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________________ ad : प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २० उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् योजनसहस्राणि-सहस्रत्रयसंख्ययोजनानि 'एगं च वावटं' एकं च द्वापष्टं-द्वापष्टयधिक 'जोयणसय किंचि विसेसाहियं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकं-कियत्कलमित्यर्थः, 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना वर्तुलत्वेनेत्यर्थः, 'मज्झे दो जोयणसहस्साई' मध्ये-द्वे योजनसहस्र-सहस्रद्वयसंख्ययोजनानि 'तिण्णि बावत्तरे' त्रीणि च द्वासप्ततानि-द्वासप्तत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'किंचि विसेसाहिए' किश्चिद्विशेषाधिकानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना, 'उवरि' उपरि-शिखरे 'एगं' एकं 'जोयणसहस्सं पंच य एकासीए' योजनसहस्रं पञ्च च एकाशीतानि-एकाशीत्यधिकानि 'जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' योजनशतानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, अत एव 'मूले वित्थिण्णा' मूले विस्तीणौं, 'मज्झे' मध्ये-मूलापेक्षया 'संखित्ता' संक्षिप्तौ-अल्पपरिक्षेपको, 'उप्पि' उपरिशिखरे मूलमध्यापेक्षया 'तणुया' तनुकौ-स्वल्पतरायामविष्कम्भौ, तथा 'जमगसंठाणसंठिया' म्भ वाले एवं 'उवरि च' ऊपर एक सहस्र योजन पर 'पंचजोयणसयाई पांचसो योजन 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भ से युक्त 'मूले तिनि जोयण सहस्साई' मूलभागमें तीन हजार योजन 'एगं च बावट्ट जोयणसयं एकसो बासठ योजनसे 'किंचिविसेसाहियं कुछ अधिक अर्थात् मूलभागमें ३१६२ योजनसे कुछ अधिक परिक्खेवेणं' परिधिवाले (गोलाइमें) 'मज्झे दो जोयणसहस्साई' मध्यम भागमें दो हजार योजन 'तिन्निबावत्तरे जोयणसए' तीनसो बहत्तरयोजन से 'किचिविसेसाहिए' कुछ अधिक 'परिक्खेवेणं' परिक्षेप से युक्त 'उवरि शिस्त्रर के भाग में' 'एगं जोयणसहस्सं पंचय-एकासीए जोयणसए, एक हजार पाँचसौ एकासी योजनसे 'किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं' कुछ अधिक परिक्षेप वाले ये यमक पर्वत हैं ये 'मूले वित्थिन्ना' मूल भाग में विस्तार वाले 'मज्ञ संखित्ता' मध्य भागमें कुछ संकुचित एवं 'उवरि तणुया' शिखर के भागमें तनु अल्पतर आयाम विष्कम्भवाले है तथा 'जगमसंठाणसंठिया' यमक संस्था७५२ना मागमा 'पंचजोयणसयाई' पांयसेयोन 'आयामविक्खंभेणं' मा पहावामा 'मूले तिन्नि जोयणसहस्साई' भूक्षमा १२ योन 'एग च बावट्ठ जोयणसयं' मे४ सो मास: योगगनथा 'किंचि विसेसाहिय' ४६ धारे अर्थात भूजलाशमा उ१६२ योगनथी पधारे परिक्खेवणं' परिधिमा अर्थात् २मा 'मज्झे दो जोयणसहस्साई' मध्यमामा मे १२ यौन 'तिन्ति बावत्तरे जोयणसए' से मांतर योनिया किंचि विसेसाहिए' ४४४ पधारे 'परिक्खेवेणं' पाघिवामा ‘उवरि' शिमरनी 6५२न भागमा 'एग जोयणसहस्सं पंचय एकासीए जोयणसए' २४ ॥२ पांयसो हासी योनथा "किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' ४४४ qधारे परिवार मा यम छ. म त 'मुले विस्थिण्णा' भूगमा विस्तारवाणा 'मझे संखित्ता' मध्य भागमा ४४ सय युक्त तथा 'उवरि तणुया' ५२ना लामा तनु नाम पत२ मायाम वि०४ मा छे. तथा
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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