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प्रात्मतत्व-विचार
रखते है । कोई जीव-जन्तु नजर पड़े या शरीर, वस्त्र, पात्र आदि पर चढ़ा हो, तो वे उस रजोहरण की अति कोमल दशियो द्वारा इस तरह दूर करते है कि, उसे किसी प्रकार की क्षति न पहुँचे ।
दूसरा महावत दूसरा महाव्रत मृपावाद-विरमण-व्रत है। उसमे क्रोध, लोभ, भय या हास्य से किसी प्रकार का असत्य न बोलने की प्रतिज्ञा ग्रहण की जाती है । इसी प्रतिज्ञा मे दूसरे से झूठ बुलवाना नहीं और बोलनेवाले को अच्छा मानना नहीं की भी प्रतिज्ञा होती है। श्री दशवकालिकसूत्र में कहा है कि 'ससार के सब साधु-पुरुषों ने मृषावाद की असत्य की, निंदा की है। असत्य सब प्राणियो के लिए अविश्वसनीय है, अर्थात् असत्य बोलने से सब प्राणियों का विश्वास हट जाता है। इसलिए, उसका सर्वथा त्याग करना चाहिए।
तीसरा महाव्रत तीसरा महाव्रत अदत्तादान-विरमण-व्रत है। इससे यह प्रतिज्ञा ग्रहण की जाती है कि गाँव, नगर या अरण्य में, थोड़ा या अधिक, छोटा या बड़ा, निर्जीव या सजीव जो कुछ मालिक ने अपनी राजी-खुशी से न दिया हो, उसे ग्रहण नहीं करूँगा, दूसरे से ग्रहण नहीं कराऊँगा और न ग्रहण करनेवाले को अच्छा मानेगा। इस महाव्रत के कारण साधु दाँत कुरेदने का तिनका भी उसके मालिक की अनुमति के बिना नहीं लेते, और चीज की तो बात ही क्या ?
चौथा महाव्रत चौथा महाव्रत मैथुन-विरमण-व्रत है। उससे यह प्रतिज्ञा ग्रहण की जाती है कि देवी, मानुषिक या पागविक किसी भी प्रकार का मैथुन-सेवन नहीं करूंगा, सेवन कराऊँगा नहीं और सेवन करनेवाले को अच्छा नहीं मानेगा ।