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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्महदस्वरूपनिरूपणम् दस जोयणाई उव्वे हेणं अच्छे रययामयकूले एवं आयामविक्खंभविहूणा जा चेव पउमदहस्स वक्तव्यया सा चेव णेयन्ना' द्वे योजनसहने आयामेन, एकं योजनसहस्रं विष्कम्भेन, दश योजनानि उद्वेधेन अच्छः रजतमयक्लः, एक्मायामविष्कम्भविधूता-विहीना यैव पद्महूदस्य वक्तव्यता सैव नेतव्या। 'पउमप्पमाणं दो जोयणाई, अट्ठो जाव महापउमद्दहवण्णाभाई हिरी य इत्थ देवी जाव पलिभोवमहिइया परिवसई' पद्मप्रमाणं द्वे योजने, अर्थों यावद महापद्महद वर्गामानि हीश्चात्र देवी यावत् पल्योपमस्थितिका परिवसति से एएणटेणं गोयमा एवं बुच्चई' स एतेनार्थेन गौतम ! एवशुन्यते, 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! महापउमदहस्स राासए सहस्साई आयामेणं एगंजोयणसहस्सं विखंभेणं दस जोयणाई उन्हेणं अच्छे र पयालय कूटे एवं आयाम दिवस विहणा जा चेव पउमद्दहरस क्त्तव्वया सा चेव णेयव्वा' इसका आयाम दो हजार योजन का है और एक हजार योजन का इसका विष्कंभ है उद्वेध 'गहराई' इसका दस योजन का है यह आकाश और स्फटिक के जैसा निर्मल है रजतमय इसका कूल है इस तरह आयाम और विष्कंभ को छोडकर बाकी की सब वक्तव्यता यहां पद्मद्रह की वक्तव्यता जैसी ही है ऐसा जानना चाहिये 'पउमप्पमाण दो जोयणाई अहो जाव महापउमदह वण्णाभाई हिरी य इत्थ देवी जाव पलिओवमहिइया परिवसइ, से एएणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चई' इसके बीचमे जो कमल है वह दो योजन का है महापद्महूद्र के वर्ण जैसे अनेक पद्म आदि यहाँ पर है इस कारण हे गौतम ! मैने इसका नाम महापद्म हृद्र ऐसा कहा है इस सम्बन्ध में जो प्रश्न गौतमने किया है वह सब पीछे के प्रकरण में लिखा जा चुका है, अतः वहां से जानलेनाचाहिये -यह बान यहां आगत यावत् शब्द बतलाता है वहां पर ही नामकी देवी रहती जोयणसहस्सं विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे रययामयफूले एव आयामविक्खंभ . विणा जा चेव पउमद्दहस्स वत्तव्वया सा चेव णेयवा' मान। मायाम में उन्नर योरन એટલે છે, અને એક હજાર ચેાજન એટલે એને વિશ્કેલ છે. ઊંડાઈ (ઉધ) એની દશ જન જેટલી છે. એ આકાશ અને સ્ફટિકવત્ નિર્મળ છે. એને કૂલ રજતમય છે.. આ પ્રમાણે આયામ અને વિખંભને છોડીને શેષ બધી વક્તવ્યતા અહીં પદ્મદ્રહની વક્તव्यता व १ छ, मे समा नये. 'पउमप्पमाणं दो जोयणाई अट्ठो जाव महापउमदहवण्णाभाई हिरीय इत्थ देवी जाव पलिओवमद्विइया परिवसइ, से एएणट्रेणं गोयमा! શ્વ ગુજ્જ એની મધ્ય ભાગમાં જે કમળ છે તે બે જન જેટલું છે. મહાપમહદના વર્ણ જેવા અનેક પદુમો વગેરે અહીં છે. એથી હે ગૌતમ ! મેં એનું નામ મહાપદમ હદ એવું કહ્યું છે. આ સંબંધમાં જે પ્રશ્ન ૧ * છે તે વિષે ગત પ્રકરણમાં ચર્ચા કરવામાં આવેલી છે. એથી જિજ્ઞાસુઓ : એજ વાત અહીં પ્રયુક્ત થયેલ यावत् श६ ४८ ४२ छे. मीही છે, યાવતુ એની એક પલ્યોપમ ज०१४
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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