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सम्यक्त्व
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अर्हदेवक्त्र प्रसूत गणधररचितं द्वादशांगं विशालं, चित्रं वह्नर्थयुक्तं मुनिगण वृषभैर्धारितं वुद्धिमद्भिः । मोक्षाग्रद्वारेभूतं व्रत-चरण- फलं ज्ञेय-भाव-प्रदीपं, भक्तया नित्यं प्रपद्ये श्रुतमहमखिलं सर्वलोकैकसारम् ॥
- श्री जिनेश्वर देव के मुख से अर्थ रूप से प्रकटे हुए और गणधरों द्वारा सूत्र रूप से गूँथे हुए, बारह अगवाले, विस्तीर्ण अद्भुत् रचनाशैलीवाले, बहुत-से अर्थों से युक्त, बुद्धिनिधान श्रेष्ठ मुनियों द्वारा धारण किये गये, मोक्ष द्वार समान, व्रत और चारित्र रूपी फलवाले, जानने योग्य पदार्थों को प्रकाशित करने में दीपक के समान और सकल विश्व मे अद्वितीय सारभूत ऐसे समस्त श्रुत का मैं भक्तिपूर्वक अहर्निश आश्रय लेता हूँ ।
इससे आप भलीभाँति समझ सकते हैं कि द्वादशागी कैसी है । इसके उपरात जैन श्रुत में श्री भद्रबाहु स्वामी आदि चतुर्दशपूर्वधरादि वृद्व आचार्यों द्वारा रचे हुए अन्य सूत्र भी हैं। वे अनगप्रविष्ट कहलाते हैं ।
( ५ ) बीज - रुचि - जैसे एक बीज बोने से अनेक बीज उत्पन्न होते है, वैसे ही एक पद, एक हेतु या एक दृष्टान्त सुनकर बहुत से पर्दो, बहुत सेहेतुओं और बहुत-से दृष्टान्तों पर श्रद्धावान् होना बीज-रुचि है ।
(६) अभिगम - रुचि - शास्त्रों का विस्तृत बोध कराकर तत्त्व पर रुचि होना अभिगम रुचि है ।
(७) विस्तार - रुचि - ६ द्रव्यों को प्रमाण और नयों द्वारा जानना अर्थात् विस्तार से बोध पाकर तत्त्व पर रुचि होना विस्तार - रुचि है |
( ८ ) क्रिया - रुचि - अनुष्ठानों में कुशल होना तथा क्रिया करने में रुचि होना क्रिया- रुचि है |
( ९ ) संक्षेप रुचि कम सुनकर भी तत्त्व पर रुचि का होना
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