु जाव सुदंसणभदसाल. वणे सव्वतुअरे जाव सिद्धथएअ गिण्हति एवं गंदणवणाओ सबतुअरे जाव सिद्धत्थएअ सरसं च गोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणोदामं गिण्हंति एवं सोसणसपंडगवणाओअ सव्वतुअरे जाव सुमणसदामं दरमलयसुगंधे य गिण्हंति गिरिहत्ता एगओ मिलंति मिलित्ता जेणेव सामी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता महत्थं जाव तित्थ मराभिसेअं उववेतित्ति ॥ सू० ९ ॥ __ छाया-ततः खलु सोऽच्युनो देवेन्द्रो देवराजो महान् देवाधिपः आभियोगिकान् देवान् शब्दयति शब्दयित्वा, एवमवादीत् क्षिप्तमेव भो देवानुप्रियाः महाथै महाधै महाई विपुलं तीर्थकराभिषेकमुपस्थापयत, ततः खलु ते आभियोगिकाः देवाः हृप्ट तुष्ट यावत् प्रतिश्रुत्य उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागमपक्रामति अपक्रस्य चैक्रियस मुद्घातेन यावत्समवहत्य अप्टसहस्रं सौवर्णिककलशानाम् एवं रूप्यमयानां मणिप्रयानां सुवर्णरूप्यमयानां सुवर्णमणिमयानां रूप्यमणिमयानां सुवर्णरूप्यमणिमयानाम् अष्टसहस्रं भौमेयानाम् अष्टसहस्रं चन्दनकलगानाम् एवं भृङ्गाररणाम आदर्शानां स्थालीनां पात्रीणां सुप्रतिष्ठकानां चित्राणां रत्नकरण्डनानां वातकरकाणां पुष्प बङ्गेरीणाम् एवं यथा सूर्याभस्य सर्वचङ्गेधः सर्वपटलकानि विशेपिततराणि भणितव्यानि सिंहासनच्छत्रचामर तिलसगुद्गक यावत्सर्पपसमुद्रकः तालवृन्तानि यावत् अष्टसहस्रं कनुच्छुकानां विकुर्नन्ति विकुळ स्वामाविकान् वैक्रिशंश्च कलशान् यावत् कडुच्छुकांश्च गृहीत्वा यत्रैव क्षीरोदः समुद्रस्तत्रैवागत्य क्षीरोदकं गृह्णन्ति ग्रहीत्वा यानि तत्र उत्पलानि पमानि यावत्सहस्रपत्राणि तानि गृह्णन्ति एवं पुष्करोदात यावत् भरतैरवतयोः मागधादि तीर्थानाम् उदकं मृत्तिकां च गृह्णन्ति गृहीत्वा एवं गङ्गादीनां महानदीनां यावत् क्षुद्रहिमवतः सर्वतुवरान् सर्व पुष्पाणि सर्व गन्धाच् सर्व माल्यानि यावत् सर्व महौषधीः सिद्धार्थकांश्च गृह्णन्ति गृहीत्वा पद्मदात् द्रहोदकम् उत्पलादीनिच (गृह्णन्ति) एवं सर्व कुलपर्वतेषु वृत्तवैताढयेष्ठ सर्वमहाद्रपु पर्ववर्षेषु सर्व वक्रवर्तिविजयेषु वक्षस्कारपर्वतेषु अन्तरनदीपु विभाषेत, यावत् उत्तरकुरुपु यावत् सुदर्शनभद्रशालबने सर्वतुवरान् यावत् सिद्धार्थकांश्च गृहन्ति एवं नन्दनवनात् सर्वतुवरान् यावत् सिद्धार्यकांश्च सरसंच गोशीर्षचन्दनं दिव्यंच मुमनो दाम गृहन्ति एवं सौमनसपण्डकवनात् सर्वतुवरान् यत्राव सुमनो दाम दर्दर मलय
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ९ अच्युतेन्द्रकृताभिषेकसामग्रीसंग्रहणम् ६८७ सुगन्धिकान् गृह्णन्ति गृहीत्वा एकत्र मिलन्ति मिलित्वा यत्रैव स्वामी तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य महार्थं यावत् तीर्थकराभिषेकम् उपस्थापयन्ति इति ॥ सू० ९॥ ___टीका-'तएणं से अच्चुए' ततः खलु तदनन्तरं मिल सोऽच्युतो यः द्वादशदेवलोकाधिपतिरच्युतनामा यः प्रागभिहितः 'देविदे देवराया' देवेन्द्रः देवानामिन्द्रः देवेन्द्रः, देवराजः देवस्य राना 'महं देवाहिवे' महान् देवाधिपः चतुः पष्टावपि इन्द्रेषु लब्धप्रतिष्ठितोऽतएव अस्य प्रथमोऽभिषेकः इति 'आभियोगे देवे सद्दावेइ' आभियोगिकान् आज्ञाकारिणः देवान् शब्दयति, आवयति 'सदावित्ता' शव्दयित्वा ‘एवं वयामी' एवं वक्ष्यमाणाकारं वचनमवादीत् उक्तवान् कियुक्तवान् तत्राह-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया' क्षिप्रमेव अतिशीघ्रगेव भो देवानुप्रियाः ! 'महत्थं महग्धं महारिहं विउलं तित्थयराभिसे उबटवेह महार्थम् महान् अर्थः मणिकनकरत्नादिक उपभुज्यमानो यत्र अभिषेके स तथभूतः तम् तथा महाघम् महान् अर्षः बहुमूल्यस्तवनादियंत्र स तथाभूतम् तथा महार्हम्-महम् उत्सवाम् अर्हतीति यः स महार्हस्तम् विशालोत्सवसंपन्नम् विपुलम् प्रचुरं यथास्यात् तथा तीर्थहराभिषेकम् उपस्थापयत कुरुत आज्ञप्तास्ते आभियोगिकाः देवाः यत्क्रतवन्तस्तदाह-'तए णं' इत्यादि
'तएणं से अच्चुए देविंदे देवराया' इत्यादि
टीकार्थ-'तएणं' इसके बाद से अच्चुए देविंदे देवराया' उस पूर्ववर्णित देवेन्द्र देवराज अच्युत ने द्वादश देवलोक के अधिपति-ने 'महं देवाहिवे आभि
ओगे देवे सदावेइ' दे जो कि चौसट इन्द्रों में महान् लब्ध प्रतिष्ठित है आभियोगिक देवों को बुलाया। 'सदायित्ता एवं वयासी' और बुलाकर उनसे ऐसा कहा'विप्पामेव भो देवाणुपिया! महत्थं महग्धं पहारिहं विउलं तित्थयराभिसे अं उचहवेह' देवानुप्रियो ! जुमलोग बहुत ही शीघ्र तीर्थंकर के अभिषेक की सामग्री को उपस्थित करो वह सामग्री महार्थवाली हो-जिसमें मणिकनक रत्न आदि पदार्थ सम्मिलित हो, महार्घ हो कीमत में जो अल्प कीमतवाली न हो किन्तु विशिष्ट मूल्यवाली हो, महार्ह हो उत्सव के लायक हो, विपुल हो-मात्रा 'त एणं से अच्चुर देविंदे देवराया' इत्यादि
-'तरणं' त्या२ मा 'से अच्चुए देवि दे देवराया' ते पूर्व पति हरेन्द्र ४१२०४ अच्युत-दाइश हेक्सान विपतियो-'महं देवाहिवे देवे आभिआगे सहावे
२६४ छन्द्रीमा महान् Avi प्रतिcिa छ,-निय हेवाने माया. 'सदायित्ता एवं वयासी' गरे मासीन भने ४ -'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! महत्थं महग्वं महारिहं विउलं तित्थयराभिसे उवटवेह' हेवानुप्रिया! तमे वा यथा तीथ ४२॥ અભિષેકની સામગ્રી ઉપસ્થિત કરે. આ સામગ્રી માર્ગે વાળી હોય, જેમાં મણિ કનક રત્ન વગેરે પદાર્થો સમ્મિલિત હાય, હાઈ હૈય, મૂલ્યમાં તે અલ્પ કીમતવાળી હોય નહિ પણ વિશિષ્ટ મૂલ્યવાળી હોય. મહહ હેય–સવ લાયક હેય, વિપુલ માત્રામાં
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जम्बूद्वीपप्रश्नप्तिसूत्र 'तए णं ते आमियोगिया देवा हट्ट तुट्ट जाव पडिसुणिचा उत्तर पुरथिमं दिसीभागं अवकमंति' ततः खलु ते आभियोगिका देवा हृष्ट तुष्ट यावत् प्रतिश्रुत्य उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् ईशानकोणम् अवक्रामति निस्मरन्ति अत्र यावत् पदात् चित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौ. मनस्यिता हर्षवश विसर्पद् हृदयाः करतलपरिग्रहीतं दशनखम् शिरसावत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा हे स्वामिन् तथाऽस्तु इति यथा आदिप्टं देवानुप्रियेण तथैव करिष्यामः, इति आज्ञाया: विनयेन वचनं प्रतिश्रृण्वन्ति इति ग्राह्यम् 'अबक्कमित्ता' अवक्रम्य गत्या 'वेउब्वियसामुग्धारणं जाव समोहणित्ता' वैक्रियसमुद्घातेन यावासमवहत्य अत्र यावत् पदात् समवघ्नन्ति इति ग्राह्यम् 'अट्ट सहस्सं सोवण्णिअकलसाणं' अष्टसहस्रम् अप्टोत्तरं सहस्रं सौवणिककलशानाम्मुवर्णनिर्मितघटानाम् विकुर्वन्ति इत्यग्रेग सम्बन्धः एवम् उक्तप्रकारेण अष्टसहस्रम् 'रूप्पममें अल्प न हो किन्तु बहुत ही अधिक हो 'तएणं ते आभिओगा देवा हहतुह जाव पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अबक्कमंति' इस प्रकार अपने स्वामी की आज्ञा सुनकर वे आभियोगिक देव हर्ष से फूले हुए नहीं समाए, बहुत अधिक हर्ष एवं संतोप युक्त होकर वे ईशानकोण की ओर वहां से चलदिये यहाँ यावत्पद से 'चित्तानन्दितः, प्रीतिमनलः, परमसौमनस्थिताः, हर्पशविसर्पत् हृदया करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत्त मस्तके अंजलिं कृत्वा' हे स्वामिन् 'तथास्तु इति यथादिष्टं देवानुप्रियेण तथैव करिष्यामः इति आज्ञाया विनयेन च वचनं प्रतिश्रृण्वन्ति' यह पाठ गृहीत हुआ है इसकी व्याख्या सुगम है 'अवकमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं जाव समोहणित्ता असहस्सं सोणिय कलसाणं एवं खप्पलयाणं' ईशानकोण को ओर जाकर वहां उन्हों ने वैक्रियसमुद्घात किया बैंक्रियसमुदघात करके फिर उन्हों ने १००८ सुवर्णकलशों की, १००८ रुप्पमय कलशों की, 'मणिमयाणं' १००८ मणिमयकलशोंकी 'सुवग्गरुप्पमयाणं' १००८
५ सय नहि ५ भूम पधारे हाय. 'त एणं ते आभिओगा देवा हद तुद्ध जाव पडि मुणित्ता उत्तरपुरथिमं दिसीभार्ग' मा प्रमाणे पाताना स्वाभानी आज्ञा समाजाने ते આભિગિક દેવે હર્ષાવેશમાં આવી ગયા. ખૂબજ અધિક હર્ષ તેમજ સંતેષથી યુક્ત
२ ते त्यांची शान Trm त२६ २वाना यया. मी यावत् ५४थी 'चित्तानन्दिः प्रीतिमनम., परमसौमनस्थिताः, हर्पवशविसर्पतहृदया करतलगृहीत दशनखं शिरसावत मस्तके अंजलि वृत्वा हे स्वामिन् ! तयाऽस्तु इति यथादिष्टं देवानुप्रियेण तथैव करिष्यामः इति आयाया विनोन च वचनं प्रनिश्रवन्ति' 0 4 yडीत थयो छ. २मा पहानी व्याच्या सुराम 2. 'अवक्कमित्ता वेरग्वियसमुग्याएणं जान समोहणित्ता अट्ट सहरस सोपण्णिय कलमाणं एवं रुपमया शान त२६०२ त्यो तभणे वैठिय समुद्धात ४या. ઘડિય સમુઘાત કરીને પછી તેમણે ૧૦૦૮ સુવર્ણ કળશની, ૧૦૦૮ રૂપ્યમય કળશેની 'मणिमयाणं' १००८ मणिभय ४diil, 'सुवण्णरुप्पमयाणं' १००८ सुपा ३च्यभय ;
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कार: स. ९ अच्युतेन्द्रकृताभिषेकसामग्री संग्रहणम्
याणं' रूप्यमयानाम् कलशानां अष्टसहस्रम् ' मणिमयाणं' मणियानां कलशानाम् विकुर्वन्ति तथा 'सुवण्णरुपमयाणं' सुवर्णरूप्यमयानां 'सुवण्णरूपमणिमयाणं' अष्टसहस्रं सुवर्णरूप्यमणिमयावनां सुवर्ण मणिमयानां रूप्यमणिमयानां सुवर्णरूप्यमणिमयानाम् घटानां (चिक्कुर्वन्ति) अत्र सुवर्णमणिमयानां घटानामष्टसःस्त्र तथा सुवर्णरूप्यमयानां कलशानामष्टसहस्रं तथा रूप्यमणिमयानां कलशानामष्टसहस्रम् तथा सुवर्णरूप्यमणिमयानां कलशानामष्टसहस्रं त्रिकु र्वन्तीर्थ: । 'अस्सं भोमेज्जाणं' अष्टसहस्राणि भौमेयकानां मृत्तिकानिर्मित घटानां 'अद्वसहस्तं चंदणकलसाणं' अष्ट सहस्राणि चन्दनकलशानां चन्दनकाष्टनिर्मितानां माङ्गल्य सूचकचन्दन मिश्रघटानामित्यर्थः ' एवं भिंगाराणं' एवं भृङ्गाराणाम् एवं सर्वत्राष्टसहस्राणि ज्ञातव्यानि (झारीति भाषाप्रसिद्धानाम् 'आसाणं' आदर्शानाम् दर्पणानाम् 'थालाणंपाणं सुपरडगाणं' स्थालीनां पात्रीणां सुप्रतिष्ठकानाम् पात्रविशेषाणाम् 'चित्ताणं रयणकरंडगाणं वायकरगाणं पुष्पचंगेरीणं' चित्राणाम् रत्नकरण्डानां रत्नाधारभूतमञ्जूषानास् 'arantarni बहिः स्थितानां मध्ये जलशून्यानाम् करकाणां जलपात्राणामित्यर्थः पुष्पचङ्गेरीणाम् अष्टसहस्राणि प्रत्येकम् विकुर्वन्ति ' एवं जहा सूरियाभस्स सव्वचंगेरीओ सच्च पडलगाई विसेसिभतराई भाणियव्वाई' एवम् उक्तरीत्या यथा सूरियाभस्य राजप्रश्रीये सुवर्णस्यमय कलशों की, १००८ 'सुवर्णमणिमयाणं' सुवर्णमणिमयकलशों की, १००८ ' रुपमणिमयाणं' रुप्पमणिमयकलशों की १००८ 'सुवण्णरुपमणिमयाणं सुवर्णरुप्यपमणिमयकलशों की 'अट्ठलहस्सं भोमिज्जाणं' १००८ मिट्टी के कलशों की, 'अहसहरु चंदण कलसाणं' १००८ चन्दन के कलशों की 'एवं भिंगाराणं आयंसाणं' १००८ झारियों की, १००८ दर्पणों की, 'थालाणं' १००८ थालो की 'पाई' १००८ पात्रियों की, 'सुपट्टगाणं' सुप्रतिष्ठको 'आधारविशेषों की 'चिता' १००८ चित्रों की, 'रयणकरंडगाणं' १००८ रत्नकरण्डकों' की 'वायकरगाणं' १००८ वातकरकों की 'पुष्पचंगेरीणं' १००८ पुष्पचंगेरिकाओं की, विकुर्वगा की 'जहा सूरियाभस्स सञ्चंगेरीओ सञ्चपटलगाई विसेसिअनराई भाणि अव्वाई सीहासणछत्त-चामर तेल्लसमुग्ग जाब सरिसव समुग्गा तालिअंटा ४जशोनी १००८ ' सुवण्णमणिमयार्ण' सुवर्थ भणिभय अणशोनी, १००८ 'रूप्पमणिमयाणं' ३ष्य मणिभय उणशोनी, १००८ 'सुवण्णरुपमणिमयाणं' सुवर्ण ३ष्य भनुिभय उणशोनी 'अट्ट सहस्सं भोमेज्जाणं' १००८ भाटीना उजशोनी 'अट्ठ सहस्सं चंदणकल साणं' १००८ न्यहनना उणशोनी 'एवं भिंगाराणं आयंसाणं' १००८ आरीमोनी १००८ हर्षलनी. 'थालाणं' १००८ थाणोनी पाईणं' १००८ यात्रीयोनी, 'सुपईदृगाणं' १००८ सुप्रतिष्ठानी आाधार विशेषोनी, 'चित्ताणं' १००८ यित्रोती, 'रयणकरडगाणं' १००८ २त्न ४२ उनी 'वायकरगाणं' १००८ बात ४२ अनी 'पुएफचंगेरीणं' १००८ पुण्य यगेरियोनी विटुव हरी. 'जहा सूरियाभस्स सव्व चंगेरीओ सव्व पटलगाई विसेसि अतराई भाणिअव्वाई
नं० ८७
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जम्बूद्वीपप्राप्ति इन्द्राभिषेकसमये सूर्यचङ्गेया तथाऽत्रापि वक्तव्याः दृष्टम् इदं जीवाभिगमे तृतीयप्रतिपत्ती 'अट्ठसहस्सं आभरणचंगेरीणं लोमहत्थचंगेरीणं' इति तथा सर्वपटलकानि वक्तव्यानि, तथाहि अष्टसहस्राणि पुष्पपटलकानाम् इमानि वस्तूनि सूर्याभाभिपेकोपयोगवस्तुभिः संख्ययैव तुल्यानि न तु गुणेन इत्याह-विशेपिततराणि अतिशय विशिष्टानि सणितव्यानि प्रथमकल्पीयदेवविकुर्वणातोऽच्युत कल्पदेवविकुर्वणाया अधिकतरत्वात् विशिष्टत्वात् तथा 'सीहासणछत्तचामर तेल्लसमुग्ग जाव सरिसवससुग्गा सिंहासन छत्रचामर तिलसमुद्रक यावत् सर्पपजाव असहस्सं कडच्छुगाणं विउव्वंति' जिस तरह राजप्रश्नीय सूत्र में इन्द्राभिषेक के समय में सूर्याभदेव के प्रकरण में समस्त चंगेरिकाओं की, समस्त पुष्प पटलों की विकुर्वणा हुई कही गई है उसी प्रकार यहां पर भी इन सब अभिषेक योग्य सामग्री वस्तुओं की अतिविशिष्टरूप से विकुर्वणा की गई ऐसा कहना चाहिये क्योंकि प्रथम कल्पके देवों की विकुर्वणा की अपेक्षा अच्युतकल्पगत देवों की विकुर्वणा अधिकतर होती है अतः इन विकुर्वितहुई समस्त. वस्तुओं की संख्या १००८ रूप से ही समान थी गुण से नहीं ऐसा नहीं है कि सूर्याभदेव के प्रकरण में विकुर्वित की गई अभिषेक योग्य वस्तुएं संख्याकी अपेक्षा समान थी किन्तु ये सब गुणकी अपेक्षा विशिष्टतर थीं यही बात 'विशेषित तराई' इस पद द्वारा कही गई है क्योंकि प्रथम कल्पगत देवों की विक्रिया शक्ति में और अच्युतकल्पगत देवों की विक्रिया शक्ति में अधिकतरता होती है, यह बात ऊपर कही जा चुकी है।
इसी तरह उन देवों ने १००८ सिंहासनों की, १००८ छत्रों की १००८ सीहासण छत्त चामर तेल्ल समुग्ग जाव सरिसवसमुगा तालिअंटा जाव अट्ठ सहस्स कडुच्छुगाणं विउव्वंति' २ प्रभारी राप्रश्नीय सूत्रमा छन्द्रामिष मते सूर्यात वना પ્રકરણમાં સમસ્ત ચંગેરીકાઓની સમસ્ત પુષ્પ પટલોની વિક્ર્વણુ કરવામાં આવી હતી, તે પ્રમાણે જ અહીં પણ એ બધી અભિષેક ચોગ્ય સામર્થની અતિ વિશિષ્ટ રૂપમાં વિકુર્વણા કરવામાં આવી હતી, એવું સમજવું જોઈએ. કેમકે પ્રથમ કલ્પના દેવાની વિકુવણાની અપેક્ષાએ અશ્રુત ક૫ગત દેવેની વિફર્વણા અધિકતર હોય છે. આમ એ વિકુવિત થયેલી સમસ્ત વસ્તુઓની સંખ્યા ૧૦૦૮ રૂપની અપેક્ષાએ જ સમાન હતી. ગુણની અપેક્ષાએ નહિ. આમ ન સમજવું જોઈએ. કે સૂર્યાભદેવના પ્રકરણમાં વિકર્ષિત કરવામાં આવેલી અભિષેક એગ્ય વસ્તુઓ અને અહીં વિકર્ષિત કરવામાં આવેલી અભિષેક રોગ્ય વસ્તુઓ સંખ્યાની દ્રષ્ટિએ પણ સમાન હતી. પરંતુ એ બધી ગુણની અપેક્ષાએ विशिष्टत२ ती. मे पात 'विशेपिततराई' मा प६ वामां आवेदी छ. भ3 પ્રથમ ક૫ગત દેવોની વિક્રિયા શક્તિમાં અને અસ્થત ક૫ગત દેની ત્રિક્રિયા શક્તિમ અધિક તરતા હોય છે. આ વાત ઉપર કહેવામાં આવેલી છે આ પ્રમાણે તે દવેએ ૧૦૦૮
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ९ अच्युतेन्द्रकृताभिषेकसामग्रीसंग्रहणम् ६९१ समुद्काः तत्र सिंहासनच्छत्रचामराः प्रसिद्धाः तिलसमुद्रक यावत् सर्पपसमुद्रकाश्च तिलभाजन यावत् सर्पवभाजनानि च अत्र यावत् पदात् कोष्टसमुद्कादयो वक्तव्याः तथाहि 'कोहसमुग्गे पत्ते चोएअतरगमेलाय हरिमालेहिंगुलये मणोसिला इति तालिअंटा जाव अट्ठसहस्सं कडुच्छगाणं विउव्वंति' तालवृन्तानि तालव्यजनानि अत्र यावत् पदात् व्यजनानीति परिग्रहः तत्र व्यजनानीति सामान्यतो वातोपकरणानि तालवृन्तानि तु तद्विशेषणरूपाणि एषामष्टसहस्राणि अष्टसहस्राणि इति अष्टसहस्राणि धूपकडुच्छुकानामिति विकुर्वन्ति विकुर्वणाशक्त्या निष्पादयन्ति 'विउवित्ता' विकुळ विकुर्वणा शक्त्या निष्पाध 'स.हाविए विउचिएअ कलसे जाव कडुच्छुएअगिण्डत्ता' स्वाभाविकान् देवलोके देवलोकवत् स्वयं सिद्धान् इव वैक्रियांश्च अनन्तर पूर्वोक्तान् सौवर्णादिकान् कलशान् यावत् कडुच्छुकांश्च गृहीत्वा आदाय अत्र यावत् पदात् भृङ्गारादयो व्यजनान्ताः सर्वे ग्राह्याः 'जेणेव खीरोदए समुद्दे तेणेव आगम्म खीरोदगं गिण्हंति' यत्रैव क्षीरोदः समुद्रः तत्रैव आगत्य क्षीरोदकं क्षीररूपमुदकं गृह्णन्ति 'पत्ताई ताई गिण्हंति' यानि तत्र उत्पलानि पानि यावत् सहस्रपत्राणि तानि गृह्णन्ति ते देवाः अत्र यावत्पदात् कुसुमादीनां परिग्रहः ‘एवं पुक्खरोदाओ' एवम् की, १००८ तेल समुद्गको की यावत् इतनेही कोष्ठसमुद्गकादिको की, सर्षप समुद्गकों की, ताल वृन्तों की यावत् १००८ धूपकडच्छुकों की धूप कटा हों की विकुर्वणा करके फिर वे देवलोक में देवलोक की तरह स्वयं सिद्ध शाश्वत कलशों को एवं विक्रिया से निष्पादित कलशों को यावत् शृङ्गार से लेकर व्यजनान्ततक की वस्तुओं को और धूप कडुच्छुकों को लेकर 'जेणेव खीरोदए ससुद्दे तेणेव आगम्म खीरोद्गं गिण्हंति' जहां क्षीरोद-क्षोसागर नामका समुद्र था-वहां आकर उन्हों ने उसमें से क्षीरोदक कलशों में भरा 'गिण्हित्ता जाई तत्थउप्पलाई पउमाइं जाव सहस्लपत्ता ताई गिण्हति' क्षीरोदक को भरकर फिर उन्हों ने वहां पर जितने उत्पल थे, पद्म थे यावत् सहस्त्रपत्रवाले कमल थे उन सबको સિંહાસની, ૧૦૦૮ છની, ૧૦૦૮ ચામરેની, ૧૦૦૮ તેલ સમુદ્ગકેની યાવત એટલા જ કેષ્ઠ સમુદ્રગની, સર્વવ સમુદ્રગની, તાલ વૃની યાવત્ ૧૦૦૮ ધૂપ કડુચ્છકોની धू५ ४ाडानी वि ४री. 'विउव्वित्ता साहाविए विउव्विए य कलसे जाव कडुच्छुए य गिण्हित्ता' विधु'! ४०. पछी त हेवाभां, पनी म स्वयसिद्ध त કળશને તેમજ વિક્રિયાથી નિપાદિત કળશેને યાવત્ ભંગારથી માંડીને વ્યંજનાતની पस्तुमान मन धूप-छु छन जेणेव खीरोदए समुद्दे, तेणेव आगम्म खीरोदगं गिण्हंति' यां क्षीशह-क्षीर सागर नाम समुद्र तो. त्या पाव्या. त्या मापान भर समाथी क्षीरा४४ शमां मयु. 'गिण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं पउमाइं जाव सहस्स पत्ताई ताई गिण्हंति' क्षीरा६४ लशन पछी तमणे त्या रेखा di, पद्मो खतi, यावत् સહસ પત્રવાળાં કમળો હતાં, તે બધાને લીધાં અહીં યાવત્ પદથી કુમુદ વગેરેનું ગ્રહણ થયું છે.
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अनया रीत्या पुष्करोदात् तृतीयसमुद्रात् क्षीरोदसमुद्रात उदकादिकं गृह्णन्ति अत्र देवेंः लीगेकसमुद्रे क्षीरोदकादि ग्रहणानन्तरं यस्मात् वारुणीवरमन्तरागुक्त्या पुष्करीदे जलं गृहीतम् । तस्मात् वारुणीवर चारिणोऽग्राह्यत्वादिति सम्भाव्यते. 'जाब भर हेरवयाणं मागा इनित्यानं उदगं मट्टिअंच गिण्डति अत्र यावत्पदात् 'समयवित्ते' इति ग्रायम् नवाच समयक्षेत्रे मनुष्यक्षेत्रे भरतैरवतयोः पुष्करवरद्वीपार्द्धसत्कयोः मागधादीनां तीर्थानामुद मृदिकां च गृहन्ति 'गिहिता' गृहित्वा ' एवं गंगाईणं महाणणं जाव' एवमिनि समक्षेत्र पुष्करवरही पाईसत्कानां गङ्गादीनां महानदीनाम् आदिशब्दात् सर्वनदीनां परिग्रहः गावत्पदात् उदमयतटवर्तिनीं मृत्तिकां च गृह्णन्ति इति ग्रावर 'चुल्लहिमताओ राज्यअरे सकेसम सव्वमल्ले जाव सव्वोसहीओ सिद्धत्य गिति' श्रमियराः सर्वान तुरान् पावक्रव्याणि, सर्वान् गन्धान् वासादीन् सर्वाणि माल्यानि ग्रथितादि भेदभिन्नानि 'सर्वा महीपत्र: सिद्धालिया यहां यावत्पद से कुमुद आदि को का ग्रहण हुआ है 'एवं पुरुवरोदाओ जाव भररचयाणं मागहाइतित्थाणं उद्गं महिअंच गिण्हुति' इसी तरह से पुष्करोदक नामके तृनीय समुद्र से उन्हों ने उदकादिक लिया, फिर मनुष्य क्षेत्रस्थित पुष्कर वरीपार्थ के भरत ऐरवत के मागधादिक तीर्थों में आकर उन्हों ने वहां का जल और मृत्तिकाली 'गिन्हित्ता एवं गंगाईणं महाणईणं जाव चुल्लहिमवंताओ सव्वतुअरे सञ्चपुष्फे सञ्च गंधे सत्र मल्ले जाव सशेसहीओ सिद्धत्थए व गिति २ प्त्ता पउमद्ददाओ दहोअगं उप्पला दीणिअ एवं सव्व कुलपन्वएस वट्टवेअद्वेषु सव्वमहद्द हेसु' वहां का जल और मृत्तिका लेकर फिर उन्होने वहां की गंगा आदि महानदियों का जल यावत् उदक एवं उभय तटकी मृत्तिकाली तथा क्षुद्रहिमवान् पर्वत से समस्त आमलक आदि कपाय द्रव्यों को, भिन्न २ जाति के पुष्पों को समस्त गन्ध द्रव्यों को ग्रथितादि भेदवाली मालाओं को, राजहंसी आदि महौषधियों को और सर्पपों को लिया पद्मद्रह से ब्रहोदक "एवं पुक्खरोदाओ जाव भरद्देरवयाणं मागहाइतित्याणं उदगं मटिअ गिव्हुति' मा प्रभा પુષ્કરેાદક નામક તૃતીય સમુદ્રમાંથી તેમણે કાર્ત્તિક લીધાં. પછી મનુષ્ય ક્ષેત્ર સ્થિત પુષ્કરવર હીપાના ભરત અરવતના માગધાદિક તીર્થોમાં આવીને તેમણે ત્યાંથી पाणी ने मृत्ति सीधां. 'गिण्हित्ता एवं गंगाईणं महाणईणं जाव चुल्ल हिमवताओ सव्वतुअरे सव्त्रपुष्फे सव्वगंधे सव्वमल्ले जाय सव्त्रोसहीओ सिद्धत्थए य गिति गिव्हित्ता पउमहाओ दहोअगं उप्पलादीणि अ एवं सत्र कुलपत्र्यासु वट्टवेअद्धेसु सत्र महરહેલું' ત્યાથી પાણી અને મૃત્તિકા લઈને પછી તેમણે ત્યાંની ગંગા વગેરે મહા નદીએનુ પાણી યાવત્ ઉદક તેમજ ઉભય તટની સ્મૃત્તિકા લીધી. તથા ક્ષુદ્ર હિમવાન પવથી સમસ્ત આમલક આદિ કષાય દ્રવ્યાને, ભિન્ન-ભિન્ન જાતિના પુષ્પોને, સમસ્ત ગ ચૈાને ગ્રથિતાદિ ભેદવાળી માળાને, રાજસી વગેરે મહૌષધિને અને સપ્ને
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ९ अच्युतेन्द्रकृताभिषेकसामग्रीसंग्रहणम् ६९३ र्थशांश्च सर्पपान गृह्णन्ति ते आभियोगिकाः देवाः 'गिहिता' गृहीत्वा 'परमबहाओ दहोदगं उप्पलादीणि पद्मद्रहात् द्रहोदकसुत्पलादीनि च गृह्णन्ति । ‘एवं सबकुलपयएसु वट्टवेअद्धेसु सव्वमहदहेसु सव्ववासेसु सम्मचकवष्टि विजएसु वक्खारपव्यएसु अंचरणईसु विभासिज्जा' एवं क्षुद्रहिमवन्न्यायेन सर्वक्षेत्रगवस्थाकारित्वेन सर्वकुलपर्वतेषु सर्वकुलकल्पापर्वताः सर्वकुलपर्वताः, हिमाचादयस्तेषु, तथा वृत्तवैताढयेषु, तथा सर्वमहादहेबु पाद्रहादिषु तथा सर्ववर्षेषु, भरतादिपु, सर्वचक्रवति विजयेपु कच्छादिषु वक्षस्कारपर्वतेषु गनदन्ताकृतिषु माल्यवदादिषु सरलाकृतिषु च चित्रकूटादिषु तथा अन्तरनदीषु ग्राहवत्यादिषु विभाषेत बदेद पवतेषु तु तुवरादीनां द्रहेषु उत्पलादीनाम् कर्मक्षेत्रेपुमागधादि तीर्थोदकमृदा नदीषु उदकोमयतटमृदा ग्रहणं वक्तव्यमित्यर्थः, 'जाव उत्तरकुरुस्सु जाव' यावत् उत्तरकुरुपु यावत् अत्र प्रथमं यावत् पदात् देवकुरुपरिग्रहः तथाच उत्तरकुरुषु देवकुरुषु च चित्रविचित्रगिरि यमकगिरि काञ्चनगिरि हृददशकेषु यथासम्भवं वस्तुजातं गृह्णन्ति, द्वितीय यावत्पदात् पुष्करपरद्वीपार्द्धयोः भरतादिस्थानेषु वस्तुप्रो पाच्यः। ततो जम्बूद्वीपोऽपि तहस्तैव वाच्यः कियपर्यन्तमित्याह-'सुदंसणेभहसालवणे इत्यादि मुदसणभहसासवणे सन्चतुअरे जाव सिद्धत्थएभ गिण्डंति' सुदर्शने पूर्वार्द्धमेरौ भद्रशालब ने नन्दनबने सौमनसबने पण्डकवने च सव्वतुवरान गृह्णन्ति तथा तस्यैव को और उत्पल आदि को लिया इसी कुलपर्वतो में से, वृत वैतादयों में से एवं सर्व महाद्रहो मे से 'सव्यवासेस, सन चक्कदाहविजएसु, बनवारपवएसु, अंतरणई, विभालिज्जा' लमस्त भरतादि क्षेत्रों में से, समस्त चक्रवर्ती विजयों में से, वक्षस्कार पर्वतों में से अन्तर नदियों में से जलादिकों को लिया 'जाव उत्तरकुरुसु जाव सुदंसणभ६सालवणे तब्ध तुअरे जाव सिद्धत्थए य गिण्हंति' यावतू उत्तरकुरु आदि क्षेत्रों में से थावत् पदयात्व देवकुरु में से, चित्र विचित्र गिरिमें से यमक गिरिमें से काञ्चनगिरि में से एवं हृद् दशकों में से यथा संभव वस्तुओं को लिया तथा द्वितीय यावत्पद से पुकारवर दीपा के पूर्वापरार्द्ध भागों में स्थित भरतादि स्थानों में से यथा संभय वस्तुओं को लिया इसी तरह जम्बुद्वीपस्थ पूर्वार्द्ध मेरुमें स्थित सद्रशालवन में से बन्दनवन में से, सौमनसवन લીધાં. પવાદ્રહથી દ્રહોદક અને ઉત્પલાદિ લીધાં. એજ કુલ પર્વતમાંથી, વૃત્ત વૈતાઢયેभांथी तम०४ सब सही समुद्रोमांधी 'सव्व वालेसु, सव्व वक्कवट्टिविजएसु वक्खारपव्यण्सु अंतरणईसु विभासिज्जा' समस्त स त्रमाथी, समस्त यवतीवियोमाथी पक्षः१२ तामाथी मन्तर नहीमामाथी, rang सीधा. 'जाव उत्तरकुत्सु जाव सुदं. सणभद्दसालवणे सव्वतुअरे जाव सिद्धत्थए य गिव्हंति' यात त२ ७३ माह क्षेत्र માથી ચાવતું પદ ગ્રાહ્ય દેવકુમાંથી, ચિત્ર વિચિત્ર ગિરિમાંથી, યમક ગિરિમાંથી, તેમજ હુદ દશકમાથી યથા સંભવ વસ્તુઓ લીધી. તથા દ્વિતીય યાવત્ પદથી પુષ્કરવર દ્વીપાઈના પૂર્વાપરાદ્ધ ભાગમાં સ્થિત ભરતાદિ સ્થાનમાંથી યથા સંભવ વરતુઓ લીધી. આ
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लम्बूढीपप्राप्ति अपरार्दै अनेनैव क्रमेण वस्तुजातं गृह्णन्ति, ततो धातकीखण्ड जम्बुद्वीपगतस्य मेरोः भद्रशालबने सर्व तुवरान् यावसिद्धार्थकांश्च गृह्णन्ति, 'एवं णंदणत्रणाओ सम्बतुअरे जाव सिद्धत्थए अ सरसंच गोसीसचंदणं दिवं च सुमणोदामं गिण्इंति' एवम् उत्तरीत्या अस्यैव मेरोः नन्दनवनात् सर्वतुवरान् यावत् सिद्धार्थकांश्च सरसं च गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च सुमनो दामग्रथितपुष्पाणि गृह्णन्ति एवं सोमणसपंडगवणाओ सव्वतुअरे जाव सुमणसदामं दहरमलयमुगंधेय गिण्हंति' एवं सौमनसवनात् पण्डकवनाच सर्वतुरवरान यावत् सुमनोदाम दर्दरमलयसुगन्धिकान् गन्धांश्च तत्र दर्द मलयो-चन्दनोत्पत्तिखानिभूतौ पर्वतो तेन तात्स्थात् तद्व्यपदेश इतिन्यायेत् तदुद्भवचन्दनमपि दर्दरमलयशब्दाभ्यामभिधीयते तथाच दर्दरमलयनामक चन्दने तयोः सुगन्धः परमगन्धो यत्र तान् दर्दरमलयमुगन्धिकान् गन्धान् वासान् गृह्णन्ति में से और पण्डक वनमें से समस्त तुबरादि पदार्थों को लिया 'जाद सिद्धत्थए अ सरसंच गोसीलचंदणं दिव्वेच सुमणदामं गेण्हति' यावत् सिदार्थको सरस गीशीर्षचन्दन को और दिव्य पुष्पमालाओं को लिया 'एवं सोमणस पंडगवणाओ अ सचतुअरे जाव सुमणसदानं ददरसलय सुगंधे व गिण्हति, २त्ताएगओ मिलंति २त्ता जेणेव लामी तेणेव उवागच्छंति २त्ता महत्थं जाव तित्थ. यराभिलेअं उपवेलि' इसी तरह धातकी खण्डस्थ सेरुले भद्रशालवन में से सर्व तुवर पदार्थों को यावत् सिद्धार्थ को को लिया इसी तरह इसके नन्दनवन में से समस्त तुवर पदार्थोको यावत् सिद्धार्थकों को लिया सरसगोशीर्षचन्दन को लिया दिव्य सुननो दामों को लिया इसी तरह सौमनसवन से पण्डकवन से सर्व तुवरों औषधिओं को यावत् सुमनो दामों को दर्दर एवं मलय सुगन्धित चन्दनों को लिया तात्पर्य यही है कि अढाई द्वीप एवं इसके बाहर के समुद्रों में से वहां के जल को पर्वतों में से तुवरादि सर्वप्रकार के औषधीय પ્રમાણે જમ્મુ દ્વીપસ્થ પૂર્વાદ્ધ મેરુમાં સ્થિત ભદ્રશાલ વનમાંથી નન્દન વનમાંથી, સીમनस बनभांथी मने ५७४ पनभांगी समस्त तु पी दीi. 'जाव सिद्धत्थएअ सरसंच गोसीसचंदणं दिब्वे च सुमणदाम गेण्हंति' यावत् सिद्वार्थ', सरस गाशीष यन्न भने दिव्य ५०५माणा-या दीवां 'एवं सोमणसपंडगवणाओ अ सव्वतुअरे जाव सुमणसदाम दरं मलयसुगंध य गिण्ह ति, गिण्हित्ता एगओ मिलति मिलित्ता जेणेव सामी तेणेव उचागच्छंति नागच्छिता महत्थं जाव तित्ययराभिसेअं उपवें ति' मा प्रभारी । ધાતકી ખંડસ્થ મેના ભદ્રશ લ વનમાંથી, સર્વતુવર પદાર્થોને યાવત્ સિદ્ધાર્થીને લીધાં આ પ્રમાણે જ એના નન્દન વનમાંથી સમસ્ત તુકાર પદાર્થોને યાવત્ સિદ્ધાથીને લીધા. સરસ ગશીર્ષ ચન્દન લીધું. દિવ્ય સુમનામ લીવાં. આ પ્રમાણે સૌમનસ વનમાંથી, પંડકવનમાંથી, સવ તુવરે ઔષધિઓને યાવત્ સુમરાને, દર તેમજ મલયજ સુગધિત ચન્દન લીધાં. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અઢાઈ દીપ તેમજ એની બહારના સમુ
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः लू. १० अच्युतेन्द्र कृताभिषेक सामग्री संग्रहणम्
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'गिoिहत्ता' गृहीत्वा 'एगओ मिलंति' इतस्ततो विप्रकीर्णा आभियोगिका देवा एकत्र मिलन्ति 'मिलित्ता' मिलित्वा 'जेणेव सामी तेणेव उवागच्छंति' यत्रैव स्वामी अच्युतः, तत्रैव उपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य ' महत्थं जाय तित्थयराभिसेअं उवटुवेंतित्ति' महार्थं यावत् तीर्थकराभिषेकम् तीर्थकराभिषेकयोग्यं क्षीरोदकाद्युपस्करणम् उपस्थापयन्ति उपनयन्ति, अच्युतेन्द्रस्य समीपस्थितं कुर्वन्तीत्यर्थः अत्र यावत् पदात् महार्घे महाहै विपुलमिति पदत्रयी ग्राह्या एषामर्थस्तु पूर्वे द्रष्टव्यः इति ॥ ०९ ॥
अथ अच्चुतेन्द्रो यत्कृतवान् तदाह- 'तरणं से अच्चुए' इत्यादि मूलम् -'तणं से अच्चुए देविंदे दसहिं सामाणिअसहस्सीहि तायन्तीसएहिं चउहिं लोगपालेहिं तिहिं परिसाहि सतहिं अणिएहि सत्तहिं अणिआहिवईहिं चत्तालसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे तेहिं सामाणिएहिं विउव्विएहिं अ वरकमलपइट्टाणेहिं सुरभिवरवारिपरिपुणेहिं चंदणकयच्चाएहिं आविद्धकंठेगुणेहिं पउमुपलपिहाणेहिं करयल सुकुमार परिग्गहिएहिं अटुसहस्सेणं सोवण्णियाणं कलसाणं जाव अट्ठसइस्सेणं भोमेजाणं जाव सव्वौदएहिं सब्वमट्टि आहिं सव्वतुरेहिं जाव सव्वोसहिसिद्धत्थरहिं सव्विडीए जाव रखेणं महया महया तित्थयराभिसे एणं अभिसिंच तपणं सामिस्स महयामहयाअभिसेयंसि मासि इंदाईआ देवा छत्तचामरधूब कडुच्छ्रअ पुष्कगंध जाव हस्थगया हट्टतुट्ट जाव वज्रसूलपाणी पुरओ चिति पंजलिउडा इति पदार्थों को द्रहों में से उत्पलादिकों को कर्मक्षेत्रो में से मागधादि तीर्थो के जलको एवं मृत्तिका को एवं नदियों में से उनके उभयतटों की मिट्टीको लिया इस प्रकार से अभिषेक योग्य सब प्रकार की साधन सामग्री लेकर वे इधर उधर फैले हुए देव एक स्थान पर आकरके इकट्ठे हो गये और मिलकर फिर वे सबके सब जहां अपना स्वामी था वहां पर गये वहां जाकर उन्हों ने वह तीर्थंकर के अभिषेक योग्य लाई हुई समग्र सामग्री अपने स्वामी अच्युतेन्द्र की समक्ष रखदी ॥ ९ ॥ દ્રોમાંથી ત્યાંનુ પાણી, પતામાંથી, તુવરાર્દિક સ` પ્રકારના ઔષધીય પદાર્થા, દ્રઢા માંથી ઉત્પલાદિકા, કક્ષેત્રોમાંથી માગધાદિ તીર્થાંનું પાણી તેમજ મૃત્તિકા તથા નદીએ માંથી તેમના ઉભય તટેની મૃત્તિકા આ પ્રમાણે ખાં પદાર્થો લીધાં. આ પ્રમણે અભિષેક ચેાગ્ય સ" પ્રકારની સાધન-સામગ્રી લઈને તેઓ આમ-તેમ વિખરાયેલા દેવા એક સ્થાન ઉપર આવીને એકત્ર થયા અને એકત્ર થઈને તેમણે તે તીર્થંકરના અભિષેક ચેાગ્ય એન્ર કરેલી મધી સામગ્રી પેાતાના સ્વામી અચ્યુતેન્દ્રની સામે મૂકી દીધી. ॥ ॥
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र एवं विजयाणुसारेण जाब अप्पेगइयादेवा आलिअ संमजिओवलित्तसित्तसुइसम्सटरत्यंतरावणवीहि करेंति जाव गंधवहिभूति अप्पे
गइया हिरण्णवासं वासंति एवं सुअण्णरयणनइर आभरणपत्तपुप्फफल'बीअमल्लगंधवषण जाव चुण्णवालं वासंति, अप्पेगइया हिरणविहिं
भाईति एवं जाव चुण्णविहिं भाइंति अप्पेवाइया चउनिहं वज्ज वाएंति तं जहा-ततं १ विततं २ घणं ३ झुलिरं ४ अप्पेगइया चडव्विहं गेयं गायति तं जहा-उरिखत्तं १ पायत्तं २ मंदागईयं ३ रोईआवसाणं ४ अप्पेगइया चउठिवहं णटुं गच्छति तं जहा-अंचिअं१ दुअं २ आरभडं ३ भसोलं ४ अप्पेगइया बउनिहं अभिणयं अभिणेति तं जहा-दिट्ट तिअं १ पडिसुएइयं २ सामण्णोणिवाइयं ३ लोगमज्झावसाणियं, अणेगवत्तीलइविहं दिव्यं महविहिं उबदसेंति अप्पेगइया उप्ययं निवयं निवयउप्पयं संकुचिअपसारिअंजाब मंतसंभतणामं दिव्ब णट्टविहिं उवदसंतीति, अप्पेगइया तंडवेंति अप्पेगड्या लालेति, अप्पेगहया पीणेति, एवं वुक्काति, अप्फो.ति, वग्गंति लीहणायं गदंति अप्पेगइया सव्वाई करेंति अप्पेगइणा यहेलिअं एवं हरिथ गुलगुलाइ रहघणघणाइअं अप्पेगइया तिष्णिवि, अप्पेगइया उच्छोलंति अप्पेगड्या पच्छोलंति, अप्पेगइया तिवई छिदंति पायददश्यं करेंति,भूमिचवेडे दलपति, अप्पेगइया महया सद्देणं राति एवं संजोगा विभालियबा अप्पेगइया हकारेंति एवं पुकारेंति वकारेंति ओश्यंति परिवयंति जलंति तवंति पयः वंति गज्जति विजआयंति वासिति अप्पेगइया देवुकलिअं करेंति एवं देवकहकहगं करेंति, अप्पेगइया दुहु दुहुगं करेंलि अप्पेगइया विकिय भूयाई रूवाई विउविता पणचंति एबमाइ विशाखेजा जहा विजयस्स जाव सब्बओ ससंता आधाति परिधावेंति ॥ सू० १०॥
छाया-ततः खलु सोऽच्युतो देवेन्द्रः दशभिः सामानिकसहस्त्रैः त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशकैः चतुर्मिलोकपालैः तिसृभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः चत्वारिंशता आत्मरक्षकदेवसहसैः सार्द्ध संपरिवृतः तै स्वाभाविकैः वैक्रियैश्च वर
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थंकराभिषेकादिनिरूपणम् ६९७ कमळप्रतिष्ठानैः सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णैः चन्दनकृतचर्चितैः आविद्धकण्ठगुणैः पद्मोत्पलपिधानैः करतलसुकुमार परिगृहीतैः, अष्ट सहस्रेण सौवर्णिकानां कलशानां यावत् अष्टसह स्त्रेण भौमेयानां यावत् सर्वोदकैः सर्वमृतिकाभिः सर्वतुर्वरेयवत् सर्वोपधिसिद्धार्थकैः सर्वद्ध यावत् रवेण महता महता तीर्यकराभिषेकेण अभिषिञ्चति, ततः खलु महता महता आभिषेके वर्तमाने इन्द्रदिकाः देवाः छत्रचामर धूपकडुच्छुकपुष्पगन्ध यावत् हस्तगताः हृष्टतुष्ट, यावत् वज्रशूलपाणयः पुरतस्तिष्ठन्ति प्राञ्चलिकता इत्यर्थः । एवं विजयानुसारेण यावत् अप्येककदेवा: आसिक्त संमार्जितोपलिप्त सिक्त शुचीसम्मृष्ट रथ्याऽन्तराऽऽपणवीथिकं कुर्वन्ति यावद् गन्धवर्त्तिभूतमिति, अप्येकाः हिरण्यवर्षे वर्षन्ति एवं सुवर्णरत्नवज्राऽऽभरणपत्रपुष्पवीजमाल्यगन्धवर्षा यावत् चूर्णवर्षं वर्षन्ति, अप्येककाः, हिरण्यविधि भाजयन्ति एवं यावत् चूर्णवीधिं भाजयन्ति, अप्येककाः चतुर्विधं वाद्यं वादयन्ति तद्यथा ततम् १ विततम् २ घनम् ३ सुषिरम् ४ अप्येके, चतुर्विधं गेयं गायन्ति तद्यथा उत्क्षिप्तम् १ पादात्तम् २ मन्दायम् ३ रोचितावसानम् ४ अप्येककाः चतुर्विधं नाटयं नृत्यन्ति तद्यथा - अश्चितम् १ द्रुतम् २ आरभटम् ३ भसोलम् ४ इति अप्येककाः चतुर्विधम् अभिनयम् अभिनयन्ति तद्यथा दार्शन्तिकम् १९ प्रतिश्रुतिकम् २ सामान्यतो विनिपातिकम् ३ लोकमध्यावसानिकम् ४ अप्येके द्वात्रिंशद्विधं दिव्यं नाटयविधिमुपदर्शयन्ति, अप्येककाः उत्पातनिपातम् निपातोत्पातम् संकुचित प्रसारितम् यावत् भ्रान्तसंभ्रान्तनाम में दिव्यं नाटयविधिमुपदर्शयन्तीति । अप्येककाः विनयन्ति एवं वृत्कारयन्ति आस्फोटयन्ति चलन्ति सिंहानादं नदन्ति अप्येककाः सर्वाणि कुर्वन्ति अध्येककाः हयषितं एवं गुलगुलायितं रथघनघनायितम् अप्येककाः त्रीण्यपि अध्येककाः 'उच्छोलंति' अग्रतो मुखे चपेटां ददति, पच्छोलंति' पृष्टतो मुखे चपेटां दर्दति अप्येaar: त्रिपदीं छिन्दन्ति पाददद्देरकं कुर्वन्ति भूमिचपेटां ददति अप्येककाः महता महता शब्देन रावयन्ति एवं संयोगाः विभापितव्याः अध्येकका 'हक्कारयन्ति' एवं पूत्कुर्वन्ति वकारयन्ति अवपतन्ति उत्पतन्ति परिपतन्ति ज्वलन्ति तपन्ति प्रतपन्ति गर्जन्ति विद्युतं कुर्वन्ति वर्षन्ति अप्येककाः देवोत्कलिकां कुर्वन्ति एवं देवकह कहकं कुर्वन्ति, अप्येककाः दुहु दुहुकं कुर्वन्ति, विकृतभूतादि रूपाणि विकुर्वित्वा प्रनृत्यन्ति एवमादि विभाषेत यथा विजयस्य यावत् सर्वतः समन्तात् ईषद्धावन्ति परिधावन्ति इति ॥ सू० १० ॥
टीका- 'तएण से अच्चुए देविदे' ततः आभियोगिकदेवैः आनीताभिषेकसामय्याः, उपस्थित्यनन्तरम् खलु सोऽच्युतो देवेन्द्रः तीर्थकरमभिषिञ्चतीत्यग्रे सम्बन्धः कैः सार्द्ध
'तए ण से अच्चुए देविंदे दसहिं सामाणिय' - इत्यादि
टीकार्थ - इसके बाद जब अभिषेक योग्य सब सामग्री उपस्थित हो चुकी'तहणं से अच्चुए देविंदे दसहिं सामाणिय' इत्यादि
ટીકા—ત્યાર ખાદ જ્યારે અભિષેક ચેગ્ય બધી સામગ્રી ઉપસ્થિત થઈ ગઇ ત્યારે
ज० ८८
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___ जम्बूद्वीपप्रमस्तिस्त्र संपरिवृतः सन् अभिपिश्चति तत्राह-'दसहिं सामाणि साहस्सीहि दशभिः सामानिकसहस्त्रैः दशसहस्रसंख्यक सामानिकः देवैः अपिच 'तायत्तीसाए तायनीयएहिं त्रयस्त्रिंशता आयस्त्रिंशकैः देवविशेः आपच 'चउहि लोगपालेहि' चतुर्भिो कपालैः देवविशेपैः 'तिहिं परिसाहि' टिभिः पर्षद्भिः समाभिः 'सत्तहिं अणिएहि सप्पभिरनीः 'सनहि अणिमाहिवईहि सप्तभिरनीकाधिपपतिभिः 'चत्तालीसाए आयरक्खदेवपाहसी िचत्वारिंशता आत्मरक्षकदेवसहस्रः चत्वारिंशन् सहस्रसंख्याकैरात्मरक्षकदेवरित्यर्थः सार्द्ध संपस्थितः वेष्टितः कैः अभिपिश्चति तत्राह-'तेहि साभाविएहि विउचिएहिअ वरकगलपाटाणेहि तैः तद्गतदेवजनविशेपैः स्वाभाविकैः स्वभावसिद्धैः वैक्रियैश्च विकुणाशक्त्या निष्पादितश्च वरकमलप्रतिप्ठानैः वरकमले श्रेष्ठकमले प्रतिष्ठान स्थितियां ते तथा नास्तैः, एतावत्पदानि कलशविशेषणानि तथा 'मुरभिवरवारिपरिपुण्णेहि' सुरभिवरवारि प्रतिपूर्णः सुगन्धियुक्त जलपरिपूर्णैः तथा 'चंदणकयचच्चाएहि चन्दनकृतचर्चितैः कृतं चर्चितं विलेपनं येषां ते तथा भूतास्तः तथा 'आविद्धकंठे गुणेहि' आविद्धभण्ठेगुणैः आविद्धः भावद्धः पाण्ठेगुणैः रज्जुभिः येषां ते तथाभूतास्तैः तथा 'पउमुप्पलपिहाणेहि' पनोत्पलपिधानः पझैल्पलैश्च तत् तत् कनलविशेषैः पिधानम् अच्छादनम् येषां ते तथाभूनास्तैः तथा 'कायलमुझुमारपरिगरिएहि करतलामारतव-'ले अच्चुण देविदें देवराया' उस देवेन्द्र देवराज अच्युनने 'दसहि सामाणि असाहस्लीहिं' अपने १० हजार सामालिक देवों के याताअन्त्तीसाए-तायत्तीसएहि' ३३ त्रास्त्रिंश देवो के साथ 'चउहि लोगपालेहिं चारलोक पालो के साथ 'तिहिं परिलाहिं तीनपरिषदाओं के साथ उत्तहिं अणिपहि' सात अनीकों के साथ 'सत्तहिं अणीयाहिदईहि सात अनीकाधिपतियों के साथ 'चत्तालीसाए आयरक्खदेवलाहस्सीहि' ४० आत्मरक्षकदेवों के 'मद्धिं' साथ 'संपरिचुडे' घिरे हुए होकर 'तेहिं सामालिएहि विउदिएहिं अ बरकमलपइटाणेहिं उन स्वाभाविक और चिकुविन तथा लाकरके सुन्दर कमलो के उपर रखे गये हुए 'सुरभिवारिपडिपुण्णेहिं' सुगंधित सुन्दर निर्मल जलसे भरे हुए, 'चंदणकयचच्चाएहि' चन्दन से चर्चित हुए, 'आचिकंठेशुणेहिं मोली ले कंठमें 'से अच्चुए देविंदे देवराया' ते देवेन्द्र देवरा अन्-युते 'दसहिं सामाणिअ साहस्सीहिं' पोताना १. हुतर सामानि वानी साथे 'तायत्तीसाए तायत्तीसएहि 33 प्रायशि वानी साथ 'चउहि लोगपालेहिं यार सपाटानी साथे, 'तिहि परिसाहित्रपरिषहायानी साथै तथा 'सत्तहिं अणिएहि सात मानी। साथे 'सत्तहिं अणीयाहिवईहिं' सात मधिपतिमानी साथ 'चालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहि' ४० मात्मरक्ष देवानी सद्धि' साथे 'संपरिखुडे' गात थन. 'तेहिं साभाविएहिं विउव्विएहिं अ वरकमलपइदाणेहि त स्यामावि मन वित तभा यात्री सुन्द२ ४भणा- ५२ भृश्यामा मासा 'सुरभिवारिपडिपुण्णेहिं' सुभबित, निम थी पूनित, 'चंदणकयचच्चाएहि यहिनथी अर्थित थयेदा, 'आविद्ध
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प्रकाशिका टीका - पञ्चवक्षस्कारः रु. १० अच्युतेन्द्र कृततीर्थंकराभिषेकादिनिरूपणम् ६९५
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परिगृहीतैः करतलेतु सुकुमारैः परिगृहीताः स्थापिताः ये तथाभूतास्तैः, एवंभूतैरनेकसहस्रसंख्यकैः कलशैरितिगम्यम् । तानेव कलशान् विभागतो दर्शयति 'भट्टसहस्सेणं' सोवणिआणं कलसाणं जाव अट्टसहस्सं भोमेज्जाणं जाव' अन्टसहस्त्रेण अष्टोत्तरसहस्रेण सौवर्णिकानां सुवर्णमयानां कलशानां घटानां यावत् अत्र प्रथमयावत्पदात् अष्टसहस्रेण अष्टोत्तरसहस्रेण रौप्यानाम् अष्टसहस्रेण मणिमयानाम् अष्टसहस्त्रेण सुवर्णरूप्यमयानाम् अप्टसहस्त्रेण रूप्यमणिमयानाम अष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमणिमयानामिति अष्टसहस्रेण भौमेयानां तथाच सर्वसंख्यायाः सम्मेलनेन चतुःपटचाधिकैः अष्टभिः सहस्रैः तत् तत् विशेषणविशिष्ट कलशानामित्यर्थः द्वितीययावत्पदात् भृङ्गारादिपरिग्रहः 'सन्चोद एहि समट्टियहिं सव्वतूवरेहिं जाव सव्वोसहि सिद्धत्यहिं' सर्वोदः सर्ववृत्तिकाभिः सर्वतुवरैः यावत् सर्वोपधिसिद्धार्थकैः अत्र - यावत्पदात् पुष्पादिपरिग्रहः 'सविडीए जाव रवेर्ण' सर्वच सर्वया विभवादिसंपदा यावद्रवेण शब्देन यत्र यावच्छन्देन 'सव्वजुईए' सर्ववत्या इत्यारभ्य 'संखपणन भेरि झल्लरिखरमुहि हुडक बंधे हुए 'पप्पल पहाणेहि' पद्म और उत्पलरूप ढक्कन से ढके हुए 'करयल - सुकुमार परिग्गहिए हिं' ऐसे सुन्दर सुकुमार करतलों में धारण किये गये 'अइसहरुले सोवणिआणं कलसाणं जाब अट्टसहस्सेणं मोमेज्जाणं' १००८ सुवर्ण के कलशों से यावत् १००८ मिट्टि के कलशों से यावत्पद गृहीत १००८ चांदी के कलशों से, १००८ मणि के कलशों से १००८ सुवर्णरूप्य निर्मित कलशों से १००८ सुवर्णमणि निर्मित कलशों से १००८ रुप्यमणि निर्मित कलशो से, १००८ सुवर्णरूप्य निर्मित कलशों से कुल मिलकर हुए ८०६४ कलशों से 'जाब लम्बोदर वमहिआहिं सम्यतुअरेहिं जाच सव्वोसहिसिद्धस्थ पहिं सविडीए जाव वेणं महया २ तित्थयराभिसेएणं अभिसिंचित' यावत् भृङ्गारकादिकों से एवं समस्त तीर्थों से लाये गये जल से समस्त तुवरपदार्थों से, यावत् समस्त पुष्पों से सर्वोषधियों से एवं समस्त सर्वपों से अपनी समस्त ऋद्धि
"
कंठे गुणेहिं' भाषाश्री मां सायद्ध थयेला, 'पउमुप्पलपिहाणेहिं पद्म भने उत्पक्ष ३५ ढांथी माग्छाहित थयेला 'करयल सुकुमार परिग्गहिपहि' तेभर सुन्दर सुठुभार ४२तम्यामां धारण ४२वामां आवेला, 'अट्ठ सहस्सेणं सोत्रण्णिभाणं कलसाणं जाव अट्ठ सहસ્કેન મોમેકનાન” ૧૦૦૮ સુવર્ણના કળશેથી ચાવત્ ૧૦૦૮ માટીના કળશૈાથી યાવત્ પદ ગૃહીત ૧૦૦૮ ચાંદીના કળશેાથી, ૧૦૦૮ મણિએના કળશેાથી, ૧૦૦૮ સુવર્ણ, રુષ્યનિર્મિત કળશેાથી, ૧૦૦૮ સુત્રણ મણિનિતિ કળશાથી ૧૦૦૮રૂષ્યમણિનિમિત उणशोथ आम अघा थाने ८०६४ उणशोथी 'जाव सव्त्रोदएहि सव्त्र मट्टिआहिं सव्व 'तुअरेहिं जाव सव्त्रोसहिसिद्धत्थरहिं सव्बिडूढीए जाव रखेणं महया २ तित्थयराभिसेएणं અમિતિ તે યાવત્ ભૃંગારાદિકાથી તેમજ સમસ્ત તીર્થાંમાંથી લાવવામાં આવેલા જળથી, સમસ્ત તુવર પદાર્થોથી, યાવત્ સમસ્ત પુષ્પાથી, સવૈષધિઓથી તેમજ સમસ્ત સપાથી,
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जम्बूहीपप्रतिसूत्र मुरजमुइंग दुंदुहि निग्योसनाइएणं' शंखपणवमेरिझल्लरिखरमुखि हुडुक्क मुरनमृदङ्गनिर्घोपनादितेन इत्यन्तं सर्व ग्राह्यम्' 'महया महया तित्थयराभिसेएणं अभिसिचंति' महता महता तीर्थकराभिषेकेण येन अभिषेकेण तीर्थकरा आभिपिच्यन्ते तेन अभिषेकेण इत्यर्थः अभिषेकेण इत्यस्य च अभिषेकोपयोगिना क्षीरोदादिजलेन इत्यर्थः अभिपिञ्चति अभिषेकं करोति सोऽच्युतः । सम्प्रति अभिपेककारिण इन्द्रात् अपरे इन्द्रादयो यत् कृतवन्तस्तदाह-'तए णं' इत्यादि 'तए णं सामिस्स महया महया अभिसेअंसि वट्टमाणंसि इंदाइया देवा' ततः खलु स्वामिनः अच्युतेन्द्रस्य महता महता अतिशयेन महति अभिपेके वर्तमाने अपरे इन्द्रादिका देवा 'छत्तचामरकलस धूव कइच्छु म पुप्फगंध जाव हत्यगया' छत्रचामरकलशधूपकडुच्छुक पुष्पगन्ध यावत् हस्तगनाः अर्थस्तु सुगमएव अत्र यावत्पदान माल्यचूर्णादिपरिग्रहः 'हतुट्ठ जाव बज्जलपाणी पुरो चिट्ठति पंजलिउडा' इति हृष्टतुष्ट यावत् वज्रशूलपाणयः। उपलक्षणमेतत् तेन अन्य शस्त्रपाणयोऽपि ग्राह्याः पुरतः प्राञ्जलिकृताः सन्तस्तिष्ठन्ति । अयं भाव केचन छत्रधारिणः केचन चामरोक्षेपकाः केवन कलशधारिणः एवं धुत्यादि वैभव से युक्त होकर सुन्दरध्वनिवाले गाजेबाजे की ध्वनिपूर्वक तीर्थकर प्रभु का अभिषेक किया 'तएणं सामिस्स महयार अभिसेयंसि वट्टमाणसि इंदाइआ देवा छत्तचामरधूचकडच्छुअ पुप्फगन्ध जाव हत्थगया जिस समय अच्युतेन्द्र बडे भारी ठाटबाट से प्रभु का अभिषेककर रहा था उस समय और जो इन्द्रादिक देव थे वे अपने अपने हाथों में कोई छन लिये हुए था कोई चामर लिये हुए था, कोह धूपकडच्छुक-धूपका कडाह-लिये हुए था, कोई पुष्प लिये हुए था, कोई गंध द्रव्य लिये हुए था यावत् कोई माला लिये हुए था एवं कोई चूर्ण लिये हुए था 'हतु जाव वज्जसूलपाणी पुरओ चिट्ठति पंजलिउडा इति' य सबके सब इन्द्रादिकदेव हर्ष और संतोष से विभोर बनकर हाथ जोडे हुए प्रभु के समक्ष खडे हुए थे इनमें कितनेक शूल लिये हुए थे, कितनेक बज्र लिये हुए थे और कितनेक और भी दूसरे हथियार लिये हुए थे यहां जो यह शस्त्र પિતાની સમસ્તકદ્ધિ તેમજ વૃતિ વગેરે વૈભવથી યુક્ત થઈને મંગળ વધોને ધ્વનિ साथै तीथ ४२ प्रभुना मलिषे ४ी. 'तएणं सामिस्स महया २ अभिसेयसि वट्टमाणसि इंदाइआ देवा छत्तचामरधूवकडुच्छअ पुष्फगन्ध जाव हत्थगया' २ मते मयुतन्द्र ભારે ઠાઠ માઠ સાથે પ્રભુને અભિષેક કરી રહ્યો હતે, તે વખતે બીજાજે ઈન્દ્રાદિક દેવે હતા, તેઓ એ પિતપતાના હાથમાં કેઈએ છત્ર લઈ રાખ્યું હતું, કેાઈ એ ચામર લઈ રાખ્યા હતા, કેઈએ ધૂપ કટાહ લઈ રાખ્યું હતું કેઈએ પુ લઈ રાખ્યાં હતાં. કેઈ એ ગંધ દ્રવ્યો લઈ રાખ્યાં હતાં, યાવત કેઈએ માળાઓ લઈ રાખી હતી. તેમજ કોઈએ यू व यु तु. 'हदू-तुद जाव वज्जसूलपाणी पुरओ चिटुंति पंजलिउडाइति' ५ બધા ઈન્દ્રાદિક દેવે હર્ષ અને સંતોષથી વિભેર થઈને હાથ જોડીને પ્રભુની સામે ઉભા હતા, એમાંથી કેટલાક વજ લઈને ઉભા હતા અને કેટલાક બીજા શો લઈને ઉભા
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०१ इत्यादि सेवा-धर्मसत्यापनार्थं न तु वैरिनिग्रहार्थ, तत्र वैरिणामभावात् केचन वज्रपाणयः केचनशूलपाणयः प्राञ्जलिकृताः सन्तः सन्तिष्ठन्ते इति, अत्र यावत्पदात् चित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवश विसर्पद् हृदयाः, इति ग्राह्यम् ‘एवं विजयानुसारेण जाव' एवम् उक्तप्रकारेण अभिषेकसूत्रं विजयदेव्य देवाभिषेकसूत्रानुसारेण ज्ञातव्यम् जीवाभिगमवत् अत्र यावत्पदात् 'अप्पेगइया पंडगवणं णचोअगं णाइमट्टियं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्यं सुरहिगंधोदकवासं वासंति अप्पेगइया निहयरयं णहरयं भट्टरयं पसंतरयं उत्रसंतरयं करेंति' इति ग्राह्यम् अप्येककाः केचन देवाः पण्डकवनम्-अत्र नैरन्तये द्वितीया निरन्तरं पण्डकवने इत्यर्थः नात्युदकं नातिमृत्तिकं यथास्यात् तथा प्रविरल प्रस्पृष्टम् प्रकर्षण धारण करने की बात कही गई है वह केवल सेवा धर्मको प्रकट करने के लिये ही कही गई है वैरिजन के निग्रह के निमित्त नहीं क्यों कि वहां उनका कोई वैरी ही नहीं था यहां यावताद से 'चित्तानंदिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पहृदयाः' इन पदों का ग्रहण हुआ है 'एवं विजयानुसारेण जाव अप्पेगइया देवा आलिअ संबज्जिवलित्तसित्तसुइसम्मट्ट रत्यंतरावणवीहिअं करेंति जाव गंधवधिभूअंति' जीवाभिगम सूत्र में जिस प्रकार विजयदेव के अभिषेक प्रकरण में अभिषेक सूत्र कहा गया है, उसी तरह से यहां पर भी अभिषेक सूत्र जानना चाहिये यहां यावत्पद से 'अप्पेगइया, पंडगवणं णच्चो अगं, णाइमटिअं, पविरलपकुसियं रयरेणुविणासणं, दिव्वं सुरहिगंधोदकवासं वासंति, अप्पेगइया निहयरयं णहरयं, भट्टरयं, पसंतरयं, उवसंतरयं करेंति' इस पाठका संग्रह हुआ है इसकी व्याख्या पहिले जैसी ही है वाक्य योजना इस प्रकार से है अपिशब्द यहां स्वीकारोक्ति के अर्थ में है 'एगइया' शब्द का अर्थ હતા. અહીં જે આ ધારણ કરવાની વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે તે ફક્ત સેવાધર્મને પ્રકટ કરવા માટે કહેવામાં આવી છે. વૈરીઓના ઉપશમન માટે એમણે શસ્ત્રો ધારણ કર્યા नथी. म त स्थान ५२ तमना वैरी ! or नहि. मी यावत् ५४थी. चित्ता नंदित्ताः, प्रीतिमनसः, परमसौमवस्थिताः हर्पशविसर्पदया' पहनु अडए थयु छ. 'एवं विजयानुसारेण नाव अप्पेगइया देवा आसिअ संमज्जिओबलित्तसित्त सुइ सम्मट्ठ रत्थंतरावणवीहिसं करें ति जाव गन्धवट्टि भूअंति' निगम सूत्रमा प्रमाणे विशय वना मनिष પ્રકરણમાં અભિષેક સૂત્ર કહેવામાં આવેલ છે, તે પ્રમાણે અહીં પણ અભિષેક સૂત્ર જાણવું જોઈએ. माही यावत् ५४थी 'अपेगइया पंडगवणं, णच्चोअगं, णाइमट्टिअं, पविरलपप्फुसिय रयरेणुविणासणं दिव्यं सुरहि गंधोदकवास वासंति, अप्पेगइया नियरय णदुरयं, भट्टरयं, पसंतरयं, उवसंतरयं करेंति' मा पास थयो छे. पाठ्य या मा प्रभारी छ. 'अपि' श६ मडी वीतिना भाभा अपात या छ. 'एगइया' शहन म '८८४ हे। मे। थाय छे. मा દેવાએ તે પહક વનમાં સુરભિ ગંદકની વર્ષા કરી. આ વર્ષોથી ત્યાં અતિ કાદવ થાય
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अम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र यावता रेणवः स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेण उत्कणेतिभावः उक्तप्रकारेण विरलानि सान्तराणि धनभावे कर्दमसम्भवात् प्रवृष्टानि प्रकर्पयन्ति स्पर्शगानि मन्दरपर्शनसम्भवे रेणुस्थगनासम्भवात् यस्मिन् वर्षे तत् प्रविरलप्रस्पृष्टस् अत एव रजोरेणुविनाशनम् रजसां लक्ष्णरेणुपुद्गलानां रेणूनां च स्थूलतम तत् पुद्गलानां विनाशनम् दिव्यम् अतिमनोहरम् सुरभिगन्धोदकव वर्षन्ति, अप्येककाः केचन देवाः पण्ड कवनम् निहतरजा निहतम् भूयउत्थानाभावेन मन्दीकृतं रजो यत्र तत्तथाभूतम्,
ननु तत्र निहतत्वं रजसः, क्षणमात्रम् उत्थानाऽभावेनापि संभवति अतभाह नष्टरजः नष्टं सर्वथा अदृश्यीभूतं रजो यत्र तत्तथाभूतम् अस्यैव आत्यन्तिकता ख्यापनार्थमाह भ्रप्टरजा प्रशान्तरजा, उपशान्तरजः कुर्वन्तीति, अथ प्रस्तुतम्नमश्रियते 'अप्पेगइया देवा आसिभ संमजिवलित्तसुइसम्मट्टरत्यवरावणवीहि करेंति' अप्येककाः केचन देवाः आसितसमाजितोपलिप्तम् तथा सितानि जलेन अतएव शुचीनि सम्भृष्टानि कचरापनयनेन रथ्यान्तराणि आपणवीथय इव आपणवीथयो रथ्याविशेषाः, यस्मित् तत्तथा कुर्वन्ति, अय'कितनेक देव' ऐसा है कितनेक देवों ने उस पाण्डकवन में सुरभि गंधोदक की वर्षाकी इस तरह की वर्षा से-वहां अनिकादव कीचड नहीं हो पाया किन्तु उडती हुई धूल जम गई सुरभिगंधोदककी वर्षा भी जो हुई-वह ऐसी हुई की जिसमें पानीकी बूंदे बहुन धीरे धीमे एवं छोटी २ दूर २ पर छंटकावके रूपमें पडनी थी अतिवृष्टि और अनावृष्टि के बीच की रजरेणु कोशांत करनेवाली और जिससे कीचड न होने पावे प्रत्युत उडती हुइ मिट्टी जम जावे ऐसी दिव्य वर्षा वहां कितनेक देवों ने को कितने देवों ने ही ऐसा काम किया कि जिस से वह पाण्डुकवन निहितरजवाला हो गया, नष्टरजवाला हो गया, भ्रष्टरजवाला हो गया तथा-कितनेक देवों ने उस पाण्डकवन को जलके छोटे देकर आसिक्त किया, कितनेक देवों ने उसे बुहारी से साफ किया-किलीने उसे गोमयादिसे लीपकर चिकना किया इससे वहांकी गलियां सिक्त होने से एवं कूडा करकट के दूर होजाने के कारण बिलकुल साफ सुथरी होगई स्थान स्थान से आनीत નહિ પણ ઉડી માટી જામી ગઈ. સુરભિ-ગેધદકની જે વર્ષો થઈને આ પ્રમાણે થઈ કે જેમાં પાણીની બંદે બહુજ ધીમે-ધીમે તેમજ નાની-નાની દૂર-દૂર પડતી હતી. અતિવૃષ્ટિ અને અનાવૃષ્ટિના વચ્ચેની રજ–રેણુને શાંત કરનારી અને જેનાથી કાદવ થાય નહિ, પરંતુ ઉડતી માટી જામી જાય એવી દિવ્ય વર્ષ ત્યાં કેટલાક દેવોએ કરી, કેટલાક દેએ ત્યાં એવું કામ કર્યું કે જેથી તે પાંડુક વન વિહત રજવાળું થઈ ગયું તેમજ કેટલાક દેવોએ તે પાંડક વનને પાણીના છાંટા નાખીને આસિદ્ધ કર્યું. કેટલાક દેએ તે વનને સાવર ણીથી સાફ કર્યું, કેઈ દેવે તે વનને ગોમયાદિથી લિસ કરીને સુચિફક બનાવી દીધું.
એથી ત્યાંની શેરીઓ સિક્ત થઈ જવાથી, કચરો સાફ થઈ જવાથી એકદમ સ્વચ્છ થઈ * ગઈ સ્થાન-રથાનેથી લાવેલ ચન્દનાદિ વસ્તુઓને ત્યાં ઢગલે પકડી દીધે, એથી તે હું
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०३ मर्यः तत्र स्थानस्थानानीत चन्दनानि वस्तूनि मार्गान्तरेषु त्था एकत्रीकृतानि सन्ति यथा हट्टश्रेणिप्रतिरूपं दधति 'जाव गन्धवट्टिभूअंति' यावत् गन्धवर्तिभूतमिति, अन यावत्पदात् 'पंडगवणं मंचाइमंचकलियं करेति 'अप्पेगइया गाणाविहगरागउसियज्झयपडागमंडिअं करेंति अप्पेगइया गोसीसचंदण दद्दरदिग्ण पंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगइया उवचिअचंदणकलसं अप्पेगइया चंदणघडकयतोरणपडिदुवारदेसभागं करेंति, अप्पेगइया आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्यारिअ मल्लदामकलावं करेंति अप्पेगइया पंचवण्णसरसरहिन्मुक्कपुंजोक्यारकलिअं करेंति, अप्पेगइया कालागुरुपवर कुंदुरुकतुरुक्कडझंतधूनमघमघंत गंधु आभिरामं सुगंध. वरगंधियं' इति ग्राह्यम् अप्येककाः देवाः पण्डकवनं बञ्चातिमञ्चकलितं कुर्वन्ति अप्येककाः पण्डकवनं नानाविहरागोच्छितध्वजपताकमण्डितं कुर्वन्ति अप्येककाः देवाः गोशीर्षचन्दन. दर्दरदत्त पञ्चाङ्गुलितलं कुर्वन्ति अप्येककाः देवाः उपचित 'स्थापित' चन्दनकलशं कुर्वन्ति अप्येककाः देवाः चन्दनघटसुकृत 'सुरचित' तोरणप्रतिद्वारदेशभायम् कुर्वन्ति अप्येककाः आसक्तोत्सित विपुलवृत्तव्याधारित 'प्रलम्बित' माल्यदामकलापं कुर्वन्ति, अप्येकका, पञ्चवर्णसरससुरभियुक्त पुञ्जोपचारकलितं कुर्वन्ति अप्येककाः देवाः कालगुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्क दह्यमानधूपमघमन्तगन्धोद्धृताभिरामं सुगन्धवरगन्धितं कुर्वन्ति । पुनः प्रकारान्तरेण देवकृत्यमाह 'अप्पेगइया हिरण्णवासं वासंति' अध्येककाः हिरण्यवर्षे वर्षन्ति हिरण्यस्य रूप्यस्य चन्दनादि वस्तुओं की वहां राशि लगादी गई इससे वे हदश्रेणि के जैसे हो गई यहां यावत्पद से 'पंडगवणं संचाइ मंचकलिअं करेंति, अप्पेगड्या णाणाविहराग असिमझयपडाग मंडियं करेंति, अप्पेगइया गोसीस चंदणददरदिण्णपंचं. गुलितलं काति, अप्पेगइयाउवचिअ चंदणकलसं, अप्पेगड्या चंदणघडसुकय तोरणपडिदुबारदेसभागं करेंति, अप्पेगइया आसतोलत्त बिपुल ववरधारिअ मल्लदासकलापं करेंति, अप्पेगड्या पंचवण्ण सरससुरहि मुक्क पुंजोक्यारकलिअं करोति, अप्पेगच्या कालागुरुपवर कुंदरुक्क तुरुक्क डझंत धूव मघ-सघंत गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधिअं' इस पाठका ग्रहण हुआ है इस पाठका अर्थ स्पष्ट है 'गंधवष्टि भूअंति' इस तरह वह पाण्डकवन एक सुगंधित गुटिका के श्रेणिवी / 18. मी यावत पहथी 'पंडगवणं मंचाइमंचक्रलिअंकाति, अप्पेगइया जाणाविहरागऊसिअज्झयपडागमंडिअं करेंति, अप्पेगइया गोसीस वंदणददरदिण्ण पंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगइया उवचिअचंदणकलस, अप्पेगड्या चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं फरेंति, अप्पेगइया आसत्तोसित्तविपुलबट्टवग्यारिअमल्लदामकलापं करेंति, अप्पेगइया पंच वण्ण सरससुरहि मुक्कपुंजोवयारकलि कोरेंति, अप्पेगइया कालागुरुपवर कुंदुरुक्क तुरुक्क उज्झंत धूव मघमघंत गधुढयाभिरामं सुगंधवरगंधि' मा 48 सहीत थये। छ. २मा पानी मथ स्पष्ट ४ छ. 'गंधवट्टिभूअंति' मा प्रभार ते पाचन मे सुमपित शशि थ६ गय. 'अप्पेगदया
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र वर्षे वृष्टिं वर्षन्ति कुन्तीत्यर्थः सुवण्णरयणवइर आभरणपत्तपुप्फफळबीजमल्लगंधवण्ण जाव चुण्णवासं वासंति' एवम् उक्तप्रकारेण सर्वत्र योजना कार्या तथात्र अप्येककाः केचन देवाः सुवर्णरत्नवज्राभरणपत्रपुष्पफलबीजमाल्यगन्धवर्ण यावत् चूर्णव वर्षन्ति तत्र सुवर्णम् प्रसिद्धम् रत्नानि कतनादीनि वज्राणि हीरकाः, आमरणानि हारादीनि पत्राणि दमनकादीनि पुप्पाणि फलानि च प्रसिद्धानि वीजानि सिद्धार्यादीनि माल्यानि ग्रथितपुष्पाणि गन्धाः वासाः वर्ण रक्तवर्णात्मक हिगुलादिः यावत्पदात् वस्त्रं ग्राह्यम् चूर्गानि सुगन्धद्रव्यशोदाः एतेषां व वृष्टिं वर्षन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः 'अप्पेगइया हिरण्णविहिं भाइति । तथा अप्येककाः देवा हिरण्यविधि हिरण्यरूपं मङ्गलप्रकारं भाजयन्ति शेपदेवेभ्यो ददतीत्यर्थः ‘एवं जाव चुण्ण विहिं भाईति' एवम उक्तप्रकारेण एककाः केचिदेवाः यावच्चूर्णविधि भाजयन्ति यावत्पदात् सुवर्णविधि रत्नविधिम् इत्यादि पदानि ग्राह्यानि अथ संगीतविधिरूपमुत्सवमाह-'अप्पेगइया चउव्यिह वज्ज' इत्यादि 'थप्पेगइया चउन्विहं वजं वाएंति' अप्येककाः देवाश्चतुर्विध वाद्यं वादयन्ति 'तं जहा' तय पा 'ततं १ विततं २ घणं ३ झुसिरं ४' ततम् १ विततम् २ घरम् ३ शुपिरम् ४ जैसा हो गया 'अप्पेगड्या हिरणयासं वासंति' कितनेक देवों ने वहां पर हिरण्य-रूप्यकी वर्षाकी ‘एवं सुवण्णरयणवहर आमरणपत्त पुप्फ फल बीअ मल्ल गंधवण्ण जाव चुण्णवासं वासंति कितनेक देवों ने वहां पर सुवर्ण की, रत्नों की, वज्रकी आभरणों की, पत्रों की पुष्पों की, फलों की, बीजां की-सिद्धा.
र्थादिकों की, माल्यों की गंधवासों की, एवं हिंगुलक आदि दर्थों की वर्षा की यहाँ यावत् शब्द से 'वन' का ग्रहण हुआ है चूर्णवास से यहां सुगंधित द्रव्यों का चूर्ण लिया गया है 'अप्पेगइया हिरण्णादिहि, भाइंति' कितनेक देवों ने वहां पर अन्य देवों के लिये हिरण्यविधिरूप मंगलप्रकार दिया 'एवं जाव चुपणविधि भाइंति' इसी तरह यावत् कितनेक देवों ने चूर्णविधिरूप मंगलप्रकार दूसरे देवों को दिया यहां यावत्पद से 'सुवर्णविधि, रत्नविधि, आभरणविधि' आदिपदों का ग्रहण हुआ है । 'अप्पेगइया चउब्धिहं वज्जं वाएंति तं जहा लत १ हरिण्णवासं वासंति' ४४ हेवाय त्या डिएय-यनी वर्षा ४N. 'एवं सुनणरयणवइरआभरणपत्तपुप्फफलपीअमल्लगंधवण्ण जाव चुण्णवासं वासंति' ४८४ हेवा त्या सुनी, रत्नानी, पीनी, भामरानी, पोना, ध्यानी, यानी, पानी,-सिद्धार्थी - દિની, માની, ગંધવાસોની, તેમજ હિંગુલક વગેરે વર્ણની વર્ષા કરી અહીં ચાવત. શબ્દથી “વસનું ગ્રહણ થયું છે. ચૂર્ગવાસથી અહીં સુગંધિત દ્રવ્યોના ચૂર્ણનું ગ્રહણ थयु छ 'अप्पेगडया हिरण्णविहिं भाईति' मा हेवाय त्यां मन्य हवाना भाट ९ि२९५ विधि ३५ भ प्रजा। माया "एवं जाव चण्णविधि भाइंति' 21 प्रभारी થાવત્ કેટલાક દેએ ચૂર્ણ વિધિ ૩૫ મંગળ પ્રકારે બીજા દેને આવ્યા અહીં, यावत् ५४थी 'सुवर्णविधि रत्नविधि', आभरणविधि' वगैरे यही गडीत या छ. 'अप्पेगइया चउव्विहं वज्ज वाति, 'त जहा' ततं १, विततं २, घणं ३, झुसिरं ४ ३८६४ वाम
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०५ तत्र ततम् वीणादिकम् १ विततम् पटहादिकम् २ घनम् तालप्रभृतिकम् ३ शुपिरं वंशादिकम् ४ 'अप्पेगइया चउन्विहं गेअं गायति' अप्येककाः देवाश्चतुर्विधं गेयं गायन्ति 'तं जहा' तद्यथा 'उक्खित्तं १ पायत्तं २ मंदाइयं ३ रोइआवसाणं' ४ उत्क्षिप्तम् १ पादात्तम् २ मन्दायम् ३ रोचितावसानम्' ४ तत्र उत्क्षिप्तम् प्रथमतः समारभ्यमाणम् १ पादात्तम् पादवद्धं वृत्तादि चतुर्भागरूपपादवद्धमिति भावः २ मन्दायम् मध्यभागे मूर्च्छनादि गुणोपेततया मन्दं मन्दं घोलनात्मकम् ३, रोचितावसानम् रोचितम् , यथोचितलक्षणोपेततया भावित सत्यापितमिति यावत् आवसानं यस्य तत् तथा भूतम् ४ 'अप्पेगइया चउव्विहं णटुं गच्चंति' अप्येककाः विततं २, घणं ३, झुसिरं ४' कितनेक देवों ने वहां पर चार प्रकार के-ततवितत घन और शुषिर इन चार प्रकार के वाजों को वजाया-वीणा-दिक वाद्य तत हैं, पटह आदिकवाद्य वितत हैं तालवगैरह का देना घनवाद्य है और बांसुरी आदि का बजाना शुषिरवाद्य है 'अप्पेगड्या चउव्विहं गेअं गायंति' कितनेक देवों ने वहां पर चार प्रकार का गाना गाया 'तं जहा' गेय के चार प्रकार ये हे-'उक्खित्तं १ पायत्तं २ मंदाइयं ३ रोझ्यावसाणं ४' उत्क्षिप्त-जो प्रथमतः प्रारम्भ किया जाता है वह 'पायत्त'-वृत्तादि के चतुर्थभागरूप पाद से जो बद्ध होता है वह मन्दाय-मध्यभाग में जो मूर्च्छनादिगुणों से युक्त होने के कारण मन्द घोलनारूप होता है वह, एवं रोचितावसान-जिसका अवसान यथोचित लक्षणों से युक्त होता है वह-इस प्रकार से यह चार प्रकार का गेय है 'अप्पेगड्या चउन्विहं णदणच्चंति' कितनेक देवों ने चार प्रकार का नाट्यनर्तन किया 'तं जहा' नाट्य के चार प्रकार ये है-'अंचितं दुअं आरभडं, ત્યાં ચાર પ્રકારના–તત વિતત, ઘન, અને શુષિર આ ચાર પ્રકારના વાદ્યો વગાડયાં. વીણા વગેરે વધે તત છે. પટહ વગેરે વાદ્યો વિતત છે. તાવ વગેરે આપવું તે ઘનવાદ્ય કહેવાય છે અને मसरी वगेरे 41 शुषि२ वाघ ४उपाय छे. 'अपेगइया चउविहं गेअं गायति' मा हे त्यां यार ४२ना जाता in eni 'तं जहा' ते यार ४२ गा२प्रमाणे छे-'उक्खित्तं, पायत्तं, मन्दाईय, रोईआवसाणं' क्षित १, पाहात २, माय 3, मने રેચિતાવસાન ૪, ઉક્ષિપ્ત-જે પ્રથમતઃ પ્રારંભ કરવામાં આવે છે તે, પાયાનં–વૃત્તાદિકના ચતુર્થ ભાગ રૂપ પાદથી જે બદ્ધ હોય છે તે, મન્દાય-મધ્ય ભાગમાં જે મૂચ્છનાદિ ગુણોથી યુક્ત હોવા બદલ મન્દ ઘેલના રૂપ હોય છે તે, તેમજ રચિતાવસાન–જેનું અવસાન स्थाथित सक्षयोथी युताय छे ते. मा प्रमाणे मा यार ४ा। गेयना छे. 'अपेगइया चउब्धिहं गट्टं णच्चंति' ३८६४ हेवाय या२ ४२र्नु नाट्य-नतन यु. 'तं जहा' नाटना तयार प्रहा। मा प्रभार छ-'अंचितं, दुअं, आरभडं, भसोलं' मयित १,
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जम्बूद्वीपप्रतिसूत्र वर्ष वृष्टिं वर्षन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः सुवण्णरयणवइर आभरणपत्त पुष्फफ वीजमालगंधवण्ण जाव चुण्णवासं वासंति' एवम् उक्तप्रकारेण सर्वत्र योजना कार्या तथात्र अप्येककाः केचन देवाः सुवर्णरत्नवज्राभरणपत्रपुष्पफलबीजमाल्यगन्धवर्ण यावत् चूर्ण वर्षे वर्षन्ति वत्र सुवर्णम् प्रसिद्धम् रत्नानि कतनादीनि वज्राणि हीरकाः, आमरणानि हारादीनि पत्राणि दमनकादीनि पुष्पाणि फलानि च प्रसिद्धानि वीजानि सिद्धार्यादीनि माल्यानि ग्रथितपुष्पाणि गन्धाः वासाः वर्ण: रक्तवर्णात्मक हिगुलादिः यावत्पदात् वस्त्रं ग्राह्यम् चुर्गानि सुगन्धद्रव्यशोदाः एतेषां वर्षे वृष्टिं वर्षन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः 'अप्पेगइया हिरण्णविहिं भाइति । तथा अप्येककाः देवा हिरण्यविधि हिरण्यरूपं मङ्गलप्रकारं भाजयन्ति शेषदेवेभ्यो ददतीत्यर्थः 'एवं जाव चुण्णविहिं भाईति' एवम उक्तप्रकारेण एककाः केचिद्देवाः यावच्चूर्णविधि भाजयन्ति यावत्पदात् सुवर्णविधि रत्नविधिम् इत्यादि पदानि ग्राह्यानि अथ संगीतविधिरूपमुत्सवमाह-'अप्पेगइया चउन्विहं वज्ज' इत्यादि 'थप्पेगइया चउन्विहं वज्ज वाएंति' अप्येककाः देवाश्चतुर्विधं वाचं वादयन्ति 'तं जहा' तथा 'ततं १ विततं २ घणं ३ झुसिरं ४' ततम् १ विततस् २ घरम् ३ शुषिरम् ४ जैसा हो गया 'अप्पेगड्या हिरण्णवासं वासंति' कितनेक देवों ने वहां पर हिरण्य-रूप्यकी वर्षाकी ‘एवं सुवण्णरयणवइर आभरणपत्त पुप्फ फल बीअ मल्ल गंधवण्ण जाव चुण्णवासं वासंति' कितनेक देवों ने वहां पर सुवर्ण की, रत्नों की, वज्रकी आमरणों की, पन्नों की पुष्पों की, फलों की, बीजों की-सिद्धा.
र्थादिकों की, माल्यों की गंधवासों की, एवं हिंगुलक आदि वर्णों की वर्षा की यहाँ यावत् शब्द से 'वन' का ग्रहण हआ है चूर्णवाल से यहां सुगंधित द्रव्यों का चूर्ण लिया गया है 'अप्पेगइया हिरण्णविहि, माईति' कितनेक देवों ने वहां पर अन्य देवों के लिये हिरण्यविधिरूप मंगलप्रकार दिया एवं जाव चुण्यविधि भाईति' इसी तरह यावत् कितनेक देवों ने चूर्णविधिरूप मंगलप्रकार दूसरे देवों को दिया यहां यावत्पद से 'सुवर्णविधि, रत्नविधि, आभरणविधि' आदिपदों का ग्रहण हुआ है । 'अप्पेगइया चउन्विहं वज्जं वाएंति तं जहा लत १ हरिण्णवासं वासंति' ४ वामे त्या २९य-अयनी वर्षा श. 'एवं सुनण्णरयणवइर-' आभरणपत्तपुफिफलबीअमल्लगंधवण्ण जाव चुग्णवासं वासति' मा वामे त्या सुनी, रत्नानी, पोनी, मालवानी, पानी, योनी, यानी, भीलनी,-सिद्धार्थी - દિની, માની, ગધવાસોની, તેમજ હિંગુલ, વગેરે વર્ણની વર્ષા કરી અહીં ચાવત. શબ્દથી “વસનું ગ્રહણ થયું છે. સ્વાસથી અહીં સુગંધિત દ્રવ્યના ચૂર્ણનું ગ્રહણ थयुछे 'अप्पेगइया हिरण्णविहिं भाइंति माहवाय त्यां मन्य हेवाना भाट (२९य विधि ३५ अंश प्रा। माल्या 'एवं जाव चुण्णविधि भाइंति' मा प्रभारी ચાવતુ કેટલાક દેવેએ ચૂર્ણ વિધિ રૂપ મંગળ પ્રકારે બીજા દેને આવ્યા અહી यापत ५४थी 'सुवर्णविधि रत्नविधि, आभरणविधि' वगैरे ५४ डीत या छ. 'अप्पेगइया चउव्विहं वज्ज वाएंति, 'त जहा' तत १, विततं २, घणं ३, झुसिरं ४ ३८६४ हवाम
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०५ तत्र ततम् वीणादिकम् १ चिततम् पटधादिकम् २ धनम् तालप्रभृतिकम् ३ शुपिरं वंशादिकम् ४ 'अप्पेगइया चउन्विहं गेअं गायति' अप्येककाः देवाश्चतुर्विधं गेयं गायन्ति 'तं जहा तद्यथा 'उक्खित्तं १ पायत्तं २ मंदाइयं ३ रोइावसाणं' ४ उत्क्षिप्तम् १ पादात्तम् २ मन्दायम् ३ रोचितावसानम्' ४ तत्र उत्क्षिप्तम् प्रथमतः समारभ्यमाणम् १ पादात्तम् पादवद्धं वृत्तादि चतुर्भागरूपपादवद्धमिति भावः २ मन्दायम् मध्यभागे मूर्च्छनादि गुणोपेततया मन्दं मन्द घोलनात्मकम् ३, रोचितावसानम् रोचितम् , यथोचितलक्षणोपेततया भावित सत्यापितमिति यावत् आवसानं यस्य तत् तथा भूतम् ४ 'अप्पेगइया चउब्विहं णटुं गच्चंति' अप्येककाः विनतं २, घणं ३, झुसिरं ४' कितनेक देवों ने वहां पर चार प्रकार के ततवितत घन और शुषिर इन चार प्रकार के वाजों को वजाया-वीणा-दिक वाद्य तत हैं, पटह आदिकवाय वितत हैं तालवगैरह का देना घनवाद्य है और बांसुरी आदि का बजाना शुषिरवाध है 'अप्पेगया चउन्विहं गेअं गायंति' कितनेक देवों ने वहां पर चार प्रकार का गाना गाया 'तं जहा' गेय के चार प्रकार ये हैं-'उक्खित्तं १ पायत्तं २ मंदाइयं ३ रोइयावसाणं ४' उत्क्षिप्त-जो प्रथमतः प्रारम्भ किया जाता है वह 'पायत्तं'-वृत्तादि के चतुर्थभागरूप पाद से जो बद्ध होता है वह मन्दाय-मध्यभाग में जो मूर्च्छनादिगुणों से युक्त होने के कारण मन्द घोलनारूप होता है वह, एवं रोचितावसान-जिसका अवसान यथोचित लक्षणों से युक्त होता है वह-इस प्रकार से यह चार प्रकार का गेय है 'अप्पेगड्या चउचिहं जहणच्चंति' कितनेक देवों ने चार प्रकार का नाट्यनर्तन किया 'तं जहा' नाट्य के चार प्रकार ये है-'अंचितं दुअं आरभडं,
ત્યાં ચાર પ્રકારના–તત વિતત, ઘન, અને શુષિર આ ચાર પ્રકારના વાદ્યો વગાડ્યાં. વીણા વગેરે વધ તત છે. પટડ વગેરે વાદ્યો વિતત છે. તારા વગેરે આપવું તે ઘનવાદ્ય કહેવાય છે અને मसरी वगैरे ११ शुषि२ पाच पाय छे. 'आपेगइया चउचिहं गेअं गायति' eal हवा त्यां यार ४२ जीत हान्यो 'तं जहा' त यार प्रान गा मा प्रमाणे छे-'उक्खित्तं, पायत्तं, मन्दाईय, रोईआवसाणं' क्षि १, पात २, माय 3, भने ચિતાવસાન , ઉક્ષિપ્ત–જે પ્રથમતઃ પ્રારંભ કરવામાં આવે છે તે, પાયાનં–વૃત્તાદિકના ચતુર્થ ભાગ રૂપ પાદથી જે બદ્ધ હોય છે તે, મન્દાસ–મધ્ય ભાગમાં જે મૂચ્છનાદિ ગુણેથી યુક્ત હવા બદલ મન્દ ઘાવના રૂપ હોય છે તે, તેમજ રચિતાવસાન–જેનું અવસાન
થોચિત લક્ષણેથી યુક્ત હોય છે તે. આ પ્રમાણે આ ચાર પ્રકારે ગેયના છે. - गइया चउनिहं गटुं गच्चंति' ३८ वामे या२ नु नाट्य-नत यु. 'तं जहा' नाटना तयार प्रहा। मा प्रभारी छ-'अंचितं, दुअं, आरभडं, भसोलं' मशित १,
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अम्बूद्वीपप्रसिद देवाः, चतुर्विधं नाटयं नृत्यन्ति 'तं जहा' तद्यथा 'अंचियं १ दुभं २, आरभडं ३ भसोलं ४' अञ्चितम् १ द्रुतम् २ आरभटम् ३ भसोलम् ४ तत्र अश्चितम् एकप्रकारकनृत्यविशेषस्तम् १ द्रुतम् त्वरा हस्तपाददि चेष्टाकरणम् २, आरभटम् नृत्यप्रभेदम् ३, मसोलम् एकप्रकारक नाटयविधिम् ४ नृत्यन्ति उक्त प्रकारकं नर्तनं कुर्वन्ति इत्यर्थः 'अप्पेगइया चउविहं अभिणय अभिणेति' अप्येककादेवाश्चतुर्विधमभिनयम् अभिनयन्ति 'तं जहा' तद्यथा 'दिर्हृतिअं १ पाडिस्सुइयं २' सामण्णोवणिवाइयं ३ लोगमज्झावसाणियं ४' दान्तिकम् १ प्रतिश्रुतिकम् २ सामान्यतो विनिपातिकम् ३ लोकमध्यावसानिकम् ४ एते नाटयविधयोऽभिनयविधयश्च भरतादि सङ्गीतशास्त्रज्ञेभ्योऽवसेया: 'मप्पेगड्या वत्तीसविहं दिव्यं नट्टविहि उपदंसेंति' अप्येककाः देवाः द्वात्रिंशद्विधम् अष्टमाङ्गलिकथादिकं दिव्यं नाटयविधिम् उपदर्शयन्ति, स च नाटयविधिः येन क्रमेण भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः समीपे पुरतः सूर्याभभसोलं' अंचित १ द्रुत २ आरभट ३ और भलोल ४ अश्चित यह एक प्रकार का नृत्य विशेष है, हस्तपदादिकों की चेष्टा स्वरा शीघ्रता से करना यह दूत है आरभट यह एक प्रकार का नृत्य विशेष है भसोल भी एक प्रकार की नाट्यविधि है 'अप्पेगथा चउन्विहं अभिणयं अभिति' कितनेक देवों ने चार प्रकार का अभिनय किया-'तं जहा' वह चार प्रकार का अभिनय इस प्रकार से है-'दितियं पाडिस्सुइअं सामण्णोवणिवाइभं लोगमज्झावसाणिअं' दाष्टान्तिक, प्रातिश्रुतिक, सामान्यतो विनिपातिक एवं लोकमध्यावसानिक ये नाट्यविधियां एवं अभिनयविधियां भरतादिसंगीत शास्त्रज्ञों से जानलेनी चाहिये 'अप्पेगया बत्तीसइविहं दिव्वं णविहिं उचदंसें ति' कितनेक देवो ने वत्तीस प्रकार की दिव्य नाटयविधि को दिखलाया जिस क्रम से भगवान् वर्द्धमान स्वामी के समक्ष सूर्याभदेव ने नाटयविधि प्रदर्शित की है जो कि राजકુલ ૨, આરભટ ૩, અને ભણેલ ૪. અંચિત આ એક પ્રકારનું નૃત્ય વિશેષ છે. હસ્ત પાદાદિકની ચેષ્ટા –ર–શીવ્રતાથી કરવી આ કૂત છે. આરભટ આ એક પ્રકારનું નૃત્ય विशेष छ. असो पy में अनी नाट्यविधि छे. 'अप्पेगइया चउन्विहं अभिणयं अभिणेति' मा हेवाये सारे प्रश्न मलिनय ध्या. 'तं जहा' यार प्रार! मलिनय मा प्रभारी छे. 'दिद्वतिय पाडिस्सुइअं सामण्णोवणिवाइअं लोगमज्यावसाणि' हाष्टान्तिs, ldહૃતિક, સામાન્ય વિનિપાતિક તેમજ લોક મધ્યાવસાનિક, આ નાટ્ય વિધિઓ અને અભિનય विधिमा विश सरासीत शाशीनाथामांथी तो नसे. 'अप्पेगइया बत्तीसइविहं दिव्यं णट्टविहिं उबदसें ति' हेवाये ३२ हानी हय नाट्य विधियानु प्रहशन ४यु જે ક્રમથી ભગવાન વર્તમાન સ્વામી સમક્ષ સૂર્ય દેવે નાટ્ય વિધિ પ્રદર્શિત કરી છે, કે
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०७ देवेन भावितो राजाश्नोपाङ्गे दर्शितस्तेन क्रमेण उपदयते तैः देवैरिति बोध्यम् , तत्र प्रारिप्सितमहानाटयरूपमाङ्गल्यवस्तु निर्विघ्नसिद्धयर्थमादौ मङ्गल्यनाटयम् तथाहि-स्वस्तिक १ श्रीवत्स २ नन्द्या ३ वर्द्धमानक ४ भद्रासन ५ कलश ६ मत्स्य ७ दर्पण ८ रूपाष्टमाङ्गलिकयानां भक्तिः विच्छित्तिः तया चित्र आलेखनम् तत्तदाकाराविर्भावना यत्र तत्तथाभूतम् उपदर्शयन्तीत्यर्थः, अयमर्थः यथाहि चित्रकर्मणि सर्वे जगत्तिनो भावा चित्रयित्वा दयन्ते तथा ते भावाः अभिनयविषयी कृत्य नाटयेऽपि बोन्याः तत्र अभिनयः, चतुर्भिराङ्गिकवाचनिकसालिकाहार्यभेदैः समुदितैरसमुहितः, वा अभिनेतव्यवस्तुभावप्रकटनम् प्रस्तुते च आङ्गिकेन नाटयकर्तृणां तत्तन्मङ्गलाकारतयाऽवस्थानम् । हस्तादिना तत्तदाकारदर्शन वा प्रश्नीय उपाङ्ग में प्रकट की गई है उसी क्रम से हम उसे यहां प्रकट करते हैंइस नाट्यविधि में सब से प्रथम प्रारंभ करनेके लिये इष्ट महानाट्यरूप मंगल वस्तु की निर्विघ्नतारूप ले सिद्धि के निमित्त माङ्गल्यनाट्य होता है यह मांगल्यनाटय स्वस्तिक श्री वत्स, नन्यावर्त, बर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य, और दर्पण, इन अष्ट मांगलिक वस्तुओं की रचनारूप आविर्भावना से युक्त होता है अर्थात् जैसा आकार इन पदार्थों का होता है इसी प्रकार का आकार इस नाटयविधि में प्रदर्शित किया जाता है जिस प्रकार चित्रमें अनेक भावों को चित्रित कर प्रकट किया जाता है इसी प्रकार ले इन पूर्वोक्त पदार्थों के आकारों को नाट्यविधि में अपने शरीर को उस रूप में बनाने रूप अभिनय द्वारा प्रकट किया जाता है । आङ्गिक, वाचनिक, साविक और आहार्य ये चार ,भेद चाहे समुदित हो चाहे असनुदित हों उनके द्वारा अभिनेतन्य वस्तुका जो भाव प्रकटित किया जाता है जैसे आङ्गिक सदद्वारा नाटयकर्ताओ का उस उस જેના વિશે રાજપ્રશ્રીય ઉપાંગમાં સ્પષ્ટતા કરવામાં આવી છે, તે જ ક્રમ પ્રમાણે અમે અહીં પ્રકટ કરીશું. આ નાટ્ય વિધિમાં સર્વ પ્રથા પ્રારંભ કરવા માટે ઈષ્ટ મહાનાદ્ય રૂપ મંગળ વસ્તુની નિવિનતા રૂપથી સિદ્ધિ નિમિત્તે મંગલ્ય નાટ્ય હોય છે, આ મંગલ્ય નાટ્ય સ્વસ્તિક, શ્રી વત્સ, નન્દાવર્ત, વદ્ધાનક, ભદ્રાસન, કળશ, મત્સ્ય અને દર્પણ એ અષ્ટ માંગલિક વસ્તુ બની રચના રૂપ આવિર્ભાવનાથી યુક્ત હય છે. એટલે કે જે આકાર એ પદાર્થોને હોય છે, તે જ આકાર આ નાટ્ય વિધિમાં પ્રદર્શિત કરવામાં આવે છે. જે પ્રમાણે ચિત્રમાં અનેક ભાવેને ચિત્રિત કરીને પ્રગટ કરવામાં આવે છે તે પ્રમાણે જ એ પૂર્વોક્ત પદાર્થોના આકારને નાટ્ય વિધિમાં પોતાના શરીરને તે રૂપમાં બતાવવા રૂપ અભિનય પ્રગટ કરવામાં આવે છે. આંગિક, વાચનિક, સાત્વિક અને આહાય એ ચારે ભેદ સમુદિત હોય કે અસુમુદિત હેય એમના વડે અભિનેતવ્ય વસ્તુને જે ભાવ પ્રગટ કરવામાં આવે છે જેમકે આંગિક ભેદ વડે નાટ્યકર્તાઓને તત્ તત્ મંગલાકાર રૂપથી અવસ્થિત થવું, હસ્તાકિ દ્વારા તત્ તત્ આકારે બતાવવા, વાચિક ભેદે વડે.
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___ अम्बूही प्रतिसूत्र ७०८ वाचनिकेन प्रवन्धादौ तत्तन् मङ्गलोचारणम् सभासदां जनानां मनसि आसक्तिपूर्वकं वत्तस्मगलस्वरूपाविर्भावनं मङ्गलनाटयमिति प्रथमम् १ ।। ____ अव द्वितीयं नाटयम् आवर्त्तप्रत्यावर्तश्रेणि प्रश्रेणि स्वस्तिक पुप्यम णवर्द्धमानकमत्स्याण्डक मकराण्डक जारमारपुष्पावलि पद्मपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलता पालता भक्तिचित्रम् तत्र आवर्तः भ्रमद् भ्रमरिकादानैर्नर्तनम् प्रत्यावर्तः तद्विपरीतक्रमेण श्रमरिकादाननननम् श्रेणिप्रश्रेणिस्वस्तिकाः, श्रेण्या पंक्त्या स्वस्तिका: श्रेणिस्वस्तिकाः ते चैव पक्तिगता भरि स्युरित्यत आहप्रश्रेणि स्वस्तिका इति अनुवृत्ताः श्रेणिस्वस्तिकाः, प्रश्रेणिस्वस्तिकाः, अत्र प्रशब्दोऽनुवृत्तार्थे यथा प्रशिष्यः प्रपुत्र इत्यादौ अयमर्थः, मुख्यस्यैकस्य स्वस्तिकस्य प्रतिशखं गता अन्ये स्वस्तिका इति, एतेन प्रथमनाटयगतस्वस्तिक नाट्यात् भेदो दर्शितः, तदभिनयेन नर्तनम् तथा पुष्यमाणाः पुष्टीभवनम् तदभिनयेन नृत्यम् यथाहि पुष्टो गच्छन् जल्पन् श्वसिति बहु बहु प्रस्विधति दारुहस्तप्रायौ स्वहस्तौ अतिमेदस्विनौ चालयन् २ सभासद जनानायुपहासपात्रं भवति, तथैव अभिनयो यत्र नाटये तत्पुष्यमाणनाट्यम्, अनेन अर्थन प्रथमनाटयगतवर्द्धमाननाटयाइँदो दर्शिता, तथा मत्स्याण्डकम् मत्स्यानामण्डकं मत्स्याण्डकम्' मत्स्याडि अण्डाज्जायन्ते तदाकारकरणेन यन्नतनं तन्मत्स्याण्डकनाटयम एवं मकराण्डसमपि नहि यथाकामविकुर्विणां देवानां किञ्चिदसाध्यं नाटये नचानभिनेतव्यं येन तदभिनयो न सम्भवे. दिति मत्स्यकाण्डपाठेतु मत्स्यकाण्डं मत्स्यवृन्दम् तद्धि सह जातीयैः सह मिलितमेव जलाशये प्रचलति एकत्र सञ्चरणशीललात् तथा यत्र नटोऽन्यनटैः सह सङ्गतो रङ्गभूमौ प्रविशति ततो वा निगच्छति तन्मत्स्यकाण्डनाटम्-एवं मकरकाण्डपाठे मकरवृन्दं वाच्यम् तद्धि यथाविकृतरूपवत्वेन अतीव द्रष्टणां जनानां भयानकं भवति तथैव तन्नाटयम् तदाकारदर्शनन भयानकं स्यात् तद्भयानकरसप्रधानं मकरकाण्डं नाम नाटकम् तथा जार नाटकम् जारः उपपतिः स च यथा स्वेन सार्द्ध रममाणाभिः परामि अपि स्त्रीभिः अतिरहस्येव रक्ष्यते तद्वद् यत्र थूलबस्तु निरोधनात्तत्तदिन्द्रजालाविर्भावनेन सभासदा मनसि अन्यदेव अवतार्यते तज्जारनामक नाटयम् तथा मारनाटकम्- मार:, कामस्तदुद्दीपकं नाटकं मारनाटकम् श्रभाररसप्रधानमित्यर्थः, तथा पुष्पावलि नाटयं यत्र कुसुमापूर्णवंशरालाकादि दर्शनेन अभिनयस्तत्पु. मङ्गलाकाररूप से अवस्थित होना हस्तादि द्वारा तत्तत् आकारों का दिखाना, वाचिक भेद द्वारा प्रवन्धादि में उन २ माङ्गलिक शब्दों का उच्चारण करना एवं सभासदों के मन में आसक्तिपूर्वक उस उस जंगल स्वरूप का आविर्भाव करना यह मंगल नाटय है आवत, प्रत्यावर्त श्रेणि स्वतिक प्रश्रेणि, स्वस्तिक, पुण्यमाण, वर्द्धमानक, मत्स्याण्डक, मकराण्डक जार मार पुष्पावलि, पद्मपत्र, પ્રબ ધાદિમાં તત્ તત્ માંગલિક શબ્દનું ઉચ્ચારણ કરવું તેમજ સભાસદેના મનમાં આસક્િત પૂર્વક તે મંગલ સ્વરૂપને પ્રકટિત કરવું, આ મંગળ નાટ્ય છે. આવર્ત, પ્રત્યાવત, ऋण, स्वस्ति, प्रश, स्वles, Yध्यभाय, परभान, मत्स्यiss, भ४२|७४, M२ भार
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षरकार: सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०६ पावलि नाटकम् तथा पद्मपत्रनाट्यम् यन पद्मपत्रेषु नृत्याटस्तथाविधकरणप्रयत्नविशेषेण वायुरिव लघूभवनम् न पत्रपत्रं क्लमयति नापि त्रोटयति न वक्रीकरोति तत्परपोपलक्षितं नाटयम् पदापत्रनाटकम् तथा सागरतरङ्गाभिनयं नाम नाटकम् यत्र वर्णनीयवस्तुनो वचनचातुर्यनाटयैः सागरतरगाः अभिनीयन्ते, अथवा यत्र 'तक तक थे किटता किटता कु कु' इत्यादयस्तालोयनार्थकवर्णाः, बहनोऽस्खलद् गत्या प्रोच्यन्ते तत्सागरतरङ्गनाम नाटकम्, एवं वसन्तादिऋतुर्णने वासन्तीलता पद्मलता वर्णनागिन्यं नाटकम् नन्वेवंसति अभिनेता व्यवस्तूनामानन्त्येन नाटयानामपि भानन्त्यप्रसङ्गस्तेन द्वात्रिंशसंख्यारसविरोध उच्यते एषां च सूत्रोक्ता संख्या उपलक्षणाच अन्येऽपि तत्तदभिनयकरणपूर्वकं नाट्यभेदाः ज्ञातव्याः एवं सर्वे नाटयवपि ज्ञेयम् इति द्वितीयम् ।। ___ अथ तृतीयं नाटया-ईहयुगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिनररूसरभचमरकुञ्जावनलता पद्मलताभक्तिचिवम् तत्र-ईहामृगाः वृताः ऋषभाः तुरगाः नगः मराश्च प्रसिद्धा एवं विहगाः पक्षिणः व्याला रापः किराः प्रसिद्धाः रुरवः मृगविशेषः सरमाः अष्टापदाः जन्तुविशेषाः चमरा: मृगविशेषा कुञ्जराः हरितनः बनलना: वनो वृक्षविशेपस्तस्य लता पदमलता तासां या भक्तिः विच्छित्तिः, तया चित्रम् आलेखनम् तत्तदाकाराविर्भावना यत्र तत्तथा भूतं नाटयमिति तृतीयम् ३ । अथ चतुर्थस्-एकतश्चक्र द्विधातश्चकतश्चक्रवाल द्विधातश्व काल चक्रार्द्धचक्रयालाभिनयात्मकम् । तत्र एकतश्चक्रं नाम नटानाम् एकस्यां दिशि. धनुराकारश्रेण्या नर्तनस् अनेन श्रेणि नाटया दो दर्शितः, एवं द्विधातश्चक्रम् द्वयोः परस्परा भिमुखदिशोः धनुराकारश्रेण्या नर्तनम् तथा एकतश्चक्रवालम् एकस्यां दिशि नटानां मण्डलाकारेण नर्तनम् एषा द्विधातश्चक्रवालम् द्वयोः परस्पगम्मुिदिशोर्नटानां मण्डलाकारेण सागरतरङ्ग, बासन्तीलता, और पशलता इनके जैसी रचना के अनुसार अभिनय करने से दिलीपनाव्य १५ भदवाला है तलीयनाटक ईहाग, नषभ तुरग, नर, मकर, विहग, व्याल, किन्नर, रु, सरभ, चमर, कुञ्जर, बनलता, पद्मलता, इनके जैसी रचना के अनुसार अभिलश करने से अनेक प्रकार का है। चतुर्थनाट्य एकतोचक विधातोच, एकनश्चक्रवाल, विधातश्चक्रवाल, और अर्धतश्यक्रवाल के भेद से ५ प्रकार का है एकत्तोचकनाटक में नर्तक जल एक दिशामें धनुष्य के आकार की अणिमें रहकर नर्तन करते हैं विधातो चक्रनाटक में आमने પુપાવલિ. પપત્ર, સાગર તરંગ, વાસંતીલતા અને પત્રલતા. એમના જેવી રચના સૂજબ અભિનય કરવાથી દ્વિતીય નાટ્ય ૧૫ ભેદવાળું છે. તૃતીય નાટક ઈહામૃગ, હષભ, તુરગ न२, भ४२, वि, व्यास, 81२, २२, सरस, यम२, २, वनसता, पसता, એમની જેવી રચના મુજબ અભિનય કરવાથી અનેક પ્રકારનું છે. ચતુર્થ નય એક-ચક્ર, દ્વિધાતેચક, એક્તશ્ચકવાલ દ્વિધાશ્ચકવાલ અને અર્વતશ્ચકવાલના ભેદથી ૫ પ્રકારનું છે, એકતે ચક નાટકમાં નક એક દિશામાં ધનુષના આકારની શ્રેણીમાં રહીને નર્તન
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। ७० ...
जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे नर्तनम् तथा चक्रार्द्धचक्रवालम् चक्रस्य रथाङ्गस्याङ्घ तद्रूपं यच्चक्रवालं मण्डलं तदाकारेण नर्त. नम् भर्द्धमण्डलाकारेणेत्यर्थः तदभिनयं नाम नाटकम् 'नटानां नर्त्तने संस्थानिशेप प्रधानम् नाम नाटकम् ४ चतुर्थम् ।
अथ पञ्चमम्-चन्द्रावलिप्रविभक्तिसर्यावलि अविभक्ति वलयताराहंसैकमुक्ताकनकरत्नाबलिप्रविभक्त्यभिनयात्मकम् आवलिपविभक्तिनामकम् तत्र चन्द्राणामावलिः श्रेणिस्तस्याः प्रविभक्तिः विच्छित्तिः रचनाविशेषः, तदभिनयात्मकम् तथा सूर्यावलिप्रविभक्त्यभिनयात्मकम् तथा वठ्यावलि प्रविभक्त्याभिनयात्मकम् एवं तारादिरलान्तेषु पदेषु आवल्यादि शब्दो योजनीयः अथमर्यः पक्तिस्थितानां रजतस्थालहस्तानां भ्रमरीपरायणानां नटानां नाटयम् एवं वलयहस्तानां नटानां वयनाटयम् अनयैव रीत्या तत्स द्रशवस्तुदर्शनेन तत्तदभिनयकरणं तत्तनामकं नाटयं विज्ञेयम् एतच्च आवलिकावद्धमित्यावलिका प्रविभक्ति नामकं नाटयम् ॥५॥
अथ पष्ठम्-चन्द्रसूर्योद्गमनप्रविभक्ति कृतम् उद्गमनाविभक्तिनामकं नाटयम् तत्र सूर्य रुद्दमनम् उदयः तत्पविभक्तिः रचनाविशेपः तदभिनयगर्भम् यथा उदये सूर्यचन्द्रयोरुणं मण्डलं प्राच्या चारुणः, प्रकाशस्तथा यत्राभिनीयते तदुद्गमनाविभक्ति-नाटयम् ॥६॥
अथ सप्तमम्-चन्द्रसूर्यागमन विभक्ति नाटकम् तत्र चन्द्रस्य स्त्रविमानस्य आगमनम् आका. सामने धनुष की आकार की श्रेणिमें रहकर ननन करते हैं एकतश्चक्रवाल में एक दिशा नदजन मण्डलाकार में होकर नर्तन करते है विधातश्चक्रचाल में परस्पर में आमने सामने दिशामें मंडलाकार में होकर नटजन नर्तन करते हैं। चक्राधचक्रवाल नाट्य में चक्र के पहिये के आकार में विभक्त होकर नर्तकजन नर्तन करते है।
पांचवां नाटक-चन्द्रावलि प्रविशक्ति, सूर्याबलिप्रविभक्ति, वलयावलिप्रवि. भक्ति, ताराबलिप्रविभक्ति, हंसावलिपविभक्ति, एकालिप्रविभक्ति, मुक्तावलीप्रविभक्ति, कनकालिप्रधिभक्ति, रत्नावलिपविभक्ति के भेदले अनेक प्रकार का है छट्ठा नाटक चन्द्र सूर्योद्मनविभक्ति नामका है सातवां नाटक चन्द्रसूर्योगमनप्रविभक्ति नामका है आठवां नाटक चन्द्रसूर्यावरणप्रविभक्ति नासका है ९वा કરે છે, દ્વિધાતે ચક નાટકમાં સામસામા ધનુષાકાર શ્રેણીમાં રહીને નર્તન કરે છે. એકતચક્રવાલમાં એક દિશા તરફ નટજન મંડળાકારમાં થઈને નર્તન કરે છે ક્રિપાતચક્રવાલમાં -પરસ્પરમાં સામ-સામેની દિશામાં મંડલાકારમાં થઈને નરજને નર્તન કરે છે. ચઢાઈ ચક્રવાલ નાદ્ધમાં ચકના પૈડા મુજબ ચાકારમાં વિભક્ત થઈને નર્તકજને નાચે છે. પંચમ નાટક ચન્નાવલિ પ્રવિભક્તિ, સૂર્યાવલિ પ્રવિભક્તિ. વલયાવલિ પ્રવિભક્તિ, તારા વલિ પ્રવિભક્તિ, હંસાવલિ પ્રવિભક્તિ, એકાવલિ પ્રભક્તિ, મુતાવલિ પ્રવિભક્તિ કનકા વલિ પ્રવિભક્તિ રત્નાવલિ પ્રવિભક્તિના ભેદથી અનેક પ્રકારનું છે. ષષ્ઠ નાટક ચન્દ્ર સૂર્યોપમનવિભક્તિ નામક છે સપ્તમ નાટક ચન્દ્ર-સૂર્યાગમન પ્રવિભક્તિ નામક છે. અષ્ટમ નાટક ચન્દ્ર-સૂર્યાવરણ પ્રવિભક્તિ નામક છે. નવમ ચન્દ્ર સુર્યાસ્તમયન પ્રવિભક્તિ
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थंकराभिषेकादिनिरूपणम् ७११ शादवतरणम् तस्य प्रविभक्तिः रचना यत्र नाटयेऽभिनयेन दर्शनम् तत् चन्द्रागमनप्रविभक्ति नाम नाटकम् एवं स्वर्य्यागमनप्रविभक्ति नामकं नाटकं विज्ञेयम् ॥ ७॥
अथ अष्टमम् -- चन्द्रसूर्यावरणप्रविभक्ति युक्तम् आवरणप्रविभक्ति नाम नाटकम् यथाहि चन्द्रो घनवलादिना आद्रियते तथाऽभिनयदर्शनम् चन्द्रावरणप्रविभक्ति नाटकम् एवं सूर्यावरणप्रविभक्त्यपि नाटकं विज्ञेयम् अथ नवमम्- चन्द्रसूर्यास्तमयनप्रविभक्तियुक्तम् अस्तमयनप्रवि भक्तिनाम नाटकम् यत्र सर्वतः प्रभावकालिक सन्ध्यारागप्रसरणतमः प्रसरण कुमुद संकोचादिना चन्द्रास्तमयनमभिनीयते तच्चन्द्रास्तमयन एवं सूर्यास्तमयन प्रविभक्त्यपि अत्र, अयं विशेषः सायंकालिकसन्ध्यारागप्रसरणतमः प्रसरणकमलसंकोचादिना सूर्यास्तमयनमभिनीयते तत्वर्यास्तमयन प्रविभक्ति नाम नाटकम् ॥९॥
अथ दशमम् - चन्द्रसूर्य नागयक्षभूतराक्षसगन्धर्व महोरगमण्डलप्रविभक्तियुक्तम् मण्डलप्रविभक्तिनाम नाटकम् तथा बहूनां चन्द्राणां मण्डलाकारेण चन्द्रवालरूपेण निदर्शनं चन्द्रमण्डलप्रविभक्ति एवं बहूनां सूर्यनागयक्ष भूतराक्षसगन्धर्वमहोरगाणां मण्डलाकारेण अभिनयनं वाच्यम् अनेन चन्द्रमण्डल सूर्यमण्डलयोश्चन्द्रावलि सूर्यावलि नाटयतो भेदो दर्शितस्तयोर रा - वलिका प्रविष्टत्वात् ॥१०॥
अथैका दशम् - ऋषभसिंहललितहयगजविलसितमत्तहयगजविलसिताभिनयरूपं द्रुतविलम्बितं नाम नाटयम् तत्र ऋपभसिंहौ प्रसिद्धौ तयोर्ललितं सलिलगतिः, तथा हयगजयोविलसितं मन्थरगतिः, एतेन विलम्बितगतिरुक्ता - उत्तरत्र मत्तपदविशेषणेन द्रुतगतेवेक्ष्यमाणत्वात् तथा मत्तहयगजयोर्विलसितं द्रुतगतिः, तदभिनयरूपं गति प्रधानं द्रुतविलम्बितं नाम् नाटकम् ॥११॥
अथ द्वादशम् - शकटोद्धि सागर प्रविभक्ति नामकं नाटकं तत्र शकटोद्धि प्रसिद्धा तस्याः प्रविभक्तिः तदाकरतया हस्तयोर्विधानम् एतत्तु नाटचे प्रलम्बित भुजयोर्योजने प्रणामाद्यभिनये नाटक चन्द्रसूर्यास्तमयनप्रविभक्ति नामका है १० वां नाटक चन्द्र सूर्यनाग, यक्ष भूत राक्षस गन्धर्व महोरग मण्डल प्रविभक्ति नामका है ११ वां नाटक ऋषभललित सिंहललित हय गज विलसित, मत्त हय गज विलसित इनके अभिनय करनेरूप है इस नाटय का नाम द्रुतविलम्बित नाटय है १२ वां नाटय शकटोद्धि सागर नागर प्रविभक्तिरूप होता है शकटोद्धि गाडी का जो युग होता है उसका नाम नाम है- शुभ नाटक चन्द्र-सूर्य, नाग, यक्ष लूत, राक्षस, गन्धर्व, भडारण, भांडण अविलति नाम छे, ११ नट ऋषल, ससित, सिडसनित, हयगय विससित, भत्त હેય ગજ વિલસિત, એમના અભિનય કરવા રૂપ છે. આ નાટ્યનું નામ દ્રુત વિલખિત ન છે. ૧૨મું નાટ્ય શકટાદ્ધિ સાગર નાગર પ્રવિભક્તિ રૂપ હાય છે, શકટદ્ધિગાડીને જે યુગ હાય છે તેનું નામ છે. ગાડીના આકારમાં બન્ને હાથેાને પ્રસત કરવા તે શકરાદ્ધિ
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___ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूर्य भवतीति, तथा सागरस्य समुद्रस्य सर्वतः कल्लोलप्रसरणवडवानलज्वालादर्शनतिमिशिलादि मत्स्यविवर्तनगम्भीर गर्जिताधभिनयनं सागरप्रविभक्ति तथा नागराणां नगरवासिलोकानां सविवेकनेपथ्यकरणं क्रीडासश्चरणं वचनचातुरीदर्शनमित्याघभिनयो नागरनागरप्रविभक्तितनामकं नाटकम् ॥ १२॥
अथ त्रयोदशम् नन्दाचम्पा प्रविभक्ति नामकं नाटयम् तत्र नन्दा नन्दाभिधानाः शश्वत्यः पुष्करिण्यस्तासु देवानां जलक्रीडा जलजकुसुमापचयनम् आप्लवनमित्याचाभिनयनं नन्दाप्रविभक्ति तथा चम्पा नाम महाराजधानी उपलक्षणमेतत् तेन कोशलाविशालादि राजधानी परिग्रहः, तासां च परिखा सौधप्रासाद चतुष्पदाधभिनयनं चम्पाप्रविभक्तिः॥१३॥ है। इस गाडी के आकार दोनों हाथों 'का फैलाना जिसमें होता है वह शकटोद्धि प्रविभक्ति है सागर प्रविभक्ति में समुद्र की कल्लोलों का फैलाव जिस प्रकार का होता है वडवानल ज्वाला का जैसा दिखाव होता है, तिमिङ्गिलादि मत्स्यों का विवर्तन जैसा होता है समुद्र का गंभीर गर्जन जैसा होता है यह सब अभिनय द्वारा प्रकट किया जाता है इसीका नाम सागर प्रविभक्ति है तथा नगर निवासी लोकों का जैसा सविवेक नेपथ्य किया जाता है क्रीडापूर्वक जैसा उनके द्वारा संचरण किया जाता है बोलने की चतुराई जैसी उनमें होती है इसी तरह का लव कुछ दिखाय अभिनय द्वारा जिस नाटय में दिखाया जाता है वह नागरप्रविभक्ति नानका नाटय है १३ वां नाट्य नन्दा चंपा प्रविभक्ति नामका है इस नाव्य में शाश्वत नन्दा नामकी जो पुष्करिणियां है उनमें देवों द्वारा की गई जलक्रीडा कमलों का किया गया चयन, तथा वीचमें किया गया पानी में संस्तरण यह सब अभिनयों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है इसका नाम नन्दा प्रविभक्ति है चम्पा कोशला, विशाला आदि राजधानियों की परिखाका પ્રવિભક્તિ છે. સાગર પ્રવિભક્તિમાં સમુદ્રના તરંગેનું પ્રસરણ જે પ્રમાણે હોય છે. વડવાનવ જવાળાનું દશ્ય જેવું હોય છે, તિમિશિલાદિ માનું વિવર્તન જેવું હોય છે, સમનું ગંભીર ગર્જન જેવું હોય છે, એ બધું અભિનય વડે પ્રગટ કરવામાં આવે છે. એનું નામ જ સાગર પ્રવિભક્તિ છે. તથા નગર નિવાસી લોકેનું જે પ્રમાણે સવિવેક નેપથ્ય કરવામાં આવે છે, ક્રીડા પૂર્વક જે પ્રમાણે તેમના વડે સંચરગુ કરવામાં આવે છે, બલવાની કુશળતા જેવી તેમનામાં હોય છે, આ પ્રમાણે જ બધે દેખાવ અભિનય વડે જે નામાં કરવામાં આવે છે, તે નાગર પ્રવિભક્તિ નામક નાટ્ય છે. ૧૩મું નાટય નંદા ચંપા પ્રવિભક્તિ નામ નું છે. એ ન સ્ત્રમાં શાશ્વત નંદા નામક જે પુષ્કરિણીઓ છે, તેમાં દેવે વડે કરવામાં આવેલી જળ ક્રીડા કમળનું ચયન, તેમજ જળમાં કરવામાં આવેલું સંતરણ, એ બધું અભિન વડે પ્રદર્શિત કરવામાં આવે છે. એનું નામ નન્દા પ્રવિભક્તિ છે. ચંપા, શિલા, વિશાલા વગેરે રાજપનીની પરિખા, સીધ તેમજ પ્રાસા
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कार सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७१३ __ अथ चतुर्दशम् मत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारप्रविभक्ति नाम नाटयम्-एतच्च पूर्व व्याख्यातमेव, अत्रैषां चतुर्णामभिनयनं प्रथगुक्तम् तत्र तु व्यामिश्रितमितिभेदः ॥ १४ ॥
अथ पञ्चदशम् क ख ग घ ङ इति कवर्गप्रविभक्तिकं नाटकम् तच ककाराकारेण अभिनयदर्शनं ककारप्रविभक्तिः, अयमर्थः तथा नाम ते नटाः नृत्यन्ति यथा ककाराकारो. ऽभिव्यज्यते, एवं खकारगकारघकारङकारप्रविभक्त्यो वक्तव्याः एतच्च कवर्ग प्रवि. भक्तिकं नाट्यम् एवं चकारप्रविभक्ति जातीयमित्यादि बोध्यम् ककारशब्दौद्धनेन चचपुट चाचपुटादौ कं कां किं की इत्यादि वाचिकाऽभिनयस्य प्रवृत्या नाटयम् एवं कादि डान्तानां शब्दाना मादातृत्वेन ककारखकारगकारघकारङकारप्रविभक्तिकं नाटयम्, एवं चवर्ग प्रविभक्त्यादिष्वपि एवमेव वक्तव्यम् ॥१४॥ अथ षोडषम् च छ ज झ न प्रविभक्तिकम् ।।१६।। अथ सप्तदशम्-ट ठ ड ढ ण प्रविभक्तिकम् ॥१७॥ अथाष्टादशम्-तथतधन प्रविभक्तिकम् ॥१८॥ अथैकोनविंशतितमम्-प फ ब भ म प्रविभक्तिकम् ॥१९॥ अथ विंशतितमम्-अशोकाम्रजम्बूकोशम्बपल्लवप्रविभक्तिकम् । तत्र अशोकादयो वृक्षविशेषासौधों का एवं प्रासाद आदि के चतुष्पद आदिकों का जिसमें प्रदर्शन किया जाता है वह चम्पा प्रविभक्ति है १४ वां नाट्य मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जारमार प्रविभक्ति नामका है १५ वां नाटय क ख ग घ ङ इस कवर्ग प्रविभक्ति नामका है इसमें ककार के आकार का जो अभिनय प्रदर्शन किया जाता है वह ककार प्रविभक्तिवाला नाटय है तात्पर्य यह है कि नट इस नाटय में इस ढंग से नाचते हैं कि जिसमें ककार के आकार को अभिव्यक्त करते हैं इसी प्रकार के खकार गकार घकार और डकार प्रविभक्तियों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये १६ व नाटय च छ ज झ ञ इस चवर्ग प्रविभक्ति नामका है १७ वां नाटय ट ठ ड ढ ण इस टवर्ग प्रविभक्ति नामका १८ वा त थ द ध न, इस तवर्गप्रविभक्ति नामका है १९ वां प फ ब भ और म इस पवर्ग प्रविभक्ति नामका है २० वां अशोक आम्र जम्वु पल्लव प्रविभक्ति नामका नाटय है इसमें વગેરેના ચતુષ્પદ વગેરેનું જેમાં પ્રદર્શન કરવામાં આવે છે, તે ચમ્પ પ્રવિભક્તિ છે. १४भु नाट्य भत्स्यis४, भ४२is४, १२ भा२ प्रविम नाम: छे. १५भु नाय क, ख, જ, ઘ, ' આ વાવર્ગ પ્રવિભક્તિ નામક છે. એમાં કકારના આકારને જે અભિનય પ્રદર્શિત કરવા માં આવે છે. તે કકાર પ્રવિભક્તિવાળું નાટ્ય છે તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે નટ આ રીતે નાચે છે કે જેમાં તેઓ કકારના આકારને અભિવ્યક્ત કરે છે આ પ્રમાણે વાર 'गकार, घार' मने डकार प्रविमति विश पy agी नसे. १६९ नाट्य च, छ, ज, झ अ भा च व प्रविमति नाम छे. १७ नाटय ट, ठ, ड, ढ, ण मा टव प्रविमति नाम छ. १८ भुप, फ, व भ, म ा प वर्गविक्षत नाम છે. ૨૦ નાટય અશેક, આમ્ર, જમ્મુ, પલવ પ્રવિભક્તિ નામક નાટ્ય છે. એમાં જે પ્રમાણે
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जम्बूदीपप्रतिको स्तेषां पल्लवाः नवकिसलयानि तवस्ते यथा मन्दमारुतैः प्रेरिताः सन्तो नृत्यन्ति तदभिनयात्मकं पल्लवप्रविभक्तिकं नाम नाटयम् ॥२०॥ अथैकविंशतितमम्-पदमनागाशोकचम्पकचतवनवासन्ती कुन्दातिमुक्तिकशामलताप्रविभक्तिकं लता प्रविभक्तिकं नाम नाटयम् इह येषां वनस्पतिकायिकानां स्कन्धदेशविवक्षितोवंगतै कशाखाव्यतिरेकेणान्यत् शारखान्तरं परिस्थूलं न निर्गच्छति ते लता विज्ञेयाः, ते च पदुमादय इति पद्मादि श्यामान्ताः या लतास्तत्प्रविभक्तिकं लतापविभक्तिकम्, एता यथा मारुतेरिता नृत्यन्ति तदभिनयात्मकं लता प्रविभक्तिनाम नाटयम् ॥२१॥ अथ द्वाविंशतितमम् द्रुत नामनाटकम्-तत्र द्रुतमिति शीघ्रं गीतवाद्यशब्दयो. यमकसमकप्रपातेन पादतलशब्दस्यापि समकालमेव निपातो यत्र तत् द्रुतं नाटयम् ॥२२॥
अथ त्रयो विंशतितमं विलम्वितं नाय नाटयम् यत्र विलम्बिते गीतशले स्वरघोलना प्रकारेण यतिभेदेन विश्रान्ते तथैव वाद्यशब्देऽपि यतितालरूपेण वाद्यमाने तदनुशायिना पादसञ्चारेण नत्तनं तद्विलम्बितं नाम नाटयम् ॥२३॥ ___अथ चतुर्विंशतितम् द्रुतविलम्बितं नाम नाटयम् यथोक्तप्रकारद्वयेन नर्तनम् ॥२४॥ अथ पञ्चविंशतितमम्-अश्चितं नाम नाट्यम् अश्चितः पुप्पाघलङ्कारैः पूजितस्तदीयं तदभिनयपूर्वकं नाटयमपि अश्चितमुच्यते । अनेन कौशिकी वृत्तिप्रधानाहा-भिनयपूर्वकं नाटव्यम् सूचितम् ॥२५॥ अथ पट् विंशतितमं -रिभितं नाम नाटयम् तच मृदुपदसंचाररूपमिति वृद्धाः ॥२६॥ अथ सप्तविंशतितमम्-अञ्चितरिभितं नाम नाट्यम् यत्र अनन्तरोक्तमभिनय द्वयगरतरति तत् अञ्चित रिमिनम् ॥२७॥ अथ अष्टाविंशतिममारभटं नाम नाटयम् आरभटानाम् सोत्साहसुमटानामिदयारभटम्, अयमर्थः महामटानां स्कन्धास्फालनहृयोल्वणनादिका या उद्धृत्तवृत्तिस्तदगिनयमिति, अनेन आरमटीवृत्तिप्रधानमाणिकाभिनयपूर्वकं नाटय. मुक्तम् ।।२८॥ अथकोनविंशतितमम् भसोलं नाम नाय्यम् भत् भर्त्सन दीप्त्योरित्यस्माद्धातोजिस प्रकार से इन वृक्ष विशेषों के पत्र-नवकिसलय- मन्दमारुत से कंपित होकर हिलते हैं इसी तरह से इस नाट्य में नाट्यकरने वाले अभिनय करते हैं। २१ वां नाट्य लताप्रविभक्ति नामका है इसमें पझनाग, अशोक, चम्पक आदि लताओं के जैसे अभिनय किया जाता है २२ चा नाध्य दूत नामका है २३ वां नाट्य विलम्बित नामका है २४ वां द्रुतविलम्बित नामका है २५ वा नाट्य अंचित नामका है २६ वां नाट्य रिभित नामका है २७ वां नाट्य अंचितरिभित नामका है । २८ वां नाट्य आरभट नामका है २९ नाटय भसोल नामका है ३० वां એ વૃક્ષ વિશેના પગે, નવ કિસલય-મન્દ પવનથી કંપિત થઈને હાલે છે, તે પ્રમાણે જ આ નાટ્યમાં નાટય કરનાર અભિનય કરે છે. ૨૧મું નાટ્ય લેતા પ્રવિભક્તિ નામક છે. એમાં પદ્મનાગ, અશોક, ચંપક, વગેરે લતાઓ જેવો અભિનય કરવામાં આવે છે. ૨૨મું નાટય દુત વિલંબિત નામક છે. ૨૫મું નાટય અ ચિત નામક છે. ૨૬મું નાટય ફિલિત નામક છે. મું નાય અંચિત વિભિત નામક છે. ૨૮ મું નટય આરટનામક છે.
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प्रकाशिका टीका-पंञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७१५ मस्ति, दीप्यते इति भसः शृङ्गारः शृङ्गाररसः तम् अवति इति भसोस्तम् रतिभावाभिनयेन लाति गृह्णाति इति भसोलो नटः, ततो धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् भसोलं नाम नाटयम्, एतेन शङ्गाररससात्विकभावः सूचितः, इदं सर्व व्याख्यानम् उपलक्षणपरं विज्ञेयम् तेन अत्र सर्वे सात्विकामावा', अभिनय विषयोकार्या, एतेन सात्विीवृत्ति प्रधानं सात्विकाभिनयगर्मितं भसोलं नाम नाय्यम् ॥२९॥ अथ त्रिंशचममारभटमसोलं नाम नाटयम् इदं च अनन्तरोक्ताभिनयद्वयप्रधान विज्ञेयम् ॥३०॥ अथैकत्रिंशत्तमम् उत्पातनिपातप्रवृत्तं संकुचितप्रसारितम् रेचकरेचितं भ्रान्तसंत्रान्तं नाम नाटयम् उत्पाननिपातप्रवत्तं संकुचितप्रसारितम् रेचकरेचितं भ्रान्तसंभ्रान्तं नाम नाट्यम् तत्र उत्पातो हस्तपादादीनामभिनयात्या अर्ध्वक्षेपणं तेषामेवाधः क्षेपणम् निपाततस्ताभ्यां यत्प्रवृत्तम् तत् उत्पातनिपातप्रवृत्तम्, एवम् संकुचितप्रसारितम् हस्तपादयोः संकोचनेन संकुचितम् तयोः प्रसारणेन च प्रसारितम् अभि. नयात्या यत् तत्तथाभूतम् एवं रेचकरेचितम्-रेचिकैः भ्रमरिकाभिः रेचितं निष्पन्नं यत्तत्तथाभूतम्, एवं भ्रान्तसंभ्रान्तम् भ्रान्तः भ्रमप्राप्तः स इव यत्र नाटये अद्भूतचरितदर्शनेन पर्पज्जनः संभ्रान्तः साश्चर्यों भवति तत्तथाभूतम् तदुपचारात् नाट्यमपि भ्रान्तसंभ्रान्तम् ॥३१॥ अथ द्वात्रिंशत्तमं चरमचरमनाम निबद्धनामकं नाटयम तच्च सूर्याभदेवेन भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः पुरतो भगवतश्चरमपूर्व मनुष्यभवचरमदेवलोकभव चरमच्यवनचरमगर्भसंहरण चरमभरतक्षेत्रावसर्पिणीतीर्थकरजलाभिषेकचरमबालभावचरमयौवनचरमकामभोग चरमनिक्रमणचरमतपश्चरणचरमज्ञानोत्पाद चरमतीर्थप्रवर्तन चरमपरिनिर्वाणाभिनयात्मकं भावितम्इहतु यस्य तीर्थंकरस्य जन्ममहोत्सवं कुर्वन्ति तच्चरिताभिनयात्मकमुपदर्शयन्ति, यधपि अत्रा श्चितरिभितारभटभसोलेषु चतुर्यु मूलभेदेषु गृहीतेपु साभिनयमात्रसंग्रहः स्यात् तथापि क्वचित् एकैनाभिनयेन काचिदभिनयसमुदायेन काचिच्च अभिनयविशेषेण अन्तरकरणात् सर्वप्रसिद्ध द्वात्रिंशन्न.टक संख्याव्यवहारसंरक्षणार्थ द्वात्रिंशभेदाः दर्शिताः, अथाभिनयशून्यमपि नाटकं भवतीति तत् दर्शयितुमाह-'अप्पेगइया उप्पय' इत्यादि 'अप्पेगइया उप्पयनिवयं' नाटय आरभट भसोल नामका है ३१ वां नाट्य उत्पातनिपात प्रवृत्त, संकुचित प्रसारित, रेचकरेचित भ्रान्त संभ्रान्त नामका है और ३२ वां नाट्य चरम चरम निबद्ध नामका है इन नाटकों के सम्बन्धका विवेचन राजप्रश्नीय उपाङ्ग सूत्र में किया गया है-अतःवहीं से इनके स्वरूपादिक का कथन जानलेना चाहिये। ___ 'अप्पेगइया उप्पयनिक्यं निवयउप्पयं संकुचिअपसारिअंजावभंत संभंतणामं ૨૯ મું નાટ્ય ભસેલ નામક છે. ૩૦ મું નાટ્ય આર ભટ ભસોલ નામનુ છે. ૩૧મું નાટ્ય ઉત્પાત નિપાત–પ્રવૃત્ત, સંકુચિત પ્રસારિત, ભ્રાન્ત-સંભાઃ નામક છે, અને ૩૨ મું નાટ્ય ચરમ –ચર મનિબદ્ધ નામક છે. એ નાટકથી સમ્બદ્ધ વિવેચન રાજ પ્રક્ષીય ઉપાંગ સૂત્રમાં કરવામાં આવેલું છે, એથી જિજ્ઞાસુ મહાનુભાવો ત્યાંથી જ એ સર્વના રૂપાદિકનું કથન જાણવા પ્રયત્ન કરે.
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ઉદ્
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
अप्येककाः उत्पातनिपातम् तत्र उत्पातः, आकाशे उत्पतनम् निपाठः, आकाशात् अवपतनम् उत्पातपूर्वी निपातो यस्मिन् तत् तथाभूतम् एवम् 'नित्रयउप्पयं' निपातोत्पातम् निपात पूर्व उत्पातो यस्मिन् तत् तथाभूतम् 'संकुअपसारिथं' संकुचित्रप्रसारितहस्तपादयोः संको चनेन संकुचितं तयोः प्रसारणेन प्रसारितम् अभिनयरहितं यत्तथाभूतम् 'जाव भंवसंत णाम' यावत् भ्रान्तसम्भ्रान्तकम् अत्र व्याख्यानम् अनन्तरोक्तक त्रिंशत्तमनाटकं यथा व्याख्यातं तथैव वोध्यम् अत्र - यावत्पदात् 'रिआरिअं ' इति ग्राह्यम् तत्र 'रिअं' गमनं रङ्गभूमेर्निष्क्रमणम् 'आरिअं ' पुनस्तत्रागमनमिति 'दिव्यं नट्टविहिं उपदंसंतीति' दिव्यं नाटय विधिमुपदर्शयन्तीति इदं च पूर्वोक्तचधिद्वात्रिंशद्विषनाटयेभ्यो विलक्षणं सर्वाभिनयशून्यं गात्रविक्षेपमात्रं farara उपयोग नर्त्तनम् भरतादिसङ्गीतेषु नृत्तमित्युक्तम्, यथोक्तमेव नाटयम् प्रकारद्वयेन संग्रहीतुमाह- 'अप्पेगझ्या तंडवेति अप्पेगइया लासेंतित्ति' अध्येककाः ताण्डवन्ति दिव्वं नह विहिं उवदंसन्तीति' अब सूत्रकारने यहां ऐसा प्रकट किया है कि अभि नय शून्य भी नाटक होते हैं-ये नाटक भी कितनेक देवों ने किये-इन नाटकों में उत्पात निपात- आकाश में उडना और फिर वहां से नीचे उतरना होता है इस तरह उत्पात निपात रूप खेलकूद के काम कितनेक देवों ने किये, कितनेक देवों ने पहिले नीचे गिरना और बादमें ऊपर की ओर उछलना ये काम किये कितने देवों ने अपने २ हाथपैरों को मनमाना पसारने का काम किया और फिर उनका संकोच करने का काम किया कितनेक देवों ने इधर उधर घूमना आदि
रूप कार्य किया यहां यावत्पद से 'रिआरिअ' रङ्गभूमि से बाहर आना और फिर उसमें प्रवेशकरना इस रूप जो रिअ और अरिअ है उसका ग्रहण हुआ है। इस तरह से वहां उन सब देवो' ने 'दिव्वं नविहिं उवदंसन्तीति' दिव्य नाटय विधिका प्रदर्शन किया 'अप्पेगइआ तंडवेंति, अप्पेगहआ लासेंति' कितनेक
'अपेगइया उत्पयनिवयं नित्रयउपयं संकुचिअपस रिअं जाव अंतसमंतणामं दिव्त्रं नट्टविहि उवदंसन्तीति' हवे सूत्रसरे महीं या प्रमाणे स्रष्टता भरी छे अलि નય શૂન્ય ગણુ નાટક હાય છે. એ પ્રકારના નાટકો પણ દેવેએ ભજવ્યાં હતા. એ નાટ કામાં ઉત્પાત નિપાત, આકાશમાં ઉડવું અને પછી ત્યાંથી નીચે ઉતરવું હોય છે. આ પ્રાણે ઉત્પાત, નિપાત રૂપ ખેલ કૂદ નાટકે કેટલાક દેવાએ. કર્યો કેટલાક દેવેએ પહેલાં નીચે પડવુ' અને ત્યાર બાદ ઉપરની તરફ ઉછળવુ, એવા અભિનય કર્યાં. કેટલાક ધ્રુવેએ પોતપોતાના હાથ-પગેાને યથેચ્છ રૂપમાં પ્રસૃત કર્યાં, અને પછી તેમને સંકુચિત કરવા રૂપ અભિનય કર્યાં. કેટલાક દેવાએ આમ-તેમ ફરવુ વગેરે રૂપ કાર્ય કર્યું. અહીં યાત્રત પદથી રિમાર્જિં ૨ગ ભૂમિમાંથી બહાર આવવું અને પછી તેમાં પ્રવેશ કરવુ એ રૂપમાં જે રિઅ અને અરિઅ છે તેનું ગ્રહણ થયું છે. આ પ્રમાણે त्यां मधा हेवा 'दिव्वं नट्टविहिं उत्रदंसंतीति' हिव्य नाट्य विधिनु प्रदर्शन म्यु
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षरकारी सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थंकराभिषेकादिनिरूपणम् ७१७ ताण्डवं नाम नाटकं कुर्वन्ति तच्चोद्धतैः करणैरङ्गहारैरभिनयैश्च निर्वय॑म् अतएव आरभटी. प्रधाननाटकम् अप्येककाः लासयन्ति रासलीलां कुर्वन्तीत्यर्थः अथ यथा देवाः कुतूहलमुपदर्शयन्ति तथाऽह-'अप्पेगइया पीणेति' अप्येककाः देवा पीनयन्ति स्वं स्थूली कुर्वन्ति 'अप्फोडेति' आस्फोटयन्ति उपविशन्तः पुताभ्यां भूम्यादिकमाध्नति 'वग्गंति' अप्येककाः वल्गन्ति मल्लचत् वाहुभ्यां परस्परं संप्रलगन्ति 'सीहणायं णदंति' सिंहनादं नदन्ति कुर्वन्ति 'अप्पाइया सवाई करेंति' अप्येककाः देवाः सर्वाणि पीनवादीनि क्रमेण कुर्वन्ति 'मप्पेगइया हयहेसियं' अप्येककाः देवाः हयहेपितम् अथ हेपारवं कुर्वन्ति 'एवं हत्यिगुलगुलाइयं' एव मित्येकका देवा हस्तिगुलुगुलायितम् गजवत् गर्जनं कुर्वन्ति 'रहघणघणाइयं' स्थघनघनायितम केचित अप्येकाः देवाः रथवत घनघनेतिशब्दं कुर्वन्ति-गुल गुल धन धन-इत्यनुकरणशब्दौ 'अप्पेगइया तिण्णिवि' अप्येककाः देवाः, त्रीण्यपि-हयहेपिनुहस्तिगुलगुलायित रथदेवों ने वहां पर ताण्डव नामका नाटक किया किननेक देवों ने वहां पर रासलीला की 'अप्पेगहआ पीणेति, एवं वुकारेंति, अप्फोड़ेंति, वग्गंति, सीहणायं ण. दंति' कितनेक देवों ने अपने आपको बहुत स्थूल रूपमें प्रदर्शित किया, कितनेक देवों ने अपने अपने मुंह से फूत्कार करना प्रारम्भ किया रितनेक देवो ने जमीन पर हाथों को पटक पटक कर उसे फोडने की आवाज को कितनेक देवों ने इधर से उधर दौड लगानी शुरू की अथवा सल्लों के जैसे वे आपस में बाहुओं द्वारा एक दूसरे के साथ जूझने लगे कितनेक देवों ने सिंह के जैसी गर्जना की 'अप्पेगइया सव्वाई करेंति' किननेक देवों ने क्रमशः पीनत्वादि सब कार्य किये 'अप्पेगझ्या हयहेसिअं' कितनेक देवो ने घोडों की तरह हिनहिनाना शुरु किया 'एवं हत्थिगुलगुलाइयं' इसी तरह कितनेक देवों ने हाथी के जैसा चिंघाडना प्रारम्भ किया 'रहघणघणाइयं कितनेक देवों ने रथों के जैसा परस्पर में 'अप्पेगइआ तंडवें ति, अप्पेगइआ लासे नि' मा वामे त्यां disa नामा नाटक ध्यु. ४४ वय २रास elen ४. 'अप्पेगइआ पीणेति एवं वुक्कारे ति अप्फोडेंति वग्गंति, सीहणायं णदंति' ८८४ वामे पातानी नत२ मतीय स्थूण ३५मा प्रहशित કરવા રૂપ અભિનય કર્યો, કેટલાક દેએ પિત–પિતાના મુખમાંથી કૂકાર કરવાની શરૂઆત કરી. કેટલાક દેએ જમીન ઉપર હાથને પછાડી-પછાડીને તેનાથી ડિવાને અવાજ કર્યા. કેટલાક દેએ આમ-તેમ દેડવાની શરુઆત કરી અથવા મલેની જેમ તેઓ પરસ્પરમાં બાહુઓ વડે એક-બીજાની સાથે ઝૂઝવા લાગ્યા. કેટલાક દેવે એ સિ હના જેવી गई। ४. 'अप्पेगइया सव्वाई करेंति' मा हेवाये ४५शः पानपाट मया ध्या या 'अप्पेगइया हयहेसिसा हेवामे पायानी भएर उपचाना सवा ४. 'एवं हस्थिगुलगुलाइये' मा प्रभाये रखा हेवाये हाथीनी रेभ विधा. पानी-योस पावानी शरमात ४. 'रहघणघणाइयं' मा वामे २यानी म
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___ अम्वृद्धीपप्रातिसूत्र घनघनायितानि त्रीण्यपि कुर्वन्ति 'अप्पेगदया उच्छोलंति' अप्येकका देवा उच्छोलन्ति अग्रतो मुखे चपेटां ददति 'अप्पेगइया पच्छोलंति' अप्येककाः पच्छोलन्ति पृष्टतो मुखे चपेटां ददति 'अप्पेगइया तिवई छिदंति' अप्येकाकाः त्रिपदि मल्लइव रङ्गभूमौ त्रिपदि कुर्वन्ति 'पायददरयं करेंति' पाद दर्दरकम् पादेन दईरकं भूम्यास्फोटनरूपं कुर्वन्ति 'भूमि चोडे दलयंति' भूमिचपेटां ददति कराभ्यां भूमिमाध्वन्ति 'अप्पेगइया महया महया सदेणं राति' अप्पेकका देवाः महता महता शब्देन रावयन्ति शब्दं कुर्वन्ति ‘एवं संजोगा विभासिअव्वा' एवम्-उक्कप्रकारेण संयोगाअपि द्वित्रिमेलका अपि विभापितव्याः भणितव्याः, अयमर्थः उच्छोलनादि द्विकमपि कुर्वन्ति, तथा केचिन त्रिकं चतुष्कं पञ्चकं पटकं च कुर्वन्ति संघटन करना अर्थात् चीत्कार करना शुरु किया 'अप्पेगड्या देवा तिषिण वि' कितनेक देवों ने एक ही साथ घोडों के जैसा हिनहिनाना, हाथी के जैसा चिंघाडना और रथों के जैसा परस्पर में टकराना यह तीनों कार्य किये 'अप्पे गइया उच्छोलन्ति' कितनेक देवों ने आगे से ही मुखके ऊपर थप्पड मारनी शुरु की 'अप्पेगहया पच्छोलंति' कितने देवो ने पीछे से सुख पर थप्पक मारनी शुरु की 'अप्पेगइया तिवई छिदंति' कितनेक देवों ने रङ्गभूमि में मल्लकी तरह पैंतरा भरना प्रारम्भ किया 'पादददरयं करेंति' कितनेक देवों ने पैर पटय पटक कर भूनिको ताडित किया 'भूमिचवेडे दलयंति' कितनेक देवों ने पृथिवी पर हाथो को पटका 'अप्पेगइया महया सद्देणं राति' कितनेक देवों ने बडे जोर जोर से शब्द किया 'एवं संजोगा विभासिअव्वा' इसी प्रकार से संयोग भीवित्रि पदों की मेलक भी कहलेना चाहिये अर्थात् कितनेक देवों ने उच्छोलनादि द्विक भी किये कितनेक देवों ने उच्छोलनादि त्रिक चतुष्क एवं कितनेक देवों ने उच्छोलनादि पंचकषट्क भी किये 'अप्पेगइया हक्कारंति बुक्कारंति ५२२५२मा समान ध्यु मेट यासो ५वानी शरुयात ४२. 'आपेगइया देवा तिण्णि ત્તિ કેટલાક દેએ એકી સાથે ઘડાઓની જેમ હણહણાટ કરવું, હાથીઓની જેમ ચીસે पापी भने स्थानी २ ५२२५२मा सहित थ्यु मास ऋणे ४ या. 'अप्पेगइया उच्छोलन्ति' टस हेवा मागणथी १ पोताना भुम ५२ था भारवानी शरमात री. 'अप्पेगइया पच्छोसन्ति' मा वोये ५७थी भुम ५२ ५.५ भारवानी शरमात ४री 'अप्पेगइया तिवई छिदंति' मा हेवाये भूमिमां भवानी म त मरवानी शमात ४२. 'पादददरयं करेंति' सा४ हेवामा ५१-५७11-4900 मूभिन. तlsd ४री भूमिचवेडे दलयति' डेटा वा पृथिवी 6५२ हाथी ५७.७या. 'अप्पेगइया महया सदेणं रोति' हा हेवास मई नर-शारथी सवारी या ‘एवं संजोगा विभासि જ આ પ્રમાણે જ સંગ પણ-હિત્રિ પદેની મેલક વિશેષણ કહી લેવું જોઈએ. એટલે કે કેટલાક દેએ ઉચ્છલનાદિ ક્રિકે પણ કર્યા કેટલાક દેએ ઉચ્છલનાદિ કિક, ચતુષ્ક
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कार स. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७१९ 'अप्पेगइया हक्कारेंति' अप्येककाः देवाः हकारयन्ति हकां ददति एवं पुकारेंति' एवं पून्कुर्वन्ति 'वकारेंति' वकारयन्ति बक्क बक्क मित्येवं शब्दं कुर्वन्ति 'ओवयंति' अवपतन्ति नीचैः पतन्ति उप्पयंति' उत्पतन्ति उर्वी भवन्ति 'परिवयंति' परिपतन्ति तिर्यग्निपतन्ति 'जलंति ज्वलन्ति ज्वालारूपा भवन्ति भास्वराग्रितां प्रतिपाद्यते इत्यर्थः तवंति' तपन्ति मन्दागारतां प्रतिपाद्यन्ते 'पयवंति' प्रपतन्ति दीप्ताङ्गारतां प्रतिपद्यन्ते 'गज्जति' गर्जन्ति गर्जनं कुर्वन्ति मेघवत् 'विजआवंति' विद्युतं कुर्वन्ति विद्युतवत् प्रकाशमानाः भवन्ति 'वासिति' वर्षन्ति च 'अप्पेगइया देवुक्कलियं करेंति' अप्येककाः देवाः देवोत्कलिकां देवानां वातस्येव उत्कलिकाः भ्रमविशेपस्तां कुर्वन्ति एवं देवकहकहगं करेंति' एवं देवानां कहकहकं प्रमोदभरजनितकोलाहलं कुर्वन्ति 'अप्पेगइया दुह दुहगं करेंति' अप्वेककाः देवा दुइदुहगं कुर्वन्ति, अनुकरणमेतत् 'अप्पेगइया विकियभूयाई रूवाई विकुवित्ता पणचंति' अप्पेककाः देवाः विकृतभूतानि विकतानि अधरलम्वन मुखव्यादानने त्रस्फाटनादिना भयानकानि भूतानि भूतादिरूपाणि विकओवयंति, उप्पयंति, परिवयंति, जलंति, तवंति, पवयंति, गज्जंति, विज्जुयावंति, वासिति' कितनेक देवों ने हक्का दिया पूत्कार किया, वक्क बक्क इस प्रकार से शब्दो का उच्चारण किया नीचे आना ऊंचे जाना, तिरछे जाना अग्नि की ज्वाला जैसे तपना, मन्द अग्नि के अङ्गारों के जैसे तपना दीस अंगारावस्था को धारण करना, गर्जना करना विजली की तरह वरसा करना ये सब कार्य किये 'अप्पेगइया देवुलियं करेंति' एवं 'देवकहकहं करें ति' कितनेक देवों ने वायुकी तरह घूमना-भ्रमण करना-यह काम किया कितनेक देवों ने प्रमोद के भार से युक्त होकर कोलाहल करना प्रारम्भ किया 'अप्पेगइया दुहदुहगं करेंति, अप्पेगइया विकियभूयाई रुवाई विउवित्ता पणच्चंति' कितनेक देवों ने दुहदुह शब्द किया, कितनेक देवों ने विकृत भूत रूपादिकों की, अर्थात् ओष्ठों को लम्बा करना मुखका फाडना नेत्रों को फोडना आदि २ रूप विकुर्वणा करके अच्छी तेम 21 वाव्ये अच्छसिना पय १६४५यु. 'अप्पेगइया हक्कारंति वक्कारंति, ओवयंति, उप्पयंति, परिवयंनि, जलंति, तवंति, पवयंति गजंति, विज्जुयावंति. वासिंति' કેટલાંક દેવોએ હાકળ કરી, પૂત્કાર કર્યું, વક વક આ પ્રમાણે શબ્દો ઉચ્ચરિત કર્યા. નીચે જવું, ઉપર આવવું ઊંચે જવું, વક્રગતિએ જવું, અગ્નિના જ્વાળાની જેમ સંતપ્ત થવું મન્દ અગ્નિના અંગારાની જેમ સંતપ્ત થવું અંગારાવસ્થા. ધારણ કરવી. ગર્જના કરવી, वित्नी म यम', वर्षा ४२वी, २ मा यी ४ा. 'अपेगइया देवुक्कलियं करें ति तभा 'देवकहकहं करेंति' ४४ वय वायुनी रेभ. धूम-श्रम ४२३:- म यु. हैटसा हेवा प्रभाहना माथी युत / inट ४२पानी शरमात ४३. 'अप्पेगइया दुहु दुहगं करे ति, अपेगइया विकियभूयाई रूवाई वित्तिा पणच्चंति' કેટલાક દેએ દુહ-દુહ આ જાતને શબ્દ કર્યો. કેટલાક દેવાએ વિકૃતભૂત રૂપાદિકની એટલે કે એણ્ડ લંબાવવા, સુખ વિસ્તૃત કરવું નેત્રે પ્રક્ષારિત કરવા વગેરે–વગેરે રૂપ
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अम्बूजीपतिसूत्रे
वित्वा प्रनृत्यन्ति प्रकर्षेण नर्त्तनं कुर्वन्ति 'एयमाइविभासेज्जा जहा विजयरस' एवमादि विभाघेत यथा विजयस्य विजयदवस्य कियत्पर्यन्तम् इत्याह- ' जाव सव्त्रो' इत्यादि 'जाव सन्चओ समंता आधावेंति परिधार्वेति यावत् सर्वतः समन्तात् 'आधावेंति' इपद्धावन्ति परिधावन्ति प्रकर्षेण धावन्ति तत्सर्वं जीवाभिगमे तृतीयप्रतिपत्तौ विशेषतो द्रष्टव्यम् यावत्करणात् 'अध्या लुक्di करेंति अप्पेगइया बंदणकलसहस्थगया अप्पेगडआ भिंगार गहत्थगया एवं एएणं अभिलावेणं आयंसथाल पाई वायकरगरयणकरंडग पुप्फचंगेरी जाव लोमहत्थचंगेरी पुप्फपडलग जाव लोमहत्थ चटुलग सीहासण छत्तचामर तिलसमुग्गय जाव अंजणसमुहत्थगया, अप्पेगइया देवा धूवरुडच्छुगह थगया हट्ट तट्ट जाव हियया । इति ग्राह्यम्
अथ व्याख्या - अप्येकका देवा चेलीत्क्षेप व नोच्छ्रायम् कुर्वन्ति अप्येकका चन्दनकलशहस्तगताः माङ्गल्यघटपाणयः अप्येककाः भृङ्गार रुहस्तगताः एवम् अनन्तरोक्तस्वरूपेण एतेन अनन्तरवर्तित्वात् प्रत्यक्षेण अभिलापेन - अप्येककाः आदर्शहस्तगताः एवम् पात्री वातकरक रत्नकरण्डक पुष्पचङ्गेरी यावत् लोमहस्तचङ्गेरी पुणपटलक यावल्लो महस्तपटलकसिंहासनछत्रचामर तिलसमुद्ग यावत् अञ्जनसमुद्रकहस्तगताः अप्येककाः धूप कडुच्छुक हस्तगताः हृष्टतुष्ट यावत् हृदयाः, इति एतेषाम् आधावन्ति परिधावन्त्यत्रान्नयः इति एतेषां विशेषतोऽर्थाः जीवाभिगमे तृतीयप्रतिप्रत्तौ स्वयमेव द्रष्टव्याः ॥ सू० १० ॥
तरह
तरह से नृत्य किया 'एवमाई विभासेजा जहा विजयस्स जान सव्वओ समन्ता आहावेंति' इस प्रकार विजय के प्रकरण में कहे अनुसार देव मय ओर से अच्छी थोडे थोडे रूप में और प्रकर्परूप में दौडे यह सब कथन जीवाभिगम सूत्र में तृतीय प्रतिपत्ति में किया गया है अतः वहीं से इसे देखलेना चाहिये यहां यावत् शब्द से 'अप्पेगझ्या चेलुक्वेवं करेंति अप्पेगइया बंदणकलस हत्थगया अप्पेगइया भिंगार हत्थगया एवं एएणं अभिलावेणं आर्यसथाल पाईयायकरण रयणकरंडा पुष्फ चंगेरी जाव लोमहत्थचंगेरी पुप्फ पडलग जाव लोमहस्थ पडलग सोहासण छत्त चामर तिल्ल समुग्गयहत्थगया देवा धूपकच्छु हत्थ गया हट्ठ तुट्ठ जाद हिय्या' इस पाठका ग्रहण हुआ है - यह पाठ अर्थ में बिलकुल स्पष्ट है ॥१०॥ विधुरीने पछी सारी रीते नृत्य यु. एवमाई विभासेज्जा जहा विजयरस जाव सव्वओ समता आहावेति' मा प्रभाणे वियना प्रशुभां ह्यां भुरण हेवा थेोमेरथी સારી રીતે અપ-અલ્પ પ્રમાણમાં અને પ્રક' રૂપમાં દોડયા. આ બધુ કથન જીવભિગમ સૂત્રમાં તૃતીય પ્રતિપત્તિમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. એથી જિજ્ઞાસુએ ત્યાંથી જ या विशे लागुवा प्रयत्न रे. अहीं यावत् यथी' अपेगइया चेलुक्खेयं करें ति अप्पे - इणकलसहत्थगया, अप्पेगइया सिंगार हत्थगया एवं एएणं अभिलावेणं आयंसथाल पाई वायकरग रयणकरंडग पुग्फचंगेरी नाव लोमहत्थ चंगेरी पुप्फपडलग जाय लोमहत्थ पडलग सीहासण छत्तचामर तिल्लसमुग्गय हत्थगया देवा धूपकच्छुय हत्थगया टुट्ठ जाव हिया या या संग्रहीत थयो छे, या पाह अर्थनी दृष्टि सुगम छे. सूत्र - १०.०
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सु. ११ अभिषेक निगमनपूर्वकमाशीर्वादः अथ अभिषेक निगमन पूर्वकमाशीर्वाद मा:
मूलम् - तए णं से अच्चुइंदे सपरिवारे सामिं तेणं महया महया अभिसेणं अभिसिंचाई, अभिसिंचित्ता करयलपरिग्गहियं जाव सत्थए अंजलि कट्टु जपणं विजएणं वद्धावेइ वद्धावित्ता ताहिं इट्ठाहिं जाव · जयजयस पउंजइ परंजित्ता जाव पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाइए गायाई लूहेइ लुहित्ता एवं जाव कप्पorai fra अलंकिय विभूसियं करेइ करिता जाव णहविहि उवदंसेइ उवदंसित्ता अच्छे हिं सहेहिं रययामएहिं अच्छरसा तंडुलेहिं भगवओ सामिस्स पुरओ अट्टट्टमंगलगे आलिह तं जहा- सोत्थिय १ सिविच्छ २ नंदियावत ३ वद्धमाण ४ भासण ५ वरकलस ६ मच्छ७ दप्पण ८ लिहिआ अटूट्ट मंगलगा ||१|| लिहिऊण करेइ उपचारं किंते ! पाडल मल्लिअ चंपगसोग पुन्नाग चूअमंजरि णत्रमालिअबउलतिलय कणवीर कुंदकुज्जग कोरंटपत्त दमणग वरसुरभिगंधगंधियस्स कचग्गहगहिय कर्यलप भविष्यमुक्कस्स तत्थचित्तं जास्सेहपमाणमित्तं ओहिनिकरं करेता चंदष्यभरयणवइरवेरुलयविमलदंड कंचणमणिरय गभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुकधूवगंधुत्तमाणुविद्धं च धूमत्रहिं विणिम्मुयंतं वेरुलियमयं कडुच्छुअं पग्गहितु पथरणं धूवं दाउण जिणवरिंदस्स सत्तद्रूपयाई ओसरिता दसंगुलियं अंजलि करिअ मत्ययंमि पयओ असय विसुद्ध गंधजुत्तेहिं महाविरोहिं अपुरं अत्थजुत्तेहिं संथुणइ संधुणित्ता वामं जाणुं अंचेइ अंचित्ता जाव करयलपरिग्गहियं सत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी णमो - त्थुते सिद्धबुद्ध णीरय समणसामाहिअं समत्त समजोगि सल्लगत्तणपिभय नीरागदोसणिम्नमणिरसं गणीसल्लमाणमूरणगुणरयणसीलसागरनत सप्पमेयभविअ धम्मवरचाउरंतचक्कत्रट्टी णमोत्थुते अरहओ तिकट्टु एवं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासपणे णाइदूरे सुस्सूसमाणे जाव पज्जुवासइ एवं जहा अच्चुयस्स तहा जाव ईसाण
ज० ९२
७२१
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कम्पनीपप्राप्तिको
स्स भाणियव्व एवं भवणवइवाणमंतर जोइसिआ य सूरपजवसाणसएणं परिवारेणं पत्ते पत्तेअं अभिसिंचंति, तएणं से इसाणे देविदे देवराया पंच ईसाणे विउव्वइ, विउव्वित्ता एगे इसाणे भगवं तित्थयरं करपुटसंपुडेणं गिण्हइ गिण्हित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सपिणसपणे, एगे ईसाणे पिट्टओ आयवत्तं धरेइ दुवे ईसाणा उभओ पासिं चामरुक्खेवं करेंति एगे ईसाणे पुरओ सूलपाणी चिटुइ । तए णं से सबके देविंदे देवराया आभिओगे देवे सदावेइ सहावित्ता एसो वि तहचेव अभिसेय आणत्तिदेइ तेऽवि तहचेव उवणेति, तपणं से सक्के देविदे देवराया भगवओ तित्थयरस्स चउद्दिसिं चत्तारि धवलवसभे विउध्वेइ संखदलविमलनिम्मलदधिधणगोखीरफेणरयणिगरप्पगासे पासाईए दरसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे, तएणं तेसिं चउण्हं धवलवलभाणं अहिं सिंगेहितो अतोअधाराओ णिगच्छंति, तए णं ताओ अटतोअधाराओ उद्धं वेहासं उप्पयंति उप्पइत्ता एगओ मिलायंति मिलाइत्ता भगवओ तित्थयरस्स सुद्धाणंसि निवयंति । लए णं से सक्के देविदे देवराया चउरासीए सामाणि साहस्लीहिं एयस्स वि तहेव अभिसेओ भाणियन्त्रो जाव नमोऽत्थुणं ते अरहओ तिकट्ठ वंदइ णमंसइ जाव पज्जुवासइ ॥सू०११॥ ___छाया-ततः खलु सोऽच्युतेन्द्रः, सपरिवारः स्वामिनं तेन महता महता अभिषेकेण अभिपिचति, अभिपिच्य करतळपरिगृहीतं यावत् मस्तके अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन च वर्द्धयति वर्द्धयित्वा ताभिरिष्टाभि र्यावत् जयजय शब्दं प्रयुक्त प्रयुज्य यावत् पक्षमलमुकुमारया सुरभ्या गन्धकापायिकथा गात्राणि रुक्षयति रुक्षयित्वा एवं यावत् कल्पवृक्षमिव अलङ्घनविभूपितं करोति कृत्वा यावत् नाटयविधिमुपदर्शयति उपदय अच्छे लक्ष्णैः रजतमयैः अच्छरसतण्डुलैः भगवतः स्वामिनः पुरतः अष्टाष्टमङ्गलकानि आलिखति तघया-दर्पण १ भद्रासन २ वर्द्धमान ३ वरकमल ४ मत्स्य ५ श्रीवत्स ६ स्वस्तिक ७ नन्दावर्त ८ लिखितानि अप्टाष्टमङ्गलकानि । १ । लिखित्वा करोति उपचारम् कोऽसौ ? पाटलमल्लि चम्पकाशोक पुन्नागचूतमञ्जरी नवमालिक वकुलतिलकरवीर कुन्दकुजककोरण्डकपत्र दमनक वरसुरभिगन्धगन्धिफस्य कयग्रहगृहीतकरतलप्रभ्रप्टविप्रमुक्तस्य दशादर्णरय कुसमनिकररय स्त्र चित्रम् जान
