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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधात्योर्वर्णनम् . वक्तव्या तस्याश्च 'वष्णो ' वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहश्च वक्तव्यः, किम्पर्यन्तः ? इत्याह-जाव धूवकडच्छुगा' यावद् धूपकटुच्छुका-अष्टसहस्रसौवर्णकलशादितत्प्रमाणधूपकटुच्छुकापर्यन्तोवर्णेको राजप्रश्नीयसूत्रस्य सप्ताशीतितमसूत्रादवसेयः। । अथ सुधर्मासभोक्तमेव सभाचतुष्टयेऽतिदिशनाह-'एवं अवसेसाण वि सभाणं' इत्यादि "एवं' एवम्-सुधर्मासभावत् 'अवसेसाणवि' अवशेषाणां-सुधर्मासभाऽतिरिक्तानाम् उपपातादि सभानाम् वर्णनं प्राकथितानुसारेणवोध्यम् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव उववायसभाएं यावत् उपपातसभायाम्-उत्पित्सु देवोत्पत्युपलक्षितसभायां 'सयणिज्ज' शयनीयं गृहकं चाभिव्याप्य वर्णनीयम् तथा 'हरोय' ह्रदश्च नन्दापुष्करिणी प्रमाणो वक्तव्यः, सचोत्पन्नदेवस्य शुचित्व-जलक्रीडाधर्थः, 'अभिसेयसभाए' ततोऽभिषेकसभायाम्-अभिनवोत्पन्नदेवाभिषेक त्तेणं' दो योजन के ऊंचे हैं। वे आसन 'सव्वरयणामया' सर्वात्मना रत्नमय कहे है 'जिणपडिमा' यहां जिन प्रतिमा कही है 'वण्णओ' इसका वर्णन कहलेना वह कहांतक कहे इसके लिए कहते है 'जाव धूवकडच्छुया' यावत् धूप कडुच्छक पर्यन्त कहे अर्थातू आठ हजार सुवर्ण कलशादि उनके प्रमाण जितनी धूपदानी कही है यह कथन पर्यन्त वर्णन समझलेवें । यह वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के ८७ सतासीवें सूत्र में कहे अनुसार समझलेवें। अब सुधर्मसभा में जो चार सभा कही है उसका वर्णन किया जाता हैएवं' सुधर्मसभा के कथनानुसार 'अवसेसाणं वि' सुधर्मसभासे अतिरिक्त उपपातादि सभाका वर्णन भी समझलेवें वह वर्णन 'जाव उववायसभाए' यावत् उपपात सभा देवोत्पत्युपलक्षित सभामें 'सयणिज्ज' शयनीय गृह पर्यन्त यह वर्णन कह लेना तथा 'हरओय' नन्दा पुष्करिणी प्रमाण हृद्का वर्णन कहे वह वहां उत्पन्न देव के जल क्रीडार्थ है 'अभिसेगसभाए' तदनन्तर अभिषेक सभा में उद्ध उच्चत्तेणं' मे. योगनरेट या छ. मे मास 'सव्वरयणामया' सामना न भय ४९सा छे. 'जिणपडिमा' महीन प्रतिमा ४डस . 'वण्णओ' तेनु न श ते पणुन ४यां सुधार्नु ४२ ते भाटे सूत्रा२ ४ छ. 'जाव धूवकडुच्छया' यावत् ધૂપ કચ્છક પર્યન્ત તે વર્ણન કહેવું. અર્થાત્ આઠ હજાર સુવર્ણ કળશાદિ તેના પ્રમાણ જેટલી ધૂપદાની કહેલ છે. આ કથન પર્યન્ત વર્ણન સમજી લેવું. આ વર્ણન રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના ૮૭ સત્યાશીમાં સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું. હવે સુધર્મસભામાં જે ચાર સભા કહેલ છે. તેનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. ‘एवं' सुधम समान ४थन प्रमाणे 'अवसेसाण वि' सुधर्मसमाथी अन्य पाता समानु न प सभल . थे. वन 'जाव उववायसभाएं यावत् ५पासमा वोत्पत्युपतक्षित समाभा 'सयणिज्ज' शयनीय पंयन्त मा वर्णन ४ी तथा 'हरओय' न Y०४.२९ प्रभार हुनु पर्युन ४ ते ६ त्यो पन्त थये वानी
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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