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आत्मतत्व-विचार
आता है; क्योकि उससे धर्म का प्रभाव विस्तृत होता है और हजारों आत्मा धर्माभिमुख होते हैं।
तीसरा भूषण भक्ति है । भक्ति माने श्री जिनेश्वरदेव की और श्री गुरू महाराज की भक्ति ।
आजकल कितने लोग यह कहनेवाले निकल आये हैं कि, "जैन-धर्म तो त्याग-वैराग्य का उपदेश करनेवाला धर्म है। उसमें भक्ति की बात वैष्णव-सम्प्रदाय अथवा भक्ति मार्गियो से आयी है।" पर, वस्तुतः ऐसी बात करनेवाले कौन हैं ? ऐसे कहनेवालों ने न शास्त्र का अध्ययन किया है और न इतिहास से परिचित हैं। ऐसा मनमाना कुछ कह देना कोई विधान नहीं हुआ ? भला जैनधर्म कब का और वैष्णव धर्म कब का ? वैष्णवधर्म तो वल्लभाचार्य ने चलाया और भक्तिमार्ग भी २ हजार वर्ष से पुराना नहीं है । जैनधर्म तो करोड़ों वर्षों से चला आ रहा है और उसकी नींव में ही सम्यक्त्व अर्थात् श्रद्धा-भक्ति तथा समर्पण का सिद्धान्त है । ६ आवश्यक में दूसरा आवश्यक चतुर्विशति स्तव और तीसरा आवश्यक वंदन है | जिनेश्वरदेव और गुरु-भक्ति का यह स्पष्ट विधान है।
स्मरण, वन्दन, पूजन आदि द्वारा श्री जिनेश्वर देव की भक्ति होती है । पूजन के अनेकविध प्रकार हैं। शास्त्रकार भगवतो ने कहा कि 'भत्ती जिणवराणं खिज्जतीपूचसंचिया कम्मा-श्री जिनेश्वरदेव की भक्ति. करने से पूर्वसंचित कर्मों का क्षय हो जाता है।'
विधि से वन्दन करना, सुखशाता की पृच्छा करना, अगनपानादि चारों प्रकार का आहार बहोराना, औषध-उपाधि-पुस्तक वसति आदि देना गुरुभक्ति है । उसका फल महान् है। धन सार्थवाह ने ताजा घी बहोर कर गुरुभक्ति की तो सम्यक्त्व पाया और कालातर में श्री ऋषभदेव-नामक प्रथम तीर्थकर हुआ । नयसार को भी गुरुभक्ति करते ही सम्यक्त्व की स्पर्शना हुई थी और आगे चलकर तीर्थंकर-पद प्राप्त हुआ था।