________________
७१४
" साधु रात में किसी प्रकार का भोजन नहीं कर सकता । "
1
" हे पुत्र | तू सुकोमल है और भोग में डूबा हुआ है, इसलिए साधुपन पालने में समर्थ नहीं है। बालू का ग्रास जितना नीरस है; उतना ही नीरस संयम है । तलवार की धार पर चलना जितना कठिन है, उतना ही कठिन तपश्चर्या के मार्ग मे प्रयाण करना है । इसलिए, अभी तो भोग भोग, बाद मे चारित्रधर्म को खुशी से धारण करना । "
आत्मतत्व-विचार
माता पिता के ऐसे बचन सुनकर मृगापुत्र ने कहा - " हे माता - पिता ! व्यापका कहना सत्य है, पर निःस्पृही को इस लोक में कुछ भी अशक्य नहीं है । इस संसारचक्र में दुःखजनक और भयोत्पादक शारीरिक और मानसिक वेदनायें मैं अनन्त बार सहन कर चुका हूँ, इसलिए मुझे प्रत्रज्या लेने की अनुमति दीजिये ।"
यह सुनकर माता-पिता ने कहा - " हे पुत्र ! तेरी इच्छा हो तो भले दीक्षा ले, परन्तु चारित्र - धर्म में दुःख पड़ने पर उसका प्रतीकार नहीं किया
जा सकता ।
""
मृगापुत्र ने कहा- "आपका कथन सत्य है, परन्तु जगल मे पशु-पक्षी विचरते रहते है; उनके रोग- आतंक का प्रतीकार कौन करता है ? वहाँ जैसे मृग अकेला सुख से विहार करता है, वैसे ही संयम और तपश्चर्या द्वारा मैं एकाकी चारित्रधर्म में सुखपूर्वक विचरूँगा ।"
इस प्रकार दृढ़ वैराग्य देखकर माता-पिता का हृदय पिघल गया और उन्होने कहा - " हे पुत्र ! तुझे जैसे सुख उपजे वैसा कर । "
माता-पिता की अनुज्ञा मिलते ही उसने सर्वममत्व को इस तरह भेद डाला जैसे हाथी बख्तर को तोड़ डालता है। उसने समृद्धि, धन, मित्रो, स्त्री, पुत्रों और स्वजनो का भी त्याग कर दिया ।
अब मृगापुत्र मुनि पाँच महात्रत, पॉच समिति और तीन गुति से युक्त होकर वाह्य और अभ्यंतर तपश्चर्या में उद्यमवत हुए और ममता,