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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गगासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् ४५ शब्दास्तेपामुम्नतिर्यत्र तादृशो मधुरस्वरो माधुर्यगुणविशिष्टस्वरयुक्तो यो नादः स्तं, स जातोऽस्मिन्निति तथा, तथा 'पासाइए४' प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपं च एतद्वधाख्या प्राग्वत् । ___ से ' तत् गगाप्रपातकुण्डम् खलु 'एनाए पउमयरवेड्याए' एकया पद्मवरवेदिकया 'एगेण य वणसंटेणं' एकेन च वनपण्डेन 'सवयो समंना संपरिविन्दते' सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्त परिवेष्टितम् , अत्र 'वेइया वणसंडगाणां पउमाणं वण्णओ' वेदिका वनपण्टयोः पमानां च वर्णको वर्णनमय जगतीसूत्रव्याख्यातो 'भाणियवा' भणितव्यः, 'तम्स णं गंगप्पवायकुंडस्स' तस्य खलु गद्गाप्रपातकुण्डस्य 'निदिसि तमो' त्रिदिशि त्रीणि 'तिमोराणपडिस्वगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि सोपानत्रयपक्तिरूपाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यया 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वे पूर्वस्यां दिशि 'दाहिणेणं' दक्षि गे दक्षिणस्यां दिशि 'पच्चत्यिमेणं' पश्चिमे पश्चिमायां दिशि। 'तेसि णं' तेषां खलु 'तिसोवाणपडिस्वगाणं' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणाम् 'अयमेयास्वे' अयमेतद्रूपः अनुपदं वक्ष्यमाणस्वरूपो 'वण्णारहते हैं अनेक जातिके पक्षियों का जोहा यहां पर बैठकर नाना प्रकार के मधुर स्वरों से शब्द करता रहता है यह कुण्ड प्रासादीय है, दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है इन पदों की व्याख्या पूर्व में की जा चुकी है (सेणं एगाए पउमवरवेच्याए एगेणय वणसंडेणं सन्नओसमंता संपरिक्सित्ते) यह कुण्ड एक पदमबरवेदिका से और एक वनपण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है यहां (वेइया वणसंडगाणं परमाणं वण्णओ भाणियन्यो) वेदिका का वनपंडका और पद्मों का वर्णक जगती स्त्र की व्याख्या से कद्दलेना चाहिये-(तस्सगं गंगप्प वायकुंडस्स तिदिमितओ तिसोवाणपडिस्वगा प.) उस गंगा प्रपात कुण्ड की तीन दिशाओं में तीन त्रिलोपान प्रतिपक हैं (तं जहा) जो इस प्रकार से हैं(पुरथिमे गं, दाहिणेणं पच्चत्थिमेणं) एक त्रिसोपानप्रतिरूपक पूर्व दिशा में है एक त्रिसोपान प्रनिरूपक दक्षिण दिशा में है और एक त्रिसोपान प्रतिरूपक पश्चिम ફરતા રહે છે. અનેક જાતિઓના પક્ષીઓના જોડા અહીં બેસીને અનેક પ્રકારના મધુર સ્વથી શ કરતાં રહે છે, એ કુંડ પ્રસાદી છે, દર્શનીય છે, અભિરૂપ છે અને પ્રતિ३५ छ. से पानी व्याच्या परसा ४२पामा मादी छ. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणय वणसंडेण सचओ समंना संपरिक्खित्ते मे २ थी मने न्य। पन. मथी व्यामेराकृत छे. मही 'वेइयावणसंडगाणं पउमाण वण्णओ भाणियवो वहाना, વનખંડના અને પોના વર્ણન વિષે “જગતી સૂત્રની વ્યાખ્યામાંથી જાણું લેવું જોઈએ. 'तस्स गंगप्पवायकु डस्स तिदिसि तओ तिसोराणपडिरूवगा प० ते 10 प्रपात उनी ऋण हिशामामात्र निसापान प्रति ३५॥ छ 'तं जहा ते मा प्रभारी छ. 'पुरस्थिमेणं दाहिणेणं पच्च. ળિ' એક ત્રિપાન પ્રતિરૂપક પૂર્વ દિશામાં છે એક ત્રિપાન પ્રતિરૂપક દક્ષિણ દિશામાં છે,
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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