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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३९ पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४३ श्चतस्र उताः, तत्राद्या शिला कुत्रास्तीति पृच्छति-'कहि णं शंते !' इत्यादि-क्व खलु भंदन्त ! 'पंडगवणे पण्डकवने 'पंडुसिला णामं सिला' पाण्डुशिला नाम शिना 'पण्णत्ता ?' प्रज्ञप्ता ?, भगवानुत्तरयत्ति-'गोयमा !' गौतम ! 'संदरचूलियाए' सन्दरचूलिकायाः 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'पंडगवणपुरथिमपेरंते' पण्डकयनपौरस्त्यपर्यन्ते-पण्डकवनस्य पूर्वसीमापर्यन्ते 'एन्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'पंडगवणे' पण्ड कवने 'पंडुसिला णामं सिला' पाण्डुशिला नाम शिव 'पण्णता' प्रज्ञप्ता, सा च 'उत्तरदाहिणायया' उत्तरदक्षिणायता उत्तर दक्षिणयोर्दिशोसयता दीर्घा तपा 'पाईणपडीणवित्थिण्णा' प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णा पूर्वपश्चिमदिशोविस्तारयुक्ता 'अद्धचंदसंठाणसंठिया' अर्द्धचन्द्र स्थानसंस्थिता अर्द्धचन्द्राकारेणसंस्थिता 'पंचगोयणसयाई' पञ्चयोजनशतानि 'आयामेणं' आयामेन मुखविभागेन 'अद्धाइजाई' अर्द्धवतीयानि 'जोयणसयाई' योजनशतानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारण 'चत्तारि' चत्वारि 'जोयगाई' योजनानि 'वाहल्लेणं' वाहल्येन पिण्डेन 'सवकणगामई' और अतिरक्तशरदला ४ 'कहिणं भंते ! पंडुसिलाणामलिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पण्डकवन में पांडुशिला नामकी शिला कहां पर कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयमा ! मंदरचूलिभार पुरथिमेणं' पंडगवणपुरथिमपेरते, एस्थ णं पंडगवणे पंडुसिला णामं सिला पणत्ता' हे गौतम ! मंदर चूलिका की पूर्वदिशा में तथा पंडकचन की पूर्व सीमा के अन्त में पंडकवन में पांडशिला नामकी शिला कही गई है । 'उत्तर दाहिणायया, पाईण पडीणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया पंचजोयणसयाई आयामेणं अशाइजाइं जोयणसयाई विक्खभेणं चत्वारि जोयणाई बाहल्लेणं सवकणगामई अच्छा वैइयारणसंडेणं सचओ समंता संपरिक्खित्ता घण्णओ' यह शिला उत्तर से दक्षिण तक लम्बी है और पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण है । इसका आकार अर्धचंद्र के आकार जैसा है पांचसो योजन का इसका आयाम है और अढाई लौ योजन का इसका विष्कम्भ है एवं इसका पाहल्य-मोटाई-चार योजन का है। सालना सुवर्णमय है और visशिला नभनी शिक्षा या स्थणे भावही छ ? ना पाममा प्रमुछे-'गोयमा ! मंदर चूलिआए पुरथिमेणं पंडगवणपुरत्यिमपेरते, एस्थग पंडगवणे पंडुसिला णामं सिला पण्णत्तो है ગૌતમ! મંદર ચૂલિકાની પૂર્વ દિશામાં તથા પંડકવનની પૂર્વ સીમાના અંતમાં પડકવનમાં पांड शिक्षा नाम शिस मावेसी छ. 'उत्तरदाहिणायया, पाईणपडीगविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया पंच नोयणसयाई आयामेणं अद्धाइज्जाइं जोयणसयाई विक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई वाहल्लेणं सव्य कणगामई अच्छा वेइया वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता वण्णओ' मा શિલા ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી લાંબી છે અને પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી વિસ્તીર્ણ છે. એને આકાર અર્ધ ચંદ્રના આકાર જેવો છે. ૫૦૦ એજન એટલે એને આયામ છે તથા ૨૫૦ એજન એટલે આને વિષ્ક છે. બાહુલ્ય (મેટાઈ) ચાર જન જેટલું છે. આ સર્વાત્માના સુવર્ણ
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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