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श्रात्मतत्व-विचार
उत्तर-तो भात्मविकास की भावना खडित हो जायेगी और भवभ्रमण करते रहना पड़ेगा।
प्रश्न-कुछ लोग पुण्य पाप को स्वतत्र तत्व नहीं मानते ?
उत्तर-जो पुण्य-पाप को स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानते, वे उनका समावेश आश्रव में करते है | शुभ कर्म का आश्रव पुण्य है; अशुभ कर्म का आश्रव पाप है-अर्थात् वे किसी तत्त्व को मूल से नहीं उड़ाते। जो नौ तत्त्वों में से किसी को मूल से उड़ाते हैं, उनका अनन्त भव-भ्रमण चालू ही रहता है। जैसे कोई जीव को माने पर बन्ध-मोक्ष को न माने, तो उन्हें किसी प्रकार के धर्म का आचरण करना रहा ही कहाँ ? जहाँ आत्मा को किसी प्रकार का कर्मबन्ध नहीं होता, वहाँ उसके छुटकारे के लिए प्रयत्न किसलिए करना ? इस विचार से चे धर्माचरण में शिथिल बल्कि विमुख हो जाते हैं।
परमार्थजातृसेवन अर्थात् जीवाजीवादि तत्त्वों के जानकार, संवेग रंग में रंगे हुए, शुद्ध धर्म के उपदेशक गीतार्थ मुनियों की सेवा करना । गीत अर्थात् सूत्र और उसका अर्थ अर्थात् भाव या रहस्य को ठीकठीक जानना गीतार्थ है। गीतार्थ महापुरुषों में 'शास्त्रज्ञान के साथ सवेग, निर्वेद आदि गुण भी उत्कृष्ट भाव से खिले होते है और वे श्री जिनेश्वरदेव-कथित शुद्ध धर्म का उपदेश करते हैं। उनकी सेवा, आराधना, उपासना करने से जीवाजीवादि तत्त्वों का यथार्थ बोध होता है और उनमें श्रद्धा उत्पन्न होती है और क्रमशः बढ़ती रहती है। तत्त्व के विषय में कोई शंका पैदा हो, तो ऐसे गीतार्थ महापुरुष उसका अच्छा समाधान - करते हैं और उससे श्रद्धा-सम्यक्त्व-निर्मल रहती है। इसलिए, हर मुमुक्षु को चाहिए कि, परमार्थ के ज्ञाता गीतार्थ महापुरुषों की यथासभव सेवा किया करे।
'नो सद्गुरु की सेवा नहीं करते, उन्हे अध्यात्मज्ञान प्राप्त नहीं