SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८ / जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पकारिकालयनं, तच्च द्वयोराजधान्योरेकैकमिति द्वे ते इति द्वित्वेन निर्देश इति उपकारिकालाने 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ते, तयोर्मानाद्याह-'बारस' इत्यादि-'वारस नोयणसयाई आयामविक्संभेणं' 'द्वादशयोजनशतानि आयामविष्कम्भेण-दैयविस्ताराभ्याम् , मूळे समाहारद्वन्छः, 'तिण्णि जोयणसहस्साई त्रीणि-त्रिसंख्यानि योजनसहस्राणि 'सत्त य' सप्त-सप्तसंख्यकानि 'पंचाणउए' पञ्चनवतानि-पञ्चनवत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्ते इति पूर्वेण सम्बन्धः, एवमग्रेऽपि 'अद्धकोसं च' अक्रोश-क्रोशस्याई 'वाहल्लेणं' वाहल्येन-पिण्डेन, 'सव्वजवृणयामया' सर्वसम्बनदमये-रात्मिना जाम्बूनदमयेजम्वूनदभवोत्तमजातिसुवर्णमये तथा 'अच्छा' अच्छे-आकाशरफटिकवनिमले, 'पत्तेयं२' प्रत्येक वे अपि 'पउमवरवेइयापरिक्खित्ता' पदमवरवेदिका परिक्षिप्ते-पदमवरवेदिकाभ्यां परिक्षिप्ते-परिवेप्टिते, 'पायर' प्रत्येकर-द्वयोः 'वणसंडवण्णओ' वनपण्डवर्णकः वनपण्डयोः है। कहा भी है-'गृहस्थानं स्मृतं राज्ञा मुपकार्योपकारिका' राजाओंका गृहस्थान उपकारिका एवं अपकारिका से युक्त कहा है । वह गृह के जैसे उपकारिकालयन दोनों राजधानी में एक एकके क्रमसे दो 'पण्णत्ते' कहे हैं । अव उपकारिकालयनका मानादि कहते हैं-'चारस' इत्यादि ___ 'चारस जोयणसयाई आयामविकावभेणं' बारह योजन के लम्बे चौडे है 'तिणि जोयण सहस्साई' तीन हजार योजन 'सत्तय पंचाणउए जोयणसए' सातसो पंचाणु योजन 'परिक्खेवेणं' इसना परिक्षेप हैं 'अद्धकोसं च' आधाकोस की 'बाहल्लेणं' मोटाई है 'सव्वजंबूणयामया' सर्वात्मना जंबूनदमय उत्तम सुवर्ण भय है.। 'अच्छा' आकाश एवं स्फटिक सदृशनिर्मल है । 'पत्तेयं २' प्रत्येक अर्थात् दोनों उपकारिकालयन 'पउमवरवेझ्या परिक्खित्ता' पद्मवर वेदिका से परिवेष्टित है 'पत्तेयं २' दोनों 'वणसण्डवण्णओ वनषण्ड वर्णन परक पदसमूह प छ.-'गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकरिको शयाना स्थान 6५२४ मन म५४१રિકાથી યુક્ત કહેલ છે. એ ઉપકારિકલયન બેઉ રાજધાનીયોમાં ગૃહના રૂપમાં એક એકના भथी मे. 'पण्णत्ता' ४ा छे. हवे. 6५४२४सयनना भाना प्रभार मत छ. 'वारस' त्या 'बारस जोयणसयाई आयामविक्खंभेण मारसा योगन २८मा eil पा छे. 'तिन्नि जोयणसहस्साई' न १२ या 'सत्तय पंचाणउए जोयणसए' सात पंचा योन परिक्खेवेणं' तेना परिक्ष५ ४९स छ. 'अद्धकोस च' मा टही 'बाहल्लेणं' तनी ants छे. 'सव्ब जंवूणया मया' सशत भून नामना उत्तम सुवर्ष भय छे. 'अच्छा' मा४।२२ मन टि सरमा निर्भर छ. 'पत्तय २' १२४ टी 28 6५. . २४ सयन. 'पउमवरवेइया परिक्खित्ता' पद्मप२ वी पीटायस . 'पत्तेयं मना 'वणसंड वण्णओ' पनपना वन समाधी ५हो 'भाणिअव्वो' ही वा न. २१
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy