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आत्मसुखी .... सण्डी घूमे, आनन्ट नही पा सकती ? आनन्दधन हान्द आनन्द के घन का, समूह का, सूचन करता है । अर्थात् आत्मा आनन्द का भाडार है, आनन्द का धाम है, आनन्द का अकल्पनीय उद्गम स्थान है।
आत्मा का सुख चाहे जितना भोगे, फिर भी दुःख नहीं देता बल्कि अधिकाधिक मधुर लगता है। आत्मा का मुख तो चक्रवर्ती के भोजन से भी मीठा है । कहे--'वह पागल हो गया, जिमने यह मोहनभोग चखा है !
चक्रवर्ती का भोजन ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बनने से पहले, बड़ी कुढगी हालत में फिरता था। एक बार उमे एक गाँव से दूसरे गॉव जाते हुए एक ब्राह्मण से भेट हुई। उन दोनों ने तीन दिन जगल में यात्रा की । अलग होते समय ब्रह्मदत्त ने ब्राह्मण से कहा--"मै भविष्य मे चक्रवर्ती बनने वाला हूँ। उस समय मुझसे जरूर मिलना।"
कालक्रम से ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हुआ । ब्राह्मण को समाचार मिला । वह मिलने आया । ब्रह्मदत्त ने उसका खूब स्नेहपूर्ण सत्कार किया और जो चाहे सो मांगने के लिए कहा। इससे ब्राह्मण उलझन में पड़ गया । सोच न सका कि, क्या माँगा जाये ? उसने ब्रहादत्त से कहा-"अपनी पत्नी से पूछ आऊँ, तब मांगना होगा सो मॉगूगा!" ब्रह्मदत्त ने स्वीकार कर लिया ।
ब्राह्मण ने घर आकर पत्नी से सारी बात कही । उसकी पत्नी चतुर थी। वह विचार करने लगी-'अगर इसे राज्य मॉगने के लिए कहती हूँ तो यह बहुत-सी रानियाँ करेगा और मुझे भूल जायेगा, अगर इसे अतुल धन मॉगने के लिए कहती हूँ तो उसकी व्यवस्था में मुझे याद नहीं करेगा, इसलिए ऐसा मार्ग सुझाना चाहिये कि, 'सॉप मरे न लाठी टूटे।' उसने पति से कहा--"आप यह मॉगना कि चक्रवर्ती के घर से लगाकर