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________________ ४८४ जम्बूद्वीपप्रति सर्वकनकमयी-सर्वात्मना मुवर्णमयी 'अच्छा' अच्छा आकाशस्फटिकवनिर्मला 'वेइयाण:संहेणं' वेदिकावनपण्डेन पद्मवरवेदिकया वनपण्डेन च 'सन्चो ' सर्वतः-सर्वशिक्षु 'समंता' समन्तात् सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ता' सम्परिक्षिप्ता परिवेष्टिता 'वण्ण यो' वर्णक:-पद्मवर-- वेदिका वनपण्डयोर्वणनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः स च चतुर्थ पञ्चममत्रतोऽवसेयः, तदर्थोऽपि तत एव बोध्या, 'तीसे णं पंदुप्तिलाए' तस्याम् अनन्तरोन्नायां खलु पाण्डुशिलायां 'चर. हिसिं चतुर्दिशि दिश्चतुष्टयावच्छेदेन 'चत्तारि' चन्यारि 'विसोवाणपडिख्यगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-प्रतिरूपकाणि सुन्दराणि तानि च त्रिसोपानानि चेति तथा, अत्र प्राकृतत्त्वाद्विशेषणवाचकपदस्य परनिपातो योध्या, 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, तेषां त्रिसोपानानां वर्णकोऽत्र वाच्यः स किम्पयन्तः ? इति जिज्ञासायामाह-'जाव तोरणा वणो' यावर तोरणा वर्णक:तोरणवर्णकपर्यन्तो वर्णको भणितव्य इत्यर्थः, स च गदा सिन्धु नदीस्वरूपवर्णनप्रकरणत: समायः, तदर्थोऽपि तत एव वोध्यः, अथ पाण्डुशिलाया उपरितनभूमिमागसौभाग्यं वर्णयितुमुपक्रमते-'तीसे णं पंडसिलाए' इत्यादि-तस्याः खलु पाण्डशिलायाः 'उप्पि' उपरिऊर्ध्वभागे 'वहुसमरमणिज्जे' वहुममरमणीयः 'भूमिमागे' भूमिभागः भूमिकांश: 'पण्णत्ते' आकाश तथा स्फटिक के जैसी निर्मल है चारों ओर से यह पद्मवरवेदि का और वनपण्ड से घिरी हुई है यहां पर पद्मवरवेदिका और वनपंड का वर्णक पद समूह चतुर्थ पंचम स्त्र से लेकर कहलेना चाहिये 'तीसेणं पंडुलिलाए चदिसिंचत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता' उस पाण्डुशिला की चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये है। और त्रिसोपानप्रतिरूपक में प्रनिरूपक यह त्रिसोपान पदका विशेषण है और इसका अर्थ सुन्दर है यहां प्राकृन होने से इसका पर निपात हो गया है। 'जाय तोरणा वण्णओ' इन चार त्रिसोपानक प्रतिरूपकों का वर्णक पाठ तोरणतक का यहां पर ग्रहण करलेना चाहिये यह तोरणतक का वर्णक पद समूह गङ्गा सिन्धु नदी के स्वरूप वर्णन करनेवाले प्रकरण से समझलेना चाहिये 'तीसेणं पंड्डलिलाए उपि बहुममरमणिज्जे भूमिभागे મય છે અને આકશ તથા ફટિક જેવી નિર્મળ છે. ચેમેરથી આ પદ્મવદિકા અને વનખંડથી આવૃત છે. અહીં પદ્મવર વેદિકા અને વનખંડને વર્ણક પદ સમૂહ ચતુર્થ५यम सूत्रम गावे . ते सासुमागे त्यांची पांधी नये 'तीसेणं पंडुसिलाए चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूगा पग्णत्ता' 2 पांड शिवानी योमर यार विसापान પ્રતિ રૂપકે છે. ત્રિપાન પ્રતિરૂપકમાં પ્રતિરૂપક એ શબ્દ ત્રિપાન પદનું વિશેષણ છે. અને આનો અર્થ સુંદર થાય છે. અહીં પ્રાકૃત હોવાથી એને પરનિપાત થઈ ગયા છે. 'जाव तोरणा वण्णओ' ये, यार त्रिसायन प्रति३५ नि। १४ ५ तार सुधीन मही ગ્રહણ કર જોઈએ. આ તેરણ સુધીને વર્લ્ડકપ સમૂહ વિષે ગંગા-સિંધુ નદીના સ્વરૂપનું --- - ४२॥२॥ ४२शुभाथी की से न . 'तीसेणं पंडुसिलाए उपि वहुसमरमगिज्जे
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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