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________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्काः सू० ५ महामहानयाः निर्गम - स्पर्शनादिनिरूपणम् ५९ 5 द्वीपो नाम द्वीपः प्रवतः अयं द्वीपो गङ्गाोपवद्वर्णनीयः, 'अहो सोचेव' अर्थः स एव - सिन्धुमहानदी सूत्रस्यार्थः स एव गत महानदीसत्रार्थ एवं बोध्यः न त्वन्यः 'जाव' यावत - यावत्पदेन - 'स्प खलु सिन्धुकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन सिन्धुमहानदी प्रयूढा सती उत्तरार्द्धभरतवर्षम् इती २ विलासः आपूर्यमाणा २" इति संग्रायम्, 'अहे' अधःअधोभागे 'तिमिमगुहाए' तमित्रगुहायाः तमिस्रनामक गुहायाः सकाशात् 'वेयद्धपन्चय' चैता पर्वतं 'दाता' दारविना भिचा 'पन्चत्थिमाभिमुठी' पात्रात्याभिमुखी पश्चिमाभिमुखी 'आयत्ता' आवृत्ता - परावृना 'समाणा' सती 'चोटमसलिया' चतुर्दशसलिलेति चतुर्दशभिः सन्मित्रः सया सम्पूर्णा 'अहे जगई' अयो जगतीं दारयित्वा ' पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन - पश्चिमायां दिवि स्थितं 'लवण समुद्रं 'जाव' यावत 'समप्पेड' समर्पयति 'सेस' शेपम् - उक्तातिरिक्तं प्रवद भुजगानादिकं 'तं चेन' तदेव गज्ञा महानदी प्रसोक्तमेव बोध्यम् ॥ ०५ ॥ मृत्य तस्स स्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं शेहियंसा महाणई बूढा समाणी दोणि छान्तरे जोयणसए छ एगूणवीसइभाए जोयभी वर्णन गंगाप्रपान कुण्ड के जैसा ही है उसके बीच में सिन्धु महानदी सूत्र का वर्णन गंगाजी के वर्णन जैसा ही है तथा सिन्धु महानदी सूत्र का अर्थ गंगामहानदी सूत्र के अर्थ जैण ही है। यहां याचत्पद से 'तस्य लु सिन्धु प्रपात कुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन सिन्धुमहानदी प्रव्यूहा सती उत्तरार्द्धम् भरतवर्षम् इती र मलिला महः आपूर्यमाणा २२ इस पाठ का संग्रह हुआ है यह सिन्धु महानदी के नीचे से होकर तथा वैतादय पर्वत को विदारित कर पविमदिशाकी और लौटती हुई २४ हजार नदियों रूप परिवार से युक्त हुई है इस प्रकार यह सिन्धु नदी पश्चिमदिशा के लवण समुद्र में जाकर मिल गई है इस कथन के अतिरिक्त और सब कथन गंगानदी के प्रकरण के जैसा ही है ऐसा जानना चाहिये ॥२०५॥ (तणं मद्दह उत्तरिल्लेणं तोरणेणं) એક તેજ નામધારી પ્રપાત કુંડ છે. એ પ્રાત કુંડનું વર્ણન પણ ગંગા પ્રપાતવત્ સમજવું. તેના મધ્ય ભાગમાં સિધુ ઢીપ છે એ દ્વીપનું વર્ણન ગંગા દ્વીપના વર્ણનની જેમ જ છે. તેમજ સિન્ધુ મહાનદી સૂચના અ ગગા મહાનદી સૂત્રના અર્થ જેવા જ થાય मडीं' यावत् यथी 'तम्य खलु सिन्धु पातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन सिन्धु महानदी प्रव्यूढा सती उत्तरार्द्धम् भरतवर्ष इयती २ सलिलासहस्रे आपूर्यमाणा ' से पानी संग्रह थयो छे. એ સિંધુ મહાનદી ખંડ પ્રપાત ગુઢ્ઢાના નિષ્મ ભાગમાથી પ્રવાહિત થઇ તેમજ વૈતાઢય પ તને વિદીશુ કરતી પશ્ચિમ દિશા તરફ પાછી ફરતી ૧૪ હજાર ની રૂપ પેાતાના પરિવારથી યુક્ત થઇ છે. આ પ્રમાણે એ સિધુનદી પશ્ચિમ દિશાના લવણુ સમુદ્રમાં જઈને મળે છે, એ કથન સિવાય શેષ મધુ કથન ગંગા નદીના પ્રાણ્યુ જેવુ' જ છે. ા સ્ પ ॥
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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