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छियालीसवाँ व्याख्यान
सम्यक् चारित्र [२]
महानुभावो!
जिनागम में कहा है कि
'गारत्थेहि सव्वेहिं साहवो संजमुत्तरा-सर्व गृहस्थों से साधुओं का संयम श्रेष्ठ होता है तात्पर्य यह कि एक गृहस्थ चाहे जितना ऊँचा चारित्रधारी हो, फिर भी वह सामान्य साधु की बराबरी नहीं कर सकता । इससे आप सर्वविरति-चारित्र की उच्चता समझ सकते है।
सर्वविरति-चारित्र का अधिकारी 'सर्वविरति-चारित्र का अधिकारी कौन हो सकता है ? इस सम्बन्ध मे शास्त्रों ने बड़ी गहरी विचारणा की है । उस सबका सार यह है कि, जो आत्मा ससार की असारता को भली-भांति समझ चुका हो, भवभ्रमण से अत्यन्त खेद-प्राप्त हो और विनयादि गुणों से युक्त हो, उसे ही सर्वविरति चारित्र के योग्य गिनना चाहिए ।
सर्वविरति चारित्र को धारण करनेवाले की साधु, अनगार, भिक्षु, यति, सयति, प्रव्रजित, निग्रंथ, विरत, क्षान्त, दान्त, मुनि, तपस्वी, ऋषि, योगी, श्रमण आदि अनेक सज्ञाएँ हैं। ___ सर्वविरतिचारित्र अगीकार करते समय पाँच प्रकार की शुद्धि का व्यवहार होता है-प्रश्नशुद्धि, कालशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, दिशाशुद्धि और वन्दनाशुद्धि ।