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प्रोत्मतत्व-विचार
__ शम यानी शाति, क्रोधादि अनन्तानुबन्धी कधायो का अनुदय ! चाहे जैसे प्रबल कारण उपस्थित हो गये हों, फिर भी क्रोधादि के वश नहीं होना चाहिए । क्षमादि रखना चाहिए, शाति धारण करना चाहिए । यह सम्यक्त्व का पहला लक्षण है। सवेग यानी मोक्ष की अभिलाषा ! शास्त्रकार कहते हैनरविवुहसरसुक्खं, दुक्खंचिय भावो अ मन्नतो। सवेगनो न मुक्खं, मुत्तणं किं पि पन्थह ॥ -~~-सवेगवाला आत्मा राजा और इन्द्रों के सुख को भी अन्तर से दुःख मानता है। वह मोक्ष के अतिरिक्त किसी और चीज की रुचि नहीं रखता । तात्पर्य यह कि, सम्यक्त्वी आत्मा आत्मसुख को ही सच्चा सुख मानता है और पौद्गलिक सुख को दुःख मानता है, कारण कि, उसका अन्तिम परिणाम दुःख है।
निर्वेद यानी भवभ्रमण ! भवभ्रमण में जन्म, जरा, रोग, शोक, मरण आदि अनेक प्रकार के दुःख भरे हुए हैं, लेकिन जब तक उनसे उकताहट न हो, तब तक उनसे छूटने की वृत्ति प्रबल नहीं बन सकती, और जब तक वह वृत्ति प्रबल नहीं बनेगी, तब तक भवभ्रमण को मिटाने के उपायों के लिए हृदय में उत्सुकता नहीं होगी। जैसे कारागार से छूटने की मनोवृति होती है, वैसे ही मनोवृत्ति ससार-कारागार से छूटने की हो जाये, तब समझना चाहिए कि, निर्वेद उत्पन्न हो गया है ।
अनुकम्पा यानी दुखिों के प्रति दया की भावना में आसक्ति, करुणा की भावना | समकिती का हृदय कोमल होता है । वह कोई काम निर्दय होकर नहीं करता।
आस्तिक्य यानी जिन-वचन पर परम विश्वास, ९ तत्त्व में पूरी श्रद्धा, देवगुरुधर्म के प्रति अडिग निष्ठा! यदि इस प्रकार की निष्ठा न हो तो, सम्यक्त्व का सद्भाव भला क्या होगा ?