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सम्यक
चारित्र
गुणन - परावर्तन-चिंतन आदि ज्ञान का भागी होता है, परन्तु उससे प्राप्त होनेवाली सद्गति का भागी नहीं होता ।'
'जैसे जहाज का निर्यामक जानकार होने पर भी अनुकूल पवन बिना इच्छित बन्दरगाह पर नहीं पहुँच सकता, उसी प्रकार जीव भी ज्ञानी होने पर भी चारित्र - रूपी पवन बिना सिद्धिस्थान को नहीं पा सकता ।'
भवभ्रमण का महारोग
औषधि से रोग मिटता है, ऐसी श्रद्धा हो, औषधि का प्रकार और सेवन विधि ज्ञात हो, पर औषधि सेवन न की जाये तो फिर रोग कैसे दूर होगा ? से लागू है और इस मनुष्य को भव-भ्रमण का रोग अनन्तकाल कारण जन्म-जरा-रोग-मृत्यु का अकथ दुःख सहन करना पड़ रहा है । यदि यह रोग मिटे तो फिर जन्म न लेना पड़े, और जन्म के अभाव मे जरा-रोग और दुःख सहन न करना पड़े। तो, इस स्थिति में आपको अनन्त सुख का उपयोग करने का अवसर मिलेगा । इस भव-भ्रमण के रोग को नष्ट करने की अक्सीर दवा चारित्र है- यह भूलना नहीं चाहिए ।
कोई यह समझता हो कि, चारित्र हमारे पास नहीं है, तो कहाँ से लावें, तो यह समझना भूल है । चारित्र बाहर की चीज नहीं है, आपको ही चीज है । वह आपके पास हो अन्तर में ही छिपी है ।
यदि यह प्रश्न करें कि, 'चारित्र अन्तर में है, तो प्रकट क्यों नहीं होती,' तो इसका उत्तर यह है कि, चारित्र आपके अन्तर में छिपा अवश्य है, पर मोह के आवरण के कारण वह प्रकट नहीं होता । सूर्य अत्यन्त प्रकाशमान है, पर बादल आ जाने से वह छिप जाता है ।
मोह आपका कट्टर शत्रु है
मोह आपका कट्टर शत्रु है और अनेक विधियों से आपको क्षति पहुँचा