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यात्मतत्व-विचार जान के उपकरणों का विनय करना यानी उनके प्रति शिष्टाचार और आदर की भावना रखना, यह विनय नामक ज्ञानाचार है।
जान देनेवाले गुरु का विनय दस प्रकार करना चाहिए--(१) गुरु का सत्कार करना, (२) गुरु के आने पर खड़ा होना, (३) गुरु को मान देना, (४) गुरु को बैठने के लिए आसन देना, (५) गुरु के लिये आसन बिछा देना, (६) गुरु को वन्दन करना, (७) गुरु के सामने दोनों हाथ जोडकर खड़ा रहना, और कहना कि, मुझे क्या आज्ञा है ? (८) गुरु के मन का अभिप्राय जानकर तदनुसार वर्तना, (९) गुरु बैठे हो तब - उनके पैर दाबना आदि सेवा करना और (१०) गुरु चलते हों तब उनके पीछे चलना। ____इस तरह गुरु का विनय करने से गुरु प्रसन्न होते हैं और वे शास्त्रो का गृढ रहस्य समझा देते हैं। विनय विना विद्या नहीं, यह उक्ति प्रसिद्ध है। पढानेवाले शिक्षक के प्रति विनयभाव होना चाहिए, परन्तु आज विद्या-गुरु के प्रति कैसा बर्ताव हो रहा है ! जमाने के अनुसार शिष्टाचार में परिवर्तन सभव है, परन्तु उनके प्रति आभ्यान्तरिक आदर तो होना ही चाहिए । __ जानी का विनय भी गुरु की तरह हो करना चाहिए।
ज्ञानाभ्यासी का विनय तीन प्रकार करना चाहिए-(१) ज्ञानाभ्यासी - को अच्छी सुधारी हुई पुस्तके देना । पहले जानाभ्यास हस्तलिखित पुस्तको के आधार पर होता था। उनमें लिखने वाले के हाथों भूलें हो जाना विशेष सभव रहता था, इसलिए सुधारी हुई पुस्तकों के देने की सूचना है । (२) जानाभ्यासी को सूत्र और अर्थ की परिपाटी यानी प्रणालिका देना। (३) जानाभ्यासी को आहार और उपाश्रय देना।
अगर जानाभ्यासी का इस तरह विनय किया जाये, तो ज्ञानियो की सख्या अच्छी तरह बढ़ेगी और परिणामतः समाज में भी ज्ञान का परिमाण बढ़ेगा। अगर समाज में जानी का मान-सम्मान हो, तो समान अल्प समय मे प्रगति कर सकता है।