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________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् २९९ चतुर्थस्य 'उत्तरपुर स्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन - उत्तरपूर्वस्याम् ईशानकोणे ' रययकूडस्स' रजतकूटस्य 'दक्खिण' दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि 'एत्थ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खलु 'सागरकुडे' सागरकूटं 'णामं' नाम 'कूडे' कूटं 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तम्, तस्य मानमाह - 'पंच जोयणसयाइ " पश्च योजनशतानि - पञ्चशतयोजनानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन 'अवसिद्धं' अवशिष्टं - शेषम् मूल विष्कम्भादिकम् 'तं चेव' तदेव - गन्धमादनाभिधवक्षस्कार पर्वतवत्, अत्र देवीमाह - 'सुभोगादेवी' सुभोगादेवी - अधोलोकवासिनी दिकुकुमारी, अस्या राजधानीमाह'शहाणी' राजधानी 'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन - उत्तरपूर्वस्याम्-ईशानकोणे, अथ रजत कूटे देवीमाह- 'रययकूडे ' रजतकूटे - षष्ठे, 'भोगमा लिणी' भोगमालिनी दिक्कुमारी देवी, अस्या राजधानीमाह - 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन - ईशानकोणे, एवं षट्रकूटान्युक्तानि अथ सप्तमादि नवमान्तकूटानि निरूपयितुमाह - ' अवसिहा कूडा ' अवशिष्टानि कूटानि सीताकूटादीनि त्रीणि 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तरदक्षिणेन-उत्तर दक्षिणस्याम्नेतव्यानि - बोधपथं नेयानि बोध्यानि, अयमाशयः - पूर्वस्मात्पूर्वस्मात् कूटात् उत्तरोत्तरं कूट - मेणं' ईशान कोण में 'रययकूडस्स' रजतकूद की 'दक्खिणेणं' दक्षिण दिशा में 'एत्थ' यहां पर 'णं' निश्चय से 'सागर कूडे णामं' सागरकूट नामका 'कूडे पण्णत्ते' कूट कहा है | 'पंच जोयणसयाई' पांचसो योजन का 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊंचा है। 'अवसिहं' शेष मूल विष्कंभादि कथन 'तं चेव' गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के जैसा ही कहा है । 'सुभोगा देवी' अधोलोक में बसनेवाली दिक्कुमारी सुभोगा यहां की देवी है । अब सागर कूट की राजधानी का कथन करते हैं - 'रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं' यहाँ की राजधानी ईशान कोणमें कही है। इस प्रकार छ कूटों का कथन किया हैं । अब सातवें कूट से लेकर नववें कूट का कथन करते हैं - ' अवसिट्ठा कूडा' अवशिष्ट सीतादि तीन कूट 'उत्तरदहिणेणं' उत्तर दक्षिणमें समझलेवें । इस कथन का भाव यह है कि पहले पहले कूटों से पीछे पीछेका कूट उत्तर ४२७ छूटना ‘उत्तर पुरत्थिमेणं' ईशान दिशाभां 'रयय कूडरस' २४ छूटनी 'दक्खिणं' दक्षिण हिंशामां 'एत्थ' महीयां 'णं' निश्चय 'सागर कूडे णामं' सागर ईट नामनो 'फूडें पण्णत्ते' ईट ४डेस छे 'पंच जोयणसयाई' पांयसेो येोन्न 'उद्ध' उच्चत्तेनं' (या छे 'अवसिहं' जाडीना भूज विष्ट्ठल विगेरे स्थन 'तं चेव' गधभाहन वक्षस्ठार पर्वतना स्थन प्रभावो ४४ छे. 'सुभोगा देवी' अधोमां वसनारी हिउकुमारी सुलोगा महींनी हेवा छे. हुवे सागर छूटनी राजधानी थन ४रे छे. - 'रायहाणी उत्तरपुरत्थिमेणं' मडीं'नी रा४ધાની ઈશાન કાણુમાં કહેલ છે. આ રીતે છ ફૂટનુ કથન કરવામાં આવેલ છે. हुवे सातभा छूटथी साने नवमां छूट सुधीना छूटोन उथन ४रे छे- 'अवसिट्ठा कूडा' माडीना सीताहि त्राणु छूट 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तर दक्षिणुभां समल सेवा. આ કથનના ભાવ એ છે કે-પહેલા પહેલા કૂટથી પછિપછિના ફૂટા ઉત્તર દિશામ
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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