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________________ ર लम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूने: " दिसि' चतुर्दिशि - दिषचतुष्टये तोरणानि वहिर्द्वाराणि 'जाव' यावत् अत्र यावत्पदेन - 'नाना - मणिमयानि' इत्यादीनां तोरणविशेषणवाचकपदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, स च सार्थः राजप्रश्नीयसूत्रस्य त्रयोदशसूत्रस्य मत्कृतसुवोधिनी टीकातोऽवसेयः, अथैतत्पुष्करिणीमध्यवर्तिप्रासा-दावतंसकं वर्णयितुमुपक्रमते - 'तासि णं' तासां खल 'पुक्खरिणीणं' पुष्करिणीनां 'बहुमजादेसभा ए' बहुमध्यदेश भागे - अत्यन्त मध्यदेश भागे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'नं' खलु 'महं एगे' महानेकः 'ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो' ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य 'पासायवर्डिसर' प्रासादावतंसकः उत्तमप्रासादः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः स्वपरिवेष्टनी भूतपुष्करिणीचतुष्टयवहुमध्यदेशभागवर्ती प्रासादोऽयमुक्त इत्यर्थः, स च 'पंचजोयण सवाई' पञ्च योजनशतानि 'उद्धं उच्च सेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'अाइज्जा' अर्द्धतृतीयानि 'जोयणमयाई' योजनशतानि 'चिक्खभेणं' विष्कम्भेण विस्तारेण 'अव्युग्गयमूसिव पह सिय इव' अभ्युद्गतोतिप्रहसित इव इत्यादिपदानां प्रासादविशेषणवाचकानामत्र सङ्ग्रहो बोध्यः, स च राजप्रश्नीयसूत्रस्य मत्कृतचहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगे महं ईसाणस्स देविदस्त देवरण्णो पासायवसिगे पण्णत्ते) यहां चारों दिशाओं में तोरण- बहिदार है यहां यावत्पद से " नाना मणिमयानि" इत्यादिरूप से कहे गये तोरणों के विशेषणों का ग्रहण हुआ है इन्हें राजप्रश्नीय सूत्र की सुबोधिनी टीका से समझ लेना चाहिये इन पुष्करिणियों के ठीक मध्यभाग में एक विशाल देवेन्द्र देवराज ईशान का प्रासादावतंसक - श्रेष्ठ प्रासाद - कहा गया है (पंच जोगणसयाई उड्डू उच्चतेणं अद्वाइवाई जोयणसयाह विकवभेनं अम्भुग्गपलूसिय एवं सपरिवारो पासायवर्डिसगो भाणियध्वो) यह प्रासादावतंसक ऊंचाई में ५ योजन का है २५० योजनका इसका विष्कम्भ है "अभुग्गय इत्यादि पर्दों का जोकि प्रासादावतंसक के विशेषणरूप से प्रयुक्त किये गये हैं यहां संग्रह हुआ है इन पदों का संग्रह श्रीराजप्रश्नीय सूत्र से समझलेना चाहिये प्रासादातंसक का वर्णन मुख्यासन और गौणासन रूप परिवार सहित करलेना चाहिये (मंदर ❤ " बहुमज्झदे सभ्गए एत्थणं एगे मह ईसाणस्स देविंदरस देवरण्णो पामायवर्डिसगे पण्णत्ते' 'अडी 'यारे हिशाओोभां तोरणु-महिर्द्वार- छे. अहीं यावत् यही 'नाना मणिमयानि' वगेरे ३५भां કથિત તેારણેાના વિશેષણાનું ગ્રહણ થયું છે. એ વિશેષણના અથ રાજપ્રશ્નીયસૂત્ર' ની સુત્રેાધિની ટીકામાંથી જાણી લેવા જોઇએ. એ પુષ્કરિણીના ઠીક મધ્યભાગમાં એક વિશાળ देवेन्द्र देवराज ईशानने। प्रसाहात स-श्रेष्ठ प्रासाद-मावेस छे, 'पंच जोयणसयाई उड्ढ उच्चत्तेणं अद्धाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं, अम्मुग्गयमूसिय एवं सपरिवारो पासार्वाड सगो भाणियवो' मा प्रासाहवतांसह या भांप योजन भेटो छे. २५० येोन भेटलो मेन। विष्ठल४ छे. 'अभुगाय' वगेरे होते अत्रे संग्रह थये है. ये यह प्रासादावત'સદના વિશેષણુ રૂપમાં પ્રયુક્ત થયેલાં છે. એ પદ્યના ભાવાથ રાજપ્રશ્નીય સૂત્રમાંથી
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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