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आत्मतत्व-विचार
होने पर भी दूसरे को तत्व श्रद्धा करना दीपक सम्यक्त्व है । यह तीसरे प्रकार का सम्यक्त्व मात्र व्यवहार से सम्यक्त्व है, तात्विक दृष्टि से सम्यक्त्व नहीं है । सम्यक्त्व के औपशमिक आदि तीन प्रकारों में सास्वादन सम्मिलित कर दें, तो उसके चार प्रकार हो जाते हैं। गुणस्थानों के प्रसंग में इस सम्यक्त्व का परिचय कराया गया है।
इन चार प्रकारों में वेटक जोड़ दें तो मम्यक् व के पाँच प्रकार हो नाते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट होने से पहले, सम्यक्वमोहनीय के जो चरम दल वेदे जाते हैं, उन्हें वेदक सम्यक्त्व कहते हैं।
इस पाँच प्रकार के सम्यक्त्व के नैसर्गिक और आधिगमिक मे दो-दो प्रकार करें तो सम्यक्त्व दस प्रकार का हो जाता है। शास्त्र मे उसके टस प्रकार इस प्रकार बताये गये हैं
(१) निसर्गरुचि-श्री जिनेश्वर देव के यथार्थ अनुभूत भावों पर को जीवका अपने-आप जातिस्मरण आदि ज्ञान से जानकर 'वह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं' ऐसी अडिग श्रद्धा रखना निसर्गरुचि है।
(२) उपदेश-रुचि-केवली या छमस्थ गुरुओं द्वारा कहे गये उपर्युक्त भावो पर श्रद्धा रखना उपदेश-रुचि है।
(३) आशारुचिराग, द्वेष, मोह, अज्ञान, आदि दोषों से रहित महापुरुषों की आज्ञा पर रुचि रखना आज्ञा-रुचि है।
(४) सूत्र-रुचि-अगप्रविष्ट या अगवाह्य सूत्रों को पढकर तत्त्व में रुचि होना सूत्ररुचि है। वर्तमान शासन में श्री गौतमस्वामी आदि गणधरो के रचे हुए शास्त्र अंगप्रविष्ट कहलाते हैं। उसके आचाराग, सूत्रकृतांग, स्थानाग, समवायाग, व्याख्याप्रज्ञप्ति (श्री भगवतीजी), ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशांग, अन्तकृद्दशाग, अनुत्तरोपपातिकदशाग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद ऐसे बारह प्रकार हैं। उसे समग्र रूप से हादगागी कहा जाता है। 'स्नानस्या' स्तुति की तीसरी थोय तो आप सबको याद ही होगी