________________
६५२
आत्मतत्य-विचार
श्रुत का विनय अर्थात् सामायिक से लेकर विन्दुसार पर्यन्त जिनागम का विनय ! धर्म का विनय यानी देशविरति और सर्वविरति-रूप चारित्र का विनय ! साधु का विनय अर्थात् सर्वविरति को धारण करनेवाले सत्ताईस गुणयुक्त महापुरुषों का विनय । आचार्य का विनय अर्थात् आचार पालनेवाले और पलवानेवाले विशिष्ट पद से विभूषित धर्माचार्य का विनय । उपाध्याय का विनय यानी साधुओ को श्रुन का अध्ययन करानेवाले तथा क्रिया-मार्ग की शिक्षा देनेवाले विशिष्ट पद से विभूषित उपाध्याय का विनय ! प्रवचन का विनय यानी श्रमण-प्रधान चतुर्विध संघ का विनय
और दर्शन का विनय यानी क्षायिक, क्षायोपामिक और औपशमिक इन तीन प्रकार के सम्यक्त्व का विनय !
तीन प्रकार की शुद्धि
सम्यक्त्व को निर्मल रखने के लिए दस प्रकार के विनय के उपरांत तीन प्रकार की शुद्धि है । जिनमत के अतिरिक्त दूसरों को असार मानना मनःशुद्धि है। जिनागमों मे जीवाजीवादि तत्वों का जो स्वरूप जिस रीति से दर्शाया है, उससे विपरीत नहीं बोलना वचनशुद्धि है। और, खड्ग
आदि से छेदे जाने पर भी या बन्धन से पीड़ित किये जाने पर भी श्री - जिनेश्वरदेव के सिवाय अन्य किसी को नमस्कार नहीं करना काय
शुद्धि है।
महाकवि धनपाल पहले ब्राह्मणधर्मी थे, पर बाद में जिनेश्वर-कथित मार्ग में स्थिर हुए और दृढ समकिती बने | एक बार भोजराज राना अन्य पडितों के साथ उन्हें भी अपने साथ शिकार खेलने ले गया। रास्ते मे एक शिवालय आया । राजा ने उसमें प्रवेश किया । सब पडित शिव की स्तुति करके नमस्कार करने लगे, पर महाकवि धनपाल शात खड़े रहे । उन्होंने अपना मस्तक गिव को नहीं नमाया। यह देखकर राजा ने कहा :