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भात्मतत्व-विचार
दीक्षा लेने की अभिलाषा से कोई मुमुक्षु गुरु के समीप आये, तब 'हे वत्स | तू कौन है ? कहाँ से आया है ? तेरे माता-पिता का नाम क्या है ? तेरा धार्मिक अध्ययन कितना है ? तुझे दीक्षा लेने का भाव कैसे हुआ ? क्या तूने माता-पिता की अनुमति ले ली है ? क्या तू दीक्षा का दायित्व समझता है ?' आदि प्रश्न पूछकर आवश्यक जानकारी प्राप्त कर लेने को प्रश्नशुद्धि कहते हैं। अगर, इन प्रश्नों के उत्तर ठीक न मिले तो अधिक छानबीन करनी चाहिए । यहाँ निमित्तशास्त्र आदि के द्वारा ये भी शिष्य की परीक्षा करने की विधि है।
जो इस परीक्षा से योग्य मालूम हो, तो उसे दीक्षा देने के लिए शुभ मुहूर्त देखा जाता है, उसे कालशुद्धि समझना चाहिए। उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी और रोहिणी ये चार नक्षत्र दीक्षा के लिए बहुत अच्छे गिने जाते हैं । दोनों पक्षों की चतुर्दशी, पूर्णिमा, अष्टमी, नवमी, छठ, चौथ और द्वादशी ये तिथियाँ दीक्षा के लिए वर्ण्य हैं ।
दीक्षा अच्छे स्थान में देना क्षेत्रशुद्धि है। यहाँ अच्छे स्थान से ईख की बाढ, डागर का खेत, सरोवर का तट, पुष्पसहित वन-खड यानी बाग-बगीचा-उद्यान, नदी का किनारा तथा जिन-चैत्य समझना चाहिए।
दीक्षा देते समय शिष्य को पूर्वाभिमुख, उत्तराभिमुख या जिस दिशा मे केवली-भगवत विचरते हों या निन-चैत्य हो उस दिशा की ओर मुख रखकर बिठाना दिशाशुद्धि है। आज समवसरण के सामने दीक्षाविधि कराई जाती है, उसका हेतु दिशाशुद्धि का पालन करना है।
वन्दना-शुद्धि में चैत्यवन्दन-देववन्दन, कायोत्सर्ग तथा वासक्षेप, रजोहरण और वेश समर्पण की क्रिया होती है।
इस रीति से पाँच प्रकार की शुद्धि पूर्वक मुमुक्षु को दीक्षा दी जाती है । उस समय गुरु उसे 'करेमिभन्ते' का पाठ उच्चराते है और उसमे सर्व पाप का तीन करण और तीन योग से अर्थात् नौ कोटि से आजीवन