SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३९ पण्डकवनवर्णनम् पट्त्रिंशतं 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उप्पइत्ता' उत्पत्य-गत्या 'एत्य अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु मंदरे पाए' मन्दरे पर्वते 'सिहरतले' शिखरतले-शिरोभागे 'पंडगवणे णाम' पण्डकवनं नाम 'वणे' वनं प्रज्ञप्तम्, तच्च ‘चत्तारि' चत्वारि 'चउणउए' चतुर्नवतानि चतुर्नवत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'चक्कवालविक्खंभेणं' चक्रवालविष्कम्भेण मण्डलाकारविस्तीरेण 'बट्टे' वृत्तं-वर्तुलं 'वलयाकारसंठाणसंठिए' वलयाकारसंस्थानसंस्थितं रिक्तमध्यकङ्कणवत् मध्ये तरुलतागुल्मादि रहिततया संस्थिम् एतदेव स्पष्टी- . करोति-'जे' यत् पण्डकवनं 'ण' खलु 'मंदरचूलिभ' मन्दरचूलिकां 'सव्वओ' सर्वतः सर्वदिक्षु 'समंता' समन्तात्-सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ता' सम्परिक्षिप्य परिवेष्टय 'ण' खलु 'चिठ्ठइ' तिष्ठति 'तिण्णि' त्रीणि 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'एगं च' एकं च 'बावर्ट' द्वाषष्टं-द्वाषष्टयधिक 'जोयण सयं योजनशतं 'किंचिक्सेिसाहियं' किश्चिद् विशेषाधिककिञ्चिदधिकं 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तम्, तत्पुनः पमरवेदिका वनंपण्डाभ्यों सोमणसवणस्स बहु समरमणिज्जाओ भूमिभागाओ छत्तीसं जोयणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता एस्थ णं मंदरे पव्वए लिहरतले पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते' हे गोतम ! सौमनसवन के बहसमरमणीय भूमि आग से छत्तीस हजार योजन ऊपर जाने पर आगत इसी स्थान पर मन्दर पर्वत के शिखर तल पर यह पण्डक वन नामका वन कहा गया है 'चत्तारि चउणउए जोयणसए चक्कवालविक्खंभेणं वहे वलयाकारसंठाणसंठिए' यह समचक्रवाल विष्कम्भ की अपेक्षा ४९४ योजन प्रमाण है यह गोल है तथा उसका आकार गोलाकार वलय के जैसा है जिस प्रकार वलय अपने मध्य में खाली रहता है उसी प्रकार यह वन भी अपने बीच में तरुलता गुल्म आदि से रहित है। 'जे णं मंदरचूलिअं सचओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिटई' यह पण्डक वन मंदर पर्वत की चूलिकाको चारों ओर से घेरे हुए हैं ! (तिष्णिजोयणसहस्साई एगंच बावर्ट जोयणसयं मेन वामभा प्रभु ई -गोयमा ! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागांओ छत्तीसं जोयणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता एत्थणं मंदरे पव्वए सिहरतले पंडगरणे णामं वणे पण्णत्तें' હે ગૌતમ! સૌમનવનના બહુ સમરમણીય ભૂમિભાગથી ૩૬ હજાર યોજન ઉપર ગયા પછી જે સ્થાન આવે છે તે સ્થાન પર મંદર પર્વતના શિખર પ્રદેશ ઉપર આ પણ્ડકવન નામક पन मावे छे. 'चत्तारि चउणउए जोयणसए चक्कवालविक्खंभेणं वटूटे वलयाकारसंठाणसंठिए' मा समन्यवाद qिex सनी अपेक्षा ४८४ या प्रभार छे. मागोवारमा છે તથા તેને આકાર ગોળાકાર વલય જેવું છે. જેમ વલય પિતાના મધ્યમાં ખાલી રહે छ तभ०४ मा वन पर पोताना मध्यभागमा तरु-सता गुम वगेरेथी दहित छ. 'जे गं मंदरचूलिअं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिदई' मा ५९४ भर तना यूलिआने योमरथी मात ४श मस्थित छ. 'तिणि जोयणसहस्साई एगं च बावटुं जोयण ज०६०
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy