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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४२ मन्दरस्य षोडशनामनिरूपणम् ५०३ धर्मादीनां-धर्मा-प्रथमनरकशूमिः साऽऽदिर्यासां ता धर्मादयः तासां लोकमध्यम् 'योजनासंख्यकोटिमि:-योजनानामसंख्याताभिः कोटिभिः अतिक्रान्ताभिः सद्भिर्भवति' इत्यर्थकात् 'धम्माई लोगमज्झं जोयण असंखकोडीहि' इति वचनात्, परन्तु सोर्थों मेरौ न घटते, यदि च लोकशब्देन अष्टादशशतयोजनप्रमाणोच्चत्व स्तियग्लोको गृह्यत तथापि तस्य चतुर्दशरजावेवान्तर्भावात्पृथगायासो विफलः स्यात्, ततो मेरुः कथं लोकमध्यवर्तीति चेत् श्रूयताम्अत्र लोकशब्देन तिर्यग्लोके तिर्यग्भागस्य स्थालाकारैकरज्जुप्रमाणायामविष्कम्भस्य स्वीकारोऽस्ति तस्यैव मध्यः-मध्यवर्ती मेरुरिति सर्वमयदातम् ९, दसमं नामाह-'णानी य' नाभिश्चअर्थात् समस्त लोक के मध्य में यह पर्वत बतलाया गया है इससे इसे लोक मध्य ऐसा कह दिया गया है। शंका-लोक शब्द से यहां १४ राजू प्रमाण लोक व्याख्यातव्य होना चाहिये क्योकि “धम्लाइ लोकमज्झं जोयण अरसंखकोडीहि" एसा अन्यत्र कहा गया है सो इस लोक का मध्य तो इस साभूतल से रत्नप्रभा पृथिवी से असंख्यात योजन कोटियां जब अलिक्रान्त हो जाती हैं तब आता है ऐसे उस मध्य में सुमेरु का. सद्भाव तो कहा नहीं गया है, अतः लोक मध्यरूप से इसका नामान्तर कथन बाधित होता है यदि कहा जावे कि यहां लोक शब्द से तिर्यग्लोक गृहीत हुआ है-सो यह तिर्यग्लोक १८ हजार योजन का ऊंचा कहा गया है-ऐसे इस तिर्यग्लोक का अन्तर्भाव तो इस १४ राजू प्रमाणलोक में ही हो जाता है फिर इसकी अपेक्षा लेकर लोक मध्य की कल्पना करना विफल ही है अतः मेरु में नामान्तर करने के लिये "लोकमध्य" नामकी सफलता कैसे हो सकती है ? सो किसीकी ऐसी यह शङ्का है अतः उसके समा. धान निमित्त कहा जाता है कि लोक शब्द से यहां स्थल के आकार भूत तथा એથી આને કમળ’ એવા નામથી અભિહિત કરવામાં આવેલ છે. શંકા-લેક શબ્દથી અહીં ૧૪ રાજુ પ્રમાણુ લેક વ્યાખ્યાત હવે જોઈએ. કેમકે 'घम्माइ लोकमज्झं • जोयण अस्संखकोडीहिं' मेरे अन्य स्थणे पाम मावा छ તે આ લોકને મધ્ય ભાગ તે આ સમ ભૂતળથી રત્નપ્ર પૃથિવીથી આગળ અસ ખ્યાત જન કેટીઓ જ્યારે અતિક્રાન્ત થઈ જાય છે ત્યારે આવે છે, એવા તે મ ભાગમાં સુમેન સદુભાવ તે કહેવામાં આવેલ નથી, એથી લેક મધ્ય રૂપથી એનું નામાન્તર કથન બાધિત થાય છે. જે કહેવામાં આવે કે અહીં લોક શબ્દથી તિક ગૃહીત થયું છે. તે આ તિયક ૧૮ હજાર જન જેટલો ઉચે કહેવામાં આવે છે. એવા આ તિર્યશ્લોકને, અન્તર્ભાવ તે આ ૧૪ ચૌદ રાજ પ્રમાણ લેકમાં જ થઈ જાય છે. તે પછી એની અપેક્ષાએ લોક मध्यनी ४६पना ४२वी व्यथ छे. मेथी मेरुमा नामान्तर ४२वा माटे "लोकमध्य" नामनी સફલતા કેવી રીતે સંભવી શકે તેમ છે? આમ કઈ શંકા ઉઠાવી શકે. એથી આ શંકાના
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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