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________________ १९० जेम्बूद्वीपप्रतिसूत्र अत्रान्तरे खलु द्वौ प्रासादावतंसको-प्रासादोत्तमौ 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ती, तयोर्मानमाह-'तेणं' इत्यादि, 'तेणं पासायचडिंसगा' तौ खलु प्रासादावतंसकौ 'वावडिं जोयणाई अद्धजोयणं च' द्वापष्टि योजनानि अयोजनम्-योजनस्यार्द्धम् च 'उद्धं उच्चतेणं इकतीसं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिंशत्संख्यानि 'जोयणाई' योजनानि 'कोसं च' क्रोशम्-एकं क्रोशं च 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य विस्ताराभ्याम् प्रज्ञाताविति पूर्वेण सम्बन्धः, 'पासायवण्णओ' प्रासादवर्णकः-प्रासादवर्णक:-वर्णनपरः पदसमूहो 'भाणियन्यो' भणितव्यः-वक्तव्यः, स च राजप्रश्नीयसूत्रस्याप्टपप्टितमसूत्रस्य मत्कृतसुबोधिनी टीकातो वोध्यः, 'सीहासणा सपरिवारा' सिंहासनानि सपरिवाराणि-इतरसिंहासनसहितानि मुख्यसिंहासनानि वर्णनीयानि तद्वर्णनमष्टममत्रस्य टीकातो वोध्यम् तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह 'जाव' यावत् 'एत्य णं' इत्यादि-'एत्थ ण' अत्र-प्रासादस्थसिंहासनोपरि खलु 'जमगाण' यमकयो:-यमकनाम्नोः अर्थातू उत्तम महल 'पण्णत्ता' कहे हैं। प्रासाद का नाम कहते हैं-'तेणं' इत्यादि __'तेणं पासायवडे सगा' वे प्रासादावंतसक 'यावढि जोयणाई अद्धजोयणं च' अर्द्ध योजन युक्त वासठ योजन 'उद्धं उच्चत्तणं' उपरकी और ऊंचाई वाले हैं 'एकत्तीसं जोयणाई' इकतीस योजन 'कोसं च' और एक कोस उनका 'आयाम विक्खंभेणं' आयाम विष्कम्भ वाले अर्थात् इन प्रासादों का विस्तार 'पण्णत्ता' कहा है 'पासायवण्णओ' प्रासाद का वर्णन 'भाणियचो' यहां पर कहलेने चाहिए। वह वर्णन राजप्रश्नीय सूत्रके ६८ अडसठवें सूत्र में मेरे द्वारा की गई सुबोधिनी नाम की टीका से जान लेवें। 'सीहासणा सपरिवारा' यहां परिवार सहित सिंहासनों का वर्णन करलेवें वह वर्णन आठवें सूत्रकी टीकासे ज्ञात करलें। यह वर्णन कहां तक ग्रहण करना इसके लिए कहते हैं 'जाव' यावतू 'एत्थ णं' प्रासादमें रहे हुवे सिंहासनके ऊपरमें 'जमगाणं' यमक नामके 'देवाण' देवके अर्थात् यमक पर्वत के अधिपति ३ भडेसनु भा५ ४ाम मा छे. 'तेणं' या 'तेणं पासायवडेंसगा' ते उत्तम भाडस वावद्रिं नोअणाइं अद्धजोयणं च' सIS मास योन 'उद्धं उच्चत्तेणं' ५२नी त२५ या छे. 'इक्कतीसं जोयणाई' मेनीस योजन 'कोसंच' मन मे IGL 'आयामविक्खंभेणं' मायाम विलवाणा अर्थात् मेट से आसान विस्तार 'पण्णत्तो' वामां माल छ 'पासायवण्णओ' प्रासाहार्नुस पूर्ण वन 'भाणियव्वो' मही नसतेदन राप्रश्नीय सूत्रना ६८ मसभा सूत्रता મેં કરેલ સુધિની ટીકામાંથી સમજી લેવું. 'सीहासणा सरिपवारा' महीया परिवार सहित सिहासनानुन ४ नये. તે વર્ણન આઠમા સૂત્રની ટીકામાંથી સમજી લેવું. એ વર્ણન અહિયાં ક્યાં સુધીનું લેવું તેને भाट 'नाव' यावत् 'पत्थणं' प्रासाहीन. म२ २सा सिंहासनानी ५२ 'जमगाणं देवाणं'
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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