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७२३ त्सेधप्रमाणमितम् अवधिनिकरं कृत्वा चन्द्रप्रभरत्नवज्रवैडूर्यविमलदण्डम् काञ्चनमणिरत्न भक्तिचित्रम् कृष्णागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्क धूप गन्धोद्भूतामनुविद्धां च धूपवत्तिं विनिमुश्चन्तं वैडूर्यमयं कडुच्छुकं प्रगृह्य प्रयतेन धूपं दत्वा ज़िनवरेन्द्रस्य सप्ताष्टपदानि अपमृत्य दशाङ्गुलिकम् अञ्जलिं कृत्वा मस्तके प्रयतः, अष्टशतविशुद्धग्रन्थयुक्तैः, महावृत्तः, अपुनरुक्तैः संस्तौति संस्तुत्य वाम जानुम् अञ्चति अश्चित्वा यावत् करतलपरिगृहीतं मस्तके अञ्जलि कृत्वा एवमवादी-नमोऽस्तुते सिद्धबुद्धनीरजश्रमणसमाहिकसमस्तसमजोगिशल्यकर्तन निर्भयनीरागद्वेषनिर्ममनिश्शक निश्शल्यमानमूरणगुणरत्नशीलसागर मनमन्ताप्रमेयभविकधर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिने नमोऽस्तुते अर्हते इति कृत्वा एवं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा नात्यासन्ते नाति दूरे शुश्रूपमाणो यावत् पर्युपास्ते-एवं यथाऽच्युतस्य तथा यावदीशानस्य भणितव्यम् एवं भवनपति वानमन्तरज्योतिप्काच सूर्यपर्यवसानाः स्वेन परिवारेण प्रत्येकम् प्रत्येकम् अभिसिञ्चति । ततः खलु स ईशानो देवेन्द्रो देवराजः पञ्च ईशा. नान् विकुर्वति विकुर्विता एक ईशानो भगवन्तं तीर्थकरं करतलसंपुटेन गृह्णाति गृहीत्वा सिंहासनचरगतः पौरस्त्याभिमुखः सन्निपण्णः, एक ईशानः पृष्टतः, आतपत्रं धरति द्वौ ईशानौ उभयोः पार्श्व चामरोतक्षेप कुरुतः, एकः ईशानः पुरतः, शूलपाणिस्तिष्ठति । ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः आगियोगिकान् देवान् शब्दयति शब्दयित्वा एषोऽपि तथैव अभिषेकाज्ञप्तिं ददाति तेऽपि तथैव उपनयन्ति ! ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः, भगवस्तीर्थंकरस्य चतुर्दिशि चतुरो धवलवृपमान् विकुर्वति, श्वेतान् शंखदलविमलनिर्मलदधिधनगोक्षीरफेनरजतनिकरप्रकाशान् प्रासादीयान दर्शनीयान् अभिरूपान् प्रतिरूपान्, ततः खलु तेषां चतुर्णा धवलवृपभाणाम् अष्टभ्यः श्रृगेभ्योऽष्टौ तोयधारा निर्गच्छन्ति, ततः खलु ता अष्टौ तोयधारा उर्ध्वं विहायसि उत्पतन्ति उत्पत्य एकतो मिलन्ति मिलित्वा भगवतस्तीर्थकरस्य मूनि निपतन्ति । ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः चतुरशीत्या सामानिकसहस्रैः एतस्यापि तथैव अभिषेको भणितव्यो यावन्नमोऽस्तुतेऽहते इतिकृत्वा वन्दते नमस्यति यावत् पर्युपास्ते ॥ सू० ११॥
टोका-'तएणं से अच्चुइंदे सपरिवारे सामि तेणं महयामहया अभिसेएणं अभिसिंचइ' ततः खलु तदनन्तरं किल सः प्रागुक्तोऽच्युतेन्द्रः स परिवारः, अनन्तरोक्तपरिवारसहितः, स्वामिनम्-ऋषभतीर्थकरम् तेन-अनन्तरोक्तस्वरूपेण महतामहता, अतिशयेन, अभिषेकेण,
'तएणं से अच्चुइंदे सपरिवारे सामि' इत्यादि
टीकार्थ-'तएणं' इसके बाद से अच्चुइंदे सपरिवारे' सपरिवार अच्युतेन्द्र ने 'सामि तेणं महयार अभिसेएणं अभिसिंचई' तीर्थंकर का उस विशाल अभिः
'तएणं अच्चुईदे सपरिवारे सामि' इत्यादि
Astथ-'तएण' त्यार माह से अच्चुइंदे सपरिवारे' सपरिवार अत्युतेन्द्र 'सामि तेणं महया २ अभिसेएणं अभिसिंचई' ती ४२ त विश भभिषेनी सामग्रीथी मनिष
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तोपप्रति अभिपिञ्चति आनीतपवित्रोदकैरभिषेचनं करोति 'अभिसिंचिता' अभिषिच्य 'करयलपरिग्गहियं नाव मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धावई' करतलपरिगृहीतं यावन्सस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन च-जयविजयशब्दाभ्यां वर्द्धयति स्तौति अत्र यावत्पदात् दशनखं शिरसावर्तमिति ग्राह्यम् 'पद्धावित्ता' वर्द्धयिन्वा 'ताहि हाहि जाव जयजयसई पनई' ताभिः विशिष्टगुणोपेताभिः, इष्टाभिः श्रोतृणां वल्लभाभिः यावज्जयजयशब्द प्रयुक्ते, अत्र जयशब्दस्य द्विवंचं शीघ्रनायां संभ्रमे जयविजयशब्दाभ्यां बर्द्धयित्वा पुनर्जयजयशब्द. प्रयोगो मङ्गलवचनेन पुनरुक्ति र्दोपाय इत्यभिहितः, अत्र यावत्पदात् 'कतानि पियाहिं मणुआणहिं मणामाहिं वग्गूहि' कान्ताभिः प्रियाभिः मनोज्ञाभिः मनोऽमाभिः वाग्भिरितिग्राह्यम् अथ अभिपेकोत्तरकालिकं कर्तव्यमाह 'पउंजित्ता' इत्यादि 'पउंजित्ता' प्रयुज्य 'जाव पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लहेइ' यावत् वालसुकुमारया पश्मयुक्तमुन्दरलोमवत्या सुकोमलया मुरभ्या सुगन्धि युक्तया गन्यकापायिक्या गन्धक सुगंधित द्रव्ययुक्तया इति गम्यं गात्राणि तस्य अगानि मुखहस्तादि अवयवान रूक्षयति प्रोन्छति-अत्र यावत्पदाद षेक की सामग्री से अभिषेक किया आनीत पवित्र उदक से प्रभुको स्नान कराया 'अभिसिंचित्ता करलयारिग्गहिरं जाव मत्थए अंजलिं कट जएणं विजएणं वद्धावेइ' स्नान कराकर फिर उसने प्रभुकी दोनों हाथों की अंजलि करके नमस्कार किया और जय विजय शब्द से उन्हें बधाया यहां यावत् पद से 'दशनखं शिरसावतम्' ऐसा पाठ संगृहीत हुआ है 'पद्धावित्ता ताहिं इटाहिं जाव जय जय सद्दे पउजति पउंजित्ता जाव पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लूहेह' वधाने के बाद अर्थात् जय विजय शन्दों द्वारा स्तुति कर चुकने बाद फिर उसने उन उन इष्ट यावत-कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोऽम वचनों से जय जय शब्द का पुनः प्रयोग किया यहां पुन रुक्ति का दोष भक्ति की अतिश. यिता के कारण नहीं माना गया है जब वह इच्छानुकूल भक्ति कर चुका तव उसने प्रभुके शरीर का पक्ष्मल, सुकुमार, सुगंधित तोलियों से प्रोन्छन किया ध्या. मानीत पवित्र ४थी प्रभुने स्नान ४ाव्यु. 'अभिसिंचित्ता करयलपरिग्गहिअं जाव मत्थए अंजलिं कटूटु जाएणं विजएणं वद्धावेई' स्नान ४रावीन पछी तेरे अनुने भन्ने હાથની અંજલિ બનાવીને નમસ્કાર કર્યા અને જય-વિજય શાઓ વડે તેઓશ્રીને અભિ नहित ४ा. मी यावत् ५४थी 'दशनख शिरसवतम्' मा पा8 सहीत थ। छे. 'वद्धा. वित्ता ताहिं इद्वाहिं जाव जय-जय सद्दे पउंजंति, पउंजित्ता जाय परल सुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई ल्हेई' मलिनहित ४शत अर्थात् १५-विश्य थी तमाश्रीनी સ્તુતિ કરીને પછી તેણે તત-તત ઈટ યાવત કાન્ત, પ્રિય, મને જ્ઞ, મનેડમ વચનથી જય-જય શબ્દોને પુનઃ પ્રવેશ કર્યો. અહીં ભક્તિની અતિશયતાને લીધે પુનરુક્તિ દેષ માનવામાં આવ્યું નથી. જ્યારે તે યથેચછ ભકિત કરી ચૂકયો ત્યારે તેણે પ્રભુના શરીરનું
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षरकारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७५ 'तप्पढमशए' तत् प्रथमलया-इति ग्राह्यम् 'लूहिता' रूक्षयित्वा शरीराणि पोन्छन्य एवं जाव कप्पश्वलगंपिन अलंकिरिअविभूसियं करेइ' एयर-उत्तप्रकारेण यावत्कल्पवृक्षमिवअलंकृतं वस्त्रालङ्कारेण विभूषितम्-आभरणालङ्कारेण करोति, अत्र वायत्पदान् ‘लुहित्ता सरसेगं गोशीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ अणुलिंपित्ता-नासानीसासवायवोज्झं चवखुहरं वण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवाइरेगं धवलं कण मखचियंतकम्मं देवदूसजूलं निअंसावेइ निअंसावित्ता' इति ग्राह्यम् एपामर्थः, रुक्षयित्वा तस्य शरीराणि प्रोञ्चसरसेन रससहितेन गीशीर्यचन्दनेन गात्राणि शरीराणि, अनुलिम्पति, अनुलिप्य नासानिःश्वासवादबाह्यम् तथा चक्षुहरं दर्शनीयस् तथा वर्णपर्शयुसम् तया 'हयलालापेलवातिरेक धवलम् , तत्र हयलालाअश्वमुख मलं तद्वत् पेलनस् कोमलम् अतिरेकपवलं च-अत्यन्तस्वच्छ च तथा कनकखचि. तान्त कर्मकनकैः काञ्चनैः सचिता अन्तम अन्तर्भागो यस्य तत्तथाभूतम्-एवं भूतं देवदष्ययुगलम् देववस्त्रयुगलस-परिधानोत्तरीयरूपं निवासयति, परिधापयति निवास्य परिवाप्य-इति बोध्यः। 'करिता' कृत्वा 'जाव नविहिं उपदंसेइ' यावत् नाटयविधिमुपदर्शयति अन 'लूहेत्ता एवं जाच कप्परुखगंपिक अलंकिय विभूलिभं करेइ' शरीर को प्रोन्छल करके फिर उसने प्रभुके सुख हस्त आदि अवयवों को पोंछा यहां यावत् शब्द से 'तप्पटमयाए' पद का ग्रहण हुआ है पॉछकर उसने फिर प्रभुको वस्त्र और अलंकारों से विभूषित किया अतः प्रभु उस समय साक्षात् कल्पवृक्ष के जैसे प्रतीत होने लगे यहां यावत् शब्द ले-'लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलि-: म्पह, अणुलिपिता नासानीलालवाययोज्ज्ञं विश्खहरवष्णफरिसजुत्तं, हयलाला. पेलवाइरेगधवलं कणम खचियंतसम्म देवदूलजुअलं निअलावे नियंसावित्त७ इस पाठका संग्रह हुआ है-इसकी व्याख्या स्पष्ट है 'करिता जाब विहिं उवदसेइ, उपदंसिता अच्छेहि सण्डहिं स्थणामएहिं अच्छरसातण्डुलेहिं भगवओ समणस्त पुरओ अट लंगलगे आलिहइ' वस्त्रालंकारों से प्रभुका अलंकृत करके पक्षमा, सुमार, सुगचित पसथी छन यु. 'लूहेत्ता एवं जाव कापक्वगंपिलव अलंकिय विभूसिरं करेइ' शरीर छन अरीने पछी तणे प्रभुना भुष, स्त, वगैरे अपयवानु छन ध्यु'. मी यावत् शपथी 'तपढमयाए' ५४ हुए थयु च्यु પ્રેછન કરીને પછી તેણે પ્રભુને વસ્ત્ર અને અલંકારોથી વિભૂષિત કર્યા. એથી પ્રભુ તે
मते साक्षात् ४६५ वृक्ष 24n anा भांडया. ही यावत् शपथी 'लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदगेगं गायाई अगुलिम्पइ, अगुलिंपित्ता नासानीसासवायवोझ चक्खुहरवण्णफरिस. जुत्तं, हयलालापेलवाइरेगधवलं कणगखचिवंत कम्मं देवदुमजुथलं नियंसावेइ निसावेइत्ता' मा ५४ सहीत थय। छे. सनी. व्याघ्या २५८ १, 'करित्ता जाव णट्टविहि उवदंसेइ, उवसित्ता अच्छेहिं सहेहिं रवणामणहिं अच्छरसातण्डुलेहिं भगवओ समणस्स पुरओ अट्ठ मंगलो आलिहई' पनामाथी प्रभुने मत या पछी यावत् नाट्यविधिनु
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जम्पद्वीपप्रति यावत्पदात् 'सुमणदामं पिणद्धावेई' सुमनोदामानम्-पुष्पमाल्यं पिनाहयति परिधापयति पिनाह्य परिधाप्य इति ग्राह्यम् 'उवदंसित्ता' नाटयविधिमुपदर्य अच्छेहि' अच्छैः स्वच्छ 'सण्हेहि श्लक्ष्णैः चिकणैः 'रययामएहिं' रजतमयैः 'अच्छरसातंडुलेहि अच्छरसतण्डुलः 'भगवओ सामिस्स पुरओ अष्टमंगलगे आलिहइ भगवतः स्वामिनस्तीर्थकरस्य पुरतः, अष्टाष्टमङ्गकानि, अत्र वीप्सावचनात् प्रत्येकम्-अप्टी-अष्टौ इत्यर्थः आलिखति 'तं जहा' तद्यथा 'दप्पण १ भद्दासणं २ वद्धमाण ३ वरकलस ४ मच्छ ५ सिरिवच्छ ६ सोस्थिय ७ गंदावत्ता ८ लिहिआअष्टमंगलगा ॥१॥ दर्पण १ भद्रासन २ वर्द्धमान ३ वरकलश-४ मत्स्य ५ श्रीवत्स ६ स्वस्तिक ७ नन्द्यावतों ८ लिखितानि अष्टाष्टमङ्गलकानि, । 'लिहि उण' अनन्तरोक्तानि अष्टमङ्गलानि लिखित्वा 'करेइ उवयारं करोत्युपचारम् कोऽसावुपचारस्तत्राह 'पाडलमल्लिअ-इत्यादि 'पाटलमल्लिअ, चंपगसोगपुन्नागचून मंजरिणवमालिअबउलतिलयकणवीर कुंदकुज्जगकोरंट पत्तदमणगवरसुरभिगंधगंधिप्रस' पाटलमल्लिकचम्पकाशोकपुन्नागाम्रमञ्जरी नवमालिक बकुलतिलक करवीरकुन्दकुनककोरण्ट पत्र दमनक वरमुरभिफिर उसने यावत् नाट्यविधि का प्रदर्शन किया यहां यावत् शब्द से-'सुमणोदामं पिणद्धावेई, पिणद्धावित्ता' इन पदों का ग्रहण हुआ है-नाट्यविधि का प्रदर्शन करके फिर उसने स्वच्छ चिकने रजत मय अच्छरस तण्डुलों द्वारा भगवान् के समक्ष आठ २ मंगलद्रव्य लिखे-अर्थात् एक एक मंगलद्रव्य आठ २ वार लिखा 'तं जहा' वे आठ मंगलद्रव्य इस प्रकार ले है-स्वस्तिक १ श्रीवत्स २ नन्दावत ३ वर्द्धमान ४ भद्रासन ५ वरकलश ६ मत्स्य ७ दर्पण ८ आठ मंगल द्रव्यों को लिखकर फिर उसने उनका उपचार किया अर्थातू 'किंते पाडल मल्लिय चंपगलोग पुन्नाग चूअ मंजरिणयमालि अ बालतिलय कणवीर कुंद कुज्जग कोरंट पत्तद्मणगवरसुरभिगंधगंधिअस्स, कयग्गगहिअकरयलपन्भट्ठविप्पमुक्कस्स दसवण्णस्स कुसुमणिअरस्स' पाटल गुलाब, मल्लिका चंपक, प्रहशन यु. मी यावत् पथी 'सुमणोदामं विणद्धावेई, पिणद्धाविचा' मा यही स. હીત થયા છે. નાટ્ય વિધિનું પ્રદર્શન કરીને પછી તેણે સ્વચ્છ, સુગિફકણ રજતમય અમરસ લે વડે ભગવાનની સમક્ષ આઠ-આઠ મંગળ દ્રવ્યે લખ્યાં. અર્થાત્ એકमे भ य मन मा मा १मत थु:. 'तं जहा' ते मा मज द्रव्यो । प्रमाणे छ-elds १, श्रीवत्स २, नन्हावत 3, ईमान ४. मद्रासन ५, १२ કલશ ૬, મત્સ્ય ૭, દર્પણ ૮, તે આઠ-આઠ મંગલ દ્રવ્યને લખીને પછી તેણે તેમને
५या२ ४ मेट है 'किं ते पाडल मल्लिय चंपगसोगपुन्नाग चूअ मंजरि णवमालिअ पउल तिलय कणवीर कुदकुज्जग कोरंट पत्तदमणगवरसुरभिगंधगन्धिअस्स, क-ग्गहगहिअ करयल पन्भट्ट विष्पमुक्कस्स दसद्धवणस्स कुसुमणिअरस्स' पास, गुलाम, Hel, A५४, ANI)
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७२७ गन्धगन्धितस्य तत्र पाटलं-पाटलपुष्पम् 'गुलाव' इति भाषप्रसिद्धम् मल्लिका विचकितपुष्पम् 'वेलि' इति भाषाप्रसिद्धम् चम्पकाशोकपुन्नागाः, प्रसिद्धा एवं चूतमजरी, आम्रमञ्जरी नवमालिका-नूतनमालिका वकुलः केसरः यः, स्त्रीमुखसीघुसिक्तो विकसति तत्पुष्पम् । तिलको यः स्त्रीकटाक्षनिरीक्षितो विकसति त पुष्पम्-करवीरकुन्दे प्रसिद्ध कुब्जाम् कुब इति नाम्ना वृक्षविशेषस्तत्पुष्पम् कोरण्टकं तनामकपीतवर्णपुष्पम् पत्राणि-मरुवक पत्रादीनि दमनकः एतैः वरसुरभिः अत्यन्तसुरभिः, तथा सुगन्धाः, शोभनचूर्णास्तेषां गन्धो यत्र स तथा भूतस्तस्य अत्र तद्धित प्रत्ययः पश्चात् विशेषणद्वयस्य कर्मधारयो बोध्यः, इदं च कुसु. मनिकरस्याग्रे वक्ष्यमाणस्येति विशेषणम् पुनः कीदृशस्य तत्राह ‘कयग्गहगहिरयळपभट्टविप्पमुक्कस्स' कचगृहगृहीतकरतलपभ्रष्टविनमुक्तस्य, तत्र कचग्रहः केशानां ग्रहणम् गृहीतस्तथा तदनन्तरं करतला द्विप्रमुक्तः सन् प्रनष्टस्तस्य पुनः कीदृशस्य 'दसद्धवण्णस्स' दशाद्धवर्णस्य पञ्चवर्णस्य एवं विशेषणविशिष्टस्य 'कुसुमनिकरस्स' कुसुमनिकरस्य पुष्पसमूहस्य 'तत्थ चित्तं तत्र तीर्थकरजन्ममहोत्सवे चित्रम् अश्चर्यजनकम् 'जण्णुस्सेहप्पमाणमित्तं जानत्सेध प्रमाणमात्रम् तत्र जान्त्सेधप्रमाणेन प्रमाणोपेतपुरुषस्य जानुं यावदुच्चत्वप्रमाणं चतुरगुल चरणचतुर्विंशत्यङ्गुलजङ्घयोरुच्चत्वमीलनेन, अष्टाविंशत्यगुलरूपं तेन समाना मात्रा यस्य स तथा भूतस्तम् 'ओहिनिकरं करित्ता' अवधिनिकरम् अवधिना मर्यादया निकरं विस्तार कृत्वा 'चंदप्पभरयणवइरवेरुलिअ विमलदंडं' चंन्द्रप्रभरत्नवज्रवैडूर्यविमलदण्डम्-तत्र चन्द्रप्रभाः, अशोक, पुन्नाग, चूनमञ्जरी-आमकी मञ्जरी, नवमल्लिका बकुल, तिलक, कनेर, कुन्द, कुन्जक कोरण्ट पत्र मरुवा एवं दयनक इनके श्रेष्ठ सुरभिगंधयुक्त ऐसे कुसुमों से जो हाथों से छूते ही जमीन पर गिर पडे थे एवं पांच वर्षों से युक्त थे उनकी पूजाकी उस पूजा में जानूत्सेध प्रमाण पुष्पो का ऊंचा ढेर लग गया अर्थात् २८ अंगुल प्रमाण पुष्पराशि रूप में वहां इकट्ठे हो गये 'जाणुस्सेह पमाणमित्तं ओहिनिकरं करेह' इस प्रकार जानृत्सेध प्रमाण पुष्पों की ऊंची राशिको 'करित्ता चंदप्पभरयणवहरवेरुलियविमलदण्डं कंचणमणि रयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्क धूव गंधुत्तमाणुविद्धं च भवहि वेरुलियमय कडुच्छुयं धुन्ना, यू1 मी , मान भरी, नव मसिs, uga, तिax, २, उन्ह, કુર્જક, કેરંટ, પત્ર, મર. તેમજ દમનક એ બધાના શ્રેષ્ઠ સુરભિગંધ યુક્ત એવા કુસુમેથી કે જેઓ હાથના સ્પર્શ માત્રથી જ જમીન ઉપર ખરી પડ્યા હતાં અને પાંચ વર્ષોથી યુક્ત હતાં–તેમની પૂજા કરી. તે પૂજામાં જાન્સેલ પ્રમાણ પુષ્પોનો ઢગલે કર્યો. मेर २८ मांग प्रमाण ५०५२शि त्यां मेत्र ४२वाम मावी. 'जाणुस्सेहपमाणमित्तं ओहिनिकरं करेइ' मा प्रमाणे त्सेध प्रभार पुष्पोनी यी राशी ४री 'करित्ता चंदप्पभरयणवइरवेरुलियविमलदण्ड कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालीगुरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्कधूव गंधुत्तमाणुविद्धं च धूमवटि वेरुलियमयं कडुन्छुये पग्गहइ' गुपनी गो र्या पछी
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भम्पूचीपप्रमसिनो चन्द्रकान्ताः रत्नानि चन्द्रकान्तादीनि वज्राणि हीरकाः वैडूर्याणि तन्नामरत्नविशेपाः, तन्मयो 'विमलो दण्डो यस्य स तथा भूतरसम् इदं दाग्ने वक्ष्यमाणं करुच्छुकम् इत्यस्य विशेषणम् पुनः कीदृशम् 'कंवणमणिरयणभत्तिनित्त' काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रम् तंत्र काश्च नमणिरत्नानां या, भक्तयः-रचनास्ताभिश्चित्रम् चित्रितम् पुनः कीदृशम् 'कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधृवगंधुतमाणुविद्धं च कालागुरुपयरकुन्दुरुषकतुरुष्कं धूपान्धोत्तमा विद्धां च । तत्र कालागुरु प्रसिद्धः कृष्ण धूपः, इति कुन्दुरुक्कः, चीडा तुरुप्का लोहवानितिप्रसिद्धः, सिल्हास्तेषां गन्धोत्तमः सौरभ्योत्कृष्टो यो धूपः तेनानुविद्धा-मिश्रा वा इत्यर्थः, तां च, अत्र च शब्दो विशेषणस. मुच्चये स च व्यवहितसम्बन्धः तेन 'धूमवर्हि च' धूमति च धूमश्रेणिम् 'विणिम्मुअंत' .विनि मुश्चन्तम् त्यजन्तम् 'वेरुलिअमयं' वैडूर्यमयम् केवलवैडूर्यरत्न घटितम् एवं सर्वविशेषण
विशिष्टम् 'कडुच्छुओं कडुच्छुकं 'एग्गहित्तु' प्रगृह्य ‘पयएणं धृवं दाउण जिणवरिंदस्स' . प्रयतेन यथा बालश्रेष्ठस्य तीर्थंकरस्य धूपधूमाकुले-पक्षिणी नभवतस्तथा प्रयत्नेन धूपं दत्वा
जिनवरेन्द्राय सूत्रे षप्टीप्राकृतवादापत्वाच्च । 'सत्तट्ठपयाई ओसरित्ता' अङ्गपूजार्थ प्रत्यासेदुपा- उपवेष्टुमिच्छता मया भरदर्शनमागों निरुद्धः, अतोहं परेपो दर्शनामृतपानविघ्नकारी नस्यामिति सप्लाप्टपदानि अवसृत्य 'दसंगुलियं अंजलि करिअ मत्पयम्मि' दशाङ्गुलिकं मातके • पग्गहह राशिकरके फिर उसने चन्द्रकान्त, कतनादिरत्न बज्र एवं वैडूर्य इनसे जिसका विमलदण्ड बनाया गया है, तथा जिसके ऊपर कंचन णिरत्न आदि के द्वारा नाना प्रकार के चित्रों की रचना हो रही है, काला गुरु-कृष्ण, धूप, . कुन्दुरुष्क-चौडा तुरुष्क-लोचान-इनकी गन्धोत्तम धूप से जो युक्त है तथा जिसमें से धूमकी श्रेणी निकल रही है ऐसे धृपकडुच्छुक-धूपजलाने के काहे को जो कि बैडूर्यरत्न का बना हुआ था-लेकर के 'पयएणं धूवं दाऊण जिणवरिंदस्स सत्तट्टपयाई ओसरित्ता दसंगुलिअं अंजलि करिअ सत्ययम्मि पयओ 'अट्टसय विलुद्धगंथजुत्तेहिं महावित्तहिं अत्थजुत्तेहि संथुणइ' बडी सावधानी के साथ धूप जलाई धृप जला करके फिर उसने जिनवरेन्द्र की सात आठ पद आगे खिसककर दशों अंगुलियां जिसमें आपस में जुड गई हैं एसी अंजलि તેણે ચન્દ્રકાન્ત કર્કતનદિ રન, વજ અને વૈર્ય એમનાથી જેને વિમલ દંડ બનાવવામાં આવ્યું છે તેમજ જેની ઉ ર કચન મણિરત્ન વગેરે દ્વારા અનેક વિધ ચિત્રોની રચના કરવામાં આવી છે. કલા ગુરુ, કૃ-ધૂપ,કુન્દુષ્ક–ચીડાતુર...–લેનાધ, એમના ગ ત્તમ ધૂપથી તે યુક્ત છે, તેમજ જેમાથી ધૂપ-શ્રેણીઓ નીકળી રહી છે, એવા ધૂપ કડુ છુકर धू! सावाना ४ २ पैडूय २नथी निमित तो as 'पयाणं धूवं दाऊणं 'जिणवरिंदम्स सत्तटुपयाई ओसरिता दसंगुलिअं अंजलिं करिअ मत्थयम्मि पथओ अटुसय. विमुद्धगंधजुत्तेहि महावित्तहिं अत्थजुत्तेहिं संथुगइ । म र सावधानी ४ तेमा धूप સળગાવ્યે ધૂપ સળગાવીને પછી તેણે જિન વરેન્દ્રની સાત-આઠ ડગલા આગળ વધીને
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः रु. ५१ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः | ওহৎ अञ्जलिं कृत्वा ‘पयओ' प्रयतः-यथा स्थानमुदात्तादि स्वरोच्चारणेषु प्रयत्नवान् सन् 'अट्टस य विसुद्धगंथजुत्तेहिं अष्टशतविशुद्धग्रन्थयुक्तैः, अष्टोत्तरशतप्रमाणे विशुद्धेन ग्रन्थेन युक्तैः 'महावितहिं' महावृत्तेहि' महावृत्तैः महाकाव्यैः यद्वा महाचरित्रैः 'अपुणरुत्तहिं' अपुनरुक्तैः 'अत्थ जुत्तेहि' अर्थयुक्तैः, चमत्कारिव्यङ्गयुक्तः, 'संथुणड' संस्तौति तस्य संस्तवनं करोति 'संथुणित्ता संस्तुत्य 'वाम जाणुं अचेई' वामं जानुम् अञ्चति, उत्थापयति 'अचित्ता जाव' अश्चित्वा, उत्थाप्य यावत्करणात् 'दाहिणं जाणुं धरणिअलंसि निवाडेइ' दक्षिणं जानुं धरणी. तले निपातगति, स्थापयति इति ग्राह्यत 'करतलपरिहियं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी' करतलपरिगृहीतं मस्तके अश्वलिं कृत्वा एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् यदवादीतदाह णमोऽत्थुते सिद्ध वुद्धं इत्यादि णमोत्थुते सिद्धबुद्धनीरयसमणसामाहियए मत्तसमजोगि सल्लगत्तणणि भयणीरागदोसणिम्ममणिरसगणीसल्लमाणमूरण गुणरयण सीलसागर मर्णतमप्पमेय भविध धम्मवरचाउरंतचकवट्टी णमोऽत्थुते अरहओत्ति कटु एवं बंदइ णमंसई' हे सिद्ध 'हेवुद्ध' ज्ञानतत्व 'ते तुभ्यं न मोऽस्तु अत्र सर्वाणिपदानि सम्बोधने बोध्यानि बनाकर और उसे मस्तक के ऊपर करके १०८ विशुद्ध पाठों से युक्त ऐसे महा. काव्यों से जो कि अर्थ युक्त थे-चमत्कारिक व्यङ्गकों से युक्त थे-एवं अपुनरुक्त थे स्तुति की 'संथुणित्ता वासं जाणुं अंचेइ, अंचित्ता जाव करयल परिग्गहियं मत्थए अंजलिं कह एवं क्यासी स्तुति करके फिर उसने अपनी वायी जानुको ऊंचा किया और ऊंचा करके यावत् दोनों हाथ जोडकर मस्तक पर उन्हें अंजलिरूप में करके इस प्रकार से उसने प्रभुको स्तुति की-यहां यावत्पद से 'दाहिणं जाणुं धरणियलंसि निवाडेइ' इस पाठका संग्रह हुआ है 'णमोत्थु ते सिद्ध बुद्धणीरयसम्ण सामाहि समत्त समजोगि लल्लगत्तण जिम्भय णीरागदोसणिम्ममणिस्संगणीसल्लमाणमूरणगुणरयणसीलसागरमणंतमप्पमेय भविय धम्मवरचाउरंत चस्कवही णमोत्थु ते अरहओ त्ति कटूटु एवं वंदह णमंसई' हे દશે આંગળીએ જેમાં પરસ્પર સંયુક્ત થયેલી છે, એવી અંજલિ બનાવીને અને તે અંજલિને મસ્તક ઉપર મૂકીને ૧૦૮ વિશુદ્ધ પાઠથી યુક્ત એવા મહા કાવ્યથી કે જેઓ અર્થ યુક્ત હતા, ચમત્કારી વ્યંગ્યાથી યુક્ત હતા. તેમજ અપુનરુક્ત હતા–તેણે સ્તુતિ કરી. 'संथुणित्ता वाम जाणु अंचेड, अंचित्ता जाव करयलपरिग्गहिय मत्यए अंजलिं कद एवं વાણી’ સ્તુતિ કરીને પછી તેણે પોતાના નામ જાનુને ઊંચો કર્યો. ઉંચે કરીને યાવત્ બને હાથ છેડીને, મસ્તક ઉપર પિતાના હાથોની અંજલિ રૂપમાં બનાવીને આ પ્રમાણે स्तुति ४ मही यावत् ५४थी 'दाहिणं जाणु धरणियलयसि निवाडेइ' मा पा स. हीत या . णमोत्थुते सिद्ध बुद्धणीरय समणसम हिअ समत्त समजोगि सल्लगत्तण णभय णीराग दोसणिम्ममणिस्संग णीसल्लमाणमूरण गुणररणसीलसागरमणंत मप्प मेय भविय धरमवरचाउरंतचक्कवट्ठी णमोत्थुते अरहओ त्ति कटु एवं वंदहे णमंसई
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जम्बूढीपप्रज्ञप्तिसूत्र तथाहि हे नीरजाः 'कर्मरजो रहित' हे श्रमण तपस्विन् ! हे समाहित ! अनाकूलचित्त ! हे समाप्त कृत कृतत्सत् यद्वा सम्यक् प्रकारेण आप्त 'अविसंवादि वचनत्वात हे समयोगिन् 'कुशलमनोवाकाययोगित्वात् हे शल्यकर्तर ! हे निर्भय हे नीरागद्वप रागद्वेपरनित 'निर्मम ! ममतारहित हे निःसङ्गसंगवर्जित ! निलेप हे निःशल्य शल्यरहित हे मानमूरण ! मान मर्दन ! हे गुणरत्न शीक सागर 'गुणेषु रत्नम् उत्कृष्टं यच्छीलं ब्रह्मचर्यरूपं तस्य सागर' हे अनन्त, अनन्त ज्ञानात्मकत्वात् मकारोऽलाक्षणिकः, एक्मग्रेऽपि हे अप्रमेय 'प्राकृतज्ञानापरिच्छेद्या सामान्य पुरुपैरज्ञातस्वरूप अशीर जीवस्वरूपस्य छद्नस्थैः परिछेत्तुम क्यत्वात् अथवा हे अप्रमेय' भगवद् गुणानामनन्तत्वेन संख्यातुमशक्यत्वात् हे भव्य 'मुक्तियमन योग्य' अत्यासन्न भवसिद्धित्वात् 'हे धर्मवर चातुरन्तचक्रवर्तिन्' धर्मेण धर्मरूपेण वरेण प्रधानेन भावचक्रत्वात् चातुरन्तेन चतुर्णा गतीनामन्तो यस्य स चातुरन्तस्तेन चतुर्गत्यन्तकारिणा चक्रेण वर्तते इत्येवंशीलस्तस्य संबोधने हे धर्मबर चानुरन्तचक्रवर्तिन् ! नमोऽस्तुते तुभ्यम् अर्हते जगत्पूज्याय इति कृत्वा इति संस्तुत्य वन्दते नमस्यति 'बंदित्ता' नमित्ता' चंदित्वा, नमस्थित्वा 'णच्चासण्णे णाइदूरे' नाल्यासन्ने नातिदुरे यथोचितस्थाने 'मुस्मुसमाणे जाव पन्जु सिद्ध हे बुद्ध ! हे नीरज ! कर्मरज रहित हे श्रमण ! हे समाहित-अनाकुलचित कृतकृत्य होने से या अविसंचादि वचनवाले होने से हे सगत हे लम्यक् प्रकारों से आप्त ! कुशल वाश्कायसनोयोगी होने से समायोगिन् ! हे शल्यकर्तन ! हे निर्भय ! हे नीराग केष ! हे निर्मम ! हे निस्संग ! हे निःशल्य ! हे मान लूरण ! मानमर्दन ! हे गुणरत्न शीलसागर ! हे अनन्त ! हे अप्रमेय ! हे भव्य-मुक्ति गमनयोग्य ! हे धर्मवीर ! चातुरन्तचक्रवतिन् ! अरिहंत आप जगत्पूज्य के लिये मेरा नमस्कार हो । इस प्रकार से स्तुति करके उसने प्रभुको वन्दना की उन्हें नमस्कार किया 'वंदिता नमंसित्ता णच्चासण्णे णाहदूरे सुस्सुस माणे जाव पज्जुवासह वन्दना नमस्कार करके फिर वह अपने यथोचित स्थान पर धर्म सुनने की अभिलाषावाला होकर यावत् पर्युपासना करने लगा। यहां थावહે સિદ્ધ ! હે બુદ્ધ હે નીરજ ! કર્મ ૨જ રહિત! હે શ્રમણ! હે સમાહિત ! અનાકુલ ચિત્ત, કૃત કૃત્ય હોવાથી અથવા અવિસંવાદિત વચનેવાળા હેવાથી, હે સમાસ ! હે સમ્યક પ્રકારથી આત! કુશળ વાફરાય માગી હોવાથી સમાગિન ! હે શકર્તાન' हैनिमय । -नीरामद्वेष ! उ निभभ । निस्स ! नि:स्य ! 3 भान भूर ! હે માન મર્દન ! હે ગુણ રત્ન શીલ સાગર! હે અનંત ! હે અપ્રમેય ! હે ભવ્ય-મુક્તિ ગમન યોગ્ય, હે ધર્મવર! ચાતુરન્ત ચક્રવતિન ! અરિહંત ! જગન્યૂ એવા આપને મારા નમસ્કાર છે આ પ્રમાણે સ્તુતિ કરીને તેણે પ્રભુની વંદના કરી, પ્રભુને નમસ્કાર કર્યો. 'वंदित्ता नमसित्ता णच्चासणे णाइदृरे सुस्सूममाणे जाव पज्जुवासई' बन्ना तमा नभ२४.२ ४शन પછી તે પિતાના યથોચિત સ્થાન ઉપર ધર્મ સાંભળવાની અભિલાષાવાળે થઈને યાવત
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७३६ वासइ' शुश्रूपमाणो यावत्पर्युपास्ते सोऽच्युतेन्द्रः, अत्र यावत् पदात् 'नसंसमाणे तिविहाए पज्जुवासणाए' नमस्यन् त्रिविषया पर्युपासनयेति अशावशिष्टानामिन्द्राणां वक्तव्यं लाघवादाह 'एवं जहा' इत्यादि 'एवं जहा अच्चुयरस तहा जाब ईसाणस्य वाणियब्वं' एवम् उक्तविधिना यशऽच्युतेन्द्रस्याभिषेककृत्यं तथा यावत् ईशानेन्द्रस्यापि. अभिषेककृत्यं भणितव्यम् ___ अत्र यावत्पदात् प्राणतेन्द्र सनत्कुमादारभ्य ईवानेन्द्र पर्यन्तस्य ग्रहणम् शक्राभिषेकस्य सर्वत श्वरमत्वात् 'एवं भवणवइनाणमंतरजोइसिआ य सरपज्जपसाणा सएणं परिवारेणं पत्तेअं पत्तेयं असिसिंचई एक्स् उत्तप्रकारेण भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्काश्चन्द्राश्च सूर्यपर्यवसानाः स्वकेन परिवारेण सह प्रत्येकमभिषिञ्चन्ति, अभिषेकं कुर्वन्ति, अथावशिष्टशवेन्द्रत्पद से नसमाणे तिविहाए पज्जुवालणाए' इल पाठका ग्रहण हुआ है । यहां जितने ये विशेषण बालक अवस्थाएन ऋषभकुमार में प्रदर्शित किये हैं वे भव्य पथको छोडकर "माविनिभूतवतू' इस कथन के अनुसार यद्यपि उनमें आगे ऐसी अवस्था होनेवाली है वर्तमान में यह अवस्था नहीं हैं फिर भी उसकी अभिव्यक्ति हो चुकी है ऐसा मानकर उपचार-कर उनकी सार्थकता समझलेनी चाहिये अतः इस प्रकार के कथल में कोई विरोध नहीं है भावी पर्याय को भ्रत पर्याय मानकर लोकमें भी कथलव्यवहार देखा जाता है इस सूत्र में जो नमोऽस्तुपद दो बार प्रकट किया गया है वह पुनरुक्ति दोषावह नहीं हैं प्रत्युत लाघव प्रकट करता है क्योंकि हरि-इन्द्र ने यहां जितने विशेषण प्रयुक्त किये हैं उनकेसबके साथ इस पदका प्रयोग उसे करना इष्ट है, क्योंकि उसके हृदय में भक्ति का प्रवाह उमड रहा है सो ऐलान करके जो दो बार ही नमोऽस्तु पदका प्रयोग उसने किया है वह लाघव के निमित सिद्ध हो जाता है यहां जो सात ५पासना १२ सम्यो. ही यावत् ५४थी 'नमंसमाणे तिविहाए पज्जुवासणाए' मा पा8 સંગૃહીત થયેલ છે. અહીં જેટલાં વિશેષણે બાલક અવસ્થાપન કૃષભકુમાર માટે પ્રદર્શિત ४२वामां आवसा छ ते मन्य पढ़ने ४ ४शन १. 'भाविनिभूतवत्' मा ४थन भुगमन કે આગળ તેઓશ્રી એવી અવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે પણ વર્તમાનમાં આ અવસ્થા નથી છતાએ, તેની અભિવ્યક્તિ થઈ ચૂકી છે. એવું માનીને–ઉપચાર કરીને એમની સાર્થકતા સમજી લેવી જોઈએ. એટલા માટે આ પ્રકારના કથનમાં કઈ પણ જાતનો વિરોધ નથી. ભાવી પર્યાને ભૂત પર્યાય માનીને લેકમાં પણ કથન-ઝવહાર જોવામાં આવે છે. આ સૂત્રમાં २ 'नमोऽस्तु' ५६ मे पार माव्यु छ तेथी मत्रे पुनरुति होष थय। छे, माम मान નહિ, પરંતુ અહીં તે લાઘવ પ્રકટ કરે છે. કેમકે હરિ-ઈજે અહીં જેટલાં વિશેષણ પ્રયુક્ત કર્યા છે તે બધાની સાથે એ પદને પ્રવેગ ઈષ્ટ છે, કેમકે તેના હૃદયમાં ભકિત પ્રવાહ ઉછળી રહ્યો છે. તે આવું ન કરીને તેણે બે વાર “નનોડતુ પદને પ્રયોગ કર્યો છે તે લાઘવ નિમિત્તે જ કર્યો છે એવું સિદ્ધ થઈ જાય છે. અહીં જે સાત-આઠ ડગલા
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जम्बूद्वीपप्रश्नप्तिसूत्र स्यावसरः, 'त एणं' इत्यादि 'तएणं से ईसाणे देविंदे देवराया पंचईसाणे विउव्वइ' तत् स्त्रिपष्टीन्द्राभिषेकानन्तरम् खल, ईशानो देवेन्द्रो देवराजः पञ्चेशानान् विकुर्वति विकुर्वणाशक्त्या निर्माति एक ईशानः पञ्चधा भवतीत्यर्थः, तदेव विभजते 'विउवित्ता एगे' इत्यादि विउवित्ता' विकुर्वित्वा, एकः पञ्चधाभूत्वा 'एगे ईसाणे भगवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं गिण्हइ' आठ पद आगे जाना इन्द्रका कहा गया है वह 'मैं अङ्ग पूजा के निमित बैठकर यदि अन्य के प्रभु के दर्शन करने के मार्ग को रोकलेना है तो आगत लोकों के दर्शन करने रूप कार्य में मैं विघ्नकारी बन जाउंगा' इसके इस अभिप्राय को लेकर कहा गया है। ____ अव सूत्रकार अन्य इन्द्रों के सम्बन्ध की वक्तव्यता को लाघव से प्रकट करते हुए कहते हैं 'एवंजहा अच्चुअस्स तहा जाय ईसाणस्स भाणियव्वं, एवं भवणवइवाणमन्तर जोइसिआ य सूरपज्जवसाणा सरणं परिवारेणं पत्तयं २ अभिसिंचंति' जिस प्रकार इस पूर्वोक्त पद्धति के अनुसार अच्युतेन्द्र का अभिषेक कृत्य कहा गया है उसी प्रकार से प्राणतेन्द्र का यावत् ईशानेन्द्र का भी अभिषेक कृत्य कहलेना चाहिये शक के द्वारा किया गया अभिषेक कृत्य सब से अन्त में होता है इसी प्रकार से भवनपति वारयन्तर तथा ज्योतिष्क के इन्द्र चन्द्र सूर्य इन सब इन्द्रों ने भी अपने अपने परिवार के साथ प्रभुका अभिषेक किया 'तएणं से ईलाणे देविदें देवराया पंच ईसाणे विउव्यई' इसके बाद इशानेन्द्र ने पांच ईशानेन्द्रों की विकुर्वणा की अर्थात् ईशानेन्द्र स्वयं पांच ईशानेन्द्र धन गया-'विउव्वित्ता एगे ईसाणे भगवं तित्थयरं करयलसंपुडे णं गिण्हइ' इनमें આગળ જવું-એવું જે ઈન્દ્ર માટે કહેવામાં આવેલું છે તે-હું અંગ પૂજા નિમિત્તે બધાને જે પ્રભુ-દર્શન કરવા માટે આવેલા અન્ય જનના માર્ગને અવરોધક બનીશ તો આગત લેકાના દર્શન કરવા રૂપ કાર્યમાં હું વિનકારી થઈશ. એના એ અભિપ્રાયને લઈને જ કહેવામાં આવેલું છે.
હવે સૂત્રકાર અન્ય ઈન્દ્રોના સમ્મધમાં લાઘવથી વક્તવ્યના પ્રકટ કરતાં કહે છે'एवं जहा अच्चुअस्स तहा जोव ईसाणस्स भाणियव्यं, एवं भवणरइवाणमन्तरजोइसिआ य सूरपज्जवसाणा सएणं परिवारेणं पत्तेय २ अभिसिंचंति' २ प्रमाणे मा पूर्वात पद्धति भुकम અચ્યતેન્દ્રના અભિષેક કૃત્ય સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે જ પ્રાણતેન્દ્ર યાવત્ ઇશાનેન્દ્રનું પણ અભિષેક-કૃત્ય કહી લેવું જોઈએ શકવડે કરવામાં આવેલું અભિષેક કૃત્ય બધાના અંતમાં કહેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે ભવનપતિ વાનયંતર તેમજ તિષ્યના ઇન્દ્ર, ચન્દ્ર, સૂર્ય એ બધા ઈન્દોએ પણ પિત–પિતાના પરિવાર સાથે પ્રભુને અભિષેક
या 'तएणं से ईसाणे देविंदे देवरायां पंच ईसाणे विउव्वई' त्या२ माई शान-टे पाय ઈશાનેન્દ્રોની વિકુર્વણુ કરી. એટલે કે ઈશાનેન્દ્ર પોતે પાંચ ઈશાનેન્દ્રોના રૂપમાં પરિણુત
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः जू. ३१ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७३३ तत्रैक ईशानः भगवन्तं तीर्थंकरं करतलसंपुटेन करनलयोः, उन्धो व्यवस्थितयोः संपुटं शुक्तिका संपुटमिवेत्यर्थः, तेन गृह्णाति 'गिलित्ता' गृहीत्वा 'सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णे' सिंहासनवरगतः पौरस्त्याभिमुखः पूर्वाभिमुखः सभिएण्णः, उपविष्टवान् ‘एगे ईसाणे पिट्टओ आयवत्तं धरेड्' एक ईशानः पृष्टतः, आतपत्रं-छन्नं धाति 'दुवे ईसाणा उभो पसिं चामरुक्खेत्रं करेंति' द्वादीशानी उभयोः पार्श्वयोः, चामरोत्क्षेपं कुरुतः 'एगे ईसाणे पुरओ खुलपाणी चिटई' एक ईशान पुरतः शूलपाणिः शूल: पाणौ हस्ते यस्य स तथा भूतः सन् तिष्ठति 'तएणं ले सके देविदे देवराया आभियोगे देवे सहावे' ततः, ईशानेन्द्रेण भगवतः, तिर्थकरस्य करसंपुटे ग्रहणानन्तरं खलु सशको देवेन्द्रो देवराजा, आभियोग्यान, आज्ञाकारिणो देवान् शब्दयति आह्वयति 'सदायित्ता' शब्दयित्वा, आहूप 'एसो वि तहचेव आणत्ति देइ ते चितवचेव उवणेति' एषोऽपि शक्रः, तथैव अच्युतेन्द्रवदभिषेकविषयकानाज्ञप्तिको ददाति तेऽपि-आभियोगिकाः, देवाः, तथैव अच्युतेन्द्राभियोग्यदेवाइव, अभिषेकवस्तूनि, एक ईशानेन्द्र ने भगवान् तीर्थकर को अपने करनाल संपुट द्वारा पकडा निमिहत्ता सीहासणवरगए पुरत्याभिहे सणसणे' और पकडकर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठ गया 'एगे ईसाणे पिओ आपत्तं धरेइ, दुवे ईसाणा उमओपालि चामरुस्खेवं करेंति' दूसरे ईशानेन्द्र ने पीछे से खडे होकर प्रभुके ऊपर छत्रताना दो इशानेन्द्रों ने दोनों ओर खडे होकर प्रभुके ऊपर चामर दोरे 'एगे ईलागे पुरओ सूलपाणी चिट्ठई' एक ईशानेन्द्र हाथनें शूल लेकर प्रमुके साम्हने खडा हो गया 'तएणले सक्के देषिदे देवराया आभियोगे देवे सदावेह' इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक ने अपने आभियोगिक देवों को बुलाया-'सद्दा. वित्ता एसोवि तहवेध अभिलेआणन्ति दे ते वि सं चेव उवणेति' और बुलाकर इसने भी अच्युतेन्द्र की तरह उन्हें अभिषेक योग्य सामग्री लानेकी आज्ञा दी 25 गयो 'विउव्यित्ता एगे ईसाणे भगवतित्थयरं करयलसंपुडेगं गिण्हइ' समांथी मे शा. नेन्द्र भगवान तीथ १२ने पाताना ४२ सटमा 88.व्या. गिहित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमूहे सण्णिसण्णे' भने ५४२ AL त२५ भुम राजन सिहासन ५२ मे सार्या 'पगे ईसाणे पिओ आयवतं धरेइ, दुवे ईसाणा उभओ पासिं चामरुक्खेवं करें ति' मालत मे ઈશાનેન્દ્ર પાછળ ઊભા રહીને પ્રભુ ઉપર છત્ર તાણ્યું. બે ઈશાનેન્દ્રોએ બને તરફ ઊભા રહીને પ્રભ 6५२ यम२ .. २ात ४२१. 'एगे ईसाणे पुरओ सूलपाणी चितुइ' ये शानेन्द्र डायमा शूर वन प्रभुनी साने मे २हो. 'तएणं से सरके देरिदे देवराया आभियोगे देवे सदावेई' त्यार महेन्द्र देवरा शई पोताना लिया हैवान माराव्या-'वहावित्चा एसो वि तह चे। अभिसे आणत्ति देव ते वि त चेव उवणेति' मने मासावीन तेणे ५य अच्युतेन्द्रना જેમ તે બધાને અભિષેક ગ્ય સામગ્રી એકત્ર કરવાની આજ્ઞા કરી. અય્યતેન્દ્રના આભિ
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जम्बूद्धीपप्रतिसूत्र उपनयन्ति शक्रसमीपे आनयन्ति, अथ शक्रः किं कृतवान् तत्राह 'तएणं इत्यादि' 'तएणं से सक्के देविदे देवराया भगवभो तित्थयरस्स चउदिसिं चत्तारि धवलवसभे विउन्वेइ ततः, अभिषेक सामग्र्युपनयनानन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः भगवतस्तीर्थकरस्य चतुर्दिशिचतुर्भागे चतुरो धवलवृषभान् विकुर्वति 'सेए' श्वेतान् श्वेतत्वमेव द्रढयति-'संखदलविमलनिम्मलदधिधणगोखीरफेणरयणणिगरप्पगासे' शंखदलविमलनिर्मलदधिधनगोक्षीरफेनरजतनिकर प्रकाशो न तत्र शङ्खस्यदलं चूर्णम् विमलनिर्मल:-अत्यन्तस्वच्छो यो दधिधनो दधिपिण्डो वद्धं दधीत्यर्थः गोक्षीरफेनः गोदुग्यफेना, रजतनिकरः रजतसमूहः, एतेपामिवप्रकाशो येपांत तथा भूतास्तान् 'पासाईए' प्रासादीयोन मनः प्रसन्नताजनकत्वात् 'दरसणिज्जे' दर्शनीयान् दर्शनयोग्यत्वात् 'अभिरुवे पडिरूवे' अभिरूपान् प्रतिरूपांश्च मनोहारकलात् एवं भूतान् श्वेतान् वृपमान् चिकुर्वणाशक्त्या निर्मातीलर्थः तदनन्तरं किमित्याह 'तए णं' इत्यादि 'तए णं हेसिं चउण्हें धवलवसभाणं अहिं सिंगेहितो अतोअधाराओ णिग्गच्छति' ततः तदनन्तरं खलु तेपां चतुर्णा धवलवृपभानाम अष्टभ्यः गोभ्योऽष्टौ तोय. धाराः, जलधारा निर्गच्छन्ति निःसरन्ति 'तएणं तामो अद्वतोम धाराओ उद्धं वेहासं उप्पयंति, अच्युतेन्द्र के आभियोगिक देवों की तरह वे शक के आभियोगिक देव समस्त अभिषेक योग्य सामग्री को लेकर आगये 'तए णं से लश्के देवि देवराया भगवओ तित्ययरस्त चदिसि चत्तारि धवलवलभे विउव्वई' इसके बाद देवेन्द्र देवराज शाक ने भगवान् तीर्यकर की चारों दिशाओं में चार श्यंत पैलों को विकुर्वणा की 'सेए संखदलविमलदधिधणगोखीर फेणरयणणिगरप्पकासे पालाईए दलिज्जे अभिलवे पडिरूवे' थे चारों ही दैल शङ्ख के चूर्ग जैले अतिनिर्मल दधिके फेन जैसे, गोक्षीर जैसे, एक रजत समूह जैले श्वेत वर्ण के थे प्रासादीय-मनको प्रसन्न करनेवाले थे दर्शनीय-दर्शन योग्य थे अमिल्प और प्रतिरूप थे "तएणं तसिं चउहं धवलवसलाणं महहिं लिंगेहितो अहतोयधाराओ णिग्गच्छति' इन चारों ही धवल वृषभों के आठ सीगों से आठ जल
ગિક દેવની જેમ તે શક્રના આભિયોગિક દે સમસ્ત અભિષેક ચોગ્ય સામગ્રી લઈને 6पस्थित था. 'तरणं से सक्के देवि दे देवराया भगवओ तित्ययरस्स चउदिसि चत्तारि धवलवसभे तिउव्यई' त्या२ मा हेवेन्द्र हेवरा श लापान तार्थ ४२नी या हिश! मामा यार सत वृपसानी वि . ४२१. 'सेए संखालविमलदधिवणगोखीरफेश, रयण. जिगरप्पकासे पापाईए दरसणिज्जे अभिरुवे, पडिलवे' में चार पृषता शमना यूए रवा અતિનિર્મળ દધિના ફીણ જેવા, ગ-ક્ષીર જેવા, તેમજ રજત સમૂહ જેવા શ્વેતવર્ણ વાળા હતા. પ્રાસાદી–મનને પ્રસન્ન કરનારા હતા, દર્શનીય-દર્શન એગ્ય હતા, અભિરૂપ भने प्रति३५ ४. 'तएणं तेसिं चउण्ठं धवल-वसभागं अहि सिंगेहिं तो अद्वतोय धाराओ जिग्गच्छति' मा या वृषसाना मा शुगेथी Pण याराम नीजी रही
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः स्. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशादिः ७३५ ततः खलु ताः, अष्ट-तोयधाराः, उर्ध्व विहायसि उत्पतन्ति उचलन्ति 'उप्पइत्ता' उत्पत्य 'एगओ मिलायंति' एकतो मिलन्ति "मिलाइत्ता' मिलित्वा 'भगवभो तित्थयरस्स मुद्धाणंसि निवयंति' भगवतस्तीर्थकस्य मूनि निपतन्ति, अथ शक्रः किं कृत्वान् तबाह 'तएणं इत्यादि 'तएणं से सके देविंदे देवराया' ततः खलु सशक्रो देवेन्द्रो देवराजः 'चतुरासीइए सामाणियसाहस्तीहिं' चतुरशीत्या सामानिक सहजैः, त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशकै वित् संपरिवृत्तस्तैः, स्वाभाविकवैकुविककलशैमहता तीर्थकराभिषेकेण अभिपिश्चति-इत्यादि सूत्रोक्तोऽभिषेकविधिः शक्रस्य अच्यु तेन्द्रवइस्तीति लाघवमाह-'एयस्सवि' इत्यादि 'एयस्य वि तहेत्र अभिसेभो भाणियवो' एतस्यापि ईशान-शक्रस्यापि तथैव, अच्युतेन्द्रवदेव अभिषेको भणितव्या वक्तव्यः धाराएं निकल रही थीं 'तएणं ताओ अट्ठतोयधाराओ उद्धं वेहासं उप्पयंति' ये आठ जलधाराएं ऊपर आकाश की ओर जा रही थीं-उछल रहीं थी उपयित्ता एगो मिलायति, लिलायित्ता भगवओ तित्थयरस्स मुद्धाणंशि निवयंति' और उछलकर एकत्र हो जाती थी फिर वे मिलकर भगवान् तीर्थकर के मस्तक ऊपर गिरती थीं। 'तएणं से सरके देविंदे देवराया चउरासीए सामाणि य साहस्लीहिं एयस्स वि तहेव अभिलेओ भाणियचो जाव णमोत्थूते अरहओत्ति कण मंसइ जाव पज्जुवासई' इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक ने अपने ८४ हजार सामानिक देवों एवं तेतीस त्रायस्त्रिंश देवों आदि से घिरे हुए होकर उन स्वाभाविक एवं विकुर्वित कलशों द्वारा वडे ठाटबाट से तीर्थकर प्रभुका अभिपंक किया तथा उस आनीत लीर्थकराभिषेक सामग्री से भी तीर्थकर प्रभुका अभिषेक किया, यहां पर जिस पद्धति ले अच्युतेन्द्र ने तीर्थकर प्रभुका अभिपैक किया है वैसे ही पद्धति से शक ने भी तीर्थकर प्रभुका अभिषेक किया यही बात 'एयस्स वि तहेव अभिसेओ भाणियव्यो' सूत्रकार ने इस सूत्र पाठ हती. 'तएणं ताओ अटु तोयधाराओ उद्धं वेहासं उप्पयंति' मे 2018 धारामा पर मा। त२६ ४७ २8 नी-१७मी २ नी. 'उम्पइत्ता एगओ मिलायति मिलाइत्ता भगवओ तित्थयरस मुद्धाणंसि निवयंति' न जाने मे sardl oil. ५छी ते भगवान तीथ ४२ना भत्ता ५२ ५७ती ती. 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए सामाणियसाहस्सीहि एयम्स वि तहेव अभिसेओ भाणियव्बो जाव णमोत्थूते अरहओत्ति कट्टणमंसइ जाष पज्जुवासई' त्या२ मा हेवेन्द्र १२० पोतना ८४ १२ सामानि દે તેમજ ૩૩ ત્રાયાસ્ટિંશ દે આદિથી આવૃત્ત થઈને તે સવાભાવિક તેમજ વિકર્વિત કળશ વડે ખૂબજ ઠાઠ-માઠથી તીર્થકર પ્રભુને અભિષેક કર્યો. તથા તે આનીત તીર્થકરાભિષેક સામથી પણ પ્રભુને અભિષેક કર્યો અહીં જે પદ્ધતિથી અચ્યતેન્દ્ર તીર્થકર પ્રભુને અભિષેક કર્યો છે તે પદ્ધતિથી શકે પણ તીર્થંકર પ્રભુને અભિષેક કર્યો. એજ पात 'एयरस वि तहेव अभिसेओ भाणियव्यो' सूत्रधारे । सूत्र 48 43 २५०८ ४१ छे.
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमा कियत्पर्यनामाह 'जाय णमोऽन्युते अरहमोत्ति कट्टु वंदइ णमंसइ जाव पज्जुबासई' इति यावनमोऽस्तुतेऽर्हते, इति कृत्वा बन्दते नमस्थति बन्दित्वा नास्यित्वा यावत्पर्युपास्ते इति सूत्र संख्या-११॥
अथ कृतकृत्या, शक्रो भगवतो जन्मपुरप्रयाणाय, उपक्रमते-तएणं इत्यादि
मूलम्-तएणं से सबके देविंदे देवराया पंच सक्के विउच्वइ, विउ. वित्ता एगे सक्के भय तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ एगे सक्के पिट्रओ आयवत्तं धरेइ दुवे सका उसओ पाति चामरुक्खेवं कति एगे सक्के वजपाणी पुरओ एगई, तए णं से सबके चउरासीईए सामाणि साहरूसीहिं जार अण्णेहिअ भवणवा वाणसंतरजोइसनेमाणिएहि देवेहिं देवीहिअ सद्धि संपडिबुडे सन्धिद्धीए जाब जाइयरवेणं ताए उछिनाए जेणेव भगवओ तित्थयरसन जम्मणणयरे जेणेव जम्मणभवणे जेणेव तित्थयरमाया तेणेव उवागच्छ। उचामच्छिता भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेइ ठवित्ता नित्ययरपडिरूवर्ग पडिसाहरइ पडिसाहरिता ओप्लो पडिलाहरइ पडिलाहरिता एग महं खोमजुअलं कुंडलजुअलंद भगवो लिस्थरस्त उस्सीसगमूले ठवेइ ठकित्ता एगं महं सिरिदारगडं तवणिजलंयूसा सुरणपयरगमंडियं णाणामणिरयणविविहहारद्वहारउवसोहिय समुदयं भगवओ तिथपरस्त उल्लोअं लि निक्खिवह तण्णं भगवं तित्थयरे अणिमिसाए दिदीए देहमाणे देहमाणे सुहं सुहेशं अभिरममाणे चिठ्ठइ तपणं से सबके देविदे देवराया द्वारा समझाई है । अभिषेक करने के बाद 'जाव णमोत्थु ते अरहओ त्ति कट्ट वंदइ णमंसह जाच पज्जुवामाइ' गक ने भी अच्युतेन्द्र की तरह प्रभुकी पूर्वोक्त सिद्धबुद्ध आदि पदों डरमा स्तुति करते हुए उनकी वन्दना की और नमस्कार किया बाद में वह उनकी सेवा करने को भावना से अपने यथोचित स्थान पर खडा हो गया ॥११॥ मलिये माह 'जात्र णमोत्युते अरहओ त्ति कटु व दइ णमंसइ जवि पन्जुवालइ' शर्ड પણ અય્યતેન્દ્રની જેમ પ્રભુની પૂર્વોક્ત સિદ્ધ-બુદ્ધ આદિ પદે વડે સ્તુતિ કરતાં તેમની વંદના કરી. અને નમસ્કાર . ત્યાર બાદ તે તેઓશ્રીની સેવા કરવાની ભાવનાથી પોતાના ચચિત સ્થાને આવીને ઊ રહ્યો છે ૧૧ છે
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कार: सू. १२ शकस्य भगवतो जन्मपुरप्रयाणम् ७३७ वेसनणं देवं सदावेइ सदावित्ता एवं क्यासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! बत्तीतं हिरण्णकोडिओ बत्तीसं सुवष्णकोडिओ बत्तीसं गंदाइं बत्तीसं भदाई सुभगे सुभगरूवजुवणलावणेअ भगवओ तित्थयरस्त जम्मण. भवणंलि साहराहि साहरिता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि तएणं से वेलमणे देवे सबकेणं जाव विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता
भए देवे सदाबेइ सदावित्ता एवं वयासी-खियामेव भो देवाणुपिया! बत्तीसं हिरण्णकोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरह साहरित्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणह तए णं ते जंभगा देवा वेसमजेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हटतुटु जाव खिप्पामेब बत्तीसं हिरण्यकोडीओ जाव च भगवओ तित्थयरस्त जम्मणभवणंसि साहरति साहरिता जेणेव समणे देवे तेणेव जाव पच्चप्पिणति तए णं से देसमणे देवे जेणेव सरके देविदे देवराया जाव पञ्चप्पिगइ, तएणं से सक्के देविंदे देवराया आमिओगे देवे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी--विप्पामेव मो देवाणुप्पिया ! भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणयरंलि सिंघाडग जाव महापहपहेसु महया महया सदेणं उम्घोसेमाणा उग्धोसेमाणा एवं बदह हंदि सुगंतु भवंतो बहवे भवणवइ वाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा य देवीओ अजेणं देवाणुपिया ! तित्थयरस तित्थयरमाउए वा असुभ मणं पधारेइ तस्स णं अजगमंजरिआइय सयधा मुद्धाणं फुद्दउ तिकटु घोसणं घोसेह घोसित्ता एयमाणत्ति पञ्चप्पिणहत्ति तएणं ते आभिओगा देवा जाव एवं देवो त्ति अगाए पडिसुणति पडिसुणित्ता समस्त देविंदस्स देवरण्णो अंतिआओ पडिमिक्खमंति पडिणिक्वमित्ता खिप्पासेव भगवओतित्थयरस्स जम्मण णगरंसि सिंबाडम जाव एवं क्याली हंदि सुगंतु भवंतो बहवे भवणवइ जाव ने णं देवाणुप्पिया ! तित्थयरस्त जाव फुट्टिहो तिकट्ठ घोसणगं घोसति घोसित्ता एअमाणत्ति पञ्चविणंति, तए णं ते बहवे भवणवइ
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जम्बूद्वीपप्रजातिसूत्र वाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिम करेंति करित्ता जेणेव गंदीलरदीवे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता अट्टाहियाओ महामहिमाओ करेंति करित्ता जामेव दिसि पाउन्भूआ तामेव दिसि पडिगया ॥सू० १२॥
छाया-ततः खलु स शक्रोदेवेन्द्रो देवराजः पञ्चशक्रान् विकुर्वति विकुर्विखा एकः शक्रः भगवन्तं तीर्थङ्करं करतलपुटेन गृह्णति एकः शक्रः, आतपत्रं धरति द्वौ शक्रौ उभयोः पाश्चयोः चामरोरक्षेपं कुरुतः, एकः शक्रो वज्रपाणिः पुरतः प्रकर्षति ततः खलु स शक्रः चतुरशीत्या सामानिक सहर्यावदन्यैश्च भवनपति वानन्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकैः देवैर्देवीभिश्च सार्द्धसंपरिवृत्तः, सर्व- यावन्नादितरवेण तया उत्कृष्टया यत्रैव भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मनगरं यत्रैव च जन्मभवनं यत्रैव तीर्थकरमाता तत्रोपागच्छति उपागत्य भगवन्तं तीर्थङ्करं मातुः पार्श्व स्थापयति स्थापयित्वा तीयङ्करप्रतिरूपकं प्रतिसंहरति प्रतिसंहृत्य एकं महत् क्षोमयुगलं कुण्डलयुगलं च भगवतस्तीर्थङ्करस्य उच्छीर्पकमले स्थापयति स्थापयित्वा एकं महान्तं श्रीदामगण्डं श्रीदामकाण्डं वा तपनीयलम्बूषकं सुवर्णप्रतरकमण्डितं नानामणिरत्नविविधहारार्द्धहारोपशोभितसमुदयं भगवतस्तीर्थङ्करस्य उल्लोचे निक्षिपति तं खलु भगवान् तीर्थङ्करः, अनिमिपया दृष्टया पश्यन् सुखं मुखेन अमिरममाणस्तिष्टतिः ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजो वैश्रमण देवं शव्दयति शब्दयिता एवमवादीन् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटी द्वात्रिंशतं सुवर्ण कोटीः द्वात्रिंशतं नन्दानि द्वात्रिंशतं भद्राणि सुभगानि सुभगरूप यौवन लाव. ण्यानि च भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मभवने संहर संहृत्य एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पय । ततः खलु वैश्रमणो देवः, शक्रेण यावत्-विनयेन वचन प्रतिश्रृणोति प्रतिश्रुत्य जम्भकान् देवान् शब्दयति शव्दयित्वा एव मवादी क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटी:, याव
भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मभवने संहरत संहृत्य एतामाज्ञप्तिका प्रत्यपयत । ततः खलु ते जम्भकादेवा वैश्रमणेन देवेन एवमुक्ताः सन्तो हृष्ट तुष्ट यावदिक्षप्रमेव द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटीः यावत्-च भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मभवने संहरन्ति संहृत्य यत्रैव वैश्रमणो देवः, तत्रैव यावत् प्रत्यर्पयति । ततः खलु स वैश्रमणो देवो यत्रैव शक्रो देवेन्द्रो देवराजो यावत् प्रत्यर्पयति, ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः, आभियोगिकान् देवान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! भगवतस्तीर्थंकरस्य जन्मनगरे श्रृङ्गाटक यावन्महापथपयेषु महता शब्देन उद्घोषयन्त एवं वदत हन्त ? श्रृण्वन्तु भवन्तो बहवो भवनपति वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा देव्यश्च यः खलु देवानुप्रिया ! तीर्थङ्करस्य तीर्थङ्करमातुर्वा अशुभं मनः, प्रधारयति तस्य खलु आर्यक मञ्जरिकेव शतधा मुनि स्फुटतु इति कृत्वा घोषण घोपयत घोपयित्वा एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयत इति । ततः खलु ते आभियोगिका देवा यावत् एवं देव इति आज्ञायाः प्रतिश्रृण्वन्ति प्रतिश्रुत्य शकस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकात् प्रति
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ शक्रस्य भगवती जन्मपुरप्रयाणम् ७३९ निष्कमन्ति निष्क्रम्य क्षिप्रमेव भगवस्तीर्थङ्करस्य जन्मनगरे शृङ्गाटक यावत् एवमवादिषुः हन्त श्रृण्वन्तु भवन्तो बहवो भवनपति यावत् यो खलु देवानुप्रियाः तीर्थङ्करस्य यावत् स्फुटतु इति कृत्वा घोषणं घोषयन्ति घोषयित्वा एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयन्ति, ततः खलु ते बहवो भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवाः भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्ममहिमानं कुर्वन्ति कृत्वा यत्रैव नन्दीश्वर द्वीप स्तत्रैवोगच्छन्ति उपागत्य अष्टाहिका महामहिमाः कुर्वन्ति यस्या मेव दिशि प्रादुर्भूतास्तस्या मेव दिशि प्रतिगताः ॥ ०१२॥ ____टीका-'तएणं से सक्के देविदे देवराया पंचसके विउबई' ततः-तीर्थकरवन्दनाद्यनन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः, पञ्चशक्रान् विकुर्वति-स एव शक्रो विकुणाशक्त्या पश्चधाभवतीत्यर्थः, विउमित्ता' विकुर्चित्वा एकः पञ्चधा भूत्वा तेपु पश्चनु मध्ये 'एगे सक्के भयवंतित्थयरं करयलपुटेणं गिण्हइ' एकः शक्रो भगवन्तं तीर्थङ्करं करतलपुटेन-करतलयो:उर्ध्वाधोव्यवस्थितयोः पुटम् शुक्तिकासंपुटमिवेत्यर्थः, तेन करतलपुटेन गृह्णाति, 'एगे सके पिट्टओ आयवत्तं धरई' एकः शक्रः, तस्य शक्रस्य पृष्टत आतपत्रं छत्रं धरति 'दुवे सका उभयो पासिं चामरक्खेवं करेंति' द्वौ शक्रौ तस्य तीर्थङ्करस्य उभयोः पार्श्वभागे चामरोत्क्षेपं चामरोक्षेपणं कुरुतः ‘एगे सक्के वजपाणी पुरभो पगडई' एकः शक्रः पुरतः वज्रपाणिः सन् वज्रःप्राणौ हस्ते यस्य स तथाभूतः प्रकर्पति अग्रे प्रवर्तते । इत्यर्थः 'तए णं से सक्के
'तएणं से सक्के देविदे देवराया पंच सक्के विउबई' इत्यादि'
टीकार्थ-इसके बाद उस से सरके देविदे देवराया' देवेन्द्र देवराज शक्र ने 'पंच सक्के पांच शकों की विव्या' विर्वणा की-अर्थात् अपने रूपको पांच शकों के रूपमें परिणमा लिया इनमें से 'एगे सक्के भगवं तित्थपरं करयलपुडेणं गिण्हई' एक शक रूपने भगवाल तीर्थकर को अपने करतलपुट से पकडा 'एगे सक्के पिओ आश्चत्तं धरेह' एक दूसरे शक रूपने उनके ऊपर पीछे खडे होकर छ्न ताना 'दूवे सबका उभओ पासिं चामलक्खेवं करेंति' दो शक रूपों ने दोनों ओर खडे होकर उन पर चमर ढोरे 'एगे सक्के दज्जपाणी पुरओ पगडइ' एक शक रूपने हाथमें वज्र ले लिया और वह उनके समक्ष खडा हो गया 'तए णं से
'त एणं से सक्के देविंदे देवराया पंच सक्के' इत्यादि ___ -त्यार माह ते से सक्के देविंदे देवराया' हेवेन्द्र ३१२२०१ श 'पंच सक्के પાંચ શક્રોની વિદg વિકર્વણ કરી. એટલે કે પોતાના રૂપનું પાંચ શકોના રૂપમાં पारमन यु. मेमांथी 'एगे सक्के भगवं तित्थयरं करयलपुडेगं गिण्हई' सेशन ३ मगवान् तीय ४२२ पोताना ४२ मा उपाय! 'एगे सक्के पिटुओ आयवत्तं घरेई' भर भीat | ३३ पा ली २हीन तमनी ५२ छत्र तयु. “दुवे सक्का उभओ पासि चामरुक्खवं करेंति' मे शहोना पाये मानना मन्ने पालामा AHL Rहीन तभनी ५२ न्यभर ढल्या. 'एगे' सक्के वज्जवाणी पुरओ पगड्ढई' मे४ शन। ३
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जम्बूद्वीपप्राप्तसूत्र चउरासीईए सामाणियसाहस्सीहिं जाव अण्णेहिअ भवणवइयाणमन्तर जोइमवेमाणिएहि देहि देवी हिअ सद्धि संपडिबुडे' ततः पञ्चरूप विकुणानन्तरं खलु सशक्रः चतुरशीत्या सामानिकसहस्त्र वित् अन्यैश्च भवनपति वानव्यन्तरज्योतिष्कवैनानि देवैर्द. वींभिश्च सार्द्ध संपरिवृत्तः युक्तः 'सच्चिद्धीए नाव णाइयरवेणं ताए उव्हिटाए जेणेव भगवो तित्थयरमाया देणेव उवागच्छइ' सर्वा यावत् नादितरवेण तया उत्कृष्टया दिव्यया देव गत्या व्यतिव्रजन् व्यतिव्रजन् यत्रैव भगववस्तीर्थङ्करस्य जन्मनगरं यत्रैव च जन्मभवनम् यत्रैव तीर्थङ्करमाता तचैवोपागच्छति स शक्रः, अत्र यावत्यात सर्वद्युत्या सर्ववलेक सर्वसमुदयेन सर्वादरेण सर्वविभूत्या सर्व विभूपया सर्वमंत्रयेण सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूपया सर्वदिव्यत्रुटितशब्दसन्निनादेन महत्या ऋया दुन्दुभिनिधोप इति ग्राह्यम् एपामर्थः, मूलञ्च अस्मिन्नेव वक्षस्कारे चतुर्यसूत्रे द्रष्टव्यम् 'उवागच्छित्ता' उनाग-य 'भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेई' भगवन्तं तीर्थङ्करमातुः, पार्श्व स्थापयति, 'ठनित्ता' स्थापयित्वा 'तित्थयारिख्वगं पडिसाइरइ' तीर्थङ्करप्रतिरूपकं तीर्थकरप्रतिविम्ब प्रतिसंहरति पडिसाहरिता' सक्के चउरासीईए सामाणिअसाहस्लीहिं जाव अण्णेहिं अ भवणदहवाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि असद्धिं संपरिबुडे सविडीए जाय पाहअरवेणं ताए उक्किहाए जेणेच भगवओ तित्थयरस्स जम्मण पयरे जेणेव जम्मणभवणे जेणेव तित्थयरमाया तेणेव उवागच्छइ' इसके बाद वह शक ८४ हजार सामानिक देवों से एवं यावत् अन्य भवनपति वानव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों से
और देवियों से घिरा हुआ होकर अपनी पूर्ण ऋद्धि के साथ साथ यावत् वाजों की तुमुल ध्वनि पुरस्सर उस उत्कृष्टादि विशेषणों वाली गति से चलता हुआ जहां भगवान् तीर्थंकर का जन्म नगर था और उसने भी जहां तीर्थंकर की माता थी वहां आया उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेइ ठवित्ता तित्थयरपडिख्वगं पडिसाहरई' वहां आकर के उसने भगवान् तीर्थफर को माता के पास रख दिया और जो तीर्थंकर के अनुरूप दूसरा रूप बनाकर उनके पास सायमा 44 धारण ४शन ते मनी सामे हो रह्यो. 'तएणं से सक्के चउरासीए समाणिअ साहस्सीहिं जाव अण्णेहिं अ भवणवइवाणमंतर जोइरा वेमाणिएहि देवेहिं देवीहिअ सद्धि संपरिबुडे सब्बिड्डीए जाव णाइअरदेणं ताए उस्किट्ठाए जेणेव भगवो नित्थयरस्स जम्मणणयरे जेणेव जम्मणभवणे जेणेव तित्थयरमाया तेणेव उवागच्छई' त्या२ मा त શક્ર ૮૪ હજાર સામાનિક દેવોથી તેમજ યાવત્ અન્ય ભવનપતિ વાન વ્યંતર તથા તિક દેથી અને દેવીઓથી આવૃત થઈને પિતાની પૂર્ણ છદ્ધિની સાથે-સાથે યાવતું વાઘોની તુમુલ ધ્વનિ પુરસર તે ઉત્કૃષ્ટાદિ વિશેષણવાળી ગતિથી ચાલતે-ચાલને જ્યાં ભગવાન તીર્થકરનું જન્મ નગર હતું અને તેમાં પણ જ્યાં તીર્થકરના માતાથી હતાં ત્યાં આવ્યું. उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेइ ठवित्ता तित्थयरपडिरूवगं पडिसाहरइ'त्यi
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमबक्षस्कारः सु. १२ शक्रस्य भगवतो जन्मपुरप्रयाणम् ७४६ प्रतिसंहृत्व 'ओलोयर्षि पडिसाहरई' अवस्यापिनी प्रतिसंहरति दिव्यनिद्रा प्रतिसंहतीत्यर्थः, 'पडिसाहरिता' प्रतिसंहत्य 'एग महं खोमजुअलं झुंडलजुभलं च भगवभो तित्थयर दस उस्सीसगमूळे ठवेइ' एक महत् शोमयुगलं-क्षोमयोः दुकूलयोर्युगलं कुण्डलयुगलं च भगवस्तीर्थङ्करस्योच्छीर्पकमूले स्थापयति स्कन्ध यमागे क्षोमयुगलं सत् उपरि देशे कर्णद्वयमूले कुण्डल युगलं च स्थायतीत्यर्थः 'ठवित्ता' स्थापयित्मा 'एग महं सिरिदामगंडं तरणिज्जलंबूसगं सुवण्णपयरगडियं णाणामणिरचणनिविहहारजहार उपसोहिअसदयं भगवमो दित्थयरस्स उल्लोअंसि निविखवः' एक महान्तं श्रीदामपण्डम्-श्री दाम्नां शोभावशाद्विशिष्ट चित्ररत्नसालानां गण्डं-गलिं वृत्ताकारत्वान इति श्री दासगण्डर-यद्वाश्री दामगण्डम्-श्रीदामसमूह भगवतस्तीर्थकरस्य उल्लोचे निक्षिपति-दलम्पयति, इत्यत्रेऽन्त्रयः, तथा तपनीयलम्बूषकम् तत्र तपनीयलम्बूपकम् कन्दुकलगोलाकारशुवर्णालङ्कारविशेषतम् तथा सुवर्णपतरकमण्डितं नानालणिरत्नहाराहारोपशोभितरूयुदयम् नानामणिरत्नानां हाराः, अर्द्धहाराश्च तैरुपशोभितः समुदया, परिकरो यस्य स तथा भूतत्तं भगवतस्तीर्थकरस्योल्लांचे निःक्षिपति इति-अयमर्गः, श्रीमत्योरत्नमालास्तयाग्नथयित्वा गोलाकारेण कृता यथा चन्द्रगोपके मध्यरख दिया था उसे प्रति संहरित कर दिया मिटादिया-संकुचित करलिया 'साहसाहरित्ता ओलोवाणि पडिशाहर, पडिसाहरिता एगं महं खोमजुअलं कुंडलजुलं च भगयओ तित्थयरस उरलीलगभूले टवेइ ठविसा एगं मह लिरिदानगंड लपणिज्जलंबूसगं सुषण्णपयरगमंडिझणाणा मणिरयणविविहहारहारउयलोभिजलनुदयं भगवओ तित्थयरमा उल्लोलि मिक्खमई' जिन प्रतिकृति को प्रतिसंहरित करके माता के निद्रा को भी प्रतिसंहरित कर दिया निद्रा को प्रतिलहरित करके फिर उसने भगवान् तीर्थकर के शिरहाने-पर एक बडा क्षोभयुशल और कुण्डलयुगल रख दिया इन्हें रखकर फिर उसने एक ओदामाण्ड या श्री दामाण्ड जो कि तपनीयसुवर्ण के झुमनक से આવીને તેણે ભગવાન તીર્થકરને માતાની પાસે મૂકી દીધા અને જે તીર્થકરના અનુરૂપ બીજુ રૂપ બનાવીને તેમની પાસે મૂકયૂ હતું તેનું પ્રતિસંહરણ કરી साधु-मी धु-ते सन ३१ सीधु 'पडिसाहरित्ता ओसोवणि पडिसाहरइ पडिसाहरित्ता एगं महं सोमजुअलं कुंडलजुअलंच भगवओ तित्थयरस्स उस्सीसगमूले ठोइ ठवित्ता एगं मई सिरिदामगंड तवणिज्जलंसगं सुवण्णपयरगमंडिअं णाणा मणि. रयणविविहहारहार उक्सीभिअसमुदयं भगवओ तित्थयरस्स उल्लोयसि णिक्खमई' सिन પ્રતિકૃતિને પ્રસિંહરિત કરીને માતાની નિદ્રાને પણ પ્રતિસંહરિત કરી દીધી. નિદ્રાને પ્રતિસ હરિત કરીને પછી તેણે ભગવાન તીર્થકરના ઓશિકા તરફ એક ક્ષમ યુગલ અને કુંડળ યુગલ મૂકી દીધાં. ત્યાર બાદ તેણે એક શ્રી રામચંડ અથવા શ્રી દામ કાંડ કે જે તપનીય સુવર્ણના ગુમનકથી એટલે કે ગુનગુનાથી યુક્ત હતું સુવર્ણના વર્કોથી..
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ઉર
जम्बूद्वीपप्रमसिसूत्र झुम्बनता प्रापिताः हारार्द्धद्वाराश्च परिकर झुम्बनकता प्रापिता इति 'तण्णं भगवं तित्थयरे अणिमिसाए दिहीए देहमाणे देहमाणे सुहं सुहेणं अभिरममाणे२ चिटई' तं पूर्वोक्तं खलु भगवान् तीर्थङ्करः, अनिमिपया निनिमिपया दृष्टया अत्यादरपूर्वकदृष्टया पश्यन् पश्यन् प्रेक्षमाणः प्रेक्षमाणः, सुखं सुखेन अभिरममाण::-रति कुर्वस्तिष्ठति 'तएणं से सक्के देविदे देवराया वेसमणं देवं सदावेइ ततः तदनन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजो वैश्रवणम्-उत्तर दिक्पालं देवं शब्दयति आह्वयति 'सद्दावित्ता' शब्दयित्वा, आहूय एवं वयासी' एवम् उक्तप्रकारेण - अवादीत् उक्तवान् किमुक्तवान्-तत्राह 'खिप्पामेव' इत्यादि 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! क्षिप्रमेव शीघ्रातिशीघ्रमेव भो देवानुप्रिय ! 'वत्तीसं हिरणकोडोओ वत्तीसं सुवण्ण कोडीओ. बत्तीसं णंदाई वत्तीस भदाई सुभगे सुभगख्वजुन्धणलावण्णेअ भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहराहि' द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटीः, रजतकोटीः, द्वात्रिंशतं मुवर्णकोटीः द्वात्रिंशतं नन्दानि वृत्त लोहासनानि द्वात्रिंशतम् भद्राणि भद्रासनानि सुभगानि शोमनानि सुभगरूप. अर्थात् झुनझुने से युक्त था सुवर्ण के वरकों से मण्डित था एवं अनेक मणियों तथा रत्नों से निर्मित विविध हारों से अर्ध हारों से उपशोभित समुदायवाला था उसे भगवान् तीर्थकर के ऊपर तने हुए चंदोवा में लटका दिया 'तण्णं भगवं तित्थयरे अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणे २ सुहं सुहेणं अभिरममाणे २ चिटई' भगवान् तीर्थकर इस झुम्बनक युक्त श्री दामगण्ड को अनिनिप दृष्टि से देखते देखते सुखपूर्वक आनन्द के साथ खेलते रहते 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया वेसमणं देवं सद्दावेइ' इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक्र ने दैश्रमण कुवेरको वुलाया सदायित्ता एवं बयासी' और बुलाकर के उससे ऐसा कहा-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! वत्तीसं हिरण्णकोडीओ वतीसं सुवण्णकोडीओ बत्तीसं अदाई सुभगे सुभगरूवजुब्धणलावण्णे अ भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवगंसि साहराहि' हे देवानुप्रिय ! तुन शीघ्र ही ३२ हिरण्यकोटियों को, ३२ सुवर्णकोમડિત હતું એવું અનેક મણિથી તેમજ રસ્તેથી નિર્મિત વિવિધ હાથી, અર્થહારથી, ઉપશોભિત સમુદાય યુક્ત હતું તેને ભગવાન તીર્થકરની ઉપર તાણવામાં આવેલા ચંદરवाम alsी दीधु. 'तण्णं भगवं तित्थयरे अणिमिसाए दिवीए देहमाणे २ सुहं सुहेणं अभिरममाणे २ चिदुई' भगवान् ती ४२ अमन युक्त श्री हम मन मनिभिष ष्टिथी नdi-di सुम पू४ मान साथ रमता रहेता. 'तएणं से सक्के देविदे देवराया वेसमग देवे सहावेइ' त्या माई हेवेन्द्र देवरा श म मेरने मसाव्या. 'सदावित्ता एवं वयासी' भने मातापान तक 2 प्रभागे घु-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ बतीसं हिरण्णकोडीओ बत्तीस सुवण्णकोडीओ बत्तीसं भद्दाई सुभगे सुभगरुवजुव्वणलावण्णे अ भगघओ तित्ययरस्स जम्मणभवणंसि साहराहि' हे वानुप्रिय! तमे श 3२ [१२५५३12એને, ૩૨ સુવર્ણ કેટિઓને, ૩૨ નોન-વૃત લેહાસને તેમજ ૩૨ ભદ્રાસને કે
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारसू. १२ शक्रस्य भगवतो जन्मपुरप्रयाणम् ७४३ यौवनलावण्यानि च सुभगयौवनलावण्यानि रूपाणि यत्र तानि तथाभूतानि पदव्यत्यय आपत्वात् च, समुच्चये भगवतः तीर्थङ्करस्य जन्मभवने संहर आनयेत्यर्थः 'साहरिता' संहृत्य आनीय 'एयमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि' एतामाज्ञप्तिकां मदीयायां प्रत्यर्पय । समर्पय 'तएणं से वेसमणे देवे सक्के णं जाव विणएणं वयणं पडिसुणेइ' ततः खलु स वैश्रवणो देवः शक्रेण यावद्विनयेन वचनं प्रतिशृणोति स्वीकरोति अत्र यावत्पदात् 'देविदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हहतुट्ट चित्तमाणदिए एवं देवो तहत्ति आणाए' देवेन्द्रेण देवराजेन एवमुक्तः सन् हृष्ट तुष्ट चित्तानन्दितः, एवं देव तथाऽस्तु आज्ञाया इति ग्राह्यम् । 'पडिमुणित्ता' प्रतिश्रुत्य, स्वीकृत्य 'जभएदेवे सदावेइ' जम्भकान् देवान् तिर्यग्लोके वैताढय द्वितीय श्रेणिवासित्वेन तिर्यग्लोकगत निधानादिवेदिन:, शब्दयति, आवयति 'सहावित्ता' शब्दयित्वा, आहूय 'एवं वयासी' एवम् उक्तप्रकारेण, अवादीत् उक्तवान स वैश्रमणः किमुक्तवान् तत्राह 'खिप्पामेव' इत्यादि 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया !' क्षिप्रमेव शीघ्रातिशीघ्रमेव भो देवानुप्रियाः ! वत्तीसं हिरण्णकोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरह' द्वात्रिंशतं टियों को, ३२ नन्दों कों वृत्त लोहासनों को, एवं ३२ भद्रासनों कों, कि जिनका रूप बडा सुन्दर चमकीला हो भगवान् तीर्थकर के जन्म भवन में लाओस्थापित करो एवं इन सबकी स्थापना करके फिर मेरी आज्ञाकी पूर्ति हो जानेकी खवर मुझे दो 'तएणं से वेसमणे देवे सस्केणं जाव विणएणं वयणं पडिसणेह पडिसुणित्ता जंभए देवे सद्दावेइ सहावित्ता एवं वयासि खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! बत्तीसं हिरण्ण कोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरइ'जब शक ने वैश्रमण से ऐसा कहा-तब वह वैश्रमण बहुत अधिक आनंदित चित्तवान् हुआ और विनय के साथ उसने अपने स्वामी के वचनों को स्वीकार कर लिया इसके बाद उसने जम्भक देवों को बुलाया और उसने ऐसा कहा कि हे देवालुप्रियो ! तुम ३२ हिरण्य कोटियों को यावत् भगवान् तीर्थकर के जन्मभवन में पहुचाओ यहां यावत्पद से 'देविदेणं देवरण्णा જેઓ અતી સુંદર અને ચમકતા હોય, ભગવાન તીર્થકરના જમભવનમાં લાવે-સ્થાપિત કરે. અને એ સર્વની સ્થાપના કરીને પછી આજ્ઞા પૂરી કરવામાં આવી છે એની મને भA२ माया. 'तएणं से वेसमणे देवे सक्केणं जाव विणएणं वयणं पडिसुणेइ पडिसुणित्ता भए देवे सदावेइ सदावेत्ता एवं वयासि खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बत्तीसं हिरण्णकोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं साहरह' ब्यारे श वैश्रमान प्रमाणे युं त्यारे તે વૈશ્રમણ પૂબજ અધિક આનંદિત ચિત્તવાળે થય અને વિનય પૂર્વક તેણે પિતાના સ્વામીની આજ્ઞાને સ્વીકાર કરી લીધી. ત્યાર બાદ તેણે જીભ દેવોને બોલાવ્યા અને તે દેને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું–કે હે દેવાનું પ્રિયે! તમે ૩૨ હિરણ્ય કટિઓને યાવત भगवान् तीथ ४२ना म सपनमा भूही . मही' यावत् पहथी 'देवि देणं देवरण्णा एवं
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जम्बूद्वीपप्राप्ति हिरण्यकोटीयर्यापद् भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवने संहरत आनयत अत्र यावत्पदात् द्वात्रिंशत सुवर्ण कोटी: द्वात्रिंशतं नन्दालि द्वात्रिंशतं सद्राणि सुभगानि सुमनरूपयौवनलावण्यानि इति ग्राह्यम्, एपाम:, अनन्तरोक्तरीत्या वोध्यः 'साहरिना' 'संहृत्य, आनीय 'एयमाणत्तिय पच्चप्पिणह' एतामाज्ञक्षिका प्रत्यर्पयत सरार्पयत । 'तएणं ते जंभगा देवा वेसमणेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हतु जाव खिप्पामेव वत्तीसं हिरण कोडीमो 'जाच भगवओ तित्थयरस्स - जम्मणभवणंसि साहरंति' ततः वैश्रमणस्याज्ञानन्तरं खलु ते जम्मका देवा श्रवणेन देवेन एवम् उक्तप्रकारेण उत्ताः, आदिष्टाः सन्तो हष्ट तुष्ट यावत् क्षिप्रमेव द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटी यावद् च भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मभवने संघरन्ति, आनयन्ति, अत्र प्रथमयावत्पदात् चित्तानन्दिताः, प्रीतिसनसा, परमसौमरियता, हर्पक्शविसर्पद हदया इति ग्राह्यम् हितीय यावत्पदात् च द्वारिंशतं सवर्णकोटी द्वासितं नन्दानि द्वात्रिंशतं भद्राणि शुभगानि सुभगोपनलाव. • एयरूपाणि चेतिग्राह्यम् 'साहरिता' संहृत्य, आनीय 'जेणेव वेलमणे देवे तेणेब जाव पच्चप्पिणनि' यत्रैप वैश्रगणो देवस्तत्रैव यावत्प्रत्यर्पयन्ति समर्पयन्ति ते जम्भका देवाः, अत्र याव. त्पदान तत्रैव, उपागच्छन्ति, उपागत्य वैश्रमणाय उक्तप्रकारामाज्ञाकामिनि ग्राह्यम् 'तएणं से
एवं वुले सगाणे हद्वतु चित्त माणदिए एवं देवो तहत्ति आणाए' इस पाठका ‘संग्रह हुआ है 'साहरित्ता एयमाणत्तियं पच्चरिण' पहुंचाकर फिर हमें खघर
दो 'तएणं ते जंभया देवा बेलनणेणं देवेनं एचुत्ता समाणा हतुछ जाय 'विप्पामेव हिरण, बोडीओ जाच अगदओ नित्यावरस्त जम्नणनवगंलि साहरति' इसके बाद वैश्रमण द्वारा कहे गये के जनक दे बहुत ही अधिक हर्षिन एवं संतुष्ट चिन हुए और थावत् उन्हों ने बहुत शीघ ३२ हिरण्य कोटियों आदिकों को भगवान् तीर्थ कर के जनमभवन में पहुंचा दिया 'साहरिसा जेणेव वे समणे देवे तेणेव जाव पञ्चप्पिणति' पहुंचा देने के बाद फिर वे जलं चैत्रमण देव थे वहां गये और वहां जाकर उन्होंने इसकी खबर उन्हें दी 'लएणं ले वेस माणे देवे जेणेव सरके देचिंटे देवराया जाय पच्चप्पिण' तदनन्तर घात वैधमण वुत्ते समाणे हतु चितमाणदिए एवं देवो तहत्ति आणाए' 1 48 सही थयो छे. 'साहरित्ता एयमाणत्तियं पच्चारपणह' पाया पछी समन ते मी र माया'त एणं ते जंभया देवा वेसमणेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट तु जोय खिप्पामेव हिरण्णकोडी ओ व भगवो तित्ययरन्स जम्मणभवणंसि साहति' २ मा श्रभा १ उपमi આવેલા તે ભક દેવે બહુજ અધિક હતિ તેમજ સંતુષ્ટ ચિત્તવાળા થયા અને યાવત તેમણે બહુજ શીધ્ર ૩૨ હિરણ્ય ટિઓ વગેરેને ભજવાન તીર્થકરના જન્મ ભવનમાં स्थापित ४ा 'साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव जाव पच्चप्पिणंति' पहायान पछी ते
જ્યાં વિશ્રમણ દેવ હતાં ત્યાં ગયા અને ત્યાં જઈને તેમણે તે અગેની તેમને ખબર આપી. 'तएणं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविंदे देवराया जाब पच्चप्पिणई' तत्पश्चात् ते ३श्रमष्य
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प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १२ शमस्य भगवतो जन्मपुरप्रयाणम् ७४५ वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविंदे देवराया जाव पच्चप्पिणइ' ततः खलु तदनन्तरं किल स वैश्रमणो देवो यत्रैव शक्रो देवेन्द्रो देवराजो यावत्प्रत्यर्पयति समर्पयति, अत्रापि यावत्पदात् तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य शक्राय उक्तकारिकामाज्ञप्तिकामिति ग्राह्यम् । अथ अस्मासु स्वस्थान प्राप्तेषु निःसौन्दा सौन्दर्य्याधिके भगवति तीर्थङ्करे मा दुष्टा दुष्टदृष्टिं निःक्षिपन्तु, इति, तदुपायार्थ माह 'तएण' इत्यादि 'तएणं से सके देविंदे देवराया अभियोगे देवे सदावेइ' ततः वैश्रमणेनाज्ञा प्रत्यर्पणानन्तरं खल स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः, आभियोगिकान् आज्ञाकारिणो देवान् शब्दयति, भावयति 'सहावित्ता' शब्दयित्वा; आहूय, 'एवं वयासी' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् उक्तवान् किमुक्तवान तबाह 'खिप्पामव' इत्यादि 'खिप्पामेव भो देवानुप्पिया!' क्षिप्रमेव शीघ्रातिशीघ्रमेव भो देवानुप्रियाः भगवओ तित्ययरस्स जम्मण जयरंसि सिंघाडग जाव महापहपहेसु मध्या-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वदह' भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मनगरे शृङ्गाटकयावन्महापथपथेषु महता महता, विपुलेन विपुलेन शब्देन, उद्बोफ्यन्तः उद्घोपयन्तः, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण-ब्रूत अत्र यावत्पदात् त्रिक चतुष्कचत्वरेति ग्राह्यम् । किं ब्रूत तत्राह-'हंदि सुगंतु भवंतो बहवे भवणवइवाणमंतर जोइस वेमाणिया देवा य देवीभोअ जेणं देवाणुप्पिया! तित्थयरस्स तित्थयरमाऊएवा असुमं मणं पधारेइ' हन्त ! श्रृण्वन्तु भवन्तो वदवो बानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकादेवाश्च देव्यश्च देव जहां पर देवेन्द्र देवराज शक्र बिराजमान था वहां पर जाकर उसे खबर करदी 'तएणं से देविंदे देवराया सक्के आभिओगे देवे सदावेइ' इसके अनन्तर उस देवेन्द्र देवराज शक ने आभियोगिक देवों को बुलाया-सहावित्ता एवं वयासी' और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-खिप्पामेवभो देवाणुप्पिया ! भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणयरंसि सिंघाडग जाव महापहपहेसु महया २ सद्देणं उग्घो। सेमाणा २ एवं वदह हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही भगवान् तीर्थंकर के जन्मनगर में जो शृङ्गारक आदि महापथ पथ हैं उनमें जाकर जोर २ से घोषणा करते करते ऐसा कहो-यहां यावत्पद से 'त्रिक, चतुष्क और चत्वर' इन मागाँका ग्रहण हुआ है 'हंदि सुगंतु भवतो वहवे भवगवइयाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा य देवीओ દેવ જ્યાં દેવેન્દ્ર દેવરાજ બિરાજમાન હતું ત્યાં આવીને તેમને કાર્ય પૂર્ણ કર્યાની ખબર આપી. 'त एणं से देवि दे देवराया सरके अभिओगे देवे सहावेइ' त्या मारत हेवेन्द्र १२.०१ श मालियो हेवाने मासाव्या. 'सद्दावित्ता एवं वयासी' मन मावीन तेमन याप्रमाणे ४ह्यु 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणयरंसि सिंघाडग जाव महापहपहेसु महया २ सणं उग्रोसेमाणा २ एवं वदह' है कानुप्रिया! तम शा ભગવાન તીર્થકરના જન્મનગરમાં જે શૃંગાટક વગેરે મહાપ છે ત્યાં જઈને જોર-શોરથી घोषणा ४रीले मा प्रभारी ४ा-मही यावत पहथी 'त्रिक, चतुष्क भने चत्वर' 2 भागों गृहीत या छे 'हंदि सुणतु भवंतो बहवे भवणवद् वाणमंतरजोइसवेमाणिय देवाय देवीओ
ज०१४
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हाम्शीपणशप्तिसूते देवानुप्रियाः । इति सम्बोधनम् तथा च हे देवानुप्रियाः ! अवतां मध्ये यः खन्ट अनिर्दिष्ट नामा तीर्थङ्करस्य तीर्थङ्कामातु वोपरि अशुशं मन', प्रधारयति दुष्टं संकल्पयति 'तस्सणं अजगमंजरिआ इव सयधा सुद्धाणं फुटउत्तिष्टु घोराणं घोसेह' तस्य नुलु अशुभं मनः प्रधारयतः आर्यकमञ्जरिकत्र आर्यको नाम वनस्पति विशेषः यः 'आजभो' इति भाषाप्रसिद्धः, तस्य यचरिकेव मूर्दा शतधा स्फुटत, इति कन्या इत्युक्त्वा घोषणां पयत उद्घोपणां कुरुत 'घोसित्ता' घोपयित्वा 'एयगाणत्तिथ पच्चप्पिणह' नि एता यावाप्तिहां प्रत्यर्पयत इति 'तएणं अभियोगा देवा जाब एवं देवोत्ति आणाए पडिमुणनि ततः खलु ते आभियोगिकाः देवाः, जाव एवं देव तथाऽस्तु इति पाथयित्वा आज्ञायाः, वचन प्रतिश्रृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति अत्र यावत्पदात् हृष्टतुष्ट चित्चानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमरियताः हर्षवश विसर्पहृदयाः, इति ग्राह्यम् 'पडिसुणित्ता' प्रतिश्रुत्य रवीकृत्य 'सक्कस्स देविंदस्स य जेणं देवाणुप्पिया तित्थयरस्त तित्थयरमाऊए वा अनुभं राणं पधारे तस्स णं अज्जगमंजरियाइव युद्धाणं मुन्ति कटु घोषणं घोसेह' आप सब लवनपति वानव्यन्तरज्योतिष्क और वैमानिक देव और देवियों सुनों कि जो देवातुप्रिय! तीर्थकर या तीर्थकर माता के सम्बन्ध में अशुभ संकल्प करेगा उसका मस्तक-आर्यक वनस्पति विशेष-सी मंजरिका की तरह सौ लौ टुकडे रूप में हो जावेगा ऐसी 'घोलिसा एयमाणतिरं पच्चपिपणत्ति' घोषणा करके फिर मुझे खबर दो 'तए णं से आमिओगा देवा जाव एवं देवोत्ति आणाए पडिसुगंति' इस प्रकार से शक के द्वारा कहे गये उन आभियोगिक देवों ने उसकी आज्ञाको हे स्वामिन् ! ऐसा ही घोषणा हम करेंगे इस प्रकार कहकर उसकी आज्ञाको स्वीकार करलिया यहां यावत्पद से 'दृष्ट तुष्ट चित्तानंदिताः प्रीलिमनसः परम सौमनस्थिता हर्षवशविसर्पहृदया।' इस पाठका संग्रह हुआ है 'पडिसुणित्ता सस्करल देविंदस्त देवरणो अंतियाओ पडिणिक्कलि' अपने स्वामी देवेन्द्र य जेणं देवाणुप्पिया तित्थयरस तित्ययरमाऊए वा असुसं मणं पधारेइ तस्सणं अंजगमंजरिया इव मुद्धाणं फुटइत्ति कटु घोसणं घोसेह! तो गधा भवनपति वान'तर, ज्योति અને વિમાનિક દેવ અને દેવીઓ સાંભળે કે જે દેવાદુપ્રિય તીર્થકર કે તીર્થકરના માતાના સંબંધમાં અશુભ સંકલ્પ કરશે તેનું મસ્તક આર્ય વનસ્પતિ વિશેષની મંજરિहनी रेभ सौ-सौ ४४४ाना ३५मा थ . मेवी 'घोसेत्ता एवमाणत्तियं पच्चप्पिणहत्ति' घोषणा ४शन पछी भने ५०२ मा. 'तएणं से आभिओगा देवा जाव एवं देवोत्ति आणाए पडिसुगंति' २॥ प्रमाणे श 43 मास थये ते मालिया हेवाय तनी આજ્ઞાને છે સ્વામિન્ ! એવી જ ઘેષણ અમે કરીશું. આ પ્રમાણે કહીને તેની આજ્ઞા भानी सीधी. मी यावत् प६यी हष्ट तुष्टा चित्तानंदिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्यिता हर्षवशविसर्पद हत्याः' मा ४ संडीत थयो छ 'पडिसुणित्ता सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियाो पजिणिक्खमंति' पोताना यामी हेन्द्र देव२२०१ शनी भाशानी श्री पी
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प्रकाशिका टीका - पञ्चमुवक्षस्कारः सु. १२ शक्रस्य भगवती जन्मपुराणम्
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देवरण्यो अंतिभाओ पडिणिक्लमंति' शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकात् समीपात् प्रतिनिष्क्रामति गच्छन्ति 'पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य 'खिप्पामेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मण णगरंसि सिंघाडग जाव एवं बयासी' क्षिप्रमेव भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मनगरे शृङ्गाटक यावत् एवम् उक्तपकारेण अवादिपुः उक्तवन्तः अत्र यावत्पदात् त्रिरूनतुष्क चत्वरमहापथपथेषु इति ग्राह्यम् किमुक्तवन्तस्तत्राह - 'हंदि सुणंतु' इत्यादि 'हंदि सुतु भतो वह भवणवइ जाव जेणं देवाणुपिया !' हन्त ! यन्तु भवन्तो ववो भवनपति यावत् यः खलु हे देवानु प्रियाः । भवतां मध्ये "तित्थयररस जाव . फुट्टउत्तिकट्टु घोसणगं वोसंति, तीर्थङ्करस्य यावत् स्फुटतु - इति कृत्वा, इत्युक्तत्वा घोपणं घोपन्ति जन यवत्पदात् तीर्थङ्करमातु परि अशुभं मनः प्रधारयति दुष्टं संकल्पयति तस्य आर्यक्रमचरिकेवमूर्द्धा तथा इति ग्राह्यम् 'घोसित्ता' घोषयित्वा 'एअमाणत्तिअं पञ्चपिगंति' एताम् शक्रेण निर्दिष्टाम् आशशिकां शक्राय प्रत्यर्पयन्ति समर्पयन्ति ते-अभियोगिका देवाः 'तरणं' ततः, आभियोगिक देवेदेवराज शक की आज्ञा को स्वीकार करके फिर वे उसके पास से वापिस चले आये 'पडिणिक्खमित्ता खिप्पामेव भगवओ तित्थवरस्स जम्मणणयरंसि सिंघा - डग जाव एवं क्यासी- हंदि सुगंतु भवंतो बहवे भवणवइ जाव जेणं देवाणुपिया ! तित्थपरस्त जाव कुहीति कट्टु घोलगगं घोसंति' आकर वे फिर बहुत ही जल्दी भगवान् तीर्थकर के जन्मनगरस्थ शृङ्गाटक, त्रिक चतुष्क आदि मार्गो पर आगये और वहाँ पर इस प्रकार की घोषणा करनेलगे-3 - आप सब भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देवियां सुनिये जो कोई तीर्थकर या तीर्थकर की माता के सम्बन्ध में दुष्ट संकल्प करेगा उसका मस्तक आजओ नामक वनस्पति विशेष की मंजरिका के जैसा सौ २ टुकडेवाला हो जायगा 'घोलिता एयमाणत्तियं पञ्चभिर्णति' इल प्रकार की घोषणा करके फिर उन्हों ने इसकी गई घोषणा की खबर अपने स्वामी देवेन्द्र देवराज शन के पास તેઓ ત્યાંથી આવતા २ह्या. 'पडिणिक्खमित्ता खिप्पामेव भगवओ तित्थययरस्स जम्मणणयरंसि सिंघाडग जाब एवं वयासी- हंदि सुगंतु भवंतो वहवे भवणवइ जाव जेणं देवाणुपिया ! तित्थयरस जाव फुट्टीति कट्टु घोसणगं घोसंति' मावीने पछी अतीव शीघ्र भगवान् तीर्थકરના જન્મ નગર સ્થાન શ્રંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક વગેરે માર્ગો ઉપર તેએ પહેાંચી ગયા અને ત્યાં આ જાતની ઘેાષણા કરવા લાગ્યા-આપ સર્વ ભવનપતિ, વાનન્ય તર, જ્યાતિષ્ઠ અને વૈમાનિક દેવ તેમજ દેવીએ સાંળે. એ કાઈ તી કર કે તીર્થંકરના માતાના સંબંધમાં દુષ્ટ સ કરશે. તેનું માથું વ્યાજ નામક વનસ્પતિ વિશેષની મજરિકાની प्रेम सो-सोडावा थशे. 'घोसित्ता एमागत्तियं पच्चदिति' या लतनी घोषणा કરીને પછી તેણે આ ઘાષણા થઈ ગઈ છે, એવી સૂચના સ્વામી દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકની पासे भोली, 'त एणं ते बहवे भवण इवाणमंतर जोइस वैमाणिया देवा भगवओ तित्थयर
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अम्वृद्वीप सिस्त्र रुक्तविषयप्रत्यर्पणानन्तरं खलु 'ते बहवे भत्रणवइ वाणमंतर जोइसवेमाणिया देवा भगवी तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करेंति' ते बहवो भवनपति वानव्यन्तर ज्योतिष्क वैमानिकादेवाः, भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्ममहिमानं कुर्वन्ति 'करित्ता' जेणेव गंदीसर दीये तेणेव 'उबागच्छंति' यत्रैव नन्दीश्वरवरद्वीपस्तत्रैवोपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'अद्वाहियात्रो महामहिमाओ करेंति' अष्टान्हिका महामहिमाः अष्टदिन निर्वत्तीयोत्सव विशेषान् कुर्वन्ति बहु वचनंचात्र सौधर्मेन्द्रादिभिः प्रत्येक क्रियमाणत्वात् 'करित्ता' कृत्वा जामेव दिसि पाउम्भूमा तामेव दिसि पडिगया' यस्यामेवदिशि प्रादुर्भूताः, तस्या मेव प्रतिमताः, ते देवाः ॥सू० १२॥ इतिश्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशमापाकलित-ललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्री-शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य-पदविभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारी जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-प्रतिविरचितायां श्री जम्बूद्वीपसूत्रस्य प्रकाशिताख्यायां व्याख्यायां
"पञ्चमवक्षस्कारः समाप्तम् ॥५॥ भेज दी 'तएणं ते वहवे भवगवदवाणमंतरजोइसबेमाणिया देवा भगवओ तित्ययरस्स जम्मणमहिलं करे ति, करित्ता जेणेव गंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति' इसके बाद उन सव भवनपति वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों ने भगवान् तीर्थकर के जन्मकी महिमा की जन्मकी महिमा करके फिर वे जहां पर नन्दीश्वर द्वीप था वहां पर आये 'उधागच्छित्ता अट्टाहियाओ महामहि. माओ करेति करित्ता जामेव दिसि पाउम्भूमा तामेव दिसि पडिगया, वहां आकरके उन्हों ने अष्टान्हिका महोत्सव किया यहां पहुवचन के प्रयोग से सौधर्मेन्द्रादिकों ने सबने यह महामाहोत्सव किया यह सूचित होता है फिर वे जहां से आये थे वही पर वापिस चले गये ॥१२॥
श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालचतिविरचित
जम्बूद्वीपसूत्र की प्रकाशिका व्याख्या में पंचमवक्षस्कार समाप्त ||५|| स्स जम्मणमहिमं करेंति, करित्ता जेणेव गंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति' त्यार माह ते બધા ભવનપતિ વાનગૅતર તિષ્ક તેમજ વૈમાનિક દેએ ભગવાન તીર્થકરના જન્મને મહિમા કર્યો. જન્મને મહિમા કરીને પછી તેઓ જ્યાં નંદીશ્વર દ્વીપ હને, ત્યાં આવ્યા. 'उवागच्छित्ता अढाहियाओ महामहिमाओ करेंति, करिना जामेव दिसि पाउन्भुआ तामेव दिसिं पडिगया' त्या मावीन तभी मष्टा हा भासव संपन्न ध्या. २. म. વચનના પ્રગથી સૌધર્મેન્દ્રાદિક સર્વેએ મળીને આ મહોત્સવ કર્યો, આમ સૂચિત થાય છે. પછી તેઓ જ્યાંથી આવ્યા હતા, ત્યાં જ પાછા જતા રહ્યા. ૧૨ છે , શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજય શ્રી ઘાસીલાલ વ્રતિવિરચિત જબૂદ્વીપ સૂત્રની
પ્રકાશિકા વ્યાખ્યાને પાંચમે વક્ષસ્કાર સમાપ્ત. ૫ છે
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प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. १ जम्बूद्वीपचरमप्रदेशस्वरूपनिरुपणम् ७४६
षष्ठोवक्षस्कारः प्रारभ्यते इतः पूर्व जम्बूद्वीपान्तर्वर्जिवस्तु सरूपं पृष्टं सम्प्रति जन्बूद्वीपस्यैव चरमप्रदेशस्वरूपं प्रश्नयन ह-'जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स पएला' इत्यादि, ___ मूलम्-जंबुद्दीवरस णं भंते ! दीवस्त पएला लवणलसुदं पुट्टा ? हंत पुटा ! ते णं भंते ! किं जंबुद्दीवे दीवे लवणसमु. ? गोयमा ! जंबुद्दीवे गं दीवे णो खल्लु लवणतसुद्दे, एवं लवणलसुदस्स वि पएसा जंबुद्दीवे पुट्टा भाणियदा इति। जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता लवणसमुद्दे पञ्चायति, अत्थेगइया पञ्चायति अत्थेगइया नो पञ्चायंति, एवं लवणस्स वि जंबुद्दीचे दीवे कव्वं इति ॥सू० १॥
छाया-जम्बूद्वीपस्य खलु भदन्त ! द्वीपस्य प्रदेशा लवणसमुद्रं स्पृष्टा ? हन्त स्पृष्टाः? ते खलु भदन्त ! किं जम्बूद्वीपे द्वीपे लवणसमुद्र ? गौतम ! जम्बूद्वीपे सल द्वीपे नो खलु लवणसमुद्रे, एवं लवणसमुद्रस्यापि प्रदेशाः जम्बूद्वीपे स्पृष्टा मणिनव्याः । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे जीवा उदायोद्राय लवण समुद्रं प्रत्यायान्ति-अस्त्येककाः प्रन्यायान्ति, अस्त्येकका नो प्रत्यायान्ति एवं लवणस्यापि जन्बूद्वीपे द्वीपे नेतब्यम् ॥ सू० १॥
टीका-'जंबुद्दीवस्त णं भंते ! दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य खलु भदन्त ! द्वीपस्य सर्वद्वीपमध्यवर्तिनो द्वीपस्येत्यर्थः 'पएसा' प्रदेशाः जम्बूद्वीपसंवन्धिनश्चरमप्रदेशाः, अत्र प्रदेशा इति कथनेन लवणसमुद्र संबन्धसहचारात् चरमा एक प्रदेशा ज्ञातव्याः अन्यथा-जम्बूद्वीप- .
वक्षस्कार घटा यहां से पहिले जम्बूद्वीपान्तर्वर्ती वस्तुका स्वरूप पूछा अब जम्बूद्वीप के ही चरमप्रदेशका स्वरूप पूछने के निमित्त गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा प्रश्न करते हैं।
'जंबुद्दीवस्त णं भंते ! दीवस्स' इत्यादि ।
टोकार्थ-'जंबुद्दीवस्सणं भते । दीवस्स, हे भदन्न ! जंबूद्वीप नामके द्वीप के 'पएला' चरमप्रदेश क्या 'लवणसमुदं पुट्ठा' लवण समुद्रको छूते हैं ? यहां प्रदेश. पद से जो चरमप्रदेश ग्रहीत हुए हैं ये लवण समुद्र के सहचार से ग्रहीत हए
વક્ષરકાર ૬ પ્રારંભ આ પૂર્વે જમ્બુદ્વીપાન્તર્વતી વનુ-સ્વરૂપ વિશે પૃચ્છા કરવામાં આવી હવે જમ્મુદ્વીપનાજ ચરમપ્રદેશના ૨વરૂપ વિશે જાણવા માટે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એ પ્રશ્ન કરે છે_ 'जंबुद्दीवस्त मंते ! दीवस्स' इत्यादि'
टी -'जंबुद्दीतस्स णं भंते । दीवस्स' 3 ward I दीप नाम दीपना 'पएसा' प्रदेश | 'लवणसमुदं पुढा' संqey समुद्रन १५ छ ? ही प्रदेश ५४थी २ यमप्रदेशा
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जम्बूद्वीपप्रतिस्त्र मध्यवर्ति प्रदेशानां लवणसमुद्रादतिदूरस्थिततया लवणसमुद्रसंस्पर्शसंभवनाया असंभवात् प्रश्नोऽनुपपन्न एव स्यादिति । 'लवणसमुदं पुढा' लवणसमुद्रं स्पृष्टवन्तः जम्बूद्वीपसंवन्धि चरमप्रदेशानां लवणसमुद्रेण सह संस्पर्शी विद्यरो नरेति कास्वा प्रश्नः भगवानाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता गोपमा । उन्त, गौतम ! 'पुढा' स्पृष्टाः, अर्थात् जम्बूद्वीपस्य ते चरमप्रदेशा लवणसमुद्राभिमुखास्ते लवणसमुद्रे स्पृष्टवन्त इत्यर्थः अथ संप्रदायादिना द्वीपानन्तरीयाः समुद्राः समुद्रानन्तरीयाश्च द्वीपाः तेन ये यदनन्तरीयास्ते तत्संस्पर्शिनः इति सुज्ञातेऽपि प्रष्टव्येऽर्थे यत् प्रश्न विधानम्, तदुतर सूत्रे प्रश्न वीजाधानायेति "तेणं भंते ! कि जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुद्दे' ते खल्ल भदन्त ! कि जम्बूद्वीपो द्वीपः लवणसमुद्रः, हे मदन्त ! लवणसमुद्रस्पृष्टाः जम्बूद्वीपस्य चरमप्रदेशाः किं जम्बूद्वीपस्येत्येवं व्यपदेश्याः किम्वा लवणसद्रसंवद्धहैं यदि ऐसा न खानाजावे तो फिर जम्बूलीप के मध्यवर्ती जो प्रदेश हैं वे तो लवणसमुद्र से अति दूर स्थित है इस कारण उनके द्वारा लवण समुद्रका छूना ही असंभव है अतः फिर यह प्रश्न ही नहीं उठ सोगा इल प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-"ना !, गोथमा! हां गौन! जम्बूलीप के जो चरम प्रदेश लवण समुद्र के अभिमुख है वे लक्षणसमुद्र को छूते हैं जब की ऐसी मान्यता है किद्वीप को घेरे हुए समुद्र हैं और लद्र को धेरे हुए डीप हैं तो फिर इस मान्यता से ही यह पात सिद्ध होती है कि जो जिले घेरे हुए हैं वे उसे छूमी रहे है फिर भी यहां पर जो ऐसा प्रश्न किया गया है वह उत्तर सूत्र में प्रश्न वीज के आधान के निमित्त किया गया है 'तणं मंते ! किं जंबुद्दीचे दीवे लवगसनुद्दे' अथ गौतम ने प्रभु ले ऐमा पूछा है-शि हे भदन्त ! लषण समुद्र को छूने वाले जो जम्बूद्वीप के चरमप्रदेश है वे क्या जम्बूद्वीप के ही कहलायेंगे या लवण समुद्र से संबद्ध हो जाने के कारण लवणासुद्र के कहलायेंगे। ગૃહીત થયા છે તે લવણ સમુદ્રના સહચરથી ગુડીત થયા છે. જે આ પ્રમાણે માનવામાં ન આવે તે પછી જંબૂઢીપના મધ્યવર્તી ભાગમાં જે પ્રદેશ છે તે તે લવણસમુદ્રથી અતિ દૂર સ્થિત છે. આથી તેમના વડે લવણસમુદ્રને સ્પર્શવું જ અસંભવ છે. એથી આ જાતને प्रश्न स्थित यो नथी. ये प्रश्नना याममा प्रभु ४३ -हंता, गोयमा ! i ગીતમ! જબૂદ્વીપના જે ચરમ પ્રદેશે લવણસમુદ્રાલિસ્બ છે. તે લવણસમુદ્રને સ્પર્શે છે. એવી માન્યતા છે કે પાષ્ટિત સમુદ્રો છે અને સમુદ્રાષ્ટિત દ્વીપે છે. તે પછી આ માન્યતાથી જ આ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે કે જેઓ જેમના વડે આવેષ્ટિત છે તેઓ તેમને સ્પશી પણ રહ્યા છે. છતાંએ અહીં જે આ જાતને પ્રસન્ન કરવાવામાં આવ્યું છે ते उत्तर सूत्रमा प्रश्न जाना साधान माटे ४२वा मावस छ. 'वणं भंते ! कि जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुद्दे' के गौतम प्रभुने मातना प्रश्न यो त ! सवसमुदत સ્પર્શનારા જે જમ્બુદ્વીપના ચરમપ્રદેશ છે તે શું જંબુદ્વીપના જ કેહેવાશે ?
