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________________ प्रकाशिका टीका - पष्ठोवक्षस्कारः सु. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ૭૨ सहरसा ' चतुर्नवतिश्च सहस्राणि चतुरधिकानि नवतिसहस्राणि इत्यर्थः ' सयं दिवद्धं च गणियपयं' शतंच द्वयर्द्ध पञ्चाशदधिकं योजनाना मित्येतावत्प्रमाणकं जम्बूद्वीपस्य गणितपदं क्षेत्र फलमित्यर्थः सूत्रेऽत्र योजनसंख्याया: प्रक्रान्तत्वाद् योजनावधिरेव संख्या प्रदर्शिता, योजनातिरिक्त संख्याया विद्यमानत्वेऽपि उपेक्षण परित्यागात् भगवती सूत्रादौ तु साधिकत्वं दर्शितम्, तद्यथा 'गाउयमेगं पण्णरस धणुरुसया वह धणूनि पण्णरस । सद्धिं च अंगुलाई जंबुद्दीपस्स गणियपये " ॥ १ ॥ छाया -- गव्यूतमेकं पञ्चदशधनुः शतानि तथा पञ्चदश धनुंषि । पष्टिं चाङ्गुलानि जम्बूद्वीपस्य गणितपदम् ॥ १॥ इतिच्छाया || सयं दिवद्धं व गणिअपयं ॥ १॥ हे गौतम ! ७ अरब ९० करोड ५६ लाख ९४ हजार १५० योजन का जम्बूद्वीप का क्षेत्र फल है 'सत्तेव' में जो एव पद प्रयुक्त हुआ है वह अवधारण अर्थ तथा आगे की संख्या के समुच्चय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है | 'या' पद से ९० करोड अधिक ऐसा अर्थ लिया गया है ९ सौ ऐसा अर्थ नहीं लिया गया है क्योंकि ऐसा अर्थ लेने पर आगे के लक्षादि स्थानों में गणित प्रक्रिया के अनुसार विरोध पडता है गणित पद से क्षेत्र फल गृहीत हुआ है इस सूत्र में योजन संख्या का प्रकरण है इससे योजन तक की ही संख्या यहां दिखाई गई है यद्यपि योजत्र से अतिरिक्त भी संख्या विद्यमान है परन्तु वह यहां गृहीत नहीं हुई है भगवतीसूत्र आदि में इस प्रमाण में साधि - कता इस प्रकार से दिखलाई गई है - ' गाउयमेगं पण्णरस धणुस्सया तह धणि पण्णरस । खडिं च अंगुलाई जंबूद्दीवस्त्र गणियपथं ॥ १॥ कि जम्बूद्वीप का क्षेत्र फल १ गव्यूत १५१५ धनुष ६० अंगुल का है यहां सप्तकोटि शतादि रूप प्रमाण ||१|| हे गौतम! ७ भरण ८० ४, ६ साथ, ६४२, १५० (७७०५६८४१५०) योजन नेटल यूद्दीय क्षेत्र छे 'सत्तेव' भां ने 'एव' यह प्रयुक्त थल, अवधारण अर्थ तेभन आगजनी संख्याना समुख्ययना अर्थभां प्रयुक्त थयेस छे. 'जया' પદ્મથી ૯૦ કરાડ કરતાં અધિક, આ જાતના અં ગ્રહણ કરવામાં આવેલા છે. નવસે એવા અ ગ્રહણુ કરવામાં આવેલે નથી. કેમકે આ જાતના અર્થે લેવાથી આગળના લક્ષાદિ સ્થાનામાં ગણિત પ્રક્રિયા મુજઞ વિરાધ આવે છે. ગણિત પદ્મથી ક્ષેત્રફળ 'ગૃહીત થયેલુ છે. આ સૂત્રમાં ચેાજન સંખ્યાનુ' પ્રકરણ છે. એથી ચેાજન સુધીની જ સંખ્યા અત્રે નિર્દિષ્ટ કરવામાં આવેલી છે. જો કે ચેાજનાતિરિક્ત પણ સખ્યા વિદ્યમાન છે, પરંતુ તેનું અત્રે ગ્રહણુ થયુ નથી, ભગવતીસૂત્ર વગેરેમાં આ પ્રમાણમાં સાધિકતા આ પ્રમાણે નિર્દિષ્ટ ४२वाभ' आवेली छे–'गाउयमेगं पण्णरस वणुस्सया तह धणूणि पण्णरस सट्ठिच अंगुलाई जंबूद्दोवरस गणियपयं ॥१॥
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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