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सम्यक ज्ञान
भवियण चित्त धरो, मन-वच-काय अमायो रे, ज्ञान-भगति करो॥
-इस विश्व की सब वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक हैं। आत्मा भी अनन्तधात्मक है। उसमें दो गुणो की मुख्यता है (१) ज्ञान और (२) दर्शन । इन दो गुणों में भी जान बड़ा है क्योंकि उसके द्वारा सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। इसलिए, हे भव्यजीवो ! मेरी बात पर ध्यान दो और दंभरहित होकर मन-वचन-काय से ज्ञान की उपासना करो।
आत्मा ज्ञान द्वारा पदार्थ को जानता है और उस पर श्रद्धा करता है; इसलिए ज्ञान द्वारा ही दर्शन की अथवा सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है , ये वचन यथार्थ हैं। जिसे ज्ञान नहीं है, उसे कभी सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती।
ज्ञाने चारित्रगुण वधे रे, ज्ञाने उद्योत सहाय । ज्ञाने थिविरपणुं लहे रे, प्राचारज उवमाय ।
भवियण चित्त घरो, मन० मोक्ष की प्राप्ति के लिए चारित्र सबसे निकटवर्ती कारण है। उसके गुण हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि । इनकी वृद्धि जान के कारण ही होती है ! अगर ज्ञान न हो तो चारित्र फीका हो जाये, उसकी सारी शोभा मारी जाये।
कल्पना कीजिये कि, एक आदमी जड़प्राय है । वह यह बिलकुल नहीं जानता कि जीव क्या है ? अजीव क्या है ? पुण्य की प्रवृत्ति क्या है ? पाप की प्रवृत्ति क्या है ? तो क्या वह अहिंसादिक गुणों को अपने जीवन में यथार्थ रीति से उतार सकता है ? 'मैंने अमुक व्रत लिये हैं इसलिए मेरा अमुक कर्तव्य है, उन्हें मुझे इस रीति से पालना चाहिए' आदि विचार जान के अभाव में कैसे आ सकते हैं ? अगर ये विचार ही न आयें, तो वे जीवन में खिलेंगे किस तरह ? ज्ञानियों का यह सर्वमान्य