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सम्यक ज्ञान
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कैसे होती है ? आदि बातें हम कर्म की व्याख्यानमाला में विस्तार से ममझा चुके है । जो कर्म दृढता से बंधे हों वे कठिन कहे जायेंगे। उनको नष्ट करना सरल नहीं है। उसे नष्ट करने में लाखो-करोड़ो वर्ष भी लग जाते हैं । परन्तु, आत्मा जानी चने, अपनी जान-शक्ति का सुन्दर विकास करे तो उन कटिन कर्मों को मात्र श्वासोच्छास में नष्ट कर सकता है । जैसे अग्नि लकड़ी को जरा ढेर में जला देती है; वैसे ही जानी अपने कर्मों को जन्म देता है और उनका क्षण मात्र में नाश हो जाने पर आत्मज्योतिका पूर्ण प्रकार प्रकट हो जाता है ।
एक जैन महात्मा कहते है :
भक्ष्याभक्ष्य न जे विण लहिये, पेय-अपय विचार । . कृत्य-अकृत्य न जे विण लहिये, ज्ञान ते सकल आधार रे॥
प्रथम ज्ञान ने पछे अहिंसा, श्री सिद्धान्ते भाख्यु। ज्ञान ने वंदो ज्ञानननिंदो, ज्ञानीए शिवसुख चाख्यु रे॥
-जिसके बिना भक्ष्य अभक्ष्य पदार्थों की या पेय-अपेय वस्तुओ की जानकारी नहीं होती और जिसके बिना कृत्य और अकृत्य नहीं जाने जा सकते, वह जान सकल धर्मक्रियाओं का आधार है।
-प्रथम ज्ञान और अहिंसा बाद मे-ऐसा श्री जिनेश्वरदेव ने आगम में कहा है; इसलिए ज्ञान का वन्दन करो, उसकी निंदा न करो। जिस किसी ने शिवसुख चखा है, उसने ज्ञान के प्रताप से ही चखा है।
जैनधर्म में ज्ञान पर बड़ा जोर दिया गया है। वह स्पष्ट घोषणा करता है कि 'नाण-किरियाहिं मोख्खो-ज्ञान और क्रिया से ही मोक्ष मिलता है।' वह तो जान को अज्ञान और समोह-रूपी अंधकार का नाश करनेवाला सूर्य मानता है और उसे बारबार नकस्कार करता है। यथा । 'अन्नाण-संमोह-तमोहरस्स, नमो नमो नाण-दिवायरस्स।'
जैन-धर्म का यह स्पष्ट मंतव्य है कि