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प्रकाशिका टीका- पष्ठोवक्षस्कारः सु. १ जम्बूद्वीपचरमप्रदेशस्वरूपनिरूपणम्
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वालवण समुद्रस्य नतु जम्बूद्वीपस्य प्रदेशाः कथं लवणसमुद्रस्येति कथमत्र प्रश्नः संगच्छते, उच्यते यद् येन स्पृष्टं तत् किञ्चित् तद्द्व्यपदेशं लबते यथा - वृक्षस्थिताऽपि वल्ली पुष्पभारावनत वृक्षशाखा द्वारा भूमिबद्धा भूमिकृत वल्ली व भूमेरियं वल्लीतिव्यपदेश दर्शनात् किञ्चिद्वस्तु न पुनर्नतद्व्यपदेशं लभते यथा - तर्जन्या संपृष्टा अंगुष्ठाङ्गुलिज्येष्ठैव नतु तर्जनी संबद्धापि तर्जनी तद्वत् प्रहरो जम्बूद्वीपस्य चरमप्रदेशाः लवणसमुद्रं स्पृष्टाः किं लवणसमुद्रस्य उत जम्बूद्वीपस्येति संशयात् समुत्पद्यते एव प्रश्न इति, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जंबुडीवेणं दीवे णो खल्ल लवणसमुद्दे' जम्बूद्वीपः खलु द्वीपो न
शंका- जम्बूद्वीप के जो चरमप्रदेश लवणसमुद्र को छू रहे है वे प्रदेश तो जम्बूद्वीप केही कहलाये फिर वे चरम प्रदेश जम्बूद्वीप के व्यपदेश्य हो या लवण समुद्र के व्यपदेश्य होगें ? ऐसा जो प्रश्न यहाँ पर किया गया है वह तो असंगत जैसा ही प्रतीत होता है ? सो ऐसी अशंका यहां पर नहीं करनी चाहिये क्यों किं जो जिससे स्पष्ट होता है वह कोई २ उसके व्यपदेशको भी पालेता है-जैसे वृक्ष स्थित वल्ली पुष्प के भार से झुकी हुई वृक्ष शाखा के द्वारा जब भूमि को छूने लग जाती है-उससे संबद्ध हो जाती है तो ऐसा कहा जाता है कि यह वल्ली भूमि की है तथा तर्जनी के द्वारा संस्पृष्ट हुई अंगुष्ठाङ्गुलि ज्येष्ठा ही कहलाती है तर्जनी से संबद्ध होने पर भी वह तर्जनी नहीं कहलाती है इसी तरह प्रकृत में जम्बूद्वीप के चरमप्रदेश लवगसमुद्र को छुए हुए हैं तो क्या वे लवण समुद्र के कहे जानेंगे या जम्बूद्रीपके कहे जायेंगे ऐसा संदेह उत्पन्न हो जाता है अतः उस संशय से ऐसा प्रश्न होता है कि जम्बूद्वीप के चरम प्रदेश जम्बूद्वीप के ही कहे जायेंगे या लक्ष्णसमुद्र के ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोवा ! जंबुશંકા-જ મૂદ્દીપના જે ચરમપ્રદેશે લવણુસમુદ્રને સ્પર્શી રહ્યા છે તે પ્રદેશે તા જમ્મૂદ્રીપના જ કહેવાશે પછી તે ચરમપ્રદેશા જમૂદ્રીપના વ્યપદેશ્ય થશે કે લવસમુદ્રના વ્યપદેશ્ય થશે? એવા જે પ્રશ્ન અત્રે કરવામાં આવેલ છે તે તે અસંગત જેવા જ લાગે છે, તે આ જાતની ાશકા અહીં કરવી ન જોઈએ, કેમકે એ જેનાથી પૃષ્ટ હાય છે, તેમાંથી કાઈ તેના વ્યપદેશને પણ પ્રાપ્ત કરી લે છે. જેમ કે વૃક્ષાસ્થિત લતા પુષ્પના ભારથી નમી પડેક્ષી વૃક્ષ શાખા વડે જ્યારે ભૂમિને સ્પર્શીવા માંડે છે તેનાથી સમૃદ્ધ થઈ જાય છે—તા આ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે કે આ લતા ભૂમિની છે તેમજ તનીવડે સંસ્કૃષ્ટ થયેલી આ ગુòાગુ'લિને જ્યેષ્ઠાંગુલી જ કહેવામાં આવે છે. તનીથી સબદ્ધ હૈાવા છતાંએ તેને તની કહેવામાં આવતી નથી. આ પ્રમાણે જ પ્રકૃતમાં જમૂદ્રીપના ચરમપ્રદેશ લવણુસમુદ્રને સ્પર્શેલા છે તે શું તેએ લવણુસમુદ્રના કહેવાશે અથવા જમૂદ્દીપના કહેવાશે. આ જાતની આશંકા ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણે આ સંશયી એવા પ્રશ્ન ઉદ્દભવે છે કે ચરમપ્રદેશ જમૂદ્રીયના જ કહેવાશે કે લવણુસમુદ્રના ? એના જવામમાં પ્રભુ
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
खलु लवणसमृद्रः ते प्रदेशाः जम्बूद्वीपस्य लवणसमुद्रस्पृष्टा अपि जम्बूद्वीप एव जम्बूद्वीपसीमावर्त्तित्वात् न खलु ते लवणसमुद्रः जम्बुद्वीपसमानमतिक्रम्य लवणसमुद्रसीमानमप्राप्तत्वात् किन्तु जम्बूद्वीपसी मागता एव ते प्रदेशाः लवणसमुद्रं स्पृष्टास्तेन तटरथतया संस्पर्शभवनात् तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाङ्गुलिखि स्वव्यपदेशं लभते इति । ' एवं लवणसमुदवि परसा जंबुद्दीवे पुट्ठा भाणियच्चा इति ॥ ' एवं लवणसमुद्रस्यापि प्रदेशा जम्बूद्वीपे स्पृष्टा भणितव्या इति, आलापप्रकारस्तु एवम् - हे भदन्त ! लवणसमुद्रस्य चरमप्रदेशाः जम्बूद्वीपं स्पृष्टा नवेति प्रश्नः, भगवानाह - हन्त, गौतम ! ये लवणसमुद्ररूप चरम प्रदेशास्ते जम्बूद्वीपं स्पृष्टवन्त एव, हे भदन्त ! लवणसमुद्रस्य चरमप्रदेशाः जम्बूद्वीपं स्पृष्टास्ते किं लवण समुद्रव्यपदेशभाजः उत जम्बूद्वीपस्पृष्टत्वाद् जम्बूद्वीपव्यपदेशभाज इति पुनः प्रश्नः, भगवानाह - हे गौतम ! लवणसमुद्रस्य ते चरमप्रदेशा लवणसमुद्रव्यपदेशभाज एव
"
वेणं दीवे णो- खलु लवणसमुद्दे' हे गौतम! वे जम्बूद्वीप के चरमप्रदेश जो कि लवणसमुद्र को छुए हुए हैं वे जम्बूद्वीप के ही कहलावे गे लवणसमुद्र के नहीं जिस प्रकार तर्जनी संस्पृष्ट ज्येष्ठाङ्गुली ज्येष्ठाङ्गुली ही कहलावेगी- तर्जनी नहीं कहलावेगी । वे चरमप्रदेश ऐसे तो हैं नही जो जम्बूद्वीप की सीमा को उल्लंघन करके लवणसमुद्र की सीमा में प्रविष्ट हुए हो किन्तु जम्बूद्वीप की सीमा में रहते हुए ही वे वहां स्पृष्ट हुए हैं । अतः वे उसी के हो व्यपदेश्य हैं। अन्य के नहीं' । ' एवं लवणस्य विपएसा जंबुहीवे पुट्ठा भाणियन्वा' इसी तरह से लवगसमुद्र के चरमप्रदेश जो कि जम्बूद्वीप को छूते हैं कहलेना चाहिये यहां आलाप प्रकार इस प्रकार से है - हे भदन्त । लवण समुद्र के चरम'प्रदेश जम्बूदीप को छूते हैं या नहीं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - हां गौतम ! छूते हैं तो फिर वे लवणसमुद्र के कहलावेंगे ? या जम्बूद्वीप के कहलावेंगे ? जम्बूद्वीप के नहीं क्यों कि वे उसकी सीमा में ही रहे हुए हैं और वहीं से वे उसे ४डे छे- 'गोयमा ! जंबुद्दीवेणं दीवे णो खलु लत्रणसमुद्दे' डे गौतम । ते दीपना यरभयदेशी કે જેએ લવણુસમુદ્રને સ્પર્શી રહ્યા છે, તેએ લવણુસમુદ્રના નહિ પરંતુ જ ખૂદ્રીપના જ કહેવાશે. જે પ્રમાણે તજની સત્કૃષ્ટ જ્યેષ્ઠાંગુલી ચેષ્ઠાંગુલી જ કહેવાશે, તની નહિ. તે ચરમપ્રદેશે એના તા છે જ નહિ કે જે જમૂદ્રીપની સીમાને એળ’ગીને લવણુસમુદ્રની સીમામાં પ્રવિષ્ટ થયેલા ડાય પરંતુ તે પ્રદેશા જમૂદ્રીપની સીમામાં રહીને ત્યાં પૃષ્ટ थयेला छे. मेथी तेथे। तेना ४ व्ययद्देश्य है. जीलना नहि. 'एवं लवणसमुहस्स विपएसा जंबुद्दीवे पुट्ठा भाणियव्या' मा प्रभा सवगुसमुद्रना शरभप्रदेश हे लेगो 'शूद्रीयते स्पर्शे છે તે પણ આ પ્રમાણે જ સમજી લેવા જોઈએ. અનુી' આલાપ પ્રકાર આ પ્રમાણે છે— હે ભટ્ટ'ત ' લવણુસમુદ્રના ચરમપ્રદેશા જમૂદ્રીપને સ્પર્શે છે કે નહિ ? જવામમાં પ્રભુ કંડે Àહાં ! ‘તે જ્યારે તે સ્પર્શી કરે તેા પછી તેમે લવણુસમુદ્રના કહેવાશે ? અથવા
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प्रकाशिका टीका-पण्ठोवक्षस्कारः सू. १ जम्बूद्वीपचरमप्रदेशस्वरूपनिरूपणम् लवणसमुद्रसीमावर्तित्वात् न खलु ते लवणसमुद्रसीमानमतिक्रम्य जम्बूद्वीपसीमानं स्पृशन्ति किन्तु लवणसमुद्रसीमागता एव जम्बूद्वीपस्पृष्टा स्तेन तटस्थतया संस्पर्शन श्वनात् तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठागुलिरिव स्त्र व्यपदेशं लभते इति ॥ अनन्तरपूर्वछत्रे जम्बूद्वीपलवणसमुद्रयोः परस्परं व्यवहारामावः कथितः सम्प्रति-जम्बूद्वीपलवणसमुद्रयोरेव जीवानां परस्परमुत्पत्य आधारतां द्रष्टुमाह-'जंबुद्दीवेणं भंते ! जीवा' इत्यादि, जंबुद्दीवेणं भंते ! जीवा' जम्बूद्वीपे खल्लु भदन्त ! जीवाः उदाइत्ता उदाइत्ता' उद्राय उद्दाय मृत्वा मृत्वा 'लणसमुद्दे पञ्चायति' लवणसमुद्रे प्रत्यायान्ति'-समागच्छन्ति हे भदन्त ! जम्बूद्वीपे वर्तमाना जीवाः स्वकर्मवशात् अत्रैव मृत्वा लवणसमुद्रे सगुत्पद्यन्ते किमिति प्रश्नः, भगवानाह-हे गौतम ! 'अत्यगइया पञ्चायति' अस्त्येकके जीवाः ये जम्बूद्वीपे मृत्वा लवणसमुद्रे प्रत्यायान्तिसमागच्छन्ति समुत्पद्यने इति यावत् 'त्थेगइया न पञ्चायति' अस्त्येकके न प्रत्यायान्ति, सन्ति तादृशा अपि जीवा ये जम्बूद्वीपे मृत्वा उत्पत्यर्थ लवणसमुद्रे नागच्छति, कथमेवं भवति स्पृष्ट करते हैं ऐसा नहीं हैं कि वे उसकी सीमा को छोडकर उसे स्पृष्ट करते हो इस तरह यहां तक सूत्रकारने जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र के चरमप्रदेशों में परस्पर में एक दूसरे के प्रदेश व्यपदेश होने का अभाव प्रकट किया है। ___ अब गौतमस्वामी प्रचले ऐसा पूछते हैं-'जंबुद्दीवे णं भंते जीवा उदाइत्ता २' हे भदन्त ! जंबूद्वीप में रहे हुए जीव अपनी २ आयु के अन्त में मर करके 'लवणसमुद्दे पच्चायति' लवणशत्रुद्र में उत्पन्न होते हैं क्या ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा, अत्थेगहया पच्चायति अत्थेगड्या नो पच्चायति' हे गौतम ! किन नेक जीव ऐसे हैं जो जम्बुद्वीप में भरकर लवग समुद्र में जन्मलेते हैं और जितने क जीव ऐसे भी हैं जो जम्बूमीप में भरकर लवण समुद्र में जन्म नही लेते हैं- हे भदन्त ! ऐसा किस कारण से होता है कि कितनेक जीव જ મૃથ્વી પરના કહેવાશે? હે ગૌતમ તે પ્રદેશે લવણમુદ્રના જ કહેવાશે, જંબૂદ્વીપના નહિ. કેમકે તેઓ તેમની સીમામાંથી આવેલા છે. અને તેઓ ત્યાં જ તેને સ્પર્શે છે. એવું નથી કે તેઓ તેની સીમાને ત્યજીને તેને સ્પર્શતા હોય. આ પ્રમાણે અહીં સુધી સૂત્રકારે જબૂઢીપ અને લવણસમુદ્રના ચરમપ્રદેશોમાં પરસ્પરમાં એકબીજાના પ્રદેશોના વ્યપદેશ હેવાના અભાવને પ્રકટ કરેલ છે.
३ गौतमस्वामी प्रभुने माताप्रश्न ४२ जे-'जबुदीवे णं भंते ! जीवा उदाइता २२ હે ભદન્ત ! જંબુદ્વીપમાં આવેલા જી પિપિતાના આયુષ્યના અંતમાં મરણ પામીને 'लवणसपुद्दे पच्चायनि' शु स मुद्रमा मन थाय छे १ मे पाममा प्रभु ४ छ'गोयमा ! अत्थेगइया पच्चायति अत्थेगइया नो पच्चायनि' गौतम । टस व मेवा છે કે જેને જંબુદ્વીપમાં મરીને લવણસમુદ્રમાં જન્મ લે છે. અને કેટલાક છે એવા પડ્યું છે કે જેઓ જંબુદ્વીપમાં મૃત્યુ પામીને લવણસમુદ્રમાં જન્મ ગ્રહણ કરતા નથી. હે
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जम्बूद्वीपमनप्तिसूत्रे यदेते जीवा जम्बूद्वीपे मृत्या पुनरुत्पत्यय लवणसमुद्रं गच्छन्ति, केचन जम्बूद्वीपे मृत्वा उत्प. त्यर्थं लवणसमुद्रं न गच्छन्ति इति चेत् अनोच्यते-कर्मवलादिति, अयं भावः-मनोवाकायैः समुत्पादित कर्माणो जीवाः शुभाशुभकर्मपरतन्त्राः केचन गच्छन्ति, केचन न गच्छन्ति जीवानां तथा स्वकर्मवशतया गत्यागतौ वैलरण्यसंभवात् इति । एवं लवण सगुदरस जंबुद्दीवे दीवे णेय,' इति, एवं लवणसमुद्रस्यापि जम्बूद्वीपे द्वीपे नेतव्यमिति जरवृद्धीपसूत्रवदेव लवणसमुद्रात्रे जीवानां मरणमागमनं च ज्ञातव्यमिति, अयं भावः-अत्रापि जम्बूद्वीपमूत्रवदेव आलापको वक्तव्य स्तथाहि-'लवणसमुद्देणं भंते ! जीवा उद्दाइत्ता उदाइना जंडीवे पञ्चायति ? अत्थे गइया पञ्चायति, मत्थेगइया नो पञ्चायति' लवणसगुद्रे खलु भदन्त ! जीवा उद्राय उवाय जम्बूद्वीपे प्रत्यायान्ति ? सन्त्येके प्रत्यायान्ति, सन्त्येकके नो प्रत्यायान्ति, हे भदन्त ! लवणसमुद्रे वर्तमाना जीवा आयुष्कर्मक्षयान् सरणं प्राप्य तदन्तरं पुनरुत्पत्त्यर्थ जम्बूद्वीपे गच्छन्ति नवेति गौतमस्य प्रश्नः, भगानाह-हे गौतम ! सन्ति केचन तथाविधा जीवा ये लवणसमुद्रे मृत्वा उत्पत्त्यर्थ जम्बूद्वीपे समागच्छन्ति, केचन जीवा लवणसमुद्रे मृत्वा पुनरुत्पत्त्यर्थ जम्बूद्वीपे ना गच्छन्ति, कथमेवं भवतीति चेत् जीवानां स्वकर्मपराधीनतया तथा तथागति वैचित्र्यसंभवादिति ॥ सू० १॥ जम्बूद्वीप में मरकर लवण समुद्र में जन्म लेते हैं और कितनेक जीव वहां जन्म नहीं लेते हैं ? तो इसके उत्तर उनके द्वारा अर्जित उनका कर्म है तात्पर्य है कि प्रत्येक जीव अपने अपने मन वचन और काय के शुभ और अशुभ कर्मों का वन्ध किया करता है अतः उसी के अनुसार परतन्त्र हुए उन जीवों का भिन्नर पर्यायों में उत्पाद होता रहता है । इस कारण कितनेक जीवों का वहां उत्पाद होता है और कितनेक जीवों का वहां उत्पाद नहीं होता है । 'एवं लवणससुदस्स वि जवुद्दीचे दीये णेयचं' इसी तरह से लबणसमुद्र में भरे हुए कितनेक जीवों का उत्पाद जम्बूद्वीप में होता है और कितनेक जीवों का वहां उत्पाद नहीं होता है यहां पर आलापक जम्बूद्वीप सूत्र के जैसा ही जानना चाहिये ભદંત ! એવું શા કારણથી થાય છે કે કેટલાક જીવ જંબૂદ્વીપમાં જન્મ ગ્રહણ કરે છે. અને કેટલાક જીવે ત્યાં જન્મ ગ્રહણ કરતા નથી? તે આને જવાબ એ જ છે કે તેમના વડે અર્જિત કર્મ જ તેમને તનતુ, પ્રદેશોમાં જન્મગ્રહણ કરાવે છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે દરેક જીવ પિત–પિતાના મન, વચન અને કાયના શુભ અને અશુભ કર્મોને બંધ કરે છે. એથી તે મુજબ જ પરતંત્ર થયેલા તે જીની ભિન્ન-ભિન્ન સ્થાનમાં ભિન્ન-ભિન્ન ગતિઓમાં તેમજ ભિન્ન-ભિન્ન પર્યામાં ઉત્પત્તિ થતી રહે છે. એથી કેટલાક જીવે ત્યાં उत्पन्न थाय छे. मन टा४ ला त्या त्पन्न यता नथी. 'एवं लवणसमुहस्स वि जंबु. दीवे दीवे णेयव्यं' मा प्रमाणे पाणुसमुद्रमा मृत्यु पामेलामा वानी हत्पत्ति જંબુદ્વીપમાં હેય છે અને કેટલાક જીની ઉત્પત્તિ હોતી નથી. અહીં અલાપક જંબુ
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प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७५५ सम्प्रति-पूर्वोक्तानां जम्बूद्वीपमध्यवत्ति पदार्थानां सङ्ग्रहगाथामाह-खंड१ जोयणर' इ० मूलम्-खंडा१, जोयण२ वाला३ पत्य : कूडा य५तिस्थ६ सेढीओ७।
विजय८ दह९ सलिलाओ१० पिंडए होइ संगहणी ॥१॥
जंबुद्दीवे णं अंते ! दोहे भरहष्यमाणोत्तेहिं खंडेहि केवइयं खंडग. णिएणं पण्णत्ते ? गोयमा ! गउयं खंडं लयं खंडगगिएणं पणत्ते । जंबुदीवे णं भंते ! दीवे केवइयं जोयणगिएणं पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तेवय कोडिलया गउया छप्पग्णलयलस्साई, चउणवई च सहस्सा सयं दिवद्धं च गणियपयं ॥१॥ जंबुद्दीवेणं मंते! दीवे का वासा पण्णत्ता ? गोयमा! सत्तवासा पन्नत्ता, तं जहा-भरहे एरवए हेमवए हिरण्णवए हरिवासे रम्मगवासे महाविदेहे७ । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया वासहरा पण्णत्ता, केवइया मंदरा पव्वया पन्नता केवइया चित्तकूडा केवइथा विचित्तकूडा केवइया जमगपठश्या केवइया कंचण पव्वया केवइया वश्वारा केवइया दीहवेयद्धा केवइया वट्टवेगद्धा पन्नत्ता? गोयमा! जंबुदीवे छ वासहरपवया एगे संदरे एनए एगे चित्तकूडे एगे विचित्तकूडे दो जमग पपया दो कंचणपश्यतया वीसं वक्खारपव्यया चोत्तीसं दीहवे. यद्धा चत्तारि वट्टवेयद्धा एशमेव सपुत्वावरेण जंबुद्दीवे दीवे दुषिणअउणत्तरा पव्वयसया भवतीति मक्खायति । जंबुद्दीवेणं भंते ! जैले 'लवणसजुद्दे णं भंते ! जीवा उदाइत्ता २ जंबुद्दीवे पञ्चायति ? अत्थेगड्या पच्चायति अत्थेगइया जो पच्चायति' हल आलायकका अर्थ स्पष्ट है ॥१॥
अब पूर्वोक्त जंबूद्वीप मध्यवर्ती पदार्थों की संग्रह नाथा जो कही गई है वह इस प्रकार से है। खंडा १ जोषण २ नासा ३ पव्वय ४ कूडाय ५ तित्थ सेढीओ ७। विजय ८ दह ९ सलिलाओ १० पिंडए होइ संगहणी ॥१॥ बी५ सूत्र ३१ समस्या न. -'लवणल मुद्देणं भंते । जीया उद्दाइता २ जंबुद्दीवे पच्चायति ? अत्थे गइया पच्चायति अत्थे गइया णो पच्चायति' २१॥ माता५४नी म સ્પષ્ટ જ સૂઇ છે ૧
હવે પૂર્વોક્ત જમ્બુદ્વીપ મધ્યવર્તી પદાર્થોની સંગ્રહગાથા વિશે કહેવામાં આવ્યું છે ते मा प्रभारी छे-खंडा १, जोयण २, वासा ३, पव्वय ४, कूडाय ५, तित्थ सेढीओ ६७, विजय ८, दह ९, सलिलाओ १० पिड ए होइ संगहणी ११ ।।।
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जम्बूद्वीपमाप्तिसूत्र दीवे केवइया वासहरकूडा केवइया वक्खारकूडा केवइया वेयछकूडा केव. इया मंदरकूडा पन्नत्ता? गोयमा! छप्पणं वासहरकूडा उष्णउई वक्खारकूडा तिपिण छत्तरा वेयद्धकूडलया ण संदरकूडा एनन्ता । एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे बत्तारि लत्तसहा कूडसया भवंतोति मक्खायं । जंबुद्दीवे दीवे भरहेबाले कइ तित्था पन्नत्ता ? गोयमा ! तओ तित्था पन्नत्ता तं जहा-मागहे वरदामे पभासे । जंबुद्दीवे दीवे एरवए वासे कइतित्था पन्नत्ता ? गोयमा! तओ तित्था पन्नत्ता तं जहा-मागहे. वरदामे पभासे एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे एगमेगे चक्रवहि विजए कइ तित्था पन्नत्ता ? गोयमा! तो तित्था पन्नत्ता, तं जहा-मागहे वरदामे पभासे, एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे एगे वि उत्तरे तित्थसए भवंतीति मकवायति । जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया विज्जाहरसेढीओ केवइया आभियोग सेढीओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे अष्टसटी विजाहरसेढीयो अदृसटी आभिओगसेढीयो पण्णत्ताओ एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दोवे छत्तीले सेढिसए भवंतीति मक्खायं । वुदीवे दीवे केवइया चयट्रिविजया केवईयाओ रायहाणीओ केवइयाओ तिमिसगुहाओ केवइयाओ खंडप्पायगुहाओ केवइया कयमालया देवा केवइया णहमालया देवा केवइया उसम्भकूडा पन्नत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दो चोत्तीत तिमिलगुहाओ चोत्तीसं चक. वटि विजया चोत्तीसं रायहाणीओ चोत्तीसं तिमिसगुहाओ चोत्तीसं खंडप्पवायगुहाओ चोत्तीसं कयमालया देवा चोत्तीसं पट्टमालया देवा चोत्तीसं उलभकूडा पव्वया पन्नत्ता । जंबुद्दीवे दीवे केवइया महदहा पन्नत्ता ? गोयमा! सोलसमहदहा पन्नता । जंबुदीवेगं भंते ! दीवे केवइयानो महानदीओ वासहरपबहाओ केवइयाओ सहागईओ कुंडप्पवहाओ पन्नता ? गोयना ! जंबुढीवे दीवे चोदल सक्षागईओ वासहर पवहाओ छावतरि महागईओ कुंडप्यवहाओ, एवामेव सपुत्वावरेणं
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प्रकाशिका टीका-पष्ठोयक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७५७ जंबुद्दीवे दीवे णउति महामाई को लवंतीति सक्खायं । जंबुद्धीने दीवे भरहेरबएसु शनेसु कइ महागई श्री पाणताओ गोवमा ! चनारि महागईओ पन्नत्तानो तं जहा-गंगासिंधू रत्तारतवई तत्थ णं एगमेगा सहाणई चउद्दसहिं सलिलालहस्सेहिं सनग्गा पुरस्थिमपञ्चस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, एयामेव सपुब्बावरेणं जंबुद्दीचे दावे भरहेर. वएसु वासेसु छप्पणं सलिलालहस्ता भवंतीति सक्लायंति। जंबुदीवेणं भंते ! दीवे हेमवयहेरण्णवएसु वासेसु कइ महाणईओ पण्णताओ ? गोयना ! चत्तारि महागाई ओ पन्नताओतं जहा-रोहिया रोहियंसा सुवाणकूला रूपाकूला, तत्थ णं एगमेगा बहाणई अद्वारीसाए अष्टावीसाए सलिलासहस्सेहिं तमन्ना पुरस्थिपञ्चस्थिमेणं लवणलसुई समप्पेइ एकामेत्र सपुआवरेणं अबुदीचे दी हेमवयरमासु बारसुतरे सलिलालयसहस्ते भवंतीति बल्खायं इति । जंबुदोवेणं मते ! दीने हरिवारममगारोसु कई माणईओ पन्नताओ गोशमा ! चत्तारि महागईओ पवताओ, तं जहा-हरीहरिकता पारकंता णारिकता, तत्थ णं एगभेगा महाणई छप्पणगाएर लालला सहस्तेहिं सगा पुरस्थिमपञ्चस्थिमेणं लवणासमुदं सलप्पेइ, एवामेन सपुटवादरेणं जंबुद्दी। दीवे हरिवारसरम्मगशसेसु दोबडवीला सलिलालयसहस्ला भवतीति मक्खायं । जंबुद्दीवेणं मंते ! दीवे महाविदेहेनाते कइ महाणई ओ पन्नत्ताओ गोयमा ! दो महाणईओ पन्नताओतं जहा-सीया य सीओया य तत्थ णं एगोगा महागई पंचहिं पंचहि सलिला सयसहस्सेहिं बत्तीला एव स. लिलासहरूलेहि समग्गपुरत्यिसपचरिश्मणं लाणसमुदं समप्पेड़ एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीदे दीवे महाविदेहे वासे दस ललिलालयसहस्सा चउसष्टिं च सलिला लहल्ला भवतीति सक्लायं। जंधुद्दीषणं ते! दीवे मंदरस एअयस्त दक्षिणेणं केल्या ललिला सयसहस्सा पुरथिमपञ्चस्थिमाभिसुहा लमणसमुहं सजति ति ? गोयमा ! एगे छण्णउए • सलिलासयसहस्ते पुरस्थिमपचत्थिनाभिमुहे लवणसमुदं समप्यतित्ति,
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अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
जंबुद्दीवेनं भंते । दीवे मंदरस्त पव्वयस्स उत्तरेणं केवइया सलिला सपसहस्सा पुरत्थिमपच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुद्दे समप्येति ? गोयमा । एगे छण्णउए सलिला लयसहस्से पुरत्थिनपन्चत्थिमाभिमुहे जाव समप्पे जंबुद्दीवेगं भंते! दीवे केवइया सलिलासय सहस्सा पुरस्थाभिमुहा लवणसमुदं समप्येति ? गोयमा ! सत्त सलिला सयसहस्सा अट्टावीसं च सहस्सा लवणसमुदं समति, जंबुद्दीवेगं संते ! दीवे केवइया सलिलासय सहस्सा पञ्चत्थिमाभिमुद्दा लवणसमुद्दे समप्पैति ? गोयमा ! सत्त सलिला सगसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा लवणससुद्द समप्येति, एवमेव सपुव्वावरेण जंबुद्दीवे दीवे चोदस सलिला सयसहस्सा छप्पणं च सहस्सा भवतीति मक्खायं ति । सू० ॥
छाया - खण्ड योजनं वर्ष पर्वतः कूटाच तीर्थः श्रेणयः हृदः सलिलानि पिण्डके भवति संग्रहणी । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे भरतप्रमाणमात्रैः खण्डैः कियत् खण्डगणितेन प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! नदतं खण्डशतं खण्डगणितेन प्रज्ञप्तम्, जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियद् योजनं गणितेन प्रज्ञप्तम् ? गौतम ? सप्तेन च कोटिशतानि नवतानि पट्पञ्चाशच्छतसहस्राणि चतुर्नवतिश्च च सहस्राणि शतं द्वचर्द्ध च गणितपदम् १ | जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कति वर्षाणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! सप्तवर्षाणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - भरत एरवतं हैमवतं हिरण्यवतं हरिवर्षे रम्यकवर्ष महाविदेहः । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्तो वर्षधराः प्रज्ञताः कियन्तो सन्दराः पर्वताः प्रज्ञताः कियन्त चित्रकूटाः प्रज्ञप्ताः कियन्तो विचित्रकूटाः कियन्तो दमकपर्वताः कियन्तः काञ्चन पर्वताः कियन्तो वक्षस्काराः कियन्तो दीर्घवैतायाः कियन्तो वृतवैताचाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे पड्वर्षधरपर्वताः एको मन्दरः पर्वतः एकः चित्रकूटः, एको विचित्रकूटः द्वौ यमकपर्वतौ द्वे काञ्चनकपर्वतश ते विंशति वक्षस्कारः, पर्वताः चतुखिरादीर्घतायाः चत्वारो वृत्तचैतादृच्णः एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वे एकोनसप्तत्यधिके पर्ववशते भवन्तीत्याख्यायन्ते । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे क्रियन्ति वर्षधरकुटानि किवन्धि वक्षस्कारकूटानि कियन्ति वैताचकूटानि कियन्ति मन्दरकूटानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! पट्पञ्चाशद्वर्षपरकूटानि, पण्णवति वक्षस्कारकूटानि त्रीणि पत्तराणि वैदाढचकूटक्षतानि नव मन्दरकूटानि प्रज्ञतानि, एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे चत्वारि सप्तपचानि कूटशतानि भवन्तीत्याख्यातम् ? जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे भरते वर्षे कति तीर्थानि प्रज्ञतानि ? गौतम ! त्रीणि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - मागधं वरद:म प्रभास, जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे ऐवते वर्षे कतितीर्थानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम 1
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प्रकालिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७५९ श्रीणि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-मागधं वरदाम प्रभासम्, एवमेव जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे महाविदेहे वर्षे एकैकस्मिन् चक्रवर्तिविजये कति तीर्थानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! त्रीणि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि तयथा-मागधं वरदाम प्रभासम् ? एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे एक द्वयुत्तरं तीर्थशतं भवतीत्याख्यातं ? जम्बूद्वीपे खल्ल भदन्त ! द्वीपे कियत्यो विद्याधरश्रेणयः कियत्य अभियोगि सश्रेण यः प्रज्ञता: ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे अष्टषष्टि विद्याधरश्रेणयोऽष्टपष्टि राभियोगिकश्रेणयः प्रज्ञप्ताः । एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे पत्रिंशत् श्रेणयो भवन्तीत्याख्यातम् । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्तश्चक्रवर्तिविजयाः कियत्यो राजधान्यः क्रियत्यस्तमिस्रागुहाः कियत्यः खण्डप्रपातशुहाः कियन्तः कृतमालका देवाः कियन्तौ नक्तमालका देवाः कियन्तः ऋषभकूट पर्वताः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुस्त्रिंशत् चक्रवर्ति विजयाश्चनुस्त्रिंश द्वाजधान्यः चतुस्त्रिंशत्तलिस्रागुहाः चतुस्विशत्खण्डप्रपातगुहा:-चतुस्त्रिंशत्कृतमालका देवाः चतुस्त्रिंशभक्तमालका देवाः चतुस्त्रिंशत-ऋषभकूटपर्वताः प्रज्ञप्ताः। जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्तो महाहूदाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! पोडश महाहूदाः प्रज्ञप्ताः . जम्बूद्वीपे खल भदन्त ! द्वीपे कियत्यो महानद्यो वर्पधरप्रवहाः कियत्यो महानधः कुण्डप्रवहाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दश महानधो वर्षधरप्रवहाः, षट्सप्ततिमहानद्यः कुण्डप्रवहाः एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे नवतिर्महानयो भवन्तीत्याख्यातम् । जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः कति महानधः प्रज्ञप्ता: ? गौतम ! चतस्त्रो महानद्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-गङ्गा सिन्धुः रक्ता रक्तवती, तत्र ख्लु एकैका महानदी चतुर्दश चतुर्दश सलिला सहः समग्रा पूर्वपश्चिमेन लवणसमुद्रं समर्पयति, एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयो वर्षयोः पट्पञ्चाशत् सलिला सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् । जरबूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे हैमवत हैरण्यवतयोर्वषयोः कतिमहानद्यः प्रज्ञप्ता: ? गौतम ! चतस्रो महानद्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-रोहिता रोहितांशा सुवर्णक्टा रूप्यकूटा च, तत्र खलु एकैका महानदी अष्टाविंशत्याऽष्टाविंशत्या सलिलासहस्रः समग्रा पूर्वपश्चिमेन लवणसमुद्रं समति एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे हेमवतहरण्यवतवर्षयो दिशोत्तरसलिलासहस्रं भवतीत्याख्यातम् इति । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे हरिवपरम्यकवर्षयोः कति महानद्यः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! चतस्रो महानद्यः प्रज्ञप्ता, हरि, हरिकान्ता, नरकान्ता, नारीकान्ता च, तत्र खल्लु एकैका महानदी पट्पञ्चाशता सलिलासहजैः समग्रा पूर्वपश्चिमेन लवणसमुद्रं समर्पति, एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिवर्षरभ्यकवर्षयोः द्वे चतुर्विशति सलिला राहस्रे अवत इत्याख्यातम् । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे महाविदेह वर्षे कति नहानद्यः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्वे महानद्यौ प्रज्ञप्ते, तद्यथा-शीता च शीतोदा च तत्र खलु एकैका महानदी पञ्चभिः पञ्चभिः सलिला सहस्रैः द्वात्रिंशता च सलिल्ला सहस्त्रैः समग्रा पूर्वपश्चिमेन लवणसमुद्रं समर्पयति एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहवर्षे दशसलिलाशतसहस्राणि चत:ष्टि सलिला
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जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन कियन्ति सलिलाशतसहस्राणि पूर्वपश्चिमाभिमुखानि लवणसमुद्रं समति ? गौतम ! एकंपण्णपति सलिलाशनसहस्रं पूर्वपश्चिमाभिमुखं लवणसमुद्रं समर्पयत्ति, जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरेण कियन्ति सलिलाशतसहस्राणि पूर्वपश्चिमाभिमुखानि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति ? गौतम ! एक पण्णवति सलिलाशतसहसं पूर्वपश्चिमाभिमुखं लवणसमुद्रं समर्पयति । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्ति ? सलिलाशतसहस्राणि पूर्वाभिमुखानि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति ? गौनस ! मप्त सलिलाशतसहस्राणि अष्टाविंशतिश्च सहस्राणि पूर्वाभि. मुखानि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्ति सलिलाशनसहस्राणि पश्चिमाभिमुखानि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति ? गौतम ! सप्तसलिलाशतसहस्राणि अष्टाविंशतिश्च सहस्त्राणि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, एवमेन सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दश सलिलाशत. सहस्राणि पट्पश्चाशत् सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् ॥ सू० २ ॥ ___टीका-'खंडा' खण्डम्-शकलम् 'जोयण' योजनम् 'वासा वर्षाणि भरतादीनि 'पव्वय' पर्वतः-नन्दरादिः कूडाय' कूटानि-गिरिशिखराणि 'तित्थ तीर्थ मागधादिकम् 'सेढीयो' श्रेणयो विद्याधरादीनाम् 'विजय' विजयश्चक्रवर्तिनाम् 'दह' ह्रदः 'मलिलाओं' सलिला: नधः १० "पिंडए होई संगहणी पिण्डके-समुदाये भवति संग्रहणी एते खण्डादयः पदार्थाः, अत्र पष्ठे-वक्षस्कारे प्रतिपादिता दशपदार्थी दश द्वाररूपेण भवेयुस्तेषामयं संग्रह इति । 'खंडा
'जंयुद्धीवेणं भंते ! दीवे भरहरमाणवेत्तहिं' इत्यादि।
टीकार्थ-उस छठे वक्षस्कार में जो विषय प्रतिपादित किया जाने वाला है इसकी यह संग्रह कारिणी गाथा है-इल के द्वारा यह प्रकट किया गया है-कि, खण्ड द्वार से, योजल द्वार ले भरतादिरूप वर्ष बार से मन्दरादिरूप पर्वत बारसे तीरशिखररूप कूट द्वार से मगधादिरूप तीर्थद्वार से विद्याधरों के श्रेणी द्वार ले, चक्रवर्तियों के विजय हार से, ह्रदद्वार से एवं नदी रूप सलिला द्वार से' इस छठे वक्षस्कार में ये दश पदार्थ प्रतिपादित किये जायेंगे। पदार्थ संग्रह शक्य सूक्ष्न रूप होता है अतः उससे स्पष्ट बोध नहीं होता है अत: सूत्रकार
'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भरहप्पमाणमेत्तेहि' इत्यादि
ટીકાઈ–આ છઠ્ઠા વક્ષસ્કારમાં જે વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલું છે, તેની આ સંગ્રહકારિણી ગાથા છે. એના વડે આ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે ખંડઢારથી,
જનરથી, ભરતાદિ રૂપ વર્ષ દ્વારથી, મન્દરાદિ રૂપ પર્વતદ્વારથી, તીરશિખર રૂપ ફૂટકારથી, મગધાદિ રૂપ તીર્થદ્વારઘી, વિદ્યારેની શ્રેણીદ્રારથી ચક્રવતિઓના વિજયારથી, હૃદકારથી તેમજ નદી રૂપ સવિલહારથી–“આ છઠ્ઠા વક્ષસ્કારમાં એ દશ પદાર્થોનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. પદાર્થ સંગ્રહવાક્ય સૂક્ષ્મ રૂપમાં હોય છે. એથી એનાથી સ્પષ્ટ જ્ઞાન થતું નથી. માટે રરકાર સ્વયં પ્રશ્નોત્તર પદ્ધતિ વડે હવે વિષયનું પ્રતિપાદન કરે
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प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् सहले गुणने कृते सति जव्यूतानां पञ्चसप्ततिसहस्त्राणि भान्ति, एतामा संख्यानां योजनानयनार्थं चतुमिांगे हृते सति लशनि अष्टादशसहसाणि सप्तशतानि पञ्चाशदधिकानि योजनानाम्, अस्मिश्च सहस्त्राधिकं पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते सति जातानि बिनाति ९३ सहस्राणि सप्त ७ शवानि पश्चाशत् ५० अधिकालिकोटयादिका संख्यातु सर्वत्र समानैब, तथा धनुपामष्टाविंशतिशत पञ्चविंशतिसहस्त्रै गुण्यते जातानि द्वात्रिंगल्लक्षाणि ३२०० ००० धतुपाम्, अष्टाभिश्च योजनसहरी योजनमेकं भवनि, ततो योजनानगनार्थमष्टभिः सहस्र्मागे हृते सति लब्धानि चत्वारियोजनशतानि अस्सिव पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते जातानि चतुर्नवति सहस्त्राणिसतं पश्चाशदधिकम् . ... त्रयोदश पञ्चविंशति सहयदा गुण्यन्ते तदा जातानि त्रीणिलक्षाणि पञ्चविंशति सहस्राधिकानि, अाशुलमपि यदा पञ्चविंशति सहस्रैरभ्यस्ते 'गुण्यते' तदा जातानि अ गुलानां पञ्चविशति सहस्राणि तेपामर्द्धलब्धानि अड्गुलानां द्वादशसहसंख्या आजाती है अब ३ कोश में २५ हजार का गुणा करने पर ७६ हजार गव्यूतों का प्रमाण आजाता है ७५ हजार गव्यूतों के योजन बनाने के लिये उनमें ४ का भाग देने पर १८७५० योजन होते है इसे पूर्व राशि में प्रक्षिप्त करने पर ९३ हजार ७ सौ ५० अधिक होते हैं कोट्यादिकों की संख्या तो सर्वत्र उसी तरह से हैं १२८ धनुषों को २५ हजार से शुणित करने पर ३२००००० लाख धनुष होते हैं आठ हजार धनुओं का १ योजन होता है तव इनके योजन बनाने के लिये ८ हजार का इनमें भाग देने पर ४०० योजन बनते हैं।
इसे पूर्वराशि में प्रक्षिप्त करने पर ९४१५० हो जाते हैं। १३ अंगुलों में २५ हजार का गुणा करने पर ३२५००० अंगुल होते हैं अर्धअंशुल का प्रमाण भी २५ हजार से गुणित होने पर १२॥ हजार अंगुल होता है। पूर्वोक्त अणुल. राशि में इनका प्रक्षेप करने पर ३३७५०० अंगुलराशि होता है । इनके धनुष સંખ્યા આવી જાય છે. હવે ૩ કેશમાં ૨૫ હજારને ગુણાકાર કરવાથી ૭૫ હજાર ગબ્યુનું પ્રમાણ આવી જાય છે. ૭૫ હજાર ગબ્યુન જન બનાવવા માટે તેમાં ૪ ને ભાગાકાર કરવાથી ૧૮૭૫૦ એજન થાય છે અને પૂર્વ રાશિમાં પ્રક્ષિત કરવાથી ૯૩ હજાર છસે ૫૦ અધિક થાય છે. કેટયાદિકેની સંખ્યા તે સર્વત્ર તે પ્રમાણે જ છે. ૧૨૮ ધનુષને ૨૫ હજારથી ગુણિત કરવાથી ૩૨૦૦૦૦૦ લાખ ધનુષ થાય છે. આ હજાર ધનુષનું એક જન થાય છે. આમ એમના જન બનાવવા માટે ૮ હજારને એમાં ભાગાકાર કરીએ તે ૪૮૦ જન થાય છે.
આ સંખ્યાને પૂર્વ રાશિમાં પ્રક્ષિત કરવાથી ૯૪૧૫૦ થાય છે. ૧૩ અંગુલેમાં ૨૫ હજાર ગુણાકાર કરવાથી ૩૨૫૦૦૦ અંગુલ થાય છે. અર્ધ અંગુલનું પ્રમાણ પણ ૨૫ હજારથી ગુણિત હોવાથી ૧૨ હજાર અંગુલ થાય છે. પૂર્વેત અંગુલ રાશિમાં આ રાશિને પ્રક્ષિત કરીએ તે ૩૩૭૫૦ અંશુલ રાશિ થાય છે. એના ધનુષ બનાવવા માટે ૯૬ નો
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जम्बूद्वीपप्रश्नतिसूत्र स्राणि पश्चशताधिकानि, तेषु पूर्वोक्ताङ्गुलराशी प्रक्षिप्तेषु जातोऽङ्गुलराशि:-त्रीणिलक्षाणि त्रिंशत्सहस्राणि पश्चशताविकानि एतेषां धनुरानयनाय पण्णवति संख्यया भागे हृते सति लब्धानि धनुपां पञ्चत्रिंशच्छताऽनि पञ्चाशदधिकानि शेप पष्टिरझुलानि अस्य धनुपोराशे गव्यूतानयनाय सहस्रद्वयेन भागे हृते सति लब्धमेकं गव्यूतं शेपं धनुपां पञ्चदशशतानि पञ्चदशदधिकानि सर्वसङ्कलनया योजनानां सप्तकोटिशतानि नवति फोटयधिकानि पट्पञ्चाशल्लक्षाणि चतुर्नवति सहस्राणि शतमेकं पञ्चाशदधिकम्,... गव्यूतमेकं धनुपां पञ्चदशशतानि पश्चाशदधिकानि अड्गुलानां पष्टिरिति योजनद्वारम् ॥
. साप्रति वर्पद्वारं दर्शयितुमाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि । 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'कइ वासा पन्नता' कति-क्रियत्संख्यकानि वर्षाणि भरतादीनि क्षेत्राणि प्रज्ञतानि-मथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'सत्त वासा एभत्ता' सप्तसंख्यकानि वर्षाणि भरतादीनि प्रज्ञप्तानिकथितानि, तानि कानि सप्तवाभि इत्याशङ्कायां तानि दर्शयितुमाह-'तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा--'भरहे एरवए हेमवए हिरण्णवए हरिचासे रम्नगवासे महाविदेहे' भरतबनाने के लिये ९६ का भाग देने पर ३५१५ धनुप आते हैं शेप नीचे ६० वचते हैं इस धनुपराशि के गव्युत होता है तब तक एक गत आता है शेष स्थान में १५१५ वत्रते हैं इन सब की संकलना से ७ सौ करोड (७ अरब) ९० करोड ५६ लाख ९४ हजार १५० योजन १ भन्यत १५-१५ धनुष ६० अंगुल यह 'गाउयमेगं' इत्यादि गाशेक्त प्रमाण निकल आता है। योजनदार समाप्त ॥
वर्षदार वक्तव्यता 'जंबुद्दीवेणं गंजे ! दीवे कति वासा पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके डोप में कितने वर्ष-क्षेत्र कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! सत्तवासा' हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप नाल के होप में सात क्षेत्र कहे गये हैं। 'त ભાગાકાર કરવાથી ૩૫૧૫ ધનુષ થાય છે. નીચે શેપમાં ૬૦ વધે છે. આ ધનુષરાશિને ગળ્યુત બનાવવા માટે બે હજારને ભાગાકાર કરે પડે છે. કેમકે બે હજાર ધનુષને એક ગભૂત થાય જ્યારે એક ગભૂત આવે છે ત્યારે શેષ સ્થાનેમાં ૧૫૧૫ વધે છે. એ બધાની સંકલનાથી ૭ કરેડ ૭ અબજ) ૯૦ કરોડ ૫૬ લાખ ૯૪ હજાર ૧૫૦ જત (૭૯૦૫૬૪૧૫૦) ૧ २०यूत १५-१५ धनुष ६० 'Ye मा गाउयमेग' त्या यात प्रभा नlsuी आवे छे.
જનદ્વાર સમાસ
વર્ષઢ૨ વક્તવ્યતા 'जंबुद्दीवेणं भते ! दीवे कति वासा पण्णत्ता' 8 मत ! दी५ नाम दीपमा या ष-क्षेत्र ४ामा मावाले १४ाममा प्रभु छ-'गोगमा ! सत्तवासा' 3 गौतम ! मापूदीय नाम दीपमi dan४ामा माया छ. 'तं जहां मना .
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प्रकाशिका टीका-षष्ठवक्षस्फारः सू.२ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ५६७ भरतवर्षम्, ऐरक्तवर्षम्, हैमवतवर्पर, हिरण्यवर्षम्, हरिवर्षम्, रम्यकवर्षम्, महाविदेहश्च, तानि एतानि भरतादीनि जम्बूद्वीपे सप्तसंख्यकानि ७ वर्षाणि भवन्तीति वर्षद्वारस् ॥ .
सम्प्रति-पर्वतद्वारमाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! हीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीवे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः केवइया वासहरा एमत्ता' कियन्त:-कियत्संख्यका वर्षधरा:-वर्षधरपर्वताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, तथा-'केवइया मंदरा पव्यया पन्नत्ता' कियन्त:-क्रियत्संख्यका: मंदरपर्वताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, तथा-'केवइया चित्तकूडा' कियन्त:कियत्संख्यकाः चित्रकूटपर्वताः, तत्र चित्रं-विलक्षणं कूटमग्रभागो येषां ते चित्रकूटा स्तादृशाः पर्वता जम्बूद्वीपे कियन्तः प्रज्ञप्ताः, तथा-'केवइया विचित्तकूडा' कियन्तः,-कियत्संख्यकाः विचित्रकूटा नामकाः पर्वताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, तथा-'केवइया जमगपव्वया' कियन्तः-कियसंख्यका यमकपर्वताः युग्मजातवदवभासमानाः पवताः प्रज्ञताः, तथा-'केवइया कंचणजहा' उनके नाम इस प्रकार से है-'भरहे, एरवए, हेमवए, हिरण्णवए, हरिवासे, रम्मगवासे महाविदेहे' भरतक्षेत्र, ऐरवतक्षेत्र, हैमवत क्षेत्र, हिरण्यवर्ष, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष और महाविदेह
पर्वतद्वारकथन 'जवुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइंआ वासहरा पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस जंबुद्वीप नामके द्वीप में कितने वर्षधर पर्वत-कहे गये हैं तथा-'केवइआ मंदरा पचया पण्णत्ता' कितने मन्दर पर्वत कहे गये हैं ? 'केवड्या चित्तकूडा, केवइया विचित्त कूडा, केवइया जमगपचया, केवइया कंचण पव्वया, केवड्या-चक्खारा, केवइया दीहवेअद्धा, केवइआ बट्टवेअद्धा पण्णता' कितने चित्रकूट पर्वत, कितने विचित्रकूट पर्वत, कितने यमक पर्वत, कितने कंचण पर्वत, कितने वक्षस्कार, पर्वत 'किनने दीर्घवैताढयपर्वत, एवं कितने वृत्तवैताढय पर्वत, कहे गये हैं ? इन में जो चित्र कूट नामके पर्वत हैं उनका कूट अग्रभाग विलक्षण प्रकारका है युग्मजात नाम या प्रमाणे छ-'भरहे एरवए, हेमवए, हिरण्णवए, हरिखासे रम्मगवासे, महाविदेहे,' ભરતક્ષેત્ર, અરવતક્ષેત્ર, હેમવતક્ષેત્ર, હિરણ્યવર્ષ, હરિવર્ષ રમ્યક વર્ષ અને મહાવિદેહ.
