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कर्मवन्ध
करते है। पर, बात एक ही है । पुण्य कमों को भी कहते है, पाप कर्मों को कृष्ण और अकुशल वास्तविक रूप मे इनमें कोई अन्तर नहीं है ।
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शुक्ल और कुशल कर्म कर्म भी कहा गया है ।
यह तो सर्वमान्य सिद्धान्त है ही कि अच्छे काम का फल अच्छा होता है, बुरे काम का फल बुरा होता है । जो जैसा बोयेगा वैसा काटेगा |
किसी ने आम बोया हो और नोम उगी हो अथवा नीम बोयी हो और आम उगा हो, तो कह दे ! एक अपढ व्यक्ति से भी पूछो तो कह देगा जो बोया जायेगा, वही काटा जायेगा। गेहूं बोने पर गेहूं काटने को मिलेगा, बाजरी बोने पर बाजरी काटने को मिलेगी । इसमे कोई अतर नहीं आने वाला है। पर, आश्चर्य तथा खेद की बात यह है कि यह सीधीसाधी बात भी बहुतो के गले नहीं उतरती । वास्तव मे वे पाप-पुण्य की विचारणा ही नहीं करते और इच्छानुसार जीवन व्यतीत करके मनुष्य भव पूरा कर रहे है। ऐसे व्यक्ति किस गति में जाने वाले हैं ? यह बात आप अपने हृदय में निश्चित रखें कि ऐसे व्यक्ति का अन्त और जब उसे अनुभव होता है कि अब जाना ही पड़ेगा तब उसकी हायतोत्रा की कोई सीमा नहीं रहती । उनको आँखो से बेर के बराबर आकार के आँसू टपकते हैं । वे विचारते है - "हमने कुछ पुण्य किया होता तो अच्छा होता ।" किन्तु, चिड़िया के खेत चुंग जाने के बाद विचार किस काम का ?
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बडा करुण होता है
कुछ समय पहले, भारत के प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था- "धर्म के बारे में मेरी जानकारी गहरी नहीं है, लेकिन 'अच्छे काम का नतीजा अच्छा होता है, बुरे काम का बुरा -इसमें मुझे नरा भी शक नहीं है ।" इन शब्दो को उन्होने बड़े अनुभव के बाद कहा है। अतः शुभाशुभ कर्म के शुभाशुभ फल मे किंचित् मात्र शका नहीं रखनी चाहिए ।