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आत्मतत्व-विचार
सम्यक्त्व का अर्थ सम्यक्पना, अच्छाई या सुन्दरता है। पर, यह सुन्दरता क्सिकी ? आत्मा की-पुद्गलकी नहीं। जब तक यात्मा मिथ्यात्वयुक्त रहती है, तब तक उसमे सम्यक पना, अच्छाई या सुन्दरता नहीं आती%3; वह तो मिथ्यात्व का मलिन भाव दूर होने पर ही आती है । तात्पर्य यह है कि, सम्यक्त्व आत्मा का शुद्ध परिणाम है; आत्मा का सौन्दर्य है।
सम्यक्त्व के प्रकार शात्रकार भगवत कहते हैं'एगविहं दुविहं तिविहं, चउहा पंचविहं दसविहं सम्म'
- सम्यक्त्व एक, टो, तीन, चार, पाँच और दस प्रकार का है। अम इस कथन को स्पष्ट करके समझाते हैं । ___ सम्यक् तत्त्व की रुचि यानी जिन-कथिक तत्त्वों में यथार्थपने की बुद्धि-यह सम्यक्त्व का एक प्रकार है । कहा है कि
जीवाइ नवपयत्ये, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत् ।
भावेण सदहंतो, अयाणमाणे वि सम्मत् ।। -~-जीव, मनीव आदि नौ पदार्थों को जो यथार्थ रूप से नानता है, उसे सम्यक्त्व होता है। लेकिन, अगर मंद बुद्धि के कारण अथवा छद्मस्य होने के कारण जो उन्हें नहीं समझता; परन्तु श्रद्धा से जिनवाणी को सत्य मानता है उसे भी सम्यक्त्व होता है !
शाखों में ऐसा भी कहा है किअरिहं देवो गुरुणा, सुसाहुणो जिणमयं पमाणं च । इच्चाइ सुहो भावो, सम्मतं विति जगगुरुणो।। -~अरिदन्त देव है, मुसाधु गुरु है और जिनमत प्रामाणिक तथा सत्य धर्म है-ऐसा निस आत्मा का शुद्ध परिणाम है, उमे श्री जिनेश्वर-देव सम्यक्त्व करते हैं।