પર્વતદ્વાર કથન 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइआ वासहरा पण्णत्ता' HE I द्रीय नाम द्वीपमा ३८ वषधर पता ४ामा मावा छे. तेभर 'केवइआ मंदरा पव्वया पण्णत्ता' है। भ२५ ४ामा मासा छ १ 'केवइया चित्तकूडा, केवइया विचित्तकूडा, केवइया जमगपव्वया, केवइया कंचणपव्यया, देवइया वक्खारा, केवइया दीहवेअद्धा, केवइया वट्टवेअद्धा पण्णत्ता' या चित्रकूट en विचित्र टपता, an यम४५वता, । ४यनપર્વતે, કેટલા વક્ષસ્કારપતે. કેટલા દીઘતાયપર્વતે, તેમજ કેટલા વૃત્તવૈતાઢય પર્વત કહેવામાં આવેલા છે? એ સર્વમાં જે ચિત્રકૂટ નામક પર્વત છે, તેમને ફૂટ અગ્રભાગ વિલક્ષણ પ્રકાર છે. સુગ્મ જાતની જેમ માલૂમ પડનારા જે પર્વતે છે તે ચમકપર્વતે
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___ सम्पूछीपप्रति पव्वया' कियन्त:-कियत्संख्यकाः काञ्चनपर्वताः सुवर्णमया सुवर्णवदयमासमानाः पर्वताः प्रज्ञता:-कथिताः, तथा-केवइया वखारा' कियन्त:-कियत्संख्यकाः वक्षस्कारा:-वक्षस्कारनामकाः पर्वताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, तथा--'केवइया दी हवेयद्धा' कियन्त:-कियत्संख्या दीर्घवैतादया स्तनामकपर्वतविशेषाः प्रज्ञप्ता: कथिताः, तथा-'केवड्या बट्टवेयहा पनना' कियन्त:-क्यिासंख्यकाः वृत्तवैनाया एतनामकाः पर्नता प्रज्ञताः कथिवा, इतिप्रश्नः, भगवानाह- 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे पौतम ! 'जंबुद्दीवे छवा सहरपब्धया' जम्बूद्वीपनामके द्वीपे पटसंख्या वर्षयरपर्वताः प्रज्ञप्ता:-कपिता, तर व-भस्वादिकं धरन्ति ये ते वर्षधराः क्षुल्लक्ष्मिवदादयः ते संख्या पडेव भवन्तीति । तथा-'एगे मंदरे पब्बए' एक:-एकएव जम्बूद्वीपे मन्दरो मेरुनामकः पर्वतो विद्यते इति । तश-एगे चित्तकूडे' एक:-एक एव चित्रकूटनामा पर्वतो जम्बूद्वीपे, नया-एगे विचित्तकूडे' एका-एक एव विचित्रकूटः पर्वतः जम्बूद्वीपे, एतौ च यमलजातकादिव द्वौ पर्वती देवकुरुवर्तिनी, तथा'दो जमराएब्जया' द्वौ-द्विसंख्यको यमकपर्वतो उत्तरस्वत्तिनी, तथा-'दो कंचण पब्वचसया' द्वे काश्चनपर्वतशवे, देवरूतरकुरुनिष्ठ हुदराको नयतटयोः प्रत्येकं ग दश काञ्चनककी तरह मालूम पडने वाले जो पर्वत थे यमकपर्वत है। काञ्चन पर्वत सुवर्ण: मथ हैं अतः ये सुवर्ण के जैसे प्रतिभालित होते हैं। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयना ! अंधुदीचे छ बालपनया' हे गौतम ! जम्बूद्वीप थे छ वर्षधर पर्वत कहे गये हैं-ये क्षुल्लहिलवत् आदि नाम वाले हैं इन्हें वर्षधर इसलिये कहा गया है कि इनके द्वारा क्षेत्रों का विमान किया गया है। एक मन्दर पर्वत कहा गया है और यह शरीर में कालिजी तरह ठीक जहीर के बीच में है। एक चित्रकूट पर्वत कहा गया है 'पगे विचित्तकूडे' एक ही विचित्र कूट पर्वत काला गया है 'दो जमग पत्रया, दो कंचएमवयसया दो यारत कहे गये हैं ये परक पर्वत उत्तरकुरक्षेत्र में हैं। दो सौ काञ्चन पर्वत राहे गये है।
क्यों कि देवगुरु और उत्तरकुर में जो १० हूद है उनके दोनों तटों पर છે. કંચનપર્વત સુવર્ણમય છે એથી જે તે સુવર્ણ જેવા પ્રતિભાસિત થાય છે. એના भाभा प्रभु ४९ छ-'गोषमा | जंबुद्दीये छ वासहरपाया' हे गीत | दीपमा વર્ષધર પર્વતે આવેલા છે. એ ભુલ હિમવંત વગેરે નામવાળા છે. એમને વર્ષધર એટલા માટે કહેવામાં આવેલા છે કે એમના વડે ક્ષેત્રનું વિભાજન કરવામાં આવ્યું છે. એક મંદરપર્વત કહેવામાં આવેલ છે અને એ પર્વત શરીરમાં નાભિની જેમ ઠીક જંબુદ્વીપના मध्यमामा मस्थित छे. ४ शिट वामां आवे छे. 'एगे विचित्त कुडे' मे४४ वियित्र छूट त वाम मा छे. 'दो जमगपव्यया, दो कंचणगपव्ययसया' में યમપર્વતે કહેવામાં આવેલા છે. એ યમપર્વતે ઉત્તરકુરુક્ષેત્રમાં છે. બસે કાનપર્વતે કહેવામાં આવેલા છે. કેમકે દેવકુરુ અને ઉત્તરકુરુમાં જે ૧૦ હેકે છે. તેમના બને
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प्रकाशिका टीका-षष्ठीवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकैन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७६१ जोयण' इत्यादि पदार्थ संग्रहवाक्यस्य सूक्ष्मतया लोकानां वोधासंभवेन स्वयमेव सूत्रकारः पश्नोत्तरपद्धत्या विकृणोति तत्रेदं सूत्रम्-'जंनुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीपः सर्व द्वीपमध्यवर्ती जम्बूद्वीप इत्यर्थः ‘भरहप्पमाणमेत्तेहि' भरतप्रमाणमात्रैः भरतस्य भरतक्षेत्रस्य यत् प्रमाणम् पट्कलाधिकपड्वंशनियोजनाधिक पञ्चशतयोजनानि तदेव मात्रापरिमणं येषां तानि तथा एवं प्रकारकै 'संडेहि' खण्डैः शकलैः एवं प्रकारेण 'खंडगणिएणं' खण्ड गणितेन-खण्ड संख्यया भरतक्षेत्रस्य यावन्ति खण्डानि तत्प्रमाणेन यदि जम्बूद्वीपस्य विभागाः क्रियन्ते तदा कियन्ति खण्डानि जम्बूद्वीपस्य भवन्तीति । 'केवइयं' कियान् 'एनत्ते' प्रज्ञप्त:-कथित इतिप्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे. गौतम ! 'णउयं खंडसय खंड गणिएणं पन्न' नवतं खण्डशतं खण्डगणितेन प्रज्ञप्तः तत्र नातं नवत्यधिक खण्डानां शतं खण्डगणितेन जम्बूद्वीपः कथित इति । अयं भाव:-भरतक्षेत्रप्रमाणैः स्खण्डः नवत्यधिकशतसंचयकैपिलिते जम्बूद्वीपः सपूर्णलक्षप्रमाणो भवति, तत्र दक्षिणोत्तरतः खण्डमीलना पूर्व भाताधिकारे एव कृतेति न पुनरत्रोच्यते तत एव द्रष्टव्यः स्वयं ही प्रश्नोत्तर पद्धति द्वारा अब विषय का प्रतिपादन करते हैं-'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मरहमाणमेहि खंडेहिं केवइथं खंडगणिएणं पन्नत्ते' इसमें गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! १ लाख योजन के विस्तारवाले इस जंजूदीन के भरतक्षेत्र विस्तार का बराबर यदि टुकड़े किये जाये तो वे कितने होगें ? अरतक्षेत्र का विस्तार ५२६६० योजन का कहा गया हैं यदि एक लाख योजन के विस्तार वाले जम्बूद्वीप के इतने खण्ड किये जाते है तो वे खण्ड संख्या में कितने होंगे? इसके उन्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! णउयं खंडसयं खंडगणिए पन्नत्ते' हे गौतन ! १ लाख योजल विस्तार वाले जम्बूद्धीप के खंड गणित के अनुसार भरनक्षेत्र प्रमाण टुकडे करने पर १९० टुकडे होश ५२६, को १९० यार मिलाने पर जम्बुद्धीप का १ लाख योजन का विस्तार हो जाता है दक्षिण और उत्तर के खंडो की मिलना-मिलान-पहिले भरत के अधिकार में छ-'जंयुहीवेणं भंग | दोवे भरहापमागमेत्तहि खंडेहिं केवइये खडगगिएणं पन्नत्ते' गामा ગૌતમ વામીએ પ્રભુને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન કર્યો છે કે હે ભદંત! એક લાખ ચેન જેટલા વિસતાવાળા આ જ બૂઢીપના ભરતક્ષેત્ર વિસ્તાર બરાબર જે કકડાઓ કરવામાં આવે તે તેના કકડા કેટલા થશે ? ભરતક્ષેપનો વિસ્તાર પર૬ જન પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે. જે એક લાખ એકર જેટલા વિસ્તારવાળા જંબુદ્વિીપના એટલા જ ખંડે કરવામાં આવે તે ते 31 मा थरी ? सेना 40 प्रभु ४३ छ-'गोयमा! णउयं खंडसयं खंडगणिएणं पन्नत्ते' हे गौतम ! मे म योरन विस्तारवादीन मગણિત મુજબ ભરતક્ષેત્ર પ્રમાણ ખડે કરીએ તે ૧૯૦ કકડાઓ થશે. પર૬ને ૧૯૦ વખત એકત્ર કરવાથી જંબુદ્વીપને એક લાખ જન પ્રમાણે વિસ્તાર થઈ જાય છે. દક્ષિણ અને ઉત્તરના ખંડેની જોડે પહેલાં ભારતના અધિકારમાં કહેવામાં આવી છે એથી હવે તે
सय ९६
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मस्तीपप्रवमिसने पूर्व पश्चिमस्तु यद्यपि खण्डगणित विचाराणा सूत्रे न कृता तान सुखादिभिरेव लक्षसंख्यापूतैः कथनात् तथापि खण्डगणितविचारे कृते यावन्त्येव भरतप्रमाणानि, तावत्संख्यकान्येव खण्डानि भवन्तीति प्रथम खण्डद्वारम् ॥ ... अथ योजनेति द्वारसूत्रमाइ.-'जंबुट्टीवेणं भंते ! दीवे' इत्यादि 'जंबुद्दीवे णं मंते !. दीवे' जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वोपः सर्वद्वीपमध्यवर्ती जम्बूद्वीप इत्यर्थः 'केवइयं जोयणगणिएणं पन्नत्ते' क्रियान् योजनगणितेन समचतुरस्रयोजनप्रमाणखण्डसर्वसंख्यया प्रज्ञप्त:-कथित इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोपमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तेत्र कोडिसया' सप्तव कोटिशतानि सप्तैवेत्यत्र एव शब्दोऽवधारणार्थका, उत्तरत्र संख्यासप्नुचयार्यकः 'णउया' नवतानि-नवति कोटयधिकानि इत्यर्थः, अन्यया-कीटिशततो द्वितीयस्थाने विद्यमानेषु लक्षादि स्थानेषु नवदशा रूपा नवति नयुज्यते गणित संप्रदायविरोधात्, तथा-'छप्पण्ण सयसहस्साई' पट्पश्चाशच्छत सहस्रणि- पट्पञ्चाशल्लला-इत्यर्थः 'चउणवई च कही जा चुकी है अतः अब उसे यहां नहीं दिखाया जाता है वहीं से इसे देख लेना चाहिये पूर्व से पश्चिम तक के खंडों की विचारणा यहां पर खंड गणित के अनुसार सूत्र में नहीं दिखाई गई है-परन्तु लक्ष संख्या की पूर्ति करनेवाले मुखादिकों द्वारा हो यह बात कह दी जाती है फिर भी खंड गणित के अनुसार विचार करने पर जितना भरतक्षेत्र के खंडों का प्रमाण है उतने ही खण्ड यहां पर होते हैं। खण्डद्वार समाप्त ॥
योजनहार वक्तव्यता'जवुद्दीवेणं भंते ! दीवे' गौतमरासीने इस बार में प्रभु से ऐसा पूछा हैहे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामका दीप योजन गणित से समचतुरस्त्र थोजन प्रमाण खंडों को सर्व संख्या से कितना कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रयु कहते हैं'गोयमा ! सत्तेव य कोडिसया णउआ छष्यण सयसहस्साई चउणवइंच सहस्सा વિશે અહીં સ્પષ્ટતા કરવામાં આવશે નહિ. જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જ જાણવા પ્રયત્ન કરે. પૂર્વેથી પશ્ચિમ સુધીના ખડાની વિચારણું અહી ખંડગણિત મુજબ સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. પરંતુ લક્ષ સંખ્યાની પૂર્તિ કરનાર સુખાદિ વડે જ આ વાત કહેવામાં આવી છે. છતાં એ ખંડગણિત મુજબ વિચાર કરીએ તે જેટલું ભરતક્ષેપના ખડાનું પ્રમાણ છે, તેટલા જ ખંડે અહીં પણ હેય છે. ખડકાર સમાપ્ત.
જનાર વક્તવ્યતા 'जंबुद्दीवेणं भंते । दीवे' गौतभस्वाभी२ मा द्वारमा प्रभुत मा प्रभारी प्रश्न या છે કે હે ભદંત ! જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપ જન ગણિતથી સમચતુસ એજન પ્રમાણ भनी सर्व संध्याथा टस टेवामा मासा छ ? सना नाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! सत्तेव य कोडिसयाई णउआ छापण सय सहरसाई चरणव च सहसा सवं दिवद्धं च गणितपय
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प्रकाशिका टीका - पष्ठोवक्षस्कारः सु. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम्
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सहरसा ' चतुर्नवतिश्च सहस्राणि चतुरधिकानि नवतिसहस्राणि इत्यर्थः ' सयं दिवद्धं च गणियपयं' शतंच द्वयर्द्ध पञ्चाशदधिकं योजनाना मित्येतावत्प्रमाणकं जम्बूद्वीपस्य गणितपदं क्षेत्र फलमित्यर्थः सूत्रेऽत्र योजनसंख्याया: प्रक्रान्तत्वाद् योजनावधिरेव संख्या प्रदर्शिता, योजनातिरिक्त संख्याया विद्यमानत्वेऽपि उपेक्षण परित्यागात् भगवती सूत्रादौ तु साधिकत्वं दर्शितम्, तद्यथा
'गाउयमेगं पण्णरस धणुरुसया वह धणूनि पण्णरस । सद्धिं च अंगुलाई जंबुद्दीपस्स गणियपये " ॥ १ ॥ छाया -- गव्यूतमेकं पञ्चदशधनुः शतानि तथा पञ्चदश धनुंषि ।
पष्टिं चाङ्गुलानि जम्बूद्वीपस्य गणितपदम् ॥ १॥ इतिच्छाया ||
सयं दिवद्धं व गणिअपयं ॥ १॥ हे गौतम ! ७ अरब ९० करोड ५६ लाख ९४ हजार १५० योजन का जम्बूद्वीप का क्षेत्र फल है 'सत्तेव' में जो एव पद प्रयुक्त हुआ है वह अवधारण अर्थ तथा आगे की संख्या के समुच्चय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है | 'या' पद से ९० करोड अधिक ऐसा अर्थ लिया गया है ९ सौ ऐसा अर्थ नहीं लिया गया है क्योंकि ऐसा अर्थ लेने पर आगे के लक्षादि स्थानों में गणित प्रक्रिया के अनुसार विरोध पडता है गणित पद से क्षेत्र फल गृहीत हुआ है इस सूत्र में योजन संख्या का प्रकरण है इससे योजन तक की ही संख्या यहां दिखाई गई है यद्यपि योजत्र से अतिरिक्त भी संख्या विद्यमान है परन्तु वह यहां गृहीत नहीं हुई है भगवतीसूत्र आदि में इस प्रमाण में साधि - कता इस प्रकार से दिखलाई गई है - ' गाउयमेगं पण्णरस धणुस्सया तह धणि पण्णरस । खडिं च अंगुलाई जंबूद्दीवस्त्र गणियपथं ॥ १॥ कि जम्बूद्वीप का क्षेत्र फल १ गव्यूत १५१५ धनुष ६० अंगुल का है यहां सप्तकोटि शतादि रूप प्रमाण
||१|| हे गौतम! ७ भरण ८० ४, ६ साथ, ६४२, १५० (७७०५६८४१५०) योजन नेटल यूद्दीय क्षेत्र छे 'सत्तेव' भां ने 'एव' यह प्रयुक्त थल, अवधारण अर्थ तेभन आगजनी संख्याना समुख्ययना अर्थभां प्रयुक्त थयेस छे. 'जया' પદ્મથી ૯૦ કરાડ કરતાં અધિક, આ જાતના અં ગ્રહણ કરવામાં આવેલા છે. નવસે એવા અ ગ્રહણુ કરવામાં આવેલે નથી. કેમકે આ જાતના અર્થે લેવાથી આગળના લક્ષાદિ સ્થાનામાં ગણિત પ્રક્રિયા મુજઞ વિરાધ આવે છે. ગણિત પદ્મથી ક્ષેત્રફળ 'ગૃહીત થયેલુ છે. આ સૂત્રમાં ચેાજન સંખ્યાનુ' પ્રકરણ છે. એથી ચેાજન સુધીની જ સંખ્યા અત્રે નિર્દિષ્ટ કરવામાં આવેલી છે. જો કે ચેાજનાતિરિક્ત પણ સખ્યા વિદ્યમાન છે, પરંતુ તેનું અત્રે ગ્રહણુ થયુ નથી, ભગવતીસૂત્ર વગેરેમાં આ પ્રમાણમાં સાધિકતા આ પ્રમાણે નિર્દિષ્ટ ४२वाभ' आवेली छे–'गाउयमेगं पण्णरस वणुस्सया तह धणूणि पण्णरस सट्ठिच अंगुलाई जंबूद्दोवरस गणियपयं ॥१॥
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जम्दारीप्रतिस्त्र अयमर्थः-एकं गव्यूतं पञ्चदशधनुः शतानि तदुपरि पञ्चदश धनुपि पष्टिसंख्यकानि अगुलानि, सप्तकोटि शतादिकानितु पूर्वव देव, एतावन्प्रमाणकं जम्बूद्वीपस्य गणितपदं. क्षेत्रफलमिति । एतावता उपर्युक्तं जम्बूद्वीपस्य प्रमाणं तहि धनुः शताहीना मत्रा कथनं योजन द्वारत्वाद् योजनावधिरेव संख्या प्रदर्शिनेति । एतावतामाणस्य करणं चात्र 'विखंभपायगुणियोय परिरयो नरसगणियपयं' विष्कम्भपादगुणितश्च परिस्यस्तस्य गणितपदमिति वचनात् जम्बूद्वीपस्य परिधिः त्रिलक्ष पोडशसहस्र द्विशलसप्तविंशति योजनादिको जम्बूद्वीप विष्कम्भस्य लक्षरूपस्य पादेन-चतुर्था शेन पञ्चविशति सःस्ररूपेण गुणिको जम्बूद्वीपस्य गणितपदमिति, तथाहि-जम्बूद्वीप परिधिनीणि लक्षाणि पोडश सहस्राणि द्वेशते सप्तर्विशत्यधिक योजनानाम्, तथा गव्युतत्रयम् अष्टाविंशत्यधिकं शतं धनुयां त्रयोदशाङ्गुलानि एक चा डमिति, तत्र योजनराशौ पंचविंशतिसहस्त्रै गुणने कृते सति सप्तकोटिशतानि नवतिकोटयः पट्पञ्चाशल्लक्षाणि पञ्चसप्ततिः सहस्राणि भान्ति, तथा क्रोशत्रयस्य पञ्चविंशतिपूर्ववत् ही लिया है अर्थात् जम्बूद्वीप का जो क्षेत्र फल ऊपर में प्रट किया गया है वह तो है ही परन्तु उस से अतिरिक्त इतना और अधिक उसका क्षेत्र फल है इस प्रमाण को लाने के लिये यह करण सूत्र है-'विश्वम्भपायशुणियो य परिरयो तस्स गणिय पयं' इसका भाव ऐला है-जम्बूढीप की परिधि का प्रमाण ३ लाख सोलह हजार २ दो सौ २७ योजन का है तथा जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख का है इसका पाद-एक लाख योजन का चतुर्थी श २५ हजार योजन होता है २५ हजार योजन का गुणा परिधि के प्रमाण के साथ करने पर क्षेत्र फल का प्रमाण आजाता है जम्बूद्वीप की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ २७ योजन ३ गव्यूत १२८ धनुष १३ । अंगुल है योजन राशि में २५ हजार के गुणा करने पर (३१६२२७४२५००० करने पर) ७९०५५००० इतनी योजन
જંબૂદ્વીપનું ક્ષેત્રફળ ૧ ગભૂત ૧૫૧૫ ઇનુષ ૬૦ અમુલ જેટલું છે. અહીં સપ્તકેટિ શતાદિ રૂપ પ્રમાણ પૂર્વવત જે ગ્રહણ કરવામાં આવેલું છે. એટલે કે જંબૂદીપનું જે ક્ષેત્રફળ ઉપર સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે, તે તે છે જ પરંતુ તેના સિવાય આટલું पधारा तेनु क्षेत्र छ. म प्रभागने वा माटे मा ४२५५ सूत्र छे. 'विक्खम्भपायगुणियो य परिरयो तस्स गणियपयं स मा मा प्रमाणे छ । दीपनी परिधिनु પ્રમાણ ૩ લાખ ૧૬ હજાર ૨ સૌ ૨૭ (૩૧૬રર૭) જન જેટલું છે. તેમજ જંબુદ્વીપને વિસ્તાર એક લાખ જન જેટલું છે. આને પાદ એક લાખ એજનને ચતુર્થાશ ૨૫ હજાર જન થાય છે. ૨૫ હજાર એજનને ગુણાકાર પરિધિના પ્રમાણની સાથે કરવ.થી ક્ષેત્રફળનું પ્રમાણ આવી જાય છે. જંબદ્વીપની પરિધિ ત્રણ લાખ સેળ હજાર બસ સત્યાવીસ વૈજન ૩ ગચૂત ૧૨૮ ધનુષ અને ૧૩ અંગુલ છે. ચેાજન રાશિમાં ૨૫ હજાર ગુણાકાર કરવાથી (૩૧૬૨૨૭૪૨૫૦૦૦ કરવાથી) ૭૯૦૫૫૦૦૦ આટલી ચાને
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प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू, २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७६९' पर्वत सद्भावात् 'वीसं वक्खारपव्वया पन्नता' विंशति विशतिसंख्यका वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ता, अस्मिन् जम्बूद्वीपे कथिताः तत्र गजदन्त सदृशा गन्धमादनादयश्चत्वारः पर्वताः, तथा चतुः प्रकारमहाविदेहे प्रत्येकं चतुष्क चतुष्क सद्भावात् षोडश चित्रकूटादयः सरलाः द्वयेऽपि मिलिता विंशति संख्यका भवन्ति तथा-'चोत्तीसं दीहवेयद्धा' चतुर्विंशद्दीर्घवैताढय पर्वताः प्रज्ञप्ताः तत्र द्वात्रिंशद्विजयेषु भरतैरवनयोश्च प्रत्येकमेकैक सद्भावादिति । तथा-'चत्तारि वट्टवेयद्धा' चत्वारो वृत्तवैताढया गोलाकाराः पर्वताः प्रज्ञप्ताः हैमवतादिषु चतुर्पु वर्षक्षेत्रेषु एकैकभावादिति । 'एवामेव सपुव्यावरेण जंबुद्दीवे दीवे दुणि अउणुत्तरा पन्धयसया भवंतीति मक्खायंति' एवमेव सपुर्वापरेण पूर्वापरसंकलनेन जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्यजम्बूद्वीपे द्वे एकोनसप्तत्यधिक पर्वतशते भवत इत्याख्यायन्ते अहं महावीरस्वामी अन्ये च तीर्थकरा: प्रतिपादयन्तीति । तत्र-पड्यर्पधरपर्वताः, एको मन्दरः, एकश्चित्रकूटा, एको विचित्रकूटः द्वौ यमकपर्वतो, द्वेशो काञ्चनपर्वताः विंशति वक्षस्कारपर्वताः, चतुस्त्रिंशद् दीर्घवैतादया:, चबारोवृत्तवैताढयाः, सर्व संकलनया उक्तसंख्यकाः पर्वता भवन्तीति । प्रत्येक तट पर १०-१० काश्चन पर्वत हैं। 'चीसं वक्खारपव्वया पन्नत्ता' २० वक्षस्कारपर्वत हैं इनमें गजदन्त के आकारवाले गन्धमादन आदि चार तथा चार प्रकारक महाविदेह में प्रत्येक में चार के सद्भाव से १६ चित्रकूटादिक ये कुल मिलकर २० वक्षस्कार पर्वत है। 'चोत्तीसं दीहवेयडा' ३४ दीर्घ वैताढयपर्वत हैं इन ३२ विजयों में और भरत ऐरक्त इन दो क्षेत्रों में प्रत्येक में एक २ दीर्घ वैताढय है इस प्रकार से ये ३४ है 'चत्तारि वट वेयडा' चार गोल आकारवाले वृत्तवैताढय पर्वत है। हैमवत् आदि क्षेत्रों में एक २ वृत्तवैताढय पर्वत है इसलिये ये चार हैं । 'एवामेव स पुवावारेण जंबुद्दीवे दीवे दुषिणअउणुत्तरा पत्र य सया भवतीति मक्खायंति' इस तरह इन सब पर्वतों की जम्बूद्वीप में कुल मिलाकर संख्या २६९ होती है ऐसा मुझे महावीर ने और अन्य तीर्थकरों ने कहा है इन में ६ वर्षधर पर्वत, एक मन्दर, एक चित्रकूट, एक विचित्रकूट, दो नमे ५२ १२ त ५२ १०-१० यन छ. 'वीसं वक्खारपव्वया पन्नत्ता' २० વક્ષસ્કાર પર્વત છે. એમાં ગજદન્તના આકારવાળા ગન્ધમાદન વગેરે ચાર તથા ચાર પ્રકારના મહાવિદેહમાં દરેકમાં ચારના સદુભાવથી ૧૬ ચિત્રકૂટાદિક એ બધા મળીને ૨૦ વક્ષસ્કાર पवतो छ. 'चोत्तीसं दीहवेयड्ढा' ३४ ही वैतादयता छ. सविन्यामां मन सरत અરવત એ બે ક્ષેત્રમાં દરેકમાં એક-એક દીર્ઘ વતાય છે. આ પ્રમાણે એ બધા ૩૪ पता छ. 'चत्तारि वट्टवेयडढा' या गाण माRA वृत्तवैतदय पता छे. भवत् वगैरे क्षेत्रमा ४-४ वृत्तवैतादय त छ. मेथी मे गया यार या छे. 'एवामेव सपुवावरेण जंबुद्दीवे दीवे दुण्णि अउणुत्तरा पव्वयसया भवतीति मक्खायति' प्रम द्वीपभां એ બધા પર્વતની કુલ સંખ્યા ૨૬૯ થાય છે એવું મેં મહાવીરે તેમજ બીજા તીર્થકરેએ
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अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र सम्प्रति-जम्बूद्वीपे कियन्ति कूटानि सन्ति इति पञ्चमद्वार तदर्शयितुमाह-'जंबुद्दीवेणं भंते' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्वृद्धीपे लु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्यजम्बू द्वीपे इत्यर्थः 'केवइया वासहरकूडा' क्रियन्नि-क्रियत्संख्यकानि वर्पयरकूटानि जम्बृद्धीपे प्रज्ञप्तानि, तथा-केवइया वेयरकूटा' शियन्ति नैताढयक्रूटानि प्रजातानि, तथा-'केनद्या मंदरकूडा पन्नत्ता' कियन्ति-फियत्संख्य कानि मन्दर 'मेरु' कूटानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीतिप्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'छप्तणं वाराहरकूडा पन्नत्ता' ज-बृद्वीपे द्वीपे पट्पश्चाशत् पट्पश्चाशत् संख्यकानि वर्षधरकूटानि प्रजातानि-कथितानि तथाहि-रुद्रहिमरच्छिखरिणोः प्रत्येकमेकादशैकादशकूटानीति मिलित्मा द्वाविंशतिः तथा-महाहिमवरपचतयोः प्रत्येकमष्टाष्टौ इति मिलित्या पोडश, निपनीलमयोः प्रत्येक नवनवेति मिलिना अष्टादश, तदेवं सर्वसंकलनया जम्बूद्वीपे पट्पञ्चाशद् वर्षधरकुटानि भवन्तीति । तथा'उण्णउई बक्खारकूडा पन्नता' जम्बूद्वीपे पगवति वक्षस्कारकूटानि प्रजातानि, तथाहि-सरकयमकपर्वत, दो सौ काञ्चल पर्वत, वीस वस्कार पचन, ३४ दीर्थचेताढ्य पर्दत, और चार वृतवैताढ्य पर्वन है ।
पंचमद्वारकथन ___ 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवश्या वासहरडा' हे भदन्त ! जंबूद्वीप नामके द्वीप में कितने वर्षधर कूट है ? तथा-केवड्या वेबद्ध कूडा' कितने वैनाढयकूट हैं ? 'केवइया मंदकूडा पन्नना' कितने बंदरकूट हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! छप्पणं वासहरकूड़ा पन्नत्ता' हे गौतम ! जम्बूदीप नासके द्वीप में ५६ वर्षधर क्रूट हैं ये इस प्रकार से हैं-क्षुद्र हिरवाद पर्वत और शिखरी इन दो पर्वतो में से प्रत्येक पर्वत में ११-११ कूर हैं लझाहिलवान् और रुक्मी इन दो पर्वतों में से प्रत्येक पर्वत में २-९ कूट हैं इस प्रकार मिलकर सय ५६ वर्षधर कूट हैं 'छण्णउई वखार कूडा पन्नत्ता' ९६ वक्षस्कार कूट इस जम्बूद्वीप में हैं वे કહ્યું છે. ૬ વર્ષધર પર્વતે એકમંદર, એકચિત્રકૂટ, એકવિચિત્રકૂટ, બે ચમકપર્વતે, બસ કાંચનપર્વતે, ૨૦ વક્ષકારપર્વતે, ૩૪ દીઘવૈતાઢયપર્વત અને ૪ વૃત્તબાહય પર્વત છે.
પંચમઢાર કથન _ 'जवुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया वासहरकूडा' है Rird! यूद्वी५ नाम द्वीप सा वर्षधर दूटो आसा छ १ मा 'केवइया वेयद्धकूडा' मा वैतादय टूट। मावला छ ? केवइया मंदर कूडा पन्नत्ता' खा भर टी माहा छ ? शनायाममा प्रभु छ-'गोयमा | छप्पण्णं वासहरकूडा पन्नत्ता' गौतम ! द्वीप ना४ द्वीपमा ५६ વર્ષધર ફૂટે આવેલા છે. તે આ પ્રમાણે છે–શુદ્ધ હિમવાન પર્વત અને શિખરી એ બે પર્વતેમાંથી દરેક પર્વતમાં ૧૧-૧૧ ફૂટ આવેલા છે. મહાહિમવન અને રુક્મી એ બે પર્વતેમાંથી દરેક પર્વતમાં ૯૯ કુટે આવેલા છે. આ પ્રમાણે મળીને બધા ૫૬ વર્ષધર
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प्रकाशिका टीका-पण्ठोवक्षस्कार सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाविषयनिरूपणम् ७७१ वक्षस्कारेषु महाविदेहस्थित पोडशचित्रकूटादयः सरलाचतुःपष्टिः, तथा गनदन्ताकारवक्षस्कारेषु गन्धमादनसौमनसयोः सप्त सप्त इति मिलित्वा चतुर्दश, माल्यवद् निद्युत्यभयोनवनवेति मिलित्वा अष्टादश, तदेवं सर्वसंकलनया पण्णवति वक्षस्कारकूटानि जम्बूद्वीपे भवन्तीति । 'तिण्णि छलुत्तरा वेयरकूडसया' त्रीणि पडुत्तराणि वैताढव्यकूटशतानि, तत्र भातैरवायो विजयानां च वैनाढयेषु चतुः त्रिंशत्संख्यकेषु प्रत्येकना संभवाद् यथोक्तसंख्यानयनं भवति, वृत्तवैताब्येषु च कूटस्य सर्वथाऽभान एव, अत एव वैताढयसूत्रे दीर्घति विशेपणस्योपादानं न कृतम् यतो व्यावर्त्तकमेव विशेषणं भवति, अत्र च व्यावयाभावेन तदुपादानं निरर्थकमेव स्यादिति । ‘णव संदरकूडा पनत्ता' नव मन्दरकूटानि प्रज्ञप्तानि मेरुपर्वते नव कूटानि तानि च नन्दनवनगतानि ग्रात्याणि न मशालवनगतानि दिगृहस्तिकूटानि, तेषां भूमिप्रतिष्ठितल्वेन स्वतन्त्र कूटत्यादिति । एवमेव सपुव्यावरण-पूर्वापरसंकलनेन चत्वारि सप्तइस प्रकार से हैं-१६ सरल वक्षस्कारों में से प्रत्येक में ४-४ हैं तथा गजदन्ता कृतिगले वक्षस्कारों में से गन्धमादन और सौमनस इन दो बक्षस्कारों में से प्रत्येक में सात लात हैं माल्यवत ने नौ और विद्यत्मभ में ९ इस प्रकार सब मिलकर ९६ वक्षस्कार कूट हो जाते हैं। तिणि छलुत्तरा वेयकूडसया' ३०६ तीन सौ छह वैताठयकूट है वे इस प्रकार से हैं भारत और ऐरवत के एवं विजयों के ३४ वैलाढयों में प्रत्येक में ९-९ कूट है सब मिलकर ३०६ हो जाते हैं । वृत्त वैलाढयों में कूट का सर्वथा अभाव है इसीलिये वैनाढय सूत्र में दीर्घ ऐसा विशेषण नहीं दिया गया है । विशेषग जो होता है वह अन्य का व्यावर्तक होता है। यहां व्यावर्थका अभाव है इसलिये उसका उपादान व्यर्थ हो जाता है अतः विशेषण नहीं दिया है । 'णव मंदरकूडा पण्णत्ता' मेरुपर्वत पर नौ कूद कहे गये हैं। ये नौ कूट नन्दनवन गत यहां प्रात्य हुए है। भद्रशालवनगत दिगहछूट। छे. 'छण्णउई वक्खारकूडा पन्नत्ता' ८६ १२२ फूट। मामूदायमा छे. ते या प्रमाणे છે-૧૬ સરલ વક્ષસ્કારમાંથી દરેકમાં ૪-૪ છે. તેમજ ગજ દન્તાકૃતિવાળા વક્ષસ્કારમાંથી ગન્ધમાદન અને સૌમનસ એ બે વક્ષસ્કારમાંથી દરેકમાં સાત-સાત છે. માલ્યવમાં ૯ भने विधुरमा ८ प्रमाणे पुस ८६ १३४२ टूटी थाय छ, 'तिण्णि छलुत्तरा वेयद्ध कूडसया' ३०१ वैतादय छे. ते ॥ प्रभारी छे-भरत भने रवतन तेभ qिx. ચાના ૩૪ વૈતાઢામાંથી દરેકમાં ૯-૯ ફૂટે આવેલા છે. આમ સર્વ મળીને ૩૦૬ થઈ જાય છે. વૃત્ત વૈતાઢયોમાં ફૂટને સર્વથા અભાવ છે. એથી વૈતાઢય સૂત્રમાં દીર્ઘ એવા વિશેષણે આપવામાં આવ્યા નથી. જે વિશેષણ હોય છે તે અન્ય ત્યાવર્તક હોય છે. અહીં વ્યાવને અભાવ છે, એથી તેનું ઉપાદાન વ્યર્થ થઈ જાય છે. એથી જ વિશેષણ આપवामां याद नथी. 'णव मंदरकूडा पण्णत्ता' भे२पत ५२ न टूटा वा छे. मे અવ ફૂટે નન્દનવનગત અહીં ગ્રાહા થયા છે. ભદ્રશાલવનગત દિગહસ્તિકૂટ ગ્રાહ્ય થયેલા
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जम्बूडीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
पष्टानि - सप्तपष्यधिकानि चत्वारिशतानि भवन्तीति आख्यातं मया अन्यैश्च तीर्थंकरैरिति । तथाहि - पद्मञ्चाशद् ५६ वर्षधरकूट (नि, पण्यवति ९६ क्षारकूटानि, पडधिकानि त्रीणिशतानि ३०६ वृत्तवैताढ्यकूटानि नव ९ मन्दरकूटानि सर्व संकलनया ४६७ संख्या भवन्ति । सम्प्रति-तीर्थद्वारमाह- 'जंबुद्दीवेणं अंते' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'भरहे वाले' भरतनामके वर्षे क्षेत्रे 'कइ तित्था पत्ता ' कति कियत्संख्यकानि तीर्थानि मागधादीनि प्रज्ञतानि कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तओ तित्था पग्नत्ता' त्रीणि त्रिसंख्यकानि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि - कथितानि तान्येव नामग्राहं दर्शयति- 'तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - ' माग, वरदामेपभासे, मागधं वरदाम प्रभः सम्, तत्र मागधं तीर्थं पूर्वस्यां दिशि समुद्रस्य गङ्गासङ्गमे, वरदामतीर्थ दक्षिणस्यां दिशि, प्रभासंतीर्थ पश्चिम दिशि समुद्रस्य सिन्धुसङ्गमे । 'जंबुद्दीवेगं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खल भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्यद्वीपे इत्यर्थः स्तिकूट ग्राह्य नहीं हुए हैं । क्यों कि ये भूमि प्रतिष्ठित होने के कारण स्वतन्त्रकूट हैं । 'एवामेव सपुच्चावरेण' इस प्रकार ये सप कूट मिलकर ४६७ होते हैं जैसे - ५६ वर्ष धर कूट, ९६ वक्षस्कारकूट ३०६ वृत्तवैताढयकूद, और ९ मन्दर कूट इनका जोड ४६७ होता है ।
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तीर्थद्वारवक्तव्यता
'जंबुद्दीवेणं भंते ! भरहे वासे कइ तित्था पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मागध आदि तीर्थ कितने कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं गोमा ! 'तओ तित्था पण्णत्ता' हे गौतम ! तीन तीर्थ कहे गये हैं । 'तं जहा ' जो इस प्रकार से हैं- 'मागहे वरदामे, पभासे' मागध वरदाम और प्रभास इन में मागध तीर्थ समुद्र का पूर्वदिशा में है जहां की गंगा का संगम हुआ है वरदामतीर्थ दक्षिण दिशा में है और प्रभासतीर्थ पश्चिमदिशा में है जहां की सिन्धु नदी का संगम हुआ है 'जबुद्दीवे णं भंते ! एरवए वासे कइ तित्था
नथी, ठेभट्ठे मेगो भूभिप्रतिष्ठित होवाथी स्वतंत्र टूटी हे 'एवामेव सपुव्यावरेण' मा પ્રમાણે આ ખધા ફ્રૂટ મળીને ૪૬૭ થાય છે. જેમકે ૫૬ વષધર ફૂટા, ૯૬ વક્ષસ્કાર ફૂટા, ૩૦૬ વૃત્તબૈતાન્ચ ફ્રૂટો અને હું મદર કૂટા આમ એ સર્વાંની જોડ ૪૬૭ થાય છે. તીર્થોદ્વાર વક્તવ્યતા
'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भरहेवासे कइ तित्था पण्णत्ता' हे लत! या भ्यूद्दीच नाभः द्वीपभां भागध वगेरे तीर्थो भेटला हेवामां आवे छे ? भवाणसां प्रभु हे छे. 'गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता' हे गौतम | भभु तीर्थो वामां आवेला छे. 'तं जहा ' ? 'माग वरदामे, पभासे भागध, वरहाम भने प्रभास भा भागध तीर्थ समुद्रनी पूर्व दिशाभां આવેલ છે. જ્યાં ગંગાના સગમ થયેલા છે. વરદામ તીથ દક્ષિણદિશામાં આવેલ છે અને
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प्रकाश का टीका-षष्ठोवक्षस्कार सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७७३ "एरवए वासे' ऐरवते वर्ष एतन्नामके क्षेत्रे 'कइ तित्था पन्नत्ता' कति-कियत्संख्यकानि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि, तत्र तीर्थानि चक्रवर्तिनां स्वस्वक्षेत्रसीमापुरसाधनाथ महाजलावतरण स्थानानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तो तित्था पन्नत्ता' त्रीणि-त्रिसंख्यकानि तीर्थानि महाजलास्तरण स्थानानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि, तान्येवनामग्राहं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'मागहे वरदामे पमासे मागधं वरदाम प्रभासम्, तत्र-मागधं तीर्थ पूर्वस्यां समुद्रस्य रक्तानदी सङ्गमे, वरदामतीर्थ तत्रत्यदिगपेक्षया दक्षिणे, प्रभासं पश्चिमायां रक्तवतीनद्याः समुद्रसङ्गमे इति । 'एवामेव सपुवावरेण' एवमेव सपूर्वापरेण-सर्व संकलनेन 'जंबुढोवे णं भंते ! दीवे जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे 'महाविदेहे वासे महाविदेहे वर्षे 'चकवटि विजए' चक्रवत्ति विजये 'कइतित्या पन्नत्ता' कति-कियरसंख्यकानि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-पोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे पण्णत्ता' हे भदन्त ! जंबूद्वीप नामके द्वीप में वर्तमान ऐरवत क्षेत्र में कितने तीर्थ कहे गये हैं ? चक्रवर्तियों के अपने अपने क्षेत्र की सीमाओं के देवों को वश में करने के लिये जो महान जलावतरण स्थान होते हैं वे तीर्थ है ऐसे तीर्थ ऐरक्त क्षेत्र में कितने हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता' हे गौतम ! ऐश्वत क्षेत्र में तीन तीर्थ है 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं 'मागहे वरदामे पभासे' मागध, वरदाम और प्रभास इनमें मागध नामका जो तीर्थ है वह समुद्र की पूर्व दिशा में है जहां रक्तानदी का संगम हुआ है वरदामतीर्थ दक्षिणदिशा में है, प्रभास तीर्थ पम्धिमदिशा में है जहां पर रक्तवती नदी का संगम हुआ है । 'एवामेव ल पुच्चावरेण जंबुदीचे णं मंते,दीवे महाविदेहे वासे चक्कवधि विजए कह तित्था पण्णसा' इस तरह सव तीर्थों की संख्या जम्बुद्धीप नामके इस द्वीप में १०२ होती है हे भदन्त ! इस जंबूद्धीप प्रभासतीय पश्चिमाहिशामा मात्र छ. या सिन्धु नहीनसगम थयेही छ 'जंबुद्दीवेणं भंते ! एरवए वासे कइतित्था पग्णत्ता' महत ! दीप नाम बीमा पतमान भरपत ક્ષેત્રમાં કેટલા તીર્થો કહેવામાં આવેલા છે; ચક્રવતિઓના પિત–પિતાના ક્ષેત્રની સીમાઓના દેવોને વશમાં કરવા માટે જે મહાન ચલાવતરણ સ્થાને હેવ છે તે તીર્થો છે. એવા તીર્થો मरवत क्षेत्रमा सा छ १ मे ना i प्रभु ४९ छ–'गोयमा ! तओ तिःथा पण्णत्ता' 3 गौतम ! भरत क्षेत्रमा नाय तीर्था छ. 'तं जहा' ते मा प्रभार छ-'मागहे वरदामे पभासे' માગધ, વરદામ અને પ્રભાસ એમાં જે માગધ નામક તીર્થ છે તે સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં આવેલ છે. કે જ્યાં રક્તા નદીનો સંગમ થયેલ છે વરદામતીર્થ દક્ષિણદિશામાં આવેલ छ. प्रभासतीय पश्चिममा छ. न्यो २४तावती नही संगम येतो छ. 'एवामेव सपुवा वरेण जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे महाविदेहे वासे चकिवट्टि विजये कइतित्था पण्णत्ता' मा પ્રમાણે બધા તીર્થોની સંખ્યા જંબુદ્વીપ નામના આ દ્વીપમાં ૧૦૨ થાય છે. હે ભદન્તા
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे गौतम !' तो तित्था पन्नत्तात्रीणि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा-मागहे वरदामे पमासे' मागधं वरदाम प्रभासम्, तत्र पूर्वस्यां शीतायाः गङ्गासङ्गमे, मध्यगतं वरदामतीर्थ, पश्चिमायां शीतोदवायाः संगमे प्रभासं तीर्थपिति । 'एवामेव सपुब्बावरेण जंबुद्दीवे दीवे एगे वि उत्तरे तित्थसए भवतीति मक्खायं' एवमेव-यथोक्तप्रकारेण सपूर्वापरेण पूर्वापर संकलनेन एकं धुत्तरं
यधिकमेकं तीर्थशतं भवतीति मया अन्यैश्व दीर्थङ्कर राख्यातं कथितमिति । तथाहिचतुस्त्रिंशद् विनयेषु प्रत्येकं त्रीणि त्रीणितीर्थानि भवन्ति सर्व संकलनया द्वयधिकशतमेकंतीर्थानामिति ।
सम्प्रति श्रेणिद्वार दर्शयितुं प्रश्नयनाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया विज्जाहरसेढीयो पन्नत्ताओ' कियत्य:-कियत्संख्यकाः विद्याधर शेणयः, तत्र श्रेणयो विद्याधराणामावासभूता वैत त्यानां पूर्शपरोदध्यादिपरिच्छिन्ना आयतमेखलाः ताः संख्यया कियत्यो अवन्ति, तथा में जो महाबिदेह क्षेत्र है और चक्रवर्ती विजय है उसमें कितने तीर्थ है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! तओ नित्था एण्यता' हे गौतम ! चक्रवर्ती विजय में तीन तीर्थ हैं 'तं जहा' जैसे-मागहे वरदामे, पभासे' मागध, घरदाम
और प्रभास पूर्व दिशा में शीता के गङ्गा संगम में भागधतीर्थ है वरदामतीर्थ दक्षिणदिशा में है और प्रभासतीर्थ शोतोदा का जहां संगन हुआ है वहाँ पश्चिम दिशा में हैं। इस तरह जम्बूद्वीप में कुल सब मिलाकर १०२ तीर्थ हो जाते हैं । ऐसा मैने और अन्य तीर्थकरों ने कहा है तात्पर्य यही है कि ३४ विजयों में से प्रत्येक चिज में तीन २ तीर्थ होते हैं इस तरह ये १०२ तीर्थ हो जाते हैं।
'जंबुद्दोवे भंते ! दीये केवइया विजाहरलेढीओ केवड्या आभिओगसेढीओ पण्णताओ' हे भदन्त ! जम्बूलीप नाम के इस द्वीप में कितनी विद्या આ જંબૂનીપમા જે મહાવિદેહ ક્ષેત્ર છે અને પવતી વિજય છે તેમાં કેટલા તીર્થો છે? सना पाममा प्रमुई छ-'गोरमा । तओ तित्था पण्णत्ता' हे गौतम ! यवती वियमi त्र तीर्था छ. 'तं जहा' र 'मागहे, वरदामे, पभासे' ॥ध, राम अने प्रयास પૂર્વ દિશામાં શીતાના ગગા સંગમમાં માગધર્થ છે. વરદામતીર્થ દક્ષિણ દિશામાં છે અને પ્રભાસતીર્થ શીતેદાને જ્યાં સંગમ થયેલે છે ત્યાં શ્ચિમદિશામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે જંબૂઢીપમાં કુલ મળીને ૧૦૨ તીર્થો થઈ જાય છે, એવું મેં અને બીજા તીર્થકરોએ કહ્યું છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ૩૪ વિજેમાંથી દરેક વિજયમાં ત્રણ-ત્રણ તીર્થો આવેલા છે. આ પ્રમાણે આ બધા ૧૦૨ તીર્થો થઈ જાય છે.
'बुद्दीवेणं भंते । वे केवइया विजाहरसेढीओ फेवइया, आमिओगसेढीओ पण्णજાગો હે ભદન્ત! જંબૂઢીપ નામક આ દ્વીપમાં કેટલી વિદ્યાધર શ્રેણીઓ અને કેટલી
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प्रकाशिका टोका-षष्ठोवक्षस्कार सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम्
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कियत्य आभियोग्यत्रेणयथ प्रज्ञता : - कथिता इति प्रश्न', भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि 'ntent' हे गौतम! 'जंबुडीवे दीवे अठसट्टी विज्जाहरसेढीओ' जम्बूद्वीपे द्वीपे - जम्बूद्वीप नामक द्वीपे अष्टष्टि: विद्याधर श्रेणयः, प्रज्ञप्ताः तथा - 'अहसडी अभिभोग सेढीओ पण्णत्ताओ' अष्टपष्टिराभियोग श्रेणयः प्रज्ञप्ताः तत्र विद्याधरश्रेणयोऽष्टपष्टिः विद्याधरावासभूता चैता दयानां पूर्वारसमुद्रपरिक्षिप्ता आयतमेखला भवन्ति, चतुर्विंशत्यपि देताढयेषु दक्षिणतउत्तरतश्चैकैकश्रेणी सद्भावात्, तथैव अष्टपष्टिः श्रेणय अभियोग्यानां भवन्ति, 'एवामेत्रसव्वावरेणं जंबुढीचे दीवे छत्तीस सेटिसए भवतीति मक्खाय' एवमेव सपूर्वापरेण - पूर्वापर संकलनेन जम्बूद्वीपे द्वीपे पट्त्रिंशत् श्रेणीशतम्-पत्रिंशदधिकश्रेणीनां शतं भवतीति आख्यानम्, मया - वर्द्धमानस्वामिना तथाऽन्यैरपि आदिनाथ प्रभृति तीर्थकरैरिति ।
सम्प्रति- अष्टमं विजयद्वारमाह- 'जंबुद्दीवेणं भंते!' इत्यादि । 'जंबुद्दीवेणं भंते दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्यवर्त्ति जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया चकवट्टि धर श्रेणियां और कितनी अभियोग्य श्रेणियां कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोमा ! जंबुद्दीचे दीवे अट्ठसट्ठी विजाहरसेढीओ अडसडी अभिओगसेढीओ पण्णत्ताओ' हे गौतम! जम्बूद्वीप नामके द्वीप में अडसठ विद्याधर श्रेणियां कही गई है - ये विद्याधर श्रेणियां विद्याधरों के आवास स्थान रूप हैं एवं वैताढ्यों के पूर्व अपर उधि आदि से ये परिच्छिन है घिरी हुई हैं तथा जैसी मेखला आयत होती है वैसी आयत ये हैं । ३४ वैतादयों में दक्षिण में और उत्तर में एक एक श्रेणि है इसी तरह से अभियोग्य श्रेणियां भी ६८ हैं । 'एवामेव सपुव्यावरेणं जंबुद्दीवे दीवे छत्तीस सेढिसए भवतीति मक्खार्थ' इस तरह जम्बूद्वीप में सब श्रेणियां मिलकर १३६ हो जाती है ऐसा तीर्थंकर प्रभुओं का कथन है ।
विजयद्वारकथन - 'जंबुद्दीवे दीवे केवइया चक्कवहि विजया केवहयाओ मालियोग्य श्रेणीमा वामां आवेली छे ? भेना वामभां अलु हे छे - 'गोयमा ! जंबु दीवे दीवे अट्ठसट्ठी विज्जाहरसेढीओ अट्ट-सट्टी आभिओग सेढीओ पण्णत्ताओ' हे गौतम! જમ્મૂદ્રીપ નામક દ્વીપમાં ૬૮ વિદ્યાધર શ્રેણીઓ કહેવામાં આવેલી છે. એ નિદ્યાધર શ્રેણીઓ વિદ્યાધરાના આવાસસ્થાન રૂપ છે તેમજ વૈતાઢયોના પૂર્વી અપર ઉદધિ વગેરેથી એ પરિચ્છિન્ન છે—આવેષ્ટિત છે, તેમજ જે પ્રમાણે મેખલા આયત હેાય છે, તે પ્રમાણે જ એ પણ આયત છે. ૩૪ વૈતાઢચોમાં દક્ષિણમાં અને ઉત્તરમાં એક-એક શ્રેણી છે. આ પ્રમાણે मालिशग्य श्रेणीमा प ६८ छे. 'एवामेव सपुव्त्रावरेणं जंबुद्दीवे दीवे छत्तीसं सेढिसए भवतीति मक्खायं' या प्रमाणे भ्यूद्रीपमां मधी श्रेणीओ भजीने १३६ थाय छे. येवु तीर्थ ४२ असुनुं ¥थन छे.
विनयद्वार थन -' जंबुद्दीवे दीवे केवइया चक्कवट्टि विजया केवइयाओ रायहाणीओ
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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे
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विजया' कियन्तः - कियत्संख्यकाः चक्रवर्त्तिनां विजयाः प्रज्ञप्ताः -- कथिताः, तथा 'केवइयाओ रायहाणीओ' कियत्य:- कियत्संख्यकाः तमिस्रा गुहाः - अन्धकारयुता गुहाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः, ''केवइया खंडप्पवायगुहा' कियत्य:- कियत्संख्यकाः खण्डप्रपातगुहाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः, तथा - 'केवडया कयमालया देवा' कियन्तः कियत्संख्यकाः कृतमालकाः तत्र कृता संपादिता माला शरीरे विशेषरूपे गयैस्ते कृतमालकाः तादृशाश्च देवा जम्बूद्वीपे कियन्तः प्रज्ञप्ता, तथा'hase मालया देवा' कियन्तः कियत्संख्यकाः नक्तमालकाः, तत्र नक्तं-रात्र संपादितमाला विभूषणा देवाः कियन्तः प्रज्ञताः, तथा - 'केवइया उससकूडा पन्नत्ता' कियन्तः कियत्संख्यकाः ऋषभकूटनामकाः पर्वताः प्रज्ञप्ताः कथिताः, इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दीवे दीवे चोत्तीसं चकवट्टिविजया पश्नत्त' जम्बूद्वीपे द्वीपे - सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे चतुस्त्रिंशत् - चतुस्त्रिंशत्संख्यकाः चक्रवर्त्तिविजयाः प्रज्ञप्ताःकथिताः, तत्र द्वात्रिंशत्संख्यका महाविदेहे चक्रवत्ति विजयाः, द्वौच विजयौ भरतैरवत क्षेत्रयोः ताशद्वयोरपि क्षेत्रयोः चक्रवर्त्ति विजेतव्य क्षेत्रखण्डरूपत्वेन चक्रवर्त्तिविजयशब्दवाच्यत्वस्य सत्त्वादिति । तथा - 'चोचीसं रायहाणीयो' चतुस्त्रिंशद्राजधान्यः प्रज्ञप्ताः - कथिताः, तथा'चोत्तीसं तमिसगुहाओ' चतुस्त्रिशत् - चतुस्त्रिशत्संख्यकाः तमिस्रा गुहाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः, प्रतिरायहाणीओ केवइयाओ तिमिसगुहाओ केवइयाओ खंडप्पवायगुहाओ, केवइया कमालया देवा, केवइया णहमालया देवा, केवइया उसभकूडा पण्णत्ता ९' हे भवन्त ! इस जम्बूद्वीप नाम के दीप में कितने चक्रवर्ति विजय हैं? कितनी राजधानियां हैं ? किननी तमिस्रा गुहाएं हैं - अन्धकारयुक्त गुहाएं हैं कितनी खण्डप्रपात गुहाएं हैं ? किनने कुन मालक देव हैं कितने नक्त मालक देव हैं और कितने ऋषभकूट हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोमा ! जंबुद्दीवे दीये चोन्तीसं चक्कवहि विजया, चोत्तीसं रायहाणीओ, चोत्तीसं तिमिसगुहाओ चोत्तीसं खंडप्पवायगुहाओ, चोत्तीसं कथमालयादेवा, चोत्ती जहमालया देवा, चोत्तीस उसभकूडा पध्वया पण्णत्ता' हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामके द्वीप में ३४ चक्रवर्ति विजय हैं ३४ राजधानियां हैं, ३४ तमिस्रा केवइयाओ तिमिसगुहाओ, केवइयाओ खंडप्रायगुहाओ, केवइया कयमालया देवा, केवइया
मालया देवा, केवइया उसभकूडा पण्णत्ता' हे लहन्त । सा मंजूदीप नाभः द्वीयभां કેટલા ચક્રવર્તી વિજા આવેલા છે ? કેટલી રાજધાનીએ છે? ફૅટી તમિસા ગુહાઓ છે?—અધકારયુક્ત ગુફાઓ કેટલી છે? કેટલી ખેડ પ્રપાત ગુઢ્ઢાએ છે ? કેટલા મૃતમાલક દેવેશ છે? કેટલા નક્તમાલક દેવા છે? અને કેટલા ઋષભ ફૂટે છે? એના
वाणभां प्रलु उडे हे - 'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोत्तीसं चक्कवट्टि विजया, चोत्तीसं रायहाणीओ, चोत्तीसं तिमिसगुहाओ, चोत्तीसं खंडनवायगुहाओ, चोत्तीसं कयमालया देवा, चोत्तीसं णट्ट मालया देवा, चोत्तीस उसम कूडा पव्वया, पण्णत्ता' हे गौतम! यूद्वीपનામક દ્વીપમાં ૩૪ ચક્રવતી વિજયા આવેલા છે, ૩૪ રાજધાનીએ છે, ૩૪ તમિા
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प्रभाशिका टीका-पष्ठोवक्षस्कारः सू. २ धारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७७७ वैटाढयमेकैकगुडासच्यात्. तथा-'चोत्तीसं खंडप्पनारगुताभो पनत्ताओ' चतुस्त्रिंशत्संख्यकाः खण्ड पातगुहाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, एवम्-'चोत्तीसं कयमालया देवा' चतुस्त्रिंशत्संख्यकाः कृतमालका देवाः प्रज्ञशा:-कथिताः, एवम्-'चोत्तीसं णट्टमालया देवा पन्नत्ता' चतु स्त्रिंशत्सं. ख्यका नक्तमाल क देवाः प्रज्ञशाः, एवम् 'चोत्तोस उसभकूडा पन्धया पन्नत्ता' चतुस्त्रिंशत्संख्यका ऋपभकूटपर्वताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः प्रतिक्षेत्रं चक्रवत्ति दिगविजय सूचकैकसद्भावात्-यद्यपि विजयद्वारे प्रक्रान्ते राजधान्यादि प्रश्नोत्तरसूत्रे उपन्यस्तं तद्राजधान्यादीनां विजयसाध्यत्वाद् विजयप्रकरणे राजधान्यादि प्रश्नोत्तरसत्रे उपन्यस्तम्, इति न क्षतिकरमिति विजयद्वारम् ॥ गुफाएं हैं ३४ खण्ड प्रपात गुफाएं हैं ३४ कृत मालक देव हैं ३४ नमालकदेव हैं और ३४ ही ऋषभकट नामके पर्वत हैं। इनमें महाविदेह में ३२ चक्रवर्ती विजय है और भरत एवं ऐरवत क्षेत्र में दो विजय हैं। भरतक्षेत्र एवं ऐरक्त क्षेत्र ये दोनों क्षेत्र चक्रवर्तियों के द्वारा विजेतव्य क्षेत्र खण्डरूप होने से चक्र. वर्ति विजय शन्द हो जाते हैं। हर एक वताय में एक एक गुहा का सदभाव है इसलिये ३४ तमिस्रा गुहाएं कही गई है । हर एक क्षेत्र में चक्रवर्ती के दिग्विजय के सूचक एक २ ऋषभकूट पर्वत है। इसलिये ३४ ऋषभकूट नामके पर्वत कहे गये हैं। यद्यपि यहां विजय द्वारका प्रकरण चल रहा है इस में राजधानी आदि विषय प्रश्न सत्र में और उत्तर मूत्र में जो उपन्यस्त किया गया है वह उनकी राजधानियां आदि सब विजय साध्य है इस कारण विजय प्रकरण में राजधानियां आदि विषय प्रश्न सूत्र में और उत्तर सूत्र में उपन्यस्त टुभा है । विजप द्वार समाप्त
हृदवारवक्तव्यता 'जंबुद्दीवेणं भते ! दीवे केवइया महदहा एण्णत्ता' हे भदन्त ! इस जंबद्वीप ગુફાઓ છે ૩૪ ખંડપાત ગુફાઓ છે. ૩૪ કૃતમાલક દે છે. ૩૪ નટ્ટ માલક દે છે અને ૩૪ વભકૂટ નામક પર્વત છે. એમાં મહાવિદેહમાં ૩૨ ચક્રવતી વિજયે છે અને ભરત તેમજ એરવત ક્ષેત્રમાં બે વિજયે આવેલા છે. ભરતક્ષેત્ર તેમજ અરવતક્ષેત્ર એ બને ક્ષેત્રે ચક્રવર્તિઓ વડે વિજેતવ્ય ક્ષેત્રખંડ રૂપ હોવાથી ચક્રવતિ વિજય શબ્દ થાય છે. વિનાક્યમાં એક–એક ગુફાને સદુભાવ છે. એટલા માટે ૩૪ તમિસા ગુફાઓ કહેવામાં આવેલી છે. દરેક ક્ષેત્રમાં ચક્રવતી દિગ્વિજયને સૂચક એક–એક કષભકૂટ પર્વત છે. એથી ૩૪ ભકૂટ નામ: પર્વતે આવેલા છે. જોકે અત્રે વિજયદ્વારનું પ્રકરણ ચાલી રહ્યું છે. એમાં રાજધાની વગેરે વિષ પ્રશ્ન સૂત્રમાં અને ઉત્તર-સૂરમાં જે ઉપન્યસ્ત કરવામાં આવેલ છે, તે તેમની રાજધાનીઓ વગેરે બધું વિજય સાધ્ય છે. આ કારણથી વિજય પ્રકરણમાં રાજધાની વિગેરે વિષયે પ્રશ્નસૂત્રમાં અને ઉત્તર સૂત્રમાં ઉપન્યસ્ત થયેલ છે. વિજયદ્વાર સમાપ્ત.
હૃદદાર વક્તવ્યતા 'जंबुद्दीवेणं अंते ! दीवे केवइया महदहा पण्णत्ता' ' ' ' .मुदीप नाम:
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काम्पटीपमतिको ___ सम्प्रति-नवमं हदद्वारमाह-'जंबुदीवेणं शो' इत्यादि, 'जंबुढीवेणं भने ! दीये' जम्बू. द्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्यनम्बृद्वीपे इत्यर्थः 'केवडया महता पनना' कियन्त:कियत्संख्यका महाहदाः प्रज्ञप्ताः-कथिता इति प्रश्नः, 'भगाना - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सोलसमहदहा पन्नता' पोडश मह हुदाः-पोडशसंख्याः गहाहदाः प्रज्ञप्ताः कथिताः तत्र वर्षधराणां मध्ये पड्महाहदास्नथा शीता गीतोदः प्रत्येक प्रत्येक पञ्च पञ्च सर्व संकलनया पोडश महाहदा भवन्तीति हदद्वारम् । ___ सम्प्रति-दशमं नदीद्वारमाह-जंबुट्टी वेणं भने! दीव' जम्वृद्धीपे खलु भदन्न ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'कैनइया महाणई भी वासहरप्पयाहामो पननाओं कियत्य:कियत्संख्यका महानयो वर्परप्रवाहाः, तत्र वर्षसरहदेभ्यः प्रबहन्ति-निर्गच्छन्तियास्ता वर्पधरप्रवाहाः, अन्यथा कुण्डप्रवाहामपि महानदीनां वर्पनरनितम्यस्थ कुण्डेभ्यो जायमानतया नामके द्वीप में महाहूद किनने कहे गये हैं ? इनके उत्तर में प्रभु ने कहा है'गोयमा ! सोलस महदहा पण्णत्ता' हे गौतम ! यहां १६ नहाहद कहे गये हैं। इनमें ६ महाहद ६ वर्षधर पर्वतों के और शीता एवं गीतोदा महानदियों के प्रत्येक के ५-५ कुल मिलकर ये महाहद १६ हो जाते हैं।
महानदी नामकदशवेंदार की वक्तव्यता 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवझ्या गईओं वासदरप्पवाहाओ एण्णत्ताओ' हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके दीप ये कितनी महानदियां जो वर्षधर के हदों से निकली हैं कही गई है ? यहां जो 'वर्षधर प्रवाह' ऐसा विशेषण महानदियों का कहा गया है वह कुण्डों से जिनका प्रवाह बढ़ता है पेनी कुण्ड प्रवाहवाली महानदियों के व्यवच्छेद के लिये दिया गया है ये कुण्ड वर्षधर के नितम्बस्थ होते है उनसे भी ऐसी महानदियां निकली हैं अतः उनके सम्बन्ध में गौतम दीपभा महासा वामां माया छ ? मनापामा प्रा -गोयम ! सोलसम हद्दहा पण्णत्ता' है गौतम! मी १६ भडाइ। आमा माया छे. सभा १ मा ૬ વર્ષધર પર્વતના અને શીતા તેમજ શીદા મહાનદીઓના દરેકના ૫-૫ આમ બધા મળીને એ મહાહુ ૧૬ થઈ જાય છે.
