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________________ હિટ जम्बूद्वीपप्रशस्ति देवाः देव्यश्च सौधर्मकल्पपतेः शक्रस्येदं वचनं हितसुखार्थम् हितं जन्मान्तरकल्याणवई मुखं तद्भवसंवन्धि-इहलोक परलोकसुखजनकं तदर्थमाज्ञापयति खलु भो देवा ! शक्रः तदेव ज्ञेयम् यावत् अन्तिकम्-यत् प्रास्त्रे शक्रेण हरिनैगमेपिणः पुरत: उद्घोपयितव्यमादिष्टं यावत् तत्सर्व प्रादुर्भवत्त इति । 'तएणं ते देवा देवीओ य एयमदं सोचा इह तुह जाव हिअया अप्पेपइया वंदणवत्तियं एवं पूयणवत्तियं सकारवत्ति सम्माणवत्तिअंदसणवत्ति जिणभत्तिरागेणं अप्पेगइया तं जीयमेअं एवमादित्ति कटु जाव पउभवंतित्ति' ततः पदात्यनीकाधिपतिर्देवमुखात् शक्रादेशश्रवणानन्तरं खलु ते देवाः देव्यश्च एवम् अनन्तरपूर्वकथितम् अत्यं' हे सौधर्मकल्पवासी देव और देवियों आप सब बडे हर्प के साथ सौधर्मकल्पपति के हितलुखार्थ इन वचनों को सुनिये यहां 'हन्त' शब्द प्रकर्ष हर्ष का द्योतक है यह वचन जन्मान्तर में कल्याण का कारण है इसलिये हित स्वरूप है और इस भवमें सुखका दायक है अतः सुखार्थरूप है 'अणावईणं भी सक्के तचेच जाव अंतिअंपाउन्भवत्ति' वह हितसुखार्थक वचन सौधर्मकल्पपतिके इस प्रकार से हैं-कि आप सब शीघ्र ही यावत् शक के पास उपस्थित हों इस प्रकार जैसी घोषणा करने का आदेश पदात्यनीकाधिपति हरिलिगमेपी देवको शक्रने दिया था वह शब शक का आदेश 'आप सब शक्र के पास आकर उपस्थित हो जावे' यहांतक का उसने घोपणा करके सुनादिया 'तएणं ते देवा देवीओ य एयमé लोच्चा हट्ट तुट्ठ जाव हियया अप्पेगड्या वन्दणवत्तियं एवं पूअणवत्तियं सक्कारवत्तियं दसणवत्तियं जिणभत्तिरागेणं अप्पेगइया तं जीयमेयं एव मादित्ति कटु जाय पाउन्भवतित्ति' इसके बाद वे देव और देवियां इस चातको सुनकर हृष्ट तुष्ट यावत् हर्ष से जिनका हृद्य उछल रहा है ऐसी हो वेमाणिया देवा देवीओ य सोहम्मकापव इणो इणमो वयण हिययसुअत्य' र सौधर्म ४५वासी દેવ અને દેવીઓ આપ સર્વે અતી આનંદ પૂર્વક સૌધર્મ કલ્પતિમાં હિતસુખાર્થ મારા मा क्यन समजा-मडी 'हन्त !' श ष उपपोत छ. मा क्यन न्मान्तरमा પણું કલ્યાણ કારી છે એથી હિત સ્વરૂપ છે અને આ ભવમાં સુખદાયક છે, એથી સુખાર્થ ३५ छ 'आणवईणं भो सक्के त चेव नाव अंतिअं पउन्भवहत्ति' हित सुभाथ वयन સીધર્મ કલ્પપતિનું આ પ્રમાણે છે-કે આપ સર્વ શીઘ ચાવત શક્રની પાસે ઉપસ્થિત થાઓ. આ પ્રમાણે પદત્યની કાધિપતિ હરિનિગમેષી દેવને શકે જેવી ઘેષણ કરવાની આજ્ઞા કરી હતી, તે શક્રની “આપ સવે શકની પાસે શીધ્ર ઉપસ્થિત થાઓ “અહી सुधीनी माजाने धेषाना ३५भा सीधी . 'तए णं तं देवा देधीओय एयमद्वं सोच्चा हतुटु जाव हियया अप्पेगइया वन्दणवत्तिय एवं पूअणवत्तियं सक्कारवत्तिय देसण वत्तियं जिणभत्तिरागेणं अपेगइया त' जीयमेवं एवमादित्ति कटु जाव पाउन्भवतित्ति' ત્યાર બાદ તે દેવ અને દેવીઓ આ વાતને સાંભળીને હૃષ્ટ–તુષ્ટ યાવત્ હેથી
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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