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________________ - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मालाओ णेयब्बाओ' यावत् वनमाला ज्ञातव्याः । अत्र यावत्पदेन इतो अग्रे 'ईहामिगे' इत्यारभ्य वनमालावर्णनपर्यन्तः सकलोऽपि पाठः तदर्थश्चात्रैव पूर्वमष्टमसूत्रस्य जम्बूद्वीप विजयद्वारवर्णनव्याख्यायां तथा राजप्रश्नीयसूत्रे सूर्याभदेव विमानद्वारवर्णने चतुप्पश्चाशत्तमसूत्रादारभ्य एकोनपष्टितमसूत्रगतवनमालावर्णनपर्यन्तं च विलोकनीयः ।। 'तस्स णं भवणस्स अंतो वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' तस्य खलु भवनस्य अन्तः मध्ये बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः स कोदृश इत्याह-'से जमाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा०' स यथानामक आलिङ्गपुष्कर इति वा इत्यादि भूमिभागवर्णनं सविवरणं पप्ठसूत्राद्वोध्यम् । 'तस्स णं' तस्य खल्लु भूमिभागस्य 'बहुमज्झदेसभाए' वहुमध्यदेशभागे 'एत्य णं' याई विखंभेणं, तावतिअंचेव पवेलेणं. सेथा वरकणगथूनिया जाव वणमालाओ जेयवाओ) ये द्वार पांच सौ धनुष के ऊंचे हैं अढाई सौ धनुष के चौडे हैं तथा इनमें प्रवेश करने का मार्ग भी इतका ही चौडा है ये द्वार प्रायः अङ्करत्नों के बने हुए हैं तथा इनके ऊपर जो स्तूपिकाए है-लघुशिखर हैं-वे उत्तम स्वर्ण की बनी हुई हैं इनके चारों ओर धनमालाए हैं यहां-यावत्पद से 'ईहामिग' आदि रूप जो वनमालावर्णन करते तकका पाट है वह गृहीत हुआ है वह पाठ और उसकी व्याख्या इसी जम्बूद्वीप के विजय द्वार के वर्णन में कही गई है-देखना चाहिये तथा राज प्रश्नीय सूर्यास देवके विमान के वर्णन के प्रसङ्ग में कथित ४५ वें सूत्र से लेकर ५९ वें सूत्र तक में देखना चाहिये (तस्लणं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) उस भवन के भीतर का जो भूमिआग है वह बहुलमरमणीय कहा गया है (से जहाणालए आलिंग पुक्खरेइवा) उस भूमि भाग का वर्णन इत्यादि रूप से छठे सूत्र से जान लेना चाहिये (तस्स तावतिअं चेव पवेसेणं, सेया वरकणगथूभिया जाव वणमालाओ णेयवाओ' ये दार ५०० धनुष જેટલા ઊચા છે અને ૨૫૦ ધનુષ જેટલા પહોળા છે. તેમજ એમની અંદર પ્રવિષ્ટ થવાને માર્ગ પણ આટલે જ પહોળે છે. એ દ્વારે પ્રાયઃ અંકરનેથી નિર્મિત છે. એમની ઉપર જે સ્કૂપિકાઓ છે–લઘુ-શિખરે છે તે ઉત્તમ સ્વર્ણ નિર્મિત છે. એમની थामेर वनमागाय छे. मी यावत्' ५४थी 'ईहामिग' वगैरे ३५२ वनभाणाना वर्णन સુધીને પાઠ છે, તે અહીં ગૃહીત થયે છે. આ પાઠ, અને પાઠની વ્યાખ્યા આ “જમ્મુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ માં પહેલા અષ્ટમ સૂત્રની વ્યાખ્યામાં, વિજય દ્વારના વર્ણન વખતે કરવામાં આવેલ છે. જિજ્ઞસુએ ત્યાંથી જાણવા યત્ન કરે. તેમજ “રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર માં સૂર્યાભદેવના વિમાન વર્ણન પ્રસંગમાં કથિત ૪૫ માં સૂત્રથી માંડીને ૫માં સૂત્ર સુધી એ पानी व्याच्या मागे नये. 'तस्स णं भवणस्स अंतो वहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते' ते अवननी भरने। रे भूमिमा छ, ते ममम २भीय ४उपाय छे. 'से जहाँ णामए आलिंगपुक्खरेइ वा ते भूमिमा वर्णन या ३५मा ७४1 सूरमाथा
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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