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सम्यक्त्व
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( २ ) सम्यक्त्व धर्मनगर का प्रवेश द्वार है, यह चिंतन करना दूसरी भावना है । यहाँ यह भाव दृढ करना है कि, अगर सम्यक्त्वरूपी दरवाजा होगा तो ही धर्म-नगर में प्रवेश हो सकेगा और उसकी उत्तमोत्तम वस्तुओं के दर्शन किये जा सकेंगे ।
( ३ ) सम्यक्त्व धर्म-रूपी महल की नींव है, यह चितन करना तीसरी भावना है। जैसे बुनियाद के बिना महल नहीं टिक सकता, वैसे ही सम्यक्त्व बिना धर्माचरण नहीं टिक सकता ।
( ४ ) सम्यक्त्व ज्ञान -दर्शन- चारित्रादि गुणों का खजाना है, ऐसा चिंतन करना चौथी भावना है। अगर सम्यक्त्व-रूपी भडार न हो तो मूल और उत्तर गुण-रूपी रत्नों को राग-द्वेप-रूपी चोर लूट लें।
(५) सम्यक्त्व चारित्र - रूपी जीवन का आधार है, ऐसा चिंतन वैसे करना पॉचव भावना है । जैसे पृथ्वी सकल वस्तुओ का आधार है, ही सम्यक्त्व चारित्र रूपी जीवन का आधार है । तात्पर्य यह है कि, शम, दम, तितिक्षा, उपरति आदि गुण तभी तक टिक सकते हैं, जब तक सम्यक्त्व है ।
(६) सम्यक्त्व चारित्र - रूपी रस का पात्र है, ऐसा चिंतन करना छठी भावना है। श्रुत और चारित्र आत्मविकास के लिए अनुपम वस्तुएँ हैं; पर वे सम्यक्त्व-रूपी पात्र में ही रह सकती हैं।
इस प्रकार सम्यक्त्व-संबंधी विभिन्न विचार करने से सम्यक्त्व होता है और निर्मल रहता है।
६ स्थान
है । सम्यक्त्व को स्थित रखने के लिए तात्त्विक भूमिका की जरूरत यह तात्त्विक भूमिका ६ स्थानों या ६ सिद्धान्तों को स्वीकार करने से तैयार होती है । वह इस प्रकार है :