મહાનદીનામક દશમાદ્વારની વક્તવ્યતા 'जंबुद्दीवेणं भंते । दीवे केवइया णईओ वासहर पवाहाओ पण्णत्ताओ' Deraयू. દ્વિપ નામક દ્વીપમાં કેટલી મહાનદીઓ કે જેઓ વર્ષધરના દેથી નીકળી છે કહેવામાં આવેલી છે. અહીં જે વર્ષધર પ્રવાહ એવું વિશેષણ મહાનદીઓનું કહેવામાં આવ્યું છે. તે કુંડામાંથી જેમને પ્રવાહ વહે છે એથી કંડ પ્રવાહવાળી મહાનદીઓના વ્યવદ માટે આપવામાં આવેલ છે. એ કુડે વર્ષધરના નિતંબસ્થ હોય છે. એમનાથી પણ એવી મહાનદીઓ નીકળી છે, એથી એમના સંબંધમાં ગૌતમસ્વામીએ મન નથી પરંતુ પ,
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ता अपि वर्षरप्रवाहाः स्युः, एतादृश्यो महानद्यः कियत्यः प्रज्ञताः, तथा - ' - 'केवइयाओ कुंडवहाओ महाणईओ पात्ता' कियत्यः - कियत्संयकाः कुण्डमवाहाः, तत्र कुण्डेभ्यो वर्ष - घर नितम्बस्य कुण्डेभ्यः प्रवहन्ति-निर्गच्छन्ति यास्ता महानचः कियत्यः प्रज्ञप्ताः - कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जंबुडीवे दीवे चोहस महाणईओ वासहरप्पा को जन्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः चतुर्द्दशमहानद्यः चतुर्दश संख्या महानद्यो वर्षघरहृदप्रवाहाः प्रज्ञताः कथिताः, तथा - 'छावतारं महाणईओ कुंडप्पनवाओ' पट्सप्ततिः - पट्सप्तति संख्यका महानद्यः कुण्डप्रवादाः कुंडेभ्यः प्रवहनशीलाः प्रज्ञता :- कथिताः, तत्र चतुर्दश महानयो वर्षधर हूदप्रभवाः भरतगङ्गादिकाः प्रतिक्षेत्रं द्वि द्विभावात् तथा कुण्डप्रभश पटसप्तति महानद्यः, तत्र - शीता या उत्तरेष्वष्टम् विजयेषु शीतोदाया याम्येषु अष्टसु विजयेषु चैकैकभावेन पोडशगङ्गाः पोडश सिन्धवश्च तथा शीताया स्वामी ने प्रश्न नहीं किया है किन्तु पद्म, महापद्म आदि जो हूद हैं उनसे जिनका उद्गम हुआ है ऐसी नदियों की संख्या कितनी है यह जानने के लिये यह प्रश्न किया गया है तथा केवइयाओ कुंडप्पवाहाओ महाणईओ पद्मन्ताओ' जो वर्षधर के नितम्वस्थ कुण्डों में से निकली हैं ऐसी महानदियां कितनी हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोगमा ! जंबुद्दीवे दीये चोदस महाणईओ वासहरप्पवाहाओ' हे गौतम ! इस जंबुद्वीप में जो वर्षधर पर्वतस्थ हूदों से महानदियां निकली हैं ऐसी वे महानदियां १४ हैं तथा - 'छावत्तरं महाणईओ कुण्डप्पवाहाओ' जो महानदियां कुण्डों से निकली हैं वे ७६ हैं । १४ महानदीयों के नाम गंगा सिन्धु आदि है । हरएक क्षेत्र में ये दो दो बहती है भरतक्षेत्र में गंगा सिन्धु ये दो महानदियां बहती है तथा कुण्ड प्रभवा जो ७६ महानदियां हैं उनमें शीता महानदी के उत्तर में आठ विजयों में और शीतोदा के याम्य आठ विजयों में एक, एक कुण्डप्रभचा महानदी बहती है इससे १६ गंगा
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મહાપદ્મ, વગેરે જે હૃàા છે તેમનામાંથી રેમનું ઉદ્ગમ થયુ છે, એવી નદીઓની સ ંખ્યા हैटसी छे, मे लक्ष्या सारे नहीं था प्रश्न ४२मां आवे छे तेभन के इवाओ कुंडप्पवाहाओ महाणईओ पन्नत्ताओ' हे वर्ष धरना निम्भस्थ हुमांथी नाणे छे, देवी महा नहीओो डेटसी है ? सेना त्रासां अलु हे छे- 'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोहस महणईओ श्राप्तहरप्पवाह्नाओ' हे भातभ ! या मूढी पसले वर्ष पत्रस्थ होथी महानहीओ नीरजी छे, देवी ते महानही १४ हे. ते 'छावत्तरिं महाणईओ कुण्डप्पवाहाओ' ? भहाનદીએ કુંડમાંથી નીકળી છે તે ૭૬ છે. ૧૪ મહાનદીએના નામેા ગ ંગા સિંધુ વગેરે છે. દરેક ક્ષેત્રમાં એ મહાનદીએ ખખે વડે છે. ભતક્ષેત્રમાં ગંગા અને સિધુ એ એ મહાનદીએ વડે છે, તેમજ કુડપ્રભવા જે ૭૬ સડાનીએ છે તેમનામાં શીતા મહાનદીના ઉત્તરમાં આઠ વિજયામાં અને શીતાદાના ચામ્ય આઠે વિજયામાં એક-એક કું ડપ્રભવા
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जम्बूद्वीपप्रतिसूत्र याम्येष्वष्टसु विजयेषु शीतोदाया उत्तरेषु अष्टछ विजयेषु चकैकमावेन पोडग रक्ताः पोडश रक्तवत्यश्च, एवं चतुःपष्टिः, द्वादश च पूर्वोक्ता अन्तर्नयः सर्व सङ्कलने पटनप्ततिरिति, कुण्डप्रभवानां तु शीता शीतोदापरिवारभूतत्वेनासंभवदपि महानदीत्वं स्वस्वविजयगतचतुर्दश सहस्रपरिवारसंपयुक्तत्वेन महानदीत्वमिति, 'एवामेव सपुष्चावरेणं जंबुढीव दीवे णइति महाणईओ भवंतीति मक्खायं' एवमेव-पूर्वकथितप्रकारेण सपूर्वापरेण सर्वसंकलनया जम्बू. द्वीपे सर्वद्वीपमध्यद्वीपे इत्यर्थः नवति महानघो भवन्तीत्याख्यातं मया तथा अन्यैश्च तीर्थ
रैरिति । 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे 'भरह एरवरस कइमहागई शो पन्नत्ताओ' भरतैरवनवपु कति-कियत्संख्यका महानद्यः प्रज्ञप्ता:-कविता-इति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि महाणईभो पमत्तानो'
और १६ सिन्धु नदियां कहती हैं । तथा शीतोदा के याम्य आठ विजयों में एवं शीतादा के उत्तर के आठ विजयों में एक एक नदी बहने से-१६ रक्ता और १६ रक्तवती नदियां बहती हैं 'इस तरह ये ६४ तथा १२ पूर्वोक्त अन्तनदियां ये सय मिलकर ७६ कुण्डप्रभवा महानदियां हैं । यद्यपि कुण्डप्रभवा नदियों में शीता शीतोदा के परिवारभूत होने से महानदीत्व संवित नहीं होता है परन्तु फिर अपने अपने विजयगत चतुर्दश सहस्र नदियों के परिवारभूत होने से उनमें महानदीत्व बन जाता है । 'एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे गउति महाणईओ भवंतीति मक्खायं-इस तरह इस जम्बूलीप नामके द्वीपमें कुल मिलकर ९० महानदियां हैं । ऐसा तीर्थकों का आदेश है।
'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भरहएरवएसु-वासेसु कई महार्णईओ पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीपों जो भरत क्षेत्र एवं ऐरवत क्षेत्र हैं उनमें कितनी महानदियां हैं ? इनके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! चत्तारि महा. મહાનદી વહે છે. એનાથી ૧૦ ગંગા અને ૧૬ સિધુ નદીઓ વહે છે. તથા શીતદાન યામ્ય આઠ વિજેમાં તેમજ શીતેદાના ઉત્ત-ના આઠ વિજમાં એક–એક નદી વહે છે તેથી ૧૬ રક્તા અને ૧૬ રક્તાવતી નદીઓ વહે છે. આ પ્રમાણે ૬૪ તેમજ ૧૨ પૂર્વોક્ત અંતર્નદીઓ આમ બધી મળીને ૭૬ કુડપ્રભવા મહાનદીઓ છે. જોકે કુડપ્રભવા નદીઓમાં શીતા–શી દાના પરિવારભૂત હોવાથી મહાનદીત્વની સંભાવના શક્ય નથી પણ છતાં એ પિત–પિતાના વિજયગત ચતુર્દશ સહુન્ન નદીઓના પરિવારભૂત હેવાથી તેમનામાં મહાન भावी तय छ 'एवामेव सपुव्यावरेणं जंबुद्दीवे दीवे णउति महाणईओ भवंतीति मक्खाय' આ પ્રમાણે આ જ બૂઢીપ નામક દ્વીપમાં બધો મળીને ૯૦ મહ"નદીઓ આવેલી છે એવી तीथ शनी माना छ. ____ 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भरह एरवणसु-वासेसु कई महाणईओ पन.ताओ' 8 मत ! આ જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપમાં જે ભરતક્ષેત્ર તેમજ ચરવત ક્ષેત્ર છે તેમાં કેટલી મહાનદીઓ
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प्रकाशिदा टीका-पष्ठीवक्षस्कारः सूं. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् चतस्त्र:-चतुः संख्यकाः महानद्यः प्रज्ञप्ता:-कथिताः 'तं जहा' तद्यथा-'गंगा सिंधूरता स्तबई' गङ्गा सिन्धुः रक्ता रक्तवती च 'तत्य णं एनमेगा महाणई तत्र-तासु नदीषु मध्ये एकैका महानदी 'चउद्दसहि सलिलासहस्सेहि चतुर्दशभिः सलिलासह चतुर्दशावान्तर्नदी सहस्त्रैः 'समग्गा समग्रा परिवृता युक्ता 'पुरथिमपञ्चत्थिमेणं' पूर्वपश्चिमेन 'लवणसमुई समुप्पेई' लवणसमुद्रं सनुपसर्पति, अर्थात् एता महानद्यः चतुर्दशनदीसहस्त्रैः परिवारैः संमिलिताः पूर्वसमुद्रं पश्चिमसमुद्रं च प्रविशन्तीति ।। ____ अत्र भरतैरवतयो युगपद्ग्रहणं तत्समानक्षेत्रत्वात् ज्ञेयम्, तत्र भरतक्षेत्रे झामहानदी पूर्वलवणसमुद्रं प्रविशति, सिन्धुश्च महानदी पश्चिमलवणसमुद्रं प्रविशति, तथा ऐरवतक्षेत्रे रक्ता महानदी पूर्वसमुद्रं प्रविशति, रक्तवती महानदी पश्चिम समुद्रं प्रविशतीति ॥ ___ 'एचामेव सपुब्बावरेणं' एवमेव-कथितप्रकारेण सपूर्वापरेण-सर्वसंकलनेन 'जंबुडीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्व द्वीपमध्यजम्बूद्वीपे 'भरहेरचएमु गमु' भरतैरवतवर्षयोः गईओ षण्णत्ताओ' हे गौतम ! चार महानदियां हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं 'गंगा सिन्धु, रत्ता रत्तबई' गङ्गा, सिन्धु, रक्ता और रक्तदनी 'तत्थणं एगलेगा महागाई चउद्दसहि सलिलासहस्टेहि समगा पुरथिमपच्चरिथमेणं लवमसमुई समप्पेई इनमें एक एक नहानदी १४-१४ हजार अचान्तर नदियों के परिपारवाली है 'तथा पूर्व सनुद्र और पश्चिम लक्षणलनुद्र में जाकर मिली हुई हैं। यहां पर जो भरतक्षेत्र और ऐरक्त क्षेत्र का जो युगात ग्रहण किया गया है वह इन दोनों की समान रचना है इस बातको प्रकट करने के लिये किया गया है भरतक्षेत्र में गंगामहानदी पूर्वलवम समुद्र में निली है और सिन्धु महानदी पश्चिम लवणसमुद्र में मिली है । 'एकामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे भरहेरवएस्तु वालेख छप्पणं सलिलासहस्सा अनीति मक्खायं इस तरह जम्बूद्वीप नामके इस द्वीपमे भरतक्षेत्र और ऐश्वरकी कुल नदियां मिलाकर छप्पन हजार अवान्तर छ ! सेना मा प्रभुई छ-'गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओं' के गौतम । यार महानदीमा छ. 'तं जहा' ते २मा प्रमाणे छे. 'गंगा सिन्धु, रत्ता रत्तवई' मा, सिन्धु, २४ता न्मने २४तरती. 'तत्थ गं एगमेगा महाणई चउद्दसहिं सलिलासहन्ले हिं समग्गा पुरस्थिम्पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ' सभा २४-४ महानही १४, १४ र अवान्तर નદીઓના પરિવારવાળી છે તેમજ પૂર્વસમુદ્ર અને પશ્ચિમ લવણસમુદ્રમાં જઈને મળે છે. અહીં જે ભરતક્ષેત્ર અને અરવત ક્ષેત્રનું નામ જે યુગપનું ગ્રહણ કરવા મા આવ્યું છે તે આ બનેની સમાન રચના છે. એ વાતને પ્રકટ કરવા માટે કરવામાં આવેલ છે. ભરતક્ષેત્રમાં ગંગા મહાનદી પૂર્વ લવણસમુદ્રમાં મળી છે અને સિધુ મહાનદી પશ્ચિમ લવણસમુદ્રમાં भणी छे. 'एवामेत्र सपुवावरेणं जंबुद्दीचे भग्हेभरवण्सु वासेसु छप्पणं सलिलासहस्सा भवंतीति मरखाय' मा प्रभारी दी५ नाम बीपमा सरतक्षेत्र गाने मरतक्षेननी मधी नही।
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ઉંટર
अस्पत
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'छप्पण्णं सलिलासहस्सा भवतीति मक्खायं' पट्पञ्चाशत् सलिला सहस्राणि आवान्तरनयः तासां सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया तथाऽन्यैव तीर्थकरैरिति । 'जंबुद्धीचे णं भने ! दीव' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे 'हेमवय हेरण्णवएस वासेमृ' हैमवत हैरण्यवयोर्वर्पयो मध्ये 'कई महाईओ पत्ताओ' कति कियत्संख्यका महानद्यः प्रज्ञप्ताः - कविता इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'चत्तारि महाणईओ पनत्ताओं' चतम्रो महानद्यः प्रज्ञप्ताः - कथिताः, 'तं जहा ' - तद्यथा - 'रोहिना रोहितंसा सुवणकला रूपकृला ' रोहितानाम्नी महानदी प्रथमा १, रोहितांगा महानदी द्वितीया २, सुवर्णकृत्या महानदी तृतीया ३, रूप्यकूला महानदी चतुर्थी ४, 'तत्थणं एगमेगा महाणई' तत्र खलु एकैका महानदी 'अहावीसाए अहावीसाए सलिलासहस्सेहि' अष्टाविंशत्या अष्टाविंशत्या सलिला सहस्रैः अत्रान्तरनदीसहस्रै रित्यर्थः 'समग्रा परिपूरिता युक्ता इति यावत् इत्थंभूता सती 'पुरत्यिम पच्चत्थिमेगं लवणसमुदं समप्पेइ' पूर्वपत्रिमेन लवणमुद्रं समुपसर्पति प्रविशती - त्यर्थः : तत्र हैमत्रतक्षेत्रे रोहिना महानदी सपरिवारा पूर्वन्वणमुद्रं प्रविशति तत्रैव क्षेत्रे रोहितांनदियां है 'जंबुद्दोषेणं अंते । दीवे हेमवय हेरण्णव बासेस कई महाणईओ पन्नताओ' हे भदन्त ! इस जंबूद्वीप नामके छीपने जो हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र हैं - उनमें कितनी महानदियां हैं ? इसके उत्तर से प्रभु कहते है- गोयमा । चत्तारि महाणईओ पन्नताओ' हे गौतम! इनमें चार महानदियां है 'तं जहा ' उनके नाम इस प्रकार से है - रोहिला, रोहितंसा सुवण्णकुला' रूपकूला नत्थ एगमेगा महाणई अहावीलाए २ सलिलालहस्तेहि' इनसे एक एक महानदीकी परिवारभूत अवान्तर नदियां २८ हजार २८ हजार है । 'पुरस्थिमपच्चत्थिमेगं लवणसमुद्दं समप्पेह' इनमें जो क्षेत्र में रोहिता नामकी महानदी है वह अपनी परिवारभूत २८ हजार अवान्तर नदियों के साथ पूर्व लवणसमुद्र में जाकर मिली है और रोहितांगा महानदी अपनी परिवारभूत २८ हजार नदियों
भजीने यह सुन्दर अवान्तर नहीओ छे, 'जंबुद्दीवेणं अंते ! दीवे हेमबय हेरण्णवसु वासेसु कई महाणईओ पन्नताओ' हे लहन्त ! या मूद्रीय नाम द्वीपसां है पवत હૈ एथवत क्षेत्र छे तेमां टट्टी भहानहीयो भावेसी छे ! सेना नवागमां प्रभु हे छे- 'गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पन्नताओं' हे गौतम! भां थर भह' नही थे। आवेदी छे. 'तं जहा' ते नहीओोना नाभी था अमाशे छे - 'रोहिता, रोहितंसा, सुत्रष्णक्कूला' रोडिता, राडितांसा सुत्रएईमा भने ३० सा. 'तत्थणं एगमेगा महाणई अट्ठावीस ए २ सलिलासहस्सेहि' येभां ४-४ भहानहीनी परिवारभूता भवन्तर नहीओ। २८ र २८ र छे. 'पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं लत्रणसमुदं समप्पेइ' मां मे भवनक्षेत्रमां शद्धिता नाम भहनही छेते પેાતાની પરિવારભૂતા ૨૮ હજાર અવાન્તર નદીએની સ થે પૂર્વ લવણસમુદ્રમા જઈ ને મળે છે અને હતાશા મઠ્ઠાનદી પાતાની પરિવારભૂતા ૨૮ હજાર નદીએની સાથે પશ્ચિમ
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प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् शा महानदी सपरिवारा पश्चिमलवणसमुद्रं प्रविशति, हिरण्यवते क्षेत्रे सुवर्णकूला महानदी सपरिवारा पूर्व लवणसमुद्रं प्रविशति, रूप्यकूला महानदी सपरिवारा पश्चिमलवणसमुद्रं प्रविशतीति । 'एवमेव सपुत्वावरेणं' एवमेव-कथितप्रकारेण सपूर्वापरेण-सर्वसंकलनेन 'जम्वुदीवे दीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'हेमवयहेरण्णवयेसु वासेसु' हैमवतहरण्यवतयो र्वषयोर्मध्ये 'वारमुत्तरे सलिलासयसहस्सं भवतीति मक्खायं' द्वौ दशोतरं - द्वादशसहस्राधिकं सलिलाशत. सहस्रभवान्तर नदीलक्ष भवतीति एकस्या महानद्याः यदा अष्टाविंशतिः सहस्राणि अवान्तर नदीपरिवाररूपाणि तदा चतसृणां महानदीनां संकलने द्वादशसहस्राधिकं नदीलक्ष भवतीत्याख्यातं मया अन्यैश्च तीर्थकरैरिति । 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'हरिवासरम्मगवासेस' हरिवपरम्यकवर्षयो मध्ये 'कइ महाणईओ पन्नत्ताओ' कति-कियत्संख्यका महानद्यः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि महाणईश्रो पन्नत्ताओ' चतस्रके साथ पश्चिम लवण समुद्र में जाकर मिली है। इसी तरह हैरण्यवत क्षेत्रमें जो सुवर्णकूला महानदी है वह अपनी परिवारभूत २८ हजार अवान्तर नदियों के साथ पूर्व लवणसमुद्र में जाकर मिली है और रूप्यकुला महानदी अपनी परिवारभूत २८ हजार अवान्तर नदियों के साथ पश्चिम लवणसमुद्र में मिली है। 'एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे हेमवय हेरण्णवएसु वासेसु वारसुत्तरे सलिलासयसहस्से भवंतीति मक्खायं इस प्रकार से जंबुद्रोप में हैमवत और हैरण्यवत इन दो क्षेत्रों की अपनी अपनी परिवारभूत नदियों की अपेक्षा से १ लाख १२ हजार नदियां हैं। ऐसा मैने और अन्य तीर्थंकरों ने कहा है। 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे हरिवासरम्मगवासेसु कह महाणईओ पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! इस जंबुद्वीप नामके द्वीपमें हरिवर्प और रम्यकवर्ष में कितनी महानदियां कही गई हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! चत्तारि લવણસમુદ્રમાં જઈને મળી છે. આ પ્રમાણે હૈરવત ક્ષેત્રમાં જે સુવર્ણકૂલા મહાનદી છે તે પિતાની પરિવારભૂતા ૨૮ હજાર અવાન્તર નદીઓની સાથે પૂર્વલવણમાં જઈને મળી છે અને રૂકૂલા મહાનદી પિતાની પરિવારભૂતા ૨૮ હજાર નદીઓની સાથે પશ્ચિમ सपासमुद्रमा भणी छे. 'एवामेव सपुष्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे हेमवय हेरण्णवएसु वासेसु बारसुत्तरे सलिलासयसहस्से भवतीति मक्खाय' मा प्रमाणे दीपमां भवत मने २ણ્યવત એ બે ક્ષેત્રની પિત–પિતાની પરિવારભૂત નદીઓની અપેક્ષાએ એક લાખ ૧૨
१२ नहीमा छ. मे में भी तीर्थ रामे ४यु छ. 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे हरिवासरम्मगवासेसु कइ महाणईओ पन्नत्ताओ' महन्त ! मापूदी नाम दीपमा હરિવર્ષ અને રમ્ય વર્ષમાં કેટલી મહાનદીઓ કહેવામાં આવેલી છે? જવાબમાં પ્રભુ કહે P-गोसमा ! तारि भागो पनाको गौतम ! AIR महावामा शावली ,
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শামসি चतुः संख्यका महामयः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तघधा-'हरी हरिकंता नरकता पारीकंता' हरिसलिला महानदी प्रथमा, रिकान्ता महानदी चिनीया, नरकान्तानाम महानदी ती, नारीकान्तान:म्नी चतुर्थी, 'तत्थ णं एगमेगा महाणई' तत्र-तामु नदीपु मध्ये खलु एकैका महानदी हरिसलिला प्रभृतिका, 'छप्पणाए छप्पण्णाए सलिलासहस्से हि' पट्पञ्चाशता षट् पञ्चशता सहसैः 'समग्गा' समग्रा सहिता युक्ता 'पुरस्थिमपञ्चत्यिमेणं लवणसमुह समप्पेइ' पूर्वपश्चिमेन लवणसमुद्रं सपुपपर्पति-गच्छनि 'एवामेव सपुव्यावरण एवमेव यथा वगितप्रकारेण सपूर्वापरेण-पूर्वापरमङ्कलनेन 'जंबुद्दीचे दी।' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'हरियामरम्मगवामेमु' हरिवपाम्प वर्पयो मध्ये 'दो चउवीससयसलिलासयसहस्सा भवंतीति मक्खाय' हूँ चतुर्विशति चतुर्विशत्यधिके द्वे सलिलाशतसहस्रे भवत इत्याख्यातं मया अन्यैश्च तीर्थकरैरिति । 'जंबु. ही वे अंते !' जम्बूद्रोपे खलु भदन्त ! द्वोपे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'महाविदेहे वासे' महाविदेहनामके वर्षे 'कइ महाणईभोपन्नत्तायो' कति-कियत्संख्यका महानद्यः प्रनप्ता:कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दो महाणईओ महाणईओ पन्नत्ताश्रो' हे गौतम ! चार महानदियां कही गह हैं 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-'हरि, हरिकंना, नरकंता णारीकना हरी, हरीकान्ता और नरकांता नारीकान्ता' 'तत्थणं एगसेगा महागई छपए गाए २ सलिलासहस्टेहि समग्गा पुरथिनपच्चस्थिमेणं लबणसमुदं समप्पेइ इनमे एक एक महानदी की परिवारभूला अपान्तर नदियों ५६-५६ हजार हैं और ये पूर्व और पश्चिम लवणसमुद्र में जाकर मिली हुई हैं । 'एचामेव सपुव्यावरेण जंबुद्दीवे दीवे हरिवास रम्लगवासेतु दो चउरीसा सलिलासयसहस्साअवंतीति मक्खायं इस तरह इन चारों महानदियों की परिवारभूत नदियां मिलाकर जवुद्धीप में २ लाख २४ नदियां हैं। 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे महाविदेहे चासे कई महाणईओ पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! इस जम्बूदीप नामके द्वोपमें महाविदेह क्षेत्रमें कितनी महानदियां कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! दो महाणईओ पन्नताओ' हे गौतम ! छ. 'तं जहा' तमना न मा प्रभा छ-'हरि, हरिकता, नरकंता, णारीकता' , 8A sidi, Raids नाNidi. 'तत्थणं एगमेगा महाणई छापण्णाए २ सललसहस्सेहि समग्गा पुरात्थिमपच्चस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ' मेमा ४ महानहानी परिवारभू ।। , અવાનર નદીઓ ૫૬, ૫૬ હજાર છે અને એ પૂર્વ અને પશ્ચિમ લવણસમુદ્રમાં જઈને भजी छे. 'एवामेव सपुवावरेण जंबुद्दीवे दीवे हरिवासरम्मगवासेसु दो चवीसा सलिलासयसहस्सा भवतीति मक्खाय' मा प्रभाए थे यार नहीयानी परिवारसूता नहीमा मलीन . दीपभा २ म २४ M२ नही। छे. 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे महाविदेहे वासे कई 'महाणईओ पण्णत्ताओं' Rad! मादी५ नाम द्वीपमा महाविमा क्षी महानदीमा भावली छ ? सेना पाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! दो महाणईओ पन्नताओं'
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प्रकाशिका टीका- पष्ठोवक्षस्कारः स. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम्
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पनाओ' द्वे - द्विसंख्यके महानद्य प्रज्ञप्ते कथिते इति, ते एव द्वे नदी दर्शयितुमाह- 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'सीयाय सीओयाय' शीता च शीतोदा च, एतन्नाम द्वे महान जम्बूद्वीपे महाविदेहवर्षे प्रवहत इत्यर्थः, 'तन्थ एगमेगा महाणई' तत्र तयोः शीता शीतोदयोर्मध्ये एकैका महानदी 'पंचहि पंचहिं सलिलासयसहस्मेहिं पञ्चभिः पञ्चभिः सलिला सहस्रैः पञ्चभिर्नदीलक्षै रित्यर्थः तथा-'वत्तीसाए य सलिला सहस्सेहिं' द्वात्रिंशताच सलिला - सहस्त्रैः द्वात्रिंशrat as: 'समग्गा' समग्र युक्ता 'पुरत्थिमपचत्थिमेणं लवणसमुद्द समप्पे पूर्वपश्चिमेन लवण समुद्रं समर्पयति- गच्छतीति,
सम्प्रति-सर्वासां नदीनां महाविदेहक्षेत्रगतानां संकलनां दर्शयति- 'एवामेव' इत्यादि, 'एवामेव सपुन्नावरेणं जंतुही वे दी वे महाविदेहे वासे' एवमेव - यथावर्णितप्रकारेण सपूर्वापरेण - पूर्वापर संकलनेन जम्बूद्वीप नामके द्वीपे महाविदेहनामके वर्षे 'दस सलिला सयसहस्सा चउसद्धिं च सलिला सहसा भवतीति मक्खायें' दशसलिलाशतसहस्राणि नदीनां दशलक्षाणि चतुः पुष्टिः सलिलासहस्राणि भवन्तीति मया अन्यैश्व तीर्थकरैराख्यातमिति । सम्प्रति-मन्दर - पर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि कियत्यो नद्यो भन्द्रीति दर्शयितुमाह- 'जंबुद्दीवे णं भंते । दीवे' इत्यादि, 'जंबुद्दीचे णं भंते । दीवे' जम्बूद्वीपे खल्ल भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः दो महानदियां कही गई हैं। 'तं जहा' उनके नाम ये हैं 'सीआसीओआय' एक सीता और दूसरी सीतोदा 'तत्थणं एगमेगा महाणई पंचहिं २ सलिलासय सहसेहिं पत्तीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरस्थि प्रपच्चत्थिमेणं लवणसमुद्द समप्पेडु' इनमें एक एक महानदी की परिवारभूत अवान्तर नदियां ५६ लाख ५६ हजार हैं और ये सब पूर्व और पश्चिम लवणसमुद्र में जाकर मिली हैं ।
अब महाविदेह क्षेत्रगत समस्तनदियों की संकलना प्रकट करने के निमित्त 'वामेव सपुव्वारेण जंबुद्दीचे दीवे महाविदेहे वासे दससलिला सयसहस्सा चउस िच सलिलासहस्सा भवतीति मक्खायें' इस तरह जम्बूद्वीप नामके द्वीप में महाविदेह क्षेत्र में १० लाख ६४ हजार अवान्तर नदियां हैं ऐसा तीर्थकरों हे गौतम | मे भहानही श्री वामां आवे छे. 'तं जहा' तेमना नाभी भी प्रमाणे छे. 'सीआ सीओआय' मे सीता अने में सीतोहा. 'तत्थणं एगमेगा महाणई पंचहि २ सलिला सयसहस्सेहिं बत्तीसाए अ सलिलासहस्से हिं समग्गा पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं लवणसमुहं समापेइ' मेभां - महानहीनी परिवारलूना भवान्तर नहीओ साथ 3२ હજાર છે અને બધી પૂર્વ અને પશ્ચિમ લણુસમુદ્રમાં જઈને મળે છે.
वे महाविड क्षेत्रगत समस्त नहीगोनी सहाना अगर ४२वा भाटे 'एवामेव सपुव्यां वरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे बासे दस सलिला सयसहस्सा चउसट्ठि च सलिला सहस्सा भवतीति मक्खायं' मा प्रमाणे मूद्रीय नाम द्वीपभां महाविदेह क्षेत्रमां १० साथ १४ हुन्नर अवान्तर नही थे। छे. या प्रभा तीर्थ ४४धुं छे. 'जंबुद्दीवेगं भंते! दीवे
ज० १९
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जमहीपप्रमसिरो 'मंदरस्स पव्ययस्स दक्खिणेणं' मन्दरस्य-मेरोः पर्वतस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशीत्यर्थः 'केवइया सलिलासयसहस्सा कियन्ति-क्रियत्संरख्यकानि सलिलाशसहस्राणि कियल्लक्षाणीत्यर्थः 'पुरस्थिम पञ्चस्थिमाभिमुहा लवणसम्मुई समप्पत्ति' पूर्वपश्चिमाभिमुखानि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, कियत्यो नघः पूर्वाभिमुखप्रवाहाः लियत्यत्र पश्चिमाभिमुखप्रवाहाः सत्यः सात्मानं लवणसमुद्रे समर्पयन्ति लवणसमुद्रं प्रति गच्छन्तीति प्रश्नः, भपयानाह-'गोगमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगे छण्णउए सलिला सयसहस्से' एक पण्णवति सलिलागतसहस्रम् 'पुरस्थिमपञ्चत्थिमाभिमुहे लवणसमुई समतित्ति' पूर्वपश्रिमाभिमुखं लत्रणसमुद्रं सम. पंयन्ति गच्छन्ति पण्णवतिः सहस्राणि लक्षमेकं पूर्वपश्चिमप्रवाहा नद्यः स्वात्मानं लवणसमुद्रेसमर्पयन्तीत्यर्थः, तथाहि-भरनक्षेत्रे गहामधाः सिन्धुनद्याश्च चतुर्दश चतुर्दशसहस्राणि, हेमवते रोहितांशायाश्चाप्टाविंशति रष्टाविंशतिः सहस्राणि, हरिवर्यक्षेत्रे हरिसलिलाया परिकान्तायाश्च ने कहा है 'जंबुद्दोवणं भंते दीवे मंदरस्म पञ्चयस्स दक्विणेणं केवड्या सलि. लालयसहस्सा पुरथिमपच्चथिमाभिमुहा लवणलाई समति' हे भदन्त ! इम जंबुद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशामें कितनी लाख नदियां पूर्वपश्चिमदिशाकी ओर बहती हुई-पूर्व लवण सनुद्र में और पश्चिम लवण समुद्र में मिली हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोचमा ! एगे छण्णउए सलिलासयलहस्से पुरथिमपच्चत्यिमाभिहे लवणसमुहूं लमप्पंतित्ति' हे गौतम ! १ लाख ९६ हजार पूर्व पश्चिमदिशाकी ओर बहती हुई नदियाँ लवणसमुद्र में मिली हैं। ये नदियां सुमेरु पर्वत श्री दक्षिण दिशा की ओर है इसका तात्पर्य ऐसा है-भरतक्षेत्र में गङ्गानदी की सिन्धुनदी की १४-१४ हजार नदियां हैमवत् क्षेत्र में रोहिता और रोहितांशाकी २८-२८ हजार नदियां हरिवर्पक्षेत्र में हरि और हरि कान्ता की ५६-५६ हजार नदियां कुल मिलकर १ लाख ९६ हो जाती हैं ये सब नदियां सुमेरुपर्वत की दक्षिण दिशा में वहती मंदरस्स पब्वयस्स दक्खिणेणं केवडया सलिलासयसहम्सा पुरथिमपच्चत्यिमाभिमुहा लव णसमुदं समाति' ७ मा मापूदी५ नाममा भर पतनी सहशामा કેટલા લાખ નદીઓ પૂર્વ પશ્ચિમદિશાઓ તરફ વહેતી પૂર્વ લવણસમુદ્રમાં અને પશ્ચિમ सवासमुद्रमा भण छ ? सेना मां प्रभु है-'गोयमा ! एगे छण्ण उए सलिला सय सहस्से पुरथिमपच्चत्यिमाभिमुहे लवणसमुदं समापे ति त्ति' गौतम | Aatme६ १२ પૂર્વ-પશ્ચિમદિશા તરફ વહેતી નદીઓ લવણસમુદ્રમાં મળે છે. એ નદીઓ સુમેરુ પર્વતની દક્ષિણ દિશા તરફ આવેલી છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે. કે ભરતક્ષેત્રમાં "ગા નદીની અને સિધુ નદીની ૧૪–૧૪ હે નર નદીઓ હૈમવત ક્ષેત્રમાં રોહિત અને હિતાં
શાની ૨૮–૨૮ હજાર નદીઓ હરિવર્ષ ક્ષેત્રમાં હરિ અને હરિકાન્તાની ૫૬-૫૬ હજાર - નદીઓ આમ બધી મળીને ૧ લાખ ૬ થઈ જાય છે, એ બધી નદીઓ સુમેરુ પર્વતની
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प्रकाशिका टीका- पष्ठवक्षस्कारः सु. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम्
पट्पञ्चाशत् पट्पञ्चाशत्सहस्राणि तदेवं सर्वसंकलने षण्णवतिः सहस्राणि लक्षमेकं च मन्दरपर्वतस्य दक्षिणभागे नद्यः प्रवहन्तीति ।
قی
सम्प्रति मन्दरपर्वतादुत्तरप्रदेशे प्रवहनशीलानां नदीनां संख्यां ज्ञातुं प्रश्नयन्नाह - 'जंबुही णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व मध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं' मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण- उत्तरदिविभागे 'केवइया सलिलासय सहस्सा ' कियन्ति - कियत्संख्यकानि सलिलाशतसहस्राणि 'पुरत्थिमपच्चत्थिमाभिमुद्दा लवणसमुद्द समप्र्पति' पूर्वपश्चिमाभिमुखा लवणसमुद्रं समर्पयन्ति लवणसमुद्रं प्रतिगच्छन्तीत्यर्थ, इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गे' यमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगे छण्णउए सलिला सहसहस्से' एकं पण्णवत्यधिकं सलिला शतसहस्रं पूर्वपश्चिमाभिमुखं लवणसमुद्रं समर्पयति षण्णवति सहस्राधिक लक्षमेकं नदीनां समुद्रं प्रतिगच्छति ।
सम्प्रति कियत्यो नद्यः पूर्वाभिमुखाः सत्यो लवणसमुद्रं प्रविशन्ति तद्दर्शयितुमाह- 'जंबुवेणं ते' इत्यादि, 'जंबुद्दी वे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे 'केवइया सलिलाय सहस्सा पुरत्याभिमुद्दा' क्रियन्ति-कियत्संख्यकानि सलिलाशतसहस्राणि पूर्वां हैं । अब सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में बहने वाली नदियों की संख्या जानने के लिये गौतमस्वामी प्रभुश्री से पूछते हैं- 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे मंदर पन्चयस्स उत्तरेणं केवइया सलिलासय सहस्सा पुरत्थिम पच्चत्थिमाभिमुद्दा लवणसमुद्द समप्र्पति' हे भदन्त ! इस जंबुद्वीप नाम के द्वीप में मन्दर पर्वत की उत्तर दिशा में पूर्व और पश्चिम की ओर बहती हुई कितनी नदियां लवणसमुद्र में मिली है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! एगे छण्णउए सलिला - सयसहस्से' पुरत्थिमपच्चत्थिमाभिहे जाव समप्पेइ' हे गौतम ! १ लाख ९६ हजार अवान्तर नदियां पूर्व पश्चिम की ओर बहती हुई लवणसमुद्र में मिली हैं। ये सब नदियां सुमेरुपर्वत की उत्तरदिशा में हैं । अब गौतम ! प्रभुश्री से ऐसा पूछते है । 'जंबुद्दीवेण भंते! दीवे केवइआ सलिलासय सहस्सा पुरत्याभिमुहा ઉત્તરદિશામાં વહેનારી નદીએનો સખ્યા જાણવા માટે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને પ્રશ્ન કરે છે 'जंबुद्दीत्रेणं संते ! मंदर पव्वयस्स उत्तरेणं केवइया सलिलासय सहस्सा पुरत्थिमपच्चत्थि - माभिमुहा लवणसमुदं समप्पेति' हे लत ! या मूद्वीप नामक द्वीपमा भर पर्वतनी ઉત્તરદિશામા પૂર્વ અને પશ્ચિમ તરફ વહેનારી કેટલી નદીઓ લવણુસમુદ્રમાં મળે છે? सेना भवाणभां अलु ४ छे. 'गोयमा ! एगे छण्णउए सलिलासय सहस्से पुरत्थिमपच्चथिमाभिमुद्दे जाव समप्पेइ' हे गौतम! ये साथ द६ डलर अवान्तर नहीओ पूर्व પશ્ચિમ તરફ વહેતી લવણુસમુદ્રમાં મળે છે. એ બધી નદીમા સુમેરુ પર્વતની ઉત્તરદિશામાં मावेसी छे. हुवे गौतम ! प्रलुने या लवनेो प्रश्न ४रे छे 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवया सलिला ससहसा पुरत्थाभिमुद्दा लक्ष्णसमुदं समप्पे ति? डे आहेत ! या मंजूदीय
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जम्यूहीयमहातसूत्र भिमुखामि-पूर्वाभिमुखप्रवाहाः कियत्यो नध इत्यर्थः "लवणसमुई समप्यति' लवणसमुद्रं सम. र्पयन्ति-कियत्यो नधः पूर्वाभिमुखा लवणसमुद्रे प्रविशन्तीति प्रश्नः, 'भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्त सलिलासयसहस्सा' सप्तसलिलारादसहस्राणि, 'अट्ठावीसंच सहस्सा' अष्टाविंशतिश्च सहस्राणि 'जाव समप्येति' यावत् लवण समुद्रं समर्पयन्ति-अप्टाविंशति सहस्राधिक सप्तलक्षप्रमाणा नद्यः पूर्वाभिमुखाः लवणममुद्रं गच्छन्तीत्यर्थः, तद्यथा पूर्वसूत्रे मेरुतो दक्षिणवर्तिनीनां नदीनामेकं लक्षं पण्णवनिः सहस्राधिकं कथितम्, तदर्द्धम् ९८००० पूर्व समुद्रगामिनीत्यागतानि अष्टानवतिः सहस्रणि, एवं मेरुत उत्तरभागे नदीना मष्टानवति सहस्राणि शीतापरिकरनधश्च पश्च ५ लक्षाणि द्वाविंशत्सहस्राणि सर्वसङ्कलनेअष्टाविंशति सहस्राधिक सप्तलक्षाणि नदीनां भवन्तीति । लवणसमुई समप्पेंति' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीप से कितनी नदियां पूर्व दिशा की ओर बहती हुई लवण समुद्र में प्रवेश करती हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं हैं-'गोयमा ! सत्तसलिलास्यसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा जाव समति' हे गौतम ! सात लाख २८ हजार नदियां पूर्वदिशा की और बहती हुह लवणसमुद्र में प्रवेश करती हैं। यह बात प्रकट कर दी गई है कि मेरुपर्वत की दक्षिण दिशा में रहकर वहने वाली नदियों की संख्या १ लाख ९६ हजार है सो इनमें ले आधी नदियां १८००० पूर्व समुद्र गामिनी है तथा इसी तरह मेरु की उत्तर दिशा में रह कर वहने वाली नदियों की संख्या १८००० है तथा-शीता की परिवार भूत नदियां ५ लाख २२ हजार है सब मिलकर ये नदियां ७ लाख २८ हजार होतो हैं । यद्यपि यहाँ पर इनका जोड ७१६००० ही होता है अतः इस तरह ले ७ लाख २८ 'हजार की संख्या नहीं आती है परन्तु इस कथित प्रमाण को लाने के लिये जो पहिले १२ अन्तर नदियां कही गई हैं उन्हें यहां जोड देनी चाहिये इन तरह નામક દ્વીપમાં કેટલી નદીઓ પૂર્વ દિશા તરફ વહેતી લવણસમુદ્રમાં પ્રવેશે છે? એના જવાબમાં प्रभु ४ छ. 'गोयमा । सत्तसलिला सयसहस्सा अदावीसं च सहस्सा जाव समाति' ७ ગૌતમ ! સાત લાખ ૨૮ હજાર નદીઓ પૂર્વ દિશા તરફ વહેતી લવણસમુદ્રમાં મળે છે. આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે મેરુ પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં રહીને પ્રવાહિત થતી નદીઓની સંખ્યા ૧ લાખ ૯૬ હજાર છે તે એમાંથી અર્ધા ભાગની નદીઓ ૯૮૦૦૦ પૂર્વ સમુદ્ર ગામિની છે તેમજ આ પ્રમાણે મેરુની ઉત્તરદિશામાં રહીને વહેનારી નદીઓની સંખ્યા ૯૮૦૦૦ છે તથા શીતાની પરિવારભૂતા નદી આ ૫ લાખ ૨૨ હજાર છે. આમ એ બધા નદીઓ મળીને ૭ લાખ ૨૮ હજાર થાય છે. જોકે અહીં બધી નદીઓને સરવાળા
૭૧૬૦૦૦ જ થાય, એથી ૭ લાખ ૨૮ હજાર જેટલી સંખ્યા થતી નથી પણ આ કથિત • પ્રમાણને લાવવા માટે જે પહેલાં ૧૨ અવાનાર નદીઓ વિશે કહેવામાં આવ્યું છે. તેમને
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प्रकाशिका टीका-षष्ठोदक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम्
सम्प्रति-पश्चिमसमुद्रगामिनीनां नदी संख्यां ज्ञातुं प्रश्नयनाह-जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' इत्यादि, जवुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया सलिलासयसहस्सा' कियन्ति सलिनास्तसहस्राणि 'पचत्यिमाभिसुहा' पश्चिमाभिमुखाः पश्चिमे प्रवाहो विवते यासां तथाभूना नघः 'लवणसमुदं समप्येति' लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, अर्थात् कियत्यो नघः पश्चिममुखपवाहा लवणसमुद्रे प्रविशन्तीति प्रश्ना, भगवानाह-'मोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्सलिलासयसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा पचत्थिमागिमुहा लदणसमुह समप्पेंति' सप्तसलिलाशतसहस्राणि सप्तलक्षाणीत्यर्थः अष्टाविंशतिश्च सहस्त्राणि पश्चिमाभिमुखानि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, अष्टाविंशति सहस्राधिक सप्तलक्षसंख्यकाः पश्चिमाभिमुखा नधो लरणसमुद्रे प्रविशन्तीति । ___ सम्प्रति-सर्वनदी संकलनां दर्शयितुमाह-'एवामेव' इत्यादि, एवामेव सपुब्बावरेण जंबुहीवे दीये चोहस सलिलासयसहस्सा छप्पणं च सहस्सा भवतीति मक्खायं' एवमेव सपू.
परेण जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दशसलिलाशतसहस्त्राणि पटू पञ्चाशच सहस्त्राणि भवन्तीत्याख्यातम्, तत्र एवमेव यथावर्णिताकारेण सपूर्वापरेण-सर्वसङ्कलनेन चतुर्दश सलिलाशत सहपूर्व समुद्रगामी ७ लाख २८ हजार नदियों का जोड आजाता है अत्र पश्चिम समुद्रगामिनी नदियों की संख्या जानने के लिये 'जंबुद्दीदेणं भंते ! दीवे केवड्या सलिलासयसहस्सा पच्चस्थिमाभिहा' गौतमरवामी ने ऐसा पूछा है कि-हे सदन्त ! इस जम्बूद्वीप नाम के डीप में कितनी नदियां पश्चिम की और प्रवाह वाली होकर लवणलशुद्र में मिलती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! सत्तसलिलासयलहस्सा अठ्ठावीतं च सहस्सा पच्चल्विभाभिक्षा लवणसमुई समप्पे ति' हे गौतम ! ७ लाख २८ हजार नदियां पश्चिम की ओर प्रवाहवाली होती हुई लवणसमुद्र में प्रवेश करती हैं। 'एवामेव सपुच्चावरेण जंबुद्दीवे दीवे चोदससलिलासयसहस्सा छप्पं च लहस्ता अति ति मनवार्य' इस तरह जम्बूद्वीप में १४ लाख ५६ हजार नदियां हैं ऐसा कथन तीर्थकरों का है। અહીં જોડી દેવી જોઈએ. આ પ્રમાણે પૂર્ણ સમૃદ્રગામી ૭ લાખ ૨૮ હજાર નદીઓની સંખ્યા આવી જાય છે. હવે પશ્ચિમ સમુદ્ર ગામિની નદીઓની સ ખ્યા જાણવા માટે 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया सलिलासयसहस्ला पच्पत्थिमाभिमुहा' गौतस्वाभीसे सा જાતનો પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદંત ! આ જ બૂરીપ નમક દ્વીપમાં કેટલી નવીઓ પશ્ચિમ त२३ प्रा61 ५४२ प्रभुर भणे छ ? नाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! सत्तसलिलासयसहस्सा अट्ठावीससहरसा पचत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समापे ति' 3 गौतम ! , છ લાખ ૨૮ હજાર નદી પશ્ચિમ તરફ પ્રવાહિત થતી લવણસમુદ્રમાં પ્રવિષ્ટ થાય છે. 'एगमेन सपुव्यावरेण जंबुदीवे दीवे दोदस सलिलासयसहरसा छप्पण्णं च सहस्सा भवंतित्ति मक्खाय' मा प्रमाणे नमूदीमा १४ मा ५६ ७.२ नही छे. मे ४थन ती
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जन्मालारान गे-चतुर्दशलक्षाणि, पट्पञ्चाशच्च सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया-बर्द्धमानस्वामिना अन्यैश्चापि तीर्थरैरिति । अर्थात् जम्बूद्वीपे पूर्वसमुद्रगामिनीनां पश्चिमसमुद्रगामिनीनां च नदीनां सर्वासा संकलने चतुर्दशलक्षाणि पटपञ्चाशत् सहस्राणि च भवन्तीति ।
सम्प्रति-जम्बूद्वीप व्यासस्य लक्षप्रमाणता प्रतीत्यर्थं दक्षिणोत्तराभ्यां क्षेत्रयोजन सर्वाग्र संकलनं शिष्याणामुपकाराय प्रदर्य ते-तधथा१-भरतक्षेत्रप्रमाणम्-५२६ योजनानि-कलाः ६। २-क्षुल्लहिमाचलपर्वतप्रमाणम्-१०५२ योजनानि कला:-१२ । ३-हैमवतक्षेत्रप्रमाणम्-२१०५ योजनानि कला:-५ ।। ४-वृद्धाहमाचलपवेतप्रमाणम्-४२१० योजनानि कला:-१०। ५-हरिवर्पक्षेत्र प्रमाणम्-८४२१ योजनानि कला:-१ । ६-निषधपर्वत प्रमाणम्-१६८४२ योजनानि कले द्वे २ । तात्पर्य यही है कि पूर्व समुद्रगामिनी एवं पश्चिम समुद्रगामिनी नदियों की संख्या जम्बूद्वीप में १४ लाख ५६ हजार है । अव सूत्रकार जम्बूद्वीप का व्यास जो १ लाख प्रमाण कहा गया है उसकी प्रतीति के लिये दक्षिण और उत्तर में क्षेत्र योजन का जो संकलन है उसे शिष्यों के उपकार निमित्त प्रदर्शन करते हैं जैसे
(१) भारत क्षेत्र का विस्तार ५२२० योजन का है। (२) क्षुल्लक हिमाचल पर्वत का-हिमवत्पर्यत का-विस्तार १०५२२ है। (३) हैमवार क्षेत्र का विस्तार २१०५,२ योजल का है।
(४) वृद्धहिमाचल पर्वत का प्रामाण-महाहिलवत् पर्वत का विस्तार ४२१० योजन का है।
(६) हरिवर्षक्षेत्र का प्रमाण ८४२१. योजन का है।
(६) निषधपर्वत का प्रमाण १६८४२. योजन का है। કરનું છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે પૂર્વ સમુદ્રગામિની તેમજ પશ્ચિમ સમુદગામિની નદીઓની સંખ્યા જંબૂઢપમાં ૧૪ લાખ પ૬ હજાર છે. હવે સૂવકાર જંબુદ્વીપને વ્યાસ કે જે એક લાખ ૫૬ હજાર જેટલે છે. તેની પ્રતીતિ માટે દક્ષિણ અને ઉત્તરમાં ક્ષેત્રજનનું જે સંકલન છે તેને શિના ઉપકારાર્થ પ્રદર્શિત કરે છે જેમકે(૧) ભરતક્ષેત્રને વિસ્તાર પ૨૬ જન જેટલું છે. (૨) ભુલક હિમાચલ પર્વતને હિમવત પર્વતને વિસ્તાર ૧૫ર છે. (૩) હૈમવત ક્ષેત્રને વિસ્તાર ૨૧૦૫ જન જેટલું છે.
(૪) વૃદ્ધ હિમાચલ પર્વતનું પ્રમાણ મહાહિમવત પર્વતને વિસ્તાર ૪૨૧૦ જન रवा छे.
(५) रिक्ष क्षेत्र प्रमाण ८४२११ यापन २९ छे.
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प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७-महाविदेहक्षेत्रप्रमाणम् ३३६८४ योजनानि कलाः ४ । ८-नीलवत्पर्वतप्रमाणम् १६८४२ योजनानि, कले २। ९-रम्यकक्षेत्रप्रमाणम्-८४२१ योजननानि, कला १ । १० रुक्मिपर्वतप्रमाणम्-४२१० योजनानि कलाः १० । ११- हैरण्यवतक्षेत्रप्रमाणम्-२१०५ योजनानि कलाः ५। १२-शिखरिपर्वतप्रमाणम्-१०५२ योजनानि कलाः १२ । १३-ऐरवतक्षेत्रप्रमाणम्-५२६ योजनानि कलाः ६।
९९९९६ योजनानि कलाः ७६ दक्षिणोत्तरतः सर्व संकलने १००००० योजन सर्वाप्रम्, अत्र दक्षिण जगतीमूल विष्कम्भो भरतक्षेत्रप्रमाणे, उत्तर जगती सत्कश्च ऐरवतक्षेत्र प्रमाणे अन्तर्भावनीय इति ।
(७) महाविदेह क्षेत्र का प्रमाण ३३६८४६० योजन का है। (८) नीलवत पर्वत का प्रमाण १६८४२,२ योजन का है। (९) रम्यकक्षेत्र का प्रमाण ८४२१. योजन का है। (१०) रुक्मि पर्वत का प्रमाण ४२१०२० योजन का है। (११) हैरण्यवतक्षेत्र का प्रमाण २१०५,६ योजन का है। (१२) शिखरिपर्वत का प्रमाण १०५२१२ योजन का है। (१३) ऐरवतक्षेत्र का प्रमाण ५२६६० योजन का है।
इस तरह यहां पर योजन का जोड ९९९९६ निन्नानवेहजार नौ सौ छन्नु आता है और कलाओं का जोड ७६ आता है इनमें १९ का भाग देने पर ४ योजन बनते हैं अतः उपर्युक्त योजन प्रमाण में ४ को जोडने पर जम्बूद्वीप का पूरा विस्तार १ लाख घोजन का आ जाता है यहां दक्षिण जगती का मूल विष्कम्भ
(6) निषध पर्वतर्नु प्रभा १९८४२२. यौन रे छे. (૭) મહાવિદેહ ક્ષેત્રનું પ્રમાણ ૩૩૬૮૪ જન જેટલું છે. (८) नle पर्वतर्नु प्रमाण १९८४२११ योमन रेसु छे. (6) २भ्य४ क्षेत्र प्रभार ८४२११ यौन छे. (१०) मि तनु प्रमाण ४२१०११ या २९ छे. (૧૧) હૈરણ્યવત ક્ષેત્રનું પ્રમાણ ૨૧૦૫ જન જેટલું છે. (૧૨) શિખરિ પર્વતનું પ્રમાણ ૧૦૫ર જન જેટલું છે. (૧૩) અરવત ક્ષેત્રનું પ્રમાણ પર જન જેટલું છે.
આ પ્રમાણે અહીં જનને સરવાળે ૯૬ નવાણું હજાર નવસે છનું છે, અને કલાઓને સરવાળે પ૭૬ થાય છે. એમાં ૧ને ભાગાકાર કરીએ તે ૪જન થાય છે. એથી ઉપર્યુક્ત જન પ્રમાણમાં ૪ ને જોડવાથી જંબદ્રીપને સંપૂર્ણ વિસ્તાર ૧ લાખ
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________________ 792 जग्नीपमनसि __ पूर्वपश्चिमतश्चैवं सर्वाग्रमीलनम्-औत्तराई शीतावनाख 2122 योजनानि विजयगोडशकम्-३५४०६ योजनानि, अन्तर नदीपट्कं 750 योजनानि, वक्षस्काराष्टकं 40000 योजनानि / मेरुगद्रमालवनम्-५४००० योजनानि, औत्तराई शीतोदामुग्यवनम्-२९२२ योजनानि अत्र सर्वाग्रम् 100000 लक्षयोजनप्रमाणं भवति, अवापि जगती मंगन्धिमूल विष्कम्भः स्वस्त्र दिग्गतपुखनने अन्तर्भावनीय इति / इतिश्री विश्वविख्यात-गद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक्रपञ्चदशभायाकलित-ललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यानन्यभनिमापक-बादिमानमर्दक-श्री-गाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य-पदविभूपित-कोल्हापुरराजगर-घालब्रह्मचारी जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-बासीलाल-वतिविरचितायां श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञासिस्त्रस्य प्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां पष्ठो वक्षस्कारः समाप्तः // 6 // भरतक्षेत्र के प्रमाण में और उत्तर जाती का प्रमाण रयत क्षेत्र के प्रमाण में अन्तावनीय है। पूर्व पश्चिम से सामना भीलन इस प्रकार से है औत्तराहउत्तरदिशा में-शोता लदीके वन का सुन्दप्रमाण विस्तार 2922 योजन का है 16 विजयों का प्रमाण विस्तार 35460 योजन का है अन्तरनदीपक का विस्तार 750 योजन का है आठयक्षस्कारों का विस्तार 4000 योजन का है मेरु भद्रशालबन का विस्तार 54000 योजन का है तथा उत्तरदिग्वर्ती गीतोदा नदी के वन झुग्त्र का विस्तार 2922 योजन का है इन स्वर का जोड एक लाख योजन प्रमाण हो जाता है। यहां पर भी जमतो का फुलविकरम अपने दिग्गत मुख बन अन्तर्गवित करलेना चाहिये। श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालचतिविरचित जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्र की प्रकाशिका व्याख्या में छहावक्षस्कार समाप्त // 6 // યેજન આવી જાય છે. અહીં દક્ષિણ જગતીનો મૂલ વિધ્વંભ ભરતક્ષેત્રના પ્રમાણમાં અને ઉત્તર જગતીનું પ્રમાણ એરવત ક્ષેત્રના પ્રમાણમાં અન્તર્ભાવનીય છે. પૂર્વ પશ્ચિમમાં સર્વત્રનું મિલન આ પ્રમાણે છે- તરહ-ઉત્તરદિશામાં-શીતા નદીના વનના મુખ પ્રમાણ વિસ્તાર 2922 જન જેટલું છે. 16 વિજયેને પ્રમાણે વિસ્તાર 35406 જન છે. અન્તર નદી ષકને વિસ્તાર 750 એજન જેટલું છે. આ વક્ષકારોને વિસ્તાર 4000 જન જેટલે છે મેરુ ભદ્રશાલ વનને વિસ્તાર 54000 એજન જેટલું છે તેમજ ઉત્તર દિશ્વતી શીદા નદીના વનના સુખને વિસ્તાર 220 એજન જેટલો છે. એ સર્વને સરવાળે એક લાખ જન પ્રમાણ થાય છે. આ પણ જગતનો મૂલ વિષ્કમ પિતાપિતાની દિશાઓમાં આવેલા મુખવનમાં આન્તર્ભાવિત કરી લેવું જોઈએ. શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજય શ્રી ઘાસીલાલ વ્રતિવિરચિન જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્રની પ્રકશિકા વ્યાખ્યાને જો વક્ષસ્કાર સમાપ્ત. છે 6 છે