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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवनस्कारः सू. २६ विभागमुखेम कच्छविजयनिरूपणम् ३३१ उत्तरार्द्धऋच्छविजये 'सिंधुकुंडं णाम कुंडं' सिन्धुकुण्डं नाम कुण्डं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तस्, तच्च 'सर्टि' पष्टिं 'जोयणाणि' योजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्ध्य-विस्ताराभ्याम् 'जाव भवणं' यावद् भवनं-भवनपर्यन्तम् वर्णनीयम् 'अटुं' अर्थ:-सिन्धुकुण्डेति नामार्थः'रायहाणी' राजधानी 'य' च 'णेयन्या' नेतव्या प्रापणीया बोध्या, लाघवार्थमतिदेशमाह-'भरहसिंधुकुंड सरिसं सव्यं णेयव्वं' भरतसिन्धुकुण्डसदृशं सर्व नेतव्यं भरतवर्पयति सिन्धुकुण्डवत् सर्व नेतव्यम् ज्ञेयम् । तच्च किम्पर्यन्तम् इत्याह-'जाव' इत्यादि-यावत् 'तस्स' तस्य 'ण' खल्लु 'सिंधुकुंडस्स' सिन्धुकुण्डस्य 'दाहिणिल्लेणं' दाक्षिणात्येन दक्षिणदिग्भवेन 'तोरणेणं' तोरणेन वहिारेण 'सिंधुमहाणई' सिन्धुमहानदी 'पवूढा' प्रव्यूढा निर्गता 'समाणी' सती 'उत्तरद्ध कच्छविजयं' उत्तरार्द्धकच्छविजयम् 'एज्जेमाणी २' इयंती २ भूयो भूयो गच्छन्ती 'सत्तहि' सप्तभिः 'सलिलासहस्सेहि' सलिलासहस्त्रैः-नदीसहस्त्रैः 'आपूरेमाणी२' आपूर्यमाणा २ पुनः वर्षमें 'उत्तरकच्छविजए' उत्तरार्द्ध कच्छविजय में 'सिंधुकुंडे णामं कुंड' सिन्धुकुंड नामका कुंड 'पण्णत्ते' कहा है। वह सिंधुकुंड 'साहिसाइठ ६० 'जोयणाणि' योजन 'आयामविखंभेणं' लंबाई चोडाई से कहा है 'जाव भवणं' यावतू भवन के वर्णन पर्यन्त का वर्णन करलेवें 'अहं' सिंधुकुंड के नामार्थ 'रायहाणी' उसकी राजधानी 'य' एवं 'णेयवा' सब वर्णन समझलेवें इस वर्ण को संक्षेप करने के हेतु से अतिदेश द्वारा सूत्रकार कहते हैं- भरहसिंधु कुंड. सरिसं सव्वं णेयवं' भरतकुड के वर्णन के समान समग्र वर्णन समझलेवें। वह वर्णन यहां कहांतक का ग्राह्य है ? इस के लिए कहते हैं 'जाव' इत्यादि यावत् 'तस्स णं' उत्त 'सिंयुकुडस्त' सिंधुकुंड कि 'दाहिणिल्लेणं' दक्षिणदिशा के 'तोरणेणं' बहिार से 'सिंधुमहाणई' सिंधु महा नदी 'पवूढासमाणी' निकलती हुई 'उत्तरद्धकच्छविजयं' उत्तराद्ध कच्छविजय को 'एज्जमाणी२' स्पर्श करती हुई२ सत्तहिं' सात 'सलिला सहस्सेहि' हजार नदीयों से 'आपूरेपषमा 'उत्तरद्धयच्छविजए' उत्तराध ४२७ विनयभा 'सिंधुकुंडे णाम कुंड' सिंधु नामना हु 'पण्णत्ते' उस छ. मे सिधु 'सर्द्धि' 58 ६० 'जोयणाणि' योन 'आयाम विक्खंभेणं' मा पाथी ४९स छे. 'जाव भवणा यावत् सनन वान पय तनु न ४री . 'अटुं' सिन नामा: 'रायहाणीय' यानी विगैरे णेयव्वा' सघ वर्णन सभ दे. 2 वर्णनन स२५ ४२वाना तथा मति देश द्वारा सूत्रा२ ४९ छ,-'भरहसिंधुकुंडसरिसं सव्वं णेयव्वं' मरतना वन પ્રમાણે સઘળું વર્ણન સમજી લેવું. એ વર્ણન અહીંયાં કયાં સુધીનું ગ્રહણ કરવાનું છે? से ज्ञासा निवृत्ति माट ४३ छ-'जाव' त्यात यावत् 'तस्स गं' से 'सिंधुकुंडस्स' सिंधु उनी 'दाहिणिल्लेग' क्षY निशाना 'तोरणेणं' मरिथी "सिंधुमहाणई सिधु महानही 'पवूढा समाणी' नीजीन 'उत्तरकच्छविजयं उत्तराध, ५२७ विन्यन 'एज्जमाणी २' २५शता २५शती 'सत्तहिं' सात 'सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ वा वा२ भरती
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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