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सम्यक्त्व
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"धनपाल | सब पडित शिव को नमस्कार कर रहे है, तुम कैसे चुप खडे हो ?" तव धनपाल ने निस्संकोच कहा
जिनेन्द्रचन्द्रप्राणिपातलालसं,
मया शिरोऽन्यस्य न नाम नम्यते । गजेन्द्रगल्लस्थलदान लालसं,
शुनीमुखे नालिकुलं निलीयते ॥ -हे राजन् ! जिनेन्द्र-रूपी चन्द्र को नमस्कार करने के लिए तड़पते हुए अपने सर को मैं किसी और के सामने नहीं झुकाता । मदोन्मत्त हाथी के गडस्थल से झरता हुआ मद पीने के लिए उत्सुक भौंरो का समूह क्या कभी कुत्ते के मुख से निकलती हुई लार पर लीन होता है ?
यह जवाब राजा को बड़ा बुरा लगा; पर महाकवि ने उसकी परवा नकी। समकितधारी आत्मा कैसा दृढ होता है, यह इससे समझा जा सकता है।
पाँच प्रकार के दुषण शास्त्रकार भगवतों ने कहा है कि
शंका-कांक्षा-विचिकित्सा-मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् । तत्संस्तवश्व पश्चापि, सम्यक्त्वं दूषयन्त्यमी॥
-शका, काक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि-प्रशंसा और मिथ्यादृष्टिसस्तव-ये पाँच सम्यक्त्व को दूषित करते हैं ।
वदित्त सूत्र की छठी गाथा मे शंका कंखा विगिच्छा पद से शुरू होनेवाली गाथा में इन पाँच वस्तुओं को अतिचार कहा गया है । अतिचार से व्रत मलिन होता है, व्रत में दूषण लगता है, अतिचार और दूषण एक ही वस्तु हैं।