Book Title: Atmatattva Vichar
Author(s): Lakshmansuri
Publisher: Atma Kamal Labdhisuri Gyanmandir

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Page 799
________________ ६९७ सम्यक चारित्र (५) पराई चीज को अपनी नहीं बना लेना। चोरी का माल नहीं रखना। चोरी को उत्तेजन देनेवाला कोई काम नहीं करना | चोरी का माल रखना या चोर को उत्तेजन देना भी चोरी है, इसलिए इस व्रत को लेनेवाले को उससे बचना चाहिए । चौथा स्थूल-मैथुन-विरमण-व्रत इस व्रत को स्वदारासन्तोषनत भी कहा जाता है। अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्रीपर कुदृष्टि नहीं डालना । इस व्रत मे कुंवारी कन्याओं, विधवाओं, रखेलों, आदि के त्याग का स्पष्ट समावेश नहीं होता, इसलिए इसके मुकाबले में स्वदारा-सन्तोष-व्रत बहुत बड़ा है। श्री हेमचन्द्राचार्य कहते हैं कि, जो अपनी स्त्री से ही सन्तुष्ट है और विषयों से विरक्त है; वह गृहस्थ होते हुए भी शील से साधु के समान माना जाता है । पाँचवाँ परिग्रह-परिमाण-व्रत अपने लिए धन, धान्य, क्षेत्र, मकान, चाँदी, सोना, नौकर-चाकर, दोर आदि रखना, परिग्रह कहलाता है। उसका परिमाण करना यानी उसकी मर्यादा बाँधना । शास्त्रकार कहते हैं कि-"ज्यादा बोझ से भरा हुआ जहाज डूब जाता है, वैसे ही परिग्रह के ममत्व के भार से प्राणी संसारसागर में डूब जाते हैं।" इसलिए परिग्रह उतना ही रखना चाहिए, जितना जरूरी हो । मनुष्य तरह-तरह के पाप इस परिग्रह के लिए ही करते हैं, इसलिए यह मर्यादित हो जाये, तो पाप की मात्रा कम हो जाये और सन्तोष विकसित होता रहे। छठाँ दिक-परिमाण-व्रत गृहस्थ-जीवन को सन्तोषी बनाने के लिए परिग्रह-परिमाण की तरह दिक अर्थात् दिशाओं का परिमाण भी आवश्यक है। इस व्रत में यह प्रतिज्ञा ली जाती है कि अमुक दिशामें अमुक हद से ज्यादा नहीं जाना ।

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