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आत्मतत्व-विचार
होती हैं- बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था ! इनमें पहली और तीसरी अवस्थाएँ अच्छी हैं, कारण कि उनमें आत्मा को कुछ बाधा नहीं पहुँचती । बाल्यावस्था में ससार का अज्ञानपना होता है । वृद्धावस्था में ससार का पूरा अनुभव हो गया होता है और इसके अलावा इन्द्रियाँ भी शिथिल हो गयी होती हैं। इसलिए कहता हूँ कि पहली भी अच्छी और पिछली भी अच्छी । बिचली अवस्था में इन्द्रियाँ तूफानी घोड़े के समान होती है, इसलिए उन्हे काबू में रखना बहुत मुश्किल होता है। मतलब यह कि, वे आत्मा को बहुत परीगान करती है, इसलिए उसे जूते मारने चाहिए, अर्थात् उसका नियंत्रण करना चाहिए । इसलिए कहता हूँ कि, "बिचली को जूते की मार "
इन गन्दों को सुनकर राजपूत बाबाजी के चरणो पर गिर गया और कहने लगा-"बाबाजी | मुझे क्षमा करे। मेरी स्त्री ने आपके ये गन्द सुने थे, जिससे उसे घोर अपमान लगा था, कारण कि तीन पनिहारियों में वह बिचली थी और उसके अपमान का बदला लेने के लिए मै आपका खून करने आया था, लेकिन आपने जो खुलासा किया, उससे मेरे मन का पूरा-पूरा समाधान हो गया है । बाबाजी ने उसके माथे पर हाथ रखा । राजपूत खुश होकर अपने घर आया और स्त्री को सारी बात कह सुनायी । उसके भी मन का समाधान हो गया ।
तात्पर्य यह कि बात में गहरे उतरे वगैर अटगट अनुमान कर लिया जाये तो महा अनर्थ हो सकता है।
पर, राजा ने वृथा ही अनुमान कर लिया था और मत्री को जान से मार डालने का मन में संकल्प भी कर लिया था।
मूल कथा इस ओर मत्री मन से दृढ था। उसके निकट दुनियादारी बाद में