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कम्यक ज्ञान
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अज्ञानं खलु कएं, द्वेषादिभ्योऽपि सर्वदोपेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति येनावृत्तो जीवः ॥
- द्वेष आदि सब दोषों मे अज्ञान सबसे बडा दोप है, कारण कि उससे आवृत्त जीव हित वा अहित नहीं जान सकता ।
आन दुनियाँ में तमाम बुद्धिमान पुरुष ज्ञानप्राप्ति की हिमायत कर रहे हैं, कारण कि, ज्ञान के द्वारा ही आदमी अपना जीवन-व्यवहार अच्छी तरह चला सकता है और जीवन में प्रगति साध सकता है । परन्तु ज्ञानप्राप्ति यूँही नहीं हो जाती । उसके लिए बड़ा परिश्रम करना पड़ता है । कुछ उन क्ष्टों से घबराकर कहते हैं कि
यथा जड़ेन मर्तव्यं, बुधेनापि तथैव च । उभयोर्मरणं वा, कण्ठशोषं करो। ते कः ॥
— जैसे जड़ मनुष्यों को मरना होता है, वैसे ही विद्वानो, सुशिक्षितों, को भी मरना होता है । जब दोनो को मरना समान है तो शास्त्रो को कण्ठस्थ करने की या अधिक पढने की माथाकूट कौन करे ?
ऐसों को हम मूर्खाधिराज समझते हैं । जिन्होंने परिश्रम किया, कष्ट उठाया और शास्त्रों का भली-भाँति अध्ययन किया, वे ही इस जगत् मे विद्वान बने और बहुतो के उपकारी बन सके। जिन्होने मेहनत से घबरा कर विद्याध्ययन नहीं किया, उनकी गणना अपढ़ या मूर्ख में हुई और उन्होंने कौओं और कुत्तों की तरह मात्र अपना पेट भर कर दिन पूरे किये। ऐसो के जीवन का क्या महत्त्व है ?
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आप अपने बालकों को अच्छी तरह पढ़ाइये और होशियार बनाइये, पर उसके साथ धर्म का ज्ञान भी दीजिये। अगर उनको धर्म का ज्ञान दिया गया होगा, तो ही वे शास्त्रों का मर्म समझ सकेंगे और सर्वज्ञप्रणीत तत्व में श्रद्धान्वित होकर अपना जीवन सफल कर सकेंगे । परन्तु, आज आप जहाँ व्यवहारिक शिक्षण को अत्यन्त महत्त्व दे रहे है, वहाँ धार्मिक