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________________ ७५३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे खलु लवणसमृद्रः ते प्रदेशाः जम्बूद्वीपस्य लवणसमुद्रस्पृष्टा अपि जम्बूद्वीप एव जम्बूद्वीपसीमावर्त्तित्वात् न खलु ते लवणसमुद्रः जम्बुद्वीपसमानमतिक्रम्य लवणसमुद्रसीमानमप्राप्तत्वात् किन्तु जम्बूद्वीपसी मागता एव ते प्रदेशाः लवणसमुद्रं स्पृष्टास्तेन तटरथतया संस्पर्शभवनात् तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाङ्गुलिखि स्वव्यपदेशं लभते इति । ' एवं लवणसमुदवि परसा जंबुद्दीवे पुट्ठा भाणियच्चा इति ॥ ' एवं लवणसमुद्रस्यापि प्रदेशा जम्बूद्वीपे स्पृष्टा भणितव्या इति, आलापप्रकारस्तु एवम् - हे भदन्त ! लवणसमुद्रस्य चरमप्रदेशाः जम्बूद्वीपं स्पृष्टा नवेति प्रश्नः, भगवानाह - हन्त, गौतम ! ये लवणसमुद्ररूप चरम प्रदेशास्ते जम्बूद्वीपं स्पृष्टवन्त एव, हे भदन्त ! लवणसमुद्रस्य चरमप्रदेशाः जम्बूद्वीपं स्पृष्टास्ते किं लवण समुद्रव्यपदेशभाजः उत जम्बूद्वीपस्पृष्टत्वाद् जम्बूद्वीपव्यपदेशभाज इति पुनः प्रश्नः, भगवानाह - हे गौतम ! लवणसमुद्रस्य ते चरमप्रदेशा लवणसमुद्रव्यपदेशभाज एव " वेणं दीवे णो- खलु लवणसमुद्दे' हे गौतम! वे जम्बूद्वीप के चरमप्रदेश जो कि लवणसमुद्र को छुए हुए हैं वे जम्बूद्वीप के ही कहलावे गे लवणसमुद्र के नहीं जिस प्रकार तर्जनी संस्पृष्ट ज्येष्ठाङ्गुली ज्येष्ठाङ्गुली ही कहलावेगी- तर्जनी नहीं कहलावेगी । वे चरमप्रदेश ऐसे तो हैं नही जो जम्बूद्वीप की सीमा को उल्लंघन करके लवणसमुद्र की सीमा में प्रविष्ट हुए हो किन्तु जम्बूद्वीप की सीमा में रहते हुए ही वे वहां स्पृष्ट हुए हैं । अतः वे उसी के हो व्यपदेश्य हैं। अन्य के नहीं' । ' एवं लवणस्य विपएसा जंबुहीवे पुट्ठा भाणियन्वा' इसी तरह से लवगसमुद्र के चरमप्रदेश जो कि जम्बूद्वीप को छूते हैं कहलेना चाहिये यहां आलाप प्रकार इस प्रकार से है - हे भदन्त । लवण समुद्र के चरम'प्रदेश जम्बूदीप को छूते हैं या नहीं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - हां गौतम ! छूते हैं तो फिर वे लवणसमुद्र के कहलावेंगे ? या जम्बूद्वीप के कहलावेंगे ? जम्बूद्वीप के नहीं क्यों कि वे उसकी सीमा में ही रहे हुए हैं और वहीं से वे उसे ४डे छे- 'गोयमा ! जंबुद्दीवेणं दीवे णो खलु लत्रणसमुद्दे' डे गौतम । ते दीपना यरभयदेशी કે જેએ લવણુસમુદ્રને સ્પર્શી રહ્યા છે, તેએ લવણુસમુદ્રના નહિ પરંતુ જ ખૂદ્રીપના જ કહેવાશે. જે પ્રમાણે તજની સત્કૃષ્ટ જ્યેષ્ઠાંગુલી ચેષ્ઠાંગુલી જ કહેવાશે, તની નહિ. તે ચરમપ્રદેશે એના તા છે જ નહિ કે જે જમૂદ્રીપની સીમાને એળ’ગીને લવણુસમુદ્રની સીમામાં પ્રવિષ્ટ થયેલા ડાય પરંતુ તે પ્રદેશા જમૂદ્રીપની સીમામાં રહીને ત્યાં પૃષ્ટ थयेला छे. मेथी तेथे। तेना ४ व्ययद्देश्य है. जीलना नहि. 'एवं लवणसमुहस्स विपएसा जंबुद्दीवे पुट्ठा भाणियव्या' मा प्रभा सवगुसमुद्रना शरभप्रदेश हे लेगो 'शूद्रीयते स्पर्शे છે તે પણ આ પ્રમાણે જ સમજી લેવા જોઈએ. અનુી' આલાપ પ્રકાર આ પ્રમાણે છે— હે ભટ્ટ'ત ' લવણુસમુદ્રના ચરમપ્રદેશા જમૂદ્રીપને સ્પર્શે છે કે નહિ ? જવામમાં પ્રભુ કંડે Àહાં ! ‘તે જ્યારે તે સ્પર્શી કરે તેા પછી તેમે લવણુસમુદ્રના કહેવાશે ? અથવા
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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