SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्रे नदीसाधारणं तेन यथा तत्र नदीक्षेत्रस्याल्पपरिमाणत्वे नानुपपत्तौ तदुपपत्तय कोट्टाकारणमाश्रयणीयं भवति तथाऽनापि तमाश्रयणीयम्' 'उभओ पासि’ उमयोः द्वयोः पार्श्वयोः भागयोः 'दोहि य पउमवरवेइयाहि द्वाभ्यां च पायरवेदिकाभ्याम् 'दोहि य वणसंडेहि' द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां 'जाव' गावत् यावत्पदेन 'संपरिक्खित्ता' इति सङ्ग्राह्यम् संपरिक्षिप्तेति तच्छाया तदर्थश्व परिवेष्टितेति 'दुण्डवि' द्वयोरपि पावरवेदिका-वनपण्डयोरपि वर्णकः वर्णनपरपदसमूहोऽत्र वोध्यः, स च चतुर्थपञ्चसूत्रतो ग्राह्यः, अथ तृतीयं महाकच्छविजयं वर्णयित्नुपक्रमते-'कहि णं भंते !" इसकी दोनों तरफ दो पद्मवरवेदिकाएं हैं और दो बनपण्ड हैं उनसे यह घिरी हुई है (जाव दुण्ह वि वगओ) यहां यास्तू शब्द से बाबर वेदिका एवं वन पण्ड इन दोनों का वर्णन कर लेना चाहिए (कहि णं भंते ! महाचिदेहे वासे महाकच्छे णाम विजए पण्णत्ते) हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में महाकच्छ नामका विजय कहां पर कहा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं(गोयमा ! णीलवनस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणणं सीयाए महागइए उत्तरेणं पउमकूडस्स वखारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं गाहावईए पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे महाकच्छे णाम विजए पण्णते) हे गौतम ! नीलवंत वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशा में सीता महानदी की उत्तर दिशा में पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत की पश्चिम दिशा में एवं ग्राहावती महानदी की पूर्व दिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर महाकच्छ नामका विजय कहा गया है (सेसं जहा कच्छविजयस्स जाव महाकच्छे इत्थदेवे महिद्धीए अट्ठो अभाणियचो) वाकी का और सब कथन इसके सम्बन्ध का जैसा कच्छ विजय के प्रकरण में कहा गया है वैसा ही जानना चाहिए इसका महाकच्छ विजय ऐसा जो नाम हुआ है उसका कारण यावत એના અને પાધભાગોમા બે પવાર વેદિકા છે અને બે વનડે છે, તેમ नाथी में परिवृत छ. 'जाव दुण्ह वि वण्णओ' महा यापत् मन्ननु न श से नई 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते ईत! म વિદેહ ક્ષેત્રમાં મહાચ્છ નામક વિજય કયા સ્થળે આવેલ છે. એના જવાબમાં પ્રભુ કહે छ-'गोयमा ! णीलवतस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं पउमफूडस्स वक्खाग्पव्वयरस पच्चत्यिमेणं णोहावईए पुरथिमेणं एत्थ गं महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते' गौतम नीलवन्त षधि२ पतनी दक्षिण दिशाम सीता भानहीनी ઉત્તર દિશામાં પકૂટ વક્ષરકાર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ ગ્રાહાવતી મહાનદીની पूर्व महावित क्षेत्रनी २ मा ४२७ नाम विन्य मावस छ. 'सेसं जहा कच्छविजयस्स जाव महाकच्छे इत्थ देवे महिद्धीए अटो अ भाणियव्यों' २५ मधु કથન એ સંબંધમાં જેમ કચછ વિજય પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલ છે, તેવું જ સમજવું જોઈએ. એ વિજયનું મહાકછ વિજય એવું જે નામે પ્રસિદ્ધ થયું છે તેનું કારણ યાત
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy