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आत्मतत्व-विचार
(५) हास्य से नहीं बोलना । (६) भय से नहीं बोलना। (७) वाक्चातुरी से नहीं बोलना। (८) विकथा नहीं करना ।
साधु के लिए यह भी स्पष्ट आज्ञा है कि, वह अति कठोर भाषा का उपयोग न करे । किसी को बुलाना हो तो महानुभाव, महाशय, देवानुप्रिय आदि मधुर शब्दों का प्रयोग करना।
तीसरी समिति एषणा-समिति है। उसका अर्थ यह है कि, साधु को चाहिए कि आहार-पानी की गवेषणा करते समय खूब सावधानी रखे। उसके लिए ही ४२ दोष वयं रखने होते हैं। ___साधु क्षत्रिय, वैश्य, कृषिकार, ग्वाले आदि अतिरस्कृत और अनिंदित कुल मे गोचरी करे, पर चक्रवर्ती, राजा, ठाकुर, राजा के पासवान या राजा के सम्बन्धियो के यहाँ गोचरी न करे। और, किसी गृहस्थ का द्वार बन्द हो तो खोलकर अन्दर न जाये; जहाँ बहुत से भिक्षुक इकठे होते हों, वहाँ भी न जाये । वर्षा होती हो, हिम पडता हो, महावायु चलती हो या सूक्ष्म जन्तु उड़ रहे हो, तब भी गोचरी न करे, बल्कि अपने स्थान में बैठकर धर्मध्यान तथा तपश्चर्या करे ।
पाँच समितियों में अन्तिम पारिष्ठापनिका-समिति है। उसका अर्थ यह है कि, साधु, मल, मूत्र, श्लेष्म, थूक, केश या दूसरी परठने योग्य वस्तु को जीवजन्तुरहित, जहाँ लीलोतरी न हो, ऐसी भूमि मे सावधानी से परठे । धर्मरुचि अनगार कड़वी तुबडी का गाक परठने गया, वहाँ एक बूंद नीचे गिर जाने से उसकी गध से खिंचकर बहुत-सी कीड़ियाँ
आ गयीं और उनको मरता देखकर, अपने उदर को निखद्य समझ कर सारा शाक उसमें परठ दिया और अपने प्राण का बलिदान दिया !
तीन गुप्तियों में पहली मनोगुप्ति है। उसका अर्थ यह है कि, साधु अपने मन को सरंभ-समारंभ और आरभ-मे प्रवृत्त न होने दे। जिस