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सम्यक्त्व
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___ हमने ऊपर जो 'सम्यक् तत्व की अभिरुचि' कहा है, वहाँ तत्त्व शब्द से जीव, अजीव आदि नौ तत्त्व और देव, गुरु, धर्म ये दोनों वस्तुएँ समझनी चाहिए।
नैसर्गिक और आधिगमिक ये सम्यक्त्व के दो प्रकार है । नैसर्गिकसम्यक्त्व स्वाभाविक रीति से होता है और आधिगमिक गुरु के उपदेश आदि निमित्तों से होता है। 'द्रव्य-सम्यक्त्व' और 'भाव-सम्यक्त्व' ऐसे भी उसके दो प्रकार हैं। इनमे श्री जिनेश्वरदेव-कथित तत्त्वों में जीव की सामान्य रुचि 'द्रव्य-सम्यक्त्व' है और वस्तु को जानने के उपाय रूप प्रमाण-नय आदि जीव, अनीव आदि तत्वों को विशुद्ध रूप से जानना 'भाव-सम्यक्त्व' है।
प्रमाण अर्थात् वस्तु का सर्वग्राही बोध; और नय अर्थात् वस्तु का आशिक बोध । 'यह घड़ा है', यह वस्तु का सर्वग्राही बोध है। और यह घड़ा लाल है', 'यह घड़ा सुन्दर है', यह वस्तु का आशिक बोध है। प्रमाण और नय का विषय बहुत गहरा है। उस पर अनेक शास्त्र रचे गये हैं। उसका विवेचन फिर कमी करेंगे।
शास्त्रकारों ने 'निश्चय-सम्यक्त्व' और 'व्यवहार-सम्यक्त्व' ऐसे भी दो प्रकार माने हैं। आत्मा का शुद्ध परिणाम 'निश्चय-सम्यक्त्व' है, और उसमे हेतुभूत ६६ भेदों का ज्ञान प्राप्त करके उनका श्रद्धा और क्रियारूप से यथाशक्य पालन करना 'व्यवहार-सम्यक्त्व' है।
औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ये सम्यक्त्व के तीन प्रकार हैं, जिनका विवेचन पूर्व व्याख्यानों में किया जा चुका है।
कारक, रोचक और दीपक मेद से भी सम्यक्त्व के तीन प्रकार माने नाते हैं। श्रद्धा के कारणभूत जप-तप आदि क्रियाओं का आदर करना कारक-सम्यक्त्व है, शास्त्र का हेतु या उदाहरण जाने बिना भी मात्र रुचि से तत्त्व पर श्रद्धा होना रोचक सम्यक्त्व है, और अपनी श्रद्धा समुचित न