Book Title: Atmatattva Vichar
Author(s): Lakshmansuri
Publisher: Atma Kamal Labdhisuri Gyanmandir

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Page 817
________________ सम्यक् चारित्र ७१५ अहंकार और आसक्ति को छोड़कर समभाव से रहने लगे । तत्पश्चात् ध्यानवल से कषायों का नाश करके प्रशस्त शासन में स्थिर हुए । इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विशुद्ध भावनाओं से अपने आत्मा को भावित कर, बहुत वर्षों तक चारित्र पालकर, अन्त मे एक मास का अनशन करके श्रेष्ठ सिद्धगति को प्राप्त हुए । तात्पर्य यह कि, आत्मा वैराग्य से भरपूर रॅगा हुआ हो और महात्रत धारण करने के बाद उनका यथार्थ पालन करे, एवं पॉच समिति, तीन गुप्ति और सविध यतिधर्म का अनुसरण करे, उसका साधुपन सार्थक है और अन्त में वही इस ससार समुद्र का पार पा सकता है 1 उपसंहार महानुभावो ! यहाँ आत्मा, कर्म और धर्म इन तीन विषयो की व्याख्यानमाला पूर्ण होती है। ये तीनों विषय बड़े गभीर हैं, उन्हें हृदयंगम करने की अत्यन्त आवश्यकता है । हमने तो इस व्याख्यानमाला मे उनका सक्षिप्त हो विवेचन किया है; इसलिए इस सम्बन्ध मे अभी कितनी ही सूक्ष्म और विशिष्ट बातें जाननी शेष रह जाती हैं। जैसे कि ( १ ) दूसरी अरूपी वस्तु पर रूपी वस्तु का कोई प्रभाव नहीं होता, तो अरूपी आत्मा पर ही क्यों होता है ? ( २ ) सुख का स्वरूप क्या है ? सुख किसे कहते हैं ? ( ३ ) अत्यन्त अशान्ति और दुःख के समय में भी सुखशाति किस प्रकार मिल सकती है ? (४) कुशल अनुष्ठान प्रवृत्ति से पुण्यानुवन्धी पुण्य का बन्ध होता है और पहले बाँधे हुए कर्मों की निर्जरा भी होती है, तो एक ही प्रवृत्ति जो कर्मबन्धन करती है; निर्जरा भी कैसे कर सकती है ? ( ५ ) आत्मा का एक समय में एक ही उपयोग होता है और कर्म का बध समय-समय में, आयुष्य न बाँधे तब तक सातो कर्मों का

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