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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४० पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४८९ यावत् तस्य खलु 'वहुसमरमणिज्जास' बहुसमरमणीयस्य 'भूमिमागस्स' भूमिभागस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशमागे 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु ‘महं एगे' महदेकं 'सीहासणे' सिंहासनं 'पण्णते प्रज्ञप्तम् तद्बहुसमरमणीयभूमि मागसम्बन्धिवहुमध्यदेशभागवति महदेकसिंहासनवर्णनपर्यन्ता वक्तव्यता भाणितव्येत्यर्थः तं चेव तदेव पूर्वोक्ताभिलापोक्तमेव पञ्चधनुः शतादिकं 'सीहासणप्पमाणं' सिंहासनप्रमाणम् उच्चसादौ वोध्यम् 'तत्थ तत्र सिंहासणे 'ण' खलु 'वह हि बहुभिः 'मवणवइ जाव' भवनपति यावत् भवनपतिव्यन्तरज्योक्किवैमानिकैवैर्देवीभिश्चेति यावत्पइसचितपदसङ्ग्रहोऽवगन्तव्यः 'भारहगा' भारतकाः-भरते भरतनामके क्षेत्रे जाता भारतास्त एव भारतका:-भरतक्षेत्रोत्पन्नाः 'तिस्थयरा' तीर्थकरा:-जिना: 'अभिसिच्चंति' अभिपिच्यन्ते, ननु पूर्वोक्त पाण्डुशिलायां सिंहासनद्वयमुक्तं पाण्डुकम्बलायामस्यां शिलायामेकसिंहासनोतौ को हेतुः १ इति चेच्छृणु-एपा शिला दक्षिणदिगभिमुखाबहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे अहं सीहासणे पण्णत्ते' इस सूत्र पाठ द्वारा व्यक्त की गई है। 'तं चेव सीहासणप्पमाणं' यह सिंहासन आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा पांचसो धनुष का है तथा २५० धनुष की इसकी मोटाई है इस प्रकार से जैसा सिंहासन का वर्णन पाण्डुशिला के प्रकरण में कहा गया है वैसा ही वह प्रमाण वर्णन यहां पर भी कर लेना चाहिये 'तत्थणं बहू, अवणवइयाणमंतर जोइसियवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहिय भारहगा तित्थयरा अहिलिंचंति' इस सिंहासन के ऊपर भरतक्षेत्र सम्बन्धी तीर्थकर को स्थापित करके अनेक भवनपति व्यानव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देखियों द्वारा जन्माभिषेक किया जाता है। यहां एसी शंका हो सकती है कि पहिले पाण्डुशिला के प्रकरण में दो सिंहासनों का होना प्रकट किया गया है और यहां पर एक ही सिंहासन का होना कहा गया है सो इसका कारण क्या है ? तो इसका समाधान रूप तेना महु भयहेशमा मेसिन छ, म पात 'जाव तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगे महं सीहासणे पण्णत्ते' २॥ सूत्रया 43 व्यत ४२वामा मावली छ. 'तं चेव सीहासणप्पमाणं' मा सिसन मायाम मन मिनी अपेक्षाये ૫૦૦ ધનુષ જેટલું છે, તથા ૨૫૦ ધનુષ જેટલી એની મેટાઈ છે. આમ સિંહાસનનું જેવું વર્ણન પાંડુશિલા પ્રકરણમાં કરવામાં આવેલું છે, તેવું જ વર્ણન અહીં પણ સમ, से न . 'तत्थणं वहहिं भवणवइवाणमंतरजोईसिय वेमाणिएहिं देवेहित भारहगा तित्थयरा अहिसिंचति' के सिंहासननी ५२ मतक्षेत्र सधी तीथ કરીને અનેક ભવનપતિ, વાનર્થાતર, તિષ્ક અને વૈમાનિક દેવ અને ? જન્માભિષેક કરે છે. અહીં એવી શંકા ઉદ્ભવી શકે કે પ્રથમ સિંહાસનું વર્ણન કરવામાં આવેલું છે અને અહીં એ આવેલ છે. તે આનું શું કારણ છે? એના સમાધાન - -- Aanel महानही १ ज० ६२ -- लष
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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